Brihad Anuvad Chandrika 8120821157, 9788120821156

Brihad-Anuvad-Chandrika: Anuvad-Vyakaran-Nibandhadivishay-Sanvalita...
Author: C
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ञाः

पाठशाला-विश्वविद्यालयोपयोगिनी बहदू

अनुवाद-चन्द्रिका ( अनुवाद-व्यासरण-निवन्यादिविपयतंवेलिता ) गठदेशवास्तव्य-न्ोटियालोपाइ-भ्ीचक्घर हंस” शाद्धिणा अ्यागविश्वडिद्यालयीय-सस्झृत-ए्म० ए०, लखनऊ-विश्वविद्यालयीयइतिहास एम० ००, एल० टी० विस्दूभाजा विरचिता

साच पुस्तका -्यक्षेः

मोतीलाल-बनारसोदास-महोदयेः दिल्‍ली-पटना-वाराणसीस्पेः अकाशिता

श्ष्द्टर

भ्र्

[ मूल्यम्‌ १०)

मम मुद्रक-

व्लवी

सुन्दरला मोठीलाल

धसाद महादेव क््प्रे ४ दीपक प्रेस

दाम

१०२७२ नदेसर, वाराण

जैपाली खपरा, बाराणसी ।

( सर्वाधिकार सुरक्षित )

मर्चप्रकार छी पुस्तकों के मिलने का पता--

मोतीलाल वनारपसीदास १. बंगनोरोड, जवाइरनगर, पो० या० १९८६ दिल्ली २. नेपालीखपरा, पो० वा० ७५, वाराससी ३. बॉडकीपुर, पटना

(ख) भी जीवित भाषा है, फिर भी पाथाल दासठा का हम पर इतना प्रभाव है फ्रिहम #हड्लिश, जमन, फ्रेंच और छठी आदि भाषाओ्रों मेअपनायी गयी पद्धति को” ही वैशनिक पद्धति उुममते हेंऔर इन्हीं भाषाओं का न्यम लेकर अपनी रचना को विशेषता था महर्व दिखलाने का प्रयास करते हैं । यह कितनी विडम्बना है फि पाश्ात्य विद्वान हमारी रास्कृत शिक्षा-पद्धति की प्श्ठा करें झौर हम निःखर

पाश्चाल वैज्ञानिक पद्धति का ढोल पीकर अपनी कृति का प्रचार करें |

ससकृव भाषा में व्याकरण का जितना सह्म और विस्तृत श्रव्ययन है उतना झुसार की किसी मी मात्रा में नहीं है। हैसा से ८०० वे पर्व यारक मुनिनेसबव-

अथम शब्द निरक्ति सम्बन्धीमहत्वपूर्ण अन्यनिरुक का लिर्माण क्या,। उन्होंने जी इंबंप्रयम बम, आएगव, उपयर्ग और निपात नाम से शब्दों का चतुविध दिभाजम स्थापित किया। उसी के आभार पर महप्रि पाणिनि ने अपनी अनूठी युस्वक आअध्टष्यादी का निर्माण किया | ---+ लगभग ५०० वर्ष ईसा-पूर्व महर्षि पाणिनि ने अतीव सुध्ढ़, मुतयत तथा

खहुलावद व्याकरण की रचना की। उसकी जैडीवैश्ानिक एवं परिष्रंण शैली

दी टकर कीपुक्षक समर कीकिसी सापा में उपलब्ध नहीं है। पाणिनि की पशश्यायों में ४००० सूत्र हैं. और वे आठ अ्रष्यायों मेविभाजित हैं, प्रत्येक अध्याय में चार धाद हैं! शणिनि ने अपने व्याकरण को अत्यन्त सच्चेप मे रखा दे । इसका कारण सम्भबवः लेखन-सामग्री काअभाव या कठाग्र केस्ना रहा हो | समस्त शब्दजाल को सद्चित करने के लिए भहर्पि पाणिनि ने छुः साधन अपनाये हँ--( १ ), ग्रत्याहर, (२) अनुबनन्ध, (३,) गणपाठ, (४) सशाएँ--घ, दि, छुक्‌' ,पय्‌

रह, घुआदि। (५) अनुइसि,

(६) अतिद्ध € किसी विशेष नियम के सामने

4 नियम को हुआ न मानना-न्पूवत्रासिदम्‌ । )

है

227 हंस्वृत-न्याकरण केसमुचित शानकेलिए हम यहाँ पर कुछ उपयोगी पारि-

झापिक शब्ददेरहेहै।.

5०]

(१) प्रत्याह्यर (संक्षिप्त कथत)---इनका आधार ये औदह माहेश्वर वृत्न हैं-अइश्उ्य,ऋलू कू,एओड्‌,ऐश्नौचू, हदववरट्‌,लख्‌,जमडइश नवेम,कभममू,

घढथप्‌,

जबगडइदश,

सखफलुंदथचटत ब्‌,

कपय्‌ ,शघसर,हल। अक ,इक ,श्रच ,इल्‌ आदि ग्त्याहार हें। उदाइरणाय--अइउश' से अः को लेकर और ऋलृक से इत्तहक 'कर को लेकर अर (अ इउ आ लू) प्रत्याह्र रबवा है, इसी प्रकार रूश्‌५ प्रत्याहार से मंकारादि (फर्म घ दे घजबगड दब) /० बसों का बोध होता है । जाडृ

जे(९) अनुवन्ध >अलगो केआदि था अन्त में छुछ खबर या व्यक्ञन इस कारण

किशिए है कि ऐले प्रतयय के होने पर गुण, इंडि, आम, आदेश आदि कोई पपपका का है। जा, ऐसे दणणे कीअनुवन्ध कहते हें | उदाइस्णार्य--ल्ी पयय

सूमिका अनुवाद-चम्द्रिका को विद्वसमाज ने जो आदर एंव सम्मान म्दान कि

| यह हमारे लिए कितने गौरव उससे ध्मारे उत्साह का बढ़ना स्वाभाविक ही देवाला ई के द्वादश संस्करण एक बष बात हैकि अनुवाद-ब्द्रिका का ४००० मरतियों कम समय में समात्त हो गया और इसे अगले संस्करण को निकालने के लिए

प्रोत्साइन

मिला । हमारी पुस्तक में क्या विशेषता है, इसके पारखी सद्दद्य पठक एबं पाठक

हैं,जिन्होंने इसे यह सम्मान प्रदान किया। अब अपने नवीन कलेबर में यह पुस्तक शी दी उनके समच प्रस्तुत हो जायगी | इस पुस्तक के प्रचार एवं म्सार की थे

स्वनाम-धन्य लाला मुन्दरलालमी जैन को है, जिनको सतत प्रेरणा द्वारा पुस्तक

के विशेष उपयोगी बनने मे इमे सद्बायता मिली ह। कई वर्षो से लालाजी का श्रापनह था कि हम इस पुस्तक का एक बृहत्‌संस्करण निकालें, जिसमें सविस्तर सस्झत व्याकरण, उच्धस्तर के अनुवाद एवं नियन्‍्धों का समावेश हो तथा जो उच शिक्षाधिंयों की ग्रावश्यंकताओं की पूर्णिकर सके। निदान परित्थितियों फे श्रतुकृ न होते हुए भी हमने लालाजी के श्राप्रह को आदेश समझा और प्रस्तुत पुस्तक का मिर्माए कर डाला। इस पुस्तक के लिखने के ध्येय में हम कहाँ तक उफल दुए हैं, इसका निर्शय भी इमारे वि पठक-भाठक ही करेंगे, जिन्हें इम पुस्तक के गुणावगुण का सर्वोत्तम पारखती समभते हैं। वर्तुतः पुस्तक के लेखक को श्रपन प्रशता करने अथवा करवाने का श्रपिकार हैही नहीं, क्योंकि पुस्तक के गुणावगुर का सदा पारी छात्रवृन्द ही होता है। आजकल फे विद्वान्‌ लेखक श्रपनी प्रशंता के पुल बाँधते हुए नहीं हिच किचाते। थे श्रपनी प्रशंसा एवं श्रपनी कृति केगुण बखान करते हुए लिखते

हैं--/पुस्तऊ लिखने का उद्देश्य .श्रन॒ुवाद के द्वारा सम्पूर्ण व्याकरण छिपाना | ६ मास में प्रौद़ उस्कृत लिखने श्रौर बोलने का श्रम्यास कराना....इत्मादि ।! ऐसी बातें लिखकर हम विद्व॑त्समाज में श्रपना उपहास कराना नहीं चाहते। सरसहे ब्याकरण जैसे दुरूद और गहन विषय के सम्बस्ध में इस प्रकार की गर्षोक्ति समभने ईंकि लेसक की विद्वत्ता की परिचायिका नहीं है। राष्ट्र केसम्मान्य व्वत्तिः से भ्रपनी प्रशंसा करवाना श्रयवा अ्रपनी पुस्तक मेंविशिष्ट व्यक्तियों के चित्र द्वाप+ लगाना तथा अपनी पुस्तक उन्हें समर्पित करना भी हम्म उचित नहीं समझते, क्ये; जिंस पुस्तक में समुचित ज्ञान का श्रमाव होता है था जिसमें नैसर्गिक ग्रह्म गु की कर्मी रहती है,लेखक इस प्रकार बाह्य श्ाइम्वर द्वारा उसी पुस्तक के ग्रचएे लिए, रतन प्रयत्तनशौल रहता है । .

. फोन मी जानता कि सद्धत व्याकरण की अबूड़ी पढ़ति की पाश्चाल्य विद

ने भूरिलशूरि प्रशंसा को हैऔर निःसम्देह उठी पद्धति को अपनाने से सस्कृत गा

(ग) के विधान के लिए एक सूत्र है “पिद्गौरादिम्यश्र”। इस सूत्र केअनुसार

प्रत्यर्यों मेंप्‌ इत गेता है, उन प्रत्ययों वाले शब्दों में स्री प्रत्यय द्योतनार्थ “5

प्रत्यय लगता दे, जैसे रजक (रप्न +ष्वुन्‌) में प्वुन्‌ प्रत्यय आया है, अतः < डीप जुड़कर 'रजकी” बनता है। इसी प्रकार 'क्तवत॒' प्रत्यय मेंक्‌ भ्ौर उ,७ मेश और ऋ । क्तवतु' को कित्‌ एवं 'शत्! को शित्‌ कहेंगे | (३) गशुपाठ--जब अनेऊ शब्दों मे एक ही प्रत्यय लगाना होता है तब « का एक गण बना दिया जाता है और आदि शब्द को लेकर एक सूत्र स्व जाता है, जैसे--“मर्गादिभ्यो यज” अर्थात्‌ गग शब्द से आरम्म होनेवाले गण भे , प्रत्यय लगता है। गगादिगणमें १०२ शब्द आये हैं | ये समस्त शब्द सूत्र

नहीं गिनाये गये और गर्गादि कहकर काम चलाया गया। करन: 2 जाएँ एवं परिभाषाएं. ्रटेए 79 (४) संज्ञाएँ एवं परिभाषाएँ-(१) गुण -(अदेडगुण) श्र, ए,औओो, गुण कहलाते हैं। --

($) वृद्धि-(बृद्धिरादैचू )था, है]ओर को दृद्धि कहते हैं। (३) उपधा--(अ्रलून्त्यात्‌ पर, उपधा) अन्तिम वर्ण केटीए >ल आने व चुख को उपकाकहतेहैं। ४

५0 सम्प्रसारण-(इग्यूशः रुख्यसारणम्‌ ) य, व, र,ल,के स्थान पर इ, ऋ, लू का हो जाना सुम्पसारण कहलाता है। (७) दि- (अचोन्त्यादिटि)क़िसी भी शब्द के अन्तिम स्वर से लेकर. तक का अश्ञर समुदाय टि कहलाता दे, जैसे--“मनस” में अस तथा #एशसू

में अस्‌ दि हैं । (६) प्रातिपदिक--(अर्थवदधातुरप्रत्ययः

प्रातिपदिकम) धाठु और प्रत्यय3

अतिरिक्त जो कोई भी शब्दश्रथयुक्त होवह प्रातिपदिक कहलाता है | झदन्त,; (द्विदान्त, और सुमास पदों को प्रातिपदिक कहते हैं; जैसे--राम शब्द व्यक्तिवे 'डूसे से अथंवान्‌ है आर न यह घाठु है और न प्रत्यय | इसलिये यह प्रातिपदिक। का जायगा। “रथ! शब्द में अण्‌ प्त्यय लगाकर राघव शब्द बना, यह भी तिपदिक है।

8४६९

(9) पद - (मुप्तिडन्तं पदम्‌ ) सुप और तिड प्रत्यय लगने से पद बनता है। प्रातिः के में लगने बोले ्रत्ययोंकास॒पतथा घाठे मेलगने वाले प्रत्ययों कोतिड,

) हैं, जैसे--राम में सु प्रत्यय लगने से 'राम? बना यद्द पद हुआ

इसी प्रकार

| में ति, तस्‌ इत्यादि तिड प्रत्यय लगने से पठति, पठतः इत्यादि क्रिया-

9 सवनामस्थान--(सुडनपुंसकस्य) पुँल्लिद्ञ, और ख्रीलिह्न शब्दों केआगे हे लुद्द-छ, औ, जसू ,अम्‌ तथाऔर विभत्ति-अत्यय स्वनामस्थान |]

(घर) (६) पद-स्वादिष्वसवनामस्थानें) मु सेलेकर सुप्‌ तकके गरत्ययों मेंसवनाम थान क्षो छोड़कर श्रत्य प्रत्मयों के श्रागे जुटे पर पूर्वशब्द की पद संशा होती है। (१०) भ--(यचिमम्‌ )पूदरंश ग्रा्त करनेवाले उपर्युक्त प्रत्ययों मेंयकार

ता से श्रारम्भ होने वाले प्रत्ययों के आगे छुटने पर पूर्वशब्द की मे संशा गेती

है।

(()) घु--( दाषा प्वदाए्‌) दा और था धाठु को घु कहते हैंदाप्‌कोनहीं।

(३) घ-- तसमपी घः )तरप्‌ औरतसप्‌अत्ययोंका सामान्य नाम प है। (१३) विभाषा--न वेति विभाषा) जहाँ पर होने या न होने की रुग्माषना हती है,वहाँ पर विभाषा (विकल्प) है,ऐसा कहा जाता है। (१४) निप्वा-(साक्तवत्‌ नि) क और क्तवदु प्रत्योयों का नाम निशा है) () संयोग- हलौ5नन्तयः संयोगः ) खर्तों से श्रव्यनहवित होकर हत्‌समुक्त-

करे जाते हैं, जैसे भव्य शब्द में व्‌ और यूकेबीच में क्रोई स्वर नहीं आया है, इसलिए ये संयुक्त वर्श कहे जायेंगे ।इसी प्रकार कब्न श्रादि में ।

(१६) संहिता--( पक उत्रिकरेः संददिता )बर्ओों की श्रत्यनत समीपता ही मंहित्रा कह्दी जाती है |

(१७) प्रगृद्द--(ईंदूदेद्‌द्िक्वस प्रश्द्मम)ईकाराम्त, ऊकारान्त,एकारौन्‍्त द्विवचन पद प्रशश् कहलाते हैं|

(३८) सावधाहुक प्त्यय-न विद शित्‌ सादाठुकर )धाहश्रों के पा

जुड़ने बाले प्रतवयों मैं तिड प्र्यय एवं वेप्रथय जिनमें श्‌ हत्संशक हो जाता है

रावंधाठुककहलातेईँ,मैसे--(श) सावंधातुक प्रयय पहलाहा है।

११) भार्भातुक प्रत्यय - (आष॑घातुक शेप) धातुओं ५ कमासाय॑घातुक फे अतिरिक्त प्रत्यय श्राधपातुक22035।मैं छाे वाले शेप

पा038 2000 ) पक शान॑च्‌कानाम सत्‌ है। झअनुतासिक

--(मुखतासिकादवनो5नुनासिकः

गो

सुस्तश्रनाविका दोनों से होता हैउन्हें शनुनासिक कक ऐँ, हैं,इत्यादि | के” अझनुनासिक शा द्वार प्रकट किया जाता है|वर्गोंहि

सादर टू, घू, ण्‌,



रह्यवा लीज्ञात हैा प्रश्रनुद्ाशिक् देय | क्योंकि इनमे भी नाउका र

*. (६२ सवण- बल्यास्प्रयत्॑ सरणंश ) जब दो गा उनसे श्विक

क्यू वाह्मादि ) और आन्यत्तर प्रय् है

के उचधारण स्पान (मुगविवर/00 मे आपको 30042

(3) धलवृतति-ग_ों केविस्तार

को श्रपिक मे श्रविफ व्यभित |]है लिये ध्नुदृद्ि पथियी प्रणाली: ने दर तो फोई बर्थ नहीं होठ, लेडिन पत्तों खग्ला के पलेकपुर ग्य

तो कोड



| वाणिति नेइ्धदे रह बबादे है, लि

( छ) सोने पर उनका अर्थ निकलता है। ऐसे दूत अधिकार यत कहे जाते हैं। « अनुक्ृत्ति का क्षेत्र दद्व तक बना रहता है जय तक कोई दूसरा अधिकार सूत्र नहीं जाता | जैसे--“तस्य विकार-”?, “तस्पापत्यम” “अनमिहिते” झादि यूत्ध हैं।

7६७) उद्ात्त--( उच्चैरदात्तः )जो स्वर उच्च ध्वनि से वोला जाता है, छदात्त कहते हैं।

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(३०) अलुदात्त--( नौचैरन॒दात्त. )जो स्वर नीची ध्यनि से बोला जाता “उसे अनुदाच स्वर कहते हें-३----7 (२६) स्थस्ति--( समाहारः स्व॒रितः ) उदात्त अनुदात्त के बीच की ध्वनि

स्वरित कहते हैं। ज+े ४+>+ ४४ (२७) अध्याहार-( उज्ने अश्रूममारत्वे सति अग्रप्नत्यायरत्वम्‌ ) सत्र मे शब्द या अर्थ नहीं हे और वह शब्दया श्र ग्रहण जिया जाता है तो अध्याहार कहते हैं। (२८) अन्वादेश-( फिचित्‌ कार्य विधातमुपात्तस्य कार्योन्‍्तर विधातु पुनरुष “दानमन्वादेशः ) एवॉक्त व्यक्ति आदि के पुनः किसी काम के लिए उल्लेख करने अन्वादेश कहते हैं,यथा--अनेन व्याजरणमधघीतम्‌ , एम छुन्दोड्ध्यापय ।

(२५) आख्यात - ( नामास्यातोपसर्गनिपाताश्र )धातु और क्रिया को. फद्ते हे।

(३०) आगम - शब्द या धाठु के बीच मे जो वर्ण या श्रच्चर शुड़ जाते है« आगम कहते हैं। नि (३९) अपवाद--( विशेष नियम ) यह नियम सामान्य नियम का बा

होता है।

*

(३-०) अपक्त--( अषक्त एफ़ाल्‌ प्रत्ययः ) एक अल-( स्वर या व्यज

मात्र शेप प्रथय अक्त कहलाता है | जैंसे--सु का स्‌ , ति का त्‌ >उसिकास्‌

(३३) उणादि-(उणादगो बहुलम) धातुओं से उण्‌आदि प्रत्यय होते

'उण ग्रत्यय के ही कारण उणादि गण कहलाता है।

(३४) उपपद्‌ विभक्ति-फ़िसी पद या शब्द को मानकर जो विभक्ति होत उसे उ. वि रहते हैं, जैसे--/ओगसेशाय नम.” मे नमः के कारण चत॒र्थों बम हाती है।



(80) करे, णहपलत्तीत-( कारेप्प्परीपा- ५ आल, प्रहि,, सप फरशतिपिसा॑

बुछ अर्थों मेकर्म प्रवचनीय होते हें। इनके साथ द्वितीया आदि विशभरि ५

होती हैं। | कृदृन्त--जिन शब्दों के अन्त मे कृत्‌ प्रत्यय लगे होते हैं, उन्हे ृृ

]

(३७) गण--बावग्रों को१० भागों मे बाँठा गया है, उन्हें गए कहे स्व्रादि गए, शअदादि गण आदिा।

६ बेड (३८) निपात (बादयोउसत्त्वे, स्वरादि निषातमव्ययम्‌ )चे, वा, ह ग्रादि को

आपात कहते हैं,सभी निपात अच्यय या अविकारी होते हैं।

(३९) आत्मनेपए--( तद्ानावात्मने पदम्‌ ) तड्‌ (से, एठे, अन्ते आदि )

प्रानच्, कानच्‌,ये आ्रत्मनेपद हीते हैं।

(३०) परसैपद्‌- (लः परस्मी पदम ) लकारों के स्थान पर होने चाले वि:

। श्रन्‍्ति आदि ग्लयों को परस्मैपद कहते हैं|

हु

(४१) झुनिश्चय--पाणिति, कात्यायन, पतड्जलि को मुनित्रय कहते हैं| मतमेद नेपर थाद वाले मुनि का मत प्रामाशिक समा जाता हैं।.

|

है

/ (४२) चौगिक-बे शब्द हैं जिनमें प्रकृति और प्रध्य का अर्भ निक्षता है, वै--पाचकः ( पच्‌+अ्रकः ) पकाने वाला ।



(४१) चीप्सा--दो बार पदने ( द्िरक्ति )को वीष्सा कहते हैं, जैसे--स्मार ड्रारम, स्मृत्वा-स्मृत्वा |

हर



६ (४९) समानाधिकरण--एक आधार को समानाधिकरश कहते (आ] । (३५) रपर्श--( कादयो मादसानाः स्पर्शा: ) के से लेकर मे तक वर्यों की मे कहतेहैं। ये२५ वर्णहैं| कक (४६) विकहुप--ऐच्छिक नियम धिकल्स कहलाते ६ै। ४ द (४७) बातिक--काल्यायन तथा पतञ्जलि द्वारा बनाये गये व्याकरण के नियमों

बार्तिक कहते हैं। ते ि (४८ वृत्ति--( परर्थामिषान दृतिः ) प्ों की व्यास्था शरत्ति कहलाती है। रत,समास, कत्‌, एकशेप, सन्‌ थ्रादि से युक्त धातु ३2% इत्ति कहतेहैं| (४५९) लुकू-( प्रत्ययस्य छुक्‌ रुघुपः ) भ्रत्यय के लोप का ही नाम छुकू, ओर छुप्‌दे। है हे वि

$ (७०, अकमक--वे धातुए हैंजिनके साथ कर्म नहीं दाता । इम अयों वारसी ए अकर्मक होती है-भलज्ञागत्तास्पितिजागरण हंद्धिक्षयमयजीवितमरणम्‌ |

2.

ते

शयनक्रीदादचिदीप्यर्थ

धातुगण तमकमंक्माहु: ॥

|संस्दृत भाग को पाशिनि ने जीवित मापा के रूप मेँलिया, क्योंकि वैदिक

हो को अपवाद के रुप में उन्होंने लिया ! ब्रीहिशाल्वोदेक! नैसे झृपकछ-जीदग म्बद्ध सूत्रों की व्यवस्था तथा नवाक, गुहछु, वदाकु आदि नाम ब्रोलचाल की

*झू के दी बोतक हैं

ईसा से ४०० यर्ष पूर्व वरूचि का जन्म हुआ । उन्होंने पशिनि के १५००

में कमी पाकर ४००० वार्तिफों की रचना की | बरदचि ने श्रशध्णापी मेंपेवल

नहीं निकाले, भ्रण्ति उनके निवारण के उपाय भी बतलाये। श्रतः उसकी वना गुत्तिपुक और उचित है। कहीं-कहीं एर उन्होंने श्रदुचित श्लोचना 8 है, जिसकी ओर मद्वामाप्यफार पति ने हमारा ध्यान थ्राइश किया |

( छ ) कात्यायन द्वारा पाझिनि पर किये गये आलोचनात्मक वार्तिफ़ों का ने सरडन रिया और पाणिनि के सूज्नों कामणडने कया। उन्होंने एक आर नीरस विपय को वस्तुतः सरस एवं सजीव यना डाला है। महामाष्य शैली अत्यन्त सजीव और मुबोध है। महाभाष्य के जोड़ का कोई ग्रथ < साहित्य मे नहीं है । पाशिनीय व्याकरण को सुगम बनाने की दृष्टि सेसब १६३० के लगाम

प्रस्यात परिडत भद्टोंजि दीक्षित ने सिद्धान्त कौमुदी' नामक ग्रन्थ की स्चना की इस ग्रन्थ में मुनित्रय के सिद्धान्तों केसागोप्राग समन्वय के साथ अन्य + +

तथा अन्य पद्धतियों से भी सार ग्रहण क्रिया गया है। इन्होंने सिद्धान्त को४र पर स्वय प्रौद मनोरमा' नाम की टीका भी लिसी है । श्री बरदराजाचार्य ने वालकों की सुविधा के लिए ठिद्धान्त कौमुदी का धणि रूप लए हिद्धान क्ौशदी! तश प्रध्य सिद्धान्त क्रीडदी! नागर एस्तिकाओं

किया है।

रुस्ड्त भाषा के श्रदुवाद के लिए ससदृत व्यास्रण आवश्यक ही नहीं, अनिवाय है, इसी कारण हमने ऊपर अत्यन्त सक्तेप में सरइत व्याउरण ऐतिहाप्िऊ विवेचन किया है !

ओ नम परमात्मने तहिव्यमव्यय धाम. सासस्वतमुपास्महे । यत्यसादात्पयलीयन्त मोहान्धतमसश्छटा ॥

विषय-प्रवेश रचना का उद्देश्य-भारतीय सस्झृति का खोत एवं राष्ट्रभापा हिन्दी अन्य भारतीय मापाश्रों

जननी, की

4

सस्कृत भापा का अध्ययन उसके

व्याकरण फ्री छुरूदता क कारण कठिन हा शया है। तथापि इस तथ्य को सभी देश विदेशी भाषा विशारदों ने माना है कि सस्कृत भाषा को ०4कर अत्यन्त वैज्ञानिक एवं सुव्यवस्थित है। नि सन्देह उसके प्राचीन ढग के अध्यर तथा अध्यापन से आजकल क सुझुमार बालऊां का अपक्षित बुछिपि

नहीं होता और मन उन्हे वह ध्यान में ससते हुए, हमने सस्झ्ृत बातावरण क अनुवृूल सरल तथा वाक्य-रधना--वाक्य-रचना

रुचिकर ही प्रतीत हाता है। इसी किना३ भाषा के अध्यपन एब अध्यापन को आजकल सुबोध बनाने का प्रयत्न किया ६। मै भाषा का प्रयोग होता है। भाषा ही एक ५

साधन है जिसके द्वारा मानव समाज अपने माव और विचार दूसरों पर प्रकड क९

है। भाषा से वाणी का ही नहीं, अपितु सकेतों का भी समावेश है। लिसने अर बोलने मे हम मापा का ही प्रयोग करते हैं । भाषाएँ अनेक प्रकार की है, जैसे: सस्कृत भाषा, अग्नेजी भाषा, हिन्दी भाषा आदि । सस्द्त भाषा? उस भाषा को ऋहते हैं, जा सस्कृत शर्थात्‌ शुद्ध एवं परिमार्ि

हो। भाषा वाक्‍्यों से यनती है, वाक्य में ग्नेऊ शब्द रहते हैं और प्रत्येक शब्द अनेक घ्वनियों रहती है ।उदाहरणार्थ--

“चन्दरगुप्त एम ग्रतापी राजा था ।? इस वाक्य में पाँच शब्द हें और पतले शब्द म प्रथक्‌ प्रथर्‌ ध्यनियाँ दें । चन्द्रमुप्ते शब्द मे चू+श्र+न्‌+द्‌+र्‌+ +ग्‌+उ+प्‌्+त्‌+अ'

ग्थारह ध्वनियाँ हें। एक

में 'ए+क्‌कञा



ध्वनियाँ हें। यह लिपि, जिसमें हम इन अछ्रों को लिस रदे हैँ, देवनागरी” कहलाती ६ आजकल सस्कृत तथा हिन्दी माषाएँ इसी लिपि में लिसी जा रही है। प्रार्च काल म सस्कृत मापा आह्यी लिपि में लिखी जाती थी।

ओर व्यज्ञन-ये ध्यनियों के दो भेद हें। स्वर और व्यक्षन में ध्य मा

का अन्दर है| स्पर के बोलने में मुख द्वार कम या अधिक खुलता रहता है, #मानव क्की वार्णा के उस छोटे-से-छाटे अश का च्वमि कहते है, जि लुकठ न क्रिये जा सके | ध्वनि के उस छोटे सेलिसित अश को वरण अ'

अक्षर कहते हैं।



बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

बिलकुल बन्द या इतना सकुचित नहीं किया जाता कि हवा रगढ़ खा फर वाहर

नकल सके | व्यज्ञन के उच्चारण में मुख-द्वार या तो सइसा खुलता है था इतना

(कुचित हो जाता है कि हवा रगड़ खाकर बाहर निकलती है। इसी रगड़ या यश के कारण व्यज्ञन सरों से भिन्न हो जाते हैं। स्वर तीन प्रकार के दोते हैं--एव, दीघ और मरिश्रित। दौ्ध स्वर के उच्चारण में हस्व स्वर की अेक्षा पगुनी समय

लगता हू। व्यक्ञनों कोहल अक्षर कहते हैं, जैसे--कू,

ख,

गए,

प्रादि। सस्‍्कृत एव हिन्दी भाषाओं मे इन्हों अक्षरों (स्वरों एवं ब्यक्षनों )का /पयोग द्वोता है |

निम्नलिखित १४ माहेश्वर सन्त हैं। इनमे पूरी व्णमाला इस प्रकार है-स्वर, उरी-स्थ, वर्ग फे परम, चत॒थ, तृतीय, हितीय, प्रथमबण, ऊष्म | १, श्र. ठउण्‌ पे लूक, ३२.ए.शथ्रो इ, ४. ऐ श्रोच, ४.देय ध २८, ६.लग, ७, जम खफलछ १०,जबगडदश, ११५, ६.घटढपप्‌, कभनज, शणुनेम, ८.

थचटतवब १२, क पय, १३.

शपस २, १४, ह लू ।

श्र ड़ --हस्व (एक मात्रिक स्घर । शा ्ूझ्ऋ- दी (द्वि मात्रिक ))

ए. ऐ औओ औ--मिन्रित*

(कु)

के ख़ गे घ इ--कवर्ग

(ु)

च छू जभ भ--चबग

(ट)

टठ ड़ द ए->-डटवग

(86)

त्तथद्घध

| (पु)

ड्मिसिः हे

] |

अस्त!

प्‌ फ़्बे भेंमूपवर्ग

|

यर ल ब--अन्ताःस्थ शूध स इ--ऊष्म

[

* अनुस्वार * अनुनासिक

|

£ ब्िसर्ग इ४ यण--क से लेकर मेतरू-्सश कहलाते हैं। ४ वर्ण--य र ल ब-तःम्थ ईं, श्रधांत्‌ इनके उच्चारण करने में भीतर से मुद्ठ अ्रधिक वल से साँस नी पढ़ती ई |पॉँचों ब्गों केप्रथम श्रौर दिवीय श्रद्धरों ( क ख, थे छु थ्रादि )

१--मिश्नित स्वर बिदृत और दीय ई, जैम--अ + इ >ए. | ४>ब्यण्जन

के

डचारणु में

मुप्र

क स्सि ने

ज्सी मांग का

रे भाग से

दसर

ने इछ स्पा अदरय होता है; जैसे उ के उच्चारण में जिदहा का तालु से

/द के उचारण में जिद्वा का दानों से स्पश होता है ।

स्वर और व्यज्ञन

(ग घ आदि, हुया ऊष्म बर्णों (श, प, से, ह ) को 'परुष व्यज्ञन! और शेष वर्णों को 'कोमल ब्यक्षन' कहते हैं । व्यज्जनों के दो और प्रकार ईं--अल्पप्राश ए4। महाप्राण । पाँचों वर्गों के पहले और तीसरे बर्स (कग,चज आदि) झल्यप्राए ५० हैं तथा दूसरे और चौथे बर्ण (व घ, छ भ थादि) महाग्रास हैं। वर्णो के घ्वनि के विचार से वर्ण वर (इजूश्‌ नम) बमुनासिक व्यन्जन कहलाते हैं।

के कण्ठ आदि स्थान हैं ।* बदलने के में अजुवाद--किसी भाषा के शब्दा्य को दूसरी भाषा के शब्दों ह अनुवाद बहते हैं ।

[अनु पश्चात्‌ , बद्‌ वाद रू कहना; एक बात को फिर से कहना अथानत के.४४॥९ एक बात को अन्य शब्दी मे बदल फरके कद्दना। दस यौगिक अर्थ * अडुबाद एक भाषा से उठी भाषा में मी हो उकता है, परन्त लोक व्यवहार

अनुवाद शब्द का योगरूढ़ अर्थ ही प्रसिद्ध है, श्र्थात्‌ 'एक भाषा को दूसरी ॥,4 में बदलना? । )

अनुवाद-प्रणाली के बन करने से पूर्ववाक्य में जो सुबन्त, तिडन्त ॥

शब्द रहते हैं. उनका विवेचन करना वया कारकों का संद्िस वर्णन यहाँ . उचित द्ोगा ।

कारक (कर्ता, कम आदि)--/गोपाल पुस्तक पढ़ता है |” इस वाक्य +

पढ़नेवाला 'गोपाल” है। “राम ने रावण को मारा ।” इस वाक्य में मारने बाला

धाम! है। पढ़ना! और “मारना! ये दो क्रियाएं हैं । इन क्रियाओं के करने वाले

पपाल! और 'राम' हैं । क्रिया के करने याले को करत्तों कहते हैं। अतः इन द्‌

वाक्यों में 'गोप्रल! और “राम! कत्ता हैं। ५. . सम चाक्‍्य में पढ़ने काविषय “पुस्तक” है और द्वितीय में मारने का विष

रावण' है। पुस्तक' और “रबण? के लिए ही कर्त्ाओं ने क्रियाएँ कीं, अत!

मुख्यतः जिस चीज के लिए, कर्त्ता किया को करता है, उसको कर्म कहते हैं।

+ राजा ने अपने हाथ से ब्राह्मणों कोदान दिया।! इस वाक्य मैं दान ! नि दान की े पूर्ति हाय से हुई, अतः हाय करण हुआ | इसी वाक्य थ कीअआाहरणों' के लिए हुई, थ्रतः ब्राह्मण” सम्प्रदान हुआ । हर गघड

लत्नसत्युद्धून

(दन्त)

उऊटप्कप्‌ एवमूम(ओड)

ए ऐ (कण्ठ चाह), ओ औ (कश्ठ ब्‌(दन्त ओछ), अनुस्वार (नासिका)

ड आदि का स्थान (कशंठ नासिका

हि

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

“श्याम के वृक्षों सेमूमि पर फल गिरे ।” इस वाक्य में इक्षों ते फल ध्थक्‌ हुए, भ्रतः बत्ष अपादान हुआ | फल भूमि पर गिरे, अ्रतः 'मूर्मि अधिकरण हुई | श्राम का सम्बन्ध इत्तों से है, अतः आम! सम्बन्ध हुआ । उपरिलिखित चार वाक्यों में पढ़ना! 'मारना देना! और गिरना! रियाश्रों के सम्पादन में जिन कर्त्ता, कर्म आदि शब्दों का उपयोग हुआ है, उन्हें कारक कहते हैं |कारक वह वस्तु है जिसका उपयोग किया की पूर्ति केलिए क्रिया जाता

है। अनेक वैयाकरणों ने सम्बन्ध को भी कारक माना है | कारकों को जोड़ने के लिए हिन्दी में ने! 'को' आदि चिह्न काम में आते हैं, ये 'विभक्ति! (कारक-निह् ) कहलाडे है | सस्कृत में सात विभक्तियाँ और एक सम्बोधन होता है। विभक्तियाँ



(0886-5875 ) कारक ( 08६९४ ) श्र्थ ( ॥6शाां85 )

प्रथमा कर्ता ( 07779378 ) ( बह वस्तु ), ने द्वितीया कम ( 26०05४79७ ) को बूतीया करण ( 77570गथ्यांवव ) से, के द्वारा चतुथों संम्प्दान ( 2&ए८ ) के लिए पद्ममी झपादान ( ह0]8096 ) सेरे सम्बन्ध ( 5९0४४६ ) का, के,की घष्ठी सप्तमी अधिकरण (7.002४/ए९) मै,पर, पै सम्बोधन सम्बोधन ( ५४००४(४४४ ) है, श्रये, भोः हिन्दी मेंकर्ता कम थ्ादि सम्बन्ध दिखाने के लिए ने! 'को' 'ते! आदि शब्द

संज्ञा या सबनाम के पीछे जोड़ दिये जाते हैं, किन्तु सस्‍्कृत में यह सम्बन्ध दिलाने

के लिए, संशा था सर्वनाम का हप ही बदल जाता है, जैसे रामः ( राम ने )रामम्‌ (राम को ), रामस्य (राम का )।

राम शब्द फा सात विभक्तियों में प्रयोग-रामों राजमणिः सदा विंशयते राम॑ रमेश भजे रामेणामिहता निशाचरचमू रामाय तस्मे नमः । रामान्नास्ति परायर्ण परतरं रामस्य दासोडमम्पदम्‌

रामे चित्तलयः सदा भवतु में देराम मा पालय॥ इन प्रथमा श्ादि विभक्तियों से कारकों का दी निर्देश नहीं होता, अ्पिदु ये

कि १--कर्तवाच्यपरयोंग दुतुअधम्मा प्थमाकतृकारके। क्कारके। वितीबान्त द्वितीयास्त भवेत्‌ सेवकम कर्मक्वीन कतरथीन कैयापदम । कर्ता कम व करण च मंग्रदान तमैव च। श्रपादानानिकरणे इत्ताहु शाग्काणि पद ॥

हल रे--जय उथक्‌ हीने याहटने का ज्ञान हो तब अपादान 2200228 गा (पश्ममी ञमी ))होता होता है 7 रे संश से

क्रिया

के साधन (जरिया ) का शान हो तब करण ( तृतीया )

कारक

ऋते, सद्द, साऊम आदि विभनियाँ वाक्य में प्रति, विभा, अन्यरेण, अन्तरा,

ँ नमः स्वस्ति, मिपातों के योग से भी 'नाम' से परे प्रयुक्त होती हैं। ये विभक्तिया दशा में होती है । ऐसी स्वाहा, स्वधा, अलम्‌ आवि अव्ययों के योग से भी व्यवद्ृत्त

इन्हें “उपपद्‌ विभक्तियाँ/ फहते हैं।

कारकों केसमझने के लिए छात्रों कोअन्य मापाओं का सहारा म लेना. चादिए ।उन्हे कारकों केज्ञान अथवा शुद्ध सस्कृत भाषा के बोध के लिए सरकृत



इसया, साहित्य का परिशीलन करना चाहिए. | कहाँ कौन सा फारफ होना चाटिए,

जान शिश्टों अथवा प्रसिद्ध सस्कृत प्रन्थकारों के व्यवहार से ही हो सकता है, क्योंकि। ॥ #विवज्ञात॒ कारकारणि भवन्ति |लौकिफी चेह उिवद्या न धायोक्‍त्री ।” सस्कृत के व्याकरण में सुबन्त और तिडन्त के रूपों का प्रतिपादन किया संया /

क है। छात्रों कोयेकठिन और शुप्क श्रवीत होत हं। सुबन्त ओर [तिडन्त समस्त रूपों का याद कर लेना सुगम नहीं है। श्रत. हमने झ्ाचार्य पाखिनिं के नियमों के ग्राधार पर छात्रों केलिए वैज्ञानिक एव सुव्यवस्यित ढज्ञ पर विषय का प्रतिपादन किया है । __>यहन्या खुबन्तशब्दों के साथ सात विभक्तियों केतीन बचनों मे २१

लगते ह। उन विभक्तियों केसाधारण ज्ञान प्राप्त करने केलिए हम यहाँ “मरिति! शब्द के रुप दे रहे हैं। इनमे प्राम. सब प्रत्यय ( सु को छोड़कर )

स्पों में सष्ट हैं! प्रथमा द्वितीया. ततीया चतुर्पी पचमी पष्ठी सप्तमी

सस्पोधन.

एकबचन सरित्‌ सरितम्‌ सरिता सरिते सरितः सरितः

सरित्‌ ( नदी )

द्विवचन सरितो सरिती सरिद्भ्याम्‌ सरिद्भ्याम्‌ सरिद्भ्याम्‌ सरिता:

सरिति

सरिताः

द सरित्‌ है सरितौ है सुबन्त के २१ प्रत्यय

श्र्थ ग्रे) द्वि. (को)

एकवबचन स्‌(सु) अम्‌

तृ०. च०

ऐि, के द्वारा) (केलिए।.

पर

(का, के, की) अस(डस )

प्र०... स०

सि)

(में, पर)

आओ (टा) ए(३)

अस्‌ (डसि) इ (डि)

द्विवचन री ञ्ौ (श्रोट)

भ्याम्‌ भ्याम््‌

भ्पाम्‌

ओस्‌

झोत्‌

5

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

विकारी तथा अविकारी शब्दू--ऊपर कहा जा चुका है कि वाक्य में अनेत्र शब्द रहते हैं,यथा--(१) “छात्र! सदा पुस्तक पढति (विद्यार्थी हमेशा एस्तक पढ़ता है)” इसी वाक्य को इस ढंग से भी कह सकते हैं-(२) द्ात्रः सदा पृश्तकानि पठति (विद्यार्थी हमेशा पुस्तक पढ़ता है |)

(३) छात्राः सदा पुस्तकानि पटन्ति (विद्यार्थी हमेशा पु्तके पढ़ते ५ |) इन वाक्यों को देखने से शाव होता है कि शब्दों में कुछ ऐसे शब्द हैँ. जिनके

रूप हमेशा एक से रहते हैं, जैसे इन वाक्यों मे'सदा! शब्द है। कुछ शब्द ऐसे

हैंजिनके रूपों मेंपरिवर्तन हो जाता है, जैसे--छात्रा, पुस्तकम, पठति के रूपों में परिवर्तन हो गया है। श्रतः यह निष्कर्ष मिकला कि--

5

केहक रूपों में किसी केस भी पाए दशा में परिवतन थाकदर विकार नहीं हि होता व हैवें

शरद है। जिन शब्दों के केक अव्यय कहलाते हैं, जैसे रूपी मेंपरिवतन हो जाता है वे विकारो शब्द कहलाते हैं। विकारी शब्द गनेक

पार के होते हैं,उदाहरणा्-“रा पति? बुम्य॑ सुन्दर पारितोषिकम्‌ श्रददात्‌ (राष्ट्रपति ने तन्दें सदर इनाम दिया) ।” इस थाक्य में “राष्ट्रपति/ शब्द संक्षा या नाम है; तुम्यम्‌ (ठुमके) संज्ञा के स्थान पर आया है, भ्रतः सर्वनाम है; सुन्दरमू शब्द पारितोपिक (इमाम) कऔ विशेषता बतलाता है, श्रतः विशेषण ६; अददान्‌ (दिया) शब्द किसी कार्य

का करना बतलाता है,अतः क्रिया है।

शब्दों के भेद ॥ १ सिकाती

|

२ अविकषारी

|

(अब्यय)

(यथा, तथा, यद्यपि,

पुनब्राकि

१) वंज्ञा

(२) रबनाम._

(३) विशेष्ण (४) क्रिया

एम, नदी, लवा, (लमूतू, अदममे) (सुन्दर, सके, (पदनियढुता ई, अश्मादि)

_

खाचदृद्यादि) दुए आदि) वदतिज्वोहताहे आदि) वाक्यरचना--“नत्तः दमयस्तीं परिशिनापर्र (नल ने दमयन्ती ते विवाह हवा ।)7 इस वाक्य में पहले कर्ता (नलः) फ़िर कर्म (इमयत्तीमू) ओर शत में

नया (धरिशणिनाय) थायी है ॥ च्रतः संछल फे वाक्पों का जम.भी रफ़््यगा,रिहिटी, क्र58 है--पहलेकर्चा, फिर कम और अल में किया, अस्खु हम ऊपर निख जब ईंक्रिसस्कत में विकारों राब्द श्रविक हैं थ्रोर श्रविकारी कम | श्रवः हम

प्रो वाक्‍यों की इसप्रकार भी लिप सदते ह--

कारक

दसयन्ती नलः

परिणिनाय,

परिणिनाय दमयन्तीं नलम

परिशिताय.

अथवा नलः

दमयन्तीम।

इन वाक्यों में शब्दों का क्रम चाहे जैसा भी हो, 'नलः कर्ता, 'द्मयस्तीम्‌!

और परिशिनाय! क्रिया ही रहती हे ।कारण, इन सब शब्दों में सुप्‌विभक्ति

+

घिदय विभक्ति रहती है, अत. इनके स्थान परिवर्तन करने से भी ये विभक्ति-चिहं द्वारा कट पहिचाने जा सकते है। यह क्रम अग्रेजी आदि अविकारी भाषाओं २ नहीं है। हिन्दी मेभी अग्रेजी केसमान क्रिया का स्थान निश्चित रहता है हिन्दी में क्रिया वाक्य के त्न्त में आती है, रिन्‍्तु अग्रेजी मे क्रिया कर्ता और एए

के बीच में । सस्कृत में अप्रिकाश शब्दों के ब्रिकारी होने के कारण कर्त्ता, कर्म

क्रिया आगेन्‍्यीछे भी आ सकर्त हैंऔर यह सस्कृत की अपनी विशेषता है । अब इस वाक्य को देखो--

घमंजो मलः सबंगुणालडकृता दमयन्ती विधिना परिशिनाय । (धर्मात्मा «

ने सय गुणों से सम्पन्न दमयन्ती से विधिपूवक विवाह क्रिया |)

दस वाक्य में 'धर्ज्' शब्द 'नल' सक्ञा काविशेषण है और “विविना! ,

“रिणिनाय! जिया का विशेषण है, अतः जिन शब्दों की ये विशिष्टता बतलाते हैं उनके पूर्वही इनका मुस्यतः प्रयोग होता दे, ग्थात्‌ सज्ञा शब्द का विशेषण उच्च पृर् और क्रिया विशेषण क्रिया के पूर्व आता है, किन्तु कभी-कभी आगे पीछे «, इनका प्रयोग हो सकता है, जैसे-:

नलः स्ंगुणालदकृता विधिना परिशिनाय दमयस्तीम्‌।

नलः सबंगुणालइकृूता दमयन्तीं परिणिनाय विधिना। लिंग और वचन ,

उपर के वाक्यों में नल: एक ऐसा नाम है जिससे पुरुष जाति का बोध होता

है, ग्रव" यह शब्द पुल्लिद्न है।

“दमयन्ती' शब्द से स्त्री जाति का बोध होता है, अ्रतः यह स््रीलिड्र शब्द है | छात्रः पुस्तकानि क्रीणाति (विद्यार्था पुस्तक खरीदता है)” इस वाक्य में “पुस्तकानि! शब्द से न तो पुरुष जाति का बोध होता है और न स्त्री जाति का, अतः यह शब्द नपुंसक लिड्ठ है। ॥ ..

सस्ह्ृत में लिड्अ-शान कोप की सहायता अ्रथवा साहित्य के पारायण से ही

होता है। व्याकरण के नियमों का लिज्ञ-निर्धास्ण में अधिक उपयोग नहीं किया ज्ञा सकता ।

हु उस्कत में एकही शब्द या वस्तु केवाचक शब्द मिन्न-मिन्न लिड्डो के है, यथा-तट,, तदी,तट्म--(तीनों का अर्थ किनारा है। ) इसी ग्रकार--परिग्रह;, मार्या, कलम (तीनों का अर्थ पत्नी है |) इसी माँति--सगरः, आजिः, गुद्धम्‌ ( तीनों का

अर्थ बुद्ध है |)

बृददू-अनुवाद-बन्द्रिका

कभी-कभी एक ही शब्द का कुछ थोड़े से अर्थ मेद के कारण भिन्न-मिन्न लिड्षों , प्रयोग होता है, यधा--सरत्वत्‌ ( पुछ्लिड्ठ )का श्रर्थ है समुद्र, किन्तु सरस्वती “ब्लीलिज्ठ) का श्रथ है एक नदी । इसी प्रकार सरस( नपु० ) का अर्थ है. तालाब शा छोटी कील, किन्तु सरसी (त्री लि) का श्र्थ दे एक बड़ी भील | कत्‌ग्रत्यय गी लिड्ठनज्ञान में सहायक होते हैं, किन्तु पूण ज्ञान तोणशणिनि के लिज्ञानुशासन शहीही सकता है। «| इन्हीं बाक्यों में 'नलः या छात्र: से एक रुस्‍्या का बोध होता है, अतः ये हब्द एक वचन हैंऔर “पुस्तकानि' (पुस्तकें) सेबहुत सी पुस्तकों का ज्ञान होता $ भतः यह शब्द बहुवचन है। संस्कृत मे द्विवचन भी होता है जैसे--छात्रः पुस्तके श्यक्नीएात्‌ (छात्र ने दो पुस्तकें खरीदीं)। इस वाक्य में (पुस्तकें! द्विवचन है। ७. रेरकृत भाषा में श्रोन, चछुस,बाहु, स्तन, चरण श्रादि शब्द द्विवचन में ही

युक्त होते है, यथा--ममाक्िणी दुःस्यतः (मेरी श्राँखें दुखती हैं) आ्रान्तायास्तयाश्वरणी न प्रस॒रतः (उस थकी हुई के पाँच आगे नहीं बढ़ते) | संरकृत में अपने

बहुवचन लिए का दी प्रयोग होता है, पा

या: परिवुष्टा:

ये. बल्कलैस्ल दुकूले:/

/मव॑हरि) (के छाल पहनकर ही सस्तोपहैश्रौरब॒केमहीन घससे|) ३ _झल्कृत [त में कुछ ऐसे शब्द हैँजिनका बहुवचन में ही प्रयोग होता है, यथा--दार

इॉलनी) पुं०, 'प््ञव (पूजाई श्रद्टट चावल) पुँ०, लाज (खील) पुँ०। इसी प्रकार

झप (जल)सुमनस्‌ (फूल), वर्षा, अ्रप्सर्स (अप्सराएँ), सिकता (रेत) समा (बर्ष),

अलौकंस (जोंक)इन ख््रीलिज्न शब्दों का बहुवचन में द्वी प्रयोग होता है। शह

पुं०), पास (धूलि) पुं०, धाना (भूने जो) छी०, सस्त॒, श्रमु (प्राण), प्रजा, प्रकृति मन्त्रिगण, या प्रजावर्ग) कश्मीर शब्द बहुवचन में ही प्रयुक्त होते हूँ9) व. जब क्रिया प्लेकोई बचम खूचित न हो तव एक वचन ही प्रर॑क्त होता है,

हैधा-इदं ते कचव्यम।

५.

सबनाम शब्द--दात चीत करने में एक व्यक्ति वह शोताई जो बातचीत

'फरता है ; दूसरा वह द्वोता हैजिससे बातचीत को जाती है श्रोर तोसरा (चेतन प्रधवा श्रचेतन) वह होता द्वेजिसके विषय में बात चीत की जाती है |बौलगेबाला उत्तम पुरुष, जिससे बातचीत की जाती हैमध्यम पुरुष, और जिसके विपयमेंबातखगगशर5 त कोजातीहैबह प्रथमपुरुष या अन्य पुरुष कहलाता है।

(३) उत्तमही पुरूष. (२) मध्यम पुरुष शक बचन |अहम (मैं) त्म्‌ (ू



-दि बचन | आवाम (दम दो) | युवाम्‌मी)

;

(३) प्रथम पुरुष

| तो।

पिन

पट चचन |बयम्‌ (हम ) | यूयम्‌ ( तुम ) ते (बे) वाः (4) तामि कद अस्मदु को छोड़ कर सवंनाम शब्द तीनों लिद्ठों मेविशेष्य के का

धरशर होते है _ सज्याबाचक शब्द--एक, द्वि झ्रादि तथा पूरण ( प्रथम, द्वितीय श्रादि ) /गिशेषण होते हैं, फिन्स सामूहिक बाचक दय, श्रय आदि संशाएँ हैं | अतः इनफा

.

सरपायाचऊ शब्द

&

प्रयोग विशेत् के रूप में न हापर सज्ञा के रूप में द्वाता है, -यथा--पुस्तकप्रोदयन , पुस्तकाना तयम्‌ यदि ।

एक शब्द कपल एरुयचन म होता है द्वि शज्द केयल द्वितचन में और नि से लेकर अ्रशदशन्‌ तर शब्दों फा क्यल बहुउचन म्‌ ही प्रयाग हाता है। से 'चनुर' तक शब्दों का लिट्ठ विशेष शन्द ऊ अनुसार हाता है, यथा-- चलाए मानवा , चतलर च्त्रिय', चत्वारि क्लानि आदि। इनज याद लिज्ञ का भेद नहा होता बधा-अश्व मानयरा ; पञ्य स्निय , गिशति मसानया , विंशति व्ियः। एफानयिशति ने नय जिशति तकू समस्त शब्द एक्यवनान्त खा लिह्न ह। इनर्े रूप एक वचन में ही चलते हे । इफारान्त विशति, पटि, सतति, अशाति,

नवति तथा तिनऊे ग्रन्त मे ये शद हों उनके रूप स्लीलिज्ठ में मति” शज्द के समान होते हैँ |ठशासन्त जिशत्‌, चल्रारिशत्‌ के रूप सरित! शब्द की माँति होते हूं । शतम्‌, सहस्तम्‌, अयुतम्‌, लक्षम्‌ ,नियुतम्‌ ग्रादि सदैय एफ्यचनान्त नपुसक हू । सरपा वाचक

शब्दों के रुम्बन्ध में एफ बात स्मस्णाय है फ्रि उनका अन्य

मुयन्‍्त शदों के साथ समास नहीं हो सकता, यथा--विंशविनाय्रं”' शुद्ध है, डिन्‍्तु प॑वैशतिनाय अशुद्ध है। इसी प्रकार शत पुदुपा: शुद्ध है, किन्तु “शतपुरुषाः यह समस्त शन्द अ्रशुद्ध है। इसी माँति सप्तसततिरनात्र/ शुद्ध है पर 'समसत्ततिनाय/ अशुद्ध है । पद्माशत फ्लानि क्रोणातरि,' शुद्ध है,सिन्तर पश्चागन्‌ फ्तानि! अशुद्ध है। 'शतस्प पुस्तकाना कियन्मूल्यम! प्रयाग शुद्ध है, क्रिन्ठ 'शतपुलकाना कियन्मूल्पम! यह प्रयाग अश्जुद्ध हैं। “चत्वारिंशता कमकरे: परिया सानयति! शुद्ध दै, किन्तु 'चलारिंशत्‌ ऊमकरे. परिखा सानयति? यह प्रयाग अशुद्ध

है। यदि

समास से सन्ञा का बोध होता हा ता सरप्रा वाचक्र शब्द के साथ समास हा सकता है, यया पद्माम्रा., सतर्पयः आदि | विहन्त पद ( क्रिया )-- छात्र पठति, बालऊाः क्रोडन्ति” इन दो वाक़यों को देसने से ज्ञात होता है कि सल्कृत में तिडन्त क्रिया का लिह्ञ नहीं होता, चाहे कर्ता पुल्लिड्ठ हो या खोलिज्ञ या नपुसऊ लिज्ञ, किन्तु किया एक-सी रहती है, यथा-बालक., कीडति, बालिका क्रीडति (बालक या बालिका खेलतो हे), बालः अपठत्‌ , बालिका अपठत्‌ ( लड़का पढा, लड़की पढी )[ हिन्दी माप्रा मंक्रियाओं के रूप क॒तृयाच्य म॑ कर्ता के अनुसार तथा कमयाच्य-में कम के अनुसार पुल्लिन्न एव

स्रीलिज्ञ में बदल जाते ह | जेसे लड़का पढता है, लडकी पढती है आदि ।

किया के पिना कोई वाकत नही होता और प्रत्येक वाक्य में एक क्रिपा होती

है (एक्तिद वाक््यम्‌)। सस्झत मापा में लगभग २००० घातुएँ हैं और वे १० गशों (समूह)? में वटीहैं। इनकी जदिलता

इस कारण बढ़ गयी है क्लि शनका

१ दस गण ये ई--म्वायदादो जुद्ात्यादिः दिवादिः स्वादिरेत च। तुदादिश्र

रुघादिश्व

तनादिः

क्रोचुसदबः ।

(?) खादि, (२) अदादि, (३) बुझायादि, (४) दियादि, (३) स्यादि, (३) ठुझडि, (9) रुयाहि, (-) तनादि, (६) हतादि और (१०) चुरादि

१०

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

प्रयोग तमी किया जा सकता है जब्र दस गणों का टीक-्टौक शान हो और फिर प्रत्येक गण मे ये धातुएँ, परस्मेपद, आत्मनेपद और उभयपद में विभक्त हैं।

पच॒ति, पचतें भ्यादिगझणीय हे और हन्ति अदादिगंणीय, इनके रूप दोनों पद्दों मे अलग-अलग चलते हैं | इन्हीं धातुओं के मूल रूप--पठति-पटतः-पठन्ति, भ्रपठत्‌अपंठताम:अपंठन, श्रादि चलते हैंऔर इन्हीं के प्रत्यवान्त रूप भी चलते हैं,जेसे शिजन्त मैं 'पाठयति' (पढ़ाता है) और सन्नन्त में 'पिपठिपति' (पढ़ने की इच्छा करता है)। कुछ धातुएँ सकमंक होती हैं और कुछ श्रकर्मक | सकर्मक धातुओों के रूपों

के साथ किसी कर्म की आकाक्षा रहती है, किन्तु अकर्मक धातुओं के रूपों के खाथ

नहीं रहती है।

संस्कृत भाषा में पद दो होते हैं---परस्मैपद तथा आत्मनेपद । परस्मैपद अर्थात्‌ वह पद जिसका फल दूसरे के लिए द्वोवा है, जैसे सःपचति (वह पकाता हैं)यहाँ

पकाने की क्रिया का फल दूसरे के लिए द्ोगर पकाने वाले के लिए नहीं, किन्त॒ आत्मनेषद भे क्रिया का फल अपने लिए होगा । धातुओं के तीन वाच्य होते हैं--कर्टवाच्य, कर्मवाच्य तथा भाववाबण्य । भाव-

वाच्य तभी होता है जंब्र किया ग्रक्मंक हो । भाववाच्य में कर्ता तृतीयान्त होता है और क्रिया केवल प्रथम पुरुष के एकवचन में प्रयुक्त होती है, जेसे--

कर्तृबाच्य--सेवकः ग्रामं गच्छति (नौकर याँव जाता है ।) कर्मवाच्य--मर्यों पुस्तक पठ्यते (मुझ से पुस्तक पढ़ी जाती है। ) भावबाच्य-मनुप्यैियते ( मनुष्यों सेमरा जाता है । ) संस्कृत भाषा में ६० लकार" क्रियायचक सथा श्राज्ञादि सूचक दोनों प्रकार फे

ईं। लंटूथरादिसव लू! से आरम्म होते हैंअतः इनको दस लकार भी कहते हैं| इन में सेलोटएवं विधितिट्‌ आशा, श्रनुद्धा विधान आदि श्रर्थों मैं प्रयुक्त होते

हैं, यथा-गोपालः पठ्त, पढेत्‌ वा (गोपाल पढ़े)॥ श्राशीशिद श्राशॉवाद के अर्थ मे प्रयुक्त होता है, यया-गोपालः प्याव्‌ (गोशल पढ़े ।) लोट भी थ्राशीर्धद के

श्र में श्रावा है । छूडू लकार हेलुदेठमद्गाव ( जहों एक किया के होने पर दूसरी

किया हो)के श्र्थ में थ्राता है, यथा--सदि स्वमपठिप्यः तंदावश्यम्‌ परीक्षायाम्‌

उत्तीणोंट्मविष्यः ( यदि झम पढ़ते तो श्रवश्य परीक्षा में उच्चोणं हो जाते । )इन

चार लकायें फे श्रतिरिक शेप लकार काल-पूचक है | लटूपतंमान काल मे होता

१ लद्‌ च्तमाने लेट बेदे भूते छुट्टू लघ लिटस्तथा | विष्याशिषोसु लिइलोटी लुटलूट लूदूच मविष्यति ॥ .. रस कारिका में १० लकारों के श्रनिरिक्त ले भो ह। लेट का प्रयोग

वैदिक रस्ट्त में ही पाया जाता है।

हि

काल श्थया दत्तियाँ

११

है, बथा देव पठति ( देव पढ़ता है) |तीन लकारो भूतफाल सुचऊ हैं--छुद, (सामान्य मत), लड़

(अनयतन भूत) ओऔर

लिए (पराक्त

भूत) | (लेट

लफार हा प्रयोग केवल वैदिक भाषा में हीहोता है। अत लोफ़िंक सस्हृत में उस छोड दिया गया है |) हद फिदर ह सस्व्त भाषा मेंदस काल अथवा दृत्तियां होता है, व इस प्रकार ह--(१). बतमानफ़ाल-लद (?768थ४६ (९॥50)

(२) (६अनद्वतनभूत-(३) 4 सामान्यभूत--

ला_ छुह_

(?०४ परएशर्९८ ९756 ) (8075६ )

(४)

लिए...

(945 एशर्ईव८८ $0॥56 )

परक्षमूतू-

(श) |] सामान्यभविष्य--- लूट (६) | अनवतनमग्रिष्य-- छुद...

( एफ फणधप्रा6 ) ( छोए४ #िएए४ )

(७) (८).

आज्ञा-उगिंविलिश

लीड... (शएश्क्नाधए& 77000 ) निधिलिर (?०८॥आश 3000 )

(६) (१०)

गाशा लिए क्रियातिपत्ति--..

आशीलिंए( छ९6/०0०६ ) लूगू (एणाधाणाओं )

क्रियाओं की क्लिप्य्ता केकारण छात्र हीनहीं, अपिठ कुछ अध्यापक भी

तिइन्त क्रिवा क स्थान पर कृदन्त शब्द का प्रयाग करते हैं, यथा सेवक ग्राम गत ( गतवान्‌)'का अर्थ होगा--सयक गाँव को गया हुआ या जा चुफा है।? सयक गाँव को गया! का अनुवाद 'सेवक ग्रामम्‌ अगच्छुत' ही होगा। इसी

प्रकार कुछ लोग क्खिप्ट्तर क्रियात्रों हैजचले क उद्देश्य से मुख्य त्रिया को कहने वाला धाठ से व्युस्न (कृदन्त) द्वितीयास्त शब्द केसाथ तिडन्त छ का प्रयोग

करते हैं। उदाहरणार्थ--वे 'लजते' के स्थान पर 'लजा करोति, 'प्रिभेति!

क स्थान पर “भय करोति! लिखते हैं। परन्तु ऐसे प्रयोग अशुद्ध ह और त्याज्य हैं। कारण, “लज्ञा करोति! का अर्थ 'लजा करता है? और भय करोति” का ग्रय “य पैदा करता है? | इनके शुद्ध प्रयोग हें. 'लजामनुभवति! तथा 'भवमनुभगति।

छृदन्तों का किया के रूप मे प्रयोग

धातुश्रों से परने हुए. झूदल्त* मी क्रिया के स्थान पर प्रयुक्त होते हैं| नियाओं १ सस्कृत व्यारण में इन तीन लकारों में अन्तर क्रिया गया है। लुदु सामान्य भूत में आग है अर्थात्‌ उप प्रकार के भूतकाल में, लड़ लकारअनद्यतन भूत म, अर्थात्‌ तोबात आज

से पहले की हो, प्रयुक्त होता है, अत

शुद्ध

ब्याऊरण की इृष्टि सेअहमग्य पुस्तक्मपठम्‌ , ( मैंने ग्रात्र पुस्तक पढ़ी ) श्रशुद्ध है। एसे स्थल पर लुर_(अपाठिषम) का श्रयोग होना चाहिए। लिदकाप्रयोग परोक्ष (जी आँख के सामने न हो) श्तिहारिक बात क लिए होता है, यथा-राम राबण जधान ( रास ने रादण सारा । ) ३ भाववाचक कुदन्त शुद्ध क्रिया के चोतक है, जैसे-हास, पाक, राग

आदि, कठुबाचक ऋदन्त क्रियाक कर्ता के चोतऊ हें, जैसे--पठक

पाठक,

श्र

बृहदू-अनुवाद-वन्द्रिका

के १० लकार तीनों कालों को प्रकट करते हैं या आरा, अनुजा श्रादि को | यही_ काय ऋृदन्तों से होता है | मानक ]

कोऔर क्तवत भूतकालिक हिया को प्रकट करतेहैंऔर तब्य एवं श्रनीयर आजा वयो भविष्यत्‌ काल को क्रिया को ग्रकट करते हैं|

कृत्य, रब्य, अनौयर ,यत्‌--येओववबाच्ययाकमंवाच्यमेंहोते|सवमेक

धातु से कमवाच्य मेंतथा अकमक धातु से भाववास्प में होते है। ऐसी दशा में _ फुसा हृतीया विभरक्तिमें में होता छोताहैं [ औरकर्ममें में प्रभमा प्रथमातथातत्य लत्यप्रत्मपान्त ब्रत्मपार शब्दके

लिन और वचन कर्मकेअनुसार होतेहैं,बभा--

हर लात्रें: पुस्तकानि पदितब्यानि । सकमक धातु मया बालिका दृष्ठा । (कर्म में) | ल्वया अन्यः पढितव्य; । अकमक घातु शिशुना शव्रितब्यम्‌ । (भाव मे ) ह।त्यगरा न हृसितव्यम ( हसनीय॑ वा ) । आकर्मक धातु से ऋदन्त प्रत्यय भाववाच्य में होता हैऔर झृदन्त शब्द सदा नपुंठक लिंड्ठ और एकवचन मे होता है; जैसे शपितव्यम्‌, हसनीयम्‌ श्रादि । ५ ( क्त, क्तवत्‌)करप्रत्तय मयसकमक सम धाठे धातु सेसे जि कमा मे में होता हैं है औरझकमक भेः अन्य: पठितः । यथा में, से कठ्वाच्य धातु

हैं

छात्रें: पुस्तकानि पठितानि |

दमयन्तपा

लता दृष्टा | (

परम्ठ देवः आ्रागत:, बालिका सुद्ठा आदि में श्रकमक धातुओं के प्रयोग के

कोरण कदन्‍्त कर्ता के श्रनुसार (करतृवाच्य) होता दै ] क्तबत्‌ प्रत्यय श्रक्मंक एवं सकमेक धातुओं से कतृवाच्य में ही होता है, था रा; पुण दृष्यान्‌, सा पुण्ठ दृष्वती, से दृडितवान | साहस्ितवती ॥ पी 2 नम कपल ।९१ “पक नेपदमें

५ 82% 2 20४ 3 सेवा" ही ७ पु 2 ता « 5 *')॥ ये भविष्यत्‌ फाल सूचक भी इंते ईं, लैसे-पठिप्यन्‌ छात्र: ( वह छात्र, जो पढ़ता हुआ होगा ), वर्षिप्पमाणः पुरुषः ( बढ़ पुरुष, जो बढ़दा हुझा होगा )॥

पचफः आदि, और कमबान्य झदन्त किया के आधार कम को प्रकद करे &, जैसे--मुउएः (आझानी से किया जाने वाला काय ) क शतर्‌ एवं शानच काशयोग जांवः विशेधण रुरमेंहो हं।मुस्य वा है, वतमान निया केझय मेंसही ।

हा

है. #»

सान्य-ग्करण ध्यान से देखो थे शब्द कैसे मिलते है-का देरारि:॥ वाह + ईशा 5 वार्गी देद+ इन्द्र रूदेवेन्द्र; । तत्‌+शुत्द बचत । हरिम -दन्दे ८ द्वार बन्‍्दे । ऊपर के उदाररणा क्षो देखने से रत हुआ छि सन्दृत के प्रत्देझ शब्द के अन्त मे कोई स्वर, ब्यक्षन, अनुस्वार अथवा दिसय अयरय रहता और ड्द शब्द के आये जय छिसी दूसरे शब्द के होने सेउनऊा मेल होता हूंतर पूउ

शब्द के अन्तवाले स्वर, व्यक्षन आदि म ऋुछ परिउतन हो जाता है प्रकार के मेल हो जाने से जा परिवर्तन होता हे, उठे सन्धि छदते हैं |सनदर काअर्य है मेन । इस परिवतन से ऋह्म पर (१) दोअच्तरों के स्थान पर एक नप्ा अचर

बता है, जेसे--रमा+ईआः न रमेशः, (+) कही पर एक अकर का लोर हो जाता है, जैसे दात्राः+गच्छन्वि

5छात्रा गच्छन्ति,

और

कहाँ पर दो

कथा

के बीच में एक नया अकछ्रआ जाता है, जैसे घावन्‌+ ऋरत्रः ८घात्रत्नरतः । बहा एफ ना और आ गय। रन्विया तीन प्रकार झी ६--त्वर सन्धि, व्यज्ञन सन और विर्यठन्यि ।

स्व॒रसन्धि > कि

के भेल होने से जो परियतन होता है, उसे स्वः निम्ननिखित सन्यिया

इ--

के विषपमे हुछ लोगा का फ्रम है। वे रूमझते हैं कि वाक्य में सन्दि और वे इस कारिझ्य छा उद्धस् देते हं--ठ ट्निक्षरदे निल्या नित्या ७फ / घातूपसगयों:॥ नित्या सुमाने, दाक्दे ठुखा पिपक्षामपरेज्ञत ॥” निम्तन्देद ह२| कारिका वाक्ष्य के अन्तर्गत पदों के बीच सन्धि छो वेऋअक्िक् दढती दे, नल इसका विकल्प से होना सीमा-बद्ध है। स्ति शब्द का भाप ई-लवरो छा

बपञनों छा एक दूुसगे के अनन्तर आना,

एस्तु सन्धि के

जब वाक्यगत शब्दों में उद्िता हो या विराम

ीत न

हो। विराम होने हु पर सन्दि

नई होठी, यथा-- मित्र, एडि, ऋअवुन्दारेम जनम्‌।॥7 यहाँ मिक्र और एंड के बीच में विराम अपेक्षित हे, परल्तु अनुश्द्ार और इमम्‌ के दीच में विराम अषेक्धिद नहीं हे ॥ पद्य में तो यदि सन्धि छा अपठरहोऔर न की जाप दो जिहा क।

दोप होता है--“न रुहिता विवक्ामीत्यउन्धान परदेषु मत्तद्विउन्धीति निर्दिध्य मु ६ छाझादरे

)।रलोक के अपर और दृतोय चरणों के पीछे शिशेें नेविराममे/]

माना, अतः वर्ड अवरप सपि होती हैं। दायमद शव हुदषन्चु ऋदि के मगयों में चाक्त्य के ऋन्तगव पदों में सदैव सन्दि मिलती है|

बृहदू-अनुषाद-चन्द्रिका

अक सबरणों दीप: ।३॥११०१

१--दीघ सन्धि «»

जब हृस्व या दी स्वर के याद हस्व या दीघ॑ स्वर आवें तब दोनों,के स्थान मे दौध स्वर हो जाता है, जैसे--रत्त + ग्राकर; # रनाकरः । _/ ध यहाँ पर 'रल' के (व! मे जो हस्व अकार है उसके बाद श्राकरः का दीप

आग आता है, इतलिए, ऊपर के नियम के अनुप्तार दोनों के (हस्‍्व त्र! और दीप &आा! के) स्थान में दौ् आ' हो गया, इसी प्रकार-हि

सुर + श्रष्षि + सुरारि: [्ज हिम + आलयः - हिमालय: +

गिरि + इन्द्र ८ गिरीरदः । क्िति+ ईशः 5 क्षितोशः ।

दया + श्रणंवः 5 दयाणवः |

सुधी + इन्द्रः ८ सुधीनद्राः ।

विद्या +आलय--विद्यालय: |

श्री + इश३ ८ भीशः !

गुरु +उपदेश:-मगुरुपदेशः । वधू+उत्सव: > वधूतसदः|. लघु + ऊमिः--लघूर्मि: । पिठ + ऋणमपिनुणम्‌ । यदि ऋ था लू के बाद ह॒स्व ऋ या लू ध्ार्वे तो दोनों के स्थान[में ऋ यालू स्वेच्छा से कर सकते ई जे्धे-होत +ऋकारू-डनुकार या होठ ऋकार।। ) दे+ लु॒कारःनहोत्‌ लुकार या होतू लुकारः | पंच

हु;

२--शुणणसन्धि रे

श्रदेट गुणः|. ।॥ आदशुणः ।६१८७।

है

दर

यदि थ! अथवा था? केबाद हस्व वा दीघ '£? आये तो दोनों के स्थान मैं 'ए7 हो जाता है, और यदि हस्व 'उ? या दी “ऊ' थ्रावे तो दोनों के

, थथान में 'थ्रो” हो जाता है, और यदि हस्व 'ऋ' या दीप ऋ श्रावे तो दोनों के / ध्यान में आर! हो जाता है, और यदि लू आये तो दोनों के स्थान में अल! गुण ही जाता ई; यथा--देव + इन्द्रः ८ देवेन्द्र: । यहाँ पर देव के व! में श्र! है, उसके लाद इन्द्र को 'इ” है, इसलिए ऊपर के नियम के अनुसार दोनों (देव के 'श्र' और एनं्र की ३? के स्थान में 'ए! हो गया इसी प्रकार--

न झर्र; 5 उपेन्द । ।7६+ईशः ू सुरेश: । ,या+इति ८तयेति | - (मा+इैश। रमेश: । व देव + उपदेशः + द्वितोपदेश:।

गंगा + उदकम्‌रूगगोदकम्‌ | पीन + ऊछः पीनोदः । देव + झपिः ८ देवापिः ! महा + ऋषिः > महू: । तब + लूकारः तबज्कारः दत्यादि |

#परण के अ्पवाद--

्कछ (अत्तादूट्टिन्यामुपसदख्यानम् ‌ वा०) श्रत्ञ

प्रैगीनी दे और अत्तौदिणी बनता है।

+ऊदिनी में गुण न होकर व्द्धि

(पादीरिरिंणो: वा०) जब स्प शब्द के बाद इए और स्वैसी ।

के

िटग ०



(आदूद्दोढोब्य पेप्येषु बा०) जब प्र के बाद ऊडें, ऊढ, ऊटि, एप, पप्य आते प्रऊऊटभ्न्प्रौद मर ब्रौदः। हैं तब गुय न होकर वृद्धि होती है, प्र * ऊटि। >प्रौढिः । ये दो उदाइस्य आदुदयुय/ के अपवाद हैं। ४४ 3

छ।

प्र+ एपः ज प्रेपः । प्र + एप्वः > प्रे्यः ।यह रूप एडिपररूूपम का अपवाद ६

उपसर्मोददति घादी ।६ १६१ यदि अरकारान्त उपठर्ग के बाद ऐसी घाव आवे जिसके आदि में हस्व “ऋ' हो तो अर! और ऋ के स्पान में थार!

हो जाता है,

यथा--उपर + ऋच्छाव - उपाच्छात । यदि नामघातु हो तो “थआार'

विकल्प से

यथा--प्र + ऋषमादात 5 प्रापमायांत, यति,

मात

च्रतादई)।

प्रधमायत

(ैल

का

पा

झाचर रु

पह

(ऋते च तृतीया समासे वा०9) जब ऋव के उाय छिसी पूबंगारी शब्द छा तृतीया सम्यस हा तद भी पूर्वंगार्मी अद्धान्त शब्द के मिलकर यार! होगा ऋर

ऋत्यकः

ओर छत के छत

।6१२८। (ऋति परे पदान्ता अऋकः प्राग्वव) &आ, इई, उ ऊ,

ऋ ऋ तथा लू जब किसी पद के अन्त में रहें और इनके बाद हस्व ऋ आावे तब

पदान्त अक दिकल्तय से हत्व दो जाते हैं, यइ निप्रम गुझ रुन्धि का विकल्द उपस्पित करता है, यया-ब्रह्म + ऋषिः 5 द्रह्नाए८ ऋषि:। सतत ऋषीएान -्स्झ्यप्रार, संत ऋषपाराम

जरा स्ति आकर

लकी

श्झवृद्धिसन्धि बृद्धिरेचि ।$। १-5 वृद्धिरादच ।शराश ७9)यदि अर आओ के बाद सदि दो या '

४2

६ कि

या ्ेए आये तो दोनों के स्थान में लि और

आदें तो दोनों के स्थान में औः-इद्धि हो जाती है; जैसे--

अद्य + एवं अद्येव | +४ देव + ऐश्य मर८देवेधयम । ठया+ एड जतथैद | जिद्या + ऐश्वरम्‌८विद्येशबयरू

तसडुल +ओोदनम्‌+ठरइलौदनम समझ + ओऔपधि: ८ महौपतिः ध८! महा + ऋौपधन्‌-महौपघम्‌ ्श

इतादि।

अपपापभनियनादाह पररूपम्‌ इाताइट अचारान्त उपसर्म के दाद एड्आरादि या ओऊझाशादि घातु आदेतो दान के स्थान में ए या ओो' हो जाता है, यया-हय्र + एजते >प्रेजते । उर+डपोष॑ति; किन्तु यदि नामबातु ऋआवे दोविछझल्प से बृद्धि होता है(वा रुरे)

+छडडीयति ८उपेडद्धीपति, उपैडकछीदत ] प्र +ओशबीयति>प्रौपीयतति, घा०) एड़केराय मी जद अनिश्वय का बोब हो तद



बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

प्रवंगामी थ्रकारान्त शब्द का अ? और एवं का ए? मिलकर 'ए! ही रह जावँगे, जैसे--क्व + एव भोक्ये ८क्वेव भोद्यसे (कहीं खाओय)॥। जब अतिश्वय लहीं

रहेगा तब (ए! ही होगा, वधा--तब + एवं >तवेब । (३) (शकन्ध्यादिपु पररूप॑ वाच्यम्‌ घा०।तच्चट+ घा०) शक + अन्य), कुल +|, मनस्‌ +$पा इत्यादि उऊदाहरों मे मी परवर्ता शब्द के आदि स्वर का ही अस्तित्व रहता है। पृवरवर्त्ती शब्द के टिका लोप हो जाता है। इन में दो उदाहरण ध्यूकः संवर्ग दीय:! सूत्र से होने वाली सबण दीघ्र सन्धि के अपपाद हैँ, यथॉ--

मार्त +झण्टः >मार्तस्ट:,, कक +अन्धुः ८ककन्युए,.. शक + अन्युः #्शकरधुः, कुल +श्रटा >कुलठा ।नस +ईया रू भनीपा | (ञआ) (सीमन्तः केशवश) वालों में माँग के रथ में सीम + अन्तः ८सीमन्तः होगा, अन्यथा सीमान्तः (दृढ) रूप दोगा ।

(आ) (ओरस्घोष्टयो+ समाप्ते धा०) सभाठ में श्रोव और ओोष्ठ के परे रहते हुए विकल्प से पररूप होता है, यधा--स्थूल + झ्रोतः ८ स्थूलोनुग, स्थूलौतुए। विम्ब +

ओएः + विम्बोष, विग्वी5:। (इ) (सारडः पशुपक्षिणों) पशु-पक्षी के झथथ में मार+गअद्नः अन्यथा साराज्ः रूप वनगा |

हर

सार,

४--यणसन्धि

इकोयणाचिं।803७

22222

(९) जब हम्व इ या दीब ईके वाद इ,६ को छोड़कर कोई दृसरा स्वर झ्रावे तब ३? *६ केस्थान में यू द्वो जाता हे (५) उब उ या ऊ के वाद उ, ऊ को छोड़कर कोई दूसरा स्व॒र आंच तब ड,

ऊ! के स्थान में व! हो जाता है, _» ३) जब कर या क के बाद क्र ऋ को छोड़कर कोई दूसरा स्वर झ्रावे तब आव्य! के स्थान में 'र! हो जाता है, उस--

(१) यदि 5अपिलन यद्यपि । नदी +उदक्म्‌ ८नद्दक्म्‌ | इति+ झाह ८ दृत्याद ।_/ ग्रति+ एकम

्ब्डी

(7)- श्र + अब: ; गुरु + आदेश: ८गुबदिशः शिशु +ऐक्यम्‌ 5शिश्वैक्यम्‌ ।

>प्रत्येक्म्‌ । /

प्रति +उपकरारः -यत्युपफार:]

"वा

,

(3)--पिल् + उपदेश:

मातृ+अनुमति: ८सावचुमति:

> एवोइयबायाब+ [$0७८।

देश:

पिश्ुपदेशः

लु+श्राहृतिः न लाॉफति: |

-अ्रयाद्रि,चतूछस

ए, ऐ, थो, औ, के बाद जब कोई स्वर झ्ाता ईद तब 'ए! के स्थान में शा

थ्रो! के अब / के ओआय! और श्र! के स्थान में द्रव! हो जाता है, जैस्े--

सन्धि-प्ररस्ण श्षे+ अनम्‌ ८ शयनम्‌ ।

१७ मो+अति ल्‍ मयति |

ने + प्रनम्‌ ८नयनम्‌ ।

बटो + झा. + वटदइक्ः । -

नै+ थक

पौ+ अर पाये: इत्यादि |

८नायक । ४

(१) लोपः शास्ल्यस्य ।दाण। (६।

पदान्त बू या यू ज् ठऊ प्रय॑ यदि श्र था आ रहे ओर पश्चात्‌ काई स्वर आये तो यू और व्‌ का लध्ष करना था न रूरना अपनी इच्छा पर निर्भर रहता है, जेसे--हरे + एहि >हरयेदि या हर एहि। . विप्णों+ इह ८पिष्णविह या तिष्ण तस्वै . इमानि ७

(१) थदसो मात्‌ 0१२

हर



जब श्रदम्‌ शब्दके मकार के वाद ई या ऊ थआते द तब प्रयष्म होते हैं, यधा-

'अमी ईशा), अम्‌आसाते ) _, ' (२) निपात एकाजनाइ ।॥ ४६४ आाड_के थठिरिक्त अन्य एक स्वरात्मक श्रव्य्यों कीभी अरब संता होती हे, वया-ह इन्द्र, सेउमेश, आ एवं नु मनन्‍्यसे ।

३) औओबू 8११५

जब व्यय ओकारान्त हो तब शो को प्रणक्ष कदते है, यथा-ग्रहो ईशाः ।

(४) सम्बुद्धो शाकल्यस्थेताबनाथें ।ध११६।

संज्ञा शब्दों केसम्बोधत के अन्त के ओकार के याद 'इति' शब्द आये तो सम्दुद्विनिमित्तक ओकार को विकल्प से प्रणक्य संता होती है, यथा-पिष्णों दति «विष्णों इति, विष्णविति, विप्ण इति।

|५७) प्लुनों झे साथ भी सत्थि नहों होती-यया-एढदि कृष्ण ३ अन्र गौअरति ।

; व्यज्ञन-सन्धि हे +4-सतोः श्चुना रचुः टाशश्ग यदि तवग से पहले या वाद में श्‌हल.या चवर्ग श्रावे तो से5 को शूश्रीर तब

पेय लुकोच्‌, दुफोज्‌,नकोभ्‌ शरीर मुफोश) वेसे--

उतू +चरितम्‌-सचस्तिम्‌| सत्‌+चित्‌८शुसित्‌ छद्‌ +जनः ८खजनः क्स्‌कचितू ८ कपमरित्‌ (2 पतत्‌+जनस् रूएतजलम ‌ | बृहद्‌+मरः ० वृहज्मयः सयुक शत ८ हरिश्देते |उत्‌+ चारंणम७उद्यासणनशाहञिन +कप ८शालचय

सन्धि प्रररण ६--शात्‌ 6४४४

श्‌ के याद तबग को चवर्ग नहीं होता है, वधा-प्रश्‌ +नविश+न >विश्न ।

प्रश्न |

१०-पडुना प्ड" ।॥८४४१९ स्‌ या तबरग से पहले या याद म प्‌ या तयमे कोई भी हो तो सूको प्‌ ओर तबर्ग को ब्यर्ग होता है। (त्‌कोट,दू कोड्‌, चुकों ण्‌ओऔरस कोप)

यथा-रामस + पष्ठ रामप्पष्ठ

|इप्‌+त ८३

| डदू+डीन >उड्डीन

रामस्‌ + टीऊते-रामष्टीक्त |दुप + ते ८दुए

पिप +नु विष्णु

पेष्‌ + त्ता

कृप्‌ +न ऋूकृष्ण

पेश

तत्‌ + टीका

११--(क) न पदान्ताद्रोस्नामू

ऋतद्दीफा

दाष्ट७-।

पद फे अन्तिम टवर्ग फेयाद नाम छोड़कर स्‌ और तब को प्‌ और टयग नहीं होता है, यथा--पट्‌ + सन्त पट सन्त | पद+ते पद ते। (ख) (अनामूनवतिनगरोणामिति वाच्यम्‌ वा०) ट्वेग के बाद नाम, नवति, नगरी हों वो “प्हुनाष्र ” के अहुसार इनके न्‌कीण्‌ होता है और आगे आनेवाले सूत्र (यरोड्नुनासिके जगदीश | उत्‌ ऊदेश्यम्‌८उद्देरयम्‌

१४-भला जशू सशि ।दशणश।

पट +आानन बुद्धि लभू +घ >लब्ध द+घ

८ दग्घ

द्राप + वा >द्रोग्चा

चृध्‌

+धि “वृद्धि

सिघ्‌ +थि

>सिद्धि

आरम्‌+धम्‌ ८ आरब्पम्‌

छुम+ध - छुब्ध

१५--यरोअ्लुनासिकेडलुनासिको बा।टाशएण। पदान्त यर्‌ (ह के अतिरिक्त सभी व्यक्षनों) केयाद यदि अनुनासिक (वर्ग का

र्‌०

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

पंचम अछर) हो तो यर को अपने बग का पंचम वण हो जाएगा। यह निवम ॥ पर निभर रहता है । (त्यये भाषायां नित्यम्‌ वा०) प्रत्यय के म॒ श्रादि के बाद में होने पर यह नियम ऐच्छिक नहीं होगा, अपि तु नित्य लगेगा । सत्‌ + माच्रम्‌ ८ तन्‍्माचम्‌ दिक्‌+नागः ७ दिदनागः |सद्‌ + मतिः ८ सन्मतिः कसत्‌ +कन्‌ ८ तन्न

पद्‌

तत्‌ + मयम॒ 5 तन्मबम्‌

+ नंगः न पन्चगः

एवत्‌+मुरारिःएतन्मुरारि/ पद +मुखः ८ परमुखः

बाक+मयम्‌ ८ वाइमयम्‌

१६-तोलि ।दश६ण तवग के बाद लू आयें तो तवर्ग को भी ल हो जाता है| (त्‌ या द्‌ू+लरः

सल, न्‌+ल लल) जैसे-तत्‌ +लयः ८ तहल्यः | तत्‌ + लोन > तल्‍लीनः

|

उद्‌4लेख: ८ उल्लेख: विद्वान+ लिखति > विद्वाल्लिखति

(७--छद स्थास्तम्भोः पूर्वत्य ।६08९॥ डद के बाद, यदि स्था या स्तम्मू धातु दो तो उसे पू्व॑सवर्ण होता है अधथांत्‌

स्था और स्तम्म के स्‌ फो थू होगा और वाद में “भरो भरि खबरें” के श्रनुसार थ का लोप॑ हो जायगा, थया--उद्‌ +स्थानम्८उत्थानम्‌। उद्‌ +स्तम्भनम उत्तम्मनम्‌ । दू को “खरि च” से तू ।

१४-मणोे भरि सब्णे ।52६५। व्यंजन के घाद सबरणण भार हो तो भर (बर्ग के प्रथम, द्विरीय, तृतीय और चतुर्थ अछ्ूर और शा प स ) का विकल्प ते लोप होता है, यथा--उंद्‌ + थ्‌ थानम्‌+ उत्यानम्‌। रन्‍्धू + धः ८रन्धः ।कृष्णर्‌ + घविः ८ कृणर्विः।

३६--मयो होडन्यंतरस्याम्‌ ।5॥४।

मय (वर्ग के प्रथम, दितोय, हृतीय ओर चतुर्थ अक्षर के बाद ह हो तो उसे दिक्य से पूवसवरण दोता है, अथात्‌ पू अक्षर के दग का चतुथ छक्षर ( घ्‌ ,भू टू, घ्‌, मू) दो जाता है। (कूयागू+ह>ग्ख, व्‌ या दू+ह४5) वागू+ हरिः > बाग्यरिय, बारूरि!। तदु+ द्वितः+ तडितः। श्रच्‌ + हुस्वः ८अज्कस्व

आपए+ इरणम्‌ >अब्भरणम्‌ |

२०--खसरि च ।८॥४/५५। बावसाने ।52५६॥ मल अनुतासिक व्यक्षन छू मद गून्‌) तथा अन्तस्थ बणों को छोड़फर श्र किसी व्यश्नन,फे बाद यदि खर (क ब्‌,चूछ,टद

त्थ्‌,प्‌फ्‌)में से

कोई बण आचे तो पूर्वोक्त व्यज्ञन के स्थान में चर्‌ अयात्‌ डसो वर्ग का प्रथम

अज्नर ही जाता ई, परन्तु जब उसके बाद कुछ भी नहों रहता तब डसके स्थान में ग्रथम या तृतीय वश हो जाता है, यथा--सद + कार > सत्काट,, सुद्दद +करीड़ति

+मुहन्कीदति | तज़ + शिव:

तब्लिव: | दिए + पाल: दिक पालः

पएलठ कोई वश आये न रहने पर--रामात्‌ , रामाद्‌ | बारू ,बाग्‌ |

सन्धि प्ररुरण

सर

२१-शश्द्योडटि ।505३ पदान्त कय



(उर्ग के अथम, द्वितीय

हु

ढुतोय, चतुथ अक्षर) के बाद श्‌हदोतो

उससे छू हो जाता है, यदि उस शू केयाद अट्‌ (स्वर, ई , यू, ब, २)हो तो श्‌

को छूहोते पर पयववा द्‌ को “स्तो चुना इचु ” से जु और ज॒का “खरिच' से

च्‌, प्बंबती त्‌ हो नो “स्तो झचुना इसे चू। यह नियम चक्ह्यिक है, बधा-+ तद्‌(तव्‌)+ शिव 5 तब्छिव तब्शिव |सन्‌ + शील. > रुच्छील तद्‌ (तत्‌)+ शिला ८ तच्छिला, तच्शिला उत्‌ + श्राय 5 उच्छाय

(छत्वममीति वान्यम्‌ बा०) है 30९२ श्‌केदाद अम्‌ (स्वर, ह, अन्त स्थ, वर्ग का पद्मम दर) हो तो भी श्‌ को ५

व) विकल्प

से छहोगा। तत्‌ + श्लोरेन ८तच्छनोफेन, तच्‌श्लाकेन ।

२-मो5लुस्थारः न झरेइ।

है

हु

यदि बाद में काई हल्‌दर्णहो तो पदान्त म्‌ को अनुत्वार (-) हो जाता है, परन्तु बाद म स्प॒र हागा ता अनुस्वार नहीं होगा, यया-हरिम्‌ + बन्दे ८ हरि बन्दे सत्यम्‌ू +वद्‌ सत्य बद

कायम्‌ + कुछ ८ कार्य कुछ

घमम्‌+चर > धर्म चर

२३--नश्वापदान्तस्य मलि ।नाशर्ष्ट

है

बाद में कल (बर्ग क प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ अच्तर) हो तो अपदान्त च्‌ और म्‌ को अनुस्वार (-) हो जाता है, यया-यशान्‌+सि>यशासि। प्रयानु +सि >पयासि | नम्‌+स्यतिनत्यति। आक्रम्‌+ स्थते + भ्राकस्वते । यह नियम पद के बीच में लगता है ।

२४-अलुस्वासस्य ययि परसवर्णः जैश५5।

अनुस्वार के अनन्तर यय्‌ (श,प, स, ह को छोइऊर सभी व्यजन) हो तो अनुत्वार को परख्वर्ण (अगले वर्ग का पत्मम वर्ण) हो जाता है, यथा-थअ+कः ८ अड्ड श+कान्शहझ्ा

अ+ चित. ८ अश्वितः कु+ठितः- कुण्ठितः

शा+तः ८ शान्तः गु+ फितः न गुग्फितः

२५--ा पदान्तस्य 5४५६ पद्‌ के अन्तिम ग्रनुत्वार के अनन्तर यय्‌ (श, प, उ, ह को छोड़कर कोई भी

व्यज्ञन) हो तो अनुस्वार को पस्सवर्ण विकल्प से होगा। यह नियम पदान्त झे लगता है,यया--त्व + करोषि त्वझ्रोपि, व करोषि । ठूणम्‌+चरति - ठूण चरनि या तृणअरति | आम +गच्छुति >प्राम गच्छति या आमद्गच्छुति

२६--भो राजि समः् को दशा

सम्‌ के अनन्तर राज शब्दहो तो सम्‌ के म्‌ ज्वो म्‌ ही रहता है, उसके

जज॒त्वार नहीं होता, यया--सम्‌+राट-समप्राट्‌ |सम्राजौ, सम्राजः ।

+७--इणोः हफूडुक्शरि दान रद

डया श्‌केअनेन्तर शर्‌(श, प, स))े तो विफल से वीच से कया ट्‌ जुड व

सर

बृददून्यनुधाद-चन्द्रिका

जाते ई। इ के दाद छू और ख्‌के वाद द्‌। प्राइ+प्ठः ८ प्राइजषष:, प्रइपढ:।

मुगस +पछ ८ मुगशदुघघ्र, मुगशघछ्ठः ।

>

इन-डः सि घुद ।दाई। रहा ड के अनन्तरस॒ होतों बीच में घ्‌विकल्प से जुड़ जाता है। प्वरि च से ध्‌ कोत्‌ और पृर्ववर्ती ड्‌को टू । पड+सन्तः ८ पटत्सन्त:, पद्सन्तः । २६-नश्व ।ददासण

न्‌के वाद सह्दों तो बीच में विकल्प से शूजुड़ जाता है। “खरि चर से ध

को ह्‌ होता है, यधा--सत्‌ + स: ८ सनन्‍्तस:, सनन्‍्सः ।

३०--हि हुझू 2४११8 पदान्त न्‌केअनन्दर श हो तो विकह् से बीच में त्‌ छुड़ जाता है “शशद्योडदि/ से ग्‌ कोछू । सब +शम्भः «सजच्छम्मुः, सज्छम्मुः ।

३९-डमो हस्वादचि डमुण नित्यम्‌।८/३।३२| हस्व स्वर के थाद ड ण्‌ न्‌होंओर वाद में कोई स्वर द्वी तो बीच मे एक

ड, श्‌,न और जुड़ जाता है, यथा-प्रत्ययू+आत्मा 5प्रत्यदटात्मा । मुगण+ इशः >मुगणणीशः | सन्‌+अच्युतः र सन्नच्युतः । ३४--समः छुदि ।दाआथा अचाजुनासिकः पूर्वस्य सु बा ।जरेर) अन्नाहुता

सिकात्परोषतुस्थारः ।ल्‍१४ (संपुकानां सो बक्तव्यः वा०)

सम+स्कर्ता में मूकेस्थान पर र्‌ द्वीकर स्‌ हो जाता है तथा उससे पहले

अगुस्थार (-) या अतुनासिक ( *) लग जाता

| बीच से एक स्‌छुप्तमी हा

जाएगा। सम+ स्कर्ता ८ सेंस्कर्ता, सम+ कृघातु हीनेपर इसी भाँति # स्‌लगाकर सम्वि होगी, वथ्वा--सस्करोंति, संस्कृवम्‌,संस्कार: झादि ।

३३--पुम+ खयम्परे ।586 यदि बाइ में कोझिल;, पुत्र; आदि हों तो पुम्‌ के म्‌ को र द्वोकर “समः सुटि”

पे सू दीजायया, स्‌ से पदले + था लग जाएँगे, यथा--पुम्‌ +कॉकिल। पुंरफोकिलः | पम्‌+ पुत्र: पुंरयुतरः

३४--नश्छन्यप्रशाव #श७

पद के अन्तिम मूकोइ (५सम) दोता ई, यदि छब्‌ (च्‌,छ,दू, दूत,

थ्‌)बाद में ही आर छबद्‌केअनस्तर अरम्‌ (ल्वर, दे, अन्तःस्थ बर्ग केपंचम

श्र) दो तो । प्रशान्‌ शब्द में यद नियम सर्दी लगेगा । न्‌ को स होने पर उससे

पहले + या” लग जाएँगे। इस विप््म का रूप होमा-न्‌ +छवबू«* स्‌ +छुव,

वा+सू+छप्‌ |शचुल की प्रति होने पर “लोस्जुना श्चु/ के श्रनुसार हीहोगा । करिमिन्‌+चितू # क्त्मिश्िंत्‌ चनन्‌ + टिट्विमः क चलशिट्टिम: महान्‌+छेदः «मद्दाएेदः चतिन्‌+भायस्व 5 चक्सायरव तर्मिन्‌+बरी ८ तरिमस्तरी

प्रवन्‌कतद्ध: - पनंस्तुद+

सन्वि-प्कस्ण

र्३्‌

३५-- कानाम्रे डिते ।5३१२। कान्‌+ कान्‌ में पहले कान्‌ के न्‌कोर होकर स्‌ होगा और उससे पहले ”या

- लगेगा। कान्‌+कान्‌5कॉस्फान्‌ ,कास्कान्‌ ।

३६--(अ) छे च ।६।१।७३। हस्व स्व॒र के बाद छू हो तो बीच में त्‌ लग जाता है और “स्तोश्चुना रचुः” से त्‌ फोच्‌हो जाएगा, यथा--स्व॒ + छाया 5 स्वच्छाया। शिव + छाया ८ शिवच्छाया । स्व॒ + छुन्दः ८ स्वच्छुन्दः |

एञआ) दीवातू ।६।१।७७। दीघ स्वर के वाद छ हो तो भी वीच मे त्‌ लगेगा, त्‌ को च्‌ हो जाता है, यथा--चे + छिद्ते 5चेच्छियते । ई) पदान्‍्तादू था ।६।१७६॥ पद के अन्तिम दीघ अक्षर के वाद छ हो तो

पिकल्प से त्‌ लगेगा, यथा--लक्ष्मी + छाया ८लक्ष्मीच्छाया, लक्ष्मीछ्ाया ।

(3) आइसमाइेश्व

।६१७४। आ और मा के वाद छ हो तो नित्य त्‌

लगेगा। त्‌ को च्‌ हो जाता है, यथा--द्रा + छादयति 5श्राच्छादयति ।

न ३६७--ससजुपो रेमाराहह।



>_ हक

पद के अ्रन्तिम सू को रु (र ) होता हैं तथा सजुप्‌ शब्द केप्‌को भी रु होता है । (विशेष--इस रु ( २)को साधारणतया अगले नियम से विसमे: ट्री होकर दिसर्ग ही शेप रहता है।) यथा--राम-+-स्‌ ८रामः, कृष्ण +स्‌ ८कृष्ण: विस को “ग्रतोरोसप्लुतादप्लुते” “हशि च” “भो भगो०” सू्ों से उ याय्‌ होता है।

जहाँ उ या य्‌ नहीं होगा, वहाँ र्‌ शेप रहता हे ।अतः श्र आ के अ्रतिरिक्त अन्य स्वरों केबाद स्‌ या विसग का र्‌ शेय रहता है, वाद मे कोई स्वर या व्यजन (वग के द्वितीय, तृतीय, पचम अक्षर) हों तो| यथा-हरि; + अवदत्‌ ८हरिर्वद्त्‌ वधू: + एपा ८ वधूरेपा

शिशु; +आगच्छ॒ुत्‌८शिशुरागच्छ॒त्‌ |गुरोः + मापणम्‌ > गुरोम[पणम्‌ पिठुः+ इच्छा 5 पिवरिच्छा

हरेः + द्रव्यम्‌ -हरेट्रव्यम्‌

इ८-खरबसानयोर्विसजनीयः ।घा३।१७ा यदि आगे सर (बग के प्रथम, द्वितोय अक्षर या श पर) होया कुछ न हो तो २का विसग होता है, यथा--पुनर ८पृच्छुति5 पुनः एच्छुति | राम+स

(२) ८रामः। विशेष-पु० शब्दों के प्रथमा एक० में जो विसग रहता है, वह

स्‌ का ही विसग है, उसको “ससल्ञुप्रो से र्‌ को विसग (: ) होता है । ३६--विसूजनीयस्य सः ।८श३४।

5.” से रु (र) होता है और“सरवसान०?

विश्ग के बाद खर (वर्ग के प्रथम, द्वितीय अक्षर या शप स हो तो विसर्ग

कोसूदो जाता है। (श्‌या चबवर्ग वाद में होतो “स्तोश्चुना श्चुः् से श्रुत्व सन्वि भी होती है), यथा--

रद

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

विष्णु: + चायते ८ विष्णुख्रायते बाल: + तिष्ठति 5 रामस्विएठति कः + चित्‌ ८ कश्वित्‌ ४०-बा शरि ।ढ११३१६।

| हरि: + त्राता +हरिस्ताता बाल: +चलति 5 वालश्लति गज ३ तिएन्ति +ू गजास्ति४ठन्ति ।

विस्ग फे वाद शर्‌ (श, प, स) हो तो विस को विस या स्‌ विकल से

होते हैं। श्लुत्व या प्डन्ब यथाचित होगे, वधा--

हरि: +शेते ८ ह रे'शेते, दरिश्शेद्धे

|खम:्क एछ:८ समष्ण४५

राम +शेतेजरामःशेते, रामश्शेते |बालः+स्वपिति > वालस्स्वपिति

४१--शर्परे दिसजनीयः ८२५!

यदि विसर्ग के बाद आने वाले खर्‌प्रत्याह्यर के वर्ण के बाद श्प्स_

में में कोई एक अक्षर आवे तो विसग के स्थान में स्‌नहीं होता, यथा-कः + त्सरु: ८ कः स्सरः |

४२--सो5पदादो ।5/३।३८। पाशकल्पककाम्येप्वितिवाच्यम्‌ |वा०। पाश, कल्प,

क और काम्य प्रत्यय वाद में हों तो विस को स्‌ हो

जाता है,यथा--पंयः +- पोशम + पयस्पाशम |यशः + कल्पम्‌नयशस्कल्पम। यशः-कम्‌ ८ यशस्कम्‌ | यशस्काम्यति । ४३-इण पः ।८११६।

पाश, कल्प, क, काम्य प्रत्यय बाद में हों तो विस को यदि वह विसर्ग इ, छ

के बाद हो तो प्‌हो जाता है, यथा--तसर्पिष्पाशम्‌ ; सर्पिप्कल्पम्‌ , सर्पिप्फम्‌ ।

४४--कर्कादिषु च ।४३।४८ कर्क आदि शर्ब्दों में विसर्ग सेपहले अ्या आरा हो तो विसग को स्‌ होता दे, यदि इण्‌ (इ, उ) हो तो प्‌ होता है, यथा-कः--फः ८ कस्कः | कीत/--कुतः 5 कौतस्कुतः | सर्पि:|-कुश्डिका८सर्यिप्कुश्डिका | पनु;-|-कपालम्‌८

घनुष्कपालम्‌ । भाः-+ कर:८ मास्करः । ४५--नमस्पुर सोगत्योः हशि४ेणे यदि कवग्ग या पवर्ग परे हो तो भतिसंशकू नमल्‌ को विकल्प से और पुरस के विश्वर्ग को नित्य स्‌ होता दै। (क धातु वाद में होती दैतो नमस , पुर,

गतिसंशञक दोते ६), यथा--नम।+ करोतिं + नमस्करोति या नमः करोति |घुरःके करोति ८ पुरस्करोति |

४६-इदुद्युपधस्य चाप्रत्यवस्य ।5३॥४९ उपधा (श्रन्तिम बर्ण से पूवंवश) में इया उ दो और बाद में कवर्ग का पवर्गं

हो सो इ याउ के विस्ग को प्‌होता है। यह विम्र्ग थत्यय का नहीं दोना चादिए, यथा-नि+अत्यूइम्‌ «निष्पत्यूइम्‌ | निः+करान्तः ८ निष्झान्तः) शआविः केइतम्‌ >थ्ाविष्कृतम | दु४+ झृतम्‌ < दुष्कृतम्‌ |

४७--विस्मोउन्यतरस्थाम 5 श्र] यदि तिस्सफेबाद क्‌ सू, प्‌ प्र श्रार्ें तो विसर्ग को स्‌विफल कर्म

से होता



सन्धि-अकरण

5 पथा--हिरः+ करोति 5 तिरस्करोति, तिरःसुरोति |तिरः + झृतम्‌«तिरस्कृतम्‌, विर; इृतम्‌ |

४८४-इसुसोः सामप्ये [प/श४७। है 23 पवर्ग परेरहनेपर इस और उस्‌ के विसर्ग को विकल्य से प्‌ होता है। दोनों पदों में मिलने की सामथ्य होनी चाहिए, वी प्‌होगा,

यथा---सर्प: + करोति >सर्पि्करोति, सर्पिष्फरोति | धनुः + करोति >धनुप्केरोति, घनु'करोति ।

४६--नित्यं समासे&नुत्तरपद्स्थस्य।5/३।४५।





समास होने पर इस और उस्‌के विसगे को नित्य घ्‌ होगा, कवर्ग या पवर्ग

परे रहने पर। इस और उस्‌ वाला शब्द उत्तरपद (बाद के पद) में नहीं होना चाहिए, यथा--सर्पि; +कुरिडका * सर्पिप्कुरिडिका ।

५०--हिडिश्वर्तुिति इत्वोष्थ ।पशश्श यदि वार-वार वाचक द्वि,, नि और चतु। क्रिया-विशेषण अ्रव्ययों के परे

कण, १ फुआयेंतो विसर्ग के स्थान में विकल्प से प्‌ होता है, यथा--

द्वि: + क्रोवि ८छ्विस्करोति, द्विप्करीति या द्विशकरोति। नि;+खादतिऊ जिण्खादति, त्िः्लादति। चतुः+पठति >चतुष्पठति, चतुशढुति, किन्तु चतुष्फपालम नहीं होगा, क्योंकि, चतुः क्रिया-विशेषण अव्यय नहीं है।

५१--अतः झृकमिकंसकुम्भपात्रकुशाकर्णी प्वनव्ययस्थ ।5३४६॥ अ के बाद समास्र में यदि रू कम्‌ आदि हीं तो विसर्ग को स्‌ नित्य

होता है,यह विसमे अव्यय का नहों होना चाहिए और उत्तर पद मे न होना चाहिए यथा--अथः+ कार; >अयस्कार: | श्रयः+कामः८-अयस्कामः । इसो प्रकार अपस्करा, अपस्युम्भ;, अयस्पात्रम्‌, अयस्कुशा, अयस्कर्णों ।

५२--अतो रोसप्जुतादप्लुते (११३

हेस्व झ॒केयाद रु (सके _ या) को उ हो जाता है, यदि हस्त अर परे

हो दो । (विशेष-इस ऊ को पूर्वर्ती अ के साथ “आ्रादूगुण/” से गुण (ओ)

हो जाता है और बाद में अ को “एडः पदाल्तादति” से पूवरूप सधि होती है |

(थवएव अर +ञ्र 5 ओड ह्वोता है |) जैसे-शिवः + अर्च्य: - शिवोड्च्य: के + अवम्‌+कोध्यम्‌ बाल: + अस्ति 5 बालो5स्ति

यथः + अप रू योजपि

डपः + अवदत्‌ +- रपोब्व दुत्‌ देव: + अधुना < देबोब्युनारे

५३-हशि च ।३९ श्र _बद में हशू (वर्ग के तृतोय, चतु्य, पद्चम अक्तर ह, अन्तःस्थ) हो तो हस्व श्र के बाद रु (सूकेर या9 को उ हो जाता है। (विशेर--सम्विनियम “आततो सैरप्लुतादप्लुते” तब लगता है जद बादमेऋ हो और "“हरिच” तब॒ लगता है जब

र६

बृहदू-अनुवा द-चन्द्रिका

बाद मे हश्‌ दो।उ करने के बाद “दादगुणः” सेग्र+ उ को गुण दोकर ओो होगा। ८ओ +हश्‌होगा, अ्र्धात्‌ झः को ओ होगा ।)बधा-अतः अः+ हश्‌ शिव: + वन्द्ः न शिवों वन्धचः राम१+ बद॒ति 5 रामो बद॒ति

|गजा+ गच्छुति 5 गजो गच्छूतिं दालः + हसति + बाली हसति

५४--मोभगोअपघोअपूरव॑स्य योईशि शा र या 9 को मो, भगो| श्रधोः शब्द और अर याआके बाद ८ (सूकाचत॒य, पश्चम ठृठीय, के वर्ग , अ्न्तःस्थ ह, (स्वर, अ्रश्‌ में बाद यदि है, यू द्ोता में देखें | अर्र) हो तो | विशेष--इसके उदाहरण आगे “लोप: शाकल्पस्प” ५०--हलि सर्वेपाम्‌ ।5३।२ कालोप श्रवरय हो भोः, भगो, अधोः शब्द और अया आर के बाद यू जाता है, व्यज्ञन के परे रहने पर । विशेष--इसके उदाहरण आगे देखे ।

पतन

५६--लोप शाकल्यस्य ।च३।१६

श्रया था पहले हो तो पदान्त यू और यू का लोप विकल्प से होता हे, अश(स्वर, ह, अन्तःरुप, बगे के तृतीय, चतुर्थ और परम अक्तर) के बाद मे होने पर । विशेष--भोश्गमोः अघो० के यू केयाद व्यज्ञषन होगा वो हलिसवेधाम” से यू कालोप थवश्य होगा। य्‌केवाद यदि कोई स्वर आदि होगा वो“लोप+ शाकल्यस्य से यू कालोप ऐच्छिक होगा। यू का लोप द्वीते पर कोई दीप, गुण, वृद्धि श्रादि सन्धि नहीं होतो है, यया-नरा:+ गय्डन्ति नशा गच्छन्ति मो: + देवा; रू भो देवा+ देवाः + इह > देवा इह, देवायिह देवाः + नम्याः रे देवा नम्याः मराः + यान्ति ८ नेरा यान्ति

सुतः + भ्रागच्छुति # मुत आयच्छुति

५७-(क) रोधसुपि 5स६६।

बाद में कोई मप्‌(विभक्ति) न द्वो तोअइन्‌ के न्‌ को र्‌ द्वोता है, यथा--

अहत्‌ +अहः +शहरहः । अदन्‌ +गणः 5 अदगंणः । .. (ख) (रूपरात्रिस्थन्तरेपु रुत्व॑ बाच्यम्‌वा०)रूप, रात्रि, रयन्तर परे हों तो श्रइन्‌ के न्‌ को र होता है श्रीर उसको “हशि च” से उ होगा और “थादगुणः” से गुण होकर झी होगा, यथा--अदद्‌+रुपम्‌८अ्रद्दोस्पप्‌ , अहन्‌नेरात > अहोरात्र: ।

इसी प्रकार श्रद्दोरथन्तरम्‌ | (ग) (अद्दरादीनां पत्यांदिपु वा रेफः वा०) झरदर_श्ादि के र_के दाद पति

श्रादि होंतो र कोर्‌विकल्‍प से रहता है, यथा--श्रदर +पतिः-श्रहर्पतिः | इसी प्रकार गंधति।,, धूरंतिए, अन्यया विसय रहता है । ५+-से रि।-शश्ट र्‌ के बाद र्‌दो तो पहले र्‌ कालोप दो झावा है ।

सन्धि प्रररण

२७

«६-ढलोपे पूर्व॑स्य दीवोडण हाशर? शक

है

दूथीर कालोप हुआ हो तो उससे पूर्वर्ता अ, इ, उ को दीघ॑ हो जाता है,

यथा--उद््‌+ढ

ऊढ , लिद +ढ ज्लीद ।

पुनर्‌+-रमतेंपुना रमते

शसुरुर+ रूए -गुरू रुए

शिशुर्‌+रोदिवि-शिश रोदिति ।अन्तर+-राष्रिय:-अ्न्ताराष््रिय

६०-- एतत्तदो. सुल्लोपोषड़रोस्नअसमासे हलि ।६।४॥ १३श

स और एप के विसर्म के परे कोई व्यञ्ञन हो तो बिसरग का लोप होता है। (सके , एपक , अस अ्रनेष के विसर्ग का लोप नहीं होता है। ) (१) स +-गब्छुतिरुस गब्छुति (२) स +ग्पिजसो5पि एप +विष्णु -एप विष्णु रु +इच्छुति-स इच्छ्ति यदि नज् तत्पुरुष मं स और एप (थ्रर्थात्‌ श्रस, अनेप ) आबे अभवा कर में परिणत द्वाकर ( सफर , एपक ) आवे तो विस का लोप नहीं होगा, अरस

पिप्णु का अस विष्णु नहीं होगा तथा एपफ गज का एपक गज

नहीं होगा,

किखु स अत >सोध्य तथा एप +अन ८ एपोड्य होगा, क्योंकि श्र हल्‌ नहीं हे ।

६१-सोड$चि लोपे चेत्पादपूरणम्‌।३१११४।

स्‌ क प्रिसर्ग का लाप हा जाता है, स्पर परे रहने पर और लोप फरने से यदि शलाक क पाद को प्रति हो । स एप >सैत्र दाशरथा राम सैय राजा युधिष्ठिर । ६२--णत्वविधान रपाभ्या नोण समानपदे । अट्कुप्बाड नुमूव्यवायेडपि ।5।2१-२। (ऋचर्णा

ऋअस्य खत्व वान्यम्‌ वा०) ऋ ऋ २ और प्‌ इनचार वर्णों से परे न का ण हाता

है जेस जणाम:नुणाम्‌ , चतसुणाम्‌ ,भ्रातृणाम्‌ , चठ्खाम्‌ ,विस्तोग॑म्‌ , दाष्णम्‌ , पुष्णाति आदि ।

अम्बर बर्श फ्वग, पवर्ग, यू ,व्‌, ह_, र और था और न्‌ से व्यवधाम होने

पर य्र्थात्‌ थेसप् याच में भी पड़ जाये तो भी न्‌काण्‌ होता है, जैसे--कराग्णम्‌ , करिणा, गुरुणा, मगेण, मूसण, दपण, रवण, गवंण, अहाणाम्‌ इत्यादि

+ पदान्तस्थ ।508३७। पठढ क अन्त वाले न्‌काण्‌ नहां हाता, यथा--रामान्‌ , हरान्‌ ,भुरूत्‌ ,इच्तान्‌,आुन्‌इत्यादि |

६२--पत्व विधानां अपदान्तस्य मूधेन्य.] इए्को । आदेशप्रत्यययो- [दश५५, ५७, ५०। ग्र,

था भिन्न स्वर से अन्त स्थ बस, ह अ्रयवा कवर्ग से परे काई ग्रत्यय सम्यधा सया केइनकेअतिरिक् अरिरिततत अक्षरों ग्रतरसकेके मध्यस्थित मन्तस्वतहोने हमपरपरण्‌ रजत नहीं होता, जताजेस-अचना, फिररीदेन, अर्थेन, स्पशेंन,रसेन, इढानाम, अजनम्‌ इत्यादि | पैसात्‌ प्रतय के स्‌ का प्‌ नहीं हाता. जैसे--नदीयात्‌, वायुसात्‌ आतृसान्‌ वहिसातु इत्यादि।



“ते-नदीराव, वाइलाव,

2

द्ध

बहदू-्नुवाद-चन्दिका

कसी दूसरे वर्ण के स्थान में श्रादेश किया हुआ स्‌आवे और बह पदान्त का ने ] तो उस स्‌के स्थान में प्‌ होजाता है, यथा--रामे--सु ८ रामेघु |वने+-सु८

नेष !ए+साम्‌ 5 एपाम । अ्न्ये+ साम्‌८ अन्येपाम्‌ । इसी प्रकार मुनिष, नदीपु, पेनुपु, वधूषु, माय, गोष, स्लौपु श्ादि।

परन्तु राम +स्य ८ रामस्य, यहाँ स्‌ कोप्‌नहीं हुआ, क्योंकि स्‌ केपूव श्र हे,

ता+सुर-लतासु यहाँ मी पत्व नहीं हुआ। पेस+अति>पेसति यहाँस न तो कसी प्रत्यय का हैन श्रादेश का। पद के अन्त वाले स्‌ काधूनहीं होता, था-हरिः ।

नुम्‌विसजनीयरार्ब्यवाये5:प ।5।३।५५/ भ्रनुस्वार, विशर्ग, श्‌, प्‌, स्‌, का

यवधान होने पर अर्थात्‌ इनके बीच में रहने पर भी स्‌ का प्‌होता है, यथा--

बींपि, धन्नंपरि, आशीशु, ग्रायुःु, चक्तुषपु आदि, किन्तु पुँंछु मेसूका प्‌ हीं होता ।

हिन्दी में श्रतुवाद करो और विच्छेद करके सन्धि नियम बताओ-१--बविपमप्यमृतं क्वचिद्धवेदरत वा विपमीश्वरेच्छया। २३--पिवर्त्येवोदक वो मण्इकरेपु रुवत््पपि॥ ३-नाग्नित्दृष्यति काछ्ठााना मापगाना महोंदधि। ४-गशब्ययाय शूराणा जायते दि रणोत्सवः ५--श्रद्ट स ते परं मित्रमुपकारवशीकृत: ।

+-यद्भवान्मपुरं वक्ति सम्मह्यं माद्य रोचते ।७--शरदभ्रचलाश्चलेन्द्रिमैरमुरत्ञा हि

दुच्छुला: श्रियः | ८--सुखाद्य योयाति नरो दरिद्रता भृत्तः शरीरेण भूतः सा रीबति |£--को नाम लोके स्वयमात्मदोप्मुद्घाट्येत्रएप्रण: समासु | १०--विवबक्षता

ऐपमपि अ्युतात्मना त्ववैकमीशं प्रति साधु मापितम्‌। ११--बाल्वत्यच्र शकुन्तला तिगद सर्वेरनुज्ञायताम।॥ १२--नाहं जानामि केयूरे नाहे जानामि कुएडले । मूपुरे उमिजानामि नित्य पादाभिवन्दनातू । १३-शद्यी झुद्ध लोकविरुद्ध नाच रणीयम्‌ । (४--किंवा5्मविष्यदरुणुस्तमसा विभेत्ता त चेत्सहस्धकिरणो धुरि ना$करिप्यत्‌ (० स्फुटतान पदैरपाइता, न च न स्वीकृतमथंगौरवम्‌॥ रचिता प्रथग्रधता गिरा, |! च सामध्य मरपोदित कवित्‌ ||

संस्कृत में श्रनुवाद करो

१-मेरा मतीजा (प्राठृब्य) इस वर्ष लखनऊ विश्वविद्यालय में संस्कृत की

एम० ए० को परीत्ा में प्रथम रदा (प्रय॑ंम इति निर्दिप्लोध्मूत्‌ )। २--अवुद्धिमान्‌

हल्दी ही कण्टस्प कर लेता है श्रौर देर तक याद रखता है। ३--कोसे जल से अदुष्णेन जलेन) स्नान करो, इस से श्रापक्रों सुप श्रतुभव होगा। ४-यदि बह एप को धोना चाहता ई (प्रमाप्टुमिच्दुति) तो उसे आ्द्षण को दस गाय और एक

रैल (पमीझादश गा) देने चाहिएँ। ४--श्रमित तेजवाले और पापों सेविशुद । #मैषाकी लिप्रस्मसतिबिए च पायति[

्््“्पप77-_.

सन्धि-प्न करण

(अमितनेजस: पृतपापा) ऋषि भारत में रहते थे।#६--जितना अधिक ४९६ साहित्य का मैंने अध्ययन किया उतना ही अधिऊ मुझे अपनी सस्कृति पर विश्व। होता गया। ७--वह इतना चश्चल (तथा चपलः है फ्ि एक ज्षस भी , जा

(निश्वलम) नहीं बैठ सकता । ८-- वह मले ही प्राणों को छोड़ दे पर शत्रु श्रागे न कुकेगा।

६--अनुवाद

करना विशेषज्ञों

केलिए भी कठिन

(अनापत्करो5नुवादो विशेषज्ञ) साधारण छात्रों का तो कहना दी क्या है(कि पुनः) १०--सू्॑ पू् में उदय होता है (उदेति) और पश्चिम में अस्त होता द (अस्तमेति यह क्यन मिय्या है।

बितो परपी पपाद संस्क्त वाइमयमच्यैयि तथा तथास्मत्सस्कृतेगोरिव मं स्क्ृतेगॉरव प्रति प्रति प्रत्या प्रतयागकामं प्रणान्‌ त्जेत्‌ न पुनरतौ शत्रोः पुरतो वैतसो बत्तिमाश्रयेत्‌ |

सन्ना-शब्द हमने इस पुस्तक के आरम्भ में लिखा है कि भाषा का आधार शब्द है और शब्द का आधार वाक्य | रुस्कृत भाषा मे शब्द दो प्रकार के होते हैं--

एकतोऐसे शब्द हैं जिनका रूप वाक्य के और शब्दों केकारण बदलता रहता

हैऔर दूसरे ऐसे शब्द हैं जिनका रूप सदा एकन्सा रहता है। बदलने दे शब्दों में सक्ता, सर्वनाम, विशेषण तथा क्रिया (आस्यात ) हैं और न बदलने वाले शब्दों में ददा, कदा, रदा आदि शअ्रव्यय हैँ तथा 'पढितुम! 'कृत्वा! ब्रादि क्रियाथों केरुप हैं| संस्कृत भाषा में ३ पुरुष होते हैं--(३) प्रथम पुरुष, (२) मध्यम पुरुष और (३) उत्तम पुरुष | हिन्दी मे केवल दो वचन होते हैं,किन्तु संस्कृत में एक बचन

ओर वहुवचन के श्रतिरिक्त द्विबचन मी होता है। सज्ञा शब्दों के तीन लिड् होते हैं--इुल्निज्ञ, खोलिज्ञ और नपुंसक लिड्ड | हिन्दी में कर्ता, कर्म आदि सम्बन्ध बतलाने के लिए, सशा शब्द केअथवा सर्बनाम शब्द के आगे ने, को, से थ्रादि जोड़ दिये जाते हैं, किन्तु संस्कृत में इस सम्बन्ध कोबतलाने के लिए; सशा या सर्बनाम

का रूप ही बदल देते हैं, जेसे--शोपालः ( गोपाल ने ), गोपालम्‌ ( गोपाज् को ) श्रादि | इस प्रकार एक ही शब्द के अनेक रूप हो जाते है| प्रथमा, द्वितीया से

सैहूपूबातमीतक सात विभक्तियाँ होती हैं। *७)

भिन्न-भिन्न कारकों कोबतलाने के लिए प्रातिपरदिकों में जो श्रत्थय जोड़े जात

हैं उन्हें'हुपः कहते६।इसी प्रकार भिन्‍न-मिन्न काल की क्रियाश्रोंकाश्र बतलाने

के लिटमदन मर नो जाते है, उन्हें उनलि तिद्टूकहते है। सुप और तिड्‌ को ही विभक्ति कहते ६ और सुबन्‍्त और तिडन्त शब्दों को ही पद कहते हैं। ष्ना

विभक्तियों के मूल रूप

विभक्ति प्रषमा

] ने

एकवचन स्‌्‌)

द्विबचन झौ

बहुवचन अस्‌ (श्र)

द्वितीया छतीया

कौ, से, के द्वारा

अम्र्‌ एन

श्रो भ्याम्‌

ये मिः

चनुर्धो

के लिए

ए्‌३

भ्याम्‌

भ्यः

१. अकारास्त, इकारान्त, उकारान्त और कऋकारान्त शब्दों को दीप होकर बन्त न ग जाता फ् री न्त मेंमें ८(हो जाता है,जेसे--रामान्‌, इरीन्‌ श्रादि। २. इकारान्त, उकाशन्त ओर ् ऋफारास्त शब्दों के श्रन्त में 'ना? होता है, जैसे--कविना, खाधुना | है. प्रकारान्त शब्द के अन्त में द्याव! होता दे, जैसे-उ्पगए़,। क्र

संश-शब्द

एकवचन

अथ

विभक्ति

आव्‌* से का, फे, की सस्‍्य

पश्चेमी पष्ठी

मे, पर

सप्तमी

दर

३*

द्विवचत

म्याः भ्याम्‌ ओस (झोः) . श्राम्‌

ओस (ओः)

अकागन्त पुल्लिज़॒ (१)राम ६.

प्र० राम+ (राम)

रामो (दो राम)

स(प)

-

रामा; (बहुत राम)

द्वि० रामम्‌ (राम को ) रामौ (दो रामों को) तृ० रामेण (राम से)३ रामाम्याम्‌ (दो रामों से). च० रामायु (सम केलिए) रामाम्याम्‌ (दो रामोंकेलिए) १० रामात्‌ (राम से) रामाम्थाम्‌ (दो रामों से). प० रामस्य (रैामफा,के,की) रामयोः (दो रामों का)

स० रामे (राम में, पर).

रामयोः (दो रामों में)

रामान्‌ (रामों को) रामैः (रर्मों से) रामेम्यः (रामों केलिए) रामेम्यः (रामों से) रामाणाम्‌ (रामों का)

स० है राम (दे राम)४

हे रामौ (हे दो रामो)

है शमाः (दे रामो)

शमेषु (रामों में)

भाँति 8, इनके रूप चलते हैं-हकराम528की00220: 4५9:208:49+:08 मक्ता--भगत मयूर:--मोर प्रश्ः--सवाल शिष्यः--वैला सूय:-दूरज क्रोश+--कोस

नरः-मनुप्य बाल+-बालरक है

उवश्-खुत

जनकः--पिता

चन्द्र:--चाँद

लोक:--ससार या

सगः+-पक्षी

अनलः_---आाग

सुए--देवता

हुपः--राजा १. इकारान्त,

धर्म:--धर्म

उफ्रारान्त और ऋफारान्त शब्दों के पश्यमी और घष्ठी ये

एकवचन मे 'इ? 'ऊ' और ऋ” को गुण होकर 'स्‌? का पिसंग होता है।

२. इकारान्त तथा ठकारान्त शब्दों के रु्तमी केएकवचन में ओऔ! और

आजऊाणन्त के

अन्त

में

याम

हो जाता ह्दै4

हरे, स्परें (अ,आ, इ, ई आदि), ह,य्‌, व्‌, २, कबगे (क, ख ग्रादिं) पर्र्ग (4, के ग्रादि) आ और न्‌के बीच मे आने पर भी रू, ऋ, ऋ और “प! रे बाद न ऊा 'ण! हो जाता है (अट्‌ कृप्वाड नुम्‌ व्यवाय>

विदुष्रि है पिद्दन्‌ हे दिद्वा हे विद्वासः विद्वसबे क्ा त्लीलिग शब्द “विडुपी” है। उसके रूप नदों के समान दूोते हैं।

१०२-लघीयस्‌ ( उससे छोदा ) एुद्धिंग

प्र० द्विर

लघीयान्‌ लघीयासम्‌

लघोयासौ लघीयानौ

लघीयासः लपीउसः

तु०

लघीयसा

लघीओरेम्याम

लेघीयोमिः

चु० प०

लघीयसे लघीयसः

लघीयोसाम्‌ लघीयोम्पाम्‌

लघीयोम्यः लेघोयोम्यः

प०

लघीयसः

लबीयसोः

लघीयमान्‌

स॒ु० स०

लघीयसि हैंलघीयन्‌

लघीयसोः है लघीपासौ

लेघीयःरु, लघीपस्लु है लबीयातः

इर्सी प्रझार, गरोवस्‌ (अधिक बड़ा ), द्वढीउच्‌ (अधिक मजबूत ), प्रयीयस (अधिक मोटा या बडा ), द्वाधीयस ( अधिक लम्बा ), भेयम्‌ इत्यादि ईंयस्‌ प्रत्यप

से दने हुये शब्दों के रूप चलते हैं । लघीयम ,गरीयस्‌ झ्रादि के छीलिंग शब्द द्राधीयर्सी इत्यादि बनते हें और वे नदी के रुमान होते प्र० द्वि० तू० च्‌०

श्रयान्‌ श्रेयासमू अयसा अयसे

अेयासा श्रेयासौ ओपोम्याम्‌ अयोध्याम्‌

अयासः श्रेयसः श्रेयोमि३ भ्रेयोन्यः

प्‌ घ०

अ्रेयसः अयसः

अ्रयोन्याम्‌ अ्रेयसोः

अेयोम्प: अ्रेयचाम्‌

सु०

श्रेयसि

स०

हे भ्रेयन्‌

ग्र० द्वि० व

दोः दोः दोषा दोष्णा डा दोष्से

न्नडे

ओवसोः है श्रवायी

| अरेयस्सु श्रेयःसु है श्रेयातः

१०४-दोस्‌ [ भ्रुजा ] पुँछ्लिंग दोषौ दोपौ दोस्याम्‌ | दोषस्याम्‌ दोस्पाम |दोषम्याम्‌

दोपः दोष), दोष्य: दोमिः दोपमिः दोम्यः दोषम्प:

द्ष्द

बृह॒दू-अनुवाद-चब्द्रिका एकवचन दोषः दोष्णः

ह्विचन | दोर्भ्याम्‌ दोपम्याम्‌

वहुवचन |दोम्यः दोषम्यः

सछ9

दाष्णः दोषि | दोष्णि

दोष्णोः दोपीः | दोष्णोः

दोध्याम््‌ दोष्पु दोशु

स०

हे दोः

हेदोषी

है दोषः

के

बडे

दोपः

दोपीः

दोपणि

दोषाम्‌

दोषपु

१०५-अप्सरस[अप्सरा |ख्लीलिंग प्र० द्वि०

अष्सराः अप्सरम्‌,

अप्सरसी अष्सरसौ

अप्छरसः श्रप्सरसः

सू० च०

अप्सरण अत्सरसे

अप्मरोभ्याम्‌ अप्प्रोम्याम्‌

श्रप्सरोभिः अप्सरोध्या

प्‌०

अप्सरसः

अप्सरोम्य(म्‌

शप्स रोम्यः

प० स०

अप्सरसः श्रप्सरसि

अष्सरतो: श्रप्तरसो;

श्रप्सरसाम्‌ अप्सरस्मु

स०

दे अप्सरः

है शप्सरसी

हे झ्प्सरता

श्रष्रस्‌ शब्द का प्रयोग प्रायः वहुबचन में होता है।

१०६-आशिस्‌ [आशीवांद ] स्लीलिंग प्र० द्वि० तृ०

ओआशीः श्रोशिपम्‌ आशिपा

श्राशिपी आशिपी आशीर्म्याम्‌

आशिपः आशिपः ओआशीर्मिः

प० प्‌० स० स०

श्राशिपः आशिपः आशिपि है श्राशीः

आशीर्म्याम्‌ आशिपोः आशिपोः दे श्राशिपौ

आशय: आरशिपाम्‌ आशो:पु, भ्राशीष्मु है श्राशिपः

च०

आशिपे

आशीरम्याम्‌

श्राशीम्यः

१०७-मनस्‌[मन ) नपुंसकलिंग प्र० द्विण्

भनः मनः

मनसी मनसी

मनासति मसनाहि

लृ० च्‌०

मनसा मनसे

मनोम्पाम्‌ मनोभाम्‌

मनोमिः सनोमः

प० च०

मनसः मनसः

मनोम्याम्‌ मनसोः

मनोग्यः मनेसाय

सक्षा-शब्द

६६

एकबचन

ध्विच्न

बहुवचन

स०

मनसि

मनसोः

मनस्सु, मनःसु

स०

है मन:

है मनसी

है मनासि

इसी प्रकार नभस ( आकाश ), अम्मस्‌ ( पानी ),

आगस ( पाप ), उरस

( छाती ), पयस्‌ ( दूध या पानी )रजस्‌ ( घूल ), वयस्‌ ( उम्र ) पक्षस्‌ (छाती),

अयस्‌ ( लोहा ), तमस्‌ ( अधेरा ), बचस्‌ ( वचन, बात ), यशस्‌ ( यरु, कीर्ति ) तपस ( तपस्या ), सरस (तालाब ), शेरभ_(शिर ) इलत्वादि शब्दों केरूप

चलते हैं ।

१०८- हविस [होम की चीन ] नपुंसकलिग प्र० द्वि०

ह्‌विः हृविः

हृविशी हृविषी

हवींपि हवींपि

तृ०

हृविषा

हविर्याम्‌

हविर्भिः

घ०

हविपः

हृविषोः

हविषाम्‌

स०

हृविषि

हविषोंः

हृविःपु, हृविष्पु

स०

है हृवि

है हविपी

है हबींप्रि

प्र०

धनु

दृ० च० पा

घनुपा घनुपे घनुपः

धनुपी

घत॒र्भ्णम्‌ धनुभ्पमि्‌ धलुभ्याम्‌

धनूषि

घनुप. धनुषि

भनुपोः धनुपो:

घनुपाम्‌ धमुःप, धनुष्पु

च्‌० प०

द्वि०

8 स०



इविपे हृविपः

ह॒विर्भ्याम्‌ हविभ्याम्‌

हविम्यः हृविभ्यों

०९-घनुस्‌ [ पनुप ] नपुंसकलिश्

धनुः

है धनुः इसी प्रकार वषुस्‌

धनूषि

धर्तुर्मिः धनुम्यः धनुम्य:

है धनुपरी हे धनूपि (शरीर ), चक्तुत्‌ (ऑस ), आयुस्‌ (उम्र ), यज॒स्‌

( यजुवेंद ) इत्यादि 'उस! मे अन्त होने वाले शब्दों फे रूप चलते

हकारान्त पुल्लिग ११०-प्रधुलिह [ शहद की मक्खी या भौंरा ]

अे

मधुलिदू -लिइद्‌

मघुलिहौ

मघुलिहः

हि धर

मधुलिहम्‌ मबुलिदा

मघुलिहौ मघुलिड्भ्वाम्‌

मधुलिहः मधुलिड्मिः

च०

मधुलिहे

मघुलिडमभ्यान्‌

मधुलिड्भ्यः

७०

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

प्कब इन

द्िवचन

प० प्र०

मधघुलिह: मघुलिदः

मधुलिइस्याम्‌ मंघुलिंदोः

वहुबचन

स०

मधुलिदि

मधुलिंदोः

मधुलिथ्मु-लिद्त्मु

स०

दे मइलिद्‌

है मघुलिददौ

हे मधुलिहः

प्र

अनडबान्‌

अनडवाही

अनइवाहः

हिं० लू ख्ु० प्‌०

अनडवाइम्‌ अनडुद्द अनहडुददे अनडुहः

अनडबाही अनइद्म्याम्‌ अनूुद्भ्याम्‌ अनडुदम्पाम्‌

अनडुहः अनइबद्निः अनहुद्म्यः अ्नडुद्स्धः

प्र०

अनडुहः

अनडुद्दीः

अ्नडुद्याम्‌

स०

अनडुह्ि

अनडुद्दीः

अनडुत्मु

प्र० ड्ि०

डपानवू-ठपानदू._ उपानहम्‌

उपानही उपानद्दी

उपानह उपानहः

लृ० च० प०

उपानहा उपानदे उपानहः

उपानदम्धाम्‌ उपानदुम्याम उपानदुम्पाम्‌

उपानदूमि। उपानदता उपानदुश्पः

प० स०

सपानदद उपानहि

डपानद३ उपानहीः

उपानद्वाम्‌ उपानतु

सं०

है उपादत-द्‌

है उपानहौ

है उपानह।

मधुलिदस्तः मधुलिद्याम्‌

१११-अनइह्‌ (वैल ) पुँछिक्

स०

है अनइवब्‌

दे अनड्वादी

हे अनइवादः

११६-उपानह [ जूता ]स्ली लिंग

संज्ञा शब्दों के सम्बन्ध में कुद्द व्रातब्य थार्त संजाएँ मुण्यतः ३ प्रकार की होती हैं:--( के ) व्यक्तिवाचक सजाएँ, (ख)

जातिबाचक सजाएँ तथा (ग ) भाववाचक संजाएँ |

(क) ध्यक्तिवाचक संज्ञाएँ कुछ व्यक्तिवाचक मंजाएँ ऐसी होती हैंजा। हिन्दी और सस्कूत में एक समान

रदती हैं,उन्हें तत्मम कहते हैं,यथा-(१) काश्मीरदेशों सूल्वगः (काश्मीर संसार मैं स्व है। ) (६३) प्रयागम्य थ्राम्रलामि ग्रसिद्वानि (इलादाबाद के अमरूद धसिद्ध ई। ) (३ ) चुनास्स्य झतात्राणि मारते वरिख्यातानि सन्ति (चुनार के मिद्ठी के

बरतन भारत मैं प्रद्धिद ई । )

सक्षा-शब्द

छर्‌

(४) काश्याः कौशेयशाटका जगद्विस्‍्याता ( काशी की रेशमी साइ्ियाँ सखार

मे प्रसिद्ध हैं। ) (५) यूरोपीयप्रदेशात्‌ बायुवानेन बृत्तपत्राणि भारतमायान्ति ( यूरोप से समाचारपत्र वायुयान द्वारा मारत आते हें । )

(६ ) ह्िमालयाद्‌ गज्ञा निमन्‍्छति ( हिमालय से गज्ञा निकलती है। ) (७) शान्तिनिक्तन वोलपुरविश्रामस्थानस्य बोलपुर स्टेशन के समाप है। )

समीपम्‌

(शान्तिनिकेवन

(८) महेखोददी हो. प्राचीनतमानि प्राचीमतमानि वस्वूनि भूम्या निर्गतानि ( महेंजोदाइ में जमीन के नीचे से बहुत पुरानी वस्त॒र्णे निकली हें । ) कुछ व्यक्तिवाचक सशाएँ ( तद्धव ) हिन्दी में ऐसी ईं जिनका सस्कृत में थोड़ा सा परिवर्तन करके अनुवाद किया जाता है--

(,१ ) पुरा मौयवशोकूवाना राश्ा राजधानी पाटलिपुत्रमासीत्‌ ( प्राचीनकाल में पटना नगर मौर्य राजाओं की राजधानी था | )

(२) वद्नदेशीयास्तर्डुलप्रिया

मवन्ति (बच्चहाली चावल बहुत पसन्द

करते हैं ।) फल्काक5 (३ ) जयपुरे सड्भमरमरस्य चित्रकर्म प्रसिद्धम्‌ ( जयपुर मे सद्भमरमर की

चित्रकारी मशहूर है। ) (४) आगरानगरे यमुनातटे ताजमहलं जगद्विस्यातम्‌ ( आगरा मे यमुना तट पर ताजमहल ससार में मशहूर है| )

(५ ) सिन्धोस्यधिक जलम्‌ ( सिन्धु नदी में बहुत ज्यादा पानी है । ) ( ६ ) रणजितसिंहः पश्ननदस्य शासफ शासक था| )

आसीत्‌ ( रणजीतसिंह पहुाय का

(७ ) गठदेशे श्रीवद्रीशस्य मन्दिरमस्ति ( गदवाल मन्दिर है। )

मे श्रीबद्रीनाथजी का

(८) पुरा तक्तशित्तास्थाने जगद्विस्यातो विश्वविद्यालय आसीत्‌ ( पुराने जमाने मे तक्षशिला में अतिविर्यात यूनिवर्सिटी थी । )

(६) रातदु, विपाशा, इणबदी, चन्द्रभागा, वितस्ता, सिन्धुश्व पद्मनदे विद्यन्ते

(शतलज,

व्यास, रावी, चुनाव, जेहलम और सिन्धु नदो

पञ्ञाय मे हैं। ) हरहिन्दी भाषा में कुछ ऐसे शब्द हैं,जो दूसरी भापाश्रों सेआये हैं और कुछ से हैंजो सस्कृत से कुछ सम्बन्ध नहीं स्फते, उनका सस्कृत अनुवाद ज्यों का त्योंकरना चाहिए, किन्ठु कुछ ऐसे भी शब्द हैं जो विदेशी भापा और सस्कृत से कोई सम्बन्ध न रखते हुए भी सस्कृत लेसकों मे प्रचलित हो गये हैं। उनको बदलने में कोई क्षति नहीं, बथा--

छ्र

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका (१ ) कलकत्तानामक॑ भारतविस्वात॑ नगरम्‌ (कलकत्ता भारत में मशहूर शहर है। )

(२) भोंदूमलः प्रयागे प्रसिद्धः बणिक्‌ (मोंदूमल इलाहाबाद में प्रसिद सौदागर है। )

(३ ) एस० एम० रज़िकस्य कानपुरे चर्मव्यापारौडस्ति (एस० एम० रज्िक का कानपुर में चमड़े का व्यापार है । ) (४ ) जापानस्य व्यापारविषये महती उन्नतिरस्ति (जापान ने ब्यापार में बडी उन्नति की है | ) ड (५ ) यवनदेशीयः सप्नाद अलकेन्द्रोभारतमाजगाम (ग्रीक सप्नाद अलेग्नेशडर

भारत में आया था। ) (६) मानचेस्टराद भारतमायातिस्म वस्प्रम्‌ ( मानचैस्टर से कपढ़ा

भारत

को थ्राता था । ) (्‌४) जबिस्कोनाग्नों गामानाम्नशच मज्नयोमल्लयुद्धमभवत्‌ ( जविस्को और गामा का जोड़ हुआ हुआ था। )

( ख्‌ ),ज्ञातिवाचक संज्ञाएँ कुछ जातिवाचक शब्द ऐसे हैं,जिनके पर्यायवाची शब्द भो उनके स्थान पर व्यवहत हो सकते है,यथा-मनुष्य, राजा, प्रजा, पशु, पत्ती, पुरुष, ल्लीआदि।

उदाहरण--स एवंशजा (शप॥ भूष) यस्‍्थप्रजाया। सुखम्‌(राजा वही है; मिसकी प्रजा सुखी है| )

परन्तु विड़ला, मालवीय, सैयद आदि शब्द सस्कृत-अनुवाद में व्यक्तितायक सश्यओं की भाँति प्रयुक्त होते है,यथा-"बिडलोगाहः घनश्यामदयः (घनश्यामदासु विड्ला । ) झुछ देशी या विदेशी शब्द आवक रुस्कुत मे कल्यित रूप से प्रचलित हो गये है, उनऊा अनुर्वाद प्रचलित शब्दों में होगा, यथा-१--राष्ट्रपतिः--प्रेसीडेंट६-साज्वपरिपदू--काउठिलि आफ ३--प्रधानमन्त्री--प्राइम मिनिस्टर |

३--विधानप्रस्पिदू-छेजिस्लेटिय

स्ट्ट्म ॥

१०--प्रदेशः--ग्राविस । काउसिल । ११--वाष्पयानम्‌-रेलगाढ़ी । ४--विधानसभा--लेजि० अ्रठेंबली । १२--सचिवुः--सेक्रेटरी । ५--विपयनिर्धारिणी ख्रमा--सब्तेफ्ट १३--जलयानम्‌--जह्ज | कमेटी । पु १५--वासुवानम्‌--हयाईजहाज | -फीयंकारिणी समा>--एस्जक्यू१४--रा|ध्यपाल:-गवर्नर । “दिये कमेटी । १६--कुलपति:--चान्तलर | “मणइलम्‌--जिला । १७--उपउुलपतिः--बाइस-चान्सलर | “तोफ समा--पालियामेट । १८-मुपमस्तरी--चीफ मिनिस्टर ।

द्द

संशा-शब्द

१६--विद्यालय:--कालिज ।

ण्रे

२४--शिक्षोपक्षालकप-इडिप्टो डाइरेक्टर

२०--विश्वविद्यालयः-दयूनिवर्सिटो । आऊ एजकेदब | २१-प्राघ्यापक-प्रोफेसर | २६--शिक्ला-निरीक्षुक:--इन्स्पेक्टर २२--अध्यक्ष+--स्पीकर । आह स्कूल्स। २३--अ्रपीक्षक:---सुपरिंटेंटेंट । २७--द्विवर्िछि--दारसिकिल । २४- शिक्षा-सश्चालत्रः (निदेशकः )-- २८--जलान्तरितयानम--सवमैरिन

डाइरेक्टर आफ एजकेशन ( पनडब्बी ) परन्तु मोटरकार के लिए 'मोटरयानम' और कोट के लिए कोटनामर बुखुप' ही लिखना उचित है। हु पिद्धली-प ( गे) भाववाचऊ संज्ञाएँ विद्वत््वं च नृपत्व॑ं च नैव सुल््य॑ कदाचन ( विद्वस्व और राजल हरमगरिज चरावर नहीं। ) तत्व ज्ञानमेदैतावद्‌ आीत्‌ (उसका ज्ञान ही इतना था। ) अरहयोगान्दालनस्प का्यक्रमे बहुबः प्रस्तावा आसन्‌ ( नानकोशापरेशन मूव-

मेंट के प्रोग्राम में बडुत से रेजोल्यूशन थे । ) कुछ अन्य माववाचक संज्ञाओं के उदाहस्ण--

१--बुजं छुनच्छनिति वापकणा: पतन्ति ( निशनन्‍्देद 'छुनछुन' ध्वनि करके आँमुओझरों की इूँदें गिर रही ६ । )

ई--स्पाने त्पाने मुखरककुमो मांकृतैर्मिकंराणाम्‌ ( स्थान-स्थान पर मरनों

की फ्लाइत ब्वनि से दिशाएँ गूल रहो थीं। ) ३--क्षशल्तनकुकिड्लियंऋणमणायितत्यन्दनेः (रथ पर टकराकर सोने की

किंकिशियाँ मनन्‍्फन कर रही

घी।9)..__

४--धनुष्ठझ्भारो दूस्तोजपि श्रूवते (धनुप्र झा टंकार दूर से भी मुनाई देता है। ) ' ४--ऋप॒राणाना शिक्षित मउरम ( जेबरों की घ्वनि बहुत ही मनोहर थो। ) ६--क्ष्व श्रूषदे पदपुदानां रकारः ( भौरों ही घ्वनि कहाँ नुनाई देती है ? ) ७--गजाना हूहितेन सिंहाना नादेन च वनमेबाकम्पत ( हाथियों को चिंघाड़

और रिंदों की गर्जना से जगल ही काँप उठा | ) ८--चस्णसिंदेश्वीव घृष्ठता विद्यते (चुस्युसिद में बड़ी टिठाई््‌है| )

स्यगाम्माय_ज्ञाउमपुलमन्‌ ( समुद्र कौ” गहराई कठिनता से है3322 22020030 203.

६-सनुद्वस्य

जानी जाती ६। )

१०-खल्यं बद (सच बोल | )

3]

स्वनाम-शब्द सबोदीनि सबनामानि |॥ २»



सर्व शब्द सेआस्म ,द्ोनेवाले शब्द # सर्वनाम कहलाते हैं। “सबंनामों शब्द का श्र्थ है वह शब्द “जो किसी सज्ञा के स्थान में आता है।” इन्द्र समास को छोड़कर यदि अन्य किसी समास के अन्त में ये शब्द आते हैँ तो उनकी

ओऔ सर्व॑नाम संज्ञा होती है। (तदन्तस्यापि इयं रंज्ा )सवनाम शब्दों में विशेषण एवं कुछ सशावाची शब्द भी थाते हैं।

प्र

ते

अस्मद्‌

झहम्‌

आवाम्‌

ट्वि०

माम्‌, मा

आधाम्‌ , नौ

अस्मान्‌ , मः

च्‌०

मया

आवाम्याम्‌

झस्मामिः

पं०

मत्‌

झावाम्याम्‌

अस्मत्‌

प० स०

मम, में मयि

आवयो३, नौ आवयोः

अस्माकम्‌ , ना अस्मातु

म०

सम,

युवाम्‌

यूयम्‌

द्वि० तृ०

ल्वाम्‌, ला त््व्या

युवाम्‌,वाम्‌ युवाम्याम्‌

युप्मान्‌ , व: थुष्मामिः

च्०

महाम्‌ , मे

बयम्‌

आवाम्यामू, नौ. अस्मभ्यम्‌ , मः

युष्मद्‌

च०

कम्बम्‌ , ते

सुवाम्याम्‌

युप्मम्यम्‌ , व

पं

चत्त्‌

सुवाम्याम्‌

युष्मत्‌

स०

स्वयि

युवयो;

युप्मासु

प०

तब, ते

सुबयोः, वाम्‌

युप्माकम्‌, व:

# सर्वादि मैं निम्मलिखित ३५ शब्द हैं-६-सव, २-विश्व, १-उभय, ४-उभम, ५-डतर श्र्थात्‌ डतर जोड़कर बनाये हुए शब्द यथा कतर, यतर इत्यादि। ६-डतम श्रर्थात्‌डतम जोड़कर बनाये हुये

शब्द यथा कतम्न, यतम शत्यादि॥। ७-श्रन्य, स-अरन्यंवर, ६-इतर, १६-तवत्‌,

१३-ल्व, १२-मेम, १३-सम,

१४-स्मि, ३४-पूर्व, १६-यर,

१७-अवर,

१८-दक्षिण, १६-उत्तर, २०-अपर, २१-अ्रधर, २२-स्व, २३, श्रन्तर, २४-त्यद, २५४-त१दु, २६-यदू, १७-एवंद्‌ू, १८-इदम,

२६-अ्रद्स,

३०-एक,

३१०६,

३र-युप्मदू, ३३-अत्मदू, ३४-मवत्‌ ,३४-किम्‌ | इनमें त्वत! और 'स्वः दोनों ही अन्य! के पर्याय हैं। 'नेम' श्र का और समा सर्व का पर्याय है। समा

बुल्य का पर्याय होने पर सर्वनाम नहीं होगा। उस अवस्था में उसका रुप मर के

समान होगा। पाणिनि के यथासुस्यममुदेशःसमानम! इस यूप्र से भी स्पष्ट है। सिम सम्पूर्ण का पर्याय है। स्व! मी निज का वाचक होने पर हो सर्वनाम होता है । 'जातिवाले व्यक्ति! या 'घन' का बाचक होने पर नहीं (ल्वमशतिघरनास्थायाम)।

छ्र्‌

सवनाम-शब्द

#भवत्‌ (आप-प्रथम पुरुष ) पुल्लिज्न एकव० अवान्‌ भवन्तमू

द्विव० मपन्ती भयन्ताी

जीलिड् चहुब० एकब॒० मवृत्त प्र० भबती मवत . द्वि० सवतीम

द्वि०. भपत्यी भवत्वयी

पहुव० भवत्य भवदी

अभवता

भवद्म्याम्‌ भवद्धि..

तृ० भवत्या

भवतें भवत

भवद्धथाम्‌ भवद्धय भवद्धवाम्‌ मबद्धथ

च० भवत्यै प० मवत्या

मवतीम्याम्‌ मवतीमि

भवतीम्याम भवताम्य मवद्ीम्याम्‌ भवतीम्य

मबत मभवति

मवतो. मवतों

मबताम्‌ मवत्सु

प० भवत्वां स० भवत्याम्‌

मवत्यों भवत्यों.

हेमवन्‌

हेमयन्तौ

हेमवन्त

स० हे मवति

मवतानाम्‌ मबतीपु

हे भवत्यो देमवत्य

तत्‌ [वह ]पल्चिह प्र०

सर

तौ

ते

द्वि०

तम्‌

तौ

तान्‌

सू० च्च०

तेन त्तस्मै

ताम्याम्‌ ताम्पाम्‌

ततै तेम्य

पढ

तस्मात्‌

ताम्याम्‌

त्ेम्ब

चु० स॒०

त्त्य तत्मिन्‌

त््यो त्यो

तेपाम्‌ तेपु

तद्‌ | वह ॥ नपुसक लिड्न

स्रीलिज्न

तन

ते

तानि

प्र० सा

त्ते

ता

सत्‌ ठ्न

त्ते ताम्यामू

तानि ते

द्वि० तामर्‌ ज्ु० तथा

त्ते ताम्पाम

त्ता तामि

तत्मे

ताम्याम

तेम्य

च० तस्‍्वै

ताम्याम्‌

ताम्ब

सस्मात्‌

ताम्बाम्‌

ता

तेम्य

तेपाम्‌

प०

तस्या

प० तस्या

ताम्यामू

वाम्य

क्यो

तासाम्‌

सस्मिनू_

तयो

तेपु

स०

तस्याम्‌

त्या

तामु

तस्य

अनपुसक लिक्ञ में ( प्र० द्वि० )मवत्‌ मयती भबन्ति और तृतोया से यागे पल्लिज्ञ केसमान रूप चलेंगे। मवत्‌ शब्द प्रथम पुरुष क स्थान म प्रयुक्त हाता है, इसके साथ प्रथम पुरुष की हा क्रिया लगती है, यया--भवान्‌ गच्च्लु

(आप जाये )।

७६

बृहदू-अनुवाद-चब्दिका

पएकच०. अबम.

पुलिंग

द्विख॒० इमौ

अइदमू [यह ] |

चहुच० एकब॒० इसमे प्र० इयम्‌

इमम्‌ एनम्‌ इसौ एनौ इमान्‌, एनानदि०इमाम्‌ अनेन, एनेन श्राम्याम्‌ एमिः तृ० अनया अस्मे आम्यामू एम्यः च० अस्थे अत्मात्‌ शझस्य अस्मितू.

शाम्याम एम्बः प० अस्थाः अनयोः,एनयोः एपाम्‌ प० अस्थाः श्रनयो:,एनवोः एप. स० अस्थाम्‌

है

एफ. ण्वो ण्ते प्र० एपा एवम्‌ ,एनम्‌ एतौ, एनौएदानएजान द्वि० एताम एतेन, एनेन एताम्याम्‌ एतै:

तृ० एतया

एवसमस . एवाम्याम्‌

च०

एसेम्यः..

एतस्ये

एवन्मात्‌ एताम्याम. एलेम्यः. एकस्स. एतबो-एनवोः एपामू

प॑० एतस्थाः प० एठस्पा:..

एवस्मिनू एतग्ोः्ए्नयो::एजेपु

स०

अम्नना

अर्र्प

इ्माः

इ्मे ब्राम्यामू आम्याम आमाम्‌ अझनयोः. अनयोः

इमाः आमिः आम्यः श्राम्यः आसाम आमु

एठस्याम

स्रीलिंग ण्ते

ण्वाः

छत

ण्ताः

एवाम्यामू एवामिः एताभ्याम्‌_ एवाम्पः

एवाम्बाम्‌ एवाम्पः एवगोड.. एतासामऋ एवामु

एतयो:..

उैऋसू ( बह ) ४ श्रमू श्रम

श्रमूम्याम्‌

अमूस्थाम

अमुप्सात्‌ श्रमृस्याम

श्रमुष्य

बहुब॒०

इ्मे

एल [ यह ]

मु लिंग

असोी.. अमम्र॒

स्रीलिज् द्विब०

श्रम:

अमुप्मिन्‌ अमृयों;.

अमी अमूनू

अमीमि;

- प्र० अठौ द्वि० अमुम तृ०

अम॒या

झमू छअमू

थ्रमृः - अमर

अमृम्याम्‌

श्रमृमिः

अमीम्ः

च०

अमुप्ये

अमीम्यः

झमृम्याम्‌श्रमृम्यः

अरमाप्रामु

पं०

अप्ुप्या+

प०

अमुष्याःः

अमृम्पाम्‌

अमोपु

स०

अनुप्पाम

अमूम्ब+

अमुयो; . अ्रमपाम्‌ अमुयोः

अमृपषु

#नपुंसकलिंद्न में प्र०, द्विण--इठम्‌ ,इमे, इमानि (द्वितीया एनत्‌ , एज,

एजानि ) एल्लिद्न की माँति होते है |

गनपुसकलिड्न से एतत्‌ शब्द छी ध्रयमा और द्वितीया विमक्तियों मे एड़न्‌,

एज, एतानि श्र शेप विमक्ियों पुल्लिद्न की माँति होती है।

| नपुंठफलिद्न में श्रदस्‌ शब्द की थ्थमा ओर द्वितीया विमक्तियों में श्दः, अमू , अमृनि और शेप विमतक्तिवाँ पुंह्लिद्न की माँति होती है।

सवनाम-शब्द

छछ

#यत्‌ ( जो ) पुल्लिग यौ यम्‌ याम्थाम चेन वाम्याम बस्मे. यस्मात्‌. याम्याम्‌ ययोः ययो«

यस्य बस्मिनू.

या

प्र०

ये

यो



याब्‌ येः येम्यः येम्यः

द्वि० छू० चु० प्र०

याम्‌ यप्रा यस्‍्थे यस्वा*

येपाम्‌ येघपु

प०. स०

यस्‍्वाः यस्‍स्याम्‌

पैक्रिम (कोन ) * कर

- . पैल्िह कौ

क्के

प्र का

कम

कौ

कान...

दि० काम

केन. कसे. कक्‍स्मात्‌ कस्प कऋष्मिन,.

कास्पाम्‌ काम्याम्‌ काम्याम्‌ कयोः कयोः

कै वेश्या. वेम्यः केपाम क्षेघु

तृ० च० प० प० स०

या. याः यामि-

याम्याम याम्याम्‌

याम्यः याम्य:

सयोः थयो+

यासाम्‌ यासु

खीलिड्न क्के के

क्काः काः

काम्याम_ काम्याम

कामिः कास्यः

काम्याम

काम्यः

कयो। कयोः

कासाम, कासु

हे

है

पु ह्लिड् एकवचन ह्विंबचचन

कया कस्पे कस्याः कस्याः कस्याम्‌

खीलिंग ग्चे ये याम्याम

सबं-सब

वहुबचन

एकवचन

सवः

सर्वो

सब

प्र०

सम समेंश

सर्वो सर्वाम्याम्‌

सर्वानू सर्वे

दि. तृ०

सबस्मै सर्याम्वाम्‌ सर्वेम्घ:.. सर्यस्मात्‌ स्वृभ्थाम सर्वेम्यः.

सर्वा

सर्वाम सबया

च० सब॒स्थै प० स्वस्थाः

स्लीलिड् द्विवचन पहुवचन सर्ये

सर्वा३

सर्वे

सर्वा

सवाम्याम्‌

सवाभि।

सर्वाम्याम्‌ स्वाम्याम स्ृस्थाः सबयो, स्वस्थाम्‌ सवयोः

सवाम्य: सत्राभ्यः सर्वासाम्‌ सर्वासु

सवेस्थ सबंयो. .सर्वेपामु॒ प० स० संबस्मिन्‌ सवंयो:. सर्वेघु ४ नपुसकलिज्ञ में यत्‌ शब्द को प्र० द्वि० विभक्तियों में यत्‌ , ये, यानि और शेप पिभक्तियाँ पुल्लिज्ञ की माँति होती हें। न नपुसकल्लिज्ध मे किम शब्दकी प्र० द्वि० विमक्तियों में-किम्र के, कानि और शे4र विमक्तियों पुल्लिज्न को माँति दोोती हैं ।

छ्

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

अन्यत्‌ शब्द ५ नपु'सक लिंग दा सम सर्वे सब| ञ्र० सम. अरबें सर्वाणि द्वि० सर्वेध. सर्वाम्याम्‌ सब: तृ० आगे एज्लिड्स्‍ड केसमान रूप द्वोते हैं।

नपुसक लिंग शअन्यतू. अन्ये अन्यानि अन्यतू. अन्ये अन्यानि अन्येन. अन्याम्याम्‌ अन्‍्चेः शेष पुँल्लिगवत्‌

विशेष-- थन्यत्‌ ( दूसरा ), अन्यतर ( दूसरा जिसके यारे में कुछ दह्ा जा चुका द्वो उससे दूसरा )इतर ( दूमरा ), कतर ( कौनसा ),कतम (दो से श्रध्िक

में सेकौन सा ), यतर (दो में सेजो मा), यतम (दो से अधिक में से जो सा), ततर

(दो में से बह सा), ततम (दो से अधिक में से वह सा) के रूप एक समान होते हैं।

अन्‍्यत्‌ दूसरा एकव०

पु/ल्लिंग द्विव बहुब०

अन्यः. अन्यम्‌

अन्पौ अन्यौ

एकब०

ल्लीलिंग द्विव० बहुब॒०

ञ्रन्ये अन्यान्‌ू.

प्र०. अ्रन्या द्वि० अन्याम

अ््ये अन्ये

अम्येन अन्याभ्याम्‌ अन्वैः अन्यस्ी _ श्रन्याभ्थाम्‌ अ्न्येम्यः.

तृ० अन्यया च« अन्यस्ये

अन्याम्याम्‌ अ्रन्याभिः अन्याम्याम्‌ अन्वाभ्यः

अम्यश्मात्‌ अन्याभ्याम्‌ अन्येम्यः.

पं० अन्यस्थाः

अन्‍्याभ्याम्‌ श्रत्याम्या

अन्यस्य

अन्येपामू

प० अ्रल्यस्पाः

थ्न्ययों।

श्रन्येपु..

स० अन्यस्थाम्‌

अ्रन्ययों: .अन्यामु

अन्ययों:

अन्यस्मित्‌ अन्ययों:

झन्याः अन्याः

.श्रन्यासाम्‌

विशेष--पूर्व (बदला), अबर (बाद वाला), दक्षिण, उत्तर, पर (दूसरा), अपर

( दूसय ),श्रधर (नीचे वाला ) शब्दों केरूप एक समान चलते हैं। उदादरणश

के लिए पूर्वशब्द के रूप नीचे दिये जाते हैं--

पूवेशब्द हू

पुल्लिंग

स्त्रीलिंग

पूवं:

पूर्वी

पूरे,पूर्वा: प्र०

पूरम

पूर्वी

पूर्वानू

पूव॑स्मी

पृर्वाम्याम पूर्वेस्यः

पूरंण

पूर्वाम्याम्‌ पूर्व:

पूर्वा

पूबे

पूर्वाः

डि० पूर्वाण

पूवे

प्‌वांः

च० पूर्वस्थे.

पू्वास्यास पूर्वाम्पः

ह० प्रवया

पूथ॑स्मात्‌पूवात्‌पूर्वाम्याम्‌पूर्व पं० पूर्वस्या।.

पूदस्थ पूवंगो: प्रवेस्मिन्‌,पूवें पूयोः

पूर्वपाम पे पूव॑स्याः पूर्यपु.., सा पृव॑स्थामू

पूर्वाम्थाम्‌ पूर्वामिः

पू्वाम्णम्‌ पूर्वास्या

पू्यों; . पूर्वासाम पूवयो।. पास

सवनाम-शब्द प्र० द्वि०

पूवं मम पूवम

तू०

पूर्वेंण

छह

पूर्वाणि पूर्वाणि पूर्वें; शेष पुलिंगवत्‌

उभ-( दोनों ) उभ शब्द केयल द्विवचन में होता है और तीनों लिड्नों मेअलग-अलग विशेष्य के अनुसार इनऊी विभक्तियाँ होती हैंतथा लिझ्ज भी ।

पुंल्निज्

नपुसऊलिब्ड

ब्लीलिनन

प्र० द्वि०

डमौ उभौ

उमे ड्मे

ड्मे ड्मे

तू०

उमभाम्याम्‌

उभाम्पाम्‌

उभाभ्याम्‌

प्‌० प०

उमाभ्याम्‌ उमास्पाम्‌

उभाम्याम्‌ उमाम्याम्‌

उमाम्याम्‌ उमाम्पाम्‌

घ० स०

उभयोः डउभयोः

उमयोः उभयोः

उभयोः उभयो£

उभय (दोनों )

उभ्य नपुसक

एकउचनग

बहुयत्रण

म्र० उमयम्‌

डउभयानि

प्र०

उमयः

उमये

द्वि० उमयम

उभयानि

द्वि०

उमयम्‌

उभयान

लू०

उमयेन

चु०

उभयाय.

उभवयेम्पः

प्०

उभयस्मात्‌_

उमसेम्य-

घ० स॒०

शेप पुवत्‌।

डभये.

स्त्रिलिन्न

उमयस्य उभयेप्राम्‌ प्र० उमयी. उभय्यः शेप नदीवत्‌ । उभपस्मिन्‌ उमयेपु यति ( जिनने ), कति ( कितने ), तति (उतने ) ये शब्द रुप लिड़ों मे प्रत्युक्त

होते है दहन, नित्य बुहुवचन होते हैं | प्रथम और द्वितोया विभक्तियों मे 'यति',

ऊति', 'तति! हो ऊरते हें ।शेय विमक्तियों में मिन्न रूप होते हें । यति (जितने)

तति (उतने )

प्र० द्वि० तू० च० घ० प्‌०

कति क्‍्ति ऊतिमिः फतिन्या कृतिम्बः कतोनाम्‌

(कितने)

यति यति यतिभिः यतिभ्यः यतिम्यः यतीनाम्‌

स०

ऊतिपु

यतिपु

तति तति ततिभिः ततिम्य, ततिम्यः ततीनाम्‌

ततिपु

द्ि०

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

सर्मनाम शब्द और उनका प्रयोग स्वनाम का प्रयोग सामान्यतया नाम्र के स्थाम पर किया जावा है जब कि

नाम को एक से अधिक बार प्रयोग करने कौ आवश्यकता होती है। एक ही शब्द की आइत्ति सुन्दर प्रतीत नहीं द्ोती । इस प्रकार नाम के स्थान पर प्रयुक्त सर्वनाम शब्द के ही लिड्ठ, विभक्ति और वचन ग्रहण करते हैं (यो यत्म्थानापन्रः से दद्वमोल्लमते ) ।

इंदमादि सर्व नामशब्दों में इृदम्‌ ( यह ) अदस्‌(वह ) उ॒ष्मद्‌ (व, दम )

श्रस्मद्‌ ( मैं, हम ) श्रौर भबात्‌ (आप ) इस सभो के रूप निम्नलिखित अर्थो में

प्रयुक्त होते हैं--

१--संमोप की वस्तु था व्यक्ति केलिए. इदम्‌ शब्द, अधिक समीप की वस्तु

या व्यक्ति केलिए एतद्‌ शब्द, सामने के दूरवर्दी पदार्थ या व्यक्ति के लिए, अदस्‌ ओर परोक्ष (जो सामने नहीं है ) पदार्थ वा व्यक्ति को बताने के लिए वत्‌ शब्द का प्रयोग किया जाता है। जैसा कि इस श्लौक में बतलाया गया है-#इदमस्तु सन्निक्रृष्टं समीपतरवर्ति चैतदों रूपमू। अदरुस्तु विध्रकृष्ट तदिति परोक्षे विजानीय॒त्‌ ॥” २-जिस व्यक्ति या बर्ठु के सम्बन्ध में एकवार कुछ कह कर फिर उसके

विघय में कुछ फहना हो तो ( पुनरक्तिदौध होने से ) द्वितीया विभक्ति से, तृतीया

विमक्ति के एकवचन में, और पट्ठी तथा सस्मी विभक्तियों केछिवचन में इदम्‌

शब्द के स्थान में “एन! श्रादेश होता है, यथा--श्रनेन व्याकरणमधीतम्‌ एन॑ छुन्दो5ष्यापय ( इसने व्याकरण पढ़ लिया है, श्र इसे छुम्द पढ़ाइये )। अनयोः परचिन्न छुलम्‌ ,एनयोः प्रभूत स्वम्‌(इनका पवित्र कुल है, इनके पास बहुत

घन है )।

इंदम्‌ और एनत्‌ के वैकल्पिक #५--

पुं०-एनम्‌, एनी, एनाद; एनेन, एनयो: एनयोः | ख्री०-एनाम्‌, एने, एना; एसया, एनयोझ, एनयो३

भपुं०--एनत्‌ , ऐने, एनानि; एनेन एनवो3, एनयोः |

३-मुप्मद्‌ और श्रश्मद्‌ शब्दों को द्वितीया, चतुर्थी और पट्ठी केएकवचन मैं क्रमशः त्वा, ते, ते, मा, मे, मे,' द्विवचन में क्रमशः “बाम्‌ , नौ” और यहुबचन में क्रमशः वः, मः! आदेश हीते हैं।+५ इनको प्रयोग मे लाने के नियम ये एैं--०भ्रीशस्त्वावतु मापीद दत्ता ते मेडपि शर्म सः | स्वामी ते मेथपि स हरिः पातु वामपि नौ विभुः ॥ गुर्त वा नौ ददाल्ीशः पति वासपि नौ हरिः। सौ घध्याद्दो नम शिव वो नो ददब्ात्सेब्यो5 प्र वः स नः ॥

सर्वनाम-शब्द

हर

थे सूप आदेश ( वा, ते, मे आदि ) वाक्य या इलोक के चरण के दीहते, व वा हा, अह, एव! इन पाँच अव्ययों के योग में ओर सम्पोधन के परे, व हो

यथा--वाकषयारम्भ मे-मम रह गच्छ ( मेरे घर जाओ )। इसमे मम के स्वान कि

च जानाति (वह दुर्मट योग म--स व्वा मा के नहीं हुआ |पाँच श्रव्ययों के

हुक जानता है )। इद पुस्तक तवैवास्ति (यह पुस्तक दरोंहाहै)शा 8

मनन्‍्दमाखम्‌ ( हाय मेरा दुर्माय )। इनमे क्रमशः ला, माहते/ मेआईय)। न महा चलो हुए. । सम्दोधन के ठीऊ परें-बन्धो, मम आममागच्छ (माई मेरे गाँव “मम! के स्थान पर “मे! नहीं हुआ | हे

४--जब 'च” आदि अ्रव्ययों का युप्मद्‌ , अस्मदु, के ला, ते, मा में!झरादि सक्तिस्त रूपों से कोई सम्बन्ध नहीं होता तब य आदेश हो सकते हें, यथा--कैशवः शिवश्च में इध्देवी (केशव और शिव मेरे इष्टदेव हैं )। यहाँ मे” का सम्बन्ध इश्देव से दै और “च' केशव और शिव को एक वाक्य के साथ मिलाता है।

५--जब सम्योधन के साथ कोई विशेषण हो तब युप्मद्‌ और अस्मद्‌ को उक्त आदेश हो सकते हें,यया--हरे दयालो नः पाहि (हे दयाल्ु हरि, हमारी रक्षा करो) |

६--सम्मान के अर्थ में युप्मद्‌ के स्थान पर भवत्‌क शब्द का प्रयोग होता है, यथा--“रक्तमुखेन स प्रोक्त--भी मवान्‌ अ्रम्यागतः अतिथि; तद्‌ भक्षयठ॒ ( मवान्‌) गया दानि जम्बूपलानि? ( रक्मुख ने उससे कद्दा--मुनिएं, आप अम्यागत और

अतिथि हैं, अतः आप मेरे दिये हुए जामुन के फल खाइये ।) ७--सम्मान बोध के अभाव में भी युप्मद्‌ के स्थान में मव॒त्‌ शब्द का प्रयोग होता है, यथा--अहमपि भवन्त क्मिपि एृच्छामि (मेंभी आपसे कुछ पूछता हूँ) । ८--सम्मान बोध होने से कभी-कभी “मबत? शब्द के पहले 'अज' और विनर का प्रयोग क्षिया जाता है] सम्मान का पात्र यदि उपस्थित हो तो अनमवतए

और उपस्थित न हो तो 'वत्मवतः का प्रयोग किया जाता है; झैया--अत्रभवन्तः बविदाइकुवन्तु, अत्ति तत्रभवान्‌ मवमूतिः नाम काश्यपः (आप लोग यह जाने कि भी पूज्य पाद काश्यप गोत्र में मबमूति हैं )। अन्रमवान्‌ बसिष्ठ आशावपति

(पूज्यवाद वरिष्ठ जी आज्ञा देते हैं )। अपि कुशली तत्रभवान्‌ कश्वः १ ( पूजनीय

कएव जी कुशल से तो हैं १ अनमबान्‌ प्रयागीयविश्वविद्यालयकुलपतिः अभिभाषते ( ये इलाहाबाद यूनिवरसिटी के चासलर अभिमाषण कर रहे हैं )।

६--भवत्‌ शब्द के पूर्व'एपः और “स/ का भी प्रयोग होता है, यथा--

पंप मवान्‌ अ्रत बतते ( आ्राप यहीं हें )! उ भवान्‌ मामेतदुक्तवान्‌ ( श्रीमान्‌ ने मुझे ऐसा कहा है )। अमवत्‌ शब्द वदय्पि मध्यम पुरुष के स्थान में प्रयुक्त होता है, तथाप्रि वह खुदा

अथम पुरुष ही रहता है। पएपर और “उः के! आगे अकार को छोड़कर कोई भी अक्षर रदे तो विसग का लोग हा जाता है ।

ष्र्‌

बृहृदू-अनुवाद-वन्द्रिका

इन सर्वनामों के श्रतिरिक्त त्वत्‌ , त्व, त्यद्‌ आदि और भी सर्वनाम हैं,गिनका बहुत कम प्रयोग किया जाता है |

१०--इ'मद, अस्मत्‌ और भवत्‌ शब्दों को छोड़कर सब सर्वनाम विशेष्य और

विशेषण दोनों हो सकते हैं, यया--सबस्य ह्वि परीक्ष्यत्ते स्वभावा नेतरे गुणाः (सब के स्वभाव की ही परीक्षा होती है, अन्य गुणों की नहीं )। ग्तीय दि गुणान्‌ सर्वान्‌ स्वभावो मृच्नि वर्ततें (क्योंकि सब गुणों केही ऊपर स्वभाव रहता हे )।

इन 3दाहरणों में 'स्वस्य विशेष्य और 'सवान! विशेषश हैं। £१--सर्वनाम शब्दों के श्रागे सम्बस्धार्थ में इय! आदि प्रत्यय होते हैं,जैसे-मदौय, मामक, मामकीन (मेरे ), आस्माकीन, अस्सदीय ( हमारा ); त्वदो4,

ताबक, तावकीन ( तेरा ); योप्मक, यौष्माक्रीण, भवदीय ( तुम्हारा ), स्वीब, स्वक्रीय (अपना ), परक्रीय ( दूसरे का ); तदीय ( उसका )। कुछ और साहश्यवाचक विशेषण--माहशः, मत्सम;, ( मुझ सा ); श्रस्माहश+ अस्मत्तमः (हम सा ) ल्वाइश$, खत्सम;, (हुक सा ); युगमाइशः, सामत्ममः

( हम सा), भवादशः, भवत्समः ( आप सा ); ईहशः ( ऐसा ); कीहृशः ( कैसा)?

| +-न्यश्नवाची सर्वनाम “कौन, क्या” के अनुवाद के लिए ससहत मे 'मकरिम” शब्द का प्रयोग होता हैऔर इसके रूप तीनों लिब्ों मे चलते ई-का श्रागतः ( कौन श्राया है?), का आगता (कौन खत्री थायी है?) किमसित (क्या है १) ।क्षिम० (क्या? ) का अनुवाद “अपि” “चित” “चना” शोर “मनु! से

भी फ़िया जाता है, सथा-किमिदमापतितम्‌ ! ( झ्रो | यह क्या झा पढ़ा ह )

झ्पि गतः प्राध्यापकः ! ( क्‍या प्रोफेसर साइव चले गये ! ) क्रिमप्पम्ति, क्िंशिंदस्ति श्रथवां क्रिश्यनारिति ! ( कुछ है! ) नमन जलयान गतम्‌ ! ( क्या जहाज चला गया १ )

फ़िम्‌ शब्द के रूपों केसाथ अंप्र! चित! चना जोड़ देने से हिसदीके

#क्िसी, कोई, कुछ” आदि श्रनिश्चयवाचक सवनाम का बोध होता है, यथा-कश्रिदागती5स्ति

कश्वन श्रागतोंटश्ति

कोई थ्राया है।

कोपि आगतोंदस्ति

किशिंदस्ति किश्वनास्ति किमप्यस्ति

इुछ है। ]

कांचिदागताडस्तिं

काननागता:स्ति काप्यागतायरित

कोई श्रायी है।

सर्बनाम शब्द

परे

१३--यत्‌! शब्द के साथ 'तत्‌? शब्द का सम्बन्ध होता है वक्तदोनित्वसम्बन्ध: ), रिनन्‍्ठु जहाँ 'यत' शब्द उत्तर के वाक्य मे आता है वहाँ पूव के वाक्य में 'तत्‌” शब्द का रखना जरूरी नहीं, यथा-सोध्य तब पुत्र॒आगत'ः यः देव्या स्वकरकमलैस्पलालितः ( यह तुम्हारा वह

पुत्र आ गया जिसका देवी जी ने अपने हस्तकमलों से लालत-पालन फ्रिया। ) पोडशवर्पीया आमीत्‌ सा ब्रह्मचारिणादा ब्रह्मचारी ने विवाह किया । )

(जों सोलह वर्षों क्रीथी उसके साथ

यत्‌ बदामि तत्‌ शणु ( जा कहता हूँवह मुनो )। फिन्तुश्णोमि यत्‌ वदसि ( सुनता हूँजो कहते हो ) । १४--सस्कृत भाषा मे यह या ऐसा! का अनुवाद यत्‌? शब्द से होता है,

किन्तु कभी ऊमी 'इति? शब्द से भी होता है, यथा-ममेति निश्चयो यदह पठिप्यामि ( मेरा यह निश्चय है कि मैंपहूँगा )। जमन-शासकस्प हिटलरस्पेपा दशा भविष्यति इति फो जानाति सम ( यह फौन जानता था ऊ्रि जमनी के शासक हिलर फ्री यह दशा होगी । )

हिन्दी में अनुवाद करो-१--आमोपरूुएठे बिमलाप सरोडस्ति, तसिमिन्‍्सुखं स्नान्ति ग्रामीणा।। २--

रामी राज्षा सत्तमोइभूदू | स पितुर्वेचन॑ पालग्रिला वन प्रान्जत्‌। ३--बृत्तन

बगनीया रमेशस॒ुता कमला नाम | तां परोक्षमपि प्रशसति लोकः | ४--ग्रमु पुरः

पश्यसि देवदारु पुत्रीकृतोध्सो इपभप्पजेन | ५--स सम्बन्धी श्लाध्यः प्रियसुहृदसी

तब्च हृदयम्‌ | ६--सिध्यान्ति कर्मसु महत्स्वपि यत्रियोज्याः सभावनागुणमवेहि तमीश्वराणाम्‌ । ७--यदेने णहागतेपु शपुप्वप्यातियेया भवन्ति स एपां कुलघर्मः । प८-त्तस्थच सम च पौरपूर्तेंबेसुदपायत। &-आयुप्मन्नेप वाग्विषयोभूतः स बीरः।

१०--साहसकारिण्यस्ताः

कुमायो या. स्वय सदिशन्ति समुपरसर्पन्ति वा।

११--एपो5स्मि कार्यवशादायोधिक्यस्तदार्नीतनश्र सबृत्त,। १९--एडमत्र भवन्तों

विदाह्लवन्त । श्रस्ति तत्र भवान्‌ काश्यपः श्रीसृश्ठपदला्छनो भवभूतिनांस जातूकणुपुत्र'

सस्द्त में अनुवाद करो . *ै-पिता ने कहा--बह मेरा योग्य शिष्य है, प्रिय पुत्र है। २--भारतवासी जी घर आये हुए शत्रु का भी आतिथ्य करते है, यह उनका कुलधर्म

है। ३--इम

प्राणों केजिए मनुष्य क्या पाप नहीं करता ! ४--कोई जन्म से देवता होते हैंऔर कोई कर्म से। दोनों का ( उभवेषासपि दृयानामपि वा ) दुवारा जन्म नहीं होता । ५--जो जितको प्यारा है, वह उसके लिए कोई अपूव वस्ठ है ( किमपि द्रव्यम्‌ )। ६-मैं अच्छी तरह जानता हूँकि आप हमारे रिश्तेदार ( सुग्बन्धी ) हैं ।७--आप

दोनों की मितरता कब से ( कदा प्रभृत्ति ) है? ८-देवदा वया अधुर दोनों हम

प्डड

वृहदु-अनुवाद-चन्द्रिका

( उभये ) प्रजापति की सन्तान हैं |इनका आपस में (म्रिथः )लड़ाई ऋगढ़ा होता आया है। ६--कहिए क्या यह आप का कसर नहीं है ! १०--ढें परमेश्वर, आप

मारी रक्षा करें। ११--क्या गाड़ी ( बापयासम्‌ ) चली गई ! १२--वे तुम्हारे कौन होते हैं ? १३--यह हाथी किसका है ! १४--लौजिए, यह आपकी चिंद्दी है।

१५४--जों ठण्डक है वह पानी का स्वभाव है। (शैत्य हि यत्‌ या ") १६--पूज्य

गौतमजी ने मुझे यह कार्य करने की आ्राज् दी है। १७--बुद्धिमाद लोगों की

सद्बतिं में एक अपूर्व श्रानन्‍्द होता है । १८--जो लोगउम्हारे घर पर श्रार्वें उनसे

क्रोमलतापूर्वक बोलो । १६--उस विपत्ति काल में उन लोगों ने बड़ी कठिनता से 0 बचाया | २०--इस शुम अ्रथसर पर श्रीमान्‌ जी क्या बोलने का सट्डह्प करते हैं!

विशेषणु-शुच्द्‌ १-निश्चित संख्या वादक ( विश्ेषण 2 डक शब्द का अर्थ सरपायाचक्ष एक! होने पर इसका रूप केयल एक्उ्चन

में होता है, अन्य अर्थो# में दसके रूप तीनों दचनों में होते है । अल्प ( योडा, कुछ ), प्रधान, प्रथम, केयल, साधारण, समान और एक अ्रयों में एक शब्द का प्रयोग होता है । एक का बहुबचन में अर्थ होता है--कुछ लोग कोई कोई', यया एके पुदपाश, 'एकाः नाय:, 'एफानि फलानि' इत्यादि ।

एक शब्द पुजिय एक एकम्‌ एके एजसमे एकन्मात्‌

नपु० स्त्रीलिग एकम्‌.. एका एकम्‌ू एकान्‌. एके एकश एकतनीे. एकस्ये. एकस्मात्‌ एकल्याः

एकन्च.. एकस्पथ एफस्मिन्‌ एकल्मित्‌

पा

_

एकस्वाः एकल्याम्‌

द्वि(दो)

पुल्लिण.. ग्र० दी द्वि० द्वौ तू» द्वाम्वाम्‌ च० द्वान्याम प० द्वासल्याम

वषु० स्त्रीलिंग डे द्दे दाम्बाम दान्याम्‌ द्वाम्यार

प० स०

इयोः द्दयोः

द्योः हयोः

द्वि? शब्द के रूप केवल द्विदचन में तथा तीनों लिझ्लीं में भिन्न-मिन्त दाने हैं। ०

लड़

(_त्रि (वीन 2

धचतुर ( चार )

'त्रि! शब्द के रूप केपल पहुवचन में होते हं-ञ््पः चीणि विवश. प्र० चत्तारः

चत्वारि

चतसः

आीन्‌ ब्रिमि:.

दि० चतुरः तृ० चनुर्मिः

चत्वारिे. चतुर्कि.

चतख्चतसउमिः

चू०

चतुर्म्य:

ड्िम्यः.

जिन्म.

आीरिए ब्रिमिः

ब्रिम्पः

जिम्य

निब्ठ

चतुम्य:.

प० चतुन्याः.

चठ॒न्या।

क एक शब्द के अथ-एजोस्ल्वार्थे पघघाने च प्रथम केत्रले तथावा साधारणे समानेडपी सल्याया चर प्रयुग्यवे॥

चतदन्वः

चतसम्बः

पति दया चनुर्‌शब्दोंके स्पान में सख्लीलिक्न में दिल और चवद आदेश हो

जाते हैं (पिचनुरोः छिय्रा तिदचठ्छ ) 7

द्‌

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

अत्रयाणाम्‌ चयाणाम्‌

तिसशाम्‌ प० |चदर्णाश |चदर्णामू, चतसंणाम्‌

त्रिपु

विखपु.

त्रिषु

स०

| चतुर्ण्णाम्‌ |चनुण्णाम्‌ चत॒पु चत्॒पु. चतसपु

चतुर (चार) शब्द के रूप भी तीनों लिश्ों में भिक्न-मेन्न और केवल वहुबचन

में होते हैं-पदश्चन्‌, पप्‌ , सतद्‌ आदि सस्यावात्ी शब्दों के रूप तीनों लियगीं में तमान

होते हैंऔर केवल बहुबचन मे होते हैं---

पश्ननू-पाँच ५” पपू-छः... संप्रत-सात पु'हिलिग, नपुसकलिंग तथा ल्लीलिंग प्र०

पंच

पट“ई

स्त

द्वि०

पंच

पद

सतत

सृ०

पंचमिः

पहुमिः

सपम्तमिः

च०

पचभ्य;

पद्म्वः

सप्तम्य:

प्‌

पसभ्यः

परम्या

प्र० स०

पच्चानाम्‌ फंचसु २

अअप्टन-आठ... प्र०

द्वि० तृ० च०

आष्टो, अष्ट

प्रण्णाम्‌ चट बह

नवन-नो लब

ससम्यः

सप्तागाम ७८ सुसमु

दरशन्‌-दस द्शु

अश्टी, अष्ट श्रष्टामिः, अप्टमः.

नव नवमिः

द्श दशमिः

अष्टाम्यः, थ्रष्टम्यः

नवस्यः

दशभ्याः

#श्ाम्‌ ( पष्ठी वहु० के विमक्ति प्रत्यय ) के जुड़ने पर “ब्रि' शब्द के स्थान में

/

अब! हो जाता है ( भेखयः ) इस प्रकार तयाणाम! रूप वन जाता है।

पद छः सज्ञा वाले संस्यावाची शब्दों तथा चतुर्‌ शब्द में श्राम्‌ ( पष्ठी बहुबचन के विभक्ति प्रत्यय ) के पू नुका आगम हो जाता है ( पद चनुम्यश्व ) फिर रपराम्वों नो शंः समानपदे! से न छा ण्‌ होजाता है। स्वर के आाद र श्रौरइ द्वी तो उस र या इ को छोड़कर किसी भा ब्यञ्ञन ब्ण का विकल्प करके

दिल हो जाता है,इसके अनुसार “चतुण्णामः भी होगा ( श्रचो रहाभ्या दे )॥ पसदि श्रशटनू शब्द के बाद व्यज्ञनवण से आरम्भ होने याले विभक्ति प्रयय जुडे

होती न! के स्थान में 'थ्रा' हे जाता है, किलत न! के स्थान में श्रा' का होना

वैकल्पिक है ( श्रष्न आ विमक्ती छा “अरष्टा' के बाद प्रथमा दया द्वितीया के वहुवचन के विभक्ति्यत्मयों के जुड़ने पर उनके झथान में श्री' का आदेश हो जाने पर “अष्टी! रूप बन जाता ६ । पके स्थान में आरा! न होने पर ्रष्ट! रूप बनता है( अ्रशम्प औौश) |

विशेषणु-शब्द पर च०

स्द्ठ

अष्टाम्य३, श्रष्टम्यः.. अष्टानाम्‌

नवमभ्यः नवानाम्‌

दशम्यः दशानाम्‌

सुर

अष्टास, अष्टसु

नवसु

दशसु

स०

है अ्शै, हे ब्रष्ट

है नव

है दश

सभी नकारान्तसख्यावाची ( एकादशन्‌ , द्वादशन्‌, चयोदशन्‌ , पश्चदशन्‌, पोडशन्‌ श्रादि ) शब्दों के रूप पदञ्चन्‌ केसमान तीनों लिज्ञों में एक ही समान

होते है। नित्य ख्रीलिज्ञ ऊनविंशति से लेकर जितने सख्यावाची शब्द हैं, उन सब के रूप फेबल एकवचन रहीमे होते हैं। हस्व इकारान्त नित्यस्नीलिज्ञ सख्यावाचक

ऊनविंशति, विंशति, एकर्विंशति

आदि 'विंशति' मे श्रन्त होने वाले शब्दों फे रूप 'मति' के समान चलते हैं। सज्या वाचक विंशति, तिंशत्‌ (तीस) चत्वारिशत्‌ (चालीस) पद्चाशत्‌ (पचास)

तथा “शत्‌' मे श्रन्त होने वाले अन्य सस्यावाची शब्दों केरूप--'विपद्‌” के समान नित्य ज्लीलिड्ज होते हें,यथा--

विशरति

निरात्‌

चत्वारिंशत्‌

प्र० द्वि० तू० च० प्‌०

विंशनिः विंशतिम्‌ विशत्या विंशल्यै, विशतलये.. विशत्या), विंशतेः..

चिशत्‌ बत्रिशतम्‌ त्रिशता त्रिशते जिंशत३

चत्वारिशत्‌ चत्वारिंशतम्‌ चत्वारिंशता चत्वारिंशते चत्वारिंशतः

प्‌

विंशत्या,, विशतेः.

निशतः

चत्वारिंशतः

स०

विशत्याम्‌ विशती.

विशति

चत्वारिंशति

इसी भाँति पश्चाशव्‌ के भी रूप चलते हैं। पष्ठि (साठ ) सप्तति ( सत्तर ) अशोति ( अस्सी )नयति ( नब्बे ) इत्यादि सभी इकारान्त संल्या वाची शब्दों के रूप 'बिशति! के अनुसार 'मति' के समान नित्यस्नीलिड्ञ होते हैं। पष्ठिः प्र० सप्ततिः पष्ठिम्‌

द्वि०

सप्ततिम्‌

पश्चया

सू०

स्त्तत्या

पए्वै, पष्ठये

च०

पष्ठया३, पष्ठे प० पष्ठया), से स० पद्मरपाम्‌ , पष्ठी स० इसी भाँति श्रशीति, नवति के भी रूप चलते

सप्तत्यै, सस्तये ससत्या;, ससतेः सप्तत्या), सम्ततेः सप्तत्याम्‌ , ससतो हैं।

बहदू-अन॒ुवाद-चन्द्रिका

व्८

संख्या १ एकः श्द्विः शत्रिः

प्रणी संख्या

पूरणी संख्या

धु० तथा नपुं०

स्त्री० प्रथमा

प्रथम:-मम्‌

द्वितीयन्‍्यम्‌

हैचतुर्‌

जृतीयःन्यम्‌ चतुथभतुरीय, छुय पंचमा

६ प्प्‌ ७ ससन्‌ ८ अप्टन्‌

प्रष्ठ सप्तम श्रष्टम

५ पश्चन्‌

६ नवन्‌

अवम

१० दशन््‌

दशम

११ एकादशन्‌ ४२ द्वादशन, १३ त्रयोदशन,

१४ चतुद॒ंशन्‌ १४ १चदशन्‌

एकादश दादश अंयोदश

चतुर्दंश

हवितीया तृतीयाँ अतुर्थों, तुरोया, ठया पंचमी पष्ठी सप्तमी अष्टमी नवमी

दशमी एकीदशो द्वादशों त्रयोद्शो चतुद्शा

पंचदशी

१६ पोडशन्‌

१७ संप्तदशन्‌ १८ अष्टादशन्‌

पचदश पोडश सप्तदश अष्टादश

१६ नवदशन्‌

नवद्श

नवदशी

एकोनर्विश एकोनविंशतितम ऊनबिंश, ऊनबिंशतितम

एकोनविंशी एकोनबिंशतितमी

अथवा

एकोनबिंशति (छी०)

अथवा ऊनबिशंति धच्याथवा

एकाब्रविंशति

एकान्नविंश, एकान्नविंशतितम

पीडशी सप्तदशी श्रष्टादशों

कनविंशी ऊनबिंशतितमी

एकान्र्विशी एक्रान्नविशतितमी

% पूरण के भ्रथ में पट ,कतिपय तथा चतुर्‌ शब्दों में डट्‌ प्रत्यय छुड़ने पर भुक्‌ आगम होता है (पटकतिकतिपयचतुरा शुक्‌ )। चतुर शब्द में पूरण ग्र्थ में छ श्रौर यत्‌प्रययभी लगते ई श्राद्य श्राद्य गक्तुर (व! का लोप है। हा दै

( चतुश्छयताबायक्षसलोपश्र )। इस अकार त॒रीय और तु रूप बनते हैं ।

+ नान्तसंण्वाची शब्दों मेंपूरण के श्रथ में डट प्रत्यय झुड़ने परउसे मद आगम दोता है ( नान्‍्तादसस्यादेमंट ) |

संर्यावाबक पिशेषण

3

२० विशति ४ २१ एकप्रिशति

विंश# विंशवितम हर एकविंश, एविशवितम

हु २२ द्वाविशति 5

द्वाविश, द्वार्विशतितम अर: अवोविशधित

भ्रयोविशति

२३

विश

वयोविंश, त्रयोविंशतितम

द्वाविशी दाविशतितमी जयोविशी तयाविशतितमी

२४ चत॒र्तिशति

चतुर्विश, चत॒र्विशतितम

चतुर्विशी चत॒र्बिशतितमी

श२५ पचविशति

न पचरविंश, प चर्विशतितम तितः

पचर्विशी पचादे शतितमी

२६ पडूविशति

प्रड्विश, पडतिशतितम

परदविशी पद विशतितमी

३५ लव: २७ संतविशति

वि; सम्रविश, सप्तविशतितम

सस्विशी सविशवितमीड

अध्याविश

अशपिशी शहितमी

नवविश नवबिशतितम एकोनत्रिश, एकाननिशत्तम

नवविंशी नवविशतित्मी एजरोनत्रिशी



अश्ावि

अ्शर्विशनि

२६ नप्र्विशति अधया एकान्रिशत्‌ू..

चत॒र्दिशवितम

विंशी, विंशतितमी एकविशी एफ़विशवितमी

>ष्शाविशतितम

आश्षया

त्र्टावि

एुकोनतिंशत्तमी

ऊननिशत्‌

ऊनर्तिश, ऊननिशत्तम

ऊनतनिंशी

दानवत्रिश, एकन्नतिशत्तम

एकान्नत्रिशी एकान्नर्त्रिशत्तमी

तिश, प्रिशत्तम एकर्तरिश

जिशी, विंशत्तमी एकर्िशी

एकत्रिशतम

एकर्निशत्तमी

अगवा

ऊनतिशत्तमी

कार्य एकान्ननिशत्‌ ३० तिशत्‌ १ एक़तिशत्‌ 0802

३२ दात्रिशत्‌



द्वार्निशत्तम

दार्निश

दानिशी

३३ नर्याश्निशाः रु है

नवस्निश नयस्विशु्तम

नयन्तिशी नयस्निशत्तरी

पं

द्वाजिशत्तमी

# विंशति इत्यादि शब्दों मे पूरणतम के भ्रथ में विकल्प से दअत्यय लगता दै ( विशलादिग्यस्तमडस्वतरस्थाम्‌ )और डदूमोलगता दै [ इस प्रकार इनके दो दी रूप होंगे तिश३, विशतितम), जिराई निंशत्तमः इत्यादि ।

६०

बूहदू-अनुवाद-चन्दिका

र४

चनुश्चिशत्‌

चतुस्तरिश

चतुश्रिशो

पंचत्रिश

पचत्रिशी

चतुस्तिशत्तम

चतुर

चत्रिशत्‌ कि जी

पचत्रिशत्तम

पटजिंश ६

३६ पद्िशत्‌

चतुच्लिशत्तमा दे 2 पंचनिशत्तमो

पदनिंशी न

१३ पद नर

पद्त्रिशत्तम

ब्यटूजिशत्तमी

उततरिंशद ३७ ससजिशत्‌

सप्तत्रिश सम्तत्रिशत्तम अष्टत्रिश

सप्तत्रिशी सत्तत्रिंशत्तमी अश्टत्रिंशी

् आपथ्त्िंशत्तम

अशबिंशत्‌ 43840

नवर्जिश नवरत्रिशततम

३६ नवत्रिशत्‌ अथवा

अशष्टात्रिशत्तमी

नवत्रिंशी नवश्निशत्तमी

एकोनचल्वारिंशत्‌

एकोनचलारिश

एकोनचत्वारिशी

खथवा उनचलारिंशत्‌ू.. अथवा एकान्नचत्वारिशत्‌ ब्नचत्वीरिं

एकोनचल्वारिशतम ऊनचल्वारिंश ऊनचल्वारिशत्तम एकाबत्यारिंश

एकोनचत्वारिंशत्तमी ऊनचत्वारिंशी ऊनचल्ारिंशत्तमी एकान्नचत्यारिंशी

चल्वारिंश ४० चल्वारिंशत्‌

अत्वारिश

चत्वारिंशी ्िशित्तमी

४१ एकचलारिंशत्‌

एक़चलारिंश एकचत्वारिंशत्तम द्वाचल्वारिंश

एकचलारिंशी एकचल्वारिंशत्तमी द्वाचल्ारिंशी

एकाननचलााव (न पदल्वारिशतम

2 चला

दत्‌

४२ द्वाचल्वारिंशत्‌ू.

अथवा दिचलासिशत्‌. हि

चत्वारिंशत्तम

द्वाचत्वारिंशचम हाथ द्विचलारिंशत्तम

एकाबचत्वारिंशत्तमी चलत्वारिंशत्तमी

द्वाचचारिशत्तमी दिचलारिंशी द्विचलारिंशत्तमी

च्यश्वत्वारिंश

त्रयश्च॒त्वारिशी

अझयबा

त्रयश्वत्वारिशतम

त्रयश्वलारिशत्तमी

जिचल्वारिशत्‌.._

चतारिश

४३ त्यश्र॒त्वारिशत्‌ू.

४४ चतुश्च्वारिशव्‌ -

४४ पश्चचल्वारिशत्‌ू...

तिचलारिंशत्तम

लारिश

त्रिचल्यारिशत्तमी

त्रिचत्वारिशत्तमी

चतश्चलारिशी

चत॒श्चच्चारिशत्तम

चत॒श्चल्वारिंशत्तमी

अलारिंश

पं्मचत्वारिशी

पं्चचलारिंशचम

पश्चचत्वारिशत्तमी

सस्यावाचक विशेषण ४६ पदचत्वारिशत्‌ ४७ सप्तवत्वारिशत्‌ ड४८ अठाचलवारिंशत्‌ अथवा अश्चत्वारिशत्‌ ४६ नवचत्वारिंशत्‌ अथवा एकोनपश्माशत्‌ अथवा ऊनपचाशत्‌ अथवा

एफान्नाश्चाशन्‌ घ०्पश्चाशन्‌ ५१ एक्पश्चाशत्‌

६९२ द्ापद्चाशत्‌ अथवा

द्विपश्चाशत्‌ 3३ व्यशद्याशत्‌ अयवा जिपश्चाशत्‌ ४४ चनुभश्चाशत्‌

५४ पञ्मश्चाशत्‌ ५५ पर्पश्चाशत्‌

पदचत्वारिश पदचत्वारिंशतम सम्तचलवारिंश सप्तचत्वारिंशच्म अष्टाचत्वारिंश अष्टाचत्वारिंशतम अष्टचत्यारिंश अधष्टचत्वारिंशलम नयचत्वारिश नयनत्वारिंशत्तम एक्ोनपद्माश एकोनपद्चाशत्तम ऊनपाचाश ऊनपचाशत्तम एफान्नयश्चाश एहाम्पश्चाशत्तम पद्माश पदश्चाशच्तम एकपग्चाश एकपश्चाशत्तम द्वाप्चाश दापश्चाशत्तम

द्विपच्चाश द्विपश्लाशत्तम

घ्ड

पद्च॒त्वारिंशी पद्चलारिशत्तमी सप्तचत्वारिशी सत्चलारिंशत्तमी अष्टाचल्वारिंशी अशचलारिंशत्तमी अष्चत्वारिंशी अष्टचत्वारिंशत्तमी नयचत्वारिशी नवचत्वारिंशत्तमी

एफानपद्माशी एकोनपश्चाशत्तमी ऊनपचाशी ऊनपचाशत्तमी एकान्नयश्चाशी एकान्नपञ्चाशत्तमी पश्चाशी पद्माशत्तमी एक्पद्चाशी एफ्पश्चाशत्तमी द्वापश्चाशी दपश्चाशत्तमी

द्विपश्चाशी

चह॒.पद्माश चतुशब्चाशतम पशद्धपथ्ाश पञ्मपद्चाशत्तम

द्विपश्वाशत्तमी तयक्षयाशी जयशश्वाशत्तमी जिपदश्माशी जिएडए्सचमी चतुशभश्चाशी चठुभ्द्बाशत्तमी पदच्चज्चाशी पद्मप्चाशत्तरमी

पद्पद्चाश पदएश्चाथचम

पदपद्माशी पद्पञ्चाशत्तमी

अयभ्द्चाश नयभज्चाशत्तम त्रिपद्लाश

विप्ञाशक्षण

झछहदू-अठवाद-चख्धिका

धर ५४७ सतपञ्चाशत्‌ ५८ अशपशच्चाशत्‌ अथया अष्टपद्चाशत्‌

४६ नवपशञ्चाशत्‌ अयबा

एकोनपक्टि खयवा ऊनपष्टि श्रयवा एक्रान्नपष्ट ६० पष्टि

६१ एकपप्ि ६२ द्वापप्ि अथवा द्विपष्टि ६३ ब्रयस्यट्रि

अथवा विषष्टि ६४ नतुष्पष्टि ६४. पञ्मपरप्ठि ६६ पयपणि ६७ मम्पष्टि : इठ श्रष्पष़ि अ्रथवा

सत्तपद्नाश सप्तपश्नाशत्तम अष्टापश्चाश अष्टापश्चाशत्तम अ्रष्पद्माश अष्टपश्चनाशत्तम नवपश्चाश नवपश्याशत्तम एकोनपष्ट

एकोनप्रश्तिम ऊनपष्ट ऊनयश्तिम

सप्तपञ्नाशी सप्तपशञ्माशत्तमी

अधछापशाशो अ्रष्टापद्चाशत्तमी

अष्टपर्चाशी अष्टपश्चाशत्तमी नवपश्चाशी नवपश्चाशत्तमी

एकोनपष्टी एकोनप्श्तिमी ऊनपष्टी ऊनपश्चितमी एकान्रपष्टी एकाप्नपष्टितमी पश्टितमी एकपष्टी

एकाबपए एक्यत्रपश्तिम परष्टितम एकपष्ट एकपश्टितम द्वाप४

एकपष्रितमी द्वापष्टी

द्वापप्टितम

द्वापश्टितमी

द्िपप्ट

द्विपश्ितम ब्रयप्पष्ट

चयःपश्तिम बत्रिपष्ट निपष्टितम

द्विपष्टो द्विपष्टितमी ्रयष्यट्री च्रय:पष्टितमी बिपष्टी

त्रिपष्टितमी

चतुष्पष्ट

चत॒ष्पष्टी

चवुष्पश्तिम

चतुप्पष्टितमी

पश्प्ष्ट पश्नपष्टितम

परदपष्ठ पदवश्तिम

सतपडश सप्तपशितिम अष्टपष्ट अशपश्तिम

एश्पष्टी परश्मपष्टिवमी प्रदूषष्टी परदपष्टितमी स्तप््टी सप्तपश्टितमी

ऋषापद्टी अष्टापष्टितमी

धर

सख्यावाचक विशेषण अष्षष्टि 5प प्रकार से

अकामम-पर्याप्ष, काफी

सर्वदा--सब दिन

प्रतिदिनम--नित्य अत्युत--इसके विपरात असुह्य--वलात्‌

सइ+साय सइसा--एकबारगी सददतिम-साथ

आर-सइले

साकम्‌-खाय

गरतः--सबेरे

सकृतू-एक बार

किया विशेषण अबच्यय )

सततम--बराबर, सव दिन सदा--हमेशा

श्श्‌

सर्वतः-चार्रों तरफ सर्वत-सब कहीं साम्प्रमम--अब, उचित

सद्य/--तरन्त

सपदि-तुरन्त, शीघ्र समन्तातू--चारों ओर सममू--बराबर-वराबर समया--निकट समीपे, समीपम--निकट

सायम्‌--शाम को सुष्ड- भली-भाँति स्वस्ति--आशीवाद स्वयम्‌--अपने आप हि--इसलिए,

समीचीनम्‌--ठीक

साक्षातू--आऔँखों के सामने

रुम्प्रति--इस समय, अभी

साधम--साथ

हा;--कल ( बरीता हुआ दिन )

सम्मुसम्‌--सामने

सम्यक-मली भाँति

समुच्चयवोधक अव्यय च (और ) शब्द प्रायः हिन्दो में दोनों शब्दों केबीच मे आता है, जैसे-->दा्धपंवंचक, खेदसूचक | किम , घिक--धिक्कार-सूचक । आा, हुम्‌ , हम--क्रोधसूचक | हा, द्वाद्य, दन्त--शोकसूचक । जा

अड्, श्रयि, अये, भोः--अयदर के साथ बुलाने के अ्रथं में आते हैं। थरे, रे,

रेरे--निनन्‍्दा के साथ बुलाने मे । अद्दो, ही--विस्मयमूचक |

विविध अव्यय खब्यय में विभक्ति, लिझ्र और वचन के अनुसार रूप-परियर्तन नहीं होता। श्तः तद्धित-प्रत्थयान्त, कृदन्त तथा कुछ समासान्त शब्द भी अब्यय होते हूँ| तड्ितरचासवंबिभक्ति । (१३८ तद्धितो मेंतसिलूअत्यवान्त, शलूअत्ययान्त, दा-अ्रत्ययान्त, दानीम-प्रत्ययान्त, आधुना, तहिं, कि, यहिं, रुदेः से लेकर उत्तरेद्यु; तक शब्द अव्यय हैं, थालूः प्रत्ययान्त, दिक्‌ और कालवाचक पुरः, पश्चात्‌, उत्तरा, उत्तरेण श्रादि, थाप्रत्ययान्त (एकधा, द्विधा, त्रिधा आरदि ) शस्‌-प्रत्ययान्त (बहुश३, श्रक्वरशः, श्रल्मशः

श्रादि ) च्वि-प्रत्ययान्त ( मस्मीभूय, शुक्तीभूय थ्रादि ), साति-प्रत्यवान्त ( भस्मसाव्‌, अह्यासात्‌ थआ्रादि ), ऋत्वसुचूपत्ययास्त (-द्विकत्वः, भ्रिकृत्ः ) और इसके अ्रथ में प्रयुक्त ( द्विः, त्रिः ) ५ कन्मेजन्तः ।0॥रेध ऋदन्तों में--मकारान्त शब्द श्रव्यय ड, यथा--णमुल्‌-्रत्ययान्त (स्मारं स्मारम्‌

आदि ), त॒म॒न:प्रत्ययान्त ( मोक्तुम) वया छ, ऐ, थरो, श्री में श्रन्त होने वाले, जैसे--गन्तुमू, जीयसे

( तुमर्थ प्रत्यय श्से लगा कर ), पिगरध्ये (ठुमर्थ शघ्वै

प्रत्यय ); तथा ( कतबातोमुनकसुनः 4११४० ) बत्वा (और कत्वार्थ ल्पप्‌ ), तोसुन झौर कुसुम्‌प्रत्ययान्त शब्द; जैसे--गला, उदेतोः, विसुपः । प अव्ययीभावश |११४४१ अव्ययीमाव समास वाले शब्द भी अव्यय ई, जैसे--यथाशक्ति, उपगद्नम, खअधिइरि, श्नुविष्णु इत्यादि ।

अव्ययों का बाक्‍यों में प्रयोग अब्यय ( अर्थ )

अंग ( समोधन )

प्रयोग

अग विद्वनू माणवकमध्यापय (हे विद्वद माणवक

को पढ़ाइए )! अकस्मात्‌ ( श्रचानक )

अपग्रतः (सामने, श्रागे)

शी

गुढः श्रकस्मादागतः ( गुझ श्रचानक था गये ) |

न जनस्याग्रतो गच््रेत्‌ ( लोगों के श्गे न जावे )।

श्श्ह्‌

क्रिया विशेषण ( अच्यय 3

अचिरात्‌ | । 5]

अचिरादेव डृष्टिमृविष्यति ( वर्षा जल्दी होगी )। एवं वर्स्यते

अतएब

।(इच्लिए)वर्णन अपर किया है ) |

(इस लिए इसका ऐसा

(६

(जो अच्छा कार्य ही उसे अद्येब कुछ यत्‌ श्रेयः आज ही करो )। अथातो अक्मजिशासा (( झप् इसके आगे ब्रह्म के

अद्य( आ्राज ) अथ ( मगल-चिह,

आरम्म सूचक बारे में विवेचन है ) | अश्य किम ( हाँ, ठीफ शकार --चेट, प्रवदणमागतर्म्‌। चेट+-अ्रथ किम । ऐसी ही बात है). ( शकार-क्या गाड़ी आ गयी १ चेट--हाँ । ) अऋघुना,

अघुना जगत्‌ शस्यमिव प्रतिभाति ( श्रव सुसार

इदानोम्‌

सम्प्रति-साग्प्रतम्‌ अधः ( नीचे )

। (अगर) सना मालूम पडता है।

अधसूयजसि रत्नानि ? (क्या तुम रत्न नीचे फेंक रहे हो ) ९ अधिडत्य ( बारे में ) अथ कतम पुनऋतुमधिकृित्य गास्यामि ( किस ऋतु के बारे में गारऊं ) ! अन्तरा ( बीच में )

स त्वा माश्व अन्तरा उपुविष्ट: ( वह तुम्हारे और

मेरे बीच में बैठा है) | तमन्तरेणापि नेशोमते च सा ( वह उसके विना शोभा नहीं पाती है ) ! अन्येयु: ।(किसी दूसरे अन्वेय्ुः चन्द्रापीडः आगमिप्यति ( किसी दूसरे दिन

अन्तरेण ( विना )

|दिन).

आप्रि (शका और

सम्भावना, सरपा-_

चन्द्रापीड आयेगा )

(१) श्रप्ति जानासि देवीं बिनोदयितुम्‌ ( क्‍या तुम

रानी को प्ररुन्न करना जानते हो )

वाचीशब्दोंके साथ (२) सबरपि राज्षा प्रवोजनम्‌ ( राजाओ्रों सेसभी रुम्पूर्णता ) का मतलब रहता है )[_ अपि च (और मी अब वात और भी सुनो )। अगि 3 व्जोपओ & 27223 देविशत (देववाश्रों के पूजन सेपैदा हुई प्रिय सीते )।

अये ( श्राश्रयं बोधक ) अये देवपादप्रद्योप्जीविनोज्वस्थेयम्‌ (खेद है कि “४ महाराज के चरण कमलों के मौफर की यह दशा है ) ? अरे, अरेरे

सुम्बोघन )

(नीच

ञरे

रे

बृहदू-अनुवाद-्चन्द्रिका

र२० हम

ृृ

अलग ( ब्यूथं, समय )

असि ( ठुम )

झस्मि ( मैं ) अहह ( खेद या बिस्मयमचक )

झद्दो (सम्बोधन ) अग्रा, ग्राम, ( श्रतीत घटना-स्मरण )

(क ) अलमतिविस्तरेण (बरस बस, रदने दो ग्

(ख्र ) अल॑ मन्लो मन्लाय |

कृतबानति विप्रियम्‌ ( यह अनथ ठुमने किया है) | ठद्‌इृश्वानग्रम(मैंने यह देखा दै)। अहृह महतों निःडीमानः

चरित्रविभूतयः ६ श्रोहों !

महापुरुषों के चरित्र कोविभूति अपरिमित होती है ) । झहह कष्टमपरिडतता विधेः ( हाय रे, ब्रह्मा

की मूखता/) | अड्दो ! मधुरमार्सों कम्यकाना द्शनम्‌ (आहा, इन कन्याश्रों कादशन कितना मुखकर है !) अद्दो | दारुणो दैवदुर्विपाकः ( हाय रे, दुर्माग्य |) (के) आ एवं किल तदासीत्‌ (अच्छा तो बात ऐसी थी ) ! (ख ) कि नाम दण्डकेयम्‌ ! आराम चिरस्य पति-

बुद्धोडरिमि ( क्या यह दण्डकारण्य है ! सचमुच, मैंतो बहुत देर में जागा हैं) पग्रा ( पीड़ा या क्रोध सूचक आदौर्डिद (झथवा ) इति

( क-किंसी के

आर कथममद्यापरि राज्तुसत्रासः ( अरे, क्या अब भी

राक्षशों कामय है ! ) स आगतः आ्राहौस्वित्‌ पल्मायित: (बह भरा गया या माग गया ) । (क ) इत्सुक्था रामः बिरराम ( यदई कह कर राम

कथन को व्यक्त करने चुपहोगया)। , (ख ) तयोमुनिकुमारकपोरल्यतरः कथयति श्रक्षके लिए, ख-यह, ग॑मालामुप्याचमिदमागतोडस्मीति ( मुनिकुमारों में से एक निम्नलिखित )

कह रहा है कि श्र्षमाला माँगने आया हूँ) |

(ग) रामामिधानों दरिस्ट्युद्राच (राम नामक

हरि ने निम्नलिखित बात कह्दी )।

इतिद ( इतिहास बाचक )

इढ ( यहाँ )

क्षदव ( सहृश, सम्मयतः )

इतिदस्म आह भगवान्‌ झआत्रेयः ( ऐसा मंगवान,

आात्रैय ने कद्दा था ) १

जास्तीह कबित्‌ जनपद: ( यहाँ कोई गाँव नहीं है )।| (१ ) सबूहस्मतिरिव ग्रशावान्‌ (ब६-दहसस्‍्पति की

तरद बुद्धिमान्‌ है )।

आय प्रणक्नः सुखीबाक्ये (ऋर० ), थ्रास्वतचावपार कल तप प झ्रास्तु स्थात्‌ कोपरीडयोः (श्र० )।



क्रियायिशेषण ( अव्यय )

१११

(२ ) पसयक्तः प्रीतेः कथप्रिव रसवेत्तु:पुरुष, ( सम्मबतः पराधीन पुरुष कैसे प्रीति के मु का स्वाद जाने ) | इत्थ जनकनन्दिनी पुनरगात्‌ (इस प्रकार सीता फिर चली गयी )। #उत ( अथवा, या स्थाणुरयम्‌ उत पुरुष: ( यह या तो खूडा हो रुकता तोन्या ) है या पुरुष )।उत दण्ड: पतिप्यति ( क्या डडा गिर

इत्यम्‌ (इस प्रकार )

उत्तरेण (उत्तरकी ओर). उपरि ( ऊपर )

उभयत, ( दोनों ओर ) आते (बिना )

जायगा ) !

नगरम॒त्तरेण नदी ( नगर के उत्तर में नदी है )।

तन्रागार धनपतिण्हानुत्तरेणास्मदीयम्‌। मेघ० ।,० ऊपरि उड्धीयमानाइ्छौ कपोतः ( यह कबूतर ऊपर उड़ रहा है )।

ग्राममुभयत, बनानि ( गाँव के दोनों ओर बन हें )। धर्मम्‌ ऋते कुतो मोक्ष: ( धर्म केबिना मोक्ष कहाँ )।

एकदा ( एक बार ) स एकदा आगमिष्यति ( वह एक बार यहाँ आयेगा )। एव (हो, किसी भाव अरथोध्मणा विरह्ितः पुरुत-स एवं (जी पल पर जोर देमे के लिए) रहित यही पुरुष ) | न्‍्ध्र व राजिरेव व्यरसीत्‌ (रात ही गुजर गयी, फिन्‍्तु प्रेमालाप छमास न छुआ )। मवितव्यमेव तेन ( यह ता

'ैएपम्‌ ( प्रकार, हाँ

आदि )

होवेगा ही ) | णमुवाच चन्द्रापीड: ( चन्द्रापीड ने ऐसा कहा

)।

एवमेतत्‌ (हाँ, यह ऐसा ही है )। एवं कुमः ( हाँ हम

लोग ऐसा करेंगे )।

डर अनुमति के _._ ओमित्य॒च्यताममात्यः ( मत्री सेकह दो कि मैं ऐसा अथ में) ही कहूगा )

कथ कथमपि ( किसी

कथमपि आगमिष्यति

(बह किसी तरह भो

तरह, किसी तरह मी ) अ्यगा ) ।

कबित्‌ ( प्रश्नवाचक, शिवानि वस्तीयजलानि कचित्‌ ( आपके तोथ जल से आए करता हूँएक ) विष्न-्सहित तो है )६ क् ( कहाँ ) क्ल सुयप्रभवो बशः क्ूत चाल्पविषयामतिः ( कहाँ तो सय से उतर वश और कहाँ स्वल्प शान वाला मेरी बुद्धि )। #रउत ग्रश्ने वितके स्थादुतात्यय विकल्पयो: | वि०

“ण्व़ प्रकारोपमयोरगीकारेब्वधारणे |वि० । [श्रोमित्यनुमतौ प्रोक्त प्रखवे चाप्युपक्रमे |वि० ।

श्र्र

बृहदू-अनुवाद-चांन्द्रका

कामम्‌ ( स्वेच्छाल॒सार, माना कि )

तपः के वेत्से क् च दावक वषुः ! कामं न तिप्नति मदाननंसंमुखी सा भूयिप्ठमन्यविषया उ व दश्टित्या; (माना कि बह मेरे सामने झुंह करके खड़ी नहीं होती तब भो उसकी दृष्टि अधिकांशतः किसी अन्य वस्तु को ओर नहीं है ) | 'किम्‌ ( प्रश्न-क्यों किस तत्रैव कि न चपले प्रलयं गतासि ( ऐ, चपल देवि,,

कारण से ) !

तू उसी स्थान पर नष्ट क्यों न हो गयी ) १

किम ( समस्त शब्द

स किसखा साधु न शास्ति योअधिपम््‌ (जो स्वामी

खराब या कुत्सित

को उचित राय नहीं देता बह क्‍या मित्र है-- वह बुरा

श्र्य में )

मित्र है )।

किम, किसुत, कि पुनः (क्या कहना

है)

(१ ) एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र नवुष्टयम्‌ ( एक

भी अन्थकारी है,जहाँ चारों हों वहाँ कहना ही क्या है ! ) (२ ) चाणक्येनाहूतत्य निर्दोपस्यापि शंका जायते किमुठ सदोपस्य ( चाणक्य द्वारा बुलाये जाने पर तो

निदोॉप को भी शंका पैदा हो जाती है, तो फिर अपराधी

पुरुष का तो कहना ही क्‍या हे ) ! ( ३० स्वयं रोपितेषु तस्षु उसचते स्नेह: कि पुनरंगसंमवेष्वपत्येपु (अपने लगाये हुए इत्तों के प्रति स्नेदद जसन्न दो जाता है, फिर ऋपनी संतान के ग्रति वो कहना दी क्‍्याहे)। किल (कहते हैं, नकली (१ ) बमूव योगी किल कातंबीर्य: ( कहते हैं कि कार्य-घोषित करने के फार्तदीय नाम का कोई योगी था )। लिए, थ्ाशा प्रकट (२) प्रसह्य छिह; किल ता चकप ( नकली सिंह करने के लिए) ने उस ( गाव ) को जबदस्ती खींच लिया )। (३ ) पाथः किल विजेष्यति कुझुन्‌(श्राशा है कि पाथ कुद्शों फोजीत लेगा ) |

केवलम ( कि वि० छिफे, किल्तु फ्री

निपेदुषपी स्पडिल एवं फेबले ( ठिफ़ स्थडिल पर बैठती यी--विना किसी चीज के विछाये हुए )।

कभी विशेषण के

रूप में भी )

ने केबलम्‌ ( श्रपि या

किन्तु के साथ)

वसु तस्य विसोन॑ केवल

गुणवत्तापि पर अयोजना

(न सिफ्र उसकी रुसपपत्ति डी, बल्कि उसमें अच्छे-श्रच्छे गुणों का होना मी दूसरों को मलाई के लिए था ) | खजु (क-निशचय हो. (के ) मार्ग पदानि ख्ठु तेविधमीभवन्ति (सचसुच तेरे कदम रास्ते में इधर-उघर पढ़ते हैं )।

किशविशेषश ( ऋष्दय )

श्र्३

(उस) न सल्लु न खजु बारः सब्रिग्लोडपमास्मन

खन्‍्यायना दूचक,

अ-शिश्ठापूर्य प्रश (इसके झपर बार ने छोड़ा जाद )। (मूल

का मी श्रपमान म किया लाना

चादिए, विद्वान की तो बात

द्वी क्‍या --श्रमीष्ट सनौरय की सिद्धि में अनेक विप्न पढ़ते हैं|

क्रियाविशेषण ( अव्यय )

श्श३

६--मैं नहीं जानता कि अय मुझे क्या करना चाहिए:--मुके यहाँ रहना चाहिए: या यहाँ से चला जाना चाहिए। ७--चालिस दिनों से अनशन करने के कारण वह मरणारुन्न हो गया। ८--समस्त सरुसार मुझे निवेल समझता है, क्योंकि मैं किसी का अहित नहीं करता।

६--कहा जाता है कि हम लोगों कीअनवधानता के कारण राजा हम लोगों से रुष्ट हो गये हें।

१०---मैं आशा करता हूँकि आप लोगों की तपस्याएँ निर्विन्त चल रही हैं ।

११--वस्तुतः मुझे ज्ञात नहीं कि मैंने इससे विवाह क्रिया था, ढिन्तु इसे देसफ़र मेरे हृदय पर बड़ा प्रभाव पडा है । १२--यह्दी नहीं कि लोग मुझे घृणा नहीं करते, अपितु लोग मुझे भोजन भी कराते है । १३--केवल एक बार देखे हुए. व्यक्ति को मैंकमी भूल नहों सकता, फिर पुराने

मित्र को कैसे मूल सकता हू ।

१४--कहाँ तो प्रकृत्या अपरिमेय राजाओं के कार्य और कहाँ स्वल्प ज्ञान वाले मुझ जैसे व्यक्ति | १४०-मभाना हि आप में सभी उत्तम गुण विद्यमान हें,तथापि आपको उपदेश देना

मैंअपना कत्तंव्य समझता हूँ।

१६--अपने मधुर बचनों से इस प्रकार ठगकर क्‍या श्रब मुझे त्याग कर तुम लजाते नहीं हो ? १७--शोमेश्वर शर्मा केपास जाओ और उससे पूछो कि तुम इतनी देर क्‍यों रुफ गये, तय तक मैं दूसरे ब्राह्मणों को बुला लाता हूँ । श्य--यदि यह हो जाय तो आप स्वय ही निर्विष्न अपना काय करते चलेंगे और इम लोग भी अपना-गपना कार्य कर सकेंगे । १६--जो लोग धर्मानुकूल श्राचरण करते हैंओर परोपकार मे लगे रहते हैंवे ही परमात्मा की झपा के पात दोते हैं।

२०-मैं बाराणुसी से छ रेशमी वस्र, दो चाँदी केपावर और अनेक उपयोगी बस्तुएँ लाया हूँ। २१--प्योंही मैंने घर की देहरी पर पाँव रखा त्योंढी तीन आदमी मुझ पर रपट पडे और मुझे वन्‍दी बनाकर ले गये । २२-मणिपुर नामक नगर में घनमित्र नामक वणिक्‌ रहता था।

२३--क्या यह सचा बाघ हो सकता है या बाघ का चमड़ा पहने हुए; कोई दूसरा

जानवर हे? २४--कौन ऐसा होगा जो अपने ही द्वा्थों अपने सिर पर विपत्ति लाने की चेष्टा करेगा १



बृहदू-अभुवाद-चद्धिका

२५--तुम कहते हो कि रुपया खर्च करने में देवदत यहुत ही ऋषब्ययी है। परयें, तुम स्वयं ही उससे इस बात में तथा अन्य बहुतसी बातों में मिलते जुलते हो ।

२६--अ्रभीष्ट मनोरथ की सिद्धि पर श्राप॑ सव लोगों को वधाई देवा हैँ|

२७--भंगवान्‌ को धन्यवाद है कि दीर्धकालिक वियोग के बाद तू फिर मुभे

देखा जाता है। श८--म्ित्र बहुत जल्द मेरे जालों को काठ कर मुके बयाओ, क्‍योंकि यह सच ही कह्ा गया दे कि विपत्ति मित्रता की कसौटी है। २६--जिंस जगह से तुम आये दो क्‍या वह जगह अंचुर श्रन्न से युक्त है !

३०--कन्या सस्बन्धी मामलों में गहस्थ लोग प्रायः अपनी पत्नियों के नेत्रों हे देखते हैं! ३१-मैं स्वामी को आज्ञा पालन करने के लिए जा रहा हूँ, पर तुम कहाँ जा रदे हो !

३२--मैं इस वियय में कुछ मी बोलना उचित नहीं समझता, क्योंकि मैं इसके विवरण से परिचित नहीं हूँ। ३३--इस प्रकार लकड़हारे नेअपना आ्राण श्रौर धन बचाया, पर पिशाच पूरे

बारह बप काम में लगा रहा ) ३४--मैं जितना ह्वी अधिक इस संसार के बारे में सोचता हैं. उतना ही मेरा मन इससे विरक्त हो जाता दे ।

३४--मैं ग्राशा करता हैँ.कि आप यहाँ तत्र तक ठदरे रहेंगे जम॑ तक सोहन अपनी तीर्थ यात्रा से लौट नहीं श्रायेगा । ३६--राबंण ने अपनी तपस्या द्वारा शंकर जी को ऐसा प्रसत्ष कर लिया कि उन्होंने उसे कई वरदान दिये।

इ३७--क्या तुम नहीं जानते कि सभी मासाद्ारी परुओ्रों के पंजे हांते ई ( यावत्‌ तावत्‌ )।

इ८--शूटवा में वह भीम के समान है पर द्वदय की दुश्ता में वह निर्दय से निर्दय

राक्षठ को भी मात करता है । ३६--था तो बह या उसके दोनी भाई इसे करने में समय हैं, परन्त श्रन्य कोई मी व्यक्ति नहीं । ४०--सचमुच दूसरों का प्राय बचाने के लिए इस उदारचिस घुरुप के अ्रतिरिद और कौन श्रपने प्राणों को संकट में इालेगा।

४१--पश्री दो, इस पुरुष की श्राकृति कैसी प्रसस्न है।

४२--मैं सभी देवताओं को उमान भद्धा से पूजता हू, चादे ये हिन्दुओं के हो चाहे मुठलमानों के।

क्रियाविशेषण ( अव्यय )

१३५

क्रिया विशेषश-मिन्नता करनेवाला या मेदक विशेषण द्वोता है। क्रिया में

मिन्नता लानेवाले को ही क्रिया विशेषण कहते हैँ( क्रिया विशेषण नपुंसक लिड् की द्वितीया विमक्ति के एक बचन में प्रयुक्त दोते हैं,यथा-(१) तदा नेहरूमहोदयः समाया देशभक्तिविपय सविस्तरं ऋविशद च ज्याख्यात्‌ (उठ दिन समा में पर्डित नेहरू ने देशभक्ति के विषय पर विस्तार और स्पष्टता सेमापण किया )।

(३) सुसमास्ताम्‌ , तपोवन हातिथिजनस्य स्व गेहम्‌ ( आप श्राराम से बैठिए, तपोवन तो श्रतिथियों का अपना घर द्वोता हे ) | (३)

साधु [पुत्र साधु रक्षित या काछुष्यात्कुलयश: ( शायास, पुत्र शाबरास

बूने अपने कुल को वद्दा नहीं लगने दिया )। (४ ) इतो हस्तदत्षियोडदक्क गच्छ ज्षिप्र विधानभवनमासादयिष्यसि (आञ्राप यहाँ से सीपे दाहिने हाथ जायें, आप थोड़ी देर में काउन्सिल हाउस मे पहुँच जायेंगे )। (५) साग्रह, सप्रश्नय चात्रमवन्त प्रार्थयेडवमवानल्ययेबस्मिन्ममाम्युपपत्ति सम्पा-

दयतु (मैं आप से आग्रह पूवंक और नम्नता से प्राथंना करता हू कि आप इस संकट में मेरी सद्यायता करें )।

संस्कृत में अनुवाद करो

१--पहले हम दोनों एक दूसरे सेसमान रूप से मिलते थे, अब आप अ्रफसर ई और मैं आपके अ्रधीन कर्मचारी |२-शिश्ु बहुत ही डर गया है, अमीतक

होश में नहीं आया हे । ३--दे मित्र यह बात हसी में कही गयी है, इसे सच करके न जानिए. ।४--दूर तक देखो, निकठ में ही दृष्टि मतरखो, परलोक को देखो,

इस लोक को ही नहीं। ५--उसने यह पाप इच्छा से किया था, अ्रतः आाचाय ने उसे त्याग दिया |६--उसमे मुे जबद॑स्तो सींचा और पीछे धकेल दिया | ७-मैं वढ़ी चाह से अपने भाई के घर लौटने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ ।८--नारद इच्छा से त्रिलोकी में घूमता था और सभी इत्तगन्त जानता था। ६--वह अ्रटक अ्रय्क कर बोलता हे, उसकी वाणी में यह स्वामाविक दोप है। १०--तपोबन में स्पान विशेष के कारण विश्वास में आये हुए; दिरन निर्मथ होकर घूमते फिरते हैं । #सविस्तारम भ्रशुद् है विस्तार ( पुं० ) वस्तुओं की चौड़ाई को कहते हैं। [साधु इृतम्‌ से वाक्य की पूर्ति होती है| (--अब आए अफयर। 5 ईरवरों मवान्‌, अं चाधिष्ठितो नियोज्यः । २--बहुत द्वी--बलवत्‌ | ३--परिद्धासविजल्पितं सखे परमार्येन न गह्मता बचः। ४--दीव पर्यत मा हस्वे, पर पश्यत माध्परम्‌॥ ५--इच्छा से--कामेन | ६---

चबदस्ती--हठात्‌ , पीछे घकेल दिया--प्रष्ठ; प्राणुदत्‌ ॥ '"--बड़ी चाह से--सोत्कए्ठम्‌, माई के घर““प्रतीक्षा कर रहा हूँ---रहं प्रति भ्रातुः प्रत्याइत्ति सोत्कर्ट प्रदीचे ।८--अपनी इच्छा से--स्वैर्म्‌ू ॥ ६--अटक--श्रटक कर--स्जलिताज्षरम्‌ ( सगदुगदम्‌

)। १०--विद्लब्ध हरिणाश्चस्त्यचकिता देशागतप्रत्ययाः |

कारक-प्रकरण प्रथमां

कर्त्ता-ने पिछले पृष्ठों मेंहम लिख जुके हैं कि संशाओं फो सात विभक्तियाँ होत्नो हैं! पीछे सवनामों एवं विशेषों पर विचार करते समय हम लिख आये कि संशा की माँति विशेषण तथा सर्वनाम की भी सात विभक्तियाँ होती हैं। &७* इस प्रकरण में यह बताया जा रहा है कि क्रिय्राकेसम्पादन में जिन शब्दों-

कर उपयोग होताहैउन्हेंकारक कहते हैँ॥उदाहरणाय-्रयागमेंमहाराज हपने श्रपने हाथसेइजारों रुपये ब्राहृणों को दानदिये !” इस वाक्य में दान

कियाफेसम्पादन के लिए जिन-जिन वस्तुओं का (शब्दों का )उपयोग्र हुआ है बे 'कारक! कहलायूँगी । दान की क्रिया किसी स्थान पर हो सकती है, यहाँ प्रयाग

में हुई, श्रतः अयाग” कारक हुआ | इस क्रिया के करने वाले हप॑ ये, झतः हफ

कारक हुए। यह क्रिया हाथ से सम्गदित हुई, अतः हाथ! कारक हुआ। रुपये दिये भये, श्रतः रुपये कारक हुए थ्रोर ब्राह्मणों फो दिये गये, अतः आह्मण' कारक हुए। इस प्रकारक्रियाके समादनकेलिए छः तम्बन्ध स्थापित हुए--

क्रिया का करने वाला (ससादक )-कर्चा

क्रिया का कम--कर्म ४ क्रिया का सुग्पादन जिसके द्वारा हो--करण,

क्रिया जिसके लिए छी--8म्प्रदान

क्रिया जिससे दूर हो--अपादान क्रिया जिस स्थान पर हो--अधिकरण इस प्रकार कर्चा, कम, करण, सम्प्रदान, अपादान, और श्रधिकरण ये छ३

कारक हैं। इन्हींकारकोंकेचिह्विभक्तियाँ कहलाती हैं)

धकारक! वही कहलाता है जिसका क्रिया के साथ ठीधा रुम्बन्ध हो। राम के पुत्र लब ने अर्वमेध के घोड़े को पकड़ा ।! इस माक्य में पकड़ने! की किया लव श्रौर धोड़े सेहे, क्योंकि पकड़ने बाला “लव” ओर पकड़ा जानेवाला थोड़ा! है;

राम और अश्वमेध का पकड़ने की किया से कोई सम्बन्ध नहीं, श्रतः राम को

और श्रश्वमेध को कारक नहीं कहवंगे। राम का सम्बन्ध लव से है और श्ररवमेघ का घोड़े से, किल्ठु क्रिया के सम्यादन में इनका (राम का तथा अश्वमेष का ) कोई उपयोग नहीं होता। एणएणएणणा उक्त कर्म च करण च सुखदान वैव च। 7 अपादानाधिकरणे * शत्याडुः कारकाणि पट ॥|

२०

कारऊ प्ररस्ण

थमा « प्रात्पिदिक्लार्थलिड्परिमारापचनमात्रें २श४६। प्रथमा विमक्ति पदनर च प्रथमा ग्र का उपयोग केवल शब्द का अथ बतलाने के लिए अथवा केवल लिश्ज बतलाने के लिए. अथवा परिमाण या वचन बतलाने के लिए होता है। ग्रातिपदिक छा अ्यर्थ है “शब्द” और प्रत्येक शब्द का कुछु नियत अथ होता है, किन्दु सस्झृत वैयाकरण जय तक किसी शब्द में कोई प्रत्यय जोड़कर ( नुस्तिडन्त प्रदम्‌ ) न बना लें तर तक उसका कुछ ब्र्य न्ीं समझते | अत* जय किसी शब्द का छाई अय निकालना हो तो उस शब्द म॒ प्रथम विभक्ति लगाते हैं । गोविन्द!

का उचाएण निरयक होगा, किन्तु यदि गोविन्द कहे तो गोविन्द! शब्द का श्र होगा । इंडी कारण संशा, विशेषण, सबनाम में ही नहीं, अपितु अब्यय शब्दों

तक में भी सह्ृत के विद्वान प्रथमा लगाते हैं, जैसे--उच्चैः नौचैः आदि। यदि न लगायें तो उन अच्यरयों का अर्य न समझा जाय ।

+ ततिक्त का अर्थ ऐसे शब्दों से है जिनमें लिज्ष नहीं होता ( जैसे-उद्े नीच- आदि अब्यव )और ऐसे शब्द जिनका लिड्ग नियत हे ( जैसे इत्तः पुल्लिज्ञ, फलम्‌ नपुसझुलिज्ञ, या लता स्रीलिज्ञ ) इनहो छोडरूर शेष शब्दों केअर्थ और

लिह्न दोनों अथमा विभक्त के द्वारा ही जाने जाते हैँ। उदाहरणा+--वठ, तटी, तटम--इ्न शब्दों मैं (तट! से शात होता हैं कि यह शब्द पुलिज्न में हमोर इसका

अर्थ (किनारा है।

केबल परिमाण, जैसे सेरों मोधूमः ( एक केर गेहूँ )यहाँ प्रथमा विभक्ति से सेर

का नाए विदित होता है। केवल बचन (सरपा ) जैसे एक', दो, वहवः। सन्वोधने च १2७

5२५ 550

अम्बोषत्सेभी प्रथमा प्रिमक्ति काउपयाग होता है, जैसे--छात्राः ( दे विद्या-

थिष्रा ), वालिक्षा (हे लडड़ियोहर

है

|।

को ओर क्रिया का समन्वय

प्लस लक्ति या वस्तु के पिपय मे कुछ कद्ा जाता है उसे वाक्ष्य का कर्ता कहते (है हेंऔर वह प्रथमा विमक्ति मे रखा जाता है। क्रिया का पुदय तथा वचन कर्चा अनुसार द्वोता है, अर्थात्‌ जिस पुरुष और बचन का कंता होगा उसी पुरुष वचन की

किया भी होगी, जैले--“अस्ति भारतदर्ष राष्ट्रपति: भीराजेन्द्रपसादः

६ मारतवध में राष्ट्रगति भरी राजेन्द्रपठाद है)॥ 'झघयामा वंयमा (हम लोग कमल अाछऋणी उाएा जादे है )।

दाक्ष्य में जय दो या दो से अधिक कर्ता हों और दे “व” (और ) से जोड़ दिये जाते हैं. तर किया कर्चाओ्ों केरुपुक्त चचन केअनुसार होती है, यथा-वर्योजअहतु: पादान्‌ राजारानी पाँद पकड़े । )

च मागदी । ( राजा और मागधी रानी ने उनके

श्श्र्८

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

लव शनेक संज्ञाएँ पृथक पृथक समझी जाती हैंया वेसब एक साथ मिलकर

एक विचार विश्लेप की द्योतक होती हैंतव क्रिया एक वचन को होती है, यथा--

न मा भातुं ततः प्रमवति न चाम्वरा न मवती । ( मुझे न तो मेरे पिता बचा सकते हैं और न मेरी माता और न आप ही )|पहुत्व॑ं सत्यवादित्व॑ कथायोगेन बुध्यते ( पदुता और सत्यवादिता वार्तालाप से ज्ञात होती है। ) क्रमी कभी क्रिया समीपतम कर्ता फेअनुसार होती है और शेष कर्ताश्ों के साथ समझ लिये जाने के लिए छोड़ दी जाती है, यथा-श्रहृश्च रात्रिश्व डमे च॒स्ध्ये धर्मोडपि जानाति नरस्य बत्तम्‌ ) | (दिन और रात, दोनों गोधूलियोँ भर

धर्म भी मनुष्य के कार्य को जानते हैं। )

जब वाक्य में कठूंपद श्रथवा या या द्वारा जुड़े होते हैं तोएक वचन की

किया श्रादी, यथा--गोपालः कृष्णः जगदीशों या गच्छुत। (गोपाल या ऋष्ण

या जगदीश जायें

)।( शिशुल्॑ स्लैरं वामवत ननु वनन्‍्यासि जगतः ) ( तुम चाहे

शिशु हो और स्त्री हो, किन्दु जगत्‌ की बन्दनौय हो | )

५ जब कर्त्ता मिन्न मिन्त वचन के कृपदों से युक्त होता है तब क्रिया निकटतम कतृपद के अनुसार होती है, जेसे-े वा श्रयं वा पारितोपिक श्ह्वावु ( चाहे वे लोग चाहे यह व्यक्ति इनाम ले )।

जब भिन्न भिन्न पुरुषों फेदो या दो सेअधिक कठंपद “बच” (श्रौर )द्वारा जुड़े द्वोते हैंतब क्रिया उनके संयुक्त वचन के श्रनुसार होती है, तथा उत्तम, मध्यम तथा प्रथम पुरुष के योग में उत्तमपुरष कौ क्रिया होती है और मध्यम तथा प्रथम पुरुष के योग में मध्यम पुरुष की क्रिया होती हे, थया--

ते किह्रा। श्रदञच शवों मामे प्रतिशेमदि ) ( वे नौकर और मैं कल गाव को चल दूँगा।) (त्वश्वाह्य पचावः--त्‌ श्र मैंपकाता हैँ |) त्वश्ेव सोम-

दत्तिश्व कर्ण स्वैव तिशत (तू और संमर्दातत श्रौर कश रहें )।

जब मिन्न २ पुर्षों केदो था दो सेअधिक कर्तूपद बा! या “अथवा! द्वारा जुड़े दों तब क्रिया कापुरुष और वचन निकटतम पद के अनुसार होता दैयथा--

स॒ वा यूय॑ वा एतत्कर्म श्रकुब्त ( उसने श्रथवा तुम लोगों ने यइ काम किया है )।

ते वा वयं वा इदं दुष्कर्म कार्य ससांदपिदुं शक्नुमः। (या तो वे लोग या हम लोग इस कठिन फाय॑ को कर सकते है ) जब दो या दो से अधिक क्ठंगद किसी संझा या सर्वनाम के सम्रावाधिकरण होते हैं. तपातियाउंला अयाक्ा उपणाणा रे अुछाए कोर्फी है, वषा--नाफ़ा' फिएं पिता चेति स्वमावात्‌ ठृतय॑ दितम्‌ ( माता, मित्र और पिता ये तीनीं स्वमाव से ही

हितेपी होते हैं )।

कारक-अकरण

स्श्छ

प्रथम अभ्याप्त

वर्तमातकाल ( लट्‌)& एकवचन द्विवचन बहुबचन अभ्पु० पठति ( वह पढ़ता है ) पठतः ( वे दो पढ़ते हैं ) पठन्ति ( वे पढते हैं) म०्पु० पठसि ( तू पढ़ता है ) पठबः (तुम दो पढ़ते हो) पठथ ( तुम पढ़ने हो ) उ्पु० पठामि (में पढ़ता हूँ )पठाव- (हम दो पढ़ते हैं)पठामः (हम पढ़ते हैं)

संक्िप्ततूप प्र० पु०

(सा) अति

(तो) अतः

(ते) यन्ति

म० पु०

(लम ) असि

(युवाम्‌ ) अथः

(यूयम्‌ ) अथ

उ तु०

€ यहम्‌ )आमि

(आवबाम ) आावः .(बयम ) श्ामः

इसी प्रकार कुछ +वादिगणीय धातुएँ धातु मू ( मर )>होना..

लिंसू--लिसना

बंदू---ओोलना हसू-हँसना

धाव--दौड़ना रक्त-रा करना फीड_--खेलना गम--जाना

आंगम--आना

पत्‌ु--गिरना पैडेत--नाचना

एकब० भति 4,

द्वि० मयतः

ब्रहुव० भवन्ति

बदति ४ हसति *

चबदतः हसतः

बदन्ति हसन्ति

लिपति //

घावति “

लिसतः

घावतः

लिसन्ति

घावन्ति

रक्षति |

रक्षतः

क्रीडति | गच्छति

ऋ्रीडतः गच्छुतः

क्रीडन्चि गच्छुन्ति

आमगच्छतः

आगच्छुन्ति

आगच्छति" परत्ति "७ जद्ति

पततः खत्यतः

रक्षन्ति

पतन्ति

ख्त्यन्ति उततल्त्+नननूतन++झौ-_+-_०*हत7कत 3ऋन77 5+5त हद (१) 'तिः 'सि? 'मि! और “अन्ति? इनमें हस्व 'इ है, दी (६! कभी मत लगा। इन चारों हस्व इकारों के आगे कमी विसर्ग () भी मत रक्‍्सो [ (२)

तीनों पुरुषों केद्विचचन में तः “थ/ वः और “मः के आगे विसर्ग अवश्य उक्त, अन्यत नहीं। साराश यह है कि इन और चार ही हस्व 'इ? विस () के गिना नौ बचनों मे चार के आगे विसर्म ह्दै हैं । ग॑ रुत्‌ (छत नाचना ) दियादिगण।य धातु है, तथापि क्योंकि इसके रूप भ्वादिगरसीय धातुओं को भाँति चनते हं, अतः इसे स्यादिगण।य धातुओं के साथ रफा गया है।

रण

बहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

संघ्छत-अनुबाद इन बाक्‍्यों को ध्यान से देखो-( १ ) बालकः हसति ( लड़का हँसता है| )

( २ ) यूय॑ कुत्र गच्छुथ १ ( तुम कहाँ जाते हो )

( ह ) आवाम्‌ श्रत्र क्रोडावः ( हम दो यहाँ खेलते हैं | ) (४ ) मवन्‍्तः कथं न पठन्ति ! ( थ्राप क्‍यों नहीं पढ़ते हैं ! )

प्रथम याक्‍य में 'हसति!, क्रिया का कार्य बालक? करता है, दितीय में धाच्छुथा किया का कार्य धूयम! करता है, तृतीय में क्रीडाव:” क्रिया का कार्य

आवास! करता है और चत्॒थ वाक्य में 'पठन्ति! क्रिया का काये 'भवन्त: फरता है। ये चारों बालकः यूयम! “श्ावाम! और “भवन्तः कर्ता हैं,क्योंकि क्रिया के

करनेवाले फो कर्त्ता कहते हें।

ग्रथम वाक्य में 'हसति' क्रिया प्रथम पुरुष के एकवचन में हे और उसका कर्त्ता दालकः भी प्रथम पुरुष के एवचन मे, द्वितीय वाक्य में गच्छुथ! क्रिया सध्यम पुरुष के बहुवचन में है और उसका कर्त्ता यूयम! भी मध्यम पुरुष के बहुवचन में है, तृतीय दाक्य में 'क्रीडाव:” क्रिया उत्तम पुरुष के द्विवचन में है और उसका कर्त्ता थ्रावाम! भी उत्तम पुरुष के द्विवचनमें है, तथा चतुर्थ वाक़्य में

बठन्ति! क्रिया प्रथम पुरुष के बहुवचन में हैऔर उसका कर्ता 'भवन्तः भी प्रथम

पुरुष के बहुबचन में है । इसका निष्कर्ष यह निकला कि संस्कृत भाषा के श्रन॒वाद करने में थदि कर्ता प्रथम पुरुष का दो तो क्रिया सी प्रथम पुरुष की और यदि कर्त्ता सध्यम पुरुष का हो तो क्रिया भी मध्यम पुरुष की और कर्ता उत्तम पुरुष फा हो तो ढछिया भी उत्तम पुरुष की होती है। इसके श्रतिरिक्त यदि कत्ता एकवचन में होता हैंतो क्रिया भी

एव यचन में और कत्ता द्विवचन मे होता है तो फ्रिया मी द्वितचन में शौर कर्ता बहुबचन में दोता हैतो क्रिया मोबडुवचन में होती है। परन्द मवान्‌ ( श्राप ), भवस्तौ ( श्राप दो ),भवन्तः ( श्राप सब ) फे साथ क्रिया मध्यम पुरुष की नहीं लगती, जैसे कि ल्वम-सुवाम्‌ यूयम्‌ फेसाथ लगती है। श्रतः “भवान्‌ यच्छृसि! अशुद है, (मवान्‌ गच्छुति! ही झुद्ध वाक्य है | इसी प्रकार 'भवन्तौ गच्छुतः भयन्‍्तः गच्छन्ति! शुद्ध हैं। “वाज्ञक: हसति”? इसी बाक्य को दम हसतति बालकः भी लिख था बोल सकते ६ । यद प्रणाली सस्कृत मापा कीअपनी विशेषता है, क्योंकि इसमें विकारो शब्दों फा बाहुलय है। श्रेगरेजी मापा के वाक्य में पहले कर्ता फिर क्रिया और अन्त में कर्म आता हे और दिन्दी मैं पहले फर्तता, फिर फम॑ और अन्त में डिया श्राती है, किन्तु संस्कृत में कर्ता, कम श्रौर क्रिया आंगे पीछे भी रसे जा सकते हैं,यथा-भवान्‌ कुत्र मच्छति ! ( श्राप कहाँ जाते हैं), अथवा कुत्र गच्हति सवान्‌

कारऊ प्रकरण

श्४ड१

इन वाक्यों में क्रिया कर्ता का अनुसरण करती है, अर्थात्‌ कर्ता के अनुसार

है, अतः इन वाक्‍्यों को कतृबाच्य फहते हें। फतृवाच्य में कर्ता (व्यक्ति

कानाम या फ़िसी वस्तु का नाम)

में प्रथमा

पिभक्ति होती है और कर्म वाच्य में कर्म में प्रथमा विमक्ति द्ोती है, जेसे ऊपर के ठद्ादसण्णों में है,घया--ब्रालऊ' हसति | मयान्‌ गच्छृति। देवेन पाठः पण्यते ।

ससझृत में अमुवाद करो। (के ) १--मोपाल खेलता है । २--शइन्वला इँसती है। ३--केशव धीरे-

धरे लिखता है। ४--बन्दर ( वानरा- ) दौड़ते हं। १--हर्थी (गजा' ) यहाँ आते हैं। ६--घोड़े (अश्वाः )कहाँ जाते हैं ! ७--पत्ते ( पत्राणि ) और फ्ल गिरते हैं। ८--सुशीला क्या पढ़ती है !६--रमेश और सुरेश खेलते हैँ | १०-लड़रे आते हैं और लड़कियाँ जाती हैं । (ख ) ११--बह जोर से ( उच्चैः ) हँसता है । १२--वे कहाँ जाते हैं ! १३--तू पहाँ जाता है | १४--आप ( भवन्तः ) क्यों हंसते हैं ! १५--तुम कहाँ जाते

हो १ १६--हम यहाँ नहीं खेल रहे हैं ।१७--तुम इस प्रकार क्‍यों दौढ़ते हो १

१८--सम दो क्‍यों नहीं खेलते हो ! १६--वे इस समय नहीं खेलता हूँ। २१--वे अवश्य अन्ग ( पृथक)पढते दें।२३--बह वैसे ही नहीं आते हैं | २५--म सत्र पढ़कर ( पठित्वा

अ्रव क्‍यों नहीं पढते हैं १ २०--मैं पढते हें | २२--हम से अलगनाचती है। २४--आप यहाँ क्‍यों ) खेलते हो ।

द्वितीय अभ्यास अनयतन भूतराल ९ जब )# एकबचन ह्विवचन बहुवचन अभ्पु० अपठत्‌ (उसने पढ़ा) अपठताम (उन दोने पढ़ा) अपठन्‌ (उन्होंने पढ़ा) मण्पु० अपर ( दूनेपढा). अपउतम (ठुम दोने पढ़ा) अपठत (ठमने पढ़ा) उ्पु० अपठम्‌ (मैंने पढ़ा) अपठाव (दम दोने पढ़ा) अपठाम (हमने पढ़ा)

संत्तिप्त रूप एकवचन प्र० पु० (सो) अत्‌ म० पु० (लम)अराः उ० पु० (अद्म) अम्‌

द्विवचन (तो). अताम्‌ (युवाम) अतम्र्‌ (आवाम) णाव

बहुवचन (ते) अन्‌ (यूयम) अत (बयम्‌ ) आम

क अनयतन भूत ( लड्‌ ) में केवल मब्यम पुरुष के एक वचन में विस

६६) होता है, और कहीं नहीं। हलूअकरों का पाँच स्थानों पर ध्यान रखो, जैसे-“अपठत में त्‌ इलन्द अक्षर है ।

द्थर

बृहदू-नुवाद-चन्द्रिका

इसी प्रकार घाव

एकबचन

ह्विवचन

अलिखताम

श्रलिखन्‌

चद्‌--कहना

अवदत्‌

अवदताम

अवदन

दस -हँसना धाव--दौड़ना रक्षा करना

आअहसत्‌ अधावत्‌ अरक्षुत्‌

अरद्सताम्‌ अधावताम्‌ अरक्षताम्‌

अहसख्‌ अधावत्‌ अरक्षने,

क्रीड-खंलना गम जाना आझागम--आना

अक्रोइत्‌ अगच्छ्त्‌ आगच्छत्‌

शक्रोडताम अमच्द्तार्म आंगचछवाम्‌

श्रक्रीडन्‌ अ्रग्च्छुन्‌ आगच्छेन्‌

लिखू--लिखना

अलिखत्‌

अपतताम्‌ अपततत्‌ पत्‌ू--गिरना खत--नाचना श्रद्ृत्वत्‌ अद्वत्यवाम्‌ अमवताभ्‌ अमवत्‌ भ्‌ (भ)-होना भूत्तफाल--संसक्षत भाषा में भूतकाल सडक तीन लकार सड्‌(भ्रनद्वन भूत )और छुब (सामात्य मृत )। तस्कृत

बहुबचन

अ्पतन्‌ अनत्यन्‌, अभवन्‌ है--लिट (परोक्षभूत), व्याकरण में हन तीनों

में थ्रन्तर माना गया है। परोक्षमूत्‌ श्र्थात्‌ वह बाप जो श्रांख के सामने की न

हो, शक प्रकार से ऐतिहासिक दो उसमें लिट होता है, जैसे--रामों राजा बमूवा (राम राजा हुए. )। श्रमद्तन भूत जो बात थआ्राज की न हो, पिछले दिन की ही,

जसमें लड़ दवा है, जैले--दिददत्तः हा काशीमगव्दत! ( देवदच कल काशी

गया )। इस प्रकार व्याकरण की दृष्टि से'रमा श्थ ग्रातः पुस्तकमपदत्‌ (रमा मे आज सुबह पुस्तक पढ़ी ) श्रशुद्ध वाक्य होता और इस वाबय के स्थान में दर वाक्य 'रमा श्र प्रातः पुस्तकमपाठीत? होना चाहिए था, किन्तु व्यवद्वार में यह

शेद नहीं रह गया है और सद्एवंलुदूकाकिसी भेद के बिना प्रयोग किया जा रहा है, बल्कि लंडकाभूतकाल में ग्रायः प्रयोग होता है। भूतकाल के लिए, 'लइ” का प्रयोग फरते मय धात्र आायः भूल करते है| पर उसने का वे 'डसने पढ़ा! का श्रत॒वाद 'तिन श्रपठत? फर देते द। यहाँ अनुवाद “स/' होगा, क्योंकि प्रथमा शिमेक्ति का अर्थ भी "नें! है, श्रताः इस पाकय

का अनुवाद 'सः ध्रपश्ठत्‌ः होगा |उदादरणा्-) १--शौला श्रपठव्‌ (शीला ने पढ़ा) २-तौ छबदताम्‌ (उन दोनों ने कहा

३--वे भरदसम्‌ ( वे हसे) । ४--अदम्‌ श्रधावम्र ( मैं दौडा ) |५--सुवाम्‌ अ्कड-

तम्‌ ( तुम दो खेले )।

संस्कृत मे अमुयाद करे ५

- (क ) १--बन्दर आया | २--लइके दौड़े । ३ई- रमेश ने श्राज नहीं पढ़ा । #--सोहन शर श्याम यहाँ खेले / ४--गोणल यहाँ क्यों नहीं श्राया ! ६--

कारक-ग्रकरण

श्र

देवेनद्ध कहा खेला !७--पिताजी कल आये | ८--ठम नहीं हँसे | &--इस सम्रय सोहन कहाँ गया ! १०--कमला ने कल क्‍यों नहीं पढ़ा ! ११--हाथी और घोड़े दौडे। १२--छात्रों ने क्‍यों नहीं पढ़ा ! १३--ईश्वर ने रह्मा को। १४-गुरे जो क्यों हँसे ! १४--साधु ने क्या कहा ! श ( ख ) १६--ब्रह क्‍यों नहीं खेले ! १७--तुम क्यों हँसे ! श्प-्वने क्‍या कया कहा * १६--हमने कुछ नहीं (फ्रिमपि न ) पढ़ा।

२०-नूने ऐसा क्यों

लिखा ! २११--शीला नहीं नाची । २२--वे दो कहाँ गये ! २३--वे क्यों हंसे १ २४--तुमने क्‍या पढ़ा १ २४--क्या वह हँसी थी १

हतीय अभ्यास सामान्य भविष्यत्‌ ( लूद) एफब०

द्विब०

बहुब॒०

प्र० पु० पठिष्यति ( वह पढेगा ) पठिष्यतः (वे दो पढेंगे ) पढिप्यन्ति ( वे पढ़ेंगें।) म० घु० प्रठिष्यस्ि ( तू पढ़ेगा )पठिष्यथः ( तुम दो पढोगे )पठिष्यथ ( तुम पढोंगे) उ० घु० पटिष्यामि ( मैंपहगा )पठिष्याव, (हम दो पढेंगे )पठिष्यामः (हम पढेंगे )

संत्तिप्त रूप प्रण्युण सण०्पु० उ० पु०

(सः) इृष्यति (त्म) इष्पति (अद्म) बप्यामि

घावु लिखू-लिसना बृदु--कहना हसू--हँसना

धाव-दौड़ना

रक्त--रक्षा ऋरगा.

एकब० लेपिष्यति बदिष्यति हसिष्यति

(तौ) दइृष्यवः (युवाम्‌) इच्यथ: (आयाम) इष्पायः.

(ते) इष्यन्ति (यूयम्‌) इृष्यथ (बयम) इष्बासः

इसी प्रकार--

घारिष्यति

द्विव० लेसिप्यतः वदिष्यतः हसिष्यतः

धाविष्यतः

बहुप० लेलिप्यन्ति बदिष्यन्ति हसिष्यन्ति

रक्तिप्पति

रक्तिष्यतः

रक्तिप्यन्ति

घाविष्यन्ति

क्रीड--खेलना

क्रीडिप्यति

गम्‌--जाना आगम--आना पंत्‌ू--गिरना

क्रीडिप्यतः

गमिप्यति आगमिष्यति पत्िप्यति

प्रीडिष्णन्ति

गमिष्यतः आगमिष्यतः पतिष्यत,

गमिष्यन्ति आगगशिष्यन्ति पत्तिष्यन्ति

शइत-नाचना नर्विष्यति नर्तिष्यतः नर्तिष्यन्ति मू [| भय ]--होना भविष्यति भविष्यतः भपिष्वन्ति भविष्यत्‌ काल--भत्िष्यत्‌ काल के सूचक दो लकार हैं--लुट्‌ ( सामान्य भविष्य) ओर लुट्‌(अनद्यतन भविष्य 24 परन्तु यह अन्तर भी व्यवहार में नहीं रह

अडड

वृदददू-अनुवाद-चन्द्रिका

गयाह। छुट्टू का प्रयोग बहुत कम देखने में आवा है, केवल लूटकादी प्रयोग होता है

_ लूटबनाने का सरल ढंग यह दे कि शुद्ध धातु पर 'इ*# लगाकर आगे प्य! रखो और फिर पत्तमान काल की भाँति 'ति' 'त/ 'न्ति' आदि प्रत्यय जोड़ दो |

डदाहरणार्थ-३, देवः पटिष्यति ( देव पढ़ेगा )। २. वानरा धाविष्यन्ति ( वानर दौड़ेंगे )। ३, पच्राणि पतिप्यन्ति (पत्ते गिरेंगे)) ४, त्व॑ कदा गमिप्यसि ! (तू कब जाएगा!) ५. यर्म क्रीडिप्यामः (हम सेलेंगे।) ६. के लेखिप्यतः (कौन

दो लिखेंगी )१

संस्कृत मेंअशुवाद करो (४ ) १--गोविन्द कल आयेगा | २--श्यामा यहाँ नाचेगी ॥ ३--ह६रि कल बहाँ दौड़ेगा ।४--धोड़े नहीं दौरंगे | ५--लढ़कियाँ जरूर नाचेंगी । ६--स्मेश सुबह पढ़ेगा ।७--ईश्बर रक्षा करेगा । ८--पके हुए ( पक्वानि )फल गिरेगे । ६--कभला नहीं हँंसेगी | १०--छात्र शाम को खेलेंगे। ११- द्वायी यहाँ थ्रावेगे । शृश््दो छात्र यहों पढ़ेंगे। १३--रजनी कब _नाचेगी १ १४-दो ब्राह्मण यहाँ

श्रार्बेगे |१५--मेहमान ( अतिथयः ) फल जववेंगे |

(क ) १६--तम कब जाओगे! १७--मैं नहीं दौद्ंगा। £८--सम दो कब

आश्रोगे !१६-वे क्‍यों हँसेंगे !२०--मैं यहीं पढ़ा । २१--हम नहीं कप २२--वे कय ना्चेंगी! २३--तुम सब बहाँ खेलोंगे |२४--कक्‍्या श्राप व्डों नई आयेंगे !२५- राजा ( नप ) रक्षा करेगा।

चहुर्य अभ्यात्त आज्ञार्थक लोट पर पु०. स० पु०

उन्पु०

प्न्युण

संण्पुण उ०्पु०

एकवचन

पठतु (यह पढ़े). पठ (तू पढ़

पठानि (में पढ़).

(व).

अत

हिकसना

|. . 5

आकरय 52

पठताम्‌ (बे दो पढ़ें )पदन्द (ये पढ़ें ) पठतम, ( तुम दो पढ़ी ) पठत ( तुम पढ़ी 3

पठाव (दम दो पढ़ें) पठाम ( हम पढ़ें )

संहिप्त रूप

€वी)

झताम

(व) श्र (यवाम) श्रत्म्‌ (अदम) श्रानि. (आवबाम) श्राव 58 090 5 50 70०20 00 2 कम

(व)

अन्द

(यूयम) श्रव (बयम्‌) आम 825

#कुछ एसी भी धावुएँ ई जिनमें 'इ” नहीं लगता, ऐसी दशा में शुद्ध घाव के थागे 'स्यवि! 'स्यतः? 'स्पन्ति' लगेंगे, यया--प्रास्यति ( पवेगा ), वत्त्याति (वास फरेगा ), दागस्यति ( देगा )आदि ।

कारक-प्रफरण

श्४ड३

इसी प्रकार

लिख-लिसना. चद-कहना

लिख बदठु

धाव्‌-दौड़ना

घावतु

घावताम्‌

बाव्चु

रक्ष-रक्ञा करना क्रीड-खेलना

रत क्रीडतु

रच्वाम्‌ क्रीडताम्‌

रद्न्ठु क्रोडन्ठु

गम-जाना आगम-अआाना पत्‌-गिरना

गच्छठ आगच्छतु पततु

गच्छुताम्‌ आगच्छुताम्‌ पतताम्‌

गच्छ्न्त आगच्चुन्तु पठन्तु

जत्‌ू-नाचना

ख्त्यतु

तृल्वताम्‌

च्चन्तु

भू (भर) होना.

भवत्ु

भवताम्‌

मयन्तु

हस-हसना

हस्त

लिसवाम्‌ बदताम्‌ हसताम्‌

लिसन्तु बदन्तु

ह्सन्तु

आज्ञार्थक लोट--विधिलिड और लोट लकार आजा, अनुशा तथा प्राथना आदि के श्रथों के सूचक हैं। आशीर्वाद के श्रथ में भी लोद का प्रयोग द्वोता है ।

उदाहरणार्थ

--मुशीला गच्छठु ( सुशीला जावे ) २-छात्राः क्रीडन्तु ( विद्यार्थी खेलें) ३--परमात्मा रक्षेठ (ईश्वर रक्ता करे | )४--यूयम्‌ गच्छुत ( तुम जाओ ) ४:--

बालिका. रुत्यन्द ( लबफ़ियाँ नाचें।) ६--गच्छाम किम्‌ ! ( क्या हम जावे £ ) ७--इदानीं छात्रा: पठन्तु (इस समय छात्र पढें । ) ( विशेष अध्ययन के लिए आगे क्रिया प्रकरण देखिए ) |

संस्कृत मे अनुवाद करो १--गोपाल और ऋृष्ण पढें ।२--नौफर ( सेवकः ) जावे । ३--लड़के दौड़ ।

४--भगवान्‌ रक्षा करे। ४-मैं जाऊँ ! ६--हम खेलें ! ७-वे न हँसें |८-अब अप खेलें। ६--ठम लोग पढ़ो | १०--हम दो पढ़े १११-तुम दो मत हँसो ।

३१२--तुम सब दौड़ो | १३--नतंक्यिं ( नतक्यः ) नावें ।१४--क्यों हँसते हो ! २५--थहाँ आओ । १६--वहाँ न जाओ। १७--दौड़ो मत। १८-हँसो मत । १६--पढो | २०--जाओ, नाचो । २१--अब खेलो मत, पढ़ो ।१२--सब छाव

बढ़ें । २३--हम क्या पढें |२४--छुम वहाँ जाओ | २५४--दो छात्र दौड़ें । अ्ग्रकीर्य

१-ससार में धन विपत्तियों काकारण है । २--जब वह घोडे से गिरा, उस

समय हम थहोँ उपस्थित ये। ३-वे लोग वहाँ सन्देह के पान हो गये। # ओदरिकस्य (पेटका), श्रस्यवह्यय (मोजन), अमिमवास्पदम्‌ (अपमानपान)

श्डद

इंइृदू-अनुवाद-चन्द्रिका

४--ंग के राजा ने युद्ध में प्राण (प्राणान्‌) दे दिये। ६--श्रच्छी पत्नियाँ घार्मिफ कृत्यों की मूल कारण होती हैं |६-देवदव अपनी कच्चा का रन तथा अपने बुल का दीपक है | ७--क्या वह कार्य बहुत कठिन है! ८--हंसार मैं गोविन्द ! तुम मेरे प्राण कौर मेरे विद्या कै समान कोई धन नहीं है । ६--

सारे संसार हो ! १०--कल मैंमे तीन सुन्दर बगीचे और दो तालाब देखे | हिन्दी में अनुवाद करो

१--अ्रदेयमासीत्‌ अयमेद भूपतेः शशिप्रम छुत्मम॒ुसै च चामरे। २३--बलबानपि निस्तेजाः कस्य नामिमवास्पदम । ३--तीथौंदर्क च वहिएच नान्‍्यतः शुद्धिमदंतः । ४“ममापि दुर्वोधनस्यथ शंकास्थान पाएडवाः । ५--सबत्रोदरिकस्यास्यवहाय मेवविपयः | ६-नव जीविते समस्त में दृदयं द्वितीयम । त्व॑ं फोमुदी नयनयोरसृत्त त्वमंगे | ७---जनकाना रघूणाश्व सम्बन्ध! कस्प न प्रिय: । ८-वयमपि भवत्योः स्ीगत किमधि प्रच्छामः | प्रश्चयप थभ्यात्त

कर्मकारक (द्वितीया) को! आदार्धक विधिलिड_ प्र० घु०

एकब० परेत्त्‌

द्विव० प्रठेताम्‌

म० पु०

पढे:

पठेतम्‌

० घु०

प्रठेयम्‌

पेय

पठेव संत्षिप्त रूप

प्र० पुर म० पु०

छः) (व)

एह्‌ णए:

(वाद)

एताम्‌ एतम्‌

ड० पु०

(्रहम)

एयम..

(शाबाम)

छव

भू (भव)-दोना लिख-->लिखना

भवेत्‌ लिखेत्‌

बहुब० क्टेयु+ पढेत

इसी प्रकार मबेताम्‌ लिखेताग्‌

यदू--कदना

बदेव्‌

हस-हँसना

हमेत्‌

हसेताम्‌

बदेवाम्‌

धाव--दौड़ना रक्ू-रका फरता फीद--सेलना

घावेत्‌ रकेत्‌ ऋ्रीडेत्‌

घावेताम्‌ रक्षेताम्‌ क्रीडितास्‌

(6) (यूयम) (बयम)

मय: लिखयुः बदियुः

दसेयु+ धावेयुः रकेयु: केसहु

प्रैडियुः

37460

कारक-अकरण

गम--जाना

आ्रागम-आाना.

पत्‌ू--गिरना

गच्छेत्‌

आ्रामच्छेत.... . पतेत्‌

गच्छेताम्‌

आगच्छेताम पतेताम्‌

शड७

गच्छेयु:

आगच्छेइुः पतेयु:

हत्येयुः हत्वेताम्‌ ड्त्येत्‌ खतू-नाचना इन वाक्यों को ध्यान से देसो-(१ ) छात्रा: गुरू नमेयुः (छात्र गुरु को प्रमाण करें )। (२) शिशुः दुग्ध पिवेत्‌ (बच्चा दूध पीवे )। (३ ) सुधाररः सुधा वर्षेत्‌ (चन्द्रमा अझृत की वर्षा करे। ) (४ ) हुफः शत्रून्‌ जयेव्‌ ( राजा शत्रु का जीते )।

(५) गुरुः शिष्य प्रश्न एच्छेत्‌ ( गुरु शिष्य से प्रश्न पूछे )।

कर्मशि द्विंतीया शझरा

रा

“-पंज्रस वस्तु यापुरुष केऊपर क्रिया काफल ( प्रमाव ) पड़ता है उसे कम

कारक कहते हैं |और कर्म कारक में द्वितीया विभक्ति होती है । “क्षप: शत्रु जयेत्‌ (राजा शत्रु को जीते ।)” इस-वाक्‍्य में 'जीवना! क्रिया का फ्ल ठप: ( राजा )' कर्चा पर समात्त न होकर 'शत्रु! पर समाप्त हुआ, क्‍योंकि शब्रु

ही जीता जायेगा । अ्रतः शत्रु! कर्म कारक हुआ और उसमें द्वितीया विभक्ति ( शनुम्‌ ) हुई। जय क्रिया का व्यापार कर्ता पर ही समाप्त होता है, तब क्रिया

अफऊर्मऊ होती है, जैंसे 'वालकः हसति' इस वाक्य मे 'हँसने” का व्यापार कत्ता तक

ही समाप्त हो जाता है? अतः 'हसति! अकर्मक क्रिया का रूप है। कर्म का उपयुक्त लक्षण ठीऊ नहीं, क्‍योंकि साहित्य मे ऐसे अनेऊ उदाहरण हैंजिन पर क्रिया का फ्ल तो समास होता है, पर वे कम कारक नहीं माने जाते । “बह घर जाता है” यहाँ यद्यपिं जाने काकार्य 'घर! पर समाप्त होता है, तथापि धर! प्रायः कम नहीं माना जाता और न “जाना! ही सकमक क्रिया है। घर को कर्म मानने के लिए विशेष नियम है । पाणिनि के अनुसार कम की यह परिभाषा “कर्ता रुब से अधिक जिस पदार्थ को चाहता है वह कर्म है।” ( ऋर्तुरीप्सित-

तृम॑ कर्म )यया-पयसा ओदन भुद्क्ते (दूध से भात खाता है)यहाँ दूध को अपेक्षा भात कर्ता को अधिक पसन्द है |

मुनरेः शिष्यं मार्ग एच्छुति (मुनि के शिष्य से रास्ता पूछवा है) इस वाक्य

में यद्यपि पूछने वाला कर्ता शिष्य की अपेज्षा मुनि से ही रास्ता पूछना अधिऊ पसन्द करता तथापि मुनि की कर्म संशा नहीं हो सऊती, क्‍योंकि मुनि का 'पच्छुति!

क्रिया के साथ कोई सीधा सम्बन्ध न होकर शिष्य के साथ विशेष सम्बन्ध है।

तथायुक्‍त चानीप्सितमू ।(४।५०

कुल पदार्थ ऐसे भी हैंजो कि कर्चा द्वारा अनीप्सित होते हुए भी ईप्सित को दरह ह्िया से सम्बद्ध रहते हैं। उनकी भी कर्म संकाय होती है, यथा--ओदनं

शब्द

बृहदू-अनुवाइ-चन्द्रिका

मुज्ञानों विप॑ भुक्ते |इस वाक्य में विप कता को अर्नाप्सित है, परत श्रोदन ( क्षी

भोजन क्रिया के द्वारा ईप्सितठम है ) की ही” तरह वह भी उस किया से सदा है

और ओदन-मौजन के साथ उसके भोजन का रृना भी अनिवाय है। इसलिए

विप भी कर्म स॑रुक हो जायगा। इछो अकार आम गच्छुन्‌तृर्सस्टृशति' इस वागय में तृश भी कम संशक होगा।

( श्रकमक धातुमियोंगे देशः फालो भावों गत्तव्योड्खा च कर्मसंशक इति

याच्यम घा० ) श्रकमक धातुओं के योग में देश, काल, भाव तथा गन्तव्य माग मी

कर्म समझे जाते हैं, जैसे--पाश्नालान्‌ स्पिति (पराज्लाब देश में झौता ह) ( पाग्माल देश व्यञ्ञक है ) वर्षमास्ते (वर्ष भर रहता है )। (बपम्‌ काल व्यज्षक है)! गोदोदग्गस्ते

( गाय दुहने फी बेला तक रहता है)। क्रोशमास्ते (कोछ भर में रहता है) (कोशं मार्ग म्यक्षक है 9|

अभिनिविशश्च ।09४»



अभ्रमि! तथा नि! उपसम जब एक साथ 'विश? धातु के पहले थ्रातै है तब

पेश! का आधार कर्म कारक होता है, जैसे--सन्मागम, अभिनिविशते (बह

अच्छे भार्ग का श्रनुसरण करता है ) |यदि अभिकनि एक साथ मं श्राकर शनमें से केवल एक ही झावेतोद्वितीया नहीं होती है, जैसे--निविशते यदि शक्शिसापदे है उपान्वध्याइ,बस+ 880६। यदि 'वशः धाव के पूर्व उप, ब्रज, श्रषि, थ्रा में सेकोई उपतण लगा हो वो 5 प्रिया का श्राधार कर्म दोता है, बधा-( विपूषु वैकुणठ में बात करते ६ ) | बिपूएः बैकुएठम अधिवसति विष्णु: वैकुणठम्‌, उपवसति किन्तु विष्णु: बैकुए;के बसति--यहाँ पर बिधूषुः वैकुश्ठम्‌ श्रावचतिं बिचाएुः बैकुरठम श्रत॒वसति [द्वितीया विमक्ति नहीं डुई। ( अमुकस्यर्थस्य न वा ) जब (उपव्! का धार्थ उपबात करना, न खाना

होता है तब 'ऊपवर्स! का आपार फर्म नदी होता श्रविकरण दी रहता है । जैसे-बने उपबसति ( यन में उपवास करता है )[ चातोर्स्थान्तरे

प्रतिद्वेरविवज्ठातः

बूत्तेघाल्वथनीपरसंप्रदात्‌ ।«

कर्मणो5कर्मिका किया |!

सकरमक पाठ भी श्रफर्मऊ हो जाती हैं,यदि--

४०

टड,

(के ) घाठु का श्र्य बदल जाप, सपा-न्य६ धातु का श्रय है दोना, ले

जाना | मदी वढ़॒तिं इस अधोग में वह का '्र्य इन करीदवा (स) घातु के दी अर्थ में कम उमाविष्ट हो; --जीदति? इस प्रयोग

मे 'जीवम जीवति' इत प्रकार का शर्थ गम्य होने फे कारण इसमैं जीवन की कमंता

दिपी ह॒॑ई है।

कारऊ प्रकरण

श्थ्द

गे) जब धाठ' का कर्म अत्यन्त प्रत्यात हो, जैसे--मिघो वर्षतिं! का कर्म 'जलम' अत्वत लोक विर्यात है। (घ) जब कर्म का कथन अमीष्ट न हो, जेसे--द्ितान्न य*सश्यणुते स कि प्रभुश इस प्रयोग में 'हितः कर्म है पर उसे कम बतलाना बक्ता को अ्भीष्ट नहीं है । ( ड ) अरऊर्मफ धातुएँ सोपसग होने पर प्राय. सऊमक हो जाती हैं, यथा-ऋषीया पुनराद्याना वाचमार्थोइनुधावति (घाव क्रिया पर श्रनु उपसग)। प्रभुचित्त मेव जनो२--दुुों के पद चिन्हों पर चलने से नाना प्रकार के दु स पैदा होते हैं |

हिन्दी मे अलुवाद करो-२--अश्वमेषसइस्ेम्व सुत्यमेवातिरिच्यते २--खार्यात्‌ सता गुरुतरा श्रणविक्रियैद ] ३--नास्वि जावितात्‌ अन्यद्मिमठदर्णमिद जाति सबंजन्यूनाम | ४--इल्से मालंति, जन्मन प्रमभृति वह्लमा ते लवज्विछऋ ! ५४--यब्रस्मत्ता वरापान रान्साधवगम्यते सदिद शस्त्र तस्मे दीयतान्‌ ।

श्र

कहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

६--नैव जानाछि त॑ देवमैक्ष्वा् यद्ेवं वदसि | तद्विस्म्यताम तिप्रतद्भात्‌ | ७--त॑ ह॒प॑ वमुरक्षितों नाम मन्ज्रिदृद्ध एकदा5मासत बुद्धिश्न निसंगंपटूवी तवेदरेम्पः प्रतिविशिष्यते 8 ८--सज्ञत्सज्ञायते कामः कामाक्रोपोडमिजायते |

क्रोधादूभवति सम्मोह्ः सम्मोद्दात्त्मृतिविश्रमः |

स्म्ृतिभ्ंशाद्‌ बुद्धिनाशों बुद्धिनाशात्‌ प्रशश्यति ॥ ६--खबंद्रव्येषु (विश्व द्ब्यमाइसवैत्तमम्‌ |

श्रह्ययत्वादनघ्यत्वादक्षयत्वाच

सवदा ॥

१००--अपजाना. विनयाधानाद्वत्षयारृस्णादपि | स पिता पितरत्तासा फेदल जन्महेतवः | नव

अभ्यास

सम्बन्ध (पष्ठी ) का, के, की, रा, रे,री विशेष--हम पहले बता चुके हैं. कि पष्टी कारक नहीं है, अपितु यह विभक्ति है जो एक संज्ञा शब्द का दूसरे सज्ा शब्द के साथ सम्बन्ध यतलाती है, परन्तु

हमने पश्चमी, पष्ठटी, सप्मी इसी क्रम से इन विभक्तियों को रखा है।

(४ ) स्वादिगणीय श्र्‌, (सुनना ) परस्मेपद बतंमानकाल ( लद्‌)

म० जु०

ख्णोति

मे पु०

अंणोपि

ख्जुतः खणुपा

अरुप

अए्वन्ति

ज० पु०

शणोमि

आरणुव, खएः...

आणुमम, टेय्ए्मः

अनद्यतनभूतकाल ( लदइ)

हु

प्र० पु०

अश्वणोत्‌

अश्ृणु ताम्‌

अश्टएवन्‌

मन पु०

अ्रश्णोः

अशणुतम्‌

भ्रश्य्णुत

उ9 पु०

श्रश्णवम्र्‌

अश्णुव, अश्र्य

अश्णुम, श्रश्टश्स

भविष्यकाल ( लूट) प्र पु०

भौष्यति

ओऔष्यतः

श्राज्ञार्थक लोद_ श्रणोव. श्गु

खाणुताम शरुत्म

ओष्यन्ति श्रादि

विधि लिए.

अण्वन्दु ख्णुव

ग्र०पु० सण्पु०

ख्ए॒वाव्‌ खणुवया

शण॒ुपातान झ्शुवातम

लुदू

लोदू

अशकनोत्‌ शक्यति

शक्‍नीतु._

ख्णवानि आणवाब _स्ट्णबराम उ०पु० ेश॒याम आयात स्वादिगणीय छुछ धातुएँ लय.

शक--सकना

शक्‍नोति

चिमू--चुनना चिनोति

लड

श्रचिनोत्‌

चेष्यति

चिनोह.

अआशुवुशणुवात

शयुवाम विधिलिदू शबनुयात्‌

चित्॒यात्‌

आप -याना

आप्मोति

आप्नोत्‌

अघुनोत्‌ घुजू--कॉपना घुनोति. कि कम होना छ्िणोति अलिणोत्‌ इन वाक्यों को ध्यान से देखो--

आप्त्यति

घिष्यति च्ेप्मति

शआप्नोतु

घुनोद.. चिणोव

आजप्॒यात्‌

घनुवात्‌ बिणुवात्‌

(१ ) न दि परगुणण्ता विक्ञावारों बहवों मवन्ति ( दूसरे के युणों को जानमे-

बाले बहुत नहीं होते ।

(२) पुच्,, लोकव्यवद्ाराणाम्‌ अनमिशे5सि ( वेटा, तम लोक व्यवहार की

नहों जानते ) । बसतिरलका नाम यक्षेश्वराणाम्‌ ( त॒म्हे यक्तेश्वर्ों कीनगरी (३ ) गन्तव्या ते

अलका को जाना है| (४) विचित्रा हि सूत्राणां कृषिः पाणिनेः (पाणिनि के सूत्रों कोकृति विचित्र है | ) (५) अलसस्य कुतो विया, अविद्यस्थ कुतो घनम | अधनस्य छुतो मित्रम्‌, अमित्र॒स्‍्य कुठ. सुखम्‌ (आलसी की विद्या कहाँ और विद्या के ग्रिना धन कहाँ, धन के ग्रिना मित्र कहाँ और मित्र के बिना 220) १)

है

सम्बन्ध मेंपा

यप्ठी शेष ।॥३७५०

जा बात और बिभक्तियों से नहीं बतलायी जा सकती, उछऊो बतलाने के लिए

पढ़ा का प्रयोग होता है।

॥ $.4|४०

स्वामी तथा भृत्य, जन्य तथा जनक, कार्य तथा कारण इत्यादि सम्बन्ध दिखाने

के लिए पष्ठी छाम में लायी जाती है । उछका क्रिया से साक्षात्‌ सम्बन्ध नहीं होता सैसा कि प्रयमा, द्वितोया आदि विभक्तियों का होता है; जैसे--यस्य नास्वि स्वय अजा (जिसके स्वय बुद्धि नहीं है। )स्खलन मनुष्याणा चर्म. ( गलती करना मनुष्य का घम है ) | इमे नो णह्दा. ( ये हमारे घर हैं। ) विशेष--ध्यान रहे कि सल्क्ृत में पष्ठी उन सभी सम्बन्धों और अर्थों का वोध नहीं करा सकती जिन्हें दिखाने के लिये हिन्दी में “का, की, के,” प्रवुक्त किये जाते हैं,जैसे--(एक सोने का वर्तन! का अनुवाद प्रायः समस्त पद “हिमपालम” आयथया प्रत्यय निषपन्न पद हेम! द्वारा 'हेमपातम! होता है, परत्ठु 'हिम्नः

पाउम! कमी नहीं होता | इसी प्रकार (२) मिद्दी का वतन, म्दभारठम? श्रयवा “मृणमयभाएडम!

होता है, परन्तु सृदः्माएडम? नहीं होता। (३ ) बडे मूल्य की

मुक्ता। मदापें मुक्ताफ्लम! (४) शक्ति वाला पुरुष स्लो नर: न कि बलस्य नरशे इाता है। (५) इसी प्रकार बैशासर के महिने मे 'बैशाखेमासे! न कि विशाजस्य मासे! होता है। (६ ) वम्दई का शहर 'मोहमयी पुरी! अग्रवा 'मोहमयीनामपुरी! अमोहमप्याः पुरी” नहीं होता, क्योंकि मोदमयी और पुरी में समानापिकरण सम्बस्ध है।

श्छ्ड

बृहदू-अत॒वाद-चन्द्रिका

पट्ठी हरेलुप्रयोगे।२३।२६॥ हेतु (प्रयोजन ) शब्द के साथ पष्ठी होती है, यथा--अह्नस्य शेतो!ः बसति ( अन्न के लिए रहता है )। यहाँ रहने का हेतु या प्रयोजन अन्न! है, अतः अन्न

और हेतु में प्ठी हुई

अध्ययनस्य देतोंः चाराणस्यां ठिठति ( अ्रषध्ययन के लिए पनारतत में हरा है।) यहाँ ठहस्ने काप्रयोजन या कारण अध्ययन! हे, अ्रतः “श्रध्ययन! और हेतु! मे घष्ठी हुई ।

स्ंनाम्नसुतीया व ।२श३ण यदि दँतु शब्द के साथ सबनाम का प्रयोग हो तो सवनाम और ऐतु शब्द, दोनों में ठृतीया, पंचमी या घप्टी होती है, यथा--कैन देतुना शझ्त्र चसति, फस्मात्‌ हेतो; श्रन्न वसति अथवा कस्य देतोः अन्र बराति | पु इसी प्रकार--ठेन देतुना, तस्मात्‌ देतो$ तस्य हेतोः थादि ।

मिमित्तपर्यायप्रयोगे सर्वासां प्रायद््शनम्‌ (बा० ) * निमित्त श्रथवा उसके शअ्रथंवासक शब्दों ( फारण, श्रयोजन, देंठ श्रादि ) के प्रयोग हमे पर सवनाम एवं निमिच्याचक शब्दों में प्रायः समस्त विमक्तियाँ द्ोती हैं,यथा-को हेतु के हेतुम्‌ केन देत॒ना कर्म हेतवे कस्मात्‌ देतोः ऋरस्य देतो;

इसी प्रकार कि निमित्तम्‌ केन निमिचेन कर्म निमित्ताय. श्रादि।

' थत्‌ प्रयोजनम्‌ येन प्रयोजनेन यरमे प्रयोजनाथ श्रादि

करिमन्‌ हेतौ

यार्तिक में प्राय से तात्यव यह है कि सवनाम शब्द के प्रयोग ने रहने पर भी शग्मा द्वितीया को छोड़ कर श्रन्य विमक्तियाँ होती हैं, यया--

अध्ययेन अध्ययनाय अध्ययमात्‌

अध्ययनस्य अध्ययन

निमिचन निमित्ताय निमितात्‌

निमित्तस्य निमित्ते

( श्रध्यवन फे लिए ) अ गन

कर

चष्टपतसर्य्रत्ययेन शरे। अतमुच्‌ ( तसू ) प्रत्ययान्त शब्दों (उत्तरतः, दक्षिशतः श्रादि )तथा इस प्रत्यय का श्रथ रपनवाले प्रत्यपान्त ( उपरि, अषः, अप्रे, शादी, पुरः थ्रादि )की जिससे सुमीपता पायी जाती है, उसमें पश्ठी होती है, बधा--

कारक-फप्रऊस्थ

र्७३

ग्रामस्य दक्तिणतः उत्तरत- वा |

गहस्वोपरि, अग्रे, पुर, पश्चाद्‌ वा । पतित्रतानाम्‌ अग्रें कीतनीया सावित्री ।

तस्य रिथित्वा कयमपि पुरः कौठुकाघानहैेतोः ( मेघदूते ) दूरान्तिकायें: पप्ठयन्यतरस्याम्‌ शिशरे४। ५ दूर, अन्तिक ( समीप ) तथा इनके अथवाची शब्दों का प्रयोग होने पर पष्ठो तथा पश्चमी होती है, यथा-आमसस्‍्य ग्रामाद्‌ वा दूर वनम्‌ । ( बन ग्रामसे दूर है| ) सारभायः वाराणस्थाः समीपम्‌ ( सार्नाथ बनारस के समीप है | )

प्रत्यासजः माधवीमझडपस्य ( माघवी लाताकुज के पास )।

अधीगर्थदयेशा कम सि।शाशफरा अधि+इ

धातु ( स्मरण करना ), दय्‌(दया करना > ईश, ( समय होना )

तथा इन धातुओं की अ्र्थवाची घाठओं के कम में पष्ठी होती है, यथा-मातुः स्मरति ( माता की याद करता है )। रामस्य दयसानः ( रामके ऊपर दया ऊरता हुआ )4 गावाणाम्‌ अनीशो5स्नि सइृतः ( मैं अपने अगों का स्वामी न रहा )। प्रभबति निजस्य“ कन्यकाजनस्य महाराज: ( महाराज अपनी पुत्री के ऊपर

समय हैं| )

विशेष--जय रूट घाद अपने साधारण अर्थ ( पाठ करना ) में प्रयुक्त होती है तब उसके कम म॑ द्वितीयाही आती है, यया-स्मरसि तान्यहानि स्मरसि गोदावरी बा यहाँ कर्म का व्यक्त किया जाना अमीप्ठ हे (यदा कम विवज्चित भवत्ति ददा पष्ठी न मवति ) /जाननेवाला/, या परिचित! या सावधान! इन श्रर्थों काबोध करनेवाले

विशेषणों तया इनके उलटे अथों का बोध करनेवाले विशेषयों के योग में कम में पढ़ो होती है, यथा--अनमिशो

सुणाना यः स भृत्यै्नानुगम्यते ( जो गुणों को नहीं

जानता उसका नौरर अनुसरण नहीं करते । ) अनम्यन्तरे आवा सदनगतस्य बत्तान्तस्य'[ कमी-कमी सप्तमी का मी प्रयोग होता है, यथा--यदि त्वमीदशः छथायामभिक्त: । तत्राप्यभिज्ञो जनः |

करतकर्मणोः ऋृति।शशह५। ऋदन्त शब्दों के कत्ता और कर्म मे पश्ठी होतो हे । ऋृदन्त शब्द अथात्‌ जिनके आल्त 5: इत प्रच्यय--देच (द्ृ> अच (श्रऊँ घज्‌(ञ्रहै ल्युद्‌(अन ग्रे क्तिन

(ति ), खुल (अक ) आदि रहते हैं|

९७६

बृहृदू-अनुवाद-्चग्द्रिका

शिशोः रोदनम्‌

(बच्चे कारोना)

शाज्ाणां परिचयः

कालस्य ग्रतिः

( समय की चाल )

(शास्त्रों काशान ।

पुस्तकस्य पाठः राच्षतानां घातः राज्यस्थ प्राप्ति

(पुस्तक का पढ़ना )._ क्रियामिमा कालिदासश्य ( राक्सों का वध). (कालिदास की इस (राज्य की प्रात्ि 9, क्रिया को )।

यहश्व निधोरणम्‌ राश९१॥ एक समुदाय में से एक वस्तु जब ॒विशिष्टता दिखलाकर छांट दी जाती है.तब जिससे लॉग जाय उत्में पष्ठी या सप्तमी द्वोती है, यथा-कवौनां कविषु वा कालिदासः भ्रष्ट; (कवियों मैंकालिदास भ्रे्ठ हैं ।)छात्राणा छात्रेपु वा गोपालः पटुतमः |

चतुर्थी चारिष्यायुष्यमद्रभद्रकुशलसुखायहितेः ।२३।७३॥ श्राशीर्वाद देने को इच्छा होने पर आायुष्प, मद्र, भद्र, कुशल, सुख, श्र्थ, हित तथा इनके परययवाची शब्दों फेसाथ चलुर्यों या पष्ठो होतो है, वथा-श्राय्॒प्यं चिर॑जीवित्त वा रामस्य रामाय वा स्यात्‌ (राम चिरंजीवी हों )।

हू

हपस्‍्य दपाय वा मद्र, भद्रं, कुशल वा मूयात्‌ |

कृते ( के लिए, ), समत्तम्‌ (सामने ), मध्ये, अन्तरे, श्रत्तः के साथ ही होती

है,यथा--श्रमीपा आणिनां इते ( इन कीयों के लिए )। राशः समज्षमेव ( राजा

के ही सामने ) | वालाना मध्ये, रहस्य श्रत्तः श्रस्तरे प्ठी चानादरे ।२३॥३८।

घा।_ ०“

जिसका अनादर ( तिरस्कार )करके फोई काय किया जाता है उसमें पष्ठी था रुतमी होती है, यथा-रुदत: शिशो:, रुदति वा शिशौ मावा वदिरगच्छुत्‌ ( रोते हुए बच्चे केमाता बाहर चली गयी 9) निवास्यतोडपि पितः निवारयत्मपि पितरि दास; अध्ययन त्यक्तवान्‌ ( ऐिता के

मना करने पर भी उसने पढ़ना छोड़ दिया ! )

हुब्याथैंरतुल्ोपमाभ्यां तुवीयान्यतस्स्थाम ।राशछरा बराबर, समान या “की तरह” श्रथंवाची तुल्य, सहश, सम, सकाश, श्रादि

शब्दों फे योग मैं वह शब्द तृत्तीया या फटी में रसा जाता दे जिसते किसी की तुलना की जाती है,यय[-कृष्णस्य कृष्णेन वा समः तुल्य: सदशः | नाय॑ मया मम वा समे पराकम॑ विभरति।

योग्य, उचित, अनुरूप, उपयुक्त अगंवाची विशेषयों के साथ प्रायः पट्टी होती है, पया--उके पुएघरेक,, गेप्फफरए% अप: फिस, पुर सपा खुद: फपा नहीं है )! श्रतु + झू का श्र्थ जबनकल करना वा मिलना शुलना द्वोता है,तब इसके कम में प्रायः पष्ठी होती है, यथा--ततोसतुकुयांत्‌ तस्याः स्मितस्य | ( तब कदाचित्‌ यह

१७७

कारक-प्रकरण

उठ्ठो मुस्कराइट से मिल जुल जाय |) सवांमिरयामिः कलामिरनुचकार त॑ बैशपाउनः ( अन्य सभी कलागओं में वैडगावन उससे मिलता जुलता या )।

त्तस्य च वर्तमाने ।शश६७

है

«

(के ) जब कऊप्रत्ययान्त शब्द (जो भूतझाल का बाचक है ) वर्तमान के अय में प्रयुक्त होता है तब पष्ठी होती है, यथा-अहमेव मठो महीपतेः ( राजा मुझे हो मानते हैं। ) राज: पूजित:, मतः वा ( राजा पूजते हैं, मानते हैं ) ।

यहाँ बतमान के अ्र्थ में क्ष प्रत्यय है, इसका श्रर्य हुआ--राजा पूजयति

सस्पते वा।

परन्तु जब मूतकाल विवक्षित होता है तव केवल तृतीया आती है, यथा-न खलु विदितास्‍्ते चाणक्यहतकेन ( क्‍या दुष्ट चाणक्य द्वार उन लोगों का पता

नहीं लगा दिया गया १ ) (ख्र ) नपुंसके मावेक्तः ।३३।१४। सत्र केअनुसार माव अय में क्तप्रत्ययान्त नपुंसऊ लिश्ञ शब्दों के साथ 'क्ठृकर्मणोः ऋृति' के अनुसार पष्ठी होती है, यथा--

अपयूरस्य रृत्यम्‌ (मोर का नाच )। छात्रस्य इसितम्‌ ( छात्र का हँसना )। कोकिलस्य व्याह्॒म्‌ (कोयल का वूकना )

चत्यानों कतेरि वा २१७१

कृत्य प्रत्ययान्त शब्दों के योग में कर्ता में तृतीया या पष्ठी होती है, यया--

पिता मम पूज्य, पिता मया पृज्यः ( पिताजी मेरे पूज्य हैं )।

न बश्चनीयाः प्रभवोष्छुजीविमिः ( नौकरों को अपने स्वामियों कोन ठगना चाहिए )। कृत्य पत्यवान्त क्रियाएँ तिडन्त क्रियाओं में यों बदलेंगी-पिता मम पूज्य+--अ्रहं पितर पूजयेयम्‌।

प्रमवोष्नुजीविभिः न दश्धनीयाः--प्रभून अनुलीविनः न वश्चयेयु: ) *

बृत्वोडर्प्रयोगे कालेईघिकरण ।शश६ष्ट बास्थार या अनेक चार अर्थ प्रकट करने दाले “द्विस, त्रिः”? शब्दों अथवा अध्टकृलन/ 'शितइृत्वः! थ्् वोधऊ संज्ञा विशेषण अव्यय शब्दों के साथ समयवाची

शब्द में उत्मी का भाव प्रकट होने पर भी पठ्ठी होती है, यया--द्विरहो भोजनम ( दिन में दो बार भोजन ), शतदृत्वस्तवैक॒स्या: स्मख्यहो रघूचमः ( रघुओेए औीराम-

अन्‍्द्र जी तुम्हे दिन में सौबार याद करते हैं | ) लञासिनिप्रहूणनाटक्राथपिपां हिंसायाम ।२श५६।

दिसाथक जस्‌(णिजन्त ), नि तथा प्र पूवंक हन , क्रय ( णिजन्त ), नद

( झिजन्त ) तथा कक

पा के कर्म में पष्ठी होती है, यथा--

के

जौजसोजासयितु जगद्‌ द्ुह्मम्‌ ( संसार के द्रोहियों को अपने वल से मारने

के लिए। )

श्ष्प

दृइदू-अनुवादन्‍न्चन्द्रिका

अपराधिनः निहन्तुं, प्रहन्तुं, भशिहन्तुं बा(अपराधी के मारने के लिए )। चधिकस्य नाटयितुं क्राययितुं वा (वधिक के यंघ करने के लिए ) |

बमेश पेप्दुं सुबनद्विपामपि (कमशः जय द्रोहियों के नाश के लिए. )।

व्यवड्पणोः समर्थयोप्पश॥५ज सौदा का लेन-देन करना, 'जुआ में लगा देना इन श्रथों कीवाचक व्ययह

ऋर परण धातुओं के योग मे इनके कर्म में थी होती है, यथा--शतर्व च्यवहरणं पणम्‌ (सैकड़ों का लेन-देन करमा ) | आगानामपरणिष्टासी (उसने याणों की बाजी लगा दी ) | परन्तु द्वितीया का प्रयोग प्रायः मिलता है, यथा-कृष्णा पणुस्व पाचालीम (पाचालराज की कन्या द्रौपदी को दाँव पर ज्षणा दो)।

दिवसद्यस्य ।0श५८ा दिव्‌ धाव॒का जब उपर्यक्त श्रथ में प्रयोग होता है तब छसके योग में मो क्रम

में पष्ठी होती है, यथा--शतस्य दीव्यति (सौ का जुआ खेलता है ) । परन्तु दिय्‌ का उपयुक्त अ्य न होने पर कस में द्विदीया ही होती है, यथा--

हरि दौव्यति ( हरि की स्ठुति करता है)। जब किसी घटना के हुए कुछ उुसय बीता हुआ बतलाया जाता है तत्र बीती घथ्ना के वाचक शब्द पट्टी में युक्त होते हैं, यथा-कनिपये संवत्सरस्तस्थ तपरतप्यमानस्थ (तप करते उन्हें कई वर्ष

हो गये हैं )। झद्य दशुमों मासस्तातस्योपरतस्य ( मुद्राराज़से )। झंशाशिमाव या अवयवावयविमाव होने पर श्रंशों तया अवयबी में पष्ठी होती

है, यया--जलस्य बिन्दु), अयुततं शरदा ययों (दछ इजाए बर्ष बीत गये ) राजेः पृथ| , दिनस्य उच्तरम्‌ ।

प्रिय, वन्लम तथा इसी श्र्थ केबाचक शब्दों के योग में पष्ठो होती है, यथा+काय: कस्य न वल्लमः |प्रकृत्वैव प्रिया सीता रामस्‍्यासीत्‌ । विशेष, अन्तर थ्रादि शब्दों के योग में जिनमें विशेष या अन्तर दिखाया जाता हैवे पट्टी में होते है, बधा-- तव मम च॑ समुद्रपल्वलयोरिवान्तरम्‌। एलावानेयायुप्मतः

शतक्तीअ विशेष: (श्राप और इद्ध में इतना ही श्रन्तर है )।

संख्कव में अनुवाद करो ३०-सीता को राम आयों से भी श्रविक प्रिय थे। २--यदि मनुष्य सभी कार्यों मैं पशुद्यों कीनफल करे ( श्रनु+कू ) तो दोनों में क्‍या श्रन्तर हे| ३-दे मित्र पुण्टरीक यह त॒ग्दारे योग्य नहीं है|४--भीरामचन्द्रज़ी को म्रित्रों केदेखने से केबल दुः्स ही दोगा | --गलती करना मनुष्य को धर्म है। ६--मिन,

कारक-ग्रफरस

१७६

निराश मत होओ, जिसके लिए ( इठे ) इतने ढु.सी हो वह स्वय तुम्हारे पास

आवेगी ।७--श्राचीन काल में आय लोग सारा काम पुत्रों कोसॉप कर वन की गमन करते ये |८--तुम्दाय यह कार्य अपने उच्च कुल के उपयुक्त है। ६--अनेक कृवियों ने हिमालय की भूरि-भूरि प्रशसा की है। १०--घार्मिक पुस्तकों से वेद सब से प्राचीन तथा ओए हैं । ११--विद्यार्थियों को उत्तम पुस्तक सुन्दर सुन्दर बस्तरों की श्रपेज्ञा अधिक प्रिय लगती हैं ॥ १२--भ्रीमान्‌ अपने शिष्यों के ऊपर प्रमाव

रखते हैं. (प्र+म्‌ )। १३--जिसके स्वय बुद्धि नहीं है, उसको कैसे ज्ञान दें १४--अ्रीमान्‌ तथा मुझमें उतना हो अन्तर दे जितना समुद्र और गड़ददी में | १५--पिताजी को मरे हुए. ग्राज दस महीने हो गये ।

हिन्दी मे अनुबाढ़ करो १--श्रयि, भागीसथीप्रखादात्‌ बनदेवतानामप्यदश्यासि सबृत्ता । २--न सलु. स उपरतः यस्य वच्चभो जनः स्मरति | ३--कापि महती बेला चर्तते तवाहश्स्य।

४--पभिडमादुष्ड्रतकारिशीं यस्‍्याः झते तवेयमीदशी दशा बतते | ४--देव्या£

शल्पस्य जगतो द्वादशः परिवत्तरः। ६-शरीरस्प गुणानाच दूरमत्यन्तमन्तरम्‌ ।शरीर चशविष्यसि कल्पान्तस्थायिनो गुणा;। ७--अपीष्सित ऋ्नकुलागनाना न बीरसुशब्दमफामपेताम्‌ ।८--ठस्मै कोपिध्यामि यदि त प्रेत्ञमाणा आत््मनः प्रमविष्यामि ॥

&--अह पुनप्॑प्माक प्रेज्ञगायानागेन स्मत॑व्यशेष नयामि | १०--कचिऋत ३स्मरसि

सुमगे (व ह्वि तस्य प्रियेति। ११---मया तस्य किमपराद य भा परुषमबादीत्‌ | १२-कोडतिमारः समर्थाना कि दूर व्यवसायिनाम्‌। को विदेश: सविद्याना का पर: प्रियवादिनाम | दशम अभ्यास

अधिकरण कारक ( सप्तमी ) मे, पर

(६ ) तुदादिगणीय कुछ धातुएँ बुदू-इुसदेना मिलू-मिलना मुन्चूनछोड़ना विश्यूसीचना

लद्‌

तुदति मिलवि मुश्धति

उिज्वति

दृपू-युप्त रोना. सृपति विश-प्रवेश करना विशति.

अच्यू-इछमा

रचछति

लद

शअठुदत्‌ अमिलत्‌ अ्रमुश्त्‌

ल्ूदु

लोड

वोल्यति बुदढे मेलिष्यति मिलव. भोक्ष्यति मुझ्रठ.

अखिख्त्‌.सेक््यति

सिश्चद.

अतृपत्‌ू. अ्रविशत्‌

ठृषछ विश

तर्पिष्पति. देच्ष्यति

अपच्छत्‌ प्रदंवि

एच्द..

विधिलिद/

डबेब , मिलेत्‌ युख्ेत सिद्धेत्‌ तयेत्‌ विशेत्‌

एच्छेत्‌

१४-अनभवत्तः सम च संमुद्रपक्षवयोरियरान्तरम्‌॥ १५--परिवाजी को भरे

हुए--तातस्थोपरतस्य ।

र८०

पृद्ददू-अ्रनुवाद-चन्द्रिका

विशेष--त॒दादिगण की धातुएँ म्वादिगण की धाठुओं के समान हैं । अन्तर इतना ही हैकि स्वादिगण में धात को उपधा को अथवा अन्त के स्वर को गुर

द्वोवा है,ठदादि में नहीं होता |ठदादिगणीय धावुश्नों के रूप परस्मैपद में धठति-घदतः की माति और श्रात्मनेपद में 'सेवते' या 'जायते' की भांति होते हैं।

(७ ) रुघादिगणीय भुज्‌(भोजन करना ) आत्मनेपद वर्तमान काल ( लद॒) प्र०पु० म० पु० ७ पु०

एकब० दसुददक्ते भदत्ते भुच्जे

| जन पु० म० धु०

अभृुदूक्त अभुद्याः

द्विव० “अुज्ञाते भुज्ञाये भुय्ज्यददे

बहुब० भुञ्ते भुदध्वे मुम्ज्मद्दे

श्रनद्यतन मृतकाल ( लदू )

उ० पु०

श्रमुज्ञाताम्‌ अ्मुझ्ञाथाम्‌

अमुन्नि

अमुज्ञत श्रभुद्ध्वम्‌

अभुज््वह्ि

अमुउ्ज्महि

भविष्यतूकाल (लृद्‌)

प्र० धु०

म० पु० उन्पु०

भोच्यते

भोक्यसे . भोक्े

श्राशाथक लोद्‌

भुदक्ताम्‌ मुज्ञाताम भुद्ल॒ भुज्ञायाम्‌ अशे भनज्ञापहे लद्‌

झघू-रोकना दुशद्धि मिंदु-फाइना मिनसि छिंदुू--काटना दछिनत्ति..

भोक्ष्येते

भोद्यन्ते

भोक्ष्यये मोच्ष्यावददे

भोक्यध्वे भोक्ष्यामदे

विधिलिद

मुज्ञताम्‌ प्र० पु० भुन्नीव भज्जीयाताम भुज्व्वमू म० ० भुझीयाः मुझीयाथाम भुज्ञामदे उ०पु० मुञज्ञीय भुजीवदि. रुघादिगणीय कुछ धातुएँ

भुझीरन्‌ भुश्नीणरपू भुज्जीमहि

लद्ू

लूट

लाट्‌

विधिलिड

अ्रदणत्‌ श्रमिनत्‌. श्रच्छिनत्‌.

रोत््यति मेत््यति छेल््यति.

रुणदु मिनचु.. छिनतु...

आन्ध्यात्‌ मिन्‍्यात्‌ छिन्यातू,

सम्नमी

इन वाक्यों को ध्यान से पढ़ो--

हि

(१) करिमन्नपि तट

प्रति क्रपराप किया है।

शबुन्तला ( शबुन्तला ने किसी गुरुजन के

;

है

( २) बोस्यसचिवे न्यरतः रूमस्तो मरः ( समस्त रा्यभार योग्य मन्‍्त्री पर छोड़

दिया गया है । )

कारक ग्रकरण

श्प्ट

(३) न खब्ठु न सलु वाणः सब्निपरत्योव्यमस्मिन्‌ (इस सुकुमार हरिस-शरीर हु पर कदापि बाण नहीं छोड़ना चाहिए। ) (४ ) पुरोचनो जतुणदे अम्रिमदात्‌ पाण्डवास्तु प्रागेब ततो निरक्रामन्‌ ( पुरो-

चन ने लास के घर को आग लगा दी, किन्तु पाए्डव पहले ही वहाँ सेनिकल चुके थे ।) ( ५.) बतीना बल्कलानि इच्चशाखालवलम्बन्ते, अतस्वपोवनेनानेन मय्रितन्यमर ( मुनियों केवल्कल इक्षों कीशाखाओं सेलब्क रहे हैं, अतः यह तपायन ही होगा। )

अधिकरण कारक-सप्तमी आधारोडघिकरणम ।(७४४५। सप्तम्यधिऊुस्णे च ।शशर३६। जिस स्थान पर कोई काय दह्वाता हे उसे अधिकरण कहते हैं और वह सतमी पिमनि में रखा जाता है, यया--स्याल्यामोदन पचति ( बटली में खाना पकाता है ) | झ्रासुने उपविशति ( श्रासन पर बैठता है )। श्पार तीन प्रकार का होता दे--( १) औपश्लेपिक, (२) वैपत्रि तथा (३ ) श्रभिव्यापफ । (१ )औपरलेपिक आधार--जिसके राय आवेय का भौतिक सश्लेप हा, यथा--कढे आस्ते (चढाई पर है), यहाँ बैठने वाले का मौतिक सश्लेप स्पष्ट

दिखाई देता हे।

(२) वैधपरिक आधार--जिसके साथ आवेय का व्याप्य-ब्यापफ सर्लेप हो, यथा--ोत्ते इच्छास्ति | यहाँ इच्छा का मोक्ष! में अधिष्ठित होना पाया जाता है।

( हे ) अभिन्यापक आधार--जिसके साथ आधेय का व्याप्य-व्यापफ सम्बन्ध हा, यथा--निलेपु तैलम्‌ । यहाँ तेल समी तिलो में व्यात है।

( र्ुम्येन्दिपयस्थ कर्मस्युपसंस्यानम्‌ चा०) क्प्रययान्त शब्द में इन्‌ प्रत्यय लगकर बने हुए. शब्द के योग में उसके फर्म में उत्तमी होती है, यथा-प्रघीती चत॒र्ष्या्नायेपु ( चारों वेदों को पढ चुकने वाला )। गह्ीती पदस्पग्रेपु (छद्ों अगों का प्रफाएंड विद्वान ) ।

( साथ्वसाथु प्रयोगे च बा० ) साधु और असाथु के प्रयोग में सपमी विभक्ति होती है, यया--मातरि साधुरसाथुर्वा (अपनी माता के प्रति सदृव्ययह्वार अयवा असदू व्ययहार ऊरता है| )

( निमित्तात्कर्मयोगे बा० )

जिस फल फी ग्रात्ति के लिए कोई क्रिया की जाती है, वह फल यदि उस क्रिया के कम सेयुक्त हो दो उसमें सतमी होती है, यया-चमणि द्वीपिन इन्ति, दन्‍्तयोईन्ति कुद्धस्म्‌ । केशेपु चमरी हन्ति, सीम्नि पुष्कलको हत+ ॥

रघर

वृहदू-ग्रनुवाद-चन्द्रिका यहाँ 'द्वीपी! कम के साथ उसका चमे फल ग्रात्ति है, ठसीके लिए हत्या की

जाती है | इसी प्रकार दन्तयो3, केशेयु तथा शीघ्ि में मी सप्तमी हुई। अतग्व निर्धासरणम्‌ १३४९

जब किसी वस्तु की अपने समुदाय से किसी विशेषण द्वारा कोई विशिष्टवा दिखलायी जाती है तंत्र समुदाय बाचक शब्द पष्ठी अथवा सप्तमी में रखा चाता है, यथा-कबीना कविपु वा कालिदाठ: श्रेष्ठ: छात्राणां छात्रेपु वा गोविन्दः पदुतमः | जीवेपु जीवाना था मानवाः श्रेष्ठाः |

अस्य च भावेन भावलन्षणम्‌ ।श१३७० जब किसी कार्य के द्वो जाने पर दूसरे काय का होना प्रतीत होता है तब जो कार्य हो चुकता है उसमे सप्तमी होती है, यथा--रामे बन गसे दशरथः प्राणान्‌ तत्याज ( राम के बन चले जाने पर दशरथ ने ग्राण त्याग दिये। ) सूरयें उदिते कमल॑ प्रकाशते (रथ के उदय होने पर कमल खिलता है)। स्वेंपु शयानेपु कमला रोदिति (सब के सो जाने पर कमला रोठी है )।

अप्तमीपद्चम्यो कारकमध्ये १७

समय और मार्ग का अन्तर बतज़ाने वाले शब्दों में पश्षमी और स्समी होती

है, यथा--्ञ्रय॑ ब्रोशे क्रोशाद्य लक्ष्यु विध्येत्‌ (यह एक कोछ पर लक्ष्य बेध

देगा )|श्रद्य भुक्‍ताय॑ च्यदे व्यहादया भोक्ता | कं आयुक्तकुशलाभ्यां चासेवायाम्‌ ।२३॥४० साधुनिषुणाम्यामर्चाया सप्तम्यप्रते+

शशेश्३।

है

संलग्नो्थंक शब्दों तथा ( युक्त।, व्याप्त, तलरः श्रादि ) चतुराथक शब्दों ( कुशल, निषुण/, पढ़ुः आदि ) के साथ सप्तमी द्वोवी है, यथा--कार्ये लग्नः,

त्त्पएः । शास्त्र निषुणः दक्तः प्रवीणः आदि |

अप्ठी चानादरे ।शशरेप।

हि

हे



जिसका श्रनादर करके कोई कार्य किया जाता है, उसमें पष्ठी या सत्तमी होती

है, यधा--निवारवंती5पि पितुः निवारयत्यपि पितरि वा रमैशः श्रघ्ययर्न त्यक्तवानूमत के मना करने पर भी रमेश ने पढ़ना छोड़ दिया। ) वेषयिकाघार में सप्मी-स्विह, श्रमिलप+अनुरंज्‌ श्रादि स्नेह, श्रासक्त शथा सम्मानवाचकर शन्दों केसाथ जिसके लिए स्नेह, आसक्ति तथा सम्मान

अदर्शित किया जाता है, बह रु्मी मैं रखा जाता है, यथा--किन्त्र पल बलिईध्मिन्‌ स्निद्मति में मनः ( मेरा मन इस बालक को क्यों प्यार करता है! ) न तापस-

भन्यायां शबुल्दलावा ममामिलापः ( भुनिकन्या शह़न्तला से मेरा सनेद नहीं है)। देदे चन्द्रगुम इृढमनुस्काः प्रकृतयः ( चस्गुप्त केप्रति ध्ना का बहुत बढ़ा अनुराग है )।॥

कारक-प्रऊरण

श्घर

युज्‌घादके साथ वया युज्‌से प्त्यय द्वारा निष्पन्नशब्दोंके साथ सत्तमी

इंती है, यथा--असाघुदर्शों मगवान्‌ काशवपो य दमामाश्रमघरमे नियुड्क्ते (ृज्यपाद काश्यपजी महाराज बुद्धिमान्‌ नहीं है, जिन्होंने इसे आश्रम के कार्यों में लगा रखा हे )। प्योग्यता' अ्रथवा 'उपयुक्तता' श्रादि श्र्थों काबोध कगने वाले शब्दों के शोग में उस व्यक्ति कावाचक शब्द सम्तमी में रसा जाता है, जिसके विषय में योग्यता अ्यवा उपयुक्तता प्रकट की जाती है, यया--युक्तवुपमिदं त्वयि ( यह

तुम्झरे लिए योग्य है ) | च्ैलोक्यस्यापि अमुत्व तस्मिन्‌ युज्यते ( तीनों लोकों का भी राज्य उसके लिए. उपयुक्त है )। वे गुणाः परस्मिन्‌ श्रक्षण उपपदन्ते ( वे गुण पख्क्ष के लिए उपयुक्त हैं )। जय कारणवाची शब्द का प्रयोग होता है तब कार्य सतमी में रखा जाता है, यथा-दैवमेव हि रुणा दृद्धौ छये कारणम्‌ ( माग्य ही मनुष्य की उन्नति तथा अश्रवनति का कारण है )। सप्तमी विभक्ति स्थान का बोघ कराती है, परन्त श्रनेक स्थलों पर सप्तमी उस

वस्तु या पात्र में भी प्रयुक्त होती है, जिसको कोई चीज दी जाती है या सुपुर्द की

जाती है, यथा--योग्यसचिवे न्यस्तः समस्तो भरः ( योग्य मन्त्री केऊपर समस्त

भार सौंप दिया )। शुक्नासनाम्नि मन्निणि राज्यमारमारोप्य स यौवनसुसमनुबमूव ( राज्य का भार यीग्यमन्त्री शुकरुनास को सौंपकर वह यौवन का सुख भोगने लगा )। वितरति गुरः प्रा विद्या ययैव तथा जडे ( गुरु जिस प्रकार से चतुर शिष्य को विद्या प्रदान करता दे, उसी प्रकार मृढ़ को मी ) ।

कैकना या 'किसी पर भपठना! अर्थ का वोध कराने वाली क्षिप्‌, मुचू, अस्‌ घातुओं के योग में जिस पर कोई चीज फेंकी जाती है या भापठती है बह सत्मी में रखा जाता है, यया--झूगेप शरान्‌ मुमु्षोः ( दरियों पर बाण छोड़ने की इच्छा रखने वाला

)। न खल्लु बाणः सत्निपात्यो5स्मिन्‌ सगशरीरे ।

संस्कृत में अनुवाद करो १--इस विद्यालय में वालक और बालिकाएँ पढ़ती हैं। २--राम ने वाल्यकाल में समस्त विद्याएं सीखीं। ३--गेंद के खेल ( कन्दुकप्रतियोगिता ) में हमारा विद्यालय प्रथम रह।

४--शड़क ( राजमाग ) पर घोड़े दौड़ रहे हैं। ५--

शरद्‌ काल में (शरदि ) वन में मयूर नाचते हैं । ६---क्या वह तुम्हें मार्ग में नहीं मिला | ७--विधान-भवन में विधान-समा को बैठकें (उपनिवेशन ) होती हैं। रू-मनुणों में शह्मण भरेष्ठ ईऔर पशुओं में सिंह | &--पशुयझरों मेशऋूगाल बहुत चतुर है | १०--इस तालाब में कमल के फूल खिले ( फुल्लित )हैं। ११--जिसने जवानों ( यौवन ) में नहीं पढ़ा बह बुढ़ापे ( वाद्धक ) में क्या पढेगा ! १२--यौवन के मद मे सभी अन्चे हो जाते हैं। १३--फ्लों में आम (आमम्र ) उत्तम है|

श्प्ड

बहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

१४--जिस देश में तुम उत्पन्न हुए दो, उसमें हायी नहीं मारे जाते (न हनचन्ते )॥ १४--इस राजा की सारी प्रजा इसमें अनुरक्त है (अनु+- रंज )। १६-इस बगीचे में सब वृत्तों से यह वृक्त लग्बा है। १७--भारतीय कवियों में कालिदास

और भवभूति उबसे अधिक अरिद्ध हैं। १८--कैकेयी राम के चौदह बर्ष पे

बनवास का प्रधान कारण थी। १६--जो यूतकला मे निपुण हैं वे अपना राय समय॑ जुआ खेलने में बताते हैं। २०--इस लड़के की शिक्वा के विषय मे चिन्ता ने कीजिए |

हिन्दी भे अनुवाद करो ३-छढ ल्वयथि बद्धभावोबंशी। नस इतोगतमनुराग शिमिलयति। २-अशुद्धप्रकृताौ राशि जनता नातुर्यते। ३--म जानामि केनापि कारणेन त्वगरि विश्वरिति मे छृदयम्‌ |४--छ्षमा शत्रौ व मित्रे च यतीनामेव भूपणम्‌। ५--म मातरि न दारेपु न सोदयें न चात्मनि। विश्वासस्ताहशः पुंसा यावन्मित्रे स्वभावणे | ६--उपकारिपु यः साधुः साघ॒त्वे सस्य को गुणः। अपकारियु यः धाधुः स साधुः

सह्धिसुच्यते |७--मूतानां प्राखिनः श्रेष्ठाः प्राणिनां बुद्धिजीविनः। बुद्धिमत्मु नराः

प्रेष्ठा मरेषु आ्ह्मणाः रुखताः ।८-लताया पूर्वलूनाया प्रयूतस्थागमः कुतः ! ६इुमवस्थान्तरं गते ताइशे&जुरागे कि वा स्मारितेन | १०--जीवत्सु तातप्रादेषु नवे दारपरिमद्दे | माठृमिश्रिन्त्मानानां ते हि नो दिवसा गताः |] एकादश श्रभ्यास

करोति.

सम्बोवन ( प्रथमा ), हे,भोः (८) तनादिगणीय ऋ ( करना ) परस्मैपद लू लद्‌ छुछझतः . कुर्वन्ति प्र० पु० अकरोत्‌. श्रकुसतामू

करोपि..

कुझथः

करोमि.. लुदके करोदु.

कझुबेः

कुरथ

म० पु० अकरोः

श्रकुबन्‌

श्रकुरतम्‌

श्रकुदृत

कुर्यातम्‌ कुर्याव

कुर्यांत कुर्याम

कुम्म: उ० पु० अकरबम्‌. श्रकुबं अकुम करिप्यति करिष्यत: करिष्यन्ति श्रादि। लोदू , हे विविलिश + कुष्तामू कुबन्त ग्र पु० झुयात्‌ कुर्याताम्र कु

कुझ कुस्तम. करवाणि करबाब

कुछ्त॑ मण् पु कुर्या:. फरवा्म 3० पु० कुर्यमाम

(६ ) क्रयादिगणीय प्रह(पकइना ) परस्मैपदू

+

गहाति...

लद्‌ ण्हीतः. गहस्तिग्र० पु० श्रण्डाव

लू अदद्वोताम्‌

अगहन्‌

ग्रद्धास. गद्मामि

गडोपः गहीवः..

श्रयद्वीतम श्रश्होतर

अ्रगद्भीत अगद्धीम

शहीय मन पु० अग्हा:. ग्द्दोमःउ० पु० अ्रग्दाम

श्३ृ

कारक-प्रफरण

श्प्

लट-भरद्दीप्यति प्रहीष्यतः ्रद्दीप्यन्ति आदि ।

गहाव॒

विधिलिड'

लोद

गहीतामू,. शहद प्र० पु० णहीयात्‌.

शद्दीयाताम

शहीवुः

गहाण.

गरह्लीतम

ण्ह्लीत म० पु० ग्रहीयाः

ण्ह्वीयातम्‌

गद्ीयात

ग्हानि

ग्रहाव

गशह्माम उ० पु० ग्रद्धोयाम्‌

ग्द्दीयाव

ण्ह्डीयाम

ऋयादिगणीय कुछ घातुएँ क्री--सरीदना. प्री--खुश करना पू--पवित करना

लद्‌ क्रीयाति प्रीणाति पुनाति

लड अक्रीणात्‌ अग्रीणात्‌ू अपुनात्‌

लूड्‌ छ्रेष्यति प्रेष्यति पविष्यति

लोद्‌ क्रीयाठु प्रीणातु पुनात॒

बू--वर छाटना. धू--कापना अशू-खाना

इंणाति घुनाति अश्नाति

अद्वणात्‌ अधुनात्‌ आश्नात्‌

वरिष्यति घविष्यति अशिष्यति.

बणातु धुनाठ अश्नावु

मुपू--चुराना

स॒ष्णाति

अमुष्णात्‌.

बघू-बाँधना

बघ्नाति

अपष्नात्‌

शा->जानना जानाति श्रजानात्‌ विधिलिड--( क्री ) क्रीणीयात्‌, (प्री) (६ ) इणीयात्‌ इत्यादि।

मोपिष्यति मत्य्यति

मुष्णातु उध्नावु

ज्ञास्थति जानाठ प्रीणीयात्‌ , (एू) पुनोयात्‌

( १० ) चुरादिगणीय छुछ धातुएँ

लूद्‌

चोर्यति ते अचोरयत्‌-त

लड्‌

चोरबथिष्यति-ते चोरयतु-तामर

लूद

लोट._

गण--गिनना कथू--कहना भक्ष-खाना

गणयति कथयति मक्तुयति

अगणयत्‌ अकथयत्‌ अमक्षयत्‌

गणयिष्यति कथविष्यति भक्तविष्यति

गणयतु कंथयतु भक्तेयतु

तड--पीटना रचू-बनाना

ताडयति स्चवति

अताडयत्‌. अरचयत्‌

ताडयिप्यति रचयिष्यति

ताडयदु रचयतु

तलू--तोलना

तोलयति

अतोलयत्‌.

तोलयिप्यति

तोलयतु

पूजू-पूजा करना

पूजयति

अपूजयत्‌ू.

चुरु-छुराना

अच्‌ -पूजा करना अचंयति. आउद्वादू-खुश करना आह्वादयति चिन्तू--सोचना. चिन्तयति

क्षल--धोना

चालयति

बस्ट-वाँगना. वण्टबति घुप-ढिंढोरा पीटना घोषयति

,

पूजयिष्यति

पूजयतु

आचेक्‍त्‌.

अ्र्च॑बिष्पति

अर्च॑यतु

आह्वादयत्‌ अबिन्तयत्‌

श्राह्नादयिष्यति आह्वादयतु चिन्तविष्यति चिन्तयदु

अक्षालयत्‌._

क्लालविष्यति

क्ञालयठ

अवण्टयत्‌. अधोपयत्‌

बण्ट्यिष्यति घोपग्रिष्यति

वसण्य्यतु घोषयतु

श८६

बृहृदू-श्रतु वाद-चन्द्रिका

शरी-खुश करना

ओऔणयति

साहू_-इच्छा करना स््यति

संग--दंद़ना आऑग्रयति मृप--सजाना भूषयति घबणए--वशनफरना वरयति

अ्प्रीययत्‌.

ग्रीणयिष्यति

अस्हयत्‌.

झमागयत्‌ झमृपयत्‌. अवशयत्‌.

प्रीणयत

स्पृदविष्यति स्परहयतु

?मार्गविपष्यति भागयव भूपयिष्यति भूषयतु वर्णविष्यति वणयत

लोइ--देसना. लोकयति शअलोकयत्‌. लोकविप्यति लोक शान्व-शान्तकरना सान्वयति श्रसानलयत्‌ झान्ल्यिष्यति खान्त्रयतु बुक-कुततेका मौंकना बुकयति झबुक्यत्‌. बुकमरिप्यति. घुक्ययतु विधि लिर-( चुर्‌ ) चौरयेत्‌, (गण ) गणवेत्‌, (कथ्‌) कथयेतू श्रादि | इन वार्क्यों को ध्यान से पढो-(१) है इंरवर ! देहि मे मृक्तिम्‌ (दे ईश्बर, मुझे मुक्ति दो | ) (३२) मो मित्र, क्षमस्व श्रजानता मया एवं भाषितम (दे मित्र, क्षुमा करो, अजानवश मैंने ऐसा कहा |)

(३ )दे वाले, क्य गन्तुमिच्दसि (दे बाला, कहाँ जाना चाहती हो ! ) (४) मो महात्मनू, कि मवता मोजने कृतम्‌ ! (हे महात्मन्‌, क्या शपने मोजन कर लिया ! )

(५) दे पुत्र, सदा रत्यं बद धर्म चर (दे पुत्र, सदा उच बोल श्र भ्रम कर )।

सम्बोधन (प्रथम )--किसी को पुकार कर श्रपनी श्रोर श्राइष्ट करने को सम्बोधन कहते हैं । उम्मोधन में प्रभमा विमक्ति होती दे और सम्बोधनवाचक शब्द के पूव मो), श्रये, दे आदि चिंध्द लगते हैं। उवनाम शब्दों काससोधन नहीं होता श्रीर श्रक्राराम्त शब्दों केएकवचन में विसग नहीं होता । श्राकारान्त

आर इफाराम्त शब्दों के प्रथमा केएकवचन में ए (दे लत, हे हरे )और ईकारान्त शब्द के प्रथमा के एकवचन मैं (३? (दे नदि ) श्र उकारान्त शब्द के ओो! (दे साधो ) दो जाता है ।

संस्कृत मेंअनुवाद करो

र--महाराज, श्राप राज्य में प्रथा को सुख है। २--मित्र, कल तुम हमारे घर श्राश्रोगे ! ३--दात्रो, श्रपना पाठ ध्यान से पढ़ों ।४--बालकों, गुरु की सेवा करो, फल मिलेगा। ५--लड़को, परिश्रम करो अवश्य परी में उत्तीश हों

जाओगे | ६--प्रातः उठो, हाय-ैर धौशो श्रौर पढ़ो |७--विदार्थियो, श्रध्यापकों

का उपदेश ग्रदण करो क्रौर उठ पर चलो | ८--मित्र, श्रापके पिता कुशल से तो

ई!(शआपि दुशली“

“४ ) ६&--पुत्र कमो कूद न बौल, रुत्य परचल | १०---

ज्ड़कियों £ तुम थ्राज स्कूल क्यों नहीं गयीं ! ११--महाशय, क्या श्राप्र कल मुझे

दशन देंगे! १२-चच्चों, समय पर उठो ओर ब्यावाम करयों। १३-प्रिठा जो,

कारक-प्रकरण

श्र

सफल होऊंगा। १४-मखत, तुझारे जैसा मैं भेहनत करूँगा श्रौर परीक्षा मैं ( त्वाहशः ) भाई ससार में अन्य नहीं है |१४--है सीता, जगल में अनेक कष्ट हें, तुम घर पर ही रहो।

उपपद विभक्तियों की पुनराह्रत्ति क्परण बताओ कि मोटे टाइप में सुद्वित शब्दों मेडल्लिखित विभक्तियाँ

क्यों हुईहै--

(क) द्वितीया १-|दिवं च प्रृथ्वीं चान्तराउन्तरिक्षम ( श्राकाश और पृथ्वी के बीच मे श्रन्तरिक्त है।) र-मामन्तरेण कि नु चिन्तयत्याचा्य इति चिन्ता मा बाघते ( आचाये मेरे विपण में क्‍या विचार करेंगे यह चिन्ता मुझे ढुःख दे रही है। ) ३--चिछ्‌ त्वांयः छार्यातुस्‍न्‍्थविचारमन्तरेण कार्य करोपि ( तम्दें घिक्कार ह्ेजो द्यय॑ के फल पर विचार किये प्रिना छार्य करते हो | )४--परितः नगर विद्यत शा परिखा या रुदैव जलपूर्णा (नगर के चारों श्रोर एफ खाई है जो सदेव पानी के भरो रहती है।)। ५--मां प्रति त्व॒ दि नासि वीरः, त्व दि कातराज्नातिमिवसे (मेरे विचार से तुम वीर नहीं हो, ठुम तो एक कावर से अधिक मिन नहीं हो । 2

६--विनय बात बिना वर्ष विद्यूदुत्पदर्नविना | दिना हत्तिह्ृतान्दोषान्केनेमी परातितौ द्रुमौ ॥

(आधी, वर्षा और बिजली के गिरने केशिना वया हामियों के उत्पात के बिना क्सिने इन दो बृत्तों कोगिराया है )

( ख ) तृतीया ७--शशिएना सद याति कौसुदी सह सेघेन तडित्‌ प्रलीयते ( चाँदनी चन्द्रमा

के साथ जाती हे और मेघ के साथ विजली

)। ८--कष्ट व्याजस्थम्‌ , दद दि

द्वादशमिवंप: श्रेथते (व्याकरण सूठिन है, यह बारह वर्षों म॑पढ़ा जाता है। )

६-सहसे रपि मूर्साणमेक क्रीणोव परिडतम्‌ ( हजारों मू्खों केबदले मे एक परिड़त खरीदना अच्छा है।) १०--स स्वरेण राममद्रमनुदर्रते (वह खर में प्यारे राम से मिलता-जुलता है! ) ११--हिरण्येनार्थिनो मवन्ति राजान,, न॑ च ते

प्रत्येक दरडयन्ति ( राजाओं को सुप॒र्य की आवश्यकता रहती है, किन्तु वे सभी से तो जुर्माना नहीं लेते । )

(ज) चतुर्थी १२-गामानामक: प्रस्प्रवमलल, जविस्कोनाम्ले प्रसिर-मल्लायालमू(गामा नामक विरपरात पहलयान

जिसको नामक पहलवान के लिए कापी है| ) १३--

उपदेशो हि मूर्खाणा प्रकोपाय न शाल्तये ( मू्लों कोउपदेश देना केवल उनके ऋ्रोध को बढ़ाना है, न क्लि उनकी शान्ति केलिए।) १४-नमस्तेभ्यः पुराण-

झुनिभ्यों येमानवमाज्स्थ कृते आचारपदति प्राशयत्‌ (उन प्राचीन सुनियों फो

श्प्फ

बृहदू-गनुवाद-चनिद्रिका

प्रयाम है, जिन्होंने मनुष्य मात्र केसदाचार के लिए नियम बनावे।) १४-गोभ्यों त्राक्रणेस्यश्व ख्ति ( गौझों काऔर ब्राह्मथों का कल्याण हो | ) १६-श्रलमिदम उत्साइश्रशाय मबिष्यति ( यह उत्साइ की गिराने के लिए काफी है। ) १७--क्रपफ्रेस्यः कमकरेभ्यश्व कुशलम्मूबात्‌ (किसानों और भजदूरों काभला

ही। ) (८-प्रमवति उ एकेनैव हायनेन साहित्वमध्यमपरीक्षो्तरणाय (बह एक

वर्ष में साहित्य मध्यम परीक्षा में उत्तोर्श होने के योग्य है। )१६- भवयन्धच्छिदे तस्ये स्ृह्यामि न मुक्तये ! मवान्‌ प्रभुरई दास इति यत्र विलुप्यते ॥ ( श्री हशमतः ) जिस मुक्ति में झाप प्रभु हैंऔर मैंदास हूँ, यह मावना विलुप्त दो जाती है, मवबन्‍्धन के नाश के लिए मैंउस मुक्ति की इच्छा नहीं करता ) (घ) पद्चमी

२०--धीरा मनस्थिनों न धनात्मतियच्छुन्ति मानम्‌ ( धीर मनस्वी लीग धन के बदले मैं मान को नहीं छोड़ते | )२१--खार्थात्‌ यर्ता गुझ्तरा प्रशविक्रिविव ( सलुस्पों केलिए श्रपने अयोजन से मित्रों का प्रयोजन ही बढ़ा है।) २९० मास्ति सत्यात्ययों धमों नानृतातू पातक॑ मद॒त्‌ ( सत्य से बढ़कर कोई धम नहीं श्रौर

झूठ से बढ़कर कोई पाप नहीं।) २३-आमादारादारामः थत्र व्शवसायात्रिदृत्त

ग्रामीणा श्रारमन्ति (गाव के पा एफ याग है, जहाँ काम धथे से छुट्टी पावर ग्रामबादी आनन्द मनाते हैं ।)२४--छते बसन्तान्नापरः ऋत॒राजः ( बरुन्त को

धोड़कर श्रत्य ऋतु को ऋतुराज नहीं कहते।) २५४--सूों हिचापलेन मिद्ते

परिडतात्‌ ( मूर्स काचपलता के कारण परि्ठत से मेद समझा जाता है। ) |) पट्ठी २६--तस्मे कोपिप्यामि यदि त॑ प्रेज्ठमाणा5उत्मानः प्रमविष्यामि ( उसमे मैं ) )२७-क्रोध करूँगी, यदि में उसे देखती हुईअपने श्रापफो वश में रख सकी श्रपराध किया जो मंया तस्य किमपरादं यः मा परस्यमवादौत्‌ ( मैंने उसका क्या तस्य

चिर॑ दृ्स्य बह मुझे खोटी-खरी मुनाने लगा ! ) २८--तस्य दर्शनस्वोत्कएठे, चिर हो गया ६ै। ) ९६--

(मुझे उसके दर्शनों कीउत्कर्ठा है, उसे मिले हुए सविद्याना कः को:तिमारः समर्थानां कि दरअावलायिता को १४ व्यवसायवाल सा प्रियवादिनाम, !(समर्थ लोगों के लिए क्या कठिन काय, है|प्रियवादियों लिए. के लिए. फोनन्सा विदेश है! सेिबकापज ह।विद्वानों के ( कौन पराया है!) ३०--कबिहनतुंः स्मरति शुमगे, स्व दि हस्यप्रियेति )] ही प्यारी मुल्दरि, क्या त॒ग्दें श्रपने स्वामी की याद है, क्योंकि तुम उसको ए. वाह्म क्रि ३१०त्व॑ लोकस्थ बाल्मीकिः, मम पुनस्‍्तात एवं (तुम उतार के लि हो,किन्तुमेरेतोतमगिताहो। ) ध आजाएसाज, औ९--रजदरसमामणफज्फए्क

परिगलितलताना स्लायंठा भूरद्दाणाम्‌ ।

श्रयि जलपघर [ रैलभ्रेणिशडेपु वोय॑,

प्‌

वितरसि बडु फोटयंभोमदस्तावकीनः ॥

कारक-्रकस्ण

रद्द

जले हुए. (दे मेष, केरा यह कैसा गरव है कि जगल की आग की ज्वालाओं से केशिखरों पर गलित लवाशं वाले, मुस्काये हुए इच्चों काश्रनादर करके तू पर्वतों न तमाम पानी देवा है। )

मानवों में श्रेष्ठ राम सखार मे ३३--पुरुषेपृत्तमो रामो भुवि कृत्य न वन्धः (्‌ स्मतत्यफिसके नमस्कार के योग्य नहीं ! ) ३४--अह पुनयुष्माक प्रेज्ञमाशानामरे्न

शेष नयामि (मैं तो उम्दारे देखते ही देखते इस ( कुमार बपमसेन ) को मार डालता हैँ |) २५--पौरवे वदुम्वी शासति को5विनयमाचरति प्रजामु (पीरव के पृथ्यी पर राज्य करते हुए कौन प्रजाओं के प्रति श्रनाचार करेगा १) ३६--लंताया कहा पूब॑लूनायां प्रयूनस्वागमः कुतः ( बेल के पहले ही कट झुकने पर उसमें फूल सेआ सुऊते है! ) ३७-अभिव्यक्तायां चन्द्रिकायां कि दोषिका पौनरुकक्‍्त्येन

सुधापि ( शुश्रग्योत्त्ना में व्यर्थ दीपफ जज्ञाने से क्या लाभ १ ) १८--विपदि हन्त

विपायते (विपत्ति में मित्र भी शत्रु हो जाते हें । )३६--जीवल्सु त्ातपादेपु नवे

दारपरिग्रहे | माठ्मिश्चिन्यमानाना ते हि नो दिवसा गताः ( पिताजी के जीते जी जब हमारा नया नया विवाह हुआ था। निश्चय ही हमारे वे दिन बीत गये जय हमारी माताएँ. इमारी देखभाल करती थीं।) ४०--इद्मवस्थान्तर गते जाने ताहश$नुरागे किवा स्मारितेन (उस प्रकार के प्रेम केइस अवस्था मैं पहुँच

पर याद करने से क्या! ) ४१--चर्मणि द्वीपिन हन्ति व्याधः ( शिकारी चीते को चाम के लिए मारता है । )

४२-हते भीष्मे हते द्रोणे कर्णे च विनिषातिते | आशा बलवती राजन्‌ शल्परो जेप्यति पाए्डबान्‌ |

( भीष्म के मारे जाने पर, द्रोण के मारे जाने और कर्ण के मार गिराये जाने पर, है राजन्‌ आशा ही बलवती दे कि शल्य पास्डवों को जीतेगा। )

कारक एवं विभक्तियाँ (एक दृष्टि में ) अथमा--१--कर्ता मे--शिश्ुः रोदिति | अदद पुष्पे पश्यामि ।

२-#र्मयाच्य के कर्म में--वर्टर्मिः पझ्यते बेदः, पशुमिः पीयते जलम ॥

३--सबोधन में-भो युरो ! क्षमस्व |

४-यव्यय के साथ-अ्शोऊ इति विख्यात: राजा सबंजनपियः । ३-नाम मात्र में--श्रासीदू राजा विक्रमादित्यों नाम |

ह्वितीया--१--कर्म मैं-प्रजा सरक्षति रुपः सा वर्द्धयति पार्थिवम्‌ ।

२- छठे, अ्न्तरेण, विना के साथ-धनमन्तरेण, बिना, ऋते वा नैय मुखम्‌ । ३--एजप्‌केसाथ--तब्मागार धनपतिण्दानुत्तरेशास्मदीयम्‌ | ४-श्रमित: के साथ--अ्रमिदों शुवन वाटिका |

२६०

बृहदू-थनुवाद-चब्दिका

३-परितः, ६--उमयतः ७--थश्रन्तरा ८--समया,

स्वतः के साथ--सन्ति परितः (स्वतः )गम बृत्षाः । के साथ--गोमतीमुमय॒तस्तरवः सन्ति | ., ( बीच में )के साथ--शम कृष्णं चान्तरा गोपाल: । निकपा (समीप) के साथ--झआम उमया निकष्रा वा नदी ।

६--कालवावी श्रर्थ में--स चलारि वर्षाणि न्यायमष्वैष्ट । १०--अध्यवाडी शब्दों केसाथ-क्रोशं कुटिला नदी | ...४ २१--अतु के साथ-गुथ्मन॒ शिष्यो गच्छेत्‌ । १२-प्रति के साथ-दौीन॑ प्रति दयां कुछ ।

१३--थिक्‌केखाथ-विक्‌ तापापिनेश ( पिशुन वा )। १४--अधिशीदकेसाथ--चन्द्रापीड: मुक्ताशिलापट्डमधिरिएये ३ शए--अधिस्था केसाथ--समेशः शइमधितिष्ठति (क्षयया रमेश: गे तिष्ठति )। १६--अधि आंसूकेशाथ-वूपः सिंहासममध्यारते, (रुप: दिशवसने आते ) ५ १७--अ्ु, उप पूर्वक वरकेसाथ-हरिः वैकुरठमुपवसति, श्रतुघसति वा ।

औ८--आबस्‌एवंश्रधिवस्‌केसाथ--श्रधिवसति कार्शी विश्वनाथ: मक्तःदेवमन्दिर्म्‌ ऋावरति ।

१६---अमि-निपूर्वक विश्‌केसाथ--मनों घर्मम्‌ श्रमिनिविशते। ३०-क्रिया विशेषण मैं--सत्वरं घावति झगः ।

में--सः जलेत सुस्त प्रालयति। करण तृदीया--१ह्‌

२--क्र्मबाच्य कर्चा में--रामेय रावणों हतः। ३--स्वमाव आदि थश्रर्थों मैं-रामः प्रकृत्या साईं: । माग्ना गोपालोंश्यम्‌ । ४--सह के साथ--शशिना सह याति कौयुदी ) 2--सहश के श्र मे--धर्मेर सदशों नास्ति बन्धुरन्यो महीदले |

६--देतु के श्रर् में--केनदेदना श्रन्न वरतति ! ७-- हीन के साथ-विद्यया हिं विद्वीनस्प कि दया जीवितेन ते। कंचन । ८--विना के साथ--भ्रमेण दि बिना विद्या लम्यते मे ६-ब्ल के साय-अलं महीपाल तब अमेग । १०- प्रयोजन के श्र में“पनेनकि मो नेददाति मारतेते। ११--लक्षण बोष में-जथ्यमिलापसोध्ये प्रतीयते |

१६-फ़्लप्रापि मैं--पश्चमिर्वपैन्ययिमधीतम्‌॥। पं्रमिर्दिनेः सेनीरीगौ जञाठः।

! »१३--विकृत अद्न मैं-मानवश्चछुपा काणः कर्शेत बधिरश सः। पादैन सप्नः दृदोप्सौ दुब्जा एट्टेन म्थरा

कारक-म्रकरण

श्र

चतर्थी--१--सप्रदान मे--राजा ब्राह्मणाय धन ददाति। २--निमित्त के श्रर्थ में--धन सुसाय, विद्या छ्वानाय भवति | ३--झूचि के अर्थ मे-शिशवे क्रीटनक रोचते । ४--धघास्य्‌ ( ऋणी होना ) के अर्थ मे -स मह्य शत घास्यति | 9--स्पृह के साथ--अह यशतसे स्थृहयामि |

६--नम.-, स्वस्ति के साथ--गुरवे नम., हपाय स्वस्ति भवतु । ७--समय अ्थवाली घाठुओं के छाथ--ग्रभवति मल्‍्लो मल्‍्लाय | ८--कल्प्‌ ( होना ) के साथ--शान सुखाय केह्पते | ६--ठ॒म्‌ के अर्थ में--ब्राह्मणः स्नानाय ( स्नातु ) याति |

१०--ऋघ श्रथवाली घाठुओं के साथ--गुरः शिष्याय कुष्यति [ साय--मूखः पश्डिताय दुह्मयति । ११--हुहर अयंवाली धाठुओ्नों के २-अ्ूय ( निन्‍द्रा )श्रथवाली धातुश्नों केसाथ--दुजनः सज्ननाव असूयति |

पदश्चमी--१--ध्थक्‌ अर्थ मैं--बृद्धात्‌ फ्लानि पतन्ति | स आमाद्‌ आगब्छति। २--भय के श्र मैं--असजनात्‌ कस्य भय न जायते १ ३--ग्रहण करने के अ्रय में--कूपात्‌ जल ण्डाति ४--पूर्वादि के योग मैं--स्नानात्‌ पूर्व न खादेत्‌, न घावेत्‌ मोजनाव्‌ परम । है ५--अन्यार्थ के योग मैं--ईश्वरादन्यः कः रक्षितु समथः ! ६--उल्कर्ष बाघ मैं--जननी जन्ममूमिश्र स्वर्गादपि गरीयती । ७--विना, ऋते के योग में--परिभामाद्‌ विना (ऋते) विद्या नमबति | ८--आरात्‌ ( दूर यासमीप ) के योग म--ग्रामाद्‌ आरात्‌ सुन्दर मुपवनम |

६--प्रभृति के योग मैं---शैशवात्रभृति सोइतीय चतुरः । १०--आइ के साथ--आमूलात्‌ रहस्यमिद श्रोतुमिच्छामि। ११--विरामाथक शब्दों केसाथ--न नवः भ्रमुराफलोदयात्‌ स्थिरकर्मा विरराम कमणः। १२--काल की अवधि मे--विवाह्मत्‌ नवमे दिने । १३--मारग की दूरी प्रदर्शन में--वासणस्याः पश्चाशत्‌ क्रोशा.। १४--जायते आदि के श्रथ में--बीजेम्पः अडकुरा जायन्ते | १५--उद्धवति, प्रभयति, निलीयते, प्रतियच्छुति दोतिके के साथ--हिमालयात्‌ गद्ा प्रभगति, उद्गच्छति वा | हपात्‌ चोर निलीबते॥ तिलेम्य माषान्‌ प्रतियच्छुति ।

१६---जुगुप्सते, प्रमायति के साथ--स्पागत्‌ जुगुप्सते,। त्म॑ धर्मात्‌ प्रमायसि ]

श्ध्रे

वृहदू-अमुदाद-चन्द्रिका १७--निवारण श्रथ में--मित्रं पापात्‌ निवास्यति | १८--जिससे कोई विद्या ठीखोी जाय उसमें--दछात्रोव्थ्यापकात्‌ अधीते |

पट्ठी--१--सम्बन्ध मे--मू्खश्यबहवो दोपाः, सता च बहबों गुगा:। २--हझृछल्त कर्ता में--शिशोः शगनम, पलस्य पतनम्‌

३--कझदन्व कम मै-अ्रन्नस्व॑ पाक), घनस्य दानम्‌ | ४-स्मरणाथक घाठुयों के साथ--स मातुः स्मर्रत । ५--दूर एवं समोप बाची शब्दों केसाथ--नगरस्य दूर, (नगराद वा

दूरम ) समीपत्र सफाराम्‌ वा | ६--छते, मध्वे, समद्धम्‌, अ्रम्तरे, अम्तः के साथ--पठनस्थ कते, आचाय॑स्व समक्षम्‌, वालाना मध्ये, ग़हस्य थ्रन्तरे अन्तः दा । ७--श्रतस्‌ प्रत्यय बाले शब्दों के साथ--नगरत्य दक्तिणत:,

उत्तरतः झ्रादि | ४ ८--अनादर मैं--ददतः शिशोः माता यवौ ।

६--हेतु शब्द के प्रयोग मैं--अ्रन्नस्प देतोब॑ठति । १०--निर्धारण में--कवीना (कविषु वा ) कालिदासः श्रेष्ठ: सप्तमी--१--अ्रधिकरण में--गद्धे तिप्ठति वालः | श्रातने थोमते गुरुः | २--मभाव मैं-यत्ने कृते यदि न सिद्धयति कोड्तर दोप: !

३-श्रनादर मैं--ददति शिशौ ( रुदतः शिशीः वा ) गता माता । ४--निर्धारण मैं--जीवेपु मानवाः श्रेष्ठ, मानवेषु न परिडिताः |

५--एछ क्रिया के पश्चात्‌ दूसरी क्रिया होने १९-ययों उदिते कमल॑

पअकाशते । ६--विप्रय के ( बारे में) श्रर्य मेंतथा समय बोधक शब्दों में--मोक्षे इच्दाप्त्ति । दिने, प्रातः काले, मध्याद्के, सायंकाले या कार्य करोति |

७--अलमग्नार्थक शब्दों और चठुयर्थक शब्दों केसाथ--कार्य लग्ब$, तत्परः । शास्त्रे निपुणः, प्रवीण: दक्तः श्रादि |

समासअकरण कारक प्रकरण मे विभत्तियों का प्रयोग बताया गया है, पर पभी-क्मी शब्दों को विभक्तियों कोहठ कर वें छोटे कर दिये जाते हैं या दो से अधिक विभक्तिरहित शब्द मिला दिये जाते हैं। इस एफ साथ जोडने को ही समास कहते हैं। समास शब्द का अर्थ है 'सक्तेष' या 'घटाना' अर्थात्‌ दो या अधिक शब्दों की इस प्रकार मिला देना कि उनके आकार में कुछ कमी भी हो जाय और अर्थ चूरा पूरा निकल जाय, यथा--नराणा पति* >नरपति, ।

यहाँ 'नरपति' का वही अर्थ हैजो 'नराणा पति का है, परन्तु दोनों शब्दों को मिला देने से 'नराशाम' शब्द के विमक्तिन्यूचक ग्रत्यय ( थ्राणाम्‌ ) का लोप हो गया और “नरपति शब्द 'नराणा पति से छोटा हो गया |

जय समास वाले शब्द को तोड़कर उसको पूर्वकाल का रूप दिया जाता है

सत्र उसके विग्नह का अर्थ है 'ुकडे-दुऊड़े' करना, यथा--समापति का तिम्रह हई--समाया पति. |

समास के लिए. सस्कृत वैयाकरणों ने नियम बना दिये हैं |ऐसा नहीं कि जिस

शब्द को चाहा उसे दूसरे शब्द के साथ मिला दिया। समास के छः मेद#-१--अव्यपीमाव, ४--द्विसु ( तत्पुरुष का भेद ), २--वल्युरुप, ५--बहुब्ीहि, और ३--कमधारय ( तल्युदध फा भेद), ६-दनन्‍्द । अशध्ययीमाव सम्रास में समास का प्रथम शब्द प्रायः प्रधान रहता है, तत्पुरुष समास मै प्राव; दूसरा शब्द ग्रधान रहता है, इन्द्र उमास में प्रायः दोनों ही समस्त

शब्द प्रधान रहते हैं. और बहुब्रीहि समास मे दोनों द्वी समस्त शब्द श्रप्रधान रहते

हैंऔर एक तीसरा ही शब्द प्रधान रहता है, जिरुफे दोनों समस्त शब्द मिलकर विशेषण होते हैं|

अव्ययीभाव समास अव्ययीभाव समास में पहला शब्द अ्रव्यय (उपछर्ग या निपात ) रहता है ओर दूसरा शब्द रुज्, दोनों मिलाकर अव्यय द्वा जाते हैँ | श्रव्ययीभाव उमा बाले शब्द के रूप नहीं चलते | अव्ययीमाव समास वाले शब्द का नपुंसकलिडे शरुमास के छः भेदों के नाोग--

द्व्न्द्दोद्वियुरपिचाह मदूगेहे नित्यमव्ययीमावः |

तत्पुदथ कर्मघारय येनाईं सवा बहुमीहिः॥।

१4३॥

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

केएकबचन में जैसा रूप रहता है ( अव्ययीमावश्र (राथःद। ) इस समास मेंबा पूर्व पदार्थ प्रधान रूता है,यथा-यथाकामम्‌८कामम्‌ अनतिकम्य इति (जितनी इच्छा हो उतना) ।

अव्यं॑ विभक्तिसभीपसमृद्धिव्यद्धधथीभावात्ययासम्पतिशब्दप्रादुर्भवषश्वाद्यथाउज्नुपूव्ययोगपद्यसाटश्यसम्पत्तिसाकल्यान्तवबनेपु 0६॥ ६ अच्ययीभाव समास मे श्रव्यय प्रायः इन श्रथों में शाते हैं---

(१) विभक्ति ( सप्तमी ) श्र्थ में--अरधिह॒रि ( हरी इति-हुरि के विधय में )। (२) समीप श्रर् मैं--उपगद्नम्‌ (गज्ञायाः समीपम-गज्ञा के पास ) | इसी प्रकार उपयमुमम्‌ , उपकृष्णम्‌ श्रादि। (३ ) समृद्धि के श्र्थ में--सुमद्रम्‌ ( मद्राणां समृद्धिः--मद्रास की समृद्धि )।

(४) व्यूद्ि (दरिद्रता, नाश ) के श्रर्थ में--हुयंबनम्‌ ( यदनानां ब्युद्धिः (४) अभाव

-यबनों का भाश )।

पश्रर्थ मैं--निर्मक्षिकम्‌ (मत्तिकाशामसावः--मक्खियों से चिमुक्ति )६

इसी प्रकार निःन्द्वम्‌ , निर्दिकम्‌ , निर्जनम्‌ , आदि | (६) श्रत्यय (नाश ) श्र मैं-अतिहिमम्‌ ( हिमस्यात्ययः-जाड़े कौ समाति पर )।

(७) असम्प्रति (श्रतुचित ) श्र्य में--अतिनिद्रम्‌ ( निद्रा सम्प्रति न युप्यते--

निद्रा के श्रनुपयुक्त समय में )। (८) शब्द-पादुर्भाव ( प्रकाश ) द्र्थ में--इति हरि ( हरिशब्दस्थ प्रकाश+-ड्रिधर )। विष्णीः के पश्चांत्‌-(६६ ))पश्चात्‌पश्चात्‌अर्थ में--अनुश्यम्‌ बुस्यम्र , , अनुदरि, अनुहरि, अ्रनुविषुपु अ्रनुविष ु (विपा। पीछे )|

(१० ) यथा के भाव (योग्यता) श्र्थ मैं--अ्रतुरूपम्‌ (रुपस्थ योग्यम--उ चित) (वीप्सा ) श्रथ में प्रतिग्राममर म्रामं ग्राम प्रति (प्रत्येक आम में ) ( श्रनतिकम ) अर्ध मे--यथाशक्ति (शक्तिमनतिकरम्प--शक्स्यनुसार ) (११) झआात॒पूव्य (क्रम ) क्षर्थ में--अनुज्येठम्‌ (ब्येप्रस्थानुपूर्त्यंश--ज्ये/ ५

के अनुसार )

(१३ ) ौगपय ( एक साथ होना ) श्र्थ में>सचक्रमू (चक्रेश सुगपतू-: चक्र के साय ही ) (१३ ) साटश्य ध्र्थ में सहरि (हरे: साइरयम्‌--हरि के सद्दश )॥ (१४) सम्पत्ति के श्र्थ मैं-सत्त्रम्‌ ( चत्राणा सम्पत्ति--क्त्रिय ) ] बोग्यतानुतार यो श्राप्त हे वह 'स्मोत्तेहैश्रोर जे देवताकेश्रताद से प्राप्त हो वह सम्रद्धि या ऋद्धि हे | ]

अयोग्यताबी प्यापदार्भानतिशत्तितध्श्यानि यारा: ६ सिंद्धान्तकोमुचाम )।

समाछ-प्रकरण

६५

( २६.) साकल्य सहित श्न्यंमे--उठ्णम ( तृशमपि अपरित्यज्य--सब झंडे ) ( १६ )अस्त विक) के अर मे--खाग्नि (अग्निपन्यपयन्तम--अभिकाएड पर्यन्त) [ छल के अश्रतिरिक्त अर्थ में अव्यवीमाव रुमात से हद कि स्थान में स हो जाता है, कालवाचक शब्द के राय समास में सह ड्टी रइता

है, यया-सह पूर्वाइप ] ५

है

8

( १७ ) बहिः ( बाहर ) श्र में--बहिवनम्‌ ( बनात्‌ बहिः--याँव से बाहर ) (१८) यावदवघारणे । ११८ ५

नर

यावत्‌ के साय अवधारण अ्रय मे भी अव्ययीमाव रामाठ होता है, यथा--

यावच्छेलोफम्‌ , श्र्थात्‌ “बावन्तः छोछाल्वावन्तोड्च्युतप्रणामा:” । (१६ ) आड,सयोदाभिविष्योः १ ४१३। ०0५०७.

मर्यादा और अभिविधि के अर्थ मेंआड़केसाथ विकल्य से अव्ययीमाव समास

होता है और समास न करने पर पदश्चमी विभक्ति होतीहै, यया--आमक्ते: ईति (मुक्ति पर्यन्त )| आमुक्तेई, आमुक्ति वासखारः । इसी भाँति आवालेम्यई, भ्रावातम्‌ वा दरिमिक्तिः |आसमुद्रम्‌ ।

(२० )बत्तणेनाभिप्रती आमिमुख्ये ।९११४।

हि

श्ाभिमुस्ययोतक “अ्र्ि? तथा प्रति! चिह्ववाची पद के साथ अव्ययीभाव समास

होता है, यथा--अ्रप्रिममि इति अम्यप्रि, अग्नि प्रति इति प्रत्यमि। श्रभ्यप्रि प्रत्यम्ि शलमाः पतन्ति (अ्रम्मि कीओर पठगे गिरते हें । )

(२१) अलुर्यत्समया ।३१॥१५

जिस वस्तु से क्रिसोी की समीत्तरा दिखायी जाती है, उस॥2200402%8 लक्षणमूतत 8क्ले

साय सुमीपता सूचक “अनु? अव्ययीभाव बनाता है, यथा--अनुवनमशनिर्गतः ( बनत्य समीप गतः )।

(२२ ) पारे मध्ये पएचा वा २ ॥१ण पार श्रौर मध्य पछयन्द पद्‌ के खाथ अव्ययीमाव रुमास तथा विकह्य से पष्ठीतस्पुदय मी होता है, यधा-गज्जायाः पारम्‌, गज्ञापारम्‌ , अथवा गद्भापारम्‌ |इसी वरह मध्येगज्ञम्‌, अयवा गज्ञामध्यम्‌ ( गड्ा कै बीच )। अन्ययी भाव समास के प्रिशेष ज्ञान के लिए निम्नलिखित नियमों पर ध्यान

देना चाहिए--

(१) हस्तरो नपुंसके ग्रातिपादिस्स्थ ।शसधछ दूपरेसमस्त शब्दका अन्तिम अक्षर दीर्ष रहे तो वह हस्त कर दिया जयता

है। यदि इन्त में ०, ऐ? हो तो उसके स्थान में 'इ! और 'ओ, श्र” हो तो उसके ध्यान में 'उ' हो जाता है,यथा--

उप +गज्ञा ( गक्नायाः समीपे ) ८ उपगज्ञण्‌ । उप+वध्‌

(वध्या: समीपे )> उपयघ ।

समास-झय्रकस्स

रह

अप्रायेण उत्तरपदार्थप्रधानस्तत्पुरुपःए | डदाहरण-राज; पुदपः 5 राजपुदय-पेढाँ राद्म शब्द पुदप शब्द का यायः विशेषय दे। इसी प्रकार कृष्ण: रुप; #कुंप्णसपए,

यहाँ

कृष्ण!

शब्द

सप!

शब्द का

“ विशेषण है। तत्युरुप शब्द के दो अर्थ हैं--तस्य पुरुष) गुखकमलम्‌ | धृरुषः व्याधः हव 5पुरुपव्यात्ः | इनका विग्रह इस प्रकार भीहोगा-मुखमेव कमलम्‌>मुखक्रमलम्‌। पुरुषः एव व्याप्त पुरुष-

व्याप्रः |पहले को उपमित सुमार कहते हैं और दूसरे को रूपक समा | विशेषणोभयपद्‌ कमंधारय है

दो समानाधिकरण विशेषणों के रुमास को 'विशेषशञेभयपद केमघारया! समा

कहते हैं,यथा-कृष्णश्र श्वेतश्व ८ कृष्णश्वेतः ( कुककुरः ) । इी तरद दो कप्रत्ययान्त शब्द जो दोनों वस्वुतः विशेषय होते हैं,इसी माँति समांस बनाते हैं,यथा--स्नावश्र श्रनुलिप्तश्व रू स्‍्नातानुलितः |

दो विशेषणों में छेएक दूसरे का प्रविवादी मो हो सकता है, यथ--चरस्थ

श्रचरक्ष 5 चराचरम्‌ (जगत्‌ ), कृवश्च अकृनश्र ८ कृताकृतम्‌ ( करे दविंगु समास

संख्यापूर्वों हिगुएश१३२ यदि कर्मंघारय समास में प्रथम शब्द संस्यादाची हो श्रौर दूसर शब्द संग्डा तो उसे द्विगु समास कहते हैं । द्विगु समास में (१) यातों उसके श्रनन्तर काई प्रत्यय लगता है या ( २)बह किसी ओर शब्द के साथ समास्ष में श्राता , यथा-(१) पप्‌+ मातृ ८ पएमाद + ञ्र॒( तद्धित प्रत्मयय ) पाण्मातुरः ( परण्णा मातृणाम्‌श्रपत्यं पुमान्‌ ) |



(२) पश्चगावः धर्न यस्य सः>पंगगवधनः | यहाँ 'पश्चगब! में छ्विंगु समा न होता यदि वह घन शब्द के साथ फिर समास मे न श्राया होता ।

द्विगुरेकबचनम्‌ ।२॥४)१। स नपुंसकम्‌ 220१७ किसी समाहार ( समूह ) का थोतक भी द्विगु समास द्वोता है और वह सदा नपुंसकलिज्न एकवचन मेंरहता है,यथा--

हे

चनुर्णो युगाना समाहाद;#चतुयुगम। बयाणा भ्ुवनानां उम्राह्मरः 5 त्रिधुवनम्‌ । पदश्चाना गया समाद्ारः €पंत्रगवम।

पश्चाना पाच्राणा समाद्ार: 5 पश्चपात्रम्‌ इत्यादि | अकारान्तोत्तरपद्दो द्विगु/खियामिष्ट | पात्राथन्तस्य न। वा? । बट, लोक, मृल इत्यादि श्रकारान्त शब्दों के खाय [समादार द्विगु मैं रुमस्त पद ईकारान्द ख्रीलिक् होता दै, किन्तु पात्र, |मुवन, सुग में श्रन्त होने बाले. द्विगु समास नहीं होते, यधा--

श्रयाणा लौकाना[समादारः + भिलोकी | पश्चाना मूलाना समाहारः पद्मूली |

पश्चानां वढाना समादार ;पश्नवर्ट ।

( पश्मपात्रम , विमुवनम , चतुयुगम [ )

सरुमास-पग्रकरय

र्०ण्डे



आवन्तो वा ।वा०।

जब समाद्दार द्विगु काउचरपद

पप्

आफारान्त हो ठव समस्त पद

विक

से

स्रीलिज्ञ होता है, यथा--पदञ्माना ख्बाना समाहारः >पश्चलदवी, पद्जदवम्‌ अन्य दत्पुरुप समास

ये तत्पुरुष समा तो हैंहो, किन्त इनमें अपनी विशेषता भी है। नम्र्‌ तत्पुरुप समास थदि तत्पुरुष में प्रथम शब्द “नो रहे और दूसरा स्ज्चा या विशेषण दो वह

सज्‌ तलयुरुयसमास कहलाता है। यह “न! ब्यजन के पूर्व 'अ! में और स्वर के पूर्व “ग्रन! में बदल जाता हैं, यया-न द्वाह्मण;>अब्राह्मगः (जो ब्राझण न हो )।

ने मे

सत्ममुल्‍्थस्त्म। अश्वःल्अनश्वः (जो घोड़ा न हो )।

ने

इतम्‌च>अइतम्‌ ।

न आग रूअनागतम्‌ | प्रादि वत्पुरुप समास वदि तत्पुरुप मैं प्रथम शब्द प्र आदि उपसों में से छोई हो, वो वह प्रादि सत्पुरुष समास कइलाता है, यया-प्रगतः ( श्रत्यन्त विद्वान्‌ )आचायेः « प्राचाय: । प्रगतः ( बडे )पितामहः < प्ररितामई: ( परदादा )

अतिह्मन्तः मर्यादम्‌-अ्रतिमर्वादः ( जिसने सीमा पार कर दा हो ) प्रतिगतः ( सामने आया हुआ ) अच्षम्‌ ( इच्द्रियम ) तप्रलच्ः । अद्गतः ( ऊपर उठा हुआ ) वेलाम ( किनाय ) र उछ्ेलः । अतिक्रान्तः रथम-झ्रतिस्थः ( वहुद दलशार्लः योदा )। अवक्ुड कोकिलया-्अ्रवकोहिलः ( छोकिला से उच्चारित-रुग्घ )

निर्गतः गहायत्‌निर्णह+ (घर से निकाला हुआ ) | प्रिम्लानोड्ष्ययनायत्यय ध्ययनः ( पढ़ने से यक्य हुआ )। गतित॒त्पुर्प समास हुछ इत्मत्ययान्त शब्दों केसाथ दुछ विशेष शब्दों (ऊरो आदि ) दा जा समास होता है उसे गरतितत्पुद्य उमास ऋहते हैं । ऊर्यादिच्विडाचश् |शश३९। ऊरी आदि निशव क्रिया के योग में गति कहलाते हैं, अत एवं यह सम्ास अति समाठ कहा जाता है| व्वि तथा डाच्‌प्रत्ययान्त शब्द मी गति कह्दे जाते हें,

र्ण्ढ

बृहद-अनुवाद-चन्द्रिका

यथा--ऊरी कृत्वा-ऊरी इत्य| नीलीकृत्य( नोला करके ),शुक्लीमूय (सफेद होकर ), स्वीकृत्यं, पठ्पथाकृत्य ।

भूषणेब्लम्‌ १४६४। भूषणाथवाची अलगकोभी गति संश होती है, यथा-अल॑ ( भूषितं )कृत्या>अलंकृत्य (सजाकर )॥

आदरानादरयोः सदसती

१।४।६१ श्रादर एवं अनादर श्र में सत्‌ तथा

असम गति संशक हैं,यथा--सत्कृत्य (आदर करके ), असछृत्य | अन्तरपरिग्रहे ।२४।६५४| परिग्रह से भिन्न ( मध्य ) अर्थ में श्रस्तर! भी गति सशक है, यथा-श्रम्तहत्य ( मध्ये हत्वा )। अ्परियदे किम्‌--अन्तईस्वा गतः ( हत॑ परिणक्ष गतः )। राक्षाग््रभूतीनि च [ (४७४ साज्ञात्‌ श्रादि भी क धातु के साथ विकल्स से गति कहलाते हैं,यथा--साह्ात्ृत्य ग्रथवा साक्षात्‌ कंत्वा | पुरोष्य्ययम्‌

१४६७] पुरः नित्य गति सशक है, श्रतः 'पुरस्कृत्य! सम्झ्त

शब्द बनेगा। अस्त व ।१॥४६८। अस्तम्‌ मान्‍्त अब्यय हे और गति संत्क है, अतः समत््त शब्द “अस्तंगत्य” होता है।

िरोष्न्त्धी १।४॥७१ 'तिर: शब्द श्रन्तर्धान के श्रथ मैं नित्म गति संशक होता है, अतः समस्त शब्द 'तिरोभूय! होता है।

विभाषा कृति ।१/४७६। तिरः कू के साथ विकल्प से गति संशक है, अ्रतः विरूकृत्य, विरः कृत्य, तिरः कृत्वा रूप बनते ई। अ्नत्याधान उरसिमनसी ॥१।४।७४/ श्रत्यापान ( उपश्लेषण ) मिन्न उरस और मनस्‌ कीगति संशा होती है, श्रतः उरबिकृत्य, उरविकृला | मनसिद्ृत्य,

मनसिद्ृत्वा रूप बनते हू । उपपद तत्पुरुष समास

तत्नोपपद॑ सप्तमीस्थम्‌ ।३।१६२। यदि वत्पुरध का कोई शब्द ऐसी संशा या

श्रव्यय हो जिसके श्रमाव में द्वितीय शब्द का वह रूप मद्दी रह सकता जो उसका है तो बह उपपद तत्पुरष समास फहलाता दै। द्वितीय शब्द का रूप कृदन्त का होना

घादिए ने कि किया का |प्रथम शब्द को उपपद कदते हैं, जिंकषसें इस समास का ऐसा नाम पढ़ा, यधा--कुम्म॑ फरोतिं इति ८ कुम्मकारः । कुम्म और कार दो शब्द इसमें हैं;कुम्म उपाद है। कारः किया का रूप महीं कृइन्त का है। यदि पूर्व,मेउपपद ( कुम्म ) न हो तो कार नहीं रह सकता यह

कुम्म या किसी श्रन्य उपपद के साथ ही रह सता है, यथा--स्वर कारः, चर्म-

कारः | इसी तरह घन ददाति इति घनदः | यहाँ उपपद (घन ) फे रहने फे ही फारय 'द/ शब्द ई, 'द/ का प्रयोग श्रकेले नहीं हो सकठ | इसी प्रकार--कम्वल डइदातिं इति फम्बलदः |साम गायति इति सामगः, गा दुदाति इति गादः 4

समास प्रकरण

र्ण्प

त्वा च ।शर।२२। तृतीयान्त उपपद त्वा के साथ विकल्प से समास होते हैं, ययथा--एकघामूय, उच्चैः इत्य । समास न होने पर उच्चैः ऋत्वा होता है।

सध्यमपदलोपी तत्युरुप समास शाकप्रियः पॉर्यिबः 5 शाकपार्थिव , देवपूजकः ब्राह्मण. -देवब्राह्मणः।

इन

शब्दों में प्रिय” तथा 'पूजक! शब्दों का लोप हो गया है, इसी से इस समाउ को अध्यमदद लोपी ठत्पुरुष समास ऋकदते हें । *

सयूरू्यंसकादि वत्पुर्ष समास

ऐसे तत्पुरुष समार्सो को जिनमें प्रत्यक्ष नियमों काउल्लपन किया गया है, मबूर व्यकासकादि तत्पुछण समास कहा गया हे, यथा--व्यसकः मयूर: -- मयूर व्यस्क़ः ( चतुर मोर )। यहाँ व्यसक शब्द पहले आना चाहिए था और मज्ूर बाद में। अन्यो राज ८ राजान्तरम्‌ । अन्यो ग्रामः आमान्तरम्‌ । उदकू च अवाऊ्‌ चेति उनायचम्‌ | निश्चित च॒ प्रचित चेति > निश्चप्रचम्‌ | राजान्तरम्‌ ,चिदेव नित्य समास हें, क्योंकि इनका अपने पदों से विग्नरह नहीं होता। इसी प्रकार जिनका विग्रह होता ही नहीं वे मी नित्य समास हैं, यथा-जीमूतम्पेप्र | अलुक तत्पुरुपसमास रुमास में प्राय. प्रथम शब्द की विभक्ति कालोप दो जावा है, यथा--राजः

पुदुप. > राजपुरुषः, रिन्त कुछ ऐसे समास हैं. जिनमें विभक्ति के प्रत्यय का लोप जद द्वाता, वे अछ्लुक्‌समासछइलाते है। अलुझ्‌समास में केवल ऐसे ही उदाहरण हैं जा चाहित्य में अन्यऊारों के प्नन्थों में मिलते है, इसमें नवीन शब्दों का निर्माण नहीं जया जा सऊता। कुछ उदाहरण थे हं-जजुपान्धः ( जन्मान्ध ), मनसा गुता ( किसी स्त्री का नाम ), आत्मने पदम्‌ ) परस्मेपदम्‌ , दूरादागत., देवना प्रियः ( मूर्ख ), पश्यवो हरः ( चोर ), अन्तेबासी

( शिप्प ), बुधिछ्टि, सेचरः (सिद्ध, देव, पक्ती आकाश में चलने बाला ), सरदितम्‌ (कमल ) इत्यादि । डे

वहुच्रीदि समास अनेकमन्यपदा्ें ।राशर8

जब दोनों या दो से अधिक समी समस्त शब्द किसी अन्य शब्द के विशेषण हारर रहते हैं तब उसे बहुत्रोहि समाठ कहते हैं। बहुब्रीहि

का श्रर्य है-बहुबोढिः ( घान्यम्‌ ) यत्य अत्ति सः बहुबीहि ( जिसके पास बहुत घान्य हों) यहाँ

अपर शब्द ( बह) दूसरे शब्द (ब्रोदि)का विशेषण हे और दोनों ही शब्द किस तीसरे शब्द के विशेषण हो गये |अतएव इसका नाम “बहुब्ीहि! पड़ा ।

२०६

बृहदू-अ्ुवाद-चम्द्रिका

तत्पुरष और बहुब्ीहि में मेद--ठख्पुरुष में प्रथम शब्द दूसरे शब्द का विशेषण होता है, यथा--पीतम्‌ अ्रम्बरम्‌८पीताम्बरम्‌ ( पीला वस्र )--कर्मघारय समास |

बहुब्रौहि से दोनों शब्द मिलकर किसी तीसरे शब्द के विशेषण होते हैं, यथा--

पीतास्वर:--पीतम अम्वरम्‌यस्प सः ( जिसका पीला वस्ध हो अर्थात्‌ भीकृष्ण

)।

अन्यपदायंप्रधानो बहुब्रीहि; ( बहुब्रीढि समास में समास के दोनों शब्दों में से

किसो में प्रधानत्व नहीं रहता, दोनों मिलकर किसी तीसरे का प्रधानत्वथ सूचित करते हैं,यथा--पीताम्वर में वहुब्रीहि समात के दो भेद--

(क ) समानाधिकरण बहुब्ीहि,

(सर) व्यधिकरण बहुब्रीहि, (के ) समानाधिकरण बहुब्रीहि बह हे जिसके दोनों या सभी शब्दों का समान अ्रधिकरण हो, थ्रथांत्‌ वे प्रथमान्त हों, यथा-पीतास्व( । (स )व्यधिकरण घह्ुबीहि बह है जिसके दोनों शब्द प्रथमान्त न हों,हैक

प्रथमान्त दो, और दूसरा पष्ठी या सतमी से हों, यथा--

चक्रग्रणिः--चक्र पणौ यस्य सः ( ड़िषुुः ) चन्द्रशेखरः--चन्द्र शेखरे यर्य सः ( शिवः )

वहुग्रीहि समारु के विप्नह करने के लिए यह आवश्यक है कि उसके विप्रह में

“यत्‌” का प्रयोग हो | 'यत्‌! से द्वीज्ञात (होता है किसमस्त शब्दों का क्रिसी अन्य शब्द से सम्बन्ध है । व्यधिकरण वहुब्ीहि फे दोनों शब्द प्रथमा विभक्ति में नहीं रहते, एक ही

प्रथमा में रहता है श्रौर दूसरा पछ्ठी या सत्तमी में ।

येथा- चक्रपाणि:--चक्रॉपाणौ यत्य सः। चबन्द्रशेवरः--चरस्द्रःशेखरे यस्य सः | चन्द्रकान्ति:--चन्द्वस्य कान्तिः इव कान्तिः यस्य सः | समानाधिकरण बहुब्रीहिं फे ६ मेद ईं-द्वितीया उम्रानाधिकरण वशुझीहि.. प्ममी समानाधिकरुए बडुओीहि तृतीया समानाधिकरण बहुओ्रीदि चतुर्थी समानाधिकरण बहुमीदि.

« पप्ठी समानाधिक्रण बहुओीदि सम्तमी समानाधिकरण बहुब्रीदि

ह्वितीया समानाधिकरण बहुब्नीद्वि--श्रास्ढ३ घानरः ये सः > आल्दवानरः जिक्च) ) प्राप्तम्‌ उदक॑ ये सः « प्रस्तोदकः ( ग्राम: )

तृवीया समा० बहु०-द्॑ बिच येन सः-दतचित्त: ( शिष्पः )। जितानि इन्दियायि येन सःर जितेन्द्रियः ( पुदप: )॥ उठः रथ; येन सा रे ऊदरय+ (६अनदवान्‌ ) ऐसा बैल जिसने रथ सींचा हो। चतुर्थी समा० वहु०--दत्तम्‌ धनम्‌ यस्‍्मै उः८ दत्तपनः ( जाद्मणः ), उपद्वतः पशुः यस्मे उः - उपड्तपण॒ः ( रबर; )।

समास-प्रकरण

२०७

पद्चमी समा० चहु०--निर्गंत बल यस्मात्‌ सः निर्गतयलः ( पुरुषः ) । उत्घृतम्‌ ओदनम्‌ वस्थाः सा 5 उद्घूतौदना ( स्थाली )॥ निर्गत धन यस्मात्‌ सः निधनः ( पुरुषः )

पष्ठी समा० बहु०--लम्बौ ऊणों यस्य सः ८ लम्मऊुणः ( गधंबः ) |

सप्तमी समा० बहु०--बीरा पुरुषाः यस्मिन्‌ सः ८ वीरपुरुषः ( ग्रामः ) |

नजोस्त्यथीनां वाच्यो वा चोत्तरप्ल्ोपः। वा०। वाच्यो या चोत्तरपदलोप+ । बा० ।

प्रादिभ्यों घातुजस्य

नज्‌अथवा कोई उपसर्ग सज्ञा के साथ रहे तो इस प्रकार बहुब्रीहि समास

होता है--अ्रविद्यमानः पुत्र; यस्य सः # श्रपुत), श्रविद्यमानपुत्रों वा ।

बिजीवितः, विगतजीवितो वा ।॥

उत्कन्धर;, उद्गतकन्धरों वा । न

प्रपतितपणः प्रपणः।

चेन सह्देहि ठुल्ययोंगे 8३॥२८)

सह तथा तृतीयान्त सज्ञा केसाथ बहुब्रीद्दि समास होता है, यथा--राधिकया सह इति - सराधिरः ( कऋष्णः ), ससीतः ( रामः ) |

बहुत्रीहि समास के लिए निम्नलिखित नियमों पर ध्यान देना चाहिए-( क )आपोषन्यतरस्याम्‌ (७४१०

यदि अन्तिम शब्द आफारान्त हो और कप्‌बाद में हो तो इच्छानुसार श्राकार को अ्कार कर सकते हैं,यथा--पुष्पमालाक:, पुष्पमालकः, ( कप्‌केअभाव में ) पुष्ममाल+ |

( ख ) शेपाद्विभापा पाठ पडा

यदि बहुब्नीहि समास के अन्तिम शब्द में श्रन्य नियमों केअनुसार कोई विकार न हुआ हो तो उसमें इच्छानुसार कप्‌(क ) जोड़ दिया जाता है, यथा-महत्‌ यशः यस्य स+-महायशस्कः, महायशाशः वा |

उदात्त मनः यस्य सः-उदात्तमनस्कः, उदात्तमनाः वा । अपवाद-झ्याप्रपात्‌ ( व्याप्रस्थ इय पादौ यस्य सः ) यहाँ व्याप्रपास्कः नहीं

दुआ, कारए--समास के अन्तिम शब्द 'पाद' को दूसरे नियम से 'पाद! हो गया आर इस तरह अन्तिम शब्द में विकार हो गया।

( ग) उरस्‌,सर्पिप्‌इत्यादि शब्दों के अन्त में आने पर अवश्य ही कप्‌प्रत्यय लगता है, यथा--

प्रिय सर्पिः यस्य रः प्रियसर्पिष्कः ( जिसे घी प्रिय हो )॥ ब्यूढ़ उरो यस्व सः व्यूटोरस्फः ( चौड़ी छाती वाला )। (घ ) इनः छियाम्‌ ५४ १५२।

यदि समास के श्रन्त में इच्नन्त शब्द आवे श्रौर सम॒त्त शब्द स्त्री लिड्र बनाना

हो तो अवश्य ह्वी कप्‌प्रत्यय लगता है, यथा--

बहवः दस्डिनः यस्या सा; बहुदण्डिका ( नगरी

)।

र्ण्८

दृदृदू-अनुबाद-वन्द्रिका

परखु यदि इँहिलक्न बनाना ही तो कपू इच्छा पर निर्मेर रहता है, यथा-बहुदरिकों ग्राम, बहुदरडी आमों वा ।

(ढ) ब्वियाः पुंवद्भापितपुंस्कादनूछझ समादाधिकरणे जियामपूरणीग्रियादिषु । ६॥३१४॥

समानाधिकरण बहुब्रीहि में यदि अपथम शब्द पल्लिज्ञ शब्द ( सुरदर-मुन्दरी,

झूपयदू-रूपवती ) हो किन्तु उकारान्त न हो और दूसरा शब्द खत्री लिड्र हो तो शब्द का थ्रादि रूप (पुल्लिज्न ) रखा जाता है, यया--रूपवती भायां यस्ये शः ख्पवद्धाय! ।

इस उदाहरण में प्रथम शब्द रूपवती था ओर दूसरा भायों, प्रथम शब्द रूपवद्‌ (एुँ० )था और ऊऊारान्त नहीं या ईकारान्त था, श्रतः प्रथम शब्द पुं९ में हो गया । चित्रा) गावः यस्‍्य सः चित्रगु) ( न कि चित्रागुः

)।

किन्हु भंगा भार्या यस्‍्य स+ भगाभाय; ( गंगभावः नहीं )

क्योंकि गंगा शब्द किती एुल्लिंग काली लिंग रूप नहीं है । वामौरू: भारया यस्य सः यामौरूमायं3, क्‍योंकि थहाँ पर प्रथम शब्द ऊकांराना है,आंकारान्त या ईकारान्त नहीं । यदि प्रथम शब्द किसी का माम हो, पूरणी संख्या हो, उसमें श्रज्ञ का नाम

आता हो और वह ईफारान्त हो, जाति का नाम दो आदि या यदि द्वितीय शब्द प्रियादि गश में पढ़ित या क्रम संख्या दी तो पूरषपद पुछिलग में नहीं होता, यथा-दत्ताभाग;(जिसकी दत्ता नाम की खली दै। ) पश़्मीभाय: ( जिसकी पॉँचवां जो है )

मुकेशीमायः ( सुकेशी भार्या यस्य सः ) शुद्रामार्यः ( शूद्धा मर्या यस्य सः )

कल्याणीम्रियः ( कल्याणी प्रिया यत्थ राह ) कल्याणीपश्चमाः ( कल्याणीपश्वमी याख ताः ) (च )यदि बहुब्ीदि समास का श्रन्तिस शब्द ऋषारान्व (किसी भी लिक्न

का ) ही, अथवा स््री लिझ्न फा ईक्रारान्व या ऊकाराख हो तो कपप्त्यय निश्चय रूप से लगता है, यथा-ईश्वर: कता यस्य स| इंश्वर कतृकः (संसार: ) । मुशीला मांवा यस्य सः मुशीलमाहऊः अन्न॑ धातु यत्य सः अनधातृकः मुन्दरी वधूः यस्प सः मुन्दरदधूकाः रूपदती रदी यस्य सः रूपवल्कोक:

(बालः ) | ( मरः )। ( घुछपः ) | (नर) |

समास-यक्रण

र्ग्६

इन्द्र समास

चार्ये इन्द्र ।रार२१ चि यदि दो या दो से अधिक सशाएँ_ च! शब्द से जोड़ दी जायें तो वह दन्दसमासत्त कहलाता है। “उमग्रपदायप्रधानोइन्द.” इन्द्र समास में दोनों ही सज्ञाएँ प्रधान रहती हैं श्रयया उनके समूह का श्रघानल रहता है | दन्द्॒समास ३ घकार का है-१--इतरेतर इन्द, २३--समाहार इन्द, और ३- एकशेप इन्द्र । १--इतरेतर इन्द्र इतरेतर इन्द्रसमास में दोनों सज्ञाएँ अपना व्यक्तित्व श्रथवा प्रधामत्व रपती हैं, यथा-रामश्र लक्ष्मणथ लक्षमणमरताः

रामलक्ष्मणो । रामश्र लच्मयश्र भरतश्र रूराम-

| रामगब् लक्ष्मणश्र मरतश्व शत्ुप्नश्न रूरामलक्ष्मणमरतशलन्ुन्ना3 ॥

जब दो शब्द हों तो द्विवचन में और दो से अधिऊ शब्द हों दो बडुवचन मे

समत्त शब्द होगा ।

आनइऋतो इन्दे ।दाशरणा ऋकारान्त ( विद्या सम्बन्ध या योनि रुम्बन्ध के घाचक ) पद या पदों के राय इन्द्रसमास में अन्तिम पद के पूर्व स्थित ऋकारान्त पद के ऋ के स्थान में आ दो जाता है, यया--

मावा च पिता च ८ मातापउितरी । होता च पोता चेति - होतागतारौ । होता च पीता च उद्गाता च ८ होतूप्रोतोद्गातारः ।

पखबल्निद्' इन्द्रतत्पुरुपयो+ ।राशरघा

इन्द समास में अन्तिम पद के अनुसार ही समस्त समास का लिक्ञ होता है, यथा-हुक्‍्हुट्श् सयूरीच 5 कुबकुटमयूयों ] मयूरीच झुस्कुटअ ८ मयूरीडुछुदी २--समाद्वार इन्द्र यदि द्वल्द समास में व” से चुड़ी ऐसी सशाएँ आयें जो प्रधानतवा एक

समाहार ( समूह )का बोध कंगवें तोउसे समाहार इन्द्र कहते हैं । यह समास दा नपुसक के एक बचन में रखा जाता है,-यथा-आहारश्र निद्रा च भवचन्आइारनिद्रामपम

प्रायोच पादौ चर>पाणियदम । अदिश्व भकुलश्व ८अहिनकुलम्‌ ।

+२१०

बृहदू-अमुबाद-चन्द्रिका

प्राणियों में खाना, पीता, सौना, भय ये जीवों के खाए लक्षण हैं। इसी प्रकार - हाथ और पैर के अतिरिक्त प्रधानतया अंगमात्र का शत होता है। साप और नेपले का,भी जन्म वैर बोध होता है।

इन्हग्व माणितूर्यसेनांगानामू २0३ प्रायः इन्द्र कसम द्वोता दे यदि (क) मनुष्य अयवा पशु के शरीर के अग के वाचक हों, यथा-पाणी च प्रादी च5पाणिपादर (ह्वाथ पैर )।

(ख) गानेदजाने वाले अंगों केदाचक हों यथा--

मार्दक्षिकाश पाणविकाश्र 5 मार्द्बिकपाणविकस्‌ ( सृदंग कर पर्व

बजाने बाले ) (ग) सेना फे अंग के वाचक हों, यया+-«

अरवारोहमश्र पदातयश्व > अश्ारोहपदाति ( घुढ़ उवार श्रौर पैदत )।

जातिरप्राणिताम्‌ श8६। यदि समस्तशब्द ब्रचेतन पदार्य के वाचक हो यथागोधूमश्र बणकश्व > गोधूसचणकम्‌ , धानाराष्कुलि:

विशिष्टलिक्ने नदीदेशोध्यामाः ((९/ण यदि समस्त शब्द नदियों के भिन्नलिज्ञ वाले नाम *हों, यपा-गगां वे

शोशश्र ८ गगाशोणम्‌ ( किन्ह गद्नायम्रने होगा क्योंकि भिन्नलिद्न के नहीं हैं ।) देशों के मिचत्िज्ञ वाले माम हों, यथा--कुरबश्र कुरेन॑ व +कुस्कुरतेत्रम्‌ । बदि दोनों प्राम के नाम न हों तो ससाहार इन्द्र नहीं होगा, यथा--

जाम्बब॑ (नगर ) शालूकिनों (आम )रू जाम्बवतीशालूकिन्यो ।

दोनों नगद के तास हों ती ससाहार दत्द ही हीता हैं,बथा-अधुरा चल पायलिपुत्र॑ च 5 मथुरापाटलिपुत्रम्‌

सुद्रजन्तवः राष्टाघ येपां च विरोधः शाश्वत्िकः ॥४६॥ (# ) कुद्र जीवों के नाम में समास होता है, यया-यूका च लिछा च >यूकालिक्षम (जए. औरलीस )। (से) जन्मपैरी जीयों के नाम के साथ समास होता है, यथा-स्पेन नकुलश्व ८सपनकुलम।

मूपकश् 3203:0क मोजरिश #मृपकमार्जाप्म व:|

विभाषा

ले

2श8रा ब्यज्ञनपशुशकुन्यश्रवडवपूवापरापयेत्तराणामू

(बृक्तादो विशषाणामंब मद्णम्‌ । इूछ, घूग, ठृण, धान्‍्य, व्यक्षन, पशु, शक्ति ( दूत से दज्ञ विशेष ) बाचक

शब्दों केसमाठ तथा अ्रश्दडये, पूरापरे, तथा श्रघरोत्तरे मास भी विक्म से समाद्वार इन्द्र होवे ईै,बधा-5

समासन्म्फकरण

शुकवकम ,शुकतकाः।

कतन्यप्रोधम्‌ , लत्षन्यपोघाः |

गोमहिपम्‌ , गोमहिपाः ।

रूख्पृपतम्‌ , रुरुप्रपता: |

अश्ववडवम्‌ , अश्ववडवी । पूर्वापरम्‌ , पूर्वापरे | अधरोत्तरमू, अ्रधरोत्तरे !

कुशकाशम्‌ , कुशकाशा. । ब्रीहियवम्‌ ,अ्रीह्षियवाः | दधिघ्रृतम्‌ , दथिघृते ।

३--एकरेप इन्द्र

जय दो या दो से अधिक शब्दों में से इन्द्र समास में केवल एक शेष रह जाय तब वह एकशेप इन्द्र कहलाता है, यथा-माता च पिता चपितरौ। खब्ूश्र अ्शुरश्र + खशुरी ।

सरूपाशामेकशप एकविभक्ती ।!२६४। विरूपाणामपि समानार्थानाम।बा०। एक शेष में केवल समान रूपबाले शब्द ( जैसे देवश्र देवअ देवों )अथवा समान श्रर्थ रखने वाले विरूप शब्द भी आ सकते है। समस्त शब्दों कावचन

सम्रास के अड्भमूत शब्दों के सस्यानुसार होगा ! जब समास में पुल्लिक्ञ और खतरीलिड्ड दोनों शब्द मिले हों तत्र समास न५ुसकलिड्ड में होगा, यथा-अजश्व अजा च 5 अजौ, चटरौ ।

( यरूप ) ब्राह्मयी च आाद्यसश्र +ब्राह्मणौ, शूद्री च शद्वश्व ८ शद्धी घब्श्न कलशश्र ८ घटो या कलशौ । बक्रदश्डश्व कुटिलदण्डश्र ८ वक्रदरडौ या कुटिलदण्डो ।

इन्द्र समास मे ध्यान देने योग्य नियम-( के ) इन्दों थि।शर॥३२। इन्द्र मेंइफारान्‍्त शब्द को पहले रपना चाहिए, यथा-हरिश्व हरश्र ८

हरिहरौ । अनेकप्राप्तावेकत्र नियमोइनियमः शेपे ।बाण जय अनेक इकारान्त शब्द हों तय एक को प्रथप रसना चाहिए! शेप को चाहे जहाँ रखा जाय, यथा--हरिश्र हर्श्र गुरु ८ हरिहरगुरुवः, हरिगुरुदराः | ( ख ) अजायदन्तम्‌ ।२२।३३।

स्वर से आरम्म होने वाले और “अर”? में अन्त होने वाले शब्द पहले आने चाहिएँ, यथा-इंश्वरश्व प्रकृतिश् ८ ईश्वरप्रकृती | इन्द्श्न श्रग्निश्व ८ इन्द्राग्नी |

(गे) अल्पाचूतरम्‌ ।शराइछ जिस शब्द में कम अक्षर हों वह पहले आना चाहिए, यथा--शिवश्व केशवश्व

> शिवकेशवौ ( केशवशिवो नहीं, क्योंकि शिव में कम अक्षर है। )

र्श्र

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

( ध ) वंशानामानुपृत्यण।

भातुज्यायसः |वा०।

बरणों के तथा भाइयों के नाम ज्येप्क्रमातुसार आने चाहिएँ, यया--त्रादशश्र

ऋतियश्व -प्राक्षणक्षत्रियों (ज्लतिय आक्षणो नहीं )। रामश्व लक्मशश्र ूरामस्तक्ष्मणौ । युधिष्टिरभीमौ । (लक्ष्मणरामौ, मीमयुधिष्टिरौ नहीं ) | समासान्त नीचे लिखे स्थानों पर समात होने के बाद श्रन्त में कीई प्रत्यय ( टच ,श्र

अवश्य लगता है। बहुब्रीहि या इन्द्र के समातान्त प्रत्ययों के लिए. नियम पहले दिये जा झुके हैं राज़ाह। सखिम्यप्च ५४६१ जब पंत्ुष के अन्त में राजन, अहन्‌थासल्लि शब्द श्राते हैं तब इनमें समासान्‍्त टच (श्र )जुड़ कर राज, अह, खख हो जाता है, यथा-मद्दान्‌ चासौ राजा सकयात्रः | पूर्वरात्रेः पूर्वरातः | सस्यावरात, पुण्यरानः । नवाना राजीणा समाहारः नवरानम्‌ । द्विराजम्‌ । अतिकान्तो रात्रिमतिरात्रः ।

संख्यापृव राज क्रीयम्‌ बाग सरयापूर्व रातन्त समास याले शब्द नपुसक लिंग होते हैं, यथा--द्विरानम्‌ नवरात्रम्‌ निरानम्‌ आदि |

अह्ोडह एतेम्यः ।५७४८५॥

उपयुक्त सब” आदि के साथ समास होने पर 'अहन! का '“्रह्मः हो जाता है । तदन्तर अह्ो5दुन्तात्‌। |८।४|७) के अनुसार अकारान्त पृवपद के रकार के बाद “अह के “न! को 'ण होता है, यया--सर्वाहः, पूर्वाहः, मध्याह, सायाहः, हृथहः

अपराह्ृ, सल्याताहः । फिन्दु सस्यावाचक शब्द के साथ समाददार श्रथ में समास होने पर 'अहन! का

“अर! नहीं होता, यथा-सप्तानाम्‌ अह्या समाहारः सत्तादः |इसो तरह एकाह", दुव्यह, ब्यहः आदि ।

अवनो5श्मायः सरसां जातिसंज्ञयोः !५।४॥६४)

समास्युक्त पदक़ा जाति या रुज्षा अर्थ होने पर अनस ,अश्मन्‌ , श्रयस और सरस्‌ उत्तर पदवाले समस्त पदों मे-ट्च धत्यय जुड जाता है, यथा-( जाति अथ में )उपानसम्‌ , अ्रम्रवाश्मः, कालायठम्‌ ,मण्ड्ूकसरसम्‌ |

( सशा अथ में )महानसम्‌ ( रसोई ), पिएडाश्मः, लोहितायसम्‌ ,जलसरसम्‌ | रात्राह्माह्म: पुसि ।॥४२६। पुण्यसुद्निम्यामहः क्ोवतेट्टा।बाण अछ और अहः समासान्त पु्षिज् होते हैं, किन पुण्य और झुदिन पू्वपदवाले तथा अहः अन्तवाले रुमास नहीं ।

नित्यमसिच्‌ प्रजामधयोः 09)१२० नज्‌ ,दु। और सु के साथ प्रजा एव मेधा का बहुब्रीहि समास होने पर अखिच्‌ प्रत्यय लगता है, यथा--अग्रजा,, दुष्प्रजाड, सुप्रजाः। अमेघा३, दुमेंघा३, सुमेधाः ।

इनके रूप इस प्रकार चलते हँ--अग्रजा;, अमजणी, अग्रजसः आदि, क्योकि ये सब ध्य्स्‌? में अन्त होते हैं|

श्श्ः

बहदू-अनुवाद-चम्द्रिका

घर्मादनिच्‌ केवलात ।५४।१२७ धर्म के प्रूब॑यदि फेवल एक पद हो तो बहुओीहि समास में धर्म के दाद डामिच! जुड़ता है,यथा--कल्यारधर्मा ( धन)!

असंभ्या जातुनोद+ ५४१२६ प्र और सम्‌केसाथ वहुओदि समात होने पर “जाजु' का हु हो जाता है, यथा--प्रशुः ( प्गते जानुनी यस्व सः ), उंशुः ।

अर्ध्वाद्विभाषा ।७४४१३०

उध्व के साथ विकल्ल से शु होता है,यथा--ऊच्बहुघ, उध्वजानुः । भ्रनुपश्च ५४१३२ वा संज्ञायामू ।५३१३१३! भनुप्‌मेंअन्त होनेवाले बहुम्रीहि उमास में श्रन॑ श्रादेशहोता है,यंथा--

चुष्पघ/्वा ( पुष्प धनुयंस्य सः ), इसी तरह शाप्नघन्वा ।

परत्द॒ समस्त पद के नामवाच्ी द्वोने पर विकल्प से श्रनइ होगा, बधा--

शतधन्था, शतघनुः ।

गग्बस्ोदुत्पूतिसुसुरभिभ्यः ।५४ १३५ उत्‌ , पूति, मु, तथा मुरमिपूर्वयद वाले तथा 'गरप! शब्दान्त बहुओहि सम्रासत में इफ़ार लड़ जाता है,यथा--उद्गस्पिः ( उद्‌गतः गन्पः गस्य सः ), इसी तरह--

मुगरिध,, पूर्तिगर्धिः, सुरभिगरिविः ।

दाद्स्य लोपो5हस्त्यादिम्यः ५४१३८ अहुब्रीहि तमास में हस्ति श्रादि शब्दों को छोड़कर यदि कोई उपमान शब्द

पूर्वमें हैऔर वाद में 'पाद शब्द दी तो पाद के श्रन्तिम वर्ण धर! का लोप हो जाता है,यथा-व्यामपात्‌ ( व्याप्रस्प इब पादो यस्‍्य रे ) |हस्त श्रादि पूर्व पद होने पर इृष्तिपाद।, कुतलरशढः थ्रादि ।

कुम्भपदीपु च ।॥2१३६। पादः पतू (४7२० कुम्मपदी आदि खोलिज्ञ शब्दों में मी पाद के श्राकार का सोप होजाता दै श्र पांद क्री पत्‌ होकर डीए शुड़ताहै, यया-डुग्भपदी, एकपदी ।खोलिम्न न

होने पर कुम्मपादा बनेगा । तायाया निद १४३४। ज्ञायान्त भहुब्ीहि में निशश्रादेश दो जाता है, वया--युवयानिः ( गुदती जाया यस्य सः ) | इसो 5४022 महीजानि; ( राजा )।

चतुरस्ा० [५४७७ अपलुएनिमदरबनते हैं--नक्तन्दिवम्‌, रात्रिदिवम , श्र्॒र्टिवम , निःभेयसम्‌, पुरुषायुप्र , ऋग्यजुपम्‌ ।हमारे

न पूजनावू शहृए।

फिनससेपे ।॥|/७०

नमस्त्पुरुपाव्‌ ।बाषण)

पूजा, निन्‍्दा श्रर्थ में एवं समरमाठ में कोई समातास्त नहीं हांगा, यया+-

मराजा, अ्रराजा, किराजा, अद्सा

समास-प्रकरण

र्श्५

अबव्ययीभावे शरत्‌प्रश्वतिम्य ५४१०७ अव्ययीमाव में (१) शरद्‌ आदि से ठच्‌ (अर) होता है-“उपशरदम्‌ ( शरदः समीपम्‌ ), प्रतिविषाशम्‌ , ( २) ( प्रतिपरसमनुम्यो5कुणः ) प्रति, पर, सम ओर अनु के बाद अक्ति को अक्ष होता हे-्रत्यक्तम्‌ , परोक्षम्‌, समज्षम। (३) (अनश्र) अनन्त को ट्च्‌(अ) और अन्‌ का लोप होता है---उपराजम्‌ , अध्यात्मम्‌ |

संस्कृत मे अनुवाद करो+-१--द्वेबप्रयाग के पास मागीरथी और अलकनन्दा का सगम है । ३--माता पिता पुत्र को सदुपदेश देते हैं। ३--अशोऊ फा राज्य समुद्र तक पैला हुआ था । ४--धार्मिक पुरुष मरते-मरते भी धर्म को रक्षा ऊरते हें ।४-ससार मे सचचे मार्ग पर चलने वाला मनुष्य साधु कहलाता है । ६--महात्मा पुरुष सुख से युक्त जीवन को नहीं चाहते |७--व्याध के तोर से विधा हुआ मोर मर गया | ८--जो तुम्हारे

घर अतिथि आया दे उसको साना खिलाओ | ६--तूने मूतों केलिए; बलियाँ क्यों

नहीं रखीं ! १०--हम्हारे जैसा मनुष्य तीनों लाऊों म नहीं

भक्ति मनुष्य के जीवन को सफ्ल बना देती

है। ११--ईशवर को

है। २--क्षण-क्षण जोवन का काल

घटता जाता है। १३--महाराज विऋमादित्य का राज्य हिमालय तक विस्तृत था।

१४--ससार के माता पिता पावंती और परमेश्वर हैं। १४--मैंने पिता जी के

“ कमल समान चरणों को नमस्कार क्या | १६--उस युवती का पति बहुत बूढ़ा है, लड़ी के सहारे चलता है। १७--उस नगरी में बहुत से दण्डी रहते है और यहाँ एक विशाल शिव मन्दिर है। १८--डसको स्त्री सवंगुणसम्पन्न और रूपवाली भी है। १६--उस राज़ कुमार के विवाह में सैकड़ों घुड़सवार पैदल और मृदग तथा पणव बजाने वाले भी थे।२०--अ्रम्मि की तरफ पतगे गिरते हैं।

हिन्दी में अनुवाद करो तथा रेखांकित मेसमास वताओ और विग्रह करो-*-आपनार्तिप्रशमनफ्ला, सम्ददा ह्यत्तमानाम्‌ |

२-अम्यथनाभगभयेन साधुर्माध्यस्थ्यमीष्टे उप्यवलम्बतेवर्तते, वरतेते, बठ॑न्ते श्रादि। उभयपदी-#-६ १० ) करोवि, कुद्त:, कुवेन्ति आदि। (श्रा०) कुब्ते, कुबति, कुबते श्रादि ।

प्रत्येक लकार के तोन पुरुप होते हं--( १) प्रयम पुरुष, (२) मध्यम पुरुष, और (३ ) उत्तम पुरुष । प्रत्येक पुरुष के तन बचनह्वोते €ं--एक वचन, द्विबचन तथा बहुबचन | इस प्रकार प्रत्येक्ष लकार के नो रूप हो जाते हैं।

सकर्मक, अकरमंफ और द्विकर्मक क्रियाएँ “लजञा-सत्ता-त्पिति-जागरणं वृद्धिनक्षय-मय्न्‍्जीवितन्मरणम्‌! नत्तम-निद्रा-रौदन-बाराः_ स्पर्धा-कम्पन-मोदन-दासाः । शयन॑-क्रीडा-बचि-दीफ्यर्या: धावत एले कर्मणि नोकाः॥! ये घावुएँ च्रकर्मक ६। इनके श्रतिरिक्त विडि, शुद्धि, नाश, बुष्टि श्रादि तथा

स्निद धातु स्नेह करने के श्रर्थ में! रुदा अकमक है। विपूर्वक रस घातु भी प्रायःश्रकर्मकहोती है, यथा--श्रददं ववय्ि र्निद्यामि ( मैंतम से प्रेम करता हँ)। रामः फरिमिप्नप्ति म॒ विश्द्िति ( राम किसी पर मी विश्वास नहीं करता )।

श्प्‌

क्रिया-पकरण

र१७

दुदू, याचू आदि १६ ऐसी घात॒एँ हैं, जिनके दो कम होते हैं,यथा--स भाणवक

व्याकरण शास्ति (वह माणवक को व्याकरण पढ़ाता है )। यहाँ पर

शास्ति क्रिया के दो कम हैं--( १) व्याकस्य और ( २ ) माणवक । व्याकरण इस है

षृ

.]

का मुख्य कम है और साणवक गौण कम | प्रायः निर्जीव वस्ठ मुख्य कम शोर सजीव गौण कम होती है| द्विकमंक घात॒ुओं का सविस्तर वर्णन कर्मकारक प्रकरण में दिया जा चुका है| गण

भ्वाद्यदादी जुद्दोत्यादिदिवादिः स्वादिरेव च | वुदादिश्व

रुघादिश्न॒

तनक्रभादिचुरादयः ||

३१--म्बादि । ६--ठदादि । २--अदादि | ७--रूघादि । ३-जजुद्दोध्यादि । ८-पैनादि। ४--दिवादि | ६--ऋषादि । प--स्वादि | १०--चुरादि | काल--रस्कृत भाषा में काल बध्रथवा शृत्तियाँ दस हैं,यथा--

(१) वर्तमान काल--लद्‌ ,यथा--सः पठति, अं पठामि (२) भूतकाल--( श्रासन भूत काल ) लुढः ,सः पुस्तकम्‌ अपाठीतू । (३ ) भूतकाल (परोक्षमृत )लिए ,छिन्नमूलस्तरुः पपात | (४ ) भूतकाल्न (अनयतन मूत ) लड्‌ ,स एवमत्रवीतू । (५) भविष्य (सामान्य ) लुद्‌,अद्य पिता प्रयाग॑ं गमिष्यति ।

(६) भविष्य (श्रनचतन ) छुट्‌,श्वः परिडितनेहरुः लक्ष्मणपुरीमागन्ता । (७) लोद्‌ ( श्राश्ञायक ) मह्मम्‌ जलमानय ।

(८ ) लिड (विधिलिड)वर्जयेत्‌ ताइशं मित्र॑ विपकुम्भ पयोमुखम्‌। ( ६ ) लिड (आशीलिंड)पुत्रस्ते सुचिरं जीव्यातू। (१० ) लुढ(क्रियातिपत्ति ) देवश्वद्‌ वर्षिष्यति घान्य॑ वष्स्याम, |

इस कारिका में लग आदि दस लकरों के अतिरिक्त लेटभीहै। लेद का प्रयोग केवल वैदिक भाधा में होता है अतः लौकिक सस्कृत में लेद का बन अनावश्यक है ।

अनिद्‌ और सेट्‌धातुएँ सस्कृत में धातुएँ दो प्रकार की हैं--( १) सेट शर दूसरी अनिद ।सेट घातुएँ वे हैं, जिनके बीच में इट्‌ (इ) लगता है, यथा--( गम ) गम्‌+इद

अलट वतमाने लेटवेदेभूते लुड लडलिटस्तया | विध्याशिपोस्तु लिश लोगो छुटलूटलूदच मविष्यतः ॥

श्श्द

बूहदू-अ्रनुवाद-चर्द्रिका

(६ )+स्पति >गमिष्यति, (मू) भविष्यति, (त) तरिष्यति, ( जाग )जागरिप्यत्ति, (चिन्‍्त्‌ )चिन्तयिष्यति इत्यादि |

अनिट घादुएं वे है, जिनके बीकमें इट्‌ (इ) नहीं लगता, यथा-न दा ) दास्यति, ( दि ) छेत्स्पति, ( जि ) जेष्यति इत्यादि ।

अनिद्‌(इट्‌केबिना ) पातुएँ एकाच्‌ अजन्त धातुओं मैं-ऊदन्त ( म्‌, लूआदि ), ऋदल्व (कू, तु श्रादि ), सु, र, चणु; शीद, सतु, नु, छ्ु, रिव, डीट, भरि, गृढ़ और श्रम को छोड़कर शेष धातुएँ श्रनिट हैं। हलन्त घातुओं में-शबलू-पच-मुच्‌-रिचू-वच्‌-विच्‌-सिचू-प्रच्छि-त्यजू-निजिर-भजू ॥ भश-भुज-भ्रस्न-मस्जि-पज-युज्‌-इ ज-रञ-विजि २-स्व ज्ञि-सज्ष-स ज्‌|

अदू-छुद-खिदु-दिदू-ठुदु-नुदू-पद्य-मिद्‌-विद्‌ (वियति ), विनदू, रादू-सद्‌-ल्विदू-स्कर्दू-दृद-रुधू-छुपू-बुधू ,

बन्घू-युध-रुप-राप-व्यप-शुध्‌-साध-सिध, मन-हद-श्रापू-क्षिपू-छुप्‌-तप्‌-विप्‌-तृपू प्‌

लिप्‌-छुपू-वप्‌-शप्‌-स्वपू-सुप-यमू-रमू-लम्‌-गम-नम्‌-रम-यम्‌ , क्ुश-दश्-दिश-दश-भृशु-रिश-दशू-लिश-विश-स्पृथ्‌

कृप-त्विप-तुप-द्विप 'हुप-पुष्य-पिश-विप्‌-शिप्‌-शिप्‌-शुप्‌-श्लिप्य, धस्तू-चसति-दह-दिह-दुह-मिह-नह-रुद-लिद और वह । ये १०२ (इल॑ंन्‍्त )घावुएं अनिद ईं | ( उपयुंक्त घातुओं की गणना में कान्त, चान्त, जान्‍्द आदि क्रम रा

गया दे। )

वर्तमान काल-लदू लकार-“प्रारूघो5अपरिसमाप्तच कालः वर्तमान! काला? निरन्तर होती हुईं--वर्तमान काल की क्रिया लद्‌ लकार द्वारा बतायी जाती

है; “वह खेलवा है--खेल रहा है, पढ़ता हे-पढ़ रहा है” आदि का अ्रत॒वाद “क्रीड़ति, पठति” आदि से किया ऊाता है। छुछ श्रष्यापक एवं छात्र “कह रहा हैकौर खेल रद्य है” का श्रनुवाद “प्रमापमाणोटत्ति तथा क्रीडन्नस्ति” से करते

है । रेत अगुवाई ध्याकएए के फिफ्ें के. त्पद दे १

(क ) जिस यबर्तु का जो स्वभाव हो, जो कि रुदा सत्य है, उस आथ को बत: लाने के लिए लद॒ लकार का अयोग दोता हे, यपा-चिरं पवतात्विप्न्ति, मदथ प्रवहन्ति | सत्यवादिनः अविशा वितर्था न हि बुचेन्ति |

क्रिया-पअकरण

र्श्द

(खत) वत्तमानसामीप्ये बत्त मानवद्ठा ।शश१३९

उच्तमान काछ्न के समीए में स्थित मविष्यत्‌ शरीरभूत काल का बोध कराने के

लिए अर्थात्‌ जो क्रिया रीही समाप्त होगी या अमी समासत हो गयी है, उसके लिए लग का पयोग होता है--

(१) हा गोपाल ग्रमिष्यसि ! एप स्च्छामि। ( गोपाल ) कब जाओगे हैँ अमो जाता

हूँ।)

* (३)क्दा5४] आगन्‍्तोइसि ! अयमागच्छामि | (गोपाल कब आये

हो ! अभी आ रहा हैं। ( भ) किसी प्रश्न का उत्तर देने के लिए मूत फाल के अर्थ में लूकाप्रयोग रंग,न अकापोंः किम १ नशु करोमि भोः। क्या तुसने चदाई बनाई ! हाँ, बना'

||

(घ) पुनः पुनः का बोध कराने के लिए भी लट्‌लकार का प्रयोग होता है,

कान अत्यहहेगत्वा शस्य॑ खादूति ( हरिन नित्य वहाँ जाकर अनाज की धेखाया करता या

)।

सोअपि अभ्ुधर्मेण स्वेम्यस्तान्‌ विभ्य भ्रयच्छुति ( यह भी अपने स्वामिषम्म को निभावा हुआ उसे सब जानवरों में बॉँट देता था )।

लदसम (॥२।११८ अपरोत्ते च।शरा१श (४ ) लटलकार के साथ सम! ( श्रव्यय )जोड देने पर भूवकाल का श्रर्थ निकलता है,यथा--कर्स्मिश्रिदेशे धरम्मंबुद्धिः पापजुद्धिश्व दे मित्रे रतिवसतः सम | विशेष--स्प! का लग लकार के लगाना हीशावश्यक यावय में कहीं पर भो आ सकता है, का 32220. (२ ) इुनोति निगन्धवया सम चेतः । (२) लर्म पेत्थमहाराज, यत्‌स्माहन विमीपणः )

यावत्पुरा निपातयोलंद !शशछ।

(च 2 ( पहले ) शब्द के साथ छुडटकोछोड़कर मूतकाल के श्रथ में

23 4; लकार का भ्योग होता हे, परन्तु स्म युक्त पुरा शब्द के साय नहीं हा् बा (अवात्सुः वा ) युशच्छात्राः (पहले यहाँ विद्यार्यी

(छ ) यावत्, तावत्‌केयोग मे (तद्, के अर्थ मेंलद लकार का प्रयोग कगारहक जहर पक भोडि) अदिलेद

हेके

आगच्छामि तावदपेत्स्व (ऊब्र तक मैं चापस आऊँ,

(२) आर्य माधन्य, अवल/म्बस्व चित्फलक यावदागच्छामि (आय आर्य म्राधव्य,

झ्नरे

आने दक इस चित्र झलक कोपकड़ो )।

री

;

३२०

बृहदू-अठुवाद-चर्द्धिका

(३ ) यावत्‌ स त्वा पश्यति तावद दूरमपसर ( यहाँ से भाग जाद्ो, ताकि बह त॒ग्दें देख न ले )।

(ज ) निश्चिन्तता के श्रथ में यावत्‌! और (पुरा! इन दो अब्ययों के योग मैं

भविष्यत्‌ काल में ल्‌का प्रयोग होता है, यथा-(१ ) पुरा सप्तद्वीपा जयति वसुधाम्‌ अप्रतिरथः (बह अ्रतुपम बोर सप्तद्वीए पृथ्यी को अवश्य ही जीत लेगा )। (२) यावत्‌ यते त्वदम््‌ ( मेंबया शक्ति तुम्हारे काय को पूरा करने का प्रयत्न करूँगा )]

(३ ) यावदस्य दुरात्मनः कुम्मीनछीपुत्रस्थ समुन्मूलनाय शजुघ्न॑ प्रेपयामि ( मैं इस कुंग्भीनसी के पुत्र केविनाश के लिए शब्रुच्न को भेजूँगा )।

लिप्स्यमान सिद्धी च ।श३ण श्रन्नादि देकर स्वग की प्राप्ति कीइच्छा रखने पर तथा 'ऐसा करने ५२ ऐसा

होगा! ऐसी शत बोध कराने केलिए भविष्यत्‌ के श्रथ मे विकल्प से लंद लकार होता है, यथा--यो5ब्न॑ ददाति ( दास्यति, दाता वा) स स्वर्ग याति ( यास्यति याता वा ) जो अन्नदान करेगा वह स्वर्ग जायगा |

देवश्भेद बपति (वर्षिप्यति वा ) तह धान्यं वपासः ( वष्स्यामः वा ) विभाषा कदा कामों ३१५। कदा और कई शब्दों के योग में मविष्यत्‌ के श्रथ में विकल्प से लद लकार होता है, यथा--कदा कई वा मुदक्ते, भोद्यते, भोक्ता वा (कब खायगा ! )

लोडर्थलच्णे

च।३३।

भविष्यत्‌ के श्रर्थ में लोद के श्र्थ अदण करने पर भी लद लकार का प्रयोग होता है, यथा-ऋष्णरचेद्‌ भुद्दले (भोक्यते, मोक्ता दा ) त्व॑ गाश्रारथ ( यदि कृष्ण खाना खाद तो तुम गाशों को चराओ )। (२ ) आाचायरवेत्‌ ,श्रागच्छ॒ति ( श्रागमिष्यति, आागस्ता था) लव वेदान्‌

आ्रधीश्व )॥ कि पृत्त लिप्सायाम ३३६ प्रश्न सूचक मत्रिष्यत्‌ अर्थ में बिकल्म से लब लकार का प्रयोग शोता है, यथा--अश्रस्मासु क॑ ( कतरं,

कतमं वा ) भोजयसि ( भोजमिष्यसि,

था ) ( हम में से किसको खिलाओंगे ! )

भोजप्रितासि

इन उदाइरणों को ध्यान से पदो-(१) थ्ालोके ते निपतवि पुरा ( यह श्रमी तग्हारे सामने आपेगी ) | (२ ) प्रकृतिः खछ सा महीयसः सइते नान्यसमुन्नर्ति थया ( तेजस्वी पुद्पों

का यह स्वभाव है कि वे दूसरों फी उन्नति नहीं सह सकते )।

जिया प्रकरण

श्र!

(३ )केसराग्र मूपिरः कश्नित्‌ प्त्यद छिनसि ( कोई चूहा उस शेर के दाल नित्य कुंवर जाता है )। “व लिसवार

(४ )विध्न्त॒ मवन्तोज्जैव यावदह प्रभोराज्ञा रहीत्वागच्छामि

आय माय कर जय तक न आऊँ तय तक आप यहीं ठहरिए )।

( मैं स्वामी कौ का

(५) न हि प्रतीछते मृत्यु. कझृतमस्य न वा ह्र्तम्‌ ( मौत यह नहीं देखती कि इसने क्या कर लिया है और क्या करना है ) भूतकाल ( लड़, लिए और लुड_) मूत हाल की क्रिया को ग्रकद करने के लिए सस्कृत में लद, लिएऔरबुद्दू सफकारों का प्रयोग होता है, अर्थात्‌ “था, हुआ यथा, रहा था, किया था”? के लिए। यथा--स पपाठ ( उसने पढ़ा ), त्वम्‌ अपठः (तूने पठा ),अहम अगमय (मैं गया ), अनेनैव पया वय बाराणसोम्‌ अगच्छाम ( अगमाम वा )( हम इसी रास्ते से बनारस गये थे ),श्री कृष्ण: कस जवान (अहन्‌ अबघोत्‌ , इन्ति सम वा )

( श्री कृष्ण ने कस को मारा )

यदि मूत काल सूचक वाक्य में अयय (आज ) का प्रयोग हो तो छुद लकार

का ही प्रयोग होता है, यया--ब्रद्य यमो राजा अ्रमूत्‌ (आज राम राजा डुशा )।

मृत काल सूचक वाक्य में यदि हः ( कल वीता हुआ ) का प्रयोग हो तो

लद्काप्रयोग होता हे ( लिए औरछुट््‌कानहीं ),यथा--हाः दृष्टिएमयत्‌

(कल चर्षा हुई थी )। परोक्ष भूतकाल में ( इन्द्रिय सेअगोचर हाने पर )लिट का श्रयोग होता है, इिन्तु उचम पुरुष मे लिए नहीं होता, यया--नारद उबाच (नारद हिन्दु अह वन जगाम, ( मैं जगल गया ) यह प्रयोग ठी नहीं है। सनि बोले),

अनयतने लडः ॥३३॥१५। जा कोय आज से पडले हुआ हो, उसके बाघ कराने के लिए लद लकार का प्रयोग

होता है, यथा--देवदत्तो होव्रम्‌ अत्रवीत्‌(देवदत्त ने ऐसा स चैकदा पानीव पातु यमुनाकच्दधम्‌ अगच्छव्‌ ( एक दिन वह पानी कहा था )। पीने यपुना के किनारे गया )।आसीद्‌ राजा नलो नाम ( नल नामक एक के लिए. राजा हुआ )। अपरयद्‌ देवदेवस्प शर्ररे पाएडवस्तदा ( तय अर्जुन ने भगवान्‌ के शरीर सम देखा )॥ अश्ने चासन्न काले शिरा ११७ प्रनयोषक वाक्य में लुड लकार मिन्त आउन्न मूतड़ाल के बोध कराने के जिए परोक्ष मे (इन्द्रिव से अमोचर ने पर 2 लड और लिटका ग्रवाग संता है, यया--अमा यद किम ! बमापे किम !जगाम किम !

किन्द॒ विप्रदृष्ठ भूत काल में (जो देर से बीत चुका ), उसके बोध कराने के लिए. लड का श्रयोग नहीं होता, उसमें लिट का ही ग्रयोग होता है, यथा--कख

जवान किम !

ररर

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

मास्म--मास्म” के योग मैं लड और लुद्का प्रयोग होता है तया मास्मँ के प्रयोग होने पर श्रागम के ग्रकार का लोप हो जाता है, यथा--मास्म करोत्‌ ( नहीं करना चाहिए ), मात्म मवः ( मत होथो ) | वाक्य के मध्य में स्थित ह? और “शश्वत' के रहने पर 'लड॒! और लि! लकार का प्रयोग द्वोता है, यया--इति होवाच याशबवह्क्यः (याजवल्क्य ने ऐसा कहा ) | कलश पूर्णमादाय प्ृष्ठतो5नु जगाम हू [ पानी से मरे हुए कलश को लेकर बह ( मुनि के )पीछे चली गयी ]। शश्वत्‌ श्रकरोत्‌ (चकार वा )

लिटू लकार का प्रयोग (के ) जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है कि परोक्ष भूत ( इन्द्रिय से अग्रोचर ) द्वोति पर लिदू लकार होता है, यया-( ! ) शैलाधिराजतनया म ययौ न तस्थौ ( पावंती न झ्लोगे जासकी न ठहर

ही सकी )।

(२ ) जहार लजां भरतस्य मात ( रामने भारत की माता की लाज हरी )।

(३ ) इत्यालोच्यात्मनः शिरत्रिच्छेद (इस प्रकार सोच विचार फर उसमे अपना सर काट डाला )। (४ ) छिन्मूल इव पपात ( वह कटी हुई जड़ बाले पेढ़ की माँति नोचें गिर पढ़ा ) |

(५ ) तत्र विश्याधमाम्यासे वैश्यमेक ददर्श सः ( वहाँ ब्राह्मण के श्राशम के पार

उसने एक बनिया देखा ) | (ख ) अत्यन्तापहचे लिटचक्तत्यः (दा० | सत्य को छिपाने की इच्छा में लियू लकार का प्रयोग होता है, यथा-- श्रप्रि कलिफ्लेप्ववसः ! नाहं कलिज्ञान्‌ जगाम (क्‍यों गम कलिज्न में रहे ! नहीं, में कमी कलि'ट्न देश में नहीं गया )।

अरे ! किमिति में पुस्तक मलिनीकतवान्‌ श्रसि ! नाएं ददश ते पुरतकम (श्ररे,

बने मेरी पुस्तक क्यों मनदी कर दो ! नहीं, मैने नहीं की, मैने तुम्हारी पुस्तक देयो तक नहीं है )। (गे) उत्तम पुरुष में लिंटूखकारनहीं होता, किन्तु स्वम्न श्रीर उन्मत्त श्रयम्पा

में उत्तम पुरुष में मीलिदू लकार का ग्रयोग होता है, यथा--

अहम उत्मत्तः सन्‌ वर्न विचार (मैंने पागलप्न की दशा में जंगल में

अमण किया )। अध्यद निद्रितः रुम्‌विललाप ! (क्या मैं निद्वित अवस्था में विलाप कर

डा था!)

क्रिया प्रकरण

रर३

लुड लकार का प्रयोग (क ) आसन्न मूत काल ( अर्थात्‌ जो क्रिया आज ही हुई हो ) में छुद लकार का प्रयोग होता है, यथा-(१ ) इदमच्छोदं सरः स्नावुम अम्यागमम्‌ (मैं इस अच्छोद सरोवर में स्नान के लिए आयी ) | _ (२) सुरथो नाम राजामूत्‌ समस्ते छवितिमए्डले ( समस्त पृथ्वी में सुरथ नाम का एक राजा था )।

(३ ) धवले परिधाय धौते वाससी देवग्हमगमत्‌ ( धोये छुए. सफेद कपड़ों का जोड़ा पहन कर यह देवमन्दिर में गया )।

(ख ) माइऔर मास्म शब्दों के योग में तीनों कालों मे ही छुछकाप्रयोग होता है, यया-है (१ ) क्लेब्य मास्म गमः पाये (दे अर्जुन निराश मत होओ )। (२) मास्म प्रतीपं गमः ( विपरीत मत हो जाना )॥

(३ ) प्रिये, मा भैषीः (कपोत ने कह्य--प्रिये, डरो मत ) | (४ )मा भूत्‌ दुःखम्‌ ( दुःली मत होओ )।

इन छदाहरणों को ध्यान से पढ़ो--

(१) बहु जगद पुरस्तात्‌ तस्य मत्ता किलाहम्‌ ( मैं पगली उसके सामने बहुत कुछ बक गयी )।

(२) पुरा हि त्रेतायाम्‌ श्रतोव भीषण दैवासुर्युद्धमासीत्‌ (पहले त्रेता में देवों और असुरों के बीच मोपण युद्ध हुआ था )। (३ ) दुदोह गा स यज्ञाय शस्याय मधवा दिवम्‌ ( उसने यज्ञ के लिए, प्ृम्वी को

दुद्य और इन्द्र ने अन्न के लिए चुलोक को दुह्य )।

(४ ) कथ नाम तत्र सवान्‌ धर्म्मम्‌ अत्याक्षीत्‌ (आपने घ्॒म कैसे छोड़ दिया !) (५ ) सोडपि तेन सद्द चिर गोप्ठीसुखमनुमूय मूयोदपि स्वमवनम अगात्‌

( चिरकाल तक उसको संगति का आनन्द लेकर वह अपने घर चला गया )।

लृद और छट्‌काप्रयोग अनयतने लुट ।॥३१५। लुटू शेपेच शशश्श हिन्दी क गा, गे, गी का अंमुवाद सस्दृत म॑ मविष्यत्‌ काल बोधक छुट भर

लूटसेकियाजाता है। वद्यपि इन दोनों ही लकारों से भविष्यत्‌ काल का बोध इता है ता मो दोनों में भेद यह है ऊ्रि दूरवत्तों सविष्यत्‌ केबोध के लिए लुद ्

और आसन्न या समीपवर्चो भविष्यत्‌ के लिए लूट का प्रयोग होता

५, यंथा-१(क ) अयोध्या श्व.प्रयातासि कपे मरतपालिताम्‌ (हे बानर, तू कल मरत-

पालित अयोध्या में जायेगा

)।

र्श्र

बृहदू्यनुवाइल्चन्द्रिका

(ख ) पशपैरदोमिः वव्मेत्र वत्ागत्वारः (पांच दः दिनों में हम हीं वहाँ जाबंगे )

२६७) न जाने क़ुद्ठः स्वामी दि विवास्थति (न जाने स्वार्मी कब मैं क्या कर डालेंगे )

& ,(से) यलवं दास्वते सीता टामजुद्याठम्ईसि ( कवा अपने सर्तीत्व का अमाय देगी, उसे आज्य देना आउका काम हे )। ( ढद ) आरांसायां मूतंवध शरेरइ्सत आशंटा ( ऐडा होने पर ऐसा इोगा--इस प्रकार के अर्थ में ) छुय लकार छा अयीग द्वोता ढे, बधा--देवश्वेद्‌ बर्रिप्वति धान्य॑ वष्त्यान: ( यदि वर्षा होगी तो इस घान वोवेंगे ) । ( विद्ेप--दर्सी अर्थ में छुष्टऔर ल्‌कासी श्रवोग होवा है--देवशेद्‌ अवर्धीत्‌ चपति वा ) | हिप्रबचने छूट ३॥!३३॥ ब्क़च में दिए्र (शी ) शन्‍द रहने पर सेपल लग का पेय शेवा है, कथा--

वृश्श्रित्‌ शीर्त ( त्वरित, श्राय्व वा )श्रावात्वति च्ियय॑ वष्त्यामः ( बंदि शीत वर्षा होगी दो हम अनाज बोर्देग )॥

अभिश्नवचन लुट ।शराश१२ वाज़य मैं अ्रभिडवचन श्रर्पान्‌ स्मरणापक्र वोषक शब्द रहने पर लूडइ के स्पान पर लूद लकार वा प्रयोग द्वौद्ा दै,यया--रुमएत्रि रृष्ण गोठुले बत्स्यामः

(६ कृष्ण तम्हें याद है, इस गोडुल में रहते ये )।

आ ्राश्वर्या श्र्य में धात से लूट लकार दोठा है, यथा--धाश्रयम्‌ थ्न्धों नाम

कृष्ण द्रचववि ( शाश्रय है कि श्न्वा शृप्य को देखेगा ) ! पनश्चवायक! और समय बोबऊ! श्र॒लं ठन्द के साथ लूट लकार का धर्रोग

होता है, यथा--“अलं कृष्ण हत्दिनं दनिष्यति |

दुढ लकार का धयोग

लिझ निमिये छुछक्रियातिपत्ती।शरा१६ा ध्यदि ऐम इवा तो ऐसा होता इस प्रछार के मविष्यत्‌ के अथ में घातु से लूद लकार होठा है, यया--सैरेटिथेद्मरिष्यत्‌ सुमित्ररविष्यन्‌ ( यदि अच्छी वर्षा होवी तो रछच्दा ब्रन्न होगा )।

ल्दाँ क्रियातिपत्ति (छिया को अनिष्राचि या असिद्धि )अर्थ मे शीत हो अथवा देत था वाक्याथ का झूठामन (न होना ) मलझगा है, वहीँ लड का बयोग होता है | लूट मृत या मविष्यव्‌ के अय में प्रयुक्त होवा है। चद्ध व्यासरण-

क्रियाय्करण

श्र

नुसारी विद्वाद मविष्यत्‌ काल में लूढका प्रयोग नहीं मानते। वे भविष्यत्‌ काल में लूदू के स्थान पर लूटूका ही प्रयोग करते हैं। ( मविष्यति नियातिपतने भविष्नस्त्येवेति चान्द्राः )यया-(१) यदि गोपालः सन्तरणकौशलमशजञास्थत्‌ वर्हि जलात्‌ नाभेष्यत्‌ ( यदि ओोषाल तैरना जानता तो उस्ते जल से डर न लगता ! ) (२) निशाश्वेत्‌ तमस्विन्‍यो नामविष्यन्‌कोनाम चन्द्रमसों गुण व्यज्ञास्थत्‌ ( यदि रात अपेरी न होतीं तो चन्द्रमा का गुण कौन जानता ! ) री (३) यद्यहम अन्धो नाभविष्यम्‌ तह प्रथिव्याः सवेपा गुणाना सौर ( यदि मैं श्रन्धा न होता तो मैं पृथ्वी की समस्त वस्तुओं का सौन्दर्य देखता । ) (४ ) यदि राजो दुष्टेपु दए्ड नाधारमिप्यत्‌ ददावश्य ते प्रडा उपापीडयिप्यन, ( यदि राजा दु्शे को दण्ड न देता तो वे लोगों कोअवश्य पीडित करते )। (४ ) यदि दक्तिणाफ्रोकास्था गौराज्ञाः शासका आउजन्मसिद्धानधिकारान भारतीयेम्यो5दास्थन्‌ वद्य द्रयोजालोः्शोमनो मिथः सम्बन्धो:भविष्यत्‌ ( यदि दक्षिण अफ्रोका के गोरे शासक मारतीयों को उनके जन्मसिद्ध अधिकार दे देते तो दोनों ही जातियों के परस्पर सम्बन्ध अच्छे हो जाते ) |

इन उदाहरणों को ध्याव से पद़ो-(१) आशा बलवती राजन्‌ शैल्पो जेष्यति पास्डवान्‌ (हे राजन आशा

बलवदी होती हे,क्योंकि आशा हेकि शैल्य पाएडवों को जोत लेगा ) |

(३) यास्पत्यय शकुन्दला परविशहं सर्वेरतुद्ञयताम्‌ ( समी को सूचित करता हैं, कि आज शकुस्तला अपने पति के घर चली जायगी ) | _

(३) देब्याअपराधेन ठृतीयदिवसे राजा पद्मत्व॑ गमिष्यति ( देवी के अपराध

से राजा आज से पॉँचवें दिन मर जायगा ) |

((४) किन्तु स्वग्रार्यनासिदयर्थ सरस्वतीविनोद॑ फरिष्यामि ( फिन्तु तेरी

प्रायना पूरी करने के लिए, सरस्वती कामन बइलाऊँगा ) [

(६) शत्रन्‌विजेप्ये यासरिष्यामि वा (या तो शल्ओं को ही जीतूँगा

या मरूँगा

)

लोट लक्कार विधिनिमन्त्रणामन्त्रेणाधीप्टसंभश्नप्रार्थनेपु लि ।श३९१६१ सोदच।३/३।१६२ आशिपिलिहः लोटोशिशरे्श

( विध्यादिषु अप घावोलोंद स्पात्‌ ।सि० कौ० ) अनुमति, निमन्‍्त्रण, आमन्व॒रण, अनुरोध, जिजाखा और साम्य अर्थ मे लोट लकार का प्रयोग होताहै, गथा-अलुम्रति भय भें--अ्रथ भवान्‌अत्रआयच्छठु ( झाज आप यहाँ आइए। कं )

र्२६

शहदू-अनुवाद-दन्द्रिका

निमन्त्रण अथ॑ में-अच मवाद्‌ इह मुदछाए (आज आप यहाँ मोजन कीजिए ) ।

आमन्वण अर्थ में--वने5स्मिन्‌ ययेच्छें बस (इस तेन में इभ्दालुसार रह सकते हो )। माम्‌ अस्याः विपदः रदात मवान्‌ (आप इस विपत्ति से मेरी रक्मा कौजिए ) |

जदि शरुं मद्गाबाहो कामरूपं दुरासदम्‌ (है महाबाहो, इईच्छास्सो शत्रु ला नाश कोजिए )।

स्ज दुजनसंसर्ग भज साघुसमागमस्‌ (दुशशों की संगपि छोड़िए श्लौर बजनों

की संगति कोजिए )।

भद्र, अनुजानीहि, पिंगलकसमीएँ गच्छामि ( मित्र, आर दीजिए, मैंपिगलक के पाठ जाता हूँ )। आ्राशीर्ाद अर्थ में मष्यम तथा शअ्रन्य परुष में लोटूहकार का ग्रयोग होता हैं,यथा-'गब्छ विजयी मद [ जाओ, विजय प्रात्ते करो 9). पन्‍्पानः सन्तु ते शिवाः (तम्दारे माय कल्यायकारी होते ) ! पुत्न॑ लमस्वात्मगुणानुरूपम्‌(अपने ही समान गुण बाली

पुत्र धाप्त करो

)।

सदारपुत्रों राजपुत्रो जोवठ ( राजपुत्र पुत्र सहित जोवित रहें ) विशेष-श्रार्शारवाद अर्य में जब लोट का प्रयोग होता है तब दु! शोर

५! के स्थान में विकल्प से 'ताव! हो जाता है यया-विरंजीवतात्‌ ( जीवतठु वा ) शिज्युः। कुशल ते मबताव्‌ (मवठ वा )।

उपदेश द्वारा! आदेश के बोष होने पर भी लोलकाई का प्रयोग होता है, यथा--यः सर्वाधिकारे नियुक्त+ प्रधानमन्त्री सययोचितं करोंठ ।

ध्रइन! श्रौर 'सामर्स्य/ श्रादि का बोघ शोने पर उत्तम पुर में लोद लकार होता है, यथा--

कि फरवाणि ते प्रिय देवि ! ( देढि, तेरे लिए मै *या करूं ! ) हिन्घुमरि शोषयायि ( मैं समुद्र मौ मुखा सकता हूँ2। इन उदादरणों फो ध्यान से पदो-(१)

सत्य ऋदि, अनुपादहि साधुपदबीम्‌,सेवस्द विद्नर्ी |

(२) शुम्पत्व गुरूय कुशघियठसखोदृति रुपत्नीजने | (३ )दा श्रिय ससि, क्वासि देहि मे श्रतिवचनम्‌। (४ ) रामे दिचलयः मबतु मे मो रास, सामदर।

क्रिया-प्रकर्ण

र्र७

लिहः लकार का प्रयोग अनुमति को छोड़कर शेष पू्ोक्त अर्थों में तथा विधि (आरा ) और सामस्य

अर्थ में विधिलिदकाप्रयोग होता है, यथा--

अं

विधि में--( १) ब्ह्मचारी मधु मास च बजयेत्‌ (अक्षचारियों को मधु और मास न खाना चाहिए )। (२)प्रत्यक्‌ू शिरा न स्वप्याद्‌ (परचम की ओर सिर हे, करके न सोवे ) । (३ ) नान्यस्यापराधेनान्यस्थ दएडमाचरेत्‌ ( दूसरे के अपराध के लिए दूसरे को दण्ड न दे )।

सामथ्ये मे--अनेन र्थवेगेन पूचप्रस्यित वैनतेयमप्यासादयेयम्‌ (रथ की इस चाल से मैंपहले चले हुए. गरुढ़ को भी पकड़ सदा हूँ) |

सम्माध्य भविष्यत्‌ एवं प्रवर्चना (लोद तथालिक_) सम्माव्य भविष्यत्‌ श्रर्थात्‌ सम्भावना, मरने, औचित्य, शपय बया इच्छा

आदि श्रथों में लोटएवंविधि लिद्‌का प्रयोग होता है। प्रवतना अर्यात्‌ प्रत्य

विधि, प्रार्थना, उपदेश, अनुमति, अनुरोध एवं आशा आदि अ्रथों में लोदएवं विधिलिड्‌ छा प्रयोग होता हे । सम्भावना--सम्भाव्यतेष्य पिता आगच्छेत्‌ (शायद आज पिताजी आ जाये)। कदाचिदाचाय्य; श्वः वाराण्ों गच्छेत्‌ (शायद कल गुरुजी काशी जावें )। संप्रश्न--किमह वेदान्ठमघीयीय उठ न्यायम्‌ (मैंवेदान्त पढे,यान्याय ! ) ओऔचित्य-- छ्व राधूना सेवा कुर्याः ( ठम साधुओं को सेवा करो )॥ तथा कुछ यथानिन्दा न भवेत्‌ ( ऐठा न करो कि जिससे निन्‍दा हो )॥

शपथ--यो मा पिशाच इति कथयति तस्य पुत्रा प्रियेरन्‌ ( प्रियन्ताम्‌ ) ((जो

मुझे पिशाच कहता है उसके एप मर जाए )।

प्रार्थना--दीने मयि दया कुरु ( मुझ गरीब पर दया कोजिए )। अप्यन्दराडडगच्छानि झआार्य ( श्रीमान्‌ ,क्या मैं भीतर आ सकता हूँ ) आज्ञा--वीशोंदक च समिषः सुकुमानि दर्मान्‌। स्वैरं वनादुपनयन्तु तपोषनानि ( स्वेच्छा से तपस्या का घन, ठीयों का जल, समिधाएँ, फूल तथा कुशा घास ले आयें )। रमेश, र्व पुस्तक दशमे पाश्वें ससुदूघाटय पठन चास्मस्य ( रमेश, अपनो

पुस्तक के दसवें पृ्ठ कोखोलो और पढ़न्य शुरू करो )॥ आशीवोद--आत्मसद्श मरतारं लमस्व वीस्यृश्न मव (परमात्मा करे तुम

अपने योग्य पति को प्राप्त करो और वीसजननी हो जाओ ) । घुन्नोडल्य जनिषीष्ट यः शत्रुक्रिय हृषीष्ट, ( हियात्‌ )(ईश्वर करे उसके घर इस वार पुत्र पैदा हो जो शत्रुओं को लक्ष्मी काइरण करे

)।

श्र्८

बहदू-श्रनुवाद-वन्द्रिका

उपदेश--सत्त्यं दयात्‌ प्रियं छुयात्‌ (रच बोले ।भीठा दोले ), उदछा विद न क्रियाम्‌ ( बिना विचारे कार्य न फरे ) सावधानों भव शप्रुनिभृदमवसरं प्रतीहते ( उावधान रहो, शत्रु तुग्हारी घात में है )।

अलुरोध--इद्याखोत ( ध्ास्ताम्‌)तावद्‌ मबान्‌ ( आप यहाँ बैठिए )।

* - अलुमधि-उपदिशत मवान्‌ कथ्य त॑ अंसादयेयम्‌ (आप ही बवादं, कैसे उसे प्रसन् करू )। अपि छात्रा गहं गच्छेयः ( गन्छन्ठ वा ) (क्या विदार्थों घर जावे !)

विधि, सामर्थ्यं--इनके उदाहरण ऊपर दिये जा चुके हैं ।

इच्दार्येपु लिड_ लोदो ।शशश्ष्ण

इच्छा-भवान्‌ शीर्भ मोरोगो भवेत्‌ (भगत वा) (शाप शीम स्वस्थ होजायें )) आ्राप्तकाल--प्रसाधयदु मवान्‌ सवा योग्यताम्‌ ( श्राप के लिए यद्व श्रच्छा श्रवतर

है कि आप अपनी योग्यता दिखाएँ )।

कामचाराजुज्ञा- भ्रपि याहि, श्रपि तिष्ट (तुम चाहों तो जा सकते हो और

चाहदो तो ठहर सकते हो )।

झ्ाशीलिंह लकार श्राशीर्वाद के श्र में झाशीलिंद होताहै, यथा--उद्चाद सुचिरं पोव्यात्‌ |ल॑ दौर्घायु। भूयाः ) बीरप्सविनी सूयाः ! विधेयासुर्देवाः परमरमणीौयां परिणतिम्‌)

इन वाक्यों फो ध्यान से पढ़ो-(१ ) श्रात्मानं सतत सक्तेत्‌ दारैरपि घनैरपि ( र्ियों सेभी श्रौर घनों से मी ध्यपनी हमेशा रचा करे )। (२१पादनिरणेजन

कृत्या विश्रा अन्नेन परिविष्पस्ताम (पाँच

धुल्ाकर

आाक्षणों को अन्न परोस दो ) | ५ के (३ ) व्यवसत भपान्‌ इदं इृत्यम्‌ ( आप चाई तो यह काय कर सकते हैं)। (४ ) मान्यान्मानय शबप्ूमप्यनुनय ( मान योस्यों कामान करो और शब्रृश्रों को भी श्रशुकूल यनात्ो ) | हि

(५, ) शिप्यस्तेलोट्‌ कसताप्‌ कम्पेताम्‌ कम्पस्ताम

प्र० म० उ०

कम्पस्थ

कम्पेथामू

कम्पप्वम

से००

के

कसावहै

कसामहे

_ उ०

कम्पितादे कम्पितास्वहे कृम्पितास्महे

कम्पेतद..

कम्पेयाताम कम्पेरन्‌

प्र०

श्रकम्पिष्ट अकम्पिपाताम अ्रकम्पिपत

प्र०

विधिलिंड_ कम्पेवदि

कम्पितासे कम्पितासाथे कृम्पिताध्वे

सामान्य भूत-लुड़,

कम्पेया: कम्पेयाथाम्‌ कम्पेध्यम्‌ू से कम्पेष...

चकम्पे चकमसाते चकमिरे चकंम्पपि चकम्पाये चकमिष्वे चकम्पे चकमिवदे चकमिमहे अनद्यतन भविष्य-छुद्‌ कम्पिता कम्पितारी कम्पितारः

कम्पेमहि

उ०

अकंम्पिप्ठाः अकम्िपायाम्‌ अकमिध्वम्‌ अकम्पिषि अकम्पिष्वदि अकमििष्महि

आशीर्लिंड_ क्रियातिपक्ति-लूड_ कम्पिषोष्ट कमिषीयास्ताम कमिषोरन्‌ प्र० अकम्पिष्यत अकमिष्येताम्‌ श्रकम्सिष्यन्त कम्पिपीछाःकमिपीयास्थाम्‌ कम्पिपीष्वम्‌ म०अकम्िष्यथाश्य्रकमिप्पेयामझकम्िप्यम, कमिपीय ,कमिपीवदि कमिपीमद्कि. उ० अकमिष्येश्रकम्िष्यावहि अ्रकम्पिष्यामहि

(३) काढक्ष(इच्छा करना ) परस्मपदी बतम्रान-लरख्‌ काढज्ुति काइलुतः काइ्लन्ति काइक्षसि काइलथः काडत्तासि काड्ज्ाबः

फादछ्य.. काइलाम।

सामान्यमविष्य-लूट

विधिलिदः प्र० काड चेत्‌ काइलषेताम काडत्तेयु: म० काडलेः काइल्ेतम्‌ काइक्तेत . उ० काड्सेयम काइलेव काडत्तेम

आशीर्लिड'

फाड्ह्चिष्यतिकाइत्तिप्यवःकाड्क्षिष्यन्ति प्र० काइ्क्ष्यात्‌ काइडर््यास्तामकाडब्यासु: काइजिष्यसि काड्क्िष्यय काइज्प्यय म० काइ्ताः काड्ज्यास्तम्‌ कांड्द्यास्त का्ड्लिप्यामि काइलिप्यावः काइत्तिष्याम:उ* काइ कह्ष्याम्‌काड क््याव काड दयाम

अनच्यतनमूत-लड परोछ्ठमूत-लिद्‌ अकाइज्ञत्‌ अकाइजताम्‌ अ्रकाड्क्षत प्र०« चकाइज्ञ॒चकाइत्तठः चकाडइल्ु अ्रकाइक्ुः अकाइइतम्‌ अकाइक्ृत म० चकाइलिय चकाइक्षयुः चकादक्न अकाइज्म्‌ श्रकाइडाब॑ अकाइ्काम उ० चकाइकज्ष चकाझुक्षिव चकाडफिम आशा-लोट अनद्यतन मविष्य-लद कॉड्छतु

काइच

काइछताम

काइजतम

काइक्ानि काइछाव

काइलन्तु.

काइबत

काइक्ाम

प्र० काइक्षिता काइडितारी काइूचितारः

. म० काइक्तासिकाइद्ितात्थःकाइसितास्थ उ० काइचितास्मिकाइक्षितात्व/काढचितास्म३

श्श्डः

बूहद-अनुवाद-चन्द्रिका

सामान्य भूत-छुडझ क्रियातिपत्ति-लूड श्रकाडक्षीतअकाडलिशम्‌ अ्काड्निपुश “प्रकाड त़िष्यव्अकाड च्तिष्यतामझ काडदिप्पन्‌ अकाइक्षीः अकाडलिश्मू अकाडकिप्टम ०अकाड्क्तिप्यः थकाइ क्षिप्यतम अ्रकाइकिष्यत अकाइूलिपस्नकाइक्षिप्व क्रकाइूक्िप्प उ० श्रकाड्ज्ष्यमत्रकाइजिप्पाव श्रकाइूचिप्याम

(४) क्रीड्‌ (खेलना ) परस्मेपदी यतमान-लद्‌ क्रीडति

क्रीड़तः..

क्लीडन्ति

आशीोर्लिंड_ प्र०

शीज्यात्‌ क्रीड्यास्ताम्‌ क्रोड्यासुः

फ्रीडसि

क्रीडथ;.

क्रीडथ

म०

क्रीड्याः

फ्रीडामि

क्रौडाव:..

क्रीडामः

उ०

क्रौड्यासम्‌ क्रीज्यास्व

सामान्य भविष्य-लूद क्रीडिप्पति ह्रीडिप्यतः क्रीडिष्यन्ति. ऋडिप्यसि क्रीडिष्ययः फ्रीडिप्यय.. ओडिष्यामिक्रीडिप्याव; छ्रीड़िष्याम/ श्रनद्यतनमूत-लड _ शक्रीडत्‌ अ्रक्रीडताम, अ्क्रीडक्‍नू. अक्रीडः. प्रक्तीडृतम. अम्रीडत अ्रक्रीडम्‌. श्रक्रीडाब श्रक्रीडम_

प्र० म० 3० प्र० म० 3०

आश-लोद

फ्रीडतु

क्रीडताम्‌.

क्रौड

क्रीडतमू._

कीडेतू.

प्रीडेड.

क्रीडानि क्रीदीव._

कीड्यास्तम्‌ क्रीड्यास्त क्रीड्यास्म .

परोक्षमूत-लिद चिक्रीड चिकीडघुः चिक्रोडु चिक्रीडिय चिक्रीड्यः चिक्ीड चिक्तीड विक्रीड़िव चिक्रीडिस अनद्यवन भविष्य-छुट्‌ क्रीडिता क्रीडितारी क्रोडितारः क्रोडितासि क्रीडितास्थः क्रीडितास्थ क्रीडितास्मि क्रीडितास्वः क्रीडितास्मः सामान्यभूत-छुड'

क्रीडन्तु क्रीडत

प्र० पश्रक्रीडीत्‌ प्रक्रीडिशम्‌ श्रक्रीडिपुः स०

श्रक्तीडी:

श्रक्रौडिएम श्रक्रीडिष्ट

फ्रीडाम

उ० श्रक्रीडिपम्‌ श्रक्रीडिप्वश्रक्रीडिप्स

क्रोडेतामू

कीडियु:

प्र० श्रक्रीडिष्यत्‌ श्रकरीडिप्यताम्‌ झक्रीडिप्यनू

क्रीडितमू.

क्रौडेत

म० अ्रक्रीडिप्य; श्रक्रीडिप्यतम्‌ श्रक्रोडिष्यत

विधिलिट',

फ्रीडेयम क्रीडेव..._

क्रियादिपत्ति-लूडू

क्रीढेस

3० अक्रीडिप्यम्‌ श्रक्रीडिप्याव श्रक्रोडिप्याग

(४ ) गम्‌(जाना) परस्स्मेपदी (० चतमान-लद

अनद्यतनमृत-लड _

गच्छुति

गच्छत:

गच्छन्ति

श्र०

श्रगच्छुत्‌ श्रगचऋछतांम

शगच्छुन्‌

गच्छुसि

गच्छुधः

गच्छुय

म०

श्रगच्छः

अगच्छुत

गच्छामि गच्छाव:. स्च्छामः सामान्यमविष्य-लूद ग्रमिप्यति गरम्िष्यतः गमिप्यन्ति.

उ०

शमिष्यसि गमिप्यपः

ममिप्यथ

श्री०

श्रगन्ठम अगब्लाब अ्रगच्छाम श्राशा-लोदू गन्छुतु _गच्छताम गच्दल

शमिष्यात्रि समिप्याव:

ग्रमिप्यामा

उ०

अच्छानि यगच्छाव

म०

गच्छ

अगच्छुतम्‌

गच्छवमू

गच्छत

गच्छाम

धातु-रूपावली अनद्यतनमविष्य-लुरु॒

विधिलिड_-

गच्छेत्‌ गच्छेताम्‌ गच्छेयुः गच्छेः सल्छेतम गच्छेत गच्छेयम्‌ गच्छेव. गच्छेम आशीर्लिड_

गन्ता

उ०

रन्तासि गन्तस्मि

प्र०

म० उ०

परोक्षमृत-लिद_ जम्मुः ज़ग्म जग्मिम

जग्मस्तुड

जगमिय, जगन्थ जग्मथुः जगाम, जगम जग्मिव

गन्‍तारी. गनन्‍्तारः गन्तास्थः गन्तास्थ गन्तास्वः गस्तास्मः सामान्यमूत-लुढ_ अगमत्‌ श्रगमताम्‌ अगमन्‌ अगमः अगमतम्‌ अगमत अगमम्‌ अगमाब अगमाम



गम्यात्‌ गम्यास्ताम्‌ गमम्यासुः गम्याः. गमम्यास्तम््‌ गम्यास्त गम्बासम्‌ गम्यास्व गम्यास्म जगाम

श्र

प्र०

मण० उ०

क्रियातिपत्ति-लुड_ अगमिष्यत्‌ अगमिष्यताम्‌ श्रगमिष्यन्‌ अगमिष्यः अगमिष्यतम्‌ अगमिष्यत अगमिष्यम्‌ श्रगमिष्याव अगमिष्याम

(६) जि (ज्ञीतना ) परस्मेपदी ९...“ बतमान-लदू आशीर्लिड_

जयति

जयतः

जयन्ति

जीयात्‌ जीयास्वाम्‌ जीयासुः

जयसि

जयथः

जयथ

जयामि

जयाब:.

जयामः

जीयाः जीयास्तम्‌ जीयास्त जीयारुम्‌ जीयास्व॒ जीयास्म परोक्षभूत-लिट्‌ जिगाय जिग्यतु: जिग्यु

सामान्य भविष्य-लूट्‌ जेष्यति जेष्यतः जेष्यत्ति जेप्यसि

जेष्ययः

जेष्यामि जेप्यावः

. जेप्यथ

जिगपियथ, जिगेथ जिग्यथुः जिग्य

जेष्यामः

अनद्यतनभूत-लड _

श्रजयत्‌ अजयताम, अश्रजयन्‌ अजय; अजयतम्‌ श्रजयत अजयम्‌ अ्रजयाव अजयाम आज्ञा-लोट जयतु जयताम्‌ जयन्तु जब. जयतम जयत जयानि

जयाव. जयाम विधिलिड_

जयेत्‌ू.

जयेताम्‌

जवेयुः

जयेः.

जयेतम्‌

जऊयेत

जयेयम््‌

जयेव.

जयेम

जिगाय, जिगय जिग्यिव जिग्यिस अनद्यवन मविष्य-छुट्‌ जेता जेतारीा जेतार:

हे

जेतासि

जेतास्मि प्रण

मण० उ०

प्र०

है

उ०

जेतास्थः

जेतास्‍्य

जेतास्वः जैतास्‍्मः सामान्यमूत-छुड

अजैषीत्‌ अजैडाम्‌

अजैपु;

अजैपी: अनैश्मू अजैष्ट अजैपम्‌ अजैष्व अजैष्स क्रियातिपत्ति-लुड' अजेष्यत्‌ अ्रजेष्यताम्‌ अजेष्यन्‌ अजेप्य: अज्ेष्यतम्‌ अजेष्यद

अजेष्यम्‌ अजेष्याव

अजेष्याम

र्श६

बहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

(७) त्वज्‌(छोड़ना ) परस्मैपदी

बरतमान-लद्‌ त्यजति

स्वजतः..

आआशोर्लिक_

त्यजन्ति

प्र० त्यज्यात्‌

त्यज्यास्ताम्‌ त्यक्यासः छज्यास्तम्‌ त्यज्यास्त

त्यजसि

ह्यजप:.

त्यजथ

म०

ल्यज्याः

त्यजामि

त्यजाबः.

स्यजामः

उ०

॒त्यज्यास्म्‌ त्यज्यास्व

सामान्य भविष्य-लूद

त्यक््यति

त्यक्यतः

त्यक््यंस व्यक्यथः त्यक्ष्यामि त्यक््यावः

ल्वच्यन्ति.

भ्र०. तत्याज

व्यक्ष्यथ त्यद्यामः

मभ० तत्यजिध,तत्यक्य तत्यजयुः तत्यज उ० तत्याज,तत्यज तत्यजिंव तत्यजिम

अनथतनभूत-लड_

तत्यञ्तः तल्घुः

अनद्यतन भविष्य-छुट्‌

श्रत्यजञत्‌ अत्यञताम्‌ श्रत्यजन्‌ अ्रत्यजःअ्रत्यजतम्‌ श्रत्यजत

त्यक्तारा प्र० त्यक्षा म० त्यक्तासि त्यक्तास्यः

अ्रत्यजम्‌ अत्यजाब

3०

ग्रत्यमजाम

श्राज्या-लोट्‌

अ० म० उ>

त्जेतू.. त्यजेः:. च्यजेयम

त्यजेव

उ०

त्यजेम

लक्तार स्यक्तास्थ

त्यक्तास्मि लक्तास्वः स्यक्तास्मः सामान्यमृत-छुद_

अत्याक्षोत्‌ श्रत्याशम श्रत्याछुा श्रत्याक्षीः श्रत्याष्म, श्रत्याष्ट श्त्याक्षम्‌ अत्याक्ष श्रत्याचुम क्रियातिपत्ति-लुद_ श्र०. श्रत्यच्यत्‌ श्रत्यक्ष्येताम श्रत्यच्यन म० अत्यक््ः श्रत्मदयतम्‌ श्रत्यद्यत

त्यजताम्‌ त्यजन्दु त्यजत त्यजतम त्यजाब॑ त्यजाम विधिलिड _ त्यजेताम. ह्जेयु+ त्यजैतम. त्यजेत

त्यजतु त्यज त्यजानि

त्यज्यात्म

प्नेत्ञ॒भूत-लिदू

प्रत्यक््यम्‌ श्रत्यक्याव

अ्रत्यक््याम,

(८) रश(पश्यू) देखना-परस्मैपदी ज्ञॉ बर्तमानकाल-लयू श्राश-लोद्‌ पश्यति परश्यसि

पश्यतः पैश्यपः..

पश्यन्ति परश्यथ

प्र० मे०

पश्यतु परय॑

परश्यताम्‌ पश्यतमू

पर्यन्तु पहशुयत

परश्यामि पश्यावः. पश्यामः सामान्य मविष्य-छुट द्रच्यति द्रक्रयतः द्रदयन्ति

पर्यानि पर्याव प्रश्याम विधिलिस_ प्र०_ परयेत्‌ पश्येताम पंरयेयु:

द्रद्यसि द्रद्यामि

म० छ०

द्रक््ययः द्वदपयावः

द्वरदुयय द्वचयामः

अनद्यतनमूत-लढ_

उ०

परश्येः परवेतम पश्येयम्‌ पश्येव.

परश्येत परश्येम

आशोर्लिंद_

अ्रपश्यत्‌ पश्रपश्यताम्‌ अपरयन्‌

प्र*. श्श्यात्‌ द्श्यास्‍्ताम्‌

द्स्यामुः

अपरज्यः

श्रपरयत

मभ०

दश्याः

द्शपास्व

अपरयाम

उ०

दशर्यासम्‌ दरयास्व

ग्रपश्यतम

अ्परयमस्‌ अ्पर्याव

ध्यशयास्तमू

दश्यासम

र३७

घातु-रूपावली

सामान्यमूत-छुद

परोक्षमृत-लिद्‌

ददश

दहशठु

दहदशुः

अ्र० बअद्वा्ीत्‌ अद्राष्टम अद्वाछुः

डददशिय

ददशथुः

दहश

म०

ददर्श

दहशिव

ददशिम

अनद्यतनमविष्य-छुदू द्रषटरी.. द्रषारः द्र्ष्य दरशसि द्रशस्थः द्रशस्थ द्रशत्मि द्रष्टस्वः द्रष्टस्मः

घरवः धरपः धरावः

घरन्ति घरप घरामः

सामान्य मविष्य-लूद

-घरिष्यति घरिष्यतः घरिष्वन्ति अरिप्यसि घरिप्ययः घरिष्यय... भरिष्यामि धरिष्यावः घरिष्यामः अनचवन मूत-लड_ अधघरत्‌ अधरताम्‌ अपरन्‌. अघरः . अघरतम्‌ अघरत अधरम्‌ अधघराव. अघराम आशा-लीट चसतु धरताम्‌. घस्नु

अद्वाष्ट

झ्यात्ित्ति-लड, प्र० श्रद्गच्यत्‌ अद्वच्यताम अन्नच्यन्‌ म० अद्रक््यः अद्वच्यतम्‌ अद्गचयत उ० बअ्द्गक््यम्‌ अद्वच्याव अद्गच्याम

उभमयपदी (९) घू ( घरना ) परस्मैपद

बतंमान-लद्‌_ घरति धरसि घरामि

श्रद्वाक्नीः अद्वाष्मू

उ० अद्वातम अद्वाचब बअद्राइम

प्र० म० उ०

आशीर्लिंड_

प्रियात्‌. प्रियास्वाम्‌ प्रियासुः पियाः प्रियास्तम्‌ प्रियास्त धियारुमू प्रियास्व प्रियास्म

परोक्ष मूत-लिद

दहु। दओतुः. प्र० दघार दष्न दप्रघुः. म० दघर्थ उ० दघार,दघर दश्व दघृम अनद्यवन मविष्य-छुट्‌ प्र० घर्ता घ्वारी घर्तारः म० धर्तासि घर्तास्थः घर्तास्थ उ० घर्वात्मि घर्तास्वः धर्तास्मः सामान्य मूत-छुड प्र० अधघापीत्‌ अधाशंम, अधघापु:

घर

घसतम्‌

घरत

म०

अ्धाषी:ः

घरानि

घराव

घराम

उ०

अधापषम्‌

विधि-लिड_

अधाष्टम

अधाएई

अधाप्य

अधाप्म

क्रियातिपत्ति-लूड_

घरेतू. चघरेः

घरेतामू घरेतम्‌

धरेवुः घरेत

प्र० म०

अरेबम्‌.

घरेव

चरेम

उ० अधरिष्यम्‌ अ्रधरिष्याव अधरिष्याम

हे

बतमान-लदू

चरते.

घरेते

घरते . घरेये चरे घरावहे

अ्रघरिष्यत्‌ अधरिष्वताम्‌ अधरिष्यन्‌ अधघरिष्यः अधरिष्यतम्‌ अधरिष्यद

थू (घरना ) आत्मनेपद

चस्न्ते

चरप्दे घरामहे.

ध्र०

घरिष्यते

सामात्यमविष्य-लूद

घरिष्येते

घरिष्वन्ते

स० घरिष्यसे घरिप्येयेः घरिष्यष्दे छ० घरिष्ये धरिष्यावदे भरिष्यामदे

बृहद्-ग्नुवाद-्चन्द्रिका

श्र

परोक्षमृत-लिद्‌

अनद्यवन मूत-लड अधरत अधरेताम्‌ अधरन्त श्रधरथा! श्रधरेथाम्‌ अ्रधरध्यम्‌ अघरे.. अ्रधरावहि अ्रघरामह्दि

दन्ने ' दन्नाते ' ' दमिरे दक्षेपि. दप्ने

दप्माथे ' दब्िध्वे दश्िवदे. 'दप्रिमहे

अनद्यतनभविष्य-लुट्‌

आशान्लोडू

धरताम्र घरस्व चरै

भरेताम्‌ धरेथाम्‌. घरावहै.

भरन्ताम घधरध्वम्‌ धरामदै

घरेत. परेथा। धरेय

धरेयाताम्‌ धरेरन्‌ धरेयाथाम धरेध्वम धरेषहि.. धरेमहिं

धृपीए्0.. भृपीष्ठाः धृषीय

श्रेपीयास्ताम ध्पीरन्‌ भ्रतोयास्थाम्‌ 'पीष्वम्र्‌ धृपीवद्दि .भपीमदि

घर्ता घततसि धर्तादे.

घर्तारा -धर्ताएः. भर्तासाथे धर्ताष्वें भर्तास्वद्दे धर्तास्मदे

विधिलिड

समान्यमूत-छुड_ शअधूत

अधूपाताम्‌

श्रधूपत

अधृया: अ्रधपाथाम श्रधृध्वम्‌ अध्षषि.प्र्टृष्यद्धि. श्रभृष्महि क्रियातिपत्ति-लूढ_

शआशीर्लिंड_

अथरिष्यत म०

श्रधरिष्येताम्‌ श्रधरिष्यत्त

अ्रधरिष्यथा/अधरिष्वेथाम्‌ 'भ्रधरिष्यध्यम्‌

3० श्रघरिष्ये श्रधरिष्यावद्दि श्रधरिष्यामदि

( १० ) नम्‌ ( नमस्कार करना, झुकमा ) परस्मैपदी ममति

बतमान-लद्‌ नमतः नमन्ति

ममसि नमयथः नमय नमामि नमाबः. नमामः सामान्य मविष्य-लूद नंध्यति नस्यतः . नंस्यन्ति संस्यसि नंस्यय:. न॑स्यय मंस्‍्यामि मंस्यावः नंस्यामः

प्र० मर0 उ०

नमेत्‌.

विधिलिद नमेताम नमेयुः

नमेः ममेयम्‌

नमेतम्‌ नमेव

नमेत नमेम

श्राशोरलिंद_ नम्यातू. नम्यास्ताम नम्यालुः नम्या।ः नम्पास्वम नम्यास्त नम्यासम्र्‌ नम्यास्थ मम्पास्म

अनद्वतनमृतं-लद ननाम

परेश्षमूत-लिय_ नेमतुः नेमुः

अममत्‌ श्रनमताम्‌

अ्रनमन्‌

खझअनमः

प्रनमतम्‌

'अनमत

नेमिय, ननन्‍्य नेम:

नेम

अशनमम्‌

श्रभममाव

आझनमाम

ननाम, ननम नेमिव

नेमिम

खमद

आशनलोट

नमताम,

.,

अनदतन मविष्य-छुूट

नमस्ध

सम

ससतम्‌

नम्रत

नमामि.

नमाव

समाम

प्र० मर

उ०

नन्‍ता मन्तधासि

नन्तारोी.. जन्तास्थः

नन्तारः सन्‍्तास्थ

मन्ठास्मि सन्तार्व!

नन्‍्तास्मः

घातु-रूपावली

रद

सामान्यमूत-छुड_ अनंसीत्‌ अनसिष्ठाम्‌ अनसिधुः

प्र०.

अनसीः

म०

अनंस्यः

अनस्यतम्‌ अनस्यत

उ०

अश्रनस्यम्‌

अ्रनस्याव

अ्रनतिष्टमू अनसिष्ट

अनसिपम्‌ शअ्रमसिष्व॒

अ्रनसिष्म

क्रियातिपत्ति-लूड_ श्रनस्यत्‌ु॑ अनस्यताम्‌ अनस्यन्‌ श्रनस्याम

उमयपदी (११) नी ( नय )ले जाना--परस्मैपद वतमान-लदू आशीर्लिंड_ नयति. नयसि. नयामि.

नयतः नयथः..

नयन्ति नयथ

नयावः नयामः सामान्य मविष्य-लूट्‌

नेष्पति नेष्यसि नेष्यामि

नेष्यतः. नेष्ययः. नेष्यावः

नेष्यन्ति.. नेष्यय नेष्यामः

प्र० नीयात. म० नीयाः

नीयास्वाम्‌ नीयासुः नीयास्तम्‌ नीयास्त

उ०

नीयास्व नीयास्म परोक्षमूत-लिद_

नीयासन्‌

पग्र० निनाय निन्‍्यतुः निन्‍्यु म० निनयिय, निनेय निन्यथुः निन्य . उ० निनाय, निनय निन्यिव निन्यिम

अ्रनयतनभूत-लड _

_. .

अनद्यतन भविष्य-जुद

अनयत्‌

अनयताम

अनयन्‌.

प्र० नेता

नेतारी.

नेतारः

अनयः

श्रनयतम्‌

अनयत

म०

नेतासि

नेतास्थः.

नेतास्थ

अनयम्‌

श्रनयाव अनयाम अ्राश-लोद नयताम्‌.. नयन्तु नयतम्‌ नयत

उ०

नेवास्मि

नयतु नय

नयानि

नयाव

नयाम

विधिलिड_ नयेत्‌. नयेताम्‌ नयेयुः नयेः . नयेतम्‌ नयेत नयेग्रम,. नगयेब, नेम),

नेतास्वः नेतास्मः सामान्यभूत-लुड प्र«_ अनैधीतू अनैशम्‌ अनैपुः मं० अनैषीः अ्नैष्म अनैष्ट

छु० अनैषम

अनैष्व

अनैध्य

मै क्रियातिपत्ति-लूड_ प्र० श्रनेष्यत्‌ अ्रनेष्यवान्‌ अनेष्यन्‌ म० श्रनेष्यः अनेष्यतम अनेष्यत छु५ अेष्यम, अनेष्यत्, अनेष्यम.

नी ( नय )आत्मनेपद

बतमान-लद्‌ नयते नयेते. नयसे . नयेथे नये. भयावहें

नयन्ते नयघ्वे नयामहे

सामान्यमविष्य-लूट प्र« नेष्यते म०- नेष्यसे उ० नेष्ये

नेष्येते . नेष्यन्ते नेष्येये निेष्यध्चे जैेप्यावहे नेध्यामडे

3

५.

चूहदू-क्षत॒वाद-चन्द्रिका श्रनच्तनभूत-लढ_

आअनयत श्रनयेताम्‌ शनयन्त अनयथाः अनयेयाम्‌ श्रवयध्वम अगये अनयावहि अ्मयामहि आज्ञा-लोटू

नयताम्‌ नवेताम्‌

नमन्‍्वामू..

नयस्थ नये.

नयेयाम्‌ नयध्यमू नयावहे नयामहे 'वीधीलड_ नयेयाताम नयेरन्‌ नयेत. नयेयाः नयेयायाम नयेध्वम्‌ भयेवहि भयेमहि नयेय.. आशीलिंड_ , नेपी:८.. नेपीयास्ताम्‌ नेपीरन्‌

मेपीहाः नेपीयास्याम नेपौद्‌वम

भेपीय

नेपीबहि.

नेपीमदि

-

अर मे» उठ

निनन्‍ये निन्यिपें निन्‍्ये

में० नेता सम उ०

परीक्ष-लिट्‌

निनन्‍याते निन्यिरे निन्‍्याथे. निन्यिष्ते निन्यिवहे निन्यिमदे अनद्यदन भविष्य-छुट

नेतारी.

नेवाण

नेतते नेतादहे.

नेताठाे नेताप्वे नेतास्वदे नेतास्मदे शामान्यमूत-्लुब _ श्ननेपाताम्‌ श्रनेषत प्र० अनेष्ट.. म० श्रनेष्ठाः अनेपायाम, श्रनेष्वम्‌ अनैष्वदि अ्रनेषाहि उ० अनेषि. क्रियातिपत्ति-लूड _ प्र झनेष्यत श्रनेष्येताम शनेष्यन्त

से? अनेष्यथाः अनेष्येथाम्‌ श्रनेप्यप्पम्‌

3०

श्रनेप्ये

श्रनेष्यावहि श्रनेष्यामहि

ध्रभयपदी (१२) पचू(पकाना ) परस्मेपद ५८४ देचति.

बर्तमान-लटू पचन्ति पचतः..

पयामि

पचावः.

पचसि

प्रचथः .. पच्रय

पचामः

सामान्य मविष्य-लूद, सक्ष्यति पच्यतः . पह्यन्ति परच्यसि प्रदयधः परद्यप पंदयामि पद्यावः परद्यामः थ्रनयवनमृत-लदू अपचत्‌ श्रपचताम्‌ अ्रपचन्‌ू. श्रपचतम्‌. ध्रपचत श्रपचः अपचम्‌ झअपचाय स्पचोॉम. आशन्किस पचन्तु पचताम्‌. पचतु पचत पचतम पंच पचानि

पचाव

पचाम

प्र० पचेत्‌.. मे*

पचेः

उं० पयेयम

_ विधिलिश पचेताम. पचेयुर परचेतम

परचेव

पचेत

पचचेम

प्र«. सम

श्राशीलिंड_ पच्यात्‌_ प्रच्यार्ताम्‌ पच्यामुः पच्याः पच्यासत्तम पच्यास्‍्त पच्यासम, पच्यास्व पच्यास्म परोच्चमत-लिट्‌ पेचुः पेचतुएई. प्राय पेच पेचिय, पाक पेचभुः पेचिम पषाल, पथ पेचिव ्फ्पील, पक्फिफश्यु पछारः एछासी.. पा. परक्कारप पर्तासि पकारप

उ«

पक्तारिम

प्र० भ० उ०

2* से उ*

प्तारबय/

पछारमः

चातु-रूपावली सामान्यमृत-लुड_ अपाक्षीत्‌ अपाक्ताम्‌ अपाक्षुः अपाक्नी: अ्रपाक्तम अपाक्त अपान्षम श्रपाचव. अपाकम

पचेते पचेये

पचे

क्रियातिपत्ति-लूड_ प्र० अपक्यत्‌ अपच्यताम्‌ अपक्ष्यन म० अपर्यः अपच्यतम्‌ अपद्यत उ० अपसक्यम्‌ अपक्याव अ्रपद्याम

पच्‌(पकाना ) आत्मनेपद्‌

बतमान-लद्‌ प्रचते.. पचसे..

र४१

पचन्ते पचध्वे

पचावहे.

पचामहे.

पत्तीयास्ताम्‌ पत्तीरन्‌ पह्ीयास्थाम्‌ पक्तीध्वम्‌

उ०

पक्तीवहि..

पक्तीय

सामान्य भविष्य-लूट पहुयते.

पच्ष्येते

पक्ष्यन्ते

पच्यसे . पक्येये

पच्ष्यध्वे

पक्त्ये

पक्त्यावदे. पर्यामहे. अनद्यतनमूत-लड _ अपचत अ्रपचेतामू अपचन्त अपचथाः श्रपचेयाम्‌ श्रपचध्यम्‌ अपचे . अ्रपचावहि श्रपचामदहि

आशोर्लिड_

प्र० पक्तीष्ट. म० पत्चीष्ठाः

पक्कीमहि

परोक्षमूत-लिद्‌ पेचे

पेचाते

पेचिरे

म०

पेचिपे.

पेचाये

पेचिघ्वे

उ०

प्र०.

पेचे

पेचिवदे. पेचिमहे अनद्यतन भविष्य-छुट्‌ प्र० पक्ता पक्तारा पक्तारः म० पक्तासे पक्तासाने पक्तावे उ० पक्ताहे. पक्तास्वदे पक्तास्मदे

श्राश-लोद

सामान्यमृत-छुद_

पचताम्‌ पंचस्थ पचै

पचेताम पचस्ताम्‌ पचेथामू पचघ्यम्‌ू पचावदे पचामहै विधिलिड_

प्र० अपक्त म० अपक्याः उ० अपतसि

पचेत

पचेयाताम्‌ पचेरन्‌

प्र०

अपक््यत

प्रचेथाः

परचेयायाम्‌ पचेध्वम्‌ू

स०

अपकययाः अपक्ष्येथाम्‌ अपक्यध्वम्‌

पचेय

पचेवहि.

पचेमहि

उ०

अपक्ष्ये



(१३ ) पठ्‌(पढ़ना ) परस्मपदी

वत्तमान-लदू पठति पठसि

पठामि

अपक्षाताम्‌ अपक्षत अपक्ञाथाम्‌ श्रपक्ध्यम्‌ अपक््ह्दि अ्पच्महि क्रियातिपत्ति-लुड_ अपक्ष्येताम्‌ अ्परृयन्त

परस्मैपदी

सामान्य सविष्य-लुट्‌

पठत।.. पठयः।

पठन्ति पठय

प्र* स०

पठिष्यति पठिष्यतः पठिष्यसि पठिष्यथः

पठावः.

पठामः

उ०

पहठिपष्यामि पढिष्यावः पठिष्यामः

अनचतनमभूत-लड _

अपठत्‌ अपठः अपठम्‌

अपक्यावहि अपक्यामहि

श्रपठताम्‌ अपठन्‌ श्रपठतम्‌ अपठत अ्पठाव श्रपठाम

पठिष्यन्ति पठिष्यथ

आाशा-लोद

प्र० पठठु स० पठ उ० पठानि

पठतामू. पठतम्‌ पठाव

पढन्धु पठत पठाम

बहद-अनुवाद-चन्द्रिका

१४३ विधिलिड_

पठेतू.

पठेवाम्‌

अनदतन भविष्य-छुट पठितठा पठितारी. पढिताए पठिदासि पठितास्थः पठितास्थ पठितास्मि पठितास्वः प्रठितात्म।

पढ़ेयुः

फ्ढेः

पठेतमू.

पह़ेत॑

प्रठेयम्‌

परठेव

पठेम

आशीलिंड_ पव्याव्‌ू. एम्यास्ताम एक्यायुः

/ “ सामान्यमृत-खुड_ अ्पागीद्‌ श्रणग्शिय्‌. श्रणविषु:

पठ्याः. पव्यास्तम पठ्यास्म्‌ प्यास्थ

अपाठी। अ्पादिष्यू अप्ाठिष्ट अपाठिपम अ्रपाठिष्व अपािष्म फक्रियातिपति-लूड_

पव्यास्त पण्यास्‍्म

परोक्षमूत-लिट्‌

परपाठ०.. पेठतुः पेठिय. प्रेठथु8+.. परषाठ, पपठ पेठिंय.

पे पेठ पेठिम

उठ

श्रपठिष्यत्‌ श्रपठिष्यताम्‌ श्रपठिप्यन्‌ श्रपठिष्यः भ्रपठिष्यतम्‌ श्रपठिप्यत अपटिप्यम्‌ अ्रपटिष्याव श्रपठिप्याम

(१४ ) पा (विद) पीता-परस्मेपदी ५०2 वत्तमान-लट पिबतः . पिचन्ति पिवथः. पिचय प्रिबावः. पिचामः सामान्यन्‍लूद पास्यति पास्यतः . पास्यन्ति पास्यसि पास्यथः पात्त्यय प्रास्थासि परास्यावः वाश्यामः श्रनद्यतवमृत-लड' _ प्रिबति पिबसि पिवासि

आंपिबत्‌

श्रपिबताम श्रर्पिबन्‌

श्रपिय/

अपिबतम्‌

श्रपिबत

अपिवम

अपिबाव

अपिवाम

आशा-लोद पिवलु-पिदत्तात्‌ पिचताझ पियस्तु पियि ' पियतम पिचत पिवानि सेबाब प्रिवाम

विधिलिड_ पिवेतू. पिदे।.

पिवेताम पिचेयुः वितम . व्बित

पिवेयम' फिवेव

' दिवेस

चर

पेयाः.

पेयास्तम

उग

पैयातम्‌

पेयास्व *पेयास्म परोक्षमूत्-लिद

प्र भण जण०

प्र० >

झआशोीलिंड पेयास्ताम्‌ पेयामुः

पैयात्‌.'

मण

पपौ

प्रपतु:.

पैयास्तत पुर

पफ्रिथ, पयाथ पषथु+

पप

प्पौ

पपिम

प्रावा

प्रिय.

श्रनचवन मविष्य-लुट

पावारी.

पातार:

मे० पागसि पातास्थः पातास्थ ल० प्रातास्मि परातास्‍्वः परातारसः साम्रात्यमूत-धद_ प्रढ अपात. शपाताम अपुः मठ अप: श्रपातम्‌ श्रपात ० अपाम॑ शथ्रपाव अ्रपाम कियादिपत्ति-लूद_ च्र० श्रपास्वत्‌ श्रपास्यताम्‌ श्रपास्थन्‌ म० ०

अपास्यः श्रणस्वतम्‌ अपात्यम अ्रपात्याव

'श्रपास्यत अ्परात्याम

घाठ-रूपावलो

रएडे

उभयपरी (१५ ) भज्‌ ( सेवा करना ) परस्मेपद बतमान-लट्‌ आशीलिड_ मजति मजसि भजामि

भजतः भजथः. भजावः.

मजस्ति मजथ भजामः

सामान्य भविष्य-लूट भक्यतः. मह्यन्ति. भक्ययः. भक्यय

भक्त्यति भक्यसि भक््यामि

भक््यावः

भक्त्याम:

प्र० मर० उ०

भज्यात्‌ भज्याःः अभज्यास्म

प्र०.. म०

परोक्षमूत-लिद्‌ बमाज मेजतुः.. मेजर भेजिय, बमक्थ मेजथुः मेज

उ०.

बमाज, वभज भेजिंव

भेजिम

प्र०.

भक्ता

भक्तारः

अनद्यतनमूत-लड_ अभजत्‌

अभजताम्‌

अमजन्‌

भज्यास्ताम्‌ भज्यासुः मज्यास्तम भज्यास्त भज्यास्थ अज्यास्म

अ्रनचतन भविष्य-लुट्‌ भक्तारौ

अभजः अमजम्‌

अमजतम्‌ अमजत अमजाब अभमजाम

मं० उ०

भक्तासि मक्तास्थः भक्तास्मि भक्तास्वः

भेजतु भज॑ भजानि

भजताम्‌ भजतम्‌ भजाव

भजन्तु मजत. भजाम

प्र० म० 3०

अ्रमाक्तीत्‌ अमाक्ताम्‌ अभाहु: अ्माक्षीः अ्माक्त्म अमभाक्त असमाक्तम्‌ अ्रभाह्व अमाउम

भजेत्‌

भजेताम्‌

भजेयुः.

प्र०.

अमच्यत्‌ अभक्यताम्‌ अमच्यन्‌

मजेः मजेयम्‌

भजेतम भजेब

भजेत मजेम

मं० उ०

अमक्ष्यःः अभक्ष्यतम्‌ अमचक्ष्यत अमक्ष्यम्‌ अ्रमच्ष्याव श्रभक्ष्याम

आज्ञा-लोद्‌

विधिलिक_

भक्तास्प भक्तास्मः

सामान्यभूत-खुड.

क्रियातिपत्ति-लूड_

भज-( सेवा करना ) आत्सनेपद

भजते

बतमान-लट्‌

भजेते.

मजसे . भजेये भेजे भजावहे

भक्यते भक््से भक्ये.

श्राज्य-लोद

भजन्ते.

प्र०.

भजताम्‌ भजेताम्‌

भजदघ्वे अजामहे

मजन्ताम्‌

म० उ०

भजल्व भजै

,मजध्वम्‌ .मजामहै

सामान्य मविष्य-लूट ,+

ब-

भक्तेते

मह्यन्ते

भक्येये मक््यावदे

अ्र०

भजेत

भत्यप्वे 'भ० भल्‍्वामहे ०

मजेयाः मर्जेये

अनद्यतन मृत-लड

भजेयाम्‌ भजावह

विधिलिड_.

भजेयाताम भजेरन्‌

भजेयाथाम्‌ मजेध्वम्‌ मैलेपहिं. भजेमद्ि आशीर्लिंड

अमजत

अभजेताम्‌ अमजन्त “अ«

भ्ती८ .भछ्षीयास्तामों मक्तोरन्‌

अमजे

श्रमजापहि अमजामहि उ०'

भक्तीय

अभजपा: अमजेयाम्‌ अमजघ्यम्‌ ग०

मद्धीछाः

मक्षीवास्थाम्‌

भक्तोवहिं.

मत्तीख्वम्‌

मक्षोमदिं

१4 8 $

गहृदू-अनुवाद-चम्द्रिका परोक्ष भत-लिट

चासान्यमत-छुढ |

भेजे भैजिपे भेजे

भेजाते. भेजिरे अभक्त अमछाताम्‌ अमझच भेजाये. मेजिघ्वे अमक्थः अमच्ाथाम्‌ अमण्वम्‌ भेजिवहे. सेजिमदे अमभतक्ति अ्रक्वादि अ्मर््माह अनद्यतन भविष्य-छुट्‌ क्रियातिपत्ति-लूड अन भक्ता भक्तारा भक्तारः अभष्ष्यत अमभच्येताम्‌ अभच्यन्त मक्ताते. भक्तासाये. भक्ताध्बे स० अमद्यथाः अमर्येयाम्‌ अ्रभन्यध्वश्‌ भक्तादे भक्ताखदे. भक्तास्मदे उ० अभकझे अमज्यावहि 'अमदुपामहि (१६ ) भाधू ( बोलना ) श्रात्मनेपदी बतमान-लट आरांशीलिंद, प्रण भाषिषीछ भाषिषीयास्ताम्‌ भापिषीरत््‌ भापततेे. भाषेते मापन्ते म० मापिषीछाइसापिपोयास्थाम्‌ मापिपीश्वम्‌ आपसे भापेथे.. भाषध्वे उ० भाप. भाषावहे मापामदे भाषिषीय भाषिदीवद्दि.._ भाषिषौमदहि सामान्य भविष्य-लूड परोक्षमुत-ल्िद मापिष्यते भाषिष्येते भाषिष्यन्ले प्र०ः बभापे बमापाते बेमापिरे भाषिष्यसे भाषिष्येथे भापिष्यध्वे म० बम्ापिषे ब्रभापाये बमापिष्ते भाषिष्ये. भाषिष्यावद्दे सापिष्यामदे उ० बअभापे. बमापिवदे बमापिमहै श्रनदतनमूत-लड_ श्रनद्यवन भविष्य-छट्‌ अमाषत श्रमापेताम्‌ श्रभापन्त प्र०. मापिता मापितारी भापितारः अभाषथाः श्रमाधेथाम्‌ श्रमापथ्वम, स० भापितासे भाषितासये भाषिताश्वे अमापे अ्रभाषावहिं अ्भाषामहि झुन भाषितादे आापितारवद्दे भापिनास्मदे सामान्यभृत-छुट आजरा-लोट मापताम्‌ भाषस्व

भाषपेताम_ भापियाम

भापन्ताम्‌ भाषध्वम्‌

भार

भापावहै भाषामदै विधिलिद

भापेतव भाषेधा।.

भाषेयाताम सापेरस, भापेयाबाम मापेध्वम्‌

भादपेष

मापेददि

भपदेमरि

प्र भ०

अमापिष्ट

श्रमाषिषाताम्‌ श्रमापिषत

अभाषिशः अमाषिषा पाम्‌अमापिष्वम्‌ उ०> अंम्राषिति श्रमाषरिष्वहि श्रमाफिष्महिं क्रियातिपत्तिल्‍्लूट प्रश्ग्रमापिष्यत श्रमाविष्येताम्‌ श्रभेपिष्यन्त मब्च्रभाषिष्यथा/श्रमापिष्येधास शमापिष्यप्वम्‌ उब्श्रमाषिष्ये श्रमाषिष्यावह्ि अ्रमापिष्यामदि

उभयपदी (१७ ) # ( भरना, पालना-पोसना ) पररैपद

चतमान-लद मरति... मरसि भरामि

भरहः भरभः भरोवः.

भरम्ति मस्च मरामः

मर. मे० छ*

सामान्य अविष्य-लुट भरिष्यति भरिच्यदः भरिष्यन्ति भरिष्यसि मरिध्ययः मरिष्यप भरिष्यामि मरिष्यावः मर्प्यामः

आतु रूपाबली परोक्षमूत-लिद्‌ बभार बशठः. बच बमर्थ बश्नथुः. बश्न बमार,वमर बभुव बसभुम

अनग्यतनमूत-लड_ अमरताम्‌ अभरन्‌ अमरतम्‌ अमरत अमराव अ्रमराम आज्ञा-लोट मरतु भरताम्‌ भस्न्तु मर भरतम्‌ मरत मरानि भराव भराम विधिलिड भरेत्‌ू. भरेताम्‌. भरेयुः भरेः भरेतम्‌ भरेत मरेयम्‌ भरेव भरेम

अमरत्‌ अमरः अभरम्‌

प्रियात्‌.

र४४घ

अनद्यतन मविष्य-लुट्‌ भर्ता भर्तांसि

मर्तास्मि

भर्तारी. भर्तास्थ,.

भर्तास्वः

भर्तारः भर्तस्थि

भर्तास्मः

सामान्यमूत-लुढू अमापौत्‌ श्रमार्शम अमभाः अमार्पी:

अभाष्टम,

अभाष्ठ

अमभाषम्‌

अमभाष्य॑ अभाष्म क्रियातिपत्ति-लूड' अभरिष्यत्‌ अभरिष्यताम्‌ श्रभरिष्यन्‌ अभरिष्यः अमरिष्यतम्‌ श्रभरिष्यत अ्रभरिष्यम्‌ श्रमरिष्याव अ्रभरिष्याम

आशीलिंड_ भ्रियास्ताम्‌ श्रियासु३

प्रियाः. श्रियास्तम्‌ श्रियास्त प्रियासम्‌ भ्रियार्व भ्रियास्म

स् ( पालना-पोसना, भरना ) आत्मनेपदी

बतमान-लद्‌ मरते. भरेते भस्न्ते भरसे .. भरेथे भरध्वे भरे भरावदे. भरामदे सामान्यभविष्य-लूट मरिष्यते भरिष्येते. मरिष्यन्ते मरिष्यसे

भरिष्ये अमरत अमस्थाः

अमरे

भरिष्येये..

भरिष्यध्वे

भरिष्यावदे मरिष्यामहे अनद्यतनमृत-लड_ अमरेताम्‌ अभरेयाम्‌

अमसरनन्‍्त अभरध्वम्‌

प्र०

मस०

उ०

मरेत.. मरेथाः भरेय

विधिलिड' भरेयाताम्‌ भरेरन्‌ भरेयाथाम्‌ मरेब्वम्‌ भरेवहि. भरेमहि

भृषीः भुपीछठाः

भृषीयास्ताम भ्पीरन्‌ भृषीयास्थाम भृषीष्वम्‌

भसृपीय

भृपीवह्ि

आशीलिंड प्र० मे उ० प्र० म०

अमरावहि अमरामहि

यश्ने बमृघे

बश्राये

बभृष्वे

बचन्र

बमृवहे.

बमृमददे

आजशा-लोट्‌

मस्ताम

भरेताम

भरन्ताम्‌

अर

भरस्व

भरेयाम्‌

भरध्वम्‌

मरे

भरावहे._

भ्महे

म० ख०

भृषीमहि

परोक्षमूत-लिट्‌ बच्ाते बश्निरे

मर्ता मतसि मर्तादि.

अनद्यतन भविष्य-लुट्‌

भर्तारा मर्तार मर्तासाये भर्तष्चे भर्तातवहे.भर्तास्मदे

शष्६ अभृत आअमृथाः अभृूषि

बहदू-अनुवाद-चन्द्रिका खामान्यमृत-लुद_ अश्रभृपराताम ब्भृूषत ध्र०. अ्रमृपायाम्‌ श्रभृष्यम्‌ . म० अमृष्यद्दि ध्रभृष्मद्ि 3०

५.

कियातिपत्ति-लूद_«» अमरिष्यत >अ्रमरिष्येत/म्‌ श्रमरिष्यन्त श्रमरिध्यधाश्थ्रमरिष्येथाम्‌ अमरिष्यध्वग श्रभरिष्ये श्रमरिप्यावहि श्रभरिष्यामहि

(६८) भ्रम (अमण करना ) परस्मैपदी _....”

वतमान-लद

« परोक्षमृत-लिद

अमति

भश्रमता.

अमन्ति

प्र०

बश्नाम

प्रेमतः

श्रम

अमसि

भ्रममा.

भ्रमथ

म०.

भ्रेमिय..

भ्रेमशुः'

अभ्रेम

अमामि

अभ्रमावः

श्रमामः.

उ०

बच्राम,बश्रम प्रेमिव. भ्रेमिम

शामान्य भविष्य-लूट्‌ कथा अमिष्यति भ्रमिप्यतः , भ्रमिष्यन्ति प्र० [ वश्राम वश्नमत! बश्रमुः अमिप्पसि भ्रमिष्यथः अ्रमिष्यय म* 4 वश्नमिथ वश्नमथु) बश्रम अमिष्यामि भ्रमिष्यावः श्रमिप्यामः उ० [ वश्नाम,ब्नम बश्नमिव बश्नमिम

अनदथ्ववनमूत-लड

अनद्वतन भविष्य-लुद

श्रश्नमत्‌. श्रश्नमताम्‌ श्रश्रमन्‌_पग्र०

भ्रमित

श्रश्रमः अभ्रमम्‌ अमत अम

प्र०.. म०_

भ्रमितासि, अ्रमितास्थः भ्रमितास्थ भ्रमितास्मि भ्रमितास्वः भ्रमितास्मः ! ! *सामानयभून-छुढ_ श्रश्नमीत्‌ श्रभ्रमिशम्‌ श्रश्नमिषुः श्रश्नमीः श्रश्नमिष्म्‌.श्रश्नमिष्

अमानि

भ्रमाव

उ०

श्रश्नमिपम्‌ श्रश्नमिप्य

अमेत्‌.

अमेताम

अमेयुः .. ग्र०

अ्मेः..

भ्रमेतम.

अमेत

मं०

श्रश्नमिष्यः अप्नम्िष्यतम्‌ श्रश्नमिष्यत

भ्रमेम

उ०

श्र्नमिष्पम्‌ श्रश्नमिप्याव श्रभ्नमिप्याम

अमाम

विधिलिड_

अमेयम्‌ . अ्मेंव

म० 3०

श्रमितारो , भ्रमिताए

श्रभ्रमंतम्‌ अ्भ्रमत श्रश्नंसाव श्रश्नमाम श्रात्ान्लीद अमताम्‌ अ्रमन्तु अमतम्‌ भ्रमत

श्रभ्नमिष्म

क्रियातिपत्ति-लुड_

अ्रश्नमिष्यत्‌ श्रश्नमिष्यताम्‌ श्रअ्रमिप्यन्‌

आशीर्शिड_ अम्यात.. भ्रम्वास्ताम्‌ श्रम्यासुः प्र अ्रम्याः.. भ्रस्थास्वम्‌ अम्यात्त मर अ्रम्यातम अ्रम्यास्त्र अ्रम्बास्स उ० (१६ )मुद्र ( ्रसन्न दोना )आत्मनेपदी लद्‌ लय

मोदते

मोदेते.

मोदन्ते.

प्र०.

मोदिष्यते मोदिष्येते भोदिष्यस्ते

मोदसे मोदे.

मोदेये मोदावद्दे

मोदष्वे मोदामद्े

म० उ०

मोदिष्यसे मोदिष्येये मौदिष्यध्ये मोदिष्ये मोदिष्यावदे मादिष्यामदे

घाउ-ल्पावली « लेंड_ अमोदत श्रमोदेवाम अ्मोदन्‍्त अमोदया; अमोदेथाम्‌ अमोदष्वम्‌

अमोदे..

प्र म०

श्रमोदावदि श्रमोदामह्दि उ० लोद

मोदताम, मोदेताम,

मोदन्ताम_

मुमदे. मुमुदिषि

सुसदे.

लिंय. . मुम॒दाते मुदुदिरे मुमुदिध्वे मुमुदाये

सुमुदिवद्दे मह्ठुदिमिदे जुट

प्र० मोदिता 'मोदितारी मोदितारः

मोदितासे मोदितासाये मोदिताध्वे मोदितादे भोदितास्वद्े मोदितासुमहे छुड_ प्र० श्रमोदिष्ठ अमोदिषाताम्‌ श्रमोदिषत

म० छ०

मोदेत..

मोदेथाम्‌. भोदष्वम्‌_ भोदावहै सोदामहे विधिलिड_ मोदेयाताम्‌ भोदेरन्‌

भोदेयाः

मोदेयाथाम्‌ मोदेष्यमू._

म०

मोदस्व॒ मोदे.

२४७

अमोदिषाश्य्रमोदिषराथामथ्रमोदिदबम्‌

मोदेय . भोदेवहि. मोदेमदि. उ० अ्रमोदिषि अ्रमोदिष्वदि अ्रमोदिष्महि आशीर्लिंड भोदिषीष्ट मोदिषीयास्वाम्‌ मोदिपीरन्‌ प्र०श्रमोदिष्यत श्रमोदिष्येताम्‌ अमोदिष्यन्त मौदिपीश्ाःमोदिपीयास्थाम्‌ मोदिपीध्वम म०श्रमोदिष्यथाः अमोदिष्येयाम्‌अमो दिष्यध्वम्‌ मोदिपीय मोदिषीवहि मोदिपीमहि उ०«अमोदिष्ये अमोदिष्यावहि अ्रमोदिष्यामहि

उभयपदी (२० ) यज्‌ ( यज्ञ करना, पूजा करना ) परस्मेपद्‌ यजति. थजसि

यजामि

बतमान-लद्‌ यजतः.. यजन्ति

प्र० यजेत्‌.

विधिलिड यजेताम . यजेयुः

यजथाः

म०

यजेतम्‌

यजावः

यजथ

यजाम;.

सामान्य भविष्य-लूट यद्यति यक्ष्यतः यह््यन्ति.

उ०

यजेः

यग्जेयम्‌ यजेंब.

यजेत

बजेम

प्र० इज्यात्‌

श्राशीलिंड_ इच्यास्‍्ताम्‌ इज्यासुः

यह््यसि

यह्ययः.

यह्यथ

म०

इज्या३ः.

इज्यास्वम्‌ इज्यास्त

सद्यामि

यक्ष्यावः

यक्ष्यामः

उ०

इज्यासम्‌ यज्यास्थ

प्र०. म० उ०

परोक्षमूत-लिद इयाज ईजतुः. ईजुः इजयिय, इयछ ईजयुः. ईज इयाज, इयज ईजिय ईजिस

अनद्यतनभूत-लड _ अयजत्‌ अयजताम्‌ अयजन अयजः श्रयजतम झयजत श्रयजम ग्रवजाव श्रयजाम

यज्यास्म

यजतु यज

आज्ञा-लोद_ यजताम्‌. यजन्तु यजतम्‌ यजत

अनद्यतन मविष्य-छुट प्र० यश यध्ठारौ यश्टारः म० यथ्टासि यथ्टास्थाः.. यष्टास्थ

यजानि

यजाब

उ०

यजाम

यथ्टास्मि

यश्ास्ःः

यथ्टास्मः

र्ध८

बूहदू-अनुवाद-चन्द्रिका शामान्‍्य॑मूत-छुछू

अयाहीत्‌ श्रयाष्ठाम्‌॒अ्याछुः अयाक्कीः अ्रया"्टमू अयाद्ट श्रयाज्मम्‌ू अयाक्ष अयाहम

क्रियातिपत्ति-लूझ

प्र* अगक्ष्यत्‌ अ्रयक्ष्यताम अ्रव॑क्यन मे० अयछ्यः अय्वतम्‌अयहूयत उ० अ्रयक्ष्यम्‌ अ्रवद्याव श्रयद्यास

(२१ ) यज्‌(यज्ञ करना, पूजा करना )भ्रात्मनेपद वतमान-लद आ्शीलिंद_ बजते.. सजसे. यजे.

यजेते यजन्ते यजेथे. यगजघ्वे| यजावदे यजामदे. सामान्य भविष्य-लूद यक््यतें यदयेते. यछयन्ते यक््यसे यक््मेये. यह्यध्वे..

यहये.

यक््यावदे यह्यामहे.

प्र० यक्षीष्ट. यक्लीयास्ताम यत्दीरन्‌ म० यक्ञीह्झ! यत्ीयास्थाम यदीष्वम्‌ उ० यक्ञीय यदीवहि यद्ञीमहि परोक्ष॒भूत-लिद प्र०. ईजे ईजाते.. ईनिरे म० ईजिये ईजाथे ईजिप्वे

उ० ईजें..

अमयतनमूत-लड_ अयजत श्रयजेताम्‌ श्रयजन्त . प्र० ग्रयजथाः श्रयजेयाम्‌ श्रयजध्वम म० झयजे. अयजावहिं अ्रयजामहि उ० आ्राश-लोद्‌ प्र० यजस्तामू. यजताम यजैताम यजस्थ॒

यजै यजेत..

यजेयाम

यजध्वम्‌

यजावहै यजामहे. विधिलिद.

यजैयाताम्‌ यजैरन

मे०

3० प्र०.

ईंजिवदें.

ईजिमहे

अनद्यतन भविष्य-खुट्‌ यशरः यथ्टरा या... स्ठताये. यश्ठाप्वे यथष्टोसे. यहामहे य्रष्टादे. यशदे. सामान्यमूत-लुद्ू श्रयक्षाताम्‌ अयच्त शब्रयष्ट. श्रय्टाः

श्रयक्षि

श्रयक्षाथाम्‌ श्रयक्षप्वम्‌

श्रयद्धदि श्रयद्मदि क्रियातिपत्ति-लुइ_

श्रयक्ष्यत श्रयद्येताम्‌ अयह्वन्त

यजैयाः.

यजैयाधाम्‌ यजेध्वम्‌

मे०

श्रमक्ययाः अयदपेथाम्‌ अ्रयहप्वमू

यजेय...

यजैवद्दि.

यजेमह्दि

उ०

अ्रयक्ये.

श्रयच्रतरावहि श्रयद्यामदि

उमयपदी (२२ ) याघ्‌(माँगना ) परस्मैपद

बतमान-लट

सामान्य भविष्य-लूट्‌

यावति

याचतः.

याचन्ति.

प्र यात्रिष्यति याविष्यतः थार्चिष्यस्ति

याच्सि गाचामि

माचयः याचावबः

याचथ याचामः

मे» उ०

याजविष्यत्ति याविष्यथः यानिष्यय याविष्ामि बाविष्यावः वाविष्यामः

१७

घातु-रूपावली ( म्वादि ) लड्‌

रश्६ लि

अयाचत्‌ अयाचताम्‌ श्रयाचन्‌ अयाच: अयाचतम्‌ श्रयाचत_ अयाचम्‌ अयाचाव श्रयाचाम लोद्‌ याचत याचताम्‌ याचन्तु याच याचतम्‌ू याचत याचानि याचाव याचाम

प्र० ययाच म० ययाचिथ उ० ययाच

यवाचहः ययाचथुः ययाचिव लुद प्र० याचिता याचितारी म० याचितासि याचितास्थ* उ० याचितास्मि यायितास्व+

विधिलिद

ययाचुः ययाच यवाचिम याचितारः याचितास्य याचितास्म+

छुड_

याचेत्‌.

याचेताम्‌

याचेयमू

याचेव याचेम आशोर्लिड_

उ० अ्याचिपम्‌ अ्रयाचिष्प अयाचिष्म लूड,

याच्यात्‌

याच्यास्ताम्‌ याच्यामुः

प्र० अयाचिप्यत्‌ अयाचिप्यताम्‌ श्रयाविष्यन्‌

याचेः.

याचेतम्‌

याचेयु:

याचेत

याच्याः याच्यास्तम्‌ याच्यास्व याच्यासम्‌ याच्यास्थ याच्वास्म:

प्र*

म०

श्रयाचीत्‌ श्रयाचिष्टाम्‌ अयाचिपुः

श्रयाचीः अ्रयाचिष्टम्‌ अयाचिष्ट

म० अयाचिप्यः श्रयाचिप्यतम्‌ अ्याविष्यत उ० अयाचिष्यम्‌ अयाचिप्याव श्रयाचिष्याम

याच्‌(सॉगनः ) आत्सनेपदी लू यांचते.याचेते याचसे . याचेथे याचे याचावद्दे ल्दू

याविष्यते याविष्येते याचिष्यसे याचिप्येये याचिष्ये याचिष्यावद्दे कट अवाधत श्रयाचेताम्‌

विधिलिड्‌ याचन्ते याचब्वे.. याचामद्दे

प्र म० उ०

याचिष्वन्ते .प्र० याचिप्यष्वे म० याचिघ्यामहे «3० अ्याचन्त

अ्रयाचया। अयाचेयाम्‌ अयाचध्वम अयाचे. अयाचावहि अयाचा्महि

प्र० म० उ०

लोय्‌ याचताम्‌ याचस्व

याचेतामू याचेथाम

याचन्ताम्‌ याचघ्वम्‌

प्र म०

याचे.

याचावदे

याचामहै

ड०

याचेत याचेथाः याचेय.

याचेयाताम्‌ याचेरन्‌ याचेयाथाम्‌ याचेच्वम्‌ याचेवद्दियाचेमहि आशीर्लिंड' याचिपी्ठ याचिपीयास्ताम्‌, याचिपीरन्‌ थाचिषीशाभ्याचिपीयास्थाम्‌ याचिप्रीध्वम्‌ याचिपीय याचिप्रीवद्दि. याचिपरीमददि लिय्‌ ययाचे. ययाचाते ययाचिरे यवाचिप्रे

ययाचे

ययाचाये

ययाचिवद्धे छंद याचिता याचितारी याचितासे याचितासाये याविताहे यावितास्वद्दे

ययाचिघ्वे

ययाचिमदे याचितारः याचिताध्वे याचितास्मदे

ड्र्०

बृहदू-श्रनुवाद-चन्द्रिका लुड

अयाचिष्ट श्रयाचिपाताम्‌ श्रयाचिषत प्र० श्रवाचिष्यत श्रयाचिष्वेताम्‌ श्रयाचिघ्न्त अयाचिष्ठा/श्रयाचिपराथामृग्रयाचिदवम्‌ म० श्रयाचिघ्यथाःअ्रयाविष्येधाम अयायिष्म अयारचिपि श्रयाविष्वहि श्रयाविष्महि उ० श्रवाविष्येश्रयाविश्यावद्ि श्रयाविष्यागर

(२३ ) रक्त (रक्ता करना ) परस्मैपदी

चतमान लद

आशीर्लिंड_

रचति

रक़ुतः

रक्षन्ति

प्र

क्षति

रक्तथ

रक्ष्य

स०

रक्षामि

रजावः ल्‌ट्‌ू

रज्ञामः

छु०

रक््यातू. र््यास्ताम्‌ रक्ष्याठुः रक्याः. रच्यास्तम्‌ रघ्यास्त रह्यासम्‌ रक््यास्व रचुयास्म लिदू

इर्धिष्यति रक्तिष्यतः

रक्तिष्यनम्ति

स्क

ररबताः.

रच

रक्प्यसि रक्तिप्यपः

रक्तिष्यथ

रक्िष्यामि रक्तिप्यावः लड अरचत्‌ अरक्षताम्‌ अरचणः अ्रधसोेतम्‌ श्ररक्षमू श्ररक्षाव लोद्‌ रचतु. रचुतामू रत्न रक्ततमू. रचाणि रचाव विधिलिड

रक्तिष्यामः

रक्तिथ रच

रख्थुः. ररत्तिव

रख्क ररत्तिम

श्ररत्षन्‌ श्ररक्षत श्ररक्ञाम

रक्तिता

घुद रकितारी

रचितारः

रख्स्तु रक्त रक्ाम

श्ररक्षीत्‌॒. श्रर्रक्षशम्‌ श्ररत्तिपुः अरक्ीः श्ररक्षिषम्‌ श्रक्षि/ अरक्तिपम्‌ श्ररक्षि्यव. श्ररद्धिप्म लूड. अरत्षिष्पत्‌ श्ररक्तिष्यताम श्रत्तिप्यन अरत्तिप्पः श्रक्तिष्पतम्‌ अ्रक्तिप्यत अरक्तिप्पम्‌ श्ररक्षिष्याव श्ररक्तिप्याम

रेत.

रहेतामू.

रखेयुः

रक्चिताति रष्चितास्थ:

रप्तिताथ

रक़्त्ररिमि रक्षितास्वः रक्तारमः छुड्‌

प्र

रक्तेः . रक्तेतम्‌. रक्ेयम्‌ रक्तेव

मण० रचेत छ्० रक्षेम (२४ ) लभ्‌(पाना ) भ्रात्मनेपदी श्रनयतनमृत-लह_ वर्तमान-लद चर अलमत श्रलभेताम्‌ श्रलमन्त लमते . लमेते... घमस्ते

लमसे . लमेये

लमे

लमघ्चे

लभावदे._ समामदे सामान्यमविष्य-लूटू लप्त्यते लप्स्पयेते. शप्स्वन्ते लप्पसे लप्स्येये.. लप्स्यष्ये लप्स्पे. लप्त्पावदे लप्स्पामदे

म०

अलमयाः

श्र॒लमेथाम्‌

छ०

अलमे.

श्रलमावहि श्रलभामदि

च० म० छ्ण

लमतामू लमेतामू॑ लमस्व

लगे.

श्लमणम्‌

ब्राशान्लोट

लमस्ताम्‌

लमंथाम

लमघ्यम

तमावददे.

समामे

घाठु-रूपावली ( म्बादि )

श्श्र्‌

अनचतनभविष्य-लुद्‌

विधिलिंड,

लब्घा

लब्घारः

लमेयाताम्‌

लमभेथाः 'लमेय

लमेयायाम्‌ लमेध्वम लमेवहि.. लमेमहि आशीलिंड

लब्घासे लब्धासाथे लब्धाब्वे लब्धादे .लब्धास्वृहे लब्धास्महे

लप्सीयास्ताम्‌ लप्सीरन्‌

अलब्ध॒

लप्सीष्ट._

लमेरन्‌

लब्धारा

लमेव.

लप्सीट्ठाः लप्सीयास्थाम्‌ लप्सीष्वम्‌ लप्सीय. लप्सीवद्धि. लप्सीमहि

उ०

परोक्षमृत-लिद्‌

सेमे खेमिपे.. लेमे

लेमाते. लेमाये लेमिवदे.

ल्षेमिरे लेमिघ्वे लेमिमदे

प्र० म० छण०

अलब्धाः अलप्सि

सामान्यमृत-छुड_

अलप्साताम्‌ अलप्सत अलप्साथाम्‌ अलब्ध्यम्‌ अलप्स्वहिं अलप्स्महि

क्रियातिपत्ति-लूड अलप्स्यत अलप्स्येताम्‌ अलप्स्यन्त अलप्स्यथाः अलप्स्येयाम्‌ अ्र॒लप्स्यध्वम्‌

अलप्स्ये

अलप्स्यावदि अलप्स्यामदि

(२५ ) चदू (कहना )परस्मेपदी ५__.-

बतमान-लट्‌ चदति चदसि चदामि

बढतः. बदथः बदावः लृद्‌ चदिष्यति बदिष्यतः धद्िप्यसि बदिष्यथः चदिष्यामि वदिष्यावः

बदन्ति बदथ वदामः

आशीलिंड_ उद्यात्‌ू डलद्यास्तामू उद्यामुः उद्याः डद्यास्तम्‌ उद्यास्त उद्यासमू उद्यास्व डलद्यास्म लिय्‌

वदिध्यन्ति वदिष्यय वदिष्यामः

उवाद

ऊदतुड

ऊदुे

उवदिय

ऊदथु:

कूद

वदिता

उबाद, उवदद ऊदिव_* ऊदिम

लड'

चुद बदितारी

वदिताएओ

अबदत्‌

अवदताम

श्रवदन्‌

अवबद:

अवदतम

श्रवदत

अवदम्‌

अवदाब

अवदाम

वचदत॒

लोद्‌ वदताम्‌ बदन्तु

अवादीत्‌ अवादिश्टमू अब[दिपुः

वंदतम्‌

अवादीः

» चंद

बदत

वदानि

बदाव वबदाम बिलिलिद

चदेत्‌ू. बदेः

बदेताम्‌ चदेतमू

वदेयम्‌ वदेव.

बदेयुः बदेत

वदेम

वदितासि बदितास्थः वदितास्थ वदितास्मि वदितास्वः वद्तास्मः लुहा

अवादिष्टम अवादिष्ट

अवादिपम्‌ अवादिष्व

अवादिष्म

लूडः अवदिष्यत्‌ अवदिष्यताम अबदिष्यन्‌ अवदिष्यः अवदिष्यतम्‌ अवदिष्यत अवदिष्यम्‌ अवदिष्याव अ्वदिष्याम

इहदू-असुवाद-चन्द्रिका

श्र

उभमयपदी (२६ ) व्‌(वोना, कपड़ा घुनता ) परस्मेपद वर्तमान-लद् बपति.

वषतः

घपन्ति

चपसि

वषथः

वपयथ

बपामि

वपावः

वषामः

आंशीर्लिंड_ च्र० उप्यात्‌. उप्यास्तामू उप्यामः उप्पास्तमू उप्यास्त म० उप्याः उ० उप्यासम्‌ उप्यास्थ उष्पात्म

परोक्षमूत-लिदू

सामान्य भविष्य-लूद्‌

घप्स्यतिं वप्स्यतः. वष्स्यन्ति. वप्स्यसि वप्स्यथः वपष्स्यथ बप्स्यामि वष्स्यावः वष्स्यामः. श्रनद्यतनमूत-लड्‌ अवपत्‌ श्वतताम्‌ श्रवपत्‌ अवपः श्रवपतम्‌ श्रवपत अवपम्‌ अयपाद श्रवषणम

प्र० म० उ०

उवाप

ऊपुः

ऊपतुः

उवपिथ, उवाय ऊपयुः

कप

बपतु बप बपानि

वपताम बपतम्‌. वषाव

वषन्धु बषत बपाम

बपैतू.. बपेः

बपेतामूं बपेतम्‌ग्‌

धपेयुः बफेत

फ्प्िम ऊपिव उबाप, उवप अन॑यतन मविष्य-छुट वस्तारा बत्ारः प्र० बसा. स० वह्तासि वत्तास्थः वप्तास्थ उ० वद्तातिमि वत्तीत्वः वह्तास्मः सामान्यमूत-छुड_ प्र्० अवाप्सीत्‌ श्रवाष्ताम्‌ श्रवाप्मुः म० क्रवाप्सीः श्रबासम, अश्रवाप्त प्रवाप्म ड० अवाष्सम्‌ अवाप्त्व कियांतिपचि-लूड_ प्र अवपष्स्यत्‌ श्रवृप्स्यतामू अवष्त्थन, म० झेवप्स्यः भ्वष्स्यतम अवष्स्यत

बपेस

ख्०

श्रह्यानलोटू

वपेयम

विधिलिड__

बपेव

श्रवप्स्पम्‌ शअवपष्स्पाव

अ्रवष्छाम

वर्ष्‌ ( थोना, कपड़ा घुनना ) श्रात्मनेपद श्रनचतनभूत-लद_ बर्तमान-लदू

. बाते घपते वषाये. बषष्वे यपावद्दे. बषामहे.. खम्ान्व माविष्य-लूद बच्ध्यते वृष्छवेते यप्ध्यन्ते..

शध्रवपरेताम अ्वपन्‍्त च्र० श्रयपत मे आझअवपयाः श्रवेपेयाम शवपातम उ० अबपे . अवपावदि श्रवप्रामहि

सप्त्यसे

वष्स्येये

चप्स्पप्बे..

स०

घप्थ्ये.

वष्स्यावदे वष्त्यामदे

उ०

बपते घपसे बे

झाश+लौद श्र० बपताम यपस्व

चपै

वष्रेताम व्पेयाम

पपावदै..

वपन्ताम वषध्वम

ग्रपामदे

घात॒ु-रूपावली ( म्वादि )

२०३

अनद्यतन नरिष्य-लुद

विधिलिड

वस्ता. बत्ासे. वतादे.

बचद्चारौ बतारः वन्तासायथे. बच्ताष्वे वत्ास्वहे. वत्तास्मदे चपेय वपेवहि वपेमहि अनश्ृतन मूत-छुड्‌ आशीलिंड ग्र० अवत अवप्साताम्‌ अवप्सत वप्सी.्ट. यप्सीयास्ताम्‌ वप्सीरन्‌ वप्सीछठाः वस्ठीयास्थाम्‌ वष्तीष्वम्‌ म० अवप्पाः अवष्साथाम्‌ अवब्ध्यम्‌ छज अऋचाप्छि अवप्स्यहि 'खप्स्महि चष्सीय. वप्सीवदि वष्छीमाहि परोक्षमूत-लिद्‌ क्रियातिपत्ति-लूड_ प्र० अवप्स्यत अवप्स्येताम अवष्स्यन्त ऊपे ऊपाते . ऊंपिरे चपेत.

बपेयाताम्‌ वपेरन्‌

बपेयाः

वपेयाथाम्‌ वपेष्चम्‌

ऊपिषे..

ऊपाये

ऊपिष्वे

मण०

ऊ्पे

ऊपिचद्धे

ऊपिमहे

छ०

अवपष्स्यथाः अवपष्स्येथाम्‌ अवप्स्यष्वम्‌ अवप्स्ये अवपष्स्यावहि अवप्स्यामहि

(२७ ) बस्‌ ( रहना, समय विताना, होना ) परस्मेपदी बतमान-लट्‌ चसति बतसि

चसामि

बसतः; बसथः

चसन्ति बसय

बसाव;.

बसामः

सामान्य मयिष्य-लूट चत्त्यति

वत्स्यतः

यत््यसि वत्स्ययः. वत्त्पामि वत्स्यावः

वत्स्यन्ति

बत्स्थथ वस्त्यामः

अनद्यतनभूत-लड _

अबसत्‌ अवरः अवसम्‌ वसतु , बेस घसानि

अवसताम्‌ अवसन्‌ श्रवसुतमू अवसुत अवसाव अ्रवसाम आजश-लोद बरुताम बसन्तु बसतम बसाव

बसंत चसाम

चसेत्‌ू.

विधिलिड, बसेताम्‌ बसेथुः

चसेः वसेयम्‌

बसेतम्‌ बसेव

वसेत बसेम

आशीरलिडः वस्यात्‌ वस्थास्ताम्‌ वस्थासुः वस्थाः वस्वास्तमू वस्यास्त वस्यारुम्‌ वस्यास्थ वस्थास्म परोक्षमूत-लिद्‌ डवास ऊपतुः ऊपुः उबसिय, उवस्य ऊपथुः ऊप उवबास, उबस ऊपिव ऊपिम अनद्यतन मविष्य-लुट

वस्ता

बस्तारी

वस्तारः

बस्तासि वस्ताथः वस्तास्मि वस्तास्वः

वस्तास्थ वस्तास्मः

सामान्यमूत-लुड_ अवात्सीतू अवात्ताम्‌ अवात्सो: अवात्तम

अवात्मुः अबात्त

अवात्सम्‌

अवाह््म

अवात्त्व

क्रिबातिपत्ति-लूड_ अचस्त्वत्‌ अवत्स्वताम्‌ अवत्त्यनू अवत्त्ः अवत्स्यतम्‌ अवत्स्वत अवस्स्यम्‌ अवत्स्याव अ्रवत्थाम

श्प्दट

बृहृदू-अमुवाद-वन्द्रिका

उभयपदी

(२८ ) बहू(ढोना ) परस्मेपद्‌ बहति

बतंमान-लडू वहत्ति बहतः.. वहयथः

बह्थ

यहामि

बहावः.

वहाम$

वक्ष्यति वक्ष्मसि वक्ष्यमि

ल््द्‌ वच््यतः . वच्चचन्ति. वच्ष्ययः ' वक्ष्यय वह्यावः वक्ष्यामः

लिंद प्र* जवाह ऊहतुः. म० उबहिभ, उबोढ ऊहय। ऊह्िव उ० उबाह, उबह

झवहत्‌ झबहः

लंड श्रवहताम्‌ श्रवहतम्‌

प्र» बोढदा म०. बोदासि

वहसि.

श्रवहम्‌ श्रवह्दाव लोट्‌ वहतामू. वहतु घट्टतम्‌. वह वहानि बहाव

श्रवद्वन्‌ अ्रवहृत

श्रवद्वाम_ बहन्ध बहत वहाम

अर० उद्याव्‌

आशीर्लिश_ उद्यास्ताम्‌ उद्यामुः

म०

उद्यास्तम

ड०

उह्यः

छुट बोदारी. बोढास्यःः

बोढास्वः लुड, प्र० श्रवाह्षीव्‌ श्रवोदाम्‌ अवोदम्‌ श्रवाक्तीः म० उ> श्रवात्षमू श्रवात्ष 3०

उद्यास्त

उद्यास्म

उद्यासम्‌ उद्यास्य

वोदात्मि

ऊह्दुः कह ऊद्तिम

वोदारः वोढास्थ

बोदास्मः

अब्रवाज्तुः अश्रवीद अवाइम

बद्देतू

विधिलिड वहेतामू वहैयुः

अ०

लूड_ श्रवक्यत्‌ अवदयताम श्वेधयत्‌

बह्ढेः वह्देयम्‌

बहेवमू. बहेव

बह्देत यद्देम

म० उ०

श्रवच्धयतम्‌ अवच्यत अवक्ष्यः अ्रवध्यम्‌ श्रवक्ष्याव श्रवध्याम

बह (ढोना )आत्मनेपद

बर्तमान-लदू

लड._

चहन्ते वहदष्ये

ध्र०. म०

अवद्देताम्‌ श्वहन्त अयहत श्रवहयाः श्रवद्देयाम्‌ अश्रमहप्वम्‌

यहावदे.

वहामदे

उ०

श्रवदे.

बच्यते

लय 5 बदयेत्रे.

बचुयस्ते

प्र०

बच्यसे.

बच्च्येथे

बच्यष्वे

बहते . चह्देते बहेये बदसे.. ब्दे

बच्ये.

यक््यावदे

वक््यामद..

म०

उ०

वहतामर वहस्व

बहे

श्रवद्यवद्दि श्तरद्यामढि

लोद_्‌ बहन्ताम बद्देताम यहदेषाम्‌

चहावद..

वहष्वम

वहामद्दे

घावु-स्पावली ( म्वादि )

र्प

विषिलिड_ बहेत. बहेयाः बदेय..

चुद

वहेयाताम्‌ वहेरन्‌ वहेवाथाम्‌ वदेध्वम्‌ वदेवहि. वहेमहि आशीर्लिंड

प्र» म० उ०

वोदा वोढासे वोढाहे

वोढारी. बोदारः वोढासाथे वोढाघ्वे वोढास्वहे वोढास्महे छुड_

बच्छीष्ट वक्तीयास्ताम्‌ वक्लीस्‍न्‌ वक्षीष्ठाः वक्तीयास्थाम्‌ वक्ती्मम्‌_ वक्षीय. वक्तीजहि. वज्ञीमहि लिद्‌

प्र० म० उ०

अवोद अबोढाः अवक्ति

ऊहे.

ऊहाते

अवचक्षाताम्‌ अवक्षत अवज्षञायाम्‌ अवोदवम्‌ अवक्ष्दहि अ्वक्ष्महि लूड_

ऊरदिपि.

ऊहाये

ऊद््ष्वे

मस०

अवद्यथाः अवक्ष्येयाम्‌ अवद्ष्यध्वम्‌

ऊद्दे

ऊहिबददे.

ऊद्विमदे

उ०

अवध्वे

. ऊहिरिे

प्र० अवक्ष्यय

अवक्ष्येताम्‌ अवद्यन्त

अवध्ष्यावहि अवक्ष्यामहि

(२६ ) & बृत्त्‌ ( होना ) आत्मनेपदी

बतमान-लट

बतंते. बतेंते बतनन्‍्ते बतसे .. यर्तेये बतंध्वे बरतें बर्तावहे, .वर्तामद्द

प्र० वर्तेत म० वतेथाः उ० वर्तेव

वर्तिष्यते वर्तिष्येत वर्तिष्यन्ते. बर्तिष्यससे वर्तिष्येये वर्तिष्यष्वे. यर्तिष्ये .वर्तिप्यावहे वर्तिप्यामहे ५. अयबा (परस्मैपद ) वत्व्यति वल्स्यतः वत्स्यन्ति वत्स्यंसि वरत्स्ययः वर्त््सथ वर्त्स्पामि वर्त्स्यांवः वर्त्यामः

प्र०. म० उ०

सामान्यमविष्य-लुट ( आत्मने० )

डर

4

मन

विधिलिड__

वर्तेयाताम्‌ वर्तेरन्‌ वर्तेयायाम्‌ वर्तेघ्यम्‌ वर्तेंबहि. चर्तेमह्ि

श्राशीरलिंड

बर्तियीष्ट वर्तिषीयास्ताम्‌ वर्तिपीरन्‌ वर्तिपीष्ठाः वर्तिपीयास्थाम्‌ वर्विपीष्य्‌ वर्तियीय वर्तिपीवहि. वर्तिपीमहि लिद्‌ प्र० बजृते . वहताते बबतिरे म० वबृतिपे बहइताये बच्तिष्वे उ० बढ़ते बदृतिवदे बश्तिमदे

जद

अवतत अ्रवर्तेताम्‌ श्रवतन्त अबतंयाः अवर्तेयाम्‌ श्रवतंध्यमू अवते अ्वर्तावहि अबर्तामहिं आजा लोद्‌

प्र० वर्तिता बर्तितारोा बर्वितारः म० वर्तितासे वर्तितासाथे वर्तिताध्वे उ० वर्तिताहे वर्दितास्वदे वर्तितास्मदे लुड_(आत्मने०

बतताम्‌ वतेस्व॒

वर्तेतामू वर्तेयामू

वतन्‍्ताम व्तब्बमू

प्र० स०

अवर्तिष्ट अवर्तिपाताम्‌ श्रवर्तिपत अवर्तिषठा: अवर्तिआाथाम्‌ श्रवर्तिदवम्‌

बरतें

वर्तावहे

वर्तामहै

उछ०

अ्रवर्तिपि श्रवर्तिष्वद्दि अवर्तिष्मदि

# इव्‌ घाद के रूप लूट ,लुड_ठया लूड_में परस्मैपद में भी चलते हैं ।

रद

अब्वतत्‌ अद्ृतः अद्ृतम्‌

बृहदू-अनुवाद-चम्द्विका लुद्‌(परस्मैपद )

श्इतताम अवृततम्‌ पध्बृताव

ऋवतन्‌ अ्रद्ृतत.. अब्ूताम

कियातिपत्ति-लूदः (परस्मैपद )

प्र० अयवल्सत्‌ अयत्यताम अवर्त्यन्‌ म० अ्वत्स्यी अवस्स्यवम श्रवत्स्यंत उ० अवत्स्यम्‌ श्रवरत्स्याव शवर्त्याम

क्रियातिपतक्ति-लुड ( आत्मने० ) अवर्दिष्यत श्रवर्तिष्येताम्‌ अवर्तिष्यन्त प्र अवर्तिप्यथाः श्रवर्तिप्येयाम्‌ श्रवर्तिष्यध्वम्‌ म० अवर्तिष्ये श्रवर्तिप्यावद्दि अ्वर्तिष्यामद्धि उ०

! ( ३० ) दृध्‌ (बढ़ना ) आत्मनेपदी बतमाम-लट्‌ श्राशीलिंड: वधते. चर्षसे. चर्चे

वर्धते वर्धथे चर्धाददे.

बधन्ते वर्धघ्वे पर्घामदे.

ल्द्‌

प्र०« वर्चिपी: यर्पिपरीयास्ताम्‌ वर्धिपीरन्‌ म० वर्धिपीठाः कर्षिपीयास्थाम्‌ वर्षिपीष्वम उ० वर्धिपीय दर्षिपीवद्धि बर्चिपीमहि

वर्धिप्ते वर्धिप्येते

वर्धिप्यन्ते.

प्र० बदूधे.

वार्घप्यसे वर्पिष्येये चर्षिप्पे वर्षिष्यावद्दे मम लडः भ्रवर्धत.श्रवर्धतामें अवधया: श्रवर्धेयाम्‌

यर्थिष्पप्वे.. चर्थिष्यामद्धे मु श्रवर्धनत श्रवर्धप्वमू

म० उऊ०

लियू

बबूधाते .बहृबिरे

ववबृधिपे बहये...

बच्धघाये. परद्ंधिवदे हि झ्द पग्र० वर्धिवा बर्षितारी स० वर्षितासे वर्धितासाथे

बब्धिष्वे बदृषिभदे बर्षितारः बर्धिताध्वे

अ्वर्धष.

श्रवर्धावहि श्रदर्धामदि

उ०

उपर्थितादे पर्षितास्वद्दे बर्षितास्मदे

घघताम

बंधताम

वधन्ताम्‌

य्र०

अवर्षिष्ट

लोद्‌

छुड श्रवर्धिपाताम्‌ अ्रवर्धिपत

बधस्व

वर्धेधाम

वधष्यम

म॑०

श्रर्वार्षष्टा: श्रवर्भिपाथाम्‌ श्रवर्पिदवम

वर्ष

घधादिदे. वर्धामई विधिलिश

छ०

प्रवर्धिति

वर्षेत.. बर्षेधां; धर्षंय.

वर्षेयाताम बर्धरन्‌ वर्धयाथाम वर्धषेध्यस. पर्षेवहि .वर्षेमदि.

ब्र० अवर्धिप्यत श्रवर्धिष्येदाम्‌ अवर्भिष्यन्त स० अ्रवरधिध्यथाः अवर्धिप्येथास श्रवर्पिप्यप्वम उ० श्रवर्दिप्येश्रवार्दिप्यावदि अबर्धिष्पामदि

अवर्धिष्पहि श्यर्पिष्मदि

उभयपदी

(३१ ) श्री ( सद्दारालेना) परस्मेपद

भयति. अ्यसि

झवपामि

वर्देमान-लदू भयता अमन्ति अ्रयथः अयथ

शयावः.

श्यामः

प्र० म०

उ०

सामान्यमविष्य-लूट_ भविष्यति भ्विष्यतः अविष्यन्ति भ्रविष्यसि श्यिष्यथः भविष्य

अविष्पामि भ्रविष्यावः

अविष्यामः

२४७

पतु-रूपावली ( भ्वादि )

बनद्यतवमूत-लड_ अभ्रयत्‌ आअभपष:ः

अभ्रयतम्‌

अश्षवम्‌ अभयाव

परोक्षमृत-लिद शिक्षियतुः शिक्षियु:

शिक्षाव

अश्रवताम्‌ अ्रश्रयन्‌

शिक्षयिय शिक्षियथु३ शिश्षिय शिक्षाय, शिक्षय शिक्षियिव शिक्षियिम

अश्रयत

अथ्याम

अनद्यतन भविष्य-लछुत्सात प्रध्ल्येशस अर त्यशम अपल्पायहे अवल्यामदे

होना )परस्मैपदी ५.

लोद्‌

लय

नशिप्यति नशिष्यसि सशिष्वानि

पिविदिरे विविद्दिध्ये

प्र०

नश्यतु

नश्यतामू

उ०

नश्यानि

अ्र०

नश्येत्‌ू.

नणश्यय नश्याम जिविदिद नण्यवास्‌ नश्येयु

नशय

नश्थाम्‌

नश्यत

नरयपर

मश्येम

म०

म० छग

नश्य

नश्वयम्‌

नेश्यतमू

नश्पन्तु

नश्यत

आशालड प्र* नश्याव्‌

नर्यास्वाम

नस्पातु

म० नश्या हअश्यास्तमू नण्यास्त 3० नश्यास्म्‌ नम्यास्थ नस्वास्म लिद्‌ अ« मनाश नेशतु.. नेशुअ«»

नेशिय, ननष्ठ नेशशु..

उ«०

ननाश,ननश्व नेशिव,नेश्व नेशिम,नेश्स

नेश

डइहृदन्ग्रनुवादन्चन्द्रिका,

रध्द

ल्‌दद अनशिष्यत्‌ अ्नशिष्यताम्‌ अ्रनशिष्यत्‌ अनशिष्यः अन॑शिष्यतम अनशिप्यत

छद नशिता नशितारी नशितारः नशितासि नशितास्थः सशिवास्थ नशितास्मि नशितारू: नशितास्मः अगवा नंश

नंशरो

नंशरः

नंटांसि

नंशस्थः

नशस्य

नंशप्मि

नंशत्वः

नंश्र्मः

अनशिषप्वम्‌ श्रन शिप्वाव ग्रनशिप्याम

अथवा अनटच्ष्यत्‌ अ्रनदद्यताम अनदक्यन्‌ अनदचत््यः अ्नदक्यतम्‌ श्रनदूइंपत अनइच्यम अ्रमदह्याव अ्नदइद्याम

चुझ

अनशत््‌ श्रनशताम्‌ अनशः श्रनशतम_ अनशम्‌ अनशाब

अनशन आनशत अनशाम

( १०४ ) नत्‌ ( नाचना) परस्मैपदी लय ऋत्यति.. कुतसि.

ऋृत्मता डइंसयः

विधिलिश ह्त्यन्ति

ख़्यय झत्यामः बत्मातः ल्द नर्तिष्यति नर्तिप्यतः नर्तिष्यन्ति सर्तिष्यसि नर्तिष्यथः नर्निष्यथ नर्विध्यामि नर्विष्यावः नर्विष्यामः अथवा मत्स्यंति नत्तय॑तः नयेन्ति मत्स्य नत्पंति नव्त्यंथा नत्श्यामः नत्त्वामि नत्त्वाबः लद्दव अखत्ययू अ्वृद्यवाम अखत्यन्‌ अन्त श्रदृत्यतम_ अनृत्यत अद्वृत्याम अखत्यम अ्रदृयाव कत्यामि

लो

ख््यतु

खुत्यताम

झुतानि

दछाव

इल्य..

खत्यतम

चसन्तु च्त्त इसाम

प्रण मण

० प्र

म० ड०

हत्येत. उत्येवाम इल्वेयुः हत्ये: इत्येतम द्त्येत हत्येयम्‌ झृत्येव., सस्येम आशोरलिंए ऋत्यातू झृत्पास्ताम्‌ दत्यामुः खत्या:.. झृत्याम्तमू दत्यारत झत्यासम्‌ शत्यास्थ शृल्याप्म €

लिदू

ननत

नहततुः

नदठः

नमर्तिय ननते

नदतथुः महंतिब

नदत नदृतिम

छुट

नर्तिता नर्दितायी नर्वितारः नर्दितासि नर्तिवात्या नर्तितास्‍्थ नर्तितारिम नर्नितास्व: मर्वितारमः घट, अनतीतू अनर्तिशम अ्रनर्तिषुः सर

अनर्तिष्टम

अ्रनर्ति्

अ्रनर्तिवम्‌ अनर्तिष्घ

अनती:

अनर्दिष्ण

२०

किया-प्रकरण ( दिवादि )

लुड, अनर्दिष्यत्‌ अनर्विष्यताम अनर्तिष्यनू

र६७

(लुड) प्रथा श्र० अनसत्स्यंत्‌ अनत्त्यंताम्‌ श्रनत्त्यंन्‌

अनर्विष्यः अनर्तिष्यवम्‌ अनर्तिष्यः म० आअनर्दिष्यम अ्रनर्तिष्याव अनर्विष्याम उ० १०५ ) पदू ( जाना लद पते. पद्नेते पथ्चन्ते प्र० पदयसे. परेये पयघ्दे म०

अनत्स्यः अनत्स्यतम्‌ अ्रनत्त्यम्‌ अनुत्स्याव ) आत्मनेपदी आशीरलिंड परत्सीए. पत्सीयास्ताम एत्सीषाः. पत्सीयास्थाम

श्रनत्सव्यत ग्रनत्स्याम

पे

पत्सीय

पत्सीवहि लियू

पत्सीमहि

प्मावद्दे.. लूदू

पत्स्यते .पत्स्येते. पत्स्यसे. पत्स्येये. पत्ये. पत्स्यावहे अपदत

हि

पत्तीरन्‌ पत्सीष्वम्‌

पद्यामहे

उ०

पत्ल्यन्ते पत्स्यध्वे पत्स्यामदे.

प्र० पेदे म० पेदिपे उ० पेदे

पेदाते पेदायें. पेदिवहे.

पेदिरे पेदिष्वे पेदिमहे

अपयेताम्‌ अश्रपवन्त

छ्द्‌

अपदयाः अप्रेयाम्‌ अपदष्वम्‌

म० पत्तासे

प्र० पता

पत्तारा

पत्तारः

अपये

श्रपद्ामद

उ०

पत्तास्महे

पद्यन्तामू पथ्चप्वमू पद्चामहे..

प्र अपादि म० अपत्पाः उ० अपत्ति

पत्तास्वहे. छुद, अपस्साताम्‌ अ्पत्साथाम्‌ अपत्तवि

पद्येर्त्‌ पद्येप्वम्‌.

प्र० अपल्ययद अ्रपत्स्येताम घअपल्स्यन्त मे० अपल्स्थथाः अपत्स्‍्येथाम श्रपत्स्यध्वम्‌

पद्येमद्दि

उ०

श्रपयावहिं लोद्‌ पद्ताम्‌ परग्रेतामू पद्यस्य परयेथाम्‌ पच्चे पद्मावदे

पत्तादे

पत्ताखाथे

विधिलिढ'

परयेव. पद्मयेथाः

प्मेयाताम पग्यायाम्‌

पर्येव

य्ेबहि..

पत्ताष्वे अपल्सल श्रपद्ध्वम्‌ अपत्स्मदि

लूढ_्‌

अ्रपत्ये.

अपल्ध्यावि श्रपत्स्यामि

(१०६ ) बुघ्‌(जानना ) झात्मनेपदी लय

लंड

बुष्यते बुध्यते.

बुध्येते बुध्येये

बुध्यन्ते बुध्यध्वे

प्र० म०

श्रद॒ृष्यत अयुध्यताम अश्रबुष्यन्त अवुध्ययाः अवुध्येयाम्‌ श्रउुष्यव्वम

बुप:्ये

वुघ्यावदे

बुध्यामदे

उ०

अजुबष्ये

मोत्पते

मीत्स्येते.

भोत्स्यन्ते

भ्र०

चुघ्यताम्‌

मोस्पसे भोले

लल्दु

भोतल्सेये मोत्स्पप्वे. भोत्स्यावद्दे मोल्स्यामदे

म० बुष्यस्व उ० बुष्ये

अवुध्यावदि अ्रवुष्यामहि

लोद्‌

बुध्येताम

बुघ्यन्ताम्‌

बुष्येथाम्‌ बुध्यप्वम्‌ बुध्यावहे वुष्यामहे

रध्प

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

विधिलिद, बुध्येव.. ब॒ण्मेयाताम्‌ बुध्यरन्‌ बुध्येधा: बरध्येयायाम्‌ बुष्येथ्थम् बुध्येष.. घुध्येवहि बुष्येमहि,.

घट बोदारो बौदारः * वांद्धासायें बोदाघ्वे बोद्चास्वदे बोद्रास्मऐे

प्र» चोदा * म० वोद्धासे उ« बोद्ादे

आशीलिंड,

झुढ

भुक्तीए .भुल्सीयास्ताम्‌ मुत्सीरन्‌॒ भुर्म छा; भुत्तीयास्थाम भुत्सीब्वम्‌

भुत्सीय.

भुत्सीवद्दि

मुल्सीमदि

.लिदू,

बबबे. चुबंधति इुनुधिपे घुद॒ुधाये.

बुबुषरि झुबुधिष्वे..

बुबंपे.

बुबुधिमदे._

बुशनुधवदे

“५

अमिध्यसि भ्रमिष्यथः

उन अ्भुत्सि..



श्रभुत्वदि प्रभुत्तमदि

ल्द्‌

अ« अ्मोत्स्युत अ्रमोत्येताम्‌ श्रमोत्स्य्त म« अभोत्ययाः श्रभोत्सेथाम श्रमोत्यणम्‌

उ० श्रभोत्स्पे श्रमोत्य्यावहि श्रमोत्याम्ि

(१०७) भ्रम्‌ ( घूमना ) परस्तैपदी

लद्‌ श्राम्यति श्राम्यतः भ्राम्यस्ति. आम्यसि भ्राम्यथ: अआम्यथ आम्यामि भ्राम्यावबः आमग्यामश ल््दु

५ अ्रमिष्यति भ्रमिष्यतः

प्र* श्बुद्ध, श्रयोधि अभुत्साताम्‌ ध्रभुत्ततत म« अबुद्धा) अभुत्तायाम्‌ श्रभुद्घम्‌

अ्रमिष्यन्ति.. भ्रमिष्यथ

भ्रमिम्यामि श्रमिष्याव: अमिष्यामः

लंइ्‌

पिविलिइड प्र श्राम्येत्‌ अ्म्मेतामू ध्राम्येयु३ मे० आम्या पश्राम्येतम्‌ ओआम्येत उ० पश्राम्येयम्‌ श्राम्येब. श्राम्येम श्राशीलिंश प्र०

भ्रग्यात्‌

श्रम्पास्ताम्‌ भ्रम्पामुः

म०

भ्रग्या३

अम्पोस्तम

उ«

अम्यायम्‌ श्रस्पोस्व

थप्रामत्‌ प्रश्माम्यताम्‌ थश्रामस्यन्‌

प्र०

यश्राम

झम्राग्पः

मर०

(गा बुश्नमथुर रा अमिय | भ्रेमथु। | भ्रेम 482 इअ्सिव |रियति, घु+अ+ति-घुवति, मन +ते>प्रियते, क+झ्र+विल्‍ः किरति | कृष धातु म्वादि तथा ठुदादि दोनों में हे । इसके म्वादि में कप्रति तथा बुदादि में झृषठि रूप बनते हैं।

उमयपदी

(१२८ ) ठुद्‌ ( दुश्ख देना ) परस्ैपद लू

आशोलिंक_

ठुदति

ठ॒ुदतः

ठुदन्ति

प्र०

ठुयात्‌

वुयात्ताम्‌

तुद्ामुम

छुदसि

तुदयः

चुदय

म०

तुयाः

वद्यास्तम

दुद्यास्त

तुदावः. छुदामः लूद्‌ तोल्त्यति तोत्व्यतःः तोल्ल्यन्ति. तोत्स्पसि तोत्त्पपः. तोत्स्यय

उ०

तुदाठम्‌

ठुद्यात्म

प्र० म०

तुतोद छुठोदिय

नुद्यास्त्र॒ लि चुदुदताः छद॒दशः

तोत्स्पामि वोत्त्यावः वचोत्त्पामः लड

उ०

चुवोद्‌

अठुदत्‌ अतुदः अऋतुदम्‌

अठ॒ुद॒ताम्‌ अत॒ुदन्‌ अतुदतम्‌ अतुदत अतुदाव अत॒दाम

प्र» ठोौचा. तोचारी.. म० वोत्तासि तोत्तास्प: उ० दोचात्मि तोचातः

सुदद॒ नुद ह॒दानि

चुदताम्‌ तुदन्तु नुदठम्‌ मुदत * ठ॒दाव सुदास विधिलिड

तुदामि

वुदेत.

कोट

त॒देवाम. तुदेयु३

बुठ॒ुदिव छुद

छुड.

प्र० अतौत्सीव ऋअतीोचाम म० अतौत्ताः अतौचम उ० अतौत्वम अतौत्व लुढ

प्र०

चुदे:ः..

तुदेतम

ठुदेत

मर

लुदेयश

तुदेव

बुदेम

ड०

नुतुदुए बद॒द

चुत॒ुदिम तोचारः वोत्तास्थ वोचास्मः

ऋतौत्लुः अवतातच अतौत्त्म

ऋतोस्त्यत्‌ अवोत्त्यवाम्‌ अतोत्त्वन्‌ अतोत्त्यः अतोत्स्पतम्‌ ऋतोत्स्पत अदोत्त्पम शऋतोत्स्याव अतेत्स्पाम

३१०

बृहद-अनुवादु-चम्धिका

हुद्‌ (व्यथा पहुँचाना, दुःख देना )आत्सनेपद्‌ शुइते. सुदसे.. ज़ुदे

बदेते त॒देये हुदावदे

हदन्ते बुदष्वे तुदामईे.

प्र« तुत्ती१श/ म* तुत्तीष्ठाः उ« तुत्सीय

तोत्पयते तोल्यसे सो. अतुदत

तोल्थेते . तोत्स्यन्ते तोच्स्येये. तोत््वष्बे. कोत्पाजडे तोत्सामरे लड_ श्रत्देताम्‌ इत्ुदन्त

जुदताम बुइुसख्ब॒ दे

छदेताम त॒देथाम्‌ त॒दाबहे

ददेतू. जुदेथाः जुदेव

ब॒देबाताम्‌ बुदेशन. श॒देयाथाम्‌ दुदेश्वमू त॒देवहि दु्देश्ह्द.

आशौोरलिंड, ठ॒त्सीयास्ताम ठत्सीग्न्‌ तत्सीयास्थाम्‌ तुत्सीष्यम्‌ त॒त्सीयहि. सुत्सीमहि

लूद्‌

लिद्‌

भर जझुदुदे. म० सुतुदिषे उन ददुदे. प्र० तोत्ता.

आअतुदथाः श्र॒देधाम्‌ अशुदष्यमू अतठ॒दे. श्रत॒दावहि श्रदुदाभदहि लोद्‌

ठुदन्ताम तुदष्यमू तुदामहै

विविलिझ_

स० तोचासे उ० तोत्तारे

है

ठुह॒ुदाते. बुहुदिरे ठुठ॒दाये. ठुद्॒दिष्वे दददिवदे. वुदुदियदे छुद्‌ तौत्तारा तोचारः

तोत्तासाथे तोलाध्वे तोत्तास्वहे तोत्तास्मदे लुद

भ्र०. अतुत्त. अल॒ष्छाताम्‌ अशुत्सत स* अतुत्याः श्रत॒त्सायाम्‌ श्रदृदूध्वम्‌ उ० अदुत्ति झतुत्स्वद्ि श्रत॒त्सम्महि लुड_

अर० अतोत्य्यत श्रतोत्स्पेताम्‌ श्रतोत्स्यन्त मर» श्रतात्स्थथाः अतोस्थ्येथाम्‌ ्रतोत्त्यध्वम 3० श्रतोत्स्ये श्रवोत्यावहिं अतोत्पामदि

(१६६ ) इप्‌(इच्छा करना ) परस्मैपदी लद्‌

इच्छति इच्छुतः इच्छति

इच्छुप..

इच्छामि इच्छावः

इच्छन्ति

प्र० इच्चहड

इच्चेय

म०

इच्छचामः.

उ० , इच्छानि

इच्छ

लय

लोदू

इच्छवाम्‌ इच्चल इच्चतम्‌.

इच्छत

इच्छाव

इच्चाम

विधिलिद_

एपिप्पति एविष्पता छपिप्यसि एपिप्यथः

एपिप्यन्ति एपिध्यय..

प्रे*० इच्छेतू. मे० इच्छेः

इच्छेताम्‌ इच्छेयुः इच्छेतम्‌ इच्छेत

शपिष्यामि एपिप्यावः सदा

एपिष्यामः

झे०

इच्छेव इच्छेम "मार्रलिक_

गेच्छः. रखेबतम

ऐच्डुव ऐल्लाम

ऐेब्डतू.

ऐल्छताम्‌ ऐच्छुन...

ऐल्डतमू. ऐेब्छाव

इच्छेयम

भरे इष्यातू.

इष्पास्ताम्‌ इ्यासः

भ्र० इप्याः इष्यास्वमू इष्यास्त . शे० इष्यासम्‌ शष्यास्थ शष्यास्म

क्रिवा-ग्रकरद ( ठुदादि )

जिद

इयेप

ईंपहः

इयेपिय. इयेप.

ईघघु३ ईग्रिव छद्‌ एपितारी

एरिता

एपितासि एपितास्था

ऐपीव्‌.

ईंपः द्र्ष एपितारः एपितास्थ एप्तास्फ

एट्रासि एश्स्मि

एश्टास्थ+ एश्स्वः

एशस्थ एड्टास्मः

प्रति

लद्‌ फिरतः .. फ़िरन्ति

किरसि

किर्थः.

क्विस्थ

किरामि

किराब:.

किरामः

झद्‌

ऐपिप्टाम.

ऐवीः. ऐपिप्टम. ऐपिपम्‌ू ऐपिप्य.. ल्‌दू ऐपिष्यत्‌ू. ऐपिप्यताम्‌ ऐपिष्यः. ऐपिष्यतम्‌ ऐपिप्यम्‌ ऐेपिष्पाव

ईपिस

एपितार्मि एगितास्व: अथवा एश . एश्टरौ

झ्श्र्‌ ऐपिपुः

ऐपिष्ट ऐपिष्य ऐपिप्यन्‌ रेपिप्यत छेपिप्याम

एथ्टरः

(१३० ) छू (वितर-वितर करना ) परस्मैपद

लय

फकरिष्यति करिष्वतः

सर जन

आशीर्लिंड' कीर्यात्‌. कीर्यास्ताम्‌ कीर्यासु: कीर्याः कीर्यास्तम्‌. फीर्यास्त क्ीर्याठम्‌ कौयास्व कीर्यास्स झ्लिंद

करिव्यन्ति

'करिष्यत; करिप्ययः: करिप्यथ क्करिप्यामि करिष्यावः करिष्यामाः

लड_ अफिरत्‌ श्रकिरः अफिरम्‌

प्रग्

किरतु न्र्रि क्रिणि

अकिस्ताम्‌ अरक्विरतम अकियराव लोद्‌ डझिसतामू किस्तम झिरव.

क्रितू

विधिलिद_ किरेताम किरेयु:

चकफार

चकरिथ चकरशुः चकार-चकर चकरिव

चरुदाः चकर चकरिम

छुटू करिता-करीता करितारी करितारः

अफिरिन्‌ श्रकिरत अकिराम

करिवतासि करिवास्थः करितवास्थ करितास्मि करितास्वः करितास्मः

किन्तु रिस्त किराम

अकारीः श्रकारिश्मू श्रकारिष् अकारिपमू भश्रकारिष्व श्रकारिप्म

झट

अकारीत्‌ श्रकारिशम्‌ श्रकारिपुः

लूब्

अ्रकरिष्यत्‌20472222 400 अकर्रश्यत्‌

'किरेः . किरेतम्‌,,. किरेत किरेयमू किरेव..

चकरतुः

किरेम

प्‌

ध्रिक

अकरिव्यः अकरिष्यतम्‌ अकरिष्यत अकरिष्यम श्रकरिष्याव श्रकरिष्याम

/ बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

श्र

गिरति.

स्‌ गिरताः

गिरहि गिरामि

गिरथाः गिराबः

( १३१ ) गृ (निगलना ) परस्मैपद आशीलिंड्‌ गिरन्ति गिरथ फिराम:.

लुदू गरिष्यति गरिष्यतः गरिष्यन्ति. गरिष्यसि गरिष्यथः गरिष्यथ गरिष्यामि गरिष्यावः गरिष्याम: अगिरत्‌

अग्रिए अगिरम,

लू

श्रग्रिताम्‌ अग्रिरन्‌ अगिश्तश्‌ अगिश्त

गिरद गिर

अ्गिराव अगिराम लोद्‌ गिरताम्‌ गिर्द पम्रिरत गिरतम्‌

गिरेत.

विधिलिद्‌ गिरेताम्‌ शिरेयुः

गिरे!

गिरेतम्‌

गिरेयम

गिरे

गिराणि

गिराव

मिराम

गिरेत गिरेम

श्र० ग्रोयांत्‌. गीर्यास्ताम्‌ ग्रीयसुर मं० गोर्याः गीर्यात्वम्‌ गीर्यास्त उ७ गीर्यास्छ, मीर्याश्ल गीयस्म लिट्‌

प्न० जगार मं० उ०

जगरताः.

न्‍

जगदा,

जगरिथ जगरथुः जगर जगार-जगर जगरिंव_ जगरिम

छुद प्र० ग्ररिता-गरीता गरितारी. गरितार म०

गरितासि

गरितास्थः गरितास्थ

उ०

गरितास्मि

गरितास्वः गरितास्मः

छुद

प्र० श्गारीव्‌ श्रगारिशम्‌ श्रगारिषुः भ० उ०

अ्रगरारीः श्गारिश्म्‌ श्रगारिण् श्रगारिषम्‌ श्रगारिष्य श्रगारिष्म

लड़

प्र० 28038 [20%%%5 2028

ग्रगरीष्यत्‌ ्रिगरीष्यताम प्रिगरीप्यन,

म० उ०

अगरिष्यः श्रगरिष्यतम्‌ श्रगरिष्यत॑ झअगरिध्यम्‌ अ्रगरिव्याव श्रगरिष्याम

उमयपदी (१३२ ) कृप्‌ ( श्रनिद--भूमि जोतना ) परस्मैषदी कृपति कृपसि कृपामि

लू

कझपतः कृषयः इझुपावः

लूद

कृपन्ति कृषय

प्र० म०

क्रद्यति क्रत्यसि

ऋच्यतः.. अच्ययः

कृषामः

छ०

क्रद्यामि कद्यावः

ऋच्यन्ति . कचयन्ति

करद्यामः

विशेष--स्वर बाद में हों तो गृ घाद के र को ल होता है ( श्रचि विमापा ) |

इसलिए श्राशीलिंद को छोड़कर श्रम्य लकारों में र के स्थान में लू बाले रूप मी बनते हैं |यया--गिलति, गलिष्यति, अ्गिलत्‌ ,गिलतु, गिलेरू, जगाल, गलिता, अमालीतू , भ्रंगलिष्यंत्‌

किया-प्रकरण ( तुदादि ) अ्रथवा (लूट) कच्यतः. कक्यन्ति. कक््यंथ... कक््यय कच्ष्यांवः..

करक्ष्यामः

लब्_ अकृपताम्‌ अइृपन्‌ अ्रकृप्तरमू अकृपत अकृपाव अकृपाम.

प्र० कर्श. स० कर्शासि ड्ड० कर्शस्मि प्र० म० उ०

लोद्‌

अकृछत्‌ू

कर्शरा... कर्शस्थ.. कर्शस्वः छुड

कर्शारे कष्टस्थ कर्शंस्मः

अइझचछ्ताम्‌

श्रकृक्षन्‌

अकृत्ः अकृकृतन, अकृत्तमू अइझृकछ्याव अथवा

अझक्षत्त अक्षक्षाम

कृषारि

कृपताम्‌._ कृपतम्‌ कृपाव

झ्पेत्‌

कृपेताम.

इपेयु:

चरन

अकादीत्‌ श्रकार्शम अकाएु:

कृपेतम्‌ कृपेव

कृषेत क्ृपेम

म० ड०

अ्रकाक्षी: अकाए्टम.

क्पतु

इपन्‍्तु ऋृपत दृषाम

१३ अथवा ( लुद )

विधिलिदू कृपेयम्‌

आशीर्लिंड्‌

अकाम

चकृपिम

उ०

कष्ार+ कष्ास्थ

प्र० म०

क्रश्टास्म:

उ०

लिद्‌

फ्रशस्वः.

अकाएं

चकृषुः चकृप

कृष्यास्ताम्‌ दृष्यासुः. कृष्यास्तम्‌ कृष्यास्त.. दृष्यास्म. कृष्यारम्‌ कृष्यास्थ कृष्याः

क्रश्शास्मि

अकाक्तम्‌ अ्रकाक्यब॑

लूड प्र० अक्रक्यत्‌ श्रक्रक्यताम्‌ अक्रतयन्‌ म० अक्रत्यः अ्रक्रच्यतम्‌ अक्रतयत ड० अककपम, अक्रक्माव अक्रद्याम अथवा चर अकद्यत्‌ श्रकक्ष्यताम श्रकच्यन, संग अकक्त्य: श्रकक्षयतम्‌ श्रकक््यत

कृष्पात्‌

घबकृपत: चकंष चकर्पिय खक़ृपथुः खकपिव चकप झद करारा... क्र क्रशस्थः.. क्रशसि

प्र० अक्राक्षीत्‌ अक्राशम्‌ अक्राचुः मं अक्राक्षी, श्रक्राष्मू अक्राप्ट अक्राधम उ० अक्राक्षम, श्रक्राज्च. अथवा

अकक्ष्यम्‌ अकक्याव

श्रकक्ष्यॉम

कृष्‌ ( भूमि जोतना ) आत्मनेपद लदू

लुद्‌

ऋषते

ऋुपेते

झ्यन्ते

प्र०

क्रच्यते.

कस्येते

ऋच्यन्ते

कषसे

इृपेये. कृपावहे

छृषघ्वे कृपामहे.

म० उ०

ऋदुयसे.

ऋक्येये.

ऋच्पष्वे

फ्रकये..

कच्यावद्दे

क्रच्यामहे

क््षे

बूहदू-अनुबाद-चन्द्रिका

श्र

अक्ृपयाः अक्ृपेयाम्‌ श्रकृपप्वम्‌ अकृपे. अ्रकृपायदि श्रकृशामहि लौट

प्र» कर्म म० कष्टसे

उ०

छुद्‌ क्रशारो... क्रशसाथे. क्रशस्दे. अथवा क्रो. कष्टॉसाये..

कृषपताम्‌

प्र० श्रछृक्षत

छ. अकृ्ेताम्‌

अथवा ( लूट )

फच्यते

कह्येते.

कदयन्ते

कक््यसे

कक्ष्यमे.

कच्चय प्वे

कहये.

कर््यावदे.

करह्यामदे

प्र०. क्र म० ऋष्टासे.. छ० क्रशदे..

लड़ अकृपत

अ्रकृपेताम्‌

श्रकृपन्त

कष्ठादे.

कर्षशास्वद्दे.

कशरे अष्टाघ्वे अशस्महे कर्शण कर्शष्वे

श्रक्ृत्तन्त

क्शस्मदे

कृपेताम्‌ू

कृपन्ताम्‌

कृपस्थ

कृपेधामू

कृपलम्‌

कृपै

कृपावहे.

कृषशमहे

कृपेत.

विधिलिड_ कृपेयाताम्‌ इपेसन्‌

प्र*« श्रकृए्

श्रयदा अइृछाताम प्रकझृक्षत श्रकृत्षाथाम्‌ भ्रकृदबम्‌

म०

अक्ृक्षयाः अ्रकृक्षेयाम्‌ श्रक्ृत्तध्वम्‌

उ०

श्रक्षत्ते

कृषेथाः

छृपैयाथाम्‌ क्ृप्रेष्यम्‌

म०

श्रकृष्ठाः

कृपेय.

कृप्ेबदि

उ०

ग्रकृत्ति

कच्ीए.

श्राशीलिड_ इचीयास्वाम्‌ कृच्षीरन्‌

कृचीठाः कृदीय_

कृपेमहि

क्ृछीयास्पाम्‌ कृक्तीष्यम्‌ इचीवदि ऋृच्षीमदि

चकृपे.

लि चकृपाते.

चकृपिरे

चक्रप्पि

चकृपाये

चकुपिष्वे

घखकपे.

चकृपिवदे चकुपिमहे

श्रकृक्षावदि अ्रकृत्ामदि

प्र« म०

प्रकृद्भहि श्रकृच्महिं लूडः अ्रकच्यत अक्रद्येताम्‌ अक्दपन्त श्रक्रक्यथाः अ्रक्रद्येयाम अ्रक्रदयध्वम्‌

उ०

श्रक्रक््ये

श्रक्रच्यावदि श्रक्रपामहि

.. प्रथवा प्र० अ्रकह्यंत श्रकक््यंताम श्रकद्र्यन्त से श्रकद्चयथा;थ्रकदयें याम्‌श्रकद्प प्वम्‌ ० अक्षय श्रकद्यांददि प्रकर्र्पामदि

उमयपदी (१३३ ) क्षिप्‌(फेंकना ) परसौपद लिएति. छिप्रसि.

लदू

सर अधिपत्‌ श्रत्तितताम श्रत्तित्‌

छिपतः.. छिपयथः

त्िपन्ति क्षिपथ

अत्षिपः

द्विपामि छिपावः..

छिपामः

अ्रद्धिपम श्रद्धिपावश्रद्धिपाम

त्षेप्त्पति चेप्त्थतः

चेप्स्यन्ति

सिपतु

लोद ज्षिपताम सिपन्तु

चेप्स्यसि छेप्स्ययः सेप्स्यामि चेप्स्यावः

.क्षेप्ल्यय चेप्स्पासः

लिप

दछिपतम.

छिपत

छिपरमि

सलिपाव

स्पाम

लय

अहिपतम

अ्रक्तिपंत

श्र

छ़रिया-प्रकरण ( व॒दादि ) विधिलिइ्‌ क्िपेत्‌ू

क्षिपेताम्‌

छिपेयुः

श्र०

ही

कतारों छुदू

चेंठा..

छेता

|

क्षेतारः

चेतास्य चेसास्सः

अआाशीर्लिड्‌ च्िप्पात्‌ू किप्यास्वान्‌ क्षिप्यालुस

केताति छेवाध्यः क्षेत्रास्मि छेवात्वः. छुडझूघर

प्र० अच्ैप्सीत्‌ अचैतान.

अक्षेप्सः

द्विप्पाः

म०

अच्चैप्लीः अज्लैठम्‌ अत्तेत

दिप्वात्म

उ०

अछप्यमू

विकत्तेय

चित्षिपतुः चिढक्िपुः

प्र०

अच्तेप्लव्‌ अद्तेप्ल्ववाम अक्तेप्ल्नन्‌

विस्तेर

चिछ्तितिद

उ०

अक्तेप्पम्‌ अक्तेप्माव अक्ेस्त्याम

फिपेः. क्लिपियमू.

क्िपेत क्षिपिदम छिपेव किपेम विष्यात्तत्‌ दविप्यात्त.

दिप्याउम्‌ क्विप्पाल

लिद्‌

वित्तेतिप चिझह्तगयुः चिंकिप..

चिंक्षेतिम

मे० उं०

हु

अछुप्त.

_लुदू

अछप्सम

ने? अ्चेप्लः अद्चेप्लवम अत्तेप्स्धव

कप ( फकना ) आत्मनेपद लय

किपते

दिपेते दिसते.

कप

दिपेये.

छिपे...

तिफखे

क्ितावदे दिपामहे. लय

केप्प्ते चेस्पेद

चछेप्लन्ते.

क्षेप्त्ससे

क्षेप्त्येये

ज्लेप्त्पप्वे..

क्षेप्ये.

क्षेप्लावहे क्षेप्तामदे

आशरर्लिंड्‌

प्र० दिप्सी८ तिप्धयास्वाम विप्तीस्न्‌ म०

उ०

छिप्तीाः दिप्ठोयास्थाम्‌ क्िप्सीस्वम्‌

छिप्टीय द्िप्लोवरि

प्र० चिझ्िपे विक्तियते दिक्तिपिरे म०

चित्रिरिि चिढदिपाये

चिह्षिपिष्वे

उ० चिदिपे लिल्षिपिवहे चिहद्दिपिमदे

लू अच्पद अत्तिपेठम्‌ अद्धियन्व प्र० च्षेता अछ्िपपाः अ्रक्तिपयान अक्षिपप्वम म० क्तेताते अदिपे. अक्धितवदि अदिप्रमहि उ० केसाईे

लोद्‌

दिप्पोमि

लिय्‌

चुद चेनरा. चेहारः क्षेतासाये चेताप्वे क्षेमात्वहे क्षेमास्मदे

छुझ्‌

फ्िप्याय फ्पिशाण, सिपलत कदविपेयाम्‌ू

सििपनदानू.. पिपप्दम

५४ म०

अद्चत, अधिखातवाय अ्विप्दत अछिप्पाः अद्तिप्लायाम्‌ अद्धिप्प्वन्‌

किपेय

फिपेमदि.

उ०

अत्तिप्सि अक्तिप्वदि

प्र० म०

अ्तेप्तन्त अच्तेप्ल्वेव्म्‌ अक्तेप्ल्सन्त अस्तेसयाः अर्लेप्लेयान्‌ अक्षेप्त्पप्वम्‌

छिपरेईदि

दिविलिस

छिपरिठ. छिपेयावाम्‌ द्पिरनू. किप्रेषा: हिपेशायाम्‌ किपेप्वमू.

दिपेय

दिपेहि

दिपेमदि

ल्ड्‌

अदक्विप्महि

उ० असक्लेप्ते अस्तेप्सादरि अत्तेल्य्महि

बहद-श्रतुवांद-चन्दिका

श्१९

( १३४ ) प्रच्छू(पूछना ) परस्मैपदी पशौलिंडद

खंद्‌

पृच्द्ति प्च्छ्सि

शच्छतः. पृच्छेपः.

एच्छन्ति एृच्छंप

पृच्छामि

पृच्चाव+

पृच्दाम+

प्रदयति प्रच्यसि

प्रद्यतः प्रदवथ:

प्रक्ष्यन्ति प्रच्यध

पप्रच्छिय, पप्रष्ठ पप्रच्ुधुः.

प्रच्यामि

प्रच्याव:

प्रदयागः

पष्नच्छ

प्रप्च्छ्त्‌

अपृच्छु+ अप्च्यम्‌

लद्‌

पच्चयात्‌ शच्छुपास्ताम्‌ एच्छघामु३

पृच्छुधाः पच्छ॒धाघ्तम्‌ एच्छुबास्व पृच्छुयासम्‌ पृच्छथार्व पृच्छुघार्म लिद्‌ पप्रच्छ पप्रच्छतः पषच्छुः

लड अध्ुच्छुताम अष्टच्छन्‌ अप्चच्छुतम

प्रशध-. प्रशसि प्रष्ठास्मि

धन

अप्रद्यत्‌

मण०

श्रप्रदुंय:

श्रप्रद्यतम्‌

श्रप्रदयव

उ०

श्रप्रक्पम्‌

श्रश्नदयाव

अ्रप्रचयाम

अश्च्छाव शपृच्छाम लोद्‌

प्रच्छवाम्‌

ध्च्छस्तु

एच्छानि

पृच्छाव

पृच्झाम

पच्छतम

श्रग्माव्वीत्‌ अपग्राक्षीः श्रप्रात्म्‌

एच्छत

विधिलिद पृश्छेत्‌ पृष्छेताम (च्छेयु पृच्छेतम एच्छेव एच्छेम पच्छेयम्‌ पृष्छेव..

चुद

अ्शरी.. अशत्यः. प्रशस्थ+ छू श्रग्माशव.. श्रप्राष्मू.. श्रप्राइव. लूड_ ध्रमक्ष्यताम

श्रष्नच्छुत

प्च्छ्त

पगरच्छ

प्रप्रच्छिवपप्रच्छिम प्रशरः ,प्रशस्प प्रशटसमः अआआहुः श्रधा४ श्रप्राउम अग्रक्षयम

उम्यपदी ( १३५ ) मुच्‌ (मोचन करना, घोड़ना ) परस्मैपद लद

मुश्नति मुश्चसि मुझ्मामि

मुझ्तः.. मुझयः..

मुशन्ति मद्यय

मुखावशण

सुद्यासः

जद

मोच्यति मोच्यतः. मोक््यदि मौक्ययः. मोद्यामि मोह्यावः

चरण

मुझद

मुझवाम

“म०

मुझ

मुशतम

मुझत

गुश्ाव

सुशझ्याम

छू

मुझ्ानि

विधिलिड, मोद्रयन्ति मोध्यय सोझ्षयामः

प्र०

सम उ०

मुझ्रेंद

+ अग्रथम

अमयवाम

> ध्रदुथठम्‌ शपुधार

मुश्ेवाम्‌

गश्येतमू

मुच्यात्‌

म्च्यात्ताम्‌ मंच्यागुर

सुझेयम्‌ मशेव

आंशोर्लिंद_

भमयत्‌

न्प्र०

भम्रजत

मन

अठदात्र

खु>

सश्ेयः

मुझे;

लड

अनुद्यत्‌ अगयर

मुझ

मत

मुश्ेस

मुच्याः मुच्यास्तमू मुच्यास्त मुच्याएम्‌ मुच्यात्त मुच्यास्म

क्रिया-प्रकरण (ठुदादि )

हर

लिद्‌ अुमोच मुमोचिथ मुमोच

छुड._

मुम॒चतः

ममचुः

प्र»

श्रमुचत्‌

श्रमुचताम्‌ अमुचन्‌

मुमुचथुः

मुमुच

मं०

अमुचः

श्रम॒ुवतम्‌

अश्रमुवत

मुमुचिव

मुमुचिम

उ०

श्रमुचम्‌

अमुचाब

श्रमुचाम

प्र० म० उ०

लड़, श्रमोक्ष्यत्‌ श्रमोक्षताम अमोदयन अमोक्ष्यः श्रमोच्यतम अ्मोच्यत अश्रमोक्ष्मम श्रमोक््याव अश्रमीक्ष्याम

लुद मोकतारी मोक्ता मोक्तादि मोक्तास्यः मोक्तास्मि मोक्तास्वः

मोक्‍्तार: मोक्तास्थ मोक्तास्मः

मुच्‌ (मोचन करना, छोड़ना ) आत्मनेपद लद्‌ श

आशीर्लिड_

सुश्चते मुश्चसे

मुझ्ेते.. मुख्ेपे..

मुझन्ते मुथचघ्वे

प्र० मुन्नीष्ट0. मुक्षीयास्ताम्‌ मुक्तीरन, मे मुत्तीन्‍्ठाः मुक्तीयास्‍्थाम्‌ मुत्तीष्यम्‌

मुच्चे

मुश्चावदे.

मुझ्नामहे

उ०

मोच्ष्यते मोक्ष्पसे

मोक्ष्ततें

मोझ्यन्ते

प्र०

मुमुचे.

मुमुचाते

मुमुचिरे

मोक्येये.

मोहुयध्वे.

भ०

मुमुचिपे

मुमुचाये.

मुमुचिष्पे

मोक््ये

मोक््यावदे भोक्ष्यामहं लड' अमुश्चेताम्‌ अमुझन्त

उ०

मुमुचे.

प्र० मोक्ता

मुमुखिवद्दे मुमुचिमदे छुद्‌ मोक्तारी मोक्तारः

म०

मोक्तासे

भोीक्तासाथे

श्रमुक्त

छुड श्रमुक्षाताम्‌ श्रमुक्षत

लृद्‌

अमुश्चत श्रमुश्चयाः अमुश्चेयाम अमुश्वब्वम॒ अमुय् अ्म॒ुज्ञावहि श्रमुझामहि लोद्‌ मुश्चताम्‌ मुश्चतामू मुश्च-ताम्‌ मुश्वस्व

मुच्चे मुग्मेत मुख्ेथा+ मुझ्ेय

मुख्रथाम्‌ मुखावद्दे पिघिलिड, मुझ्षेयावाम्‌ मुश्चेयामाम्‌ मुश्चेदि

मुश्रध्यम्‌॒ मुश्चामहै मुशझ्नेरन्‌ मुझेध्वमू मुश्लेमदहि

मुक्ीय

3० मोक्तादे प्र०

मुक्तीवदि

लि

मुत्तीमदि

भोक्ताध्बे

मोक्ताखदे मोक्तास्मदे

म० उ०

श्रमुक्थाः श्रमुक्षाथाम्‌ अमुगध्यम्‌ श्रमुक्ति अमुच्दिं अ्रमुद्रमदि लृड_्‌ प्र० अमोक्ष्यत श्रमोक््येताम्‌ श्रमोद्रयन्त म० अ्मोक्ययाः श्रमोक्येथाम्‌ श्रमौक्षयप्वम्‌_ उ० अमोच्ये अ्रमोच्रयावद्दि अमोच्ष्यामहि

(१३६ ) खश (छूना ) परस्मैपदी स्प्यति स्पृशसि

लद

स्शतः. स्पृशयः

स्पृशामि स्पृशावः

स्शन्ति स्पशय

स्शाम:

ल्दु

अ्र० रपरक््यति स्प्रक्यतः म० स्पच्यसि स्परदंयध:

स्पष्पन्ति स्प्रचदयध

स्प्रत्यामि स्प्रद्यावः

स्प्रदयामः

3०

श्श्द

बृहदू-अमुवाद-चन्द्रिका

द अथवा डे स्पक््यंति स्पचयतः स्च्यन्ति. स्पक््यंसि स्पच्रयथः स्पद्यथ.

,. अथवा ( छुद ) प्र० स्पर्श. सर्शरो सर्शरः म० स्पर्शसि स्पर्शस्थः स्पर्शाध्थ

लड._ अरघूृशव्‌ अस्पृशवाम्‌ थस्तुशन्‌

छुड, ग्र० अस्पाक्षीद्‌ श्रस्माशर्‌ श्रस्पाहुर

अ्रस्प्शःः

मण०

श्रस्पाक्षीः

उ«

अश्रस्माक्तम्‌ श्रत्मात्व

स्पच्यामि स्पच्यावः

स्पर्याम:.

भस्पृशतभ्‌ अस्पशत

अ्रस्यशम्‌ श्रत्पशाव

अख्ुशाम

उ०. स्पर्शाश्मि स्पर्शश्वः.

अरस्माएंमू.

लोद्‌

स्पर्शरम:

श्रस्प्राष्

श्रद्धाइम

अथवा



खशतु

स्शताम्‌

साशख

प्र० असख्ाक्षोंद श्रसार्शम श्रधाहुः

स्ृश

स्पशवम

खशत

म०

स्शानि

स्पशाय

स्शाम

ड०

ग्रस्पारज्ती: ध्रल्लाध्म

श्रस्पात्षम अ्स्पाक्य॑

विधिलिड_ स्रोतू. झशेताम स्थृशेः स्पृशेतमू स्पशेयम्‌ रारोव.

#स्पा्

ग्रसातम

झथवा सशेबुः स्पृशेत स्ण्रोम

ग्र०. अ्रख्चत्‌ भ्ररएक्ताम्‌ अत्पक्षद म० अस्पत्ः श्रस्ृत्ञतमू श्रसरएच्त उ० अस्यक्षम्‌ भ्रसज्ञाव धरक्षार

आशीलिंड,

लुद_

स्पश्यात्‌. खश्यारताम्‌ स्पृश्यामुः.. प्र०. श्रस्पच्यत्‌ श्रत्यचपतामू श्रत्मदारव्‌ सश्याः

शाश्यास्तम स्पश्यास्त

स्पवासम्‌ स्पश्यात्थ स्पृश्यात्म हे लिद्‌

म०

प्रस्पक्षः श्रस्पदयतम्‌ श्रस्प्रदुयत

उ० श्रस्मद्मम्‌ श्रस्मद्याव श्रस्प्रदयाग अथवा

परपश

पस्पशतुः

परइशुः

प्र०.

श्रसक्यत्‌ भ्रस्पच्यताम्‌ श्रपद्य न्‌

प्रस्सशिय

पस्पशथुः

पर्ट्श

म०

श्रस्पचयः

पत्पश

पस्पशिव

पस्पशिम.

उ०

श्रस्पक्षयम्‌श्रस्पदर्याव श्रश्तचर्याम

स्पर्श.

सप्रशरी

स्शरः

प्र०

.स्प्रशसि

स्रशस्थः

स्प्रश्स्थ

म०

स्परष्टास्मि स्परष्ास्वःः

स्पशस्मःस

उ«०

अ्रसपक्ष्यतर्म श्रसदयत

ख़ुद

( १३७ ) मं ( मरना )शात्सनेपदी प्रियते. प्रिय.

स्रिये.

सर

प्रिवेते..

प्लियेये..

प्रियावदे

प्रियन्ते प्रियष्वे

प्रियामदे.

लय

प्र०

मरिष्यति भरिष्यतः

म०

मरिष्यसि

उ०

मरिष्ययः

मण्प्यामि मरिष्यावः

मरिष्पन्ति मर्प्यिय

मरिष्यामः

क्रिया प्रकरण ( ठुदादि )

६8

लिय्‌

लड_ अप्रियत श्रम्मियेताम अग्नियन्त अप्रियथा श्रप्मियेयाम्‌ श्रप्नियध्वम्‌

समार्‌ ममय

मम्रतु मम्रथशु

मप्नु मप्र

श्रप्नियावहि अम्नियामहिं

ममार, ममर मम्रिव

मम्निम

लोद्‌ प्रियताम्‌ प्रियेताम्‌ प्रियन्ताम्‌ प्रियस्व प्रियेथाम्‌_ प्रियध्वम्‌ प्रिये.. प्रियावहे प्रियामई विधिलिड_ प्रियेत .प्रियेयाताम्‌ प्रियेरन प्रियेया प्रियेयाथाम्‌ प्रियेप्वम प्रियेय. प्नियेवहि. प्रियेमहि श्राशीलिंड, मधीष् . मृपीयास्ताम्‌ सपीरन्‌ सपीष मषीयास्थाम्‌ रपीदबस्‌ सपीय सृपीवहि स्प्रीमद्दि.

चुद मतारोा.. मर्तास्थ मर्तास्व॒

मर्तार मर्तास्थ मर्तास्म

अप्लविये.

मर्ता मरतासि मर्तास्मि

छुड_

अमृत

अमृपाताम्‌ अम्पत

अ्रमृथा

अमृपराथाम अम्ृदवम्‌

अमृषि

अ्रमृष्वहि

श्रसृष्महि

लुदद

अमरिष्यत्‌ अ्मरिष्यताम्‌ अमरिष्यन्‌ अमरिष्य अमरिष्यतम्‌ अमरिष्यत उ० अमरिष्यम्‌ अमरिष्याव श्रमरिष्याम

( १३८ ) छत ( काटना ) परस्मैपदी लद

कन्तति

क्न्तत

कृम्तन्ति

[कविष्यति क्स्यंति आ० लिड_ इत्यात्‌

कतिग्यत कत्स्यंत इृत्यास्ताम्‌

कार्दिष्यन्ति कत्स्यन्ति क्त्यासु

लिय्‌ चुद

चफत कातता

चकृततु कर्तितारौ

चकठु कर्तितार-

छुड_ लूढ,

श्र्क्तात्‌ अऊर्विष्पत्‌

अऊर्तिशम्‌ अफऊर्विष्यताम्‌

श्रकर्तिषु श्रकर्तिष्यन्‌

लटद्‌

ज्रुटति

चुटत

च्ुटन्ति

लय

बुदिष्पति

आर? लिड_ ्

जुस्वात्‌ बु॒बीर

चुटिष्यत

चुटिष्यन्ति

लय

( १३६) जुद्‌(दृूट ज्ञाना ) परस्मैपदी

| ह॒ठुटिय तुपोट

चुस्यास्ताम्‌

चुस्यासु

चजुदचु खुबुट्यु

बुचुदठ डुजुट

च॒बुट्िवि

चुच्ुटिसि

३२०

बूहदू-अमुवाद-चन्द्रिका

लुद्‌

चुटिता

छुड_

अनुदीत्‌ अच्चुटिशम्‌ अब्लुद्पुः ( १४० ) मिल्‌ (मिलना ) उसयपदी

लटदू (५०) (आ०)

मिलति मिलते

लूदू (५०)

मेलिप्यतः

(आ०) व

छ्दू छुड_

लूड_

चुुटितारः

मिलतः मिलेते

भेलिप्यते

आ* लि मिल्यात््‌ त्ियू

घुटितारौ

मिलन्ति मिलन्ते

भेलिप्यतः

मेलिष्यन्ति

मिल्यास्ताम्‌

मिल्यातुः

मैलिप्येते

मेलिष्पन्ते

मेलिपीए

मेलिपीयास्ताम्‌

मेलिपीरन्‌

मिमेल

मिमिलतुः

मिमिलुः

मिमिलथुः मिमिलिब मिमिलाते मिमिलाये मिम्रिलिवहे

मिमिल मिमिलिम मिमिलिरे मिमिलिष्दे मिमिल्लिमदे

अमेलिशम्‌ अमेलिपाताम

श्रमेलिषुः अमेलिपत

मिमेलिय मिमेल मिमिले । प्रिमिलिये मिमिले

गेलिता

॥अभेलीत्‌ श्रमेलिए

श्मेलिप्यत्‌ श्रमेलिप्यत

मेलितारी

मेलितारः

श्रमेलिप्पताम अमेलिध्येताम्‌

श्रमेलिप्यन्‌ श्रमेलिंप्यत

( १४१ ) लिख(लिखना )परस्मैपदी लद्‌

लिखति

लय लेखिप्यति आशीलिंडद, लिख्यात्‌

लियू छुड

लिखतः

लिखन्ति

लेखिप्यतः लिएयास्ताम्‌

लेजिष्यन्ति लिस्यासु)

लिलेख

लिलिखदुः

लिलिखुः

| लिलेखिय

लिलिखयुः

लिलिफ

लिलेख

लिलिज़िव

लिलिखिम

अलेखीत्‌

अतेवबिष्टम्‌

अलेखियु:

(१४२ ) लिप(लीपना ) उभयपदी लड़

(लिसवि

लिग्पतः

लिम्पेते

लिसन्ते

लुद

लेप्स्यति लेप्स्यते

लेप्स्यतः लैप्स्येते

लेष्स्यम्ति लेप्स्यन्ते

[लिसते

लिग्पन्ति

क्रिया-पक्स्ण ( ठुदादि )

आशीर्लिंड_ [लिप्यात्‌ (लिप्ठीडट लिदू

.

लुद्‌ लुड_

(लिलेप

श्श्१्‌

लिप्यास्ताम्‌ लिप्ठीयास्वाम्‌

लिप्यामुः लिप्सोरन्‌

लिलिपतः

लिलिपररे

लिलिपुः

(लिलिपे

लिलिपाते लेपतारी

लेतार

अलिपत्‌

अलिपताम

अलिपन्‌

(अ्रलिपत (अलित

ऋलिपेताम्‌ अलिप्सावाम्‌

अलिपन्च अलिप्सत

लता

( १४३ ) विश(घुसना ) परस्मैपदी लद्‌

दविशवति

विशतः

विशन्ति

लय आशीर्लिंड_ लिद्‌ छुद्‌ लए,

बेच्छति विश्वात्‌ रिविश चेघ अविद्षत्‌

चेच्यतः विश्यास्ताम्‌ विविशतुः चेशरी अविक्ञाताम्‌

देच्यन्ति विश्यालुः विविश्ुः वेशरः अविक्ष॒न्त

लूड्‌

अवेच्रत्‌

अवेज्ष्यवाम्‌

श्रवेद्ययन्‌

( १४४ ) सदू ( दुःखी होना ) परस्मैपदी लदू

रीदति

सीदवः

सीदन्ति

लूद्‌

सेत्स्वति

च्चेस्वतः

सेत्त्पन्ति

स्यास्ताम्‌ सेदतुः

स्यास॒ुः सेदुः

आशीर्लिद_ स्यात्‌ ससाद लिय्‌ सेदिय

ससरत्य, सेदरयुः

रेद

हु:

ससाद, सखद अरुदत्‌

स्ेदिव असदताम्‌

सेदिम असदन्‌

लुड_

अउत्स्वत्‌

अरुत्त्ववाम्‌

अरूत्स्यन्‌

( १४५ ) सिच्‌(सींदना ) उभयपदी लद्‌

सिश्वति चिद्वते

लूट

सेज्यति

आशीलिंड,

सिद्वतः डि्वेते

सिद्ञन्ति सिद्न्ते

झेच्यतः

केच्यन्ति

क्त्क्लठे

हच्देते

रेक्ष्यन्ते

सिक्ीट

छित्लीयास्ताम्‌

सित्तीरन्‌

उिच्चात्‌

झिच्यास्ताम्‌

डिन्यामुः

श्श्र

लिय्‌

छुड

दृहदू-श्रनुवाद-चन्द्रिका

विषेच

सिपिचतुः

सिपेचिय सिपिचथुर सिपेच सिंपिचिव ठिपिचे सियिचाते असिचत्‌ (अ्रसैक्षीत्‌) श्रतिचताम्‌ अतिक ( अ्रसिचत ) असिलाताम्‌

सिपिचुः सिपिच सिपिचिम सिपिचिरे असिचन्‌ अ्सिचघत

एए-६ १४७६ ) छज्‌ (बनाना ) परस्मैपदी ५८ लद्‌

सजवि

खुजतः

ल््द

स्क्त्यत्ति

खद्दयतः

ख्जन्ति

सच्यन्ति

आ० लिए झज्यात्‌ लिद्‌ ससर्ज

रण्यास्ताभ्‌ सखजतुः

सुज्यातः रुसजुः

बट घुड_

श्र अल्लाज्नीत्‌

सशरी श्रद्चाशम्‌

स्टार: अ्रलाक्ुः

लुड

अखच्यत्‌

अखच्थताश्‌

अखदर्पम्‌

( १४७ ) स्कुद(खुलना, फट जाना ) परस्मैपदी लर्‌ स्फुटति लूट स्फुरिष्यति श्राशीलिंड_ स्फुय्धात्‌

स्फुटतः स्फुठिष्यतः स्कुब्यास्ताम्‌

स्फुयन्ति स्फुडिष्यन्ति स्फुब्यासु३

लिंद

पुशफोद पुष्फुटिय

पुस्फुटतु: पुस्कुय्थुः

पुछुदु पुस्फुट

चुद

स्फुटिता

छुड,

अस्फुटत्‌ | अस्फुटीः अस्फुटिपम्‌

पुस्फोद

पुस्फुटिब

पुरफुटिम

स्कठितारी

स्फुटितार:

अस्फुटिष्टाम्‌ ध्रस्फुटिप्ट्म्‌ अस्फुटिप्व

अस्फुचिपुः श्रस्फुरिए अरस्कुटिष्म

( १४८ ) स्कुर्‌(कापना, चमकना ) परस्मैपदी लद स्फुरति ल्‌दू स्क्रिष्यति आशीलिंद, स्कुर्पात्‌ लिटू पुस्फोर । पृत्फुरिय पुस्फार

चुद

स्कुरिता

स्फुरतः स्फुरिप्यवः स्फु्बास्ताम्‌ पुस्फुलुः पुस्करवः पुस्फुरिब

स्फुरन्ति स्फुरिप्यम्ति स्फुबामुः चुरफुबः उच्फुर पुस्फुरिम

छुड

अशस्फुरीत्‌

श्रस्फुरिशम्‌

अस्फुरिपु:

स्फुरितारी

सफुरिवारः

क्रिया-ओकेरेण ( रुघादि )

इ्श्३

७-र्थादिगण इस गण की धातु रुघ से आरम्म होती हैं, अतः इस गण का नाम रुघादिगण पड़ा। इस गण में २५ धातुएँ हैं। घात॒ के प्रथम स्वर के बाद दस गण में श्नम्‌ (नया ब) जोड़ा जाता है, यथा-छुद+विल्‍चछु+न+ दू+तिज ज्षुण +

दू+ति ८ छुणत्ति। छुद्‌+यात्‌८छु + न + द्‌+याव्‌ ८ छुत्यात्‌ ।

उभयपदी (१४६ ) रुध्‌(रोकना ) परस्मैपद ९... लय रुशद्वि रुशत्सि. रुशप्मि

झनन्‍्दः रुनन्‍्दः रुन्‍्ध्च:

लिय्‌ झन्धन्ति सन्द्ध झ्न्ध्मः

प्र* म० उ०

ररोध. रुरोधियथ रुरोध

रुच्चत: रुरंघधुः. रूरधिव

रुखघु३ रुरुघ रुझधिम

चुद

रोल्यति रोत्स्यतः रोत्यन्ति.

प्र० रोदा.

शोत्स्यति रोत्थथथः . रोस्स्यथ रोत्स्यामि रोस्स्यावः रोत्स्यामम. लड़ः

म० उ०

अदणत्‌

असल्दाम अ्रसधन्‌.

प्र० अरौत्सीत्‌ अरौद्धाम

अरैत्सुः

अरुण:

अरुनदम्‌

म०

श्ररौद्ध

अख्णधम्‌ असूष्य

अरुन्द

अरूल्‍ध्म.

इन्द्धामू रनद्मू. रुणधाव

रोद्धासि रोद्धाध्थः. रोद्धास्मि रोद्धास्वः छुड' श्ररौत्सी:

अरौद्म

उ० अरौस्सम्‌ अरौत्व

लोय्‌

रुणदूधू. झन्द्धि रुणधानि

रोद्धारी. रोद्धारः रोद्धास्थ रोद्धास्मः

अरौत्स्म

अथवा

रुन्वन्तु रुनद रुणघाम

प्र« अरुषत्‌ अरुषताम्‌ मस० अ्ररुषध: अरुघतम्‌ उ० अरुषम्‌ू अरुघाव

विधिलिड_

श्ररुधन्‌ अदधत अ्रसुधाम

लूड,

सन्‍थ्यात्‌ बव्नथयातास्‌ सन्‍्ध्युः. सन्ध्याः सन्थ्यातम्‌ सन्थ्यात सनध्याम्‌ इन्‍्थ्यात रुन्‍्ध्यास आशीलिंड

| ग्र० अरोत्खत्‌ अरोत्स्यताम्‌ अरोसयन्‌ भ० अरोस्स्यः श्ररोत््यवम्‌ श्ररोत्स्यत उ० शअ्ररोस्थम्‌ अरोत्याव अरोत्याम

रुध्याव्‌ झुष्यार

अध्यास्ताम्‌_ऋुष्यासुः रुध्यास्तम रुध्यास्त

अर म०

कध्यासम

दरुध्यात्त

उ०

च्य्यात्म

बूहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

डेर४

झ्म्दे स्न्त्से

रुध्‌(आवरस्स करना, रोकना )आत्मनेपद्‌ आशीर्लिडू

ल्दु शनधाते.. सनधाथे..

स्न्चे

रन्ध्वहे

रोत्स्यते रोह्यसे ये

रोत्येते रीस्येये.

लुद्‌

झन्‍्चते झुन्घ्वे

धर

इझत्तीए.

म०

झन्धाददे

छनग

इत्सीठ झत्सीय..

. रोस्स्यन्ते सेत्स्यन्वे

रोस्स्यायहे लड असरन्द्ध अरन्धाताम्‌ अदनन्‍्द्धा! श्ररुमग्धाथाम श्रस्न्‍ध्यहि.. अदन्धि लोड. रन्धाम्‌ रुन्‍्थाताम्‌

रोल्स्थामदे

अर मर

डु०

अरुन्धत श्रसस्थ्माहिं रसन्‍्धताम्‌

स्न्त्व

सम्वाथाम

सुणपे

रुशधावई रुणधामहे विधिलिड,

सन्‍थ्वम्‌ उ०

रुत्सीरन्‌

उुत्सीयास्थाम्‌ रुत्सीष्वम रुत्सीवहि.. झत्सीमहि लियू रुूखघे. रुच्धाते. रुखपिरे झुधिपे.. रुरुभाये.. रुरुविष्वे झरूसममे . रुरुधिवदे. सुरधिमहे रोदा. रोदासे रोदाहे

झऋरून्ब्बस

रुत््तीयात्ताम

छुय्‌

रोडारो. रोदासाये. .रोद्धारवहे

रोद्धाएः रोदाष्वे रोद्धास्‍्मददे ,

छुड,

अस्द

श्रर्त्ताताम्‌ श्रस्त्सत

अरुद्धाः

अश्रस्त्ठाथाम्‌ अरुद्ध्वम्‌

श्र्त्सि

श्रसत्सयद्ि लूड,

श्ररुत्मदि

रन्पीत रुम्धीयाताम्‌ रुन्‍्धीरन्‌ प्र० श्ररोत्स्यत श्ररोत्स्येताम श्ररोत्स्यन्त सन्धीथाः सन्‍्धीयाथाम्‌ सन्‍थीष्यमू से* अरोध्थयाः भरोस्येयाम्‌ अरोस्स्पष्वम्‌ रुग्धीय

रग्धीबहि

रनधीमहि..

3०

अश्ररोत्ये

अरोत्स्यावहि श्ररोत्स्यामदि

उभयपदी ( १५० ) छिंद्‌ (फाटना ) परस्मैपद्‌ छिनचि

छिनत्मि छिनब्रि

छेल्स्यति छेत्स्पति

लट छिन्तः.. दिन्थ:.. छिन्दः.. लूद्‌

छिन्दन्ति. छिन्त्य छिन्माः

लोद्‌ प्र० छिनत्ु. छिन्ताम छिरदन्तु म० छिन्द्ि छित्तमू. दित्त छ०« छिनदानि छिनदाव छिनदाम विधिलिड

छेल्यतः. छेतल्यथ:

छेत्स्यन्ति. . छेल्यय

प्र० ,छिन्यात्‌ डिन्यावाम्‌ छिन्धु: म० छिन्याः छिन्यातम हिन्यात

डिन्याम्‌_ छिन्वाव दिन्याम आशीर्शिड_ प्र छिदात्‌. छियास्वाम्‌ छियामः दिद्यास्तम्‌ छियास्त श्रच्छिनः/प्च्छिनत्‌ श्रच्छिन्तम्‌ श्रच्छिन्तम० दिया:

छेल्स्वामि छेतल्पावः

छेल्यामः

उल

लड़, अ्रच्छिनत्‌ श्रच्छित्तामूं श्रच्छित्दन्‌ श्रच्छिनदम्‌ अच्छिन्द भ्रच्छिन्य

उ०

छिद्यारम्‌ छिद्यास्व॒दिद्यास्म

क्रिया-प्रकरण ( रुघादि )

लिय्‌

श्र

अथवा ( छुद )

जिच्छेद चिब्छिदतः चिच्छिहः.

ग्र० अच्चैत्सीद्‌ अच्छैत्ताम अच्छैत्स म०

अच्छैत्सीः

िच्छेद

उ०

अच्छैत्सम्‌ अच्छैत्स

जिच्छेदिय चिच्छिदशुः चिच्छिद_

चिब्छिदिव चिल्छिदिम लुद्‌

अच्छैत्तम श्रच्छेत्त

अच्छैत्सम

छेत्ता छेत्तामि

छेत्तारा छेत्तास्यः

छेत्तारः छेत्तास्यथ

प्र०_ अरच्छेत्स्यत्‌ श्रच्छेत्स्यताम्‌ श्रब्छेत्स्यन्‌ म० अच्छेत्स्पः श्रच्छेच्स्यतम्‌ अच्छेत्स्वत

छेनास्मि

छेतास्वः

छेत्तास्मः

उ०

लुड_

अ्रच्छिदत्‌ अच्छिंदताम्‌ श्रच्छिदन,. अच्छिदः

अच्छेत्स्यम्‌ अ्च्छेत््याव अ्च्छेस्थाम

प्रे०

श्रच्छिदतम अच्छिदत . म०

अच्छिद्म अब्छिदाव श्रच्छिदाम

उ०

छिद्‌ ( काटना ) भात्मनेपदी लट्‌

आशीर्लिंड,

हिन्ते. छिनन्‍्दाते .छिन्दते छिन्से . छिन्दाये. छिन्घ्वे

प्र० भ०

छित्सीष्ट छित्सोयास्ताम्‌ छित्सीरन्‌ हछित्सीष्ठाः छित्सोीयास्थाम्‌ छित्सीध्यम्‌

छिन्दे.

उ०

छिंत्सीय

छेत्स्पते

छिन्द्रदे. हिन्द्दे लय छेत्ययेते . छेल््पन्ते.

छेत्स्यसे

छेत्स्येये.

छेत्स्पध्वे..

म०

चिब्छिदिषे चिब्छिदाये चिब्छिदिएंे

छेत््यामदे._

उ०

चिब्छिदे चिच्छिदिवदे चिब्छिदिम

छेत्स्ये . छेत्स्थावदे

छित्सीवहि. छित्सीमहि लिद्‌ प्र० चिब्छिदे चिब्छिदाते चिन्छिदिरे

लड _

श्रच्छिन्त॒अरच्छिन्दाताम्‌ अच्छिन्दत प्र० छेत्ता श्रच्छिन्त्पा.अच्छिन्दायाम्रच्छिन्द्ष्वम्‌म० छेत्तास. अच्छिन्दि अच्छिन्द्रहि अ्रच्छिन्यदि उ० छेत्तादे. लोट्‌

छिन्ताम्‌ छिन्दाताम्‌ छिन्दताम्‌ छिन्त्व

छिन्दायाम्‌ छिन्दघ्वम

छिनदै.

छिनदावहे छिनदामहे

छिन्दीत

विधिलिड छिन्दीयाताम्‌ छिन्दीरन

हिन्दीयाः छिन्दीयायाम्‌ छिन्दीष्वम्‌ छिन्दीय हिन्दीवदि छिन्दीमदि

प्र० म० उ० च्र० मन उ०

लय

छेत्तारा छेत्तायाये छेचास्वदे

छेत्तारः छेत्ताध्वे छेत्तास्महे

छुझ अ्रच्छित्त ्रच्छित्साताम्‌ श्रच्छित्तत अच्छित्या:श्रच्छित्सा याम्‌अच्छिद्ध्वर अच्छित्ति भ्रच्छित्य्वहि श्रच्छित्स्महि

अच्छेत्स्यत श्रच्छेत्स्वेताम्‌ अच्छेत्स्यनर अच्छेत्स्थयाःश्रच्छेत्येयाम्‌ श्रच्छेत्स्प८ अच्छेस्स्े श्रच्छेत्स्पावहि श्रच्छेत्त्पाम

शरद

बूहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

( १५१) भञ्ञ_( वोइना)परसौपदी मनक्ति

लद्‌ भइक्तः

भज्ञन्ति

अर

भज्यात्‌

आशीलिद भ्यास्ताम्‌ भज्यामुः

मज्याप्षम्‌ भज्यास्‍्त

भनक्ति

मइक्थः

मदक्य

मे०

भज्याः

मनज्मि

भज्ज्बः

मडज्मः

उ०

अज्यासम्‌ भम्यास्थ

लदू

भद क्षति भंद दधतन भड जझ्वन्ति भडह क्यसि भड च्यथः भइ क्ष्यय मद दपरामि मइ चुंयावः सड क्ष्याम: लड_

अ्रभनक्‌ अमनछ

श्रभइक्ताम्‌ श्रमश्जन्‌ू श्रशक्तम्‌ श्रमश्क

अमनजम्‌ अभवश्जय

प्र* म० उ०

प्र० म०

वभज्ञ बभन्ञतु: बमझुः बभज्ञिय, वमडक्थ वभन्ञघु) बमझ बमज्ञ बमझिव बमक्लिम छुदू

भमदक्ता भड्तारो भदक्तारः भडक्ताति भड ताध्यः भाईकार्य

अमज्ज्म

छ०

भड क्तार्मिभट क्तास्षः मडक्तास्म: का

भज्नन्तु भडक्त

प्र० श्रमाउ क्षीत्‌श्रमाइ काम श्रभाद छ। म० श्चभाद क्षोः श्रमाह कम श्रमाद.

लोद्‌ भनक्त. भदइगि

भडक्ताम भइक्तम

छुड,

भनजानि भनजाब भसनजाम विधिलिद भज्जार्‌ भज्म्यावाम्‌ भच्ज्युः मज्ज्याः मब्ज्यातमू मज्ज्यात

उ०

अच्ज्याम्‌

उ०

मश्ज्याब

मज्यास्म

लिद्‌

मच्ज्याम

श्रमाइ ज्षमू अमाड कुव श्रमाडदम लूड_्‌ प्र*. श्रभडज्ष्यत्‌ थ्रमद क्यत,म्‌ श्रमद दान्‌ म० अभड,ध्यः श्रमड चूउतम्‌ श्रम, दंपत श्रभड इयम्‌ श्रमद दयावश्रमइ दयोम

उमयपदी ५ (१०२ )भुज्‌(पालन करना, खाना , परस्मैपद्‌ मनक्ति अनज्ति अनस्मि

लद्‌ भुइकाः भुश्जन्वि भुडक्यः भुडक्य

लोट्‌ प्र« भुनकतु ध्ुक्ताम म० भुदर्षि भुदक्तम

भुज्ण्यर मुच्ज्म+ लूथ्‌ भंद्यतः मोद्पन्ति मोद्ययः मोचपंप भोदयावः मोध््यामः

उ०

भुश्नस्तु भुझ्क्त

प्र० में? छउ०

भुनजानि भुनजाव भुनजाम विधिलिड भुज्ज्यात ग्ुज्ज्गताम भरु्न्युः मुज्ज्या: मुज्ण्यातम् मुम्ज्यात भुज्ज्याम्‌ भुज्याव भुम्ज्याम

अभुनक्‌ श्रठ्ठट काम अमुश्नन्‌

प्र०

भुम्यातू

प्रमुनकू श्रश्भदुक्रम अमुईक् अभुनजम श्रम॒ुन्ण्य श्रमुज्ज्

मण० उ०

मुज्या। मज्यात्तमू मम्यात्त भुज्यारुम्‌ भुम्यास्थ मुग्पात्म

भऔद्यति भोद्यतसि मोदयामि

लड़

आशेोलिट, भुज्यास्ताम्‌ भुग्यासः

३२७

फ्रिया-प्रकरण ( रघादि ) लिय्‌ बुमोज. बुमुजठः. बुभोजिय बुभुजथुः. बचुमोज. बुठ्ुजिब

बुभुजुः बुचुज बुमुजिम

प्र० म० उ०

भोक्तारा

मोक्ताःः

प्र० अमोद्ष्यव्‌ अ्रभोक्ष्यताम्‌ श्रभोक्ष्यन्‌

मोक्तास्‍्थ भोक्तास्मः

म० उ०

लद्‌

मोक्ता

मोक्तासि भोक्तास्‍्यः भोक्ताक्षि भोक्तास्घः

श्रमौक्तीत्‌ अभौक्ताम अमौक्तीः अभोक्तम श्रमौच्म्‌ श्रमौद

ल्‌ड्‌

अभौछ श्रमौक्त श्रभौदम

अभोक्ष्यः अमोक्ष्यतम्‌ अभोक्ष्यत अभोक्ष्यम्‌ अ्रमोक्ष्याव श्रमोक्ष्याम

भुज्‌ (पालन करना, खाना ) आत्मनेपद्‌

पशीरलिंड,

लदय्‌

भ्रुडक्ते भुज्ञाते सुडले

भुज्ले. मोध्यते मोक््यसे.

भज्ञते सुइख्वे

भुज्ाये.

भुख्मदे.

भुख्यदे लय

भोध््यन्ते. मोक्ष्यध्वे

भोक््येते भोक्येये.

प्र० भुक्ती.्ट..

म०

उ०

भुक्षीष्झाः

भ्रुद्दीय

प्र० बुछुजे म० बुभुजिपे

भुछीयाघ्ताम्‌ मुक्तीरन्‌

भुक्ीयास्थाम्‌ भुक्तीष्यम

भुक्षीवदि

भुक्ञीमहि

लिट्‌

वुसुजाते बुभुजाये

बुअजिरे बुमुजिध्वे

उ०

बुमुजे

प्र०

भोक्ता

ल्ुद्‌ भोत्तारा

अभुड क्या: श्रभुझ्ञाथाम्‌ अभुदरध्वम्‌ू म०

भीक्तासे

भोक्तासाथे

भोक्ताघ्वे

अभुज्ञि.

उ०

भोक्तादे

भोक्तास्ददे

मोक्तास्मदे

प्र०

अरभुक्त

अभुक्ताताम्‌ अमुक्षत

मोक्वे.

भोध्यावद्दे भोक्ष्यामहे_

लड_ अमुड कत श्रभुज्ञाताम्‌ श्रमुज्ञत

अभुज्प्यद्दि श्रभुज्ज्यहि

लोद्‌

मुढक्ताम्‌ भुज्नाताम्‌

भुझताम्‌.

बुभुनिवदे बुसुजिमहे भोक्तारः

छुड्‌

म०

अभुक्थाः श्रभुक्षाथाम्‌ अमुग्ध्वम

उछ०

श्रभुक्षि

भुन्नीत

भुनजावहैं मुनजामहे विधिलिड, भुज्ञीयाताम्‌ भुज्नीरनू

प्र०

अभुक्षद्दि श्रभुक्ष्महि लूब्‌ अमोदयत अभोक्ष्यताम्‌ अ्रभोक्ष्यन्त

भुद्जीय..

भुझ्लोवहि

भुझ्लीमहि._

उ०

श्रभोक्ये.

अडक्व

भुनजैे

भुज्ञाथाम्‌

भुडग््प्मू

अद्जीयाः भुछ्कीयाथाम्‌ भुज्ञीघ्वम्‌_

म०

अ्रभोदययाः श्रमोक्ष्येयाम श्रभोक्ष्यप्वम

श्रमोक्यावहि श्रमोक्ष्यामहि

उभयपदी (१४३) युज ( मिलाना, लगना ) परस्मैपद ुनक्ति

युनचि

ुनज्मि

शुइक्तः

युझ्चन्ति

सुब्ज्य

मुब्ज्मः

सुडक््मः

युडक्थ

प्र०_ योक्ष्यति

लू

योक्ष्यकः . योक्ष्यन्ति

म० योध््यसि योक्ययः

उ० योक्ष्यामि योक््यावः

योव्यथ

योध्ष्यामः

श्श्८

इहदू-अनुवाद-चन्द्रिफा लड_

लि

अगुनक्‌ श्रयुंढक्ताम्‌ अयुजन्‌ अयुनक्‌ शअ्रयुड क्तम्‌ अ्युडक्त

प्र» म०

थुयोज युवोजिय

दुयुजवः सुयुजघुः

युवुज्ञा युयुज

अयुनणम्‌ अयुब्ज्य॒ श्युन्म्म श्ोद्‌



युयोज

युयुजिब छ्ुट्‌

युयुजिम

युनक्तु

झुडक्ताम्‌ युझधन्तु

प्र० योक्ता

योक्तारी

योक्तारः

युड॒ग्धि

युदक्तम

युइक्त

म०

योक्तासि

योक्तास्‍्थः

योक्तास्‍्ष्

युनजानि

शुनजाव

युनजाम

छ०

योक्तामि

योक्तास्‍्तः

योक्षात्मः

विधिलिड _

लुद्द

युब्ज्यात्‌ झुम्ण्याताम्‌ युख्ज्यु+

प्र श्रयौद्ीव्‌ श्रयोक्ताम शगीक्ठः

युब्ज्याः सुख्ज्यातम्‌ युज्ज्यात युझ्ज्याम युह्ज्याम्‌ युब्ज्याब

म० उ०

श्रयौक्तीः अयौकम्‌ श्यौक्त श्योदम अयौक्षम्‌ श्रयौदद..

स॒ज्यास्ताम्‌ युज्यामुः

प्र०

श्रयोक्ष्यत्‌ श्रयोक्यतास्‌ श्रयोधयन्‌

युज्याः युज्यास्तम्‌ युज्यात्त गुज्यासम्‌ युज्यास्थ युज्यात्त

म० उ०

श्रयोक्षय ,श्रयोक्यतम्‌ श्रयोध्यत अयोध्पम्‌ श्रयोदपराव झ्रयोक्षयाम

आराशीर्लिंड_ थुज्यात्‌

लूछः

युज्‌ ( मिलमा, लगना ) आत्मनेपद युदते

लद्‌ युज्जाते युझते

युद्ते

युज्ञाये

युझे.

युख्ज्यदें. लूदू

सुडख्वे.

युख्मदे

प्र०

म०

उ०

युज्ञीत

विधिलिड_ युख्रीयाताम्‌ युश्नौरन्‌

युश्लीय

सुझीवदि

युक्नीयाः युझ्ीयाधाम्‌ युझ्ीष्वम

योदयते

योध्येते.

योदयन्ते.

ग्र०

यु्ीए

सोदयसे

योवयेये.

योक्ष्यप्वे

म०

सुक्नीहझाः

योइयामदहे

उ०

योध्यावदे लब, प्र श्रयुदक्त श्रयुज्ञाताम्‌ अयुक्त अयुरूक्या:अ्युझ्धाम श्रयुरूर्प्वम म० उ० श्रयुक्नि. श्रयुन्म्वदि श्रयु्मददि गोक्ये

लोद्‌

सुददक्ताम युज्ञाताम

युन्नीमदि

श्राशीलिंड_

युज्ञताम

युडइंच. युक्ञाषाम्‌ युदउप्वम युनशावहै युनणामहे “घुनमी.

सुश्गीय

मुयुजे युवुज्िपे युवुजे

पग्र*० योक्ता

म॑० 3«

योक्तासे भ्रोक्तादे

युत्तीयास्ताम्‌ युक्तीरन्‌ युतक्तीयाध्याम्‌ युक्तीध्वम

युक्ीष्वद्दि सुच्ीष्महि लिद्‌ युयुजिरे युयुजाते अुयुनिष्ये बुयुजये झुयुजिवदे झुयुजिमदे झुद

योकारी

योक्ताः

याक्ताताये योक्ताष्ये योक्तात्वद योक्तास्महे-

रर अयुक्त. आथुक्था: अयुत्ति

क्रिया-प्रकरण ( तनादि ) खंड

अयुत्ञाताम्‌ अश्रयुद्धत अयुक्यायाम्‌ अयुस्घम अ्रयुक्थदि अयुद्मद्धि

प्र०. म० उ०

झ्श्छ लूड

अबोक्ष्यत अयोक्ष्येताम्‌ अयोच्यन्त अयोच्षथाः अयोक्ष्येयाम्‌ अयोह्यध्यम्‌ अयोक्ष्ये अयोक्ष्पावहि अयोध्यामहि

८-तनादिगण इस गण की प्रथम घातु “तन” है, अतः इसका नाम तनादिगण पड़ा। तनादिगश में १० घातुएँ हैं |तमादिगण की घातुओं में लट ,लोट ,लद थ्रौर विधिलिंड' मे धातु और प्रत्तय के बीच में उ जोड़ दिया जाता है, (तनादिकृतम्य उः ), यथा--तन्‌+उ+ते रूतन॒ते ।

उभयपदी (१५४ ) तन्‌(फैलाना ) परस्मैपद्‌ लद्‌ अआशीलिंड' सनोति

तनुतः

तन्वन्ति

प्र० तन्‍्यात्‌.

तनोषि तनोमि

तनुथः तनुव॒:-न्यः

तनुय ततुम/न्‍्मः

मं० उ०

तन्याः. वन्यास्तम्‌ तन्याठमू तन्यास्य

तनिष्यन्ति. तनिष्यथ

प्र«_ म०

ततान तेनिथ

तनिष्यामि तनिष्वावः तनिष्याम: जड़.

उ०

ततान, ततनतेनिवु घट

लु्‌द्ू

तनिष्यति तनिष्यतः तनिष्यसि तनिष्यथः

अतनोत्‌ झतनोीः

अतनुताम्‌ श्रतनुतम्‌

अतनवम्‌ श्रतनुव-न्ध अतनुम-न्‍्म लोट्‌ बी तनोत तन॒ुताम्‌ तन्वस्तु

उ०

तनु तनवानि

तनुतम्‌ तनुत तनवाव तनवाम विधिलिड_ तनुयाताम्‌ तनुयुः

म० उ०

तनुयात्‌

अ्रतन्वन्‌ अतनुत

पग्र० म०

अ्र०

तन्‍्वास्ताम्‌ तन्यासु+ लिद्‌

तनिता तनितासि

चेनवुः तेनथु:

तनितारी तनितास्थः

तन्यास्त तन्यास्‍्म तेनुः तेन

तेनिम तनितार$ तनितास्थ

तनितास्मि तनितास्वः तनितास्मः छुडः>> अ्वानीद्‌ अवानिशम अदानिषुः

अतानीः अतानिष्टखू अतानिष्ट अतानिपम्‌ श्रवानिष्॒ अतानिष्म लूड_ प्र« अतनिष्पत्‌ अतनिष्यताम्‌ अ्रतनिष्यन्‌

ततुयाः

तजुयातभ्‌ तनुयात -

मे०

नुयाम्‌

तंनुयाव

उ० अतनिष्यम्‌ श्रतनिष्याव अतनिष्याम

तनुयाम

अवतनिष्यः अतनिष्यतम्‌ अतनिष्यत

हे३०

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

तम्‌ ( विस्तार करना, फैलाना ) आत्मनेपद्‌

लद्‌ तनुते. तनुपे.. तन्‍्दे.

तन्‍वाते. नन्चाये. तनुवहे-न्वद्दे लूट तनिष्यते तनिष्येते जनिष्यसे तनिष्येये.

तनिष्ये.

आशोलिड्‌

सनन्‍्दते प्र० तनुष्चे म० तमुमहे-न्मददे उ०

दनिषीष्ट तनियीयास्ताम तमिषीरत्‌ समिषीष्ठाः तनिषोयास्याम्‌ तनिषीष्वम्‌ तनिपीय सतनिपीवद्दि तनिषीमरहि लिद्‌ श्र० पेने तेमाते. तैनिरे म० तेनिपे. तेनाये. तेनिष्वे

तनिष्वन्ते. तनिष्यध्वे..

तनिष्पावहे तनिष्यामहे

उ०

तेने

तेनिवहे.

ल्रछअतनुत अतनुथाः

तेनिमददे

लुद

अ्रतन्बाताम्‌ श्रतन्बत श्रतन्वाथाम्‌ अतनुष्यम्‌

प्र« मभ०

तनिता तनितासे

अतत्वि अ्रतनुवहि-न्वहि अतनुमदि-न्मद्दि उन तनिताहे

लोद्‌

सनितारी. दनितार+ तानितासाये तनिताश्बे

तनितास्वदे तबिदास्तहें

छुड

सनुताम

तन्‍्वाताम्‌

उन्‍्बताम्‌

प्र» अवनिष्ट, अ्रठत अवनिषाताम्‌ श्रवनिषत

सनुप्व॑

तन्वायाम््‌

तनुध्वम््‌

म& बतनिषछा,थ्रतथा:अतनिपायामग्रतनिष्व्म॑

तनदे...

तनवांवहे तनवामदे.

उ० अतनिधि

अतनिश्बदि श्रतनिर्ष्मईई

विधिलिड_ लूड_ तन्वीत तम्वीयाताम्‌ ठम्बीरनू प्र० श्रतनिप्यत अतनिष्येताम्‌ ध्रतनिष्यन्त तन्‍्वीथाःः तन्वीयायाम तन्‍्वीश्वम स० श्रतनिष्यथास्थ्रतनिष्येषामदतनिष्यणम सन्‍्यीय. तस्वीवहिः तम्बीमहि. 3० अश्रतनिष्ये अ्तनिष्योवर्दि

उभयपदी (१०५५)रू (करना)परस्तीपद करोंति. फरोपि

करोमि.

लर

लोदू

,

कुस्दः . कुब॑न्वि

श्र०. करोत..

कुदताम..

कुषन्ये

कुमप:

म०

कुस्तम

कुरत

झकुर्बाः

कुदथ

कुमः

कुद

उ«० बयरवाणि करबाव

ल्‌द्‌

करिव्यति करिव्यत। करिष्यसि करिप्ययः

विधिलिद

करिब्यन्ति करिष्यय..

फरिप्यामि करिप्यावः फरिष्याम:

श्र० म०

कुर्याव्‌. कुर्यावाम कछुर्याः . कुर्यातम्‌

उछ० कुर्याम

लड_

रे

छुयति

ग्राथीतिंद_

शरकरोत्‌

श्रकुरुतामस्‌ अकुबन्‌

अकरोः

अकुदतम्‌

अकसर अकुर्व

कुर्बाव

करवाम

कुसु$ कुर्यात

श्रकुदव

अकुम

ग्र०

कियात्‌.

कियास्ताम्‌

म०

किया;

क्रियास्तम

छ० डियातम्‌ कियात्व

क्रियामुः

क्रियास्‍्त

नियास्‍्म

रेरे१

क्रिया-प्रकरण ( तनादि )

सिर चकार

चक्रतु+

चकर्थ..

चक्रचुः...

धकार,

चफर चकूब

लुश्‌ आअऊार्पोत्‌ अकाष्टाम्‌

प्र०

क्र

म०

श्रका्ँ:

श्रकाष्टमू

अका्ड

च्कूस

उ०

अकापम्‌

शअ्रकाष्व

अ्रकाष्म

छुट्‌

कुर्ता कर्तासि कर्तास्म



चक्रुः

अकाएः

लूड

कर्तारी... कर्तार) प्र०. अकरिष्यत्‌ अकरिष्यताम्‌ अ्रकरिष्यन्‌ कर्तास्‍्थ:.. कर्तास्थ म० अकरिष्यः अकरिष्यतम अकरिष्यत कर्तात्व४ फर्तास्मः उ० अकरिष्यम्‌ श्रकरिष्याव श्रकरिष्याम कु ( करना ) आत्मनेपद

कुसते.

लू कुवति..

कुब॑ते

प्र०: कृपीश्ट..

आ्राशोलिंद्‌ कृषीयास्ताम्‌ इषीरन्‌

कुस्पे.

कुबधि.

कुरुध्वे

म०

कृषीयास्थाम्‌ कृपीदवम

कुबें

कुबहे.

लू

कुमदे

उ०

कऋरिष्यते करिष्येते करिष्पन्ते. करिष्यसे फरिष्येथे करिष्यध्वे करिष्ये.. करिष्यावद्दे करिष्यामद्दे

कृपीष्ठाः

इृपीय

प्र०* चक्रे. म० चकृपे उठ० चढक्रे

लड्‌

करने

कझृषीमदि

चक्राते. बक्राये चकुबहे.

चक्रिरे चकृदते चरुगहे

लिद्‌ लुदू

अफऊुझत अ्रकुर्बाताम्‌ अ्कुबंत अकुर्थाः श्रकुर्वाधाम्‌ श्रकुरुष्वमू अकुर्वि अकुवदि अकुर्मदि ऋुरताम कुरुष्ष..

कृपीवद्दि

लोद्‌ कुर्वाताम्‌ कुवताम्‌ कुर्वाथाम, कुरुष्वम्‌

करवावद करवामहे विधिलिक्‌ कुर्बीतव. कुर्बोयाताम्‌ कुर्बोरन्‌ ऋुर्वाया: बुर्नोषाधाम्‌ कुर्वीप्वमू_ झुदीय. कुबाँददि कुर्दीमदि.

प्र० कर्ता फर्तारोी. म० कक्‍्तसे . फ़र्तासाये.. उ० करते कर्तास्वदे प्र० मे॑०

श्रकृत अआहकृयराः

उ०

अकृषि

फर्ताए कर्ताष्वे .कर्तास्मदे

खुड श्रकृपाताम्‌ श्रकृपत अकृपाथाम्‌ अकृदवम

अ्रकृष्वहि अक्ृष्मदि लूड्‌ प्र० अकरिष्यत श्रकरिष्येताम्‌ भ्रकरिष्यन्त म० अकरिप्यथा/अकरिण्येथाम्‌ अकरिष्यष्यम्‌ छु० अकरिष्ये अकरिष्याददि शअकरिष्या्ाहि

६४-ऋषादिगण इस गुण की प्रथम घातु “क्रो” है, अतः इसका नाम क्रषादिगण पडढ़ा। इस

शण में ६१ घातुएँदँ |इस गण की धातुओं के लय ,लोट, लड_ और विधिलिड,

में धाव और प्रत्यय के बीच में श्ना (ना) जोड़ दिया जात्म है, (कऋषादिम्य भा) |

इ्श्र

बृददू-अनुवाद-चन्द्रिका

कहाँ यह प्रत्यय नी हो जाता है और कहीं ना, न । धाठ की उपधा में यदि खन्‌म्‌अथवा अनुस्वार हो तो उसका लोप द्ोता है | ब्यजनान्त घातुश्रों केबाद लोट के म० पु० एक वचन में (हि! प्रत्यय के स्थान में आन होता हे, (हल; #; शानब्को), यपा-पह्‌+हि #एहूई॑थ्ाव ८राण |

उभयषदी (१५६ ) क्री ( मोललेना ) परस्ीपद्‌ थ्राशोलिंड

क्ीणाति क्रीशीतः क्रीणम्ति क्रीयासि क्रौणीथ: .क्रीणीय क्रीणामि ऋणीवः क्रोणीमः छ्दु क्रेष्यति. क्रेष्यताः.. क्रेष्यन्ति

क्रेष्यसि क्रेष्यय: . क्रेष्यय ्रेष्यामि क्रेप्यावः क्रेष्या/..

प्र«*. कीयात. छ्ीयास्ताम कीयासुर मं० मीया। क्रीयास्तम्‌ क्रीयासत उ० क्रीयासम्‌ क्लीयास्व क्रीयात्म लिद्‌ प्र चिक्राय सिक्रियठः चिकरियुः

मे» सिक्रबिथ, चिक्रेय चिक्रियथु३ चिक्रिय उ० चिक्राय, चिक्रय चिक्रियिव चिक्रिपिम

लड्‌ छुद्‌ अक्रीशात्‌ श्रक्नीणीताम्‌ श्रकरीशन,. प्र० क्रेता... क्रेतारी.. अक्रीणाः श्रक्रीणीतम्‌ अक्रीणीत. म० क्रेतासि क्रेतास्थ:.. अक्रीणाप्र अ्रत्नीणीव अक्रीणीम._ उ० क्रेतास्मि क्रेतात्वः. लोद्‌

केतारः क्रेतास्थ क्रेतास्मः

छ्द्‌

क्योणातु क्ीणीताम तीणन्तु प्रीणोडि क्रीणीतम कीशीत क्रीणानि क्रीणशाव. क्रीणाम

प्र*» श्रम्रपीद अ्रफ्रैशय म० अनैषो! पअ्रक्रैष्म. उ० अफ्रैपस प्रक्रैष्व.

अ््रोपुः श्रक्रे् श्रक्रैष्म

विधिलिड ल्‌द्‌ फ्रीणीयात्‌ कीणीयाताम्‌ क्रीशीय;. प्र० अ्रक्रेष्यत्‌: श्रक्रेप्यताम्‌ भ्रकेप्यन

क्रीणीयाः क्लीणीयातम्‌ क्रीणीयात

म० अ्रक्रेप्पः

क्रीणीयाम छीणीयाब क्रीणीयाम

उ०

क्रीणीते फ्री्णपे कीणे. फ्रेंपपते. मेप्यसे

फेप्ये..

लद्‌ क्रीयाते क्रीणायें.. शोणीददे न्त्ट्््‌ प्रेंब्येये.. फरेप्येये.

क्रेघ्याददि

अ्रक्रेप्मतम अक्रेप्यत

श्रक्रेप्पम्‌ अक्रेप्याव

की ( मोल लेना ) आत्मनेपद

क्रीणते क्रोणीप्वे.. क्रीशीमहे. क्रेप्यन्ते क्रेष्यघ्वे

क्रेप्पामदे।

अर म० उ० अ० म०

.श्रक्रेप्याम

लद्‌ श्रक्रीणीव श्क्रीणाताम्‌ अ्रक्रीणत अ्रक्रीणोयाः श्रकीणायाम्‌ श्रकीणीप्वम्‌ पग्रक्रीणि श्रक्रोणोवदि 'अ्रकीशणीमहि को कौणीताम क्रीयाताम्‌ क्रीणवाम्‌ कोर्णाप्व क्रीयायाम ओीर्ाप्म

उ० कौ

फ्रीणावहे

झ्रौणामद

क्रिया-प्रकरण (क्रयादि ) विधिलिड्‌ ऋीणीत क्रीरीयाताम्‌ क्रीणीरनू. प्र० कोझीयाः क्रीणीयाथाम्‌ क्रीशीष्वम्‌ म० उ० क्रोयीय क्रीणीवढ़ि क्रीणीमहि. आशीर्लिद क्रेपीयास्ताम्‌ क्रेपीरन्‌ ग्र० क्रेपीए क्रेपीछा: क्रेपीयास्थाम क्रेपीद्यम... मै० मेपीवहि. क्रेपीमद्ि उ० कपय लिद्‌ चिक्यि

केता. क्रेतासे. क्रेतादे. अक्रेट्ट. अक्रेघाः अक्रेपि ध

चिक्रियाते चिक्रियिरे.

चिक्रितिपे चिक्रियाये चिक्रिय्रिध्वे. चिक्रियियद्े चिक्रियिमदे चिक्रिये

प्र० अक्रेष्व

श्रे३ छुद्‌ क्तारी. क्रेतासाये. क्रेतास्वदे छुडः अक्रेपाताम्‌ अक्रेपाथाम्‌ अक्रेष्वहि

क्रेतार क्रताध्वे .प्रेतास्महे श्रक्रेपत अकेदब्म अफेप्महि

लूड

अनष्येताम अनेष्यन्त

म०

अ्रक्रप्यथाः अ्रक्रेष्येधाम अग्ेष्पव्वम्‌

उ०

अ्रक्रेष्ये.

अरक्रेष्यावि श्रक्रेष्यामदि

उभयपदी (१५७ ) ग्रह (पकड़ना, लेना ) परस्मैपद

, चद्‌

आशीरलिंड'

गह्भाति

गृहीत-

श्हन्ति

प्र०

ग्रह्मात्‌ू

ग्रह्यास्तामू

ण्यासुः

गह्ाति गह्वामि

गहीथ..

ग्रह्दीय

म०

णशब्याः

गह्मास्तम

ख्ास्त

गरीब:

ग्रद्ीम:

छ०

ग्रद्यासम

शहात्व

गद्यास्म

ल्ल्ट्‌

अद्वोष्पति ग्रद्वष्पतः अद्वीप्यसि प्रद्मीष्षष:. अद्यष्यामि अद्वीष्याव:

ग्रह्मीष्यन्ति.

प्र० जग्राइ

ग्रद्यीष्ययष अद्दीष्पाम:

स० उ०

जग्रहिथ जणहधु+. छजग्राह-जग्रह जगहिव

प्र०

ग्रदीताी

म०

अद्दीतासि अद्यीतास्थः अह्ीतास्थ

उ०

अहोतास्मि अद्दीतास्वः अद्वीतास्मः

डे

अगहाव्‌

प्रस््वीतीम्‌ अण्हन्‌

अग्टटा, अग्द्वीतीप अगण्डीत अग्रह्लाम्‌ अपफडीव अग्ह्ीम लोट्‌ झहादु

गद्यण

कहीदाण, णहोतम्‌

गहाय विधिलिडद श्डीयात्‌ गह्ीयाताम्‌ गहीयाः शहीयातम्‌ गड्ीयाम्‌ गह्ीयाव गह्ठानि

लियू

बहन्ठ

चुद

ग्रद्दतारी

जयह जगहिम ग्रह्मतारः

छुझ

प्र० अग्रद्दीतू अग्रदीश्म अग्रहीयुः

गरह्ीत

म०

गह्ठाम

उ०

ण्ह्वीयुः ग्रह्ीयात ग्रद्दीयाम.

जगहतु, . जरहुः

अग्रही:

अग्रदोष्टभू

अग्रद्दी्

अग्रद्दीपम्‌ अग्रद्वीप्व अम्रद्दीष्म लूढः म० अग्रद्ेष्यत्‌ अग्रदीष्यताम अ्ग्रद्दीष्यन्‌ म० अग्रद्मष्यः अग्रद्दष्यतम्‌ अग्रद्मीष्यत उ० अग्रद्दीष्यम्‌ अग्रद्वीष्याव अग्रह्दीष्याम

रैरे४

इहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

प्रहू(पकड़ना, लेना ) आत्ममेपद

गहीते

लद्‌ गरद्धाता. णहवते

शह्ीपे.

शरहसे

यहीवहे. लय प्रद्यीष्ते अद्दीष्येते गहीष्यसे ग्रद्दीष्येये ग्रहीष्ये. अह्ष्यावहे णद्‌

रशीष्वे

म० अहीपीझः अहीपीयास्थाम ग्रहीपीघश *

गहीमहे.

3०

अह्दीष्यन्चे.. अद्ीष्पप्वे.. अह्दीष्पामहे

प्र० जगहे.. म० जगहिये. उ*» जयहे..

गज.

ग्रहपीय

श्रग्ह्कीत अ्रण्द्धाताम अगहृत

प्र* अह्दीता

अग्ब्दीयाः अ्ण्क्षाथाम्‌ श्रगह्मीष्मम्‌.

म०

ब्रणद्धि

अग्रीबहि श्रणहीमदि लाटू

गह्नीताम्‌ ग्रद्धाताम ध्व

ग्रद्दताम

ग़ह्याथाम्‌ूयृद्वीप्ममू

गहाबरदें

ग्रह्ामहै.

गद्दीतासे

प्रद्वीतारो

ग्रद्नतारक्‍ः

अद्दीतासाथे प्रद्दैताष्वे

घुद

प्र० अग्रहीष्ट अग्रह्ीपाताम अग्रद्दीगत म«०

श्रप्रह्ीणः३ अग्रहीषाथाम्‌ अ्ग्रद्दीघम्‌

उ० अग्रद्दीपि अप्रहीष्वहि श्र्रहष्मदि लूड्‌

ग्रह्दीत. शद्दीयाताम्‌ ग्ह्ीस्‍म्‌ ग्रह्यीयाः गह्ोयाथाम्‌ यह्दीग्वम्‌ गह्लीवदि

अहीपीवदि. अदीपीमदि लिद्‌ जणहाते .णगहिंरे जग्हाथे.. जणदिष्वे जशहिवहे जशशिमहे झट

गद्ीवादे अहीवास्वहे ग्रद्वीवात्महे

उ०

विधिलिड गह्दीय..

-

श्राशीरलिंद_ प्र७ ग्रह्ीपीष्ट ग्रहीपीयास्ताम्‌ ग्रहीपीरन्‌

गह्ीमहि

प्र० अम्रदष्यत '्रप्रदीष्येताम श्रग्रद्नीप्यन्त स० श्रप्रहमष्ययास्थप्रद्ष्येयाम अम्रहष्पष्यपभ्‌ ०

अग्रद्दीष्ये श्रग्रद्वीष्यावहि श्रप्रहीष्यामदि

उभयपदी

(१०८ )श्ञा (जानना ) परस्मैपद ५८८“



जानाति

लट्‌ जानीत। . जानन्ति

प्र« जानाद

जानासि

जानीथ;

जानीय

म०

जानीहि.

जानामि

णानीवः: जामीमः_ ल्ल्द्‌

उ०

जानानि

प्र० म० 3०

जानीयात्‌ जानीयाताम्‌ जानीयुः जानीयाः जानीयातम्‌ जामीयात छानीयाम्‌ जानीयाव जानीयाम

छास्पति ज्ञास्यतः. ज्ञास्यसि ज्ञास्यथ।.. शास्यामि छास्‍्वात्रः.

शास्पन्ति. ज्ञास्‍्यक शास्वामः

लोद्‌ जानीताम जानस्ु

जानीतम्‌

जानीत

जानाव जानाम « विधिलिदश

लद श्राशीर्लिंद अजानाह अजानीगाम्‌ श्रणनवन्‌ प्र* कछ्षेयात्‌ शेयास्ताम शैेयासुः अजानाः श्रजानीतम्‌ श्रजानीव. मं शेयाः . शेयास्तम शेयारत आअजानाम श्जानीव अ्रजानीम उ« शेयाठम्‌ शेयास्‍्त्र. शेयास्म

क्रिया-पकरण (ऋषथादि )

लिय्‌

जजुः जरू जजििम

जशतुः जौ जरिय, जज्ञाय जज्ञयुः जशिव जज्ौ

छुद्‌

३३५४

खुू

प्र० अ्रश्ासीत्‌ अज्ञासिशम्‌ अजासिषुः म० अज्ञासीः अशासिष्टम्‌ अज्ञासिष्ट उ० अशासिपम्‌ अश्ञासिष्व अज्ञासिष्म

ल््ड्‌

ज्ञाता

शातारी

शातारः

प्र०

अज्ञास्यत्‌ अज्ञास्यताम्‌ अशास्यन्‌

ज्ञातासि

ज्ञातास्थः

शतास्थ

ज्ञातात्मि

ज्ञातास्त्रः

शातास्मः

म० उ*०

अज्ञास्यःः अज्ञास्यम्‌

अशास्यतम्‌ अज्ञास्यत अज्ञास्याव अज्ञास्याम

ज्ञा (जानना ) आत्मनेपद

लद्‌ जानीते

जानाते

जानीपे

जानाये.

आशीर्लिंद .जानते जानीष्वे

प्र० म०

जाने.

जानीवहे जानीमदे. उ० लू शास्यते शास्येते. ज्ञास्सन्ते. प्र० शास्पसे शास्येथे. ज्ञास्यध्वे.. म० शास्ये .शास्यावदे शास्थामहे. उ० लद अजानीत श्रजानाताम्‌ भ्रजानत. ग्र० अजानीयथाः श्रजानाथाम्‌ अ्रजानीष्वम्‌ म० अश्रजानि श्रजानीवद्दि अजानीमहि उ०

ज्ञासीष्ट.

शासीयास्ताम्‌ शासीरन्‌

ज्ञासीष्ठाः

ज्ञासीयास्थाम्‌ शासीध्वम्‌

ज्ञासीय_

शासीवदि लिय्‌ जताते. जजाये. जसिंत्रहे. चुद छशातारी. ज्ञाताराये. शातास्वद्दे

जे जज्षिपे. जे छावा ज्ञातासे. ज्ञाताईे.

लोद्‌

शासीमहि जशिरे जरखिष्वे जशिमदे शातारः ज्ञाताध्वे ज्ञातास्महे

छुडू

जानीताम्‌ जानाताम्‌ जानताम्‌ जानीष्व जानाथाम्‌ जानीष्वमू

प्र० श्रक्ञास्त अज्ञासताम्‌ अ्ज्ञासत म० अशास्थाः श्रशासायाम्‌ अक्ञाध्वम्‌

जाने

उ०

जानावदे

विधिलिड

जानामहै

अशासि

अश्रज्ञास्यहि

लूड

श्रशास्मदि

जानीत जानीयाताम्‌ जानीरन्‌ प्र० अज्ञास्यत अशास्वेताम्‌ अज्ञास्यन्त जानीथाः जानीयायाम्‌ जानीष्वम्‌ म* अज्ञास्ययाः अशास्वेयाम्‌ श्रतास्पध्वम्‌

जानीय

जानीवहि

जानीसहि

उ०

शज्ञास्थे

अज्ञास्यावहि श्रशास्या्माहे

( १५६ ) बन्य्‌(बॉधना ) परस्मेपदी बन्नाति बन्नासि बन्नामि

लय

बन्नीतः. बन्नोच:.. बचन्चोवः.

बचन्नन्ति बन्नीथ बचन्नीमः

प्र०. म० उ०

ल्‌द

भन्त्स्पति भन्त्स्यतः . भन्त्स्यन्ति मन्त्यसि भन्त्यथः भन्त्यथ भमन्त्स्यामि मन्त्यावः भन्त््पामः

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

र्ेश३

लड़

शवप्नात्‌ श्रवभीताम्‌ श्वम्नन अबना: श्रबप्नीतम्‌ अ्रवश्नीत.. श्रवाम्‌ अवध्तीव भ्रवध्तीम

लोद्‌

किद्‌

प्र० बवन्ध बबन्धतुः . बचसुः स० बबन्पिय,ववन्ध वचन्धशुः बबनन्‍्ध ड्० बवन्ध॒ वबन्धिव बबन्धिम

चज्नातु बधान

बप्तीतामू वप्ीतम्‌

वप्नन्तु बन्नीत

प्र म०

अज्नानि

भन्नाव॑

चन्नाम

छ०

विविलिडू अप्तीयात्‌ बन्नीयावाम्‌ बच्ोंयु

यपभीयाः दश्तीयातम अशीयाम्‌ बप्लीयाव आशीलिंश वध्यात्‌ बध्यास्ताम बध्याः बध्यास्तम्‌ वध्याप्म्‌ वध्यास्थ

लय

वन्तीयात. बश्लीयाम बध्यासुः बध्यात्त.. बच्यास्‍्म

चुद

बन्धा

बन्चारों.

बन्चारः

बन्धासि चन्धारिम

बन्पास्थः. बन्‍्धोध्तःः

बन्धाहय वन्वात्मः

झुड्‌

प्र० अभान्त्सीत अवान्दाम्‌ श्रमान्सुः भे० अ्भान्सीः अ्याग्दम्‌ शयान्द

3० प्र० भ॑० उ०

अभान्त्ठम्‌ अभानत्व

शअ्मभान्त्म

द््ड्‌

अभनत्त्यत्‌ श्रमन्‍तत्यताम्‌ श्रभन्त्त्पन्‌ अभनन्‍तत्य; अ्रभन्त्यतम अभसन्‍त्स्यम्‌ अ्रभनन्‍्तस्यातव

पभनन्‍नत्यत श्रभन्सध्याम

(१६० ) मन्थ्‌(सयना ) परस्मेपदी पिधिलिड,

प्र० मभीयात्‌ मभीयाताम मझ्नीयु मप्रीयात्तण मप्रीपार्त मण अग्जीयाः अभामि भप्नीवा मपीमः ० मश्मीयाम्‌ मक्लीयाव भप्मीयाम श्राशीरलिद्‌ ल्द् मन्पिष्यति मन्पिप्यतः मन्यिष्यन्ति. प्र अथ्यात्‌ मध्यास्ताम मध्यामुः मस्यास्वम मथ्यास्त भन्थिष्य्धि भन्थिष्यं: मन्थिष्यथ भे० मथ्याः मष्यास्म मन्थिप्यामि मन्थिप्याव: मन्यिष्यामः 3९ मस्यासम्‌ मध्यास्त्र लिट्‌ लंड ममन्थुः ममनन्‍्य समन्यवुः अमआात्‌ श्रमझोताम्‌ अमझन्‌ पर मसमनन्‍्यथ धमगा;. श्रमस्‍ीतम्‌ अमभोत सर मसमन्यिय ममन्यधुः अमपगक्‍्माम्‌ श्रमभीव अमझोम॑ 8* समन्‍ध . समन्यिव ममन्यिम छुय्‌ लोद्‌ मझात, म्रीगत्‌ मझीतास सशझन्तु प्र मन्पिता मन्पितारी मन्यितारः मयान भप्मीतम्‌ मझ्रीत म० मन्थितासि मन्यितारंपः मन्यितात्य मझ्ाति

मभीतः .. अप्नन्ति

मशझासि

मशीया

मझ्मानि

मप्लाब

मंभीष

सभाम॑

ड्ध्०

मन्धितास्मि मन्थितास्व£ मन्यितारम३ ,

क्रिया प्रकरण ( चुरादि ) जुट

अमन्थीत्‌ अमन्थिष्टाम अमन्यियु४ अमनन्‍्धथीः अमन्थिष्टम्‌ श्रमन्यिषष्ट.. अमन्थिपम्‌ अ्मन्यिष्व अमन्थिष्म

३३७ लड़

ग्र० अमन्थिप्यत्‌ अ्रमन्थिष्यताम्‌ अमन्थिष्यन्‌ म० अमन्थिप्यः अमन्थिप्यताम अ्रमन्थिष्यत उ० अमन्यिप्यम अ्रमन्थिष्याथ अ्मन्यिष्याम

१०-चुरादिगण इस गण की प्रथम घातु “चुर” है, अतः इसका नाम घुरादिगण पढ़ा ) इस गण में ४११ घावुण है । इस गण में घातु और प्रत्यय के बीच में श्रय्‌ (णिच्‌ ) जोड़ दिया जाता है तथा उपधा के हस्व स्वर (अर को छोड़कर ) गुण हो घाता है। और यदि उपधा मे ऐसा श्र हो जिसके बाद रुयुक्ताक्षर न हो तो उसफो और अन्तिम रुपर्‌

को ब्रद्धि हो जाती है, यथा-चुर +श्रव्‌ +ति>-चोर्यति ] तड़्‌ + अ्रय+तिऊ ठाउयति। आऊारान्त घाठुश्रों में आ के बाद प्‌ और लग जाता है |

उभयपदी (१६१ ) चुर्‌ (चुराना )परक्मौपद ९५८८7 लट्‌ चोस्यति चोस्यतः चोरयन्ति. घोर्यसि चोरयथः चोरयथ

प्र० म०

चोसयेत्‌ चोरयेः

चोरपामि

उ०

चोस्वेयम्‌ चोस्येव.

चोरबायः

चोरबामः

ल््दू चोरयिष्यति चोरविष्यतः चोरिष्यन्ति प्र०

चोरयात्‌

पद

विधिलिड_ चोस्वेदाम्‌ चोस्थेयु: चोस्थेतम्‌ चोस्थेत चोरयेम

आशीलिंड, चोर्यास्ताम चोर्यासुः

चोरिष्यठ्धि चोरविष्यथः चोरविष्यय, म० चोया, . चोरयास्वम्‌ चोर्यास्त

चोरपिष्यामि चोरपिष्यावः चोरविष्याम: उ० चोर्यासम चोर्यात्व चोयस्मि लड़, लियू अचोरयत्‌ अचोरयताम्‌ श्रचोरयन्‌ अचोरया अचोस्पतम्‌ श्रचोर्यव अचोरयत््‌ अ्चोरवाव श्रचोरयाम

लोड

ग्र० चोरयाद्वकार चोरयाअक्त॒/्चोरयाअक्‌ म्र० चोरबाश्वकर्भ चोरवाश्नष्ठः चोरयाशक्र उ७» चोरयाश्वकार चोरयाश्चक॒ब चोरयाश्द्रम

लुद्‌

चोरवव

चोरयताम्र्‌ चोरवन्चु

चशोसय

प्र०

चोरवतम्‌

मे» चोरविवासि चोरबितास्थः चोरयितास्थ

चोरपाणि चोरयाव

चोरयव चोर्याम_

उ०

चोरबिता

चोरबित्रो चोरबितारः

चोरबिगस्मि चोरविताख चोरप्ितास्म

इश८

बहदू-अनुवाद-चन्द्रिकां

छुल् अचूच॑प्त्‌ अचूजुस्ताम्‌ अधचूचुस्त्‌ अचूधुरः श्रचूचुरतम्‌ भ्रचूचुरत अचूचुरम्‌ श्रचूचुराब अ्रचूचुराम

ल््द्ू प्र० श्रचोरविभ्यतञ्नचोरयिष्यतामअचोरविष्यनू म० अचोरबिष्यः्म्रवोरयिष्यतमश्रचोरमिष्यत ऊ० श्रचोरिष्यमथ्चोरविष्यावश्रचीरपिष्याम

(१६२ ) चुर(चुराना ) आत्मनेपद्‌ लद्‌ चोरपते शोरयसे चोरये

चोरयेते. घोरयेये. चोरयावहे

आशीर्लिड_ चोरपत्ते. चोस्पष्चे... चोरयामहे

ग्र० चोरयिषीष्ट चोरगिषीयात्ताम चोरयिपीरन म* प्वोरयिपीश्षा/्बोरयिषरीयास्थाम लोरयिपीध्दवे उ० चोरयिषीय चौरमिप्रीवहि चौरपिपीमहि

लूद्‌

लिदू

चोरमिष्यते 'दोरयिप्येते चोरयिष्यन्ते प्र० चोर्वाश्क्ते वोरयायक्ताते चोसयाश्यक्तिरे शोरयिष्यसे चोरपिष्येथे चोरयिष्यध्वे म० चोरपाशऊुपे चोरयाशक्राये चोरयाश्वक्ददे चोरगिष्ये चोरगिष्यायड्टे चोरपिष्यामहे उ० चोरयाश्चक चोरवाशकृवहे चोरपायक्रमई लक,

छुद

अचोरयत अचोसयेताम्‌ श्रचोस्यन्त॒ म०

चोरगरिता चोरयितारों *चौरबितारः

अ्रचोरपयाध्थ्चोरवेथाम्‌ श्रचोरदष्वम्ू भ०

चोरशितासे चोरबितासये चोरयिताध्वे

अ्रचोरये अचोस्यावहि श्रचोस्यामद्दि उ० लोद्‌

चोरबिताद चोरपितासवदे चोरमिताध्मदे छघुद

खोरयताम्‌ चीरयेतामू

अचूचुरत श्रचूचरेताम्‌ श्रचूचुरन्त

चोरयस्व

चोस्पे

चीरवन्ताम_

चोरयेयाम्‌ चोर्गप्यपू

चोसपापदे चोरपामहै

प्र०

म० अचूबुरथाः अचूचुरेयाप अचूचुरध्यम्‌

उ० अचूचुरे अ्चूधुग्दि अ्रचुचु॒रामदि

पिधिलिड_ लूढ_ घोरपेत चोरवेयाताम चोरयेरन्‌ प्र०थ्रचोरयिष्यत श्रचोरविष्येताम श्रचोरयिष्यन्त भोरयेधाः चोरयेयाथार चोसयेष्वम्‌मण्श्रचोरविष्यथा/श्रचोरपिष्येयाम्‌ श्रयोरसिष्यध्व मू चोरयेय चोस्येवह चोरमरेमहि उ०श्रचोरविष्ये थ्रचोरयिष्यावद्दि श्रचीरविष्यामम्रि

छउम्रयपदी (१६३ ) चिन्तू (सोचना ) परस्मैपद्‌ सद्‌

लुद

िन्तयति चिल्तयतः

निम्तयन्ति

अ०» चिन्तपिष्यति चिन्तपिष्यत्तः चिम्तपिष्यन्ति

विल्तपति विन्वयथा

चिन्तयथ.

भे० लिन्तयिष्यसि चिस्तगरिष्यथः चिन्तयिध्यथ

चिन्तयामि विम्तवावः चिन्तवामः .उ० चिन्तविष्यामिचिन्तपिध्यावःचिन्तयिष्यामः

कियाअकरण (चुरादि )

रैरेदे

ले लियट लड़ अखिन्तयत्‌ श्रचिन्तवताम्‌ अ्रचिस्तयन्‌ प्रण्यिन्तयाग्कारचिन्तयाअक्रतु-चिन्तयायबुः आअतिन्तयः अरविन्तवतम्‌ श्रचिन्तयत झचिन्तयम्‌ अचिन्तवाव अचिन्तयाम लोद्‌

चिन्तयत

चिन्तयताम्‌ चिन्तयन्त.

म०वचिन्तयागऊर्थ चिन्तयाश्क्रशु चिन्तयाशक उ०चिन्तयाश्वकारचिन्तवाश्वकृव चिन्तवाअक्म छुदू

स० चिन्तयिता

चिन्तवितारी चित्तवितारः

चिन्तयतम्‌ चिन्तमत . म० चिन्तयितास्ति विन्तयितास्थः विन्तमितास्थ विल्तय 3० चिन्तयितास्मिचिन्तयितास्व/विन्तयितास्म चिम्तयानि चिस्तयाव चिन्तयाम छुड_ विधिलिड प्र० अचखिचिन्तत्थ्विचिन्तताम्‌ अ्चिचिन्तन . चिल्तयेत्‌ चिम्तयेठाम्‌ चिन्तयेयु: म० श्रविचिन्त-अ्रचिचिन्ततम्‌ अचिचिन्तद चिन्तये:; चिम्तयेतम्‌ चिन्तयेत..

लिम्तयेपम्‌ चित्दयेव. चिन्तयेम. आशीलिंद[ चिन्यात्‌ चिल््यास्‍्ताम्‌ चिन्त्यासुः सित्याः.

उ० श्रचिचिन्तमझचिचिन्ताव अधिचिन्ताम लुड_ प्र०भ्रचिन्तयिष्यतुझचिन्तमिष्यवामअचिन्तविष्यत्‌

सिन्‍्त्याश्तम्‌ चिल्याउ्त मण्थ्रचिन्तयिष्यः श्रचित्तयिष्यतम्‌ ग्चित्तयिष्यतत

चिस््यासम्‌ विन्त्याश्य चिन्तास्म उश्भ्रचिस्तविष्यम्रश्नचिन्तयिष्याव अ्चिस्तमरिष्वास

बिन्त्‌(सोचना ) आत्मनेपद्‌ लद्‌ चिन्तयते

चिम्तयेते

विधिलिड, चिन्तयन्ते.

विन्तयसे चिन्तयेथे चिस्तयप्वे.. चिन्दये. वचिन्तयावदे चिन्तयामदे ल्ष्दू

प्र०.

चिन्तयेत

चिन्तयेयाताम चिन्तयेरन्‌

म० उ०

चिन्तयेथाः चिन्तयेयायाम्‌ चिस्तयेध्वम चिन्तयेय चिन्तयेवद्धि). चिन्तयेमहि. आशीर्लिड_

चिन्तयिष्यतेचिन्तयिष्येतेचिन्तयिष्यन्ते प्र०चिन्तयिषीष्टचिन्तयिपीयास्ताम चिन्तयिपीरत्‌ विस्तविध्यसेचिन्तयिध्येयेचिन्तयिष्यध्ये म०चिस्तथ्रिपीछाःवचिन्तयिषीयास्यामूधिन्तयिपो

चिन्तपिष्येचिन्तयिष्यावदे चिन्तमिष्यामद्ेउ *विन्तविधीय विन्तयिष्रीवहि चिस्तविधीसहि लड. लिय्‌ अचिन्तयत अ्रचिन्तयेतामग्रचिन्तयन्त प्र०्चिन्तयाश्क्ेचिन्तयाश्काते विन्तयाश्करिरे अचिन्तयथा-श्रचिन्तयेयाम्‌अचित्तयप्वमूम ०चिन्तयाश्वक्षपे चिन्तया श्चकायेचिन्तयाश्वक्ृभ्ये

अचिन्तयेशचिन्तयावहिअ्चिन्तयामदि उ«चित्तयाश्वक्ली लोट्‌

«

हहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

३४०

छुड. लू अचिचिन्ततश्न चिचिन्तेतामग्रचिचिन्तन्त प्र०श्रचिन्तविष्यतश्रचिन्तविष्येताम्‌ अचिंन्तयिष्यन्त अखिचितेथाःक्रचिचितेयामअचिजिंतष्वमूम ०अचितमिष्यथा/अलितयिप्येथाम्‌अचित यिष्यप्वम्‌

अचिचिंतेश्रचिसितावहिआ्नचिचितामदि उन्श्रचिंतयिष्ये अखितयिष्यावद्दि भ्रज्रितविष्यामहि

हि

उमयपदी



(१६३ ) भक्त(खाना ) परस्मेपद लदू थ्ाशीर्लिंए भत्यति

भक्षयतः

भक्षयति भक्षयथः भक्षयामि अक्षयायः

भक्षयन्ति

प्र०

भक्षयय भक्षयामः

मे० भक््याः भक्त्यास्तम भष्यास्त उ० अक्ष्यास्म्‌ भक्त्यात्व भदुयार्म लिटू

लू

भक्तयात्‌

भच्यास्तामु भक््याहः

भक्तयिष्यति मक्तयिष्यतः भक्तपिष्यन्ति

प्र

भक्ष॒विष्यसि भक्तुविष्यथ; भक्षविष्यथ

स०

भक्षयाघ्कर्थ भक्षयाधकशुः भक्तयाश्नक्र

भक्षमिष्यामि भक्ञ॒विष्यावः मक्ञगिष्यामः लड्‌ अमछयत्‌ श्रभक्षयताम्‌ श्रभक्षयन्‌ श्रभक्षयः अ्रभक्षयतम्‌ श्रभक्षयत अमच्तयम्‌ अ्मज्षयाव श्रमत्ुयाम लोदू भक्षयद भछयताम्‌ भक्तयन्तु भक्षय भक्षयतम भक्षयत भच्तवाणि भतयाव भक्षयाम

छ०

मत्॒याश्वकार मक्षुयाश्च॑कुव भक्तष॒पाअ्ृकुम

प्रण

भक्षयिता

म०

भतज्तयितासि भ्तविताष्ष्पः भक्षवितास्यः

ड्०

मत्तयितारिम भक्तयेठास्व: मक्षपितास्म

भक्षयेत भक्तयेः

विधिलिंद[ भंक्षयेताम भक्षयेयुः मक्षेयेतम मक्तयेत

भक्षयेयम्‌ सक्येव...

भक्येम...

मक्त॒याश्षकार भक्षयानकतुः मभक्तयाश्वकु

घुद्‌

भक्त॑यितारी भक्तयितारः चुड

प्र० श्रबभक्षत्‌ श्रवमज्ताम श्रवमक्षन्‌ म० श्रवमक्तः श्रवमचतम्‌ श्रबभक्षत उ० अ्वमक्म्‌ श्रवमक्षात्र श्रवमत्ञाम लय प्र० अ्रमतषयिष्यतूश्नमक्तयिष्यतामअमज्ञयिष्यन्‌ म० अमत्तयिष्यः थ्रमतयिष्यतम्‌ श्रमत्तयिप्यत

3» अ्रमछपिष्यमत्रमरयिष्याव श्रमक्यिध्याम

भक्त(खाना ) आत्मनेपद भछपते

लू भरयेते.

भछयन्ते.

उ०

भत्तविष्यते मछपिष्येते महयिष्यस्ते

हु

महयेथे.

मत्यघ्वे..

प्र०

महयिष्यसे भक्तयिष्येथे मत्तविष्यप्वे

ल्‌ड्‌

भर

अज््यावदे

मछयामदे

मं॑० मजलगिष्ये मत्न्रिध्यारों महयिष्यामदे

४१

क्रिपा-प्रकर्ण ( छुरादि )

लियद्‌ प्र* मक्याश्नके भक्षयाशकाते भक्तयाशवक्तिरे भछ्याश्नक्रपेमदयाअकायेमक॒याशकदवे अमदयथा: अ्रमक्षयेयाम्‌ अमकझ्षयध्यम स० अभक्षये. श्रमक््यावद्दि अभक्षयामहि उ० भह्याशक्रेमदयाश्क्ृपहेमच्याश्कृमदे लुद लोद्‌ अचछ्यताम्‌ भच्तवेताम्‌ू मक्त॒यन्ताम्‌ प्र० मछविता मरबितारी भक्षत्रिततारः भक्षयस्थ भक्तयेधाम्‌ मद्धयध्वम्‌ म० भक्तयितासे भक्तवितासाये भक्षगिताध्वे भक्तये.. भद्यावहे भक्षयामहै उ० महयितादे भक्तयितास्‍वदे भक्षगितास्महे विधिलिड[ चुद

लड अमक्षयत अमभक्षयेताम्‌ अमत्यन्त

मक्षेयेय

भदयेवाताम्‌ भच्येर्च्‌.

प्र०

अयिक्‍िरत

अवभन्षताम्‌

अवभनह्षन्त

मक्षेयेथाः भक्षयेयाभाम्‌ मरेयेप्पम्‌. म० अबमक्षथा, अ्रबमक्षेथाम्‌ अबमक्षष्पम्‌ मछयेय भर्वेवदि भर्येम्ि. 3० अवभक्ते श्रवभक्षावहि श्रवभन्नामहि आशलिंद ल्यूड्‌ मछ्तृयिषीष्ट भक्तयिपीयाध्दाम मछयिषीरत्‌ प्र्अमक्षमिष्यत श्रमक्षविष्येताम अमज्यिष्यन्त म ास्याममत्ञविपीष्वम्‌ “्अ्रमक्षमिष्ययाश्य मज्ञमिष्येयाम्‌ग्रभक्ृविष्यणम्‌ मछ्षयिषीष्ाभक्तगिषीय भद्चगिपीय भक्तयिषीवददि मक्तयिपीमहि उ०श्रभक्षृथिष्येअमक्ततिष्यावहिअ्रमक्षृयिष्पामदि

उभयपदी (१६४ ) कथ्‌(कहना ) परस्मेपदी ५... लद

क्थयति कथयतः . कथयन्ति.. क्रथयति कथयथः कथबथ कथयामि कययावः कयथग्याम्ाः.

लृद्‌्‌

विधिलिड_ प्रे० कुथयेत्‌ू. कथयेताम्‌ कथयेयुः म० क्थयेः .कथयेतमू कपयेत कृथयेम उछ॒० कम्येपम्‌ फपपेव.

आशीर्लिंड_

कृथयिष्पति कथयिष्यतः कथपिष्यन्ति प्र० कंध्यात्‌ कथ्यास्ताम कथ्यासुः क्थ्यासत्तम्‌ कबष्यात्त क्रययिष्यसि कथयिष्यथः कथव्िप्येय. म० कथ्पाः कध्यास्म कथपिष्यामि कथयिष्याव: कथमरिष्याम: उ० कश्यासम्‌ कबथ्योस्व लद लिद्‌

अकगयत्‌ अकथयताम्‌ अकथयन्‌.

प्र० कथयाशकारकपयाशकत॒ः कथयाशरू्‌:

अकपयाः

अकथयत्तम्‌

श्रहु॒ुथयत

म०

कथपयाश्वचकथ कथयद्चाकणशु) कययाश्वक

कथयानि

कृपयाव

कृययाम.

उ०

कथवितास्मि कथबितालः कर्थायतारमः

ल्‍अकथयम्‌ अकथयाव अकथयाम उ० कथयाश्चकार कपयाश्कृष कथयाश्कृम लोड > चुद छथयतु कथयताम्‌ कथयन्तु अर कथविता फथयितारी फ्थाप्रतारः कृथय कथयतम्‌ कथयत से कथयितासि कथयितास्थः कथरथितास्थ

डर

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

छुड झचकथत्‌ अचकंथताम्‌ अ्रचकथन्‌ अंचकथा

अचक्रपतम्‌ अचकथत

श्रचक्रथम अचकंधाव

अचकथाम

लड़ प्र० अकृथयिष्यतृश्रकथविष्यतामगकथनिष्यन्‌ म०

अकथयिष्यःग्रकथयिष्यतम्‌ ग्रकथयिष्यद

उ० अ्रकृथयिष्यम्श्रकथिष्याव श्रकथविष्याम

कथू(कहना )आत्मनेपद्‌ लद्‌ कथयते. कथयसे. ऋषये..

आशीर्लिंड्‌

कपयन्ते कंथयेते. कंग्येये.. कथयघ्वे कययाबद्दे कथयामदे लद्‌

'कयविष्यते कथमिष्येते कथयिष्यन्ते क्षमिप्यसे कथविष्येये कथविष्यश्वे

प्र० कथयिषीष्ट कथयिषीयास्ताम्‌ कथविपीरन म० कथविषीष्ठाःकथविषीयास्थामकथविपी घ्यम्‌ 3० कथविषीय कथ्विषीवह्दि कथमिपरीमहि लिय्‌

ग्र० कथयाश्क्र कथयाश्कातेकथयाशक्रिरे म० कथयाश्नकृप्ेकययाश्क्राये कथयाश्वकदवे

कृषपिष्ये कथयिष्यावद्दे कथविष्यामदे उ०

कथयाश्वक्र कथयाग्रकवदे कथयाश्वकृमहे

लद

छुद्‌

खकषयत अ्क्येताम्‌ अ्रकथयन्त आकरथयथा। भ्रकययेयाम्‌ श्रक्रययध्वमू अकषये अर यह

प्र० कथयिता कथयितारौ कयवितारः म० फ्थयितासे कथयरितासाथे कथमिताष्वे 3० कथवितादे कयवितास्परदे कथवितास्मदे

कषयवाम्‌, फधयेताम कथयन्ताम्‌.

प्र० अ्रचक्थत श्रचकयेताम श्रचकपन्त

कप...

3०

कऋषयस्व

कंय्येयाम कथयध्वम

कथयावददे विधिलिड कऋथयेत. कंथयेयाताम्‌ क्षय्रेयाः कथयेयायाम्‌ क्थयेप. कंषयेवदिं

फ्रथयामदे.

लुट्ट्‌

म० श्रवकथथा/श्रचकयेषाम्‌ अ्चउुयष्वम्‌

श्रचकये श्रचकथावहि अचफथामदि लद्टू ययिष्येताम्‌ अकथपिष्यन्त कथयेरन्‌. प्रंशश्रकथपिष्यतश्रक फथमेध्वम भश्थ्रकथविष्यथा:द्रकथिष्येयामअ्रक थयिष्यघ्वम्‌ कथयेमदि उ०्थश्रकथयिष्ये श्रकथथिष्यावहिश्रकथिष्यामदि

उमयपदी ( १६५ ) गण ( गिनना ) ( गण! घादु भी अकारान्त है औ्रौर इसके रूप 'किय! के समान ही चलते हैं,

इसलिए नीचे इस धात॒ुके केवल अर० पु० एक वचन के रूप दिये जाते हैं) लघ--गणयति (प० ), गणयते (श्रा०)। लूद-गणगरिप्यति (१० ), गणयिष्यते ( श्रा० )। लद--अ्रगणयत्‌ (प० ), श्रगणयंत ( आर० )। लोट-गशणवठ ( १० ), गणयताम्‌ (आ०)। विधिलिड--गणयेन्‌ (५०), गशयेत

(थ्रा० )। आशोर्टिडगणयात्‌ (५० ), गणविषीश/ ( आ० )। लिट--गणयाश्व-

क्रिया-प्रकरण (कर्मवाच्य-माववान्य)

श्ड३े

कार,--म्बमूव,--मास (प० ) शणयाश्क्र ,-म्बमूवे,--मास ( आ० )। लुख-

जणदितासि (१०--म« पु०), गणयितासे (श्रा०--म० पु०)। लुइ-अजीगणत्‌ अथवा अ्रजगणत्‌ ( ५० ) ग्रजीगणत अथवा अजगणत ( श्रा० पिव्यत्‌ ( प० ), अगणयिष्यद (आ० )

)। लूद--अगण-

कर्मवाच्य एवं भाववाच्य उस्टटत में वाच्य तीन हैं-करतृवाच्य, कमंवाच्य और माववाच्य | सकमंक घाहझों के रूप दोबाच्यों मे होते हैं--कतवाच्य में तथा कमेवाच्य में और झकर्मक घातुओं के रूप भी दो वाच्यों में होते हैं--कतृवाच्य में ओर भाववाच्य में | १, करृवाच्य में कर्चा मुख्य होता है और क्रिया कर्ता के अनुसार चलती है,

कर्चा मे प्रथमा और कम मैं द्वितीया होती है, जैसा कि पीछे बतलाया जा चुका है | २(क ) कसवाच्य मे कम मुख्य होता है और कम के अनुसारही क्रिया का पुरुष, वचन ऋर लिग होता है। कमवाच्य मे कर्ता में ठृतीया, कर्म में प्रथमा और

किया कर्म के अनुसार होती है। (एप) माववाच्य में कर्चा में ठृठीया (कर्म नहीं होता )और क्रिया में प्रथम पृरुष का एक बचने ही होता है )

क्मवाच्य एवं भाववाच्य के रूप बनाते समय निम्नलिखित नियमों पर ध्यान देना चाहिए-३--करमबच्य और माववास्य में सावंधातुर लझारों (लट, लोट, लछ और

विधिलिड_में ) (घात और प्रत्मय के बीच में )'? लगा दिया जाता है (साबेधातुके यक्‌ )और घातु का रूप रुदा आत्मनेपद ही में चलता है। लूट में या नहीं लगाया जाता ! लट्मे घाठ में 'वः लगाकर उसके रूप 'जायते! की भाँति

चलेंगे। लूद्‌में'त्वते' या इध्यते' लगेगा।

२--घाह॒ में यह (य ) के पूर्वकोई परिवतन नहीं होता, यथा--मभिदु+य+ ते मियते कर्मबाच्य में सावंधातुक लकारों (लद्‌,लोट्‌ श्रादि ) मैं घातुओं के स्थान में धात्वादेश (जैसे यम्‌ का गच्छ ) नहीं होता तथा गुण और इद्धि नहीं होती (

३--दा, दे, दो, था, थे, मा, पा, हवा, ये,सो घातुओं का अन्विम स्वर ई में बदल जाता है, यया--दीयते, घोयते, मोयते, पीयते, होवते, ग्रीयते, सीयते और अन्य धातुओं में नहों ददलता है, यया-मूयते, मायते, स्नायते, ध्यायते | अमेक

धातुओं के बीच का अतुस्वार कमंवाच्य में निकाल दिया जावा है, यया-वन्प्‌+बध्यते, इन्घू-इघ्यते, शस--शस्वते।

श्ड४ड

बूहदू-अ्रनुवाद-चन्द्रिका

-स्वयस्त धाठुओं केतथा ग्रह ,इश्‌ ,इन्‌ धातुओ्नों के दोनों भविष्य (छुट लूद ) क्रियातिपत्ति ( लृढ ) तथा श्राशीरलिंद में घाद के स्वर का वृद्धि करके तथा

प्रत्ययों के पूथ इ जोड़कर वैकल्पिक रूप बनते हैं, यया-दा से दाता--दाविता,

दास्पते-दाभिष्यते । अदास्यत--अदायिष्यत | दासीए--दायिपीश !

प्र--अन्‍्य छुः लकारों मैं कमंवाच्य एवं माववाच्य में कर्तृंवाच्य के हो समान स्प होते हैं, वा परोच् भूत में-जशे, बमूवे, निन्‍ये, श्रथवा श्र था क पातु फे रूप जोड़कर कययामासे, ईत्ायक आदि।

मुख्य धातुओं के कर्मवाच्य एवं भाववाच्य के रूप-पठ्‌(पढ़ना ) कर्मवाच्य लट्‌ लव लड

एकबचन पत्यते पठिप्वते अझ्रपख्यत

द्विवचन पठ्येते पढिए्येते अपव्येताम्‌

बहुवंचन पठ्यन्ते पठिष्पन्ते अपखब्त पट्वेरन्‌ पठिपीरन्‌

लोट

पठ्यताम्‌

पद्ेताम्‌

विधिलिझ. शाशीलिंड

पद्येत पढिपीश

पव्वेयाताम्‌ पडिपीयास्ताम्‌

लिदू छुद

| पढिवां

पेठाते

पठ्यन्ताम्‌

पेठिरे

पठितारौ

पठितार:

पठितासे

पठिताणायें

पठिताध्वे

छुद्‌

पठितादे अ्रपादि

प्रठिवास्वहे अपाठिपाताम्‌

पढितार्मद्दै श्रपाठिपत

ल्र्द्‌

श्रपटिध्यत

श्रपठिष्येताम्‌

अपटिष्यन्त

मुच्‌ (छोड़ना ) लटद

मुच्यते

मुच्येते

मुच्यम्ते

लूद्‌ू

मोच्चते

मोस्येते

मोद्धयन्ते

लद् लोद्‌

झमुच्यत मुच्यताम्‌

अमुच्येवाम्‌ मुच्चेताम्‌

श्रमुच्यत्त मच्यन्ताम्‌

विधिलि/ आशीर्लिझ

मुच्येत मुन्नी८

मुच्येयाताम्र्‌ मुक्नीयास्ताम

मुच्येरन्‌ मुन्नी रन्‌

लिद्‌

मुम्नचे

म॒मुचाते

मुमुचिरे

मुमुचिये

मुमुचाये

मुठुचिघ्वे

छुद्‌

मुमुचे मोक्ता

मुमुविवदे मोक्तारी

मुमुचिमददे मोक्तारः

श्रे छुड

लूद

इधर

क्रिया-प्रकरण ( कमवाच्य-भावबाच्य ) | अमोचि

अमुत्ताताम्‌

अमुक्तत

अमुक्थाः अमुचि

अमुच्तायाम्‌ अमुच्चहि

अमुरब्वम्‌ अमुच्मद्दि

अमोइयत

अमोक्ष्येटम्‌

अमोच्पन्त

पा ( पीना ) कमेवाच्य लट

पीयदे | पोयसे

पीयेते पीयेचे

पोयन्ते प्रीयब्वे

पीयावहे पास्‍्येते

पोयामदे पास्यन्ते

लय

पास्वते

लद

अपीयवत । अपोयया: अपीये । पीपताम्‌

अपीयेताम्‌ अपीवेथाम्‌ अपीयावहि पबिताम्‌

अपीयन्त अपीयध्यम्‌ अर्प.यामहि पीयन्ताम्‌

पीयत्व पीये

पीयेयाम्‌ पीयावहै

पीयध्वम््‌ पीयामहे

पीयेत | पीयेथा:

पोयेयाताम्‌ पोयेयाथाम्‌

पोयेरन्‌ पीयेध्वम्‌

पीयेप पासीषठ प्पे [ प्पि पपे पाग

पीयेवहि पाठीयास्ताम्‌ पपाते पपाये पपिवहे पातारी

पीयेमह्ि पासीरन्‌ पपिरे पपिष्वे पपिमदे पातारः

छुडा

अपावि । अपायिध्ाः अपायिपि

अपायिपाताम्‌ अपायिषायाम्‌ अपायिष्वह्ि

अपायिपत अपाविध्वम्‌ अपायिष्मदि

ल्‌ढ

अपास्यत । अपास्ययाः अपास्ये

अपास्वेताम्‌ अपास्वेयाम्‌ अगरस्थावहि

अपास्यन्त अपास्थष्वम्‌ अपात्यामहि

लय

दीबते | दीवसे दीये

लोद्‌

विधिलिद

झ्राशीलिंड_ लिदू छुदू

दा ( देना ) कर्मवाच्य दीयेते दीयेये दीयावहे

दीयन्ते दीयघ्पे दीयामहे

बहदू-अनुवाद-चम्द्रिका

रैड६

लू

| दास्पते दास्यसे

दास्ये दायिष्यते ! दायिष्यसे दायिष्ये

लड_

खदीयत । खदीययाः अदीये

लोद

विधिलिंड_ झ्राशीलिंड_

ला ल्‌र

रवि

द्माः लि

छुट

अदीयेयाम्‌

श्रदीयन्त अंदीयध्वम्‌

दौयेययम्‌

दीयध्वम्‌

दीवै (दियेत < दीयेथाः

दीवावहे

दीयामहै

दीयेयाताम्‌ दौीयेयाथाम्‌ दीयेवहि दासीयास्ताम्‌ दासीवास्थाम्‌

दीगेरन्‌ दीयेध्वम्‌

दासीह दासीप्ाः

दाषियीय

लड़

दायिष्यम्ते दायिध्यष्बे दायिष्यामदे

| दीयस्व

(दायिपी8 ॥| दायिषीष्ाः लिय

अआथबा दायिष्येते दावयिष्येये दायिष्यावहे श्रदीयेताम्‌

झदीयामहि दीयस्ताम्‌

'दासीय ब्थ्ध्य

दास्वन्ते दास्वप्वे दास्यामद्दै

दीयेताम्‌

दीयताम्‌

(द्वीवेय

कक सम “नन्‍्क+ ताकक बड़

दास्वेते दास्येये दास्यावद्दे

(दिदे ददिपे द्दे दाता दातासे दाताई

अदीयाबहि

दासीवहि

अथवा दाविषीयास्ताम्‌ दायिपीयास्थाम्‌

द्ायिपीवहि ददाते ददाये

दुद्विददे

दावारी दातासाथे दातात्वदे श्रयवा

|दायिता

दायितासे

[दायिताद

दावितारौ दायिवासाये दायिताखदे

दीयेमहि

दासीरम्‌

दासीध्वम्‌ दासीमदि दायिपीरन्‌, दायिपरीसध्यम्‌

दायिपरीमदि ददिरे ददिध्वे दद्िमद्दे दातारः दावाष्वे दातास्मददे « दायितारः

दायिताघ्वे दायितास्मदे

क्रिया-प्रकरण (कमवाच्य-माववाब्य ) खुद

हि

अदायि

अदायिषाताम्‌

अदिपाताम्‌ अझदिपत अदायिपायथाम्‌ !अदायिध्यम्‌

अदायिष्ठाः अदियाः

अदिपायाम्‌

अदायिपि अदिषि

ल्‌द्‌

ड्रड७

[अदायिपत

अदिध्वम्‌

अदायिष्वद्धि अद्िष्वहि

अदायिष्मदि अदिष्महि

अदास्यत

अदास्यपेस्ताम्‌

अदास्वन्त

|अदास्यपा: अदास्ये

अदास्पेयाम्‌ अदास्यावहि

अदास्पध्वम्‌ अ्रदास्पार्माहि

अपवा

अदायिष्यत (विदा

अदायिष्येताम्‌ अदायिष्ये थाम्‌

अदायिष्यन्त अदायिष्यध्वम्‌

अदायिध्ये

अदायविष्यावहि

अदापिष्यामहि

स्था ( ठहरना ) भाववाच्य-अकर्मक लद्‌ लूट सड्‌ जोद्‌ बविधिलिड. आरशीोलिड्‌._ जिद

खुद खुड लुद्‌

स्थीयते स्थास्वते ऋस्थीयत स्थीयताम्‌ स्थीयेत

«

स्थीयेते स्थास्थेते अख्थीयेताम्‌ स्थीयेवाम्‌ स्थीयेयाताम्‌

स्थीयम्ते स्थास्यन्ते अस्योयन्त स्थोयन्ताम्‌ स्थीयेरन्‌

स्थासीष् तस्थे

स्थाठीयास्ताम्‌ तस्थाते

स्थासीरन्‌ तस्यिरे

॥] तस्थिपे सस्ये स्थावा अस्थायि

वस्थाये तस्थिवहे स्थातारी अस्थाविपाताम्‌

तस्थिध्वे तत्पिमहे स्थावारः अस्थायिषत

सलाद अस्थायिपि

अस्थाउिपायाम, अस्थाविष्वदि

अस्पायिध्वम्‌ अस्थायिध्महि

अस्थास्येताम्‌

अच्थास्वन्त

अस्थास्यत

ध्यै ( ध्या / ध्यान करना लद्‌ नलुद्‌

ध्यायदे घ्यात्यते

ब्लड

च्यायेते ध्यास्पेते

अध्यायव

अध्यायेताम्‌

.

ध्यावन्ते घ्याल्वन्ते अध्यायन्द

बूहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

ध्यायेताम्‌

ध्यायस्ताम

ध्यायेत ध्यायीष्ट

थ्यायेयाताम्‌ ध्यासीयास्ताम्‌

ध्यायेरन्‌

ध्याता अध्यायि

ध्यातारी अध्यायिष्राताम्‌ |] अध्याणावाम्‌ अध्यास्येताम्‌

ध्यायताम

दच्याते

द्ध्ये

अ्रध्यास्यत

नी ( लेज्ञाना )कर्मवाच्य नीयते

नीयेते

(हियर

नोयेथे

नेष्यते नेष्यसे | नेष्ये नायिष्यते नायिष्यसे ई नायिष्ये श्नीयत अनीयया ॒] अनीये

लोट_

नीयताम्‌

मीयस्व ]

विधिलिद

नीयेंत नीयेथाः |] नीयेय

आशोरलिड_

नेषी£

नेपीशः नेपोय नायिपीट (ससीडा नापिषोय

नोयावरदे नेष्यते नेष्येये नेष्यावहे अथवा भायिष्येते माविष्येये नायिष्यावदे अनीयेताम्‌ झनीयेयाम्‌ अनीयावहि

नीयेताम्‌

भीये थाम्‌ नीयावहै नीयेयाताम्‌ नीयेयाथाम्‌ नीयेवद्ि नैपीयास्ताम्‌

नेषीयास्थाम्‌ नेपीव्द्ि अथवा नायिपीयास्ताम्‌ भायिपरीयास्थाम्‌ नायिषोबदि

ध्यादीरत्‌ दृध्यिरे ध्यातारः

|

अध्यायिपत

अध्यासत

अध्याध्यन्त

नीयन्ते नीयश्वे नीयामदे नेष्यन्ते

« नेष्यध्वे नेष्यामहे नायिष्यन्ते नामिष्यध्वे नायिष्यामहे श्रनीयन्त अ्नीयध्यम्‌ श्रनीयामदि मौयस्ताम्‌ नीयध्वम्‌

नोयामहै नौयेरन्‌ नीयेध्वम्‌ मौयेमहि नेपीरन,

नेपीध्वम्‌ नेपोमर्दि नाविषपीरन्‌ सावियोध्वम्‌

नायिपीमदि

क्सि-प्रकस्य ( कमंदाच्य-माववाच्य ) लिय

ज्ुद

खुद

निन्‍्याते निन्‍्पाये निन्यिवद्दे

मेतासे

नेवाराये

नेवाध्दे

नेवादे

जेतास्वद्े

नेतात्मदे

नाविता

अथवा नायिवारौ

नायिवारः

मावितासे

नायितासाये

नायिताघ्वे

नाविताहे

नायिवास्वहे

नावितास्मदे

अनायि

|] झनायितायान

अनाविघव

नेता

नेवारी

अनेपाताम्‌

अनायिणा:

|अनेष्ठाः

झनापिपि

ल्ड्‌

लदू

लद्‌

ब्ड६

निन्ये निन्पिपे निन्ये

|अनेपि अनेष्दत

अनादयिषायाम्‌

)अनेपायाम्‌

अनापिष्दडि

निन्यिरे निन्पिष्दे निन्यिमदे

नेवारः

अनेपत

अनापिष्वम्‌

|अमनेखम्‌

अनाएिष्महि

|अनेष्यादि अनेष्पेताम्‌

|अनेध्महि अनेष्यन्त

अनेष्ययाः

झनेष्येयाम्‌

अनेष्पप्वम्‌

अनेष्ये

अनेष्यावद्दि अपदा

अनेध्यामदि

अनाविष्यत

अनादिप्येताम्‌

झअऋनादिष्यस्त

अनायिष्ययाः

अनायिप्येयाम

ऋनायिध्वस्‌

अनारिष्ये

अनायिष्यावद्दि

अनाविष्यामदि

जोयते

!जेष्यते

जि ( जीना ) अफुमऊ माबवाच्य जीयेते जीयन्ते

डेष्येते

जापिष्यते

न्‍ जापयिष्यते

न लोड

अजोयत जोयवाभ्‌

अजोयेवाम्‌ सीपेतान्‌

विधिलिश

जीदेत

जीयेबावान्‌

आशीर्लिंद_ (पा

जाएदिपोटट

डेपीयास्तान्‌

जाविदरीयास्तान_

डेघ्यन्ते

न्‍ चापिष्य्ते

डेपीरन्‌ £

|जामिपरस्त्‌

बूहदू-अ्रनुवाद-्चन्द्रिका

३५०

लियू छुटू छुझ

जिग्ये जिग्यिपे ज़िग्ये जेता | जायिता अजापि

[ अजायिध्ाः अजेप्ठा: । अजायिपि ब्रजेपि

लड़ ै

झजेष्यत |अजायिष्यत

लद्‌

(चियते

लुदू

4 चौयपे [चीये |] चेप्पते

जिग्याते जिग्याये

जिग्यिवहे

जिग्यिरे जिग्यिष्वे जिग्यिमदे

!जेवारौ

|जेतार' जायिताए

।अज्ायिपाताम्‌ अजेपाताम्‌, |अजायिपाधाम्‌ अजैपायाम्‌ ॥ अजापिष्वहि अजेष्वदि अजेप्येताम्‌ श्रजायिष्येताम्‌

॒अजायिपत

जायितारौ

अजेपत |] श्रजायिध्वम्‌ अ्रजेघम

अजायिष्महि !झजेप्मदि अजेष्यन्त

श्रजायिष्यन्त

चि ( चुनना ) कमवाच्य

चायिष्यते चेप्यसे घायिष्यसे

। |चायिष्ये लड

विधिलिड

। अचीयत

चीयेते

चीयन्ते

चीयेये चीयावदे चेप्येते. चापयिष्येते चेष्येथे

चौयध्वे चीयामहे चेष्यन्ते

चायिष्येये

चेप्यावदे च्वायिष्यावदे श्रवीयेताम्‌

धायिष्यन्ते

चेष्यप्वे चाविष्यष्वे चेध्यामदे चायिष्यामदे

अचीययाः अचीये

अचीयेयाम्‌

अचीयन्त थ्रदीयध्यम,

अचीयावहि

अचौयामदि

चीयताम्‌ चीयर्व

चीयेताम्‌

घीयन्ताम्‌ चीयध्वम्‌

चीयै

चीपावहे

चीयेत

खीयेयाताम्‌ चीपैयायाम्‌ चीयवहि

चीयथाः ब्वीयेय

चौयेपाम्‌

+ चीयामदे

चोयेरन्‌ घीयेप्वम्‌ चोयेमाहि

क्रिया-प्रकरण ( कर्मवाच्य-माववाच्य ) आशीलिंड |चेपीए च्वाविषीष्ट

चेपीछठाः |चायिपीशः

छुथ्‌

छुड

चेषीयास्ताम्‌ चायिषीयास्ताम, चेपीयास्थाम्‌

333

चेपीरन, चायिषीरन्‌

चेपीष्वम्‌

चायिषीयास्थाम्‌

चायिपीष्वम्‌

न्‍ चेषीय चायिषीय चिक्ये

चेपीवहि

चेपीमहि

चायिषीवहि

चायिषीमदि

चिक्याते

चिक्यिरे

चिक्यिपे चिक्ये चेता

चिक्याये

।चायिता चेतासे

चायितासे चेताहे |चायिताहे अचायि अचायिष्ठाः

|अचेष्ठा अनायिषि

अचेपि अचेष्यत अचायिष्यत ईअचेप्ययाः अचायिष्यथा: न्‍ श्रचेष्ये

अचायिष्ये

चिक्यिवहे चेतारौ चायितारी चेतासाये चावितासाये

चिक्यिष्वे

चिक्यिमहे न्‍ चेतारः चायितार: चेताघ्वे

चेतास्व॒हे चायितास्वहे

|चायिताष्वे चेतास्महे |चायितास्मदे

॒ अचायिषाताम्‌

। श्रचायिषत

अचेपाताम्‌

अचायिपाथाम्‌

अचेषायाम्‌

| अचायिष्वहि

अचेष्वहि

अचेप्येताम्‌ अचायिष्येताम्‌ अचेष्येथाम्‌ अचायिष्येयाम्‌ अचेष्यात्रहि अचायिष्यावद्दि

अचेपत ।अचामिष्वम्‌ अचेध्यम्‌ |अन्ययिष्महि अचेष्महि

अचेष्यन्त अचायिष्यन्त अचेष्यध्वम्‌ अचायिष्यष्वम्‌

अ्रचेष्यामदि अचायिष्यामहि

ज्ञा ( ज्ञानना ) कमंवाच्य ज्ञायते जशञायसे

लय

ज्ञाये ज्ञास्यते

ज्ञायिष्यते ! शास्यसे ज्ञायिष्यसे

ज्ञायेत ज्ञायेये

ज्ञायन्दे शायध्वे

ज्ञायावहे

ज्ञायामहे

हम शायिष्येते ज्ञास्वेये ज्ञायिष्येये

ज्ञास्यन्ते

ज्ञायिष्यन्ते

ज्ञास्यघ्वे शायिष्यष्दे

क्र

लड़

लोदू

बहदू-अनुवाद-चन्द्रिका |ज्ञास्ये हक श्ञा्‌ ध्ज्ञायद अज्ायथाः अज्ञाये

ज्ञास्यावहे ज्ञायिष्यावहे अड्येताम्‌ अज्ञाययाम्‌ आज्ञायावहि

शास्यामदे ज्ञांगिष्यामद्दे अज्ञायन्त अज्ञायश्वम्‌ अज्ञायामहि

ज्ञायताम्‌

जायेताम्‌

शायस्वाम्‌

शायस्व

जायेथाम्‌

जञायध्वम्‌

शावै

ज्ञायावहै

ज्ञायामहै

शायत ज्ञायेथाः क्षायेय

जायबाताम्‌ ज्ञायेयायाम्‌ जायेवदि

शायेरच्‌ शापेध्वम्‌ जायेमदि

थाशीलिंट |भासीष्ट ज्ञायिपी्ट

ज्ञासीयास्ताम्‌ जञायिपीयास्ताम्‌

शासीरन्‌ शायिपीरन_

ज्ञासीप्लाः शायिपीणः

ज्ञासीयास्थाम्‌ ज्ञायिपीयास्थाम्‌

शासीष्वम्‌ शायिपरी प्वम्‌

शासीय शायिधीय

ज्ञासीवद्दिहु शाविषीवहि

शासीमदि शायिपीमद्ि

लिट

ज़्े जरिये जज

जशाते जजञाये लग्िवहे

जभिरे जजिष्वे जशिमहे

छुट्‌

शावा 'शायिता

भातारौ ज्ञायितारी

जशाताए शायितवारः

शातासे

ज्ञाताखाये

विधिलिड्‌

शापितासे शातादे लुद्‌

शाताघ्वे

जायितासाये शाताखद्दे

ज्ञायिताप्वे ज्ञातास्महे

शायितादे

शायितास्वद्दे

शायितार्मद्दे

श्रशावि

अशायिपाताम्‌

*.

अशायिफप्त

अशाखावाम्‌

अजाठ्त

। अ्रशायिष्ठः

खजाविपाथाम्‌

श्रज्मायिष्यम्‌

।अजशायिदि अशत्ति

अज्ाविष्वहि अजशास्दि

अश्यिष्महि अशास्मदि

अज्ञास्था:

अ्ज्ञखथाम्‌

अशाप्वम्‌

क्रिया-प्रकरण ( फर्मवाच्प-भाववाच्य ) लू

7

लद्‌ लूदू लड लोदू विधिलिश

झजशास्यत

|अशायिष्यत

अशास्पथाः आशायिष्यथाः

लुदू्‌ छुड,

लुद्द

झशास्यन्त

धशायिष्यन्त

अशपयिष्येताम्‌

अशास्येघाम आशाविष्येधाम्‌

आशास्यध्यम्‌ झशापिष्यध्यम्‌

झशास्पे !अजशायिष्ये

झशास्यावदि झशायिष्यावहि

झशास्पागहि झशायिष्यामदि

भीयते भमिष्पते आयिष्यते ध्यकीयत श्रीयताम्‌ भीयेत

श्रि (आश्रय लेना ) भीयेते अमिष्येते भाषिष्येते आभीयेताम्‌ भीयेताम भीयेयाताग्‌

भीयन्ते ।भयिष्यन्ते भाषिष्यन्ते अभीयन्त भीयन्ताग्‌ भीयेरण्‌

भपिषीयास्ताम्‌

अयधिपीरण

श्राशीर्लिंद[ |अगिषीह

लिदू

आअशास्थेताम्‌

श्र

भागिषीषट रिभिये शिक्षियिपे शिक्षिये ।भयिता भायिता

भायिषीयास्ताम्‌ शिक्षियाते िभियाये शिक्षियियये अयितारो भावितारी

अभायि

पभ्मायिषताम्‌

अभमिषाताम्‌

भापिपीरन्‌ शिक्षियिरे सिभ्ियिष्पे रिक्षियिगऐे भगिवार+ भागिवार: [चभायिषत

अभ्यिषत

। अभायिष्ठाः खझभयिद्वा: अभाषिषि अभगिषि

झआभायिषाधाम्‌ अझभगिषाथाग्‌ झश्चायिष्पहि अझभयिष्पदि

झभागिध्यम्‌ झभपिष्यम्‌ झभामिष्मदि झभयिष्गद्दि

4आभ्रायिष्यत झभयिष्यत

आअधाभिष्पेतान चभ्नविष्येताम्‌

अधापिष्पन्त अभमिष्पन्त

फू ( फरना )सरमक-फर्मवाच्य लू

मियते

मियेते

ब्रियन्ते

फियसे

नियेये

कियष्ये

न्र्यि

फ्रियायदे

कियागऐे

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

शेड

क्रिष्यते करिष्यसे

करिष्ये

करिष्येते करिष्येयें करिष्यावदें

करिष्यन्ते फरिष्यध्वे करिष्यामदे

अथवा

लोदू

कारिष्यते कारिष्यसे कारिष्ये क्रियताम्‌ क्रियस्व क्रियि क्रियेत

कारिष्येते कारिष्येथे कारिष्यावदे क्रियेताम्‌

कारिष्यन्ते कारिष्यध्वे कारिष्यामहे

क्रियेयाम्‌

क्रियन्ताम्‌ मियध्वम्‌

क्रियाबहे क्रियेयाताम्‌

क्रियेरन्‌

क्रियेयाः

क्रियेयायाम्‌

क्रियेध्वम्‌

क्रियेय

क्रियेवहि

क्रियेमरद्नि

आशौर्लिक्‌ |डा का ष्ट

क्पीयास्ताम्‌ कारिपीयास्ताम

कारिपीरन्‌

;क्ृषीणाः कारिषीडाः कृपीय |कारिपोय चक्के

कृपीयास्थाम्‌ कारिपीयास्थास्‌ कृषीबदि कारिपीबहि चक्राते

विधिलिद!

चहपे घक्रे ;॒ कतां करिता कतसि !कारितासे कर्तादे कारितादे श्रकारिं ।अकारिषठाः

चक्राये चकृवहे

क्तारौ

क्रियामहै

कृषीरन्‌

कृपीध्यम्‌

कारिपीषवप्त

क्पीमदि कारिपीमह्दि

चनढिरे चक्रिदवे

चक्रिमद्दे

कर्तारः

कारितारी

फारितारः

कर्ताठापे कारितासाये कर्तास्वदे कारिवास्थदे

कर्ताप्बे

अरकारियताम्‌

अकृषाताम्‌

अकारियायाम्‌

कारिताष्वे

क्र्तास्मदे कारितस्मद्दे श्रकारिषत

अकृषत

श्रकारिध्वम्‌

शभ्रद्न्याः

अकृपाथाम्‌

श्रकृध्वःमू्‌

4 अकारिपि अक्ृपि

श्रकारिषप्वहि

अकारिष्मदि

अफृष्यहि

अदमृष्मदि

क्रिया प्रकरण ( माउ-कर्मवाच्व ) ल्‌ड

अकरिष्यत

3

।अकारिष्यद ॒ अकरिष्यथाः अकारिष्यया+

2 न्‍ श्रका लय

प्रियते

लूद्‌

घरिष्यते

|घारिष्पते

लड्‌

अल्लियत

लोद्‌ विधिलिश

प्रियताम्‌ तियेत

आशीर्सिड्‌ |पी

अकरिष्येताम्‌ अकारिध्यतवास अकरिप्ये थाम अकारिष्येयाम्‌ अकरिष्यावदि

अकारिष्यावदि

घु (घारण करना ) प्रियेते

306. थे अकरिष्यन्त

अकारिप्यन्त अकरिष्यध्यम्‌मर अकारिष्यध्यम

अकरिप्यामदि

अकारिप्यामदि

प्रियन्ते घरिष्यन्ते घारिष्यन्ते

धरिष्पेते घारिष्येते अश्रिवेवाम्‌ प्रियेताम्‌

अख्निवन्त परियन्वाम्‌

ब्रियेयाताम्‌

प्रियेरन्‌

घृपरीयास्ताम्‌

पपीरन्‌

लिय्‌

द्प्रे

जुद

घर्ता |घरिता

घरिपीवास्तान दघाते घर्तारी घरितारी

लुढ

अधारि

!अधघारिपाताम्‌

अ्रधारिपत अधृपत

« अ्घरिष्येताम्‌

अधरिष्यन्त श्रघारिष्यन्त

घारिपीष्ट

लूदू

अधघरिष्पत्‌ । अचघारिष्यत्‌

लद्‌ लिय्‌

श्रियते बे

अधारिष्यंताम्‌

४ ( भस्ण करना ) प्रियेते बश्राते

बच्चे

बश्ार्थ बभुपहे

अमारि

अमारिपाताम्‌

बमूपरे लुढ

अधृषाताम्‌

अमृपाताम्‌

घरिपीरन्‌

दब्िरे घर्तारः घरिवारः

श्रियन्ते

बश्निरे बमृध्चे चमृमहे अमारिपत

अभृषत

इसी प्रकार--अस_-मूयते, जाए--जागर्य्यते, अह-ण्हाते, प्रच्छ-पच्छुघते, ग-

ब्रियते, स्मू--स्मयंते, इु--हियते, मस्जु--मण्य्यते । ( वच्‌ ) लट>-डच्यते

( बद्‌ ) लद--उद्यते

लड _--अ्रौच्चव लड_--औद्यव

३४६

बहदू-अमुवाद-चख्धिका

(व्‌ )लट्‌-उप्यते

लड़ --अ्रौप्यत

( बस )लट्‌-उप्पते लड--त्रौष्यत (वह ) लद--उद्यते लड --श्रौद्यत चुरादिगणीय धातुगझ्नों मेकवृवाच्य मे लद,लोट ,लड़ और विधिलिद, में प्रायः गुण या इृद्धि होतो है, वह कर्मवाच्य में भी होती है। छुसदिगणीय श्रय

लद॒ ,लोट ,लड_, प्िविलिदस तथा लुइ के प्रथम पुरुष के एक वचन में इटा दिया जाता है तथा ल्लिट मे बना रहता है और शेप लकारों में विकल्य से इया दिया जाता है, यथा--

लू

चोयते

लू

चोरिप्यने चोरयिष्यते

चुर(चुराना ) कमंवाच्य चोयेते चोरिप्येते चोरविप्येते

चोय॑न्ते चोरिष्यस्ते चोरपिष्पन्ते

लड़,

अचोय॑त

अन्नोयेताम्‌

अ्रचोय॑न्त

लोद्‌

चा्यताम्‌

चोर्येताम्‌

चोयनन्‍्ताम्‌

विधिलिड,

चो॑त

चार्येयाताम्‌

चोयेरन्‌

शोरिषीरन्‌

ध्राशीलिंए (चोरिषीषट

चोरिपीयास्ताम्‌

ज्ोरबिपीयास्ताम

चोरपिपीरन्‌

लिय्‌

चोसयामासे

चोरयामासाते

चोरयामासिरे

चोरयाश्नक्े चोरयाम्बमूवे

चोसयाशकाते चोर्याम्बमूवाते

चोस्याश्नक्रिरे घोस्याम्बमूबिरे

घो।रयिपी९

छुद्‌ लुड

चोरिवा

चोरयिता अचोरि

बोखिरः

चोरबितारः अचोरिषत

अचोरियाः

अचोरयिप्ताम. ख्रवोरिषाथाम्‌

अचोरयिपापाम

श्रचोरपिध्वम्‌

श्रचोरिषि

श्रथोरिष्वदि

0

|अयोरयिप्ाः ल्ूद्‌ ध्

चोरिवारो

चीरपितारो अचोरिषाताम्‌

श्रचोरयिषत अचोरिष्वम्‌

अचोरबिषि

अचोरमिष्वदि

अचोरविष्मदि

अनचोगिष्यत अचोर॑विष्यत

अनोरिष्येताम अचोरविष्यत्ाम.

अ्चोरिष्यन्त श्रचोरविष्वन्त

कर्मवाच्य पु सात्रवाच्य में क्रिया रखकर संस्कृत मेंअनुवाद फरोे-$--नने उठ्कों देसा--अममे बढ देखा गधा। २--रमेश क्यों नदी पदवा है ! रमेश से क्यों नही पढ़ा जाता है! ३--तम गुर को श्राजा क्यों नहीं मानते

कियास्रण ( खिजन्त >

श्र्७

४--क्या ठुम से यह पुस्तक नहीं पढी जाती १ ४--तिल्ली चूहे का पीछा करतो है | ६--सजन सबसे आदर पाते हैं। ७--काम फ़िस से क्या जाता है है ८-मुझ से नहीं ठहरा जाता। ६--ठ॒म क्यों रोते हो२ १९०--वह क्‍या जानता है १ ११--ऐसा सुना जाता हैं। १२--लोम से कोघ पैदा होवा है । १३--उनसे पुस्तकें क्यों नहीं पढ़ी जावीं ! १४--क््या शिज्षु सो गया * १५--खाघ्ठ अपने से बढों की सेवा करते हैं। १६--उस समा में किसके द्वारा भाषण क्रिया गया १ १७--उस

यीर द्वारा सैकड़ों सैनिक युद्ध में मारे गये । श८--माली द्वारा उस बाग में फूलों के पौधे लगाये गये ।१६--बरतम्तु द्वारा कौत्स को चौदह विद्याएं पढ़ायी गयीं | २०--बवैदियों द्वास उस नदी पर पुल बनाया गया |

प्रेरणा्यंक ( णिजन्त ) क्रियाएँ जब क्सिी धातु में प्रेरणा का अ्रथ लाना हो तब धाठ में णिच्‌ प्रत्यय जोड देंते हैं (करना से कराना, पढना से पठाना, पकाना से पकयाना आदि प्रेरणा के अर्थ हैं ),यथा--देवदत्त ओदन पचति ( देवदच चावल पकाता है। ) “यज्ञदत्तः पचन्तं देवदत्त प्रेर्यति- यजदत्त- देवदत्तेन ओदन पाचयति” ( यज्ञदत्त देवदत्त से

चावल पक्चाता है। ) णिच््‌ मे प्रेरणा अति आवश्यक है| यदि प्रेरणा का विपय न हो तो लोटू या लिश्‌ का प्रयोग होता है। इमें कभी-कभी अकर्मक घातुओों से सऊमंक बनाने के लिए णिजन्त का प्रयोग

करना पढ़ता है, यथा--प्रायती अहर्निश तपोभिग्लपवति गानम्‌ (परायती रात दिन तप द्वारा अपने शरीर को क्षीण कर रही ह। ) यहाँ पर “ग्लययतिः ग्रकमफ निया “ग्लायति! का णिजन्त प्रयोग है ।

प्रेरणार्थक घातुश्रों केसाथ मूल घातु के क्ता में तृवीया होती दे और कर्म में पूबबत्‌ द्वितीया ही रहती है, क्या कर्चा के अनुसार होती है, यया--( मूल ) सृत्य+ कार्य क्रोति। ( खिजन्त )देवदत्त: मृत्येन फाय कास्यति। प्रेरणायक धातु में शुद्ू घातु के अन्त में णिच्‌ (अय ) जोड दिया जाता है। धातु के श्रन्त में अय लगाकर परस्मैपद में “पठति” के समान रूप तथा आत्मनेपद “जायते” केसमान चलते हैं। णिजन्त धाठुओों के रूप चुरादिगणीय घानुओं के

समान होते हैं |घग्तु और तिद_प्रत्वयों के बीच में अब? जोड़ दिया जाता है | णिजन्त घातुएँ आयः उमयपदी होती है । चुरादिगणीय धातुओं के रूप प्रेरणा्यक में भी वैसे ही रहते हैंजैसे त्रिना प्रेरणा के )

डर्भ्८

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

साधारण एवं प्रेरणार्थक रूप--

(१)मू.

(२)आदू (३) (४) दिव्‌ (५)स (६)तुदू (७) -त

चारप्रेपीए

अचूचुस्त्‌

अचोरयिष्यत चोरव॑ति

रत

अचारविष्यत चारयति

अचूपात्‌

अचूपिप्यद्‌ चूपयति अचेण्प्यित चेश्यति

अचूर्शयत चूजबत्‌ चूर्पाट्‌ अवुचूणव्‌ अचूसथिष्यत चूगयति अच्यूएत्‌ चूपेनू. भगत

चश्त

चूप्वातु

प्िपीष्ट.

अच्छादपत्‌ छात्वेव्‌ छात्रात्‌

प्रच्छिनत्‌ छिन्यात

छुबात्‌ू छायात्‌

अजपत्‌ जयेत्‌. अजीवतू जीवेतू

जीवात जीव्यात

अजैपीत अजेप्दतू. जापयति अजीवीत्‌ अजीदिष्पत्‌ जीवयति अजोतत जोतेतव .जीतिपीश प्रजोतिए अजोतिष्यत जोतयते अजोपयत्‌जोपयेत खजम्मत जम्मेत..

जोध्यात अजृतुपत अजोपविष्यत्‌ जोषबति जम्मिपीए्ट अजम्मिष्ट अजूगिमिष्यत जुम्मयति

अजीयंत्‌ जीयेंत .जीर्वान्‌ू.

झुस्तते

चोयते घायते

श्रचिच्छदत अच्छादयिष्यत्‌ छादयति छातते

ग्रच्लैत्तीत्‌ अच्छेत्स्मत छेदयति अच्छुरोत अच्छुरिप्यत्‌ छारयति अच्छात्‌ अच्छान्यत छाबयति अजाप्त जायेत जनिपीए गजनि्ट अजनिष्यत जनय॑ति ज्यत्‌ जयेत्‌. जप्यात्‌ श्रजपीत प्रपिष्यतू जापयति #%जल्‍्यत्‌ जल्पेतू. जल्पातू अच््वीत अन्नल्पिप्यत्‌ जह्मग्रति णजाग, जाग्यात्‌ू जागयात्‌ अजागर्रत्‌ पद्यगरिप्यत जागरयति

अच्छुरनू हुरे!. च्ठयत्‌ छुयेत.

छियात्‌

अचेप्कि

चिल्यते चेत्यते चित्र्यते चिस्यते चिन्त्यते चिहृयते चोदते

अजारीत अजरिष्पतू जरबति

छिए्ठते

छुयते ल्लायते जन्यते जप्पत्ते

जल्प्यते

जागयते जीयते जीव्यति जोत्यते जोप्पते जम्म्बते

जीयते

६२

घातु

बृहदू-अनुवाद-वद्धिका

श्रथं

लछदू॑

लिदू

लुदू

छूदू.

लोदू

जशा(६ उ०, जानना) पण्जानातिं. जज. ज्ञातां जास्यति जानादु आ०-- जानीते जे ज्ञाता शास्ते. जानोीनाम्‌ शा(१०उ०,श्राशादेना)व्रा+-शामयति शापयाचकार;शापविता शापपिष्यति जापवतु ज्वर्‌((प०,रुग्णद्ोना) ज्वरति जज्वार ज्यरिता ज्वरिष्यति ज्वस्त ज्वलू(१प०, जलना) ज्वलति टंक(१०उ०चिहलगाना)टकयति

जज्वाल ज्वलिता ज्यलिष्यति ज्वलतु टंकयाचकार टंकयिता टंकप्रिप्यति टंकयतु

डी(ईश्रा०,3डना)ठत्‌ + डयते._ डिड्ये डयितां डयिष्यते ड्यताम डी (४ थ्रा०, उड़ना)उत्‌ + डीयते उड्डिडये उड्डबिता उडडबिष्यते डीबताम

ढौक्‌ (१ थ्रा०, जाना) दीकते

डुंढौके

तत्त्‌(१प०, छीलना) तत्नति बढ (१० उ०, पीटना) वाडयति तन्‌ (८5०,फैलाना)7०-तनोति श्रा०्नतनुते. तन्ब(१०ग्रा०,पॉलन") तस्त्रयते

ततत्ष तद्चिता तक्तिध्यति ताडयांचकार ताडयिता ताडयिध्यति ततान तनिवा तनिष्यति तेने तनिता तमिष्यते तन्त्रयाचक्रे तन्त्रयिता तमन्तरविष्यते

तक्षतु वाडयतु तनोवु तनुताम्‌ तम्त्रताम्‌

तब(१पण्वाना)

ताप

तपतु

तपति

ढौकिता

तह्ता

दौकिष्यते दौकताम,

तप्यति

तक _(१०उ०, सोचना) तकयवि तम्यांचकार तकयिता तकगिष्यति तक

तर्ज(रप०मर्नाक०) तर्जति ततजे. तर्ज (१०श्रा०,डॉय्ना) तर्जयते

तजयाचके तजंग्रिता तजंयिप्पते तजथताम्‌

तर्जिता वर्जिष्पति तजद

तर्द (६ प०, खताना) तदंति

तद॒द॑

तर्दिता

तर्दिष्यति तदतु

तंम(१०उ०,सजाना)श्रव +वंसयति तख्याचकार तंसयिता तंसमिष्यति अतिजि(शथआा०,क्षमाक०)वितिज्ञते तितिक्षाचके तितिज्षिता वितित्तिष्पते बुद्‌ (६उ०हुःखदेना) व॒दतिन्ते तुतीद॑ तोचा तीक्त्यति हुल्‌ (१० 5०,वोलना) तोलयति तोलयाचकार वोलयिता तोलगिष्यति

तंसयतु तितिज्ञवाम्‌ चुद तोलथवु

हु ४ प०, तुष्ट होना) त॒ष्यति

ब॒तोप

तोश . तोक््यति

दुष्यतु

हुप्‌(४प०, तृत्त द्ौना) दृष्यति ठप(डप०,प्यासाहोना) दृष्यति

दतप्‌ ततर्ष.

ततार

तर्विता तर्पिता

तरिता

तॉरप्यिति तर्पिष्याव

तुष्यतु तृष्यतु

खोज (१ प०, छोडना) लजति प्रपू (१ आर, लाना) भपते.

वह्यान त्रेपे

थक्ता अ्रपिता.

लक्ति परपिष्षते

खजतु प्रपताम्‌

ततरास

ब्ासता

तू(प० तैरना).

घ्रत्‌(४ पर०, डसमां)

चुद (६५०, इूडना)

तरति..

भस्यति

चुढते

चुद (१० श्रा०,वोड़ना) त्रो्यते

नुबोद्

चुदवा

तरिष्यति तर

अहिप्यति

चुटिषति

प्रर्यतु

घुटतु

श्रोव्यांचड्धे भोदयिता ओटविध्यते ब्रोट्यताम्‌

ज्न्न्भ्म्म्न्न्न््णण्ष्णण्षण्ध५षषष्षा का ऋऋण कक्षाबकाया अर आ ८८6त आल हल. 2 का कक

#विजेः छूमाया सन्‌ ।

सहित घातु-पाठ



लद

लछुटइू..

णिचू

कमंवाच्य

अजासीत्‌

अज्ञास्यत्‌

शापयति

अज्ञास्त अजिज्षपत्‌ अज्यारीतू अज्वालीव्‌_

अज्ञास्यत ज्ञापयति अज्ञापयिष्यत्‌ शापयति अ्रज्वरिष्यत्‌ ज्वस्यत्ि अज्वलिष्यव्‌ ज्वालयति

जायते शाप्यतते शाप्यते

ऋष्टटकत्‌.

अटकयिबष्यत्‌ टकयति

डक्‍्यते

अडयिष्यत डॉययति ग्रडग्रिध्यतव डायति अदौकिष्यत ढदौकयति

डीयते डीयते दौक्यते

विधिज्षिहः आशीर्तिंड्‌ लुड

आअजानातू जानीयात्‌ ज्ञेयात्‌ अजानीत जानीत शञासीएट अशापयत्‌ शापयेत्‌ ज्ञाप्यात्‌

अप्यरत्‌ ज्वरेत्‌ अण्वलत्‌ ब्वलेन्‌ अटकयत्‌ ८ऊयेत्‌ अडयत डयेत

अडीयत डीयेत अढौकत दौकेत

अतक्षव्‌ चत्तेत्‌ अत्ताइयन्‌ ताडयेत्‌ अतनोत्‌ तनुयात्‌

अंतनुत तन्बीत अतन्वेयत तन्‍्ब्रयेत अतपन्‌

तपेत्‌

अ्तबग्त्‌ द्कयेत्‌ श्तजत्‌ वर्जेद्‌ अतुर्शयत तजयेव अर्वदत्‌ तर्देत्‌

+ अतसयत्‌ तस्येत्‌

ब्वर्यात्‌ सल्पात्‌ टक्‍्यात्‌

आअडवपिण. अडविषप्ट. डौकिपीष्ट अदौफिष्ट सक्ष्यात्‌ अतक्षीत्‌ू चाब्यात्‌ अतीतडत्‌ तन्यात्‌ अतानीत्‌ तनिषीषट अतनिष्ठट. तन्न्रयिषीक्ठ अततन्ततः हप्पात्‌ अताप्वीत्‌ तक यात्‌ अततकत्‌. वष्याव्‌ अतर्जोत्‌.5 स्जयिषीड अततजत तर्बात्‌ अतद्दोत्‌. डथिपरीष्ट डयिपीए

तध्यात्‌

रेह रे

तुष्येत्‌ दृष्येत्‌ दृष्येत्‌ तरेत्‌

अत्यजन्‌ स्पकेत्‌

अततक्तिष्यत्‌ तक्षयति

तच्यते

ताइचते तन्यते तन्यते त्न्त्यते त्प्यते तक यदे त्ज्यंते त्ण्यते तद्ते तस्वते वितिक्यते

खततसत्‌.श्रतसयिष्यत्‌ तसयति

घ्रमपत

चपेत

अनस्यत्‌ जअस्‍्वेत्‌

अच्रुटत्‌ चुटेत्‌ अन्नोय्यत त्रोय्येत

चुष्यात्‌

अतुपत्‌.

द्ष्यात्‌ दृष्यात्‌

अतृपत्‌.

श्रतर्पिष्यत्‌ तपंयति

अतृपत्‌.

अतर्पिष्यत्‌ तर्षयति

अतारीत्‌ू

अतरिष्यत्‌

तीर्यात्‌ चज्पात्‌ बरप्रिपीषट

अस्यात्‌ चुदपात्‌

अतोक्पत्‌.

तोषयति

तारयति

अलताक्ीत््‌ अच्क्षयत्‌ ल्ाजबति अजपिष्ट. श्रत्रपिष्यत नअपयति अनसीत्‌ू _अनरिष्यतू चासयति

अब्रुटीतू तौदयिपोष्ट अतुच्ुटत

ज्यल्यवे

अताडयिष्यत्‌ ताडयति अ्रतनिष्यत्‌ तानयति श्रतनिष्यत तानयति अतन्‍्त्रयिष्यत तन्त्रयति अतप्स्यत्‌ वापयति अतऊ थिष्पत्‌ तक्रर्याव अवर्जिष्पत्‌ू. वजयति दर 4 शब्रत्जविष्यत तजयति श्रवर्दिष्यत्‌ू तदंयति

अपितिच्षुत तितित्तेत वितच्चिपीछ थ्रतितिन्षिणट अ्रतितिक्तिष्दव तेजयति ठुय्यात्‌ श्रतौत्सीतू. अतोत्त्पत्‌ू तोदयति अव॒ुदत्‌ ठुदेतू आअतोलयत्‌ तोलयेत्‌ तोल्पाव्‌ अतूठलत्‌ श्रवोलयिष्यत्‌ तोलयति

अदुष्यत्‌ अध्ृष्यत्‌ झतृष्यत्‌ अतरसत्‌

ज्वयंते

अ्रवुटिष्यत््‌ त्रोटयति अनोययिष्यत च्रोटयति

इ्ध्ड

धातु

बृहददू-अमुवाद-चन्द्रिका

अर्थ

लट

लिदू

म्रै(१ आरा, बचाना) चायते . तचत्रे

लुदू न्राता

लूट

लोद्‌

भास्थतें

चायताम्‌

स्वच््‌ (१ १०, छीलना) त्वच्षति

तत्वच्.

त्वक्षिता

लर्ट॑श्य्रा०,जलदीकरना)ैलरते.

तत्वरे

त्वरिता

त्वरिष्यते

स्वस्ताम्‌

स्वेष्टठा.

लेक्यति

व्वेपतु

त्विप(१ उ०, चमकना) त्वेषति-ते तिस्देष.

ल्क्तिष्पति लक्षतु

दश्ड(१०3०,दष्डदेना)दइण्डयतिं-ते दएडयाचकार दण्डबिता दण्डयिप्यति दुण्डयतु दम(४प०, दमन करना) दाम्यति

ददाम

दमिता

दमिप्यत

दास्यतु

दम्मू(श्प०,पोखा देना) दम्नोति ददम्म दय(श्थ्रा०,द्याकरना) दयते. दयाचके दरिद्रा(एप०,दरिद्रद्ोना)द रदाति ददरिद्रौ

दुम्मता दम्मिष्यत दम्नोतु दबिता दबयिष्यते दयताम्‌ दरिद्विता दरिद्रिष्यत दरिद्धादु

दंश(११०, डेंसना) दशति दह (१५०, जलाना) दहति दा(१ ५०, देना) चच्छुति

ददंश ददाइ ददौ

दंश दुस्या दाता

दंद्यति घक्मति दात्यति

दशतु दहत सच्छतु

दा(२१०, काब्ना) दाति दा (३ उ०, देना) प०-ददाति

ददी ददो

दाता दाता

दात्थति दास्वति

दाठु ददाहु

ददे

दाता

दास्यते

दत्ताम्‌

अआ्रा०-दत्ते

दिवु(४प०,चमकनाआदि)दीव्यति दिय्‌ (१०आ, रलाना) देववते दिश(६3०,देना,कदना)दिशवि-्ते दीज्(१श्रा०,दीदादेना)दीजते. दीप (४आ्मा०,चमकना) दीषप्यते हु (४प०,दुःखित होना) दुनोति. हुप्‌ (४ प०, बिगड़ना) हुष्प्रत॑ दुइ (35०, डुदना)१०-दोस्घि. आ०-दुग्पे दृ(भ्थ्रागदुःमितद्ोना) दूते..

दिदेव_ देविता. देविष्यति दीव्यतु .देवयांचक्रे देवयिता देवमिष्यते देवबताम, दिदेश देश. देद्यति . दिशतु दिदीक्षे दीकछ्षिता दीक्तिप्पते दीक्षताम, दिदीपे .दीपिता दीविष्यते .दीष्यताम्‌ दुदाव दोता दोष्यति छुनोह दुदोप दोष्ठा , दोष्बति दुस्मद डुबोह दोग्घा पोक्षति दोख डुदुदे. दोग्घा धोक्यते हडुग्पाग्‌ ढुदुवे. दबिता दविष्यने दूदवाम्‌

द(६श्रा०,श्रादरकरना)ग्रा +शाद्रियते आददे आदर्ता श्रादरिष्यते श्राद्रियवाम्‌ इप्‌(४प०, गय॑ करना) इष्पति ददप. दर्विता दर्विष्यति इप्पनु दश्‌ (११०, देखना) पश्यवि

ददशश

द्रष्टम.

दू्‌ (ईप०, फाइना)

ददार

दारता

दरिष्यति

ध्णावु

ददा दिद्युत

दाता योठिग

दात्वति योविष्ते

चोतताम्‌

दु्खाति

दा(४ प०, काटना) यति युतू (शश्वा०, चमकना)बोवते.

द्रदपति. पह्यतु बात

संक्तितत घावुगाठ

जडझू विधिलिछ आतीकिछझ

लुझू

अजायत जायेत ज्ञासी८%८्०ट अच्क्षत्‌ ल्वक्तेतू. लक्ष्यत्‌ अत्वरत त्वसेव.. खरियीष्ट अलेपत्‌ ल्वेपेतू. लिष्यात्‌ अदण्डयत्‌ दण्डयेत्‌ दण्ड्धात्‌

अन्नास्त अत्वक्षीतू अलरिष्ट. अल्विक्षर्‌ु अददण्डत्‌

अदाम्पत्‌ दाम्येत्‌

अदमत

दम्पातू

३६४.

लुक.

णिच्‌

अत्रास्यत त्रापयति अत्यक्धिष्यत्‌ ्वक्षयति. अत्वरिष्यत त्वर्यात अत्वेदरतू त्वेपपति. अदण्डबिप्यत्‌ दस्डयति अदू्रिष्पंत्‌ दमयते

क्मवाच्यभ्ञायते खक्ष्यते त्वयते ल्िप्यते दण्छ्यते दम्बते

अदम्नोत्‌ दम्नुयात्‌ दस्बात्‌ अदस्मीतू अदम्भिष्वत्‌ दस्मवति दुम्यते अदयत दयेत . दबिपोष्ट अदयिष्ट अदयिष्यत दाययति. दणस्यते अदरिद्वात्‌ दरिद्वियात्‌दरिशात्‌ अदरिद्ध तूअदरिद्रिप्पत्‌ दरिद्रयति दरिद्रथते

अदशत्‌ दशेत्‌.

दश्यात्‌ श्रदाइक्लीत्‌ अ्रददपतू

अदहत्‌ दहेत्‌. दल्मात्‌ अयच्छत्‌ यच्छेत्‌ देयातूु अदातवू दायावू दायातू

दशयति

दश्यते

श्रधाक्षोतू अ्रदात्‌ू अदासीत्‌ू

अधक्ष्य्‌ु अदास्यत्‌ अदास्यतू

दाइवति दापयति दापयति

दह्यते दीयते दायते दौीयते

अददात्‌ दयातू

देयातू

अदात्‌.

अदास्यतू

दापयति

आदच

दासीश

अदित . शअ्रदास्वव

दापयति.

ददीतव

अरद्दीव्यत्‌ दीव्येतू दीव्यात्‌ श्रदेवीत्‌ू श्रदेविष्यतू देवषति.

दोयते

दोच्यवे

अदेवयव देवयेत. देवयिपीष्ट अ्रद्ीदिवव अदिवयिष्यत देवयति - देब्यते अदिशतू दिशेव्‌॒ दिरखात्‌ अदिक्षत्‌ अदेहपत्‌ देशयति. दिश्यते अ्रदीक्षत दीचेत. अ्रदीष्यद दीप्येत. अदुनोत्‌ छुनुयात्‌

दीज्षिपीः अदीक्षिण दोपिषी:& अदीपि्ठ. दूयात्‌ अदौषीद्‌

अदुष्यत्‌ दुष्येत्‌.

छुप्पात्‌ू

अधोक्‌ अकुग्ध अदूयव आद्वियत

डुह्यात्‌ू दुष्यात दुद्दीत सुच्ी्ष दूयेत . दविषीष्ट आद्ियेत आड्पीए,

अह्प्यत्‌ इप्येतू. अपश्यत्‌ पश्येत्‌ू

दृप्पात्‌ु दृश्यात्‌

अद्याव्‌ अखीयाद्‌ दीर्यातू

अधच्यत्‌

थेतु.

अ्रद्योतव च्योतेत

अ्रदीक्षिप्दत दोतयति. अरद्योषिष्दत दीपयति. अदोष्यत्‌ दावयति दूधषति

दोक्पते दोष्यते इयते

अदुपत्‌

अदोक््यत्‌ू

अधुत्तत्‌. अधघुक्षत अदविष्ट आ्ाइत

अ्रधोक्यत्‌ू दोहयति अ्रघोक्मत दोहयति अदविब्यत दावयति आदरिप्यव ध्यदारयतिं

दुह्मते डुब्नते दूयते आद्वियते

उदुष्यते

अदरिप्यत्‌ू दास्यति

दीयते

अप अ्दर्पिष्यत्‌ दर्घयति ह्यते अद्राक्षीत्‌ू. अद्बक्यतू दर्शयति. इश्यते अदारीतू

देयात्‌ु

अदात

चोविषोष्ट

अद्योतिषश्ट

श्रदास्यत दापयति अचोविष्यत दोतवति

दीवते चुत्वते

श्दछ

धातु

बहदू-अनुवाद-्चन्द्रिका

अथ

लद

लिदू

द्रा (३ १०,सोना)नि+ निद्राति बु (१ प०,पिघलनी) द्रवति बह (४ प०,द्रोहकरना) दुच्यति.

निदद्री दुद्राव दुद्ोह

द्विप्‌ (१3०,हंपकरना) द्वेष्टि

द्द्विप

लुद्‌

लंद..

निद्राता

निद्रास्यति निद्राह

द्रोता द्रोहिता द्वेश घाता घाता धाविता

द्रोष्पति . द्वेबतु द्रोद्िष्यति डुह्यतु देच्यति द्वेप्द

धात्यति धा(३उ०,धारणकरना)प०-दधाति दधौ आ०-धत्ते दे घास्यते. धाव(१७०,दौड़ना,पोना)धावति-ते दधाव धाविष्यति धोवा घोष्यति. धु (६५उ०,हिलाना) घुनोति दुघाव घुन्चिता धुछ्चिप्यते घुक्त(थ्राग्जलना) घधुढते दुषुत्ते धोता घोष्यति. धू (इ उ०,हिलाना) धूनोति दुघाव धूप्‌(१प०,मुखाना) धरृपायति धृषायाचकारधूपायिता धूपायिप्यति धघवा थू (१ 3०, रखना) धरति-ते दघार घरिष्यति. थ्र्‌ (१० उ०, रखना) धारवति-ते धारयाचकार घारयिता घारयिष्यति हु धूप (१०5०,दबाना) धघर्षयति-ते धर्याचकारधपंयिता धर्षग्रिष्यति घाता धाध्यति बट((प०,पालना/चूसना)धयति._ दधो ध्माता ध्मास्यति घ्या (१ १०, फूंकना) घमति दष्मौ ध्यै (१ प०, सोचना) ध्यायत्रि .दुष्यो ध्याता ध्यास्थति ध्वन्‌ (१प०,शब्दकरना) प्वतति दुष्वान ध्वनिता ध्वनिष्यति ध्यंश्‌ (१श्रा०,नण्दोना) ध्वसते . दध्व॑ंसे ध्वंसिता ध्वंत्तिप्ते नदिष्यति नद्‌ (१ प०,नादकरना) नदति.. ननाद नदिता मम्दू (१ प०,प्रसन्नदोना) मन्दति सनन्‍्द नन्दिता नन्दिष्यति नम(१ प०,झुकनाओ + नमति

ननाम

मद (१ प०,गर्जना)

नर्दति

ननर्द

नश्‌ (४ प०,न्शहोना) नश्यति

सेनाश

लोदू

दधातु धत्ताम्‌

धावतु धुनोत

धुद्धताम्‌ धूनोतु

धूपायतु

धर्तु धारयतु धपयतु घयतु धमठु ध्यायतु घ्वनतु ध्यंखतामू मदतु नन्दतु नमतु

सन्‍्ता

नंख्यति

नर्दिता

नर्दिष्यति नद॑तु

नशिता

नशिष्यत्रि नश्यतु

नद्धा

नत्त्ति

निन्दू (१ प०,निन्‍्दा०) निन्दति निनिन्‍्द

मेक्ता निन्दिता

नेदयति नेनेक्तु निन्दिष्युति निन्‍्दतु

नी(१3०,लेजाना) प०- नयति. निनाय आ०>नयते . निन्‍्ये

नेता नेता

नेष्यति नेप्यते

मयत नयताम्‌

नविता नोता

मविष्यति नोत्स्यति

भौठु नुदतु

महू (४ उण्ाधना) नद्यतिन्ते ननाइ निज (३४०, घोना) नेनेक्ति निनेज

तु (२ प० स्तृति०)

नोति.

नुनाव

चुद (६उ०,प्रेरणादेदा) नुदति-ते भुनोद

नहातु

सछ्तित्त घातु-पाठ

डे६७

लड़. विधिलिझ आशीलिंद_ लुडद_

दकछू

णिच्‌ू.

न्यद्राव्‌ निद्वायात्‌ निद्रायात्‌ न्यद्रासीत्‌

अद्वबत्‌ द्रवेतू.

दगात्‌.

अड॒दरुबत्‌

न्यद्रास्यत्‌

निद्रापयति

द्वाववति

दयते

अब्ुह्मत्‌ अद्भेद्‌ अदघात्‌ अधतत

हुह्मात्‌. दिष्यात्‌ चेयातू धासीए

अह्ुहत्‌. अदिक्षत्‌ शझ्रधातू अधित

श्द्रोहिष्यत्‌ अद्वेच्यत्‌ अधास्‍्यत्‌ू श्रघास्यत

द्रोइयति द्ेपयति घापवति धापयति.

डुलते द्विष्यते धीयते घीयते

अधावत्‌ धावेत्‌ू.

धाव्यात्‌ू

अधावीत्‌

अ्धाविष्यत्‌ धावयति

घाब्यते

अधुनोत्‌ धुनुवात्‌ु

धूयात्‌ु.

अधौषीत्‌

अधोष्यतू

धूयते

अधुनत धुक्तेत.. अधूनोतु धूनुयात्‌ु

घुक्तिपीए घूधाव

अधुक्ति/ अधाबीद्‌

अ्रधुक्षिष्यत धरुत्तयति. अ्रधोष्यत्‌ धूनयति.

द्ुह्मेंतू. दिष्याव दष्यात्‌ दधीत

थ्रद्वोष्यत्‌

धाबयति

कर्मवाच्य निद्रायते

घ॒च््यते धूयते

अधृषायत्‌ धूपायेतू धूपाय्यात््‌ अधूपायीत्‌ श्रधूषायिष्यत्‌ धूपाययति धूपाय्यते खधरत्‌

श्ियात्‌

अधापीत्‌

अधरिष्यतू

अधारयत्‌ धास्येतु. धार्या(

घरेतु.

अदोधरसत्‌

अ्रघारयिष्यत्‌ धारयति.

धारयति

ब्रियते धायते

आपपयत्‌ धषयेत्‌ू.

धर्षत्‌ू.

अद्घंत्‌

झधप्रयिष्यद धर्षयति..

ध्यते

अधपत्‌ धयेत्‌ु. झपमत्‌ धमेत्‌. अध्यायत्‌ ध्यायेत्‌ू.

पेबात्‌ ध्मायात्‌ ध्यायात्‌

अभ्रधात्‌ अधास्यद्‌ धापयते.. अध्यासीत्‌ अध्मास्यत्‌ ध्यापयति अध्यासीत्‌ अ्रध्यास्यत्‌ ध्यापयति

अध्वनत्‌ ध्नेत्‌ू.

ध्वन्यात्‌

अ्रध्वनीत्‌ अध्वनिष्यत्‌ प्वनयति

ध्वन्यते

अध्यसत ध्वसेत. प्वसिप्रोष्ट अध्वसिष्ट अध्वस्तिष्यत प्वलयति अनदत्‌ नदेतु. नद्यत्‌. अनादीत्‌ श्रनदिष्यत्‌ नादयति

ध्वस्यते नयते

धीयते ध्यायते ध्यायते

अमन्दत्‌ नन्‍्देत्‌ू. नन्‍्यात्‌

अनन्दीतू अनन्दिष्यत्‌ नन्‍्दयति मन्‍्यते

अनमत्‌ नमेत्‌

नम्वात्‌

अब्रनसीतू

नमयति

नम्यते

अनदंतू नर्देतू.

नर्यात्‌ु

अनदीत्‌ श्रनदिप्यत्‌ नदंयति.

नर्थते

अनश्यत्‌ नश्येत्‌ नश्यात्‌

अनाशीत्‌ अनशिष्यत्‌ नाशयति

नश्यते

अनस्थतू

श्रनह्मत्‌ नहोंत्‌. नद्यात्‌. श्रमात्सीत्‌ अनत्य्त्‌ नाइयति नध्ते अनेनेऋ्‌ नेनिज्यात्‌ निज्यात्‌ अनिजत श्रनेक्यतू नेजयति. निम्यते अनिन्‍्दत निन्‍्देत्‌ू निन्यात्‌ अनिन्दीत्‌ अनिन्दिष्यत्‌ निन्दयति निन्‍्यते अनयत्‌ नयेत्‌. अनयव नयेव.

नीयात्‌. नेषीए..

श्रनैषोत्‌. अनेष्ट

श्रनेष्यतू अनेष्यत.

भ॒ुयात्‌.

नूयात्‌

अनावीत्‌

अ्रनविष्यत्‌ नावयति

चूयते

अनुदत्‌ नुदेत्‌ु.

नुद्यातु

अनौत्सीतू अनौस्यत्‌ नोदयति

नुद्ते

अनौत्‌

नाययति नाययति.

नीयते नीयते

रैध्८

घातु.

बृहृदू-अनुवाद-चन्द्रिका

अ्य॑

लट्‌

हूत्‌ (४ प०, नाचना) दृत्मति पच्‌ (१ड०,पकाना)प०-पचति

आ*-पचते

लुदू..

छुदू

ननत..

लि.

नर्विता

नर्तिष्पति इछत

प्राच

पक्ता

पक्यति

पचतु

पेचे.

पक्ता

पह्ुंतते

पदचताम्‌

पठिता परशिता पतिता

परिष्यति पणिष्यते पविष्यति

पठतु परणताम्‌ पततु

पठ(१ प०, पढ़ना ) पठति.. पराठ पण्‌(श्थ्रा०,खरीदना) पणते . पेणे पत्‌ (१ प०, गिरना) पति पपाव

पद (४ श्रा०, जाना) !'पद्येते पेदे.. पत्ता, पछ (१शझ्रा०,कुशब्दकरना) पदसे पपदें ५ पर्दिता

पत्ते पर्दिष्यते

लोद्‌

पद्मताम पर्दताम्‌

पशू (१० उ०, बाँधना) पाशयति-ते पशयाचकार पाशयिवा पाशविष्यति पाशयतु.

पा(१५०, पीना) पिवति पयों पाता पास्यति . पिबतु पा (२५०, रक्षा करना) पति. पषों पाता पास्यति पादु पाल (१०३०, पालना) पालयति-ते पालयांचकार पालयिता पालविध्यति पालयत

पिप्‌ (७ प०, पीसना) पिनष्टि

पिपेष

पेश.

पेक्यति

पिनए

पीड (१०उ०,ढुःखदेना) पीडयति-ते पीडयाचकार प्रीडयिता पीडगिष्यति पीडयतु पुप्‌ (४प०, पुष्डकरना) पुष्पति

पुपोष.

पोश

पोच्यति । पुष्यतु

घुप (६ प०,पुष्ठ करना) पुष्णाति

पुपोष.

पोषिता

पोषिष्यति

पुष्णादु

पृष्‌ (१० उ०, पालना) पोषयति-्ते पोषयाचकार पोपषयिता पीषयिष्येति पोषयत पुष्प्‌ (४ प०, खिलना) पुष्प्यति घुपुष्यप. घुष्पिता पुष्िष्यति पुष्ण्यतु पू (१्श्ा०, पवित्र०) पवते

पुपुवे

पविता

परविष्यवे

पू (६3०, पवित्र०) पुनाति

परुपावा

पविता

परविष्यति

चुनाव

पूज्‌ (१० 3०, पूजना) पूर्‌ (१० 3०, भरना) प्‌ (३ प०, पालना) प्‌ (१० उ०, पालना) बै(१ प०, शोपण क०)

पूजयाचकार पूजयिता पूस्याचकार पूरयिता पार परिता पारयाचकार पारयिता परी पाता

पूजपिष्यति पूरयिष्यति परिष्यति पारविष्यति पास्यति

पूजयतु, पूरयतु पिपुं पारयतु पायतहु

पष्ये

प्यास्पते

पूजयति-ते पूरयति-ते पिपर्ति पास्यति-ते पायति.

पव्यै (१आ०,बदनाओझा + प्यायते

प्रच्यू (६१०, पूछना) एच्छति प्रच्छ

प्रध (१ थ्रा०, फैलना) ग्रथते. प्री (अन्मा०,प्रसन्‍नहोमा)ओऔयते. प्री (६उ०,पसन्‍नकरना) प्रीयाति

पश्र॑ये... पिव्रिये. पिप्माय

प्याता

प्रपष्णा प्रथिता. ग्रेंता प्रेवा

पवताम

प्यायतार

अ्रच्यति

परच्छत

प्रथिष्यते. च्रेष्पते प्रेष्षति.

अथताम्‌ प्रीयताम्‌ श्रीणातु

प्री (१०उ०,प्रसन्‍नक») प्रीणयति प्रीणयचिकार ग्रीशमिता प्रीणविष्यति प्रीणयतु प्यु((श्ा०् कूदना) मवते पुप्छवे ज्ोता ओोष्पते अवताम, प्तप्‌(!प०, जलाना) स्ोपति पुन्नोप. ज्लोपिता ज्लोपिप्यति औपठ

रुत्तित घातु-पाठ

लडः

विधिलिड आशीलिंश लुड...._ लछूड_.

शहद

णिच्‌

अनृत्यत्‌ रत्येतू.

अत्यातू अनर्तीव. अनर्दिष्यत्‌ नर्त्यते.

ऋपचत्‌ पचेतू. अपचत पचेत

पन्यात्‌ पक्षी.

अपाक्ीद॒ अपक्त

अपक्यतु अपक्ष्यय

पाचयति पाचयति

क्संवाच्य

झल्यते

पच्यते पच्चते

अपठत्‌

पठेतू..

परस्यात्‌ु

अपादीत्‌

अपठिष्यत्‌ू पाठ्यति.

पख्यते

ऋषणत

पशेत.

परशिपीष्ट

अपशिष्ट

अपशिष्यत्‌ पाएंयति

पण्यते

अपतत्‌

पत्तेत्‌ु

पत्यातु

अपतत्‌ . अपतिष्यत्‌ू पातयति

पत्थते

पत्सीए. पर्दिषीष्ट

अ्रपादि अपसल्त्वव पादयति. अपद्दिण . अर्पादेष्यत पार्दयति

पयते पद्चते

अपीपशत्‌

अदशशविष्यत्‌ पाशयति

पाश्यते

अपदयत पद्येत अपरदेत पर्देत.

अपाशयत्‌ पाशयत्‌ पाश्यातु

अपिबत्‌ पिदेत्‌ू

पेयातू

भ्रपात्‌ु

अ्पात्यतू

पराययति

पयते

अपात्‌

पायात्‌

अपासीत्‌

अपास्यत्‌ू

पॉलयति

पायते

पायात्‌

अपालयत्‌ पालयेत्‌ पाल्यातु

अपिनद्‌ पिष्यात्‌

अप्रिरत्‌

अपेज्यत्‌

पेपयति..

पिष्यते

अपीडयत्‌ पीडयेत्‌ पीड्याद्‌

अश्पिडत्‌

अपीडदिष्यतृपीडबति

. पीड्यते

अपुष्यत्‌ पुष्येत पुष्यात्‌ु अपुष्णात्‌ पुष्णीयात्‌ पुष्यात्‌ु

अ्रपुपत््‌ अपोषीत्‌.

अपोक्षयत्‌ु पोपयति अपोपिष्यत्‌ पोषयति

पुष्यते पुष्यते

अपबंत

अपविष्ट.

अ्रपोषयतत्‌ पोपयेत्‌ श्रषुष्यत्‌ पुष्प्येत्‌. पवेत

पिष्यातु

अपोपलत्‌ अपालबिष्यत्‌ पालयति .पाल्यते

परोष्याद्‌ श्रपूपुपद पुष्ष्यात्‌ अपुष्पत्‌

. पत्रिपीष:

अ्रपुनात्‌ पुनीयात्‌ पूयातु

अपूजयत्‌ पूजयेद्‌

पूज्यातद्‌

अपाबीत्‌

अपूपुजत्‌

श्रपोषविष्यत्‌ पापयति.. श्रपुष्पिष्यत्‌ पोष्ययति

पोष्यते .पुष्प्यते

श्रपविष्यद्‌ पावयत्ति

पूयते

अपविष्यत्‌ पाचयति

पूयते

अ्पूजदिष्यत्‌ पूजयति . पूज्यते

अपूरयव्‌ पूरयेत्‌ पूर्यात्‌ अपिपः प्रिपूर्यात्‌ पूर्यात

अपूपुरत अपारोद

अपूरमिष्यत्‌ पूरवति अपरिष्यद पारयति

पूल .पूर्यलते

पार्यातू पायात्‌ू प्यासीष्ट

अपीपरत्‌ अपाझीत्‌ अष्यात्त

अपारमिष्यत्‌ पाय्यति. अपास्यत्‌ू पाययति. अ्रप्यात्यवप्पापयति.

पांयते पायते प्यायते

अपारदत्त पारयेत्‌ अपायत्‌ पौयेत्‌ अधष्यायन प्यायेत

अपच्च॒त्‌ एच्छेत. एच्छपात्‌ श्रग्राहोंत्‌ अप्रइशत्‌ अप्रयव प्रयेत प्रयिषीष्ट अधीयत प्रीयेद.. प्रेषीष अप्रीणात्‌ प्रीयोयात्‌ प्रीयात्‌ अग्रीशवत्‌ प्रीसयेद्‌ प्रीर्पात्‌ अप्लबत प्लेदेव प्लोरोष्ट

अग्रयिष्टष. अप्रे्ट अग्रेपीत्‌ अ्रपिप्रिणत्‌ अष्चोष्टध

प्रच्छषति . प्रच्चयते

अ्ग्रयिष्यव ग्रथयति... अप्रेब्यत प्राययति.. अप्रेष्पत्‌ू.. प्रीणयति अप्रीणपिष्यत्‌ प्रीशपति अष्लोष्यत प्दावयति

अशथ्यते प्रीयते प्रीयते प्रीस्यते घ्लूयते

अप्लोषत प्लोपेत्‌ प्हुप्पात्‌ अ्रष्तोषीत्‌ अप्लोषिष्यत्‌ प्लोपपति प्लुप्क्ते

००

घांतु

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

अर्थ

लद_

लिए.

चुद,

छूट:

लोद्‌

पफाल फ्रलिता फ़लिप्यति बध(६थआ[०,दीमस्स होना)वीमत्टते बीमत्साचक्रे वीमत्सिवा बीमत्टिप्यते बघ्‌ (१० उ०, बाँधना) वाधयति बाधयांचकार बाधयिता बाधयिष्यति बन्ध्‌(६प०, बाँधना) बध्नाति बबन्ध॒ बन्दा मन्त्स्यति बाध(१शआरा०,पीड़ा देना) चाघते बबादे. बाषिता चापिष्यते बवोधितवा वोधिष्यति बुघ्‌(१3०, समझना) वोधति-ते बबोधष बुध (४ श्रा०, जानना) वुध्यते चुबुवे. बोद्धा भौत््ते.

फल (१ प०, फलना)

फलदि

बू्‌(३ 3०, बोलना)प०-ब्रबीति आश्ञश्ते भक्त (१०ड०,साना)7०-मक्षयति

उबाच

ब्रक्ता

ऊचे बक्ता भक्षयाचकार मदयिता श्रा०-मक्तुयते भ्त॒याँचक्रे भक्तुयिता भज्‌(१उ०,सेवा कथ्ना)मजति-वे बमाज भक्ता मज्नञ (७प०, तोड़ना) मनक्ति वमझ . मक्ता बभाण भरता मण (१ प०, कहना) भणति

वच्यति. चच्यति

भक्तथिष्यति भत्तयिध्यते भक्यत्ि... मंदयति मशणिष्यति

फलतु बीमत्सताम्‌ बाधयतु

बध्नातु बाघताम, बोध वुध्यताम्‌ बबीतु घताम्‌

भक्षयतु मक्तयताम्‌ भजन मनक्तु मणतु

मत्मू (१०थ्रा०, डॉयना) मत्तंयते मत्सयांचक्रे भत्संयिता भत्स॑यिष्यते भत्संयताम

भा (२५०, चमकना)

भाति

माष्‌(६आ०, कहना) भाषते मास्‌ (श्झा०, चमकना)भासते मिक्त (श्रा०, माँगना) मिछते

मिद्‌ (७ 3०, तोड़ना) मिनत्ति मिदि(१५०,टुकड़ेक रना)मिंदति मी (३ प०, डरना ) जिभेति मुज(७१०, पालना) भनक्ति (७ थ्रा०, खाना) भुदक्ते

मू्‌(११०, होना)

मवति

मूप्‌(११०, उचाना) भूषति

बी. मात्रा भास्पति. भावु बभापे._ भाषिता मापिष्यते भापताम्‌ बमासे . भाखिता भाहिष्यते भाषवाम्‌ विभिज्षे मिक्तिता मित्तिध्यते भिन्नताम्‌ विभेद मेवा मेह्यति मिनच्षु विमिद. मिद्धिता प्िदिष्यति मिदतु विमाय मेवां मेप्पति.. बिमेतु बुमोज. चुमुजे.

भोक्ता मोक्ता

बमूव बुमूप. बमार. बमार.

मविता मृष्रिता मर्वा भर्ता

भू (१ उ०, पालना) मरतिन्ते मु (३3०, पालना) बिरू्ति बश्राम परम (१ प०, घूमना) ब्रमति अर (४१०, घूमना) प्राम्यति बम्राम अंग (१ श्रा०, गिरना)प्रंशते बच्रंशे

अप्रित ग्रमिता अंशिवा

मोदयति.

भुनक्तु

मोच्यते

मुदृक्ताम्‌

मविष्यति

मबत्ु

मूपरिष्यति भूषह मरिष्यति.

मरिष्यति

भरत

बिमतु

म्रमिष्यति. भ्राग्यद अमिष्यति

प्राम्यत

अशिष्यते अंशताम

४०१

सद्ित्त घातु-पाठ

लड

विधिलिड आशीलिड लुड्‌

अफ्लत्‌ फलेत्‌

फ्ल्वात्‌ श्रपालीत्‌ आबीमत्सत दीभत्सेत बीभस्सिपाष्ट अयामत्तसिष्ट अयाधयत्‌ बाधयेतु बाध्यात्‌ु अयीगधत्‌ पपध्नात्‌ बध्नीयात्‌ वध्यात्‌. श्रभान्त्सीत्‌ बाधिघीष्ट अबाधिष्ट धआरयाधत बायेत

अगोधत्‌ बोचेत्‌ अबु यव बुध्येत अब्रवीत्‌ ब्रूयात्‌

बचुध्यातू

अ्रबुधत्‌

मत्यीट उच्यचात्‌ बच्चीष्ट.

झबोधि श्रवोचतु अ्रवोचत

आग्नूत ब्रुवीत अमुक्तयत्‌ भक्षयेत्‌ भदबातू .अमक्तत्‌ अभज्षुयत भक्षयेत

भक्षेयिषपीष्ट अमज्ञव श्रभातीत्‌

छुद,..

शिच्‌

अफ्लिप्यत्‌ फालयवि

बोधयति बोघ॑यति बाचयबति बाचयति

बुध्यते द्घ्यते

अमक्षुयिष्यत्‌ भक्षयति

भक्यते मच्यते भग्यते भज्यते मण्यते

अबोधिष्यत्‌ श्रभोत्स्यव श्वद्पतू. आअवक्षषत

अ्मन्तिष्पत भक्षयति

श्रभच्यत्‌ू. भाजयतिं अभाइ क्षीत्‌ अमक््यत्‌ भज्ञयति अ्रमाणीत्‌ अमभशिष्यत भाणयत्रि श्रबभत्सत अभत्सेयिष्पत भत्सयति अभासीत्‌ अभास्यतू_ भाषयति अमापत भापेत भागिषीष्ट अभाषिष्ट अमापिष्यव भाषयति भाषिषीष्ट अ्मासिष्ट अमासिष्यत भासयति अमभासत॑ भांसित अभिन्षत मिक्षेत मिन्तिपीष्य श्रमिद्तिष्ट अभिर्तिप्यत मिक्नयति अभिनत्‌ भिन्‍्यात्‌ मिद्यात्‌ू अभिदत्‌ प्रभेत्त्यत्‌ू भेदयति अभिदत्‌ मिदेत_ मियात्‌_ अभिदीत्‌ अमभिदिष्यत्‌ भेदयति अबिभत्‌ बिभावात्‌ भीयात्‌. अमैषीत्‌ अमेष्वत्‌ माययति असुनक्‌ भुज्ज्यात्‌ मुज्यात्‌ अमौक्षीत्‌ अभोक््यत्‌ू मोजयति अशभुड्क्त भुज्ञीव भु्धीष्ट असुक्त अमोचयत भोजयति बभमवत्‌ भवत्‌ अमदविष्यत्‌ भावयति भूयावू अमूत्‌ अमूपतू भूषेतू मूातू. अभूषीत्‌ अमूफिष्यत्‌ सूप्रयति अभरतू भरेतू प्रियात्‌॒ श्रमार्षति अभरिष्यतू भारयति

बिभुयत्‌ म्रियातू अभार्षात्‌ अमरिष्यत्‌ भारयत्ि

अश्नमत्‌ अमेत्‌

अम्यातू

अश्नमीत्त्‌

अश्राम्पत ज्राम्येत्‌ अम्यातू अ्श्रमत्‌ अश्वशत भ्रशेत अशिषीष्ट अश्वशिष्ट

फ़्ह्य्ते

अचीभत्सप्यतबीमत्सवति यीमत्स्यते बाध्यते अवाधयिष्यत्‌ बराघयति बब्पते अमन्त्स्थत्‌ वन्धयति बाध्यतें अबाधिष्यत याधयति

श्रमजत्‌ मजेत्‌ म्यात्‌. झमनक्‌ भज्यात्‌ भज्यात्‌ू अमणत्‌ भरेत्‌ मरण्यातू अमत्संयत »त्सयेत मत्सयिपीए अमात्‌ भायात्‌ भायातू

अगिम

क्मं०

अश्नमिष्यत््‌ भ्रमयति अश्नमिष्यत्‌ श्रमयति अशभ्नशिष्यत श्रशयति

उच्यते डच्यते

भरत्स्यते भायते भाष्यते भास्थते मभिद्यते भिद्यते भिन्यते मीयते

भुप्यते मुज्यते सूयते भूष्यते भियते प्रियते अम्पते अम्यतते अश्यते

ग्रे

धातु

बृहदू-श्रनुवाद-चन्द्रिका

अथ

लदू

लिए

लुद

लूट.

लोदू

भ्रस्ज्‌(६3०, भूनना) भृज्जति-ते ब्रश्नज्ज भ्रष्ट. भ्रद्यति. भृज्जतु भ्राज(१श्रा०,चमकना) भ्राजते बश्राजे श्राजिता शभ्राजिष्यते भ्राजताम मण्ड(१०उ०, सजाना) मण्डयति-ते मएडयाचकार मण्डमिता मएडगरिष्यति मश्डयंतु मथ्‌(६प०, मथना) मथति मम्राथ सथिता मभिष्यति मथतु मद्‌ (४प०, प्रसन्नहोना) माद्यति ममाद मसदिता भदिष्यति मायतु सन्‌ (४ आा०, मानना) भन्‍्यते. भेने अन्‍्ता भंस्यते. मन्‍्यताम्‌ मम्‌ (८ आ०, मानना) मतुते. मेने सनिता भनिष्यते मनुतास्‌ मन्त्र(१०श्रा०,मंत्रणा ०)मन्‍्त्रयते| मन्त्रयाचक्रे मन्त्रयिता मन्त्रमिष्यते मन्त्रयताम््‌ भन्‍्य(६१०, मथना) मब्नाति म्भन्‍्ध सन्थिता सन्थिष्यति मब्नानु मध्ज्‌(६प०, झबना) मजति मम्रज मदक्ता मड़ह्यति भजतु महू (१९०, पूजाकरना) महति ममाहमद्दिता भहिष्यति महतु मा (२ प०, नापना)

मात्ति

अमौ

माता

भास्यति

माल

मा (३ आा०, जाएगा) मिम्ीते समरे.. माह. मास्यवे.. मिगीकार मान(१थ्रा०,जिशाखा०) मीमासते मीमासाचक्रे मीमासिता भीमासिष्यते मौमासताम्‌ मान्‌ (१०उ०,आ्रादर०) मानयति-ते मानयाचकार मानयिता मानयिप्यति मानयतु

मार्ग (१० 3०, ढूँदढ़ना) मार्गयति-ते मार्गयाचकार मार्गविता मार्गमिष्यति मार्गयतु मार्ज (१०३०,साफकरना)मा्जयति-ते माजयाचकार माजयिता मार्जमिष्यति मार्जपतु मिल (६ 3०, मिलना) मिलति-ते मिश्र्‌ (१०३०,मिलाना) मिश्रयति-ते मिह(१प०,गीलाकरना) मेइति मौल(१५०,थ्राँखमोचना)मीलति

मिमेल मेलिता भ्रेलिष्यति मिलत मिश्रयांचकार मिश्रयिता मिश्रथिष्यति मिश्रयतु मिमेह्द मेढा. मेक्ष्यति . मेहतु मिमील मीलिता मीलिष्यति मीलतु

मुच्‌(६उ०, छोड़ना) प०-मुश्यति मुमोच

मोक्ता

भोदपवि

मुथ्तु

आ०--मरखते सुठ्रंचे

मोक्ता

भोहुयते

मुश्चताम्‌

मुच्‌ (१०छ०,मुक्तकरना)मोचपति-ते मोचयांचकार मोचयितवा मोचविष्यति मोचपतु मुद(श्रा०,प्रशल्दोना) मोदते. मुमदे. मोदितां भोदिष्यते मोदताम्‌

सुच्छ(१प०,मूदितदोना) मूर्च्छति समृच्झे.

मच्छिता मूस्द्ष्यति मूच्ध॑त

मुप्‌(£प०, चुराना) स॒प्णाति मुझोप मदद(धपन्‍,मोईमैंपड़ना) मुझ्यति मुमोद स (हआ०,मरमा) प्रियते ममार

सोषिता भोदिता सर्ता

मोपिष्यति मुष्णातु मोद्दिप्पति मद्मत मए्ि्यति प्रियताम

सगयाथके सगयिता

यृगविष्यते सृगयताम

सुग (१० श्रा० दंढ़ना) सगपते

सृज्‌(२प०,खाफ फरना)माप्टि. समाज

मर्शिता

सर्मिप्यति मार्प्ई

सक्षित्त धावु-पाठ

४०३

लड_ विधिलिड_आशीलिंड लुड. छूड_..

छिच..

कमबाच्य

अमृजत्‌ भृज्जेत्‌ू.

भ्रजयति

मृज्ज्यते

मृज्प्यात्‌ अश्नाक्षीत्‌ श्रम्नद्यत्‌

अश्राजद आजैत. भ्राजिपीष्ट अज्राजिए अभ्नाजिष्य आजर्यात अ्राज्यते अमशण्डयत्‌ मण्डयेत्‌ मण्ड्यात्‌ अममण्डत्‌ अमण्डयिप्यत्‌ मस्डयति मणडयते अमयत्‌ मयेत्‌ मस्यात्‌ अमथोत्‌. अमथिष्यत्‌ू_ माथयति मध्यते

अमाय्त्‌ मायेत्‌ मद्यात्‌

अमदीत्‌.

अ्रमदिष्यत्‌ मादयति

अमनन्‍्यत मन्येत मसी्ट. श्रमस्त अमस्यत मानयति. श्रमचुत मसन्‍्वीत समिषीष्ण श्रमत अमनिष्यत मानयति.. अमन्त्रयत मन्‍्नयेत मन्त्रयिषीष्ट अममन्त्रतव अमन्‍्वरयिष्यत्त मन्त्रयति. अमधथ्नात्‌ मथ्नीयात्‌ मच्यात्‌ अमन्‍्यीत्‌ अमन्यिष्यतू मन्‍्ययति

मद्यते

मन्‍्यते मन्यते मन्त्यते मथ्यते

अमजतू मज्जेत्‌ू

मज्ज्यात्‌ अ्रमाइज्ीव्‌ श्रमछूद्यत्‌ मजयति

मज्ज्यते

अमइत्‌ मद्देत्‌.

मह्यात_ अमहोत्‌.

महते

अमदिष्यत्‌ माहयति

अमात्‌ मायात्‌ मेयातू अमासीत्‌ू अमास्यत्‌ मापयति मीदबते अमिमीत मिम्रीव मासीए.ट.. अमास्‍्त अ्रमास्यत मापयथति मीयते अमीमासत मीमासेत मीमासिप्रीशट अमीमारिष्ट श्रमीमासिष्यत मीमासयति मीमात्यते

अमानयत्‌ मानयेत्‌ सान्‍्यात्‌ अमीमनत्‌ अमानयिष्यत भानयति मान्यते अमार्गयत्‌ मागमेत्‌ मार्ग्यातू अममार्गतू अमार्ग॑बिष्यत्‌ मा्गयति मार्य॑ते

अमाजबत्‌ माजयेत आाज्यातू श्रममार्जतू अमाजंवेष्स्त्‌ूमाजयति

.साज्यते

झमिलत्‌ मिलेतू प्रिल्थात्‌ अमिश्रयतू मिश्रयेत्‌ मिश्रयात्‌ अमेदत्‌ मेद्देत्‌ मिद्यातूं अमीलत्‌ भीलेतू भील्पातू

श्रमेलीतू अमेलिष्यत्‌_ मेलयति. मिल्यते अमिमिश्रत्‌ अमिश्रयिष्यत्‌ मिश्रवति.. सिश्रूयते अमिच्तत्‌ अग्ेच्यत्‌ू मेहयति.. मिह्यत श्रमीलीत्‌ अ्रमेलिष्यतू मीलयति . मील्पठे

अमुश्चत्‌ मुल्चेत्‌ मुच्यात_

अमुंचत_

अमोक््ययभ

भोचत्रति

मुच्यते

अमुश्यद मुब्चेत मुद्दी: अमुक्त अ्रमाह्यत मोचयति. मुच्यते “अमोचयत मोचयेत झोच्यात_ अमूम्रचत_ श्रमोचविष्यत्‌ मोचयति . मोच्यते अमोदत"

मोदेत

भोदिषीष्ट श्रमोदिष्टई

अमोदिष्यत

मोदयति

मुयते

अपूर्ड्धत_मूल्येंत_ मूल्झयात_अमुस्छोत, अमृस्छिप्पत_मच्छ॑गति. मुच्छॉयते अमुष्णात_ मुष्णीयात_मुष्यात_ अमोपीत_ अमोपिष्यत_ मोपयति . मुप्यते अमुद्यत_ मुझ्येत_ मुझ्यात_ अम्नहत_ श्रमोदिष्यत_ मोदयति. मद्यते अभ्रियतवप्रियेत अ्म्गयत

मृपरोष्ठ

श्रमृत

म्गयेत मगविषरोष्ट अमसृगत

मास्यति

प्रियते

अमृमविष्यत सगयति.

अभरिष्यत्‌ू

सृम्बत्ते

अमार्ट_ ग्ज्यात्‌ सज्यात्‌ अ्रमार्नीतू श्रमार्जिष्दत

मार्जयति..

झृज्यते

४०४

बृहदू-अनुवाद-चम्द्रिका

घातु शर्थ लट_ लिख लुटख[ लुट लोद मृज्‌ (१०छ०,साफ़ करना)माजयति,ते माजबाचकार माजयिता मार्जपिष्यति मार्ययमु ३ मृष्‌ (१० 5०, क्षमा करना)

मपयति-ते मपयाचकार मपद्रिता म्॑यिष्यति मपयत भस्नी स्ताता स्नास्वति भनत् स्लै (१ प०, मुरकाना). म्लायति मम्ली. ग्लागा ग्लास्पति म्लायबु यज्‌(१उ०, यज्ञ करना) यजहिन्ते इयाज यष्टा यक्षति यजतु यत_ (१श्रा०,पत्ष करना) यंतते येते यतहिता यतिष्यते यतवाम्‌ यन्त्र (१० उ०, नियमित०)उन्त्रव॑ति सन्त्याचकार यन्त्रविता यन्त्रविष्यति यन्तयत यम्‌ (१प०, संभोग करना) यमति ययाम यम्था यप्थति यमठ यम्‌ (१ १०,रोकना) नि+यच्छति ययाम यन्तां यस्वति यब्छुतु यस्‌(४प०,7त्न करनागप्र + यस्पति ययास॒ यत्तिता यहिष्पति यस्पत या (२ १०, जाना) याव्रि यगौ याता यात्यति यादव याच्‌(१उ०, माँगना)7०-याचति ययाच याचिता यात्रिष्वति याचतु आ०--याचते ययाचे. याचिता यावनिष्यते याचताम यापि(या + णिच्‌,विताना)वरापयति यापयाचकार यापयिता यापमिष्यति यापयतु युज (४आ ०,ध्यान लगाना)युज्यते युयुजे योक्ता योचपते युज्यताम युज(७उ०, मिलाना) युनक्ति युयोव योक्ता योच्यति युनकठु युजू (१० उ०, लगाना) योजयवि-ते योजयाश्वकार योजप्रिता योजगिष्यति योजयतु शुघ्‌ (४ आा०, लड़ना) युघ्यते सुगुषे योदा योत्स्यते. युध्यताम रखता रच रक्त (१ ०, पालन करना) रक्ृति रक्तिष्यति रचततु रच्‌ (१० 3०, बनाना) रचयति-ते स्वयाश्षकार रचयिता रचयथिष्पति रचयतु रट्क्ता रदचुयति रज्यतु रख्ज्‌ (४ 3०, प्रसन्न होना) र्यति-ते रख्क़ रा. रटिता. रखिष्यति रखतु रट (१ प०, रटना) र्य्वि श्मे सता रंस्पते रमठाम्‌ रम्‌ (६ ऋ०, रमनी).. रमते (वि--रम, पर०) विरमवि बिरराम विस्नता विरध्यति विस्मठ रख (१० 3०, स्वाद लेना) रख्यति-वे रख्याग्वकार रसयिता रसविष्यति रखतु राजू (१ उ०, चमकनाओ०-रोजवि राज राजिता राजिप्यति राजवु आा०-राजते रेचे राजिता राजिप्वते राजताम राष्‌ ((प०,पूरा करना)श्रा + राज्नोति रराघ राद्या रात्त्यति यसप्नोतु रू (२ प०, शब्द करना) रोौति झुराव रबिता रविष्यति सैतु झच्‌ (१ श्रा०,श्रच्छा लगना)रो उते झबचे. रोथिता रोनिश्यते रोचताम झद (२ ५०, रोना रोदिति झयरोद रोहिता रादिष्यत रोदितु मना (१ १०, मानना) था + मनति

सन्चित घादुयाठ

लड़ विधिलिशड आशीलिंड लुड अममाजत्‌ अमाजयत्‌ ९ मार्जयेत्‌ मार्ज्यात्‌

अमघयत्‌ मपयेत्‌ , मर्ष्यात्‌ अमनत्‌ मनेत्‌ अग्लायत्‌ ग्लायेत्‌ ध्ययजत्त्‌ू यजेत्‌ अयतत यतेत

म्नायात्‌ू.

म्लायातू इज्यात्‌

यतिपीए. अयन्नयत्‌ यन्त्रयेत्‌ यन्ह्यात्‌ू अयभत्‌ यमेत्‌ यम्यात्‌ अयच्छुत्‌ यच्छेत्‌ यम्यात्‌ू

४०५५

कर्मवाच्य अ्रमाज यिष्यत्‌माजयति माज्यते लुड.

णिच्‌

6;ि

्‌ः

कि अ्मपयिष्यत्‌ मघयति

अममपत्‌ अम्नासीत्‌ अम्नास्थत्‌ म्नापयति अग्लासीत्‌ अम्नास्यत्‌ म्लापयति श्रयाक्षीत्‌ अयच््यत्‌ू_ याजयति अयतिष्यत यातयति अयविए अवयन्तत्‌ अयन्जविष्यत्‌ यन्त्रयति श्रयाप्सीत्‌ अयप्स्यत्‌ू यामयति अयसीतू अयस्यत्‌ू नि+यमयति

श्रयसिष्यत्‌ आयासयते श्रयस्यतू यस्येतू यस्यातू. श्रयसत्‌ अयातू यायात्‌ यायात्‌. श्रयासीस्‌ अ्रयास्यतू यापयति अयाचत्‌ याचेत्‌ याच्यात्‌ श्रयाचीत्‌ अयाचिध्यत्‌ याचयति अयाचत याचेत याचिषीष्ट श्रयाचिष्ट अयाचिष्यत याचयति अयापयतू यापयेत्‌ याप्यातू श्रयीयपत्‌ झयापबिष्यत्‌ यापयति अयुज्यत युज्येत युक्चीष्ट. अ्युक्त अ्रयोद्त योजयति अयुनक्‌ युज्ज्यात्‌ू युप्यात्‌ू श्रयुजत्‌ अयोध्यत्‌ू_ योजयति अयोजयत्‌ योजयेतू योज्यात्‌ श्रयूयुजत्‌ अयोजबिष्य॑त्‌ योजयति श्रयुध्यत युध्येत अयोत्स्यत योधयति युत्सीष्ट. अयुद्ध अरक्षत रक्षेत_ रच्याव_ अरच्षीत_ अरक्तिष्यत, रक्षयति अरचयत, रचयेत_ रच्यात, अररचत्‌ अरचयिष्यत्‌ रचयति अरज्यत रज्येत्‌ रज्यातू अराइक्षीत्‌ अरडच्यत्‌ू ग्ञयति अरत_ रेत, रख्यात्‌ अ्ररदीत_ आरटिष्यत_ राव्यति अरस्थत स्मयतति अ्रमत रमेत रसीए. प्ररस्त ब्यस्मत_ विरमेत_ विस्म्पात_ व्यरसीत, व्यूरस्पत विर्मयति अरसयत_रसयेत_ रस्थात_ श्रररखत_ अरसुविष्यत_ रसयति श्रराजत_ राजेत_ राज्याव_ अराजीत_ अराजिष्पत, राजयति श्राजत राजेत राजिपीष्ट श्रराजिप्ट अराजिष्यत राजयति अराध्नोत_ राष्लुयात_राध्यात_ अरास्सीत_ अरात्स्पत_ राधयति अरौत_ झुयात_ रूबात_ अराबीत_ अरविष्यत रावयति श्ररोचत रोचेत रोचविपीप्ट श्ररोविष्य अरोचविष्यत रोचयते अरोदीत रुच्यात_ झुयात_ अरुदत_ श्ररोदिष्यत रोदवति

मष्यते म्नायते

म्लायते इज्यते यत्वते

यन्त्यतते यम्यत्ते नि + यम्पते यध्यते

यायते याजञ्यते

याच्यते याप्यते युज्यते युम्यते योज्यते युध्यते रच्यते

रच्यते र््यते र्य्यते स्म्यते विस्मते रह्यते राज्यते राज्यते

राध्यते ख्यते रुच्यते झ्चते

०्द

सातु.

बृहदू-अ्रनुवाद-चन्द्रिका

अर्थ

लू

लिए

लुदू

लुदू..

लोद

रूथ्‌ (७उ०,रोकना)१०-रुणडि ररोध रोडा रोत्थति झरुणदूपु आ०- रनवे रुषे. रोदा रोस्वते रन्पाम्‌ , रुप (४प०,हिंसाकरना) रुध्यति झरोप रोपिताएष्टा) रोपिष्येति रुष्यतु कद (१ प०, उगना) रोहति ररोइह रोढा रोक्षति. रोहन रूप्‌ (१०उ०,रूपबनाना) रूपथवि-ते रूपपाचकार रूपयिता रूपपिष्यति रूपयतु लक्त्‌ (१० 3०, देखना) लक्षयति-ते लक्षत्रांचक्षार लक्षविता लक्षविष्यति लतपतु लग (१ प०, लगना) लगति ललाग लगिता लगिष्यति लगतु लद॒घ्‌ (१ध्रा०,लॉपना)ठत्‌ +लड्पते ललदघे लघिता लंबिष्पते लेंधताम्‌ लड्घ्‌ (१०उ०,लॉधना) लपघपति-तें लघपावकार लघयिता लंघनिष्यति लंघयतु

लड़ (१०छ०,प्पास्करना) लाडयति-ते लाड-

लाडबिता लाडमिष्यति लाडयनु

यांचकार खप्‌ (१ प०, बोलना) लपति ललाप लग (१ आ०, पाना) लगते. लेमे लम्बू (१श्रा०,लटकना) लम्बे. ललम्बे. लप्‌ (१3०, चाहना) लक्ति-ते ललाप लस्‌ (१प०,सोमितहोना)वि +लसति ललास

लपिता लब्बा लम्बिता लपिता. लसिता

लपिष्यदि लपबु लप्स्यते लभगाम्‌ लम्बिष्पते लम्बताम्‌ लगिष्पति लपतु लसिष्यति लखतु

लस्नू्‌ (लज्ज्‌ ६श्रा०/लजित०)लजते ललज्जे

लज्िता

लक्षिध्ते

लिख (६ १०, लिखना)

_लिखति लिलेख लेखिता

लिड्ड (प्रा+, ९ प०, श्रलिंगति श्रालिलिंग श्रालिआलिंगन०) गिता

लजताम्‌

लेखिष्यति लिखत॒

श्रालिगिप्पति श्रारलिंगतु

लिप(६3०, लोपना) लिम्पति-ते लिलेप लिद (२ 3०, चाटना) लेदि लिलेद

लेता. लेदा

लेप्थति लिगखतु लेकष्यति . लेहु

ली (४श्रा०,लीनद्ोना) लीयते. खुद (३ १०, लोगना) लोदते

लिलवे. छुलोड

लेता लोडिता.

लेष्पति लीयताम्‌ लोदिष्यति लोटबु

खुप्‌ (४प०, लुत द्वोना) लुप्पति

छुलोप

लोपित.

लोपिष्यति छुप्पतु

छुप्‌(६उ०,न8 करना) घुसति-ते खुलोप जुभ (४प०,लोम करना) छुम्पति छुबलोम लू (६ उ० कारना ) खुनावि छुलाव

लोता लोमिता लबिठा

लोप्सवि खुसतु लमिष्पति छुम्बतु लद्िष्यति छुनावु

लुई ((प०,विलोना)ग्रा+लोडवि छुलोड

लोख्‌(१श्रा०, देखना) लोफते

छुलोंके

लोडिवा

लोकिता

लोडिप्यति लोडतु

लोकिप्यते लोहताम्‌

लोक्‌ (१० उ०, देखना)ग्रा +लोकपति-तेलोकयाथकारलोकषितालोकपिप्यतिलोकपत॒

लोच (१०उ०,देखना)ग्रा+लोकयति लोकयाशकार लोकपिता लोकविष्यति लोकयद

बच्‌ (१० 3०, बाँचना) वादयति वाचवराचफार वाचयिता बाचपिश्यति बाचयतु

बन्च्‌ (१० ग्रा०, ठगना) बश्चयते बश्ययाचके बश्चविता बद्यविष्यते बश्यवताम

संत्षिप्त धातु-पाठ

लू विधिलिद! आरीलिंद लुदइ छंद अख्णत्‌ रुन्यात्‌ असन्ध रन्‍धीत्‌ु.

आरुष्यत्‌ रुध्यतू अरोहत्‌ रोहेत्‌ू. अरूपयत्‌ रूपयेत्‌.

रुष्यात्‌ु रुससीट

अ्ररुषत्‌ अरुद

.रुष्पातू रत्मात्‌ रूप्यातू

अरुपत्‌. अरुचछत्‌ श्रसूपत्‌

अलज्यत्‌ लक्षेयेत्‌ लद्यातू

अललछत्‌

अलघयत्‌ लघयेत_ लष्यातू

अललघत्‌

अलगत्‌ लगेत्‌. अलघत लघेत.

लग्यात्‌ू अलगीत्‌ लघधिपीष्ट गलघिष्0.

अलाडयत्‌ लाडयेत्‌ लाड्यात्‌ू

४०७

णिचू,..

कमवास्य

रोधयति. रोधयति

रुध्यते र्ध्यते

अरोपिष्यत्‌ रोपयति श्ररोब्रत्‌ रोहयति. अख्पयिष्यत्‌ रूपयति

रुप्यते झछते रूप्यते

अलक्षयिप्यत्‌ लक्षयत्ति

लक्च्यवे

अरोत्स्यत्‌ अरोत्य्यत

अलगिष्यत्‌ू लगयति. ग्रलधिष्यत लघयति

लग्यते लषघ्यते

अ्रलघविष्यत्‌ लघयति.

लघष्यते

अलीलडत्‌ अलाडबिष्यतूलाइयति

अलपत_ लपेत_._

लष्यात, अलपीत_

अरबमत झलम्बत अलघत_ शआ्रलसत, अलजत अलिसत आलिंगत

लप्सीए अलब्ध अलप्स्यव लम्मयति लम्रिपी. अलम्िष्ट अलम्बिष्यत लम्बबति लष्यात_ श्रलपीत_ अलधघिष्यत, लापयति लस्यात_ अलसीत अलसिष्यत_ लासयति जिप्रीए/ अलजिष्ट अलजिष्यत लजयति लिख्यातः अलेसीत_ अलेखिष्यत_ लेखयति श्रालिग्यात आलिंगीत_आलिगिष्यत_श्रालिंगयति

लम्यते लम्बूयते ल' लस्यते लज्ज्यते लिख्यते श्रालिग्यते

लिप्पात]

लभेत. लम्बेव.. लपेत,. लसेत.. लजेत लिखेत. आलिंगेत

लिम्पत_लिम्पेत_

अलपिष्यत_ लापयति

लाब्यते

लप्पते

अलिपत_ शअ्रलेप्स्यत_ लेपपति.

लिप्पते

अलिक्षा अलेष्ट

अलेचंप्त, लेदयति. अलेप्पत_ लाययति

लिझते लीयते

अलोडत_ लोडेत_ जुब्बात_ श्रलोडीव_

अलोडिष्यत्‌ू लोडबति

छुड्यते

अल्लुप्पत_लुप्येत_ खज्लग्पत_लुम्पेत_ अहुम्प्रत छुम्येत

लुप्गत_ छुप्यात_ लुम्पात_

अलोपिष्यत_लोपयति अलोष्घ्त_ लोगपति अलोभमिष्यत_लोभयति

छुप्पते छुपपते छुम्पते

अल्लनात_लुनीयात_ अलोऊत लोकेत

लूगत__ अलावीत_ अलविष्यत_ लावयति लोकिपीष्ट श्रलोकिं|्ट अलोकिष्वत लोकयति

लूयते लोक्यते

अलेद लिह्ात लिशात_ झलीयत लीवेत. लेपीए..

अलोटत_लोटेन_

लुब्यात_ अलोटीत_ अलोव्ष्यित_लोटयति अलुपत. अल्लपा अलोभीत_

अलोऊकयत्‌ लोकयेत्‌ लोक्प्रात्‌ अलुलोकृव_अलोऊयिष्यत्‌ लोकयति

अलोचयत्‌ लोचयेत लोच्यात_

श्रह्ललोचत्‌ श्रलोचय्रिष्यवलोचयति

अआअवाचयत्‌ चाचयेत_ वाच्यात_ अवीवचत अवश्चयत वश्चयेत वश्चयिषीष्ट अववद्धव

अवाचबिष्यत बाचयति अवश्यव्िष्यत वश्चयति

छुस्बते

लोक्यते

लोच्यते वाच्यते

चज्च्यते

बूहद-अनुवाद-चखिका

इ्ण्प

घातु

भझर्थ..

लदू

लिए

लुदु

छंद.

लोद्‌

बदतु वदिष्यति वदिता बद्‌ ( १ प०, बोलना) बंदति _उबाद बन्दिता बन्दिष्यते वन्‍्दवाम्‌ चन्द्‌(१आं० प्रणाम०) बन्‍्दते. ववन्दे. वष्च्यति बषतु च्ता बपति-ते उबाप यप्‌(१उ०, बोना) बवाम

वमिता

उबास घसति. बस्‌(१प०, रहना) यहति-तै उवाह. बह (१5०, दोना) वा (२ १०, दवा चलना) वाति बी

वस्ता बोढठा. बाता

बम्‌ (१ १०, उगलना)

बमति.

बाम्छ (१ प०, चादना)

बाह्छति

रिद्‌ (२५०, जानना)

बिदू (४ आ ०, होना) बिदू (६ 3०, पाना)

वेचि

ववाजछ

बिवेद्‌

वत्स्थति बखतु वक्त्यति बहतु वास्यति बाठु

वाड्िछिता वारिक्विष्यति वाज्डत

वेदिता

वित्रिदे वेत्ता विदयते दिन्दतिं-ते विवेद _वेदिता

विद्‌ (१०ग्रा०कद॒ना)निन-बेदयते.

वमिष्यति बमतु

वेदिष्यति वेच्तु

वेत्स्यते विद्यताम वेदिष्यति विन्दतु

बेद्याअक्रे वेदयिता वेदपिष्पते वेदयताम्‌

विश (६ प०, धुसना) प्र+तिशति विवेश विष्लू(५छ०, ब्यास होना) वेवेष्टि _विवेष

चेप्णा वेप्ठा.

वेचपति वेदंति

बिशतु बेवेप्दु

बीज (१०उ०,पंला हिलाना)वीजयति-ते वीजयाशकार वीजयिता बीजविध्यति बीज य्तु

बू (६ उ० चुनना) छू (६ आ०,छोयना) बू (१० उ०,इठाना,इकना) बृजू १० 3०, छोड़ना)

बुणोति बवार वरिता बच्रे इणीते बरिता घारयविन्तेवास्वाशकार बारधिता वर्जयति-ते वजयाश्षकार दजधिता

वरिष्यति दृणाठ वरिष्यते बृणोत्रण बारिष्णल्िव्वीरंबतु वर्जदिष्यति वर्जयतु

बत्(१आग होना),

वर्तते

बहते

बर्खता

वर्विष्पते बतताम्‌

बृघ्‌ (१ आ०, बढ़ना) बूप्‌(१प०, बरसों).

वर्धते वर्षति

बढपे बवर्ष

वर्धिता वर्षिता

वर्षिध्ते वधताम वर्विप्पति वर्षतु

वे (१ 3०, बनना) (१थ्रा०, कौंएरना). बेप्‌

वयतिन्ते वषते

बबों विजेषे

चाता वेषिता

वास्पति वेजिष्पते

वयतु वेपताम्‌

विव्टे. विव्यये विव्याघ वब्राज शशाक्र

चेप्टिता ब्यग्रिता दाद्वा ब्रजिता शक्ता

वेष्ष्यति व्यथिष्यते ब्यक््पति अजिप्यति शक्ष्तति

वेष्टताम्‌ ब्यथताम विध्यत ब्जतु शबनोतु

बेश्‌(१श्रार घेरना) बेण्ते ब्यप(१श्रा०, दुशख्ित द्ोना)ययते. विध्यति व्यथ्‌(४प०, चींघना) मजू(१प०, जाना) परि+ बजति शक(५१०, तकना). शक्‍नोंति

शक्क,(१झ्रा०, शका करना)ेशढते. शशके

शबिता

शह्लिप्पते शझताम्‌

शप्‌ (१3०, शाप देना) शपति-ते शशाप

शप्ता

शप्स्‍्यति शपतु

श॒म्‌(४प०, शान्त द्वोना) शाम्पति

शमिता

शमिष्यति शाम्यदु

शशाम

शंस(एप०,प्रशंधाकरना)व + शाते शशंत झंसिता शहिष्यति शंख शान (१७ «देव करमा)शोशांधति शीक्वासाचफार शीशासिता शोशातिष्यति शोशापव

र्‌्छ

लड

खत्तित घातु-पाठ

विविलिद आशोलिद लुड

अवदत_ वदेठ._ अवन्दत बन्देत. अबपत्‌ बपेत्‌.

छड.

इग्द

शिद्‌

कर्मबराच्य

ड्य्यात_ अवादीत_ श्रवदिष्यत_ यादयति बन्दिषीष्ट श्रवन्दिष्ट श्रवन्दिष्यत बन्दयति उप्मातू अवाप्सीत्‌ू अ्रवष्त्यत्‌ बाउउति

उलद्यते वन्यते उच्यते

अवमतू वमेत्‌.

वम्यातू

वस्यते

श्रवसत्‌ बसेत्‌ अवदत्‌ वहेत्‌

उष्यात्‌ श्रवात्पीत्‌ अ्रवत्त्वत्‌ू उल्यात्‌ू अवाह्ीतू अउक्यतू

अबात्‌

वायात्‌ बाबात्‌

अवमीत श्रवासीत्‌

अ्रवमिष्यत्‌ चमयति. श्रवास्वत्‌

घासवति बहयति

डउच्यते उदते

बारयति

वायते

अवाब्छ॒त्‌ वाड्छेत वास्छवात्‌ अ्रवाब्द्धीवु अवाब्द्िष्यद्‌ वान्ठपति वाजउछपते

अवेत्‌

विद्यात_

अप्रियत विद्येत

विद्यात_

श्रवेदीत_ श्रवेदिष्यत_ वेदबति विद्यते

वित्सीए्ट

श्रवित्त.

श्रवेत्वत

वेदबति . पिद्यते

अबिन्दत्‌ विन्देत्‌ विद्यात_ श्रत्रिदत,

अ्रवेदिष्यत_वेदवति

विद्यते

अवेदयत वेदयेत अग्रिशत_पिशेत

श्रवेददिष्यत वेदबति श्रवेचक्मत. वेशवति

बेचते विश्यते

वेदवरिषीष्ट श्रवीविदत विश्यात्‌ अ्रविक्षति

अवेपेद वेजिष्वात विष्यात_ अविषत_ श्रवक्छत_ वेषयति उपिष्यते अबवीजयत बीजवेत_ बीज्यात श्रवीविजत अवीजमिष्यत बीजनति वीम्उते अदश्योत _बृयुत्रात_ ब्रियात_ अ्वरारीत_ श्रवरिष्यत_ वारायति अियते अब्ृणीत बृणीत

बृप्री.ट.

श्रवरिष्ट.

अवरिष्यत

वास्यति

जियते

अ्रवारंबत बारयेत वायांत_ श्रवीयरत श्रवारयिष्यत_बास्थति बापते अवर्जयत वर्जबेत_ बर््यात_ श्रवीदृजत_ श्रवर्जविष्यत वर्जबति ब््यते अवतंत

बर्तेत

वर्वदिषीष्ट

अवर्घत अवपत्‌ अययबत अयेपत अपने अच्ययत

बर्घेत. वर्षेत्‌ बबेत्‌ वेपेत वेंटेत. व्यपेत

वर्थिप्रीष्ट श्रवर्दिष्ट अवर्धिष्घत वबघयति इष्यात्‌ू श्रवर्षीतू अर्रिप्पित्‌ वर्धयति ऊप्रातू श्रवाठीत्‌ अ्रवात्मत्‌ बायबति वेपिप्रीष्ट अवेषिष्ट अवेपिष्यत वेबति वेश्पीष्ट श्रवेश्िड अवेशिष्यत वेश्यति व्यथिप्रोष्ट अ्रव्यथिष्ट श्रव्यथिष्यत व्वययति

श्रवर्विष्ट.

अवर्तिष्यत

व्तबति.

बलते

बइब्यते डूष्यते खझयते वेप्णते वेइयते व्यस्यते

अग्रजत्‌

उजेत्‌

बन्यात_

ब्रम्पते

अपिष्यत्‌ यिध्येत्‌ विच्यात्‌ श्रय्वात्तीत श्रव्यत्त्वत्‌ ब्याघयति विश्यते अशक्‍नेत्शक्नुयात्‌ शक्यात्‌

अब्राजीत, अब्नजिष्वत_ ब्राजयति अशकेत्‌

अशक््यत्‌

शाकर्नीते

शक्सने

अशऊकत शक्तद शक्रिप्री:८ ऋशक्ि्ट अ्रशक्रिष्यत शकयत्रि शक्पते अशपत्‌ शपेत्‌ शप्वात्‌ अशाप्ठीत्‌ श्रप्तत्‌ शप्ररत शप्यते अशाम्पत्‌ शाम्येतू शम्बात्‌ अशमत्‌ अश्मिष्यतू शमयति शम्पते अशखत्‌ शसेत्‌ शब्पात्‌ श्रशखोंत अश्वव्िष्यत्‌ू शसयति शल्मते अगशांशायत्‌ शाशसेत्‌ शाशात्पाव अश्योशासीत्‌ ग्रशोश्ासिष्यव्‌शी रारायवियोयादयते

इ१०

घातु

बृहदु-अ्रतुवादन्चन्द्रिका

अय॑

लदु

लि.

छुदू..

शशाय शाम्‌ (२ ५०, शिदा देना) शास्ति शिक्त्‌ (१ आरा, सीखना) शिक्षतें शिशिक्षे शी(२श्आ०, सोना). शेते शिश्ये शुच्‌ (१ प०, शोक करना) शाचवि शुशोच झुघ्‌ (४ १०, शुद्ध होना) शुष्यति शुशोध शुम्‌ (१ श्रा०, चमकना) शोमते शुशुमे शुप्‌ (४प०, यूपघना). शुष्यवि शुशोष शू (६१०, नष्ट करना) श्णाति शशार

शाहिता शिक्तिता शप्िता शोदिता शोद्धा शोमिता शोष्ठ. शरिता

शो(४प० छीलना)

श्यति

रचुत(११०, चूना)

श्रोतति

भअम्‌ (४ १०, श्रम करना) क्षास्थति खणोति

लो

शशौ

शाता

चुश्ौत.

श्लौतिता

शश्राम

अ्रमिता

श्रमिष्यति भाम्यतु

श्रयिता

श्रविध्यति भयतु

श्रोत्ा

श्रौष्वति

मि (१3०, श्राश्रय लेना) श्राभ्यति-्ते शिश्राय.

भृ (१ १०, सुनना)

छूदू.

शातिष्यति शास्त्र शिक्तिप्यते शिक्षतरम्‌ शबिष्यते शेताम शोविध्यति शोचतु शोरुपति शुप्पद शोमिप्यवें शोमताम्‌ शोद्यवि थुप्पतु शरिष्यति थणातु

शुधाव

शालति

श्यतु

श्रोतिष्यति खोतठु

शत

रलाप(९थ्रा०,प्रशंया करना) श्लापते शश्लापे श्लाधित श्लापिणते आपघताम््‌

छिप (४ १०, थ्रालिंगन०) क्रिप्पति शिएलेप श्लेष्य.. रलेइपति र्छ्प्यितु अस्‌ (२ १०, साँस लेना) श्रश्चेिति शब्रास श्रतिता. अ्रिष्यति श्रम्ित्रु पयू (१ १०, धूकना) नि+प्ीवति तिछेव ऐविता प्लेविष्यति हीवतु साम्ज (१५०, मिलना) रुजति साख्ज्ञ॒ सदक्ता सद््यति ख्जतु रद (१ १०, बैठना) नि+ सींदति झसाद रुत्ता. साल्पति सीदनु सहू(१थ्रा०, सहना) रहते. सेददे संहिता. सहिष्यते राहसाम्‌ गाष्‌(५१०, पूरा करमा) साघ्दोति उसाथ साद्ा सात््यति साध्नोतु सारूब्‌ (१०उ ०पैयबंघाना) पान्ययतिसान्वयांचफारसान्यपितासास्वपिष्यतिसान्ययत हि (५ 3०, बाँधना) सिनोति सिप्राय सेत्रा. केघति झिमोदु ऐिच(६उ०, सींचना) उदिचति-ते सिपेच. क्षेक्ता सेज्यति विचतु

रिथ्‌(४प०, पूरा होना) डिप्यति सिपेष डिवू (४१०, सीना). सीव्यति ठियपेब,

मु (६ उ०, निचोड़ना)

सुनोति

एु(रश्रा०् जन्म देना) यूते

यूच्‌ (१०उ०,पूलना देना) यूचयति गए (१९०, रचित करना) सूत्रयति रख (१प०, एएकना) रारति खुजू(६९०, बनाना) यदि

सेदा. सेब्रिता

सेह्यतरि ड्घ्वितु सेविब्यति रोल

सुप्ाव

सोना

सुपुवे

रुषिता सबिष्यते सूताम्‌

शोष्यति

सुवयांचकार सूजयिता सुप्तयांचकार सूज़विता श्र रुतवा. रुस्न॑ सथ

मुनौदु

सूचेध्ध्यति यूचयतु यत्रविष्यति सत्य रास्पिति य्रतु सहुयतिं खुजतु

सक्तिस्त घातु पाठ

छू

विधिलिड आशीलिद लुद

लूट

ध्श्१्‌

णिचू..

क्मवाच्य

अशाव्‌ शिष्ष्यात्‌ शिष्यात्‌ अशिषत्‌

श्थशारिष्यत्‌ शासयति

शिष्यते

अशुष्यत् शुध्येत्‌ शुध्यात्‌ श्रशुधत्‌ अशोमत शोमेत शोमिपाष्ट श्रशोमिष्ट अशुष्यत्‌ शुष्येत्‌ शुष्पातूं॑ अशुपत्‌

अशोत्स्यत्‌ू शोधयति. शुध्यते अशोमिष्यत शोमगति .शुम्यते अशाढइत्‌ शोपयति. शुप्पते

अशिषदचित शिक्षेत शिक्षिपीष्ट श्रशित्तिष्ट अशिक्तिष्त शिक्तयति शिक्ष्यते अशेत शयीत शथिषपीष्ट श्रशयिष्ट अशयिष्यत शाययति शा्यते अशोचत्‌ शोचेत्‌. शुच्यात्‌ श्रशोचीत्‌ अशोजिष्यत्‌ शोचयति .शुच्यते

अश्णात्‌ शणीयात्‌ शीर्यात्‌

श्रशारातू.

श्रशरिष्यत्‌ शास्यति.

शीर्यते

अश्यतू श्येत. श्रश्नोतत श्रोतेत्‌.

शायातू शुत्यात_

श्रशाद्ीत_ अशास्पत_ शाययति अश्वोतीत_ अश्वातिष्यत_श्रोतवति

शायते .श्वृत्मते

अश्नाम्यत

श्राम्येत

अश्रम्यात

श्रश्ममत

श्रमयति

अम्यत्ते

अश्रयत

श्रयेत.

श्रीयात

श्रशिश्षियत्‌ अश्रयिष्यत श्राययति

भीयतते

अश्यणोत_ स्थणुयात_ भूयात,. आअन्छाघत छाषेत.

श्रश्रौपीत_

अश्रमिष्यत

श्रशरोष्यत्‌

श्राययति.

छाधिपीष्ट ग्छाधिष्ट अछाषिष्यत छाघयति

शूबते

आाघ्यते

अखिष्पत_झिप्येत स्छिप्यात अ्रक्ित्षत

अश्लेक्त

छेपयति.

सिप्पते

अश्वसीत श्वस्वाता अप्ठीयत प्रीवेत असुजन_ सजेत_ अखीदन_ सीदेत_ खासइत सद्देत.

अ्श्वरिष्यत अ्रष्ठेमिष्यत असड्द्प्रत असत्स्पत_ असह्िप्पत

श्वासयति. प्ेवयति. सक्यति. सादयति साहयति

अस्पते ऐ्लीसते सज्यते सद्ते उद्ते

असात्त्यतः

साधयति . साध्यते

अ्रस्यात छीव्यात सज्यात_ सद्यात सहिपीप्ट

अख्वसीत अप्ेवीत असाइज्ञीत_ असदत_ अखदिप्ट

असाष्मोत_साघ्जुयात राध्यात्‌ श्रसात्सीत

असान्वयत्‌ सान्लयेत्‌ सान्त्व॒यात्‌ श्रससान्त्वत्‌ असान्त्वयिष्यत सान्त्वयति साल्यते असिनोत_सिनुयात

सीयात

अश्रसैषीत

असेप्यत_

साययति

सीयते

सावयति

सूमते

असिंचत्‌ सिंचेत सिच्यात_ अ्रसिचत_ असेद्षन्‍्त_ सेचयति . सिच्यते असिध्यत_सिश्येत_ दिध्यात_ असिघत असेत्स्पत_ साधयति दिघ्यते असीब्यत_सीब्येत_ सीस्‍्यात_ असेदीत_ असेविष्यत्‌ सेवयति. छीब्यते असुनोत_सुनुयात_

सयात_

असूत सुयीत अयूचयत यजयेत असूतपत_ सज़येत्‌

सविपीष्य असविष्ट असखविष्यत सावयति .सूथते सुच्यात्‌ अखूठचत, असूचविष्यत_सूचयति .सूल्यते सुत्यात_ श्रद्ध॑ंतत_ असूतविष्वत सूत्रयति. सत्यते

अठरत_

असाबीत_

असोष्यत

सरेत्‌ ख्लियराव, श्रसापीत_ असरिप्यत_ सार ति

असचत सजेत्‌ दुज्यात_ अखाक्षीत असक्यत,

सायति

छियते सपय्ते

836

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

मभीतहु.

अर्थ

लदू

लिए...

लु4दू

छदू

सिऐवे. सेविता सेविष्यते सेब (१ श्रा०, सेवा कश्ना) सेवते उठो साता सास्ति सो (४ प०, नष्ट हीना)अब + स्पेति चर्ुवाल स्खलिता स्खलिष्यति स्खल (१ प०, गिरना) स्‍्खलति वुष्ठाय स्तोता. रतोष्य॑ति स्व (२ 3०, स्व॒ति करना) स्तौति स्तरिता स्वरिष्यति स्तृ(६ छ०,दकना,फैलाना) स्वृणाति तस्तार तत्वौ स्थाता स्थास्यति स्था (१ प०, उकना) विष्टति रुस्नौ स्‍्नाता स्नास्थति सना (३ १०,नहाना) स्नाति हिनहू (४ प०,स्नेह करना) स्निन्नति सिष्णेह श्नेहिता स्नेश्ष्यति पस्पन्दे स्पन्दिता स्पन्दिष्यते सन्दू (१ क्रा०,फडकना) सनन्‍दते पर्पर्थे. स्पर्धिता स्पर्षिष्पते स्पर्ध_ (१ श्रा०,स्र्धाकरना) स्पधते

स्ूश्‌ (६ ९०, छूना)..

रशशति

पस्प्श

स्प्रष्टषा.

स्प्रचरति

णोदू , सेवताम, हद सखलहु.

स्तीडु स्व॒णातु

तिएठतु स्नाठु स्निहातु स्पन्‍्दताऋ

स्प्धताम, स्पृशेतु

स्पृहयांचकार स्पृटयिता स्पृद्यिष्यत्ति स्पृद्यल स्कुद (६ १०,छिलना). र्कुबति पुर्फोड. सफुटिता .स्फुरिष्यति सफुटतु स्फुर(६प०फड़कना) स्फुरति पुस्फोर रफुरिता स्फरिष्यतिं स्फुखु तिध्मिये स्मेता स्मेष्यते स्मयताम्‌ ध्षमि (ह श्रा०,मृस्कराना) स्मयते स्मरिष्यति स्मरसु स्तर (१ १०,सोचना) स्मरति सस्मार रमर्ता स्बन्‍्दू (१ झा०बदइना) . स्थन्दते शस्वन्दे.. स्थन्दिता स्थन्दिष्यतै स्थन्दताम्‌ सर्ते. सं॑तिवा लंसिष्यते खतताम खंस्‌ (१ श्रा०,सरकाना) सस्ते सुल्दाव सोता सखोष्यवि खबतु खु (१ १०,चूना,निकलना) खबति स्वद्‌(१उ०,स्वादलेना) भ्रास्त्रादयति स्वादबाचक ए स्वादविता स्वादयिष्यति स्वादयह स्वप्‌(२प०,सोना) स्वपिति सुप्ताप स्वत्ता स्वप्स्यति स्वपितु इन (७ १०,मारना) ह्न्तवि जपान हन्वा. इनिष्पति इहस्तु दस (९ १०,इँसना) दसति जहास हसिता दृर्िष्यति हसदु हाता. हास्पति जहादु हा (३ १०,छोड़ना) जहयति जहा. हिंस(७१०,हिंखा करना) हिनल्ति जिहिंस. हिंसिता. दिविष्पति हिनस्ठ स्पूह (१० छ०, चाइना).

स्पृद्यति

हु (३ प०,यश करना) जुद्देति है (१ उ०,लेजाबा,चुराना) हरति-ते हपू (४ प०,खुश होना). दृष्यति

हु (रथ, लिएना)ग्रप + हृते हस्‌ (१ प०,क्रम होना).

ही (३ प०,लजाना)

हसति

जुहब

होता

होष्पदि.

छुद्दीवु

जहार॒ जहप॑. छुदुये. ज़द्दात

हइर्ता. हर्षिठा. होता हसिता

इरिष्यति इर्पिप्यति हूवोप्यते दृठिष्पति

द॒स्तु दृष्पतु हताम्‌ इसतु

हता.

दवेष्पति

जिद्देदु

आहात

आहास्पति श्राह्यद

जिद्दंति निदांय है (१ 3७, आ+बुलाना) आ्राइयति श्राइद्वव

जज्ितघातुपाठ

४१३

जद विधिलिद आशीलिंड लुइ

लुक...

असेवतव सेचेत..

सेविपीए.

असेविष्यत सेवयति

श्रस्पलत्‌ स्फलेत_ श्रस्तौत_ स्वुयात_

स्खल्यात_ श्रस्पालीत_ अस्खलिष्यत_स्सलति स्खल्यते स्वयात_ शअस्ताबीत_ अस्तोष्यत, स्तावयति स्वूयते

अस्पत_

स्थेत,.

सेयात_

अस्तृणात स्तृणीयात स्तीर्यात

असेविष्ट

अखासीत्‌ असास्यत_ साययति

अस्तारीत,

अतिष्ठत्‌ तिछ्ेत्‌. स्थेयात्‌ अस्थात्‌ू. श्रस्‍्नात्‌ स्नायात्‌ स्नायातू अस्नासीत्‌ अ्रस्निह्मत्‌ स्निश्लेत्‌ स्निश्यात्‌ अ्स्निदत्‌ श्रस्पन्दत स्पन्देत स्पन्दिषोष्ठ अस्पन्दिष्ट अस्प्घंत स्पर्घेत.. रपर्थिपीष्य अस्पर्षिष्ट अस्पृशत्‌ स्पशेत्‌ स्पृश्यात्‌ झस्पाक्तीत्‌ अस्पृद्यत्‌ स्पृहयेत्‌. स्पद्यात्‌ू अपस्पृहत्‌. अ्रस्कुटत_स्फुटेतू.. स्कुय्यात्‌ श्रस्फुटीत्‌ू.

अस्फुरत्‌ स्फुरेतू.

अस्मयत स्मयेत अ्रस्मरत्‌ स्मरेत्‌. अस्यन्दत स्मन्देत. अल्सत ससेत. अखयत्‌ स्वेत्‌ृ. श्रस्वरादयत्‌ ब्वादयेत्‌ अस्वपीत्‌ स्पषप्पात्‌ अइहन्‌ हन्यातू

शिच्‌

स्फूर्यात्‌ शअस्कुरीतू.

अस्तरिष्यत्र, स्तारयति

क्मबाच्य सेब्यते

सीयते

स्वीयंते

अस्थास्थत्‌ स्थापयति स्थीयते अ्रस्नास्यत्‌ रनपयति स्नायते अस्नेहदिष्यत्‌ स्नेहयति रस्निह्मते अस्पन्दिष्यत स्पनद्यति रस्पन्यते .अ्रस्पर्थिष्पत स्पर्धयति .स्प्यते अस्पक््यत्‌ स्पश्शयति स्पृश्यते अस्पृहदिष्पत्‌ स्पृदयतिस्वृह्मते श्रस्फुटिष्पत्‌ स्फोय्यति स्फुस्यते

श्रस्फुरिष्पतू स्फारयति स्फूर्यते

स्मेपीए अस्मेण .. अस्मेष्यत स्माययति स्म्यात्‌ अस्मार्पीत्‌ श्रस्मरिष्यत्‌ स्मार्यति स्वन्द्पी्ट श्रस्यन्द्ष्ट अस्थन्दिष्यत स्यन्द्यति ससिषीष्ट अस्नसिष्ट असरिष्यत श्लसयति सूपात्‌ श्रसुखुवत्‌ अखोस्थत्‌ खाबवयति स््राद्यत्‌ अ्रस्ष्यिदत्‌ श्रस्वादयिष्यत्‌ स्परादयति सुप्यात्‌ अस्वाप्सीत्‌ अस्वप्स्त्‌ स्वापयति वध्यात्‌ अवधीत्‌ अइनिष्यत्‌ घातयति

स्मीयते स्मर्गतते स्वच्यते रुस्पते खूबते स्वायते सुप्पते इन्यते

श्रृदसतू इसेत्‌

दस्थात्‌

ग्रहसीत्‌

अहसिष्यत्‌ हासयति

हस्वते

अ्रजद्दात्‌ जह्यात्‌ श्रद्धिनत्‌ द्विस्यात्‌ू

रेयातू हिंस्यात्‌ू

अहासीत्‌ू अद्िसीत्‌

अहास्प्रतू हापयति अहिंसिष्पत्‌ हिसयति.

हीयते हिंस्थते

अजुदोत्‌ जुट॒ुबात्‌ हयातू.

अह्दौपीत्‌ ,अष्योष्पत्‌ द्वावयति

हमे

अद्ृरत्‌ हरेतु. हियातू. श्रद्धप्वत्‌ दृष्येत्‌ .इृष्णातू अछुत हयीव होपीष्ट

श्रहर्पीत्‌ू. अइपत्‌ श्रह्मोट..

हि हृष्पते

अहसत्‌

अहारध्यत्‌ हारयात अदर्विष्यत्‌ हर्पयति श्रद्दोघ्त हावयति

अहासीत्‌

अदसिप्यत्‌ हासयति

हस्पते

हसेतू.

दृष्पयात्‌

हयने

अजिद्वेद्‌ जिद्ोगात्‌ द्वीयात्‌ू. ऋष्दपीत. अद्वेष्पत्‌ हेपपति. हीयते अआहयत्‌ अश्राइयेत्‌ शआहूबात्‌ आइहत्‌ . आहास्यत्‌ आह्ययति आहूयते

कृदन्त-प्रकरण घातोः ।११९३ धातु में जिस पत्यय को जोड़कर संडा, विशेषण या श्रव्यय बनता है, उसको

कृत प्रत्यय कहते हैं. और उसके द्वारा जो शब्द सिद्ध होता हे उसको क्दस्त

( जिछके भ्रन्त में कृत हो )कहते हैं, यथा--कृषातठु से तृच्‌प्रत्ययजोड़कर कर्द

शब्द बना। यहाँ परे ठृच्‌(कृत) पत्यय है और कह कदन्त शब्द है।

कृवृतिहः ।३॥१६३॥ कृत प्रत्यकन्त अ्रट होते हैं । दोनों में श्रन्तर यह है कि तिडन्त सदा क्रिया ही द्वोते हैं, कृत्‌ प्रत्ययान्त (जो कि श्रविडन्त है ) सत्ञा, विशेषण था श्रव्यय होते हैं। तद्दित तथा कूतूमेंभेद यह है कि कत्‌ धातुओ्नों में ही जोड़ा जाता है, किन्तु. तद्धित किसी सज्ञां, विशेषण, श्रव्पय श्रथवा क्रिया फे बाद जोड़कर उनसे श्रन्य संज्ञा, विशेषण, श्रब्यय तथा क्रिया बनायी जाती है। कृदन्त जब संज्ञा याविशेषण होते है तब उनके रूप खलते हैं, यथा--# + ठूचु 5 कर्ता, फर्वारी, कर्तारः श्रादि, किन्तु श्रव्यय एक रूप रहते हैं,गैते-क +त्वा प्ू कृल्वा, यह सदा एक रूप रहेगा |

कमी-कमी कृदन्त भी क्रिया का काम देते हैं, यथा--स गतः ( बह गया ) में: धठ! शब्द क्लिश का काम देता है। कृत्‌ प्रत्ययों केमुण्य तीन मेद होठे हैं-(१) इल, ( २) इत्‌भ्रोर( ३)उशादि।

(६ ) झत्प प्रत्यय ( तम्यत्‌,तत्य, अनीयर, यतू) कृत्या: ॥३। १९५। दर कृत्य प्रत्यप सात ँ--तव्यत_, तव्प, श्रनीयर, केलिमर, यंत्‌ /» वैयप, और ण्यत्‌।ये फमबाब्य तथा माववाच्य में द्वी शयुक्त होते हैं, कठृवाच्य में नहों। ये संशात्रों के विशेषण स्वरूप भी प्रयोग में श्राते हैं,यथा-दानोयो आद्षणः--वह हाक्षण झिसे दान दिया जाना चाहिए । गन्तव्वा नगरी--वह नगरी जहाँ जाना चाहिए। ० 28 ९ फर्तब्य कम--वह काय जो किया जाना चाहिए।

कुदन्त-प्रकरण ( कृत्य प्रत्यय )

54 व

स्नानीय॑ चूराम्र-वढ चूर्ण जिससे स्तान किया जाय | पक्तव्या) मापाः--वे उड्भद जो पकाये जाने चाहिएँ |

इन उदादरणों से स्पष्ट हैकि जो श्रथ ट्विन्दी मे “चाहिए! 'धोग्यः आदि शब्दों से प्रकट किया जाता हैवही अर्थ संस्क्ृत में कृत्य प्रत्यपान्त शब्दों से प्रकट होता है। यही भाव विधिलिंड_से भी प्रकट होता है, यथा--शिष्यः गुरु स्रेवेत ( चेला युर की सेवा करे ), पुत्र: पिवरम्‌ अ्नुकुय त्‌(पुत्र पिवा का अनुकरण करे ) श्र्थात्‌ पुत्र को पिता का अमनुकरण करना चाहिए । कृत्यान्त शब्दों के रूप संज्ञा शब्दों की भाँति तीनों लिड्ों मेचलते हैं--पुल्लिज्ञ और नपुंठक लिज्ञ में अ्रकारन्त और

ख्लीलिज्ञ में ग्राकारान्‍्त | ” तत्यत्तव्यानीयरः ३॥१९२ केलिमर उपसंख्यानम्‌ | वा० |

तब्यत_( तब्य ), तब्य, अ्रनीयर ( अनीय )और केलिमर ( एलिम ) ये प्रायः

समस्त धादश्रों में लगाये जा सकते हैं। त्‌ श्रौरए्‌के ६स होने से वेदिक संस्कृत में ख्रों में अन्तर पढ़ता है।

जो धात॒एँ सेट्‌हैंउनमें प्रत्यय और घातु के बीच में 'इ” लगाया जाता है

और अ्रनिटमेंनहीं |उदाहरणाथ कुछ रूप-घातु अनीय घातु.. घव्य

दत्य.

श्रनीय

बढ.

पठितव्ध

पंठनीय

छिदू

छेत्तव्य

छेदनीय छिदेलिम

मू

भवितब्य

मवनीय

मिद्‌

मेत्तव्य

भेदनीय भिदेलिम

गम. नी.

गन्तब्य नेतब्य

गमनीय नयनीय

पचू शंस्‌

पक्तव्य पंचनीय परचेलिस शसितव्य शसनीय

खचि.

चेतव्प

चयनीय

सुजू

स्टव्य

चर दा. मुज॒ अद्‌ू भ्ठ

चरितब्य दातव्य मोक्तव्य श्रत्तव्य भक्तिवत्प

चरणीय दानीय मोजनोय अदनोय भदणीय

क्थ्‌ " कथितव्य कथनीय चुरु चोरितब्य चोरणीय पूछ पूजितव्य पूजनीय जियमिप्‌ जिंगमिष्टब्य जिगमिषणीय बुवोधिष्‌ बुबोधिष्टव्य बुबोधिषणीय

एलिम

सर्जनीय

अचोयत्‌ ।३ ४९७ पोरुपधात्‌ शश६८। कृत्य प्रधव केवल ऐसी धातुओं मे जोड़ा जाता है जिनके श्रन्त में फोई स्वर

हो या झिनके अन्त में पंद्ग का कोई श्रक्तर हो और उपधा में अकार हौ। यत्‌ के यूव॑ स्वर को गुण होता दै |

ईंथति इ्शहदा यदि यत्‌ के पूर्वश्रा हो तो उसके स्थान पर पहले ६” होती है और फिर गुझू (८) दो जाता दे। यत्‌ के पूर्वयदि घातुका अन्तिम स्वर ए. ऐ, ओ ओर, दो तो उनके स्थान पर ई हो जात है और फिर गुण ( ए.) दो झाता है, यथा--

न]

बुहृदू-अ्नुवादन्चन्द्रिका

दा+बत्‌८द्‌ू+ई+य+ देय

शपू+यत्‌८शंप्‌+य ८ शप्य

घधा+यत्रघधु+ई-+य पेय गै+यत्‌ »गी+यचूगेय

जप्‌ +यत्‌ 5 जप्‌+य ८ जप्य लप्‌+यत्‌ ८लप्‌+य ८लप्प

'छो + यतू८ छी+य ८ छेय

लम्‌+ य्त्‌न्लभ्‌ +य ८ लम्प

चिकयतू-चे+यपफचेय

॥शथ्रा + लम्‌ + बव्‌र थ्ालम्य

नोकयत्ननेकयक नेय

| उप+लम्‌ +यत्‌ ८ उपलब्ध

आइये थि ।७१६७। उपात्यशंसायाप्‌ ।/९६६। लम्‌घादुके पूर्व॑ यदि “श्रा! उपसर्ग हो या प्रशंसायक “उप! उपसर्ग हो और आगे बकारादि प्रत्यप होतो मध्य में नुम्‌ (चरम) दो जाता हे, यथा-डउपज्षम्म्पः साधु; ( साधु प्रशंसनीय द्वोता है। ) प्रशंसा न होने पर--उपलग्ध ( छल-

इना देने योग्य ) रूप बनेगा। झछुद भौर ध्यक्षनान्त धातुएँ जिनमें यत्त्‌ लगता है-पकिशसिचतियतिजनिम्यो यद्वाच्यः | वा० । तक ( इसने )5तक्प | चते (याचने ) 5 चथ ।

शस्‌ ( द्िसायाम ) शस्प । यत्‌ 5 यत्, जन्‌*जन्य |

इनो वा यद्वधश्य बक्तव्यः । वा०। इस+यत_व्वध्य, इन +श्यत_घात्य । (शकिसिह्रोथ |१।१।६६। ) शक +यत, ८ शक््य | सह्‌+यत,+सह्य । गंदमदचरयमश्रा |गदू +यत_गय। मद्‌ +यत _मद्य |चर + यत

सुपसगें ।३॥११०० $ चर्य | यमू+यत वहां करणम्‌ ।३।११०२। बह

ज्यम्प ।

+यत_रवक्च ( वह्य शकथ्म्‌ ) |

अय: स्वामिवैश्ययोः ।3॥१॥१०३॥ शक यतू ८श्र्य ( स्वामी या बैश्य )। आद्षण केश्रथथ में श्राय ( प्राप्तत्यः ) यह श्र दोगा |

अजय संगतमू ३॥११०५।

ण़्के पूरबनप््‌इंनेयर यत्‌ प्रत्यय होगा है श्रौर बद सगत का विशेषण होता है, यया अजयम््‌ (श्रबिनाशि, स्थायि ) सन्नतम्‌ ।

फयपू-मत्यय कदिपय धानुओ्ों में ही कयप्‌ (ये ) लगता हे। क्यप्‌केपूथ धातु का श्रग्तिम

रबर यदि हस्व हो तो उसके याद श्रथांत्‌ घादु और प्रत्यव के मश्य में त्‌ श्रा जाता है, बषा-स्तु+ कप्प्‌5रतु+ त्‌+ य रू स्कुत्य । यर्षें गुण नहीं होता ।

कृदन्त-प्ररुस्ण ( ऋृत्य प्त्यव )

है 2]

पदिष्तुशाखदजुप: क्यप शश१०्ध मजे विभाषा !श! १३) झज्ोडसंज्ञायाप्र शश११₹ विभाषाइइपोर ।शिशा१रुन इ ( जाना )+ क्‍्यप्‌ ८ इत्य (गमनीय )

स्तु +क्यप्‌>स्तुत्य ।शास्‌+क्यप्‌ ८शिष्य | व +क्यप्‌ >जूत्य (वरणीय )। इ + क्यपू

मर ( आरा )इत्त

( श्रादसणीय )।

जुप्‌ + क्यप्‌ >चुप्य ( सेव्य ) । सुज + क्यपू >म्ज्य (पवित्र करने लायक ) | भू-न-क्यप्‌+मृत्य (सेवक )। के +कपपू रे झूत्य । बूप्‌+क्यप्‌ >दृष्य ( सींचने लायक )। हू, भू, झूज्‌ और इप्‌मेक्यप्‌विझल्यसे ही लगता है। क्यप्‌नलगने पर एयत्‌ ग्रतवयलगेगा और इनके रूप का, भार्या, मार्ग्य और वर्ष्य बनेगे ।

ण्यव्‌-प्रत्यये ऋदलोण्यंत्‌ ।श१ १२७

जिन घोतुओं का अन्तिम श्रत्तर ऋ अयवा कोई व्यक्षम हो, उनके उपयस एयत्‌ ( य ) प्रचय लगओ है | इसके पूर्वघाठ के स्वर को बृद्धि होजाती है, यदि उपधा में श्र हो तो उसे आ हो जाता है और कोई अन्य सर हो ठो उसे गुय हो

जाता है। चजोःकुषिस्यतोः ।अश५२। न कादेः ।3श५8॥

गत तथाघितू (घ-इत्‌)प्रत्यय लगने पर पूर्व केचू और जू्‌के स्थान में झू

श्रोर ग्‌क्रमशः हो जाते हैं,ढिन्त यदि पाठ कप से ध्राएम होती हो (जैसे गे) दो यह परिवर्धन न होगा।

ऋषद्ारान्त घातुओं में रप्व प्रधय लगठ है और अन्य स्वरान्त घातुओं में

यत्‌ । क्‍्यप्‌ और यतअसत्ययवालो व्यंजनान्त घातुओं को छोड़कर शेप घालुओं में श्यठप्रत्यय लगता हे । झेदाइरण--

क+सतुल्कूकआासकयल्काब] खजू+एप >म+आर्‌+ग्‌ #यमास्य ( पवित्र करने लायक )

(६उपधा के ऋ फ्रो वृद्धि और जे के स्थान में

पद कशपत्‌>प्‌ +झ्रा+ठ+य८पाख्य ( उपधा के अर यको) दृद्धि ) पचु +एप्त्‌

>प+ आए + क्‌ + य+पाक्य ( पकाने लायफ )

( उपधा के श्र को इद्धि और च्‌को छू)

इंपू+एप्तुतुब्‌+अर्‌+प्‌+य >दर्ष्यं (उपधा के ऋ को गुण )।

ग्रजयाचरुपप्वचर्चंत्न !०३१३६ त्वजेत वाग

यजू ,याच्‌ ,रूच्‌, प्रचच, ऋच और त्यतत_ घातुशों केच और घू कोक्‌

ओर ग्‌ नहीं होता, इनके रूप इस प्रकार दगि--

अश्फ

इहद-अगुवाद-चन्द्रिका

याष्य ( यज्ञ मैं देने योग्य पूज्य )। याब्य ( माँगने योग्य ), रोच्य ( प्रकाश करने योग्य )। अच्य ( पूज्य ), त्याज्य, प्रवाच्य ( अन्य विशेष )॥

भोज्यं मक्त्ये ।॥३।६६। भोग्यमन्यत्त्‌। भोष्यम ( खाले गोग्य ), सोग्यस ( भोग करने थे ग्य )|

यचोज्शब्द्संक्ायाम्‌ ।ज३।६७ दास्यम्‌ ( कथन योग्य ), वाक्य ( पद समूह ) |

ओदाबश्यके ॥३११२८।

श्रावश्यकता के बोध कराने पर उक्लारान्‍्त या ऊकारान्त धातुश्रों में भी सथत्‌ अत्यय लगता है, यधा-श्रू+ श्यत्‌ ८ भाव्य ( श्रवश्य सुनने लायक ) । पू+ ण्यत्‌८पाब्य ( श्रवश्य पवित्र करने लायक ) । यू+ श्यद्‌ व्याब्य ( अवश्य मिलाने लायक )॥ लू+ श्यत्‌ ८ लाब्य ( श्रवश्य काटने लायक ) |

चसेस्तत्यत्कर्तरि शिक्ष बाण भव्यगरेयप्रवचनीयोपस्थानीयजन्याज्ान्यापात्या बा ।३॥४६८॥

कृत्य प्रत्यवान्त शब्द प्रायः माववाज्य और कमंबाच्य में ही प्रयुक्त होते ईं, किन्द कुछ इत्मात्त शब्द करतृवाच्य में भी प्र4क्त होते हैं,यथा--

बसू +तव्य > बास्तब्यः (दसने वाला ) | भू+ यत्‌ ८ भव्य: ( होने वाला ) | गै+यत्‌ ८ गेयः ( ग्रानेवाला ) ।

प्रवच+श्रामीयर्‌>प्रवचनीयः ( वक्ता )।

उपस्षा +अनीयर्‌-उपध्यानीयः (निकट खड़ा) होनेवाला ) | जन्‌+ यत्‌रूजन्यः (जनक )॥

आस + श्यत्‌ 5 श्राज्ञान्यः ( तैरनेवाला ) | आपत्‌ + श्यत्‌ 5भ्रापात्यः ( गिरने बाला ) | उपयुक्त शब्द विकल्प से हो करतृवाच्य हैं। कृत्यान्त होने से भाववाब्य तथा फमवाच्य में तो पोते ही हैं, बधा-सब्योध्यं,

मब्यमनेन बा । गेयः साम्नामयम्‌ ( बह खामका गायक है )। शेय॑

सामानेन ( कमबाच्य )।

संरूठ में चनुवाद करो-१-पाठशाला में देर से न पदुँचना चाहिए। २--छात्रों कोसदाचार से शहना घादिए | ३--परिभ्रम करके निन्रांद करना चादिए, भीख माँगना श्रनुमित

कुदन्त प्रकरण ( कृत्य अत्यय )

च्श्द

है । ४-सैनिफओों को देश के लिए प्राण दे देने चादिए्येन ४-स्वार्य केलिए दूसरों कीहानि न करनी चाहिए। ६--छात्रों को प्रातक्लाल उठकर ईश्वर से प्रार्थना करना चाहिए | ७-स्वच्छु भोजन करना और स्वच्छु जल पीना चाहिए।

घ्र-अत्येक नागरिक को अपना इतिदास और भूगोल जानना चाहिए । ६--हमैं आपना कर्तव्य पालन करना चाहिए। १०-न्योग्य पुरुष को ही उपदेश देना चाहिए) ११-हुए के साथ न ठहरना और न जाना ही चाहिए। १९-छातों वा अपने अपने गुरुओं से सन्देद निहत्त करमा चाहिए।

१३--७दा

वही काम

करना चाहिए जो करने के योग्य हो | १४--नोच पुरुष से भी उपदेश ग्रहण करना चाहिए, ( १५--मेरी बात पर ज्रापका थाड़ा भो सन्देह नहीं करना चाहिए । १९६--निर्धन और असहाय मनुष्यों झादेखफर नहीं हँसना चाहिए.। १७--मत्यु

को देखकर हमें जरा भी नहीं दरना चाहिए । १८--हमे श्र जल्दी अपना अध्ययन समाप्त करना चाहिए.।

१६--हमें सदैव दुष्ठों कासग छोड़ना चाहिए, ।

२०--हमें श्रप॑ने गुरजनों को सेवा करनी चाहिए |

(२) ऋत्‌ भत्यय भूठकालिक हृदन्त मूते ।॥२न४। चक्तयतू निछा।(र-६। भूतकाल के कझूत्‌ प्रत्यय मुर्यत

दो हैं--क्त

(त ), क्तवठु

(तवत्‌

)। इन

दोनों प्रत्मर्यों कानाम निष्ठा! भी है। निष्ठा का श्र है समरात्ति'। श्रत क्त और क्तचतु किसी कार्य की समात्ति के सूचक हैं। 'तेन इसिलम! का श्र्थ हुआ कि इसने का काय समाप्त रुआ, इसी प्रकार 'स पुस्तक पढठितवाद! का अर्थ हुआ कि उसने पुस्तक पढ़ डाली--पढ़ने का कार्य समाप्त हुआ । क्त और क्तवठ में 'क और 'उ' का लोप हो जाता है और “त” और “तवत्‌” शेष रह जाते हैं। क्त और क्तवद प्रत्यवान्त शब्दों के रूप तीनों लिंगों और सातों विभत्तियों में विशेष्य केअनुसार चलते हैं। क्त प्रत्ययान्त शब्द पुंछिज्ञ और नपुसक लिज्ष में श्रकारान्व और स्रीलिड्ध में ग्राकारात होते हें । क्वतु प्रत्यवान्त शब्द पुल्लिज्ञ और नपुसकलिंग में त्कारान्त ( घीमत्‌ के समान ) और ख्रोलिज्ध में ईकारान्त ( नदी की माँति )चलते हैं,यथा--

क्त(त) प्रत्ययान्त पद

मम

यु

नपु०

स्वी०

प्रढित

पठिवम्‌

पढिता

गद

सतम्‌

गता

बृह॑दू-अनुवाद-चग्द्रिका

४२०

पुं० *

धातु त्यजू

नपुं०

ब्ी०

त्यक्तम्‌

गद्दीतः

गहीवम्‌

पा सना

प्रातः

मूतम्‌ प्रातम्‌

च्यक्ता शहीता मूता पाता

सस्‍्नातः

स्नाठम्‌

स्नातवा

गच्छू

पृष्ठ

प्््म्‌

प्र्ष्टा

मिद्‌

मिन्नः

मिन्नम्‌

मिन्ना

कृतः

कृतम्‌

छ्ता

त्यक्तः

अह

भूतः

शक्‌

शक्तः

हिच्‌्‌ शीडू मन्‌ शम्र्‌

सिक्तः शयितः मतः

शास्ता

शक्तम्‌ सिक्तम्‌ शयितम्‌ मतम्‌ शान्तमू

शक्ता सिक्ता शयिता मता

शान्ता

क्तवतु (तबत्‌ ) प्रत्ययान्त प्रठितवान्‌

शम्‌

गतवान्‌ त्यक्तपान्‌ गंदीववान्‌, मूतवान्‌ परातवान्‌ स्नातवास्‌ प्रृष्ठवान्‌ भिन्नवान्‌ कृतवान्‌ शक्तबान्‌ सिक्तवान्‌ शयितवास्‌ मतवाम्‌ शान्तवाद

पठितवत्‌ गवबत्‌ त्यक्तवत्‌ शद्वीववेत्‌ भूतबत्‌ पातवत्‌ रनाववत्‌

पृष्ठवत्‌ मिन्नवत्‌ कृतवत्‌

शक्तवत्‌ सिक्तवत्‌ शयितवत्‌ मतबत्‌ शासवत्‌

रदाम्यां निप्वाती नः पूर्वस्थ थ दः ।दरा५रा

प्रठिववती

गतबती त्यक्तवती

गहीतवती मूतबती प्रातवत्ती

स्नातवती प्ृष्ठठती मभिन्नवती कृतवती शक्तवती तिक्तदती

शयितयती मतवती शान्तबती

यदि निष्ठा प्रत्तय ( क्त या क्तवनु ) शमी घातु के पथाव्‌ थार्वें जिसके श्रन्त मैं था दू दो ( घाठ तथा निष्ठा के दीच में 'ई! न थ्रावे ) तो मिष्ठा फेत्‌ के स्थान

में नह जाता दै श्रीर उसके पूर्व फे द्‌की मी न्‌ दो जात है, यथा--

ऋदस्त-प्रकरश ( मूतफालिक कदन्त ) 2 +क्त 5"शांश,

हे+ कबतु

डरे

>शाणयपत्‌ |

जू+क्तनूजीण, जू+कऊबदुरू जोणबद्‌ । मिद्‌+क्त > भिन्न, मिद्‌ +क्तव॒तु >मिन्नदत्‌ |

छिंदु+कऋज दछिन्न, छिंद्‌+क्तवतु ८ दिन्तत्‌ । संयोगादेरावोघातोयंण्वतः ८2३ सयुक्ताक्षुर से आरम्म होने वाली तथा आऊार में अन्ठ होने वाली और यूर्‌ लू ब्‌मेंसे कोई वर्ण रपने वाली घाव के निठ्ा केद्‌ को मी न्‌ हो जाता है, यया-शलान, प्लान, ध्यान, स्थान, गान आदि ।

हपवाद--ख्यात, ध्यात में नहीं होता । शग्यणः सम्प्रसारणम्‌ 0१७५

निष्ठा गरत्वपों केलगने से पूर्व जिन घावओं सें सम्प्रसारण होता है, उनमें मिष्ठा प्रत्यय जुड़ने पर मी सम्प्रसारण होता हे (थश्रर्थात्‌ यदि प्रथम अत्तर य्‌ र्‌ल्‌ य॒ हों तो उनके स्थान में ऋ्मशः इ ऋ लू उ हो जाते हैं), यया--

बस्‌ +क्त 5ऊपित, वस्‌ +क्तयतु 5उपितवत्‌ ॥ बद्‌+क्त उक्त, बद्‌ +क्ततरतु उक्तवत्‌ ।

कर्तरिहत्‌ ।३2।६७। तयोरेव ऋत्यक्तसलयो+३9)»| क्तपनुप्रत्ययान्त शब्द सदैव फरृंबाच्य मे प्रत्युक्त होते हैं, श्रर्थात्‌ कर्ता के विशेषण होते हैं, यया-ख पठितवान्‌ , पठितवतस्तप्य, पठितवत्सु तेपु ॥ खल्‌ तथा इृत्य प्रतयों की ही तरह क्त प्रत्तयय मी कमवाज्य और भाषवाच्य में

अयुक्त होता है, श्र्यात्‌ कम का विश्वेष॒ण होता हे, यया--नलेन दमयन्ती लक्ता, सेन गतम्‌, पठित पुस्तकम्‌ ( पढ़ी हुई पुल्लक

)। परन्तु--

ग्रत्यथोकरमकश्लिपशीदस्थासरसजनरह जोयर्तिम्यश्र (३४७२! गत्यथक घानुओं का ठथा अऊमक धालुओ्नों का 'क्तों कतृवाच्य के अथ में मी प्रयुक्त होता है, यथा--स चलितः, गत., म्लानः

इसी भाँति छिप ,शीह ,स्था, आस ,वस्‌ ,जन्‌ , रुह तथा ज॑ धातुश्रों के क्ान्त राब्द मी क्तृवाच्य का बोध कराते हैँ,यया--

विष्पुशशेषमधिश यितः (विष्णु शेपनाग पर खोये ) ) उमामाशझिशे मदेशः ( शिव ने पावती का आलिंगन किया )।

हरिश्वेकुरुठ मधिप्रितः ( हरि वैकूरुठ में बैठ हैं )। मक्त: रामनवमीमुपोषितः ( मक्त ने रामनवमो को उपवास छिया )।

इसी माँति--गरुडमारूढ+, राममनुजातः आदि |

ध्र्र

बृहदू-अनुवाद-चनिद्रिका

नपुंसके भावे फक्तः ह३३१ १४। € नपुंसक लिंग में क्ताम्त शब्द कभी-कभी उस क्रिया के बताये हुए काय को भी सूचित करता है, यथा--तत्य गतं वरम्‌ (उसका चला जाना 'च्छा है) ! यहाँ गतम्‌

का अर्थ गमन है ) इसी तरह पठितम्‌5पठनम्‌ , सुसम्‌ < स्वापः श्ादि | लिटः कानज्वा ॥१२१०६। काठुश्च ॥२१०७ लिय ( परोक्षभूत ) के अथ का बोध कराने के लिए कानच्‌(श्रान ) और

छठ ( वस्‌)प्रत्यय प्रयुक्त दोते हैं । कानच्‌प्रत्य झ्रात्मनेपदी धातुश्रों के श्रनन्तर

शौर कसु परस्मेपदी धातुओं के श्रन्तर लगता हे। ये प्रत्यय प्रायः वैदिक संश्क्ृत में मिलते हैं,किन्ठु कभमी-कमो लौकिक सहझृत में भी, यया-क्ष्सु कानच्‌

गम दा बच

जाम्मवस्‌ ददियस्‌ ऊचिबस

ददान ऊचान

ना

निनीबसू

निन्‍्यान

हक करू

[वश चकृबस

चेक्राण

इनके रूप तीनों लिज्ञों में ए्यक्‌.ँथक्‌ सशाओ्ं केसमान चलते हैं,यथा-देवो जग्मियान्‌ ( देव गया ) ।

्रेयासि सर्वास्यधिजग्मिवा(त्वम्‌ ( तुमने समस्त श्रच्छी दातें महण की थीं। ) हं तस्थिबासं नगरोपकरठे (नगर के समीप खड़े हुए उसको ) |

इस्छार्थक, पूजार्थक, बुद्धघर्थधक धातुओं से बतमान श्र्थ में भी 'क्त! प्रत्यय होता है, उसमें कर्ता पष्टी विभक्ति में श्रौर कर्म प्रथमा में धोता है, यथा-प्रजानां रामः इष्ट, मतः, पूजितः ( प्रजा के लोग राम को चाइते ईं,मानते हैं, पूजते हैं )।

द्विकमंक घावग्रों से“कर प्र्य गौथ फर्म में, नी, छू, कृपू और वह से मुख्य

कम में और णिजस्त धावश्नों से 'क्! प्रत्य प्रयोग्य कर्ता क थ्रमुतार द्ोताहै,यधाशिष्ये; गुर: शब्दाथे9४: ( शिष्यों ने गु से शब्द का श्र्य पूछा )। देवेन छागः ग्राम॑ नीतः ( देव बफरे फो गाँव ले गया )।

हा

अध्यापकेन छात्र: शास््रमबोधित;--( गुरने छात्र फो शात्र समझाया )॥ अकमक या सक्रमक धालुग्ों से कम॑ को विबद्य न रहने पर 'क्त! अत्यय भाव

820

460%%://0 88:( बच्चा झोया ), लेन कमितम्‌ ( उसने कटा )।

ऋदन्त-ग्रकरण ( मूतकालिक कृदन्त ) ष््त

क्त्बतु

चातु

आचितः अघोतः. छिप्तिः

अरचितवान्‌ अधघोतवान्‌ छिन्नवान्‌

जन ड्प्‌ कम

कतः

ऋूतपान्‌

घा

कौ: क्षीएः.. क्षित्तः

क्लौररवान्‌ छीणवान्‌ ज्षिसवान्‌

दिया निधा आइ

क्रान्तः क्रीतः खातवः गतः

क्रान्तवान्‌ ऋ्ोतवान्‌ खातवान्‌ गतबान्‌

लिह्‌ शम्‌ निन्दू न्नी

गीणः गीतः गहीतः

गीशंवान्‌ गीतवान्‌ ग्ररीवदान्‌

प्त्‌ पी शास्‌

प्राणः, घातः घाठवान्‌ चितः चितदान्‌

चेष्ट्‌ श्नु

ष््त

क्तबतु

जावः

जाववान्‌

द्ष्टः

इष्वान्‌ कृमितयान्‌

कथितः दहितठः विद्विवः निद्वितः आहूव३

हितवान्‌ विहिववान्‌ निद्दितवान्‌

लीढः

लसठटवान्‌

शाःन्तः

शान्तवान्‌

निन्दितः

आहंववान्‌ निन्दितवान्‌

नीतः

सीतवान्‌

पतितः यीतः

पतितवान्‌ पीववान्‌

शिष्ठः चेष्टितः

शिष्टदान्‌ चेप्टतवानू श्रुततान्‌

भ्रुठः

पूजितः..

पूजितवान्‌

सोढदः

सोढवान्‌

द््ष्दः

शट्टवान्‌

स्घ्श्‌

स्ट््टः

बद्धः

बद्धवान

ख्ज्‌

खप्वान्‌ खब्यान्‌

बुद्ध उदितः

बुद्धवान्‌ उदित्वान्‌

स्मि सम

सटः त्मितिः

उक्तः

उक्तवान्‌

सन्‌

विदितवान्‌

स्म्‌

विदितः

सह

डंर३

मिन्नः

मिन्नवान्‌

डितवान्‌, ्वान्‌

लम्‌ शी

तोरः

त्तो्सवान्‌

इन्‌

त्यक्तः ज्ञात: दष्टः दत्त

्वक्तवान्‌ प्राववान्‌ दघ्वान्‌ दवान्‌

दया हट बह क्रम

जित; जीरोः

मु

स्मवृवः

ब्स्‌

स्मितवान्‌

स्वृवदान्‌ मतव्रान्‌ रच्बवान्‌ उपितवान्‌

लब्घवान्‌ शप्ितवान्‌ इतवान्‌

हीनवान्‌ झतदान्‌

ऊदः दान्तः

ऊठवान्‌ कान्तान्‌

संस्कृत में झनुवाद करो--

१--अज्जुन नेउदद्रघ का वघ किया] २--जब ने अपाधियों फ्लो दशढ दिया। रे-राम ने रावण को बाय से मारा। ४-हाथी झइन बन में छोड़ा

डर४ड

बृहदू-अनुवाद-्चन्द्रिका

गश। ५४--बिल्लो ने चूहे कोपकड़ा | ६--कल रात मैं जल्दी सो गया । ७-अद्भद श्रौर वाली का युद्ध हुआ | ८--मैंने जंगल में एक सिंह देखा। ६--श्ात मोहन बाठिका में नहीं आया | १०--ब्याप्न को देखकर बालक बहुत डरा । ११-बालक दिस्तर पर सो गया। १२--बाल्मीकि जी ने बड़े मधुर छुन्दों में रामायण लियी। १३--सबने छृदय से मुरेश की प्रशंसा की। १४--प्रजापति से संसार उसन्न हुआ। १४--रामचन्द्र जी ने लका का राज्य बिमीपण को दिया। १६-आज्ञ उस बालक ने बहुत सुन्दर गाया। १७--जोर की हवा ने पेड़ों को कँंपा

दिया। १८--मूग पानो पीने केलिए तालाब में गया। १६--रात पढ़ते ही चोर महल में घुसा और बहुत-सा धन चुरा लेगया। २०--बोपदेव ने गुर फी सेवा की और सेवा का फल प्राप्त किया ।

बर्तमानकालिक कृदन्त लड़ शतुशानचाबप्रथमासमानाधिकरणे ।३॥२ १६४ तौसतू ।॥२१२७

पढ़ता हुआ ( पढ़ती हुई ), लिखता हुआ ( लिखतो हुई ) श्रादि श्रर्थ को

प्रकट करने के लिए, संस्कृत में श्रतुवाद बरतमान कालिक झृदन्त--शठ श्रीर शानच्‌ प्रत्यपात्त शब्दों सेक्रिया जाता है। इन्हें सत्‌ भीकहते हैं। सत्‌ का श्रर्थ है वर्तमान या विद्यमान। परस्मैयदी घातुओ्ों में शत (श्रत्‌ )भर श्रात्मनेपदी धातुओं में शानच्‌(थ्रान, मान ) प्रत्यय जोड़ते हैं। शतृ-शानचू प्रत्ययान्त शब्द

कर्ता के विशेषण होते हैँ, यथा-३--कदापि नरः खादन्‌ न पठेत्‌ ( मनुष्य खाता हुआ कभी न पढ़े )। २--सः हसन्‌ अवदन्‌ |

५--जल पिवन्‌ न हसेत्‌ ।

३--*दन्‍्ती वाला प्राद पा ६--लजमाना वधू: श्रागच्छति | ४--शयान॑ शिशु मा प्रबोधय | ७--बिलपर्न्ती सीता हृष्ठा लक्मणः विपण्णः सब्ञातः । ५ चर्त ल केप्रथम पुरुष के बहुवचन में प्रत्यय लगने से पहले केवर्तमामका धादुच्नोंगोके जो रूप होता हे (जैसे-पठन्वि-्यद्‌,ददति-दूदू श्रादि )उसी में शत तथा के जोड़ेजाते ईं। यदि धातु के रुप के श्रन्त में श्र हो तो शत (अर) शानच्‌ पूर्व उसका लोप दो जादा है, यदि शानच्‌्षिके श्रकारान्त धातु रूप आवे तो

शानच्‌ ( शान ) के स्थान पर “मान! जुड़ता हे ( श्रानेमुक्‌ ।७३८२| ), यध--

धानु

परस्मै०

मं

गच्छुत्‌

पट

डा टू

पढठनू

द्द्नू कुर्षत्‌

आत्मने०

कमवाच्य

4

गम्यमानः

अर

प्रय्यमानः

ददानः झुर्वाणः

दीयगान:ः क्रियमाणः

श्द

कुदन्त-प्रकरण ( बर्तमानकालिक ऊंदन्त ) नयत्‌

नी

चुर्‌

चोप्यत्‌

पिपडिण्‌(स्नस्त)पिपठियत्‌

घर

नयमानः

नीयमानः

पिएडियमाणः

पिपठिष्यमाश:

चोरयमाणः

चोयमाणः

इुद् परस्मपदों धातुओं के शक्मत्ययान्त# रूप घातु

ञअथ॑

नपुंसकलिठ..

पुल्लिह.

मू

श्र

(होना)

(सुनना)

मवत्‌

मवन्‌ खान.

खण्वती

क्री

(खरीदना)

कीण॒त्‌

क्रीणन्‌

क्रीणती

चिस्त्‌

(सोचना).

चिन्तयत्‌

श््स्‌

(होना)

सत्त्‌

(आत्त करना) आप्लुवत्‌

आप्नुवन्‌

इ्पू्‌

(छा करना) इच्चत्‌ (दँदना)

अच्विष्यत्‌

इच्छुट..

इच्छदी,इच्चुन्ती

कथू

(कहना).

केथयत्‌

कथयन्‌..

कथयन्ती

कूज्‌

(कूजना) . कूजत्‌

कूजनू.

कूजन्ती

(गर्जना) (ूंजना).

गर्जनू. गुज्ञन

गर्जन्ती गुझन्ती

आप

अनु +इप्‌

क्रप्‌ क्रोड्‌

गर्ज' गुल्ल गै

ख्ण्बत्‌

(नाराज होना) कुध्यत्‌ (पोलना) कोडतू (गाना)

ग्रज॑त्‌ गुज्नत्‌

गायत्‌

विन्वयनू. सन्‌

ख्लीलिल्न

मबन्ती

चिन्तवस्ती सती

आप्तुबती

श्रम्विष्यन, अ्रन्विष्यन्ती

क्रुव्यनू.. क्रोडनू.

गायन...

क्रुध्यन्ती क्रीडन्ती

गायन्ती

अशत (अत्‌) प्रत्यवान्त शब्दों के स्नीलिज्ञ के रूर बनाने के लिए भ्वादि, दिवादि, चुरादि और त॒दादि के लूप्रथम पुरुष के बहुबचन मैं प्रत्यय लगाने से जो रूप बनता है, उसके आगे 'ई? जोड़ देते हैं, यथा--गब्छृति, गच्छुतः,

गच्छुन्ति! इत्यादि रूपों में गच्छन्ति +ई>गच्छुन्वी | इसी प्रकार--कुजन्ति +ई८ कूजन्ती, पूजयन्ति +ई#पूजयन्ती, जिगमिपन्ति +-ईःजिगमिपन्ती, हसन्ति+ई ऋइईसन्‍्ती, वदन्ति +ई>वदन्ती । अदादिगयोय ( अदती, रुदतो श्रादि ),स्वादिगणोय (जिखती, श्ूणखती

ग्रादि ), छयादिगणीय ( क्रीखती, प्रोणती आदि ), तनादिगणीय ( कुबेती, तल्वती आदि ) और जुद्दोत्यादिगणीय धाठुओं में (ददती, जद़ती आदि ) ई” जोड़कर ८ए! इयने से स्त्रोलिड् रुप बनते हैं|

अदादिगणीय आकारान्त (मान्द्ी, माठी आदि ) और तुदादिगणोयु (व॒दती,

वुदन्ती आदि ) में विकल्प से न का लोप होता है) ये खत्रीलिज्ञ शब्द नदी की भाँति चलते हैं | (विशेष नियम स्रीपत्यय प्रऊस्ण में देखिए, । )

ड्रेप

बृहदु-अनुवाद-चन्द्रिका

न्रा चल्‌ जाश

(सूँघना) (चलना) (उठना)

जिप्रत्‌ चलत्‌ जाग्रत्‌

जिप्रन्‌ चलन्‌ जाप्रत्‌

जिप्रन्ती चलन्ती जाग्रती

|

(तैरना)

तरत्‌

तरन्‌

करन्ती

दंश

(डसना)

दशत्‌

दशन्‌

दशन्ती

इश(परय्‌ ) (देखना) परश्यत्‌ निन्द्‌ू. [निन्दा करना) निन्दत्‌

पश्यन्‌ निन्दन

बश्यन्ती निन्‍्दन्ती

ड्त्‌ प्रा

(माचना) (पीना)

हत्यत्‌ पिवत्‌

झ्त्यग्‌ पिविन्‌

ख्त्यन्ती पिबन्ती

पूज.

(पूजा करना) पूजयतू

यूजयन्‌

पूजयन्ती

प्रच्छे

(पूछना)

प्च्च्व्‌

प्च्चब्‌

एच्द्ती, एच्डन्ती

मस्त रच्‌

(इबना) (बनाना)

मजत्‌ रचयत्‌

मजन्‌ रचयन्‌

मजती, मजञ्जन्ती रचयन्ती

आ-्ूुई लिख. शक्क्‌

(बढ़ना) (लिखना) (सकना)

आएरोइल लिखत्‌ शक्तुबत्‌

आरोहन्‌ लिखन्‌ शक्तुबन्‌

अआपरोहन्ती लिखती, लिखम्ती शबतु॒बती

सजू

(पैदा करना) सजत्‌

संजन्‌

खजती, खघन्ती

स्था (तिप्ठ) (5हृस्ना)..

विए्ठत्‌

विष्ठन्‌

तिघ्नन्ती

स्प्श्‌ स्व्प

र्शत्‌ स्वपत्‌

स्प्शन्‌ स्वपन्‌

सण्शती-न्ती रबपती

(छूना) (ठोना)

था-हे.

छुत्ाना)

भ्राहयत्‌

आहयद.

आहयन्दी

ईश्‌.

(देखना).

ईदमाणम्‌

ईतमायः

ईच्माणा

कम्यू

(कांपना)

कृम्ममानम्‌_

कम्यमानः

कम्पमाना

जनू... दयू.

(पैदा करना) (दया करना)

जायमानम दषमानम

जॉयमानः दयमानः

जायमाना दयमाना

वन्दू.

(प्रशंसा करना) बन्दमानण्‌

बन्दमानः

बन्दमाना

यूत्‌

(होना)

चतमानम्‌

बतमानः

बतं॑माना

बूघू...

(बढ़ना)

बर्घभामम्‌

चधमानः

बधमाना

ब्यय्‌

(दुःखित होना) व्यथमानम्‌

व्यथमानः

ब्यथमाना

सन्‌

(मानना)

सन्‍्यसानंस

सन्वसानः

सन्‍्यमाना

यत्‌ लमू

(यलन करना) (दाना)

यतमानम्‌ लममानम्‌.

यतमानः लममानः

यतमांना लमभमाना

सेब.

(सेदा करना) सेदमानम्‌ . सेवमानः

सैवमाना

आत्मनेपदी धातुओं के शानचू प्रत्ययान्त शब्द

ड२७

छूदन्त प्रकरण (शत शानच्‌)

उभयपदी धातुओं के शव्‌ ओर शानच्‌ भत्ययान्त शब्द खीलिड्ने। शानचू नपुंसकलिड् पुल्लिड्. चातु छिदू (कादना).. (जानना )

ज्ञा

नी जू लिह था

चिंदव्‌

छ््न्दिन्‌

छिन्दवी.

ज्ञानत्‌

जानन्‌

जानती

नयन्‌ खुबन्‌ लिहन्‌ दघन्‌

(ले जाना ) नयत्‌ खशुबत्‌ (कहना) (चाटना ) लिहत्‌ दघव्‌ (रफना)

नयन्ती. ब्रुवती लिएती दघती..

(छिन्दान)) ( जानानः )

( नयमानः ) ( बुवाणः ) ( लिहानः ) (दघानः )

इंदाला ।आरपर।

आस धातुके अनन्तर शानच्‌के'आ्ान' को ईन! हो जाता है,यथा-श्रास्‌+

शानच्‌ ८ आसान



विदेश्शतुबरु: ।» श३े३॥ विदू धातु से शव प्रत्यय होता दे और उसी अर्थ मैं प्रिफल्य से बसु! श्देशा हो जाता दै, यथा-वरिद्‌ू >शतृ्‌ 5विदत्‌ , विद्‌+बसु८पिद्रसु । जी लिज्ञ में दिदुपी होगा |

पूड्यजोः शानन्‌ शिरा१र्दा। पू तथा पज धावश्रों के बाद वर्तमान का अ्घ प्रकट करने के लिए शानस्‌ प्रत्यय लगता है, यथा-पू + शानन्‌5पवमान-। यज्‌+शानन्‌८यजनान-। ताच्छील्यवयोवचनशक्तिपु चानश्‌।रे।श१+६। परस्मैपदी तथा आत्मनेपदी धातुओं में किसी के स्वभाव, उम्र, सामथ्य का बोध करामे फे लिए, यह प्रत्मव जोड़ा जाता है, यथा -भोग भुझ्ञान: ( भोग भोगने के स्वभाव वाला। ) कवच विश्राणः (कवच घासण करने का उम्र वाला--तरुण )। आयु निष्नान' ( शत्रु झो मारने की शक्ति वाला )।

संस्कृत मे अनुवाद करो-३--मोहन दौड़ता हुआ्ा गिर पड़ा। २->डुष्ट जानता छुआ भी बुर काम करता है। ३--लड़ते हुए |रुपाही ने युद्ध में वीरतापूतक भ्राण दे दिये ।४--एयाम ग्रवल्य करता हुआएे भी इम्विद्न में फ्रेच हो यया / ४--सिंह की डर से कॉपता डुड्ा बच्चा माँ को गोद में चिपक गयोा। ६यइ कहते-कहते दमयन्ती का गला

मर आया । ७--दयालु राजा ने एक काँपती हुई रमणी को देखा | ८--कुचे को मौंकते हुए सुनकर चोर भाग गये । ६-.-परत्थरकगड़ते हुए किसान राजा के पास

गये । १०--पघद दौड़ता हुआ पन पढ़े रहा है।

११--णल॒ पौवे हुए मेड़िये को

गोबिन्द मे लाठो से मारा | ११--राम मागत हुआ गया । १२--बह हँसता इुच्चा

अर

बूहदू-अनुवाद-वन्द्रिका

काम करता है। १३--वे बालक पढ़ते हुए कहीं जा रहे हैं। १४--सत्य जानता

हुआ मी श्ररुत्य बोलता है । १५--चोर अन्वेरे को देखता हुआ चोरी करता है। १६--पापरी धर्म को देखते हुए. भी पाप करते हैं । १७--रावण ने रामचन्द्र जो को ईश्वर जानते हुऐ भी उन्हे सीता नहीं दी । १८-गोपाल हँसता हुआ पश्राचाय से

क्या पूछता है ! १६--गाँव को जाते हुए किसान ने एक साँप को मार डाला,।

भविष्यस्कालिक कऊंदन्त खुटः सद्मा १३१४ “वाला” का श्गुवाद संरकृत में भविष्यतृकालवाचक सत्‌ ( शत्‌ एवं

शानच्‌)-

प्रत्ययान्त शब्दों से किया जाता है। भविष्य ( लूट)के प्रथम पुरुष के बहुबचन में जो रूप होता है उसके श्रनन्तर ये प्रत्यय जोड़े जाते हैं, यथा--भविष्यन्ति के भविष्य में अत और “भान! जोड़ कर भविष्यत्‌ और भविष्यमाण रूप हो जाते हैं। इसी कारण इन प्रत्ययों को ष्यद्‌ और ष्यमाण भी कहते हैं। १--हिमालयशिसरमारोकयन्‌ खाइसी वौरः तेनलिंहोउस्ति ( हिमालय की चोटी पर चढ़ने वाला साइसी बीर तेनसिंह है | ) २३--मासिकवेतन प्राप्स्यन्‌ सेवकः श्रतीब प्रसन्नः इश्यते |

(मासिक तनस्वाह पाने वाला नोकर बहुत खुश दीखता है )। इ--विदेश गमिष्यन्‌ गोपाल पितरौ प्राणमत्‌ । (विदेश जाने वाले मोगल ने अपने माता-पिता को प्रणाम किया ) | ४--पादकन्दुकेन क्रोडिप्यन्तः छात्रा: क्रीडत्षेत्र गच्छन्ति

( इटबाल सेलने थाले छात्र खेल के मैदान में जा रहे हैं )। ५--युदक्षेत्रे योत्स्यमानाः सैनिकाः सम्बन्धिन श्राएच्छ न्ति| (लड़ाई के मैदान में लड़तेवाले छिपाद्दी श्रपने सम्बन्धियों से

परस्मैपदी ( स्यतू)

आत्मनेपदी ( स्यमान )

मू>-भविष्यत्‌ गरम्ू--गमिप्यत्‌ स्था-स्थास्वद्‌ दर्शि--दशगिष्यतू. मू--मरिष्यत्‌

जनु--जनिष्यमाणः सह---सदिध्यमाणः ब्ययू--ब्यथगरिष्यमाणः श्र+स्था--प्रस्पास्यमान:. सुधू -्योत्यमामः

विदा लेते हैं )। उभयपदी ( स्यतृ, स्यमान ) कृू--करिष्यतू-करिप्यमाणः दा-दास्यतू--दास्यमानः ग्रह-य्रद्दी धतू-प्रद्दीष्यमाणः नी--नेष्यत्‌--नेष्यमाणः शा-शास्पत्‌ू--शास्पमाने+

हन:-ह निष्पत्‌ लम्‌ -लप्स्यमानः * छिद-छेत्स्यत्‌-लैत्स्यमानः कर्मंवाच्य में भविष्यद्‌ श्रर्थ में घातुश्रों सेस्यमान! प्रत्यय होता है और हमान' प्रस्यवान्त पद फर्म फे विशेषण हो जाते हैं, यधा-रामेश सेविच्यमाणः

विश्वामित्र।। सीतप्रा सेविष्प्रमाणा भ्रसन्‍्धती | अ्र्मामिः मोद्प्रमायानि फलानि |

कृदन्त-प्रकरण ( भविष्यत्तालिक )

है

्थदू! और 'स्पमान! प्रत्ययों से बने हुए शब्द विशेषण होते हैं, इसलिए: विशेष्य के श्रमुसार उनमें लिज्न, विभक्ति श्रौर वचन द्ोते हैं, यथा--वरंयंमाणं बचनम्‌ , वध्यमाणेन वचनेन, वच्यमाणे चचने इत्यादि ।

पूवंकालिक क्रिया (क्‍या और ल्यप्‌ ) समानकतु कयोः पूंकाले ।॥४२१ पढ़कर), 'लिखकर', पाकर), 'पीकर! आदि पूबकालिक कृदन्तों का श्रतुवाद सस्कृत में कला ( त्वा ) प्रययान्त शब्दों सेकिया जाता है! ऐसे स्यलों पर एक किया के आरम्भ होने पर दूसरी क्रिया आरम्म हो जाती है। अतः इसे पूवेकालिक क्रिया कहते हैं, परन्तु पूवकालिक क्रिया औ्रौर उसके साथ वाली क्रिया का एक ही कर्ता होना चाहिए, यथा--रामो रावण इत्वा श्रयोध्यामाजगास ।

समासेउनब्यूबेंक्त्वो ल्यप्‌ ।500३७ यदि धाठु के पूर्व कोई उपसर्ग लगा हो तो 'कत्वाः के स्थान में 'ल्यपर (ये )

प्रत्यय होता है, परन्दु नज्‌ के पूर्व होने पर नहीं होता । डस्वस्य पिति कृति तुकू।९१०१ यदि यह “य' हस्व स्वर के बाद शआ्राता है दो इसके पूर्वतू! लगाकर इसका

रूप तय! हो जाता है, यथा--(

स+चि+यय । इ, 5, ऋ+ ल्पप्‌ + था ऋषल्‍्यप्‌ 5इय ,यधा-( ब्राकारान्त )उत्‌ू-स्था + यप्‌ 5उत्थाय, श्रा--दा +-यप्‌5श्रादाय ( ईका-

राम्व ) श्रा-नी +यप्‌ ८श्रानीय, बि--की #यप्‌ 5विक्रीय / ( ऊकारान्त ) अनु-भू+ यप्‌ +अनुमूव, प्र-सू+यप्‌ >प्रयूय । ( च्बिप्रत्ययान्त ) मलिनी + भू+यप्‌ 5मत्षिनी भूय। स्थिरी+सू+यप्‌5स्थिरीभूप | (इकारान्त ) वि+ जि+यप्‌८ विजित्, श्रवि--इ+यप्‌ 5अधीत्य | (उकारान्त ) प्रख्ुक यप्‌ «प्रस्तुत्य, प्रतिभ्रु + यप्‌ «प्रति-भुव्य । ( ऋकारान्त ) अ्धि--छू + यप्‌ ८श्र धि-

कृत्य, श्रनु--स+यप्‌ ८श्रनुसत्य। (ऋकारान्त ) श्रव--तृ +यप्‌ 5श्रवतीय दि--क्‌ + यप्‌ रूविकीय । वचच, बदू, वस्‌, वह, स्वप्‌ धातुश्रों के “यः के स्थान में 'उ' हो जाता है। शी के स्थान में शयू, हे >हू, ग्रहू >गहू, प्रच्छ एच्छू ,जैतेजन््र--घचू+यपू+

प्रोच्य, श्रनु-बद्‌ + यप्‌5श्रबूद। श्रधि--वस्‌+यप्‌5अषुष्प, सम-प्रहू+यू #संग्रह्म, सम्‌--शी + यप्‌८संशय्य ।

लान्तनशां विभाषा ३४३२



जान्त धातुओं भ्रौर नश्‌ घाह के बाद बत्वा जुड़ने सेविकल्प से 'न! का लोप हो जाता है, यथा-रज््‌ + कला रक्‍्त्वा, रइकत्वा, भुञ्न+त्त्वार मुक्त्या, भुद्त्वा। नशू + क्ता रनट्ठा, नट्टा तथा नशित्त्वा

ल्यपि हघुपूर्वात्‌ 0१६ शिजन्त तथा चुरादिगणीय घातुओं की उपभा में यदि हस्व स्वर हो तो उनमें ल्‍्पप्‌ के पूरे श्रयू जोड़ दिया जाता है, यथा-प्रणम्‌ (शिजस्त )+ श्रय्‌+ल्यप्‌ य

प्रणमय्य, परन्तु प्रचोर +य प्रचोय ( प्रचोरय्य नहीं बनता )।

विभाषाप/ हि शशण आप घातुके श्रनम्तर छड़ने पर विकल्प से 'श्रय! श्रादेश होता है, यधा-प्र+ आप +ल्‍्वप्‌ 5प्रापस्य, प्राप्य

अल॑ खल्दोः प्रतिपेघयोः प्राचां कत्वा ।३॥४।१८। कत्वान्त तथा ल्यवन्त क्रिया जब॒'्रलम! तथा 'सन्न' शब्द के साथ द्ाती है तब पूवकाल का बोध नहीं कराती, श्रप्रितु प्रतिपेष का भाव यूचित करती है, यथा--श्व॒ल॑ इत्वा (मठ करो, दस ), पीला सल्लु (मत प्रौश्ो ), विजित्य खज ( मठ जीती, बस ), श्रवमत्यालम्‌ ( श्रपमान मत करो, बस )।

झृदन्त प्रकरण ( कला और ल्‍्यपए्‌)

ह्े१

प्रुझुय धातुओं के क्या और रयप के रूप-चातु कत्वा अप्‌ आ्राप्सा

ल्यप्‌ प्राप्य सम्राप्य

घाठु

इझइत्वा

अधीत्य

क्लिप्

ईक् ईछित्वा

निरीक्षय

गण बे कक

द्श्‌ दमा घा दिस्वा नम्‌ नत्वा

परीच्य सदइश्य

विधाय प्रण्त्य प्रणम्प

भी. नीता

गम गत्ता ] प्रन्धप्रन्थित्वा

प्र रहीवा

आनीय

कक

क्री

हु ड्डे चिन्ति

छ्दि शा

आगत्य

खआागम्य संग्रध्य

!सयश्ह्य

5 द्श्‌ज्

क्त्वा क्त्बा क्नीत्ा

ल्यप्‌ अनुकृत्य वितीय

क्िप्वा.

निन्तिष्य

गशणयित्वा कील द्त्वि हलवा चिन्तयित्वा छित्वा

विशय्य विकीये विहाय आहूय सचिन्त्य विच्छिदय

श्त्वा

विज्ञाय

|प्रतित्ताय

तीखा

स्वीर्य

द्ष्ठा

सदश्य

र्ढ्वा म्त्ा

आह समूय

स्यक्ला

परित्यज्य

घ्ा धात्या

अनुण्द्य समामाय

ची. चित्ता पत्‌ पतित्वा

रचित्य निपत्य

लंभू लब्ध्वा चिखू लिखित्या बस उपिला शम्र शमित्वा खत खसिला शी शयित्ा लप्‌ लप्त्वा

उपलम्ध

मधित्वा

समथ्य

विलिस्य

रदृष्वा

श्रयददृष्य

अध्युष्य निशम्य

सिकत्वा.

अच्छु एृट्ठा

बद्‌ उदित्वा

सघ्च्छय अबुद्धय ग््नूय

भज्ज्‌ मइक्ला

प्रमण्य

पा पीला

बुघ्‌ बुद्ध्वा

विश्वस्य अविशय्य विलप्य निपाय

अमित्वा

आता | विश्वम्य मत्वा अवमत्य

सुध्दूवा. स्थित्वा

निषिच्य

विसुज्य उत्पाय

स्घृष्ठा

उपस्पृश्य

स्मृत्वा द्च्त्वा इसित्वा.. छ्च्त्वा विष्या ब्रिल्ला.

विस्मृत्य निहृत्य विद्ृस्य सदृत्य भविश्य आशित्य

घर

बृहदू-अनुवाद-्चन्द्रिका

संस्कृद में अनुवाद करो-१--व्याध् तरकस से बाण निकाल कर मोर को मारता है। २-हें बालक !त्‌ (सह को देखकर क्यों डरता है ! ३--माता पिठा को प्रणाम कर पुत्र विदेश चला शया | ४-फाश्मीर जाकर हम बहुत सुन्दर दृश्य देखते हैं |५--मैं कपड़े पहन कर श्रमी झापके साथ चलूँगा। ६--व्याध चावलों को विखेर कर कबूतरों को भारेगा। ७--अति्ा करके कह्दो कि मैं सत्य बोलूँगा । ८---महाराज दशरथ राम के लिए दिलाप करके मर गये |९---ईैश्वरचन्द्र वियासागर पढ़कर सुकूलों के इन्स्पे-

बटर हो गये । १०--कौत्सने अपने अध्ययन को समाम्र फर गुरु से दक्तिणा लेने का आग्रद्द किया । ११--रावण को मार कर श्रीराम ने लंका का राज्य विभीषण को दिया। १२--चौर घर में घुस कर माल के साथ भाग गये। १३--भ्रीसम राउसों कोजीत कर सीता के खाथ अ्रयोष्या लौटे। १४--बह धन इकंडा करके उसे दूसरों के लिए छीड़कर सन्यासी इुआ 8 १५--छात्रो, पुस्तक खोलकर पढ़ों ।

खुल मित्यय आभीर्ण्ये णमुल्‌ घ६2२२। नित्यवीप्सयोः ।208। किसी क्रिया के बार-बार करने के भाव को प्रकट फरने के लिए कत्वा प्रत्ययान्‍्त शब्द श्रथवा णसुलूप्रत्ययान्त शब्द प्रयुक्त दोता है थ्ौर वह शब्द दो बार रेखा जाता है, यथा-भक्तः स्मारं स्मारं प्रणमति शिवम्‌ (मसक्त बार-बार याद करके शिव फो प्रणाम करता है )। यहाँ याद करने की क्रिया बार-बार हुईं है। इसी प्रकार-भक्त: रमृत्वा स्मृत्या प्रणमति शिवम्‌| याद करने की क्रिया प्रणाम करने की किया से पूष होती है |इसी श्रकार-गमू--

ग्राम

गामम्‌

लमू--

लाम॑

लाममू

»

लब्प्वां

जेन्‍ध्वा

,,

पाकर

पा-भुजू-

पाय भोज

पायमू मोजमू

श्रथबवा

» »

ग्रत्मा

पीखा पीला सुक्‍क्ता भुकल्या

गला

बार-बार जाकर

,, ,

पीकर खाकर

भु-जाय--

भाव॑ जागर॑

भाव जागरम्‌

»# सुत्रा थुत्तां हा + . छाःगरित्वाजागरिया ,,.

सुनकर जमकर

घातु में णमुलू का श्रम जोड़ दिया जाता है। अकारान्त थातु में श्र और शमुत्तकेअम के बीच में 'य' भा जाता है, यधा--या + अम्‌ नासिकन्धमः

६ नासिकाध्मायवीनि

)।



च्रर

बृहदू-अजुवाद-चख्धिका

विशेष--हित्यवब्ययत्प ६ ३॥१६। खिदन्त शब्दों के आगे आने पर पूर्वशब्द का दीप॑ंस्वर हस्व हो जाता है और फिर झुम आगम द्ोता है। झवः मासिका का शाकार ऋकार में बदल गया ।

[ खश्‌ प्रथय | आत्ममाने खश्च ।शिशटश अपने आप की समझने के अर्थ मे खश्‌ प्रत्यय द्ोता है, यथा-परिडत॑मन्यः ( पशण्डितमात्मान मन्यते ), नरंसन्‍्यः, लियंमन्‍्यः, कालिसन्या | ( जश्‌प्रत्यय) असूयेललादयोद शितपोः ।शरारेक्ष दृश्‌ के पहले असूय, और तप के पहले ललाट शब्द आने पर खश प्रत्यय द्ोता है,यया-सर्य नपश्यन्तीति असूयपश्या; ( राजदारा: ), ललाद तपतीति ललादंतप ( यय+ )।

(सथप्रत्यय ) दिध्यरपोस्तुदः ।३॥३॥३५|

यदि विश्व और अझप्‌ददूघाव के पूर्तकम होकर श्रार्वें तो खशूप्रत्यपलगठा है, यथा--विधुंददः( विध्वुं तदत्तीति ), श्ररुन्तुद: आदि |

(खश्‌ प्रयप ) वहा भर लिए (शितइेस

यदि वह ( स्कन्य ) और श्रश्न, लिदधातु के पूर्वकर्म होकर श्ार्वें तो खश सा

प्रत्यय होता है, यया--्रश्न॑ लेदीति अ्रश्न॑लिहों बायुः। वहूं (स्कन्घं ) लेदौति बहंलिदो गोः |

( जथ्‌प्रतय ) उदिकृद्रे रुजिबद्ो३ ३॥३९॥ यदि कूल शब्द उत्पूवंक दजू औरवह धावओ्रों के पूर्वकर्म छ्ोकर श्ादे तो खश्‌ प्रत्यय लगता है, यथा--कूल+उत्‌+ दजू4खश्‌>कूलमुद्द॒णः,

इसी

तरद कूलमुद्रहई। [छचू(श्र) प्रत्यय ]प्रियवशे बद; खच्‌।३२३८॥ यदि प्रितन और वश शब्द बद्‌ धातु क पूर्व क्रय में श्रार्यें ठोबदू धाठु मैं खच ( श्र) प्रध्यय लगवा है, यथा--प्रिय +म+ वद्‌ +खच्‌ >प्रियंवदः (प्रिय चद॒तीति ), वश +म्‌+वद्‌ +खच्‌ >वशवदः ) ५ ( खच्‌ग्ल्थथ) संज्ञायां भतृशुजिपारिसहितविदम: ।शिरा४३गमश्च शिर।४ज

५ यदि कोई सजा शब्द मू, तू, इ, जि, घू, सह, तप्‌ ,दम तथागम्‌ धातु के पूर्ड

फर्मेस्‍्प में श्राये वोखच्‌(प )प्रत्यय लगता है, यथा-विश्व +म्‌+सृ+ खच्‌+छाप७ विरवम्मय (पृथ्वी ) विश्व॑ विमवीति । पति + म्‌ू+ ३ + खब्‌ ++टाप्‌ू5एविवय ( कन्या ) पर्ति बरतीवि ।

रप+म्+त्‌+खच्‌+रयन्तर ( साम ) रपं तरतीति | शत्रु+म+ जि+ सच -शयुज्ञवः (गज। ) एक हाथी का नाम | सुग+म्‌+ भू +सचू८सुगन्वरः ( एक पर्वठ का नाम ) |

ऋदम्त-प्रकरण ( खश-खज़्‌ प्रत्यय )

६4.24

आरि+ म्‌--दम + खच्‌ +अर्तिदिमः ( एक राजा का नाम ))

शन्चु +म्‌+सद +सच्‌ ८शब्रुंसह ( एक राजा का नाम )। सुत + म्‌-- गम + एच ८सुतगमः

(खच्‌ प्रथय ) हिपत्परयोस्तापे ।३ररेघ्

यदि द्विपत और पर शब्द द्ाप्‌ (तप का णिजन्त रूप ) के कर्म रूप में आरा

वो ताप के आये खचू ग्रत्यय लगेगा, यथा--द्विपन्दपः,

परन्तपः ६ द्विपन्त पर

था तापयवीति )।

यू प्रत्यय ) बाचि यमो ब्ते ३२४० बाकू शब्द के उपपद द्वोने पर यम धातु के आगे ब्रव का अ्रथ प्रकट करने में खच् प्रत्यय लगता है, यथा--बाच यमः ( वाच यच्छुतीति ) मौनद्रती, ब्रत का अर्थ अमीष्ट न होने पर वाग्यामः ( वाचं यच्छुतीति )रूप बनेगा ।

(4सच्‌ और अण प्रत्यय ) क्षेमप्रियमद्र 5ण

चशराधश

यदि क्षेम, प्रिय और मद्र शब्द क घातु के उपपद रहें तो खच्‌ प्रत्यय॑

और श्रण्‌प्रथ्यलगते हैं, यथ/--क्षेमइ्रः--क्षेमकारः,

प्रियज्ु--प्रियकार:, मद्रं-

करः--मद्रकारः । क्षेमं करोति इति क्षेमड्डरः में 'क्षेम! 'कृ? का कम था। जब कर्म की विवज्षा न हो तो 'शेषे पष्ठी' सेपष्ठी विभक्ति मेहोगा और क्षेमकरः शब्द बनेगा--करोतीति; क। (झू + अच्‌)छ्षेभस्य कर क्षेमकरः, यथा--अ्रल्वास्म्मा: क्षेमकराः |

[ कम्‌(श्र )और क्रित्‌ प्रत्यय ) त्यदादिपु दशो5नालोचने कश्च ३२६० ससमानान्ययोश्चेति वाच्यम्‌ ।वाण क्सो5पि बाच्य+ बाण यदि ल्द्‌, तदू, यद्‌, एतद्‌ , इदम्‌, प्रदल्‌, एक, दि, युष्मद, श्रस्मद्‌ , भवत्‌ , किम्‌ , अन्य तथा समान शब्दों में से कोई दृश्‌ घाठु के पूर्थ रे और दशः

धातु का देखना अर्थ न हो तो कज््‌ ( अर ) प्रत्यय लगता है श्रौर विकल्प से किन प्रत्यय भी लगता हे, यथा--तद्‌ +दृश्‌+कज्‌>ताइशः, इसी तरहइ--त्याइश+, याहशः, एताइशः, सदृशः, श्रन्याइशः, यादशः आदि [ इसी श्रर्थ में कस प्रत्यय मो लगता है, उसका स शेप रहता है, क्विन्‌ का लोप

जाता है, तद्‌+डश्‌+ क्विन्‌>वाहश्‌, तद्‌+दृश+कस

८ताइक्षस, अन्य +

इश्‌+ क्विन्‌-अ्रन्याइश ,अन्य + दश्‌ + कस उप्णमोजी (उप्यं भौक्तूं शीलमस्येति ), शीतभोजी, श्रामिपभोजी, शाफाद्ारी, झासाद्वारी, मिथ्यावादी, मिप्रद्रोद्दी, मनोडारी ।

कृदन्त-प्ररस्ण ( खिनि-खश-ड-अत्यय )

इड

यदि साधु तथा ब्ह्मन्‌ शब्द झ तथा व्‌ के पूर्वआयें तो स्वभाव न होने पर भी णिनि प्रत्यय लगता है, यथा--साधुकारी, ब्रह्मवादी ।

( खिनि ) कर्तेय्यु पनाने(शेर उपमान पूवंमें होने पर शिनि प्रत्यय होता है, यथा--उष्टू इव क्रोशति उष्र क्रोशी, ध्वाडछरावी |

( णिनि ) ब्रते ।॥२5०॥ ब्रत में शिनि प्रत्यय होता है, यथा-स्थारिडलशायी ।

( खिनि प्रत्यय )सनम ।शश८१ आत्ममाने खश्च शेर, मन्‌केपहले यदि कोई सुबन्त रदे तो स्वभाव रहे या न रहे शिनि प्रत्यय होता है, यथा-परिडत +मन्‌+ शिनि ८ परिडतमानी ( परिडतमात्मानं मन्‍्यते

)॥ इसी

तरह दर्शनीयमानी । अपने आप को कुछ मानने के अर्थ में खशप्रत्यय भी होता है, यधा-परिडत +मन्‌+परिडतम्मन्यः ( खिदन्त शब्द के पहले मं लगता है |)

(ड प्रत्यय ) अन्‍्तात्यन्ताबवदूरपास्सवोनन्तेषु डः शराध्। स्वत्रपतन्नयोरुप-

धंख्यानम्‌ ।वा० उससो लोपश्च ।बा० सुदुरोधिकरणे (वाण

सु तथा दुः के बाद गम धातु में ड प्रत्यय लगता है यदि अन्त, अत्यन्त, भ्रध्व, दूर, पार, सर्व, ्रनन्त, सर्वत्र, पन्न, उरसूऔरअधिकरण श्र्थ हो, यया--अन्तगः, अत्यन्तग:, श्रष्वगः, दूरण, पारगः, सवंगः, अनम्तगः, सवन्गः, पतञ्नगः, उरगः,

(स्‌ कालोप हो गया), झुगः, (सुखेन गच्छवीति ), दुर्ग: ( किला ) हुश्खेन गच्छुत्यत्रेति |

( ड प्रत्यय ) सप्तम्यां जनेड, ।॥२६७ पद्चम्यामजातो ।ह॥२६८। उपसर्ग व संज्ञायाम ।श२।६६। अनो कर्मशि ।३११००। अन्येष्वपि दृश्यते ।३२१०१ सप्तम्यन्त पद पहले रहने पर जन्‌ घाठु में ड ( ञ्न ) प्रत्यय लगता है, यथा-लवपुरे जात: - लवपुरजः | सरसिजप्र्‌-सरोजम्‌ । मन्दुराया जातः 5 मन्दुरजः ।

जातिमिन्न पश्चम्यन्द शब्द उपपद होने पर भी ड प्रत्यय लगता है, यथा-सह्काराजातः सस्कारजः | उपसग पूवक जन्‌धातु में भीड लगता हे, यदि निष्पन्न शब्द किसी नोम फा विशेष हो, यया-प्रजन्‌ + ड + दाप्‌ >प्रजा |

श्रु + जन्‌केपूर्वकम उपपद होने पर भी ड लगता है, यथा--पुमनुजा ८ पुमाउ्मनुरष्य

जाता

[

न्य उपपदों के पूर्व होने पर भो जन मेंडलगता है, यया-अजः,

द्विजः थ्रादि |

डर

डृहदू-अजुवाद-चन्द्रिका

दिन (व) प्रसय]आक्वेस्तच्छीलतड्मतत्साघुकारिपु (शरा१३४ तन शिशशह्षा शील, धम तथा अच्छी तरद बनाना के माव अतलाने के लिए धातु में तृब्‌

(व ) प्रयय लगाया जाता है, यथा--क+द्‌+ कत | कर्ता कयम्‌ ( जो चटाई बनाया करता है, ।जिसका धर्म चटाई बनाना है,

जो भ्रच्छी तरह चटाई बनाता है।

[ इस (भ्रक ) ध्रत्यय ] निन्‍्दृदिसक्तिशखादविनाशपरिक्तिपपरिरटपरिवादिव्या-

भाषासूयों बुब।शथ१४६। शील, धम तथा अच्छी तरह करने के अ्रय में निन्‍दू, हिंस, क्लिश, खाद, विनाश, परिक्तिप्‌ ,परिरद्‌,परियाद, ब्ये, भाप, श्रयूयर घातुओ्रों में डुम्‌(श्रक ) अत्यय लगवा है, यया--

निंदक:, हिंसक), क्लेशकः, खादक:, विनाशकः, परित्तेषकः, परिस्वकः, परिबादकः ब्यायक:, मापकः, असूबकः ।

[ बच (थ्रन ) अल्यय ] घल्नशब्दर्थादकर्मकायूचू।॥२१४८। झुधम्डार्थे-

भ्यश्च ३२१५१

शील श्ादि श्र॒थों में चलना, शब्द करना ब्र॒र्थवाली भ्रकमंक भावों में तथा

रपकरना, श्राभूषित करना श्र्थों बालो धाठझ्रों में युच्‌(अन ) प्रत्यय लगता ५ यथा--

चल+बुचू (थन कस +-युच्‌( श्रन

)5 चलनः ( चलितुं शीलमस्प से चलनः )। )5 कस्नः ( कमितुं शीलमत्य स कसनः )।

शब्द +युच्‌(भ्रन )5 शब्दनः ( शब्दं कु शीलमस्य से; )|

इसी तरइ--क्रोधनः, रोपणः, मएडनः, मूपणः श्यादि शब्द मनुष्य वाचक हैं। झुक! पढिवा विधाम--यहाँ पठ्‌सकरमक धाठ द्ोने के कारण युच्‌प्रत्ययनहीं हुश्ा, अपित तृत्‌प्रत्यय लगा ।

[ प्राकम्‌ ( श्राक ) अत्यय ] जल्पमिक्तकुझलुस्टवृड: पाकन्‌ शिरा१०७ा शील, घम, साधुकारिता अर्थ में जल्पू ,मित्त्‌,कुट्ट, ( कायना ), छण्द_ ( लूटना ) तथा हू ( चाहना ) धाठुओं में पाकनू (अआरक ) प्रत्मय लगता दे,

यथा--जल्पू +प्रकन्‌ ( श्राक ) > जल्पाकः ( बहुत बोलने बाला ), मिद्दाकः (मंग्ता), कुद्याकः (काटने बाला), छुस्ठाकः (लूटने वाला), वराकः (बेचारा) । ं [ श्थच्‌ (इष्णु)प्रत्य ) अलडकृत निराइुमप्रजनोस्पचोत्पतोन्मद्रुच्यपत्रपहसुवृधुसदचर इष्युच्‌ ३२१३६। * श्लंक, नियक्ष, अजन्‌ ,उसचू ,उसत्‌ , उन्‍्मद्‌, रुच्‌ , अ्रप-श्रप्‌,बत्‌ , इधू,

चर इन धातुओ्नों में इसी श्र मेंशप्णुच्‌(इष्णु )मत्थय लगता है, यपा--

कदन्त प्रकरण (उणादि प्रत्यय )

डे

अलक्ष +इंष्णुच्‌(इप्णु )>अलकरिपण* ( श्रलइृत करनेवाला ) | निराकरिषपु ( निरादर करने वाला ), प्रजनिध्णु ( उत्पादक )॥ उल्नचिप्णु (पाक ), उसतिष्शु (ऊपर उठाने बाला )। उमदिषए ( उन्मत्त होनेवाला), रोविप्य ( रोचक )। अपजपिष्णु ( लजाशाल ), वतिष्णु ( चबमान )! वर्षिष्णु (वर्धनशील ), सहिष्णु ( सहनशील )। चरिष्णु ( भ्रमण करने वाला )

( भ्ाछुच्‌ प्त्यय) सशहिगृह्िपतिदयिनिद्रातन्द्राश्रद्धाम्य भालुचू ।३॥२९०८।

शीडो वाच्य बाग



स्वृह , ग्रह ,पत्‌, दय्‌,शीर्‌ धातुओं में तथा निद्रा, तन्द्रा और श्रद्धा के बाद

अआधुच्‌ (आलु ) प्रत्यय होता है, यया--स्यूहयालु , शहयालु , पतयालु , दयालु , शवाल्ु , निद्रालु , वद्रालु , श्रदालु । ६ ग्रत्यय )सनाशसमिक्ष 3 ।शराश्हटा सन्नन्त घातुओं तथा आशस्‌ और मित्तूमउ प्रत्यय लगता है, यथा--चिकीपू

₹कठुमिय्छति ), आरशस , मिछु ; लिप्सु , पिपासु इत्पादि | (३ ) डणादि प्रत्यय

कृत्य और इत प्र-यय ऊपर दिये जा छुके हें |अप उशादि प्रत्यय दिये जा रहे

हैं। उणादि का धर्य है उसश्रादि। ये अत्यय सरल नहीं हैं और बुद्धिमता के

साथ इनऊा प्रयाग किया जाता है |

( उण्‌श्रादि)उणादयो थहुलमू ।शशञश

उशादि बहुत से हैं,और विभिन्न अर्यों म॑ श्रयुक्त होते हैं । महर्षि पाणिनि ने उयादि ग्रत्यों द्वारा ऐसे शब्दों को सिद्ध किया, ता अन्यथा सिर महों दो सकते थे | इवापाजिमिस्रद्साध्यशुभ्य उण डणादि १। कह + उस >कार ( करोतीति, शिल्पो तथा कारक )) उस >वायु (बादोति), पा+उण्‌>पायु (गुदम ) जि+उर्‌>जायु ( औपषधम्‌ ) जयति रोगान्‌ अनेनेत (पिवत्यनेन इति) [ ि| भा+उश>माजु ( पित्तम ) सिनोति ग्रक्तिपत ि देहे ऊष्मायमिति। स्वाहु स्दते रोचते इति। साधु साध्नोति पर कार्यम्‌। अश्वुते इति श्राशु (शीभम) |

( उपचू प्रत्यय )पूनहिकलिस्य डपचू | ४ + उपचू ८परंपम्‌ । नह्‌+उपच्‌ -नहुप । कलू+उपच्‌ +कल्ुपम्‌ इत्यादि]

५०

चुइदू-अनुवाद-चन्द्रिका

संस्क्ृद में अहुवाद करो-१--खेलना दथा पढ़ना समय पर होना चाहिए । २-भल्ते आदमी श्रपकार का बदला उपकार से चुकाते हैं। ३->यह बहुत श्रानन्द देने वाला बृत्त है। ४--मफेँठ बोलने वाले मित्र मित्रधाती द्वोते हैं | 4--काम करनेवाला मानव है, पर कम का फल देने वाला भगवान्‌ है। ई-यह उपदेश शोक की नाश करने वाला है । ७--भूठ बोलने वाले का कोई विश्वास नहीं करता | ८द--इस गाँव के

कुम्द्यार बहुत चढुर हैं। ६--नाश होने वाले शरीर का क्या विश्वास १ १०--क्या इस धर में सभी खाने वाले हैं, कमाने वाला कोई नहीं ! ११--यह पकाने वाला

बहुत निपुण है। १३--क््या इस नगर मे कोई बड़ा गवैया नहीं ! १३--बेद का

पढ़ना पापों का नाश करने वाला है। १४--इस नगर के प्रायः समी बनिये लुटेरे हैं। १५---कल विमला ने एक मनोदर राग श्रलापा। १६--तुग्द्ारे जैसे श्रादमो को धिकार है ! १७--बीरों कानिश्रय कठोर कर्मो वाला होता है, वह प्रेम पथ

को त्याग देता है। १८--बह साहसियों मे धुरीण और विद्वानों में श्रम्मणी है। १६--मघुर श्राकृतिवालों के लिए; क्या मण्डन नहीं है

२०--संसार में मुन्दरता

मुलभ है, गुशाजंन कठिन है। २१--सर्वनाश प्राप्त होने पर विद्वान्‌ श्राधा छोड़ देता है। २९--प्रिंय वास से उत्तन्न दुःख स्तवियों केलिए दुःसह होते ६। २३--सम त्तियाँ श्रच्छे श्राचरण बालों को भी विचलित कर देती हैं।२४--ऐश्बर्य से उसत्तों में प्रायः विकार बढ़ते हैं । २५--यदि एक ही काम से संसार को वश में करना चाहते हो तो परनिन्दा से वाणी को रोको |

तद्धित-प्रकशण तद्धित शब्द का श्र्थ है. “तेस्पः मयोगेम्यः दिवाः इति वद्धिताः” श्र्यात्‌ ऐसे प्त्यय जो विभिन्न प्रयोगों के काम में आ उके ।

हा

सज्ञा, सर्बनाम, विशेष्यण आदि में जिन प्रत्वयों को जोड़ कर कुछ और श्रथ

मौ निकल आता है, उन प्रत्ययों को ठद्धित प्रत्यय कहते हैं, यथा--दिते- अ्रपत्य दैत्यः (दिति+ एय ), दितति शब्द मे श्य ( तद्धित प्रत्यय )जोड कर दिति के पुत्र (दैत्य ) का शान कराया गया हे। कपायेण रक्त कापाय (बत्मम ) (कपाय रस में रगा हुआ ), यहाँ कपाय शब्द में अर प्रत्यय लगाकर “कपाय से रणे हुए? का बोघ कराया गया है । दद्धिव प्रत्ययों केलिए ये नियम आवश्यक हैं--

(१) तद्वितेप्वचामादेः।जश११७ण यदि तद्धित प्रत्यय में ज्‌ तथा ण इत हों तो तित शब्द मे ऐसा प्रत्यय लगेगा उसके धयम स्व॒र को इद्धि होगी, यथा--दिति+र्व ( य )-दैत्यः--यहाँ दिति

के “दि/ में 'इ! के स्थान में इद्धि 'ऐ? हो गयी । (२) किति व ।७०)११८) यदि तदित प्रत्यय में कू इत्‌हो तो उस में भी प्रत्येऊ श्रादि शब्द के स्व॒र को वृद्धि होगी, यया-वर्षा+ ठर्‌(इक )>दार्पिका, अदि स्वर को इद्धि हो गयी और वर्षा के 'आ का लोप हो गया ।

(३ ) यदि तद्वित प्रत्यय किसी व्यक्षन से आरस्म है तो शब्द के अन्तिम न?

का प्राय, लोप हो जाता है, यया--राजन्‌+इज ( अक ) ८ राजफम्‌ | जब प्रत्यय

स्व॒र से थाय से झारम होते हों तो म्‌के साथ पूर्वव्दों स्वर का भी कमी-कमी लोप हो जावा है,यया--थात्मन्‌ +ईय ८ प्राल + ईय 5 आत्मीय । (३ ) युदोरनाको )७)६३१ प्त्यय के यु, तु के स्थान में अन तया अक हो जाते हें, यया-ल्युद्‌+यु (६ब्रन ), ुचू-अक । ( ४ ) व्स्येकः ।जश५ण

प्रत्यय में आये हुए ढ्‌के स्थान में इक हो जाता है, यथा--ठक + इक | (६ ) प्रत्यय के श्न्त में ग्राया हुआ हल्‌अक्षरफेवल इद्धि, गुण आदि का सूजक होता है, शब्द के साथ नहीं झुडता, यथा--अणू प्रत्यपतका णू केपल इद्धि का सूचक है, शब्द में केवल श्र जुड़ता है!

है

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

(७) भायनेयी नीयियः फढखद्चुघां ग्रत्ययादीनाम्‌ू [जधरा प्रत्यय के थ्रादि में आये हुए. फ, ढ, ख, छ, घके स्थान में क्रमशः शायन्‌,

एय्‌,ईन, ईयू,इय हो जाते हैं। डे [ श्रपत्यार्थ ] तस्यापत्यम्‌ ।8१६६॥ अपत्य का अथ है सन्तान--अतः अ्रपत्याथंक वर्ग में ऐसे प्रत्यय दिये गये हैं 'जिमफो संक्ञाश्रों में जोड़ने से किसी पुरुष या स्बो फी सन्तान ( पुत्र या पुत्री )का

बोध द्वोता है । अपत्य पोत्रप्रभतिमोत्रम ।8९९६२। इन प्रत्ययों में गोत्र शब्द का प्रयोग पौच श्ादि अ्रपत्य के श्रथ में श्राया है।

मुख्य नियम ये हं-( इज प्रत्यय )अत इन ।४१६५ा

अपत्य का अर्थ सूचित करने केलिए, अकाराम्त प्रातिषांदिक मैं इज प्रत्यय लगता है यथा--

दशरथ + इज_ ८दाशरयिः (राम ), दत्त +इज_८ दाक्तिः ( दक्तस्य अपत्यम्‌ ) बसुदेव-)-इन रवासुदेवः ( वसुदेवत्य भ्रपत्य॑ पुमान्‌ )।

सुमित्रा +इज_>सौमिद्धि,, (लचमणः ), द्वोण +इल_-द्ौरिः (अश्वस्थामा) € इज_) बाह्यादिम्यश्च ४।१६६॥ थाह श्ादि शब्दों से अ्पत्याथ मे इज_प्रत्यय होता है, थथा--

बाहु +इज_- बाइवि), श्रौडुलोमिः | ( ढक अत्यय ) छीम्योटक ४११२०

जिन प्रातिपदिकों में स्त्री प्रत्यय लगा दो, उनमें श्रपत्याथ सूचक दक्‌ (एय्‌ ) प्रत्यंय लगता है, यथा-विनता + दक्‌ ( एयू )-वैनतेयः ( विनता का पुत्र )। मग्रिनी +दर ( एयू )5भागिनेयः ( मानजा )। ( ढक प्रत्यय )दृयच+ ।४।११२१ जिन परतिपादिकों में दो स्वर दो और स्त्रीप्रत्ययान्त दों तथा जो प्रातिपदिक दो

स्वर वाले तथा इकारान्त हों ( इनमें श्रन्त न द्वोते हों ), उनमें श्रपत्याय यूचक इक प्रत्यय लगता है, यया-कुन्ती--ढक ८कौन्तेयः ( कुन्त्याः अ्रपत्यं पुमान्‌ । ) माद्रेय३, राधेवः | दत्ता + दक्‌ ८ दात्तेयः ( दत्तायाः अ्रपत्यं पुमान ) । अन्नि+ ढक ऋशात्रेयः ( अत्रेरपत्य॑ पुमान्‌)।

(यत्‌ अ्त्यय ) राशश्वशुरायत्‌ ।0१॥१३७। राज्ञोजातावेचेति वाच्यम्‌। धा० । राज॑न्‌ और श्वमुर शब्दों मैं अ्रपत्वार्थ यूज़ऊ यत्‌ (ये) प्रत्यय लगता है, यथा--

गजन--यत्‌

राजन्यः ( राजवंश बाले ज्षत्रिव )।

तद्वित-प्रकरण ( अण प्रत्यय)

भरे

खजुर +यत्‌ श्ब्शुयः (छाला )।

राजन्‌ में यत्‌ प्रत्यय जाति के ही अथ में लगता है। (अरग्रलय ) अश्वपत्यादिभ्वर्ध एश८छ

श्रश्वणति श्रादि प्रातिषदिओों में अ्रपत्या्थ सूचक श्रण्‌ (श्र) प्रत्यय लगता है, यथा-अश्यपति + अण्‌ >आराश्वपतम्‌ ।

गणपति + श्रण>गाशपतम्‌ । ( श्रश्वपति श्रादि--अश्वपति, शत्तपति, धनपति, गणपति, राष्ट्रपति, कुलपति,

शहपति, पशुपति, घान्यपतति, धन्वपति, सभापति, प्राणपति और क्षेयपति | )

(श्रणु प्रयय ) शिवादिभ्योइण ।॥0११७ शिव आदि से अपत्यार्थ सूचक अण प्रत्यय होता है, पथा--

शिव + अ्रण ८शैवः (शिवध्यापलम ) ( गज्ञा+अणरूगाइः ( गड्स्‍ायाः अपत्य पुमान )।

(श्रण्‌प्रमय)ऋष्यत्थरवृष्णिकुरुभ्यश्च 00११४ आषि ( कऋषयो मस्तद्रशरः )अन्परवशी, इब्णिवशी और कुस्बशी से अ्रपह्यार्थ सूचक अण अत्यय होता दै, यथा-+ ( ऋषिम्यः ) बसिष्ठ + श्रण्‌ + वासिष्ठः (वसिष्टत्थ अपत्य पुमाव्‌ )। विश्वामित + श्रण्‌+वैश्वामित्रः (विश्वामित्रस्व श्रपत्य पुमान्‌। ) (बृष्णिम्प: )बसदेय + शरण + वामुदेवः ( वसुदेवस्थ अपत्य पुमान्‌ ।) अनिरुद्ध + श्रण्‌ >थ्रानिरद्ध। ( अनिरुद्धस्य अपत्य पुमान | ) ( कुरुमय+ )नकुल+-श्रणु 5 नाकुलः ( नकुलस्थ श्रपत् पुमान्‌ )|

सहदेव + अण्‌-ठाहदेवः ( सहदेवस्थ अपत्य पुमान्‌ । ) (श्रणुप्रथय)मातुरत्संस्यासंभद्रपूवायाः ।॥११ १५ + यदि कोई सख्या, सम्‌ या भंद्र पूवेहो तो मातू शब्द से अ्रपत्याथं सूचक अ्रण पत्यय होते है,यपा-हि डिमात

+अरण८द्ैमाठए, पट+माठ + ब्रण >पाण्माठर;, सम्‌+मात्‌ +

अशण ८ सामाठृकः |भद्र + मातृ +ध्रस्‌ 5 भाद्रमातुर |

[ एव ( ये) प्र्य ] दित्यद्त्यादित्यपत्युत्तरदास्ण्य- 90८५। दिति, श्रदिति, श्रादित्य, पति बन्तदाले शब्दों से श्रपत्याय मेंरय (य) प्रत्यय लगा हैश्रौर शब्द के प्रथम स्वर को इृद्धि होती है,यथा-- दिति-दैल्य४, अ्रदिति-

आदिल!, प्रजापति-प्राजापत्म: ।

(सम प्रत्यप ) कुरनादिस्यों बयः॥20१ ७२

कुद्दशी ओर मकारादि थब्दों से श्ररत्य ब्रयों में एव प्रत्यप होता है, पथा-कुद--कौख्य:, निषणू--मैयप्यः ।

डश्ड

बृह॒दूअनुवाद-्चन्द्रिका

रक्‍्ताथंक अण्‌ पत्यय ( अणाप्रत्यय)तेन रक्त' रागात्‌ ४२४ लाज्ारोचतान्‌ ठक्‌ ।शरशरा जिससे रंगा जाय उस रंग बाची शब्द मे अंश अत्यय लगता है श्रौर उसके प्रथम स्वर को इद्धि हो जाती हे, यथा-कपाय + अण्‌८कापायम्‌ ( वख्रम ) गेर से रगा हुआ वल्न | मश्लिष् +अण्‌ - मासिएम्‌ ( सजीठ से रंगा हुआ )।

किन्तु लाज्ा, रोचन, शकल, कदंमसे ठक्‌ प्रत्यय द्वोता है> लाजिक, रीवनिक,

शाकलिक, काईमिक | ( झन्‌ प्रत्यय ) मील्या अन्‌ बाण नीली शब्द मे श्रम (श्र) प्रत्यय होता है, यथा--नीली + ब्रव्‌>नीलम (नील से रगा इद्या ) |

( यन्‌ प्रत्यय )पीतात्कन्‌ बाण पीत से कन्‌ ( क ) प्रत्यय होता है, यथा--प्रीत--परीतकम्‌ । [ ध्रण्‌ ( भ्र ) प्रत्यय ] हरिद्रामद्वारजनाभ्यामण बाण मर इरिद्रा से श्रत्‌ (श्र) प्रत्यय होता है, हरिद्रा--द्वारिद्रम ( इल्दी से रंगा झुच्या )महारतनम्‌ ।

फालार्यक अण प्रत्यय

( शरणप्रत्यय)नक्त्रेण युक्त: कालः |2।2३। पूर्णमासादश वक्तज्यः | बा० । नक्षत्र सेयुक्त समप्रवाची शब्द बनाने के लिए नक्षत्रवादी शब्द में श्रण

(श्र) प्रत्यय लगता है, यथा-पुष्य + रण >पोपम्‌ शरद | न पौपी( पुष्येण युक्ता रात्रि: ) । पूर्णोमासोअस्थावदते इति पौणंमाठी तिथिः |

(६अण प्रय ) सास्मिन्‌ पोर्णमासीति ।9१११

नचच से युक्त पूर्णिमा रात्रि होने पर जब्र मास का नोम पढ़ता है तब श्रण

(अर ) प्रत्यय होता है, यथा-पुष्य + शरण रू पोपः ( पौपो पूर्णमासी श्रस्मित्‌ इति पौपः मासः ) |

दि

चित्रा +अ्रणसौवर्णम्‌,सुवर्शमयम्‌ | अश्मनः विकारों अवयवों वा +आश्मनम, ऋश्ममयम्‌ |

मस्मनः विकारों श्रवयवों या5मात्मनम्‌, मस्ममयम्‌ ।

अपवाद-+- [मौदूयः चूउः ( झूँग की दाल ), 'मुदूगमयः सूर/ अरशद हे । कार्पासमाच्छादनम्‌ ( कार्पाथमयमाच्छादनम्‌ श्रशुद्ध है ) ।

[ भ्रज_(ञअ) ] भोरन ।शश१३६॥ उ ऊ में श्रन्त होनेवाले शब्दों मेग्रवयव का अर्थ बवलाने के लिए, श्रझ * झ्र) प्रत्यय लगाया जाता है, यथा-देवदाद +अम_(ञ्र )>देवदाखम्‌ , भाद्ददारवम्‌

हितायक छे ( ईय ) प्रत्यय [छ (ईग) प्रत्यय ] तस्मै ह्िलम्‌ ।४॥१५ जिसके हित की कोई वस्तु हो उसमें छु ( ईय ) अत्यय लगता है,यथा-बत्छ +छ ( ईय ) + वत्त्सीयं हुग्बम्‌ ( वत्केम्य: हितम्‌ ) ) ( यत्‌ प्रत्यय ) रारीरावयवाज् ।१ १६) द्वित के श्र में शरीर के कऋषयव याची शन्दों से, उकारान्व शब्दों,से तथा गो आदि ( गो, इविष्‌,श्र्तर, विष्‌ , बहिंस्‌श्रष्टका, युग, मेघा, नामि, श्वम्‌ ( श्वन्‌ शत वा शुन हो जाठा है ), कूप, दर, खर, अपर, बेद, दोज भ्दि ) शब्दों छे यत्‌ प्रत्यय लगता है,यधा-दन्व + यतु८दन्त्या ( दन्‍्तेम्यः दविता )श्रोषधिः, कया | गो कयद्‌रगव्यम् ( ग्रोम्पर दितस ) ।

शब + यत्‌ ८ शरव्यम्‌ (शरते दम )॥ इसी प्रकार-शत्पम्‌ ,शुल्पम्‌,श्रमुयम्‌,वेयम्‌,वौज्यम्‌ श्रादि।

परिमाणायंक एवं संख्यायंक (बतप्‌प्र्यय)यत्तदेदेम्यः परिमाणे बतुप्‌ २३६ किमिदृम्यां वो: घः ५०४०

यत्‌, हन्‌,एतत्‌ में बदुपू प्रलय लगगा है और वहुप्‌काव व (य) मैं

बदल जाता है, यया--कियत्‌ , श्यद्‌ ।

यरित-एरुरण ( बगुर्‌ )

डर



€ माणन्‌)भमाएपरिमाशाम्यों संस्यायाश्यापि संशये मारज्यक्तत्प: बाण

प्रमाण, परिमाण यचा संए्य फी घनिश्चिता माषण मलर लगाकर पुर के जाती है, मधा-सेस्मापम ( सेर भर ही )|म्रश्धमापम्‌

शमश्प्रमाणम्‌ ८ शममापम (निभपदी शमप्राण है) । पद्मपम(केरस पँच)।

कण )पुरुषएस्तिभ्यामण

६ पा

च शर्त

फ्ेकप पुरुष और इत्पिन्‌ में चरण प्रररशगाश जाता है,

बधा-पुण + छण्‌८पौरफम गरम ( झाश्मे इसने भर पानी ) हास्य सयाम। हाहिने जशमश्यों सरिति।

( डपि ) फ़िमः संस्यापरिमाणे उपि पथणर४श

किम शब्द में डने (पति) छागा फर सुंज्या तपा दरिभारण का गोद कराते हैँ,पधा--हिम्‌+ डी ( क्षत्रि )७कति ।

(मप्‌ जाये संप्याया ऋण्परे समप्‌४२४२ दिपिश्यों तयस्यायम्पापधरोएरे

«.

संस्याशरदमेंमालगाफर सस्या समूइकामोभ हो ए है,पधा-टिति एम,रियपम ।

हि चौर वि से इसी अर्थ में तय प्रशषभी खगय है, पधा--एपम, भगम ( इएए शादि ) प्रमाणे एयरा दभभ ज माउच+ ।आररेजे

प्रमाण झर्थाद मार पोश धर में प्र, एश्पूकौरमाषय्‌ प्रशर शा हैं,

बैंधो--( भाँप तक ) ऊर्णयणाश (ऊुसझ अशणमर ) ऊष्श्प्मम, फेस्मापम, हछछमाषश , फटिमापम ।

(बपुर प्रशय ) यरतदेतेभ्यः परिमाणे बतुप्‌।आरारेए

यत्‌ छादि से परिगाणं धर्थ में बयुए्‌ ( गत )प्रत्या लगता है। यथा -पाशनव

( सद्यरिमाणमश्प ),एपान्‌ , एतापाण ।

क्रिया विशेषण तद्धित [ बविश्‌(त:) पल ] पश्मम्याससिल्‌ 0श७ पर्यमिम्पों प ६ ५

भयायीभ्यामे३ धाण

सर्चे-

संशा, राषनामकथा विशेष फे माद पद्ममों विभक्ति फे हाथ में तथा परि ( सर्याधक ) और अमि ( उभदर्थक ) उपसर्गों केबाइ तेके(रण) प्रत्यर

सगता दे | इस प्ररूप फे पूर सबनाम शफ्शों में मुझ परिषतमहोताहै, एधा-सभ्मया, शस्मक्त। सार मच), सता, यता, हत। संधता, परता, संत

इत', झमुत), उमयता, पारेतई, झ्मितः )

पुपि दो ।ज २१०४ किम फो कु दो जाता है--मुउे (फस्मार )।

६ पस्त्‌अलय ) सप्तम्याखल्‌ ११० इदमो हु पार ११

28 संबंनाम तथा विशेष के याद शमी विभेजि के हर्थ में चल शल्य शगता

है, बधा-इएप, तप, जुच, बहुब, एफप, साद )

इधर

बहदू-अनुवाद-बन्दिका

इदमू शब्द मैं ह? प्रत्यय लगता है ( यह अलूकाअ्रपवाद है )। यंधा--३६॥ किमो 5 च्‌ [फार१रा क्ाति | जरा?ण्पा किम को छ श्रादेश मी होता है, यथा--छ, कुत्र ।

इतराश्योइपि दृश्यन्ते १।३॥१४

पञ्ममी झ्ौर रुतमी विभक्तियों केअतिरिक्त स्यलों पर भी तः और तन प्रत्यय

लगते हैं, यथा--स भवान्‌ , ठतो सवान्‌ , तन भवान्‌ | सें मवन्‍्तम्‌ , तो भवन्तम्‌ ,

तत्र भवन्तम्‌ | इसी प्रकार-दीर्घायु), देवानायिय), श्रायुष्मान्‌ ।

(दा प्रतय ) सर्वेकान्यक्तियत्तदः काले दा ।५११५ दानीं च (५४१९ तदो

दा च ।॥१४१६। हु सर्व, एक, श्रन्य, कि, यव्‌ , तद, शब्दों के बाद जब, तब, कब आदि श्र प्रकद करने के लिए दा प्रत्मयय लगता है, यथा-सवदा, एकदा, अन्यदा, कदा, यदा, तदा। इसी श्रथ॑ में 'दानीम! प्रत्यय भीलगता हे, यथा-कदानीम्‌ , यदानीम्‌ इदानीमू। तदा--तदानीम्‌। अधुना ।५॥३। १७ इृदम्‌ को झधुना हो जाता है ।

इदमो्हिल ॥॥३१६॥

सप्मम्यन्त से काल में ईलू प्रत्यय होता है, यया--एर्ताई (भ्रस्मिन्काले )। (थालू_प्रत्यय) प्रकारयचने याल॥५।३२३। इद्मस्थमुः।'प३२४। किसश्र।५शिरफा प्रकार अय में थाल (या) अत्यय लगता है, यथा-यया, तथा, सबंया आदि । इदम्‌ ,एतत्‌ ,किम्‌ में 'थम्ु' प्रत्यय लगता है, यथा--कथम्‌ ,इत्थम्‌ ।

अनयतने हिलन्यतरस्याम्‌ १३२१ अनबतन मे हिलू विकल्प से होता है ( पत्ते काले दा ),यथा-काई, कदा यहि, यदा ! तह, तदा। एतस्मिन्काले एतर्हि।

(श्रस्वाति) दिक्शब्देभ्यः सप्तमीपद्चमीजथमाभ्यो दिग्देशकालेप्वस्तातिः ५१९७ आंगेयंछे श्रांद शब्दों फे अ्थदूचक पूर्व श्रादि दिशावाची शब्दों में प्रथमा, पश्चमी तथा सत्तमी के श्रथ में अध्ताति ( थ्रस्ताव्‌ ) प्रत्यय लगता है, यथा-पूर्ब + भ्रस्ताति -पूवस्तात्‌ । श्रधस्वात्‌ , उपरिश्त्‌ , श्रवस्तात्‌ , श्रवरस्तात्‌ ।

( एनप्‌ और क्रांति )एनवन्यतरस्थामदूरडपश्चम्याः ।५३। र५। पश्चात्‌ ५१8२

उत्तराधदृक्षिणादातिः [षाशइए

पषमा शौर स्समी रा शरय बतलानेकेलिए 'एनए! लगाण जायाहै,यश-दचिणेन, उत्तरेण, पूर्वण, अघरेय, पश्चिमेन । दाविणादि शब्दों पर श्रादि प्र्य मी लगता दे, यथा-पथ्मात्‌, उत्तराव , अधरात , दछ्िणात्‌ श्रादि |

दद्ित-प्रकरण ( घा, ऋखसुच्‌ आदि )

(घा प्रत्मय ) संख्याया विधायें

ड्द३

घा।फाशएरा

संप्यावाची शब्दों से प्रकार अर्थ में घा प्रत्यय दोतां दै, यया--एकथा, द्विधा,

ब्रिघा, चत॒र्धा, प्यणा, शतथा, सहखघा, बहुषा। [ इलसुच्‌ ( इत्वस्‌)] संख्यायाः क्रियाभ्यावत्तिगएने कृत्वसुच ।॥8१७ दो बार, तीन बार श्रादि की भाँति 'बार'&शब्द का अर्थ प्रकट करने के लिए संण्यावाची शब्दों में कत्वसुच्‌ ( कृत्वस्‌ ) प्रत्यय लगता है, यथा-पश्चकृत्वः ( पाँच बार )मुदक्तेइसी प्रजार-पदकृत्व+, सप्तकृत्व: क्रादि]

[ झच्‌ ( स्‌) प्रत्यय ]द्वित्रिचतुभ्यं: सुच।श8१८। हि, नि, चतुर शब्दों मे सुच्‌प्रत्ययलगता है, यथा-द्विः ( दोबार ), ति (दीन बार ), चतुः ( चार बार )।

( सुच्‌)एकस्य सकृच 0७४१६ इसी अथ में एक शब्द से सच लगता हे और एकके स्थान में सकृत्‌ हो जाता है, यथा--एक +-सुच्‌ > सकृत्‌ + मुच्‌रू सकृत्‌ ।

(था ) विभाषाबद्दोधाइविप्रझृष्ठताले धा४८० बहु शब्द में कृत्वसुच्‌ और धा दोनों अत्यय लगते हैं,यथा--बहुहुत्व, बहुषा )

शैषिक शोपे ।धशध्र। जिन अर्थी का शान अपत्या्थंक, समूहार्थक आदि प्रत्ययों सेनहीं होता, वे तद्वित-ग्रथ प्रणिनोय व्याकरण में शेष शब्द से बतलाये वये हैं । शेष” वद्धित

अर्थों केलिए अणूश्रादि प्रत्यय लगाये जाते हैँ,यथा-श्रवण + श्रण्‌5श्रावण४ ( श्रवणेन भूयते--शब्दः ) । चक्प्‌ +अण*चाछुपम्‌ (चछुपा गब्ते--रूपम्‌ )। अश्व + शरण +आश्वः ( अश्वैर्द्यते--रथः ) |

चत॒दंशी + श्रण्‌5चादुदशम्‌ (चत॒द॒श्या दृश्यते--र्ः )।

चतुर +श्रण्‌ +चातुरम (चत॒र्मिद्यते--शकटम्‌ )। (य, सम्‌)प्रामायसनौ ।एस६४।

ग्राम शब्द में शैपिक प्त्यय य और सज्‌(ईन ) होते हैं, यथा--आरम +य ग्राम्पघ, आम + सज््‌(ईन )>ग्रामीणः।

( लक्क)दत्तिणापद्चावपुरसस्त्यक ।8शध्ट! दच्षिणा आदि से त्यक्‌ (त्य )प्रत्मय होता है, यथा--दाक्षिणालः, पाग्रात्या, पुरत--पौरस्त्यः

( ढक )नद्यादिम्यो ढक ।8१६७ नादेयम््‌, मादेयम्र ,वाराणसेयम्‌ ।

हि

बृहदू-अ्रनुवाद-इन्द्रिका

[ए (एप), ख ( ईन ) ] राष्ट्रवारपरादूदलौ ।शराए३। राष्ट्र शब्द से घ (इयू )ठथा अदासपार से ख ( ईन ) प्रत्यय होता है, यथा-राए जाता राष्ट्रियप, अवारपरीणः।

( यत्‌ प्क्षय ) दा भ्रागपागुदक्प्रतोचो यत्‌।शरा१०्श झु, भाच्‌ ,अपाच्‌ ,उदत ,प्रतौच्‌ शब्दों ते यत्‌ प्रत्यय होता है, यया--द्यु + यत्‌रूदिव्यम्‌ ,प्राच्यम्‌, अपाब्यम , उदीन्यम्‌ ,ध्वीन्‍्यम | [ उछ (इक ) ] काज्नाद उन शिशश्श कालबाचो शब्दों से शैषिक टयू ( इक ) प्रत्यय होता है, यथा--मांस+ठम

इक ) #माठिकम्‌ । इसी अकार--खांवत्सरिकम्‌ , सायंप्रातिकस, पौनः पुनिकः

( धर प्रत्यय ) सन्विवेलाय तुनक्तत्रेम्योड्ण ।8३१६। सन्धिवेला, सन्प्या, श्रभावत्या, अयोदशी, चत॒द॒शी, पौरामाठी, प्रतिषद्‌ तथा धआयठवाची ( शरद थ्ादि )और नक्चत्रवादी शब्दों से अश प्रत्यय होता है, यधा-सन्धिदेला + अण -सान्पिवेलम्‌ , (सन्पिवेलायं भवम्‌ ) सानप्पम्‌ , झामावा-

स्पम्‌ , भायोदशम्‌ , चातु्दशम्‌ ,पौदमास्म, प्रातिपदम ।ग्रैप्मम्‌ , पैपम, शारदम, हेमन्दम्‌, शैशिरम्‌, वासन्तम, पोर्म, बार्षिकम्‌ (दर्पा+ढक ), आईपेस्पम ( प्राइप + ए्य )।

) सायंविरंप्ाह अगेषव्ययेम्य2ए व्यू लो तुट घ ।शशरश साय॑, चिरं, पराहें, प्रगे शब्शें के दया श्रव्यरों के बाद शैपिक स्युस्थुल्‌ (न) प्रद्नय लगते हैंतया शब्द और भ्रत्यय के बीच में त्‌ था जाता है, यया-+ सीयं +त्‌+व्युल्‌ (अन )+सापन्तनम्‌ | इसी ठरह--विरैतनम्‌ , प्राह्देदनम्‌ , प्रगेतनम्‌ , दोधावनम्‌ ,दिवातनम्‌ ,इृदानीन्तनम्‌ , तंदानोन्तनम्‌ श्रादि ] ६ ब्युय्पुल्‌, चुद, ठन) विभाषापूवोद्ापराह्मम्याम्‌ शशरशश पूर्वाह्ठ और अपराइ से ट्युट्युलू, बट और उ्ू प्रव्यय होते हैं, यधा-पूर्वादेनम, पूर्वाहवमम्‌| पोर्दाहिकरम्‌ । भ्ररराह्ववनम, अपराहतनम्‌, आपराष्टिरम ।

[ रूप (तय) प्रसव ] अच्ययात्त्पप्‌ ।(२१००। अमेइकठसिन्रेम्य: एवं। चा०

त्यन्नम व इति वक्तन्यम्‌ ।वा०। धमा, इह, क् तथा नी के बाद और तसि तथा त्रलू प्रत्ययान्त शब्दों के दाद स्वप्‌ ( तय ) प्रसय लगग है, यया-अमा+ल्वर्‌ ( त्प ) ७आमात्यम, इदत्य, बैत्या, झत्रत्म३, उतर्त्य, यतस्तः, बुछत्यः, तप्नत्यः, नित्यः आदि |

[छ (ईंय) प्रत्मय ] यृद्धियंस्थाचामादिस्तदू गृद्धम्‌॥६॥१७३ त्यदादीनि घ शरशष्श इड्ाच्दः शद्माश्ष््ा

वदों' के दाद शेपिक छ (ईय) प्रत्यय लगता ऐै, यथा--शाला+ हु (ईंय) ८ शालीयः, सालोए:, तदीद३, यदीयः, एवदोयः, दृष्पद्दीष$, अस्मदीयम, मवष्येयः आदिय

दद्धित-प्रकरय ( छ, श्र॒य्‌ ,खज्‌ श्रादि )

४९५

[ शृद्ध--जिन शब्दों के खरों में प्रथम स्व॒र इृद्धिवाला ( आरा, ऐ, श्रौ) हो,

चे शन्दतथालदुआदिशब्द ( त्यद्‌ , तद्‌ , यद्‌ , एतदू , इदम्‌, श्रदस्‌ ,एक, दि, सुष्मद्‌, अस्मद्‌ ; भवत्‌ , किम )पाणिनीय न्याकरण में इद्ध कहलाते हैं। )

(छ, अ्रण , सम्र्‌,) युप्मदस्मदोस्यतरस्थां खत्ब ।४१९ तस्मिन्नणि च

युष्माकास्माकों ।0श२। तवकममकावेकबचने ।७४३।३।भवत्कू छसे !

युष्मदू--( छ ) 5 युष्मदीयः, युप्माक + श्रण्‌८यौष्माक,,

युष्माक + सम न यौष्माकीयः ( तुग्दास )। हवक + अण ८तावक+, खन--तावकीनः, छ

लवदीयः ( तेरा

)।

अस्मदू--( छे )5 श्रस्मदीयग,. अ्रस्माक + श्रण्‌5आस्माकः,.. खज्ू८ श्रास्माकीनः । मम + श्रण्‌८मामक;, + खज्‌तमाम्‌ प्रत्यय लगाया जाता है, यथा--

किस्तमाम,भाहेतमाम्‌ ,उच्चैस्तमाम्‌ ( बहुद ऊँचा ), पचतिवमाम्‌ ( बहुत

अ्रच्छी तरह पकावा हे ), नीचैस्तमाम्‌ , गच्छुतितमाम्‌ > देदतितमाम्‌ आदि |

द्रब्य सम्बन्धी प्रकर्ष सूचित होने पर भ्राम्ु नहीं लगता, यणा--उन्नैस्तमः बच )

इंपद्समाप्ती कल्पम्देश्यदेशीयए ५१६७

कुछ कमी दिखाने के लिए. कल्पप्‌ ( कल्प ), देश्य, और देशीयर्‌(देशीय ) प्रत्यय छोड़े जाते हैं, यथा-विदस्कर्त:, ( ईपदूनों विद्यान),विदददेश्य, विद्ददेशीयः ( कुछ कम विद्वान) ६ पश्वधकल्प:, पश्मवधदेस्य:, पश्धवषदेशीयः (पाँच बरस से कुछ कम )।

पंचतिकल्ष्पम्‌ ,हठतिकल्पम्‌ ( कुछ कम हँसता है)। अज्ञादी गुरवचनादेव [फाशेश्टा _

इैयस और इृष्ठ प्रत्यय गुर वाचकों से ही लगते हैं, किन्द तर और तम प्रत्यय

सब के आगे लगते हैं |ईयव्‌ और इष्ठ के कुछ उदाहरण--

४६६

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

अ्न्तिक ( नेद्‌ ) नेदीयान्‌ नेदिष्ठः

लघु ( लघ्‌ ) लघीयान्‌ लघिष्ठः

उछ ( बर्‌)वरीयान्‌ बरिष्ठः गुर ( गर्‌ ) गरीयान्‌ गरिष्ठः

बलिन्‌ ( बल ) बलीयान्‌ बलिष्ठः बाढ़ ( साध ) साधीयान्‌ साधिष्ठ+

दूर ( दू ) दवीयान्‌ दबिष्टः पद ( पद ) पटीयान्‌ पदिष्ठः प्रशस्य ( अ ) श्रेयान्‌ श्रेष्ठः

मृदु ( प्रदू ) सदीयान्‌ म्रदिष्ठः युवन्‌ (कन्‌ )कनीयान्‌ कनिष्ठः बृद्ध, प्रशस्य ( ज्य )ज्यायान्‌ ज्येप्टः

प्रिय ( प्र) प्रेयान प्रेष्ठः

ह्यिर्‌(स्थ )स्थेयान्‌ स्पेष्ठः

दीघे (द्वाघ्‌)द्वाधीयान्‌ द्राधिष्टः

महत्‌ ( मह )महीयान्‌ महिष्ठः

बहु ( भू ) भूयात्‌ भूयिष्ठः स्थूल ( स्थू ) स्थवीयान्‌ स्पविष्ठाः उपरि लिखित शब्दों में इन नियमों से परिवर्तन होता दै-+ (के ) टेः--ईयसया इष्ठ के बाद में रहने पर दि ( अ्रन्तिम स्वर सहित अंश ) का लोप होता है ।

(ख) २ ऋतोहलादेल०--शब्द के ऋ को रहो जाता है।

( ग )प्रियस्थररिफरोरुयहुलगुरु०-प्रिय स्थिर श्रादि को अस्प श्रादि होते हैं। (घ )स्थृलदूरयुवहस्वप्िप्रचुद्राएंं० --ईयस्‌और इश्ठ के बाद में रहगे पर

स्थूल दूर के श्रन्तिम र ल या व का लोप होता है। [ कम (के ) प्रत्यय ] अज्ञकम्पायाम्‌।४।३।७६। अलुकम्पा का बोध कराने के लिए कन्‌ ( क ) पत्यय लगाते हैं,यपामिछुकः ( बेचारा मिखारी ), पुत्र॒कः ( बेचारा लड़का )।

( बय प्रत्यय ) शृभ्बस्तियोगे सम्पयकतरि च्बिः ।९४०० अमृततद्भाव इति वक्तव्यम्‌ (वा ) श्रस्थ च्चौ । जब कोइ वस्तु इतनी बदल

जाय कि जोपहलेम थीवहहो जाय तो च्चि प्रत्य जगाकर इस श्रर्थ काबोष फराते हैं, चिव प्रत्यय केवल मू, कू और श्रस्‌ धातुशों फे थोग में लगता है।

जिका लोप द्वो जाता दे और पूर्व पद का श्रकार श्रथवा श्राफार ईकार में बदल जाता हैशरौर कोई श्रन्य स्वर पूद में श्रावे तो बढ दौष हो जाता है,यथा-कृध्णः-|- व्यि + कियते ८ इृष्ण:+ई + क्रियते ८ कृष्णी क्रियते अर्थात्‌ श्रकृष्णः

कृष्ण: क्रियते | इसी मोँति--अक्षीमवति ( श्रत्रह्मा अझा मबति ) | अगज्ञा गन्लास्पात्‌ ८ गन्नीस्यात्‌ ।ले मदति, पद्करोति | ( निदि तथा साति ) बिभाषा साति 3 रन३। सालदादोः ।६३:१११

जब किस्ली यस्तु फा किसी दूसरी वस्तु मैं बदल काना दिखानाडों तब

ज्वि के श्रतिरिक्त सादि (सात्‌) प्रयय भी शोड़ते हैं, भ्रौर साति फे छ को प नहीं होता, यथा--

तद्वितन्प्अकरण ( अण , छ आदि )

कसम शस्रमम्रि+ संपद्यते अग्निसात्‌ भबति >अप्नी भवति ( समस्त शस्त्र श्राग

हो रहे हैं )।

अग्नि: भरमसात्‌ भवति रू श्रग्मिः भस्मीमबति ( श्राग मस्म हो जाती है )।

विभिन्नाथंक तद्धित मत्यय ( श्रण्‌प्रयय) तद्गच्छति पथि दूतयोः #शरधा रास्ता या दून के श्र्थ मैं ऋण (अर) प्रथय होता है, यथा-खुप्त +अण ८ खौप्तः (सुप्ते गच्छुति) पन्‍्या दूतो वा (सुन्त को जाता हुआ दूठ)।

( श्रणप्रत्यय)सोध्स्य निवासः 9श5६ अमिजनश्र 86० निवास श्रय में तथा अमभिजन श्र मे अण प्रत्यय छोता है, भ्रभिजन पूर्व-

बान्ध॒वों को कहते हैं ( क्षमिजनाः पूर्वचान्धवाः--इति दृत्तिः )।

खुप्न + अ्रण्‌८स्ौषः ( खुप्तो निवासो अस्य ) खुप्त मे जिसका घर हो ।

हु » ( लुप्तोडमिजनो5स्थ ) सुन्न जिसके पूर्षज हों | ( अण प्रत्मयय )अधिकृत्य कृते अन्थे ।४।४८७

जिस विपय को लेकर कोई ग्रन्थ बनाया जाय, उससे श्ण्य्‌ प्रत्यय होता है, यधा--शकुन्तलाम अधिकृत्य कृत नाटक शाकुन्तलम, शारीरकम्‌ भाष्यम्‌ , वासवदत्तम्‌ | (श्रण्‌ प्रत्यय )तत्र भवः (0३१

यदि किसो बस्तु में कोई दूसरी बस्तु बतमान हो तो उस्से श्रण्‌प्रत्ययहोता है,यथा--खुष्न+ शरण-सौष्नः ( खुष्ने भवः ) खुष्न मे है । (#ण )विपयो देशे (४२४२ तस्य निवास+ ४१६९ थदि किसी देश के जन विशेष के निवास श्रथवा फ़िसी सम्बन्ध से उसे बतलाना

हो तो जनवाची शब्द से श्र प्रत्ययहोता हे, यथा-शिव + शण्‌ + शैवः (शिवीना विषयों देशः) (शिवि लोगों के रहने का देश)। ( अण प्रत्यय )तत झागवा 0३७४ यदि किसी स्थान से कोई आवबे तो स्थान वाचक

शब्द से श्रण प्रत्यय होता

है, यया--श्ुष्त + श्रण्‌ ८ सौष्नः ( खुष्नादायतः ) ।

[ उ (ईैय ) ]तेन प्रोक्तम्‌।8३१०॥

कृति अ्रथ में छ ( ईय ) प्रत्यय होता है, बथा-पाणिनिना प्रो पाणिनीयम )।

[ ठक्‌(इक ) ]ठगाय स्पानेम्यः ४3 ज्या

आय के स्पान ( दूकान, कारखाना ) आ्रादि के बाद ठक (इक ) प्रत्यय होता है, यथा--शौल्कशालिकः ( शुल्कशालायाः आ्ञागतः ) |

घ्द्८

इहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

[ इज्‌(अक ) ] विद्यायोनिसम्धन्धेम्यो बुन शशण्ज जिनसे विद्या अ्रयवा घन्म का सस्बन्ध हो उनमें बुज_(इक )प्रत्यय लगता है,यथा-उपाध्यायात्‌ श्रागता 5 श्रौपाध्यायिका ( विद्या )। पित्ामद्वात्‌ श्रागतं 5 पैतामहक धमम्‌ |

€ उच्त्‌)ऋतएन ।8३।७८। पितुयंच्च ।४३।७६ ऋकारास्त शब्दों से सम्बन्ध ग्र्थ मेंठन_प्रत्यय लगता है, यथा-भरावृकश। हौतृकम्‌ । पितृ शब्द से यत्‌ श्रौर शुज_दोनों होते हैं,यथा-पिव्यम, पैठृकम

( यत्‌ ) दिगादिभ्यो यत््‌ ।शरीरावयवाच्च ४३४४-१५॥ छ़िसी वस्तु में किसी दूसरी बस्तु का वर्तमान होना श्रय में शरीर के श्रवयते

से तक दिक्‌ू आदि (पिशु, वर्ग, पूण, पक्ष, रस, उखा, खादिन, भरादि

श्रन्त, मेष, यूथ, न्याय, वश, फाल, मुख, जघन ) शब्दों में यत्‌(श्र )प्रत'

लगता है,यथा--

दन्पम्‌ , मुध्यम्‌ , रहस्यम्‌ (मन्त्र: ), उख्यम्‌, सादयम्‌ , श्रादयः (पुष्पः|

अनूय॥ मेप्यम्‌, यूस्यम्‌, न्‍्याय्यम, वश्यम्‌ , काल्यम्‌, मुख्यम्‌ (सेना का श्रंग , 'जपन्यम्‌ (नीच )। ्ट

[ जय (य ) ] अच्ययीभावाच्च (४१५६) गम्भीराबूब्यः रोष उसी श्रथ॑ में अ्रव्ययीमाव सुमास के बाद ज्य (य ) प्रयय लगता है, यथा--परिमुख भ्रव॑ पारिमुस्यम्‌। गम्मीरे मव गाम्मीयंम्‌ | ६ ठकअत्यय ) तेन दीव्यतिखनदिजयतिनितम्‌ ।9/0२ चरति |४४८। यदि कोई किसी बस्दु से जुश्रा खेले, कुछ खोदे, कुछ जीते, तैरे, चले तो उत

चर्तु के बाद ढकप्रत्यय लगाकर उस व्यक्ति का वोध द्वोता है, यया--

श्रद्चेः दीव्यति 5 ध्राहिकः ( भर + टक)पैसे से जु्मा खेलने वाला । श्रश्या सनति८आ्रिकः ( अश्र + ठक्‌)फाबड़े से खोदने बाला । अक्लेजयति ८ थ्राहिकः ( शर्त 4- ठझू)पाणों से जीतने बाला । अध्ैजितम्‌ 5 श्रासिकम्‌ (थत्त + डक ) कै. उद्डुपेन तरति 5 श्रीड॒पिक: ( उडुप्‌+ठक--डॉंगी से तैरने वाला )। इस्तिलए चर ८दफ्लिण ( इफि +रणल -छपी से चरने युछू३ ) ॥

( दकप्रत्यय )अरिद नास्ति दिए्' भतिः ।शश३ण

हे भति के श्रध॑ में श्रललि, नाति थौर दिष्ट इन शब्दों केबाद उक्ूप्रत्यय द्वोवा , बया--

तद्वित-प्रकरण (ठकू, यत्‌ आदि )

डप६

अस्ति + ठक्‌+श्रास्तिकः ( श्रस्ति परलोकः इत्येव मतियंस्थ सा )। मास्ति+-ठकू नास्तिकः (नास्तीति मतियस्य सः )। दिए +ठक्‌ >दैष्टिक: ( दिष्टमिति मतियस्य सः ) भाग्यवादी | ( ठक्‌प्रतय )शीलम्‌ 28।६१ चत्र नियुक्ता शश३छ जिस बात करने का स्वमाव दो, उसमें तथा जिस काम पर नियुक्त किया गया

शो, उसमें ठक्‌ प्रत्यव होता है, यथा--

अपूप +ठक्‌ ८आपूपिकः (अपूपभच्ण शोलमस्य रस; ) (पूत्रा खाने की आदत वाला । ) आकर $ ठक्‌ 5आकरिकः ( आकरे नियुक्त: )खजाची ।

(यह्‌ प्रत्यय ) बशंगतः 2१८5 धर्मपथ्यथ॑न्यायादनपेते ।४(४४२

वश में आया हुआ के अर्थ में तथा धरम, पथ, अर्थ और न्याय के अर्थ में

यत्‌ प्रत्यय होता है, यथा-चश +यत्‌5वश्यः ( वश गतः ), घर्म--यत्‌रूध्य॑म्‌ ( घर्मादनपेतम्‌)धर्मामुकूल । इसी माँति दष्यम्‌, अध्यम्‌ , स्यास्यम्‌ । (यत्‌ ) हृदयस्य ग्रियः ।80/६४॥ तत्र साधु ॥छ89६८॥ प्रिय के अर्थ में इदू के बाद तथा यदि किसी बलु के लिए कोई योग्य हो हो उपसे यत्‌परत्मय होता हे, यथा--

५ देदयर्थ प्रिय: इथः ( ग्रिप् ) शरणे साधुः शरण: ( शरण लेने के योग्य ),

करमणि साधु; कमंण्य: (काम के लिए उपयुक्त ) )

(उ प्रयय ) तद॒ह॑तिपाशदा

जिस वस्तु के जो महृष्य योग्य होता हे उसका वोध कराने के लिए. उस चस्तु से ठज_प्रत्यय होता है,यया--प्रस्थ + ठज_+ ध्रास्पिकः ( पस्थमहंति )अ्रसौ याचकः (

द्रोए + ठज_>द्रौशिकः ( द्रोणामईति )अखी सेवक. । श्चेतच्छत्र + ठज_+5श्चेतच्छुत्रिकः ।

( यत्‌ ) द्डादिस्यः (१ १६६।

जिस बस्त॒के जो मनुष्य योग्य होता है उसके बोध कराने के लिए दण्डादि (दरड, मुखल, मधुपक, कशा, अर मेघ, मेधा, सुबर्ण, उदक, बंध, युग, गुदा, भाग, इस, भग )शब्दों के बाद यत्‌ अत्यय लगता है, यथा--

(एड + यत्‌८दरड्यः ( दण्डमहति)असी चोरः । इसी माँति मुसल्याः, मखुपक्ये), श्रष्य, मेष्यः, वध्य३, युग्य, गुह्म, भाग्य, भग्य आदि ।

( ठञ्)प्रयोजनमू शशरूध प्रयोजन के श्र्थ में ठज्न अत्यय लगता है, बया इच्द्रमह +ठज्‌ ऐल्द्रमादहिकः(इन्द्रघइ: प्रयोजनमस्य ) पदा्ः (इन्द्र के उत्सव के लिए, ), प्रयोजन का अयथ फ्ल क्या कारण दोनों हैं।

बछ०

बृहदू-थ्रमुवादन्चद्धिका

( थरण प्रतय ) संस्कृत मत ।श२। १६॥ जिए चोज में कोई खानेश्रीने कीचीज तैयार की जाय डउख्के बोध के लिए उस चीज से श्रण प्रत्यय जोड़ा जाता है, यधा--

आटे संस्कृताः भ्राद्राः (यवा:) माड में भूने हुए जौ । अष्टसु कपालेपु संस्कृतोडश्कपरालः ( पुरोडाशः ) प्मसि संस्कृतं पायसम्र्‌ (मक्तम ) दूध में वना हुआ मात |

पथ्रसा संस्कृत पायसम्‌ ( दूध से बनी हुई चीज )। ( उक प्रधय ) दष्नपक ।४7२॥१६। संस्कृतम्‌ ।22३। दही से बनी हुई चीज पर तथा किसी वस्ठु ( घी, मिर्च श्रादि )से बनी हुई खौज पर ठक प्रत्थप लगता है, यया-दष्नि संल्कृत दाधिकम्‌ ( दही में बनी हुई चीज )। दक्षा सस्कृत दाधिकम्‌ ( दही से बनी हुईं चीज )। तैलेन संस्कृतम वैलिकम ( तेल से बनी हुई वस्तु )॥ पृतेन संश्कृतम्‌ घार्तिकम्‌ ( धी से वनी हुई वस्तु )। मरीचेन संस्क्ृतम्‌ मारिचिकम्‌ ( मिच से छोफ़ी हुई वस्तु ) | [ण(श्र) प्रत्व | तदस्यां प्रहरणमिति क्रीडायां शा ।छदाशण यदि किसी सेल में फोई प्रहरण प्रयोग में लाया जाय तो उस खेल का बौष कराने के लिए प्रदरणवादी शब्द से ण (अर ) प्रत्यय दोता है, यथा-दरण्ड। प्रहरणश॑भस्या क्रीडोगा सा दारइ (डंडेवाजी )। मुद्रिं प्रहस्णमस्पाँ क्रीडाया सा मौष्टा (मुक्केबाजी ) ।

( श्रण्‌ प्रथव ) धरद॒स्मिस्नस्‍्तीति देशे तस्ताम्नि ।0२।३७ तेन निद्रतम्‌ ।शर६5। तस्य निवासः ।2२६५९। अदूरभवश्च ।9२॥७०) हू वस्तु इसमें है', “यद उससे बनी हे', उनका इसमें निवास है!, यह उससे

दूर नहों है! इन अर्थों काबोध कराने के लिए श्रण्‌ प्रत्यय लगाते हैं, यथा-उदुस्पराः सन्द्यस्मिन्‍्देशे इति ऋदुम्यपे देश: । क्ुशाम्बेन निदत्ता इति कौशाम्दी नगरी ॥ शिवीनां निवरासों देश: इति शैत्रों देशः विदिशाया श्रदूरमब नगरम्‌ इति वैदिशम्‌ नगरम्‌ |

इन चार श्र्यों के बोध श्रत्ययों को चानुरपिक तद्धिद कहते हैं | ६ शण प्रययय का लोप )जनपद लुप्‌ ।शक5९

जनाद के श्रर्थ बतलाने में चातुरिंक़ प्रतयों का लोप हो जाता है, यथा-

पश्मालाना निवातों जनपदः नपग्चालाः | इसी प्रकार-करवः, अन्ना७ वज्नाड कालिताः। जनदवाची शब्द बहुँ वचमान्त दी होते दें।

वद्धित-प्रकरण (महुप्‌श्रादि)

ड्छ्‌्‌

( मतुप्‌प्रत्यव )नया मतुप ।शरादभश ऐसे शब्दों में,जिनमें इई उ ऊ अन्व में हों, मत॒प्‌प्र्ययलगता है, यथा-इच्चुमवी, इन्दुमदी । (ञञप्रत्यय )तदवीते पद द ।शरा५० किसी चीज के जानने या पढने झा ज्ञान कराने केलिए ज (अर) प्रत्यय

लगता है, यथा--ध्याऊस्ण+भ_रूवैयाकरण, ( व्याकरणमधीते वेद वा )

संस्कृत में अनुवाद करो-१--६मैं समाज की बुराइयों को दूर करने का यत्ल करना चाहिए। २-अर्जुन ने जयद्थ को मारने के लिए कठोर प्रतिद्या की॥३--जय दशरथ जी के पुत्र भी राम बन जाने लगे तो सुमित्रा के पुत्र व्याकुल हुए कि मुझे वे घर ही न

छोड़ जायें ।४--दिवि श्रौर श्रद्विति के पुत्रों में घोर समाम हुआ । ५--पाणिनि के व्याकरण जानने वाले को प्राणिनीय कहते हैं ॥६--आप कहाँ से श्रा रहे हैं

और कहाँ जा रहे हैं! ७-लव श्रौर कुश दशरथ जी के पुत्र के पुप्र थे।

८--घुदने तक पानी में जाकर स्नान करो, गहरे पानी में नजाओ । ६--शानप्राले श्रौर धनबाले लोगों में बुत श्रन्तर है। १०--पुराने जमाने में लोग सदाचारी और सत्यवादी होते थे| ११-मथुरा में उत्न्न हुए लोगों को माशुर कहते हैं। १२-पुराण की कथाओं पर श्राजजल लोग विश्वास नहीं करते | १३--बेद

सम्बन्धी शास्त्रों काश्रष्ययत करना चाहिए। १४--लोक की बातों में लिप्त न होना चाहिए । १५-वह स्त्री घनेवाली श्रौर जानवाली भी है। १६--पौसस्त्य ओर पाश्चात्य सस्क्ृतियों में मेद होते हुए मी समानता है। १७-याणिनि क्री अष्टाष्यायी समस्त व्याकरणों का सार तथा पारणिडत्व की चरम सीमा है। १८५-सस्कृत में महीनों केनाम नक्षत्रों केनाम्रोंपर पढ़े हैं॥ १६--काऊ समूह, यक्र

समूह श्रौर क्पात ठमूइ भ्रपने समूह के साथ ही उड़ते, बैठते और रहते हैं। २०--अमित्रा के पुत्र लद्मय ने कमी राम का साय नहों छाड़ा। २१--बासुदेव

ने बुस्‍्ती के पुत्र अजुन का सारथी होना स्व्रोकार किया ।२२--माद्दी के पुत्र नकुल श्र सहदेव युधिष्ठिर केसाथ ही वन में गये। २३--प्राचीन समय में बहुत ही अद्भुत गुणों बाले अख्ू--आग्नेय, वरुण, वाबब्य और पाशुपत थे। २४--तीर्थ

का जल श्रौर भ्रग्नि भ्रत्य दोनों से शुद्धि के योग्य नहीं हैं। २५--जननी और अन्ममूमि स्वर्ग से मो बढ़ फर हैं।

लिड्ज्ञन नदी में लि२् दो होते हैं-पुँल्लिज्न और स्नीलिज्ञ | मस्त शन्द चेवनखजेतन इन्हीं दो लिड्नों मेंविमक्त होते हैँ । संस्कृत में इन दो के अतिरिक्त एक

श्रौर लिब्न है--नपुंसक लिज्ञ | समस्त संशाएँ इन्हीं तीन लिज्ञों में विभक्त हैं। संस्कृत में लिज्ञशान बहुत कठिन है, क्योंकि लिझ्ठ प्रकृति के अ्न॒ुतार नहीं है। उसमें संस्कृत व्याकरण का ज्ञान अधिक सहायक नहीं हो सकता।

केवल कोपों की

सहायता, पाणिनीय के लिज्ञातुशासन तथा संस्कृत साहित्य के अध्ययन से लिब्लशान हो सकता है । सस्कृत मे एक ही वस्तु या व्यक्ति के बाचक शन्द मिन्न-मिन्न लिझ्षों

के हैं,यथा--/तद/-तटी-तटम? इन तीनों का श्र्थ किनारा है। इसी मकार “स्व युद्धम-श्राणिः” इन तीनों का अर्थ युद्ध है ।इसी ग्रकार--“दारा३, मार्या और कल-

बारि इन तौनों का अर्थ विभिन्न लिज्ज और विभिन्न वचनान्त होने पर भी रो है। कुछ ऐसे भी शब्द देंजिनका अ्रथ॑मेइ से लिख़मेद होता है, जैसे--मित्र शब्द

ल्लिज्ञ होता 'तख्ा' का बोधक होने से नपुंठकलिज्ञ और “दूय! फा बोधक होने से पु है। इस प्रकार संस्कृत के प्रत्येक शब्द का लिड्ड निश्चित है। संस्कृत में लिझ्ल तीन हैं--ल्लिज्ञ, रीलिज्ञ और नपुंसकलिज्ञ।

संस्कृत शब्दों केलिझ्ननिर्णयय के कुछ नियम नीचे दिये जाते हैं-पईस्लिज्न

रू

१--घज_५ भ्रप्‌ , ध श्रोर अच्‌ प्रत्मपान्त शब्द पुल्लिज्ज होते हैं,यथा--पाकः, त्याग;, भावः, गरः, विस्तरः, गोचरः, सश्चयः, विजयः, विनयः इत्यादि, परन्तु मय, मुख, यय, पद, लिड्भ आदि शब्द नपुसकलिट्ठ द्वोते हैं । २--नकारान्तृ शब्द पुल्लिज्ञहोते हैं,यथा राजन--राजा, थात्मन-ब्रात्मा, किन्द

मन्‌प्र्यान्त कम्मेन और चरम्मन्‌ थ्रादि शब्द नपुसकलिश्न हैं।

३--साधारण और विशेष सुर ( देवता )और श्रम्नुर (राबस )और इनके

अनुचर वाचक शब्द पुल्लिक्न द्वोते ६, यथा--देवः, विष्षु;, शिवः, दानवः, दैत्पः आदि । इ४--कि प्रस्यवास्त शब्द एल्लिज्ज इंते हैं, यथा--विधिः, निधि, वारिधिः इत्यादि, परन्तु कि प्रसयान्त इपुधि शब्द छीलिड्न और पुंल्लिग दोनों में होता है )

इ-जद प्रत्यवान्त शब्द धुल्लिझ्न होते हैं, यथा-यत्नः, प्रश्न, स्वप्नः,

परन्तु याश्ञा शब्द स्रौलिश्ज होता है| ६--इमन्‌ प्रत्ययान्त शब्द पुंल्लिज्ञ होते हैं, यथा-मद्दिमा, गरिमा, लधिमा

इत्यादि, परन्‍्तु प्रेमनूशब्द पुल्लिक्न और मपुंसकलिद्न दोनों होता है।

इ्१

लिझ्नशान

७३३

७-करः ( किरण, हाथ ) और बलिए, गशडः (कपोल ) ओछ्ठः ( ओोठ ), दोः ( बाहु ), इन्तः (दाव ),कएठः, केशअ, नखः ( नाखून ) और स्तनः--ये 6व शब्द और इनके पर्याववाचक शब्द पुल्लिज्ञ होते हैं, परन्तु दीषितिः (किरण ) शब्द स्त्रीलिड्ज है श्रौर मरीचिः शब्द स्त्रीलिज्ञ शौर पुल्लिड्ज दोनों हे। ८छ-दार-दाराम, अछत-श्रक्षताः, लाज--लाजा॥, असु ( प्राण )-अ्रसवः शब्द पुंल्लिज्न और बहुदचनान्त होते हैं। ६--स्वगट, ययगः ( यज्ञ ), श्रद्धिः (पंत ), मेघः, अ्रन्धिः (समुद्र ), दुः (दक्ष ),कालः ( समय ), श्रस्िः (तलवार ), शरः (बाण ) और शचजुः ये शब्द

और इनके पर्यायवाचक शब्द पुंहिलिग होते हैं,किन्तु त्रिविष्टपम्‌ ( स्वग ), श्रश्रम्‌ (मेष ) ये शब्द नपुसकलिंग हैं। यौः श्रौर दिव्‌ ( स्व ) ये शब्द स्त्रीलिंग हैं| इपुः (बाण ) शब्द पुंल्लिग और स्तरीलिंग दोनों है। स्वर्‌ ( स्वर्ग )अव्यय है। १०--मास बाचक ( वैशासः, ज्येष्ठः श्रादि ) ऋठ ( वसन्तः, प्रीष्मः श्रादि ), रस ( कट, तिक्त: भ्रादि ), वर्ण ( शुक्लः, कृष्णः श्रादि रंग ),अग्निः, शब्द,

बायुः ( हवा ), नरः (आदमी ), श्रद्िः (साँप )ये शब्द तथा इनके पर्)रायवाचक शब्द पुं।ल्‍लज्ञ होते है, किन्तु ऋतुवाचक शरत्‌ ओर वर्षा शब्द स्त्रीलि]ड्ज हैं। ११--खमास-युक्त श्रद्द और अह--भागान्त शब्द पुल्लिज्ञ होते हैं, यथा-पूर्वाह, पराह्षः, सध्याह,, एकाहः, दयह:, अ्यहटः इत्यादि, किन्तु पुण्याहम शब्द नपुंसकलिड् है।

१२--समासोलन्न रातभागान्त शब्द पुल्लिज्ञ होते हैं, यथा--सर्वरातः, मध्यरात्र: आदि, किन्तु संस्पावाचक शब्द के आगे रात्र शब्द रहने से नपुंलकलिज्न होता है,यथा--द्विराजम्‌ , पश्चरात्रम्‌ इत्यादि ।

१३--खड3, निखवे,, शड्खा), पत्रम, और सागरः शब्द पुंल्लिज्ञ हैं।

स्रीलिड्न १- क्तिन्‌ (ति) प्रत्ययास्त शब्द स््ीलिज्ञ होते हैं, यथा--मतिः, ग्रतिः, सम्पत्ति: इत्यादि, परन्तु ह्ातिः शब्दे पुल्लिज्ज होता है। २-विथिवाचक शब्द र्वोलिज्ज होते हैं, यथा--प्रतिपत्‌ ,द्वितीया, ठतीया, सश्तुर्थो, पूर्शिमा आदि । ३--एकाउर ईकारान्त और ऊकारान्त शब्द ख्रोलिज्ञ होते हैं, यथा-भोः, ही, भू, भरः, आदि।

४-शकारान्त शब्द ख्रीलिब्ज होते हैं,यथा--नदी, लद्तमीः, गौरी, देवी ।

५-तलू प्रत्ययान्त शब्द स्नीलिज्ञ होते हैं,यथा--लघुठा, सुना, ब्ाक्ष-

णता झ्रादि।

मी

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

६--आकागस्त माठ़ ( झाता ),दुढितृ (कन्या ),स्वसे ( बहिन ), यातू ( पति

के माइयों की जिया) और ननाह ( ननद ) शब्द ख्ोलिज्ञ होतेई ७--ऊड और आप प्रत्ययान्त शब्द छ्ोलिज्ठ दोते हैं,वधा-कुरु), विधा, शोभा | * ८--विद्वत्‌ (बिजली ), निशा ( रात ), बल्लो (लता), वीणा ( बीन ), दिक्‌ (दिशा ), भू, (धस्दी ), नदी, होः (लाज )वाचक शब्द जोलिज्ञ होते हैं| ६--समाददार द्विगु समासयुक्त श्रकारान्त शब्द (जिनके आगे ईप हीता है) खौलिद्ज होते हैं, यथा--विलोको, पश्चवंटी, द्विपुरी आदि, किन्तु पात्र, युग और भुवन शब्द परे रहमे मे नपुंसकलिड्न शोता है, यथा-पश्मणत्रम चहयुगम्‌, पिभुवनम्‌ ] हि३०- विशति से नवति पर्यल्त संख्यावाचक शब्द स्रीलिक्ञ होते हें, यथा-विंशतिः, त्रिंशत्‌ श्रादि ।

नपुंसकलिज् १--भाववाच्य में त्युट्‌ ( श्रत ) प्रत्यय लगाने से जो शब्द बनते हैं, थे नपूँ:

सकलिंग होते हैं, यया--गमनम्‌ ,शयनम्‌ ,भोजनम्‌ इत्यादि ।

२३--भाव में कत ( त ) प्त्यय लगाने से बने हुए शब्द नपुंसकलिश्न होते हें,

यथा-इप्तितम्‌ , गीत , जीवितम्‌ इस्यादि |

३--भाव॑बाच्यमें कृत्य (वलव, श्रमीय, एप, यत्‌) तथा क्‍्यएं प्रत्ययान्त शब्द नपुंस्फलिज्ज दोते हैं, यथा--मवितब्यम्‌, मवनीयम्‌ ,भागम्‌ श्रादि | ४-पद्धित के त्य और ध्यप्न_प्रत्ययान्त शब्द भपुंसकलिज्ञ होते हैं, यधा-शुक्लत्न॑--शौकल्पम्‌ , सुन्दरत्वम--सौन्दयम्‌ , राजत्वम्‌--राज्यम्‌, मधुख्यम्‌-भाधुयम्‌ इत्यादि । ५--यत्‌ ,थ, ढर्क ,यक्‌ ,श्रज

,अण

घुज्

तथा छु

प्रत्ययान्त शब्द नपु*

सकलिज्ञ ढोते हैं- पथा-स्तेयम्‌ ,सए्यम्‌ ,कापयम , आधिप्म्‌ , थ्ौष्टम,देदावनम, पितापुत्रकम्‌ ,किराताइनीयम झादि |

६---/डसका भाव या कम” इस श्र में श्यण ( श्र) प्रत्ययात्त जो शब्द हैं

थे नपुंसकतिज्न होते हैं, यधा--शैशवम्‌, गौरवम्‌,लापवम्‌ श्रादि| ७--शत आदि संरयावाचक शब्द नपुंसकलिज्ज झेते हैं, यपा--शवम्‌ ,सहसम्‌ आदि, पर कोटिः शब्द ज्ोलिद्न होता हे । शत, श्रयुत, प्रथुत, शब्द पुन्षिग भौर नपुठफीडंग दाने होतेहै,यथा--श्र्य शत:, इृद शत्म्‌ इत्यादि | ८--डयद और उयट प्रत्यपान्त शब्द नपुंउऊलिय़ होते हैं, य्या--दवम, त्यम्‌ , द्वितरम, वितदम्‌ इस्यादि । ये शब्द रखोलिक्ष मी ी ब्रितयो )होते हैं|

हम

हि

लिड्-शाने

उप,

६---' जिनके अन्त में हो ऐसे शब्द नपुसऊलिड् होते हैं, यथा--छुम्म ,

पत्रम्‌, चरियम इत्यादि, परन्तु अमितः, छात्र", पुत्र", सन्त; इन, मेढ़ूः और उद्ः शब्द पुल्लिज्ञ हैंऔर पत्र, पात्, पवित्र सूत्र और छत पुल्लिल्‍्ट तथा मंपुसंकलिद्ध

दोनों होते हैं ।यात्रा, मात्रा, भखा और द्रष्टा ये शब्द स्रीलिज्ञ हैं। मित्र शब्द [श्र के श्रथ में पुल्लिज्ञ और सस्ता के अ्थ में नपुसकलिज्ञ द्वोता है ! १०--क्रिया विशेषण और श्रव्यय विशेषण ख्रीलिड्ध होते हैं, यथा--साधु चदति ( अ्रच्छा कहता है ), मनोहर प्रातः ( सुन्दर सबेरा )। ११--समाहारहन्द्र श्रीर अव्ययीमायसमासोल्क्न शब्द नपुसकलिज्ञ होते हें, यथा--पाणिपादम्‌ , हस्त्यश्वम्‌ , प्रतिदिनम्‌ , »थाशक्ति ग्रादि | १२-सण्पावाचक और अव्यय शब्द के परवर्ती समासोत्पन्न पथ! शब्द नपुसफलिड्ज होता है, यथा-नरपथम्‌ , चतुप्पथम्‌ , विपयम्‌ आदि । १३--यदि सख्यावाचक शब्द आदि में हो और श्रन्त मे रात शब्द हो तो जपुसफलिज्ञ होता है, यथा--द्विरानम्‌, पश्चरात्रम्‌ आदि । १४--दो स्वर वाले ग्रसू, इसू, उस और ग्नन्‌ भागान्त शब्द मपुसकलिज्ध

होते हैं, यथा--श्रस भागान्त--यशस्‌ ,तंजस्‌ आदि, इस भागान्त--सर्पिस्‌, हविस आदि, उस्‌ भागान्त--प्रपुस ,धनुस्‌ आदि, श्रत्‌ भागान्त-नामन्‌ ,चमन्‌ इत्यादि,

फिन्तु श्रापिस्‌ शब्द ख्रीलिड़ और वधस शब्द पल्लिद्ग छे दो से श्रधिक स्वर होने क कारण श्रणिमा,

भाईदिमा, चन्द्रमा ग्रादि शब्द

ल्लिज्ञ हैं श्रौर अप्सरत्‌ शब्द ख्रीलिज़ हे । अह्मन्‌ शब्द पुल्लिद्न और नपुसक-

लिट्ड दोनों है १५४--जो शब्द ख््रीलिड्ध या पुल्लिद्न नहीं है, ये भी नपुसकलिड्र होते हें,

यथा--इल्दम्‌ (समूह ), सम्‌ (आकाश ), अरण्यम्‌ ( वन ), परम (पत्ता ), श्वश्रम्‌ (विल ), दिमम्‌ ( पाला ), उदकम्‌ (जल ), शीतम्‌ ( ठण्ढा ), उप्णम्‌

( गर्म ) मासम्‌ ( मास ), रघिरम्‌ ( रक्त ), मुसम्‌ ( मेंह ), अक्षि ( ग्रॉस ), द्रवि-

शम्‌ (धन ), बलम्‌ ( बल ), इलम्‌ ( इल ),हेम ( सोना ), शुल्बम्‌ ( ताया ),

लोहम्‌ (लोदा ), सम (सुस ), हु सम (हु स), शुमम्‌ (कुशल ), अद्यभम्‌ ( श्रमगल ), जलपुष्पम्‌ (पानी में उत्तन्न होनेवाला फूल ), लवणम्‌ (नमक), व्यञ्ञ-

नम ( दूध, दद्दी आदि ),अनुलेपनम्‌ ( चन्दन ग्रादि ) येऊपर लिखे हुए तया इन शब्दों के श्र बोध करने वाले अन्यान्य शब्द नपुसकतिक्ष द्वोते हैं, किन्तु अर्थ और विमवः ( घन ) श्रवश्यायः,

नीहारः श्रौर तुपारः ( पाला ) तथा छुद ( पत्ता )

पुलिड्न हैं। अप्‌ (जल), अटपी (वन) मुद्‌ और प्रोति- (इं) बा और शुषि (प्िल), इृशू और दृष्ठिः ( श्राँस ) तथा मिहिका ( पाला ) स््रीलिड है| श्रॉफाश', विहायस

( आऊाश ) तथा क्षमः ये पुल्लिज्ञ और नपुसकतिक्न दोनों होते हैं।

खीप्त्यय-पकरेण कुछ संशाएँ ऐसी हैं. जिनके जोड़े बन जाते हैं--पुरुष और सनी । इस प्रकार के शब्दों के पुल्लिज्ञ और खीलिड्ञ बनाने के लिए जो प्रत्यय जोड़े जाते हैं, उन्हें स्त्री प्रत्यय कहते हैं, यथा--अ्रज से श्रजा, कुमार से कुमारी |

स्त्री श्॒त्यव ये हैं-ठाए(थ्रा ), डीए (६) और डीए (६ )।

टाप (आ ) अज्ञाद्यवष्टाप।४१॥४॥ कप शब्दों पर्वकि केश्रागे था रूरीलिड्न बनाने केलिए उनके आगे ठाप (आ )

जोड़दियाजाताहैं,यथा-अचल +टठाप्‌ (श्रा)5थश्रचला, कृष्ण-कृष्णा,

सरत्त-सरला, प्रथम-प्रथमा, श्रजुकूल-श्रजुकूला, पूब-पूर्वी, निषुण-निषुणा, श्रजआजा (बकरी ), कोकिला, ऋश्वा, घटका, वाला, वत्या, ज्येष्ठा, पुनिका, वैश्या, क्षत्रिया, शूद्रा आदि ।

प्रत्ययस्थात्कात्यूच॑स्यात इद्ाप्यसुपः ।अ३४४।॥ मामकनरकयोरुपसंख्यानम्‌। त्यक्तयपोश्च |वा०। टाप्‌ (आ ) प्रत्यय जोड़ने के पू यदि शब्द कक्ारान्त द्वो और उसके पहले धर! हो तो 'श्र! के स्थान में '₹” हो जाता है, किन्तु यह नियम तभी लगता हे जब “क! किसी प्रत्यय का हो और टाप के पूर्व सुप्‌ प्रत्ययों में से कोई न लगा हो,

यथा--मूपक + ठाप (श्रा

)5मूपिक +आ >मूपिका, पाचक-+-ठाप (श्रा)८

पाचिक + आर + पाचिका, सवक + दाप्‌ (आ ) >सर्विक + श्रा र सर्विका, मामफ + टाप्‌ >मामिक +श्रा 5मामिका | इसी माँतपाथात्यिका, दाक्षिणात्यिका [

यदि 'क किसी प्रत्यय का न हो तो यह नियम नहीं लगेगा, यथा--श्ढ + थ्रा>शक़ा (यहाँ पर 'क' घाहु फाहे)

सीप्‌ू (६) ऋन्‍्नेभ्यो डीप ।७१५॥ कऋ्रफारान्त और नकारान्त पुल्लिद्न शब्दों में ख्रोलिक् बनाने के लिए ढौपू » (६ ) प्रत्यय जोड़ दिया जाता है, यधा--( श्यूकारान्त )--कतूं--डीप ८कर्त्री, दातू +हीपू ८दात्री, जनयित्री, शिक्षयित्री श्रादि |

विशेष--स्वच, माठू आदि शब्दों में डीप्‌ (६) प्रत्यपय नहीं जोड़ा जातां, यंधा-रखखा, भागा, दुद्ठिता, ननॉन्‍दा, विलः, चतस्रः |

स््रीप्त्यय प्रकरण

४७७

( नकारान्‍्त ) मालिन्‌+डीप (ई) मालिनी, दश्डिनी, शवन-शुनी, मानिनी, कामिनी, गुशिनी, मनौदारिणी, तपस्विनी आदि | विशेष-व्यक्षनान्त शब्द के ठृतीया केएक बचन के रूप का अन्तिम स्वर इटा दिया जाता है और शत्‌ एवं स्यतृ प्रत्ययों केबने हुए शब्दों में त्‌ के पूव “ज! कोड़ दिया जाता दे, यथा-श्वन्‌का तृतीया का एक वचन शुना हुआ, इसका श्राकार हटा दिया तो शुन्‌ शेष रहा, उसमें ईजोड़कर शुनी बना, इसी भाँति राज्ञा से राडी, पचता से पवन्ती । स्वरान्त शब्दों का अन्तिम स्वर इठा दिया जाता है, यया--सुमझ्लल--मुमझ्जल्‌ +ई < सुमज्ञली ।

टिड्‌ ढाणनूहयसज्‌दन्नगूमात्रचुतयपठकूठभकबूकरप १९ निम्नलिखित शब्दों के थ्रनन्तर स्लीलिड्र बनाने के लिए डीपू (६) प्रत्यय जोड दिया जाता है, कर में अन्त होने बाले--यथा--भोगकरः--भोगकरी । नद, चोर, देव, आह, गर, प्लब--नदी, चोरी, देवी, ग्रादी, गरी, प्लवी | ढक ,अण्‌,श्रण्‌,इयसचु, दप्तत्‌ ,मात्रचू, तयप्‌ , ठक्कू ,ठज,, कअ_तथा कर प्रत्ययान्त शब्द, यया--

मुपणं-सौपणंपी, इन्द्र-ऐन्द्री, उत्त-प्रौत्सी, उर-द्वबसी, उरुदृप्ती, उच्मानी, पंंधतयी, आतिकी, लायणकी, यादशी, इत्तरी ।

चयसि ग्रथमे ।9/१02०। धयस्य चरप्‌ इतिवाच्यप्र्‌ प्रथम बयस्‌ ( श्रन्तिम अवस्था को छोड़कर ) ज्ञान कराने वाले शब्दों के अनन्तर स््रीलिज्ञ में डीप (६) प्रत्यय जोड़ दिया जाता है, यथा--कुमार-कुमारी,

किशोर-किशोरी, बधूट--बधूटी | अन्तिम अवस्था में महीं होगा, यथा--

चूद्धा, स्थाविरा ।

्ः

औीप्‌ (३) पिदूगौरादिम्यश्व 8१४१ पित्‌ ( नतंक, सनक, पथ्रिक आदि ) शब्दों तथा गौरादि गण ( गौर, मत्स्य, अनुष्य, इरिण, श्रामलक, वदर, उमर, भृद्छ, अनडुद, नट, मड़ल, मण्डल, बृहतू आदि ) के अ्रनन्तर स्रीलिज् बनाने के लिए टीपू (ई) जोड़ दिया जाता है, यथानतऊ--नतंकी, गौरी, पयिकी, रज्की, मुन्दरो, मातामद्ी, पितामही, नदी,

नदी, स्थली, तटी, कदली ।

पुँयोगादाख्यायाम्‌ श०८। पालकान्तान्न |वा० । पुपुल्लिज्ञ शब्द जो पुरुष का योतक दो उससे स्रीलिड्न बनाने के लिए डीपू (६ ) जोड़ा जाता है, किन्तु जिन शब्दों के अन्त में पालक हो उनसे नही, यया-गप-गोपी, झद्ध/-शही, परन्तु सोगलक/-गोरलिका ( गोवालिको नहीं बनेगा )॥

घष्द

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

जातेरल्लीविषयादयोपघात्‌ ।७ १६३। ऐसे अ्रकारात्त जातिबाचक शब्दों के जिनकी उपधा मैं यू! न हो, ल्लीलिग बनाने मे डीपू (६) लगवा है, यथा-आ्राह्मण-ब्राह्षणी, गोप-गोपी, मातुपमानुपी | सिंह-सिही, मुग-सगी, व्याप्ी, मल्‍्लूकी, महिपी, शूक्ररी, गर्धवी आदि ।

ब्रोतोगुणबचनात्‌ ।8/१॥४४। ४ उकाराम्त गुणवाची शब्दों के अ्रनन्तर ख्रोलिंग बनाने फे लिए विकल्प से

डीपजोड़ते हैं,यथा मदु-मृद्वी, मुदुः। पढु-पदवी, पहुः। साधु-धाग्वी-साष्ठः | गुर शुर्वी, गुंझः क्रादि।

उगितिश्च ४ ६६

ऐसे प्रातिपादिकों सेजिममें उकार और ऋफार का लोप होगा है. ( गह॒पु , बतुप्‌,इयसु, तबठ, शत से बने हुए शब्दों से)रीलिंग बनाने में डीपए (६)

प्रत्यय जाड़ दिया जाता है, यथा-(उकार लोप )--मवत्‌-भवदी, श्रीमत्‌-श्रीमती, बुद्धिमती, लज्ञावती श्रादि । ( ऋकार लोप )-रुदत्‌ू-रुदती, जानतू-जानवी, शह्वतो थ्ादि। भ्वादि, दिवावि, श्र चुरादिगणीय धाठुश्रों सेतथा शिजन्त से शत प्रत्यय करने से जो शब्द बनते हैं,उन शब्दों से डीप (ई) प्रत्यय चोड़ने पर 'त! के पूवष “ह लग जाता है, यथा-(गच्चुत्‌ ) गच्छन्ती, (बदव्‌ ) बदन्ती, ( दीव्यत्‌ ) दीव्बन्ती, (लव

इल्नन्ती, ( चिन्तयंत्‌ )चिन्तयन्ती, (भकतयत्‌ )भत्तयन्ती । ( दशयत्‌ ) द्शंयन्तो, ( कारयत्‌ ) कारयन्ती |

* ठुदादिगणीय तथा श्रदादिगणीय श्राक्राराम्त धालुग्रों से शत प्रत्यय जोड़ने पर

जो शब्द बनते ६, ख्लीलिय बनाने मे जब उनके आगे डीपू (६) प्रत्यय॑ जोड़ा जाता है तो “? के पूर्व न! विकल्म से लगता है, यथा--

( इच्चत्‌ ) इच्छन्ती, इच्छुती | ( एच्चत ) एच्चन्तो, पच्छवी । (रशत्‌ )

स्शन्ती, स्ृशती । ( यात्‌ ) यान्‍्ती, याती । ( भात्‌ ) मानती, भाती श्रादि

साड्राच्बोपसर्जनादसंयोगोपधानू ।शश५४

धहुओीदि समास में अवयव घाचक अ्रकारान्त शब्दों के श्रनन्तर खीलिंग बनाने के लिए. विकह्प से डीप्‌ (ई ) प्रसव लगता है, यथा--केशानतिकान्ता अतिफेशी, भ्रतिकेशा। चर्दगुत्री, चन्द्रमुखा, मुकेशी, मुकेशा | ऋृशांगी, रशागा। बिम्योठठी, विम्बोश भ्रादि वहादिभ्यरचर 8६५॥ बहाादिगण ( बहु, पद्धति, श्रश्वति....अहि, कपि, य्टि, मुनि श्रादि ) के शब्दों से विकछ्त से खोलिंग में दीप (६) शोता है, सथा--बहु-बह्ी, बहुः। रानि:,

स्त्रीप्रयय-प्रकरण

है

रात्री । भ्ेशिः-भेणी ) राजि।, राजी ) मूमि$ भूमी । किन्‌ प्रत्मयान्त में नहीं शेतग, ग्रथा--मतिः, गतिः, स्थिति; आ्रादि |

इन्द्रवरुणभवशवंरुद्रमडहिमासण्ययवयवनमातुलाचायोणामानुक ४१४६

हिमारण्ययोमहच्वे |वा० । यवादोपे ।वा०। यवनाल्लिप्याम्‌। बा०। मातु-

लोपाध्याययोरानुग्वा |आवारयादुण-ब॑ च। अर्य॑क्षत्रियाभ्यां वा स्वार्थ । जाया अ्र्य में इन्द्र, वरुण, मय, शव, रुद्ठ, मृंड, श्राचार्य और अब्न्‌ शब्दों में डीपू लगने से पूर्वआ्रानुक्‌ (आन ) जोड़ दिया जाता है, यथा--इन्द्रस्य जाया

इन्द्राणी, वरुणानी, मवानी, शर्वाणी, रुद्राणी, मडानो, श्राचार्याणी और बश्चाणी ( ब्रह्मन्‌शब्दके न्‌ का लोप हो जाता है )। मह॒द्‌ हिमे हिमानी । मदद अरण्यम्र्‌ अरए्यानी, दु्टो ययो यवानी । यवभानां लिपियंबनानी | माठुलानी, माठुली । उपाध्यायानी, उपाध्यायो। श्राचायस्य स्त्री

श्राचार्यानी, आरचार्या स्वयं व्यास्थातरी । अर्यायी, अर्या । स्व्रामिनी वैश्या वेत्यथ: | क्षतियाणी, क्षनिया | पुंयोगे ठु श्र्यी, ज्षत्रियी । आश्णीतत्र बाह्मणमान-

यति जीवयति इति कर्मए्यरण्‌।

कुछ ज्तब्य द्रीप्रत्ययान्त शब्द

ईल्लि् गवय

हृ्य

खरीलिड्न गबयी

ह्द्पी

पुल्लिहन

खीलिड्न

तत्थिवस्‌

तस्थुषी

श्रवाच्‌ (दक्सिन) अवाची

मत्स्य

म्त्मी

विद्वस्‌

मनुप्य

मनुप्री

स्‌यं

स॒या (रेवता)

शद्र (जाति)

श्द्रा

सूय

सरी (कुम्ती) चाहरी

» पिरनी)

बिदुधी

श्री

चादय

राजन्‌

राज्ञी

मातुल

सुवम्‌

युवती

।मानी माठुली यव (खराब जौ) यवानी,



युवति३

यबवन

फ् ख़न्‌ मधवन्‌ ५ प्राच्‌(पूच)

यूनी शुद्दी

|मघोनी

(लिपि)

यवन (स्त्री) कुजिय (अालि)

यवनानी

यवनी, बवनिका |4 क्षत्रिया ». पिल्नी) ्नत्रियी उपाध्याव (पत्नी) ।उपाष्याबानी

मघबती प्राची

# थिध्यापिकोे)

प्रत्यच (पच्छिम). पतीची

आचाय (पाठिका)

उपध्गयी उपाध्याया

आचार्य

इपर०

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

शआाचारयो (पत्नी).

श्राचार्याणी

शवशुरा

दिमम(विस्तार श्रथमें) दिमानी अरण्यमू

श्ररण्यानी

श्र्यं(ैरय ) » (जाति) अय॑ (पत्नी)

सखि

सखी

पतिः

कया

कुरूः

शवभूः

!अर्याययी श्रया झर्यी फ्ली

संस्कृत में अनुवाद करो-१--एक छोटी उम्र वाली बालिका खेल रह्दी हे। २--इतनी पतली कमर बाली स्त्री मेरे देखने में पहले नहीं थ्रायी ॥३--पति के बियोग में विलाप करती हुई दमयन्ती नेएक अजगर देखा । ४--वह कुम्दार की स्त्री पड़े बेच रही है । पू-शांगी पढ़ी लिखी स्लो थी। ६--मामाकी स्त्रीने भेश प्यार दुलार किया। ७--उस पुरुष की स्त्री श्रच्छे लक्षणों वाली दे। ८-श्राचार्थ जी की स्त्री छात्राशों को पढ़ा रहो हैं। ६--उस तप करतो हुई पाव॑ती ने घोर तप फरके शिव भी फों प्सत्न किया । १०--उपाध्याय की स्त्री माता के सदश होती है। ११--भीरास का वियाई चन्द्र केसमान मुखवाली सीता जी से हुआ ! १२--उस नाचने वाली ने अ्रपने कौशल से देखनेवालों को भ्रस्॑न॑ कर दिया ।

लेखोपपोगी विह हम “प्राक्ृपन” में बतला चुके हैं कि संश्कृत भापा की चाक्यरचना में शब्दों का विकारी होने के कारण कोई क्रम निश्चित नहीं है। कर्ता, कम, क्रिया वाक्य के आदि, मध्य श्रोर श्रन्त में भीरखे जा सकते हैं। इसी कारण संस्कृत मैं ध्राधुनिक लेखोपयोगी चिह्दों का यद्यपि विशेष महत्व नहीं हे, तथापि “अन्न तुमोक्तम सत्रापि मोक्तम्‌?? इस प्रसिद्ध सरकृत वाक्यकासौधा यही श्रर्थ होता है--“इस स्थल पर नहीं कहा गया दै ( शरीर )उठ स्थल पर मी नहीं कहा गया दे ।” लेखफ फो

यह श्र्थ श्यमिप्रेंत नदीं। बइ तो चाइला हे--“श्रत्र ठुना उक्तम” अर्थात्‌ “जो

बात इस स्थल पर “तु” शब्द से प्रकट की गयी है वही वात उस स्थल पर “श्रपि" शब्द द्वारा व्यक्त फो मयी है। श्रतम मानना पड़ेगा कि शोभन शब्द-विन्यास से लेख में श्रवश्य चारता श्रा जादी हैऔर जटिलता मो जाती रइती है। इसी प्येय को दृष्टि मेंस्सकर हमने यहां कुछ लेखोय्योंगी चिद्द दिये हैं-श्रल्म-विरामचिहस्‌ अधेदिरामचिहम्‌



पूराविराम-चिहम्‌ प्रसच्नसमाधिचिह्म्‌ प्रश्नोधकचिष्ठम (काकुचिह्म्‌ )

>> [ (०4 ) 5 (5ध्या-0०"०ा )

॥ (#णा 90 ) ॥ ! (छां87 ण॑ /ह्तण्डबधणा)

लेखोपयोगी चिह्न

“विस्मयादियोधकृचिहम्‌

सम्बोधना55श्चरय खेदचिहम्‌

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| ! (587 रण 80007,

5ण्ं5९ शं०, )

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उद्धरणचिहम्‌

5४.

योजकचिहम्‌ कोष्ठक ( पाठान्तर )चिहम्‌ सन्विच्छेदचिहम्‌ पर्याय चिहम्‌

-- ( पिएशा ) []६ ) ( एद्याधय॥65७५ ) हु 4८

निर्देशचिहम्‌

उुदिनिदेशचिहभ्‌

धन

हा

लेखोपयोगी चिह्नों पर ध्यान दो और हिन्दि भाषा मे अनुवाद करो १--अ्रपि क्रियार्थ सुन समित्कुशम ! (कुमारसम्मवे ) २--तारापीडो देवीमवदतू--“श्रफ्लमिवासिल पश्यामि जीवित शज्य व

अग्रतिविधेये ( निष्मरतीकारे )धातरि कि करोमि ! तन्मुच्यता देवि ! शोकानुबन्धः आधीयता बैये च धीः ।”? (कादम्बयाम्‌ ) ३-आअहो प्रभावों महात्मनाम्‌! श्रत्र शाश्वत विरोधमपहायोपशान्तान्तरास्मानस्तियश्लोडपि तपोवनवसतिमुखमनुमवन्ति । ( कादस्पर्याम्‌ ) ४-हा कथ सीतादेव्या ईइश जनापवाद देवस्य कथविष्यामि | श्रथवा नियोगः

खल्वीदशो मन्दभाग्पस्य । (उत्तरणमचरिते ) ५-आसीश्च मे मनसि, “शास्तात्मन्यस्मिश्ने मानिद्चिपता, किमिदमनायेंणासद्ृशमारब्ध मनसिजेन !” ( कादस्पर्याम ) सस्कृत मे अनुवाद करो-१--जेठ महीने की पूर्णमासो तिथि को पतित्रता स्तरियाँ बट इच्ष की पूजा और उपवास फरती हैं। इस तिथि को प्राचीनफ़ाल में सत्यवान्‌ की भार्य्या साविनी ने यम द्वार लिये जाते हुए. अपने पति सत्यवान्‌ को छुड़ाया। तमी से इस ब्रत का

आरम्भ हथ्रा है। स्तियाँ यह मानती हें क्रि इस ब्रत के करने से उनके पति की आयु दीघ होती है। सब ढोहागिन स्त्रियों इस ब्त को करती हैं। ( काशी प्रथमा

परीक्षा १६३१ )

२-हे मित्र ! श्रव आप आदि से मेरा इत्तान्त मुनिए। मेरा जन्म पद्मपुर में

हुआ था। मेरे पिता के पाँच भाई ये, जो मृत्यु कोआत्र हुए। आप ही के देश से आये हुए एक ब्राह्मण से मेरा विवाद हुआ | उनको मरे आ्राज सात वर्ष हो गये।

मैं अनाथ श्रव॒ क्या करूं! मन्दमागिनी मैं कहा जाऊँ! इस श्रवस्था में आप ही औेरी शरण हैं |( काशी प्रथमा परोक्ता १६३१)

/पत्र॒लेखन-प्रणाल्ी (१) अवकाशाय आवेदनपत्रम्‌ अमिन्त: प्रधानाचार्य मद्दोदया, दयानन्द-एऐँग्लो-बैदिक-मद्दाविद्यालय,, लवपुरम्‌। ओमन | सेवायां सविनयमिदमायेद्यते यन्मम ज्येठभ्रावुः थीजगदीशघ्य वैशाखमासे शुक्ाशम्पां तिथौ विधाहः निश्चिनो5स्ति | वरयात्रा च देवग्रयागग॑ गमिष्यति। ममापिं गमने तत्रावश्यक॑ प्रतीयते | अतो+हमशना दिवसानामवकाशं याचे । शआाशारे ममाहे चेदनमवश्यमेव स्वीकृत मविष्यतीति-प्राथयतै-विद्यादत्त: सप्तमऊचास्पः ।

(२) अलुपस्थितिविषय्क झावेद्नपतरमू श्रीमन्‍्तः नवमकज्ञाध्यापफमहोदया), क्ीन्स-इण्टरकालेज, लरुमस पुरम्‌| भगवन्‌ | श्रहं गतदिवसाव्‌ ज्यस्पीडितः शब्याग्रस्तोईर्मि, बलवती शिरः पीडा च मां व्यकंयति । श्रतो्यविद्यालयमागन्तुमसमर्थोडर्मि |मम ग्द्यानुपस्यिति मपविष्यन्ति कछाचाय महोदया इति प्रार्थयते-श्राशाकारी शिष्यः-प्पारेलालः।

(३) पित्रे पत्रम्‌ भीमलिदचरणेपु प्रशवयः सन्तुवराम्‌ । कुशसतमत्र तवास्तु | बदुदिनादारम्य मायावधि मया प्राप्त मावत्ऊ कृपापत्रम्‌ दत्त च। श्रतों मे चेतश्रिन्ताकूल वतते। श्रस्माक परीछा नातिदुरं विद्यते, श्रतोडप्पयने निदरा ब्याप्तो5स्मि। गतार्धवार्षिकपरीछायां मया प्रायः समस्तेपु गणितेतरविपयेपु उच्चाड़ाः प्रास्ता: |इदानीं गशितविषयें नितरा परिभ्रम॑ करोम्ति। आशासे वार्षिकपशेद्ाया प्रथमभोण्यामुत्तीर्या मविष्यामि ) माठुअश्णयेः प्रणतिम वाच्या। मोटिति गहस्व वृत्तं लेख्यम।

मवतामाशाऊारी तदूँज: विनोदचन्ध+

पत्रलेखन प्रणाली

इपरे

(४) भात्रे पत्रम्‌ ; अगर विधिबात-बनर्जछाब[सतः, दिनाकः ६०-११-६१॥। प्रिय रमेश ! ु ममस्ते। अत्र कुशल तत्रास्तु। त्वं पाणूमासिकपरीक्षाया सर्वेप्रथमस्पानमाप्मोरितिविज्ञाय परमप्रीतो5स्मि । वार्षिकपरीक्षायामपि भवानेतत्स्थान श्राप्स्य-

तीति हृढो मे निश्चयः | अहमपीदानी राजनीतिविषये एम० ८० परीक्षा दाठुकामः | विघानचम्द्रोडपि भवम्तमनुस्मरात। भावत्क प्रियवन्धु--प्रकाशचन्द्रः ।

(५) सिश्राय अमएविपयक पत्रम्‌ नरही-लक्र्मणपुरतः, दिनाक: १८०२-६१ प्रियवर सोम | सप्रेम नमस्ते | अह परेशत्य कृपया सकुशलोडस्मि, तत्रापि कुशल वाड्छामि। अस्मार्क आ्ैमासिऊपरीक्षाउमबत्‌ । उत्तरपत्राण

चाह

मुन्द्रमलिखम्‌॥।

अधुना

डच्ण-

कालावकाशेपु भवान्‌ क गन्मुमिच्छुति । अपि रोचते भवते काश्मीरगमनम ! वत्र सल्लु गिरिम्यो जलप्रवाद्म, निर्भराश्च निद्सररन्ति। एलजम्बीर्सेव-द्रातानारज्ञ-अ्क्ोटफलानाश तन बाहुल्‍य बर्तते | तस्पोदीच्या दिशि पबंतराजः पिष्ठति, यस्थ शिखराणि दिमाच्छादितानि विद्यन्ते ।शैलोध्यम्‌ उत्तरप्रदेशालक्लारभूतः सन्‌

भारतवर्षंस्य मेखलेव पूर्बापरजलनिध्योवेंलापय्य॑न्त विस्तीणेंः तिष्ठति | तत्रौपधवः, प्रस्तरा।, उत्तमफाष्ठादीनि च॑ वहून्युपयोगीनि वस्वृन्युपलम्पन्ते । कि बहुना। ततो5स्माक महॉलल्‍लामो भविष्यति 4 स्वास्थ्य च तत्रोषित्वा शोभन मविष्शति । स्वपरीक्षा-

विपये तथा भ्रमणविषये च त्वरतमुत्तरं देयम्‌ अमिन्नद्वद्य।, रामप्रसाद+ दरामकछास्थः

|

(६) निमन्‍्त्रश-पत्रम्‌ ओऔमनन्‍्महोदय |

भवन्त एतदवंगत्यावश्य हपमनुभविष्यन्ति यत्‌ परमात्मनः महत्यानुकम्पया मम्र ज्वेध्रपुनस्य पीएचू० डी० इस्युपाधिविभूषितत्य श्रीमोहमचन्द्रस्थ परिणयनरुस्कारः प्रयागवास्तव्यस्थ भ्रीमतः श्रीप्रसादगौडस्य ज्येष्ठपुत्या बी० ए० इत्युपाधिविभूषितया मनोरमादेब्या सह दिनाके १६-४-१६६१, रात्ौ अ्रष्टवादन-

समये श्रयागे मविष्यति | थ्रतः मवन्तः सादर प्राष्यस्ते यत्सपरिवारमत्मिन्‌ मद्गल-

झ्टाड

बृहदू-अनुवादन्वन्द्रिका

कार्य समागत्य शुमाशोव्रांदप्रदानेन वरवधूयुगलमगुग्रहमन्ताम॥ मंवतां वरयात्रागमनमष्यपेच्यते |

२८ श्रमीनावाद+,

भवतां दर्शनामिलापो--

लक्ष्मणपुरम्‌ । दिनाकः २-४-१६६१

गोपालचन्द्रगौडः । ( सूचनयाध्नुग्राप्तोध्यंजन३ )

(७ ) दरशनाय समय-याचना श्रीमन्ठ उपराष्ट्रपठिमहोदया डा" राधाकृष्णन्‌ महामागाः, देहली | औमस्तः परमतंमाननीयाः

श्रईं शारदाविद्यापीठ-वार्िकसमारोदविपय्माशित्य. मवद्धिः सद्द किशिद आलपितुमिच्छामि | मवद्नि्दिष्काले मबदृर्शनममिधाय मवसरामशलामेन इतार्थे मात्मान॑ मंस्ये ।

दर्शनामिलापी-

परञ्ुरामः, मन्त्री

शारदाविद्यापीठम्‌ , औनगरम ( काश्मीरम )। दिनोक) ३-४-१६५४८

(८) शारदाबिद्यापाठ एकादशवार्पिकसमारोह

एतदबंगत्य मबता परमहपों मविष्यति यत्‌ शारदाविद्यापीठश्य वार्मिकोत्सवः

छआगामिनि अगस्तमा[सस्थ पश्चदशतारकाया सपत्स्यते | खी । २--उदधि >

५ समुद्र । विदक्षम #पद्ठी ।३--शिरोघरा ८ गदंन । उचानिव ८ खुला हुआ | ४--

शोणिव ८ खून । शोशपाणि ८ रक्तदृत्त |कच 5 दाल | उत्ततय - अलक्नत करना | प--अनु + श्राव्‌+सेवा करना । सदकार ८ भ्राम | श्रविद्ुव्वलता +र माघवीलता ।

पल्लव >पत्र। ६--छलत्र

ली | प्रवज्या >सनन्‍्यात | ७--कल्‍्य ८ बंडे सबेरे।

सपय-भ्रवात रू हवा वाला । परितानिका- सन्यादिनी 4

धझ्प्प

बुहदू-अमुवाद-चन्द्रिका

६--तेपु तेषु र्यतरेपु स्थानेपु तया सह वानि तान्यपरिसमात्तास्यपुनर्कानि

न केवल चन्द्रमाः कादम्बर्या सह, कादम्बरी महाश्वेतया सह, महाश्वेत्ा तु पुणदरोकेण सह, पुण्डरीकौषपि चन्द्रमा सह सव एवं सवकाल॑ सवसुखान्यनुमबन्तः परा कोटिमानन्दस्वाध्यगच्छुन्‌ | ( कादस्बयाम्‌ ) १०--मूर्ख, मैप तव दोपः। साथधोः शिक्षा गुयाव सुम्ययते, नासाधोः। ( पग्मतत्ने १-१८ ) ११-प्रसीद भगवति वसुन्धरे | शरीरमसि संसारस्थ। तत्किमसंविदानेव जामातरे कुप्पसि | ( उत्तररामचरिते ७ ) १२--सखि वासन्ति ! दुःखायेदानीं रामस्य दशशनं सुहंदाम्‌। तत्कियचिर ला रोदविष्पामि | तदनुजानीहि मा गमनाय । ( उत्तररामचरिते २ ) १३--न जानामि केनापि कारणेनापहस्तितसकलसखीजन त्ववि विश्वसितिं में हृदयम्‌ । ( कादम्वर्याम्‌ २३३ ) १४--धघिडमा दुष्क्ृदकारिणीं यस्या। झृते तवेयमोदशी दशा बतते | ( काइं० ) १५--हा दयित माधव ! परलोकगतो केला | श्रनवरत # निरन्तर | विलास छू

मोनूक ।

परप्रह

श्रनुवादाय-गद्य पद्य संग्रह

वेगाहुत, सद्यो१०--स मद्दनमानस्तरमेब न वेद्ि किमसहादत्तेमंदनज्वरस्थ मूलस्तदरिव विपाकस्यात्मनों दुष्कृतस्य गौरवादाहोस्विन्मद्बनचस एव सामर्थ्यादाच्छिच्ष _ दिवावपतत्‌ । ( कादम्धर्याम ) िल राज्यतम्त्रेडस्सिन्‌ महामोहान्धकारवेशसहसदारुशे कष्टतिकुट ११--तदेवप्रायेड कार्रिर व यौवने कुमार ! वया प्रयवेथा यथा नोपहस्थसे जनेनोपालम्यसे सुदद्धिनाँ ह्विप्पसे विषयैर्न विकृष्यसे रागेण नापहियसे सुखेन | ( कादस्बर्याम्‌ १०६ ) से कि सखा साधु न शास्ति योडघिप

सदातुकूलेप

हितान्न य। सश्णुतते स कि प्रमु |

दि...

कुबंते

वषेष्वमात्यपु.

मद॑सित्तमुसैमृंगापिपः

रवि

च..सवसथदः ॥ १९ ॥ ( किरता० )

करिमियर्तयते .स्वय हेंतेः |

लघयन खलु तेजठा जगन्न महानिब्छति मूतमन्यतः ॥ १३॥| किमवेद्य फल॑ पयोपरान्व्वनतः प्रार्थवते झुंगा धपः। प्रद्तिः खन्ठु सा मद्दीपसः सहते नान्यसमुन्नति यया ||

यास्यत्यथ वैज्वब्य॑

शुकुत्तलेति

( शाबुन्तले ) दृदय सस्यष्रमुत्कशंठया

कशटस्ताम्भतवाषइत्तिक्लुपश्चित्ताजड दर्शनम्‌। मम तावदीदश»पि.. स्नेदादरण्यौकसः पीड्यन्ते णहिणः कथ भु॒तनयाविश्लेपदु खैनवेः ॥१४) (शाकु*)

शुभूपस्व॒गुरून

दुझ

प्रियससीशति

सपत्नीजने

मतुर्विप्रदृतापि रोपणतया मा सम प्रतीप गमा। मूयरिष्ठ सत्र दक्षिणा परिजने मासम्बेष्यनुस्सेकिनी याल्येब शदृणीपद युवतयों वामाए कुलस्थाथतः॥३8॥ (शाकु०) पातु न प्रथम व्यवस्यति जल

युष्मास्वपीतेषु या

भादते टियमएडनापि मबता स्नेदेम था पल्नवम्‌। आये

वः

कुसुमप्रदत्तिसमये

यस्या

मवत्युत्खत्रर

सेय याति शकुन्तता परतिण्द सर्वस्भुशावताम ॥१७॥ (शाकु०) २०--मदन ८ काम, विपाक फल । दुष्द्रत पाप । ल्ति > प्रृध्वी | ११-दारुण रू दु'पप्द |उपालम्‌ रू ताना मारना | १२--अ्रमात्य रू सन्‍्त्री | १३-छूगान

दिए ८सिंह, करिय>ड्ाथी, बर्गते >गुजारा करा दे । भृति रू ऐश्वर्य | १४-प्रयोधर > मेघ, प्रकृति

स्वभाव, सद्दीयस्‌ ल्‍ूसहायुदुध।

श्रमुत्तेक 5 निरमिमान | १७- ऋजु सीधा |

१४--प्रतीप ८ विपरीत |

अु६०-

,.

बहदु-अनुवाद-चन्द्रिका

झभिजनवतो भत/ श्लाध्ये स्थित गहोणोपदे, बिभवगुरुमिः

ऋत्वैत्तस्‍्य

तनयमधिराथावीवाक

प्रसुध

- -

प्रतिकशमाकुला ! चर

पायनम्‌

मम विरहजा न त्व वत्से शु्च॑ गणय्रिष्मसि ॥१८॥ (शाकु०' जश्र्थों

हि कन्या परक्षीय

तामद्य जातो

मम्राय

एबं

संप्रेष्ष

विशदः

यरिणहीतुः।

प्रकाम॑

प्रस्यपितन्यास

इवान्तरात्मा ॥१६॥ (शाकुण)

( कुम्ास्सम्भवे ) विपिप्रयुवतां परिणह्य सत्किया परिश्रम नाम विनोय च क्षणम्‌।

उम्रा स पश्यन्तशनै३॑ चछुप अचकमे वक्‍तुमनुण्कितक्रमा रथ अपि क्रियार्थ सुलभ उमितक्कुश जलान्पपि स्नानविधिक्षमाण ते। आऋपि स्वशु॑वत्या तरसि प्रवतसे

शरीरमाय खल्ु धमंसापनम ॥२१॥

किमित्यपास्थाभरणानि गौवने, धृतं त्वया वार्धकशोमि बल्कलम्‌।| बद प्रदोये स्कुटचन्द्रतारछा,

विभावरी

यद्यरणाय

यपुर्विदूपाक्तमलच्यजन्मता, . दिगम्बरत्वेद.

निवेदित॑

कल्पते ॥२२॥

बसु ।

यरेपु बदू वालमगांति मग्पते, तद॒स्ति कि व्यस्तमपि त्रिलोचने ॥२३॥ दय॑ गत॑ हम्प्रतिं शोचनीयता, समागमप्रार्थया कंपालिनः। कला घ सां कान्तिमती कलावतस्त्वमस्य लोकस्य च नेत्रकोगुदों ॥२७॥ उवाच चैम परमार्थतो हरं न वेत्सि नून यत एवमात्य मामू। अलोकसामान्यमपिन्धरेतुक द्विपन्ति मन्‍्दाश्चरित महात्मनाम॥रश) निवार्यतामालि किमप्ययं बट: पुनर्विदु: ग्फुरितोत्तराधर: | मे केवल यो महतोआमापते शणोति तस्मादरि यः से पापभाक ॥२६॥ इतो ग मध्याम्यश्वेति घादिनी चचाल

स्वरसूपमास्थाय

चॉला स्वनभिन्नवल्कला ।

च ता कृतस्मितः समाललम्बे

त॑ दीद्धप वेरघुमती

सरसाक्षयप्निक्तेपणाय

बृपराजकेनना ॥रणा पदमुद्धमुद्रहन्ती ।

मागीवलब्यविऊराकुलितेव टिग्घुः शैलाधिराजतनया न बयौ न तरथो ॥६८॥ १६--थ्ाभरण जैबर, बल्कल 5छाल, विभावरी र रात्रि, प्रदी १८निशा का प्रास्म्मकाल। २०--वतु घन, ब्यस्त >श्व॒लगब्थलग, भिलोचन रूशिवजी 4 २१-कशलिद्‌ ८शिवजी, कौमुदी ८प्रकाश। २३-श्ली रूससी, वह >मक्गवारी ६४--इपरानकेतन 5शिदजी | २६--अछाय ८शीघ्र हो| २७--रहसू +येग|

अनुवादाय गदयय-सम्रह

६१

अद्यप्रभूलवनताज्लि ! तवास्मि दास ऋ्रीतस्तपोमिरिति वादिनि चन्द्रमौली अड्ाय खा निथमज क्लममुत्ततज क्लेश. पलेन हि पुननवहा विधचे ॥रछा।

( रछुबशे ) अल महीपाल तय श्रमेण प्रयुक्तमप्यस्रमितों इथा स्थात्‌। न॑ पादपोन्मूलनशक्तिरहः शिलाच्चये मूर्ति मास्वस्व ॥३नी। एकातपत्र

जमत

अमुत्य

नव

बयई

कान्तमिद चपुश्व ।

अल्पत््य हेतोव॑डु हाव॒मिच्छुच विचारमूढः प्रतिभासि में त्वम्न ॥३१)॥ रघुमेव. निदृत्तयीवन तम्रमस्यलल नवेश्वर अजार) सहि तस््य न केवला श्रिय॑ प्रतिपेदे सकल्ान्‌ गुणानपि ॥३२॥ बपुपा

करणोज्मितिन

सा

ननु॒तैलनिषेकबिन्दुना बिललाप

से

निप्रवन्‍्ती

पतिमष्पपातयत्‌।

सह दीपार्लिस्पैति मेदिनीम॥३३)

बाघगदुगद

सहजामप्यपपह्याय

धीरताम |

अभितप्तमयो$प मादंव भजते कैव फथा शरीरिषु ॥३४॥

ख्गिय यदि जीवितापहा दृदये कि निहिता न हन्ति सास विपमप्यमृत ववचिक्वेदश्त था विपमीश्वरेच्छुया ॥३२४॥ कुसुमान्यपि.. गानसज्ञमात्ममवम्त्यायुरपोहिंद_ यदि । न भविष्यति इन्त्र साधन किमिवान्यव्यदरिष्यतों विधेः ॥३६॥ अथवा मम भाग्यविषप्लदादशनिः कल्पित एप वेधसा।

यदनेन तरदने पातितः क्षपवा त'दृत्पाश्रिवा लवा ॥रेणा

शद्दिणी सचिव: सखी मिथः प्रियशिष्पा ललिते कलाविधी । करुणाविमुखेन रंत्युना हरता त्यावत किन्न में हतम्‌ ॥३प्ा)

( नैपथे ) मदेकपुत्रा जननी जगातुरा भपप्रयूतिबंर्टा तप्स्विनी |

गतिस्तयोरेष जनस्तमदंयज्नहो प्रिये वा कर्णा रुणदिन॥ रे६ | पदे पदे सन्ति भय रणोद्धटा न॒तेपु द्विसारस एप पूयते । घिग्रीइश ते हपते छुविक्रम इृपाश्रये य.कृपरे प्रदिणि ॥ ४० || इत्पमर्मु

विलपन्तममुश्चदद्दीनदयालुतवावनिपालः ।

रूपमदर्शि धृतोडसि यदर्थ गच्छ ययेच्छमपेत्यमिषाय ॥ ४१॥

-.

३े०-मेदिनी रूएूपित्री । रे६--अयस्‌ >लोहा । ३२-खक्तू माला [|

वे४-अ्रशनि रवेज । ३६--नरटा +दसी । ३७--प्रवेतिन-प्ी | रेप

आअवनिषाल + राजा (नल

)। ३६--दिदृक्षा > देखने को इच्छा ।

भ्र्.

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका स्वोपमादव्यसमुच्यैन ययापरदेश विनिवेशितेन सा निर्मिता विश्वदजा प्रयत्नादेकस्थंसोत्दय दिदछयेव ॥ ४२ ॥

नीतिसम्बन्धी रोचक छोक# कनकमूपणसंप्रदर्योनितों यदि मशिखपुणि प्रणिधीयते न स॒ विरति न चापि स शोमते भवतिं योजमितुबचनीयता शशिदिवाकरयोग्रइपीडन॑ ग्जशुजक्मगोर. अन्धनम मतिमता च निरीक्ष दरिद्रता विधिरहो वलवामिति में मतिः

| ह ॥ ( १६४४ ) | ॥ ( १६५१ )_

कुमुदबनमप्श्च_ श्रीमदग्भोजखणर्ड त्यजति मुदमुलूकः प्रीतिमाश्वक्बाक३ ॥

डउदयमहिमरश्मिर्याति शीनाशुरस्त इतविधिनिहताना हा विचित्रों विषाकः ॥३॥ ६ १६५४४ मातेब्र रक्षति प्रितेष हिे नियुक्त कास्तेव. चाभिरमयत्यपनीय खेदम्‌ |

कीर्ति च दिक्चु त्रिमला वितनोति लक्ष्मी तु कि कि न साधपति कल्ललत्ेेव विद्या ॥४॥ (१६४०) ने चौरहाय न च राजदाय॑ ने भ्राहमाज्य न च भारकारि।

व्यय छृते बर्धत एवं नित्य विद्याधनं स्वधन4धानम ॥ ५॥ (१६४४) त॒ल्वान्वयेत्यनुगुणेति गुणोन्नतेति दु खे सुखे चमुचिर सहवाधिनीति | ज्ञानामि फेवलमह ऊनवादमीतया सीते ! त्यज्मि मवर्ती न तु भावदोषाव ॥8॥ घृष्ट घुर्ट पुनरति पुनश्नन्द्न चारगन्थ थिन्न छिन्न पुनरप्ि पुना स्वाद औवेश्चुकाएश्स्‌ । दरख्वं दर्ग्ध पुनरपि पुनः काश्मस कान्तवण,

प्राणान्ते5षप प्रकृतिविकृृति्जायते नोत्तमानाम ॥ ७॥ यापस्त्वस्थमिदं शरोरमछऊं यावकरा दूरतों, यावचेस्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्तयो नायुप्रा। आत्मभ्रेयसि वाबदेव विदुपा कार्य प्रयत्नों महान्‌ सदी मबने वु कूपलनन पत्युवमः कीहशः ॥ ८॥ सारज्ञाः मुद्दों गहं गिरिगुद्यं शान्तः प्रिया गेहिनी,

चृत्तिबन्यलताफलैनिंवसन श्रेष्ठ तललणा त्वच+३। तद्रयानामूनपूनमस्नमनसा थेपामिय निड्ंतिस्तेपामन्दुकलाअवतंसयमिना मोक्षेटपि नो न रहा ॥ ६ ॥ न्‍॑ बीफ>शककीकटपकननल किए 2अशक,+मल कहते लक कर4 शकपद कक ५ हर के भीतर ( १६५४ थ्रादि ) अद्डी छे हाई रक्ूल परीक्षा केवर्षों फा राकेत है।

भ्रद्३

*+अमुवादाय गद्ययय-समरह लघिम झमस्व वचनीयमिद यदुक्तमन्धीभवन्ति पुरषाल्वदुपासनेन |

भो चैत्कर्थ कमलपन्रविशालनेत्रों नारायणः स्पपिति पतन्नगभोगतल्पे ॥ (१६४४)

हु मित्र ग्रीतिसयायन नयनयोरानन्दन चेतसः पात्र यत्‌ सुसदु-खयोः सह भवेन्मित्र हि तदुदुलभघ्‌ थे बाल्ये सुद्ददः स्ृद्धिसमये द्रव्यामिलापाकुलान _

स्ते सवन्नमिलन्तिवर्च्वानकपग्रावा ठ॒तेधा विपत्‌ ॥११॥ (१६४२)

मद्दाराज श्रीमन्‌ |जगति यशस् ते घबलिते दयः पारावर परमपुरुषोध्य झूगयते

कपदोी कैलास॑ करिवरमभौम कुलिशभृत्‌ कलानाथ. राहुः कमलभवनों हसमधुना॥ १२॥ ( १६५४२ )» दूरादुच्छितपाणिराद्रंनयनः हि प्रोत्यारिता्धांसनों साद्लिडनतपए

प्रिवकथाप्रश्नेपू.

अन्तरभृवत्िषों बहिमंधुमब्श्वार्सीव

दत्तादरः )

सायापटः

की मामायमपूवनाथ्र विधियं: शिक्षितों दुजनेः ॥१3॥ (१६५२)

म्राकू

पादयोः

पति

खादति

एृष्ठमांस

कर्ण कल क्मसिपि रौत शनेर्विचित्रम। छिंद्रं निरूप. राहसा परविशत्यशइ सर्व सलस्य चरित मशकः. करोति ॥१घ॥। (१६४१) अच्यादेशात्‌ क्षपयति तमः सप्नसक्तिः प्रजाना छायाहेती: पथि प्रिवपिनामझ्ञलि; केन बद्ध+। अम्यध्यन्ते

जललवमुचः

जात्ैवैते

केन वा बृश्द्देतो:

परिद्वितविधौ

साधयो

बदकर्याः॥१शा।

नयमिह

परितृश बल्कलैस्व च लक्ष्म्या सम इद् परितोपो मिर्विशेषों विशेष: स॒ हु भवति दरिद्रों यत्य तृप्णा विशाला

मनसि सच परित्टे कोड्थवान्‌ को दरिद्रः ॥१६॥

उचिवमनुचित वा वरसिणतिसवधार्या

अतिरमसक्ताना

बुबता कार्यजात यत्नता परिइतेन |

कमणामाविपत्ते-

भवति हृदयदाद्दी शल्पतुल्पी विपाकः ॥१७॥ (१६४४४) आश्वास्य. परवतकुल॑ तपनोष्णवप्तमुद्दामदावचिधुरासि चर काननानि । सानानदीनदशतानि न पूरधित्ा रिक्‍्तोइईसि यजजलद सैव वरयोनमत्री; ॥१८॥ (१६६०)

बघ४

बृहदू-अमुवाद-चन्द्रिका

स हि गगनविहारी कल्मपध्व॑तकारी दशशतकरथघारी ज्योतिर्षा मध्यघारीय

विधुरपि विधियोगादू मस्यतेराहुणायी लिखितमपि ललाटे प्रोज्फितु क; समय: ॥१8॥ सत्यं भ मे विभबनाशक्ृतात्ति चिन्ता मम्यक्रमेण हि धनानि भवन्ति याव्वि । झतत्तु मां दहति नश्पनाश्रवस्य यत्सौहदादपि जनाः शिविलीमवन्तिरर्णी उद्योगिन

प्रुस्परिंदम॒पेति

लक्ष्मीदेवेन

देयमिति

कापुरषा

बदन्ति।

देव निहत्य कुझ पौरुषमात्मशक्त्या यत्ने कृते यदि न मिद्धयति कोज्च दोषः ॥२?॥ तानीन्द्रियाएयविकलानि तदेव नाम सा बुद्धिरप्रतिहता बचने तदेव। श्रयोध्मणा विरद्दितः पुरुषः स एव़ अन्यः क्षणेन भवतीति विचित्रमेतत्‌ ॥२२॥

गुशा गुणगेपु गुणा मतन्ति दे विगुश प्राप्य भवस्ति दोषाः । श्रारवाद्यतीयाः प्रभवन्ति नद्यः संभ्द्रमासाद्य भवन्त्पपरेवाः ॥२र॥ (१२४२) को वीरस्य मनस्दिनः स्वविषयः को वा विदेशस्तथा य॑ देश श्यते तमीव कुरते याहुप्रतागर्जितम।

यहंद्रानखलागुलप्रहरणैः लिंहों बन

गाहते

तत्मिन्नेव हतदिपेस्द्रदधिरेश्तृष्णा छिनत्यात्मन: (२४॥

कह्पाएाना स्थमत्ति भहसा माशन विश्वमू्े, धुर्योँलक्ष्मीमप मपि भृ॑ थेहि देवि प्रसीद। थद्यसाप॑

प्रतिजहि

जगन्नाथ नप्तम्य

उम्मे,

भद्र॑ भद्वं वितर भगवन्मूयसे मजलाय ॥र४॥ घर्मातँ न तथा सुशीतलजलैः स्नान॑ न मुक्तावली ने भीसरडविलेपन सुखबति पत्यद्धप्रप्यर्पितम । + भीकम रुजनभावित प्रप्न+ति भ्रायों बधा चेतसः सद्ुक््य! च पुरस्कृत सुकृतिनामाकृश्मिस्तोपमम ॥२६॥ सरल हिन्दी मे ध्याब्या कीजिए नादब्ये निद्चिता काचित्‌ क्रिया पलबती मवेत्‌ । मे ध्यापरशतेनापि शुकदत्‌ पराठ्यते बकः ॥| १॥ ( १६४३ ) सृणानि भूमिस्दर्क वाकू चतुर्थी न यजता।

रेदरुमेतानि गेदेपु भोच्छियन्ते कदाचम ॥ २॥ (१६५२ ) चआतमात्र भय शत्रु व्याधि व प्रशसं नयेत्‌ | अतिपुशद्वयुक्तोषरि स॒ पश्चात्तेन इन्यते ॥३॥ (रघ्श्र ) रब परवशं दुसफ सर्बमात्मवर्श, छा [

जवद्‌ विधात्‌ समायेन लक्ष्णी सुखदयो: ॥ ४( १६४१ )

अजुवादार्थ गतयनयद्यन्सप्रद नीतो न केनापि न दृष्पूवों न श्रूवते हेममयः कुर्धः)

सथापि तृष्णा खुनत्दनस्थ तिनाशक ले विपरीतयुद्धिः ॥३॥ आशम्भगुर्वी क्षयिणो क्रेण लब्ी पुरा इ'द्मता च पश्चात्‌ । दिनस्य पूर्वाधधपराधमिन्ना छावेव मैरी पत-ठजनानाम॥ ६ ॥ असिस्साौ नलिनीवनवल्‍लभः कुमुदिनीकुल्केलिकलारसः।॥ विधिवशेन विदेशमुपागतः

कुण्जपुष्पए्स बहु मन्‍्यते | ७ |

विधौ विरुद्धे नपयः पयोनिधी सुधोधसिन्धौ न सुधा सुधाकरे । न बाम्द्धित सिद्धपति कल्पपादये न देम हेमग्रमवें गिरावपि ॥८॥

आयाति याति पुनरेव जल प्रयाति पद्मडुराणि विचिनोति घुनीति उन्मत्तदद्‌ भ्रमति कूजति मन्दमन्द कात्ताबियोगविधुरी

निशि

पहौ।

चक्राकः ॥६॥

जनयति छृदि खेद मद्गल॑ न असते, परिहरति

यंशासि,

उपकृतिरह्दिताना कपणकरगताना

ग्लानिमाविष्करोति।

सवभोगच्युताना, संपदा वुर्विपाक)॥ १० |]

पात्र पदित्रयति नेव गुणान्‌ छ्षणोति, स्नेह ने सहरति

दोपाबंसानरुचिरश्चहता रुत्तड्रम:

नापि

मल

ने

घत्ते,

सुकृतसुअनि

कोडपि

अ्रद्ते। दीप ॥ ११॥

आदित्यस्य गतागतैरदरहः उत्तीयते जीवन व्यापारैबहु कार्यभारगुरुमिः कालो न पिज्ञायते | हृष्ठा जन्‍्मजराविपत्तिमरण नासश्र नोलबते पील्या मोहमर्यी प्रमादमदिरामुन्मतमूत जगत ॥ ११ ॥(मर्ृंहरि))

(थे ) आगर। विश्वविद्यालय के एम. ए. के प्रश्नपन्नों सें से अठुवादाय संग्रहीत गय-पांश (१) यहिसिश्व राजनि गिरीणा विपत्षता, अत्ययाना परत, दर्षणानाममिमुखावस्थानम, शलपारिप्रतिमाना दुर्गस्‍्लेषप, जलघराणा चापग्रदणम, पद्माना जलदिव्य, घंशाना शिलीमुखज्षतिट, अहणाना दुलारोहण, श्रगस्थोदयः विपविशुद्धि,, कुमार-

घ्र्६३्‌

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

स्तुतिषु ततास्कोदरएणं, शशिनो ज्येष्ठातिकमः, क रेणा दानविच्छिति), शज्यएहदशर्न प्रमरिब्यामासीत्‌ । (१६५४० )

अचकोदातु हे

(२) ततः स राजकुमारी दिवसकरोदयमिव उल्लस्सझ्माकरकमलामोदं, नाटकमिर्द ग्रकय्पताकाइशोमितम्‌ ईशामआहुबनमिव महाभोगिमए्डलसइलाधिप्ितप्रको४, मद्दामारतमिव श्रनन्तगीताकशानानन्दितनर॑, प्राग्वेशमिब नानासवपात्रसंकुल॑,

प्रभातससयम्रिव पूवदिस्भागरागानुमेवमित्रोदयं, बषपवतसमूदमिव श्रन्तः स्थितादरिमाणशज्षिदेमकूटं, स्फीवमपि भ्रमन्नमतोक राजकुल विवेश |( १६५०

(३) आअहो जगति णम्तूनामसमर्थितोपनतान्यापतन्ति बत्तान्तास्तराणि | तथाद्विन्मयां झृगपाया यहच्छपा निर्ंकमनुयन्नता तुरझमुखमिथुनमयमतिमनोहरो मानबानामगम्यो दिव्यजनसंचरणोचितः प्रदेशों वीक्षितः। श्रत्र च सलिलमन्वेषमा णेन दुदयहारि सिद्धजनोपस्पृशजल सरो दृष्टम्‌ू | तत्तीरलेखाविश्राग्तेन चामानुप॑ गीतमाकर्शितम्‌ । ठच्चानुसरता मानुपदुलभदर्शना दिव्यकन्यकेयमालोकिता। न दि मे अंशीतिरस्या दिव्यत प्रति। (१६४१ 9

(४) तध््या चैवंविधायां

नगयोँ

नल-नहुप-्ययाति-धुन्धुमा र-भारत-भगीरथ-द्शरथ

प्रतिम), मुजबलार्जितमुमणडलः, फलितशक्तित्रय।, मतिमान्‌ , उत्ताइरुमन्नः, नीति शास्राखिन्रवुद्धि,, श्रधीतघमं शांत, उतीय शत तेजतां कान्तया च यूर्माचन्द्रभसों, श्रनेकसप्ततन्त॒पूतमूर्तिँ,

उपशमितसकलजगदुपत्तत्रः

विहद्यायः

कमलबनान्यवगणणथ

नारायणबक्चःस्थलवसतिमुखमुत्फुल्लारविन्दइस्तया शूरसमागमब्यसनिन्या निर्व्याजमालिदड्रतो लच्धम्या, मद्ामुनिजनसंसेविनस्थ मधुयृदनचरण इव मुरसरित्यवाहस्य प्रभव्। सत्यस्य, शिशिरस्यापि रिपुजनसन्तापक्रारिण; स्थिरस्यावि नित्य॑ भ्रमतो निर्मलस्यापि मलिनीकृतारारियनितामुखकमलशुतेरतिधय लस्यापिस्वजनरागगारियः

मुधायतेरिय सागर उद्धवों यशत्तः पाताल इवाश्नितो निजपक्षक्ृृतिभीतेः च्ितिभुत्कुटिले अहगण इव वुधानुगतः, मकर॒प्वज इदोत्सन्नविशनद, दशरथ .इव मुमित्रोपेतः, पश्ुपतिरिव मद्रासेनाठुयातः,

भुजगराज इव ज्ञमामरगुझा, नमदाग्रवाह इव महांवंश-

प्रभवः, श्रवतार इव धर्मस्य, प्रतिनिधिरिव पुरुषोतमध्य, परिहतप्रजापीहों राणा

तारापीडोंडमूत्‌ । ( १६०५३ )

(५) अ्राठीब्वास्य मनसि--सरभसप रिवरतंनवलितवासुकिश्र मितमन्दरेण ममता जलचधि

जलगिद्मश्वरुनमनम्युडरता कि गाम रतममुद्धुत सुरामुरलोकेन । श्रनारोहता च«

जीशत्यय प्रकरण

35७

मेस्शिल्ातलविशालमस्य पृष्ठमासरडलैन किमासादितं नैलोस्यराज्यफलम्‌! उच्चेः अवधा विस्मृतद्वदयों वश्चितःखलु जलनिधिगा शतमखः] ( १६४४ )

(६) दस्प व राजी निस्तिलशात्नक्लावगाहगमीरबुद्धिराशैशवादुपारूढनिर्मप्रेमरसो नौतिशास्रप्रशेगकुशलो भुवनराज्यमारनौकरशंदारों महत्स्थपति कार्यसंकटेप्वविषरणघोर्धाम पैयेषण स्थान स्थिते,, सेतः सत्यसः गुझंगुणानामाचाय शआ्राचोराणा घाता घमस्य शेपादिरिव महीमारधारणच्म सलिलनिधिरिव भह्ारत्तो जरासत्ध इब चूितसंधिविग्रहसूयम्पक इब प्रसावितदुगों युधिष्ठिर इद धमध्रमतः सकलवेदवेदाड्-

विदशेपराज्यमज्लैकतारों बृहस्पतिरिव सुनाचीरस्थ कत्रिरिव ब्रपपर्धणों वसिप्त इब दशर्थस्य विश्वामिय इव रामत्य घौम्य इवाजातशनोदंमनक इस नलस्य सबकायेंध्वादितमतिसमात्यों बाक्षणः शुस्नासों नामासोत्‌ । (१६४५ )

(७)

यस्यामुत्तुज्रसौधोत्सज्ररड्जीवराड्रनीनामज्ञनानामतिरमणयेनयोतरवेणाकृष्पमा-

शाधोमुस रथ)सज्ञः पुरः पर्यस्तरथपताकापठ: झतमद्ाकालप्रणाम इव अविदीन लद्यते

गच्चुन्दि+एकरः | यरग च सध्यारागारुणा इव सिन्दूरमरिकृष्धिमेपु प्रारूधनीलरमलिनीपरिमशडला इय मरकतवेदिफासु गगनतल अखता इब बैदूय॑मणिमूमिपु तिमिर-

पस्लविषटनोद्ता इव इष्णागुरुधूममएडलेपु अभिभृवतारकापड्क्तय इब मुक्ताग्रालस्बेपु

विकचकसललु मदनइद नितम्दिनोमुखेपु प्रभानचन्द्रिकामध्यपतिता इब स्फटेकमित्तिअमासु गगनरन्धुतरज्ञावलग्यिन इवं सिउ्पताकाशुकेयु पल्चविता इब सयंकान्वोपलेपु

जाहुमुसऊुइस्त्रविश इवेन्धनीलबाठायन 'वबरेपुविराजन्ते रविगमस्तयः । (१६५६ )

(८) कृष्णबालचरितमिव तटरुदसशासाधिरूदहरिक्तजल्प्रपातक्रीडम , मदनध्यज-

मिव मकराधिटितम्‌ , दिव्यमिवा नमिवलाचनरमणीवम्‌ , अरस्यमिव विजममाणुएुएदरीकम्‌उरगदुलमिवानन्तशतपत्रपग्मद्धासितिम , कंसबलमिव मथुझरकुलोपगीयमानमुलपलयापीडम , कद्ृप्तनयुगलमिद नागछइस्प्रीषषयोगण्ड्रपम, मलयभिय चन्दनशिशिखनम्‌, अस्त्साथनामवाइशन्तम्‌, श्रतिमनोहरमाहा[दन इश्स्छोद नाभ रो दृश्यान्‌। ( (६५६ )

(६) म्लानस्थ

जीवकुमुमस्थ

सन्तपणानि. शवानि

ते सुक्चदानि

विकाशनानि

सकलैन्द्रियमोहनानि। सरोद्द्ाकि

कण मरृतानि सनक

रतायनानि ) (१६५०)

बृहदू-श्रनुवाद-बन्द्रिका

प्र

(१०) एको

रसः करण एवं निमित्तमेदाद मिसमः प्थक्श्थगिवाश्रयते

है विवत्तान्‌।

अआवरत्तंबुद्बुद्तरद्ामयान्‌._विकारान्‌

अम्मी यथा सलिलमेव तु तत्समग्रम्‌। (१६४०) (१६९)

न सुवर्शभवी तमुः परं नमु कि वागपि तावकी तथा। न परं प्रथि पत्पातिताइउनबलम्बे

हे

किंग. माहशेडपे सा। (१६५१

(१९) प्रतीपमूपैरपि कि ठतों मिया विरुद्धधर्मेरपि मेचुतोज्किता | श्रमिश्रजिन्मित्रजिदा जसास यद्‌विचारदऋ चारदगप्यवर्तत । (१६५१)

(१३) पतत्पत्जप्रतिमत्तपोनिधिः पुरोश्य यावश्न भुवि ्यलीयत । गिरेस्तडिस्थानिव तावदुच्कैजवेन पीठादुद॒तिष्रदच्युतः । (१६४१)

(१४) बष्पिमानन्‍्दशोक-

विघ्लुलितमतिपूरे..

प्रमवमदसुजस्ती तृष्णयोत्तानदीर्धा | स्नपयतिं दृदयेशं सनेदनिष्यन्दिनी ते धवलबहुलमुग्धा दुग्धकुल्येब दृष्टि | (१६५१)

(१५) दृतसारमिवेन्दुमएडल ._ दमयन्तीवदनाव कृतमध्यविल॑.

विलोक्यते

वेघता !

घृतगर्भारखनीखनीलिम । (१६५१)

(१६) सरसिजमनुविद शैवलैनारि. रमन मलिनमरि दिमाशोल॑द्म लद्ष्मों तनोति। इयमधघिकमनोंशा

वल्कलेनापि

तन्‍वी

क्रिमिव हि मघुराणा मए्ठन नाकृतीनाम | (१६५३) (१७) सुगान्तकालप्रतिसंदतात्मनों जगन्ति यस्यां सविकासमासत |

ननी ममुख्वय मे कैटमद्रिपसापोधनाब्यागमंसंमवा मुद। | (१६४३)

श्७

मर बह

अजुबादार्थ गद्यनरद सप्रद (१८) इद किलाव्याजमनोहर

बपुस्तपश्छमं साधयितु य इच्छते ॥

ध्रुव स नीलावलपत्रधाय्या शमीलता छेतुमूपिव्यवस्यति॥। (१६४४)

(१६ ) तब

कुसुमशरत्व शी+१रश्मित्वमिन्दोद्वं।मिद्मयथार्थ दृश्यते मद्विषेषु ॥। बिखजति हिमगर्मेरग्निमिन्दुमंयू जैस्वमप

कुमुमबणान्‌

वजधारीकरोपि। (२६५४)

६२०) अय्रानुमस्माकमिय किययदं घरा त्दम्मोधिरपि स्थलायडम )

इतोव.

वाहैनिजवेगदपितै: पयोधिरोधबममुद्धतव रजः। (१६५४) (२१) हरत्यघं 'संप्रति हेतुरेप्यतः शुभस्य पूर्वाचरितेः कृत शुतैः | शरीरभाजा मवदीयद्शन व्यनक्ति कालबत्रितयेअपि योग्यवाम | (१६५७)

(२२) इद्धास्ते न विचार्णोयचरितास्विषचन्द॒ कि दर्यते भुन्दछ्लीदमने धप्पपएडयशसो लोऊफे महान्तों हि ते । यानि चीरप्पराडुमुखान्यपि पदान्यासन्‌ खरायोधने यद्दा कौधलमिन्द्रपूतनधने तत्राप्पमिणे जनः। (१६५४)

(२३) किमपि किमपि सनन्‍्द॑ सन्दमासत्तियोगात्‌

अदविरलितकपोल जल्पततोरकमेण | अशियिलितपरिसम्भव्याएतैकैकदोष्णोरविदितंगतयामा राजिरेव व्यरसखेत्‌ (१६५६)

(२४७) सहह्चापलदोपसमुद्धठ तब दुरासदवो्यविमाददी

अलितदुर्बलपद्धप रिग्रइ: । शलमज

लमगामठुदइद॒गणः । (१६५५)

(२५०) पुरीमवस्फनद छुनीदि नन्‍्दन मुप्राण र्वानि इरामराह्षना।। “विग्य चक्रे नुविद्धिपा दली य दृत्यमस्वास्थ्यम्र्दिवं दियः | (१६५०, १६४२)

बूहदू-अनुवाद-चच्धिका

चूछ०

(२६) ठस्मिन्नद्री कतिचिदवल्लाविप्रयुक्तः स॑ काम्री आपादस्थ..

मौला. सासान्कनक्उलवभध्रिक्तपकोष्ट: । है मेदमाहिश्सानु प्रथमदिस्से ददश । (१६४०) बप्रद्रीडापरिणतगजरं क्णी्य

(२७ ) धूमज्पीति सलिलमख्तां सन्निपातः क्व मेवः

हर

रुदेशार्थाः क पटुकग्णैः प्राणिमिः प्रापणीवार। हु इत्दौत्मुक्यादपरिगछबन, गुलाम _ यवाने नल ॥(ए६ण्णे हि. प्रकृतिकृणाबः छामार्ता

(-5) आलौके ते निपतति चुरा सा बलिव्याइुला वा मत्माहर्य॑ विरद्तनु वा भावगम्य॑ लिखन्वी। है पृच्छन्ती था मधुरवचना सारका पहरसथा



कबिद्धतु३ स्मरत्ि रविके स्व हि. वत्य व्रियेति ।(१६४४४) (२९ )

नन्‍्वात्मान॑.

बहु

विगणमन्नाग्मनैयावल्म्वे

उत्कस्या ण॒ त्वमा नितरा मा गमः कातरत्वम्‌ ।

कस्वैकान्त

मुखमुपनत दुःखमेकान्ततों वा _ नि नीचैग॑च्छ॑त्युपएि च दशा अकने। । (१६५२) (३०)

सन्तप्ताना

त्वमसि शरणं ततलयोद प्रियात्राः

संदेश में इर घनप्रतिक्रोघविश्छेपितस्व | गम्तव्या ते बसतिरलकझा नाम अत्तेरवराणगा दाहोदानस्थितदरशिरअन्द्रिकाधौतदर्ग्या । (१६४७) (३१) इत्यास्यात परनतनर्य मैंशथिलीवोन्सुखी सा स्वामुत्कशठोस्द् वसिविद्नदया वीह्ुैय संसाच्य चैव | ओऔष्यत्यरमात्परमब द्विता सौम्य

सीमन्तिनीना

कान्टोदन्तः सुददुपगठः

संगमारिकिखिदूनः |(२१६४८)

अनुपादार्य गद्य-पयद्य संग्रह

परूछ३

(झर ) झयामास्वद्ध

चक़ितहरिणीप्रेले. दृष्टिपात॑

वक्‍त्रच्छाया शशिनि शिसिना बहुसारेषु केशान्‌। छलश्यामि

प्रतनुपु

नदोबीजिषु ध्रूविलासान्‌

इन्तैऊस्‍््य क्राचदपि न ते चण्डि साइश्यमस्ति | ( १६४०,१६६० )

(३३) कच्ित्ौम्प व्यवसितमिद बन्पुत्तत्य त्वया में प्रद्यादेशान्न सत्लु मवने धीरता कल्ययामि |

नि शब्दोडरि प्रादशसि जल याचितश्वातकेफ्यः प्रत्युतत हि प्रणयिष्ु सतामीष्सितायत्रयिय । ( १६५१ )

(३४) एतत्कृत्वा

प्रियमनुचिपप्रार्थनाउर्तिनो.. में सौद्दाद्रांदा विधुर इतिवा मय्यनुक्रोशबुध्या |

डेशन्‌ देशाज्षलद विचर प्राइग सभृतश्रीमाँ मूदेव क्षणमपि च॒ ते विद्युता विश्रयोग |)

. वृत्त-यरिचिय& संस्कृत के पद्यमय काव्य में चार 'पाद! या चरण होते हैं। पादों की रचना तो अछ्रों से था मात्राओों से होती है। से रे “अक्षर” शब्द का वह भाग है, जो एक ही बार के उद्चास्ण मेंआसानो होता है जैस्े--क्र, सर, कहा जा सके। शअ्रत्तर में स्वर के साथ ब्यश्लन लगा हां कहेंगे, श्रादि । यदि श्रत्तर के साथ कोई व्यज्ञन न भो द्वो, तो मो उसे अ्रक्षर जैसे--श्रक्षर शब्द में अ ।

“मरान्ना” समय के उस अंश को कहते हैं,जो कि एक हस्व स्वर के उच्चारण मं

में लगता है। श्रतः हस्त स्वर में एक ही मात्रा होती है। दीघ स्वर केउच्चारण

हस्व अत्तर फे उच्चारण से दूना समव लगता है, अतः उसमें दो मात्राएँ होतो हैं। अक्षर

अक्षर दो प्रकार के होते हैं ( १)लघु ओर ( २) गुई। “लग” प्रत्र उस्ते कहते हैं,जिसमें स्वर हस्व हो; “गुरु” अ्क्तर उसे कहते हैं,मिसमें स्वर दीप दो | हसन खर-श्र, इ, उ, % तथा लू ।

दीघ स्वर-थ्रा, ई, ऊ, ऋ, ए, ऐ. श्रो तथा औ | सातुस्थास्थ दीर्घश्र विसगों च गुरुमवेत्‌ | बरण; सयोगपूर्वश्न तथा पादास्तगो5ति वा || जय हृस्व स्वर के बाद ध्नुस्वार श्रथवरा व्िसग श्रयव्रा संयुक्ताच॒र श्राता है तय

उस हग्य स्वर को छत्दःशातर में दीप माना जाता है, यया--मन्द” में “म” दीप

है क्योंकि “म”? के उपरान्त संयुताहर “मर? आता है, इसी माँति “संवय! मं

“सु” दीष है,क्योंकि “स” अ्नुस्वार-धढ्ित है, “देवः” में ' वः” दोष है, क्योकि हब” विसर्म सह्दित दे । बृत्तशात्र फी ऐसी परिपाटी है कि यदि पद्च में पाद के अन्त बाला श्रक्षर गुर

श्रपेद्षित है, किन्तु वह लघु है तो उसे उस स्थान पर थुद्द ही मान लेते हैं । इसी प्रकार यदि क्िसी पद्म में पाद के श्रन्त वाला ग्रद्र दृश्व अ्रपेद्धित है किन्तु बह गुर है तो वह भी श्रावश्यकवातुसार लघु मान जिया जाता है ।

जि

शइस बृत्तयरिचय में छन्दों के उदाइरणों के रूप में जापय या प्मांय दिये

गये हैंवेश्रागरा विएृग्विदाजय की एम० एु० को परदा फे प्ररननत्रों से उदुत हैं ओर वर्ष का संकेत कीट्ों फे मोतर अंकों द्वारा किया गया है ।

बृच-परियय

पूछरे

यति--किसी पद्म का उच्चारण करते समय जहाँ साँस लेने के लिए कण भर उकना पढ़ता है, वहाँ पय की 'यति' होता है। यतियाँ नियमित हैं | यति शब्द कै अन्त में होती है मप्य में नहीं ।

बृत्त- बृत्त मेपथ की रचना अछरों के द्विसाव से होतो है और इच रचना मैं

तुविधा के लिए तीम-तीन अच्चरों के समूह को गण कहा गया है। यथा-“नमो5त्त तस्मे पुरषोचमाय” इस पद्माश में “नमोस्तु”

(१); तम्मैषु ( २),

ऋषोत्त ( ३), माय दो गुरु ठीन गण और दो गुरु अछर हैं) “नमाउस्त! मे “न

ओ$-स्त” तीन अक्षर का ग्रण है। इस प्रकार तीन गणों में नौ अक्तर और दो गुरु

अक्षर इल ११ अक्तर हैं। जय शाठ हैं--

आदिमध्यावसानेषु मझसा

यान्ति मौरबम् |

यरता लाघब याग्ति भनौ ठ ,गुश्लाघवम ॥

(१) मगण ( २)जगण ( ३ ) सगण ( ४ ) यगण (५) रगण (६ ) तयण (७ ) मगण ( ८) नगण

(१) भगण में पहला अक्तर गुरु तथा द्वितीय और तृतीय लघु हें।

(२) जगण में मध्य अ्रक्तर गुरु है, और पहला तथा तीसरा लघु ( ३) रुशण मे तीसरा %छर गुरु है और पहिला तथा दूसरा लघु ! ( ४» ) यगण में पहला अक्षर लघु हैऔर शेप दो शुरू |

(४ ) रगण मे दूसरा श्रद्वर लघु है और शेर दो शुरू |

(६ ) तगण में तीसुया अ्रछर लघु है और शेप दो गुर । (७ ) मगण मे तीनों अक्तर गुरु हैं)

( ८) नगण में तीनों अक्षर लघु हैं|

लघु का बिह्न | दे । शुरु का चिह 5 है। आउठों गण बचिहों द्वार नीचे दियाये जाते हँ--(१) मगण 54] ६ ३१) जगण ॥57 (३ ) समय ॥5 (४) यंग ॥55 (५) रगय ड़ (६ ) तगण 55] (७ ) मगय

ड्ड्ड

#५८) उग्स

हि

सूछड

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका जाति-जब पद्य को रचना मात्राओं के हिसाव से की ज'ती है तब उसे जाति

कहते हैं|कभी-कभी मात्राओं का भो गयों में विभाजन करते हैं। ऐसी दशा मैं प्रत्येक गण चार मात्राओ्ं का होता है| जैसे-“यदर्य शशिशेलरो हमे हसिरप्येष यदीशिता प्रिय:प इस पद्म में “बद॒य॑” #शशिशे” “खरोह” गण हैं; क्योंकि “यद” में दो मात्राएं हैं और “थे” में दो सात्राएँ हैं,इस प्रकार चार मात्राएं हुईं। इसलिए इन चार माताओं का एक गण ६ यदय ) हो गया | यदि यह पद्म बच होता तो भी “ शशिशे” एक ही गण माना

जाता, क्योंकि उसमें तोन श्रक्षरों काएक गश होता है।



घात्रागण पाँच होते हैं-(१ ) मगर



(२) सगण (३) जगश

[5 ॥5।

(४ ) भगण

54॥

(५ ) नगण

॥||

बृ्त के भेद

(१) समइृत्त-बह है,जिसके चारों पाद ( या चरण ) एक से होते हैंश्र

उसमें भ्रत्षर एवं भात्राएं समान द्वोती हैं।

(२) श्रर्धसमदृत्त--वह है, जिसके प्रथम तथा तृतीय पाद एक तरह के और / द्वितीय तथा चतुर्थ पाद दूसरी तरद के दते हैं! (३ ) विपमदत्त--वह है, जिसके चारों चरण एक दूसरे से मिन्न होते हैं| सेश्कृत काब्य में प्रायः समवृत्त छुम्दों का प्रयोग हुआ है |



समगच

समबृत्त श्रनेक प्रकार के हैं। प्रत्येक चरण में १ भ्र्तर से २६ श्रच्॒र तक रहते हैं। थद्यों परकुछ ऐसे प्रचलित समइत्त दिये गये हैं जो बहुथा साहित्यिक रचमाश्रों में श्राते हैं।

4 अ्षरों बाला--अनुष्ड॒प्‌ ( शोक ) श्लोके पष्ठ गुद शेय सत्र लघु पश्मम्र।

दिडतुधादयौहँस्व॑

ससम॑

दीस॑मन्ययो:

अज॒प्दप्‌ याइलोक के समी पादों में छठ्य श्रक्षर गुर ॥ तथा पॉँचवाँ लघु होता हदै। गत अक्र दूसरे उषा चौपे चरण में धृस्व होता दे और पहिले और तीसरे « मैं दीप द्वोता है ।उदाहरण--

दुत्तयरियय

बूछये,

(१) ना विद्या न सा रीतिन तच्छार्न॑ न साकला | जायते यंत्रकाव्याज्मदो ग्गरोमहाकवेः 4

(२) बागर्थाविय संएकौ दागर्थप्रतिपतये ) (१६४५४, ५७ ) (६३ ) सुभगाविश्वमोद्घ्ान्तभ्ुविल्ञाउचला:बियः ( १३६० )

११ अक्षरोवाला-इन्धवजा स्यादिन्द्रवन्ना यदि तो गौ गः।

इन्द्रवज्ा के प्रत्येक चरण में दो तगण, एक जगण, और अन्त में दो गुरु

श्र दोते हैं। उदाहरणा्थ-तगण..

ैड

तगण.

जगण..

55

&$ 5

रपये.

भहोप्र

भा वा

ड४$॥

(क)लोकोच

ग॑

गे

( जे) ये दुष्दैत्या इद मत्यंलोके ११ अप्तरों बाला--एपेद्धवज्ञा

(१६४२, १६४०३

( १६४५, )

उपेन्द्रव्ा जतजासतो गो । उपेन्द्रवज्ञा के प्रत्येक चएण में जगण, तगण, जगण तथा दो गुद दोते हैं। जैगयणू

तगण

जगण

ह5॥

डडत।

45

गग

ड्ड

नमीइझछतु

तस्मैपु.

रुपोत्त.

माय--( १६४३, १६४७ )

उपनाति ( मिश्वित--इन्म्वजा-उपेद्धवज्ना )

अमन्तरोदीरितलद्ममाजौ पादो यदीयावुपजानयस्ताः ) उपजाति दत्त बह बृच है जो इन्द्रवजा तथा उपेन्द्रवज्ा के मेल से बनता दे। जदाइरुणार्थ-॥४॥ 5$६। [5] डइड, $६| 5६]]3] डड (१) अथप्र जानाम धिएथ्प माते, जायाप्र तियादि तगन्ध मे लगाम (१६४५) (२ ) भोष्ठे मिरि सव्यकरेण पूल रुष्टेन्द्रवजञाइतिमुक्तइड्टी ॥ ( १६४८ ६० ) ( ३ ) यो गोकुलं गोपडुलं च चक्के सुस्प रु मे रचतु चक्रपाणिः।. (१६६०)

१२ भअप्षरों दाला-दंशस्व

जदौ हु वंशस्थमुदीरित जरी ।

वैशस्थ के भत्येक पाद में जगण, तगण, जगण, रगण रहते हैं| जगण तगंण जगण . रगण &॥ 55। ॥5$॥ 55 (१) दपश् राकान्ति भुजाम दीमुजाम |

पर

बृहदू-अजुवा द-वन्द्रिका (२) निरमीलिताक्षीव मियामरावती ( १६५०, ५७ ) (३ ,प्रिये स कीहक मविता तव चुणः ( १६६० ) (४) नमो नमो बाड मनवातिमतये ( ६६२३ ) (५) नमोर्ततनन्ताय सहसमूतये ( १६४५ )

(६ ) कमादमु नारद इत्बोघि स. ( १६५४८)

(७) प्रियेपु सौमाग्यफला हिं चादता ( १६६० ) (८) द्वित मनोहारि च दुलभ बचः ( १६५७ )

१२ झक्षर वाला-हुतविलम्दित

द्रुतविलम्बितमाह नभी भरी । दुतविलभित के प्रत्येक चरण में नगण, भगण, भगण 'और इगण, दोते नगण

॥॥ (२) जनप

भगण

भगण

&$॥॥ देनग

&$॥ दश्घद

रगंण

$।5 भादपी

(२) उपकृत वह तब किमुच्पते

(४६५४) ( १६४३ )

(३ ) किपुद्धौ बड॒या बडबानलात्‌

( १६५३ )

१२ अक्षर वाला-भुनड्रपयात

अआजडप्रयाव॑ भेद ख़तुभिः ।

भुजन्नश्रयात के प्रत्येक चरण में चार यगण होते हैं;हैसे -

यगण

यगण.

पड

।55

75.5

॥55

थंपानेः

फलकि

बिताने

(१) अलती

वगण . यगण (१६५४३ )

(३२) स्ेत्तादश दुर्विनीत कुमिन्रम्‌

( १६५१ )

(३) घुरः साधुवद्‌ माति मिस्थात्रिनीतः

(२६५५ )

(४ ) धनान्यजयप्व॑ घनान्यज्जपषप्वम्‌

(१६६० )

|

१३ अक्षर--प्रदर्पिणी

श्रो श्रो गल्निदशयतिः प्रहर्षियीयम्‌ । ग्रहर्षिणी के प्रत्येक चरण में मगण, नगण, जगण, ग्गय श्रौर अन्त में एक

गुरु भ्रचर रहता है। तीसरे और दसवें श्रद्धर पर यति झेती है, यण-मय

अडड

(१)उरुप्रान

नगयण

जगण

. रस्गण.

अख्ण

युगंध

खादल

॥00

54

इइ

गुर

.5 .

म्पप (६६७),

बचत्त-परिचय

प्रछ७

(२) इशान स्मरर चस्द्रचूड शम्मो। (१६४३) पहले उदाहरण में तीसरे श्रत्र “ज» में तथा उसके बाद दरसर्वे अन्नर व्यय? में यति है ।

१४ अक्षर वाला--बसन्ततिलका रक्ता चसन्‍्ततिलका तभझा जगौ या। बसन्तठिलका के प्रत्येक चरण में तगण, मगण,

' दो युर द्वोते हैं;जैसे-तगण भगण. $5। 5[।

(२) छकृष्णात

जगणु ॥5$॥.

रंकिम

जगण,

जगण 5।॥

पितत्वड.

जगण ओर अस्त में

गगन 55

महन

जाने --(१६४३)

(२) न्याय्यासयः प्रदिचलन्ति पद ने घीराए (१६४३) (३ ) छ्रीरलयश्रिपए... अतिमपणिता में (१६६०) (४ ) दानाम्जुसेकसुभगः

सतत

करोड्मत्‌ (१६५६)

(५) सोड्य ने पुत्रकृतकः पदवों मगसस्‍्ते (१६४८)

१५ अक्षर--मालिनी ननमयययुतेय मालिनी भोगिलोकै: । मे लिनो के प्रत्येक् चरण में नगण,

नंगण, मगण, यगण तथा यगण होते दे

६१) नगण

और शाठवें तथा सातवें श्रक्चर के वाद यति होती है; जैसे-नगण

मगण

यग्रण.

।4

॥।॥

55

$55

कलय

ठिचह्ि

माशोर्नि

घ्कलेंक.

यगण +55

स्यलक्ष्मीम्‌

(२) घवलबहुलमुरधा. दुग्घबुल्येब.. दृष्टि: (१९५४३) (३) न खलु न सलु॒ बाणः रुन्रिपात्योड्यमर्मिन (१६५२) (४ ) मलिनमपि दिमाशोल॑द्म लक्ष्मीं तनोति (१६६०)

१७ अशक्षर--मन्दाक्रान्ता

मन्दफ़ान्ताम्युधिस्सनगैमों भनो हो गयुर्मम्‌। मन्दाकास्ता के अत्येकत चरण में मगण, मगय, नगय, तगण, तगय और अन्त में दो गुरु भ्रक्वर होते हैं| चार अचचों के वाद फिर छः श्रद्धों के वाद और फिर सात श्रक्षों केबाद यदि शेतो है;मैसे--

न्भ््ष्८

बृहदू-अनुबा दुन्‍वन्द्रिका मगणय

भगण

नगग

दगणु

डड5ड5 कैपानैा

5॥। पाकृथ.

||) यकवि

55। ताकौस

तगण



गम

|



डे

दीकौतु

का

ये.

(१६४७, घट)

यहाँ पर पद्चिली यति “पा” के उपरान्त, दूसरों “ता” फे उपरान्त वीठरी श्रन्क में “य” के उपराग्त दे । इसी प्रकार चारों चरणों में पति होगी ।

(२) छूरस्तस्मिक्र'प ने सहते संगम नौ इतान्तः (१६५०) (३ ) याश्वा रोघा वरमधिगरुणे नाधमे लब्धक्ामा (१६५२, १६४३, १६४०) (४) उद्देशोध्यं सरसकदली श्रेणशोमातिशायी (१६५६)

(५ )नीचैग॑च्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रण (१६५४६)

१७ अक्षर--शिखरिणी शसे'रद्रे शिद्तज्ञा यमनसभलागः शिखरिणी । शिखरिण के प्रन्येक चरण में यगण, मगण, नगण, सगण, मगण, »र प्न्‍्त मैं एक लघु और एक गुर होता है। छः भ्रक्रों के बाद फिर ग्यारद श्रह्रों के पाद थ्रि रहती है; जैसे-।55

४. .

डडड

॥॥॥

यगर (१) वरणेवा.

मगण ख्रोणेत्रा

नगण असम

ख्णश

मगण

लग

॥5

5॥



डे

भहशों यान्तिद्दि य्‌ सा: (६६५०, ४२, ५५) (२) भे मे दूरे किश्वित्‌ क्षशमप्ि थ पारवें रघजवात्‌ (१६५१) (३ ) मस्मन्दंसन्‍्द॑ दलितमरविन्द॑ तरलयन (१६५१, ५८, ६०)

मद्दाकवि कालिदास ने शदुन्तला का सौन्दय-यरणन “शिखरिणी” छूुत्द में

क्तिना मुन्दर किया दे (४) अमनामार्ते पुण्पं क्रितलयमलूनें करबई--

रनातियि सन|! मथु मवमनास्वादितस्सम्‌ |

अखएड पुएंगना फलमिव न तद्भपमनघरम्‌ मे जाने मोकार कॉमिइ समुपरथास्यति विधि: |!

दि

चूत्त-परिचय

च्फ्टै

१७ अक्षर-इरिणी रसयुगहयैन्सौद्री स्लो गो यदा हरिणी तदा हरियु हुन्द के चारों पादों मे नयण, उ्गण, मगण, रगण तथा सगश और

अन्त मे एक लघु और एक गुरु रहता है। छ अक्तरों परचार अच्रों पर तथा खत शहरों पर यति हावी है, यथा--मंगय सगण मय रगण समरण लघुसुझ 4] 445 डड5 5]5 [5 | $

(१) कनक

निक्‍य स्लिग्पावि युत्यया नममो

वंशी (१६५०)

प्रथम यति छुठे अच्चर “प” पर दूसरी चौये अक्षर “युव्‌” पर तथा तीसरी यति सातवें अक्षर “शी” पर है ।

(२) श्रय्मइमठद मेदोमासैः कगेमि दिशा चलिम्‌ (१६५२)

'

(३ ) कृंतमनुमत दृएट वा यैरिद शुदुपातकन्‌ ( १६४४ ) (४ ) स्फुटिवकमलामोदप्रायाः प्रशन्तु बनानिलाः ( १६६० )

(५ ) प्रन्‍लतमसामेदं प्रायाः शुभेषु हि इच्तयः (१६६० )

१९ अक्षए-शाद्‌ लविक्रीडिकम्‌ सूर्याश्वैयंदि मम सजी सततगाः शादूलविश्हीडितयू । शावूलदिक्रीडित के भअत्येक चरण में मगण, सगण,

जगण, संगण, तग्रण,

तगण ओर अन्त में एक गुर अक्तर होता है। बारहवें अक्षर के बाद पढ़िली यति,

पिर सातवें अर के बाद दूसरी यति होती है; जैसे-(१)

मसगण

सगण

ड55.

॥45.

जैगर

+5॥

सगर

॥॥5

यस्यान्त॑

नविदु:

सुराम्र

रगणा

वगण

वगण

गण

535] देवाय

ड्ड त्स्मैन

5 मम

(१६५४२)

(२ ) यः कौमारदरः स एव दि दरस्ता एव चेतरतपाः ( १६६०, श॒८ )

( ३ ) आशझा परिकल्पितात्दपि मवत्यानन्दराद्योलयः ( १६४६ ) (४ ) दन्दे त्या रसमारतीं सुरनुता थीराजराजेड्वरीम्‌ ( १६६६ ) पहले उदाइरण में पढ़िली यवि बारहवें अऋक्तर “णा” के बाद ठया दुबरी यति फिर सातवें अछूर “मः” के बाद हे। कालिदास ने शदुन्वला को विदाई का

शादूलविजीडित_में क्या छन्द्र चित्रण क्या है--

जद

बृहदू-अ्नुवाद-चन्द्रिका बातुं न प्रथर्ं व्यवस्वति जल युध्मास्वपीतेषु या, भाददते प्रियमण्डनाडपि मवता स्नेदेन या पल्लवम्‌ | आये बः कुममप्रयुतिस्मये' य॑ंस्या भवत्युत्तव:, सेय याति शकुन्तला पतिगदं सर्वेरनुशायताम्‌ ॥॥ २१ अक्षर-सग्परा

प्रस्दैयोर्नां अयेण, त्रिमुनियतियुता स्लग्घरा छीतितेयम | सम्धरा के प्रत्येक चरण में मगण,

रगण, मगण, नगर, गंगण, गये बाय

झीते हैंऔर सात-सात श्र्धरों पर यति द्वोती है; जैसे-संगण.

रगण..

भगण

ड़

डीघ5

$॥]

)॥4

प्रत्य्या

मिप्रप

चस्तमु

मिरव

६१)

नगय

यगेण यगण यगण [55 ।5६5 ॥55 हुबस्ता.. मिर्ठ. मिशेशा (१६६९ ) यहाँ पर पहिली यति सातवें श्रत्तर “घः” के बाद, फिर दूसरी गति शादवें

अन्नर “बस” के बाद, फिर तीसरी यति सातवें अक्षर (श:” फे बाद है)

(२) येप्रां भरीमद्यशोदासुतप दकमलेनाल मक्िनराणाम्‌ ( १६१३ ) (३ ) किसिद्शूमइलीलानियमितजलयबि राममस्वेपदामि । ( १६४०, १६५५ ) (४ ) प्रीवामज्ञीभिराम सट्टूरनुपतति स्थत्दने दत्तदृष्टि;, पश्चाद्धेनप्रविष्ट: शरपतनभयाद्‌ भूयसा पूववेकाथम | दर्मेरदाइलीटैः भ्रमविदवतग॒ुन्दश्नंशिमिः कोरवर्ष्मा परयोदपरप्लुतत्वाद्वियति बहुतरं स्तोकमुब्यों प्रयावि ॥ १६५४३ ॥

स्प्रभावोक्ति अलद्भार का कितना सुन्दर चितय इस कक में कालिदाए ने किया है ।

अधंसमबृत्त का प्रष्पितामा अयुजि नयुगरेफतों यकारो घुकि द नही अरणाश्र छुप्पितामा। पश्षिताग्रा के प्रथम तया यृतीय चरण में नगण, नगण, रगण यर्गण ( १२

गुर नंगण, जगण, जमण, रगण5 औरजा एक दिद्धप ) और द्वितीप तथा चतुर्ष में जम 22 बम

(६१३श्रक्षर )होतेहैं।

अंद्पई



उंस्कृत-इत्त-परिवि नगण

सगे १)

झैसे--

5ड]5 मप्यमू

७ लगत

१११ ऋरयत

१5$॥4. यदीक्षि..

)5॥ बचीर

११) मणम

द * 5 चठ॒य पा

३55

डड

११॥

गे द्वितीयुतथा

साण.

जगण

जगण

छुद्ीय पाद

]55

दड

३१॥

११॥

प्रथम ठथा

यगश

र्गण

नगण

$॥5 तय.

]55 त्ष्यच््न्ता ड़

फेनमूखेः िल्तामसिमवरीरती ्र पर्डिश्व _पहलगतमध्यमल्यव वाश गुण घनी ति ्धरून जय ऋधमदमपद्ाय

सुद

उदगठा का इतना है। उदादरणाय य में बहुत कम प्रयोग पिपमइतों का साहित् द्गता । ं-ही लच॒य दे रहे है मे रलघुकी थे नस्जगुरुकेप्वथोतः पठेत्‌ ॥ एक् म सजमादि चर् ौ जग ़ठा ीर रुज अ्यडभ्रिगठमनजलागउठ ल रुगण

जगण

सगण

वडितो

नगण १॥॥ मनिश

मभगण

5।॥

घोरघ

छगय ॥5

छूपया



॥5

१5।

]॥5

झअवलंज

सगण व5 मुदहय

नगण

व॥।

नरखसि

जगण १5।

कयापि

लद॒रा

ज्गण ]5॥

शि-

गु ड़

स्बन्धु

र्म्‌

जगण



85॥

5५

ड़

तमीश

घर

नुप

सगण

जगण

गु

॥॥5

बहती.

३६5।

यमुदूग

ड़

वी

पूदर

बृहृदू-अतुवाद-चख्रिका

जाति “जाति” या आर्या! छुन्द उसे कहते हैं जिसके गण मात्रा के हिसाब से सिगरर

मित किये जावे हैं। “जाति” का लाधारण मेद “आर्या” है| आर्या नी पार को डोती है--पथ्या विपुला चपला मुखचप्ला जेबननपला च्‌

गांत्युप्ग॑त्युदुगीवव..

आारवर्ग/निश्व

नवधार्यों ॥

आया यश्याः पादे प्रथमे, द्वादशमात्रास्तथा तृतीयेदपि | अष्टादश द्विताये, चतुर्थक्ष परथ्दश सार्ग॥ आर्या के प्रथम तथा तृतीय पाद में १२ मात्राएं होती हैं; द्वितीय में ८

और चतुर्थ में १५ मात्राएँ होती है ।उदाहस्साथ--

झअघर; क्रिसलपशगः कोमलविशव्पानुछारिणी याहू |

कुसुममिव लोभनोयं॑ यौउनमज्ेपु सन्नद्धम ॥ ( शाकुन्तले ) नौट-विशेष श्रध्ययन के लिए इत्तरनाकर, शुतवीध या पिन्नलपुनिन्‍शचित छुन्दसूत्र शान पढ़ना चादिए ।

हिन्दी-संस्कृत-थनुवाद के उदाहरण (१) हिन्दी १--अपने बड़ों के उपदेश को ग्वहेलना न करो। २--जल्दी नक्‍रो रेलगाड़ी पर पहुँचने केलिए ऊाफी समय है। ३--किस के साथ मैं अपने डुप को बेटा सफता हूँ !४--चपलता न करो इससे पुम्हारा स्थमातर व्रिगढ़ जायगा | ५--तम इधर उधर की क्‍यों ॉकते हो, प्रस्तुत विषय पर आयरो ।

(१)

दुश्पम | ४-मा चापलाय, विकरिघ्यते तेशीलम। ५--क्रिमित्यप्रस्तुत मालपसि प्रस्तुत-मनुसन्धीयताम्‌ |

(२) हिन्दी १--उसने मुझसे एक हजार रुपये

सस्मृतानुवादः

१--गुरूशामुपदेशान्‌ माइयमस्थाः। २-मा तल ष्ठा कालात्‌ प्रयास्यसि रेलयानम्‌ | ३--फेन साधारणीकरामि

( २) सस्ट्तानुवाद३ ३--स मा रुप्यकसहसादबण्यपत,क

रक्षियर्गह्तमनुसरति । २-एका स्री है। २--ए% सत्री जल के घडे को लेकर जलऊउम्ममादाय जलमानेतु गच्छुति। चानी लेने जाती है |३--सूर्थ की प्रखर ३-र्स्यस्प तीक्रणकिरण, बृहलताः छझुग लिये, पु लस उसफऊा पीछा कर रही

किरणों से इच्त लता सब यूस जाते हैं । ४--में घर जार अपने मित्रों से पूछ कर आऊंगा । ५--माता-पिता श्रौर गुरुजनों का सम्मान करना उचित है ) ६--देशाठन करने से शरीर बलबान्‌ हो जाता दे । ७--में ठग्दारी जय भो परवाह नहीं करता, तुम यों दी बड़े बनते हो ।

शुष्का भवब्ति | ४--अश्रह गशह गत्वा मित्राणि प्रष्ठण आगमिष्पामि। ४--

गितरौ गुरुजन श्र सम्माननीया; | ६---

देशपर्य्ययनेन शरीर बलबदू भवति)

७्-अह त्वा पदणाय मन्‍्ये श्रकारण

गुरुता धत्से।

#-यहों ठगे जाने के श्र में पश्ममी हुई और 'अवश्चयत” यह प्रयोग वच्चि

( झुरादिगणीय ) श्रात्मनेपदी का है। प+मन्ये! के साथ चतुर्थी का प्रयोग डुब्रा है ।

बुहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

प्रच्रर

(३) छिन्दी ऐ--मेरा भाई और मैं मैच देखने को जा रहे हैं, पता नहीं कब तक लौटेंगे । २-इंवते को तिनके का सहारा | ३--इस समय मेरी घड़ी में पौते चार बजे दें। ४--बदसदैब मेरे उन्ञति-मार्श में रोड़े अठकाता रद्दा है |

(३) संस्कृतानुवादः १--मम सोदयोडह व विजमगीपा-

खेलां प्रेद्वितूं गबछ्यावः न विद्वः कदा परापताव/। | २>-मजती हि कुशं वा काशं वाइपलम्बनम | ३--अधुना मम

कालमापनी ( घटिकायन्त्रम ) पादोनचतुर्श होरां दिशति|

४-स में समर

५--न्यूयार्क मैं मनुष्गें कीचहल-पहल

ब्तिपय॑ सदैव प्रतिब्रध्नाति |-न्यूदेखने यीग्य हे। ६--गोपाल ने इस जोर याकनगरे धचुरो जनसआारः दशनोयः । से गेंद मारी कि शीशा दूंठ कर चूर ४६८गोपालत्तथा घेगेन कंदुक प्राइरत्‌ चूर हो गया। ७--दमयन्ती मुन्दस्ता यथाउडदशः परिम्फुस्य खरडशो5मृत्‌। में अन्तपुरकी दूसरी स्त्रियों सेबाजी ७- दमयन्ती लावए्येन सर्वान्तापुरले गई हे। यनिताः अतिकार्मान (प्रद्मादिशति वा) | (४ ) संस्कृतानुवादः (४) हिन्दी १--यन्भावि तद्भाव, नाई तध्य १--जो होना है सो होवे, में उसके सामने नहीं भुकूँगा ।२-रशाम ने वन पुरः शिरोडवनमविष्यामि॥ २--रामः में लाखों राछ्रों कोमारा | ३-वह बने लक्षशः राज़सान्‌ जपरान | ३--स बानर बृछ्ध से उदर कर नीचे बैठा है| बानरः इृद्ात्‌ श्रवतीय्य॑ मीचैः उप४--विद्याहीन मनुष्प और पशुओं में विशे८ह्ति |४--विद्याह्दनाना नरणा

कोई भेद नहीं ईं। ५--एक पागल लड़का दौढ़ता हुथा आमा | ६--

पशुज़ाश कोड

इंश्वर की कृपा से उसका शरीर आारोग्ब हो गया । ७--उ्ने रमेश को खूब

धावन्नागतः | ६०-ईंश्वरस्प कृपया तस्प

डल्लू यनाया |

मतृमुखमुपदरश्य ज्याडम्यपत्‌ ।

(५) ट्विन्दी

भेदों नास्ति। ४--

कश्षित्‌ (एकः ) उन्मत्तो बालक इतो शरीर॑ नीरोगममबत्‌॥ ७--स रमेश (५ )संस्कृतात॒वादः १-उस्कोच तप्मी देहि तैन तब

१--उसझ़ी मुट्ठी गरम करों, फ़िर तुद्दाण काम हो जायगा। २-मैंने

कार्य सेल्प्रति | ३--श्रदसय नापटस्‌ ,

आज पढ़ा मद्दों, इसलिए मेरे पिता मुझ

अ्रतः मम विता मयि श्रप्रसन्न आासोत्‌ |

पर माराज थै। ३--मैं खेलकर समय नष्ट नहीं करंगा |४--तुम घर जाओ, बछ्दारे साथ में नहीं सेलूंगा।५--

देवदत्त आज मेरे घर भ्रावेगा | ६--

३--शईं क्ीडिला समय ने नद्पाप्ति |

४-त्वं गह गच्छू, खाया सह श्रह ने फक्रीडिष्यामि | ५--देख्दत्तः श्रद्य भर ग्रहमागस्रिष्यति | ६--गठयपें स पसी-

डर

दिन्दी-सस्कृत-अनुवाद के उदाहरण

श्प

बंप,

गत वर्ष परीक्षा में बह उत्तीर्ण नहीं क्ञागामुत्तीणो भाभपत्‌ , अत परिश्रमेण

हुआ, इस कारण वह परिश्रम से पढ़ता पठति। ७--श्रद्व/ कतिययानि सम्दहै। ७--चार दिन की चाँदनी फ्रि स्ततो व्यापदः] अँधेरी रात |

(६) हिन्दी

(६ ) संरगतानुवादः

१--भवान पराधिकासचर्चा किमिति ओऔरों की बातों में क्‍यों टाँग श्रड़ाते करोति] २-म स॑ प्रभावश्शाउथ्ष्त हो । २--उसका दाँव नहीं चला, नहीं अन्यया सम्प्रति स्पानि भारयानि निन्‍दतो दुम इस समय अपना सिर घुनते यिष्यसि। २--चिरविग्रादितों रुग्णश्ासौ होते । ३--चिर प्रवासी तथा रोगी तथा परिंइत्तो यथा परिचेतु न शक्‍्प्र । रहम से बह झेसा बदल गया है कि ४--तस्य तथावस्थामवलोक्य करुणाईपहचाना नहीं जाता। ४--उसकी चेता अमवम्‌ | ५४-सर्मा ममाशा ऐसी दशा देखकर मेरा जी भर श्राया। मोघा: सकझ्ञाता, | ६-लत्व तु॒परगण्हेपु ५--मेरी सब आशाओं पर पानी फिर विसवादमुद्धाव्य॒कौतुक मारगयसि । गया। ६-द्वम तो दूसरे के घरमें ७-- मनोरथमोदकप्रायानिशनर्थानित्य आग लगा कर तमाशा देसना चाहते मुडे। हो । ७-छुम सदा मन के लड्डू खाते दो | १--श्रापको अपने काम से मतलब

(७) हिन्दी १--दिल के बदलाने को गालिब सयाल अच्छा है। २-ईश्वर जय देताहैतय छुप्पर फाड़कर देता हे। ३-मैंने सारी रात आँखों में कादी। ड--श्राजकल

प्रत्येक मनुष्य अपना

(७ ) संस्टतानुवाद+ १--श्रात्मनों विनोदाय कल्पतेथ्य॑ पिचार. | २--भाषाना द्वाराणि अवन्ति सवन] ३--पर्यक्के निपण्णस्य मर्माज््या प्रभातमासीत्‌। ४--अद्ल्वे

से. स्वार्थमेथ समीहते परद्वित तु नैत्र

उल्लू सीधा करना चाहता है, दूसरों चिन्तवति। ५--पअ्रद्य प्रातरेव विंशते के हित की उत्ते विन्ता नहीं ४-रझुप्यफाणा हानिर्मं जाता | इ--अ्रस्या आज सवबेरेही सबेरे बीस रुपयों पर वबाताया श्रस्तादी (आयन्तों था) पानी फिर गया। ६--मुके इस बात के मावगच्छामि | ७--व्यायामा हि भेपसिरपैरका पता नहीं लगता। ७-- जाना भेपजम्‌, एतदयें कश्विद्व्यवोडपि व्यायाम सौ दवा की एक दवा है, प्र नानुभविवन्यों मब॒ति | हवंग लगे न क्ठिकिरी ।

£ ०४ 'अइदुअनुबाइ-घन्द्रिका

है

-“(८)ट्विन्दी

: *

पुराशों में कथा है -कि एक बार घर्म और सत्य में विवाद हुआ। भर्म नें कहा--मैं बड़ा हैं”, सत्य नेकह्य “मैं? | अंत में फैसला कराने के लिए वे दोनों शेषजी के पास गये। उन्होंने

.

(८) संस्कतानवादः



- थुराणेपु कयास्ति यत्‌घकदा घस्मसत्ययों। परस्पर विवादोंडमवर्तू ।'धर्म्मोडि-

अवीतू--“श्रह बलवान” सत्योध्यदत्‌ “श्रम” इति | अन्ते निर्णायितुं तौ सपराजस्य समीपरे गतौ। तेनोकत यत्‌

कहा कि “जो पृथ्वी धारण करे बही

धय; पृथ्वी भारयेत्‌

बड़ा” | इ प्रतिज्ञा पर 'धम्म को पृथ्वी दी, ती बे व्याकुल हो गये, फिर सत्य को दी, उन्होंने कई युग ठक पृथ्वी को डठा रखा ।

भवेदिति |” अस्था प्रतिशायां धर्ममाय

(६) हिन्दी १--उस्के

झुँहभ लगना

स एबं बलवान

पृथ्वी ददौ । स हि धर्मो व्याकुलो5अमवत्‌ घुनः रत्याय ददौ। ख फतिपययुगानि याबत्‌ पथ्वीमुदस्थापयत्‌ |

(९) संस्कृतानुबादः ' वह

--सेन साक॑ नातिपरिचयः कार्य

बहुत चलता पुरजा है। २--सबेरे

कितवोडसो | २--प्रातरुत्पाय श्रध्येतुमुपविश | ३--परीक्षानन्तरम्‌ श्रवकाशेपु अ्रन्यत्न॒ गमर्न घरम | ४--सम्पः गुत्तीणों भवेस्ताई पुस्तकमेक लग्रेथाः 4-६स्तलिपिं स्पष्ट शुद्धा च कुद। इस्तलिपि को साफ एवं शुद्ध बनात्रो | ६--अ्रम्ययनसमये श्रत्यन्न मा ध्यान॑ ६--7ढ़ने केसमय दूसरी ओर प्यान देहि। ६--मम प्रोदे कश्ठकों लम, मत दो। ७-मेरे पाँवमें फॉग चुम त॑ सूच्या समुद्धर | गया है, उसे सुई से निकाल दो ) उठकर पढ़ने बैठ जाओ। ३-परीक्षा के याद छुट्टियों में दूसरी जगह जाना अच्छा है। ४-अरच्छी तरह पास करोगे तो एक किताब मिलेगी | १--

(१० ) हिन्दी

( १० ) संस्कृघादुवादः

१--एक ही बात अलापते णाते हो दूसरे की सुनते ही नहीं ।२--पति वियोग से बह सुकर काँटा हो ययी है। ३--फोड़े मेंपीप मर गया हैऔर उसका मुँह भी थन गया है, अंब उसे घोर दियाशायंगा, ६ ४--जिसका, घ्णण उदी “को 'साते "और करे तो छोंगा

१--एकमेवार्थमनुलपि, ने चाय शणोपि । २--एतिविग्रयोगेण सा तमुता गता ( कड्लालशेपा समजनि

) ३--

ब्रणः पूयक्लिन्नों बदमुखभ्न जात: इदानीमस्य शालाक्यं करिप्पते । ४-शक पा्मोतितें, काउंसणात्पत्त ये पु

शोमते ' श्तस्स्तु भज्त्तो लोकस्प हात्यो

गाजे। ५.--एप दुर्घटमा से घहं दाल- भवति। ४--अस्मिन्‌ दु्भेगि दैवात्‌ डाल बच गया। ६--पहले ठठने ऋपनी

तस्यातवों रह्िता।॥ ६-न्पू् स सवा

हिन्दोी-संस्क्ृत अनुवादफेउदाइरण

प््ध्छ

बंधक रखो थी, अब वह

सम्पत्ति बन्धकेडददात्‌ साम्प्रमम ऋण-

'दिवाला दे रह्म है। ७--विष इृक्ष को मी पाल करके स्त्रयं काटना ठीक नहों है।

शोघनेडत्षमतामुद्ोपपति ॥ ७--विपवत्तोडपि संवर्ध्य स्वयं छेत्ुमसाम्यतम्‌ ।

जायदाद

(११ ) हिन्दी रात्रि तमात हुईं; प्रमाव का रम-

शणीक दृश्य दृष्टिगोचर होने लगा। तारागण जो रात के अंधेरे में चमक

( ११ )संस्कृतालुवादः रातिंगता, प्रात; सुरम्यं दृश्यं दृष्टि पथमबाप | नकक्‍ते॑ तमस्ति रोचज्िप्णुन्युडूनि सम्प्रति मन्दरचीनि सन्ति,शनैः शने स्विरोहितानि। यया तस्कराः प्रातरालोके स्वावासं प्रति विद्रवन्ति तथैव रात्रि-

रूमक दिखा रहे थे, अपने प्रकाश को फीौका देखकर धीरे-धीरे लोप हो गये। जैसे चोर प्रभात का प्रकाश होते ही श्यामिंकापि । पूर्वस्था .दिशि_ प्रकाशः अपने श्रपने ठिकाने को भागते हैं, ऐसे प्राकस्यमगात्‌, मन्ये- प्रियं प्रातः प्रियाया मू् जान डी रात्रि की स्याही का रंग उड़ा। पूर्व निशाया असितान्‌ प्रयाकुलान्‌ दिशा में थफेंदी प्रकट दुई मानो प्रेमी मुखाद्यतिसमहार्पीत्‌ समुज्य्वलं च तन्मसुबह ने प्रेमिका रात्रि के स्थाह बिखरे स्त्कंइष्टिपयमबातरत्‌ | वैभातिकों वायुबलों को मुस से समेट लिया और युवजनवत्‌ सविश्रममबात्‌ । पतक्षियः 'उस्फा उज्ज्वल मस्तक दीसने लगा। क्लरब कतुमारमन्त । उद्याने कलिका प्रातः ,कालीन बायु, युवकों को तरह विकासोन्मुख्यः सज्ञाताः, यथा सुप्तोत्यितः अटखेलियाँ करती हुईं चली । पत्तियों कश्चिन्रिमीलिते लोचने समुन्मीलयेत्‌ | ने चहचहाना आरम्म किया | उद्यान मे

कलिकाएं खिलने लगीं, जैसे नींद से कोई नेत्र खोले

( ११, १३ वाक्य खरडों में सोपसर्ग धातुओं का प्रयोग किया-गया है)। (१२ ) हिन्दी १--हिमालय

से गंगा निकलती,

&( १६ ) संस्कृतातुवादः १-ह्विमवतो

गड्ढा

'डद्‌गच्छति

है| २--चन्द्रमा केनिकलने पर अंध- |(प्रमबति वा)। र-आविभते शाशनि कार दूर हो गग | ३े--यह पहलवान

अन्यजारत्तिरोश्मूत्‌ ॥ ई-झयं महल;

औइस वाक्य-सणुइ में “तथा आगे के वाक़्पुज्जएंड में, मिन्न-मिन्न उपस्गों के

साथ क्रियाओं का प्रयोग किया गया है। याद रखो, सोपसर्ग घातुओं के प्रयोग से वाक्‍्यों में सौएधव तथा एक विशेष चमत्कार आ जाता है।

हि

-“ «“बृहदुषअनुवादल्चन्दिका ,

दूसरे पहलवाज़ से -रककर ले सकता है। अन्पस्मे मह्लाय प्रभवति | ४--अखिर ४--बह शीघ्र ही “वियोग की पीड़ा का मेब स वियोगव्यधाम्‌ अतुभविष्यति। अनुभव करेगा |५--ह॒मस ठोक कह रहे इ>ज्युक्तमेष फृष्यति मबान्‌ वाह भवतहो, तुम्दारी दलील से मुझे कीरे दोप स्तकें दोष विभावयवामि | $ई-हय्रे दिखाई नहीं देवा है। ६--जी शारी- शरीरस्थान्‌ रिपूनविकुबते दे माम रिक शर्घु्ों को बशमे कर लेते हैंवे जयिनः। ७४-यों रामायण प्रकुदते स ही सच्चे बिजयी हैं| ७--जो रामगण खलु सधिए्ठभपररोति लोकस्य) ८+को कथा कहता है वह जनताकीसेवा गावः संडियन्ता रह प्रति निवर्तामहे) करता है। ८-मौशों को इक फ़रो, ६--यदाई तब भाषितें परिभावयामि आश्ो घर की ले चलें! ६--जब मैं तदा नात्र बहुगुण विभावषामि | १०-ठग्हारे मापंण प९ विचार करता हूँ.दब न दि संदरते ज्योत्ला चद्धशाएडतन उसमें सुझे श्रप्तिक गुण नहीं दिखाई वेश्मनः । देते। १०--चम्द्रमा चाएडाल के घर से चाँदनी फो नहीं हृदाता | (१३ ) संछवानुतादः (१३) हिन्दी ३--भानुदुदगच्दति तिमिरश्ाप--पूर्य तिकल रहा है श्रौर श्रव्ेश दूर हो रहा है।२-लंका के लौय्ते हुए राम को लाने के लिए भरत श्रागे बढ़ी |३--हमारे घर थ्राज एक मेहमान श्राया दैउसका श्राठिष्य सुकार करना है। ४--जो शिश्चारको रोमा लॉपते हैं वे निन्दित हो जाते हैं)

गच्डृति |२-लड्ढादों निवर्वेमा्त राम॑ भरतः प्रत्युजगाम | ३--श्रवाध्मद्‌ गहानेक्ोअयागतेश्यागप्रद

एेश्राति-

स्येन सत्करणीयः | ४--मे समुदोचार-

५-बहुत से लोग इस सह़क से धात्ते मुझे तेडवगीयस्ते) ४--मूयाणो जना

जाते हैं| ६-मोटर पास मैं लाश्ो जिससे मांगेणानेन संचए्ते। ६-उपानय मौटरमेंचढ़ सकूँ। ७--निःसन्देद दुम इस यान॑ यावदारौहयामि। ७--अ्रवदातैउन्प्पल चादि सेबस को ऊँचा उठा दग] ८-दए युक्ति करा हम इस मानेन चरितेन कुलमुस्ने्ति मात्र सन्देह। | ८-इस्युक्तेरेव प्रतवति्महे ।६--अत्ब्दं श्द द्पका उत्तितन्वस्मादु ग्रामातु]१०--योगी लोक

समाविविधिदगदिशन्‌ भु्वं विचयाए।

हिन्दी संस्कृत अनुवाद के उदादरय

ध्र्ष्द्‌

११--तस्मिन्‌ राप्येपुत्राः पितृनलचरन्‌ आचरण करते ये श्रौर नारियाँ पति के नायश्रातचरन्‌ पवीन्‌ | १२-ञयाउत्स्यास्पन्ति गिरयः विरुद्ध। १२--जय तऊ प्रथ्वी पर पर्वत सरितश्र महीतले । स्थिर रहेंगे और नदियाँ पहती रहेगी तय तावद्रामायणकथा तक लोगों मे रामायण की कथा प्रचलित लोकेपु प्रचरिष्यते ॥ रहेगी । ( १४ ) संस्कृताहुबाद+३ (१४ ) हिन्दी

११--उस राउ्य में पुत्र रित] के विरुद्ध

१--स्कूल जाने का यही वक्त है।

कितायें और कलम लेकर मेरे साय

१--विद्यालय ग्रन्तुमयमेव समयः | पुस्तकानि लेंपनी च ग्दीत्वा मया

साधंमागम्यताम्‌ | २--उदीयमानों हार बालक वढने लगा और ब्राह्मणों ने वालकोड्सौ पिठृभयने वर्धते स्म। विप्रा डस्के अनुरूप ही उसझा नाम देवसोम देवसोम इति तस्य यथाथ नाम इृतयन्तः | रुया। ३--बडे भाई की प्रतिकूल थार ३--अनमिग्रेतेषपि ज्यायस, आदेशे भी छोटे भाई को माननी चाहिए । कनीयसा अवज्ञा न कार्या। ४-राजा ४--राजा महीवाल हाथी पर चढ कर महीपालः हत्तिनमाद्ह्म पहूनि बनानि बडुत सारे बनों में घूमता हुआ श्रपने अमित्वा स्वमेव द्वीए प्रतिमच्छति सम | राज्य में लौट रहा था। ४--दुश्मन ५--सर्वाणि किल शाुसैन्यानि सर्वधेव की सारी फौज इस तरह से हरा दी पराजितानि तेपा सहखद्य निहत सतगयी, उनके दो हजार सिपाही मार शक््या अ्रपि अधिकानि आवदधानि। दिये गये और ठात छो से मी अधिऊ ६--स हि. एवदाकए्य कटिति शक्‍डपऊकंड लिये गये | ६--यह सुन कर वह मारुह्म उपगिरि ( उपगिर ) गतः।

आओो । २--पिता के घर में बह होन-

भटपट गाड़ी पर सार हुआ्आ और

७- राजपुजोध्सौ 6 ग्राम संत, मयूर-

पहाड़ की तलद्दटी में पहुँचा | ७--उस राजउमार ने उस गाँव के चारों ओर चारडालों को देसा जा मोर के पसों से सजे हुए थे, जिन्होंने बाघको साल

पिच्छै शोमितान्‌ ,व्याप्रचर्मपरिधायिनः घू--ऊर्यमपलोक्य स शाखाह्यित किमपि मघुचक्त दृष्वान्‌। इक्तमास्थ

श्रोढ़ीहुई थी और जो पशुग्मों

समाराद्य च मधुचक तस्मात्‌ मधु प्रो |

कामात

मंगमासभोजिन, चण्डालान्‌ दृष्टवान्‌ |

कीटाः समयेडस्मिन्‌ बृक्षमूल इृन्तन्नि उसने एक शहद के छत्तेको देसा। वृक्ष सम, स मानवः सश्िवितसय अनन्‍्यव्‌ सर्व पर चढ़रर छुत्ते तक पहुँचा और शहृद च अन्धकाराइते गते ययात । खानेवाले थे |८--ऊपर एक डाल पर

पिप्रा ।इसी समर कोड़े उस बृक्तकीजड़

को काट रहे थे। वह आदमी, वृत्त और सय कुछ एफ अंवियारे गढ़े भें गिरपड़े ॥

प्र्हू०

बुहदू-श्रमुवाद-्चन्द्रिका

( ९५) हिन्दी

/

[7

१--कितनी देर तक यह उत्सव

(१५) संस्ताहवादः १--कियत्कालम्‌ उत्सवोध्यं स्था-

रहेगा ! तुम्हे इसकी कहामी का पता |स्पति ! अ्रपि जानासि शत्र का किय-

है! ३--पशुपक्षियों की दिल दहलाने- |दल्ती !३--पशतां पछ्िणां च श्रार्तना-

बाली श्रावाज ने उसको चौंका दिया। |दरत प्रवोधितवान |३-हूँतेन पोश३-छण भर मे मूसलाधार वर्षा हो |सारैमंहती दृष्टिबमूब। नमश्व जलधघरंपड़ी और आसमान बादलों से घिर |पणलैराइतम्‌ | ४--एकदा ध्यानमग्रो& गया | ४-एक दिन महर्षि ने ध्यान |सौऋषिःदूरबर्तिनि वनप्रदेशे जाज्वल्यकेसमय दूरजड्जल मेधधकती हुई श्राग |मा दावानल ददर्शा। ५--प्रामे को देखा। ४--गाँव मे एक त्यौहार |उत्सतः करिचत्‌ समधते। कदासोी मनाया जा रहा है। यह कब्र श्ाउम | प्रारब्धः ! ६-राजा युगपत्‌ बहुमिररि-

हु्रा ! ६-साजा एक वाथ बहुत से |मिने गुस्येतन, यतः समवेताभिदंहीमि:

शजुश्रों सेन लड़े, क्योंकि बहुत सारी |पिपोलिकामिः बलबानपि सर्प: विनाचीटियों सेसाँप भीमारा जाता है। |श्यते। ७-प्राज्षो हि स्वका्यंस्थादनाय ७--बुद्धिमान्‌ श्रपने स्वार्य केलिए |रिपू$नपि स्वस्कम्थेन बद्ेतु। मासबाः

शपुक्नीं को मी अपने कन्धे पर ले जाय । |दहनारथमेव शिरसा काह्ठानि बहम्ति। मनुष्य जलाने के लिए. ही ठिए पर लक- |८+सठुचिवों राजपुत्र: सरध्तीरे विशाल

ड़ियों को उठाते हैं। ८-राजछुमार ने |महीरइमरश्यत्‌ , श्रगशिता गस्‍्य शाखा श्रौर बजीरों ने पोलेर के कियारे एक |भुजवत्‌ प्रतिमास्वि सम | बहुत बड़े पेड़ को देखा, जिसको डालें ! बाहों की ठरह मालुम पढ़दी थीं।

(१६ ) हिन्दी



(१६ ) संस्कृतानुवादर

पैरों का साथ छोड़ भ्रौर भ्रों | १--त्यत दु्बनसंस्ग भज साधुकी संगति कर | ₹--पदाई में श्रालस | रुमागमम्‌॥। २-याठे च॑ अयल मा ने कर श्रवश्यमेष परौक्ता में पास होगा।

कुद नूनमेव त्व॑ परीछामुत्तरिष्यसि |

३ गरीवीं पर दया कर भगवान्‌ मदद |३--दरिद्वान ्‌

प्रति दर्यां कुद। मगवस्ते फैगे। ४--उस मीपण हस्प को देस |साहाय्य॑ विधास्पति । ४-सेद्‌ मीपणं कर उसके हाथमैर कॉपने लगे । ५-- |दृश्पमबलोक्ंय तस्याः पराणिषाद फथि|तुमारेमे ।३--तेपां

उनका कोई दोष न होने पर भी उनपर उम्देदबनाही रहा |६--राम ! बाजार हिश भटप: 3५ ((बचपन ) थाम रीद कर लौट दांध्रो | ७--यदि वह

काथ्रिद्‌ दोषामन्त|रेणारि ते रन्देहासदं बमूथुं:।६-|राम !हुईंगत्वापय्ग्याशत श्राप्रपलानि |परिद्रीय मटिति प्रधागन्‍्छु। ७-पदरौ;

बह

दिन्दी-संस्क्ृत अनुवाद के उदाहरण

सेन डरता।

संतरणकौशलम, अशास्यत्‌ तहि जलात्‌

प्य--उसने पेड़ पर चढ़ कर खुशबूदार फूलों से लदी हुई एक छोटी सी वहनी

नामेष्पत्‌। ८-इद्मारुहासौ सुगन्धि-

तैरना जानता तो पानी

पुष्पसंभारां

छुद्रशाखां बमझ्।

दिला

सर्वाणि किल शबजुतैन्यनि सर्वभैद फौज इस तरह से हरा दी गयी, उनके पराजितानि, तेपां सहखद्वय॑ निहत सत्तदो हजार सिपाही मार दिये गये श्ौर शत्या अपि अधिकानि श्रावद्धानि। सात सौ से भी अधिक पकड़ लिये गये । १०--घनतमसाइता हि रजनी आसीत्‌, १०--ऊस रात को बड़ा घना श्रेघेरा आपरसीच तदा भीषणों भटिकाप्रपातः। था और मूसलाधार वारिस हो रही थी ! बन्य-शकर-शादूल-समाकुले निविडे बने उसका रास्ता बनैले सूत्र और शेरों से तस्य गन्तव्यपथश्व श्रासीत्‌। ११--नि भींभरे हुए. मगर वन मे से हो कर जाता कोडसो प्रथिकः पम्थानमत्तिचक्राम [ या। ११--निडर बटोही अपने रास्ते प्रागेव सूर्योदयात्‌ स शहूं प्राप्स्यतीति पर चला जा रहा था। पौ फटने से प्रतिशञातवान्‌ । श्रतः अ्वश्यमेष पालगिपहले उसने घर पहुँचने की प्रतिशा फी ) तथ्यम्र ततू )

को तोड़ दिया। ६--दुश्मन की स्यरी

उसे इसको पूरा करना ही था।

(१७ ) छिल्दी एक समय राजा दिलीप ने अ्रश्वमेघ यश करने के लिए एक घोड़ा छोड़ा । उस की रक्षा का भार रघु पर पढ़ा।

( (७ ) संस्कतासुवादः एकदा राजा

दिलीपोऋवमेधयनज्ञें

क॒तुमश्वमेक मुमोच । तस्व रक्ितस्तेन

बह घीड़े के पीछे-पीछे चला। इन्द्र ने नियुक्तो रघुस्तमनुययौ। “दिलीपः शर्ते इस डर से कि 'सी यज्ञ करके दिलीप मेरा पद लेगा! छिप कर उस घोड़े को यशान्‌ विधाय पददवीं मे ग्रद्मीष्यति” इति चुरा लिया। मन्दिनी की कृपा से रख भयेन प्रच्छुन्रसुपो देवेन्द्रस्त॑ वाजिनको यह बात विदित हुई और पहले उसने सामन्‍्नीति के अनुसार देवेन्द्र सेवह मपजहार। नन्दिनीप्रखादाद विदितशृत्तो घोड़ा मांगा । घोड़ा न मिलने पर रघु रघुः प्रथम साम्ना देबेन्द्रमश्वं ययाचे॥ ने देवेन्द्र के साष बुद्ध आपस्य किया | अनुपलब्धेर्रवे तेन सह योद्ध' प्रवइते।

उनके बीच युद्ध होने पररघु ने ही पहले तयोर्मियं युद्धे संप्रदतत्त रघुरेव पूर्वदेवेन्द्र देवेन्द्र केद्वदय पर बाण मारा | प्रद्यर से क्रुद्ध दो कर उसने मी रघु पर बाय

बाणेन हृदि विभेद । तञ्हारेण संकुद्धो

मारा । दानवों के रक्त को निरन्तर पीते देवेन्द्वोईपि रु बाणेन प्रत्यविश्यत्‌ ॥ रहने के कारण और मनुष्य के खून का

सायकः खब्ु यः सततममुराणं रक्तपाने-

भर

बृहद्नश्रनुवाद-वन्द्रिका :

साजशात-मरश्धिरासवादः,.. कुतूहलेनेव खून पीने लगा। इसके बाद सुकुमार दच्दोरित प्रो ।कुमारो रघुरपिखवता रघु ने भी अपने नाम वाले बाख को मांद्डितं सायक देवेस्रश्त भुजे निचखान देवेन्द्र कीबराह पर मारा और बाण से इपुणा च तथ्य पताक़ां चिच्छेद्‌ । देवेद्र कौ ध्वजा काठ डाली। इस स्वाद ने जानते हुए, मानो वह रघु का

प्रकार उनका धोर युद्ध हुआ्आ | इन्द्र के

तथीरेव॑ तुमुल युद्धमजनि। इन्द्रपाएवे

पास जो सिर लोग स्थित ये और

विद्वाद्या, रघोः उमीपे च ततस्य सैनिका

रघु के पाठ जो सैनिक थे वे युद्ध को

बुद्येदका वसूहः | इन्दरध्योराकाश-

देखते रहे। इन्द्र केश्राकाश में श्रौर भूमिस्थायित्ेन तयोः ताथका श्रष्यधोगुरु के भूमि पर होने के कारण उनके यायों के मुख भी ऊपर नीचे ये ] समय खाश्च ऊध्व॑श्रुताश्व प्रापरन्‌। अबपाकर खु ने देवेरद के धनुप्र की डोर सख्मुपत्नम्य रबुदेंवेद्धस्य परनुर्यामच्चिकाट डाली | इससे श्रति कुद्ध होकर

नत्‌ । तैनातिक्रु्ो मघत्रा पर्तपक्तत्तेद-

देवेन्द मेपहाड़ों के पंसों के काटने वाले जोचित यह शुकुमारे रपी प्राहिणोद बज से सुकुमार रु के ऊपर प्रदार किया । उससे चोट खाकर र्थु धृथ्बी तेन त्ाड़ितो रुर्म॑म्यां परत | तदबर्सों पर गिर पड़ा, किन्तु क्षण भर में पोड़ा ले उरेनैव्रावधूय स पुनर्योद्द सज्नो& को भुला कर फिर युद करने के लिए सवतू। रपोक्‍्लाडशम नौफिक , बोम॑ तैयार हो गया। इस प्रकार रु को निरीक्ष भृश् हुतोप देवेद्वों युद्धाद्‌ श्रतौकिक बौरता को देखकर देवेन्द्र ब्यस्मच । बहुत प्रसन्न हुआ श्रौर उसने युद्ध बन्द कर दिया ।

(६5) दिन्दी राजा रबुने विश्वजित्‌ नामक यह

(१८) संस्ठतानुवादः विश्व॑जिन्नाम्नि ये स्मात्मीयं

में अपना समस्‍्त छजाना यज्ञ करनेवालों दर मिसमग्नों कोदान किया और फीपजातमलिस्मों वावकरेम्यश्न दल्वा अपना समस्त रनानादि कार्य मिद्ी के मृर्मयपानेरैव रखु। सबमात्मीय स्नान

बर्तन से करने लगा। कुछ ही समय के | दुक् देहकृत्यं चफार | वाद महर्पि वरतन्तु का शिष्य दौल ऋषि |

गुरदत्षिणा प्राप्त करेने के उद्देर्य से | *

उप, पिज्रपप्समपरामल, महेबर-

रु के पाय आया, क्योंकि चौदह |पेवोः शिप्पः कौसनामा खतिअलुदश पिचाएँ शीयाकर बह गुर फो ददिया |विद्या -श्रधिगत्य ' स्वगुरदे वदक्षियाम्‌

हिन्दी-सल्क्ृत यन॒ुवाद के उदाहरण दाह

भद्रे

देना चाहता था। रपु ने अयने घर पर दासुकाम रघो. समीरमाययौ ।रप' स्यआये हुए. अश्रतिथि कौत्स की अध्यादि शदहमागतम तिथिकौस विलोकय यथासे यथादिधि पूता को । रघु ने कुशल विध्यर्ष्या दिमित्तमपूजपत्‌ |इशलप्रश्नापृद्धी तो कौत्ठ नेकहा---राजन्‌ आप नन्तर कौत्सस्तममापत “राचन्‌ मयाइशे के समान धर्मात्मा प्रजापालक राजा के घर्मात्मनि प्रजापानके मूपती सति कथ होते हुए प्रजा क्यों मुप्री न हो १ इस न प्रता' मुखिता* स्युः * साम्प्रतमह तु भउत्सनिघो स्वार्थ है सांधवितुमेयागतोडनुः समय मैं आपके पास स्वाथंदश आया | मपत्सत्ि! को !। हूँ, रिन्त आपकी बतमान स्थिति के ल्मि, पर माउत्कों बतंमानस्थितिमतदेवर यही क्लसना करता हूँ कि अच्छा |लोक्य मय्रा कल्प्यते यद्धयत्तन्नियो होता यदि में आपके पास पहले ही श्रा | ममरागमनमत. प्रायेव सनुचितमासीदिति॥ गया होता । इसलिए श्र में गुददक्षिया अत सम्पलयद ग्रुददक्षिया्थमन्यस्थैव

को प्रात करनेके लिए. फ़िसी और राजा कस्पचिन्नरतेः सजिबे यामि | इत्युके पास जाऊँगा ।? यह कहर कौत्स | कया याउत्कौत्मोडन्यय गन्तुमैच्छुतु विद्दन्‌! जाना ही चाहता था कि रउु ने उसे रोफक ताबद्रबुस्त प्रद्यायर्नश्टब्जुत्‌ू--कर कहा--“विद्वनू, प्रापक्षों कितने किपद्धनमपेद्यते मयता १? ततः जौत्सो धन की आरपश्यऊता है !? तय छौत्स गुरुणा सह झता सर्यो स्वरा बात॑मुक्त्वा ने अपने शुरु मर्दाई बरतन्तु केसाथ रु विज्ञारितयान्‌--“यदह चठुद्शकोटिहुईं पहले का अपनी बातचीत सुनाई कि परिमित द्वब्य बाड्डामीति ॥? तदाउन्हे देने केनिए चौदह करोड़ गुद- करये रखुरति मत्सकाशान्नायग्रावधि दक्षिणा की आपयश्यकता है। यह सुन- श्चिद्तिथिर्िफलीमूतमनोरयोअल्यत गत कर रु ने कह--“आज तक कमा भी इत्सतो मवान्‌ सदीय आवासे द्वितारि दिनान्यतियाइबनप्रतीक्षतामह तावद्धवकोई अतिथि रघु के पास से विफनमनों रथ नहीं गया। श्रवः आप दो तीन दर्य साघनाय अपते” इत्ययदत्‌। दिन मेरे अग्निरद में निवास करके कौत्यो४पे तदज्ञीचकार । प्रवीच्य करें, में प्रयत्व करता हूँ।! राय प्रात, कुबेर ग्रत्मभियादु कौल् ने रघु की वात मान ली । ठग रप ने छुबेर पर चढाई करने

निश्चिकाय | दतो बावत्‌ यातरेव रथ"

छा निश्चय फिया | सुरह दद रथ पर |सादद्छु- स उदतिएत्‌ ताबदेय माण्डाह

चढ़ कर जाना ही चाहता या झि मरइ| गारिरैरागत्म विनयावनतैः निवेदितम्‌-रिप्रों ने आकर नियेदन क्रिया-राजः

रात को सजाने में सोने छी वर्षा हुई ।? रघु ने जाकर उसे देखा। रखु ने उस

यन्महाराज |! रात्रौ फोपागारे देमइेट्टिरुमबदिति] तवो रघुररे तामद्राक्षीत्‌ ॥

सुमेर पहाड़ के समान मुदण के ढेर को

ततश्च सुमेस्प्रयवमित्र स्थितं सुपाराशि

प्र्हर

बहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

विद्वान्‌ कौत्स को दान दे दिया। कौ भो उसे पुत्रप्राप्ति काआशीर्वाद देकर गुरु के श्याश्मम कौ ओर चल

र्घुः विदुषे कौत्तायः

अददाद्‌।

कौत्सोडपि सुतप्राप्याशिपस्वस्मै _दत्वा शुरोराश्रममाजगाम ! ततोंडचिरादेव

दिया। कुछ समय के बाद रघु की रानो रघोरम द्विप्याः सुतरतमेकमजायत यः के एक पुत्ररुम उसत्न हुआ, जिसका खजु “अ्ज” इतिनास्‍्ना प्रसिद्धिमगात्‌ नाम “ग्रज” पढ़ा ।

एवं क्रमेण स यथाकाल॑ शिक्षादिको इस प्रकार शनैः शनेः उच्चित समय पर शिक्षा शआ्रादि प्राप्त करके ग्रज जवान प्राप्प किशोरावस्यामत्यवाहयत्‌ | ततः हुआ। पिता को श्राशा से उसने इन्दु- स पितुराज्वेन्दुमत्याः स्वयवरे प्रातित । मती के स्वयंवर की ओर प्रस्थान मार्गें चरमात्ञमहर्षिशापवशाद, गजत्वें

किया। भाग में उसने हाथी के रूप

धारण किये हुए उस प्रियंबद नामक गन्धव को मारकर योनि-मुक्त किया, जिसको मातझ् मय झा शाप था। उसने प्रसन्न होकर अज को सम्मोहन नामक श्रस््र दिया। इस प्रकार श्ज विदर्भ के राज्ञा भीज को नगरो में पहुँचा। भोज मे उसका स्वागत किया

प्राप्त प्रियंबद बाणेनाहत्य गजयौनितस्तं मोचयामास।

प्रसनन्‍्नों मूत्ता € च

रस्मै सम्मोहननामकास्न समर्पयत्‌ | से

झेत्पं विदर्मराजमोजस्य नगरी प्राप्तः | भोजोडपि तस्य स्वागत विधायैकस्मिन्‌

सवलिड्वास्मूपिते शोमने राजप्रासादे तं

ओर खूब सजाये हुए. श्रपने महल में स्यवासयत्‌ |ततीइन+ सकला+ स्नोमाउसे ठहराया । श्रज मे समस्त स्नानादि दिकाः क्रिया; समाप्य विभाममलमंत | हि क्रियाएं, समा्त को और विश्राम किया | श्रन्येयु: प्रातरेव चरोचितवेशभूषां बिघाय दूसरे दिन प्रातः/काल चह बर के योग्य वेशमृप्रा बनाकर स्वववर की ओर

चला, जहाँ राजा लोग एकत्र ये।

शजाधिहित स्वयंवर॑ प्रति ज्गाम |

अनुवादार्थ हिन्दी-गय-संग्रह (क) १--बह गुर पर भ्रद्धा रखता है। २--वह खेल मे मन लगाता है । ३--राजाओओं के पास चुगलसोर रहते हैं । ४--अ्रपना पेट कौन नहीं पाज्ञता!

५--पटवारी ने जज्ञीर से खेत नापा। ६--गौतम तपस्या के लिए वन में गया। ७--परोपकारियों का स्वभाव ही ऐसा होता है । ८--हाथी के मित्र भीदड़ नहीं होते ।

&--पू्व दिशा में चन्द्रमा निजल रहा है।

१०--सुनार देखते-देखते सोना चुरा लेता है । ११--बलवान शत्रु से सन्धि कर लेनी चाहिए। १२--राजाहदीन देश मे शान्ति नहीं रहती।

१३--वह गोपाल नाम से पुकारा जाता हे । १४--भूठ बोलने से मनुष्य गिर जाता हे |

१५--अ्रच्छा जाने दो, ठोक बात पर आ्राओ । १६---बड़ा आदमी बडे पर द्वी पराकम दिसाता है। १७--वह मुरू पर विश्वास नहीं करता है|

१८--पुराने कर्मफ्लों कोकौन उलट सकता है ।

(क ) १--श्रद्धा रखता है--श्रदृदधाति | २--सन लगाता दै-मनों ददाति । ३--राजाश्ों....रहते ईैं--पिशुनजन सलु बिश्रति छितीन्द्राः॥ ४--पेट--उदरम्‌ | ४--लेखपाल॑... नाण--लेंखपालः आऋइ्लामिः त्षेत्रमंमोस्त। ६--वन में गयां-बने जगाम । ७-परोपकारियों का--परोपकारिणामूं। ८--हाथी....होवे--मह्ि

+ गौमासुंसखखा भवन्ति दन्तिनः। ६--यूव दिशा में-श्राच्यों दिशि | १०--सुनार-पश्युतोइर, चुरा लेती है-मुष्णाति ।११--बलींयण शबत्रुणा संदध्यात्‌ ।१९--

राजा दीन देंश मैं--भ्राजके जनपदे।

१३-शुकार जाता है-श्राहूयते।

१४--गिर जाता ईं--लघुता याति॥ १४--बादु, प्रकृतमनुसन्धीयताम॥ १६-महान महत्स्वेव करोंति विक्रमम्‌॥। १७--स मयि न प्रत्येति। १८-ुंरातनानि

कमपलानि केन शक्यन्तेडल्यथाक्टम्‌ ।

६६

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

१६--कारण के होने पर भी जिनके चित्त विक्ृत नहीं होते, वे भौर हैं।

मरकव की कार्ति को धारण करता है| २०--काँच सुवर्श के रुंग से (ख) १--च्रह्मा जगत्‌ का कर्ता, धर्ता और संहर्ता है। २-शुकनास के मनोरमा से एक पुत्र पैदा हुआ्ा। ३--आपका शुभागमन कहाँ से हुआ १ मिथिला से । ४--इम दो फलों में सेएक ले लो । ५--वह गंगा को पार करके काशो को गया | ६--उस विधवा के दो बच्चे है एक लड़का और एक लड़की | ७--फ्रिसान हल से खेत को जोतवा है ।

८--आागन्तुक ने कह्दा कि मेरी यहाँ बहुत दिन रहने की इच्छा है।

६--पुत्र के ब्रिना इतना वैमव मुझे सुख नहीं देता । ३०--इहुत शीघ्र मैंतुभ्दारे घमड को दुर कर दूगा। ११--यह लड़की थ्रावाज मे अपनी माता से मिलती घुलवी ह्दै। १२--जो हित फी यात नहीं सुनता बढ नीच स्वामी दै ।

१३-मित्र, हँसी की यात को रात्य न समझ लेगा |

३१४--सज्जन कार्म से श्रपनी उपयोगिता बताते हैं, न कि मुँह से |

१४--चनियों का पैसा ही धर्म और पैसा ही कर्म है।

१६--मरत भाई के पैर पकड़ कर चीख-चीख कर वहुत देर तक रोया |

६६--विकारदेती सति विक्रियन्ते येया न चेतासि त एबं घीराः॥

२०--मरकत

की..,, ...करता हे-धत्ते मारफर्ती झुतिम्‌ |

(से ) ६--कत ... >व्द्धा कतूं, ध्ं, संहतं च । २-शुकनासस्य मनोरम़ायातनयो जातः । रे-कुतो भवान्‌ !मिथिल्ाया।।

४-श्शताम्‌ श्रनयोसस्प-

तरत्‌ |५पार करके--उत्तीयं। ६-दो बच्चे ईं--अपसत्यदयम्‌ | ७--खेत को छोवता दै-पेत्र क्षति |८--बहुत दिन रहने की--मू्रासि दिनानि स्थातुममिखुपति ये मनः |६--इतना वैमब्र-एतावान्‌ विमंव नेमें सुखमावहति। १०--

दूर कर दूँगा--ध्यपनेष्यामि ते गव॑म्‌ | ११--श्रावाज मैं--स्वरेण मातरमनुदरति। १२-ह्वितान,न,ग। संशसएज़े, म. कि १९५. ५ 'ए--एटिकहप्सीपशीरिपत शणे, परमर्थिम न शबता बच;। १४-चबुवते हि फ़्लेन साधवों न हि करठेन मिजोपयोगिताम | १४--बणिजो विक्तर्माणी वित्तरर्मायथ मबन्ति | १६-चरणौ श्राश्लिष्य मुक्त कण्टमतिनिर प्रय्रोद

अनुवादार्थ हिन्दी-गद्य-सम्रह देतो

प्ध्ज

१७-पैर में एक छोटी सी नुकीली चीज़ चुम जाती है तो यह कितनी पीड़ा है। १८--वेजस्वियों की आ्रायु नहीं देसी जाती दे । १६--यौवन के श्रास्म्म में वहुधा युवकों की दृष्टि कलुषित हो जाती हे २०- मानी लोग सहप अपने प्राण और सुस छोड़ देते हैं, किन्तु अपनेन

माँगने के ब्रत को नहों छोडत ।

(ग्) १--क्या मेरी आजा टाली जा सकती है १ २०--पहले पूल श्राता है, फिर फल आता है। ३--दरिद्वता से मनुष्य लज्षा को प्राप्त होता है। ४--हे बालफ, तू मृत्यु से क्‍यों डरता हे, वह डरे हुए, को छोड़दी महीं। पू--आपके साथ सुरुभ्रों के समीप जाने में मैं लजा का अनुभव करतीहूँ। ६--पु स्नेह झ्ितिना प्रबल होगा जय क्रि भ्रात्स्नेह इतना प्रबल है | ७--पह अपने कुल को बदनाम करता है।

८--शउ भी जिसके नाम की प्रशसा करते हैवही पुरुष पुरुष है | &६-क्सिके सिर दोप मं?

१०--पदर बगीचे का ताड़ फोड़ रहे हें ११--गुप्त बात छ' कानों में पडते ही गुप्त नहीं रहती ) १२--सुन्दर मापण वक्ता की वाग्मिता को प्रकट करता है। १३--पत्नी के वियोग में समस्त ससार जगल बन जाता है। १४-जन पुरुषों की सगति क्‍या भगल नहीं करती ! १५--साँप को दूध पिलाना केवल विष बढ़ाना हे। १७--निग्रिशवे यदि शूफ़ शिसापदे सति सा कियतीमिव ने व्यधाम | १८-तैजसा न हि बयः समीक्पते। १६--ऋलुब्रित हो जाती है--कालुष्पमुपयाति। २०-त्यश्न्त्यूत्‌ शर्म च मानिनो वर त्यजन्ति न त्वेकमयाचितत्रतम्‌ ।

( ग) १--यली जा सकती हे-विकल्थते। २--उदेत पूर्वकुसुम ततः फ्लम्‌ | ३--दारिद्रयाद्‌ हियमेति मानव: ] ४--मृत्यो्िभेप्रि कि बाल, न स भीतविज्जज्ञति |५--जिड्वेमि झयूप्रयेश सह वाद्मप्तीप शर्ुए॒) ६--क्रीडक् उपपएनेह:

यदा आत्स्नेदः ईडफ |७--बदनाम करता हे--मलिनयति | ८-+ द्विपोडपि यस्य

नामामिनन्दन्ति स एप पुमान्‌ | ६--क॑ दोपपत्ने स्थापयामि | १०-तौड़ फोड़ रहे

ईं--भजन्ति |११-पदऊणों मित्रते मस्त. | १२--प्रक८ कसा दै-व्यनक्ति | १३- जगज्जीणाररय मयति च क्‍लते ह्युपरते | १४--संगः सता स्मि मे मगल्न-

मावनोति | १५--प्रव- प्रान शुज्याना कैजल विपवर्धभम [

््ध्द

खुहृदू-ध्रदुवाद-चन्द्रिका

३६--परिडतों को भी अपने ऊपर पूरा भरोसा नहीं होता ।

२७--सोने को शुद्धता श्रोर खराबी आग को परीक्षा मे मालूम देती है | ८-आज उसे मरे हुए श्ाठ महीने हो गये | १६--तिनके से भी-इलकी रुई द्ोती हैश्र उससे भी इलका माँगने वाला ।

२०--सूर्य जिस दिशा से निकलता है, बहो पूर्वदिशा है, सूर्य “दिशा के

अधीन होकर नहीं निकलता ।

(घ) ३--सातारिक सजनों को बाणी श्र के पीछे चलती,है |

२--प्राचीन महर्षियों की वाणी के पीछे श्र्थ दौड़ते थे । ३--दो चिक्तों फे एक. होने पर संखार में क्या श्रसाध्य है ! ४--शेप्र चार मद्दीने भी श्राख वन्द करके विताश्रो।

4--झआप श्रागे चलिए, मैंपीछे-पीछे आता ही हूँ

भौदुम्‌ । (७) एक दूसरे की--परस्पर म |

(६६७ (0 ढे->डघाद, करें--इर्यांत्‌ । (३) जन्म लेता हू --सामवामि |

परीक्षायश्षपत्र (एडमिशन )

ब्श्र

(३) दे कृष्ण | आप पतित लोगों के उद्धार करने बाले हैं। (४ ) धर्महीन मनुष्य की अपेचा पशु ही अच्छा है। (५) मालप्र देश में पद्ममम नाम का एक त्तालाब था। (६ ) माता को प्रणाम करके राम के साथ लक्ष्मण बन में गये |

(७) परिश्रम के त्रिना मनुष्य परिडत नहीं हो सकता।

(८) वह सदा रुत्य बोलता है, स्वप्न मे भी झूठ नहीं बोलता । (६ ) मेंशान प्रात करने तया अच्छे गुण सीसने के लिए पाठशाला जाता हूँ ।

( १० ) सत्य और प्रिय बोलो, परन्तु अप्रिय सत्य बात ने कहे ।

( ११ ) एक समय गर्मी कौ ऋतु मे सब तालाब और कुएँ सूस गये | (१२)

ईश्वर की भक्ति करने से पापी पुरुष भी ससार से तर जाता दे |

( १३ ) एक हाथी पानी फ्रेने के लिये तालाब मे घुसा

( १४ ) मारीच को मारकर रामचन्द्रजी आश्रम मे लौट आये | ( १४ ) सीता का रोगा सुनकर वाल्मीकि मुनि उनके पास गये ।

ऐडमिशन परीक्षा (घनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी )

(933 ) प्ाधाशे॥6 4900 5थारंप्रो--

(8) ए07 प्रा ॥8ए ००ण९ बाते गधा

प्रावए 8०, 9फँ ये ह०

67 [07 €एश'. (9) छारवा ग़शा एशथार्णं (6९ 5गा९ एक्कुथां(ए ण गम 80एशआए, (०) 8 एणच़्शव

एाध्पिक 0 065 ग्राधाए

#ग्रा€8 पा, 8 >8ए४ गा 65 णाए 07०९, (0) 0॥8 प्रणारए शी गाढ ज्राधिल 45 ता€ हाथ्ग 50प छथां पीर 4 गाव हुए शा गत पाए, (९) 'एजा[व ह6 क्राणाशः शा5।प्रधर्ते स€ इ5 छाोतएं। जएणा 0च्ा प6०६.. (0 [0०१४ [,णाह 380 पीश6 ए66 प्र (05 शिपं ॥6 ०४४5७ 07 ब्याव ग्राद्यणापिं लेपड 727 प8 मय 0 880९9, नि

(१६६१) (१०) उ्य और प्रिय--सत्य शयास्िय॑ अयात्‌ ने जयात्‌ सत्यमप्रियम्‌ (६११) यूस गये--अ्रज्ष्यद । ( १३) इसा--प्रतिश व। (१४) लौट आये--प्रत्ा-

ग॑च्छृत्‌ |(१४ ) पास गये--उप्रागच्छत्‌ 986 (६) ईण €एश-सततम

| (9) |

छाएकऋथयाए



9

20ए९आंए-ससतौ थयथवा विपत्ती | (0) ००णभाव-मीड:, (०) जंग

#०ण ०४7 ॥6९३:६--च्वदीयमानसाभ्यन्तर एव | (0) ॥0ए बयपे श्राधरणएो

पंगह-घार्मिकः दयालुश् राजा।

ये

बृहदू-अतुवाद-्चन्द्रिका

चर

(4958) । व. (४) 700 गण धैक्षा्त गी विणां: ० ॥76. मेरेसामनेउड़ेमत दोग्ो (0)] 08९ 3 0०0 ४६७५४८॥४. मेरे एिर में घढुत दर्द हैका

व॒म्दारा धर यहाँ से (८) सछ0ज शशि 4 ए०ण' गरणा6 गि0ता ॥072९ !

कितमी दूर है !

। (9) 506 88 पिंडए&)] (06 089. वह दिन भर प्यारीरही

(७) ॥.6गंगट्ठ 35 8 एग०छ ६४५ ज्९80, विद्या अनमील धन है।

(8) 6 शी! व 8० 0 एम,

वह काशी नहीं जावगा ||

(6) (० जी 7687 पह रीएँ(

शा आ0, तुमको इस पाप का

कल मिलेगा |

49) 496 797० #0ए८८ ९ प०एशीश एंती 8 ४0८८, डाकू मे पथिक को लाठी मारी । () 2०वुणा€ [ा०ज९०४९ पणा। सरेह049क8४ ४६009, रामा-

यश के पढ़ने से में शञान प्राप्त करता हूँ।



(]) 7६45 70 97०फथ 40 8० बहथ॑ंप धाते 280.

बार-बार जाना

थ्ध् उद्नित नहीं दे । (00) ॥ ॥०0 76० 800६5 धर8. मेरे पास यहाँ तीन पुस्तके थीं। (0) &॥ ३5०७८ ३8 ए०७ा 99 कां3 शा्8प भी, जदा से साधु मालूम पढ़ता है ।

बाराणसेय संस्कृत विशविद्यालय अथमपरीक्षायापू ( श्६थरे ) ३---भ्रधोलिसितवाक्याना हिन्दीमापया (प) पिद्यासइशमेब्‌ स्पास्थ्यमदि परम श्र धनमम्ति, यध््य समीपे इृद्‌ धन नालिति स सववनसामत्नोडप मुझ भाक्तुं नाते । हु



(६६४७) १--(( € ) मदनीयम--थ्रनिष्ठ न स्थान | ३--( के ) दौढ़ते हुए-« ्

'धावन्त:

( घ) प्रवेश किया--य्राविशत्‌ । (च) मुनेंगे-ओष्याम:[... ०

हे

परीक्षा प्रश्मात्र ( प्रथम-परीक्षा )

६१५

एछ ) चरितनिमणि ससगंस्यापि महान प्रभावों भरति, सर्यात्‌ सम्जना श्रपि बालऊकाः दुजना* भयन्ति हुतनाइच सप्जना )

(ख ) गयामेव सेउव। लौकिऊ पारलौकिक च श्रेय: मानवाः लब्धउन्दः | को न जानाति यद्‌ दिलीप गौसेयया घुतरूम लेमे | ( छू ) भारतीयप्रशासनेन अजिलम्ब तथा प्रयतनीय यथा देशस्य प्रत्यैकनागरिकः, सस्कृतज्ञ स्पात्‌ , सस्कृतश्च राष्ट्रमापापद लभतव ।

सँस्सतभापया अनुपाद+ क्रियताम्‌ (के ) यशदत्त प्रतिदिन अपने मित्रों के साथ स्नान करने जाता है। (स ) तुम दोनों पढ़कर मेरे घर आग्ो |

(ग) आज प्रात काल हम लोग वहाँ आयेंगे | (घ ) भ्रीरामचन्द्र ने रायण का मार कर विभीषण की रक्षा की | (ड ) परशुराम ने जनऊपुर में लदमण से कठोर वचन कहा ।

(च) वे लड़के दिन्लीप फा चरित्र सुनते हैं । (छ ) रत से कामत् ऊामल पत्ते गिरते हैं[ ( १६४६ ) ३--निम्ननिर्दिष्यवमागाना दिन्दीमापयाउतु यादःकाय-(फ) पुरामारतें कनऊपुरं नाम नगरमासीत्‌। तंत्र सुशासक़नामा राजा बभूय । स पिद्यायान्‌ गुणश अक्तिमाश्वासीत्‌ । याचके दे तस्य भहती

प्रीतिः॥ तेस्य सजन नाम मित्रमभउत्‌ | सामना सेसजनः परन्तु कर्म्मंणा दुजनः । (या) एकदा कस्मिश्चिद्वने अटदन्‌ एक

छिंहद' शआसो मू्‌वा निद्रा गत

|

अस्मिन्नासरे कश्चिद्‌ छुद्रा मूपिरुस्तन्मुखे पतित्या तस्य निद्रामड्ध

चअकार | भरत, स छिद्; कापेन ते मूतिक ब्यापादयितुमैच्छुत्‌ । भवाउुलों

मूपिकः धाणरत्ार्थ व बह्ुुधा याचितवान्‌ | दिद्देनापि दया प्रदर्शिता

तस्मित्‌ भूतिके।

(मं) एवं निश्चित रावापि सडगमादाय तदतुस॒रणक्मेय नगरादू वर्शिनिजेग्राम) ग्रत्वा च देन कात्रि ददती रमणी इश एश च। का लग! फ्रिमय॑ रोदिपि ! जियोक्तमु-अह राज शद्धरस्य राजलक्ष्मी ।कारणबशादिदानीमन्पन्न गमिष्यामि | ३--श्रधोलिपिित हिन्दीयाक्ष्याना सस्क्ृतमापयरी अनुयाद, क्रियवामू---

पूर्व जन्म का तप विद्या है। विद्वान की पूजा सब जगह होती

है। श्रच्छे बालऊ सदा सत्तज्ञ म॑ रहते ५

६। भोदन कल पिता के साथ

(स) ब्यापादयित॒ुम-आरने के लिए | २--पूजा उप जगह दोती है--

आदन्र पृज्यते |नीचे आती हैँ--अवतरन्ति |

झहदू-अ्रदुवाद-चखिका

घर

काशी जावेगा । राजा दशरथ के चार पुत्र

ये। सोहन सदा खायें

प्रातः गौ का दूछ पीता दै। बढ सुभो पत्र देता दै । पव॑त से बकरियाँ नीचे आती हैं। ( श्६६० )

३-्रधोनिर्दिष्टायभागानां हिल्दीमापश श्रजुवादः कार्य;--

(+ ) परमात्मना दिचारशक्तिजंगति केवल भानवायैब दा, तयैद विचार-, शक्तिशाली मनुष्यः कठिनात्कठिनतरमपि कार्य कुब्बंन्‌ स्वस्य स्वदेशत्व न कीर्ति तमोति, सु व लभते। इश्यवा वावव्‌ बुद्धिप्मावेणैव मनुजीड्य व्योग्नि चानायासेन पत्ती इव उड्डीपते, स्पराक्रेठात्नमपि चन्द्रलोक प्रेययति । श्रहो श्र्मय मानत्रमस्तिष्कृमपि विज्ञानमयं जातम्‌ ।

अतः सर्वेर्विद्धनयुगमिद कश्पते ।

(ख ) संस्कृवमाषा देवमाषा, प्रायः सर्वाण भाखतीयभाषाणां जननी, आवि-

शिकमापाणाश्र प्राणभूता इति। यथा प्राणी श्रन्नेन जीवति, परन्ु वायु विना भ्रन्नमवि जीवन रक्ति्ं नशकनोवि, ठगेव ध्स्मदेशस्प कापि भाषा संस्कृतमापावलम्ध॑ बिना जीवित॒ुमक्मेति निःसंशयम,। श्रस्पामैव अस्माक धम$, श्रस्माकमितिद्ासः, श्रस्माक भूत॑ मविष्यघ्नसब सुसब्रिद्वितमस्ति] (ग) पश्विशृतिः शतानि बत्छशाणा व्यतीतानि, यदा गौतमऊुल्ोलनः

रिद्धाथः इमा मारतमुवम्‌ू-अलझकार स्वजन्मना। भागीरप्या उत्तरे सीरे फपिलवस्तुनाम महनीय॑

नगरमेकमासीत्‌ | शाक्यवंशोल्य्रर

शुद्धोदनस्तत्र राज्यमकरोत्‌ | तस्य माया देवी नाम सदीमार्याउमब ।

वस्याश्व दिद्वायों माम यूतुजन्म लेमे। स शैशबादेव सुश्चो विषेकी चामत्‌

३--निम्ननि दिएवाक्याना सस्कृतमायया श्रतुवादों विधेव/-बालकों प्रात.काल हो गया, उठो और गद्ढास्नान को जाश्रो | अच्छे वालक प्रातः उठकर नित्य गड्ढास्नान करते हैं। गद्नास्नान से बुद्धि निर्मल श्रौर स्वास्थ्य लाम द्वोता हे | गद्ा का उद्गम भी भारत के हिमालय ग्रदेश में दी दे । ब्राचौन श्रार्यो फीउत्तत्ति इसी देश में हुई थी । कुझचेत में मगवाद कृष्ण ने अर्जुन को आक््मतत्य का उपदेश दिया था। गदि मैं भूठ बोल वी श्राप शके दण्ड दें । फाशी विद्या की भूमि है। मैं विया पढने को काशी जाऊँगा। डानो भनुष्य पाप से सदा दरते हैं॥ ( विम्पति )



परीक्षा-प्रश्नपत्र ( मध्यमा )

ह१७

वाराणसेय-संस्कृत-विश्वविद्यालये पूृथ्॑मरध्यमपरीक्षायाम ( १६४७ ) सरल सस्द्धतमापयाज्जूयतामधोडड्लितो हिन्दी निबन्‍्धः--

१--धर्म कुछ है ही नहीं, ऐसा माननेवालों की सख्या भगवान्‌ को इृपा से भारत में अभो नगण्य ही है, परन्तु धार्मिक शिक्षा कोओर वह सवंथा उदासीन है | यांद ऐसा न होता तो वह आधुनिक शिक्षा को, जिसका घ्म से कोई नाता ही नहीं है, एक दिन भी सहन न करती । साधारण जनता की तो बात ही क्‍या, बड़े-बडे प एड॒तों को, जो धम के सरक्षऊ माने जाते हें, अपने बच्चों को श्रग्नेजी

शिक्षा देने की ही निन्‍ता रहती है) निम्ननि्दिष्ट सस्कृतसदभो हिन्दीमापयाउनूयतामू-२--क्षपिता क्षुपां, स्मयते सविता सम्प्रति, प्रकुल्ला प्रयलकलिका, चकमिपे लतिका;, प्रससार मातस्थि, चुकूचुर्विदगमकुलानि, रेजे मेदिनो, शिशुरेफः समुत्पन्नः, प्रसन्नय दनाः परिचारिका:, सन्तुष्टमनसो द्विजा:, ध्रमुदित याचकइन्दम्‌, स्मय-

मानमालोक्य पिद्शन बालमेन स्मरानना जननी, उल्फुल्ललोचना जनकः ] ३- एप भगवान्‌ मणिराकाशमणडलस्य, चक्रवर्ती खेचरचक्रस्य, कुएडलमासण्डलदिश*$, दीपको ब्द्माए्डभाएडस्प, प्रेयान्‌ पुण्डरीकपटनस्य, शोक बमोक; कोकलोफस्थ, श्रवलम्पों रौलग्यऊदम्यस्थ, सूज़घारः «सवव्यवद्वारस्थ, इनअ् दिनस्व।

अयमेव श्रह्दगय जनयति, अ्रथमेव बत्सर द्वादशस्तु भागेपु विमनक्ति, श्रयमेय कारण पण्णामृतूनाम्‌, एप एयाज्ञीकरोति उत्तर सम्पादिता युगमेदा: |

४-समझ्लीवकोड्प्पायुशेपतया

यमुनायलिलमिश्रैः

दक्षिण चायनम, एनेनैव

शिशिर्तरवातैराष्यायितशरीरः

फयश्चिदप्युत्थाय यमुनातरसुपपेदे |तत मरकतसडइशानि बालदृणाग्राणि भक्षमन्‌ कतिपयैरहामिदृरइयम इव पान.ककुआान्वलवाश्॒ सदृत्तः । प्त्यह बह्मीकशिलराखि &ज्ञाम्या पिदारयन गजमान आस्ते । ( शृध्थ८ )

सरलसंस्ट्रतभापया5नूयताम्‌ अवो्डितो हिन्दीनिवन्धः-बालऊ का मन कच्चो मिट्टी केसमान होता है। कुम्दार अपने चाऊ के

सदारे कच्ची मिद्दी कामनोयाब्छित रूप देता है। इसो प्रकार शिक्षक शिदा के द्वारा बालक के भपिष्य का निर्माण करता है। बालक के मन में यद्द

६ १६४८ )कच्चे घड़े के खमान--आममृत्तिजाउत्‌ |चाऊ के सहारे--चकण।

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

६९८

प्राप्त होने पर भावना मर देनी चाहिए कि मेंमहाद हूँ और द्व॒सर हूँ। क्षपनी शक्तियों का प्रा-यूरा विकास कर सकता

निम्ननिविषः संस्कृतसंदर्भो हिल्दीभाषयानूद्यताप्‌ू-"

भारतीयानोर्म(क्) कि करते शिक्षाता, किमर्य चेव सस्लेहमुपादौयते, पुराइध्िएलि। पु ताइश स्मूर्व॑जानां थाहशी दृश्रितीत्‌, क्रिमधुनापि

पुशवा मुवशरजता5धकरे भारते शुल्करहिता शिक्षा बितीर्यत सम) इंदानी ) शिक्षावाः माः विरोडिता दोमाग्यादस्‍्माकम अणाली मारते बहन ता प्रणाली प्र।र्तमितु बद्धपरिकरा विलाव स्ले।

ि, तबित्‌ (ख ) यावदेप खक्षचारों बहुरलिएु्ञचुद्धूप कुमुमकोरकानवशनोत चलन सतो्योप्परातत्समानवणःकातुरिकारेणुरूपित इंए शवामः रक्िमुगन्धाटती सर्वितमाल।, करराग्रस्चोदच्दु रतन्गेवाहुदण्टः, मिलिन्दूद्रयक्षिव निद्रामस्थराणि फौरकनि7ररभक्तार रालसुमानि > श्रल मो बूस्दानि, कदिति संसुपसत्य निशग्यन्‌ गौर दुरेबमबादीतु रीरिति श्रलम्‌, मयैय प्रवभयनितानि कुसुमानि, व्व व चर राजावजाग किप्रे नोत्यापितः |

$४--( के )भी दमनक शशोवि शब्द दृरात्महात्तम्‌ सोख्खवीवु स्वामित्‌ शर्णोमि। ठतः किम

ि) एिड्रलक ठंह-भद्रमद्रमस्भात्‌ दबात गन्तुमिच्चाम

दमनक आइ- कस्मात्‌ ह विज्वलक आह यरेधास्मदूवने किमप्य* ्पेय पूर्व स्व प्रविष्ट ययायं महास्कब्टः श्रयने, तर! च शब्दस्थानुस सल्तेग भाव्य५ मसत्यानुरूपेण थे पराकमेग माशम्‌ इंतिं।

उत्तरमध्यमपरीक्षायाम्‌ ( *६+०७ )

झपोलिसितो हिल्दीगर्धाशः संग्ष्भापया:नृद्यता [-हि गाया जे, प्द्तेपहल सायरमया द्राश्रम मे रध्ते थे। वे ती युगद्रश ये |

का प्रतयेड कम महान, दोता था। थे जा निश्वा करते थेउसके पीछे हा शक्ति होती थी श्रार उस शत्रि से लोगी को श्कूति व व्ररणा प्राप्त दोती

॥ शयारह मार्च उन्नीस ही होस ईसती को गावाज ने यह ग्रतिजा की थो बग तक खराज ने मिल जाय तव मर मायरपरी श्राश्रप में प्रा न

। गराधोजीनेबहाहीसे डाडी [कच किया गरा। उसे उनके मिज्री छतच्िद भ महादेव देखाई ने मदामिनिष्कमण कहा था ।

222: कपहे नन 220 0 5 5 न कपारईमार्चभारर माच उदन्नीव को| दास ईस्वो. कोने मे |हरला+दे उसी को-नीरादुनाजवशत्यु तरणइस्ततम दे माचमाहस्प द्वादश्यां विधी | कूल हिया--यतस्थे ।

परीक्षा प्रश्नतत्र (मध्यमा )

घ्श्ध

अधघोलिखितः संस्कतगधाशों हिन्दीभाषयाइनूदतामू-सस्कृतससारे कात्याबननामानः बहवा विद्वासः अूयन्ते | ओऔतसूत्रकारः कात्पायनो महर्षिस्तु प्राचीनतर. । पाशिनेरनन्तर वार्तिककारः कात्यायनापर-

समा वरूचिरासीत्‌ ! स एव प्राइतब्शरूरणस्य प्रणेशा भवेदिति प्रदीम! । कस्य चन महाकाच्यस्य निर्माता कश्ननापर एवं कात्यायनः श्रुयते । नन्‍्द्राजस्य मन्त्रिमशदले कश्नन कात्यायनों वररुचि पुरोहित आसीत्‌ | अयमेव राजनीतित्ो भदे'दति प्रत यते । कोटिल्गत्‌ क्िथ्विदेव प्राचीनस्तत्समरालीनों वा भवेदिति सुख्यक्त्मेव। ( १६४८ )

संस्ट्रतभापयाउनुवादी विधेय+-राजा दशरथ

धघनुर्विद्या में बहुत प्रवीण थे। उन्हे चल

तथा स्थिर

हक्तंय को वींधने काबडा अभ्यास था। वे शब्द सुनकर भी प्राणियों को सरलता ने सक्ष सत्रा लेते भ ! €क्त बार धयणकुमार अरने श्रन्धे माता शिवा

के लिए. लल लाने गये । जप श्रवण कुमार घडे छो भर रहे ये, हाथी के अ्रम से राजा दशरथ ने तर चला दिया। श्रयणकुमार का उसी कऋ्षुश टेहान्त हां गया । सपा झुसार झ माता रिता भा पुत्र शोक सेदिवंगत हों गये। उन्हीं क शाप से राता दशरथ का मृत्यु भी पुत्र वियोग से हुईं ।

हिन्दीभाषया-सुयादों विधेय- -(के / निरप्रताक्षित दाराणत्तेस्सस्ट्टतविश्वविद्यालमविधेयफम्‌ उत्तरप्रदेशीयविधानमएटलेन

पारितम्‌ । मह्ामान्येन रास्यपालेन स्वीकृत्याधि-

नियमपददामारापित च | तदनु भाविन, रुस्कृतविश्वविद्यालत्य कार्य5शणालीं निर्धारपितु विशेयाधिकारिणा नियुक्तिरत्ति कझृता प्रशासनेन |

इत्थ सम्दृतविश्वपिद्यालपप्रतिणापूर्यदध समक्ष । (से) धन्या सहाराज य एवं आसानष्परगणपन्‌ ऊदेण॒वा श्रात्मीयाना झुशल चिन्तयति।

एवजमेव धमा राज्षा यत्‌ स्व्ीयाना प्रतिपालन रुग्मानन

सदा दुशलचिन्तन च। भृत्या हि रोद रोद दक्चाध्नदी मातर, विलुजिते केईेभ मडिलुस्ठनैश्व रोदसों रादयन्ती पत्ना, तात तातेति कल रपेइच्छपत पटान्तमाऊपंव. पथुकाश्व दृष्परत्‌ विद्वाव स्वासिकरार्य उाधपितु स्वदेहमप्रयन्ति | तत्‌ इतशदास्वीकारों हि राज्ञा प्रथमों धर्म ।

( १६६० ) १-अभ्रधोलिपित सस्दृतगयाशों हिन्दमायवाप्नूचतामू-सल्कृतशिज्यया प्रथमा पाधा तावदिय, यन्‌ अस्या शिक्षार्यिना प्रायेण5 है शिक्षारेत्रे उत 3 भाप एवं उतने | सस्क्षत उतमानस्प शिक्षायिनाममादस्वयदा कांस्ण-

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

६२०

मन्विष्यते, तद॒ब्स्माभिरेष एवं निष्कर्ष: ग्राप्यते, यत्‌ सम्प्रति शिक्षाया उद्देश्यमे लोकैरेतन्‌ स्वीकृत यत्‌ विविधोषभोगसाधनानाममिदृद्धये धनाज॑नस्थ सामर्थ्य प्राप्येत। तव्व संस्कृतशिक्षापेतया इतरशिद्षामिरिदानीमनाग्रतेन स्वत्वायासेम वा भवितुं शकनोति | 5

अधोलिखितहिस्दीगद्याशः स्व॒म॑स्कृतेनामूग्वामु--

इस नाटक ने जिस श्ादर्श का मुफ पर प्रमाब डाला बह यही श्रादर्श था कि सत्य का अ्रतुतरण करमा और कठोर परीक्षाओं में होकर निकलना,

जिसमे से दस्श्चिन्द्र निकले। में हरिश्चन्द्र की कहानी में पूर्णतया विश्वास करता था | श्रव मेरी तामान्य बुद्धि कहती है कि हरिश्नन्द्र ऐतिदासिक व्यक्ति

नहीं हो उकते थे | फिर भी दोनों दरिश्चन्द्र ग्रौर धवण मेरे लिये जीवित सत्य हैंऔर मुझे पूण निश्चय है क्रि यदि में उन नाठकों को आज फिर से पढ़" तो पूष की भाति अमभावित हो जाऊंगा । मा

पटना की मैट्रिक्यूलेशन परीक्षा 4937 ( ७०एएछ५ण७ए )

संस्कृत में श्रनुवाद कोजिए--

(१ ) राजा इन्द्रहुम्त श्रथने द्वाथी पर चढ़/ श्र कई एक देशों में प्रभण करता हुआ श्रन्त मेंजगन्नाय घाम पहुँचा ।

(३ ) मगघ में बहुत दिन पूर्वजरासस्थ नाम का राजा रहता था और एक

समय कृष्ण के साय भीससन वहाँ श्राये श्रीर उसको मार दिया | (३) ०: दिन गुरु श्रपने शिष्यों के साथ योगी के श्राश्रम में गये भर यहाँ गोदावरी नदी के किनारे ध्यान में बैठ गये। (४) जी धर्म६५ केअनुकूल काम करते श्रौर दूसरों कीभलाई फरने में लगे

रहते हैंफेवल वे है! ईश्वर के कृपा पात्र होते हैं।

(५ ) उसकी सेना के शब्रु द्वारा पूरी तरह दराये जाने पर कुद डिणही पहाड़ों पर चढ़ गये, कुछ समुद्रों से उतर गये और दूसरे एकान्त करदराशओं मेँ घुस गये |

॥9 (2460 059०] )

(१ ) सब प्रजाओं को खबर दी कि अ्रत्र चन्द्रगुम अपने हो राजकार्यों को देखेंगे)

विकननन-े-

१६३७ ५ (५) इराये जाने पर-पराजिने सति ॥

परीक्षाओश्षपत्र( परना-मैट्रिक्यूलेशन )

ब्रश

(२) श्रपने मा वाप की श्राज्ञा मानो, विद्दानों काआ्रादर करो; दूसरों की िन्‍्दा का एक शब्द भी कभी मत बोलो, और अपनी अवस्था से सन्तुष्ट रहो | (३ ) व्याघध को अपनी ओर य्ाते देस सब जानवर डर कर मिन्न-मिक्त दिशाओं में भाग गये । ( ४ ) मुझे आशा है कि आप को उस आदमी का स्मरण होगा जिसके बारे में एक सहीना पहले आप से मेने कहा था। है

(५ )पुराने समय में अछित नाम का एफ मुनि था, जितने श्रपने पर्माचरण के लिए देवों के देव से देवल क्री पदवी श्रास की । 938 ( ए०फएणै5णफ ) (१) धन से अ्रच्छे और बुरे दोनों काम होते हैँ |इसका जैसा व्यवहार करोगे चैसा हो फल मिलेगा । ( २ ) तुमको उत्तम पुरुष होना चाहिए. ] इसके लिए समकी मलाई फरो। ( ३३) अपने बडे भाई रामचन्द्र कोआ्राज्ञा से लक््मण ने सीता को यन में ले जाकर अकेली छोड दिया | (४ ) जब फोई तुम्हारे घर पर आरा जाय तो उसका आदर करो, उसे बैठने के

लिए शान और पैर धोने के लिए. जल दो | (५) पम को छोड कर सुख थाने का दूसरा कोई उपाय नहीं है। इसलिए कुछ्च लोग धर्म के लिए प्राण तफ दे देते हैं। 988 ( 8000णाणे )

(१) मन में अ्र॒लन्त उद्दिग्न होऊर युवा सन्‍्यासी नदी के किनारे टहलने के लिए निकला । (२) का इुव अन्धेरी थी; मधुमक्खियाँ ही गूँज रही थों; सब विश्राम कर

रहे ये| (६३ )जो हो युवा रुन्याटो को विश्वाम न था। उसने मानध्िक शान्ति खोदीयथी।

(४ ) राजा श्रपनी प्ररओं दो पाता है । यदि कोई कुरास्‍्ते जाय तो राजा को चाहिए. कि उसे दण्ड दे।

१६३७ ै (३) माग गये-पलायिताः |

१६३८ ८ ( १) दसर जैसा ब्यपहार करोगे वैसा फ्ल पाओोगे-अनेन यथा

व्यवदरिप्पय वयैव फ्ल प्रायविष्यय,

दे देते दैं--आयाहुत्यजन्ति |

(३ ) अक्ली-एकाकिनीम्‌,

(५) प्राण तक

ध्र्र

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

(५ ) यदि बदमाशों को दंड नहीं दिया जाय वो (सम्पूस समाज विश्वृंसत् हो जायगा।

]947 ( 4ज्राएथे ) (१ ) रूनुष्य किसी के साथ शतुत्य न करे।

(२ ) थ्राचाय लोग धर्म का उपदेश देते हैं। ( ३ ) कवि सञनों की प्रशता करता है। (४ ) वालिका इत्त को देखकर बैठ गयी । (५ ) मैंने ग्रति दुबल वालक को देखा । (६ ) मैंने गोदोहन काल में कृष्ण को देखा। ]947 ( 5फृछाशाशा(धए ) (9 )विष्णु ने क्षीर समुद्र को मथा। (७9) ईश्यर की क्परा का पल सबत्र देखा जाता है। (८) दृग्णि बन में पानी पं ने की इच्छा करता है । (0 ) उसने शत्रु से एक सी गायें जीत लीं। (6) गुरु छात्रों को पढ़ाते है । (६) तुम कहाँ रहते दो, यह में जानना चाहता हूँ । ]948 ( #ग्एश ) (०

पिता की थाज्ञा से रामचन्द्र दन गये [

(9 हवा मुझे फल दीजिए (०) परमप्रिता परमेश्वर सब्र है। (0) श्याम पुत्र के जिए पुस्तक लाता है । ( € ) ठम्हारा भाई कहाँ पढ़ता है १ ( ) कब काशी जाथोगे ! 948 ( $0७एथ्यव्यांधर )

(2 ) कृपया ग्र/म चलिए । (9 ) तुग्दारा घर कहां है ? ( ०) पिता गब्राज़ आचेंगे |

(0 ) कवियों में कालिदास श्रेष्त थे| 0. मा 2 400 22%00 0ककए2:25 हे,िके८है (५) बदमाशों को--घूर्नान्‌। १६४७ 8 (२) घर का उपदेश देते हैं--धर्मम उपदिशन्ति | (४ ) बैठ गबी--उपराविशत्‌ । १६४७ 5 (८) पीने को इबछुए करता है--पिपासति |( ते ) उसने शत्रु से एक भ्रौ मार्ये जीत ज्ली-स शर्जु शर्त गा जजयत्‌ |

परीक्षा प्रश्पप् ( पश्माब-ऐड्रेंस

ब्र्३

(6 )रामनन्द्र नेरावण को मारा |

() मैं स्वय कार्य करूँगा ।

पंजाब की ऐंटस परीक्षा ( १६६६ ) सरझ्ृत मैं अनुवाद कीजिए--

(क) ( १) सदा घर्म पर चलो | (२) धर्म ज उन है।

(३ ) सत्य धम ऊा अब्ज है । (४ ) सत्य से यड़ा काइ दूसरा धर्म नहीं |

(५ ) तप धर्म का अज्ज है।

(६ ) श्राज कल क ववद्यार्थी तपरद्वित हे । (७ ) तप मे उड़ा सुस है। (८ ) सिनेमा मत देसा |

(६ ) यह चरित्र का भ्रष्ट करता है | (१० ) अध्यापक भा तपर्पी हो ।

(सर ) य्रत्र भारत स्पतन्त हं। अद्गरेज यहाँ से चले गये है । हिन्दी राष्ट्रभापा बन रही है। सस्कृत का उष्थान समाप ही दिखाई देता है। अज्ञरेजों की प्रभानता नष्ट है जायगी। पुराने साहित्य का मूल्य श्रथ बढ़ेगा। हिन्दी

समदत न जानना घृणा का स्थान होगा। राम राज्य का आरम्म होने वाला है। ( १६५४० )

(ऊ)( १) ईश्यर पाप और पुण्य को देखन' है। (२ ) सत्य बोलने से मन शुद्ध होता है।

(३ ) आचीन काल में धर्म का राज्य था ।

(४ ) सत्र लोग आपस म॑ प्रेम करते थे |

(५ ) पलयान्‌ नियलों को महीं सताते थे | (६ ) स्त्रियाँ भी यिद्या ग्रहण करती थीं।

(७ ) इृषा करके दस पत्र का पढ़ दो । (८ ) दे भाई ! मुझे क्वमा करा । (६ ) श्रविद्या का अंधेरा दूर हे जायगा |

( १० ) ईश्पर हम सपर की रक्षा करें | १६४६ ( ८) विनेमा मत देसो--छायाचित्रारिी न पश्यत | १६४० (२) मन शुद्ध होता है--मनः शुद्धभति | ( ८)मुझे क्षमा कर दो--छमस्त्र मास ।

घर

बृहृदू-अनुवाद-चन्द्रिका

(रू) रामायण हमारी पवित्र पुस्तक है। इसमें रामचन्द्र जी की कथा है। भारतवप

हे

मे इसका यहुत अ्दर है। छोटे बडे सब इसको पढ़ते हैं । वाल्मीकि ऋषि ने इसे संस्कृत इलोकों में लिखा था। वाल्मीकि आदि कवि माने जाते हर रामायण से टनका नाम अमर हो गया है । हमें भो रामायण पढ़नी चाहिए |

( १६५१) (क) ( १) इस पाठशाला में केवल तीन कम्याएँ पढ़वी हैं | (२ ) बह अपना काम मुझसे करवाता है। (३ ) मेरे चारों भाई सेना में मर्ठी हो गये ।

(४ ) गगा का जल यमुना की थश्रपेक्षा निमल है । (५ ) यह पुस्तक खब पुप्तकों मे सरल दे |

(६ ) मुभसे अब पढ़ा नहीं जाठा | (७ ) हे भगवन्‌ ! मुझे वर दो |

( ८ ) बच्चा आज नहीं रोएगा । (६ ५ जंए जे, रुएए यह एएए एएए ५

( १० )में सत्र कुछ करसकता हैं६ (ल) नदी के किनारे भरद्वाज ऋषि का थआ्राभ्रम है। कहते हैं(क वार रामचन्द्र जी

यहाँ ग्राये थे।थ्रावकल भी यहाँ अनेक ऋषि निवास के हैं। इनके दर्शन के लिये बहुत लोग यहाँ श्राति हैं। आश्रम को देखकर #िक मनुष्प का सन

प्रसन्न होता है । जो यहाँ श्राते हैं, वे पवित्र विचार लेर्र तौदते एेँ । सच है, आशभ्रस का जीवन भाग्य से मिलता हे। (१६५४२) (9) , श्राप श्रौर हम रविवार को श्रमृतसर जाएँगे | . गोपाल वा तुम यह काम करो ॥

इस पाठशाला में दीस लड़कियाँ और सो लड़के ये | . गोविन्द जन्‍म से ब्राह्मण है । (श (0 ४«>५ सब कोई धन की इच्छा करता है | 3 » तुम्हारा चिच इस चित्र से श्रधिक सुन्दर है |

* भिखारी ने सेठ से सौ रुपये माँगे। « पत्र के निकलने पर हम बाहर गये ।

0 फ़्ब्य

'नन्णम्+>पट रस पममरमपानधनमादलापा»माउपज माल

१६४१--( क ) ( १ ) तीन फन्‍्याएं--तिसः कन्या; । ( ९ ) करबाता है--

कारपति | (३ ) झ्ती हो गये--प्रविष्ठाः! (५) सब में सरणे हैे--उरलतमम,। १६४२( ७ ) (३) बीस लड़कियाँ सौ लड़फे--विशरविः बालिकीः शर्ते छात्रा३

परोद्धा प्रछपद् ( पदाद प्राक्ष )

श्र

|,

|| (४8) पचपुर नगर में एक ऋाछूण रदता था। उसका पुद्द देवशर्मा था । वइ पढ़कर क्िती और देश कौ चला गंया ओर वहाँ मागीरथी के झिनारे वर 2 लगा एक दिन वह तपत्दो ध्रगा के छिमारे जप्र के लिए बेढा या। (0| सप्रर किसी उडठी हुई बलाका ने उसके शरीर पर दीढ कर दी । इस्सेइस्से 58 कुद्ध दो गणा चौर उसने ऊरर देखा। उसके क्रोब की आग से जच जे बनाऊा भूमि पर था गिरी, यइ देख कर उसे अपने तप पर श्ब हो यथा ।

( १६४३ ) (कक) ( * ) दम और गाग़रन कच पराठशाना नहीं गये ।

(२ ) तुम या इस आत नाक देखेंगे ।

(३ ) बढ चाँख से काना और पाँव में लेंपडा है । ( ४) शुरू झा नमस्कार छर, वे हमें दिया देठ हैं । ) मनुष्यों में छाऋरः उर में ऋच्छा है । हे मैं अभा लब॒पुर से आप है । उसने गरम पानी मे दाय-गँद घाये ।

ह] वी #०७कल #ए० & प्रेया में २५ लडके हैंदौर राज्य उनन चौया है । फल आज 5 २४८5 6 ने रावरा हा जीता और रूता का प्राप्त क्रिता। उसने लक्षा का राज्य (ख) ५८४ राम

पिभोषरा का द दिया। वबइ ७ ता कौर लक्ष्मण के साथ पुष्पक्त विमानसे हा तब्य का लौटा, उ्श मरत उसका प्रवाह कर रहझा था। ऋणगोष्या पंच कर राम में ऋपना माताझों दौर गुरूषों ऊ् अभिद्राइन किया। यप सम्यचार पार ऋपाध्यायादी बहुत प्ररक्त हुए। सारे मार मे दौर “चाडे गये। छिर बड़ रुमाराह से राम छा राप्यानिपक छिया गए ।

पज्ञाव की पावपरीक्षा (रव्थ्न) सस्दझत मे अरुवाद छोजिए:--

(क) हिठी वन मे मरोक्कट गामदाचा दिए रा था । चींठ, कोश कौर गीदड ड4क नौकर य] एक दार दिने इधर-उघर घुसे हुएब्यायरी के छाप से दिछुड़े हुए एक ऊँट का देवा। बइ बोना, “दाशचर्द ६ पह एक अदुरुत प्रारी है। गा करो, यइ वन का है अथवा गाँव का है। यह मनकर कोझा बोचा--

री !ऊँट नानवाना यह गाँव छा प्रारि विशेष झाएके खाने योग्ड है, अतः एसे मारिए. । दिए दोचा, “मैं धर में आदे का नहीं मासुगा । इसे प्रमप छा दान देकर मेरे पाठ ले आर, रिउके इस्क्ते इघर आने का कार पूच [7 प्रदाइ राई. छाद्मा, उनमें साजेश चौपा १६५३ ( क )(८) ₹श लड़के इें--पदाउशति.

६१६

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिकां

(ख ) जे महीने की पूर्णिमा को पत्ित्रता त्लियाँ वट इत्त की पूजा और उपवास करती हैं| इस तिथि को प्राचीन काल में रुत्यवान्‌ की भार्या सावित्री ने यभ से लिए जाते हुए अपने पति रत्यवान््‌ को छुड़ाया था। तभी से इस

व्रत का आरम्म हुआ है। स्लियाँ यह मानती हैं कि इस बन के करने से

डनके पति की आयु दीप होती है । सत्र सोहगिन स्त्ियाँ इस जत को करी हैं। (ग) ( १ ) घोदी मेले कपड़ों को गाड़ी में नदी पर ले जायगा ! (२ ) दू क्या चाहता हे, स्पष्ट क्यों नहीं कहता (३ ) बारद वर्षो में चारों वेद छुः थ्ज्ञों सह्दित पढ़े जाते दें। (४ ) खेलने के समय खेलना श्रोर पढ़ने के समय पढ़ना चाहिये। (४ ) श्रह्मचारी भोग-बिलास से सदा डरे और पाप से बचे । (६ ) यद्दि तुम परिश्रम करते तो परीक्षा में श्रवश्य सफल हो जाते ।

(७ ) प्राीम काल मे राजा लोग बिद्वामों की सेया करना अपना कर्तव्य समभते थे ।

(८) सबत्‌ २००३ में इस मकान में एक पुरुष, दो स्त्ियाँ, तीन बालक और चार कन्याएँ रहती थीं।

( १६४६ ) (क) कुछ सोनकर वसिष्ट नेदिलीप से कहा कि मद्दाराज ! अय चिस्ता छोड़ो और एक काम करो। मेरे श्राश्रर में एक गाय है जिसका नाम नन्दिनी है ओर यह कामचैेतु है । श्रव इसकी सेत्रा करो | यह तुस्दारे मनोरथ को पूरा

फरेगी। जहाँ वह जाए जाने दो । जैसा वह करे वैसा ही तुम भी फरो ! राजा ने श्रपने गुरु की बात मान लो श्रौर उसकी सेवा बड़े प्रेम और भरद्धा केखाथ की, जिससे बह यहुत प्रसन्न हो गयी |

(एप) नन्दिनी ने मीठे स्वर से कह्वा--'बेटा |उठ बैठो । यद्व सब मेरी हो माया थी | ऋषि की तरत्या के बल से यमराज भी मेरो शोर श्रॉस नहीं उठा

सकता |साधारण पशुओं की ठो बात ही क्या है ! मुझे निरे दूध देनेवाली गाय मत समझो । मैं दूध भो देदी हैंश्रौर वरदान भी |?

१६४८ ( से ) छुड़ाया था--विमोचितः, सोह्दागिन स्निया--सपयाः। (ग)

/-शोक्षी-रजपा- ४ ४--मागाशलिसा'

से--पैलाधमपजपिनात्‌ू।

८+-तपंत

६००|मअ्युत्तरदिसहससंबत्सरे ।१६४६ (क ) वात मान ली--कथमं स्वीचकार। (स बेटा उठो--उत्तिष्ठ बत्ण, ब्रा नहों हर। (सर) उठा सकता--क्रिमपि कनतुममम५: |

परीक्षा-पश्षपत्र ( पञ्ञाव प्राज्ञ )

द्र्७

राजा ने कहा कि में अपने राज्य का एक उत्तराधिकारी चाहता हूँ, तो नन्दिनी ने कहा कि तुम मेरा दूध पी लो। देखो, त्॒दारी इच्छा पूरे दोगी। राजा ने उत्तर दिया कि आपके दूध में सबसे पहले बछुड़े काभाग है, फिर गशुरूजी कायर तय मेरा। क्षमा करना में गुरु की आज्ञा के पिना ठप नहीं पा सकता । इ6 प्रात का सुनकर नन्दिनी बहुत ही प्रसत हुई और उसे असीस दी । सायद्ञाल को ग्राश्रम म पदुचकर महाराज दलीप ने वसिष्ठ को सारा

(ग)

सवाद सुनाया और गुरु का आशा से दूध पिया। मन्दिनी की इझपा से रानी मुदक्तिणा से रघु उत्तर हुए, रपु से श्रज और अज से महाराज दशरथ उत्पन हुए, मह्ाऊति फालिदास ने रपुप्श मे इसका वर्णन किया हे । (१) मेले आदमी सदा भला ही काम करते हैं ।

(२ ) सूर्य की गर्मा से जल सूरत भाता है। (३) लाग सभा में चुपचाप बैठें और भाषण समें। (४ ) पिताजा | आरा जाइय, में मा ञ्रा जाऊंगा | (५ ) यदि बह बात सुननी है तो बैठ ताइए ।

५ ६ ) विद्या का परिश्रम से पढी, सुस्त पाग्मागे । (७ ) सन उप्रास सौ सेलालीस मे भारत स्पत्स्त्र हुगा ।

(८ ) मूर्स पुत्र को विकार है! बह बढ़ता क्या नहीं ? (६ ) माता उच्चे का चाँद दिय्याता है ) (१०) हम सदा सत्य थ्रोलना चाहिए |

(११) द6 समय के मारत के प्रघान मन्‍त्री का नाम १० जवाहरलाल है। (१२ )क्या तुमसे यहाँ ठहरा नहीं चाता | ( १६३० )

( के ) एक समय राजा उशामर ने यस्ञ करना आरूम क्रिया। यज्ञ के लिए सारी सामग्री एकन का | जहाँ पर राता यज्ञ फर रहे थे वहाँ पर इन्द्र, राजा की परीक्षा लेने गये ।राजा की जाँघ पर एक कयूतर आऊर बैठ गया। इन्द्र ने कहा, रतन ! यह कबूतर मुक्के दे दो। में इस क्यूतर को सार्केया। यह १६४६ ( ग ) १-मल्ते श्रादम--तत्युदया

| २-गर्मी स-आतपेन | ७०-

सन्‌ उनीस सी सेंचालीम में-मसप्तचत्यारिंशद्धिकैफोनविशतिसिस्ताब्दे।

८--

घिक्कार है--घिरू १२--ठह्य नहीं जाता है-स्थाठ न शक्पते | १६४० (फे ) यज्ञ करना श्रांस्म फिया--यज्ष कतुमारेमे। जाघप पर--जपधायाम्‌ ,कंयूतर-कपोत' |

ध्स्द

बूहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

मेरा भोजन है। मैं भूख से ब्याकुल हूँ । अ्रतएव तुम धर्म के लोम से इसकी रहा भत करो । तरद्वारा धर्म नष्ट हो चुका | राजा ने कहा, त॒ख्दारे भय से व्याकुल होकर प्राण बचाने की इच्छा से यह कबूतर हमारे पास श्राया है। इम इसकी रखा क्यों न करें ? इसकी प्राणरक्षा करने में क्या तुमको धर्म नहीं दिखाई पड़ता ! यह कबूतर तड़पता छुआ मेरे पास श्राया है।शरणा* गत की रक्षा करना मनुष्य का धमं है। जो पुरुष शरणागत की रक्षा नहीं करते वे महापाएी हैं। इन्द्त ने कह, राजन्‌ ! आहार से जगत्‌ के सब जीव-जन्त उसनन होते हैं, श्राहार से बढ़ते हैं और श्राद्वार से जीते हैं। अन्य पस्वग्रों के त्याग से मनुष्य कई दिन तक जी सकता दे, परन्तु भोजन छोड़कर जीना श्रसम्भत्र है। इसलिए भोजन न पाने से मेरे प्राण शरीर से निकल जायेंगे । मेरे मरने से मेरे ख्री और पुत्र सब मर जायेंगे। श्राप एक कबूतर

की रक्षा करके सव प्राणियों को मारते हैं। जिस धर्म सेधर्म का नाश हो, वह घम नहीं, श्रधम है _ राजा ने कद्दा, तुम ठीक कहते हो। परन्दु हम शरणागत को नह छोड़ सकते | जिससे तुम इस पक्तां के प्राण छोड़ो, मैंवही करूँगा।

(ख) ( १ ) गंगा हिमालय से निकलती है । (२) गोपाल गौ का दूध दोहता है । (३) विद्या सीसने के लिए गुर की आजा मानना परम श्रावश्यक है| (४) विद्यार्थी को सुख कहाँ श्र सुखार्थों को विद्या कहां ! (५ ) विदुर की कया शिक्षा से पूर्ण है । (६ ) भूठ बोलमा स्त्र पाऐँं फा मूल है। (७ ) विदुर के कद्दे उपदेश श्रगमोल ६ । (८) जुग्रा खेलना श्रच्छा फाम नहीं है । (६ ) कोई मे कोई कला सबको सीखनी चाहिए। (१०) मित्र वही द जो सकट में साथ देता है। (११) हुजन सदा दूसरों के छिद्र द्वेंदता रहता दै।

(१२) राजमार्ग के दोनों तरफ हरे-हरे शत्त ईै। (१६४१)

(के ) एक दिन सुदामा की स्त्री ने पति से विनयपूर्वक कद्ा--“स्वामिन्‌ ) आप कटा करते

ईं कि श्रीकृष्ण जी श्रापके सा हैं) श्राप इस समय दीन

हा (क) तड़पता हु १६५० हुश्आा-विह्नल्न;है (पे) (८) जुच्रा सेलना-ख्े बूनकीडनम्‌ (११) छिद्र दृदता रहना दे-छिद्गाणि श्रन्विध्यति | 228

घ्श्छ

परीक्षा प्रश्न प्र ( पह्ाव प्राज् )

अवस्था में हैं। घर मे पाने को कुछ नहीं । श्रतः द्ाप उनके पास जाएँ

और फुछ ले आएँ । सुना है कि वे दीनों पर दया करते हैं। वे अवश्य

आप की सहायता करेंगे |आपको ऐसी अयस्था मैं मित्र केपास जाते हुए

लजा नहीं करनी चाहिए; । ऊहते हे कि व्रिपत्ति मेमित्र ही मित्र केकाम आता है| आप उनसे सहायता प्राप्त करें, जिससे हमारा निर्वाह भली

माँति हो सके | श्राशा है ऊफ्ि श्राप मेरी प्राथना पर ध्यान देंगे और वहाँ जायेंगे। सुदामा अब कुछ न योल सझा और अपनी पत्नी केकथन को युक्तियुक्त जानकर श्रीकृष्ण के पास जाने को प्रस्तुत होगया । उसके मन पश्चात्‌ मिलने जा रहा हूँ। में बिच्वार उठा कि मै मित्र सेकई वर्षों के भेंट में क्या ले जाऊँ ९ वहाँ था ही कया जो मुदामा साथ ले जाता ९ कट पुराने कपडे में थोडे सेचावल बाव कर पर सुदामा की स्त्री मे

पति को दिये ओर बयद्द उन्हें लेकर अपने झखा के पाउ द्वारिका को चल पड़ा |

(ख) ( १) बह क्यों व्यर्थ दुप सहता है ? (२) मैं तो देश की रक्ना फे लिए कष्ट सहूँगा [

(३ ) हम से गर्म दूध नहीं पिया जाता । (४ ) हे प्रश्न ! मेरी उिपदा हरा । (४) तू गुरियों के साथ रह ।

(६ ) विद्वानों का सन भ्रादर होता है । (७ ) हमें गुदुओं की आजा माननी चाहिए |

(८ ) जो दान देना चाहता है दे । (६ ) वर्षा होती तो सुभिक्ष होता । (१०) तुम शीघ्र जल जाश्ो |

( १६३४३ ) (क ) धम में लगा हुआ श्रशोक दिन प्रतिदिन अधिकाधिक दान करवा रहता

था | एक बार जब वह पुनः दान करने लगा तब मत्री मएडल ने उसे रोफ दिया। सिन्न अशोऊ ने मरतियों से प्रछा--अब प्रथ्वी का स्वामी कौन है!

मनी बोले - देव भूमि के अ्रधिर्षात हैं। अशुष्दूण नेनों से अशोक ने फिर

१६४१ ( क )कहते हैं--कथयन्ति | मेंट-उपहार, भंद--सषदि, पुराने कपड़े मे--भीणवस्ते, चावल--तण्डलान्‌ू, चल पडा-प्रस्थित। |

(स)(६)»

वर्षा हती दो सुभित्त होदा-यदि वर्षणएमभविष्यत्तदा सुभिन्षमभविष्यत्‌ ।

१६४३ (के ) धर्म में लगा हुग्आ-धर्मनिरत", रोक दिया--रुद्धः ।

६३०

बूहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

कहां--क्यों झाप असत्य कहते हैं ! इम राज्य से अष्ट हो चुके हैं| मंत्रिमडल जानता था कि बदि कोप समाप्त द्वो गया तो इतना बड़ा साम्राज्य दो क्षण भर में नंष्ठ हो जायगा। राजा और मन्त्री दोनों एक दूसरे समभते थे । राजा ने राज त्यागने का निश्वय ५र लिया और 5222

सिमयता कितनी विस्म शयादक है | भला संसार के कितने विश्वतरिर थे! राजा दनने महान हुएए

दे? और कितनों के मस्त्री इतने विर्भोक

(ले) ( ६) यह आपका अपना ही पर है। (२ ) श्याम सेल रहा होगा ।

(३) कथा तो होती है. पर कोई सुने भी । (४ ) क्या बाबू ही यहाँ आये से १

(५, ) बलो, मैं अभी आता हूं । (६ ) मुझ में इतनी अकक्‍्ल कद्ठाँ

(७) कमा किजिए, ।फर ऐसा नहीं करूँगा | (८ ) तुम्हारे जैसे बहनेरे देसे हे ।

(६ ) दह दवर से आया थार उधर चला गया। (१० )आपके विदा यह काम नहीं बनेगा ।

यू० पी० शिक्षान्रोई की इण्दरपीडिएट परीक्षा (२६५५ )

चु+॥05]9800 00 905 ६प-एशावप ए४5 द्वा०0ए7ए 35 गि]9 ०7 ॥ुएया, जुगा6 च००ण शा0 ए€0च्च॥९ पह प्राणालर ए। #०९ एच्चा04एच5,. ]॥6ए १४९१९ एउताएंक)का09, ठिग]4 /भर]००० शाते 0९ छा विगटपोब शत छ्ा906ए8,.. डिफटाए णा९ | १६९९ 4॥256 9095, 407 (09 ए९/९

[० ण॑ हाध्श वृषनातल्ड, 7॥6 पफह्था ० जियाब एछ5 हाँवत, 07 6 580 हब तह छह 2र0९5६ ० बा. धार फ़्वाटएड 40 जा गया (86 ग्राणैयाए ए 4 एश'ढटा चाह, शत शथाव0, गाह 4867, 060 5७00९॥।ए ॥7 (6 ४07९5५8,

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(३ )कथा ता होती है पर कोई सुने भी--कृथा तु सबति चर कशथ्ित्‌ रृहयोस्ववि]( ४) क्या बायूनी यहाँदाई ये ?्झ्मति वायूजी/ श्रत्र श्रागनः ! (६) अकल-न्युदिः ( ७ ) मा कोजिए, पर ऐसा यहीं फरूँगा--छायताम ,पुनरेय में करिष्यासि | (८) तुझारे लैस बहुतेरे देख ईैं--मवादइशाः बहयो द्शः । (६) सह इधर से आ्राया और इयर चला गया--स टन धागवस्ततश्य गंतः | हु

ऋो

परीक्षा बश्च-यत्र ( यू० पीव-दण्टरमीडिएट 3

६३१

अथवा

पाण्डु की री प्रथा अथवा

कुन्‍्ती केनाम से प्रसिद्ध थीऔर वह पाँच

पारडवों की माँ हुई । ये युविष्टि, भीम, अजुन श्थपा जुड़वां नझुल और सहदेव थे। सप लोग उनसे स्नेह करते थे, क्‍योंकि ये महान गुणों से पृण थे |भीम का हृदय प्रसन्न था, क्योंफि उन्होंने देखा फ्ि सत्र राजउुमार्गे में प्येष्ठ सुधिष्ठिर से उत्तम

राजा बनने के गुण पिद्यमान हं । डनके पिठा महारात्र पाण्डु की वन में अ्रकप्मात्‌ मृत्यु हो गया और धृतराष्र नेघोषित किया क्रि आज से राजजुमार सुधिष्ठिर को दोनों राग्यों का उत्तराधिफ्ररी समझना चाहिए, ) ( #६५६ ) प0 79॥950 कण) 220 0 8० 70080 2] ४6 070९8)$ साहा एाग्यापाव 5७९६ ँ०0ए०80, ७०5 (0९8 978 3668) (॥775 एॉ8एकान्छाएशवे क 7९. हैं हा/शजोए फशार्एल्ते जा (708 डजए' रण

लिशाओ एरीवाता३, [तह ी०ण्डी: एज थी ततीशा ॥र866 ए6 ७९९०. जैए एणागण्र 5९४5९ लीड ॥6 ६0099 एव लगयडय (फश्मापा8 ८006 ॥0 ॥8ए6 9१९79 8 ॥9000) टाधा9७९४

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इस नाठक ने चिस आदर्श जा मुरू पर प्रभाव डाला वह यही श्रादर्श था क्रि सत्य शा अनुसरण फरना और कठार परीक्षाओं में हाफर निकलमा, सिसमें से हरिश्चन्द्र नि्ले। में दरिश्चन्द्र को रह्ानी मे पूशतया विश्वास करता था | दस सत्र जा पिचार प्राय झुके झुला देता था। अपर मेर' सामान घुद् कहती है कि हृरिएचम्द्र ऐविदासिक ब्णक्ति नह हो सरंत थ। फिर भो दानों हरिश्सन्‍्द्रा और

अवस् मेरे लिए जायित सत्य ह और मुके पूण निश्चय है कि यदि में उन नाटकों का श्राज फिर से पहूँ ता पृत्र का भाँति प्रभावित हो जाऊँगा। (१६५७ )

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बृहद्‌ अनुवाद चन्डिका

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गाखले सच्चे देश भक्त थे। दे भारतबष से प्रेम करते थे। उनक्री प्रबल इच्छा थी कि वे उसे एक महान्‌ देश बनाने में उहायक हों। उनऊा जोवन अ्र्िंतरक्

श्र स्थाथरहित था । वे न तो धन की परवाह करते थे और न स्वाति की |उनकी सबसे बडी महस््याकाक्षा थी कि वे अपने कक्तव्य का पालन

करें। अपने समय

में उन्होंने वक्ता के रूप में स्थाति प्राप्त की, किन्तु स्वोपरिवें क्रियाशील मगुष्य थे | वे बेवल शब्दों में विश्वास नहीं करते थे | वे कार्यो कोकरना चाहते थे | जो काम

उन्होंने अपने ऊपर लिपा उसे निःस्वार्थ भावना से कार्यान्वित किया और वे अपने देशवादियों केलिए. एक उदाहरण वन गये। (१६६० )

चार बाह्मणों ने ज्ञान श्रा्त करने के लिए दूसरे देश को जाने का निश्चय किया । तदतुसार बे सब॒-कन्नौज को गये और वहाँ बारह बंप तक अ्रध्ययन किया।

उन सबों ने सभी शाज्रों को पढ़ा और अपने घर को लौटने का निश्चय किया। अ्रपने ग्राद्यय से श्रतुमति लेकर कन्नौज से वे चल पढ़े ! रास्ते में उन्हें दो यात्री मिले, उन में से एक ने कद्ा--दि भद्रलोगो, हम लोग अ्रयोध्या जा रहे है, किस रास्ते से हम सब जायें !” उन चारों ब्राह्षणों में सेएक ने फट से श्रपनी पुस्तक को प्रोला और उत्तर दिया “श्राप्र लोगों को श्राज श्रयोध्वा न जाना चाहिए |

श्राप सभों को या तो यहीं पाँच दिन ठहरना चाहिएया लौट कर अपने घर को चला जाना चाहिए, क्योंकि श्राप सब्ों के प्रह्दों कील्थिति आज श्रच्छी नहीं है ।! (१६६१ ) राजा जीमूतवादन ममंदा नदी के किनारे पर धर्मपुर में राज्य करता था। एक दिन उसने एक स्त्री काविलाप सुना । जाँच करने पर ज्ञात हुश्रा कि वह ख्तरी सर्पो की माता हे। उसके श्राठ बच्चों को पढ्षियों केराजा गझुड़ ने सा लिया ई |

>+१६५००, बह इसज्िए्‌ लए रो रही दे कि गयइ उसके आखरी बच्चे को भो खाना चाहता है। इ एर ध्यान 7 त न 7 पदबाहरय ४क फ$-+इरप्ब अन्न7२६६५) शबतिए

) लोव्से का-्परावतीयतुम ।

किस रास्ते स-फेन पथां। फोला-उदपायत्‌ | उत्तर दिया-प्रत्यवदत्‌ |न जाना चाहिए--न गन्तब्यम्‌। लौद कर--परावर्र | श्रच्छी नहीं दै--न शुभा। १६६१-राग्य करता घा-शशय्त ; श्राठ दथो को--श्रण्ै शिशु |

छ्१्‌

परीक्षा प्रश्नयत्र (काशी विश्वविद्यालय-री० ए० )

६३३7

राजा ने उसके बच्चे कोवचन दिया और बच्चे के वदले अयना शरीर गयइ को दे दिया | जब गरुड ने उसके शरोर फा वॉम भाग सा लिया वो राजा ने दाहिना हिस्सा भी उसके सम्मुख कर दिया। यह देस गुड़ ने अलनत पश्चात्ताप किया

ओर राजा के शरीर को पुनः सर्वाज्ञपूर्ण करने के विचार से अमृत लाने के लिए. बाताल लोक गया और अमृत ले आया । यरोंढी गढड़ राजा के शरीर पर अमृत

छिड़कने वाला था कि राजा ने गदड से सर्यो केआार्ठों बच्चों को मो पुनः जीवित फरने के निए कहा जिनकी यह पहले ही मार चुझा था। घप्राश०ए एथ्ाएडहरडएश 57 850४8885 छ. 3. एडबाणाएथा09 उद्कशडॉड४ (77)

( 957 ) प्रप्बणडोबाल (6 [णी०जाड़ 700 5द79द7( $--

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-9०एथागंश 5 लोउप्रश्चिदा ।5९०६ (१४ 9085६ ९:७70]8 5 शोमनतमादर्श स्थापिवान्‌ | ६0 75076 -पोत्ताइबितुम्‌ । 76ए9765९ए४व8 ६06 सह ७ राजप्रतिनिषिमूत:।

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बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका ए9ण१6४६ भत 9787९5६ एशॉणिप्रधऐ देण्फंएह 96 कास्एाते,.. 8 8 पार ए०जंत०ा 9 गा जञा06

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बूहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

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उपाध्यानम। (० शीह्रपंण०४९ >तोधेयात्रा

रू प्रचणदाः किश्याः । व5( 6९वें5 प्रतिशपित ः ।

छ्द्रे

परोद्धा प्रश्रपत्र (पटना उिखवविद्यालय-ची० ए० )

46प्र णँँ दैवेएलॉ(2 एॉग05०शए- शिड शिउडई छाएएछ, 5व 58 $8एथ9्फ्रशए०, ३5 ग्राववंट पार्ट सं९३१ 6 पार 'िपत, क्षय (गा 00७ ४३४05 5च्रा8शा 995 9९006 ई्या॥005 85 9 टश्या९

0०६]80भ9708, एज05007ए9, थापे डफश॥8 59॥एक्काए- ॥६ 35 006 096 #ैगेए एो३8०2५ ० ग्रा599 छा हुप॥5. (०) २९८शाएए



एशाश श्रीद्योगिककेद्धव । श्र 0९ ८ _

विशेषाधिकाइ: ।, तहते।:>> सुप्रतिफिए १, ०१ए७७०- सार, (०, पहते र स्त॒तिस, प्रशशा। ॥॥ 08 0ांगा 9०5६ दुरालोऊे अरतीतकाले | उटीटएटत 5 थ] अंग5 ० पापमुक्त | (०) उातेश्ताह ८ मापान्वरम्‌ ॥ 97७0 ए८त < मुरखित:३ |



घर

परीद्ा पक्षयत्र (पथना विश्वविद्यालय--दी० ए० )

प पी रिक्शा एशाब पीर्श 9 2 एशथ पा०एड 00 ईििदा]8 फछछते 7९वेए९१

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( 957 ) धांडाणा5 ७ दर्शनम्‌ ,श्रामाठः॥ 9०८४८ अरशए८ ४८फप्ित्व-

खूल्यम्‌। होणाए ०

04७7 >ग्यातः बालोनशोमा | एण€

>शर्द स्यापनम | 0लांग्रट्आ८त ८ ( सौन्दर्य )चित्रितम

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परीक्षा प्रश्नयत्र ( काशीविश्वविद्यालय-एम० ए.० ) 90ग्र87'5 498९९ प्राधा3९0

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परीक्षा प्रभयत्र (काशीविश्वविद्यालय-एम० ए.० )

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(960) 207२४४ 5पाश्वापार्थि | ए्णं$ओ)8 > क्ेप्यायुघम्‌ ॥ (9) पाएएशडशा[ए ३वगा((8त >सपंतः स्परीजतम्‌ | 5९०पोशा ०९४75 - इृहलोकदिपयक कविसम्‌। वा्धते्ांनं उर्शश&ा८६5- श्राकस्मिफा। सन्‍्दमभी ] 2८ग(९८(ए7४ ८ निर्माणशिह्मम्‌ | 5000८०४॥७ > मवनम्‌ | ००ए०७ए९०| > विभावितः | 4५004007 >भ्ाहानम्‌ |

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(960) 599७ (3) घंहगाविव्का०८ श्रम । ९॥४58९०9 म्पखुनः। _एगशाण्राशा4 * इग्योचसे दिपयः। 0०८5९एल्‍ यथार्यम्‌ | 70589 थं। ८ समिन्न्‌ (चुरादिब )। एथयलाथताह ८ ब्यापिन्‌। फप्पोडव चाह गशी९८९५ > स्कुरण शीला? प्रतिमूेय; | विम्रएणौ७6 ८ मनोदेग: | छाए

9 तीएशआं(/-बिभिन्नतायाम्‌ एकता। 5शछ॥/॥८»ं5८संयोजनम्‌ | (0 णाचप्रप॑जा)८ 9]476 -ऐैदिक॑ चेत्रम।९(फंव्यों एशा6 ० नीतिशातरसम्बन्पि

चेषम्‌ ।४७७८४१८७] & बाच्नन्‌ ।

परीत्ा प्रश्रात्र (काशीविश्वविद्ालय-एम० ए.० )

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(3) ग्राह 9650५ पिछ एण्ट (4) 50006 35 6 प$ छगाब्णा

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शीश 8 गएाताश्त ५ ९७ (8) 3 एभ४०८ ॥$ आव09, जाए ००प्रएशर्त ६० फढ फ्रात

रण ३ उ6्छ तप 3 जगा 5 ह्या)९ गा ०णए्भाजणा ६0 6 शाइश ए 8 (एए९ 7 (9) 6श॥्रत5 75 णा, ग९ द्फ़ाला, ६० टी (९€९७ए शा प8 25 40. ब्यक्षऊस्णन्‌। गाज टफ्टीपट5 + थाव्यात्मिका रच व «

(095]) (39) (4) 5०प्रण्ते४-एच्ा उवा।

(5) एप्णणक्षाणा -

अ्रवस्यनचिह्मउ्नम्‌ , (6) 720290१ ०प्रतिज्षेर | (9) 6 शक्तिमान्‌ ।

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बृहृदू-अनुवाद-चन्द्रिका छः

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(3) 876३ थार्चच एग्रॉशिए5 8 श्रॉलिए ० गशाएएद 0० 5पर्ण 2 पे९हा९6 पक ॥ 9९९०॥९5 हाध्थ॑व९55. (4) ॥ ध०पोव

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(7) ४0 ॥950 एश) 96 8 ए९४) छा पिंड एा७९5३ ॥6 45 00५ (8) भा 7 ॥8ए6 एकशा धज्जाह ६0 ते० ३5 40 3840 #€०े शांत पिच्चा । (8) 5४९) था0 ०००८९ ०सारलोहः ऋरश्मचूर्ण इयझं0त5 « मनः कल्यना | ( 954 ) ०णारल्ांशा०९ -उपयोगिता | बवायंधोडावबारेणा + कम निादः । 0 ग्रा०तथ 5 भ्रादर्श रू०, प्रतिसूप दू«

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परीक्ता प्रभ-रत्र ( प्रागरा विश्वविद्यालय-एम> ए० )

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बृहृदूअनुवाद-चाम््रिका

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परोदा प्रश-पत्र (आगरा विश्वदिद्यालय-एम० ए० )

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परीक्षा प्रश्रप ( देहली विश्वविद्यालय-एम० ए० )

६५६

799 #शा४०४ गढ्ा 500 ९ब76 00७7 ग था एशइणा 00 ध्थात 40 इशीएए2८ पषधशापर ० इणीयगाएू,.. सा४0, पब्ह्यायावा बाते दप हबए8 ह00 50 77#टपपढबए काउटदत ४ धाक्ष 7 १8 96580 क्‍0 ॥॥90559ऐौ९€ 0. ताइशा4708]8 बीशा ॥ हबए९ 3००९७६6 थी (8 गरक्ा९5 शाप. ०5 8॥रापांए्त 46 6590 35 5ज़्0005 ८0008 076 [0777655,

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9) हिन्दूपरम श्रमूल्य रत्नों से मरपूर थ्रसम समुद्र केसमान दै। जितने ही गहरे पैठिए, उतने ही श्रधिक सजाने श्रापको मिलते हैं । यहाँ ईश्वर बहुतेरे नामों से प्रिदित दे ।राम श्रौर इृष्ण दोनों को दइजारों, ऐतिहासिक व्यक्ति मानते हैं, परम्तु करोड़ों सयमुच प्रिश्वास ररते हैं. फ्रिश्यर उनके रूप में मानय को

स दूर करने के लिये इ्ृप्बी पर उतरा था। इतिहास, कल्पना श्रौर सत्य इस प्रफार उलम गये हैं कि उनको श्रलग श्रलग करना अश्रसमदन्सा है। मैंने ईश्यर के दयोतक सभी नामों श्रीर रूपों का एक निराफार, सर्वत्र विमान राम

का बाचक सकेत मान रक्‍्सा है। शरण फ गीछफा कं, 8. (प९छ ए०प्राउट) फिबप्रांधवाणा 5 2///42.24/ आयु

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(960) सजाना रूनिधि | ईश्वर उनमे रूप मेंःईश्वर्राउप्तारऊूपण । दुस दूर फरने केजिए+ दु समपनेदम्‌ | एस्दी पर उतरा था

ए्िव्यामबावरत्‌ ।

उलम गये ईं तथापि, करिजथ। 50596९८६ >श्राशद्ध० | 7%705०%7ए > वत््तशनम्‌।._ 2695ण7९५ थ्यात._ प्र८३५५ न युक्तियुक्तगरीयान च।

६०

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

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० व घर एशाश' विवा 8

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( 955 ) पक6 ऊ#प्राधा88 शा एथेए१७)९ 0 ॥॥6 वमंड0पक9 -घणपें 40 घाद बक्रुपक्रॉशा 35 50प्रा८९६ ०

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_ (4994) ांप्टट्पं >पछचान। वीकशांगह रत गए फीश्त ८ उत्तेजित: | ०४०९३८९ > छुन्दः | १९शव०४ > श्रशीषित्वम्‌ । ६धापराप्टा न भाव:4 7९)9360 - शिथि लतः॥ _4700गट्ट/ए०ए5 & ब्रसगयतः । ते [55 अद्ृत्तयः। ४ष्यज्09॥0प 5८ पदर बना । ढ़

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जन्वशातबलद३ । तोइटप्रफ्रागशाणा < परिच्छेदः | गर९६(॥797] € > झछनच्य ।

शठित >पदा।

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779॥0089 - पुराशत्तशास््म्‌

शीशे ८ इंश्वस्बाद: । छ०प्रफ्रलं$ज ज धद्देदवापर ॥ #एएट्ाश05ल्‍

शदुनादिविश्वास: | ६८६० नौतिदिया |

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निवन्धरलमाला निवन्धः छाप कीहशो माम निबन्धः ह तने अूमः | मियन्‍्वः, प्रस्ताव:, प्रवस्यः सन्दर्भ इमे सर्वेपे शब्दाः समरानाथकाः सन्ति | निउन्‍्धों हि नामोपपत्युपण्हारानुबन्धिसरलमुगमकास्तपद्विन्यात:

अनुब्मिताथसम्यन्धों मत्रति |

अ्रथ कतिविधा मबन्ति प्रत्रधा;। प्रवधा, खन्ु मुस्यतल्लिविधा भवन्ति-आरप्पानात्मका', बणनात्मकाः, विवेचनास्मकाश्र । आश्यानात्मक,

प्रग्नन्धस्तावत्‌

यज्रोप्राख्यान ऊथा गाथाचरित-चित्राणा वर्णन

मंवति | बरनात्मके प्रवन्धे मिरि-नि्ेर-नदी नदकानमाना नगराणामेतिहासिकस्थलाना च बणन भवति। तथा च विवेचनात्मके प्रवन्धे कमवि गग्मीरविपयमादाय तय गुणदोषोहापोहनिसूपण तथा च वैड्ानिक दाशनिक वा विषयमवत्तम्ब्य विवेचन क्रियते । निबन्धाना भाषा कीदशी स्थात्‌ ! निबन्धाना दि भाषा नितरा सरला, सुग्माबबोधा श्रनतिदीघसभासा थे स्थात्‌। क्लिश जटिला वा भाषा न कदापि प्रबन्धेपु अयोज्या । सामाम्यतच्निविधा द्वि भाषा भरति--सरला, जटिला प्रौढा च ! वत्र सरल्ा भाषा पदश्चतन्त्र दितोपदेशादिषु सन्दरभेपु दृश्यते । प्रौद। दशऊुमासर्वरित-वासयदत्ता-कादुमपरी प्रभृतिषु सन्‍दमेंपु दहृर्यते । जठिला च नलचग्पू-यशत्तिशरचमू-यु विध्िरबिजयादिपु स्वनातु समवलोक्यते । सोन्दय भाधुय गाम्मीयादिभाषासुणा न केवल क्लिएफकेशसु मौढरचनामु दृश्यन्ते #पिठु सरलायामफि मायाया ते सम्भबन्ति । नियन्‍्वेपु ताबत्‌ महाकपेः कालिदासस्प शैली समयलम्यनीया नतु बाणस्य

सुमन्घोदंणिडना था प्रलम्ससप्राखा। तेन महाऊविना स्पीयरचनाहु वैदर्भा शैलों अमुखता था सल प्रयन्धक्राव्येपु सवशेष्ठा भवव। या भाषानवाचक्ाना समरकालमेव मावान्नावरोधयति सा दुरूह्य निरतोधा च मवति, सा कस्पापि सद्दृदयस्य “हृदय गमाने भयति । अतः सरला-वोधगम्या च मापा असन्धरवनासु अ्नुस्रयोगा।

सन्धिविपयका अ्रप्रि केचन नियम्राः रुन्ति, ते हिं नियन्धे प्लनीला मवन्ति। तथयाहि--

सन्धिरेरुपदे नित्यों नित्यो घातपसगंयोः |

सत्ेष्वपि तथा नित्य: स चान्यत् विकल्यितः [|

घघ्र

बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका

समासयुक्तेयु वाक्‍्येषु डपकर्गधाठ पु च ॒समन्पिर्नित्य, श्रतः सन्बित्तत्नावरवनेत कर्तव्य: | समाठादन्यत्र सम्वेवकल्प्य बतते। यत्र सन्धिना जटिलता, ,पपदुवॉपर् जायेत तत्र सन्पिश्पेज्वणीयः | यदि कर्णंकडुत्य॑ न मवेत्‌ उच्चारणसौकर्य च स्थात्तदा है सन्धिविधिया । मिवन्‍्ध श्येव निबन्धस्तद्विपयमुद्दि निबन्धलेखने पठकैरबधेयं यत्‌ यद्विपयकों

श्रासमसीयः । तत्र (१) प्रतिज्ञ (२) देतुः (३ ) निदर्शनम (४ ) उपसंदार-

श्वेति चलारो मुख्यावयवाः।

ये विधया निबन्धे निवेशनोयास्ते खलु निवन्धस्थ समास्म्मणात्‌ पू्यमेव सम्पकू

वियास्णीयाः | एको दि भावः एकस्मिन्‌ वाक्यपरिच्छेदे सन्तिविशनीयः | एवं त्य-

अत्थारों वा बाक्यपरिच्छेदा निबन्धे कल्पनीयाः । द्वितीयवाक््यपरिच्छेदे विपयातुसारँ

यत्किशिंदयि वक्तव्य भवति तत्‌ सन्निवेशनीयम॥ ततः स्वविषयोपपत्थर्थ प्रमाणत्तेन सुप्रसिदलेखकाना मतानि समुद्धरणीयानि | उपरुद्वारे च विहृंगमहृष्य्या स्वविपनथम,ओजत्विमिर्मावपूर्रों: रह्टदयाकर्षकैवक्थिं; स्वनिवन्ध। समापनीया। परिपोषणा इति दिक्‌।

१--संरकृतभाषाया वैशिष्य्य' सोएवं च सम! पूर्वात्‌ ऋषातोनिषन्न: शब्द: 'तंरक्ृतशब्दः। संस्कृतमापा देववाणीआरती-विद्येति पदैरास्यायते! प्रचलितासु विश्वभापासु संसक्षृतभाषैव प्राचीनतमेति सवसम्मत+) पक्ष;। संस्कृतभापातः प्राकृत-सेमिटिकमापाः निर्गता;, तासा मनी संस्कृतमापैव | न केवल ताचामपितु श्रस्तिलमापाणा जननी संस्कृतमापैत | श्रस्पा

निखिला जगदूभाषाः प्रादुस्मवन्निति स्वेपा भाषातत्वविदा मतम्‌। श्रस्यामेष आषायामाध्यात्मिकविषयेघ्नेके ग्रन्या: विरखिताः सम्ति। उपनिषत्तु दर्शनमन्थेपु च लोकोत्तरमाध्यात्मिक शानतत्त्यं दरीहश्यते। श्रस्थामेव संस्कृतभाषाया प्राचीनैराचार्य:

दर्शनशालियु एकतः जीवबढ़योः प्रकृतेश्व श्रतीव दृदयंग्म विवेचन विहितस अ्रपर-

नश्र अरमशाख-नीदिशात्र-कामशाख्तर-राजनन्त्र-शिल्सकलादिविपपानपिकृत्य मारतीगाचायि अदीब रोचकाश्रमस्तारकारकाश्र ग्रन्था तिरचिताः। ललिता द्वित्यविपषयेडति

इससिद्धे+ कवीरबरैः मास-कालिदात-भवमृति-मारपिप्रमृतिमिरत्तस्थो निधि; परिपूरितः। संस्कृतमाषाया द्यावद्वरिकत्मगासीक्ष वा। अश्र्रोच्यतें | पाणिनेरष्टाष्यावां

गूज़दय॑ चतते । “दूरादघूति च दार।८३॥, प्रत्ममिद्ादे यत्रे ।ध्यराष्श!” इति सुनार्भ्या नियत्ते “माविकेम्यों घालुम्यो नैगमा फूते माप्यन्ते”, “शबतिग॑तिकर्मा कृम्बोजिपु माप्यते! विकारमस्थायेंपु साप्ते शव इति। भहासाप्येडपि “दातिलबनाये प्रास्येपु