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पाठशाला-विश्वविद्यालयोपयोगिनी बहदू
अनुवाद-चन्द्रिका ( अनुवाद-व्यासरण-निवन्यादिविपयतंवेलिता ) गठदेशवास्तव्य-न्ोटियालोपाइ-भ्ीचक्घर हंस” शाद्धिणा अ्यागविश्वडिद्यालयीय-सस्झृत-ए्म० ए०, लखनऊ-विश्वविद्यालयीयइतिहास एम० ००, एल० टी० विस्दूभाजा विरचिता
साच पुस्तका -्यक्षेः
मोतीलाल-बनारसोदास-महोदयेः दिल्ली-पटना-वाराणसीस्पेः अकाशिता
श्ष्द्टर
भ्र्
[ मूल्यम् १०)
मम मुद्रक-
व्लवी
सुन्दरला मोठीलाल
धसाद महादेव क््प्रे ४ दीपक प्रेस
दाम
१०२७२ नदेसर, वाराण
जैपाली खपरा, बाराणसी ।
( सर्वाधिकार सुरक्षित )
मर्चप्रकार छी पुस्तकों के मिलने का पता--
मोतीलाल वनारपसीदास १. बंगनोरोड, जवाइरनगर, पो० या० १९८६ दिल्ली २. नेपालीखपरा, पो० वा० ७५, वाराससी ३. बॉडकीपुर, पटना
(ख) भी जीवित भाषा है, फिर भी पाथाल दासठा का हम पर इतना प्रभाव है फ्रिहम #हड्लिश, जमन, फ्रेंच और छठी आदि भाषाओ्रों मेअपनायी गयी पद्धति को” ही वैशनिक पद्धति उुममते हेंऔर इन्हीं भाषाओं का न्यम लेकर अपनी रचना को विशेषता था महर्व दिखलाने का प्रयास करते हैं । यह कितनी विडम्बना है फि पाश्ात्य विद्वान हमारी रास्कृत शिक्षा-पद्धति की प्श्ठा करें झौर हम निःखर
पाश्चाल वैज्ञानिक पद्धति का ढोल पीकर अपनी कृति का प्रचार करें |
ससकृव भाषा में व्याकरण का जितना सह्म और विस्तृत श्रव्ययन है उतना झुसार की किसी मी मात्रा में नहीं है। हैसा से ८०० वे पर्व यारक मुनिनेसबव-
अथम शब्द निरक्ति सम्बन्धीमहत्वपूर्ण अन्यनिरुक का लिर्माण क्या,। उन्होंने जी इंबंप्रयम बम, आएगव, उपयर्ग और निपात नाम से शब्दों का चतुविध दिभाजम स्थापित किया। उसी के आभार पर महप्रि पाणिनि ने अपनी अनूठी युस्वक आअध्टष्यादी का निर्माण किया | ---+ लगभग ५०० वर्ष ईसा-पूर्व महर्षि पाणिनि ने अतीव सुध्ढ़, मुतयत तथा
खहुलावद व्याकरण की रचना की। उसकी जैडीवैश्ानिक एवं परिष्रंण शैली
दी टकर कीपुक्षक समर कीकिसी सापा में उपलब्ध नहीं है। पाणिनि की पशश्यायों में ४००० सूत्र हैं. और वे आठ अ्रष्यायों मेविभाजित हैं, प्रत्येक अध्याय में चार धाद हैं! शणिनि ने अपने व्याकरण को अत्यन्त सच्चेप मे रखा दे । इसका कारण सम्भबवः लेखन-सामग्री काअभाव या कठाग्र केस्ना रहा हो | समस्त शब्दजाल को सद्चित करने के लिए भहर्पि पाणिनि ने छुः साधन अपनाये हँ--( १ ), ग्रत्याहर, (२) अनुबनन्ध, (३,) गणपाठ, (४) सशाएँ--घ, दि, छुक्' ,पय्
रह, घुआदि। (५) अनुइसि,
(६) अतिद्ध € किसी विशेष नियम के सामने
4 नियम को हुआ न मानना-न्पूवत्रासिदम् । )
है
227 हंस्वृत-न्याकरण केसमुचित शानकेलिए हम यहाँ पर कुछ उपयोगी पारि-
झापिक शब्ददेरहेहै।.
5०]
(१) प्रत्याह्यर (संक्षिप्त कथत)---इनका आधार ये औदह माहेश्वर वृत्न हैं-अइश्उ्य,ऋलू कू,एओड्,ऐश्नौचू, हदववरट्,लख्,जमडइश नवेम,कभममू,
घढथप्,
जबगडइदश,
सखफलुंदथचटत ब्,
कपय् ,शघसर,हल। अक ,इक ,श्रच ,इल् आदि ग्त्याहार हें। उदाइरणाय--अइउश' से अः को लेकर और ऋलृक से इत्तहक 'कर को लेकर अर (अ इउ आ लू) प्रत्याह्र रबवा है, इसी प्रकार रूश्५ प्रत्याहार से मंकारादि (फर्म घ दे घजबगड दब) /० बसों का बोध होता है । जाडृ
जे(९) अनुवन्ध >अलगो केआदि था अन्त में छुछ खबर या व्यक्ञन इस कारण
किशिए है कि ऐले प्रतयय के होने पर गुण, इंडि, आम, आदेश आदि कोई पपपका का है। जा, ऐसे दणणे कीअनुवन्ध कहते हें | उदाइस्णार्य--ल्ी पयय
सूमिका अनुवाद-चम्द्रिका को विद्वसमाज ने जो आदर एंव सम्मान म्दान कि
| यह हमारे लिए कितने गौरव उससे ध्मारे उत्साह का बढ़ना स्वाभाविक ही देवाला ई के द्वादश संस्करण एक बष बात हैकि अनुवाद-ब्द्रिका का ४००० मरतियों कम समय में समात्त हो गया और इसे अगले संस्करण को निकालने के लिए
प्रोत्साइन
मिला । हमारी पुस्तक में क्या विशेषता है, इसके पारखी सद्दद्य पठक एबं पाठक
हैं,जिन्होंने इसे यह सम्मान प्रदान किया। अब अपने नवीन कलेबर में यह पुस्तक शी दी उनके समच प्रस्तुत हो जायगी | इस पुस्तक के प्रचार एवं म्सार की थे
स्वनाम-धन्य लाला मुन्दरलालमी जैन को है, जिनको सतत प्रेरणा द्वारा पुस्तक
के विशेष उपयोगी बनने मे इमे सद्बायता मिली ह। कई वर्षो से लालाजी का श्रापनह था कि हम इस पुस्तक का एक बृहत्संस्करण निकालें, जिसमें सविस्तर सस्झत व्याकरण, उच्धस्तर के अनुवाद एवं नियन््धों का समावेश हो तथा जो उच शिक्षाधिंयों की ग्रावश्यंकताओं की पूर्णिकर सके। निदान परित्थितियों फे श्रतुकृ न होते हुए भी हमने लालाजी के श्राप्रह को आदेश समझा और प्रस्तुत पुस्तक का मिर्माए कर डाला। इस पुस्तक के लिखने के ध्येय में हम कहाँ तक उफल दुए हैं, इसका निर्शय भी इमारे वि पठक-भाठक ही करेंगे, जिन्हें इम पुस्तक के गुणावगुण का सर्वोत्तम पारखती समभते हैं। वर्तुतः पुस्तक के लेखक को श्रपन प्रशता करने अथवा करवाने का श्रपिकार हैही नहीं, क्योंकि पुस्तक के गुणावगुर का सदा पारी छात्रवृन्द ही होता है। आजकल फे विद्वान् लेखक श्रपनी प्रशंता के पुल बाँधते हुए नहीं हिच किचाते। थे श्रपनी प्रशंसा एवं श्रपनी कृति केगुण बखान करते हुए लिखते
हैं--/पुस्तऊ लिखने का उद्देश्य .श्रन॒ुवाद के द्वारा सम्पूर्ण व्याकरण छिपाना | ६ मास में प्रौद़ उस्कृत लिखने श्रौर बोलने का श्रम्यास कराना....इत्मादि ।! ऐसी बातें लिखकर हम विद्व॑त्समाज में श्रपना उपहास कराना नहीं चाहते। सरसहे ब्याकरण जैसे दुरूद और गहन विषय के सम्बस्ध में इस प्रकार की गर्षोक्ति समभने ईंकि लेसक की विद्वत्ता की परिचायिका नहीं है। राष्ट्र केसम्मान्य व्वत्तिः से भ्रपनी प्रशंसा करवाना श्रयवा अ्रपनी पुस्तक मेंविशिष्ट व्यक्तियों के चित्र द्वाप+ लगाना तथा अपनी पुस्तक उन्हें समर्पित करना भी हम्म उचित नहीं समझते, क्ये; जिंस पुस्तक में समुचित ज्ञान का श्रमाव होता है था जिसमें नैसर्गिक ग्रह्म गु की कर्मी रहती है,लेखक इस प्रकार बाह्य श्ाइम्वर द्वारा उसी पुस्तक के ग्रचएे लिए, रतन प्रयत्तनशौल रहता है । .
. फोन मी जानता कि सद्धत व्याकरण की अबूड़ी पढ़ति की पाश्चाल्य विद
ने भूरिलशूरि प्रशंसा को हैऔर निःसम्देह उठी पद्धति को अपनाने से सस्कृत गा
(ग) के विधान के लिए एक सूत्र है “पिद्गौरादिम्यश्र”। इस सूत्र केअनुसार
प्रत्यर्यों मेंप् इत गेता है, उन प्रत्ययों वाले शब्दों में स्री प्रत्यय द्योतनार्थ “5
प्रत्यय लगता दे, जैसे रजक (रप्न +ष्वुन्) में प्वुन् प्रत्यय आया है, अतः < डीप जुड़कर 'रजकी” बनता है। इसी प्रकार 'क्तवत॒' प्रत्यय मेंक् भ्ौर उ,७ मेश और ऋ । क्तवतु' को कित् एवं 'शत्! को शित् कहेंगे | (३) गशुपाठ--जब अनेऊ शब्दों मे एक ही प्रत्यय लगाना होता है तब « का एक गण बना दिया जाता है और आदि शब्द को लेकर एक सूत्र स्व जाता है, जैसे--“मर्गादिभ्यो यज” अर्थात् गग शब्द से आरम्म होनेवाले गण भे , प्रत्यय लगता है। गगादिगणमें १०२ शब्द आये हैं | ये समस्त शब्द सूत्र
नहीं गिनाये गये और गर्गादि कहकर काम चलाया गया। करन: 2 जाएँ एवं परिभाषाएं. ्रटेए 79 (४) संज्ञाएँ एवं परिभाषाएँ-(१) गुण -(अदेडगुण) श्र, ए,औओो, गुण कहलाते हैं। --
($) वृद्धि-(बृद्धिरादैचू )था, है]ओर को दृद्धि कहते हैं। (३) उपधा--(अ्रलून्त्यात् पर, उपधा) अन्तिम वर्ण केटीए >ल आने व चुख को उपकाकहतेहैं। ४
५0 सम्प्रसारण-(इग्यूशः रुख्यसारणम् ) य, व, र,ल,के स्थान पर इ, ऋ, लू का हो जाना सुम्पसारण कहलाता है। (७) दि- (अचोन्त्यादिटि)क़िसी भी शब्द के अन्तिम स्वर से लेकर. तक का अश्ञर समुदाय टि कहलाता दे, जैसे--“मनस” में अस तथा #एशसू
में अस् दि हैं । (६) प्रातिपदिक--(अर्थवदधातुरप्रत्ययः
प्रातिपदिकम) धाठु और प्रत्यय3
अतिरिक्त जो कोई भी शब्दश्रथयुक्त होवह प्रातिपदिक कहलाता है | झदन्त,; (द्विदान्त, और सुमास पदों को प्रातिपदिक कहते हैं; जैसे--राम शब्द व्यक्तिवे 'डूसे से अथंवान् है आर न यह घाठु है और न प्रत्यय | इसलिये यह प्रातिपदिक। का जायगा। “रथ! शब्द में अण् प्त्यय लगाकर राघव शब्द बना, यह भी तिपदिक है।
8४६९
(9) पद - (मुप्तिडन्तं पदम् ) सुप और तिड प्रत्यय लगने से पद बनता है। प्रातिः के में लगने बोले ्रत्ययोंकास॒पतथा घाठे मेलगने वाले प्रत्ययों कोतिड,
) हैं, जैसे--राम में सु प्रत्यय लगने से 'राम? बना यद्द पद हुआ
इसी प्रकार
| में ति, तस् इत्यादि तिड प्रत्यय लगने से पठति, पठतः इत्यादि क्रिया-
9 सवनामस्थान--(सुडनपुंसकस्य) पुँल्लिद्ञ, और ख्रीलिह्न शब्दों केआगे हे लुद्द-छ, औ, जसू ,अम् तथाऔर विभत्ति-अत्यय स्वनामस्थान |]
(घर) (६) पद-स्वादिष्वसवनामस्थानें) मु सेलेकर सुप् तकके गरत्ययों मेंसवनाम थान क्षो छोड़कर श्रत्य प्रत्मयों के श्रागे जुटे पर पूर्वशब्द की पद संशा होती है। (१०) भ--(यचिमम् )पूदरंश ग्रा्त करनेवाले उपर्युक्त प्रत्ययों मेंयकार
ता से श्रारम्भ होने वाले प्रत्ययों के आगे छुटने पर पूर्वशब्द की मे संशा गेती
है।
(()) घु--( दाषा प्वदाए्) दा और था धाठु को घु कहते हैंदाप्कोनहीं।
(३) घ-- तसमपी घः )तरप् औरतसप्अत्ययोंका सामान्य नाम प है। (१३) विभाषा--न वेति विभाषा) जहाँ पर होने या न होने की रुग्माषना हती है,वहाँ पर विभाषा (विकल्प) है,ऐसा कहा जाता है। (१४) निप्वा-(साक्तवत् नि) क और क्तवदु प्रत्योयों का नाम निशा है) () संयोग- हलौ5नन्तयः संयोगः ) खर्तों से श्रव्यनहवित होकर हत्समुक्त-
करे जाते हैं, जैसे भव्य शब्द में व् और यूकेबीच में क्रोई स्वर नहीं आया है, इसलिए ये संयुक्त वर्श कहे जायेंगे ।इसी प्रकार कब्न श्रादि में ।
(१६) संहिता--( पक उत्रिकरेः संददिता )बर्ओों की श्रत्यनत समीपता ही मंहित्रा कह्दी जाती है |
(१७) प्रगृद्द--(ईंदूदेद्द्िक्वस प्रश्द्मम)ईकाराम्त, ऊकारान्त,एकारौन््त द्विवचन पद प्रशश् कहलाते हैं|
(३८) सावधाहुक प्त्यय-न विद शित् सादाठुकर )धाहश्रों के पा
जुड़ने बाले प्रतवयों मैं तिड प्र्यय एवं वेप्रथय जिनमें श् हत्संशक हो जाता है
रावंधाठुककहलातेईँ,मैसे--(श) सावंधातुक प्रयय पहलाहा है।
११) भार्भातुक प्रत्यय - (आष॑घातुक शेप) धातुओं ५ कमासाय॑घातुक फे अतिरिक्त प्रत्यय श्राधपातुक22035।मैं छाे वाले शेप
पा038 2000 ) पक शान॑च्कानाम सत् है। झअनुतासिक
--(मुखतासिकादवनो5नुनासिकः
गो
सुस्तश्रनाविका दोनों से होता हैउन्हें शनुनासिक कक ऐँ, हैं,इत्यादि | के” अझनुनासिक शा द्वार प्रकट किया जाता है|वर्गोंहि
सादर टू, घू, ण्,
ः
रह्यवा लीज्ञात हैा प्रश्रनुद्ाशिक् देय | क्योंकि इनमे भी नाउका र
*. (६२ सवण- बल्यास्प्रयत्॑ सरणंश ) जब दो गा उनसे श्विक
क्यू वाह्मादि ) और आन्यत्तर प्रय् है
के उचधारण स्पान (मुगविवर/00 मे आपको 30042
(3) धलवृतति-ग_ों केविस्तार
को श्रपिक मे श्रविफ व्यभित |]है लिये ध्नुदृद्ि पथियी प्रणाली: ने दर तो फोई बर्थ नहीं होठ, लेडिन पत्तों खग्ला के पलेकपुर ग्य
तो कोड
न
| वाणिति नेइ्धदे रह बबादे है, लि
( छ) सोने पर उनका अर्थ निकलता है। ऐसे दूत अधिकार यत कहे जाते हैं। « अनुक्ृत्ति का क्षेत्र दद्व तक बना रहता है जय तक कोई दूसरा अधिकार सूत्र नहीं जाता | जैसे--“तस्य विकार-”?, “तस्पापत्यम” “अनमिहिते” झादि यूत्ध हैं।
7६७) उद्ात्त--( उच्चैरदात्तः )जो स्वर उच्च ध्वनि से वोला जाता है, छदात्त कहते हैं।
हु
(३०) अलुदात्त--( नौचैरन॒दात्त. )जो स्वर नीची ध्यनि से बोला जाता “उसे अनुदाच स्वर कहते हें-३----7 (२६) स्थस्ति--( समाहारः स्व॒रितः ) उदात्त अनुदात्त के बीच की ध्वनि
स्वरित कहते हैं। ज+े ४+>+ ४४ (२७) अध्याहार-( उज्ने अश्रूममारत्वे सति अग्रप्नत्यायरत्वम् ) सत्र मे शब्द या अर्थ नहीं हे और वह शब्दया श्र ग्रहण जिया जाता है तो अध्याहार कहते हैं। (२८) अन्वादेश-( फिचित् कार्य विधातमुपात्तस्य कार्योन््तर विधातु पुनरुष “दानमन्वादेशः ) एवॉक्त व्यक्ति आदि के पुनः किसी काम के लिए उल्लेख करने अन्वादेश कहते हैं,यथा--अनेन व्याजरणमधघीतम् , एम छुन्दोड्ध्यापय ।
(२५) आख्यात - ( नामास्यातोपसर्गनिपाताश्र )धातु और क्रिया को. फद्ते हे।
(३०) आगम - शब्द या धाठु के बीच मे जो वर्ण या श्रच्चर शुड़ जाते है« आगम कहते हैं। नि (३९) अपवाद--( विशेष नियम ) यह नियम सामान्य नियम का बा
होता है।
*
(३-०) अपक्त--( अषक्त एफ़ाल् प्रत्ययः ) एक अल-( स्वर या व्यज
मात्र शेप प्रथय अक्त कहलाता है | जैंसे--सु का स् , ति का त् >उसिकास्
(३३) उणादि-(उणादगो बहुलम) धातुओं से उण्आदि प्रत्यय होते
'उण ग्रत्यय के ही कारण उणादि गण कहलाता है।
(३४) उपपद् विभक्ति-फ़िसी पद या शब्द को मानकर जो विभक्ति होत उसे उ. वि रहते हैं, जैसे--/ओगसेशाय नम.” मे नमः के कारण चत॒र्थों बम हाती है।
।
(80) करे, णहपलत्तीत-( कारेप्प्परीपा- ५ आल, प्रहि,, सप फरशतिपिसा॑
बुछ अर्थों मेकर्म प्रवचनीय होते हें। इनके साथ द्वितीया आदि विशभरि ५
होती हैं। | कृदृन्त--जिन शब्दों के अन्त मे कृत् प्रत्यय लगे होते हैं, उन्हे ृृ
]
(३७) गण--बावग्रों को१० भागों मे बाँठा गया है, उन्हें गए कहे स्व्रादि गए, शअदादि गण आदिा।
६ बेड (३८) निपात (बादयोउसत्त्वे, स्वरादि निषातमव्ययम् )चे, वा, ह ग्रादि को
आपात कहते हैं,सभी निपात अच्यय या अविकारी होते हैं।
(३९) आत्मनेपए--( तद्ानावात्मने पदम् ) तड् (से, एठे, अन्ते आदि )
प्रानच्, कानच्,ये आ्रत्मनेपद हीते हैं।
(३०) परसैपद्- (लः परस्मी पदम ) लकारों के स्थान पर होने चाले वि:
। श्रन््ति आदि ग्लयों को परस्मैपद कहते हैं|
हु
(४१) झुनिश्चय--पाणिति, कात्यायन, पतड्जलि को मुनित्रय कहते हैं| मतमेद नेपर थाद वाले मुनि का मत प्रामाशिक समा जाता हैं।.
|
है
/ (४२) चौगिक-बे शब्द हैं जिनमें प्रकृति और प्रध्य का अर्भ निक्षता है, वै--पाचकः ( पच्+अ्रकः ) पकाने वाला ।
ढ
(४१) चीप्सा--दो बार पदने ( द्िरक्ति )को वीष्सा कहते हैं, जैसे--स्मार ड्रारम, स्मृत्वा-स्मृत्वा |
हर
ध
६ (४९) समानाधिकरण--एक आधार को समानाधिकरश कहते (आ] । (३५) रपर्श--( कादयो मादसानाः स्पर्शा: ) के से लेकर मे तक वर्यों की मे कहतेहैं। ये२५ वर्णहैं| कक (४६) विकहुप--ऐच्छिक नियम धिकल्स कहलाते ६ै। ४ द (४७) बातिक--काल्यायन तथा पतञ्जलि द्वारा बनाये गये व्याकरण के नियमों
बार्तिक कहते हैं। ते ि (४८ वृत्ति--( परर्थामिषान दृतिः ) प्ों की व्यास्था शरत्ति कहलाती है। रत,समास, कत्, एकशेप, सन् थ्रादि से युक्त धातु ३2% इत्ति कहतेहैं| (४५९) लुकू-( प्रत्ययस्य छुक् रुघुपः ) भ्रत्यय के लोप का ही नाम छुकू, ओर छुप्दे। है हे वि
$ (७०, अकमक--वे धातुए हैंजिनके साथ कर्म नहीं दाता । इम अयों वारसी ए अकर्मक होती है-भलज्ञागत्तास्पितिजागरण हंद्धिक्षयमयजीवितमरणम् |
2.
ते
शयनक्रीदादचिदीप्यर्थ
धातुगण तमकमंक्माहु: ॥
|संस्दृत भाग को पाशिनि ने जीवित मापा के रूप मेँलिया, क्योंकि वैदिक
हो को अपवाद के रुप में उन्होंने लिया ! ब्रीहिशाल्वोदेक! नैसे झृपकछ-जीदग म्बद्ध सूत्रों की व्यवस्था तथा नवाक, गुहछु, वदाकु आदि नाम ब्रोलचाल की
*झू के दी बोतक हैं
ईसा से ४०० यर्ष पूर्व वरूचि का जन्म हुआ । उन्होंने पशिनि के १५००
में कमी पाकर ४००० वार्तिफों की रचना की | बरदचि ने श्रशध्णापी मेंपेवल
नहीं निकाले, भ्रण्ति उनके निवारण के उपाय भी बतलाये। श्रतः उसकी वना गुत्तिपुक और उचित है। कहीं-कहीं एर उन्होंने श्रदुचित श्लोचना 8 है, जिसकी ओर मद्वामाप्यफार पति ने हमारा ध्यान थ्राइश किया |
( छ ) कात्यायन द्वारा पाझिनि पर किये गये आलोचनात्मक वार्तिफ़ों का ने सरडन रिया और पाणिनि के सूज्नों कामणडने कया। उन्होंने एक आर नीरस विपय को वस्तुतः सरस एवं सजीव यना डाला है। महामाष्य शैली अत्यन्त सजीव और मुबोध है। महाभाष्य के जोड़ का कोई ग्रथ < साहित्य मे नहीं है । पाशिनीय व्याकरण को सुगम बनाने की दृष्टि सेसब १६३० के लगाम
प्रस्यात परिडत भद्टोंजि दीक्षित ने सिद्धान्त कौमुदी' नामक ग्रन्थ की स्चना की इस ग्रन्थ में मुनित्रय के सिद्धान्तों केसागोप्राग समन्वय के साथ अन्य + +
तथा अन्य पद्धतियों से भी सार ग्रहण क्रिया गया है। इन्होंने सिद्धान्त को४र पर स्वय प्रौद मनोरमा' नाम की टीका भी लिसी है । श्री बरदराजाचार्य ने वालकों की सुविधा के लिए ठिद्धान्त कौमुदी का धणि रूप लए हिद्धान क्ौशदी! तश प्रध्य सिद्धान्त क्रीडदी! नागर एस्तिकाओं
किया है।
रुस्ड्त भाषा के श्रदुवाद के लिए ससदृत व्यास्रण आवश्यक ही नहीं, अनिवाय है, इसी कारण हमने ऊपर अत्यन्त सक्तेप में सरइत व्याउरण ऐतिहाप्िऊ विवेचन किया है !
ओ नम परमात्मने तहिव्यमव्यय धाम. सासस्वतमुपास्महे । यत्यसादात्पयलीयन्त मोहान्धतमसश्छटा ॥
विषय-प्रवेश रचना का उद्देश्य-भारतीय सस्झृति का खोत एवं राष्ट्रभापा हिन्दी अन्य भारतीय मापाश्रों
जननी, की
4
सस्कृत भापा का अध्ययन उसके
व्याकरण फ्री छुरूदता क कारण कठिन हा शया है। तथापि इस तथ्य को सभी देश विदेशी भाषा विशारदों ने माना है कि सस्कृत भाषा को ०4कर अत्यन्त वैज्ञानिक एवं सुव्यवस्थित है। नि सन्देह उसके प्राचीन ढग के अध्यर तथा अध्यापन से आजकल क सुझुमार बालऊां का अपक्षित बुछिपि
नहीं होता और मन उन्हे वह ध्यान में ससते हुए, हमने सस्झ्ृत बातावरण क अनुवृूल सरल तथा वाक्य-रधना--वाक्य-रचना
रुचिकर ही प्रतीत हाता है। इसी किना३ भाषा के अध्यपन एब अध्यापन को आजकल सुबोध बनाने का प्रयत्न किया ६। मै भाषा का प्रयोग होता है। भाषा ही एक ५
साधन है जिसके द्वारा मानव समाज अपने माव और विचार दूसरों पर प्रकड क९
है। भाषा से वाणी का ही नहीं, अपितु सकेतों का भी समावेश है। लिसने अर बोलने मे हम मापा का ही प्रयोग करते हैं । भाषाएँ अनेक प्रकार की है, जैसे: सस्कृत भाषा, अग्नेजी भाषा, हिन्दी भाषा आदि । सस्द्त भाषा? उस भाषा को ऋहते हैं, जा सस्कृत शर्थात् शुद्ध एवं परिमार्ि
हो। भाषा वाक््यों से यनती है, वाक्य में ग्नेऊ शब्द रहते हैं और प्रत्येक शब्द अनेक घ्वनियों रहती है ।उदाहरणार्थ--
“चन्दरगुप्त एम ग्रतापी राजा था ।? इस वाक्य में पाँच शब्द हें और पतले शब्द म प्रथक् प्रथर् ध्यनियाँ दें । चन्द्रमुप्ते शब्द मे चू+श्र+न्+द्+र्+ +ग्+उ+प््+त्+अ'
ग्थारह ध्वनियाँ हें। एक
में 'ए+क्कञा
त
ध्वनियाँ हें। यह लिपि, जिसमें हम इन अछ्रों को लिस रदे हैँ, देवनागरी” कहलाती ६ आजकल सस्कृत तथा हिन्दी माषाएँ इसी लिपि में लिसी जा रही है। प्रार्च काल म सस्कृत मापा आह्यी लिपि में लिखी जाती थी।
ओर व्यज्ञन-ये ध्यनियों के दो भेद हें। स्वर और व्यक्षन में ध्य मा
का अन्दर है| स्पर के बोलने में मुख द्वार कम या अधिक खुलता रहता है, #मानव क्की वार्णा के उस छोटे-से-छाटे अश का च्वमि कहते है, जि लुकठ न क्रिये जा सके | ध्वनि के उस छोटे सेलिसित अश को वरण अ'
अक्षर कहते हैं।
२
बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
बिलकुल बन्द या इतना सकुचित नहीं किया जाता कि हवा रगढ़ खा फर वाहर
नकल सके | व्यज्ञन के उच्चारण में मुख-द्वार या तो सइसा खुलता है था इतना
(कुचित हो जाता है कि हवा रगड़ खाकर बाहर निकलती है। इसी रगड़ या यश के कारण व्यज्ञन सरों से भिन्न हो जाते हैं। स्वर तीन प्रकार के दोते हैं--एव, दीघ और मरिश्रित। दौ्ध स्वर के उच्चारण में हस्व स्वर की अेक्षा पगुनी समय
लगता हू। व्यक्ञनों कोहल अक्षर कहते हैं, जैसे--कू,
ख,
गए,
प्रादि। सस््कृत एव हिन्दी भाषाओं मे इन्हों अक्षरों (स्वरों एवं ब्यक्षनों )का /पयोग द्वोता है |
निम्नलिखित १४ माहेश्वर सन्त हैं। इनमे पूरी व्णमाला इस प्रकार है-स्वर, उरी-स्थ, वर्ग फे परम, चत॒थ, तृतीय, हितीय, प्रथमबण, ऊष्म | १, श्र. ठउण् पे लूक, ३२.ए.शथ्रो इ, ४. ऐ श्रोच, ४.देय ध २८, ६.लग, ७, जम खफलछ १०,जबगडदश, ११५, ६.घटढपप्, कभनज, शणुनेम, ८.
थचटतवब १२, क पय, १३.
शपस २, १४, ह लू ।
श्र ड़ --हस्व (एक मात्रिक स्घर । शा ्ूझ्ऋ- दी (द्वि मात्रिक ))
ए. ऐ औओ औ--मिन्रित*
(कु)
के ख़ गे घ इ--कवर्ग
(ु)
च छू जभ भ--चबग
(ट)
टठ ड़ द ए->-डटवग
(86)
त्तथद्घध
| (पु)
ड्मिसिः हे
] |
अस्त!
प् फ़्बे भेंमूपवर्ग
|
यर ल ब--अन्ताःस्थ शूध स इ--ऊष्म
[
* अनुस्वार * अनुनासिक
|
£ ब्िसर्ग इ४ यण--क से लेकर मेतरू-्सश कहलाते हैं। ४ वर्ण--य र ल ब-तःम्थ ईं, श्रधांत् इनके उच्चारण करने में भीतर से मुद्ठ अ्रधिक वल से साँस नी पढ़ती ई |पॉँचों ब्गों केप्रथम श्रौर दिवीय श्रद्धरों ( क ख, थे छु थ्रादि )
१--मिश्नित स्वर बिदृत और दीय ई, जैम--अ + इ >ए. | ४>ब्यण्जन
के
डचारणु में
मुप्र
क स्सि ने
ज्सी मांग का
रे भाग से
दसर
ने इछ स्पा अदरय होता है; जैसे उ के उच्चारण में जिदहा का तालु से
/द के उचारण में जिद्वा का दानों से स्पश होता है ।
स्वर और व्यज्ञन
(ग घ आदि, हुया ऊष्म बर्णों (श, प, से, ह ) को 'परुष व्यज्ञन! और शेष वर्णों को 'कोमल ब्यक्षन' कहते हैं । व्यज्जनों के दो और प्रकार ईं--अल्पप्राश ए4। महाप्राण । पाँचों वर्गों के पहले और तीसरे बर्स (कग,चज आदि) झल्यप्राए ५० हैं तथा दूसरे और चौथे बर्ण (व घ, छ भ थादि) महाग्रास हैं। वर्णो के घ्वनि के विचार से वर्ण वर (इजूश् नम) बमुनासिक व्यन्जन कहलाते हैं।
के कण्ठ आदि स्थान हैं ।* बदलने के में अजुवाद--किसी भाषा के शब्दा्य को दूसरी भाषा के शब्दों ह अनुवाद बहते हैं ।
[अनु पश्चात् , बद् वाद रू कहना; एक बात को फिर से कहना अथानत के.४४॥९ एक बात को अन्य शब्दी मे बदल फरके कद्दना। दस यौगिक अर्थ * अडुबाद एक भाषा से उठी भाषा में मी हो उकता है, परन्त लोक व्यवहार
अनुवाद शब्द का योगरूढ़ अर्थ ही प्रसिद्ध है, श्र्थात् 'एक भाषा को दूसरी ॥,4 में बदलना? । )
अनुवाद-प्रणाली के बन करने से पूर्ववाक्य में जो सुबन्त, तिडन्त ॥
शब्द रहते हैं. उनका विवेचन करना वया कारकों का संद्िस वर्णन यहाँ . उचित द्ोगा ।
कारक (कर्ता, कम आदि)--/गोपाल पुस्तक पढ़ता है |” इस वाक्य +
पढ़नेवाला 'गोपाल” है। “राम ने रावण को मारा ।” इस वाक्य में मारने बाला
धाम! है। पढ़ना! और “मारना! ये दो क्रियाएं हैं । इन क्रियाओं के करने वाले
पपाल! और 'राम' हैं । क्रिया के करने याले को करत्तों कहते हैं। अतः इन द्
वाक्यों में 'गोप्रल! और “राम! कत्ता हैं। ५. . सम चाक््य में पढ़ने काविषय “पुस्तक” है और द्वितीय में मारने का विष
रावण' है। पुस्तक' और “रबण? के लिए ही कर्त्ाओं ने क्रियाएँ कीं, अत!
मुख्यतः जिस चीज के लिए, कर्त्ता किया को करता है, उसको कर्म कहते हैं।
+ राजा ने अपने हाथ से ब्राह्मणों कोदान दिया।! इस वाक्य मैं दान ! नि दान की े पूर्ति हाय से हुई, अतः हाय करण हुआ | इसी वाक्य थ कीअआाहरणों' के लिए हुई, थ्रतः ब्राह्मण” सम्प्रदान हुआ । हर गघड
लत्नसत्युद्धून
(दन्त)
उऊटप्कप् एवमूम(ओड)
ए ऐ (कण्ठ चाह), ओ औ (कश्ठ ब्(दन्त ओछ), अनुस्वार (नासिका)
ड आदि का स्थान (कशंठ नासिका
हि
बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
“श्याम के वृक्षों सेमूमि पर फल गिरे ।” इस वाक्य में इक्षों ते फल ध्थक् हुए, भ्रतः बत्ष अपादान हुआ | फल भूमि पर गिरे, अ्रतः 'मूर्मि अधिकरण हुई | श्राम का सम्बन्ध इत्तों से है, अतः आम! सम्बन्ध हुआ । उपरिलिखित चार वाक्यों में पढ़ना! 'मारना देना! और गिरना! रियाश्रों के सम्पादन में जिन कर्त्ता, कर्म आदि शब्दों का उपयोग हुआ है, उन्हें कारक कहते हैं |कारक वह वस्तु है जिसका उपयोग किया की पूर्ति केलिए क्रिया जाता
है। अनेक वैयाकरणों ने सम्बन्ध को भी कारक माना है | कारकों को जोड़ने के लिए हिन्दी में ने! 'को' आदि चिह्न काम में आते हैं, ये 'विभक्ति! (कारक-निह् ) कहलाडे है | सस्कृत में सात विभक्तियाँ और एक सम्बोधन होता है। विभक्तियाँ
।
(0886-5875 ) कारक ( 08६९४ ) श्र्थ ( ॥6शाां85 )
प्रथमा कर्ता ( 07779378 ) ( बह वस्तु ), ने द्वितीया कम ( 26०05४79७ ) को बूतीया करण ( 77570गथ्यांवव ) से, के द्वारा चतुथों संम्प्दान ( 2&ए८ ) के लिए पद्ममी झपादान ( ह0]8096 ) सेरे सम्बन्ध ( 5९0४४६ ) का, के,की घष्ठी सप्तमी अधिकरण (7.002४/ए९) मै,पर, पै सम्बोधन सम्बोधन ( ५४००४(४४४ ) है, श्रये, भोः हिन्दी मेंकर्ता कम थ्ादि सम्बन्ध दिखाने के लिए ने! 'को' 'ते! आदि शब्द
संज्ञा या सबनाम के पीछे जोड़ दिये जाते हैं, किन्तु सस््कृत में यह सम्बन्ध दिलाने
के लिए, संशा था सर्वनाम का हप ही बदल जाता है, जैसे रामः ( राम ने )रामम् (राम को ), रामस्य (राम का )।
राम शब्द फा सात विभक्तियों में प्रयोग-रामों राजमणिः सदा विंशयते राम॑ रमेश भजे रामेणामिहता निशाचरचमू रामाय तस्मे नमः । रामान्नास्ति परायर्ण परतरं रामस्य दासोडमम्पदम्
रामे चित्तलयः सदा भवतु में देराम मा पालय॥ इन प्रथमा श्ादि विभक्तियों से कारकों का दी निर्देश नहीं होता, अ्पिदु ये
कि १--कर्तवाच्यपरयोंग दुतुअधम्मा प्थमाकतृकारके। क्कारके। वितीबान्त द्वितीयास्त भवेत् सेवकम कर्मक्वीन कतरथीन कैयापदम । कर्ता कम व करण च मंग्रदान तमैव च। श्रपादानानिकरणे इत्ताहु शाग्काणि पद ॥
हल रे--जय उथक् हीने याहटने का ज्ञान हो तब अपादान 2200228 गा (पश्ममी ञमी ))होता होता है 7 रे संश से
क्रिया
के साधन (जरिया ) का शान हो तब करण ( तृतीया )
कारक
ऋते, सद्द, साऊम आदि विभनियाँ वाक्य में प्रति, विभा, अन्यरेण, अन्तरा,
ँ नमः स्वस्ति, मिपातों के योग से भी 'नाम' से परे प्रयुक्त होती हैं। ये विभक्तिया दशा में होती है । ऐसी स्वाहा, स्वधा, अलम् आवि अव्ययों के योग से भी व्यवद्ृत्त
इन्हें “उपपद् विभक्तियाँ/ फहते हैं।
कारकों केसमझने के लिए छात्रों कोअन्य मापाओं का सहारा म लेना. चादिए ।उन्हे कारकों केज्ञान अथवा शुद्ध सस्कृत भाषा के बोध के लिए सरकृत
।
इसया, साहित्य का परिशीलन करना चाहिए. | कहाँ कौन सा फारफ होना चाटिए,
जान शिश्टों अथवा प्रसिद्ध सस्कृत प्रन्थकारों के व्यवहार से ही हो सकता है, क्योंकि। ॥ #विवज्ञात॒ कारकारणि भवन्ति |लौकिफी चेह उिवद्या न धायोक्त्री ।” सस्कृत के व्याकरण में सुबन्त और तिडन्त के रूपों का प्रतिपादन किया संया /
क है। छात्रों कोयेकठिन और शुप्क श्रवीत होत हं। सुबन्त ओर [तिडन्त समस्त रूपों का याद कर लेना सुगम नहीं है। श्रत. हमने झ्ाचार्य पाखिनिं के नियमों के ग्राधार पर छात्रों केलिए वैज्ञानिक एव सुव्यवस्यित ढज्ञ पर विषय का प्रतिपादन किया है । __>यहन्या खुबन्तशब्दों के साथ सात विभक्तियों केतीन बचनों मे २१
लगते ह। उन विभक्तियों केसाधारण ज्ञान प्राप्त करने केलिए हम यहाँ “मरिति! शब्द के रुप दे रहे हैं। इनमे प्राम. सब प्रत्यय ( सु को छोड़कर )
स्पों में सष्ट हैं! प्रथमा द्वितीया. ततीया चतुर्पी पचमी पष्ठी सप्तमी
सस्पोधन.
एकबचन सरित् सरितम् सरिता सरिते सरितः सरितः
सरित् ( नदी )
द्विवचन सरितो सरिती सरिद्भ्याम् सरिद्भ्याम् सरिद्भ्याम् सरिता:
सरिति
सरिताः
द सरित् है सरितौ है सुबन्त के २१ प्रत्यय
श्र्थ ग्रे) द्वि. (को)
एकवबचन स्(सु) अम्
तृ०. च०
ऐि, के द्वारा) (केलिए।.
पर
(का, के, की) अस(डस )
प्र०... स०
सि)
(में, पर)
आओ (टा) ए(३)
अस् (डसि) इ (डि)
द्विवचन री ञ्ौ (श्रोट)
भ्याम् भ्याम््
भ्पाम्
ओस्
झोत्
5
बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
विकारी तथा अविकारी शब्दू--ऊपर कहा जा चुका है कि वाक्य में अनेत्र शब्द रहते हैं,यथा--(१) “छात्र! सदा पुस्तक पढति (विद्यार्थी हमेशा एस्तक पढ़ता है)” इसी वाक्य को इस ढंग से भी कह सकते हैं-(२) द्ात्रः सदा पृश्तकानि पठति (विद्यार्थी हमेशा पुस्तक पढ़ता है |)
(३) छात्राः सदा पुस्तकानि पटन्ति (विद्यार्थी हमेशा पु्तके पढ़ते ५ |) इन वाक्यों को देखने से शाव होता है कि शब्दों में कुछ ऐसे शब्द हैँ. जिनके
रूप हमेशा एक से रहते हैं, जैसे इन वाक्यों मे'सदा! शब्द है। कुछ शब्द ऐसे
हैंजिनके रूपों मेंपरिवर्तन हो जाता है, जैसे--छात्रा, पुस्तकम, पठति के रूपों में परिवर्तन हो गया है। श्रतः यह निष्कर्ष मिकला कि--
5
केहक रूपों में किसी केस भी पाए दशा में परिवतन थाकदर विकार नहीं हि होता व हैवें
शरद है। जिन शब्दों के केक अव्यय कहलाते हैं, जैसे रूपी मेंपरिवतन हो जाता है वे विकारो शब्द कहलाते हैं। विकारी शब्द गनेक
पार के होते हैं,उदाहरणा्-“रा पति? बुम्य॑ सुन्दर पारितोषिकम् श्रददात् (राष्ट्रपति ने तन्दें सदर इनाम दिया) ।” इस थाक्य में “राष्ट्रपति/ शब्द संक्षा या नाम है; तुम्यम् (ठुमके) संज्ञा के स्थान पर आया है, भ्रतः सर्वनाम है; सुन्दरमू शब्द पारितोपिक (इमाम) कऔ विशेषता बतलाता है, श्रतः विशेषण ६; अददान् (दिया) शब्द किसी कार्य
का करना बतलाता है,अतः क्रिया है।
शब्दों के भेद ॥ १ सिकाती
|
२ अविकषारी
|
(अब्यय)
(यथा, तथा, यद्यपि,
पुनब्राकि
१) वंज्ञा
(२) रबनाम._
(३) विशेष्ण (४) क्रिया
एम, नदी, लवा, (लमूतू, अदममे) (सुन्दर, सके, (पदनियढुता ई, अश्मादि)
_
खाचदृद्यादि) दुए आदि) वदतिज्वोहताहे आदि) वाक्यरचना--“नत्तः दमयस्तीं परिशिनापर्र (नल ने दमयन्ती ते विवाह हवा ।)7 इस वाक्य में पहले कर्ता (नलः) फ़िर कर्म (इमयत्तीमू) ओर शत में
नया (धरिशणिनाय) थायी है ॥ च्रतः संछल फे वाक्पों का जम.भी रफ़््यगा,रिहिटी, क्र58 है--पहलेकर्चा, फिर कम और अल में किया, अस्खु हम ऊपर निख जब ईंक्रिसस्कत में विकारों राब्द श्रविक हैं थ्रोर श्रविकारी कम | श्रवः हम
प्रो वाक्यों की इसप्रकार भी लिप सदते ह--
कारक
दसयन्ती नलः
परिणिनाय,
परिणिनाय दमयन्तीं नलम
परिशिताय.
अथवा नलः
दमयन्तीम।
इन वाक्यों में शब्दों का क्रम चाहे जैसा भी हो, 'नलः कर्ता, 'द्मयस्तीम्!
और परिशिनाय! क्रिया ही रहती हे ।कारण, इन सब शब्दों में सुप्विभक्ति
+
घिदय विभक्ति रहती है, अत. इनके स्थान परिवर्तन करने से भी ये विभक्ति-चिहं द्वारा कट पहिचाने जा सकते है। यह क्रम अग्रेजी आदि अविकारी भाषाओं २ नहीं है। हिन्दी मेभी अग्रेजी केसमान क्रिया का स्थान निश्चित रहता है हिन्दी में क्रिया वाक्य के त्न्त में आती है, रिन््तु अग्रेजी मे क्रिया कर्ता और एए
के बीच में । सस्कृत में अप्रिकाश शब्दों के ब्रिकारी होने के कारण कर्त्ता, कर्म
क्रिया आगेन््यीछे भी आ सकर्त हैंऔर यह सस्कृत की अपनी विशेषता है । अब इस वाक्य को देखो--
घमंजो मलः सबंगुणालडकृता दमयन्ती विधिना परिशिनाय । (धर्मात्मा «
ने सय गुणों से सम्पन्न दमयन्ती से विधिपूवक विवाह क्रिया |)
दस वाक्य में 'धर्ज्' शब्द 'नल' सक्ञा काविशेषण है और “विविना! ,
“रिणिनाय! जिया का विशेषण है, अतः जिन शब्दों की ये विशिष्टता बतलाते हैं उनके पूर्वही इनका मुस्यतः प्रयोग होता दे, ग्थात् सज्ञा शब्द का विशेषण उच्च पृर् और क्रिया विशेषण क्रिया के पूर्व आता है, किन्तु कभी-कभी आगे पीछे «, इनका प्रयोग हो सकता है, जैसे-:
नलः स्ंगुणालदकृता विधिना परिशिनाय दमयस्तीम्।
नलः सबंगुणालइकृूता दमयन्तीं परिणिनाय विधिना। लिंग और वचन ,
उपर के वाक्यों में नल: एक ऐसा नाम है जिससे पुरुष जाति का बोध होता
है, ग्रव" यह शब्द पुल्लिद्न है।
“दमयन्ती' शब्द से स्त्री जाति का बोध होता है, अ्रतः यह स््रीलिड्र शब्द है | छात्रः पुस्तकानि क्रीणाति (विद्यार्था पुस्तक खरीदता है)” इस वाक्य में “पुस्तकानि! शब्द से न तो पुरुष जाति का बोध होता है और न स्त्री जाति का, अतः यह शब्द नपुंसक लिड्ठ है। ॥ ..
सस्ह्ृत में लिड्अ-शान कोप की सहायता अ्रथवा साहित्य के पारायण से ही
होता है। व्याकरण के नियमों का लिज्ञ-निर्धास्ण में अधिक उपयोग नहीं किया ज्ञा सकता ।
हु उस्कत में एकही शब्द या वस्तु केवाचक शब्द मिन्न-मिन्न लिड्डो के है, यथा-तट,, तदी,तट्म--(तीनों का अर्थ किनारा है। ) इसी ग्रकार--परिग्रह;, मार्या, कलम (तीनों का अर्थ पत्नी है |) इसी माँति--सगरः, आजिः, गुद्धम् ( तीनों का
अर्थ बुद्ध है |)
बृददू-अनुवाद-बन्द्रिका
कभी-कभी एक ही शब्द का कुछ थोड़े से अर्थ मेद के कारण भिन्न-मिन्न लिड्षों , प्रयोग होता है, यधा--सरत्वत् ( पुछ्लिड्ठ )का श्रर्थ है समुद्र, किन्तु सरस्वती “ब्लीलिज्ठ) का श्रथ है एक नदी । इसी प्रकार सरस( नपु० ) का अर्थ है. तालाब शा छोटी कील, किन्तु सरसी (त्री लि) का श्र्थ दे एक बड़ी भील | कत्ग्रत्यय गी लिड्ठनज्ञान में सहायक होते हैं, किन्तु पूण ज्ञान तोणशणिनि के लिज्ञानुशासन शहीही सकता है। «| इन्हीं बाक्यों में 'नलः या छात्र: से एक रुस््या का बोध होता है, अतः ये हब्द एक वचन हैंऔर “पुस्तकानि' (पुस्तकें) सेबहुत सी पुस्तकों का ज्ञान होता $ भतः यह शब्द बहुवचन है। संस्कृत मे द्विवचन भी होता है जैसे--छात्रः पुस्तके श्यक्नीएात् (छात्र ने दो पुस्तकें खरीदीं)। इस वाक्य में (पुस्तकें! द्विवचन है। ७. रेरकृत भाषा में श्रोन, चछुस,बाहु, स्तन, चरण श्रादि शब्द द्विवचन में ही
युक्त होते है, यथा--ममाक्िणी दुःस्यतः (मेरी श्राँखें दुखती हैं) आ्रान्तायास्तयाश्वरणी न प्रस॒रतः (उस थकी हुई के पाँच आगे नहीं बढ़ते) | संरकृत में अपने
बहुवचन लिए का दी प्रयोग होता है, पा
या: परिवुष्टा:
ये. बल्कलैस्ल दुकूले:/
/मव॑हरि) (के छाल पहनकर ही सस्तोपहैश्रौरब॒केमहीन घससे|) ३ _झल्कृत [त में कुछ ऐसे शब्द हैँजिनका बहुवचन में ही प्रयोग होता है, यथा--दार
इॉलनी) पुं०, 'प््ञव (पूजाई श्रद्टट चावल) पुँ०, लाज (खील) पुँ०। इसी प्रकार
झप (जल)सुमनस् (फूल), वर्षा, अ्रप्सर्स (अप्सराएँ), सिकता (रेत) समा (बर्ष),
अलौकंस (जोंक)इन ख््रीलिज्न शब्दों का बहुवचन में द्वी प्रयोग होता है। शह
पुं०), पास (धूलि) पुं०, धाना (भूने जो) छी०, सस्त॒, श्रमु (प्राण), प्रजा, प्रकृति मन्त्रिगण, या प्रजावर्ग) कश्मीर शब्द बहुवचन में ही प्रयुक्त होते हूँ9) व. जब क्रिया प्लेकोई बचम खूचित न हो तव एक वचन ही प्रर॑क्त होता है,
हैधा-इदं ते कचव्यम।
५.
सबनाम शब्द--दात चीत करने में एक व्यक्ति वह शोताई जो बातचीत
'फरता है ; दूसरा वह द्वोता हैजिससे बातचीत को जाती है श्रोर तोसरा (चेतन प्रधवा श्रचेतन) वह होता द्वेजिसके विषय में बात चीत की जाती है |बौलगेबाला उत्तम पुरुष, जिससे बातचीत की जाती हैमध्यम पुरुष, और जिसके विपयमेंबातखगगशर5 त कोजातीहैबह प्रथमपुरुष या अन्य पुरुष कहलाता है।
(३) उत्तमही पुरूष. (२) मध्यम पुरुष शक बचन |अहम (मैं) त्म् (ू
ः
-दि बचन | आवाम (दम दो) | युवाम्मी)
;
(३) प्रथम पुरुष
| तो।
पिन
पट चचन |बयम् (हम ) | यूयम् ( तुम ) ते (बे) वाः (4) तामि कद अस्मदु को छोड़ कर सवंनाम शब्द तीनों लिद्ठों मेविशेष्य के का
धरशर होते है _ सज्याबाचक शब्द--एक, द्वि झ्रादि तथा पूरण ( प्रथम, द्वितीय श्रादि ) /गिशेषण होते हैं, फिन्स सामूहिक बाचक दय, श्रय आदि संशाएँ हैं | अतः इनफा
.
सरपायाचऊ शब्द
&
प्रयोग विशेत् के रूप में न हापर सज्ञा के रूप में द्वाता है, -यथा--पुस्तकप्रोदयन , पुस्तकाना तयम् यदि ।
एक शब्द कपल एरुयचन म होता है द्वि शज्द केयल द्वितचन में और नि से लेकर अ्रशदशन् तर शब्दों फा क्यल बहुउचन म् ही प्रयाग हाता है। से 'चनुर' तक शब्दों का लिट्ठ विशेष शन्द ऊ अनुसार हाता है, यथा-- चलाए मानवा , चतलर च्त्रिय', चत्वारि क्लानि आदि। इनज याद लिज्ञ का भेद नहा होता बधा-अश्व मानयरा ; पञ्य स्निय , गिशति मसानया , विंशति व्ियः। एफानयिशति ने नय जिशति तकू समस्त शब्द एक्यवनान्त खा लिह्न ह। इनर्े रूप एक वचन में ही चलते हे । इफारान्त विशति, पटि, सतति, अशाति,
नवति तथा तिनऊे ग्रन्त मे ये शद हों उनके रूप स्लीलिज्ठ में मति” शज्द के समान होते हैँ |ठशासन्त जिशत्, चल्रारिशत् के रूप सरित! शब्द की माँति होते हूं । शतम्, सहस्तम्, अयुतम्, लक्षम् ,नियुतम् ग्रादि सदैय एफ्यचनान्त नपुसक हू । सरपा वाचक
शब्दों के रुम्बन्ध में एफ बात स्मस्णाय है फ्रि उनका अन्य
मुयन््त शदों के साथ समास नहीं हो सकता, यथा--विंशविनाय्रं”' शुद्ध है, डिन््तु प॑वैशतिनाय अशुद्ध है। इसी प्रकार शत पुदुपा: शुद्ध है, किन्तु “शतपुरुषाः यह समस्त शन्द अ्रशुद्ध है। इसी माँति सप्तसततिरनात्र/ शुद्ध है पर 'समसत्ततिनाय/ अशुद्ध है । पद्माशत फ्लानि क्रोणातरि,' शुद्ध है,सिन्तर पश्चागन् फ्तानि! अशुद्ध है। 'शतस्प पुस्तकाना कियन्मूल्यम! प्रयाग शुद्ध है, क्रिन्ठ 'शतपुलकाना कियन्मूल्पम! यह प्रयाग अश्जुद्ध हैं। “चत्वारिंशता कमकरे: परिया सानयति! शुद्ध दै, किन्तु 'चलारिंशत् ऊमकरे. परिखा सानयति? यह प्रयाग अशुद्ध
है। यदि
समास से सन्ञा का बोध होता हा ता सरप्रा वाचक्र शब्द के साथ समास हा सकता है, यया पद्माम्रा., सतर्पयः आदि | विहन्त पद ( क्रिया )-- छात्र पठति, बालऊाः क्रोडन्ति” इन दो वाक़यों को देसने से ज्ञात होता है कि सल्कृत में तिडन्त क्रिया का लिह्ञ नहीं होता, चाहे कर्ता पुल्लिड्ठ हो या खोलिज्ञ या नपुसऊ लिज्ञ, किन्तु किया एक-सी रहती है, यथा-बालक., कीडति, बालिका क्रीडति (बालक या बालिका खेलतो हे), बालः अपठत् , बालिका अपठत् ( लड़का पढा, लड़की पढी )[ हिन्दी माप्रा मंक्रियाओं के रूप क॒तृयाच्य म॑ कर्ता के अनुसार तथा कमयाच्य-में कम के अनुसार पुल्लिन्न एव
स्रीलिज्ञ में बदल जाते ह | जेसे लड़का पढता है, लडकी पढती है आदि ।
किया के पिना कोई वाकत नही होता और प्रत्येक वाक्य में एक क्रिपा होती
है (एक्तिद वाक््यम्)। सस्झत मापा में लगभग २००० घातुएँ हैं और वे १० गशों (समूह)? में वटीहैं। इनकी जदिलता
इस कारण बढ़ गयी है क्लि शनका
१ दस गण ये ई--म्वायदादो जुद्ात्यादिः दिवादिः स्वादिरेत च। तुदादिश्र
रुघादिश्व
तनादिः
क्रोचुसदबः ।
(?) खादि, (२) अदादि, (३) बुझायादि, (४) दियादि, (३) स्यादि, (३) ठुझडि, (9) रुयाहि, (-) तनादि, (६) हतादि और (१०) चुरादि
१०
बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
प्रयोग तमी किया जा सकता है जब्र दस गणों का टीक-्टौक शान हो और फिर प्रत्येक गण मे ये धातुएँ, परस्मेपद, आत्मनेपद और उभयपद में विभक्त हैं।
पच॒ति, पचतें भ्यादिगझणीय हे और हन्ति अदादिगंणीय, इनके रूप दोनों पद्दों मे अलग-अलग चलते हैं | इन्हीं धातुओं के मूल रूप--पठति-पटतः-पठन्ति, भ्रपठत्अपंठताम:अपंठन, श्रादि चलते हैंऔर इन्हीं के प्रत्यवान्त रूप भी चलते हैं,जेसे शिजन्त मैं 'पाठयति' (पढ़ाता है) और सन्नन्त में 'पिपठिपति' (पढ़ने की इच्छा करता है)। कुछ धातुएँ सकमंक होती हैं और कुछ श्रकर्मक | सकर्मक धातुओों के रूपों
के साथ किसी कर्म की आकाक्षा रहती है, किन्तु अकर्मक धातुओं के रूपों के खाथ
नहीं रहती है।
संस्कृत भाषा में पद दो होते हैं---परस्मैपद तथा आत्मनेपद । परस्मैपद अर्थात् वह पद जिसका फल दूसरे के लिए द्वोवा है, जैसे सःपचति (वह पकाता हैं)यहाँ
पकाने की क्रिया का फल दूसरे के लिए द्ोगर पकाने वाले के लिए नहीं, किन्त॒ आत्मनेषद भे क्रिया का फल अपने लिए होगा । धातुओं के तीन वाच्य होते हैं--कर्टवाच्य, कर्मवाच्य तथा भाववाबण्य । भाव-
वाच्य तभी होता है जंब्र किया ग्रक्मंक हो । भाववाच्य में कर्ता तृतीयान्त होता है और क्रिया केवल प्रथम पुरुष के एकवचन में प्रयुक्त होती है, जेसे--
कर्तृबाच्य--सेवकः ग्रामं गच्छति (नौकर याँव जाता है ।) कर्मवाच्य--मर्यों पुस्तक पठ्यते (मुझ से पुस्तक पढ़ी जाती है। ) भावबाच्य-मनुप्यैियते ( मनुष्यों सेमरा जाता है । ) संस्कृत भाषा में ६० लकार" क्रियायचक सथा श्राज्ञादि सूचक दोनों प्रकार फे
ईं। लंटूथरादिसव लू! से आरम्म होते हैंअतः इनको दस लकार भी कहते हैं| इन में सेलोटएवं विधितिट् आशा, श्रनुद्धा विधान आदि श्रर्थों मैं प्रयुक्त होते
हैं, यथा-गोपालः पठ्त, पढेत् वा (गोपाल पढ़े)॥ श्राशीशिद श्राशॉवाद के अर्थ मे प्रयुक्त होता है, यया-गोपालः प्याव् (गोशल पढ़े ।) लोट भी थ्राशीर्धद के
श्र में श्रावा है । छूडू लकार हेलुदेठमद्गाव ( जहों एक किया के होने पर दूसरी
किया हो)के श्र्थ में थ्राता है, यथा--सदि स्वमपठिप्यः तंदावश्यम् परीक्षायाम्
उत्तीणोंट्मविष्यः ( यदि झम पढ़ते तो श्रवश्य परीक्षा में उच्चोणं हो जाते । )इन
चार लकायें फे श्रतिरिक शेप लकार काल-पूचक है | लटूपतंमान काल मे होता
१ लद् च्तमाने लेट बेदे भूते छुट्टू लघ लिटस्तथा | विष्याशिषोसु लिइलोटी लुटलूट लूदूच मविष्यति ॥ .. रस कारिका में १० लकारों के श्रनिरिक्त ले भो ह। लेट का प्रयोग
वैदिक रस्ट्त में ही पाया जाता है।
हि
काल श्थया दत्तियाँ
११
है, बथा देव पठति ( देव पढ़ता है) |तीन लकारो भूतफाल सुचऊ हैं--छुद, (सामान्य मत), लड़
(अनयतन भूत) ओऔर
लिए (पराक्त
भूत) | (लेट
लफार हा प्रयोग केवल वैदिक भाषा में हीहोता है। अत लोफ़िंक सस्हृत में उस छोड दिया गया है |) हद फिदर ह सस्व्त भाषा मेंदस काल अथवा दृत्तियां होता है, व इस प्रकार ह--(१). बतमानफ़ाल-लद (?768थ४६ (९॥50)
(२) (६अनद्वतनभूत-(३) 4 सामान्यभूत--
ला_ छुह_
(?०४ परएशर्९८ ९756 ) (8075६ )
(४)
लिए...
(945 एशर्ईव८८ $0॥56 )
परक्षमूतू-
(श) |] सामान्यभविष्य--- लूट (६) | अनवतनमग्रिष्य-- छुद...
( एफ फणधप्रा6 ) ( छोए४ #िएए४ )
(७) (८).
आज्ञा-उगिंविलिश
लीड... (शएश्क्नाधए& 77000 ) निधिलिर (?०८॥आश 3000 )
(६) (१०)
गाशा लिए क्रियातिपत्ति--..
आशीलिंए( छ९6/०0०६ ) लूगू (एणाधाणाओं )
क्रियाओं की क्लिप्य्ता केकारण छात्र हीनहीं, अपिठ कुछ अध्यापक भी
तिइन्त क्रिवा क स्थान पर कृदन्त शब्द का प्रयाग करते हैं, यथा सेवक ग्राम गत ( गतवान्)'का अर्थ होगा--सयक गाँव को गया हुआ या जा चुफा है।? सयक गाँव को गया! का अनुवाद 'सेवक ग्रामम् अगच्छुत' ही होगा। इसी
प्रकार कुछ लोग क्खिप्ट्तर क्रियात्रों हैजचले क उद्देश्य से मुख्य त्रिया को कहने वाला धाठ से व्युस्न (कृदन्त) द्वितीयास्त शब्द केसाथ तिडन्त छ का प्रयोग
करते हैं। उदाहरणार्थ--वे 'लजते' के स्थान पर 'लजा करोति, 'प्रिभेति!
क स्थान पर “भय करोति! लिखते हैं। परन्तु ऐसे प्रयोग अशुद्ध ह और त्याज्य हैं। कारण, “लज्ञा करोति! का अर्थ 'लजा करता है? और भय करोति” का ग्रय “य पैदा करता है? | इनके शुद्ध प्रयोग हें. 'लजामनुभवति! तथा 'भवमनुभगति।
छृदन्तों का किया के रूप मे प्रयोग
धातुश्रों से परने हुए. झूदल्त* मी क्रिया के स्थान पर प्रयुक्त होते हैं| नियाओं १ सस्कृत व्यारण में इन तीन लकारों में अन्तर क्रिया गया है। लुदु सामान्य भूत में आग है अर्थात् उप प्रकार के भूतकाल में, लड़ लकारअनद्यतन भूत म, अर्थात् तोबात आज
से पहले की हो, प्रयुक्त होता है, अत
शुद्ध
ब्याऊरण की इृष्टि सेअहमग्य पुस्तक्मपठम् , ( मैंने ग्रात्र पुस्तक पढ़ी ) श्रशुद्ध है। एसे स्थल पर लुर_(अपाठिषम) का श्रयोग होना चाहिए। लिदकाप्रयोग परोक्ष (जी आँख के सामने न हो) श्तिहारिक बात क लिए होता है, यथा-राम राबण जधान ( रास ने रादण सारा । ) ३ भाववाचक कुदन्त शुद्ध क्रिया के चोतक है, जैसे-हास, पाक, राग
आदि, कठुबाचक ऋदन्त क्रियाक कर्ता के चोतऊ हें, जैसे--पठक
पाठक,
श्र
बृहदू-अनुवाद-वन्द्रिका
के १० लकार तीनों कालों को प्रकट करते हैं या आरा, अनुजा श्रादि को | यही_ काय ऋृदन्तों से होता है | मानक ]
कोऔर क्तवत भूतकालिक हिया को प्रकट करतेहैंऔर तब्य एवं श्रनीयर आजा वयो भविष्यत् काल को क्रिया को ग्रकट करते हैं|
कृत्य, रब्य, अनौयर ,यत्--येओववबाच्ययाकमंवाच्यमेंहोते|सवमेक
धातु से कमवाच्य मेंतथा अकमक धातु से भाववास्प में होते है। ऐसी दशा में _ फुसा हृतीया विभरक्तिमें में होता छोताहैं [ औरकर्ममें में प्रभमा प्रथमातथातत्य लत्यप्रत्मपान्त ब्रत्मपार शब्दके
लिन और वचन कर्मकेअनुसार होतेहैं,बभा--
हर लात्रें: पुस्तकानि पदितब्यानि । सकमक धातु मया बालिका दृष्ठा । (कर्म में) | ल्वया अन्यः पढितव्य; । अकमक घातु शिशुना शव्रितब्यम् । (भाव मे ) ह।त्यगरा न हृसितव्यम ( हसनीय॑ वा ) । आकर्मक धातु से ऋदन्त प्रत्यय भाववाच्य में होता हैऔर झृदन्त शब्द सदा नपुंठक लिंड्ठ और एकवचन मे होता है; जैसे शपितव्यम्, हसनीयम् श्रादि । ५ ( क्त, क्तवत्)करप्रत्तय मयसकमक सम धाठे धातु सेसे जि कमा मे में होता हैं है औरझकमक भेः अन्य: पठितः । यथा में, से कठ्वाच्य धातु
हैं
छात्रें: पुस्तकानि पठितानि |
दमयन्तपा
लता दृष्टा | (
परम्ठ देवः आ्रागत:, बालिका सुद्ठा आदि में श्रकमक धातुओं के प्रयोग के
कोरण कदन््त कर्ता के श्रनुसार (करतृवाच्य) होता दै ] क्तबत् प्रत्यय श्रक्मंक एवं सकमेक धातुओं से कतृवाच्य में ही होता है, था रा; पुण दृष्यान्, सा पुण्ठ दृष्वती, से दृडितवान | साहस्ितवती ॥ पी 2 नम कपल ।९१ “पक नेपदमें
५ 82% 2 20४ 3 सेवा" ही ७ पु 2 ता « 5 *')॥ ये भविष्यत् फाल सूचक भी इंते ईं, लैसे-पठिप्यन् छात्र: ( वह छात्र, जो पढ़ता हुआ होगा ), वर्षिप्पमाणः पुरुषः ( बढ़ पुरुष, जो बढ़दा हुझा होगा )॥
पचफः आदि, और कमबान्य झदन्त किया के आधार कम को प्रकद करे &, जैसे--मुउएः (आझानी से किया जाने वाला काय ) क शतर् एवं शानच काशयोग जांवः विशेधण रुरमेंहो हं।मुस्य वा है, वतमान निया केझय मेंसही ।
हा
है. #»
सान्य-ग्करण ध्यान से देखो थे शब्द कैसे मिलते है-का देरारि:॥ वाह + ईशा 5 वार्गी देद+ इन्द्र रूदेवेन्द्र; । तत्+शुत्द बचत । हरिम -दन्दे ८ द्वार बन््दे । ऊपर के उदाररणा क्षो देखने से रत हुआ छि सन्दृत के प्रत्देझ शब्द के अन्त मे कोई स्वर, ब्यक्षन, अनुस्वार अथवा दिसय अयरय रहता और ड्द शब्द के आये जय छिसी दूसरे शब्द के होने सेउनऊा मेल होता हूंतर पूउ
शब्द के अन्तवाले स्वर, व्यक्षन आदि म ऋुछ परिउतन हो जाता है प्रकार के मेल हो जाने से जा परिवर्तन होता हे, उठे सन्धि छदते हैं |सनदर काअर्य है मेन । इस परिवतन से ऋह्म पर (१) दोअच्तरों के स्थान पर एक नप्ा अचर
बता है, जेसे--रमा+ईआः न रमेशः, (+) कही पर एक अकर का लोर हो जाता है, जैसे दात्राः+गच्छन्वि
5छात्रा गच्छन्ति,
और
कहाँ पर दो
कथा
के बीच में एक नया अकछ्रआ जाता है, जैसे घावन्+ ऋरत्रः ८घात्रत्नरतः । बहा एफ ना और आ गय। रन्विया तीन प्रकार झी ६--त्वर सन्धि, व्यज्ञन सन और विर्यठन्यि ।
स्व॒रसन्धि > कि
के भेल होने से जो परियतन होता है, उसे स्वः निम्ननिखित सन्यिया
इ--
के विषपमे हुछ लोगा का फ्रम है। वे रूमझते हैं कि वाक्य में सन्दि और वे इस कारिझ्य छा उद्धस् देते हं--ठ ट्निक्षरदे निल्या नित्या ७फ / घातूपसगयों:॥ नित्या सुमाने, दाक्दे ठुखा पिपक्षामपरेज्ञत ॥” निम्तन्देद ह२| कारिका वाक्ष्य के अन्तर्गत पदों के बीच सन्धि छो वेऋअक्िक् दढती दे, नल इसका विकल्प से होना सीमा-बद्ध है। स्ति शब्द का भाप ई-लवरो छा
बपञनों छा एक दूुसगे के अनन्तर आना,
एस्तु सन्धि के
जब वाक्यगत शब्दों में उद्िता हो या विराम
ीत न
हो। विराम होने हु पर सन्दि
नई होठी, यथा-- मित्र, एडि, ऋअवुन्दारेम जनम्।॥7 यहाँ मिक्र और एंड के बीच में विराम अपेक्षित हे, परल्तु अनुश्द्ार और इमम् के दीच में विराम अषेक्धिद नहीं हे ॥ पद्य में तो यदि सन्धि छा अपठरहोऔर न की जाप दो जिहा क।
दोप होता है--“न रुहिता विवक्ामीत्यउन्धान परदेषु मत्तद्विउन्धीति निर्दिध्य मु ६ छाझादरे
)।रलोक के अपर और दृतोय चरणों के पीछे शिशेें नेविराममे/]
माना, अतः वर्ड अवरप सपि होती हैं। दायमद शव हुदषन्चु ऋदि के मगयों में चाक्त्य के ऋन्तगव पदों में सदैव सन्दि मिलती है|
बृहदू-अनुषाद-चन्द्रिका
अक सबरणों दीप: ।३॥११०१
१--दीघ सन्धि «»
जब हृस्व या दी स्वर के याद हस्व या दीघ॑ स्वर आवें तब दोनों,के स्थान मे दौध स्वर हो जाता है, जैसे--रत्त + ग्राकर; # रनाकरः । _/ ध यहाँ पर 'रल' के (व! मे जो हस्व अकार है उसके बाद श्राकरः का दीप
आग आता है, इतलिए, ऊपर के नियम के अनुप्तार दोनों के (हस््व त्र! और दीप &आा! के) स्थान में दौ् आ' हो गया, इसी प्रकार-हि
सुर + श्रष्षि + सुरारि: [्ज हिम + आलयः - हिमालय: +
गिरि + इन्द्र ८ गिरीरदः । क्िति+ ईशः 5 क्षितोशः ।
दया + श्रणंवः 5 दयाणवः |
सुधी + इन्द्रः ८ सुधीनद्राः ।
विद्या +आलय--विद्यालय: |
श्री + इश३ ८ भीशः !
गुरु +उपदेश:-मगुरुपदेशः । वधू+उत्सव: > वधूतसदः|. लघु + ऊमिः--लघूर्मि: । पिठ + ऋणमपिनुणम् । यदि ऋ था लू के बाद ह॒स्व ऋ या लू ध्ार्वे तो दोनों के स्थान[में ऋ यालू स्वेच्छा से कर सकते ई जे्धे-होत +ऋकारू-डनुकार या होठ ऋकार।। ) दे+ लु॒कारःनहोत् लुकार या होतू लुकारः | पंच
हु;
२--शुणणसन्धि रे
श्रदेट गुणः|. ।॥ आदशुणः ।६१८७।
है
दर
यदि थ! अथवा था? केबाद हस्व वा दीघ '£? आये तो दोनों के स्थान मैं 'ए7 हो जाता है, और यदि हस्व 'उ? या दी “ऊ' थ्रावे तो दोनों के
, थथान में 'थ्रो” हो जाता है, और यदि हस्व 'ऋ' या दीप ऋ श्रावे तो दोनों के / ध्यान में आर! हो जाता है, और यदि लू आये तो दोनों के स्थान में अल! गुण ही जाता ई; यथा--देव + इन्द्रः ८ देवेन्द्र: । यहाँ पर देव के व! में श्र! है, उसके लाद इन्द्र को 'इ” है, इसलिए ऊपर के नियम के अनुसार दोनों (देव के 'श्र' और एनं्र की ३? के स्थान में 'ए! हो गया इसी प्रकार--
न झर्र; 5 उपेन्द । ।7६+ईशः ू सुरेश: । ,या+इति ८तयेति | - (मा+इैश। रमेश: । व देव + उपदेशः + द्वितोपदेश:।
गंगा + उदकम्रूगगोदकम् | पीन + ऊछः पीनोदः । देव + झपिः ८ देवापिः ! महा + ऋषिः > महू: । तब + लूकारः तबज्कारः दत्यादि |
#परण के अ्पवाद--
्कछ (अत्तादूट्टिन्यामुपसदख्यानम् वा०) श्रत्ञ
प्रैगीनी दे और अत्तौदिणी बनता है।
+ऊदिनी में गुण न होकर व्द्धि
(पादीरिरिंणो: वा०) जब स्प शब्द के बाद इए और स्वैसी ।
के
िटग ०
ः
(आदूद्दोढोब्य पेप्येषु बा०) जब प्र के बाद ऊडें, ऊढ, ऊटि, एप, पप्य आते प्रऊऊटभ्न्प्रौद मर ब्रौदः। हैं तब गुय न होकर वृद्धि होती है, प्र * ऊटि। >प्रौढिः । ये दो उदाइस्य आदुदयुय/ के अपवाद हैं। ४४ 3
छ।
प्र+ एपः ज प्रेपः । प्र + एप्वः > प्रे्यः ।यह रूप एडिपररूूपम का अपवाद ६
उपसर्मोददति घादी ।६ १६१ यदि अरकारान्त उपठर्ग के बाद ऐसी घाव आवे जिसके आदि में हस्व “ऋ' हो तो अर! और ऋ के स्पान में थार!
हो जाता है,
यथा--उपर + ऋच्छाव - उपाच्छात । यदि नामघातु हो तो “थआार'
विकल्प से
यथा--प्र + ऋषमादात 5 प्रापमायांत, यति,
मात
च्रतादई)।
प्रधमायत
(ैल
का
पा
झाचर रु
पह
(ऋते च तृतीया समासे वा०9) जब ऋव के उाय छिसी पूबंगारी शब्द छा तृतीया सम्यस हा तद भी पूर्वंगार्मी अद्धान्त शब्द के मिलकर यार! होगा ऋर
ऋत्यकः
ओर छत के छत
।6१२८। (ऋति परे पदान्ता अऋकः प्राग्वव) &आ, इई, उ ऊ,
ऋ ऋ तथा लू जब किसी पद के अन्त में रहें और इनके बाद हस्व ऋ आावे तब
पदान्त अक दिकल्तय से हत्व दो जाते हैं, यइ निप्रम गुझ रुन्धि का विकल्द उपस्पित करता है, यया-ब्रह्म + ऋषिः 5 द्रह्नाए८ ऋषि:। सतत ऋषीएान -्स्झ्यप्रार, संत ऋषपाराम
जरा स्ति आकर
लकी
श्झवृद्धिसन्धि बृद्धिरेचि ।$। १-5 वृद्धिरादच ।शराश ७9)यदि अर आओ के बाद सदि दो या '
४2
६ कि
या ्ेए आये तो दोनों के स्थान में लि और
आदें तो दोनों के स्थान में औः-इद्धि हो जाती है; जैसे--
अद्य + एवं अद्येव | +४ देव + ऐश्य मर८देवेधयम । ठया+ एड जतथैद | जिद्या + ऐश्वरम्८विद्येशबयरू
तसडुल +ओोदनम्+ठरइलौदनम समझ + ओऔपधि: ८ महौपतिः ध८! महा + ऋौपधन्-महौपघम् ्श
इतादि।
अपपापभनियनादाह पररूपम् इाताइट अचारान्त उपसर्म के दाद एड्आरादि या ओऊझाशादि घातु आदेतो दान के स्थान में ए या ओो' हो जाता है, यया-हय्र + एजते >प्रेजते । उर+डपोष॑ति; किन्तु यदि नामबातु ऋआवे दोविछझल्प से बृद्धि होता है(वा रुरे)
+छडडीयति ८उपेडद्धीपति, उपैडकछीदत ] प्र +ओशबीयति>प्रौपीयतति, घा०) एड़केराय मी जद अनिश्वय का बोब हो तद
न
बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
प्रवंगामी थ्रकारान्त शब्द का अ? और एवं का ए? मिलकर 'ए! ही रह जावँगे, जैसे--क्व + एव भोक्ये ८क्वेव भोद्यसे (कहीं खाओय)॥। जब अतिश्वय लहीं
रहेगा तब (ए! ही होगा, वधा--तब + एवं >तवेब । (३) (शकन्ध्यादिपु पररूप॑ वाच्यम् घा०।तच्चट+ घा०) शक + अन्य), कुल +|, मनस् +$पा इत्यादि उऊदाहरों मे मी परवर्ता शब्द के आदि स्वर का ही अस्तित्व रहता है। पृवरवर्त्ती शब्द के टिका लोप हो जाता है। इन में दो उदाहरण ध्यूकः संवर्ग दीय:! सूत्र से होने वाली सबण दीघ्र सन्धि के अपपाद हैँ, यथॉ--
मार्त +झण्टः >मार्तस्ट:,, कक +अन्धुः ८ककन्युए,.. शक + अन्युः #्शकरधुः, कुल +श्रटा >कुलठा ।नस +ईया रू भनीपा | (ञआ) (सीमन्तः केशवश) वालों में माँग के रथ में सीम + अन्तः ८सीमन्तः होगा, अन्यथा सीमान्तः (दृढ) रूप दोगा ।
(आ) (ओरस्घोष्टयो+ समाप्ते धा०) सभाठ में श्रोव और ओोष्ठ के परे रहते हुए विकल्प से पररूप होता है, यधा--स्थूल + झ्रोतः ८ स्थूलोनुग, स्थूलौतुए। विम्ब +
ओएः + विम्बोष, विग्वी5:। (इ) (सारडः पशुपक्षिणों) पशु-पक्षी के झथथ में मार+गअद्नः अन्यथा साराज्ः रूप वनगा |
हर
सार,
४--यणसन्धि
इकोयणाचिं।803७
22222
(९) जब हम्व इ या दीब ईके वाद इ,६ को छोड़कर कोई दृसरा स्वर झ्रावे तब ३? *६ केस्थान में यू द्वो जाता हे (५) उब उ या ऊ के वाद उ, ऊ को छोड़कर कोई दूसरा स्व॒र आंच तब ड,
ऊ! के स्थान में व! हो जाता है, _» ३) जब कर या क के बाद क्र ऋ को छोड़कर कोई दूसरा स्वर झ्रावे तब आव्य! के स्थान में 'र! हो जाता है, उस--
(१) यदि 5अपिलन यद्यपि । नदी +उदक्म् ८नद्दक्म् | इति+ झाह ८ दृत्याद ।_/ ग्रति+ एकम
्ब्डी
(7)- श्र + अब: ; गुरु + आदेश: ८गुबदिशः शिशु +ऐक्यम् 5शिश्वैक्यम् ।
>प्रत्येक्म् । /
प्रति +उपकरारः -यत्युपफार:]
"वा
,
(3)--पिल् + उपदेश:
मातृ+अनुमति: ८सावचुमति:
> एवोइयबायाब+ [$0७८।
देश:
पिश्ुपदेशः
लु+श्राहृतिः न लाॉफति: |
-अ्रयाद्रि,चतूछस
ए, ऐ, थो, औ, के बाद जब कोई स्वर झ्ाता ईद तब 'ए! के स्थान में शा
थ्रो! के अब / के ओआय! और श्र! के स्थान में द्रव! हो जाता है, जैस्े--
सन्धि-प्ररस्ण श्षे+ अनम् ८ शयनम् ।
१७ मो+अति ल् मयति |
ने + प्रनम् ८नयनम् ।
बटो + झा. + वटदइक्ः । -
नै+ थक
पौ+ अर पाये: इत्यादि |
८नायक । ४
(१) लोपः शास्ल्यस्य ।दाण। (६।
पदान्त बू या यू ज् ठऊ प्रय॑ यदि श्र था आ रहे ओर पश्चात् काई स्वर आये तो यू और व् का लध्ष करना था न रूरना अपनी इच्छा पर निर्भर रहता है, जेसे--हरे + एहि >हरयेदि या हर एहि। . विप्णों+ इह ८पिष्णविह या तिष्ण तस्वै . इमानि ७
(१) थदसो मात् 0१२
हर
न
जब श्रदम् शब्दके मकार के वाद ई या ऊ थआते द तब प्रयष्म होते हैं, यधा-
'अमी ईशा), अम्आसाते ) _, ' (२) निपात एकाजनाइ ।॥ ४६४ आाड_के थठिरिक्त अन्य एक स्वरात्मक श्रव्य्यों कीभी अरब संता होती हे, वया-ह इन्द्र, सेउमेश, आ एवं नु मनन््यसे ।
३) औओबू 8११५
जब व्यय ओकारान्त हो तब शो को प्रणक्ष कदते है, यथा-ग्रहो ईशाः ।
(४) सम्बुद्धो शाकल्यस्थेताबनाथें ।ध११६।
संज्ञा शब्दों केसम्बोधत के अन्त के ओकार के याद 'इति' शब्द आये तो सम्दुद्विनिमित्तक ओकार को विकल्प से प्रणक्य संता होती है, यथा-पिष्णों दति «विष्णों इति, विष्णविति, विप्ण इति।
|५७) प्लुनों झे साथ भी सत्थि नहों होती-यया-एढदि कृष्ण ३ अन्र गौअरति ।
; व्यज्ञन-सन्धि हे +4-सतोः श्चुना रचुः टाशश्ग यदि तवग से पहले या वाद में श्हल.या चवर्ग श्रावे तो से5 को शूश्रीर तब
पेय लुकोच्, दुफोज्,नकोभ् शरीर मुफोश) वेसे--
उतू +चरितम्-सचस्तिम्| सत्+चित्८शुसित् छद् +जनः ८खजनः क्स्कचितू ८ कपमरित् (2 पतत्+जनस् रूएतजलम | बृहद्+मरः ० वृहज्मयः सयुक शत ८ हरिश्देते |उत्+ चारंणम७उद्यासणनशाहञिन +कप ८शालचय
सन्धि प्रररण ६--शात् 6४४४
श् के याद तबग को चवर्ग नहीं होता है, वधा-प्रश् +नविश+न >विश्न ।
प्रश्न |
१०-पडुना प्ड" ।॥८४४१९ स् या तबरग से पहले या याद म प् या तयमे कोई भी हो तो सूको प् ओर तबर्ग को ब्यर्ग होता है। (त्कोट,दू कोड्, चुकों ण्ओऔरस कोप)
यथा-रामस + पष्ठ रामप्पष्ठ
|इप्+त ८३
| डदू+डीन >उड्डीन
रामस् + टीऊते-रामष्टीक्त |दुप + ते ८दुए
पिप +नु विष्णु
पेष् + त्ता
कृप् +न ऋूकृष्ण
पेश
तत् + टीका
११--(क) न पदान्ताद्रोस्नामू
ऋतद्दीफा
दाष्ट७-।
पद फे अन्तिम टवर्ग फेयाद नाम छोड़कर स् और तब को प् और टयग नहीं होता है, यथा--पट् + सन्त पट सन्त | पद+ते पद ते। (ख) (अनामूनवतिनगरोणामिति वाच्यम् वा०) ट्वेग के बाद नाम, नवति, नगरी हों वो “प्हुनाष्र ” के अहुसार इनके न्कीण् होता है और आगे आनेवाले सूत्र (यरोड्नुनासिके जगदीश | उत् ऊदेश्यम्८उद्देरयम्
१४-भला जशू सशि ।दशणश।
पट +आानन बुद्धि लभू +घ >लब्ध द+घ
८ दग्घ
द्राप + वा >द्रोग्चा
चृध्
+धि “वृद्धि
सिघ् +थि
>सिद्धि
आरम्+धम् ८ आरब्पम्
छुम+ध - छुब्ध
१५--यरोअ्लुनासिकेडलुनासिको बा।टाशएण। पदान्त यर् (ह के अतिरिक्त सभी व्यक्षनों) केयाद यदि अनुनासिक (वर्ग का
र्०
बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
पंचम अछर) हो तो यर को अपने बग का पंचम वण हो जाएगा। यह निवम ॥ पर निभर रहता है । (त्यये भाषायां नित्यम् वा०) प्रत्यय के म॒ श्रादि के बाद में होने पर यह नियम ऐच्छिक नहीं होगा, अपि तु नित्य लगेगा । सत् + माच्रम् ८ तन््माचम् दिक्+नागः ७ दिदनागः |सद् + मतिः ८ सन्मतिः कसत् +कन् ८ तन्न
पद्
तत् + मयम॒ 5 तन्मबम्
+ नंगः न पन्चगः
एवत्+मुरारिःएतन्मुरारि/ पद +मुखः ८ परमुखः
बाक+मयम् ८ वाइमयम्
१६-तोलि ।दश६ण तवग के बाद लू आयें तो तवर्ग को भी ल हो जाता है| (त् या द्ू+लरः
सल, न्+ल लल) जैसे-तत् +लयः ८ तहल्यः | तत् + लोन > तल्लीनः
|
उद्4लेख: ८ उल्लेख: विद्वान+ लिखति > विद्वाल्लिखति
(७--छद स्थास्तम्भोः पूर्वत्य ।६08९॥ डद के बाद, यदि स्था या स्तम्मू धातु दो तो उसे पू्व॑सवर्ण होता है अधथांत्
स्था और स्तम्म के स् फो थू होगा और वाद में “भरो भरि खबरें” के श्रनुसार थ का लोप॑ हो जायगा, थया--उद् +स्थानम्८उत्थानम्। उद् +स्तम्भनम उत्तम्मनम् । दू को “खरि च” से तू ।
१४-मणोे भरि सब्णे ।52६५। व्यंजन के घाद सबरणण भार हो तो भर (बर्ग के प्रथम, द्विरीय, तृतीय और चतुर्थ अछ्ूर और शा प स ) का विकल्प ते लोप होता है, यथा--उंद् + थ् थानम्+ उत्यानम्। रन््धू + धः ८रन्धः ।कृष्णर् + घविः ८ कृणर्विः।
३६--मयो होडन्यंतरस्याम् ।5॥४।
मय (वर्ग के प्रथम, दितोय, हृतीय ओर चतुर्थ अक्षर के बाद ह हो तो उसे दिक्य से पूवसवरण दोता है, अथात् पू अक्षर के दग का चतुथ छक्षर ( घ् ,भू टू, घ्, मू) दो जाता है। (कूयागू+ह>ग्ख, व् या दू+ह४5) वागू+ हरिः > बाग्यरिय, बारूरि!। तदु+ द्वितः+ तडितः। श्रच् + हुस्वः ८अज्कस्व
आपए+ इरणम् >अब्भरणम् |
२०--खसरि च ।८॥४/५५। बावसाने ।52५६॥ मल अनुतासिक व्यक्षन छू मद गून्) तथा अन्तस्थ बणों को छोड़फर श्र किसी व्यश्नन,फे बाद यदि खर (क ब्,चूछ,टद
त्थ्,प्फ्)में से
कोई बण आचे तो पूर्वोक्त व्यज्ञन के स्थान में चर् अयात् डसो वर्ग का प्रथम
अज्नर ही जाता ई, परन्तु जब उसके बाद कुछ भी नहों रहता तब डसके स्थान में ग्रथम या तृतीय वश हो जाता है, यथा--सद + कार > सत्काट,, सुद्दद +करीड़ति
+मुहन्कीदति | तज़ + शिव:
तब्लिव: | दिए + पाल: दिक पालः
पएलठ कोई वश आये न रहने पर--रामात् , रामाद् | बारू ,बाग् |
सन्धि प्ररुरण
सर
२१-शश्द्योडटि ।505३ पदान्त कय
५
(उर्ग के अथम, द्वितीय
हु
ढुतोय, चतुथ अक्षर) के बाद श्हदोतो
उससे छू हो जाता है, यदि उस शू केयाद अट् (स्वर, ई , यू, ब, २)हो तो श्
को छूहोते पर पयववा द् को “स्तो चुना इचु ” से जु और ज॒का “खरिच' से
च्, प्बंबती त् हो नो “स्तो झचुना इसे चू। यह नियम चक्ह्यिक है, बधा-+ तद्(तव्)+ शिव 5 तब्छिव तब्शिव |सन् + शील. > रुच्छील तद् (तत्)+ शिला ८ तच्छिला, तच्शिला उत् + श्राय 5 उच्छाय
(छत्वममीति वान्यम् बा०) है 30९२ श्केदाद अम् (स्वर, ह, अन्त स्थ, वर्ग का पद्मम दर) हो तो भी श् को ५
व) विकल्प
से छहोगा। तत् + श्लोरेन ८तच्छनोफेन, तच्श्लाकेन ।
२-मो5लुस्थारः न झरेइ।
है
हु
यदि बाद में काई हल्दर्णहो तो पदान्त म् को अनुत्वार (-) हो जाता है, परन्तु बाद म स्प॒र हागा ता अनुस्वार नहीं होगा, यया-हरिम् + बन्दे ८ हरि बन्दे सत्यम्ू +वद् सत्य बद
कायम् + कुछ ८ कार्य कुछ
घमम्+चर > धर्म चर
२३--नश्वापदान्तस्य मलि ।नाशर्ष्ट
है
बाद में कल (बर्ग क प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ अच्तर) हो तो अपदान्त च् और म् को अनुस्वार (-) हो जाता है, यया-यशान्+सि>यशासि। प्रयानु +सि >पयासि | नम्+स्यतिनत्यति। आक्रम्+ स्थते + भ्राकस्वते । यह नियम पद के बीच में लगता है ।
२४-अलुस्वासस्य ययि परसवर्णः जैश५5।
अनुस्वार के अनन्तर यय् (श,प, स, ह को छोइऊर सभी व्यजन) हो तो अनुत्वार को परख्वर्ण (अगले वर्ग का पत्मम वर्ण) हो जाता है, यथा-थअ+कः ८ अड्ड श+कान्शहझ्ा
अ+ चित. ८ अश्वितः कु+ठितः- कुण्ठितः
शा+तः ८ शान्तः गु+ फितः न गुग्फितः
२५--ा पदान्तस्य 5४५६ पद् के अन्तिम ग्रनुत्वार के अनन्तर यय् (श, प, उ, ह को छोड़कर कोई भी
व्यज्ञन) हो तो अनुस्वार को पस्सवर्ण विकल्प से होगा। यह नियम पदान्त झे लगता है,यया--त्व + करोषि त्वझ्रोपि, व करोषि । ठूणम्+चरति - ठूण चरनि या तृणअरति | आम +गच्छुति >प्राम गच्छति या आमद्गच्छुति
२६--भो राजि समः् को दशा
सम् के अनन्तर राज शब्दहो तो सम् के म् ज्वो म् ही रहता है, उसके
जज॒त्वार नहीं होता, यया--सम्+राट-समप्राट् |सम्राजौ, सम्राजः ।
+७--इणोः हफूडुक्शरि दान रद
डया श्केअनेन्तर शर्(श, प, स))े तो विफल से वीच से कया ट् जुड व
सर
बृददून्यनुधाद-चन्द्रिका
जाते ई। इ के दाद छू और ख्के वाद द्। प्राइ+प्ठः ८ प्राइजषष:, प्रइपढ:।
मुगस +पछ ८ मुगशदुघघ्र, मुगशघछ्ठः ।
>
इन-डः सि घुद ।दाई। रहा ड के अनन्तरस॒ होतों बीच में घ्विकल्प से जुड़ जाता है। प्वरि च से ध् कोत् और पृर्ववर्ती ड्को टू । पड+सन्तः ८ पटत्सन्त:, पद्सन्तः । २६-नश्व ।ददासण
न्के वाद सह्दों तो बीच में विकल्प से शूजुड़ जाता है। “खरि चर से ध
को ह् होता है, यधा--सत् + स: ८ सनन््तस:, सनन््सः ।
३०--हि हुझू 2४११8 पदान्त न्केअनन्दर श हो तो विकह् से बीच में त् छुड़ जाता है “शशद्योडदि/ से ग् कोछू । सब +शम्भः «सजच्छम्मुः, सज्छम्मुः ।
३९-डमो हस्वादचि डमुण नित्यम्।८/३।३२| हस्व स्वर के थाद ड ण् न्होंओर वाद में कोई स्वर द्वी तो बीच मे एक
ड, श्,न और जुड़ जाता है, यथा-प्रत्ययू+आत्मा 5प्रत्यदटात्मा । मुगण+ इशः >मुगणणीशः | सन्+अच्युतः र सन्नच्युतः । ३४--समः छुदि ।दाआथा अचाजुनासिकः पूर्वस्य सु बा ।जरेर) अन्नाहुता
सिकात्परोषतुस्थारः ।ल्१४ (संपुकानां सो बक्तव्यः वा०)
सम+स्कर्ता में मूकेस्थान पर र् द्वीकर स् हो जाता है तथा उससे पहले
अगुस्थार (-) या अतुनासिक ( *) लग जाता
| बीच से एक स्छुप्तमी हा
जाएगा। सम+ स्कर्ता ८ सेंस्कर्ता, सम+ कृघातु हीनेपर इसी भाँति # स्लगाकर सम्वि होगी, वथ्वा--सस्करोंति, संस्कृवम्,संस्कार: झादि ।
३३--पुम+ खयम्परे ।586 यदि बाइ में कोझिल;, पुत्र; आदि हों तो पुम् के म् को र द्वोकर “समः सुटि”
पे सू दीजायया, स् से पदले + था लग जाएँगे, यथा--पुम् +कॉकिल। पुंरफोकिलः | पम्+ पुत्र: पुंरयुतरः
३४--नश्छन्यप्रशाव #श७
पद के अन्तिम मूकोइ (५सम) दोता ई, यदि छब् (च्,छ,दू, दूत,
थ्)बाद में ही आर छबद्केअनस्तर अरम् (ल्वर, दे, अन्तःस्थ बर्ग केपंचम
श्र) दो तो । प्रशान् शब्द में यद नियम सर्दी लगेगा । न् को स होने पर उससे
पहले + या” लग जाएँगे। इस विप््म का रूप होमा-न् +छवबू«* स् +छुव,
वा+सू+छप् |शचुल की प्रति होने पर “लोस्जुना श्चु/ के श्रनुसार हीहोगा । करिमिन्+चितू # क्त्मिश्िंत् चनन् + टिट्विमः क चलशिट्टिम: महान्+छेदः «मद्दाएेदः चतिन्+भायस्व 5 चक्सायरव तर्मिन्+बरी ८ तरिमस्तरी
प्रवन्कतद्ध: - पनंस्तुद+
सन्वि-प्कस्ण
र्३्
३५-- कानाम्रे डिते ।5३१२। कान्+ कान् में पहले कान् के न्कोर होकर स् होगा और उससे पहले ”या
- लगेगा। कान्+कान्5कॉस्फान् ,कास्कान् ।
३६--(अ) छे च ।६।१।७३। हस्व स्व॒र के बाद छू हो तो बीच में त् लग जाता है और “स्तोश्चुना रचुः” से त् फोच्हो जाएगा, यथा--स्व॒ + छाया 5 स्वच्छाया। शिव + छाया ८ शिवच्छाया । स्व॒ + छुन्दः ८ स्वच्छुन्दः |
एञआ) दीवातू ।६।१।७७। दीघ स्वर के वाद छ हो तो भी वीच मे त् लगेगा, त् को च् हो जाता है, यथा--चे + छिद्ते 5चेच्छियते । ई) पदान््तादू था ।६।१७६॥ पद के अन्तिम दीघ अक्षर के वाद छ हो तो
पिकल्प से त् लगेगा, यथा--लक्ष्मी + छाया ८लक्ष्मीच्छाया, लक्ष्मीछ्ाया ।
(3) आइसमाइेश्व
।६१७४। आ और मा के वाद छ हो तो नित्य त्
लगेगा। त् को च् हो जाता है, यथा--द्रा + छादयति 5श्राच्छादयति ।
न ३६७--ससजुपो रेमाराहह।
क
>_ हक
पद के अ्रन्तिम सू को रु (र ) होता हैं तथा सजुप् शब्द केप्को भी रु होता है । (विशेष--इस रु ( २)को साधारणतया अगले नियम से विसमे: ट्री होकर दिसर्ग ही शेप रहता है।) यथा--राम-+-स् ८रामः, कृष्ण +स् ८कृष्ण: विस को “ग्रतोरोसप्लुतादप्लुते” “हशि च” “भो भगो०” सू्ों से उ याय् होता है।
जहाँ उ या य् नहीं होगा, वहाँ र् शेप रहता हे ।अतः श्र आ के अ्रतिरिक्त अन्य स्वरों केबाद स् या विसग का र् शेय रहता है, वाद मे कोई स्वर या व्यजन (वग के द्वितीय, तृतीय, पचम अक्षर) हों तो| यथा-हरि; + अवदत् ८हरिर्वद्त् वधू: + एपा ८ वधूरेपा
शिशु; +आगच्छ॒ुत्८शिशुरागच्छ॒त् |गुरोः + मापणम् > गुरोम[पणम् पिठुः+ इच्छा 5 पिवरिच्छा
हरेः + द्रव्यम् -हरेट्रव्यम्
इ८-खरबसानयोर्विसजनीयः ।घा३।१७ा यदि आगे सर (बग के प्रथम, द्वितोय अक्षर या श पर) होया कुछ न हो तो २का विसग होता है, यथा--पुनर ८पृच्छुति5 पुनः एच्छुति | राम+स
(२) ८रामः। विशेष-पु० शब्दों के प्रथमा एक० में जो विसग रहता है, वह
स् का ही विसग है, उसको “ससल्ञुप्रो से र् को विसग (: ) होता है । ३६--विसूजनीयस्य सः ।८श३४।
5.” से रु (र) होता है और“सरवसान०?
विश्ग के बाद खर (वर्ग के प्रथम, द्वितीय अक्षर या शप स हो तो विसर्ग
कोसूदो जाता है। (श्या चबवर्ग वाद में होतो “स्तोश्चुना श्चुः् से श्रुत्व सन्वि भी होती है), यथा--
रद
बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
विष्णु: + चायते ८ विष्णुख्रायते बाल: + तिष्ठति 5 रामस्विएठति कः + चित् ८ कश्वित् ४०-बा शरि ।ढ११३१६।
| हरि: + त्राता +हरिस्ताता बाल: +चलति 5 वालश्लति गज ३ तिएन्ति +ू गजास्ति४ठन्ति ।
विस्ग फे वाद शर् (श, प, स) हो तो विस को विस या स् विकल से
होते हैं। श्लुत्व या प्डन्ब यथाचित होगे, वधा--
हरि: +शेते ८ ह रे'शेते, दरिश्शेद्धे
|खम:्क एछ:८ समष्ण४५
राम +शेतेजरामःशेते, रामश्शेते |बालः+स्वपिति > वालस्स्वपिति
४१--शर्परे दिसजनीयः ८२५!
यदि विसर्ग के बाद आने वाले खर्प्रत्याह्यर के वर्ण के बाद श्प्स_
में में कोई एक अक्षर आवे तो विसग के स्थान में स्नहीं होता, यथा-कः + त्सरु: ८ कः स्सरः |
४२--सो5पदादो ।5/३।३८। पाशकल्पककाम्येप्वितिवाच्यम् |वा०। पाश, कल्प,
क और काम्य प्रत्यय वाद में हों तो विस को स् हो
जाता है,यथा--पंयः +- पोशम + पयस्पाशम |यशः + कल्पम्नयशस्कल्पम। यशः-कम् ८ यशस्कम् | यशस्काम्यति । ४३-इण पः ।८११६।
पाश, कल्प, क, काम्य प्रत्यय बाद में हों तो विस को यदि वह विसर्ग इ, छ
के बाद हो तो प्हो जाता है, यथा--तसर्पिष्पाशम् ; सर्पिप्कल्पम् , सर्पिप्फम् ।
४४--कर्कादिषु च ।४३।४८ कर्क आदि शर्ब्दों में विसर्ग सेपहले अ्या आरा हो तो विसग को स् होता दे, यदि इण् (इ, उ) हो तो प् होता है, यथा-कः--फः ८ कस्कः | कीत/--कुतः 5 कौतस्कुतः | सर्पि:|-कुश्डिका८सर्यिप्कुश्डिका | पनु;-|-कपालम्८
घनुष्कपालम् । भाः-+ कर:८ मास्करः । ४५--नमस्पुर सोगत्योः हशि४ेणे यदि कवग्ग या पवर्ग परे हो तो भतिसंशकू नमल् को विकल्प से और पुरस के विश्वर्ग को नित्य स् होता दै। (क धातु वाद में होती दैतो नमस , पुर,
गतिसंशञक दोते ६), यथा--नम।+ करोतिं + नमस्करोति या नमः करोति |घुरःके करोति ८ पुरस्करोति |
४६-इदुद्युपधस्य चाप्रत्यवस्य ।5३॥४९ उपधा (श्रन्तिम बर्ण से पूवंवश) में इया उ दो और बाद में कवर्ग का पवर्गं
हो सो इ याउ के विस्ग को प्होता है। यह विम्र्ग थत्यय का नहीं दोना चादिए, यथा-नि+अत्यूइम् «निष्पत्यूइम् | निः+करान्तः ८ निष्झान्तः) शआविः केइतम् >थ्ाविष्कृतम | दु४+ झृतम् < दुष्कृतम् |
४७--विस्मोउन्यतरस्थाम 5 श्र] यदि तिस्सफेबाद क् सू, प् प्र श्रार्ें तो विसर्ग को स्विफल कर्म
से होता
३
सन्धि-अकरण
5 पथा--हिरः+ करोति 5 तिरस्करोति, तिरःसुरोति |तिरः + झृतम्«तिरस्कृतम्, विर; इृतम् |
४८४-इसुसोः सामप्ये [प/श४७। है 23 पवर्ग परेरहनेपर इस और उस् के विसर्ग को विकल्य से प् होता है। दोनों पदों में मिलने की सामथ्य होनी चाहिए, वी प्होगा,
यथा---सर्प: + करोति >सर्पि्करोति, सर्पिष्फरोति | धनुः + करोति >धनुप्केरोति, घनु'करोति ।
४६--नित्यं समासे&नुत्तरपद्स्थस्य।5/३।४५।
९
५
समास होने पर इस और उस्के विसगे को नित्य घ् होगा, कवर्ग या पवर्ग
परे रहने पर। इस और उस् वाला शब्द उत्तरपद (बाद के पद) में नहीं होना चाहिए, यथा--सर्पि; +कुरिडका * सर्पिप्कुरिडिका ।
५०--हिडिश्वर्तुिति इत्वोष्थ ।पशश्श यदि वार-वार वाचक द्वि,, नि और चतु। क्रिया-विशेषण अ्रव्ययों के परे
कण, १ फुआयेंतो विसर्ग के स्थान में विकल्प से प् होता है, यथा--
द्वि: + क्रोवि ८छ्विस्करोति, द्विप्करीति या द्विशकरोति। नि;+खादतिऊ जिण्खादति, त्िः्लादति। चतुः+पठति >चतुष्पठति, चतुशढुति, किन्तु चतुष्फपालम नहीं होगा, क्योंकि, चतुः क्रिया-विशेषण अव्यय नहीं है।
५१--अतः झृकमिकंसकुम्भपात्रकुशाकर्णी प्वनव्ययस्थ ।5३४६॥ अ के बाद समास्र में यदि रू कम् आदि हीं तो विसर्ग को स् नित्य
होता है,यह विसमे अव्यय का नहों होना चाहिए और उत्तर पद मे न होना चाहिए यथा--अथः+ कार; >अयस्कार: | श्रयः+कामः८-अयस्कामः । इसो प्रकार अपस्करा, अपस्युम्भ;, अयस्पात्रम्, अयस्कुशा, अयस्कर्णों ।
५२--अतो रोसप्जुतादप्लुते (११३
हेस्व झ॒केयाद रु (सके _ या) को उ हो जाता है, यदि हस्त अर परे
हो दो । (विशेष-इस ऊ को पूर्वर्ती अ के साथ “आ्रादूगुण/” से गुण (ओ)
हो जाता है और बाद में अ को “एडः पदाल्तादति” से पूवरूप सधि होती है |
(थवएव अर +ञ्र 5 ओड ह्वोता है |) जैसे-शिवः + अर्च्य: - शिवोड्च्य: के + अवम्+कोध्यम् बाल: + अस्ति 5 बालो5स्ति
यथः + अप रू योजपि
डपः + अवदत् +- रपोब्व दुत् देव: + अधुना < देबोब्युनारे
५३-हशि च ।३९ श्र _बद में हशू (वर्ग के तृतोय, चतु्य, पद्चम अक्तर ह, अन्तःस्थ) हो तो हस्व श्र के बाद रु (सूकेर या9 को उ हो जाता है। (विशेर--सम्विनियम “आततो सैरप्लुतादप्लुते” तब लगता है जद बादमेऋ हो और "“हरिच” तब॒ लगता है जब
र६
बृहदू-अनुवा द-चन्द्रिका
बाद मे हश् दो।उ करने के बाद “दादगुणः” सेग्र+ उ को गुण दोकर ओो होगा। ८ओ +हश्होगा, अ्र्धात् झः को ओ होगा ।)बधा-अतः अः+ हश् शिव: + वन्द्ः न शिवों वन्धचः राम१+ बद॒ति 5 रामो बद॒ति
|गजा+ गच्छुति 5 गजो गच्छूतिं दालः + हसति + बाली हसति
५४--मोभगोअपघोअपूरव॑स्य योईशि शा र या 9 को मो, भगो| श्रधोः शब्द और अर याआके बाद ८ (सूकाचत॒य, पश्चम ठृठीय, के वर्ग , अ्न्तःस्थ ह, (स्वर, अ्रश् में बाद यदि है, यू द्ोता में देखें | अर्र) हो तो | विशेष--इसके उदाहरण आगे “लोप: शाकल्पस्प” ५०--हलि सर्वेपाम् ।5३।२ कालोप श्रवरय हो भोः, भगो, अधोः शब्द और अया आर के बाद यू जाता है, व्यज्ञन के परे रहने पर । विशेष--इसके उदाहरण आगे देखे ।
पतन
५६--लोप शाकल्यस्य ।च३।१६
श्रया था पहले हो तो पदान्त यू और यू का लोप विकल्प से होता हे, अश(स्वर, ह, अन्तःरुप, बगे के तृतीय, चतुर्थ और परम अक्तर) के बाद मे होने पर । विशेष--भोश्गमोः अघो० के यू केयाद व्यज्ञषन होगा वो हलिसवेधाम” से यू कालोप थवश्य होगा। य्केवाद यदि कोई स्वर आदि होगा वो“लोप+ शाकल्यस्य से यू कालोप ऐच्छिक होगा। यू का लोप द्वीते पर कोई दीप, गुण, वृद्धि श्रादि सन्धि नहीं होतो है, यया-नरा:+ गय्डन्ति नशा गच्छन्ति मो: + देवा; रू भो देवा+ देवाः + इह > देवा इह, देवायिह देवाः + नम्याः रे देवा नम्याः मराः + यान्ति ८ नेरा यान्ति
सुतः + भ्रागच्छुति # मुत आयच्छुति
५७-(क) रोधसुपि 5स६६।
बाद में कोई मप्(विभक्ति) न द्वो तोअइन् के न् को र् द्वोता है, यथा--
अहत् +अहः +शहरहः । अदन् +गणः 5 अदगंणः । .. (ख) (रूपरात्रिस्थन्तरेपु रुत्व॑ बाच्यम्वा०)रूप, रात्रि, रयन्तर परे हों तो श्रइन् के न् को र होता है श्रीर उसको “हशि च” से उ होगा और “थादगुणः” से गुण होकर झी होगा, यथा--अदद्+रुपम्८अ्रद्दोस्पप् , अहन्नेरात > अहोरात्र: ।
इसी प्रकार श्रद्दोरथन्तरम् | (ग) (अद्दरादीनां पत्यांदिपु वा रेफः वा०) झरदर_श्ादि के र_के दाद पति
श्रादि होंतो र कोर्विकल्प से रहता है, यथा--श्रदर +पतिः-श्रहर्पतिः | इसी प्रकार गंधति।,, धूरंतिए, अन्यया विसय रहता है । ५+-से रि।-शश्ट र् के बाद र्दो तो पहले र् कालोप दो झावा है ।
सन्धि प्रररण
२७
«६-ढलोपे पूर्व॑स्य दीवोडण हाशर? शक
है
दूथीर कालोप हुआ हो तो उससे पूर्वर्ता अ, इ, उ को दीघ॑ हो जाता है,
यथा--उद््+ढ
ऊढ , लिद +ढ ज्लीद ।
पुनर्+-रमतेंपुना रमते
शसुरुर+ रूए -गुरू रुए
शिशुर्+रोदिवि-शिश रोदिति ।अन्तर+-राष्रिय:-अ्न्ताराष््रिय
६०-- एतत्तदो. सुल्लोपोषड़रोस्नअसमासे हलि ।६।४॥ १३श
स और एप के विसर्म के परे कोई व्यञ्ञन हो तो बिसरग का लोप होता है। (सके , एपक , अस अ्रनेष के विसर्ग का लोप नहीं होता है। ) (१) स +-गब्छुतिरुस गब्छुति (२) स +ग्पिजसो5पि एप +विष्णु -एप विष्णु रु +इच्छुति-स इच्छ्ति यदि नज् तत्पुरुष मं स और एप (थ्रर्थात् श्रस, अनेप ) आबे अभवा कर में परिणत द्वाकर ( सफर , एपक ) आवे तो विस का लोप नहीं होगा, अरस
पिप्णु का अस विष्णु नहीं होगा तथा एपफ गज का एपक गज
नहीं होगा,
किखु स अत >सोध्य तथा एप +अन ८ एपोड्य होगा, क्योंकि श्र हल् नहीं हे ।
६१-सोड$चि लोपे चेत्पादपूरणम्।३१११४।
स् क प्रिसर्ग का लाप हा जाता है, स्पर परे रहने पर और लोप फरने से यदि शलाक क पाद को प्रति हो । स एप >सैत्र दाशरथा राम सैय राजा युधिष्ठिर । ६२--णत्वविधान रपाभ्या नोण समानपदे । अट्कुप्बाड नुमूव्यवायेडपि ।5।2१-२। (ऋचर्णा
ऋअस्य खत्व वान्यम् वा०) ऋ ऋ २ और प् इनचार वर्णों से परे न का ण हाता
है जेस जणाम:नुणाम् , चतसुणाम् ,भ्रातृणाम् , चठ्खाम् ,विस्तोग॑म् , दाष्णम् , पुष्णाति आदि ।
अम्बर बर्श फ्वग, पवर्ग, यू ,व्, ह_, र और था और न् से व्यवधाम होने
पर य्र्थात् थेसप् याच में भी पड़ जाये तो भी न्काण् होता है, जैसे--कराग्णम् , करिणा, गुरुणा, मगेण, मूसण, दपण, रवण, गवंण, अहाणाम् इत्यादि
+ पदान्तस्थ ।508३७। पठढ क अन्त वाले न्काण् नहां हाता, यथा--रामान् , हरान् ,भुरूत् ,इच्तान्,आुन्इत्यादि |
६२--पत्व विधानां अपदान्तस्य मूधेन्य.] इए्को । आदेशप्रत्यययो- [दश५५, ५७, ५०। ग्र,
था भिन्न स्वर से अन्त स्थ बस, ह अ्रयवा कवर्ग से परे काई ग्रत्यय सम्यधा सया केइनकेअतिरिक् अरिरिततत अक्षरों ग्रतरसकेके मध्यस्थित मन्तस्वतहोने हमपरपरण् रजत नहीं होता, जताजेस-अचना, फिररीदेन, अर्थेन, स्पशेंन,रसेन, इढानाम, अजनम् इत्यादि | पैसात् प्रतय के स् का प् नहीं हाता. जैसे--नदीयात्, वायुसात् आतृसान् वहिसातु इत्यादि।
१
“ते-नदीराव, वाइलाव,
2
द्ध
बहदू-्नुवाद-चन्दिका
कसी दूसरे वर्ण के स्थान में श्रादेश किया हुआ स्आवे और बह पदान्त का ने ] तो उस स्के स्थान में प् होजाता है, यथा--रामे--सु ८ रामेघु |वने+-सु८
नेष !ए+साम् 5 एपाम । अ्न्ये+ साम्८ अन्येपाम् । इसी प्रकार मुनिष, नदीपु, पेनुपु, वधूषु, माय, गोष, स्लौपु श्ादि।
परन्तु राम +स्य ८ रामस्य, यहाँ स् कोप्नहीं हुआ, क्योंकि स् केपूव श्र हे,
ता+सुर-लतासु यहाँ मी पत्व नहीं हुआ। पेस+अति>पेसति यहाँस न तो कसी प्रत्यय का हैन श्रादेश का। पद के अन्त वाले स् काधूनहीं होता, था-हरिः ।
नुम्विसजनीयरार्ब्यवाये5:प ।5।३।५५/ भ्रनुस्वार, विशर्ग, श्, प्, स्, का
यवधान होने पर अर्थात् इनके बीच में रहने पर भी स् का प्होता है, यथा--
बींपि, धन्नंपरि, आशीशु, ग्रायुःु, चक्तुषपु आदि, किन्तु पुँंछु मेसूका प् हीं होता ।
हिन्दी में श्रतुवाद करो और विच्छेद करके सन्धि नियम बताओ-१--बविपमप्यमृतं क्वचिद्धवेदरत वा विपमीश्वरेच्छया। २३--पिवर्त्येवोदक वो मण्इकरेपु रुवत््पपि॥ ३-नाग्नित्दृष्यति काछ्ठााना मापगाना महोंदधि। ४-गशब्ययाय शूराणा जायते दि रणोत्सवः ५--श्रद्ट स ते परं मित्रमुपकारवशीकृत: ।
+-यद्भवान्मपुरं वक्ति सम्मह्यं माद्य रोचते ।७--शरदभ्रचलाश्चलेन्द्रिमैरमुरत्ञा हि
दुच्छुला: श्रियः | ८--सुखाद्य योयाति नरो दरिद्रता भृत्तः शरीरेण भूतः सा रीबति |£--को नाम लोके स्वयमात्मदोप्मुद्घाट्येत्रएप्रण: समासु | १०--विवबक्षता
ऐपमपि अ्युतात्मना त्ववैकमीशं प्रति साधु मापितम्। ११--बाल्वत्यच्र शकुन्तला तिगद सर्वेरनुज्ञायताम।॥ १२--नाहं जानामि केयूरे नाहे जानामि कुएडले । मूपुरे उमिजानामि नित्य पादाभिवन्दनातू । १३-शद्यी झुद्ध लोकविरुद्ध नाच रणीयम् । (४--किंवा5्मविष्यदरुणुस्तमसा विभेत्ता त चेत्सहस्धकिरणो धुरि ना$करिप्यत् (० स्फुटतान पदैरपाइता, न च न स्वीकृतमथंगौरवम्॥ रचिता प्रथग्रधता गिरा, |! च सामध्य मरपोदित कवित् ||
संस्कृत में श्रनुवाद करो
१-मेरा मतीजा (प्राठृब्य) इस वर्ष लखनऊ विश्वविद्यालय में संस्कृत की
एम० ए० को परीत्ा में प्रथम रदा (प्रय॑ंम इति निर्दिप्लोध्मूत् )। २--अवुद्धिमान्
हल्दी ही कण्टस्प कर लेता है श्रौर देर तक याद रखता है। ३--कोसे जल से अदुष्णेन जलेन) स्नान करो, इस से श्रापक्रों सुप श्रतुभव होगा। ४-यदि बह एप को धोना चाहता ई (प्रमाप्टुमिच्दुति) तो उसे आ्द्षण को दस गाय और एक
रैल (पमीझादश गा) देने चाहिएँ। ४--श्रमित तेजवाले और पापों सेविशुद । #मैषाकी लिप्रस्मसतिबिए च पायति[
्््“्पप77-_.
सन्धि-प्न करण
(अमितनेजस: पृतपापा) ऋषि भारत में रहते थे।#६--जितना अधिक ४९६ साहित्य का मैंने अध्ययन किया उतना ही अधिऊ मुझे अपनी सस्कृति पर विश्व। होता गया। ७--वह इतना चश्चल (तथा चपलः है फ्ि एक ज्षस भी , जा
(निश्वलम) नहीं बैठ सकता । ८-- वह मले ही प्राणों को छोड़ दे पर शत्रु श्रागे न कुकेगा।
६--अनुवाद
करना विशेषज्ञों
केलिए भी कठिन
(अनापत्करो5नुवादो विशेषज्ञ) साधारण छात्रों का तो कहना दी क्या है(कि पुनः) १०--सू्॑ पू् में उदय होता है (उदेति) और पश्चिम में अस्त होता द (अस्तमेति यह क्यन मिय्या है।
बितो परपी पपाद संस्क्त वाइमयमच्यैयि तथा तथास्मत्सस्कृतेगोरिव मं स्क्ृतेगॉरव प्रति प्रति प्रत्या प्रतयागकामं प्रणान् त्जेत् न पुनरतौ शत्रोः पुरतो वैतसो बत्तिमाश्रयेत् |
सन्ना-शब्द हमने इस पुस्तक के आरम्भ में लिखा है कि भाषा का आधार शब्द है और शब्द का आधार वाक्य | रुस्कृत भाषा मे शब्द दो प्रकार के होते हैं--
एकतोऐसे शब्द हैं जिनका रूप वाक्य के और शब्दों केकारण बदलता रहता
हैऔर दूसरे ऐसे शब्द हैं जिनका रूप सदा एकन्सा रहता है। बदलने दे शब्दों में सक्ता, सर्वनाम, विशेषण तथा क्रिया (आस्यात ) हैं और न बदलने वाले शब्दों में ददा, कदा, रदा आदि शअ्रव्यय हैँ तथा 'पढितुम! 'कृत्वा! ब्रादि क्रियाथों केरुप हैं| संस्कृत भाषा में ३ पुरुष होते हैं--(३) प्रथम पुरुष, (२) मध्यम पुरुष और (३) उत्तम पुरुष | हिन्दी मे केवल दो वचन होते हैं,किन्तु संस्कृत में एक बचन
ओर वहुवचन के श्रतिरिक्त द्विबचन मी होता है। सज्ञा शब्दों के तीन लिड् होते हैं--इुल्निज्ञ, खोलिज्ञ और नपुंसक लिड्ड | हिन्दी में कर्ता, कर्म आदि सम्बन्ध बतलाने के लिए, सशा शब्द केअथवा सर्बनाम शब्द के आगे ने, को, से थ्रादि जोड़ दिये जाते हैं, किन्तु संस्कृत में इस सम्बन्ध कोबतलाने के लिए; सशा या सर्बनाम
का रूप ही बदल देते हैं, जेसे--शोपालः ( गोपाल ने ), गोपालम् ( गोपाज् को ) श्रादि | इस प्रकार एक ही शब्द के अनेक रूप हो जाते है| प्रथमा, द्वितीया से
सैहूपूबातमीतक सात विभक्तियाँ होती हैं। *७)
भिन्न-भिन्न कारकों कोबतलाने के लिए प्रातिपरदिकों में जो श्रत्थय जोड़े जात
हैं उन्हें'हुपः कहते६।इसी प्रकार भिन्न-मिन्न काल की क्रियाश्रोंकाश्र बतलाने
के लिटमदन मर नो जाते है, उन्हें उनलि तिद्टूकहते है। सुप और तिड् को ही विभक्ति कहते ६ और सुबन््त और तिडन्त शब्दों को ही पद कहते हैं। ष्ना
विभक्तियों के मूल रूप
विभक्ति प्रषमा
] ने
एकवचन स््)
द्विबचन झौ
बहुवचन अस् (श्र)
द्वितीया छतीया
कौ, से, के द्वारा
अम्र् एन
श्रो भ्याम्
ये मिः
चनुर्धो
के लिए
ए्३
भ्याम्
भ्यः
१. अकारास्त, इकारान्त, उकारान्त और कऋकारान्त शब्दों को दीप होकर बन्त न ग जाता फ् री न्त मेंमें ८(हो जाता है,जेसे--रामान्, इरीन् श्रादि। २. इकारान्त, उकाशन्त ओर ् ऋफारास्त शब्दों के श्रन्त में 'ना? होता है, जैसे--कविना, खाधुना | है. प्रकारान्त शब्द के अन्त में द्याव! होता दे, जैसे-उ्पगए़,। क्र
संश-शब्द
एकवचन
अथ
विभक्ति
आव्* से का, फे, की सस््य
पश्चेमी पष्ठी
मे, पर
सप्तमी
दर
३*
द्विवचत
म्याः भ्याम् ओस (झोः) . श्राम्
ओस (ओः)
अकागन्त पुल्लिज़॒ (१)राम ६.
प्र० राम+ (राम)
रामो (दो राम)
स(प)
-
रामा; (बहुत राम)
द्वि० रामम् (राम को ) रामौ (दो रामों को) तृ० रामेण (राम से)३ रामाम्याम् (दो रामों से). च० रामायु (सम केलिए) रामाम्याम् (दो रामोंकेलिए) १० रामात् (राम से) रामाम्थाम् (दो रामों से). प० रामस्य (रैामफा,के,की) रामयोः (दो रामों का)
स० रामे (राम में, पर).
रामयोः (दो रामों में)
रामान् (रामों को) रामैः (रर्मों से) रामेम्यः (रामों केलिए) रामेम्यः (रामों से) रामाणाम् (रामों का)
स० है राम (दे राम)४
हे रामौ (हे दो रामो)
है शमाः (दे रामो)
शमेषु (रामों में)
भाँति 8, इनके रूप चलते हैं-हकराम528की00220: 4५9:208:49+:08 मक्ता--भगत मयूर:--मोर प्रश्ः--सवाल शिष्यः--वैला सूय:-दूरज क्रोश+--कोस
नरः-मनुप्य बाल+-बालरक है
उवश्-खुत
जनकः--पिता
चन्द्र:--चाँद
लोक:--ससार या
सगः+-पक्षी
अनलः_---आाग
सुए--देवता
हुपः--राजा १. इकारान्त,
धर्म:--धर्म
उफ्रारान्त और ऋफारान्त शब्दों के पश्यमी और घष्ठी ये
एकवचन मे 'इ? 'ऊ' और ऋ” को गुण होकर 'स्? का पिसंग होता है।
२. इकारान्त तथा ठकारान्त शब्दों के रु्तमी केएकवचन में ओऔ! और
आजऊाणन्त के
अन्त
में
याम
हो जाता ह्दै4
हरे, स्परें (अ,आ, इ, ई आदि), ह,य्, व्, २, कबगे (क, ख ग्रादिं) पर्र्ग (4, के ग्रादि) आ और न्के बीच मे आने पर भी रू, ऋ, ऋ और “प! रे बाद न ऊा 'ण! हो जाता है (अट् कृप्वाड नुम् व्यवाय>
विदुष्रि है पिद्दन् हे दिद्वा हे विद्वासः विद्वसबे क्ा त्लीलिग शब्द “विडुपी” है। उसके रूप नदों के समान दूोते हैं।
१०२-लघीयस् ( उससे छोदा ) एुद्धिंग
प्र० द्विर
लघीयान् लघीयासम्
लघोयासौ लघीयानौ
लघीयासः लपीउसः
तु०
लघीयसा
लघीओरेम्याम
लेघीयोमिः
चु० प०
लघीयसे लघीयसः
लघीयोसाम् लघीयोम्पाम्
लघीयोम्यः लेघोयोम्यः
प०
लघीयसः
लबीयसोः
लघीयमान्
स॒ु० स०
लघीयसि हैंलघीयन्
लघीयसोः है लघीपासौ
लेघीयःरु, लघीपस्लु है लबीयातः
इर्सी प्रझार, गरोवस् (अधिक बड़ा ), द्वढीउच् (अधिक मजबूत ), प्रयीयस (अधिक मोटा या बडा ), द्वाधीयस ( अधिक लम्बा ), भेयम् इत्यादि ईंयस् प्रत्यप
से दने हुये शब्दों के रूप चलते हैं । लघीयम ,गरीयस् झ्रादि के छीलिंग शब्द द्राधीयर्सी इत्यादि बनते हें और वे नदी के रुमान होते प्र० द्वि० तू० च्०
श्रयान् श्रेयासमू अयसा अयसे
अेयासा श्रेयासौ ओपोम्याम् अयोध्याम्
अयासः श्रेयसः श्रेयोमि३ भ्रेयोन्यः
प् घ०
अ्रेयसः अयसः
अ्रयोन्याम् अ्रेयसोः
अेयोम्प: अ्रेयचाम्
सु०
श्रेयसि
स०
हे भ्रेयन्
ग्र० द्वि० व
दोः दोः दोषा दोष्णा डा दोष्से
न्नडे
ओवसोः है श्रवायी
| अरेयस्सु श्रेयःसु है श्रेयातः
१०४-दोस् [ भ्रुजा ] पुँछ्लिंग दोषौ दोपौ दोस्याम् | दोषस्याम् दोस्पाम |दोषम्याम्
दोपः दोष), दोष्य: दोमिः दोपमिः दोम्यः दोषम्प:
द्ष्द
बृह॒दू-अनुवाद-चब्द्रिका एकवचन दोषः दोष्णः
ह्विचन | दोर्भ्याम् दोपम्याम्
वहुवचन |दोम्यः दोषम्यः
सछ9
दाष्णः दोषि | दोष्णि
दोष्णोः दोपीः | दोष्णोः
दोध्याम्् दोष्पु दोशु
स०
हे दोः
हेदोषी
है दोषः
के
बडे
दोपः
दोपीः
दोपणि
दोषाम्
दोषपु
१०५-अप्सरस[अप्सरा |ख्लीलिंग प्र० द्वि०
अष्सराः अप्सरम्,
अप्सरसी अष्सरसौ
अप्छरसः श्रप्सरसः
सू० च०
अप्सरण अत्सरसे
अप्मरोभ्याम् अप्प्रोम्याम्
श्रप्सरोभिः अप्सरोध्या
प्०
अप्सरसः
अप्सरोम्य(म्
शप्स रोम्यः
प० स०
अप्सरसः श्रप्सरसि
अष्सरतो: श्रप्तरसो;
श्रप्सरसाम् अप्सरस्मु
स०
दे अप्सरः
है शप्सरसी
हे झ्प्सरता
श्रष्रस् शब्द का प्रयोग प्रायः वहुबचन में होता है।
१०६-आशिस् [आशीवांद ] स्लीलिंग प्र० द्वि० तृ०
ओआशीः श्रोशिपम् आशिपा
श्राशिपी आशिपी आशीर्म्याम्
आशिपः आशिपः ओआशीर्मिः
प० प्० स० स०
श्राशिपः आशिपः आशिपि है श्राशीः
आशीर्म्याम् आशिपोः आशिपोः दे श्राशिपौ
आशय: आरशिपाम् आशो:पु, भ्राशीष्मु है श्राशिपः
च०
आशिपे
आशीरम्याम्
श्राशीम्यः
१०७-मनस्[मन ) नपुंसकलिंग प्र० द्विण्
भनः मनः
मनसी मनसी
मनासति मसनाहि
लृ० च्०
मनसा मनसे
मनोम्पाम् मनोभाम्
मनोमिः सनोमः
प० च०
मनसः मनसः
मनोम्याम् मनसोः
मनोग्यः मनेसाय
सक्षा-शब्द
६६
एकबचन
ध्विच्न
बहुवचन
स०
मनसि
मनसोः
मनस्सु, मनःसु
स०
है मन:
है मनसी
है मनासि
इसी प्रकार नभस ( आकाश ), अम्मस् ( पानी ),
आगस ( पाप ), उरस
( छाती ), पयस् ( दूध या पानी )रजस् ( घूल ), वयस् ( उम्र ) पक्षस् (छाती),
अयस् ( लोहा ), तमस् ( अधेरा ), बचस् ( वचन, बात ), यशस् ( यरु, कीर्ति ) तपस ( तपस्या ), सरस (तालाब ), शेरभ_(शिर ) इलत्वादि शब्दों केरूप
चलते हैं ।
१०८- हविस [होम की चीन ] नपुंसकलिग प्र० द्वि०
ह्विः हृविः
हृविशी हृविषी
हवींपि हवींपि
तृ०
हृविषा
हविर्याम्
हविर्भिः
घ०
हविपः
हृविषोः
हविषाम्
स०
हृविषि
हविषोंः
हृविःपु, हृविष्पु
स०
है हृवि
है हविपी
है हबींप्रि
प्र०
धनु
दृ० च० पा
घनुपा घनुपे घनुपः
धनुपी
घत॒र्भ्णम् धनुभ्पमि् धलुभ्याम्
धनूषि
घनुप. धनुषि
भनुपोः धनुपो:
घनुपाम् धमुःप, धनुष्पु
च्० प०
द्वि०
8 स०
०
इविपे हृविपः
ह॒विर्भ्याम् हविभ्याम्
हविम्यः हृविभ्यों
०९-घनुस् [ पनुप ] नपुंसकलिश्
धनुः
है धनुः इसी प्रकार वषुस्
धनूषि
धर्तुर्मिः धनुम्यः धनुम्य:
है धनुपरी हे धनूपि (शरीर ), चक्तुत् (ऑस ), आयुस् (उम्र ), यज॒स्
( यजुवेंद ) इत्यादि 'उस! मे अन्त होने वाले शब्दों फे रूप चलते
हकारान्त पुल्लिग ११०-प्रधुलिह [ शहद की मक्खी या भौंरा ]
अे
मधुलिदू -लिइद्
मघुलिहौ
मघुलिहः
हि धर
मधुलिहम् मबुलिदा
मघुलिहौ मघुलिड्भ्वाम्
मधुलिहः मधुलिड्मिः
च०
मधुलिहे
मघुलिडमभ्यान्
मधुलिड्भ्यः
७०
बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
प्कब इन
द्िवचन
प० प्र०
मधघुलिह: मघुलिदः
मधुलिइस्याम् मंघुलिंदोः
वहुबचन
स०
मधुलिदि
मधुलिंदोः
मधुलिथ्मु-लिद्त्मु
स०
दे मइलिद्
है मघुलिददौ
हे मधुलिहः
प्र
अनडबान्
अनडवाही
अनइवाहः
हिं० लू ख्ु० प्०
अनडवाइम् अनडुद्द अनहडुददे अनडुहः
अनडबाही अनइद्म्याम् अनूुद्भ्याम् अनडुदम्पाम्
अनडुहः अनइबद्निः अनहुद्म्यः अ्नडुद्स्धः
प्र०
अनडुहः
अनडुद्दीः
अ्नडुद्याम्
स०
अनडुह्ि
अनडुद्दीः
अनडुत्मु
प्र० ड्ि०
डपानवू-ठपानदू._ उपानहम्
उपानही उपानद्दी
उपानह उपानहः
लृ० च० प०
उपानहा उपानदे उपानहः
उपानदम्धाम् उपानदुम्याम उपानदुम्पाम्
उपानदूमि। उपानदता उपानदुश्पः
प० स०
सपानदद उपानहि
डपानद३ उपानहीः
उपानद्वाम् उपानतु
सं०
है उपादत-द्
है उपानहौ
है उपानह।
मधुलिदस्तः मधुलिद्याम्
१११-अनइह् (वैल ) पुँछिक्
स०
है अनइवब्
दे अनड्वादी
हे अनइवादः
११६-उपानह [ जूता ]स्ली लिंग
संज्ञा शब्दों के सम्बन्ध में कुद्द व्रातब्य थार्त संजाएँ मुण्यतः ३ प्रकार की होती हैं:--( के ) व्यक्तिवाचक सजाएँ, (ख)
जातिबाचक सजाएँ तथा (ग ) भाववाचक संजाएँ |
(क) ध्यक्तिवाचक संज्ञाएँ कुछ व्यक्तिवाचक मंजाएँ ऐसी होती हैंजा। हिन्दी और सस्कूत में एक समान
रदती हैं,उन्हें तत्मम कहते हैं,यथा-(१) काश्मीरदेशों सूल्वगः (काश्मीर संसार मैं स्व है। ) (६३) प्रयागम्य थ्राम्रलामि ग्रसिद्वानि (इलादाबाद के अमरूद धसिद्ध ई। ) (३ ) चुनास्स्य झतात्राणि मारते वरिख्यातानि सन्ति (चुनार के मिद्ठी के
बरतन भारत मैं प्रद्धिद ई । )
सक्षा-शब्द
छर्
(४) काश्याः कौशेयशाटका जगद्विस््याता ( काशी की रेशमी साइ्ियाँ सखार
मे प्रसिद्ध हैं। ) (५) यूरोपीयप्रदेशात् बायुवानेन बृत्तपत्राणि भारतमायान्ति ( यूरोप से समाचारपत्र वायुयान द्वारा मारत आते हें । )
(६ ) ह्िमालयाद् गज्ञा निमन््छति ( हिमालय से गज्ञा निकलती है। ) (७) शान्तिनिक्तन वोलपुरविश्रामस्थानस्य बोलपुर स्टेशन के समाप है। )
समीपम्
(शान्तिनिकेवन
(८) महेखोददी हो. प्राचीनतमानि प्राचीमतमानि वस्वूनि भूम्या निर्गतानि ( महेंजोदाइ में जमीन के नीचे से बहुत पुरानी वस्त॒र्णे निकली हें । ) कुछ व्यक्तिवाचक सशाएँ ( तद्धव ) हिन्दी में ऐसी ईं जिनका सस्कृत में थोड़ा सा परिवर्तन करके अनुवाद किया जाता है--
(,१ ) पुरा मौयवशोकूवाना राश्ा राजधानी पाटलिपुत्रमासीत् ( प्राचीनकाल में पटना नगर मौर्य राजाओं की राजधानी था | )
(२) वद्नदेशीयास्तर्डुलप्रिया
मवन्ति (बच्चहाली चावल बहुत पसन्द
करते हैं ।) फल्काक5 (३ ) जयपुरे सड्भमरमरस्य चित्रकर्म प्रसिद्धम् ( जयपुर मे सद्भमरमर की
चित्रकारी मशहूर है। ) (४) आगरानगरे यमुनातटे ताजमहलं जगद्विस्यातम् ( आगरा मे यमुना तट पर ताजमहल ससार में मशहूर है| )
(५ ) सिन्धोस्यधिक जलम् ( सिन्धु नदी में बहुत ज्यादा पानी है । ) ( ६ ) रणजितसिंहः पश्ननदस्य शासफ शासक था| )
आसीत् ( रणजीतसिंह पहुाय का
(७ ) गठदेशे श्रीवद्रीशस्य मन्दिरमस्ति ( गदवाल मन्दिर है। )
मे श्रीबद्रीनाथजी का
(८) पुरा तक्तशित्तास्थाने जगद्विस्यातो विश्वविद्यालय आसीत् ( पुराने जमाने मे तक्षशिला में अतिविर्यात यूनिवर्सिटी थी । )
(६) रातदु, विपाशा, इणबदी, चन्द्रभागा, वितस्ता, सिन्धुश्व पद्मनदे विद्यन्ते
(शतलज,
व्यास, रावी, चुनाव, जेहलम और सिन्धु नदो
पञ्ञाय मे हैं। ) हरहिन्दी भाषा में कुछ ऐसे शब्द हैं,जो दूसरी भापाश्रों सेआये हैं और कुछ से हैंजो सस्कृत से कुछ सम्बन्ध नहीं स्फते, उनका सस्कृत अनुवाद ज्यों का त्योंकरना चाहिए, किन्ठु कुछ ऐसे भी शब्द हैं जो विदेशी भापा और सस्कृत से कोई सम्बन्ध न रखते हुए भी सस्कृत लेसकों मे प्रचलित हो गये हैं। उनको बदलने में कोई क्षति नहीं, बथा--
छ्र
बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका (१ ) कलकत्तानामक॑ भारतविस्वात॑ नगरम् (कलकत्ता भारत में मशहूर शहर है। )
(२) भोंदूमलः प्रयागे प्रसिद्धः बणिक् (मोंदूमल इलाहाबाद में प्रसिद सौदागर है। )
(३ ) एस० एम० रज़िकस्य कानपुरे चर्मव्यापारौडस्ति (एस० एम० रज्िक का कानपुर में चमड़े का व्यापार है । ) (४ ) जापानस्य व्यापारविषये महती उन्नतिरस्ति (जापान ने ब्यापार में बडी उन्नति की है | ) ड (५ ) यवनदेशीयः सप्नाद अलकेन्द्रोभारतमाजगाम (ग्रीक सप्नाद अलेग्नेशडर
भारत में आया था। ) (६) मानचेस्टराद भारतमायातिस्म वस्प्रम् ( मानचैस्टर से कपढ़ा
भारत
को थ्राता था । ) (्४) जबिस्कोनाग्नों गामानाम्नशच मज्नयोमल्लयुद्धमभवत् ( जविस्को और गामा का जोड़ हुआ हुआ था। )
( ख् ),ज्ञातिवाचक संज्ञाएँ कुछ जातिवाचक शब्द ऐसे हैं,जिनके पर्यायवाची शब्द भो उनके स्थान पर व्यवहत हो सकते है,यथा-मनुष्य, राजा, प्रजा, पशु, पत्ती, पुरुष, ल्लीआदि।
उदाहरण--स एवंशजा (शप॥ भूष) यस््थप्रजाया। सुखम्(राजा वही है; मिसकी प्रजा सुखी है| )
परन्तु विड़ला, मालवीय, सैयद आदि शब्द सस्कृत-अनुवाद में व्यक्तितायक सश्यओं की भाँति प्रयुक्त होते है,यथा-"बिडलोगाहः घनश्यामदयः (घनश्यामदासु विड्ला । ) झुछ देशी या विदेशी शब्द आवक रुस्कुत मे कल्यित रूप से प्रचलित हो गये है, उनऊा अनुर्वाद प्रचलित शब्दों में होगा, यथा-१--राष्ट्रपतिः--प्रेसीडेंट६-साज्वपरिपदू--काउठिलि आफ ३--प्रधानमन्त्री--प्राइम मिनिस्टर |
३--विधानप्रस्पिदू-छेजिस्लेटिय
स्ट्ट्म ॥
१०--प्रदेशः--ग्राविस । काउसिल । ११--वाष्पयानम्-रेलगाढ़ी । ४--विधानसभा--लेजि० अ्रठेंबली । १२--सचिवुः--सेक्रेटरी । ५--विपयनिर्धारिणी ख्रमा--सब्तेफ्ट १३--जलयानम्--जह्ज | कमेटी । पु १५--वासुवानम्--हयाईजहाज | -फीयंकारिणी समा>--एस्जक्यू१४--रा|ध्यपाल:-गवर्नर । “दिये कमेटी । १६--कुलपति:--चान्तलर | “मणइलम्--जिला । १७--उपउुलपतिः--बाइस-चान्सलर | “तोफ समा--पालियामेट । १८-मुपमस्तरी--चीफ मिनिस्टर ।
द्द
संशा-शब्द
१६--विद्यालय:--कालिज ।
ण्रे
२४--शिक्षोपक्षालकप-इडिप्टो डाइरेक्टर
२०--विश्वविद्यालयः-दयूनिवर्सिटो । आऊ एजकेदब | २१-प्राघ्यापक-प्रोफेसर | २६--शिक्ला-निरीक्षुक:--इन्स्पेक्टर २२--अध्यक्ष+--स्पीकर । आह स्कूल्स। २३--अ्रपीक्षक:---सुपरिंटेंटेंट । २७--द्विवर्िछि--दारसिकिल । २४- शिक्षा-सश्चालत्रः (निदेशकः )-- २८--जलान्तरितयानम--सवमैरिन
डाइरेक्टर आफ एजकेशन ( पनडब्बी ) परन्तु मोटरकार के लिए 'मोटरयानम' और कोट के लिए कोटनामर बुखुप' ही लिखना उचित है। हु पिद्धली-प ( गे) भाववाचऊ संज्ञाएँ विद्वत््वं च नृपत्व॑ं च नैव सुल््य॑ कदाचन ( विद्वस्व और राजल हरमगरिज चरावर नहीं। ) तत्व ज्ञानमेदैतावद् आीत् (उसका ज्ञान ही इतना था। ) अरहयोगान्दालनस्प का्यक्रमे बहुबः प्रस्तावा आसन् ( नानकोशापरेशन मूव-
मेंट के प्रोग्राम में बडुत से रेजोल्यूशन थे । ) कुछ अन्य माववाचक संज्ञाओं के उदाहस्ण--
१--बुजं छुनच्छनिति वापकणा: पतन्ति ( निशनन््देद 'छुनछुन' ध्वनि करके आँमुओझरों की इूँदें गिर रही ६ । )
ई--स्पाने त्पाने मुखरककुमो मांकृतैर्मिकंराणाम् ( स्थान-स्थान पर मरनों
की फ्लाइत ब्वनि से दिशाएँ गूल रहो थीं। ) ३--क्षशल्तनकुकिड्लियंऋणमणायितत्यन्दनेः (रथ पर टकराकर सोने की
किंकिशियाँ मनन््फन कर रही
घी।9)..__
४--धनुष्ठझ्भारो दूस्तोजपि श्रूवते (धनुप्र झा टंकार दूर से भी मुनाई देता है। ) ' ४--ऋप॒राणाना शिक्षित मउरम ( जेबरों की घ्वनि बहुत ही मनोहर थो। ) ६--क्ष्व श्रूषदे पदपुदानां रकारः ( भौरों ही घ्वनि कहाँ नुनाई देती है ? ) ७--गजाना हूहितेन सिंहाना नादेन च वनमेबाकम्पत ( हाथियों को चिंघाड़
और रिंदों की गर्जना से जगल ही काँप उठा | ) ८--चस्णसिंदेश्वीव घृष्ठता विद्यते (चुस्युसिद में बड़ी टिठाई््है| )
स्यगाम्माय_ज्ञाउमपुलमन् ( समुद्र कौ” गहराई कठिनता से है3322 22020030 203.
६-सनुद्वस्य
जानी जाती ६। )
१०-खल्यं बद (सच बोल | )
3]
स्वनाम-शब्द सबोदीनि सबनामानि |॥ २»
न
सर्व शब्द सेआस्म ,द्ोनेवाले शब्द # सर्वनाम कहलाते हैं। “सबंनामों शब्द का श्र्थ है वह शब्द “जो किसी सज्ञा के स्थान में आता है।” इन्द्र समास को छोड़कर यदि अन्य किसी समास के अन्त में ये शब्द आते हैँ तो उनकी
ओऔ सर्व॑नाम संज्ञा होती है। (तदन्तस्यापि इयं रंज्ा )सवनाम शब्दों में विशेषण एवं कुछ सशावाची शब्द भी थाते हैं।
प्र
ते
अस्मद्
झहम्
आवाम्
ट्वि०
माम्, मा
आधाम् , नौ
अस्मान् , मः
च्०
मया
आवाम्याम्
झस्मामिः
पं०
मत्
झावाम्याम्
अस्मत्
प० स०
मम, में मयि
आवयो३, नौ आवयोः
अस्माकम् , ना अस्मातु
म०
सम,
युवाम्
यूयम्
द्वि० तृ०
ल्वाम्, ला त््व्या
युवाम्,वाम् युवाम्याम्
युप्मान् , व: थुष्मामिः
च्०
महाम् , मे
बयम्
आवाम्यामू, नौ. अस्मभ्यम् , मः
युष्मद्
च०
कम्बम् , ते
सुवाम्याम्
युप्मम्यम् , व
पं
चत्त्
सुवाम्याम्
युष्मत्
स०
स्वयि
युवयो;
युप्मासु
प०
तब, ते
सुबयोः, वाम्
युप्माकम्, व:
# सर्वादि मैं निम्मलिखित ३५ शब्द हैं-६-सव, २-विश्व, १-उभय, ४-उभम, ५-डतर श्र्थात् डतर जोड़कर बनाये हुए शब्द यथा कतर, यतर इत्यादि। ६-डतम श्रर्थात्डतम जोड़कर बनाये हुये
शब्द यथा कतम्न, यतम शत्यादि॥। ७-श्रन्य, स-अरन्यंवर, ६-इतर, १६-तवत्,
१३-ल्व, १२-मेम, १३-सम,
१४-स्मि, ३४-पूर्व, १६-यर,
१७-अवर,
१८-दक्षिण, १६-उत्तर, २०-अपर, २१-अ्रधर, २२-स्व, २३, श्रन्तर, २४-त्यद, २५४-त१दु, २६-यदू, १७-एवंद्ू, १८-इदम,
२६-अ्रद्स,
३०-एक,
३१०६,
३र-युप्मदू, ३३-अत्मदू, ३४-मवत् ,३४-किम् | इनमें त्वत! और 'स्वः दोनों ही अन्य! के पर्याय हैं। 'नेम' श्र का और समा सर्व का पर्याय है। समा
बुल्य का पर्याय होने पर सर्वनाम नहीं होगा। उस अवस्था में उसका रुप मर के
समान होगा। पाणिनि के यथासुस्यममुदेशःसमानम! इस यूप्र से भी स्पष्ट है। सिम सम्पूर्ण का पर्याय है। स्व! मी निज का वाचक होने पर हो सर्वनाम होता है । 'जातिवाले व्यक्ति! या 'घन' का बाचक होने पर नहीं (ल्वमशतिघरनास्थायाम)।
छ्र्
सवनाम-शब्द
#भवत् (आप-प्रथम पुरुष ) पुल्लिज्न एकव० अवान् भवन्तमू
द्विव० मपन्ती भयन्ताी
जीलिड् चहुब० एकब॒० मवृत्त प्र० भबती मवत . द्वि० सवतीम
द्वि०. भपत्यी भवत्वयी
पहुव० भवत्य भवदी
अभवता
भवद्म्याम् भवद्धि..
तृ० भवत्या
भवतें भवत
भवद्धथाम् भवद्धय भवद्धवाम् मबद्धथ
च० भवत्यै प० मवत्या
मवतीम्याम् मवतीमि
भवतीम्याम भवताम्य मवद्ीम्याम् भवतीम्य
मबत मभवति
मवतो. मवतों
मबताम् मवत्सु
प० भवत्वां स० भवत्याम्
मवत्यों भवत्यों.
हेमवन्
हेमयन्तौ
हेमवन्त
स० हे मवति
मवतानाम् मबतीपु
हे भवत्यो देमवत्य
तत् [वह ]पल्चिह प्र०
सर
तौ
ते
द्वि०
तम्
तौ
तान्
सू० च्च०
तेन त्तस्मै
ताम्याम् ताम्पाम्
ततै तेम्य
पढ
तस्मात्
ताम्याम्
त्ेम्ब
चु० स॒०
त्त्य तत्मिन्
त््यो त्यो
तेपाम् तेपु
तद् | वह ॥ नपुसक लिड्न
स्रीलिज्न
तन
ते
तानि
प्र० सा
त्ते
ता
सत् ठ्न
त्ते ताम्यामू
तानि ते
द्वि० तामर् ज्ु० तथा
त्ते ताम्पाम
त्ता तामि
तत्मे
ताम्याम
तेम्य
च० तस््वै
ताम्याम्
ताम्ब
सस्मात्
ताम्बाम्
ता
तेम्य
तेपाम्
प०
तस्या
प० तस्या
ताम्यामू
वाम्य
क्यो
तासाम्
सस्मिनू_
तयो
तेपु
स०
तस्याम्
त्या
तामु
तस्य
अनपुसक लिक्ञ में ( प्र० द्वि० )मवत् मयती भबन्ति और तृतोया से यागे पल्लिज्ञ केसमान रूप चलेंगे। मवत् शब्द प्रथम पुरुष क स्थान म प्रयुक्त हाता है, इसके साथ प्रथम पुरुष की हा क्रिया लगती है, यया--भवान् गच्च्लु
(आप जाये )।
७६
बृहदू-अनुवाद-चब्दिका
पएकच०. अबम.
पुलिंग
द्विख॒० इमौ
अइदमू [यह ] |
चहुच० एकब॒० इसमे प्र० इयम्
इमम् एनम् इसौ एनौ इमान्, एनानदि०इमाम् अनेन, एनेन श्राम्याम् एमिः तृ० अनया अस्मे आम्यामू एम्यः च० अस्थे अत्मात् शझस्य अस्मितू.
शाम्याम एम्बः प० अस्थाः अनयोः,एनयोः एपाम् प० अस्थाः श्रनयो:,एनवोः एप. स० अस्थाम्
है
एफ. ण्वो ण्ते प्र० एपा एवम् ,एनम् एतौ, एनौएदानएजान द्वि० एताम एतेन, एनेन एताम्याम् एतै:
तृ० एतया
एवसमस . एवाम्याम्
च०
एसेम्यः..
एतस्ये
एवन्मात् एताम्याम. एलेम्यः. एकस्स. एतबो-एनवोः एपामू
प॑० एतस्थाः प० एठस्पा:..
एवस्मिनू एतग्ोः्ए्नयो::एजेपु
स०
अम्नना
अर्र्प
इ्माः
इ्मे ब्राम्यामू आम्याम आमाम् अझनयोः. अनयोः
इमाः आमिः आम्यः श्राम्यः आसाम आमु
एठस्याम
स्रीलिंग ण्ते
ण्वाः
छत
ण्ताः
एवाम्यामू एवामिः एताभ्याम्_ एवाम्पः
एवाम्बाम् एवाम्पः एवगोड.. एतासामऋ एवामु
एतयो:..
उैऋसू ( बह ) ४ श्रमू श्रम
श्रमूम्याम्
अमूस्थाम
अमुप्सात् श्रमृस्याम
श्रमुष्य
बहुब॒०
इ्मे
एल [ यह ]
मु लिंग
असोी.. अमम्र॒
स्रीलिज् द्विब०
श्रम:
अमुप्मिन् अमृयों;.
अमी अमूनू
अमीमि;
- प्र० अठौ द्वि० अमुम तृ०
अम॒या
झमू छअमू
थ्रमृः - अमर
अमृम्याम्
श्रमृमिः
अमीम्ः
च०
अमुप्ये
अमीम्यः
झमृम्याम्श्रमृम्यः
अरमाप्रामु
पं०
अप्ुप्या+
प०
अमुष्याःः
अमृम्पाम्
अमोपु
स०
अनुप्पाम
अमूम्ब+
अमुयो; . अ्रमपाम् अमुयोः
अमृपषु
#नपुंसकलिंद्न में प्र०, द्विण--इठम् ,इमे, इमानि (द्वितीया एनत् , एज,
एजानि ) एल्लिद्न की माँति होते है |
गनपुसकलिड्न से एतत् शब्द छी ध्रयमा और द्वितीया विमक्तियों मे एड़न्,
एज, एतानि श्र शेप विमक्ियों पुल्लिद्न की माँति होती है।
| नपुंठफलिद्न में श्रदस् शब्द की थ्थमा ओर द्वितीया विमक्तियों में श्दः, अमू , अमृनि और शेप विमतक्तिवाँ पुंह्लिद्न की माँति होती है।
सवनाम-शब्द
छछ
#यत् ( जो ) पुल्लिग यौ यम् याम्थाम चेन वाम्याम बस्मे. यस्मात्. याम्याम् ययोः ययो«
यस्य बस्मिनू.
या
प्र०
ये
यो
७
याब् येः येम्यः येम्यः
द्वि० छू० चु० प्र०
याम् यप्रा यस््थे यस्वा*
येपाम् येघपु
प०. स०
यस््वाः यस्स्याम्
पैक्रिम (कोन ) * कर
- . पैल्िह कौ
क्के
प्र का
कम
कौ
कान...
दि० काम
केन. कसे. कक्स्मात् कस्प कऋष्मिन,.
कास्पाम् काम्याम् काम्याम् कयोः कयोः
कै वेश्या. वेम्यः केपाम क्षेघु
तृ० च० प० प० स०
या. याः यामि-
याम्याम याम्याम्
याम्यः याम्य:
सयोः थयो+
यासाम् यासु
खीलिड्न क्के के
क्काः काः
काम्याम_ काम्याम
कामिः कास्यः
काम्याम
काम्यः
कयो। कयोः
कासाम, कासु
हे
है
पु ह्लिड् एकवचन ह्विंबचचन
कया कस्पे कस्याः कस्याः कस्याम्
खीलिंग ग्चे ये याम्याम
सबं-सब
वहुबचन
एकवचन
सवः
सर्वो
सब
प्र०
सम समेंश
सर्वो सर्वाम्याम्
सर्वानू सर्वे
दि. तृ०
सबस्मै सर्याम्वाम् सर्वेम्घ:.. सर्यस्मात् स्वृभ्थाम सर्वेम्यः.
सर्वा
सर्वाम सबया
च० सब॒स्थै प० स्वस्थाः
स्लीलिड् द्विवचन पहुवचन सर्ये
सर्वा३
सर्वे
सर्वा
सवाम्याम्
सवाभि।
सर्वाम्याम् स्वाम्याम स्ृस्थाः सबयो, स्वस्थाम् सवयोः
सवाम्य: सत्राभ्यः सर्वासाम् सर्वासु
सवेस्थ सबंयो. .सर्वेपामु॒ प० स० संबस्मिन् सवंयो:. सर्वेघु ४ नपुसकलिज्ञ में यत् शब्द को प्र० द्वि० विभक्तियों में यत् , ये, यानि और शेप पिभक्तियाँ पुल्लिज्ञ की माँति होती हें। न नपुसकल्लिज्ध मे किम शब्दकी प्र० द्वि० विमक्तियों में-किम्र के, कानि और शे4र विमक्तियों पुल्लिज्न को माँति दोोती हैं ।
छ्
बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
अन्यत् शब्द ५ नपु'सक लिंग दा सम सर्वे सब| ञ्र० सम. अरबें सर्वाणि द्वि० सर्वेध. सर्वाम्याम् सब: तृ० आगे एज्लिड्स्ड केसमान रूप द्वोते हैं।
नपुसक लिंग शअन्यतू. अन्ये अन्यानि अन्यतू. अन्ये अन्यानि अन्येन. अन्याम्याम् अन््चेः शेष पुँल्लिगवत्
विशेष-- थन्यत् ( दूसरा ), अन्यतर ( दूसरा जिसके यारे में कुछ दह्ा जा चुका द्वो उससे दूसरा )इतर ( दूमरा ), कतर ( कौनसा ),कतम (दो से श्रध्िक
में सेकौन सा ), यतर (दो में सेजो मा), यतम (दो से अधिक में से जो सा), ततर
(दो में से बह सा), ततम (दो से अधिक में से वह सा) के रूप एक समान होते हैं।
अन््यत् दूसरा एकव०
पु/ल्लिंग द्विव बहुब०
अन्यः. अन्यम्
अन्पौ अन्यौ
एकब०
ल्लीलिंग द्विव० बहुब॒०
ञ्रन्ये अन्यान्ू.
प्र०. अ्रन्या द्वि० अन्याम
अ््ये अन्ये
अम्येन अन्याभ्याम् अन्वैः अन्यस्ी _ श्रन्याभ्थाम् अ्न्येम्यः.
तृ० अन्यया च« अन्यस्ये
अन्याम्याम् अ्रन्याभिः अन्याम्याम् अन्वाभ्यः
अम्यश्मात् अन्याभ्याम् अन्येम्यः.
पं० अन्यस्थाः
अन््याभ्याम् श्रत्याम्या
अन्यस्य
अन्येपामू
प० अ्रल्यस्पाः
थ्न्ययों।
श्रन्येपु..
स० अन्यस्थाम्
अ्रन्ययों: .अन्यामु
अन्ययों:
अन्यस्मित् अन्ययों:
झन्याः अन्याः
.श्रन्यासाम्
विशेष--पूर्व (बदला), अबर (बाद वाला), दक्षिण, उत्तर, पर (दूसरा), अपर
( दूसय ),श्रधर (नीचे वाला ) शब्दों केरूप एक समान चलते हैं। उदादरणश
के लिए पूर्वशब्द के रूप नीचे दिये जाते हैं--
पूवेशब्द हू
पुल्लिंग
स्त्रीलिंग
पूवं:
पूर्वी
पूरे,पूर्वा: प्र०
पूरम
पूर्वी
पूर्वानू
पूव॑स्मी
पृर्वाम्याम पूर्वेस्यः
पूरंण
पूर्वाम्याम् पूर्व:
पूर्वा
पूबे
पूर्वाः
डि० पूर्वाण
पूवे
प्वांः
च० पूर्वस्थे.
पू्वास्यास पूर्वाम्पः
ह० प्रवया
पूथ॑स्मात्पूवात्पूर्वाम्याम्पूर्व पं० पूर्वस्या।.
पूदस्थ पूवंगो: प्रवेस्मिन्,पूवें पूयोः
पूर्वपाम पे पूव॑स्याः पूर्यपु.., सा पृव॑स्थामू
पूर्वाम्थाम् पूर्वामिः
पू्वाम्णम् पूर्वास्या
पू्यों; . पूर्वासाम पूवयो।. पास
सवनाम-शब्द प्र० द्वि०
पूवं मम पूवम
तू०
पूर्वेंण
छह
पूर्वाणि पूर्वाणि पूर्वें; शेष पुलिंगवत्
उभ-( दोनों ) उभ शब्द केयल द्विवचन में होता है और तीनों लिड्नों मेअलग-अलग विशेष्य के अनुसार इनऊी विभक्तियाँ होती हैंतथा लिझ्ज भी ।
पुंल्निज्
नपुसऊलिब्ड
ब्लीलिनन
प्र० द्वि०
डमौ उभौ
उमे ड्मे
ड्मे ड्मे
तू०
उमभाम्याम्
उभाम्पाम्
उभाभ्याम्
प्० प०
उमाभ्याम् उमास्पाम्
उभाम्याम् उमाम्याम्
उमाम्याम् उमाम्पाम्
घ० स०
उभयोः डउभयोः
उमयोः उभयोः
उभयोः उभयो£
उभय (दोनों )
उभ्य नपुसक
एकउचनग
बहुयत्रण
म्र० उमयम्
डउभयानि
प्र०
उमयः
उमये
द्वि० उमयम
उभयानि
द्वि०
उमयम्
उभयान
लू०
उमयेन
चु०
उभयाय.
उभवयेम्पः
प्०
उभयस्मात्_
उमसेम्य-
घ० स॒०
शेप पुवत्।
डभये.
स्त्रिलिन्न
उमयस्य उभयेप्राम् प्र० उमयी. उभय्यः शेप नदीवत् । उभपस्मिन् उमयेपु यति ( जिनने ), कति ( कितने ), तति (उतने ) ये शब्द रुप लिड़ों मे प्रत्युक्त
होते है दहन, नित्य बुहुवचन होते हैं | प्रथम और द्वितोया विभक्तियों मे 'यति',
ऊति', 'तति! हो ऊरते हें ।शेय विमक्तियों में मिन्न रूप होते हें । यति (जितने)
तति (उतने )
प्र० द्वि० तू० च० घ० प्०
कति क््ति ऊतिमिः फतिन्या कृतिम्बः कतोनाम्
(कितने)
यति यति यतिभिः यतिभ्यः यतिम्यः यतीनाम्
स०
ऊतिपु
यतिपु
तति तति ततिभिः ततिम्य, ततिम्यः ततीनाम्
ततिपु
द्ि०
बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
सर्मनाम शब्द और उनका प्रयोग स्वनाम का प्रयोग सामान्यतया नाम्र के स्थाम पर किया जावा है जब कि
नाम को एक से अधिक बार प्रयोग करने कौ आवश्यकता होती है। एक ही शब्द की आइत्ति सुन्दर प्रतीत नहीं द्ोती । इस प्रकार नाम के स्थान पर प्रयुक्त सर्वनाम शब्द के ही लिड्ठ, विभक्ति और वचन ग्रहण करते हैं (यो यत्म्थानापन्रः से दद्वमोल्लमते ) ।
इंदमादि सर्व नामशब्दों में इृदम् ( यह ) अदस्(वह ) उ॒ष्मद् (व, दम )
श्रस्मद् ( मैं, हम ) श्रौर भबात् (आप ) इस सभो के रूप निम्नलिखित अर्थो में
प्रयुक्त होते हैं--
१--संमोप की वस्तु था व्यक्ति केलिए. इदम् शब्द, अधिक समीप की वस्तु
या व्यक्ति केलिए एतद् शब्द, सामने के दूरवर्दी पदार्थ या व्यक्ति के लिए, अदस् ओर परोक्ष (जो सामने नहीं है ) पदार्थ वा व्यक्ति को बताने के लिए वत् शब्द का प्रयोग किया जाता है। जैसा कि इस श्लौक में बतलाया गया है-#इदमस्तु सन्निक्रृष्टं समीपतरवर्ति चैतदों रूपमू। अदरुस्तु विध्रकृष्ट तदिति परोक्षे विजानीय॒त् ॥” २-जिस व्यक्ति या बर्ठु के सम्बन्ध में एकवार कुछ कह कर फिर उसके
विघय में कुछ फहना हो तो ( पुनरक्तिदौध होने से ) द्वितीया विभक्ति से, तृतीया
विमक्ति के एकवचन में, और पट्ठी तथा सस्मी विभक्तियों केछिवचन में इदम्
शब्द के स्थान में “एन! श्रादेश होता है, यथा--श्रनेन व्याकरणमधीतम् एन॑ छुन्दो5ष्यापय ( इसने व्याकरण पढ़ लिया है, श्र इसे छुम्द पढ़ाइये )। अनयोः परचिन्न छुलम् ,एनयोः प्रभूत स्वम्(इनका पवित्र कुल है, इनके पास बहुत
घन है )।
इंदम् और एनत् के वैकल्पिक #५--
पुं०-एनम्, एनी, एनाद; एनेन, एनयो: एनयोः | ख्री०-एनाम्, एने, एना; एसया, एनयोझ, एनयो३
भपुं०--एनत् , ऐने, एनानि; एनेन एनवो3, एनयोः |
३-मुप्मद् और श्रश्मद् शब्दों को द्वितीया, चतुर्थी और पट्ठी केएकवचन मैं क्रमशः त्वा, ते, ते, मा, मे, मे,' द्विवचन में क्रमशः “बाम् , नौ” और यहुबचन में क्रमशः वः, मः! आदेश हीते हैं।+५ इनको प्रयोग मे लाने के नियम ये एैं--०भ्रीशस्त्वावतु मापीद दत्ता ते मेडपि शर्म सः | स्वामी ते मेथपि स हरिः पातु वामपि नौ विभुः ॥ गुर्त वा नौ ददाल्ीशः पति वासपि नौ हरिः। सौ घध्याद्दो नम शिव वो नो ददब्ात्सेब्यो5 प्र वः स नः ॥
सर्वनाम-शब्द
हर
थे सूप आदेश ( वा, ते, मे आदि ) वाक्य या इलोक के चरण के दीहते, व वा हा, अह, एव! इन पाँच अव्ययों के योग में ओर सम्पोधन के परे, व हो
यथा--वाकषयारम्भ मे-मम रह गच्छ ( मेरे घर जाओ )। इसमे मम के स्वान कि
च जानाति (वह दुर्मट योग म--स व्वा मा के नहीं हुआ |पाँच श्रव्ययों के
हुक जानता है )। इद पुस्तक तवैवास्ति (यह पुस्तक दरोंहाहै)शा 8
मनन््दमाखम् ( हाय मेरा दुर्माय )। इनमे क्रमशः ला, माहते/ मेआईय)। न महा चलो हुए. । सम्दोधन के ठीऊ परें-बन्धो, मम आममागच्छ (माई मेरे गाँव “मम! के स्थान पर “मे! नहीं हुआ | हे
४--जब 'च” आदि अ्रव्ययों का युप्मद् , अस्मदु, के ला, ते, मा में!झरादि सक्तिस्त रूपों से कोई सम्बन्ध नहीं होता तब य आदेश हो सकते हें, यथा--कैशवः शिवश्च में इध्देवी (केशव और शिव मेरे इष्टदेव हैं )। यहाँ मे” का सम्बन्ध इश्देव से दै और “च' केशव और शिव को एक वाक्य के साथ मिलाता है।
५--जब सम्योधन के साथ कोई विशेषण हो तब युप्मद् और अस्मद् को उक्त आदेश हो सकते हें,यया--हरे दयालो नः पाहि (हे दयाल्ु हरि, हमारी रक्षा करो) |
६--सम्मान के अर्थ में युप्मद् के स्थान पर भवत्क शब्द का प्रयोग होता है, यथा--“रक्तमुखेन स प्रोक्त--भी मवान् अ्रम्यागतः अतिथि; तद् भक्षयठ॒ ( मवान्) गया दानि जम्बूपलानि? ( रक्मुख ने उससे कद्दा--मुनिएं, आप अम्यागत और
अतिथि हैं, अतः आप मेरे दिये हुए जामुन के फल खाइये ।) ७--सम्मान बोध के अभाव में भी युप्मद् के स्थान में मव॒त् शब्द का प्रयोग होता है, यथा--अहमपि भवन्त क्मिपि एृच्छामि (मेंभी आपसे कुछ पूछता हूँ) । ८--सम्मान बोध होने से कभी-कभी “मबत? शब्द के पहले 'अज' और विनर का प्रयोग क्षिया जाता है] सम्मान का पात्र यदि उपस्थित हो तो अनमवतए
और उपस्थित न हो तो 'वत्मवतः का प्रयोग किया जाता है; झैया--अत्रभवन्तः बविदाइकुवन्तु, अत्ति तत्रभवान् मवमूतिः नाम काश्यपः (आप लोग यह जाने कि भी पूज्य पाद काश्यप गोत्र में मबमूति हैं )। अन्रमवान् बसिष्ठ आशावपति
(पूज्यवाद वरिष्ठ जी आज्ञा देते हैं )। अपि कुशली तत्रभवान् कश्वः १ ( पूजनीय
कएव जी कुशल से तो हैं १ अनमबान् प्रयागीयविश्वविद्यालयकुलपतिः अभिभाषते ( ये इलाहाबाद यूनिवरसिटी के चासलर अभिमाषण कर रहे हैं )।
६--भवत् शब्द के पूर्व'एपः और “स/ का भी प्रयोग होता है, यथा--
पंप मवान् अ्रत बतते ( आ्राप यहीं हें )! उ भवान् मामेतदुक्तवान् ( श्रीमान् ने मुझे ऐसा कहा है )। अमवत् शब्द वदय्पि मध्यम पुरुष के स्थान में प्रयुक्त होता है, तथाप्रि वह खुदा
अथम पुरुष ही रहता है। पएपर और “उः के! आगे अकार को छोड़कर कोई भी अक्षर रदे तो विसग का लोग हा जाता है ।
ष्र्
बृहृदू-अनुवाद-वन्द्रिका
इन सर्वनामों के श्रतिरिक्त त्वत् , त्व, त्यद् आदि और भी सर्वनाम हैं,गिनका बहुत कम प्रयोग किया जाता है |
१०--इ'मद, अस्मत् और भवत् शब्दों को छोड़कर सब सर्वनाम विशेष्य और
विशेषण दोनों हो सकते हैं, यया--सबस्य ह्वि परीक्ष्यत्ते स्वभावा नेतरे गुणाः (सब के स्वभाव की ही परीक्षा होती है, अन्य गुणों की नहीं )। ग्तीय दि गुणान् सर्वान् स्वभावो मृच्नि वर्ततें (क्योंकि सब गुणों केही ऊपर स्वभाव रहता हे )।
इन 3दाहरणों में 'स्वस्य विशेष्य और 'सवान! विशेषश हैं। £१--सर्वनाम शब्दों के श्रागे सम्बस्धार्थ में इय! आदि प्रत्यय होते हैं,जैसे-मदौय, मामक, मामकीन (मेरे ), आस्माकीन, अस्सदीय ( हमारा ); त्वदो4,
ताबक, तावकीन ( तेरा ); योप्मक, यौष्माक्रीण, भवदीय ( तुम्हारा ), स्वीब, स्वक्रीय (अपना ), परक्रीय ( दूसरे का ); तदीय ( उसका )। कुछ और साहश्यवाचक विशेषण--माहशः, मत्सम;, ( मुझ सा ); श्रस्माहश+ अस्मत्तमः (हम सा ) ल्वाइश$, खत्सम;, (हुक सा ); युगमाइशः, सामत्ममः
( हम सा), भवादशः, भवत्समः ( आप सा ); ईहशः ( ऐसा ); कीहृशः ( कैसा)?
| +-न्यश्नवाची सर्वनाम “कौन, क्या” के अनुवाद के लिए ससहत मे 'मकरिम” शब्द का प्रयोग होता हैऔर इसके रूप तीनों लिब्ों मे चलते ई-का श्रागतः ( कौन श्राया है?), का आगता (कौन खत्री थायी है?) किमसित (क्या है १) ।क्षिम० (क्या? ) का अनुवाद “अपि” “चित” “चना” शोर “मनु! से
भी फ़िया जाता है, सथा-किमिदमापतितम् ! ( झ्रो | यह क्या झा पढ़ा ह )
झ्पि गतः प्राध्यापकः ! ( क्या प्रोफेसर साइव चले गये ! ) क्रिमप्पम्ति, क्िंशिंदस्ति श्रथवां क्रिश्यनारिति ! ( कुछ है! ) नमन जलयान गतम् ! ( क्या जहाज चला गया १ )
फ़िम् शब्द के रूपों केसाथ अंप्र! चित! चना जोड़ देने से हिसदीके
#क्िसी, कोई, कुछ” आदि श्रनिश्चयवाचक सवनाम का बोध होता है, यथा-कश्रिदागती5स्ति
कश्वन श्रागतोंटश्ति
कोई थ्राया है।
कोपि आगतोंदस्ति
किशिंदस्ति किश्वनास्ति किमप्यस्ति
इुछ है। ]
कांचिदागताडस्तिं
काननागता:स्ति काप्यागतायरित
कोई श्रायी है।
सर्बनाम शब्द
परे
१३--यत्! शब्द के साथ 'तत्? शब्द का सम्बन्ध होता है वक्तदोनित्वसम्बन्ध: ), रिनन््ठु जहाँ 'यत' शब्द उत्तर के वाक्य मे आता है वहाँ पूव के वाक्य में 'तत्” शब्द का रखना जरूरी नहीं, यथा-सोध्य तब पुत्र॒आगत'ः यः देव्या स्वकरकमलैस्पलालितः ( यह तुम्हारा वह
पुत्र आ गया जिसका देवी जी ने अपने हस्तकमलों से लालत-पालन फ्रिया। ) पोडशवर्पीया आमीत् सा ब्रह्मचारिणादा ब्रह्मचारी ने विवाह किया । )
(जों सोलह वर्षों क्रीथी उसके साथ
यत् बदामि तत् शणु ( जा कहता हूँवह मुनो )। फिन्तुश्णोमि यत् वदसि ( सुनता हूँजो कहते हो ) । १४--सस्कृत भाषा मे यह या ऐसा! का अनुवाद यत्? शब्द से होता है,
किन्तु कभी ऊमी 'इति? शब्द से भी होता है, यथा-ममेति निश्चयो यदह पठिप्यामि ( मेरा यह निश्चय है कि मैंपहूँगा )। जमन-शासकस्प हिटलरस्पेपा दशा भविष्यति इति फो जानाति सम ( यह फौन जानता था ऊ्रि जमनी के शासक हिलर फ्री यह दशा होगी । )
हिन्दी में अनुवाद करो-१--आमोपरूुएठे बिमलाप सरोडस्ति, तसिमिन््सुखं स्नान्ति ग्रामीणा।। २--
रामी राज्षा सत्तमोइभूदू | स पितुर्वेचन॑ पालग्रिला वन प्रान्जत्। ३--बृत्तन
बगनीया रमेशस॒ुता कमला नाम | तां परोक्षमपि प्रशसति लोकः | ४--ग्रमु पुरः
पश्यसि देवदारु पुत्रीकृतोध्सो इपभप्पजेन | ५--स सम्बन्धी श्लाध्यः प्रियसुहृदसी
तब्च हृदयम् | ६--सिध्यान्ति कर्मसु महत्स्वपि यत्रियोज्याः सभावनागुणमवेहि तमीश्वराणाम् । ७--यदेने णहागतेपु शपुप्वप्यातियेया भवन्ति स एपां कुलघर्मः । प८-त्तस्थच सम च पौरपूर्तेंबेसुदपायत। &-आयुप्मन्नेप वाग्विषयोभूतः स बीरः।
१०--साहसकारिण्यस्ताः
कुमायो या. स्वय सदिशन्ति समुपरसर्पन्ति वा।
११--एपो5स्मि कार्यवशादायोधिक्यस्तदार्नीतनश्र सबृत्त,। १९--एडमत्र भवन्तों
विदाह्लवन्त । श्रस्ति तत्र भवान् काश्यपः श्रीसृश्ठपदला्छनो भवभूतिनांस जातूकणुपुत्र'
सस्द्त में अनुवाद करो . *ै-पिता ने कहा--बह मेरा योग्य शिष्य है, प्रिय पुत्र है। २--भारतवासी जी घर आये हुए शत्रु का भी आतिथ्य करते है, यह उनका कुलधर्म
है। ३--इम
प्राणों केजिए मनुष्य क्या पाप नहीं करता ! ४--कोई जन्म से देवता होते हैंऔर कोई कर्म से। दोनों का ( उभवेषासपि दृयानामपि वा ) दुवारा जन्म नहीं होता । ५--जो जितको प्यारा है, वह उसके लिए कोई अपूव वस्ठ है ( किमपि द्रव्यम् )। ६-मैं अच्छी तरह जानता हूँकि आप हमारे रिश्तेदार ( सुग्बन्धी ) हैं ।७--आप
दोनों की मितरता कब से ( कदा प्रभृत्ति ) है? ८-देवदा वया अधुर दोनों हम
प्डड
वृहदु-अनुवाद-चन्द्रिका
( उभये ) प्रजापति की सन्तान हैं |इनका आपस में (म्रिथः )लड़ाई ऋगढ़ा होता आया है। ६--कहिए क्या यह आप का कसर नहीं है ! १०--ढें परमेश्वर, आप
मारी रक्षा करें। ११--क्या गाड़ी ( बापयासम् ) चली गई ! १२--वे तुम्हारे कौन होते हैं ? १३--यह हाथी किसका है ! १४--लौजिए, यह आपकी चिंद्दी है।
१५४--जों ठण्डक है वह पानी का स्वभाव है। (शैत्य हि यत् या ") १६--पूज्य
गौतमजी ने मुझे यह कार्य करने की आ्राज् दी है। १७--बुद्धिमाद लोगों की
सद्बतिं में एक अपूर्व श्रानन््द होता है । १८--जो लोगउम्हारे घर पर श्रार्वें उनसे
क्रोमलतापूर्वक बोलो । १६--उस विपत्ति काल में उन लोगों ने बड़ी कठिनता से 0 बचाया | २०--इस शुम अ्रथसर पर श्रीमान् जी क्या बोलने का सट्डह्प करते हैं!
विशेषणु-शुच्द् १-निश्चित संख्या वादक ( विश्ेषण 2 डक शब्द का अर्थ सरपायाचक्ष एक! होने पर इसका रूप केयल एक्उ्चन
में होता है, अन्य अर्थो# में दसके रूप तीनों दचनों में होते है । अल्प ( योडा, कुछ ), प्रधान, प्रथम, केयल, साधारण, समान और एक अ्रयों में एक शब्द का प्रयोग होता है । एक का बहुबचन में अर्थ होता है--कुछ लोग कोई कोई', यया एके पुदपाश, 'एकाः नाय:, 'एफानि फलानि' इत्यादि ।
एक शब्द पुजिय एक एकम् एके एजसमे एकन्मात्
नपु० स्त्रीलिग एकम्.. एका एकम्ू एकान्. एके एकश एकतनीे. एकस्ये. एकस्मात् एकल्याः
एकन्च.. एकस्पथ एफस्मिन् एकल्मित्
पा
_
एकस्वाः एकल्याम्
द्वि(दो)
पुल्लिण.. ग्र० दी द्वि० द्वौ तू» द्वाम्वाम् च० द्वान्याम प० द्वासल्याम
वषु० स्त्रीलिंग डे द्दे दाम्बाम दान्याम् द्वाम्यार
प० स०
इयोः द्दयोः
द्योः हयोः
द्वि? शब्द के रूप केवल द्विदचन में तथा तीनों लिझ्लीं में भिन्न-मिन्त दाने हैं। ०
लड़
(_त्रि (वीन 2
धचतुर ( चार )
'त्रि! शब्द के रूप केपल पहुवचन में होते हं-ञ््पः चीणि विवश. प्र० चत्तारः
चत्वारि
चतसः
आीन् ब्रिमि:.
दि० चतुरः तृ० चनुर्मिः
चत्वारिे. चतुर्कि.
चतख्चतसउमिः
चू०
चतुर्म्य:
ड्िम्यः.
जिन्म.
आीरिए ब्रिमिः
ब्रिम्पः
जिम्य
निब्ठ
चतुम्य:.
प० चतुन्याः.
चठ॒न्या।
क एक शब्द के अथ-एजोस्ल्वार्थे पघघाने च प्रथम केत्रले तथावा साधारणे समानेडपी सल्याया चर प्रयुग्यवे॥
चतदन्वः
चतसम्बः
पति दया चनुर्शब्दोंके स्पान में सख्लीलिक्न में दिल और चवद आदेश हो
जाते हैं (पिचनुरोः छिय्रा तिदचठ्छ ) 7
द्
बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
अत्रयाणाम् चयाणाम्
तिसशाम् प० |चदर्णाश |चदर्णामू, चतसंणाम्
त्रिपु
विखपु.
त्रिषु
स०
| चतुर्ण्णाम् |चनुण्णाम् चत॒पु चत्॒पु. चतसपु
चतुर (चार) शब्द के रूप भी तीनों लिश्ों में भिक्न-मेन्न और केवल वहुबचन
में होते हैं-पदश्चन्, पप् , सतद् आदि सस्यावात्ी शब्दों के रूप तीनों लियगीं में तमान
होते हैंऔर केवल बहुबचन मे होते हैं---
पश्ननू-पाँच ५” पपू-छः... संप्रत-सात पु'हिलिग, नपुसकलिंग तथा ल्लीलिंग प्र०
पंच
पट“ई
स्त
द्वि०
पंच
पद
सतत
सृ०
पंचमिः
पहुमिः
सपम्तमिः
च०
पचभ्य;
पद्म्वः
सप्तम्य:
प्
पसभ्यः
परम्या
प्र० स०
पच्चानाम् फंचसु २
अअप्टन-आठ... प्र०
द्वि० तृ० च०
आष्टो, अष्ट
प्रण्णाम् चट बह
नवन-नो लब
ससम्यः
सप्तागाम ७८ सुसमु
दरशन्-दस द्शु
अश्टी, अष्ट श्रष्टामिः, अप्टमः.
नव नवमिः
द्श दशमिः
अष्टाम्यः, थ्रष्टम्यः
नवस्यः
दशभ्याः
#श्ाम् ( पष्ठी वहु० के विमक्ति प्रत्यय ) के जुड़ने पर “ब्रि' शब्द के स्थान में
/
अब! हो जाता है ( भेखयः ) इस प्रकार तयाणाम! रूप वन जाता है।
पद छः सज्ञा वाले संस्यावाची शब्दों तथा चतुर् शब्द में श्राम् ( पष्ठी बहुबचन के विभक्ति प्रत्यय ) के पू नुका आगम हो जाता है ( पद चनुम्यश्व ) फिर रपराम्वों नो शंः समानपदे! से न छा ण् होजाता है। स्वर के आाद र श्रौरइ द्वी तो उस र या इ को छोड़कर किसी भा ब्यञ्ञन ब्ण का विकल्प करके
दिल हो जाता है,इसके अनुसार “चतुण्णामः भी होगा ( श्रचो रहाभ्या दे )॥ पसदि श्रशटनू शब्द के बाद व्यज्ञनवण से आरम्भ होने याले विभक्ति प्रयय जुडे
होती न! के स्थान में 'थ्रा' हे जाता है, किलत न! के स्थान में श्रा' का होना
वैकल्पिक है ( श्रष्न आ विमक्ती छा “अरष्टा' के बाद प्रथमा दया द्वितीया के वहुवचन के विभक्ति्यत्मयों के जुड़ने पर उनके झथान में श्री' का आदेश हो जाने पर “अष्टी! रूप बन जाता ६ । पके स्थान में आरा! न होने पर ्रष्ट! रूप बनता है( अ्रशम्प औौश) |
विशेषणु-शब्द पर च०
स्द्ठ
अष्टाम्य३, श्रष्टम्यः.. अष्टानाम्
नवमभ्यः नवानाम्
दशम्यः दशानाम्
सुर
अष्टास, अष्टसु
नवसु
दशसु
स०
है अ्शै, हे ब्रष्ट
है नव
है दश
सभी नकारान्तसख्यावाची ( एकादशन् , द्वादशन्, चयोदशन् , पश्चदशन्, पोडशन् श्रादि ) शब्दों के रूप पदञ्चन् केसमान तीनों लिज्ञों में एक ही समान
होते है। नित्य ख्रीलिज्ञ ऊनविंशति से लेकर जितने सख्यावाची शब्द हैं, उन सब के रूप फेबल एकवचन रहीमे होते हैं। हस्व इकारान्त नित्यस्नीलिज्ञ सख्यावाचक
ऊनविंशति, विंशति, एकर्विंशति
आदि 'विंशति' मे श्रन्त होने वाले शब्दों फे रूप 'मति' के समान चलते हैं। सज्या वाचक विंशति, तिंशत् (तीस) चत्वारिशत् (चालीस) पद्चाशत् (पचास)
तथा “शत्' मे श्रन्त होने वाले अन्य सस्यावाची शब्दों केरूप--'विपद्” के समान नित्य ज्लीलिड्ज होते हें,यथा--
विशरति
निरात्
चत्वारिंशत्
प्र० द्वि० तू० च० प्०
विंशनिः विंशतिम् विशत्या विंशल्यै, विशतलये.. विशत्या), विंशतेः..
चिशत् बत्रिशतम् त्रिशता त्रिशते जिंशत३
चत्वारिशत् चत्वारिंशतम् चत्वारिंशता चत्वारिंशते चत्वारिंशतः
प्
विंशत्या,, विशतेः.
निशतः
चत्वारिंशतः
स०
विशत्याम् विशती.
विशति
चत्वारिंशति
इसी भाँति पश्चाशव् के भी रूप चलते हैं। पष्ठि (साठ ) सप्तति ( सत्तर ) अशोति ( अस्सी )नयति ( नब्बे ) इत्यादि सभी इकारान्त संल्या वाची शब्दों के रूप 'बिशति! के अनुसार 'मति' के समान नित्यस्नीलिड्ञ होते हैं। पष्ठिः प्र० सप्ततिः पष्ठिम्
द्वि०
सप्ततिम्
पश्चया
सू०
स्त्तत्या
पए्वै, पष्ठये
च०
पष्ठया३, पष्ठे प० पष्ठया), से स० पद्मरपाम् , पष्ठी स० इसी भाँति श्रशीति, नवति के भी रूप चलते
सप्तत्यै, सस्तये ससत्या;, ससतेः सप्तत्या), सम्ततेः सप्तत्याम् , ससतो हैं।
बहदू-अन॒ुवाद-चन्द्रिका
व्८
संख्या १ एकः श्द्विः शत्रिः
प्रणी संख्या
पूरणी संख्या
धु० तथा नपुं०
स्त्री० प्रथमा
प्रथम:-मम्
द्वितीयन््यम्
हैचतुर्
जृतीयःन्यम् चतुथभतुरीय, छुय पंचमा
६ प्प् ७ ससन् ८ अप्टन्
प्रष्ठ सप्तम श्रष्टम
५ पश्चन्
६ नवन्
अवम
१० दशन््
दशम
११ एकादशन् ४२ द्वादशन, १३ त्रयोदशन,
१४ चतुद॒ंशन् १४ १चदशन्
एकादश दादश अंयोदश
चतुर्दंश
हवितीया तृतीयाँ अतुर्थों, तुरोया, ठया पंचमी पष्ठी सप्तमी अष्टमी नवमी
दशमी एकीदशो द्वादशों त्रयोद्शो चतुद्शा
पंचदशी
१६ पोडशन्
१७ संप्तदशन् १८ अष्टादशन्
पचदश पोडश सप्तदश अष्टादश
१६ नवदशन्
नवद्श
नवदशी
एकोनर्विश एकोनविंशतितम ऊनबिंश, ऊनबिंशतितम
एकोनविंशी एकोनबिंशतितमी
अथवा
एकोनबिंशति (छी०)
अथवा ऊनबिशंति धच्याथवा
एकाब्रविंशति
एकान्नविंश, एकान्नविंशतितम
पीडशी सप्तदशी श्रष्टादशों
कनविंशी ऊनबिंशतितमी
एकान्र्विशी एक्रान्नविशतितमी
% पूरण के भ्रथ में पट ,कतिपय तथा चतुर् शब्दों में डट् प्रत्यय छुड़ने पर भुक् आगम होता है (पटकतिकतिपयचतुरा शुक् )। चतुर शब्द में पूरण ग्र्थ में छ श्रौर यत्प्रययभी लगते ई श्राद्य श्राद्य गक्तुर (व! का लोप है। हा दै
( चतुश्छयताबायक्षसलोपश्र )। इस अकार त॒रीय और तु रूप बनते हैं ।
+ नान्तसंण्वाची शब्दों मेंपूरण के श्रथ में डट प्रत्यय झुड़ने परउसे मद आगम दोता है ( नान््तादसस्यादेमंट ) |
संर्यावाबक पिशेषण
3
२० विशति ४ २१ एकप्रिशति
विंश# विंशवितम हर एकविंश, एविशवितम
हु २२ द्वाविशति 5
द्वाविश, द्वार्विशतितम अर: अवोविशधित
भ्रयोविशति
२३
विश
वयोविंश, त्रयोविंशतितम
द्वाविशी दाविशतितमी जयोविशी तयाविशतितमी
२४ चत॒र्तिशति
चतुर्विश, चत॒र्विशतितम
चतुर्विशी चत॒र्बिशतितमी
श२५ पचविशति
न पचरविंश, प चर्विशतितम तितः
पचर्विशी पचादे शतितमी
२६ पडूविशति
प्रड्विश, पडतिशतितम
परदविशी पद विशतितमी
३५ लव: २७ संतविशति
वि; सम्रविश, सप्तविशतितम
सस्विशी सविशवितमीड
अध्याविश
अशपिशी शहितमी
नवविश नवबिशतितम एकोनत्रिश, एकाननिशत्तम
नवविंशी नवविशतित्मी एजरोनत्रिशी
८
अश्ावि
अ्शर्विशनि
२६ नप्र्विशति अधया एकान्रिशत्ू..
चत॒र्दिशवितम
विंशी, विंशतितमी एकविशी एफ़विशवितमी
>ष्शाविशतितम
आश्षया
त्र्टावि
एुकोनतिंशत्तमी
ऊननिशत्
ऊनर्तिश, ऊननिशत्तम
ऊनतनिंशी
दानवत्रिश, एकन्नतिशत्तम
एकान्नत्रिशी एकान्नर्त्रिशत्तमी
तिश, प्रिशत्तम एकर्तरिश
जिशी, विंशत्तमी एकर्िशी
एकत्रिशतम
एकर्निशत्तमी
अगवा
ऊनतिशत्तमी
कार्य एकान्ननिशत् ३० तिशत् १ एक़तिशत् 0802
३२ दात्रिशत्
६
द्वार्निशत्तम
दार्निश
दानिशी
३३ नर्याश्निशाः रु है
नवस्निश नयस्विशु्तम
नयन्तिशी नयस्निशत्तरी
पं
द्वाजिशत्तमी
# विंशति इत्यादि शब्दों मे पूरणतम के भ्रथ में विकल्प से दअत्यय लगता दै ( विशलादिग्यस्तमडस्वतरस्थाम् )और डदूमोलगता दै [ इस प्रकार इनके दो दी रूप होंगे तिश३, विशतितम), जिराई निंशत्तमः इत्यादि ।
६०
बूहदू-अनुवाद-चन्दिका
र४
चनुश्चिशत्
चतुस्तरिश
चतुश्रिशो
पंचत्रिश
पचत्रिशी
चतुस्तिशत्तम
चतुर
चत्रिशत् कि जी
पचत्रिशत्तम
पटजिंश ६
३६ पद्िशत्
चतुच्लिशत्तमा दे 2 पंचनिशत्तमो
पदनिंशी न
१३ पद नर
पद्त्रिशत्तम
ब्यटूजिशत्तमी
उततरिंशद ३७ ससजिशत्
सप्तत्रिश सम्तत्रिशत्तम अष्टत्रिश
सप्तत्रिशी सत्तत्रिंशत्तमी अश्टत्रिंशी
् आपथ्त्िंशत्तम
अशबिंशत् 43840
नवर्जिश नवरत्रिशततम
३६ नवत्रिशत् अथवा
अशष्टात्रिशत्तमी
नवत्रिंशी नवश्निशत्तमी
एकोनचल्वारिंशत्
एकोनचलारिश
एकोनचत्वारिशी
खथवा उनचलारिंशत्ू.. अथवा एकान्नचत्वारिशत् ब्नचत्वीरिं
एकोनचल्वारिशतम ऊनचल्वारिंश ऊनचल्वारिशत्तम एकाबत्यारिंश
एकोनचत्वारिंशत्तमी ऊनचत्वारिंशी ऊनचल्ारिंशत्तमी एकान्नचत्यारिंशी
चल्वारिंश ४० चल्वारिंशत्
अत्वारिश
चत्वारिंशी ्िशित्तमी
४१ एकचलारिंशत्
एक़चलारिंश एकचत्वारिंशत्तम द्वाचल्वारिंश
एकचलारिंशी एकचल्वारिंशत्तमी द्वाचल्ारिंशी
एकाननचलााव (न पदल्वारिशतम
2 चला
दत्
४२ द्वाचल्वारिंशत्ू.
अथवा दिचलासिशत्. हि
चत्वारिंशत्तम
द्वाचत्वारिंशचम हाथ द्विचलारिंशत्तम
एकाबचत्वारिंशत्तमी चलत्वारिंशत्तमी
द्वाचचारिशत्तमी दिचलारिंशी द्विचलारिंशत्तमी
च्यश्वत्वारिंश
त्रयश्च॒त्वारिशी
अझयबा
त्रयश्वत्वारिशतम
त्रयश्वलारिशत्तमी
जिचल्वारिशत्.._
चतारिश
४३ त्यश्र॒त्वारिशत्ू.
४४ चतुश्च्वारिशव् -
४४ पश्चचल्वारिशत्ू...
तिचलारिंशत्तम
लारिश
त्रिचल्यारिशत्तमी
त्रिचत्वारिशत्तमी
चतश्चलारिशी
चत॒श्चच्चारिशत्तम
चत॒श्चल्वारिंशत्तमी
अलारिंश
पं्मचत्वारिशी
पं्चचलारिंशचम
पश्चचत्वारिशत्तमी
सस्यावाचक विशेषण ४६ पदचत्वारिशत् ४७ सप्तवत्वारिशत् ड४८ अठाचलवारिंशत् अथवा अश्चत्वारिशत् ४६ नवचत्वारिंशत् अथवा एकोनपश्माशत् अथवा ऊनपचाशत् अथवा
एफान्नाश्चाशन् घ०्पश्चाशन् ५१ एक्पश्चाशत्
६९२ द्ापद्चाशत् अथवा
द्विपश्चाशत् 3३ व्यशद्याशत् अयवा जिपश्चाशत् ४४ चनुभश्चाशत्
५४ पञ्मश्चाशत् ५५ पर्पश्चाशत्
पदचत्वारिश पदचत्वारिंशतम सम्तचलवारिंश सप्तचत्वारिंशच्म अष्टाचत्वारिंश अष्टाचत्वारिंशतम अष्टचत्यारिंश अधष्टचत्वारिंशलम नयचत्वारिश नयनत्वारिंशत्तम एक्ोनपद्माश एकोनपद्चाशत्तम ऊनपाचाश ऊनपचाशत्तम एफान्नयश्चाश एहाम्पश्चाशत्तम पद्माश पदश्चाशच्तम एकपग्चाश एकपश्चाशत्तम द्वाप्चाश दापश्चाशत्तम
द्विपच्चाश द्विपश्लाशत्तम
घ्ड
पद्च॒त्वारिंशी पद्चलारिशत्तमी सप्तचत्वारिशी सत्चलारिंशत्तमी अष्टाचल्वारिंशी अशचलारिंशत्तमी अष्चत्वारिंशी अष्टचत्वारिंशत्तमी नयचत्वारिशी नवचत्वारिंशत्तमी
एफानपद्माशी एकोनपश्चाशत्तमी ऊनपचाशी ऊनपचाशत्तमी एकान्नयश्चाशी एकान्नपञ्चाशत्तमी पश्चाशी पद्माशत्तमी एक्पद्चाशी एफ्पश्चाशत्तमी द्वापश्चाशी दपश्चाशत्तमी
द्विपश्चाशी
चह॒.पद्माश चतुशब्चाशतम पशद्धपथ्ाश पञ्मपद्चाशत्तम
द्विपश्वाशत्तमी तयक्षयाशी जयशश्वाशत्तमी जिपदश्माशी जिएडए्सचमी चतुशभश्चाशी चठुभ्द्बाशत्तमी पदच्चज्चाशी पद्मप्चाशत्तरमी
पद्पद्चाश पदएश्चाथचम
पदपद्माशी पद्पञ्चाशत्तमी
अयभ्द्चाश नयभज्चाशत्तम त्रिपद्लाश
विप्ञाशक्षण
झछहदू-अठवाद-चख्धिका
धर ५४७ सतपञ्चाशत् ५८ अशपशच्चाशत् अथया अष्टपद्चाशत्
४६ नवपशञ्चाशत् अयबा
एकोनपक्टि खयवा ऊनपष्टि श्रयवा एक्रान्नपष्ट ६० पष्टि
६१ एकपप्ि ६२ द्वापप्ि अथवा द्विपष्टि ६३ ब्रयस्यट्रि
अथवा विषष्टि ६४ नतुष्पष्टि ६४. पञ्मपरप्ठि ६६ पयपणि ६७ मम्पष्टि : इठ श्रष्पष़ि अ्रथवा
सत्तपद्नाश सप्तपश्नाशत्तम अष्टापश्चाश अष्टापश्चाशत्तम अ्रष्पद्माश अष्टपश्चनाशत्तम नवपश्चाश नवपश्याशत्तम एकोनपष्ट
एकोनप्रश्तिम ऊनपष्ट ऊनयश्तिम
सप्तपञ्नाशी सप्तपशञ्माशत्तमी
अधछापशाशो अ्रष्टापद्चाशत्तमी
अष्टपर्चाशी अष्टपश्चाशत्तमी नवपश्चाशी नवपश्चाशत्तमी
एकोनपष्टी एकोनप्श्तिमी ऊनपष्टी ऊनपश्चितमी एकान्रपष्टी एकाप्नपष्टितमी पश्टितमी एकपष्टी
एकाबपए एक्यत्रपश्तिम परष्टितम एकपष्ट एकपश्टितम द्वाप४
एकपष्रितमी द्वापष्टी
द्वापप्टितम
द्वापश्टितमी
द्िपप्ट
द्विपश्ितम ब्रयप्पष्ट
चयःपश्तिम बत्रिपष्ट निपष्टितम
द्विपष्टो द्विपष्टितमी ्रयष्यट्री च्रय:पष्टितमी बिपष्टी
त्रिपष्टितमी
चतुष्पष्ट
चत॒ष्पष्टी
चवुष्पश्तिम
चतुप्पष्टितमी
पश्प्ष्ट पश्नपष्टितम
परदपष्ठ पदवश्तिम
सतपडश सप्तपशितिम अष्टपष्ट अशपश्तिम
एश्पष्टी परश्मपष्टिवमी प्रदूषष्टी परदपष्टितमी स्तप््टी सप्तपश्टितमी
ऋषापद्टी अष्टापष्टितमी
धर
सख्यावाचक विशेषण अष्षष्टि 5प प्रकार से
अकामम-पर्याप्ष, काफी
सर्वदा--सब दिन
प्रतिदिनम--नित्य अत्युत--इसके विपरात असुह्य--वलात्
सइ+साय सइसा--एकबारगी सददतिम-साथ
आर-सइले
साकम्-खाय
गरतः--सबेरे
सकृतू-एक बार
किया विशेषण अबच्यय )
सततम--बराबर, सव दिन सदा--हमेशा
श्श्
सर्वतः-चार्रों तरफ सर्वत-सब कहीं साम्प्रमम--अब, उचित
सद्य/--तरन्त
सपदि-तुरन्त, शीघ्र समन्तातू--चारों ओर सममू--बराबर-वराबर समया--निकट समीपे, समीपम--निकट
सायम्--शाम को सुष्ड- भली-भाँति स्वस्ति--आशीवाद स्वयम्--अपने आप हि--इसलिए,
समीचीनम्--ठीक
साक्षातू--आऔँखों के सामने
रुम्प्रति--इस समय, अभी
साधम--साथ
हा;--कल ( बरीता हुआ दिन )
सम्मुसम्--सामने
सम्यक-मली भाँति
समुच्चयवोधक अव्यय च (और ) शब्द प्रायः हिन्दो में दोनों शब्दों केबीच मे आता है, जैसे-->दा्धपंवंचक, खेदसूचक | किम , घिक--धिक्कार-सूचक । आा, हुम् , हम--क्रोधसूचक | हा, द्वाद्य, दन्त--शोकसूचक । जा
अड्, श्रयि, अये, भोः--अयदर के साथ बुलाने के अ्रथं में आते हैं। थरे, रे,
रेरे--निनन््दा के साथ बुलाने मे । अद्दो, ही--विस्मयमूचक |
विविध अव्यय खब्यय में विभक्ति, लिझ्र और वचन के अनुसार रूप-परियर्तन नहीं होता। श्तः तद्धित-प्रत्थयान्त, कृदन्त तथा कुछ समासान्त शब्द भी अब्यय होते हूँ| तड्ितरचासवंबिभक्ति । (१३८ तद्धितो मेंतसिलूअत्यवान्त, शलूअत्ययान्त, दा-अ्रत्ययान्त, दानीम-प्रत्ययान्त, आधुना, तहिं, कि, यहिं, रुदेः से लेकर उत्तरेद्यु; तक शब्द अव्यय हैं, थालूः प्रत्ययान्त, दिक् और कालवाचक पुरः, पश्चात्, उत्तरा, उत्तरेण श्रादि, थाप्रत्ययान्त (एकधा, द्विधा, त्रिधा आरदि ) शस्-प्रत्ययान्त (बहुश३, श्रक्वरशः, श्रल्मशः
श्रादि ) च्वि-प्रत्ययान्त ( मस्मीभूय, शुक्तीभूय थ्रादि ), साति-प्रत्यवान्त ( भस्मसाव्, अह्यासात् थआ्रादि ), ऋत्वसुचूपत्ययास्त (-द्विकत्वः, भ्रिकृत्ः ) और इसके अ्रथ में प्रयुक्त ( द्विः, त्रिः ) ५ कन्मेजन्तः ।0॥रेध ऋदन्तों में--मकारान्त शब्द श्रव्यय ड, यथा--णमुल्-्रत्ययान्त (स्मारं स्मारम्
आदि ), त॒म॒न:प्रत्ययान्त ( मोक्तुम) वया छ, ऐ, थरो, श्री में श्रन्त होने वाले, जैसे--गन्तुमू, जीयसे
( तुमर्थ प्रत्यय श्से लगा कर ), पिगरध्ये (ठुमर्थ शघ्वै
प्रत्यय ); तथा ( कतबातोमुनकसुनः 4११४० ) बत्वा (और कत्वार्थ ल्पप् ), तोसुन झौर कुसुम्प्रत्ययान्त शब्द; जैसे--गला, उदेतोः, विसुपः । प अव्ययीभावश |११४४१ अव्ययीमाव समास वाले शब्द भी अव्यय ई, जैसे--यथाशक्ति, उपगद्नम, खअधिइरि, श्नुविष्णु इत्यादि ।
अव्ययों का बाक्यों में प्रयोग अब्यय ( अर्थ )
अंग ( समोधन )
प्रयोग
अग विद्वनू माणवकमध्यापय (हे विद्वद माणवक
को पढ़ाइए )! अकस्मात् ( श्रचानक )
अपग्रतः (सामने, श्रागे)
शी
गुढः श्रकस्मादागतः ( गुझ श्रचानक था गये ) |
न जनस्याग्रतो गच््रेत् ( लोगों के श्गे न जावे )।
श्श्ह्
क्रिया विशेषण ( अच्यय 3
अचिरात् | । 5]
अचिरादेव डृष्टिमृविष्यति ( वर्षा जल्दी होगी )। एवं वर्स्यते
अतएब
।(इच्लिए)वर्णन अपर किया है ) |
(इस लिए इसका ऐसा
(६
(जो अच्छा कार्य ही उसे अद्येब कुछ यत् श्रेयः आज ही करो )। अथातो अक्मजिशासा (( झप् इसके आगे ब्रह्म के
अद्य( आ्राज ) अथ ( मगल-चिह,
आरम्म सूचक बारे में विवेचन है ) | अश्य किम ( हाँ, ठीफ शकार --चेट, प्रवदणमागतर्म्। चेट+-अ्रथ किम । ऐसी ही बात है). ( शकार-क्या गाड़ी आ गयी १ चेट--हाँ । ) अऋघुना,
अघुना जगत् शस्यमिव प्रतिभाति ( श्रव सुसार
इदानोम्
सम्प्रति-साग्प्रतम् अधः ( नीचे )
। (अगर) सना मालूम पडता है।
अधसूयजसि रत्नानि ? (क्या तुम रत्न नीचे फेंक रहे हो ) ९ अधिडत्य ( बारे में ) अथ कतम पुनऋतुमधिकृित्य गास्यामि ( किस ऋतु के बारे में गारऊं ) ! अन्तरा ( बीच में )
स त्वा माश्व अन्तरा उपुविष्ट: ( वह तुम्हारे और
मेरे बीच में बैठा है) | तमन्तरेणापि नेशोमते च सा ( वह उसके विना शोभा नहीं पाती है ) ! अन्येयु: ।(किसी दूसरे अन्वेय्ुः चन्द्रापीडः आगमिप्यति ( किसी दूसरे दिन
अन्तरेण ( विना )
|दिन).
आप्रि (शका और
सम्भावना, सरपा-_
चन्द्रापीड आयेगा )
(१) श्रप्ति जानासि देवीं बिनोदयितुम् ( क्या तुम
रानी को प्ररुन्न करना जानते हो )
वाचीशब्दोंके साथ (२) सबरपि राज्षा प्रवोजनम् ( राजाओ्रों सेसभी रुम्पूर्णता ) का मतलब रहता है )[_ अपि च (और मी अब वात और भी सुनो )। अगि 3 व्जोपओ & 27223 देविशत (देववाश्रों के पूजन सेपैदा हुई प्रिय सीते )।
अये ( श्राश्रयं बोधक ) अये देवपादप्रद्योप्जीविनोज्वस्थेयम् (खेद है कि “४ महाराज के चरण कमलों के मौफर की यह दशा है ) ? अरे, अरेरे
सुम्बोघन )
(नीच
ञरे
रे
बृहदू-अनुवाद-्चन्द्रिका
र२० हम
ृृ
अलग ( ब्यूथं, समय )
असि ( ठुम )
झस्मि ( मैं ) अहह ( खेद या बिस्मयमचक )
झद्दो (सम्बोधन ) अग्रा, ग्राम, ( श्रतीत घटना-स्मरण )
(क ) अलमतिविस्तरेण (बरस बस, रदने दो ग्
(ख्र ) अल॑ मन्लो मन्लाय |
कृतबानति विप्रियम् ( यह अनथ ठुमने किया है) | ठद्इृश्वानग्रम(मैंने यह देखा दै)। अहृह महतों निःडीमानः
चरित्रविभूतयः ६ श्रोहों !
महापुरुषों के चरित्र कोविभूति अपरिमित होती है ) । झहह कष्टमपरिडतता विधेः ( हाय रे, ब्रह्मा
की मूखता/) | अड्दो ! मधुरमार्सों कम्यकाना द्शनम् (आहा, इन कन्याश्रों कादशन कितना मुखकर है !) अद्दो | दारुणो दैवदुर्विपाकः ( हाय रे, दुर्माग्य |) (के) आ एवं किल तदासीत् (अच्छा तो बात ऐसी थी ) ! (ख ) कि नाम दण्डकेयम् ! आराम चिरस्य पति-
बुद्धोडरिमि ( क्या यह दण्डकारण्य है ! सचमुच, मैंतो बहुत देर में जागा हैं) पग्रा ( पीड़ा या क्रोध सूचक आदौर्डिद (झथवा ) इति
( क-किंसी के
आर कथममद्यापरि राज्तुसत्रासः ( अरे, क्या अब भी
राक्षशों कामय है ! ) स आगतः आ्राहौस्वित् पल्मायित: (बह भरा गया या माग गया ) । (क ) इत्सुक्था रामः बिरराम ( यदई कह कर राम
कथन को व्यक्त करने चुपहोगया)। , (ख ) तयोमुनिकुमारकपोरल्यतरः कथयति श्रक्षके लिए, ख-यह, ग॑मालामुप्याचमिदमागतोडस्मीति ( मुनिकुमारों में से एक निम्नलिखित )
कह रहा है कि श्र्षमाला माँगने आया हूँ) |
(ग) रामामिधानों दरिस्ट्युद्राच (राम नामक
हरि ने निम्नलिखित बात कह्दी )।
इतिद ( इतिहास बाचक )
इढ ( यहाँ )
क्षदव ( सहृश, सम्मयतः )
इतिदस्म आह भगवान् झआत्रेयः ( ऐसा मंगवान,
आात्रैय ने कद्दा था ) १
जास्तीह कबित् जनपद: ( यहाँ कोई गाँव नहीं है )।| (१ ) सबूहस्मतिरिव ग्रशावान् (ब६-दहसस््पति की
तरद बुद्धिमान् है )।
आय प्रणक्नः सुखीबाक्ये (ऋर० ), थ्रास्वतचावपार कल तप प झ्रास्तु स्थात् कोपरीडयोः (श्र० )।
ज
क्रियायिशेषण ( अव्यय )
१११
(२ ) पसयक्तः प्रीतेः कथप्रिव रसवेत्तु:पुरुष, ( सम्मबतः पराधीन पुरुष कैसे प्रीति के मु का स्वाद जाने ) | इत्थ जनकनन्दिनी पुनरगात् (इस प्रकार सीता फिर चली गयी )। #उत ( अथवा, या स्थाणुरयम् उत पुरुष: ( यह या तो खूडा हो रुकता तोन्या ) है या पुरुष )।उत दण्ड: पतिप्यति ( क्या डडा गिर
इत्यम् (इस प्रकार )
उत्तरेण (उत्तरकी ओर). उपरि ( ऊपर )
उभयत, ( दोनों ओर ) आते (बिना )
जायगा ) !
नगरम॒त्तरेण नदी ( नगर के उत्तर में नदी है )।
तन्रागार धनपतिण्हानुत्तरेणास्मदीयम्। मेघ० ।,० ऊपरि उड्धीयमानाइ्छौ कपोतः ( यह कबूतर ऊपर उड़ रहा है )।
ग्राममुभयत, बनानि ( गाँव के दोनों ओर बन हें )। धर्मम् ऋते कुतो मोक्ष: ( धर्म केबिना मोक्ष कहाँ )।
एकदा ( एक बार ) स एकदा आगमिष्यति ( वह एक बार यहाँ आयेगा )। एव (हो, किसी भाव अरथोध्मणा विरह्ितः पुरुत-स एवं (जी पल पर जोर देमे के लिए) रहित यही पुरुष ) | न््ध्र व राजिरेव व्यरसीत् (रात ही गुजर गयी, फिन््तु प्रेमालाप छमास न छुआ )। मवितव्यमेव तेन ( यह ता
'ैएपम् ( प्रकार, हाँ
आदि )
होवेगा ही ) | णमुवाच चन्द्रापीड: ( चन्द्रापीड ने ऐसा कहा
)।
एवमेतत् (हाँ, यह ऐसा ही है )। एवं कुमः ( हाँ हम
लोग ऐसा करेंगे )।
डर अनुमति के _._ ओमित्य॒च्यताममात्यः ( मत्री सेकह दो कि मैं ऐसा अथ में) ही कहूगा )
कथ कथमपि ( किसी
कथमपि आगमिष्यति
(बह किसी तरह भो
तरह, किसी तरह मी ) अ्यगा ) ।
कबित् ( प्रश्नवाचक, शिवानि वस्तीयजलानि कचित् ( आपके तोथ जल से आए करता हूँएक ) विष्न-्सहित तो है )६ क् ( कहाँ ) क्ल सुयप्रभवो बशः क्ूत चाल्पविषयामतिः ( कहाँ तो सय से उतर वश और कहाँ स्वल्प शान वाला मेरी बुद्धि )। #रउत ग्रश्ने वितके स्थादुतात्यय विकल्पयो: | वि०
“ण्व़ प्रकारोपमयोरगीकारेब्वधारणे |वि० । [श्रोमित्यनुमतौ प्रोक्त प्रखवे चाप्युपक्रमे |वि० ।
श्र्र
बृहदू-अनुवाद-चांन्द्रका
कामम् ( स्वेच्छाल॒सार, माना कि )
तपः के वेत्से क् च दावक वषुः ! कामं न तिप्नति मदाननंसंमुखी सा भूयिप्ठमन्यविषया उ व दश्टित्या; (माना कि बह मेरे सामने झुंह करके खड़ी नहीं होती तब भो उसकी दृष्टि अधिकांशतः किसी अन्य वस्तु को ओर नहीं है ) | 'किम् ( प्रश्न-क्यों किस तत्रैव कि न चपले प्रलयं गतासि ( ऐ, चपल देवि,,
कारण से ) !
तू उसी स्थान पर नष्ट क्यों न हो गयी ) १
किम ( समस्त शब्द
स किसखा साधु न शास्ति योअधिपम्् (जो स्वामी
खराब या कुत्सित
को उचित राय नहीं देता बह क्या मित्र है-- वह बुरा
श्र्य में )
मित्र है )।
किम, किसुत, कि पुनः (क्या कहना
है)
(१ ) एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र नवुष्टयम् ( एक
भी अन्थकारी है,जहाँ चारों हों वहाँ कहना ही क्या है ! ) (२ ) चाणक्येनाहूतत्य निर्दोपस्यापि शंका जायते किमुठ सदोपस्य ( चाणक्य द्वारा बुलाये जाने पर तो
निदोॉप को भी शंका पैदा हो जाती है, तो फिर अपराधी
पुरुष का तो कहना ही क्या हे ) ! ( ३० स्वयं रोपितेषु तस्षु उसचते स्नेह: कि पुनरंगसंमवेष्वपत्येपु (अपने लगाये हुए इत्तों के प्रति स्नेदद जसन्न दो जाता है, फिर ऋपनी संतान के ग्रति वो कहना दी क््याहे)। किल (कहते हैं, नकली (१ ) बमूव योगी किल कातंबीर्य: ( कहते हैं कि कार्य-घोषित करने के फार्तदीय नाम का कोई योगी था )। लिए, थ्ाशा प्रकट (२) प्रसह्य छिह; किल ता चकप ( नकली सिंह करने के लिए) ने उस ( गाव ) को जबदस्ती खींच लिया )। (३ ) पाथः किल विजेष्यति कुझुन्(श्राशा है कि पाथ कुद्शों फोजीत लेगा ) |
केवलम ( कि वि० छिफे, किल्तु फ्री
निपेदुषपी स्पडिल एवं फेबले ( ठिफ़ स्थडिल पर बैठती यी--विना किसी चीज के विछाये हुए )।
कभी विशेषण के
रूप में भी )
ने केबलम् ( श्रपि या
किन्तु के साथ)
वसु तस्य विसोन॑ केवल
गुणवत्तापि पर अयोजना
(न सिफ्र उसकी रुसपपत्ति डी, बल्कि उसमें अच्छे-श्रच्छे गुणों का होना मी दूसरों को मलाई के लिए था ) | खजु (क-निशचय हो. (के ) मार्ग पदानि ख्ठु तेविधमीभवन्ति (सचसुच तेरे कदम रास्ते में इधर-उघर पढ़ते हैं )।
किशविशेषश ( ऋष्दय )
श्र्३
(उस) न सल्लु न खजु बारः सब्रिग्लोडपमास्मन
खन््यायना दूचक,
अ-शिश्ठापूर्य प्रश (इसके झपर बार ने छोड़ा जाद )। (मूल
का मी श्रपमान म किया लाना
चादिए, विद्वान की तो बात
द्वी क्या --श्रमीष्ट सनौरय की सिद्धि में अनेक विप्न पढ़ते हैं|
क्रियाविशेषण ( अव्यय )
श्श३
६--मैं नहीं जानता कि अय मुझे क्या करना चाहिए:--मुके यहाँ रहना चाहिए: या यहाँ से चला जाना चाहिए। ७--चालिस दिनों से अनशन करने के कारण वह मरणारुन्न हो गया। ८--समस्त सरुसार मुझे निवेल समझता है, क्योंकि मैं किसी का अहित नहीं करता।
६--कहा जाता है कि हम लोगों कीअनवधानता के कारण राजा हम लोगों से रुष्ट हो गये हें।
१०---मैं आशा करता हूँकि आप लोगों की तपस्याएँ निर्विन्त चल रही हैं ।
११--वस्तुतः मुझे ज्ञात नहीं कि मैंने इससे विवाह क्रिया था, ढिन्तु इसे देसफ़र मेरे हृदय पर बड़ा प्रभाव पडा है । १२--यह्दी नहीं कि लोग मुझे घृणा नहीं करते, अपितु लोग मुझे भोजन भी कराते है । १३--केवल एक बार देखे हुए. व्यक्ति को मैंकमी भूल नहों सकता, फिर पुराने
मित्र को कैसे मूल सकता हू ।
१४--कहाँ तो प्रकृत्या अपरिमेय राजाओं के कार्य और कहाँ स्वल्प ज्ञान वाले मुझ जैसे व्यक्ति | १४०-मभाना हि आप में सभी उत्तम गुण विद्यमान हें,तथापि आपको उपदेश देना
मैंअपना कत्तंव्य समझता हूँ।
१६--अपने मधुर बचनों से इस प्रकार ठगकर क्या श्रब मुझे त्याग कर तुम लजाते नहीं हो ? १७--शोमेश्वर शर्मा केपास जाओ और उससे पूछो कि तुम इतनी देर क्यों रुफ गये, तय तक मैं दूसरे ब्राह्मणों को बुला लाता हूँ । श्य--यदि यह हो जाय तो आप स्वय ही निर्विष्न अपना काय करते चलेंगे और इम लोग भी अपना-गपना कार्य कर सकेंगे । १६--जो लोग धर्मानुकूल श्राचरण करते हैंओर परोपकार मे लगे रहते हैंवे ही परमात्मा की झपा के पात दोते हैं।
२०-मैं बाराणुसी से छ रेशमी वस्र, दो चाँदी केपावर और अनेक उपयोगी बस्तुएँ लाया हूँ। २१--प्योंही मैंने घर की देहरी पर पाँव रखा त्योंढी तीन आदमी मुझ पर रपट पडे और मुझे वन्दी बनाकर ले गये । २२-मणिपुर नामक नगर में घनमित्र नामक वणिक् रहता था।
२३--क्या यह सचा बाघ हो सकता है या बाघ का चमड़ा पहने हुए; कोई दूसरा
जानवर हे? २४--कौन ऐसा होगा जो अपने ही द्वा्थों अपने सिर पर विपत्ति लाने की चेष्टा करेगा १
४
बृहदू-अभुवाद-चद्धिका
२५--तुम कहते हो कि रुपया खर्च करने में देवदत यहुत ही ऋषब्ययी है। परयें, तुम स्वयं ही उससे इस बात में तथा अन्य बहुतसी बातों में मिलते जुलते हो ।
२६--अ्रभीष्ट मनोरथ की सिद्धि पर श्राप॑ सव लोगों को वधाई देवा हैँ|
२७--भंगवान् को धन्यवाद है कि दीर्धकालिक वियोग के बाद तू फिर मुभे
देखा जाता है। श८--म्ित्र बहुत जल्द मेरे जालों को काठ कर मुके बयाओ, क्योंकि यह सच ही कह्ा गया दे कि विपत्ति मित्रता की कसौटी है। २६--जिंस जगह से तुम आये दो क्या वह जगह अंचुर श्रन्न से युक्त है !
३०--कन्या सस्बन्धी मामलों में गहस्थ लोग प्रायः अपनी पत्नियों के नेत्रों हे देखते हैं! ३१-मैं स्वामी को आज्ञा पालन करने के लिए जा रहा हूँ, पर तुम कहाँ जा रदे हो !
३२--मैं इस वियय में कुछ मी बोलना उचित नहीं समझता, क्योंकि मैं इसके विवरण से परिचित नहीं हूँ। ३३--इस प्रकार लकड़हारे नेअपना आ्राण श्रौर धन बचाया, पर पिशाच पूरे
बारह बप काम में लगा रहा ) ३४--मैं जितना ह्वी अधिक इस संसार के बारे में सोचता हैं. उतना ही मेरा मन इससे विरक्त हो जाता दे ।
३४--मैं ग्राशा करता हैँ.कि आप यहाँ तत्र तक ठदरे रहेंगे जम॑ तक सोहन अपनी तीर्थ यात्रा से लौट नहीं श्रायेगा । ३६--राबंण ने अपनी तपस्या द्वारा शंकर जी को ऐसा प्रसत्ष कर लिया कि उन्होंने उसे कई वरदान दिये।
इ३७--क्या तुम नहीं जानते कि सभी मासाद्ारी परुओ्रों के पंजे हांते ई ( यावत् तावत् )।
इ८--शूटवा में वह भीम के समान है पर द्वदय की दुश्ता में वह निर्दय से निर्दय
राक्षठ को भी मात करता है । ३६--था तो बह या उसके दोनी भाई इसे करने में समय हैं, परन्त श्रन्य कोई मी व्यक्ति नहीं । ४०--सचमुच दूसरों का प्राय बचाने के लिए इस उदारचिस घुरुप के अ्रतिरिद और कौन श्रपने प्राणों को संकट में इालेगा।
४१--पश्री दो, इस पुरुष की श्राकृति कैसी प्रसस्न है।
४२--मैं सभी देवताओं को उमान भद्धा से पूजता हू, चादे ये हिन्दुओं के हो चाहे मुठलमानों के।
क्रियाविशेषण ( अव्यय )
१३५
क्रिया विशेषश-मिन्नता करनेवाला या मेदक विशेषण द्वोता है। क्रिया में
मिन्नता लानेवाले को ही क्रिया विशेषण कहते हैँ( क्रिया विशेषण नपुंसक लिड् की द्वितीया विमक्ति के एक बचन में प्रयुक्त दोते हैं,यथा-(१) तदा नेहरूमहोदयः समाया देशभक्तिविपय सविस्तरं ऋविशद च ज्याख्यात् (उठ दिन समा में पर्डित नेहरू ने देशभक्ति के विषय पर विस्तार और स्पष्टता सेमापण किया )।
(३) सुसमास्ताम् , तपोवन हातिथिजनस्य स्व गेहम् ( आप श्राराम से बैठिए, तपोवन तो श्रतिथियों का अपना घर द्वोता हे ) | (३)
साधु [पुत्र साधु रक्षित या काछुष्यात्कुलयश: ( शायास, पुत्र शाबरास
बूने अपने कुल को वद्दा नहीं लगने दिया )। (४ ) इतो हस्तदत्षियोडदक्क गच्छ ज्षिप्र विधानभवनमासादयिष्यसि (आञ्राप यहाँ से सीपे दाहिने हाथ जायें, आप थोड़ी देर में काउन्सिल हाउस मे पहुँच जायेंगे )। (५) साग्रह, सप्रश्नय चात्रमवन्त प्रार्थयेडवमवानल्ययेबस्मिन्ममाम्युपपत्ति सम्पा-
दयतु (मैं आप से आग्रह पूवंक और नम्नता से प्राथंना करता हू कि आप इस संकट में मेरी सद्यायता करें )।
संस्कृत में अनुवाद करो
१--पहले हम दोनों एक दूसरे सेसमान रूप से मिलते थे, अब आप अ्रफसर ई और मैं आपके अ्रधीन कर्मचारी |२-शिश्ु बहुत ही डर गया है, अमीतक
होश में नहीं आया हे । ३--दे मित्र यह बात हसी में कही गयी है, इसे सच करके न जानिए. ।४--दूर तक देखो, निकठ में ही दृष्टि मतरखो, परलोक को देखो,
इस लोक को ही नहीं। ५--उसने यह पाप इच्छा से किया था, अ्रतः आाचाय ने उसे त्याग दिया |६--उसमे मुे जबद॑स्तो सींचा और पीछे धकेल दिया | ७-मैं वढ़ी चाह से अपने भाई के घर लौटने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ ।८--नारद इच्छा से त्रिलोकी में घूमता था और सभी इत्तगन्त जानता था। ६--वह अ्रटक अ्रय्क कर बोलता हे, उसकी वाणी में यह स्वामाविक दोप है। १०--तपोबन में स्पान विशेष के कारण विश्वास में आये हुए; दिरन निर्मथ होकर घूमते फिरते हैं । #सविस्तारम भ्रशुद् है विस्तार ( पुं० ) वस्तुओं की चौड़ाई को कहते हैं। [साधु इृतम् से वाक्य की पूर्ति होती है| (--अब आए अफयर। 5 ईरवरों मवान्, अं चाधिष्ठितो नियोज्यः । २--बहुत द्वी--बलवत् | ३--परिद्धासविजल्पितं सखे परमार्येन न गह्मता बचः। ४--दीव पर्यत मा हस्वे, पर पश्यत माध्परम्॥ ५--इच्छा से--कामेन | ६---
चबदस्ती--हठात् , पीछे घकेल दिया--प्रष्ठ; प्राणुदत् ॥ '"--बड़ी चाह से--सोत्कए्ठम्, माई के घर““प्रतीक्षा कर रहा हूँ---रहं प्रति भ्रातुः प्रत्याइत्ति सोत्कर्ट प्रदीचे ।८--अपनी इच्छा से--स्वैर्म्ू ॥ ६--अटक--श्रटक कर--स्जलिताज्षरम् ( सगदुगदम्
)। १०--विद्लब्ध हरिणाश्चस्त्यचकिता देशागतप्रत्ययाः |
कारक-प्रकरण प्रथमां
कर्त्ता-ने पिछले पृष्ठों मेंहम लिख जुके हैं कि संशाओं फो सात विभक्तियाँ होत्नो हैं! पीछे सवनामों एवं विशेषों पर विचार करते समय हम लिख आये कि संशा की माँति विशेषण तथा सर्वनाम की भी सात विभक्तियाँ होती हैं। &७* इस प्रकरण में यह बताया जा रहा है कि क्रिय्राकेसम्पादन में जिन शब्दों-
कर उपयोग होताहैउन्हेंकारक कहते हैँ॥उदाहरणाय-्रयागमेंमहाराज हपने श्रपने हाथसेइजारों रुपये ब्राहृणों को दानदिये !” इस वाक्य में दान
कियाफेसम्पादन के लिए जिन-जिन वस्तुओं का (शब्दों का )उपयोग्र हुआ है बे 'कारक! कहलायूँगी । दान की क्रिया किसी स्थान पर हो सकती है, यहाँ प्रयाग
में हुई, श्रतः अयाग” कारक हुआ | इस क्रिया के करने वाले हप॑ ये, झतः हफ
कारक हुए। यह क्रिया हाथ से सम्गदित हुई, अतः हाथ! कारक हुआ। रुपये दिये भये, श्रतः रुपये कारक हुए थ्रोर ब्राह्मणों फो दिये गये, अतः आह्मण' कारक हुए। इस प्रकारक्रियाके समादनकेलिए छः तम्बन्ध स्थापित हुए--
क्रिया का करने वाला (ससादक )-कर्चा
क्रिया का कम--कर्म ४ क्रिया का सुग्पादन जिसके द्वारा हो--करण,
क्रिया जिसके लिए छी--8म्प्रदान
क्रिया जिससे दूर हो--अपादान क्रिया जिस स्थान पर हो--अधिकरण इस प्रकार कर्चा, कम, करण, सम्प्रदान, अपादान, और श्रधिकरण ये छ३
कारक हैं। इन्हींकारकोंकेचिह्विभक्तियाँ कहलाती हैं)
धकारक! वही कहलाता है जिसका क्रिया के साथ ठीधा रुम्बन्ध हो। राम के पुत्र लब ने अर्वमेध के घोड़े को पकड़ा ।! इस माक्य में पकड़ने! की किया लव श्रौर धोड़े सेहे, क्योंकि पकड़ने बाला “लव” ओर पकड़ा जानेवाला थोड़ा! है;
राम और अश्वमेध का पकड़ने की किया से कोई सम्बन्ध नहीं, श्रतः राम को
और श्रश्वमेध को कारक नहीं कहवंगे। राम का सम्बन्ध लव से है और श्ररवमेघ का घोड़े से, किल्ठु क्रिया के सम्यादन में इनका (राम का तथा अश्वमेष का ) कोई उपयोग नहीं होता। एणएणएणणा उक्त कर्म च करण च सुखदान वैव च। 7 अपादानाधिकरणे * शत्याडुः कारकाणि पट ॥|
२०
कारऊ प्ररस्ण
थमा « प्रात्पिदिक्लार्थलिड्परिमारापचनमात्रें २श४६। प्रथमा विमक्ति पदनर च प्रथमा ग्र का उपयोग केवल शब्द का अथ बतलाने के लिए अथवा केवल लिश्ज बतलाने के लिए. अथवा परिमाण या वचन बतलाने के लिए होता है। ग्रातिपदिक छा अ्यर्थ है “शब्द” और प्रत्येक शब्द का कुछु नियत अथ होता है, किन्दु सस्झृत वैयाकरण जय तक किसी शब्द में कोई प्रत्यय जोड़कर ( नुस्तिडन्त प्रदम् ) न बना लें तर तक उसका कुछ ब्र्य न्ीं समझते | अत* जय किसी शब्द का छाई अय निकालना हो तो उस शब्द म॒ प्रथम विभक्ति लगाते हैं । गोविन्द!
का उचाएण निरयक होगा, किन्तु यदि गोविन्द कहे तो गोविन्द! शब्द का श्र होगा । इंडी कारण संशा, विशेषण, सबनाम में ही नहीं, अपितु अब्यय शब्दों
तक में भी सह्ृत के विद्वान प्रथमा लगाते हैं, जैसे--उच्चैः नौचैः आदि। यदि न लगायें तो उन अच्यरयों का अर्य न समझा जाय ।
+ ततिक्त का अर्थ ऐसे शब्दों से है जिनमें लिज्ष नहीं होता ( जैसे-उद्े नीच- आदि अब्यव )और ऐसे शब्द जिनका लिड्ग नियत हे ( जैसे इत्तः पुल्लिज्ञ, फलम् नपुसझुलिज्ञ, या लता स्रीलिज्ञ ) इनहो छोडरूर शेष शब्दों केअर्थ और
लिह्न दोनों अथमा विभक्त के द्वारा ही जाने जाते हैँ। उदाहरणा+--वठ, तटी, तटम--इ्न शब्दों मैं (तट! से शात होता हैं कि यह शब्द पुलिज्न में हमोर इसका
अर्थ (किनारा है।
केबल परिमाण, जैसे सेरों मोधूमः ( एक केर गेहूँ )यहाँ प्रथमा विभक्ति से सेर
का नाए विदित होता है। केवल बचन (सरपा ) जैसे एक', दो, वहवः। सन्वोधने च १2७
5२५ 550
अम्बोषत्सेभी प्रथमा प्रिमक्ति काउपयाग होता है, जैसे--छात्राः ( दे विद्या-
थिष्रा ), वालिक्षा (हे लडड़ियोहर
है
|।
को ओर क्रिया का समन्वय
प्लस लक्ति या वस्तु के पिपय मे कुछ कद्ा जाता है उसे वाक्ष्य का कर्ता कहते (है हेंऔर वह प्रथमा विमक्ति मे रखा जाता है। क्रिया का पुदय तथा वचन कर्चा अनुसार द्वोता है, अर्थात् जिस पुरुष और बचन का कंता होगा उसी पुरुष वचन की
किया भी होगी, जैले--“अस्ति भारतदर्ष राष्ट्रपति: भीराजेन्द्रपसादः
६ मारतवध में राष्ट्रगति भरी राजेन्द्रपठाद है)॥ 'झघयामा वंयमा (हम लोग कमल अाछऋणी उाएा जादे है )।
दाक्ष्य में जय दो या दो से अधिक कर्ता हों और दे “व” (और ) से जोड़ दिये जाते हैं. तर किया कर्चाओ्ों केरुपुक्त चचन केअनुसार होती है, यथा-वर्योजअहतु: पादान् राजारानी पाँद पकड़े । )
च मागदी । ( राजा और मागधी रानी ने उनके
श्श्र्८
बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
लव शनेक संज्ञाएँ पृथक पृथक समझी जाती हैंया वेसब एक साथ मिलकर
एक विचार विश्लेप की द्योतक होती हैंतव क्रिया एक वचन को होती है, यथा--
न मा भातुं ततः प्रमवति न चाम्वरा न मवती । ( मुझे न तो मेरे पिता बचा सकते हैं और न मेरी माता और न आप ही )|पहुत्व॑ं सत्यवादित्व॑ कथायोगेन बुध्यते ( पदुता और सत्यवादिता वार्तालाप से ज्ञात होती है। ) क्रमी कभी क्रिया समीपतम कर्ता फेअनुसार होती है और शेष कर्ताश्ों के साथ समझ लिये जाने के लिए छोड़ दी जाती है, यथा-श्रहृश्च रात्रिश्व डमे च॒स्ध्ये धर्मोडपि जानाति नरस्य बत्तम् ) | (दिन और रात, दोनों गोधूलियोँ भर
धर्म भी मनुष्य के कार्य को जानते हैं। )
जब वाक्य में कठूंपद श्रथवा या या द्वारा जुड़े होते हैं तोएक वचन की
किया श्रादी, यथा--गोपालः कृष्णः जगदीशों या गच्छुत। (गोपाल या ऋष्ण
या जगदीश जायें
)।( शिशुल्॑ स्लैरं वामवत ननु वनन््यासि जगतः ) ( तुम चाहे
शिशु हो और स्त्री हो, किन्दु जगत् की बन्दनौय हो | )
५ जब कर्त्ता मिन्न मिन्त वचन के कृपदों से युक्त होता है तब क्रिया निकटतम कतृपद के अनुसार होती है, जेसे-े वा श्रयं वा पारितोपिक श्ह्वावु ( चाहे वे लोग चाहे यह व्यक्ति इनाम ले )।
जब भिन्न भिन्न पुरुषों फेदो या दो सेअधिक कठंपद “बच” (श्रौर )द्वारा जुड़े द्वोते हैंतब क्रिया उनके संयुक्त वचन के श्रनुसार होती है, तथा उत्तम, मध्यम तथा प्रथम पुरुष के योग में उत्तमपुरष कौ क्रिया होती है और मध्यम तथा प्रथम पुरुष के योग में मध्यम पुरुष की क्रिया होती हे, थया--
ते किह्रा। श्रदञच शवों मामे प्रतिशेमदि ) ( वे नौकर और मैं कल गाव को चल दूँगा।) (त्वश्वाह्य पचावः--त् श्र मैंपकाता हैँ |) त्वश्ेव सोम-
दत्तिश्व कर्ण स्वैव तिशत (तू और संमर्दातत श्रौर कश रहें )।
जब मिन्न २ पुर्षों केदो था दो सेअधिक कर्तूपद बा! या “अथवा! द्वारा जुड़े दों तब क्रिया कापुरुष और वचन निकटतम पद के अनुसार होता दैयथा--
स॒ वा यूय॑ वा एतत्कर्म श्रकुब्त ( उसने श्रथवा तुम लोगों ने यइ काम किया है )।
ते वा वयं वा इदं दुष्कर्म कार्य ससांदपिदुं शक्नुमः। (या तो वे लोग या हम लोग इस कठिन फाय॑ को कर सकते है ) जब दो या दो से अधिक क्ठंगद किसी संझा या सर्वनाम के सम्रावाधिकरण होते हैं. तपातियाउंला अयाक्ा उपणाणा रे अुछाए कोर्फी है, वषा--नाफ़ा' फिएं पिता चेति स्वमावात् ठृतय॑ दितम् ( माता, मित्र और पिता ये तीनीं स्वमाव से ही
हितेपी होते हैं )।
कारक-अकरण
स्श्छ
प्रथम अभ्याप्त
वर्तमातकाल ( लट्)& एकवचन द्विवचन बहुबचन अभ्पु० पठति ( वह पढ़ता है ) पठतः ( वे दो पढ़ते हैं ) पठन्ति ( वे पढते हैं) म०्पु० पठसि ( तू पढ़ता है ) पठबः (तुम दो पढ़ते हो) पठथ ( तुम पढ़ने हो ) उ्पु० पठामि (में पढ़ता हूँ )पठाव- (हम दो पढ़ते हैं)पठामः (हम पढ़ते हैं)
संक्िप्ततूप प्र० पु०
(सा) अति
(तो) अतः
(ते) यन्ति
म० पु०
(लम ) असि
(युवाम् ) अथः
(यूयम् ) अथ
उ तु०
€ यहम् )आमि
(आवबाम ) आावः .(बयम ) श्ामः
इसी प्रकार कुछ +वादिगणीय धातुएँ धातु मू ( मर )>होना..
लिंसू--लिसना
बंदू---ओोलना हसू-हँसना
धाव--दौड़ना रक्त-रा करना फीड_--खेलना गम--जाना
आंगम--आना
पत्ु--गिरना पैडेत--नाचना
एकब० भति 4,
द्वि० मयतः
ब्रहुव० भवन्ति
बदति ४ हसति *
चबदतः हसतः
बदन्ति हसन्ति
लिपति //
घावति “
लिसतः
घावतः
लिसन्ति
घावन्ति
रक्षति |
रक्षतः
क्रीडति | गच्छति
ऋ्रीडतः गच्छुतः
क्रीडन्चि गच्छुन्ति
आमगच्छतः
आगच्छुन्ति
आगच्छति" परत्ति "७ जद्ति
पततः खत्यतः
रक्षन्ति
पतन्ति
ख्त्यन्ति उततल्त्+नननूतन++झौ-_+-_०*हत7कत 3ऋन77 5+5त हद (१) 'तिः 'सि? 'मि! और “अन्ति? इनमें हस्व 'इ है, दी (६! कभी मत लगा। इन चारों हस्व इकारों के आगे कमी विसर्ग () भी मत रक््सो [ (२)
तीनों पुरुषों केद्विचचन में तः “थ/ वः और “मः के आगे विसर्ग अवश्य उक्त, अन्यत नहीं। साराश यह है कि इन और चार ही हस्व 'इ? विस () के गिना नौ बचनों मे चार के आगे विसर्म ह्दै हैं । ग॑ रुत् (छत नाचना ) दियादिगण।य धातु है, तथापि क्योंकि इसके रूप भ्वादिगरसीय धातुओं को भाँति चनते हं, अतः इसे स्यादिगण।य धातुओं के साथ रफा गया है।
रण
बहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
संघ्छत-अनुबाद इन बाक््यों को ध्यान से देखो-( १ ) बालकः हसति ( लड़का हँसता है| )
( २ ) यूय॑ कुत्र गच्छुथ १ ( तुम कहाँ जाते हो )
( ह ) आवाम् श्रत्र क्रोडावः ( हम दो यहाँ खेलते हैं | ) (४ ) मवन््तः कथं न पठन्ति ! ( थ्राप क्यों नहीं पढ़ते हैं ! )
प्रथम याक्य में 'हसति!, क्रिया का कार्य बालक? करता है, दितीय में धाच्छुथा किया का कार्य धूयम! करता है, तृतीय में क्रीडाव:” क्रिया का कार्य
आवास! करता है और चत्॒थ वाक्य में 'पठन्ति! क्रिया का काये 'भवन्त: फरता है। ये चारों बालकः यूयम! “श्ावाम! और “भवन्तः कर्ता हैं,क्योंकि क्रिया के
करनेवाले फो कर्त्ता कहते हें।
ग्रथम वाक्य में 'हसति' क्रिया प्रथम पुरुष के एकवचन में हे और उसका कर्त्ता दालकः भी प्रथम पुरुष के एवचन मे, द्वितीय वाक्य में गच्छुथ! क्रिया सध्यम पुरुष के बहुवचन में है और उसका कर्त्ता यूयम! भी मध्यम पुरुष के बहुवचन में है, तृतीय दाक्य में 'क्रीडाव:” क्रिया उत्तम पुरुष के द्विवचन में है और उसका कर्त्ता थ्रावाम! भी उत्तम पुरुष के द्विवचनमें है, तथा चतुर्थ वाक़्य में
बठन्ति! क्रिया प्रथम पुरुष के बहुवचन में हैऔर उसका कर्ता 'भवन्तः भी प्रथम
पुरुष के बहुबचन में है । इसका निष्कर्ष यह निकला कि संस्कृत भाषा के श्रन॒वाद करने में थदि कर्ता प्रथम पुरुष का दो तो क्रिया सी प्रथम पुरुष की और यदि कर्त्ता सध्यम पुरुष का हो तो क्रिया भी मध्यम पुरुष की और कर्ता उत्तम पुरुष फा हो तो ढछिया भी उत्तम पुरुष की होती है। इसके श्रतिरिक्त यदि कत्ता एकवचन में होता हैंतो क्रिया भी
एव यचन में और कत्ता द्विवचन मे होता है तो फ्रिया मी द्वितचन में शौर कर्ता बहुबचन में दोता हैतो क्रिया मोबडुवचन में होती है। परन्द मवान् ( श्राप ), भवस्तौ ( श्राप दो ),भवन्तः ( श्राप सब ) फे साथ क्रिया मध्यम पुरुष की नहीं लगती, जैसे कि ल्वम-सुवाम् यूयम् फेसाथ लगती है। श्रतः “भवान् यच्छृसि! अशुद है, (मवान् गच्छुति! ही झुद्ध वाक्य है | इसी प्रकार 'भवन्तौ गच्छुतः भयन््तः गच्छन्ति! शुद्ध हैं। “वाज्ञक: हसति”? इसी बाक्य को दम हसतति बालकः भी लिख था बोल सकते ६ । यद प्रणाली सस्कृत मापा कीअपनी विशेषता है, क्योंकि इसमें विकारो शब्दों फा बाहुलय है। श्रेगरेजी मापा के वाक्य में पहले कर्ता फिर क्रिया और अन्त में कर्म आता हे और दिन्दी मैं पहले फर्तता, फिर फम॑ और अन्त में डिया श्राती है, किन्तु संस्कृत में कर्ता, कम श्रौर क्रिया आंगे पीछे भी रसे जा सकते हैं,यथा-भवान् कुत्र मच्छति ! ( श्राप कहाँ जाते हैं), अथवा कुत्र गच्हति सवान्
कारऊ प्रकरण
श्४ड१
इन वाक्यों में क्रिया कर्ता का अनुसरण करती है, अर्थात् कर्ता के अनुसार
है, अतः इन वाक््यों को कतृबाच्य फहते हें। फतृवाच्य में कर्ता (व्यक्ति
कानाम या फ़िसी वस्तु का नाम)
में प्रथमा
पिभक्ति होती है और कर्म वाच्य में कर्म में प्रथमा विमक्ति द्ोती है, जेसे ऊपर के ठद्ादसण्णों में है,घया--ब्रालऊ' हसति | मयान् गच्छृति। देवेन पाठः पण्यते ।
ससझृत में अमुवाद करो। (के ) १--मोपाल खेलता है । २--शइन्वला इँसती है। ३--केशव धीरे-
धरे लिखता है। ४--बन्दर ( वानरा- ) दौड़ते हं। १--हर्थी (गजा' ) यहाँ आते हैं। ६--घोड़े (अश्वाः )कहाँ जाते हैं ! ७--पत्ते ( पत्राणि ) और फ्ल गिरते हैं। ८--सुशीला क्या पढ़ती है !६--रमेश और सुरेश खेलते हैँ | १०-लड़रे आते हैं और लड़कियाँ जाती हैं । (ख ) ११--बह जोर से ( उच्चैः ) हँसता है । १२--वे कहाँ जाते हैं ! १३--तू पहाँ जाता है | १४--आप ( भवन्तः ) क्यों हंसते हैं ! १५--तुम कहाँ जाते
हो १ १६--हम यहाँ नहीं खेल रहे हैं ।१७--तुम इस प्रकार क्यों दौढ़ते हो १
१८--सम दो क्यों नहीं खेलते हो ! १६--वे इस समय नहीं खेलता हूँ। २१--वे अवश्य अन्ग ( पृथक)पढते दें।२३--बह वैसे ही नहीं आते हैं | २५--म सत्र पढ़कर ( पठित्वा
अ्रव क्यों नहीं पढते हैं १ २०--मैं पढते हें | २२--हम से अलगनाचती है। २४--आप यहाँ क्यों ) खेलते हो ।
द्वितीय अभ्यास अनयतन भूतराल ९ जब )# एकबचन ह्विवचन बहुवचन अभ्पु० अपठत् (उसने पढ़ा) अपठताम (उन दोने पढ़ा) अपठन् (उन्होंने पढ़ा) मण्पु० अपर ( दूनेपढा). अपउतम (ठुम दोने पढ़ा) अपठत (ठमने पढ़ा) उ्पु० अपठम् (मैंने पढ़ा) अपठाव (दम दोने पढ़ा) अपठाम (हमने पढ़ा)
संत्तिप्त रूप एकवचन प्र० पु० (सो) अत् म० पु० (लम)अराः उ० पु० (अद्म) अम्
द्विवचन (तो). अताम् (युवाम) अतम्र् (आवाम) णाव
बहुवचन (ते) अन् (यूयम) अत (बयम् ) आम
क अनयतन भूत ( लड् ) में केवल मब्यम पुरुष के एक वचन में विस
६६) होता है, और कहीं नहीं। हलूअकरों का पाँच स्थानों पर ध्यान रखो, जैसे-“अपठत में त् इलन्द अक्षर है ।
द्थर
बृहदू-नुवाद-चन्द्रिका
इसी प्रकार घाव
एकबचन
ह्विवचन
अलिखताम
श्रलिखन्
चद्--कहना
अवदत्
अवदताम
अवदन
दस -हँसना धाव--दौड़ना रक्षा करना
आअहसत् अधावत् अरक्षुत्
अरद्सताम् अधावताम् अरक्षताम्
अहसख् अधावत् अरक्षने,
क्रीड-खंलना गम जाना आझागम--आना
अक्रोइत् अगच्छ्त् आगच्छत्
शक्रोडताम अमच्द्तार्म आंगचछवाम्
श्रक्रीडन् अ्रग्च्छुन् आगच्छेन्
लिखू--लिखना
अलिखत्
अपतताम् अपततत् पत्ू--गिरना खत--नाचना श्रद्ृत्वत् अद्वत्यवाम् अमवताभ् अमवत् भ् (भ)-होना भूत्तफाल--संसक्षत भाषा में भूतकाल सडक तीन लकार सड्(भ्रनद्वन भूत )और छुब (सामात्य मृत )। तस्कृत
बहुबचन
अ्पतन् अनत्यन्, अभवन् है--लिट (परोक्षभूत), व्याकरण में हन तीनों
में थ्रन्तर माना गया है। परोक्षमूत् श्र्थात् वह बाप जो श्रांख के सामने की न
हो, शक प्रकार से ऐतिहासिक दो उसमें लिट होता है, जैसे--रामों राजा बमूवा (राम राजा हुए. )। श्रमद्तन भूत जो बात थआ्राज की न हो, पिछले दिन की ही,
जसमें लड़ दवा है, जैले--दिददत्तः हा काशीमगव्दत! ( देवदच कल काशी
गया )। इस प्रकार व्याकरण की दृष्टि से'रमा श्थ ग्रातः पुस्तकमपदत् (रमा मे आज सुबह पुस्तक पढ़ी ) श्रशुद्ध वाक्य होता और इस वाबय के स्थान में दर वाक्य 'रमा श्र प्रातः पुस्तकमपाठीत? होना चाहिए था, किन्तु व्यवद्वार में यह
शेद नहीं रह गया है और सद्एवंलुदूकाकिसी भेद के बिना प्रयोग किया जा रहा है, बल्कि लंडकाभूतकाल में ग्रायः प्रयोग होता है। भूतकाल के लिए, 'लइ” का प्रयोग फरते मय धात्र आायः भूल करते है| पर उसने का वे 'डसने पढ़ा! का श्रत॒वाद 'तिन श्रपठत? फर देते द। यहाँ अनुवाद “स/' होगा, क्योंकि प्रथमा शिमेक्ति का अर्थ भी "नें! है, श्रताः इस पाकय
का अनुवाद 'सः ध्रपश्ठत्ः होगा |उदादरणा्-) १--शौला श्रपठव् (शीला ने पढ़ा) २-तौ छबदताम् (उन दोनों ने कहा
३--वे भरदसम् ( वे हसे) । ४--अदम् श्रधावम्र ( मैं दौडा ) |५--सुवाम् अ्कड-
तम् ( तुम दो खेले )।
संस्कृत मे अमुयाद करे ५
- (क ) १--बन्दर आया | २--लइके दौड़े । ३ई- रमेश ने श्राज नहीं पढ़ा । #--सोहन शर श्याम यहाँ खेले / ४--गोणल यहाँ क्यों नहीं श्राया ! ६--
कारक-ग्रकरण
श्र
देवेनद्ध कहा खेला !७--पिताजी कल आये | ८--ठम नहीं हँसे | &--इस सम्रय सोहन कहाँ गया ! १०--कमला ने कल क्यों नहीं पढ़ा ! ११--हाथी और घोड़े दौडे। १२--छात्रों ने क्यों नहीं पढ़ा ! १३--ईश्वर ने रह्मा को। १४-गुरे जो क्यों हँसे ! १४--साधु ने क्या कहा ! श ( ख ) १६--ब्रह क्यों नहीं खेले ! १७--तुम क्यों हँसे ! श्प-्वने क्या कया कहा * १६--हमने कुछ नहीं (फ्रिमपि न ) पढ़ा।
२०-नूने ऐसा क्यों
लिखा ! २११--शीला नहीं नाची । २२--वे दो कहाँ गये ! २३--वे क्यों हंसे १ २४--तुमने क्या पढ़ा १ २४--क्या वह हँसी थी १
हतीय अभ्यास सामान्य भविष्यत् ( लूद) एफब०
द्विब०
बहुब॒०
प्र० पु० पठिष्यति ( वह पढेगा ) पठिष्यतः (वे दो पढेंगे ) पढिप्यन्ति ( वे पढ़ेंगें।) म० घु० प्रठिष्यस्ि ( तू पढ़ेगा )पठिष्यथः ( तुम दो पढोगे )पठिष्यथ ( तुम पढोंगे) उ० घु० पटिष्यामि ( मैंपहगा )पठिष्याव, (हम दो पढेंगे )पठिष्यामः (हम पढेंगे )
संत्तिप्त रूप प्रण्युण सण०्पु० उ० पु०
(सः) इृष्यति (त्म) इष्पति (अद्म) बप्यामि
घावु लिखू-लिसना बृदु--कहना हसू--हँसना
धाव-दौड़ना
रक्त--रक्षा ऋरगा.
एकब० लेपिष्यति बदिष्यति हसिष्यति
(तौ) दइृष्यवः (युवाम्) इच्यथ: (आयाम) इष्पायः.
(ते) इष्यन्ति (यूयम्) इृष्यथ (बयम) इष्बासः
इसी प्रकार--
घारिष्यति
द्विव० लेसिप्यतः वदिष्यतः हसिष्यतः
धाविष्यतः
बहुप० लेलिप्यन्ति बदिष्यन्ति हसिष्यन्ति
रक्तिप्पति
रक्तिष्यतः
रक्तिप्यन्ति
घाविष्यन्ति
क्रीड--खेलना
क्रीडिप्यति
गम्--जाना आगम--आना पंत्ू--गिरना
क्रीडिप्यतः
गमिप्यति आगमिष्यति पत्िप्यति
प्रीडिष्णन्ति
गमिष्यतः आगमिष्यतः पतिष्यत,
गमिष्यन्ति आगगशिष्यन्ति पत्तिष्यन्ति
शइत-नाचना नर्विष्यति नर्तिष्यतः नर्तिष्यन्ति मू [| भय ]--होना भविष्यति भविष्यतः भपिष्वन्ति भविष्यत् काल--भत्िष्यत् काल के सूचक दो लकार हैं--लुट् ( सामान्य भविष्य) ओर लुट्(अनद्यतन भविष्य 24 परन्तु यह अन्तर भी व्यवहार में नहीं रह
अडड
वृदददू-अनुवाद-चन्द्रिका
गयाह। छुट्टू का प्रयोग बहुत कम देखने में आवा है, केवल लूटकादी प्रयोग होता है
_ लूटबनाने का सरल ढंग यह दे कि शुद्ध धातु पर 'इ*# लगाकर आगे प्य! रखो और फिर पत्तमान काल की भाँति 'ति' 'त/ 'न्ति' आदि प्रत्यय जोड़ दो |
डदाहरणार्थ-३, देवः पटिष्यति ( देव पढ़ेगा )। २. वानरा धाविष्यन्ति ( वानर दौड़ेंगे )। ३, पच्राणि पतिप्यन्ति (पत्ते गिरेंगे)) ४, त्व॑ कदा गमिप्यसि ! (तू कब जाएगा!) ५. यर्म क्रीडिप्यामः (हम सेलेंगे।) ६. के लेखिप्यतः (कौन
दो लिखेंगी )१
संस्कृत मेंअशुवाद करो (४ ) १--गोविन्द कल आयेगा | २--श्यामा यहाँ नाचेगी ॥ ३--ह६रि कल बहाँ दौड़ेगा ।४--धोड़े नहीं दौरंगे | ५--लढ़कियाँ जरूर नाचेंगी । ६--स्मेश सुबह पढ़ेगा ।७--ईश्बर रक्षा करेगा । ८--पके हुए ( पक्वानि )फल गिरेगे । ६--कभला नहीं हँंसेगी | १०--छात्र शाम को खेलेंगे। ११- द्वायी यहाँ थ्रावेगे । शृश््दो छात्र यहों पढ़ेंगे। १३--रजनी कब _नाचेगी १ १४-दो ब्राह्मण यहाँ
श्रार्बेगे |१५--मेहमान ( अतिथयः ) फल जववेंगे |
(क ) १६--तम कब जाओगे! १७--मैं नहीं दौद्ंगा। £८--सम दो कब
आश्रोगे !१६-वे क्यों हँसेंगे !२०--मैं यहीं पढ़ा । २१--हम नहीं कप २२--वे कय ना्चेंगी! २३--तुम सब बहाँ खेलोंगे |२४--कक््या श्राप व्डों नई आयेंगे !२५- राजा ( नप ) रक्षा करेगा।
चहुर्य अभ्यात्त आज्ञार्थक लोट पर पु०. स० पु०
उन्पु०
प्न्युण
संण्पुण उ०्पु०
एकवचन
पठतु (यह पढ़े). पठ (तू पढ़
पठानि (में पढ़).
(व).
अत
हिकसना
|. . 5
आकरय 52
पठताम् (बे दो पढ़ें )पदन्द (ये पढ़ें ) पठतम, ( तुम दो पढ़ी ) पठत ( तुम पढ़ी 3
पठाव (दम दो पढ़ें) पठाम ( हम पढ़ें )
संहिप्त रूप
€वी)
झताम
(व) श्र (यवाम) श्रत्म् (अदम) श्रानि. (आवबाम) श्राव 58 090 5 50 70०20 00 2 कम
(व)
अन्द
(यूयम) श्रव (बयम्) आम 825
#कुछ एसी भी धावुएँ ई जिनमें 'इ” नहीं लगता, ऐसी दशा में शुद्ध घाव के थागे 'स्यवि! 'स्यतः? 'स्पन्ति' लगेंगे, यया--प्रास्यति ( पवेगा ), वत्त्याति (वास फरेगा ), दागस्यति ( देगा )आदि ।
कारक-प्रफरण
श्४ड३
इसी प्रकार
लिख-लिसना. चद-कहना
लिख बदठु
धाव्-दौड़ना
घावतु
घावताम्
बाव्चु
रक्ष-रक्ञा करना क्रीड-खेलना
रत क्रीडतु
रच्वाम् क्रीडताम्
रद्न्ठु क्रोडन्ठु
गम-जाना आगम-अआाना पत्-गिरना
गच्छठ आगच्छतु पततु
गच्छुताम् आगच्छुताम् पतताम्
गच्छ्न्त आगच्चुन्तु पठन्तु
जत्ू-नाचना
ख्त्यतु
तृल्वताम्
च्चन्तु
भू (भर) होना.
भवत्ु
भवताम्
मयन्तु
हस-हसना
हस्त
लिसवाम् बदताम् हसताम्
लिसन्तु बदन्तु
ह्सन्तु
आज्ञार्थक लोट--विधिलिड और लोट लकार आजा, अनुशा तथा प्राथना आदि के श्रथों के सूचक हैं। आशीर्वाद के श्रथ में भी लोद का प्रयोग द्वोता है ।
उदाहरणार्थ
--मुशीला गच्छठु ( सुशीला जावे ) २-छात्राः क्रीडन्तु ( विद्यार्थी खेलें) ३--परमात्मा रक्षेठ (ईश्वर रक्ता करे | )४--यूयम् गच्छुत ( तुम जाओ ) ४:--
बालिका. रुत्यन्द ( लबफ़ियाँ नाचें।) ६--गच्छाम किम् ! ( क्या हम जावे £ ) ७--इदानीं छात्रा: पठन्तु (इस समय छात्र पढें । ) ( विशेष अध्ययन के लिए आगे क्रिया प्रकरण देखिए ) |
संस्कृत मे अनुवाद करो १--गोपाल और ऋृष्ण पढें ।२--नौफर ( सेवकः ) जावे । ३--लड़के दौड़ ।
४--भगवान् रक्षा करे। ४-मैं जाऊँ ! ६--हम खेलें ! ७-वे न हँसें |८-अब अप खेलें। ६--ठम लोग पढ़ो | १०--हम दो पढ़े १११-तुम दो मत हँसो ।
३१२--तुम सब दौड़ो | १३--नतंक्यिं ( नतक्यः ) नावें ।१४--क्यों हँसते हो ! २५--थहाँ आओ । १६--वहाँ न जाओ। १७--दौड़ो मत। १८-हँसो मत । १६--पढो | २०--जाओ, नाचो । २१--अब खेलो मत, पढ़ो ।१२--सब छाव
बढ़ें । २३--हम क्या पढें |२४--छुम वहाँ जाओ | २५४--दो छात्र दौड़ें । अ्ग्रकीर्य
१-ससार में धन विपत्तियों काकारण है । २--जब वह घोडे से गिरा, उस
समय हम थहोँ उपस्थित ये। ३-वे लोग वहाँ सन्देह के पान हो गये। # ओदरिकस्य (पेटका), श्रस्यवह्यय (मोजन), अमिमवास्पदम् (अपमानपान)
श्डद
इंइृदू-अनुवाद-चन्द्रिका
४--ंग के राजा ने युद्ध में प्राण (प्राणान्) दे दिये। ६--श्रच्छी पत्नियाँ घार्मिफ कृत्यों की मूल कारण होती हैं |६-देवदव अपनी कच्चा का रन तथा अपने बुल का दीपक है | ७--क्या वह कार्य बहुत कठिन है! ८--हंसार मैं गोविन्द ! तुम मेरे प्राण कौर मेरे विद्या कै समान कोई धन नहीं है । ६--
सारे संसार हो ! १०--कल मैंमे तीन सुन्दर बगीचे और दो तालाब देखे | हिन्दी में अनुवाद करो
१--अ्रदेयमासीत् अयमेद भूपतेः शशिप्रम छुत्मम॒ुसै च चामरे। २३--बलबानपि निस्तेजाः कस्य नामिमवास्पदम । ३--तीथौंदर्क च वहिएच नान््यतः शुद्धिमदंतः । ४“ममापि दुर्वोधनस्यथ शंकास्थान पाएडवाः । ५--सबत्रोदरिकस्यास्यवहाय मेवविपयः | ६-नव जीविते समस्त में दृदयं द्वितीयम । त्व॑ं फोमुदी नयनयोरसृत्त त्वमंगे | ७---जनकाना रघूणाश्व सम्बन्ध! कस्प न प्रिय: । ८-वयमपि भवत्योः स्ीगत किमधि प्रच्छामः | प्रश्चयप थभ्यात्त
कर्मकारक (द्वितीया) को! आदार्धक विधिलिड_ प्र० घु०
एकब० परेत्त्
द्विव० प्रठेताम्
म० पु०
पढे:
पठेतम्
० घु०
प्रठेयम्
पेय
पठेव संत्षिप्त रूप
प्र० पुर म० पु०
छः) (व)
एह् णए:
(वाद)
एताम् एतम्
ड० पु०
(्रहम)
एयम..
(शाबाम)
छव
भू (भव)-दोना लिख-->लिखना
भवेत् लिखेत्
बहुब० क्टेयु+ पढेत
इसी प्रकार मबेताम् लिखेताग्
यदू--कदना
बदेव्
हस-हँसना
हमेत्
हसेताम्
बदेवाम्
धाव--दौड़ना रक्ू-रका फरता फीद--सेलना
घावेत् रकेत् ऋ्रीडेत्
घावेताम् रक्षेताम् क्रीडितास्
(6) (यूयम) (बयम)
मय: लिखयुः बदियुः
दसेयु+ धावेयुः रकेयु: केसहु
प्रैडियुः
37460
कारक-अकरण
गम--जाना
आ्रागम-आाना.
पत्ू--गिरना
गच्छेत्
आ्रामच्छेत.... . पतेत्
गच्छेताम्
आगच्छेताम पतेताम्
शड७
गच्छेयु:
आगच्छेइुः पतेयु:
हत्येयुः हत्वेताम् ड्त्येत् खतू-नाचना इन वाक्यों को ध्यान से देसो-(१ ) छात्रा: गुरू नमेयुः (छात्र गुरु को प्रमाण करें )। (२) शिशुः दुग्ध पिवेत् (बच्चा दूध पीवे )। (३ ) सुधाररः सुधा वर्षेत् (चन्द्रमा अझृत की वर्षा करे। ) (४ ) हुफः शत्रून् जयेव् ( राजा शत्रु का जीते )।
(५) गुरुः शिष्य प्रश्न एच्छेत् ( गुरु शिष्य से प्रश्न पूछे )।
कर्मशि द्विंतीया शझरा
रा
“-पंज्रस वस्तु यापुरुष केऊपर क्रिया काफल ( प्रमाव ) पड़ता है उसे कम
कारक कहते हैं |और कर्म कारक में द्वितीया विभक्ति होती है । “क्षप: शत्रु जयेत् (राजा शत्रु को जीते ।)” इस-वाक््य में 'जीवना! क्रिया का फ्ल ठप: ( राजा )' कर्चा पर समात्त न होकर 'शत्रु! पर समाप्त हुआ, क्योंकि शब्रु
ही जीता जायेगा । अ्रतः शत्रु! कर्म कारक हुआ और उसमें द्वितीया विभक्ति ( शनुम् ) हुई। जय क्रिया का व्यापार कर्ता पर ही समाप्त होता है, तब क्रिया
अफऊर्मऊ होती है, जैंसे 'वालकः हसति' इस वाक्य मे 'हँसने” का व्यापार कत्ता तक
ही समाप्त हो जाता है? अतः 'हसति! अकर्मक क्रिया का रूप है। कर्म का उपयुक्त लक्षण ठीऊ नहीं, क्योंकि साहित्य मे ऐसे अनेऊ उदाहरण हैंजिन पर क्रिया का फ्ल तो समास होता है, पर वे कम कारक नहीं माने जाते । “बह घर जाता है” यहाँ यद्यपिं जाने काकार्य 'घर! पर समाप्त होता है, तथापि धर! प्रायः कम नहीं माना जाता और न “जाना! ही सकमक क्रिया है। घर को कर्म मानने के लिए विशेष नियम है । पाणिनि के अनुसार कम की यह परिभाषा “कर्ता रुब से अधिक जिस पदार्थ को चाहता है वह कर्म है।” ( ऋर्तुरीप्सित-
तृम॑ कर्म )यया-पयसा ओदन भुद्क्ते (दूध से भात खाता है)यहाँ दूध को अपेक्षा भात कर्ता को अधिक पसन्द है |
मुनरेः शिष्यं मार्ग एच्छुति (मुनि के शिष्य से रास्ता पूछवा है) इस वाक्य
में यद्यपि पूछने वाला कर्ता शिष्य की अपेज्षा मुनि से ही रास्ता पूछना अधिऊ पसन्द करता तथापि मुनि की कर्म संशा नहीं हो सऊती, क्योंकि मुनि का 'पच्छुति!
क्रिया के साथ कोई सीधा सम्बन्ध न होकर शिष्य के साथ विशेष सम्बन्ध है।
तथायुक्त चानीप्सितमू ।(४।५०
कुल पदार्थ ऐसे भी हैंजो कि कर्चा द्वारा अनीप्सित होते हुए भी ईप्सित को दरह ह्िया से सम्बद्ध रहते हैं। उनकी भी कर्म संकाय होती है, यथा--ओदनं
शब्द
बृहदू-अनुवाइ-चन्द्रिका
मुज्ञानों विप॑ भुक्ते |इस वाक्य में विप कता को अर्नाप्सित है, परत श्रोदन ( क्षी
भोजन क्रिया के द्वारा ईप्सितठम है ) की ही” तरह वह भी उस किया से सदा है
और ओदन-मौजन के साथ उसके भोजन का रृना भी अनिवाय है। इसलिए
विप भी कर्म स॑रुक हो जायगा। इछो अकार आम गच्छुन्तृर्सस्टृशति' इस वागय में तृश भी कम संशक होगा।
( श्रकमक धातुमियोंगे देशः फालो भावों गत्तव्योड्खा च कर्मसंशक इति
याच्यम घा० ) श्रकमक धातुओं के योग में देश, काल, भाव तथा गन्तव्य माग मी
कर्म समझे जाते हैं, जैसे--पाश्नालान् स्पिति (पराज्लाब देश में झौता ह) ( पाग्माल देश व्यञ्ञक है ) वर्षमास्ते (वर्ष भर रहता है )। (बपम् काल व्यज्षक है)! गोदोदग्गस्ते
( गाय दुहने फी बेला तक रहता है)। क्रोशमास्ते (कोछ भर में रहता है) (कोशं मार्ग म्यक्षक है 9|
अभिनिविशश्च ।09४»
ह
अभ्रमि! तथा नि! उपसम जब एक साथ 'विश? धातु के पहले थ्रातै है तब
पेश! का आधार कर्म कारक होता है, जैसे--सन्मागम, अभिनिविशते (बह
अच्छे भार्ग का श्रनुसरण करता है ) |यदि अभिकनि एक साथ मं श्राकर शनमें से केवल एक ही झावेतोद्वितीया नहीं होती है, जैसे--निविशते यदि शक्शिसापदे है उपान्वध्याइ,बस+ 880६। यदि 'वशः धाव के पूर्व उप, ब्रज, श्रषि, थ्रा में सेकोई उपतण लगा हो वो 5 प्रिया का श्राधार कर्म दोता है, बधा-( विपूषु वैकुणठ में बात करते ६ ) | बिपूएः बैकुएठम अधिवसति विष्णु: वैकुणठम्, उपवसति किन्तु विष्णु: बैकुए;के बसति--यहाँ पर बिधूषुः वैकुश्ठम् श्रावचतिं बिचाएुः बैकुरठम श्रत॒वसति [द्वितीया विमक्ति नहीं डुई। ( अमुकस्यर्थस्य न वा ) जब (उपव्! का धार्थ उपबात करना, न खाना
होता है तब 'ऊपवर्स! का आपार फर्म नदी होता श्रविकरण दी रहता है । जैसे-बने उपबसति ( यन में उपवास करता है )[ चातोर्स्थान्तरे
प्रतिद्वेरविवज्ठातः
बूत्तेघाल्वथनीपरसंप्रदात् ।«
कर्मणो5कर्मिका किया |!
सकरमक पाठ भी श्रफर्मऊ हो जाती हैं,यदि--
४०
टड,
(के ) घाठु का श्र्य बदल जाप, सपा-न्य६ धातु का श्रय है दोना, ले
जाना | मदी वढ़॒तिं इस अधोग में वह का '्र्य इन करीदवा (स) घातु के दी अर्थ में कम उमाविष्ट हो; --जीदति? इस प्रयोग
मे 'जीवम जीवति' इत प्रकार का शर्थ गम्य होने फे कारण इसमैं जीवन की कमंता
दिपी ह॒॑ई है।
कारऊ प्रकरण
श्थ्द
गे) जब धाठ' का कर्म अत्यन्त प्रत्यात हो, जैसे--मिघो वर्षतिं! का कर्म 'जलम' अत्वत लोक विर्यात है। (घ) जब कर्म का कथन अमीष्ट न हो, जेसे--द्ितान्न य*सश्यणुते स कि प्रभुश इस प्रयोग में 'हितः कर्म है पर उसे कम बतलाना बक्ता को अ्भीष्ट नहीं है । ( ड ) अरऊर्मफ धातुएँ सोपसग होने पर प्राय. सऊमक हो जाती हैं, यथा-ऋषीया पुनराद्याना वाचमार्थोइनुधावति (घाव क्रिया पर श्रनु उपसग)। प्रभुचित्त मेव जनो२--दुुों के पद चिन्हों पर चलने से नाना प्रकार के दु स पैदा होते हैं |
हिन्दी मे अलुवाद करो-२--अश्वमेषसइस्ेम्व सुत्यमेवातिरिच्यते २--खार्यात् सता गुरुतरा श्रणविक्रियैद ] ३--नास्वि जावितात् अन्यद्मिमठदर्णमिद जाति सबंजन्यूनाम | ४--इल्से मालंति, जन्मन प्रमभृति वह्लमा ते लवज्विछऋ ! ५४--यब्रस्मत्ता वरापान रान्साधवगम्यते सदिद शस्त्र तस्मे दीयतान् ।
श्र
कहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
६--नैव जानाछि त॑ देवमैक्ष्वा् यद्ेवं वदसि | तद्विस्म्यताम तिप्रतद्भात् | ७--त॑ ह॒प॑ वमुरक्षितों नाम मन्ज्रिदृद्ध एकदा5मासत बुद्धिश्न निसंगंपटूवी तवेदरेम्पः प्रतिविशिष्यते 8 ८--सज्ञत्सज्ञायते कामः कामाक्रोपोडमिजायते |
क्रोधादूभवति सम्मोह्ः सम्मोद्दात्त्मृतिविश्रमः |
स्म्ृतिभ्ंशाद् बुद्धिनाशों बुद्धिनाशात् प्रशश्यति ॥ ६--खबंद्रव्येषु (विश्व द्ब्यमाइसवैत्तमम् |
श्रह्ययत्वादनघ्यत्वादक्षयत्वाच
सवदा ॥
१००--अपजाना. विनयाधानाद्वत्षयारृस्णादपि | स पिता पितरत्तासा फेदल जन्महेतवः | नव
अभ्यास
सम्बन्ध (पष्ठी ) का, के, की, रा, रे,री विशेष--हम पहले बता चुके हैं. कि पष्टी कारक नहीं है, अपितु यह विभक्ति है जो एक संज्ञा शब्द का दूसरे सज्ा शब्द के साथ सम्बन्ध यतलाती है, परन्तु
हमने पश्चमी, पष्ठटी, सप्मी इसी क्रम से इन विभक्तियों को रखा है।
(४ ) स्वादिगणीय श्र्, (सुनना ) परस्मेपद बतंमानकाल ( लद्)
म० जु०
ख्णोति
मे पु०
अंणोपि
ख्जुतः खणुपा
अरुप
अए्वन्ति
ज० पु०
शणोमि
आरणुव, खएः...
आणुमम, टेय्ए्मः
अनद्यतनभूतकाल ( लदइ)
हु
प्र० पु०
अश्वणोत्
अश्ृणु ताम्
अश्टएवन्
मन पु०
अ्रश्णोः
अशणुतम्
भ्रश्य्णुत
उ9 पु०
श्रश्णवम्र्
अश्णुव, अश्र्य
अश्णुम, श्रश्टश्स
भविष्यकाल ( लूट) प्र पु०
भौष्यति
ओऔष्यतः
श्राज्ञार्थक लोद_ श्रणोव. श्गु
खाणुताम शरुत्म
ओष्यन्ति श्रादि
विधि लिए.
अण्वन्दु ख्णुव
ग्र०पु० सण्पु०
ख्ए॒वाव् खणुवया
शण॒ुपातान झ्शुवातम
लुदू
लोदू
अशकनोत् शक्यति
शक्नीतु._
ख्णवानि आणवाब _स्ट्णबराम उ०पु० ेश॒याम आयात स्वादिगणीय छुछ धातुएँ लय.
शक--सकना
शक्नोति
चिमू--चुनना चिनोति
लड
श्रचिनोत्
चेष्यति
चिनोह.
अआशुवुशणुवात
शयुवाम विधिलिदू शबनुयात्
चित्॒यात्
आप -याना
आप्मोति
आप्नोत्
अघुनोत् घुजू--कॉपना घुनोति. कि कम होना छ्िणोति अलिणोत् इन वाक्यों को ध्यान से देखो--
आप्त्यति
घिष्यति च्ेप्मति
शआप्नोतु
घुनोद.. चिणोव
आजप्॒यात्
घनुवात् बिणुवात्
(१ ) न दि परगुणण्ता विक्ञावारों बहवों मवन्ति ( दूसरे के युणों को जानमे-
बाले बहुत नहीं होते ।
(२) पुच्,, लोकव्यवद्ाराणाम् अनमिशे5सि ( वेटा, तम लोक व्यवहार की
नहों जानते ) । बसतिरलका नाम यक्षेश्वराणाम् ( त॒म्हे यक्तेश्वर्ों कीनगरी (३ ) गन्तव्या ते
अलका को जाना है| (४) विचित्रा हि सूत्राणां कृषिः पाणिनेः (पाणिनि के सूत्रों कोकृति विचित्र है | ) (५) अलसस्य कुतो विया, अविद्यस्थ कुतो घनम | अधनस्य छुतो मित्रम्, अमित्र॒स््य कुठ. सुखम् (आलसी की विद्या कहाँ और विद्या के ग्रिना धन कहाँ, धन के ग्रिना मित्र कहाँ और मित्र के बिना 220) १)
है
सम्बन्ध मेंपा
यप्ठी शेष ।॥३७५०
जा बात और बिभक्तियों से नहीं बतलायी जा सकती, उछऊो बतलाने के लिए
पढ़ा का प्रयोग होता है।
॥ $.4|४०
स्वामी तथा भृत्य, जन्य तथा जनक, कार्य तथा कारण इत्यादि सम्बन्ध दिखाने
के लिए पष्ठी छाम में लायी जाती है । उछका क्रिया से साक्षात् सम्बन्ध नहीं होता सैसा कि प्रयमा, द्वितोया आदि विभक्तियों का होता है; जैसे--यस्य नास्वि स्वय अजा (जिसके स्वय बुद्धि नहीं है। )स्खलन मनुष्याणा चर्म. ( गलती करना मनुष्य का घम है ) | इमे नो णह्दा. ( ये हमारे घर हैं। ) विशेष--ध्यान रहे कि सल्क्ृत में पष्ठी उन सभी सम्बन्धों और अर्थों का वोध नहीं करा सकती जिन्हें दिखाने के लिये हिन्दी में “का, की, के,” प्रवुक्त किये जाते हैं,जैसे--(एक सोने का वर्तन! का अनुवाद प्रायः समस्त पद “हिमपालम” आयथया प्रत्यय निषपन्न पद हेम! द्वारा 'हेमपातम! होता है, परत्ठु 'हिम्नः
पाउम! कमी नहीं होता | इसी प्रकार (२) मिद्दी का वतन, म्दभारठम? श्रयवा “मृणमयभाएडम!
होता है, परन्तु सृदः्माएडम? नहीं होता। (३ ) बडे मूल्य की
मुक्ता। मदापें मुक्ताफ्लम! (४) शक्ति वाला पुरुष स्लो नर: न कि बलस्य नरशे इाता है। (५) इसी प्रकार बैशासर के महिने मे 'बैशाखेमासे! न कि विशाजस्य मासे! होता है। (६ ) वम्दई का शहर 'मोहमयी पुरी! अग्रवा 'मोहमयीनामपुरी! अमोहमप्याः पुरी” नहीं होता, क्योंकि मोदमयी और पुरी में समानापिकरण सम्बस्ध है।
श्छ्ड
बृहदू-अत॒वाद-चन्द्रिका
पट्ठी हरेलुप्रयोगे।२३।२६॥ हेतु (प्रयोजन ) शब्द के साथ पष्ठी होती है, यथा--अह्नस्य शेतो!ः बसति ( अन्न के लिए रहता है )। यहाँ रहने का हेतु या प्रयोजन अन्न! है, अतः अन्न
और हेतु में प्ठी हुई
अध्ययनस्य देतोंः चाराणस्यां ठिठति ( अ्रषध्ययन के लिए पनारतत में हरा है।) यहाँ ठहस्ने काप्रयोजन या कारण अध्ययन! हे, अ्रतः “श्रध्ययन! और हेतु! मे घष्ठी हुई ।
स्ंनाम्नसुतीया व ।२श३ण यदि दँतु शब्द के साथ सबनाम का प्रयोग हो तो सवनाम और ऐतु शब्द, दोनों में ठृतीया, पंचमी या घप्टी होती है, यथा--कैन देतुना शझ्त्र चसति, फस्मात् हेतो; श्रन्न वसति अथवा कस्य देतोः अन्र बराति | पु इसी प्रकार--ठेन देतुना, तस्मात् देतो$ तस्य हेतोः थादि ।
मिमित्तपर्यायप्रयोगे सर्वासां प्रायद््शनम् (बा० ) * निमित्त श्रथवा उसके शअ्रथंवासक शब्दों ( फारण, श्रयोजन, देंठ श्रादि ) के प्रयोग हमे पर सवनाम एवं निमिच्याचक शब्दों में प्रायः समस्त विमक्तियाँ द्ोती हैं,यथा-को हेतु के हेतुम् केन देत॒ना कर्म हेतवे कस्मात् देतोः ऋरस्य देतो;
इसी प्रकार कि निमित्तम् केन निमिचेन कर्म निमित्ताय. श्रादि।
' थत् प्रयोजनम् येन प्रयोजनेन यरमे प्रयोजनाथ श्रादि
करिमन् हेतौ
यार्तिक में प्राय से तात्यव यह है कि सवनाम शब्द के प्रयोग ने रहने पर भी शग्मा द्वितीया को छोड़ कर श्रन्य विमक्तियाँ होती हैं, यया--
अध्ययेन अध्ययनाय अध्ययमात्
अध्ययनस्य अध्ययन
निमिचन निमित्ताय निमितात्
निमित्तस्य निमित्ते
( श्रध्यवन फे लिए ) अ गन
कर
चष्टपतसर्य्रत्ययेन शरे। अतमुच् ( तसू ) प्रत्ययान्त शब्दों (उत्तरतः, दक्षिशतः श्रादि )तथा इस प्रत्यय का श्रथ रपनवाले प्रत्यपान्त ( उपरि, अषः, अप्रे, शादी, पुरः थ्रादि )की जिससे सुमीपता पायी जाती है, उसमें पश्ठी होती है, बधा--
कारक-फप्रऊस्थ
र्७३
ग्रामस्य दक्तिणतः उत्तरत- वा |
गहस्वोपरि, अग्रे, पुर, पश्चाद् वा । पतित्रतानाम् अग्रें कीतनीया सावित्री ।
तस्य रिथित्वा कयमपि पुरः कौठुकाघानहैेतोः ( मेघदूते ) दूरान्तिकायें: पप्ठयन्यतरस्याम् शिशरे४। ५ दूर, अन्तिक ( समीप ) तथा इनके अथवाची शब्दों का प्रयोग होने पर पष्ठो तथा पश्चमी होती है, यथा-आमसस््य ग्रामाद् वा दूर वनम् । ( बन ग्रामसे दूर है| ) सारभायः वाराणस्थाः समीपम् ( सार्नाथ बनारस के समीप है | )
प्रत्यासजः माधवीमझडपस्य ( माघवी लाताकुज के पास )।
अधीगर्थदयेशा कम सि।शाशफरा अधि+इ
धातु ( स्मरण करना ), दय्(दया करना > ईश, ( समय होना )
तथा इन धातुओं की अ्र्थवाची घाठओं के कम में पष्ठी होती है, यथा-मातुः स्मरति ( माता की याद करता है )। रामस्य दयसानः ( रामके ऊपर दया ऊरता हुआ )4 गावाणाम् अनीशो5स्नि सइृतः ( मैं अपने अगों का स्वामी न रहा )। प्रभबति निजस्य“ कन्यकाजनस्य महाराज: ( महाराज अपनी पुत्री के ऊपर
समय हैं| )
विशेष--जय रूट घाद अपने साधारण अर्थ ( पाठ करना ) में प्रयुक्त होती है तब उसके कम म॑ द्वितीयाही आती है, यया-स्मरसि तान्यहानि स्मरसि गोदावरी बा यहाँ कर्म का व्यक्त किया जाना अमीप्ठ हे (यदा कम विवज्चित भवत्ति ददा पष्ठी न मवति ) /जाननेवाला/, या परिचित! या सावधान! इन श्रर्थों काबोध करनेवाले
विशेषणों तया इनके उलटे अथों का बोध करनेवाले विशेषयों के योग में कम में पढ़ो होती है, यथा--अनमिशो
सुणाना यः स भृत्यै्नानुगम्यते ( जो गुणों को नहीं
जानता उसका नौरर अनुसरण नहीं करते । ) अनम्यन्तरे आवा सदनगतस्य बत्तान्तस्य'[ कमी-कमी सप्तमी का मी प्रयोग होता है, यथा--यदि त्वमीदशः छथायामभिक्त: । तत्राप्यभिज्ञो जनः |
करतकर्मणोः ऋृति।शशह५। ऋदन्त शब्दों के कत्ता और कर्म मे पश्ठी होतो हे । ऋृदन्त शब्द अथात् जिनके आल्त 5: इत प्रच्यय--देच (द्ृ> अच (श्रऊँ घज्(ञ्रहै ल्युद्(अन ग्रे क्तिन
(ति ), खुल (अक ) आदि रहते हैं|
९७६
बृहृदू-अनुवाद-्चग्द्रिका
शिशोः रोदनम्
(बच्चे कारोना)
शाज्ाणां परिचयः
कालस्य ग्रतिः
( समय की चाल )
(शास्त्रों काशान ।
पुस्तकस्य पाठः राच्षतानां घातः राज्यस्थ प्राप्ति
(पुस्तक का पढ़ना )._ क्रियामिमा कालिदासश्य ( राक्सों का वध). (कालिदास की इस (राज्य की प्रात्ि 9, क्रिया को )।
यहश्व निधोरणम् राश९१॥ एक समुदाय में से एक वस्तु जब ॒विशिष्टता दिखलाकर छांट दी जाती है.तब जिससे लॉग जाय उत्में पष्ठी या सप्तमी द्वोती है, यथा-कवौनां कविषु वा कालिदासः भ्रष्ट; (कवियों मैंकालिदास भ्रे्ठ हैं ।)छात्राणा छात्रेपु वा गोपालः पटुतमः |
चतुर्थी चारिष्यायुष्यमद्रभद्रकुशलसुखायहितेः ।२३।७३॥ श्राशीर्वाद देने को इच्छा होने पर आायुष्प, मद्र, भद्र, कुशल, सुख, श्र्थ, हित तथा इनके परययवाची शब्दों फेसाथ चलुर्यों या पष्ठो होतो है, वथा-श्राय्॒प्यं चिर॑जीवित्त वा रामस्य रामाय वा स्यात् (राम चिरंजीवी हों )।
हू
हपस््य दपाय वा मद्र, भद्रं, कुशल वा मूयात् |
कृते ( के लिए, ), समत्तम् (सामने ), मध्ये, अन्तरे, श्रत्तः के साथ ही होती
है,यथा--श्रमीपा आणिनां इते ( इन कीयों के लिए )। राशः समज्षमेव ( राजा
के ही सामने ) | वालाना मध्ये, रहस्य श्रत्तः श्रस्तरे प्ठी चानादरे ।२३॥३८।
घा।_ ०“
जिसका अनादर ( तिरस्कार )करके फोई काय किया जाता है उसमें पष्ठी था रुतमी होती है, यथा-रुदत: शिशो:, रुदति वा शिशौ मावा वदिरगच्छुत् ( रोते हुए बच्चे केमाता बाहर चली गयी 9) निवास्यतोडपि पितः निवारयत्मपि पितरि दास; अध्ययन त्यक्तवान् ( ऐिता के
मना करने पर भी उसने पढ़ना छोड़ दिया ! )
हुब्याथैंरतुल्ोपमाभ्यां तुवीयान्यतस्स्थाम ।राशछरा बराबर, समान या “की तरह” श्रथंवाची तुल्य, सहश, सम, सकाश, श्रादि
शब्दों फे योग मैं वह शब्द तृत्तीया या फटी में रसा जाता दे जिसते किसी की तुलना की जाती है,यय[-कृष्णस्य कृष्णेन वा समः तुल्य: सदशः | नाय॑ मया मम वा समे पराकम॑ विभरति।
योग्य, उचित, अनुरूप, उपयुक्त अगंवाची विशेषयों के साथ प्रायः पट्टी होती है, पया--उके पुएघरेक,, गेप्फफरए% अप: फिस, पुर सपा खुद: फपा नहीं है )! श्रतु + झू का श्र्थ जबनकल करना वा मिलना शुलना द्वोता है,तब इसके कम में प्रायः पष्ठी होती है, यथा--ततोसतुकुयांत् तस्याः स्मितस्य | ( तब कदाचित् यह
१७७
कारक-प्रकरण
उठ्ठो मुस्कराइट से मिल जुल जाय |) सवांमिरयामिः कलामिरनुचकार त॑ बैशपाउनः ( अन्य सभी कलागओं में वैडगावन उससे मिलता जुलता या )।
त्तस्य च वर्तमाने ।शश६७
है
«
(के ) जब कऊप्रत्ययान्त शब्द (जो भूतझाल का बाचक है ) वर्तमान के अय में प्रयुक्त होता है तब पष्ठी होती है, यथा-अहमेव मठो महीपतेः ( राजा मुझे हो मानते हैं। ) राज: पूजित:, मतः वा ( राजा पूजते हैं, मानते हैं ) ।
यहाँ बतमान के अ्र्थ में क्ष प्रत्यय है, इसका श्रर्य हुआ--राजा पूजयति
सस्पते वा।
परन्तु जब मूतकाल विवक्षित होता है तव केवल तृतीया आती है, यथा-न खलु विदितास््ते चाणक्यहतकेन ( क्या दुष्ट चाणक्य द्वार उन लोगों का पता
नहीं लगा दिया गया १ ) (ख्र ) नपुंसके मावेक्तः ।३३।१४। सत्र केअनुसार माव अय में क्तप्रत्ययान्त नपुंसऊ लिश्ञ शब्दों के साथ 'क्ठृकर्मणोः ऋृति' के अनुसार पष्ठी होती है, यथा--
अपयूरस्य रृत्यम् (मोर का नाच )। छात्रस्य इसितम् ( छात्र का हँसना )। कोकिलस्य व्याह्॒म् (कोयल का वूकना )
चत्यानों कतेरि वा २१७१
कृत्य प्रत्ययान्त शब्दों के योग में कर्ता में तृतीया या पष्ठी होती है, यया--
पिता मम पूज्य, पिता मया पृज्यः ( पिताजी मेरे पूज्य हैं )।
न बश्चनीयाः प्रभवोष्छुजीविमिः ( नौकरों को अपने स्वामियों कोन ठगना चाहिए )। कृत्य पत्यवान्त क्रियाएँ तिडन्त क्रियाओं में यों बदलेंगी-पिता मम पूज्य+--अ्रहं पितर पूजयेयम्।
प्रमवोष्नुजीविभिः न दश्धनीयाः--प्रभून अनुलीविनः न वश्चयेयु: ) *
बृत्वोडर्प्रयोगे कालेईघिकरण ।शश६ष्ट बास्थार या अनेक चार अर्थ प्रकट करने दाले “द्विस, त्रिः”? शब्दों अथवा अध्टकृलन/ 'शितइृत्वः! थ्् वोधऊ संज्ञा विशेषण अव्यय शब्दों के साथ समयवाची
शब्द में उत्मी का भाव प्रकट होने पर भी पठ्ठी होती है, यया--द्विरहो भोजनम ( दिन में दो बार भोजन ), शतदृत्वस्तवैक॒स्या: स्मख्यहो रघूचमः ( रघुओेए औीराम-
अन््द्र जी तुम्हे दिन में सौबार याद करते हैं | ) लञासिनिप्रहूणनाटक्राथपिपां हिंसायाम ।२श५६।
दिसाथक जस्(णिजन्त ), नि तथा प्र पूवंक हन , क्रय ( णिजन्त ), नद
( झिजन्त ) तथा कक
पा के कर्म में पष्ठी होती है, यथा--
के
जौजसोजासयितु जगद् द्ुह्मम् ( संसार के द्रोहियों को अपने वल से मारने
के लिए। )
श्ष्प
दृइदू-अनुवादन्न्चन्द्रिका
अपराधिनः निहन्तुं, प्रहन्तुं, भशिहन्तुं बा(अपराधी के मारने के लिए )। चधिकस्य नाटयितुं क्राययितुं वा (वधिक के यंघ करने के लिए ) |
बमेश पेप्दुं सुबनद्विपामपि (कमशः जय द्रोहियों के नाश के लिए. )।
व्यवड्पणोः समर्थयोप्पश॥५ज सौदा का लेन-देन करना, 'जुआ में लगा देना इन श्रथों कीवाचक व्ययह
ऋर परण धातुओं के योग मे इनके कर्म में थी होती है, यथा--शतर्व च्यवहरणं पणम् (सैकड़ों का लेन-देन करमा ) | आगानामपरणिष्टासी (उसने याणों की बाजी लगा दी ) | परन्तु द्वितीया का प्रयोग प्रायः मिलता है, यथा-कृष्णा पणुस्व पाचालीम (पाचालराज की कन्या द्रौपदी को दाँव पर ज्षणा दो)।
दिवसद्यस्य ।0श५८ा दिव् धाव॒का जब उपर्यक्त श्रथ में प्रयोग होता है तब छसके योग में मो क्रम
में पष्ठी होती है, यथा--शतस्य दीव्यति (सौ का जुआ खेलता है ) । परन्तु दिय् का उपयुक्त अ्य न होने पर कस में द्विदीया ही होती है, यथा--
हरि दौव्यति ( हरि की स्ठुति करता है)। जब किसी घटना के हुए कुछ उुसय बीता हुआ बतलाया जाता है तत्र बीती घथ्ना के वाचक शब्द पट्टी में युक्त होते हैं, यथा-कनिपये संवत्सरस्तस्थ तपरतप्यमानस्थ (तप करते उन्हें कई वर्ष
हो गये हैं )। झद्य दशुमों मासस्तातस्योपरतस्य ( मुद्राराज़से )। झंशाशिमाव या अवयवावयविमाव होने पर श्रंशों तया अवयबी में पष्ठी होती
है, यया--जलस्य बिन्दु), अयुततं शरदा ययों (दछ इजाए बर्ष बीत गये ) राजेः पृथ| , दिनस्य उच्तरम् ।
प्रिय, वन्लम तथा इसी श्र्थ केबाचक शब्दों के योग में पष्ठो होती है, यथा+काय: कस्य न वल्लमः |प्रकृत्वैव प्रिया सीता रामस््यासीत् । विशेष, अन्तर थ्रादि शब्दों के योग में जिनमें विशेष या अन्तर दिखाया जाता हैवे पट्टी में होते है, बधा-- तव मम च॑ समुद्रपल्वलयोरिवान्तरम्। एलावानेयायुप्मतः
शतक्तीअ विशेष: (श्राप और इद्ध में इतना ही श्रन्तर है )।
संख्कव में अनुवाद करो ३०-सीता को राम आयों से भी श्रविक प्रिय थे। २--यदि मनुष्य सभी कार्यों मैं पशुद्यों कीनफल करे ( श्रनु+कू ) तो दोनों में क्या श्रन्तर हे| ३-दे मित्र पुण्टरीक यह त॒ग्दारे योग्य नहीं है|४--भीरामचन्द्रज़ी को म्रित्रों केदेखने से केबल दुः्स ही दोगा | --गलती करना मनुष्य को धर्म है। ६--मिन,
कारक-ग्रफरस
१७६
निराश मत होओ, जिसके लिए ( इठे ) इतने ढु.सी हो वह स्वय तुम्हारे पास
आवेगी ।७--श्राचीन काल में आय लोग सारा काम पुत्रों कोसॉप कर वन की गमन करते ये |८--तुम्दाय यह कार्य अपने उच्च कुल के उपयुक्त है। ६--अनेक कृवियों ने हिमालय की भूरि-भूरि प्रशसा की है। १०--घार्मिक पुस्तकों से वेद सब से प्राचीन तथा ओए हैं । ११--विद्यार्थियों को उत्तम पुस्तक सुन्दर सुन्दर बस्तरों की श्रपेज्ञा अधिक प्रिय लगती हैं ॥ १२--भ्रीमान् अपने शिष्यों के ऊपर प्रमाव
रखते हैं. (प्र+म् )। १३--जिसके स्वय बुद्धि नहीं है, उसको कैसे ज्ञान दें १४--अ्रीमान् तथा मुझमें उतना हो अन्तर दे जितना समुद्र और गड़ददी में | १५--पिताजी को मरे हुए. ग्राज दस महीने हो गये ।
हिन्दी मे अनुबाढ़ करो १--श्रयि, भागीसथीप्रखादात् बनदेवतानामप्यदश्यासि सबृत्ता । २--न सलु. स उपरतः यस्य वच्चभो जनः स्मरति | ३--कापि महती बेला चर्तते तवाहश्स्य।
४--पभिडमादुष्ड्रतकारिशीं यस््याः झते तवेयमीदशी दशा बतते | ४--देव्या£
शल्पस्य जगतो द्वादशः परिवत्तरः। ६-शरीरस्प गुणानाच दूरमत्यन्तमन्तरम् ।शरीर चशविष्यसि कल्पान्तस्थायिनो गुणा;। ७--अपीष्सित ऋ्नकुलागनाना न बीरसुशब्दमफामपेताम् ।८--ठस्मै कोपिध्यामि यदि त प्रेत्ञमाणा आत््मनः प्रमविष्यामि ॥
&--अह पुनप्॑प्माक प्रेज्ञगायानागेन स्मत॑व्यशेष नयामि | १०--कचिऋत ३स्मरसि
सुमगे (व ह्वि तस्य प्रियेति। ११---मया तस्य किमपराद य भा परुषमबादीत् | १२-कोडतिमारः समर्थाना कि दूर व्यवसायिनाम्। को विदेश: सविद्याना का पर: प्रियवादिनाम | दशम अभ्यास
अधिकरण कारक ( सप्तमी ) मे, पर
(६ ) तुदादिगणीय कुछ धातुएँ बुदू-इुसदेना मिलू-मिलना मुन्चूनछोड़ना विश्यूसीचना
लद्
तुदति मिलवि मुश्धति
उिज्वति
दृपू-युप्त रोना. सृपति विश-प्रवेश करना विशति.
अच्यू-इछमा
रचछति
लद
शअठुदत् अमिलत् अ्रमुश्त्
ल्ूदु
लोड
वोल्यति बुदढे मेलिष्यति मिलव. भोक्ष्यति मुझ्रठ.
अखिख्त्.सेक््यति
सिश्चद.
अतृपत्ू. अ्रविशत्
ठृषछ विश
तर्पिष्पति. देच्ष्यति
अपच्छत् प्रदंवि
एच्द..
विधिलिद/
डबेब , मिलेत् युख्ेत सिद्धेत् तयेत् विशेत्
एच्छेत्
१४-अनभवत्तः सम च संमुद्रपक्षवयोरियरान्तरम्॥ १५--परिवाजी को भरे
हुए--तातस्थोपरतस्य ।
र८०
पृद्ददू-अ्रनुवाद-चन्द्रिका
विशेष--त॒दादिगण की धातुएँ म्वादिगण की धाठुओं के समान हैं । अन्तर इतना ही हैकि स्वादिगण में धात को उपधा को अथवा अन्त के स्वर को गुर
द्वोवा है,ठदादि में नहीं होता |ठदादिगणीय धावुश्नों के रूप परस्मैपद में धठति-घदतः की माति और श्रात्मनेपद में 'सेवते' या 'जायते' की भांति होते हैं।
(७ ) रुघादिगणीय भुज्(भोजन करना ) आत्मनेपद वर्तमान काल ( लद॒) प्र०पु० म० पु० ७ पु०
एकब० दसुददक्ते भदत्ते भुच्जे
| जन पु० म० धु०
अभृुदूक्त अभुद्याः
द्विव० “अुज्ञाते भुज्ञाये भुय्ज्यददे
बहुब० भुञ्ते भुदध्वे मुम्ज्मद्दे
श्रनद्यतन मृतकाल ( लदू )
उ० पु०
श्रमुज्ञाताम् अ्मुझ्ञाथाम्
अमुन्नि
अमुज्ञत श्रभुद्ध्वम्
अभुज््वह्ि
अमुउ्ज्महि
भविष्यतूकाल (लृद्)
प्र० धु०
म० पु० उन्पु०
भोच्यते
भोक्यसे . भोक्े
श्राशाथक लोद्
भुदक्ताम् मुज्ञाताम भुद्ल॒ भुज्ञायाम् अशे भनज्ञापहे लद्
झघू-रोकना दुशद्धि मिंदु-फाइना मिनसि छिंदुू--काटना दछिनत्ति..
भोक्ष्येते
भोद्यन्ते
भोक्ष्यये मोच्ष्यावददे
भोक्यध्वे भोक्ष्यामदे
विधिलिद
मुज्ञताम् प्र० पु० भुन्नीव भज्जीयाताम भुज्व्वमू म० ० भुझीयाः मुझीयाथाम भुज्ञामदे उ०पु० मुञज्ञीय भुजीवदि. रुघादिगणीय कुछ धातुएँ
भुझीरन् भुश्नीणरपू भुज्जीमहि
लद्ू
लूट
लाट्
विधिलिड
अ्रदणत् श्रमिनत्. श्रच्छिनत्.
रोत््यति मेत््यति छेल््यति.
रुणदु मिनचु.. छिनतु...
आन्ध्यात् मिन््यात् छिन्यातू,
सम्नमी
इन वाक्यों को ध्यान से पढ़ो--
हि
(१) करिमन्नपि तट
प्रति क्रपराप किया है।
शबुन्तला ( शबुन्तला ने किसी गुरुजन के
;
है
( २) बोस्यसचिवे न्यरतः रूमस्तो मरः ( समस्त रा्यभार योग्य मन््त्री पर छोड़
दिया गया है । )
कारक ग्रकरण
श्प्ट
(३) न खब्ठु न सलु वाणः सब्निपरत्योव्यमस्मिन् (इस सुकुमार हरिस-शरीर हु पर कदापि बाण नहीं छोड़ना चाहिए। ) (४ ) पुरोचनो जतुणदे अम्रिमदात् पाण्डवास्तु प्रागेब ततो निरक्रामन् ( पुरो-
चन ने लास के घर को आग लगा दी, किन्तु पाए्डव पहले ही वहाँ सेनिकल चुके थे ।) ( ५.) बतीना बल्कलानि इच्चशाखालवलम्बन्ते, अतस्वपोवनेनानेन मय्रितन्यमर ( मुनियों केवल्कल इक्षों कीशाखाओं सेलब्क रहे हैं, अतः यह तपायन ही होगा। )
अधिकरण कारक-सप्तमी आधारोडघिकरणम ।(७४४५। सप्तम्यधिऊुस्णे च ।शशर३६। जिस स्थान पर कोई काय दह्वाता हे उसे अधिकरण कहते हैं और वह सतमी पिमनि में रखा जाता है, यया--स्याल्यामोदन पचति ( बटली में खाना पकाता है ) | झ्रासुने उपविशति ( श्रासन पर बैठता है )। श्पार तीन प्रकार का होता दे--( १) औपश्लेपिक, (२) वैपत्रि तथा (३ ) श्रभिव्यापफ । (१ )औपरलेपिक आधार--जिसके राय आवेय का भौतिक सश्लेप हा, यथा--कढे आस्ते (चढाई पर है), यहाँ बैठने वाले का मौतिक सश्लेप स्पष्ट
दिखाई देता हे।
(२) वैधपरिक आधार--जिसके साथ आवेय का व्याप्य-ब्यापफ सर्लेप हो, यथा--ोत्ते इच्छास्ति | यहाँ इच्छा का मोक्ष! में अधिष्ठित होना पाया जाता है।
( हे ) अभिन्यापक आधार--जिसके साथ आधेय का व्याप्य-व्यापफ सम्बन्ध हा, यथा--निलेपु तैलम् । यहाँ तेल समी तिलो में व्यात है।
( र्ुम्येन्दिपयस्थ कर्मस्युपसंस्यानम् चा०) क्प्रययान्त शब्द में इन् प्रत्यय लगकर बने हुए. शब्द के योग में उसके फर्म में उत्तमी होती है, यथा-प्रघीती चत॒र्ष्या्नायेपु ( चारों वेदों को पढ चुकने वाला )। गह्ीती पदस्पग्रेपु (छद्ों अगों का प्रफाएंड विद्वान ) ।
( साथ्वसाथु प्रयोगे च बा० ) साधु और असाथु के प्रयोग में सपमी विभक्ति होती है, यया--मातरि साधुरसाथुर्वा (अपनी माता के प्रति सदृव्ययह्वार अयवा असदू व्ययहार ऊरता है| )
( निमित्तात्कर्मयोगे बा० )
जिस फल फी ग्रात्ति के लिए कोई क्रिया की जाती है, वह फल यदि उस क्रिया के कम सेयुक्त हो दो उसमें सतमी होती है, यया-चमणि द्वीपिन इन्ति, दन््तयोईन्ति कुद्धस्म् । केशेपु चमरी हन्ति, सीम्नि पुष्कलको हत+ ॥
रघर
वृहदू-ग्रनुवाद-चन्द्रिका यहाँ 'द्वीपी! कम के साथ उसका चमे फल ग्रात्ति है, ठसीके लिए हत्या की
जाती है | इसी प्रकार दन्तयो3, केशेयु तथा शीघ्ि में मी सप्तमी हुई। अतग्व निर्धासरणम् १३४९
जब किसी वस्तु की अपने समुदाय से किसी विशेषण द्वारा कोई विशिष्टवा दिखलायी जाती है तंत्र समुदाय बाचक शब्द पष्ठी अथवा सप्तमी में रखा चाता है, यथा-कबीना कविपु वा कालिदाठ: श्रेष्ठ: छात्राणां छात्रेपु वा गोविन्दः पदुतमः | जीवेपु जीवाना था मानवाः श्रेष्ठाः |
अस्य च भावेन भावलन्षणम् ।श१३७० जब किसी कार्य के द्वो जाने पर दूसरे काय का होना प्रतीत होता है तब जो कार्य हो चुकता है उसमे सप्तमी होती है, यथा--रामे बन गसे दशरथः प्राणान् तत्याज ( राम के बन चले जाने पर दशरथ ने ग्राण त्याग दिये। ) सूरयें उदिते कमल॑ प्रकाशते (रथ के उदय होने पर कमल खिलता है)। स्वेंपु शयानेपु कमला रोदिति (सब के सो जाने पर कमला रोठी है )।
अप्तमीपद्चम्यो कारकमध्ये १७
समय और मार्ग का अन्तर बतज़ाने वाले शब्दों में पश्षमी और स्समी होती
है, यथा--्ञ्रय॑ ब्रोशे क्रोशाद्य लक्ष्यु विध्येत् (यह एक कोछ पर लक्ष्य बेध
देगा )|श्रद्य भुक्ताय॑ च्यदे व्यहादया भोक्ता | कं आयुक्तकुशलाभ्यां चासेवायाम् ।२३॥४० साधुनिषुणाम्यामर्चाया सप्तम्यप्रते+
शशेश्३।
है
संलग्नो्थंक शब्दों तथा ( युक्त।, व्याप्त, तलरः श्रादि ) चतुराथक शब्दों ( कुशल, निषुण/, पढ़ुः आदि ) के साथ सप्तमी द्वोवी है, यथा--कार्ये लग्नः,
त्त्पएः । शास्त्र निषुणः दक्तः प्रवीणः आदि |
अप्ठी चानादरे ।शशरेप।
हि
हे
ट
जिसका श्रनादर करके कोई कार्य किया जाता है, उसमें पष्ठी या सत्तमी होती
है, यधा--निवारवंती5पि पितुः निवारयत्यपि पितरि वा रमैशः श्रघ्ययर्न त्यक्तवानूमत के मना करने पर भी रमेश ने पढ़ना छोड़ दिया। ) वेषयिकाघार में सप्मी-स्विह, श्रमिलप+अनुरंज् श्रादि स्नेह, श्रासक्त शथा सम्मानवाचकर शन्दों केसाथ जिसके लिए स्नेह, आसक्ति तथा सम्मान
अदर्शित किया जाता है, बह रु्मी मैं रखा जाता है, यथा--किन्त्र पल बलिईध्मिन् स्निद्मति में मनः ( मेरा मन इस बालक को क्यों प्यार करता है! ) न तापस-
भन्यायां शबुल्दलावा ममामिलापः ( भुनिकन्या शह़न्तला से मेरा सनेद नहीं है)। देदे चन्द्रगुम इृढमनुस्काः प्रकृतयः ( चस्गुप्त केप्रति ध्ना का बहुत बढ़ा अनुराग है )।॥
कारक-प्रऊरण
श्घर
युज्घादके साथ वया युज्से प्त्यय द्वारा निष्पन्नशब्दोंके साथ सत्तमी
इंती है, यथा--असाघुदर्शों मगवान् काशवपो य दमामाश्रमघरमे नियुड्क्ते (ृज्यपाद काश्यपजी महाराज बुद्धिमान् नहीं है, जिन्होंने इसे आश्रम के कार्यों में लगा रखा हे )। प्योग्यता' अ्रथवा 'उपयुक्तता' श्रादि श्र्थों काबोध कगने वाले शब्दों के शोग में उस व्यक्ति कावाचक शब्द सम्तमी में रसा जाता है, जिसके विषय में योग्यता अ्यवा उपयुक्तता प्रकट की जाती है, यया--युक्तवुपमिदं त्वयि ( यह
तुम्झरे लिए योग्य है ) | च्ैलोक्यस्यापि अमुत्व तस्मिन् युज्यते ( तीनों लोकों का भी राज्य उसके लिए. उपयुक्त है )। वे गुणाः परस्मिन् श्रक्षण उपपदन्ते ( वे गुण पख्क्ष के लिए उपयुक्त हैं )। जय कारणवाची शब्द का प्रयोग होता है तब कार्य सतमी में रखा जाता है, यथा-दैवमेव हि रुणा दृद्धौ छये कारणम् ( माग्य ही मनुष्य की उन्नति तथा अश्रवनति का कारण है )। सप्तमी विभक्ति स्थान का बोघ कराती है, परन्त श्रनेक स्थलों पर सप्तमी उस
वस्तु या पात्र में भी प्रयुक्त होती है, जिसको कोई चीज दी जाती है या सुपुर्द की
जाती है, यथा--योग्यसचिवे न्यस्तः समस्तो भरः ( योग्य मन्त्री केऊपर समस्त
भार सौंप दिया )। शुक्नासनाम्नि मन्निणि राज्यमारमारोप्य स यौवनसुसमनुबमूव ( राज्य का भार यीग्यमन्त्री शुकरुनास को सौंपकर वह यौवन का सुख भोगने लगा )। वितरति गुरः प्रा विद्या ययैव तथा जडे ( गुरु जिस प्रकार से चतुर शिष्य को विद्या प्रदान करता दे, उसी प्रकार मृढ़ को मी ) ।
कैकना या 'किसी पर भपठना! अर्थ का वोध कराने वाली क्षिप्, मुचू, अस् घातुओं के योग में जिस पर कोई चीज फेंकी जाती है या भापठती है बह सत्मी में रखा जाता है, यया--झूगेप शरान् मुमु्षोः ( दरियों पर बाण छोड़ने की इच्छा रखने वाला
)। न खल्लु बाणः सत्निपात्यो5स्मिन् सगशरीरे ।
संस्कृत में अनुवाद करो १--इस विद्यालय में वालक और बालिकाएँ पढ़ती हैं। २--राम ने वाल्यकाल में समस्त विद्याएं सीखीं। ३--गेंद के खेल ( कन्दुकप्रतियोगिता ) में हमारा विद्यालय प्रथम रह।
४--शड़क ( राजमाग ) पर घोड़े दौड़ रहे हैं। ५--
शरद् काल में (शरदि ) वन में मयूर नाचते हैं । ६---क्या वह तुम्हें मार्ग में नहीं मिला | ७--विधान-भवन में विधान-समा को बैठकें (उपनिवेशन ) होती हैं। रू-मनुणों में शह्मण भरेष्ठ ईऔर पशुओं में सिंह | &--पशुयझरों मेशऋूगाल बहुत चतुर है | १०--इस तालाब में कमल के फूल खिले ( फुल्लित )हैं। ११--जिसने जवानों ( यौवन ) में नहीं पढ़ा बह बुढ़ापे ( वाद्धक ) में क्या पढेगा ! १२--यौवन के मद मे सभी अन्चे हो जाते हैं। १३--फ्लों में आम (आमम्र ) उत्तम है|
श्प्ड
बहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
१४--जिस देश में तुम उत्पन्न हुए दो, उसमें हायी नहीं मारे जाते (न हनचन्ते )॥ १४--इस राजा की सारी प्रजा इसमें अनुरक्त है (अनु+- रंज )। १६-इस बगीचे में सब वृत्तों से यह वृक्त लग्बा है। १७--भारतीय कवियों में कालिदास
और भवभूति उबसे अधिक अरिद्ध हैं। १८--कैकेयी राम के चौदह बर्ष पे
बनवास का प्रधान कारण थी। १६--जो यूतकला मे निपुण हैं वे अपना राय समय॑ जुआ खेलने में बताते हैं। २०--इस लड़के की शिक्वा के विषय मे चिन्ता ने कीजिए |
हिन्दी भे अनुवाद करो ३-छढ ल्वयथि बद्धभावोबंशी। नस इतोगतमनुराग शिमिलयति। २-अशुद्धप्रकृताौ राशि जनता नातुर्यते। ३--म जानामि केनापि कारणेन त्वगरि विश्वरिति मे छृदयम् |४--छ्षमा शत्रौ व मित्रे च यतीनामेव भूपणम्। ५--म मातरि न दारेपु न सोदयें न चात्मनि। विश्वासस्ताहशः पुंसा यावन्मित्रे स्वभावणे | ६--उपकारिपु यः साधुः साघ॒त्वे सस्य को गुणः। अपकारियु यः धाधुः स साधुः
सह्धिसुच्यते |७--मूतानां प्राखिनः श्रेष्ठाः प्राणिनां बुद्धिजीविनः। बुद्धिमत्मु नराः
प्रेष्ठा मरेषु आ्ह्मणाः रुखताः ।८-लताया पूर्वलूनाया प्रयूतस्थागमः कुतः ! ६इुमवस्थान्तरं गते ताइशे&जुरागे कि वा स्मारितेन | १०--जीवत्सु तातप्रादेषु नवे दारपरिमद्दे | माठृमिश्रिन्त्मानानां ते हि नो दिवसा गताः |] एकादश श्रभ्यास
करोति.
सम्बोवन ( प्रथमा ), हे,भोः (८) तनादिगणीय ऋ ( करना ) परस्मैपद लू लद् छुछझतः . कुर्वन्ति प्र० पु० अकरोत्. श्रकुसतामू
करोपि..
कुझथः
करोमि.. लुदके करोदु.
कझुबेः
कुरथ
म० पु० अकरोः
श्रकुबन्
श्रकुरतम्
श्रकुदृत
कुर्यातम् कुर्याव
कुर्यांत कुर्याम
कुम्म: उ० पु० अकरबम्. श्रकुबं अकुम करिप्यति करिष्यत: करिष्यन्ति श्रादि। लोदू , हे विविलिश + कुष्तामू कुबन्त ग्र पु० झुयात् कुर्याताम्र कु
कुझ कुस्तम. करवाणि करबाब
कुछ्त॑ मण् पु कुर्या:. फरवा्म 3० पु० कुर्यमाम
(६ ) क्रयादिगणीय प्रह(पकइना ) परस्मैपदू
+
गहाति...
लद् ण्हीतः. गहस्तिग्र० पु० श्रण्डाव
लू अदद्वोताम्
अगहन्
ग्रद्धास. गद्मामि
गडोपः गहीवः..
श्रयद्वीतम श्रश्होतर
अ्रगद्भीत अगद्धीम
शहीय मन पु० अग्हा:. ग्द्दोमःउ० पु० अ्रग्दाम
श्३ृ
कारक-प्रफरण
श्प्
लट-भरद्दीप्यति प्रहीष्यतः ्रद्दीप्यन्ति आदि ।
गहाव॒
विधिलिड'
लोद
गहीतामू,. शहद प्र० पु० णहीयात्.
शद्दीयाताम
शहीवुः
गहाण.
गरह्लीतम
ण्ह्लीत म० पु० ग्रहीयाः
ण्ह्वीयातम्
गद्ीयात
ग्हानि
ग्रहाव
गशह्माम उ० पु० ग्रद्धोयाम्
ग्द्दीयाव
ण्ह्डीयाम
ऋयादिगणीय कुछ घातुएँ क्री--सरीदना. प्री--खुश करना पू--पवित करना
लद् क्रीयाति प्रीणाति पुनाति
लड अक्रीणात् अग्रीणात्ू अपुनात्
लूड् छ्रेष्यति प्रेष्यति पविष्यति
लोद् क्रीयाठु प्रीणातु पुनात॒
बू--वर छाटना. धू--कापना अशू-खाना
इंणाति घुनाति अश्नाति
अद्वणात् अधुनात् आश्नात्
वरिष्यति घविष्यति अशिष्यति.
बणातु धुनाठ अश्नावु
मुपू--चुराना
स॒ष्णाति
अमुष्णात्.
बघू-बाँधना
बघ्नाति
अपष्नात्
शा->जानना जानाति श्रजानात् विधिलिड--( क्री ) क्रीणीयात्, (प्री) (६ ) इणीयात् इत्यादि।
मोपिष्यति मत्य्यति
मुष्णातु उध्नावु
ज्ञास्थति जानाठ प्रीणीयात् , (एू) पुनोयात्
( १० ) चुरादिगणीय छुछ धातुएँ
लूद्
चोर्यति ते अचोरयत्-त
लड्
चोरबथिष्यति-ते चोरयतु-तामर
लूद
लोट._
गण--गिनना कथू--कहना भक्ष-खाना
गणयति कथयति मक्तुयति
अगणयत् अकथयत् अमक्षयत्
गणयिष्यति कथविष्यति भक्तविष्यति
गणयतु कंथयतु भक्तेयतु
तड--पीटना रचू-बनाना
ताडयति स्चवति
अताडयत्. अरचयत्
ताडयिप्यति रचयिष्यति
ताडयदु रचयतु
तलू--तोलना
तोलयति
अतोलयत्.
तोलयिप्यति
तोलयतु
पूजू-पूजा करना
पूजयति
अपूजयत्ू.
चुरु-छुराना
अच् -पूजा करना अचंयति. आउद्वादू-खुश करना आह्वादयति चिन्तू--सोचना. चिन्तयति
क्षल--धोना
चालयति
बस्ट-वाँगना. वण्टबति घुप-ढिंढोरा पीटना घोषयति
,
पूजयिष्यति
पूजयतु
आचेक्त्.
अ्र्च॑बिष्पति
अर्च॑यतु
आह्वादयत् अबिन्तयत्
श्राह्नादयिष्यति आह्वादयतु चिन्तविष्यति चिन्तयदु
अक्षालयत्._
क्लालविष्यति
क्ञालयठ
अवण्टयत्. अधोपयत्
बण्ट्यिष्यति घोपग्रिष्यति
वसण्य्यतु घोषयतु
श८६
बृहृदू-श्रतु वाद-चन्द्रिका
शरी-खुश करना
ओऔणयति
साहू_-इच्छा करना स््यति
संग--दंद़ना आऑग्रयति मृप--सजाना भूषयति घबणए--वशनफरना वरयति
अ्प्रीययत्.
ग्रीणयिष्यति
अस्हयत्.
झमागयत् झमृपयत्. अवशयत्.
प्रीणयत
स्पृदविष्यति स्परहयतु
?मार्गविपष्यति भागयव भूपयिष्यति भूषयतु वर्णविष्यति वणयत
लोइ--देसना. लोकयति शअलोकयत्. लोकविप्यति लोक शान्व-शान्तकरना सान्वयति श्रसानलयत् झान्ल्यिष्यति खान्त्रयतु बुक-कुततेका मौंकना बुकयति झबुक्यत्. बुकमरिप्यति. घुक्ययतु विधि लिर-( चुर् ) चौरयेत्, (गण ) गणवेत्, (कथ्) कथयेतू श्रादि | इन वार्क्यों को ध्यान से पढो-(१) है इंरवर ! देहि मे मृक्तिम् (दे ईश्बर, मुझे मुक्ति दो | ) (३२) मो मित्र, क्षमस्व श्रजानता मया एवं भाषितम (दे मित्र, क्षुमा करो, अजानवश मैंने ऐसा कहा |)
(३ )दे वाले, क्य गन्तुमिच्दसि (दे बाला, कहाँ जाना चाहती हो ! ) (४) मो महात्मनू, कि मवता मोजने कृतम् ! (हे महात्मन्, क्या शपने मोजन कर लिया ! )
(५) दे पुत्र, सदा रत्यं बद धर्म चर (दे पुत्र, सदा उच बोल श्र भ्रम कर )।
सम्बोधन (प्रथम )--किसी को पुकार कर श्रपनी श्रोर श्राइष्ट करने को सम्बोधन कहते हैं । उम्मोधन में प्रभमा विमक्ति होती दे और सम्बोधनवाचक शब्द के पूव मो), श्रये, दे आदि चिंध्द लगते हैं। उवनाम शब्दों काससोधन नहीं होता श्रीर श्रक्राराम्त शब्दों केएकवचन में विसग नहीं होता । श्राकारान्त
आर इफाराम्त शब्दों के प्रथमा केएकवचन में ए (दे लत, हे हरे )और ईकारान्त शब्द के प्रथमा के एकवचन मैं (३? (दे नदि ) श्र उकारान्त शब्द के ओो! (दे साधो ) दो जाता है ।
संस्कृत मेंअनुवाद करो
र--महाराज, श्राप राज्य में प्रथा को सुख है। २--मित्र, कल तुम हमारे घर श्राश्रोगे ! ३--दात्रो, श्रपना पाठ ध्यान से पढ़ों ।४--बालकों, गुरु की सेवा करो, फल मिलेगा। ५--लड़को, परिश्रम करो अवश्य परी में उत्तीश हों
जाओगे | ६--प्रातः उठो, हाय-ैर धौशो श्रौर पढ़ो |७--विदार्थियो, श्रध्यापकों
का उपदेश ग्रदण करो क्रौर उठ पर चलो | ८--मित्र, श्रापके पिता कुशल से तो
ई!(शआपि दुशली“
“४ ) ६&--पुत्र कमो कूद न बौल, रुत्य परचल | १०---
ज्ड़कियों £ तुम थ्राज स्कूल क्यों नहीं गयीं ! ११--महाशय, क्या श्राप्र कल मुझे
दशन देंगे! १२-चच्चों, समय पर उठो ओर ब्यावाम करयों। १३-प्रिठा जो,
कारक-प्रकरण
श्र
सफल होऊंगा। १४-मखत, तुझारे जैसा मैं भेहनत करूँगा श्रौर परीक्षा मैं ( त्वाहशः ) भाई ससार में अन्य नहीं है |१४--है सीता, जगल में अनेक कष्ट हें, तुम घर पर ही रहो।
उपपद विभक्तियों की पुनराह्रत्ति क्परण बताओ कि मोटे टाइप में सुद्वित शब्दों मेडल्लिखित विभक्तियाँ
क्यों हुईहै--
(क) द्वितीया १-|दिवं च प्रृथ्वीं चान्तराउन्तरिक्षम ( श्राकाश और पृथ्वी के बीच मे श्रन्तरिक्त है।) र-मामन्तरेण कि नु चिन्तयत्याचा्य इति चिन्ता मा बाघते ( आचाये मेरे विपण में क्या विचार करेंगे यह चिन्ता मुझे ढुःख दे रही है। ) ३--चिछ् त्वांयः छार्यातुस्न््थविचारमन्तरेण कार्य करोपि ( तम्दें घिक्कार ह्ेजो द्यय॑ के फल पर विचार किये प्रिना छार्य करते हो | )४--परितः नगर विद्यत शा परिखा या रुदैव जलपूर्णा (नगर के चारों श्रोर एफ खाई है जो सदेव पानी के भरो रहती है।)। ५--मां प्रति त्व॒ दि नासि वीरः, त्व दि कातराज्नातिमिवसे (मेरे विचार से तुम वीर नहीं हो, ठुम तो एक कावर से अधिक मिन नहीं हो । 2
६--विनय बात बिना वर्ष विद्यूदुत्पदर्नविना | दिना हत्तिह्ृतान्दोषान्केनेमी परातितौ द्रुमौ ॥
(आधी, वर्षा और बिजली के गिरने केशिना वया हामियों के उत्पात के बिना क्सिने इन दो बृत्तों कोगिराया है )
( ख ) तृतीया ७--शशिएना सद याति कौसुदी सह सेघेन तडित् प्रलीयते ( चाँदनी चन्द्रमा
के साथ जाती हे और मेघ के साथ विजली
)। ८--कष्ट व्याजस्थम् , दद दि
द्वादशमिवंप: श्रेथते (व्याकरण सूठिन है, यह बारह वर्षों म॑पढ़ा जाता है। )
६-सहसे रपि मूर्साणमेक क्रीणोव परिडतम् ( हजारों मू्खों केबदले मे एक परिड़त खरीदना अच्छा है।) १०--स स्वरेण राममद्रमनुदर्रते (वह खर में प्यारे राम से मिलता-जुलता है! ) ११--हिरण्येनार्थिनो मवन्ति राजान,, न॑ च ते
प्रत्येक दरडयन्ति ( राजाओं को सुप॒र्य की आवश्यकता रहती है, किन्तु वे सभी से तो जुर्माना नहीं लेते । )
(ज) चतुर्थी १२-गामानामक: प्रस्प्रवमलल, जविस्कोनाम्ले प्रसिर-मल्लायालमू(गामा नामक विरपरात पहलयान
जिसको नामक पहलवान के लिए कापी है| ) १३--
उपदेशो हि मूर्खाणा प्रकोपाय न शाल्तये ( मू्लों कोउपदेश देना केवल उनके ऋ्रोध को बढ़ाना है, न क्लि उनकी शान्ति केलिए।) १४-नमस्तेभ्यः पुराण-
झुनिभ्यों येमानवमाज्स्थ कृते आचारपदति प्राशयत् (उन प्राचीन सुनियों फो
श्प्फ
बृहदू-गनुवाद-चनिद्रिका
प्रयाम है, जिन्होंने मनुष्य मात्र केसदाचार के लिए नियम बनावे।) १४-गोभ्यों त्राक्रणेस्यश्व ख्ति ( गौझों काऔर ब्राह्मथों का कल्याण हो | ) १६-श्रलमिदम उत्साइश्रशाय मबिष्यति ( यह उत्साइ की गिराने के लिए काफी है। ) १७--क्रपफ्रेस्यः कमकरेभ्यश्व कुशलम्मूबात् (किसानों और भजदूरों काभला
ही। ) (८-प्रमवति उ एकेनैव हायनेन साहित्वमध्यमपरीक्षो्तरणाय (बह एक
वर्ष में साहित्य मध्यम परीक्षा में उत्तोर्श होने के योग्य है। )१६- भवयन्धच्छिदे तस्ये स्ृह्यामि न मुक्तये ! मवान् प्रभुरई दास इति यत्र विलुप्यते ॥ ( श्री हशमतः ) जिस मुक्ति में झाप प्रभु हैंऔर मैंदास हूँ, यह मावना विलुप्त दो जाती है, मवबन््धन के नाश के लिए मैंउस मुक्ति की इच्छा नहीं करता ) (घ) पद्चमी
२०--धीरा मनस्थिनों न धनात्मतियच्छुन्ति मानम् ( धीर मनस्वी लीग धन के बदले मैं मान को नहीं छोड़ते | )२१--खार्थात् यर्ता गुझ्तरा प्रशविक्रिविव ( सलुस्पों केलिए श्रपने अयोजन से मित्रों का प्रयोजन ही बढ़ा है।) २९० मास्ति सत्यात्ययों धमों नानृतातू पातक॑ मद॒त् ( सत्य से बढ़कर कोई धम नहीं श्रौर
झूठ से बढ़कर कोई पाप नहीं।) २३-आमादारादारामः थत्र व्शवसायात्रिदृत्त
ग्रामीणा श्रारमन्ति (गाव के पा एफ याग है, जहाँ काम धथे से छुट्टी पावर ग्रामबादी आनन्द मनाते हैं ।)२४--छते बसन्तान्नापरः ऋत॒राजः ( बरुन्त को
धोड़कर श्रत्य ऋतु को ऋतुराज नहीं कहते।) २५४--सूों हिचापलेन मिद्ते
परिडतात् ( मूर्स काचपलता के कारण परि्ठत से मेद समझा जाता है। ) |) पट्ठी २६--तस्मे कोपिप्यामि यदि त॑ प्रेज्ठमाणा5उत्मानः प्रमविष्यामि ( उसमे मैं ) )२७-क्रोध करूँगी, यदि में उसे देखती हुईअपने श्रापफो वश में रख सकी श्रपराध किया जो मंया तस्य किमपरादं यः मा परस्यमवादौत् ( मैंने उसका क्या तस्य
चिर॑ दृ्स्य बह मुझे खोटी-खरी मुनाने लगा ! ) २८--तस्य दर्शनस्वोत्कएठे, चिर हो गया ६ै। ) ९६--
(मुझे उसके दर्शनों कीउत्कर्ठा है, उसे मिले हुए सविद्याना कः को:तिमारः समर्थानां कि दरअावलायिता को १४ व्यवसायवाल सा प्रियवादिनाम, !(समर्थ लोगों के लिए क्या कठिन काय, है|प्रियवादियों लिए. के लिए. फोनन्सा विदेश है! सेिबकापज ह।विद्वानों के ( कौन पराया है!) ३०--कबिहनतुंः स्मरति शुमगे, स्व दि हस्यप्रियेति )] ही प्यारी मुल्दरि, क्या त॒ग्दें श्रपने स्वामी की याद है, क्योंकि तुम उसको ए. वाह्म क्रि ३१०त्व॑ लोकस्थ बाल्मीकिः, मम पुनस््तात एवं (तुम उतार के लि हो,किन्तुमेरेतोतमगिताहो। ) ध आजाएसाज, औ९--रजदरसमामणफज्फए्क
परिगलितलताना स्लायंठा भूरद्दाणाम् ।
श्रयि जलपघर [ रैलभ्रेणिशडेपु वोय॑,
प्
वितरसि बडु फोटयंभोमदस्तावकीनः ॥
कारक-्रकस्ण
रद्द
जले हुए. (दे मेष, केरा यह कैसा गरव है कि जगल की आग की ज्वालाओं से केशिखरों पर गलित लवाशं वाले, मुस्काये हुए इच्चों काश्रनादर करके तू पर्वतों न तमाम पानी देवा है। )
मानवों में श्रेष्ठ राम सखार मे ३३--पुरुषेपृत्तमो रामो भुवि कृत्य न वन्धः (् स्मतत्यफिसके नमस्कार के योग्य नहीं ! ) ३४--अह पुनयुष्माक प्रेज्ञमाशानामरे्न
शेष नयामि (मैं तो उम्दारे देखते ही देखते इस ( कुमार बपमसेन ) को मार डालता हैँ |) २५--पौरवे वदुम्वी शासति को5विनयमाचरति प्रजामु (पीरव के पृथ्यी पर राज्य करते हुए कौन प्रजाओं के प्रति श्रनाचार करेगा १) ३६--लंताया कहा पूब॑लूनायां प्रयूनस्वागमः कुतः ( बेल के पहले ही कट झुकने पर उसमें फूल सेआ सुऊते है! ) ३७-अभिव्यक्तायां चन्द्रिकायां कि दोषिका पौनरुकक््त्येन
सुधापि ( शुश्रग्योत्त्ना में व्यर्थ दीपफ जज्ञाने से क्या लाभ १ ) १८--विपदि हन्त
विपायते (विपत्ति में मित्र भी शत्रु हो जाते हें । )३६--जीवल्सु त्ातपादेपु नवे
दारपरिग्रहे | माठ्मिश्चिन्यमानाना ते हि नो दिवसा गताः ( पिताजी के जीते जी जब हमारा नया नया विवाह हुआ था। निश्चय ही हमारे वे दिन बीत गये जय हमारी माताएँ. इमारी देखभाल करती थीं।) ४०--इद्मवस्थान्तर गते जाने ताहश$नुरागे किवा स्मारितेन (उस प्रकार के प्रेम केइस अवस्था मैं पहुँच
पर याद करने से क्या! ) ४१--चर्मणि द्वीपिन हन्ति व्याधः ( शिकारी चीते को चाम के लिए मारता है । )
४२-हते भीष्मे हते द्रोणे कर्णे च विनिषातिते | आशा बलवती राजन् शल्परो जेप्यति पाए्डबान् |
( भीष्म के मारे जाने पर, द्रोण के मारे जाने और कर्ण के मार गिराये जाने पर, है राजन् आशा ही बलवती दे कि शल्य पास्डवों को जीतेगा। )
कारक एवं विभक्तियाँ (एक दृष्टि में ) अथमा--१--कर्ता मे--शिश्ुः रोदिति | अदद पुष्पे पश्यामि ।
२-#र्मयाच्य के कर्म में--वर्टर्मिः पझ्यते बेदः, पशुमिः पीयते जलम ॥
३--सबोधन में-भो युरो ! क्षमस्व |
४-यव्यय के साथ-अ्शोऊ इति विख्यात: राजा सबंजनपियः । ३-नाम मात्र में--श्रासीदू राजा विक्रमादित्यों नाम |
ह्वितीया--१--कर्म मैं-प्रजा सरक्षति रुपः सा वर्द्धयति पार्थिवम् ।
२- छठे, अ्न्तरेण, विना के साथ-धनमन्तरेण, बिना, ऋते वा नैय मुखम् । ३--एजप्केसाथ--तब्मागार धनपतिण्दानुत्तरेशास्मदीयम् | ४-श्रमित: के साथ--अ्रमिदों शुवन वाटिका |
२६०
बृहदू-थनुवाद-चब्दिका
३-परितः, ६--उमयतः ७--थश्रन्तरा ८--समया,
स्वतः के साथ--सन्ति परितः (स्वतः )गम बृत्षाः । के साथ--गोमतीमुमय॒तस्तरवः सन्ति | ., ( बीच में )के साथ--शम कृष्णं चान्तरा गोपाल: । निकपा (समीप) के साथ--झआम उमया निकष्रा वा नदी ।
६--कालवावी श्रर्थ में--स चलारि वर्षाणि न्यायमष्वैष्ट । १०--अध्यवाडी शब्दों केसाथ-क्रोशं कुटिला नदी | ...४ २१--अतु के साथ-गुथ्मन॒ शिष्यो गच्छेत् । १२-प्रति के साथ-दौीन॑ प्रति दयां कुछ ।
१३--थिक्केखाथ-विक् तापापिनेश ( पिशुन वा )। १४--अधिशीदकेसाथ--चन्द्रापीड: मुक्ताशिलापट्डमधिरिएये ३ शए--अधिस्था केसाथ--समेशः शइमधितिष्ठति (क्षयया रमेश: गे तिष्ठति )। १६--अधि आंसूकेशाथ-वूपः सिंहासममध्यारते, (रुप: दिशवसने आते ) ५ १७--अ्ु, उप पूर्वक वरकेसाथ-हरिः वैकुरठमुपवसति, श्रतुघसति वा ।
औ८--आबस्एवंश्रधिवस्केसाथ--श्रधिवसति कार्शी विश्वनाथ: मक्तःदेवमन्दिर्म् ऋावरति ।
१६---अमि-निपूर्वक विश्केसाथ--मनों घर्मम् श्रमिनिविशते। ३०-क्रिया विशेषण मैं--सत्वरं घावति झगः ।
में--सः जलेत सुस्त प्रालयति। करण तृदीया--१ह्
२--क्र्मबाच्य कर्चा में--रामेय रावणों हतः। ३--स्वमाव आदि थश्रर्थों मैं-रामः प्रकृत्या साईं: । माग्ना गोपालोंश्यम् । ४--सह के साथ--शशिना सह याति कौयुदी ) 2--सहश के श्र मे--धर्मेर सदशों नास्ति बन्धुरन्यो महीदले |
६--देतु के श्रर् में--केनदेदना श्रन्न वरतति ! ७-- हीन के साथ-विद्यया हिं विद्वीनस्प कि दया जीवितेन ते। कंचन । ८--विना के साथ--भ्रमेण दि बिना विद्या लम्यते मे ६-ब्ल के साय-अलं महीपाल तब अमेग । १०- प्रयोजन के श्र में“पनेनकि मो नेददाति मारतेते। ११--लक्षण बोष में-जथ्यमिलापसोध्ये प्रतीयते |
१६-फ़्लप्रापि मैं--पश्चमिर्वपैन्ययिमधीतम्॥। पं्रमिर्दिनेः सेनीरीगौ जञाठः।
! »१३--विकृत अद्न मैं-मानवश्चछुपा काणः कर्शेत बधिरश सः। पादैन सप्नः दृदोप्सौ दुब्जा एट्टेन म्थरा
कारक-म्रकरण
श्र
चतर्थी--१--सप्रदान मे--राजा ब्राह्मणाय धन ददाति। २--निमित्त के श्रर्थ में--धन सुसाय, विद्या छ्वानाय भवति | ३--झूचि के अर्थ मे-शिशवे क्रीटनक रोचते । ४--धघास्य् ( ऋणी होना ) के अर्थ मे -स मह्य शत घास्यति | 9--स्पृह के साथ--अह यशतसे स्थृहयामि |
६--नम.-, स्वस्ति के साथ--गुरवे नम., हपाय स्वस्ति भवतु । ७--समय अ्थवाली घाठुओं के छाथ--ग्रभवति मल््लो मल््लाय | ८--कल्प् ( होना ) के साथ--शान सुखाय केह्पते | ६--ठ॒म् के अर्थ में--ब्राह्मणः स्नानाय ( स्नातु ) याति |
१०--ऋघ श्रथवाली घाठुओं के साथ--गुरः शिष्याय कुष्यति [ साय--मूखः पश्डिताय दुह्मयति । ११--हुहर अयंवाली धाठुओ्नों के २-अ्ूय ( निन्द्रा )श्रथवाली धातुश्नों केसाथ--दुजनः सज्ननाव असूयति |
पदश्चमी--१--ध्थक् अर्थ मैं--बृद्धात् फ्लानि पतन्ति | स आमाद् आगब्छति। २--भय के श्र मैं--असजनात् कस्य भय न जायते १ ३--ग्रहण करने के अ्रय में--कूपात् जल ण्डाति ४--पूर्वादि के योग मैं--स्नानात् पूर्व न खादेत्, न घावेत् मोजनाव् परम । है ५--अन्यार्थ के योग मैं--ईश्वरादन्यः कः रक्षितु समथः ! ६--उल्कर्ष बाघ मैं--जननी जन्ममूमिश्र स्वर्गादपि गरीयती । ७--विना, ऋते के योग में--परिभामाद् विना (ऋते) विद्या नमबति | ८--आरात् ( दूर यासमीप ) के योग म--ग्रामाद् आरात् सुन्दर मुपवनम |
६--प्रभृति के योग मैं---शैशवात्रभृति सोइतीय चतुरः । १०--आइ के साथ--आमूलात् रहस्यमिद श्रोतुमिच्छामि। ११--विरामाथक शब्दों केसाथ--न नवः भ्रमुराफलोदयात् स्थिरकर्मा विरराम कमणः। १२--काल की अवधि मे--विवाह्मत् नवमे दिने । १३--मारग की दूरी प्रदर्शन में--वासणस्याः पश्चाशत् क्रोशा.। १४--जायते आदि के श्रथ में--बीजेम्पः अडकुरा जायन्ते | १५--उद्धवति, प्रभयति, निलीयते, प्रतियच्छुति दोतिके के साथ--हिमालयात् गद्ा प्रभगति, उद्गच्छति वा | हपात् चोर निलीबते॥ तिलेम्य माषान् प्रतियच्छुति ।
१६---जुगुप्सते, प्रमायति के साथ--स्पागत् जुगुप्सते,। त्म॑ धर्मात् प्रमायसि ]
श्ध्रे
वृहदू-अमुदाद-चन्द्रिका १७--निवारण श्रथ में--मित्रं पापात् निवास्यति | १८--जिससे कोई विद्या ठीखोी जाय उसमें--दछात्रोव्थ्यापकात् अधीते |
पट्ठी--१--सम्बन्ध मे--मू्खश्यबहवो दोपाः, सता च बहबों गुगा:। २--हझृछल्त कर्ता में--शिशोः शगनम, पलस्य पतनम्
३--कझदन्व कम मै-अ्रन्नस्व॑ पाक), घनस्य दानम् | ४-स्मरणाथक घाठुयों के साथ--स मातुः स्मर्रत । ५--दूर एवं समोप बाची शब्दों केसाथ--नगरस्य दूर, (नगराद वा
दूरम ) समीपत्र सफाराम् वा | ६--छते, मध्वे, समद्धम्, अ्रम्तरे, अम्तः के साथ--पठनस्थ कते, आचाय॑स्व समक्षम्, वालाना मध्ये, ग़हस्य थ्रन्तरे अन्तः दा । ७--श्रतस् प्रत्यय बाले शब्दों के साथ--नगरत्य दक्तिणत:,
उत्तरतः झ्रादि | ४ ८--अनादर मैं--ददतः शिशोः माता यवौ ।
६--हेतु शब्द के प्रयोग मैं--अ्रन्नस्प देतोब॑ठति । १०--निर्धारण में--कवीना (कविषु वा ) कालिदासः श्रेष्ठ: सप्तमी--१--अ्रधिकरण में--गद्धे तिप्ठति वालः | श्रातने थोमते गुरुः | २--मभाव मैं-यत्ने कृते यदि न सिद्धयति कोड्तर दोप: !
३-श्रनादर मैं--ददति शिशौ ( रुदतः शिशीः वा ) गता माता । ४--निर्धारण मैं--जीवेपु मानवाः श्रेष्ठ, मानवेषु न परिडिताः |
५--एछ क्रिया के पश्चात् दूसरी क्रिया होने १९-ययों उदिते कमल॑
पअकाशते । ६--विप्रय के ( बारे में) श्रर्य मेंतथा समय बोधक शब्दों में--मोक्षे इच्दाप्त्ति । दिने, प्रातः काले, मध्याद्के, सायंकाले या कार्य करोति |
७--अलमग्नार्थक शब्दों और चठुयर्थक शब्दों केसाथ--कार्य लग्ब$, तत्परः । शास्त्रे निपुणः, प्रवीण: दक्तः श्रादि |
समासअकरण कारक प्रकरण मे विभत्तियों का प्रयोग बताया गया है, पर पभी-क्मी शब्दों को विभक्तियों कोहठ कर वें छोटे कर दिये जाते हैं या दो से अधिक विभक्तिरहित शब्द मिला दिये जाते हैं। इस एफ साथ जोडने को ही समास कहते हैं। समास शब्द का अर्थ है 'सक्तेष' या 'घटाना' अर्थात् दो या अधिक शब्दों की इस प्रकार मिला देना कि उनके आकार में कुछ कमी भी हो जाय और अर्थ चूरा पूरा निकल जाय, यथा--नराणा पति* >नरपति, ।
यहाँ 'नरपति' का वही अर्थ हैजो 'नराणा पति का है, परन्तु दोनों शब्दों को मिला देने से 'नराशाम' शब्द के विमक्तिन्यूचक ग्रत्यय ( थ्राणाम् ) का लोप हो गया और “नरपति शब्द 'नराणा पति से छोटा हो गया |
जय समास वाले शब्द को तोड़कर उसको पूर्वकाल का रूप दिया जाता है
सत्र उसके विग्नह का अर्थ है 'ुकडे-दुऊड़े' करना, यथा--समापति का तिम्रह हई--समाया पति. |
समास के लिए. सस्कृत वैयाकरणों ने नियम बना दिये हैं |ऐसा नहीं कि जिस
शब्द को चाहा उसे दूसरे शब्द के साथ मिला दिया। समास के छः मेद#-१--अव्यपीमाव, ४--द्विसु ( तत्पुरुष का भेद ), २--वल्युरुप, ५--बहुब्ीहि, और ३--कमधारय ( तल्युदध फा भेद), ६-दनन््द । अशध्ययीमाव सम्रास में समास का प्रथम शब्द प्रायः प्रधान रहता है, तत्पुरुष समास मै प्राव; दूसरा शब्द ग्रधान रहता है, इन्द्र उमास में प्रायः दोनों ही समस्त
शब्द प्रधान रहते हैं. और बहुब्रीहि समास मे दोनों द्वी समस्त शब्द श्रप्रधान रहते
हैंऔर एक तीसरा ही शब्द प्रधान रहता है, जिरुफे दोनों समस्त शब्द मिलकर विशेषण होते हैं|
अव्ययीभाव समास अव्ययीभाव समास में पहला शब्द अ्रव्यय (उपछर्ग या निपात ) रहता है ओर दूसरा शब्द रुज्, दोनों मिलाकर अव्यय द्वा जाते हैँ | श्रव्ययीभाव उमा बाले शब्द के रूप नहीं चलते | अव्ययीमाव समास वाले शब्द का नपुंसकलिडे शरुमास के छः भेदों के नाोग--
द्व्न्द्दोद्वियुरपिचाह मदूगेहे नित्यमव्ययीमावः |
तत्पुदथ कर्मघारय येनाईं सवा बहुमीहिः॥।
१4३॥
बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
केएकबचन में जैसा रूप रहता है ( अव्ययीमावश्र (राथःद। ) इस समास मेंबा पूर्व पदार्थ प्रधान रूता है,यथा-यथाकामम्८कामम् अनतिकम्य इति (जितनी इच्छा हो उतना) ।
अव्यं॑ विभक्तिसभीपसमृद्धिव्यद्धधथीभावात्ययासम्पतिशब्दप्रादुर्भवषश्वाद्यथाउज्नुपूव्ययोगपद्यसाटश्यसम्पत्तिसाकल्यान्तवबनेपु 0६॥ ६ अच्ययीभाव समास मे श्रव्यय प्रायः इन श्रथों में शाते हैं---
(१) विभक्ति ( सप्तमी ) श्र्थ में--अरधिह॒रि ( हरी इति-हुरि के विधय में )। (२) समीप श्रर् मैं--उपगद्नम् (गज्ञायाः समीपम-गज्ञा के पास ) | इसी प्रकार उपयमुमम् , उपकृष्णम् श्रादि। (३ ) समृद्धि के श्र्थ में--सुमद्रम् ( मद्राणां समृद्धिः--मद्रास की समृद्धि )।
(४) व्यूद्ि (दरिद्रता, नाश ) के श्रर्थ में--हुयंबनम् ( यदनानां ब्युद्धिः (४) अभाव
-यबनों का भाश )।
पश्रर्थ मैं--निर्मक्षिकम् (मत्तिकाशामसावः--मक्खियों से चिमुक्ति )६
इसी प्रकार निःन्द्वम् , निर्दिकम् , निर्जनम् , आदि | (६) श्रत्यय (नाश ) श्र मैं-अतिहिमम् ( हिमस्यात्ययः-जाड़े कौ समाति पर )।
(७) असम्प्रति (श्रतुचित ) श्र्य में--अतिनिद्रम् ( निद्रा सम्प्रति न युप्यते--
निद्रा के श्रनुपयुक्त समय में )। (८) शब्द-पादुर्भाव ( प्रकाश ) द्र्थ में--इति हरि ( हरिशब्दस्थ प्रकाश+-ड्रिधर )। विष्णीः के पश्चांत्-(६६ ))पश्चात्पश्चात्अर्थ में--अनुश्यम् बुस्यम्र , , अनुदरि, अनुहरि, अ्रनुविषुपु अ्रनुविष ु (विपा। पीछे )|
(१० ) यथा के भाव (योग्यता) श्र्थ मैं--अ्रतुरूपम् (रुपस्थ योग्यम--उ चित) (वीप्सा ) श्रथ में प्रतिग्राममर म्रामं ग्राम प्रति (प्रत्येक आम में ) ( श्रनतिकम ) अर्ध मे--यथाशक्ति (शक्तिमनतिकरम्प--शक्स्यनुसार ) (११) झआात॒पूव्य (क्रम ) क्षर्थ में--अनुज्येठम् (ब्येप्रस्थानुपूर्त्यंश--ज्ये/ ५
के अनुसार )
(१३ ) ौगपय ( एक साथ होना ) श्र्थ में>सचक्रमू (चक्रेश सुगपतू-: चक्र के साय ही ) (१३ ) साटश्य ध्र्थ में सहरि (हरे: साइरयम्--हरि के सद्दश )॥ (१४) सम्पत्ति के श्र्थ मैं-सत्त्रम् ( चत्राणा सम्पत्ति--क्त्रिय ) ] बोग्यतानुतार यो श्राप्त हे वह 'स्मोत्तेहैश्रोर जे देवताकेश्रताद से प्राप्त हो वह सम्रद्धि या ऋद्धि हे | ]
अयोग्यताबी प्यापदार्भानतिशत्तितध्श्यानि यारा: ६ सिंद्धान्तकोमुचाम )।
समाछ-प्रकरण
६५
( २६.) साकल्य सहित श्न्यंमे--उठ्णम ( तृशमपि अपरित्यज्य--सब झंडे ) ( १६ )अस्त विक) के अर मे--खाग्नि (अग्निपन्यपयन्तम--अभिकाएड पर्यन्त) [ छल के अश्रतिरिक्त अर्थ में अव्यवीमाव रुमात से हद कि स्थान में स हो जाता है, कालवाचक शब्द के राय समास में सह ड्टी रइता
है, यया-सह पूर्वाइप ] ५
है
8
( १७ ) बहिः ( बाहर ) श्र में--बहिवनम् ( बनात् बहिः--याँव से बाहर ) (१८) यावदवघारणे । ११८ ५
नर
यावत् के साय अवधारण अ्रय मे भी अव्ययीमाव रामाठ होता है, यथा--
यावच्छेलोफम् , श्र्थात् “बावन्तः छोछाल्वावन्तोड्च्युतप्रणामा:” । (१६ ) आड,सयोदाभिविष्योः १ ४१३। ०0५०७.
मर्यादा और अभिविधि के अर्थ मेंआड़केसाथ विकल्य से अव्ययीमाव समास
होता है और समास न करने पर पदश्चमी विभक्ति होतीहै, यया--आमक्ते: ईति (मुक्ति पर्यन्त )| आमुक्तेई, आमुक्ति वासखारः । इसी भाँति आवालेम्यई, भ्रावातम् वा दरिमिक्तिः |आसमुद्रम् ।
(२० )बत्तणेनाभिप्रती आमिमुख्ये ।९११४।
हि
श्ाभिमुस्ययोतक “अ्र्ि? तथा प्रति! चिह्ववाची पद के साथ अव्ययीभाव समास
होता है, यथा--अ्रप्रिममि इति अम्यप्रि, अग्नि प्रति इति प्रत्यमि। श्रभ्यप्रि प्रत्यम्ि शलमाः पतन्ति (अ्रम्मि कीओर पठगे गिरते हें । )
(२१) अलुर्यत्समया ।३१॥१५
जिस वस्तु से क्रिसोी की समीत्तरा दिखायी जाती है, उस॥2200402%8 लक्षणमूतत 8क्ले
साय सुमीपता सूचक “अनु? अव्ययीभाव बनाता है, यथा--अनुवनमशनिर्गतः ( बनत्य समीप गतः )।
(२२ ) पारे मध्ये पएचा वा २ ॥१ण पार श्रौर मध्य पछयन्द पद् के खाथ अव्ययीमाव रुमास तथा विकह्य से पष्ठीतस्पुदय मी होता है, यधा-गज्जायाः पारम्, गज्ञापारम् , अथवा गद्भापारम् |इसी वरह मध्येगज्ञम्, अयवा गज्ञामध्यम् ( गड्ा कै बीच )। अन्ययी भाव समास के प्रिशेष ज्ञान के लिए निम्नलिखित नियमों पर ध्यान
देना चाहिए--
(१) हस्तरो नपुंसके ग्रातिपादिस्स्थ ।शसधछ दूपरेसमस्त शब्दका अन्तिम अक्षर दीर्ष रहे तो वह हस्त कर दिया जयता
है। यदि इन्त में ०, ऐ? हो तो उसके स्थान में 'इ! और 'ओ, श्र” हो तो उसके ध्यान में 'उ' हो जाता है,यथा--
उप +गज्ञा ( गक्नायाः समीपे ) ८ उपगज्ञण् । उप+वध्
(वध्या: समीपे )> उपयघ ।
समास-झय्रकस्स
रह
अप्रायेण उत्तरपदार्थप्रधानस्तत्पुरुपःए | डदाहरण-राज; पुदपः 5 राजपुदय-पेढाँ राद्म शब्द पुदप शब्द का यायः विशेषय दे। इसी प्रकार कृष्ण: रुप; #कुंप्णसपए,
यहाँ
कृष्ण!
शब्द
सप!
शब्द का
“ विशेषण है। तत्युरुप शब्द के दो अर्थ हैं--तस्य पुरुष) गुखकमलम् | धृरुषः व्याधः हव 5पुरुपव्यात्ः | इनका विग्रह इस प्रकार भीहोगा-मुखमेव कमलम्>मुखक्रमलम्। पुरुषः एव व्याप्त पुरुष-
व्याप्रः |पहले को उपमित सुमार कहते हैं और दूसरे को रूपक समा | विशेषणोभयपद् कमंधारय है
दो समानाधिकरण विशेषणों के रुमास को 'विशेषशञेभयपद केमघारया! समा
कहते हैं,यथा-कृष्णश्र श्वेतश्व ८ कृष्णश्वेतः ( कुककुरः ) । इी तरद दो कप्रत्ययान्त शब्द जो दोनों वस्वुतः विशेषय होते हैं,इसी माँति समांस बनाते हैं,यथा--स्नावश्र श्रनुलिप्तश्व रू स््नातानुलितः |
दो विशेषणों में छेएक दूसरे का प्रविवादी मो हो सकता है, यथ--चरस्थ
श्रचरक्ष 5 चराचरम् (जगत् ), कृवश्च अकृनश्र ८ कृताकृतम् ( करे दविंगु समास
संख्यापूर्वों हिगुएश१३२ यदि कर्मंघारय समास में प्रथम शब्द संस्यादाची हो श्रौर दूसर शब्द संग्डा तो उसे द्विगु समास कहते हैं । द्विगु समास में (१) यातों उसके श्रनन्तर काई प्रत्यय लगता है या ( २)बह किसी ओर शब्द के साथ समास्ष में श्राता , यथा-(१) पप्+ मातृ ८ पएमाद + ञ्र॒( तद्धित प्रत्मयय ) पाण्मातुरः ( परण्णा मातृणाम्श्रपत्यं पुमान् ) |
॥
(२) पश्चगावः धर्न यस्य सः>पंगगवधनः | यहाँ 'पश्चगब! में छ्विंगु समा न होता यदि वह घन शब्द के साथ फिर समास मे न श्राया होता ।
द्विगुरेकबचनम् ।२॥४)१। स नपुंसकम् 220१७ किसी समाहार ( समूह ) का थोतक भी द्विगु समास द्वोता है और वह सदा नपुंसकलिज्न एकवचन मेंरहता है,यथा--
हे
चनुर्णो युगाना समाहाद;#चतुयुगम। बयाणा भ्ुवनानां उम्राह्मरः 5 त्रिधुवनम् । पदश्चाना गया समाद्ारः €पंत्रगवम।
पश्चाना पाच्राणा समाद्ार: 5 पश्चपात्रम् इत्यादि | अकारान्तोत्तरपद्दो द्विगु/खियामिष्ट | पात्राथन्तस्य न। वा? । बट, लोक, मृल इत्यादि श्रकारान्त शब्दों के खाय [समादार द्विगु मैं रुमस्त पद ईकारान्द ख्रीलिक् होता दै, किन्तु पात्र, |मुवन, सुग में श्रन्त होने बाले. द्विगु समास नहीं होते, यधा--
श्रयाणा लौकाना[समादारः + भिलोकी | पश्चाना मूलाना समाहारः पद्मूली |
पश्चानां वढाना समादार ;पश्नवर्ट ।
( पश्मपात्रम , विमुवनम , चतुयुगम [ )
सरुमास-पग्रकरय
र्०ण्डे
४
आवन्तो वा ।वा०।
जब समाद्दार द्विगु काउचरपद
पप्
आफारान्त हो ठव समस्त पद
विक
से
स्रीलिज्ञ होता है, यथा--पदञ्माना ख्बाना समाहारः >पश्चलदवी, पद्जदवम् अन्य दत्पुरुप समास
ये तत्पुरुष समा तो हैंहो, किन्त इनमें अपनी विशेषता भी है। नम्र् तत्पुरुप समास थदि तत्पुरुष में प्रथम शब्द “नो रहे और दूसरा स्ज्चा या विशेषण दो वह
सज् तलयुरुयसमास कहलाता है। यह “न! ब्यजन के पूर्व 'अ! में और स्वर के पूर्व “ग्रन! में बदल जाता हैं, यया-न द्वाह्मण;>अब्राह्मगः (जो ब्राझण न हो )।
ने मे
सत्ममुल््थस्त्म। अश्वःल्अनश्वः (जो घोड़ा न हो )।
ने
इतम्च>अइतम् ।
न आग रूअनागतम् | प्रादि वत्पुरुप समास वदि तत्पुरुप मैं प्रथम शब्द प्र आदि उपसों में से छोई हो, वो वह प्रादि सत्पुरुष समास कइलाता है, यया-प्रगतः ( श्रत्यन्त विद्वान् )आचायेः « प्राचाय: । प्रगतः ( बडे )पितामहः < प्ररितामई: ( परदादा )
अतिह्मन्तः मर्यादम्-अ्रतिमर्वादः ( जिसने सीमा पार कर दा हो ) प्रतिगतः ( सामने आया हुआ ) अच्षम् ( इच्द्रियम ) तप्रलच्ः । अद्गतः ( ऊपर उठा हुआ ) वेलाम ( किनाय ) र उछ्ेलः । अतिक्रान्तः रथम-झ्रतिस्थः ( वहुद दलशार्लः योदा )। अवक्ुड कोकिलया-्अ्रवकोहिलः ( छोकिला से उच्चारित-रुग्घ )
निर्गतः गहायत्निर्णह+ (घर से निकाला हुआ ) | प्रिम्लानोड्ष्ययनायत्यय ध्ययनः ( पढ़ने से यक्य हुआ )। गतित॒त्पुर्प समास हुछ इत्मत्ययान्त शब्दों केसाथ दुछ विशेष शब्दों (ऊरो आदि ) दा जा समास होता है उसे गरतितत्पुद्य उमास ऋहते हैं । ऊर्यादिच्विडाचश् |शश३९। ऊरी आदि निशव क्रिया के योग में गति कहलाते हैं, अत एवं यह सम्ास अति समाठ कहा जाता है| व्वि तथा डाच्प्रत्ययान्त शब्द मी गति कह्दे जाते हें,
र्ण्ढ
बृहद-अनुवाद-चन्द्रिका
यथा--ऊरी कृत्वा-ऊरी इत्य| नीलीकृत्य( नोला करके ),शुक्लीमूय (सफेद होकर ), स्वीकृत्यं, पठ्पथाकृत्य ।
भूषणेब्लम् १४६४। भूषणाथवाची अलगकोभी गति संश होती है, यथा-अल॑ ( भूषितं )कृत्या>अलंकृत्य (सजाकर )॥
आदरानादरयोः सदसती
१।४।६१ श्रादर एवं अनादर श्र में सत् तथा
असम गति संशक हैं,यथा--सत्कृत्य (आदर करके ), असछृत्य | अन्तरपरिग्रहे ।२४।६५४| परिग्रह से भिन्न ( मध्य ) अर्थ में श्रस्तर! भी गति सशक है, यथा-श्रम्तहत्य ( मध्ये हत्वा )। अ्परियदे किम्--अन्तईस्वा गतः ( हत॑ परिणक्ष गतः )। राक्षाग््रभूतीनि च [ (४७४ साज्ञात् श्रादि भी क धातु के साथ विकल्स से गति कहलाते हैं,यथा--साह्ात्ृत्य ग्रथवा साक्षात् कंत्वा | पुरोष्य्ययम्
१४६७] पुरः नित्य गति सशक है, श्रतः 'पुरस्कृत्य! सम्झ्त
शब्द बनेगा। अस्त व ।१॥४६८। अस्तम् मान््त अब्यय हे और गति संत्क है, अतः समत््त शब्द “अस्तंगत्य” होता है।
िरोष्न्त्धी १।४॥७१ 'तिर: शब्द श्रन्तर्धान के श्रथ मैं नित्म गति संशक होता है, अतः समस्त शब्द 'तिरोभूय! होता है।
विभाषा कृति ।१/४७६। तिरः कू के साथ विकल्प से गति संशक है, अ्रतः विरूकृत्य, विरः कृत्य, तिरः कृत्वा रूप बनते ई। अ्नत्याधान उरसिमनसी ॥१।४।७४/ श्रत्यापान ( उपश्लेषण ) मिन्न उरस और मनस् कीगति संशा होती है, श्रतः उरबिकृत्य, उरविकृला | मनसिद्ृत्य,
मनसिद्ृत्वा रूप बनते हू । उपपद तत्पुरुष समास
तत्नोपपद॑ सप्तमीस्थम् ।३।१६२। यदि वत्पुरध का कोई शब्द ऐसी संशा या
श्रव्यय हो जिसके श्रमाव में द्वितीय शब्द का वह रूप मद्दी रह सकता जो उसका है तो बह उपपद तत्पुरष समास फहलाता दै। द्वितीय शब्द का रूप कृदन्त का होना
घादिए ने कि किया का |प्रथम शब्द को उपपद कदते हैं, जिंकषसें इस समास का ऐसा नाम पढ़ा, यधा--कुम्म॑ फरोतिं इति ८ कुम्मकारः । कुम्म और कार दो शब्द इसमें हैं;कुम्म उपाद है। कारः किया का रूप महीं कृइन्त का है। यदि पूर्व,मेउपपद ( कुम्म ) न हो तो कार नहीं रह सकता यह
कुम्म या किसी श्रन्य उपपद के साथ ही रह सता है, यथा--स्वर कारः, चर्म-
कारः | इसी तरह घन ददाति इति घनदः | यहाँ उपपद (घन ) फे रहने फे ही फारय 'द/ शब्द ई, 'द/ का प्रयोग श्रकेले नहीं हो सकठ | इसी प्रकार--कम्वल डइदातिं इति फम्बलदः |साम गायति इति सामगः, गा दुदाति इति गादः 4
समास प्रकरण
र्ण्प
त्वा च ।शर।२२। तृतीयान्त उपपद त्वा के साथ विकल्प से समास होते हैं, ययथा--एकघामूय, उच्चैः इत्य । समास न होने पर उच्चैः ऋत्वा होता है।
सध्यमपदलोपी तत्युरुप समास शाकप्रियः पॉर्यिबः 5 शाकपार्थिव , देवपूजकः ब्राह्मण. -देवब्राह्मणः।
इन
शब्दों में प्रिय” तथा 'पूजक! शब्दों का लोप हो गया है, इसी से इस समाउ को अध्यमदद लोपी ठत्पुरुष समास ऋकदते हें । *
सयूरू्यंसकादि वत्पुर्ष समास
ऐसे तत्पुरुष समार्सो को जिनमें प्रत्यक्ष नियमों काउल्लपन किया गया है, मबूर व्यकासकादि तत्पुछण समास कहा गया हे, यथा--व्यसकः मयूर: -- मयूर व्यस्क़ः ( चतुर मोर )। यहाँ व्यसक शब्द पहले आना चाहिए था और मज्ूर बाद में। अन्यो राज ८ राजान्तरम् । अन्यो ग्रामः आमान्तरम् । उदकू च अवाऊ् चेति उनायचम् | निश्चित च॒ प्रचित चेति > निश्चप्रचम् | राजान्तरम् ,चिदेव नित्य समास हें, क्योंकि इनका अपने पदों से विग्नरह नहीं होता। इसी प्रकार जिनका विग्रह होता ही नहीं वे मी नित्य समास हैं, यथा-जीमूतम्पेप्र | अलुक तत्पुरुपसमास रुमास में प्राय. प्रथम शब्द की विभक्ति कालोप दो जावा है, यथा--राजः
पुदुप. > राजपुरुषः, रिन्त कुछ ऐसे समास हैं. जिनमें विभक्ति के प्रत्यय का लोप जद द्वाता, वे अछ्लुक्समासछइलाते है। अलुझ्समास में केवल ऐसे ही उदाहरण हैं जा चाहित्य में अन्यऊारों के प्नन्थों में मिलते है, इसमें नवीन शब्दों का निर्माण नहीं जया जा सऊता। कुछ उदाहरण थे हं-जजुपान्धः ( जन्मान्ध ), मनसा गुता ( किसी स्त्री का नाम ), आत्मने पदम् ) परस्मेपदम् , दूरादागत., देवना प्रियः ( मूर्ख ), पश्यवो हरः ( चोर ), अन्तेबासी
( शिप्प ), बुधिछ्टि, सेचरः (सिद्ध, देव, पक्ती आकाश में चलने बाला ), सरदितम् (कमल ) इत्यादि । डे
वहुच्रीदि समास अनेकमन्यपदा्ें ।राशर8
जब दोनों या दो से अधिक समी समस्त शब्द किसी अन्य शब्द के विशेषण हारर रहते हैं तब उसे बहुत्रोहि समाठ कहते हैं। बहुब्रीहि
का श्रर्य है-बहुबोढिः ( घान्यम् ) यत्य अत्ति सः बहुबीहि ( जिसके पास बहुत घान्य हों) यहाँ
अपर शब्द ( बह) दूसरे शब्द (ब्रोदि)का विशेषण हे और दोनों ही शब्द किस तीसरे शब्द के विशेषण हो गये |अतएव इसका नाम “बहुब्ीहि! पड़ा ।
२०६
बृहदू-अ्ुवाद-चम्द्रिका
तत्पुरष और बहुब्ीहि में मेद--ठख्पुरुष में प्रथम शब्द दूसरे शब्द का विशेषण होता है, यथा--पीतम् अ्रम्बरम्८पीताम्बरम् ( पीला वस्र )--कर्मघारय समास |
बहुब्रौहि से दोनों शब्द मिलकर किसी तीसरे शब्द के विशेषण होते हैं, यथा--
पीतास्वर:--पीतम अम्वरम्यस्प सः ( जिसका पीला वस्ध हो अर्थात् भीकृष्ण
)।
अन्यपदायंप्रधानो बहुब्रीहि; ( बहुब्रीढि समास में समास के दोनों शब्दों में से
किसो में प्रधानत्व नहीं रहता, दोनों मिलकर किसी तीसरे का प्रधानत्वथ सूचित करते हैं,यथा--पीताम्वर में वहुब्रीहि समात के दो भेद--
(क ) समानाधिकरण बहुब्ीहि,
(सर) व्यधिकरण बहुब्रीहि, (के ) समानाधिकरण बहुब्रीहि बह हे जिसके दोनों या सभी शब्दों का समान अ्रधिकरण हो, थ्रथांत् वे प्रथमान्त हों, यथा-पीतास्व( । (स )व्यधिकरण घह्ुबीहि बह है जिसके दोनों शब्द प्रथमान्त न हों,हैक
प्रथमान्त दो, और दूसरा पष्ठी या सतमी से हों, यथा--
चक्रग्रणिः--चक्र पणौ यस्य सः ( ड़िषुुः ) चन्द्रशेखरः--चन्द्र शेखरे यर्य सः ( शिवः )
वहुग्रीहि समारु के विप्नह करने के लिए यह आवश्यक है कि उसके विप्रह में
“यत्” का प्रयोग हो | 'यत्! से द्वीज्ञात (होता है किसमस्त शब्दों का क्रिसी अन्य शब्द से सम्बन्ध है । व्यधिकरण वहुब्ीहि फे दोनों शब्द प्रथमा विभक्ति में नहीं रहते, एक ही
प्रथमा में रहता है श्रौर दूसरा पछ्ठी या सत्तमी में ।
येथा- चक्रपाणि:--चक्रॉपाणौ यत्य सः। चबन्द्रशेवरः--चरस्द्रःशेखरे यस्य सः | चन्द्रकान्ति:--चन्द्वस्य कान्तिः इव कान्तिः यस्य सः | समानाधिकरण बहुब्रीहिं फे ६ मेद ईं-द्वितीया उम्रानाधिकरण वशुझीहि.. प्ममी समानाधिकरुए बडुओीहि तृतीया समानाधिकरण बहुओ्रीदि चतुर्थी समानाधिकरण बहुमीदि.
« पप्ठी समानाधिक्रण बहुओीदि सम्तमी समानाधिकरण बहुब्रीदि
ह्वितीया समानाधिकरण बहुब्नीद्वि--श्रास्ढ३ घानरः ये सः > आल्दवानरः जिक्च) ) प्राप्तम् उदक॑ ये सः « प्रस्तोदकः ( ग्राम: )
तृवीया समा० बहु०-द्॑ बिच येन सः-दतचित्त: ( शिष्पः )। जितानि इन्दियायि येन सःर जितेन्द्रियः ( पुदप: )॥ उठः रथ; येन सा रे ऊदरय+ (६अनदवान् ) ऐसा बैल जिसने रथ सींचा हो। चतुर्थी समा० वहु०--दत्तम् धनम् यस््मै उः८ दत्तपनः ( जाद्मणः ), उपद्वतः पशुः यस्मे उः - उपड्तपण॒ः ( रबर; )।
समास-प्रकरण
२०७
पद्चमी समा० चहु०--निर्गंत बल यस्मात् सः निर्गतयलः ( पुरुषः ) । उत्घृतम् ओदनम् वस्थाः सा 5 उद्घूतौदना ( स्थाली )॥ निर्गत धन यस्मात् सः निधनः ( पुरुषः )
पष्ठी समा० बहु०--लम्बौ ऊणों यस्य सः ८ लम्मऊुणः ( गधंबः ) |
सप्तमी समा० बहु०--बीरा पुरुषाः यस्मिन् सः ८ वीरपुरुषः ( ग्रामः ) |
नजोस्त्यथीनां वाच्यो वा चोत्तरप्ल्ोपः। वा०। वाच्यो या चोत्तरपदलोप+ । बा० ।
प्रादिभ्यों घातुजस्य
नज्अथवा कोई उपसर्ग सज्ञा के साथ रहे तो इस प्रकार बहुब्रीहि समास
होता है--अ्रविद्यमानः पुत्र; यस्य सः # श्रपुत), श्रविद्यमानपुत्रों वा ।
बिजीवितः, विगतजीवितो वा ।॥
उत्कन्धर;, उद्गतकन्धरों वा । न
प्रपतितपणः प्रपणः।
चेन सह्देहि ठुल्ययोंगे 8३॥२८)
सह तथा तृतीयान्त सज्ञा केसाथ बहुब्रीद्दि समास होता है, यथा--राधिकया सह इति - सराधिरः ( कऋष्णः ), ससीतः ( रामः ) |
बहुत्रीहि समास के लिए निम्नलिखित नियमों पर ध्यान देना चाहिए-( क )आपोषन्यतरस्याम् (७४१०
यदि अन्तिम शब्द आफारान्त हो और कप्बाद में हो तो इच्छानुसार श्राकार को अ्कार कर सकते हैं,यथा--पुष्पमालाक:, पुष्पमालकः, ( कप्केअभाव में ) पुष्ममाल+ |
( ख ) शेपाद्विभापा पाठ पडा
यदि बहुब्नीहि समास के अन्तिम शब्द में श्रन्य नियमों केअनुसार कोई विकार न हुआ हो तो उसमें इच्छानुसार कप्(क ) जोड़ दिया जाता है, यथा-महत् यशः यस्य स+-महायशस्कः, महायशाशः वा |
उदात्त मनः यस्य सः-उदात्तमनस्कः, उदात्तमनाः वा । अपवाद-झ्याप्रपात् ( व्याप्रस्थ इय पादौ यस्य सः ) यहाँ व्याप्रपास्कः नहीं
दुआ, कारए--समास के अन्तिम शब्द 'पाद' को दूसरे नियम से 'पाद! हो गया आर इस तरह अन्तिम शब्द में विकार हो गया।
( ग) उरस्,सर्पिप्इत्यादि शब्दों के अन्त में आने पर अवश्य ही कप्प्रत्यय लगता है, यथा--
प्रिय सर्पिः यस्य रः प्रियसर्पिष्कः ( जिसे घी प्रिय हो )॥ ब्यूढ़ उरो यस्व सः व्यूटोरस्फः ( चौड़ी छाती वाला )। (घ ) इनः छियाम् ५४ १५२।
यदि समास के श्रन्त में इच्नन्त शब्द आवे श्रौर सम॒त्त शब्द स्त्री लिड्र बनाना
हो तो अवश्य ह्वी कप्प्रत्यय लगता है, यथा--
बहवः दस्डिनः यस्या सा; बहुदण्डिका ( नगरी
)।
र्ण्८
दृदृदू-अनुबाद-वन्द्रिका
परखु यदि इँहिलक्न बनाना ही तो कपू इच्छा पर निर्मेर रहता है, यथा-बहुदरिकों ग्राम, बहुदरडी आमों वा ।
(ढ) ब्वियाः पुंवद्भापितपुंस्कादनूछझ समादाधिकरणे जियामपूरणीग्रियादिषु । ६॥३१४॥
समानाधिकरण बहुब्रीहि में यदि अपथम शब्द पल्लिज्ञ शब्द ( सुरदर-मुन्दरी,
झूपयदू-रूपवती ) हो किन्तु उकारान्त न हो और दूसरा शब्द खत्री लिड्र हो तो शब्द का थ्रादि रूप (पुल्लिज्न ) रखा जाता है, यया--रूपवती भायां यस्ये शः ख्पवद्धाय! ।
इस उदाहरण में प्रथम शब्द रूपवती था ओर दूसरा भायों, प्रथम शब्द रूपवद् (एुँ० )था और ऊऊारान्त नहीं या ईकारान्त था, श्रतः प्रथम शब्द पुं९ में हो गया । चित्रा) गावः यस््य सः चित्रगु) ( न कि चित्रागुः
)।
किन्हु भंगा भार्या यस््य स+ भगाभाय; ( गंगभावः नहीं )
क्योंकि गंगा शब्द किती एुल्लिंग काली लिंग रूप नहीं है । वामौरू: भारया यस्य सः यामौरूमायं3, क्योंकि थहाँ पर प्रथम शब्द ऊकांराना है,आंकारान्त या ईकारान्त नहीं । यदि प्रथम शब्द किसी का माम हो, पूरणी संख्या हो, उसमें श्रज्ञ का नाम
आता हो और वह ईफारान्त हो, जाति का नाम दो आदि या यदि द्वितीय शब्द प्रियादि गश में पढ़ित या क्रम संख्या दी तो पूरषपद पुछिलग में नहीं होता, यथा-दत्ताभाग;(जिसकी दत्ता नाम की खली दै। ) पश़्मीभाय: ( जिसकी पॉँचवां जो है )
मुकेशीमायः ( सुकेशी भार्या यस्य सः ) शुद्रामार्यः ( शूद्धा मर्या यस्य सः )
कल्याणीम्रियः ( कल्याणी प्रिया यत्थ राह ) कल्याणीपश्चमाः ( कल्याणीपश्वमी याख ताः ) (च )यदि बहुब्ीदि समास का श्रन्तिस शब्द ऋषारान्व (किसी भी लिक्न
का ) ही, अथवा स््री लिझ्न फा ईक्रारान्व या ऊकाराख हो तो कपप्त्यय निश्चय रूप से लगता है, यथा-ईश्वर: कता यस्य स| इंश्वर कतृकः (संसार: ) । मुशीला मांवा यस्य सः मुशीलमाहऊः अन्न॑ धातु यत्य सः अनधातृकः मुन्दरी वधूः यस्प सः मुन्दरदधूकाः रूपदती रदी यस्य सः रूपवल्कोक:
(बालः ) | ( मरः )। ( घुछपः ) | (नर) |
समास-यक्रण
र्ग्६
इन्द्र समास
चार्ये इन्द्र ।रार२१ चि यदि दो या दो से अधिक सशाएँ_ च! शब्द से जोड़ दी जायें तो वह दन्दसमासत्त कहलाता है। “उमग्रपदायप्रधानोइन्द.” इन्द्र समास में दोनों ही सज्ञाएँ प्रधान रहती हैं श्रयया उनके समूह का श्रघानल रहता है | दन्द्॒समास ३ घकार का है-१--इतरेतर इन्द, २३--समाहार इन्द, और ३- एकशेप इन्द्र । १--इतरेतर इन्द्र इतरेतर इन्द्रसमास में दोनों सज्ञाएँ अपना व्यक्तित्व श्रथवा प्रधामत्व रपती हैं, यथा-रामश्र लक्ष्मणथ लक्षमणमरताः
रामलक्ष्मणो । रामश्र लच्मयश्र भरतश्र रूराम-
| रामगब् लक्ष्मणश्र मरतश्व शत्ुप्नश्न रूरामलक्ष्मणमरतशलन्ुन्ना3 ॥
जब दो शब्द हों तो द्विवचन में और दो से अधिऊ शब्द हों दो बडुवचन मे
समत्त शब्द होगा ।
आनइऋतो इन्दे ।दाशरणा ऋकारान्त ( विद्या सम्बन्ध या योनि रुम्बन्ध के घाचक ) पद या पदों के राय इन्द्रसमास में अन्तिम पद के पूर्व स्थित ऋकारान्त पद के ऋ के स्थान में आ दो जाता है, यया--
मावा च पिता च ८ मातापउितरी । होता च पोता चेति - होतागतारौ । होता च पीता च उद्गाता च ८ होतूप्रोतोद्गातारः ।
पखबल्निद्' इन्द्रतत्पुरुपयो+ ।राशरघा
इन्द समास में अन्तिम पद के अनुसार ही समस्त समास का लिक्ञ होता है, यथा-हुक््हुट्श् सयूरीच 5 कुबकुटमयूयों ] मयूरीच झुस्कुटअ ८ मयूरीडुछुदी २--समाद्वार इन्द्र यदि द्वल्द समास में व” से चुड़ी ऐसी सशाएँ आयें जो प्रधानतवा एक
समाहार ( समूह )का बोध कंगवें तोउसे समाहार इन्द्र कहते हैं । यह समास दा नपुसक के एक बचन में रखा जाता है,-यथा-आहारश्र निद्रा च भवचन्आइारनिद्रामपम
प्रायोच पादौ चर>पाणियदम । अदिश्व भकुलश्व ८अहिनकुलम् ।
+२१०
बृहदू-अमुबाद-चन्द्रिका
प्राणियों में खाना, पीता, सौना, भय ये जीवों के खाए लक्षण हैं। इसी प्रकार - हाथ और पैर के अतिरिक्त प्रधानतया अंगमात्र का शत होता है। साप और नेपले का,भी जन्म वैर बोध होता है।
इन्हग्व माणितूर्यसेनांगानामू २0३ प्रायः इन्द्र कसम द्वोता दे यदि (क) मनुष्य अयवा पशु के शरीर के अग के वाचक हों, यथा-पाणी च प्रादी च5पाणिपादर (ह्वाथ पैर )।
(ख) गानेदजाने वाले अंगों केदाचक हों यथा--
मार्दक्षिकाश पाणविकाश्र 5 मार्द्बिकपाणविकस् ( सृदंग कर पर्व
बजाने बाले ) (ग) सेना फे अंग के वाचक हों, यया+-«
अरवारोहमश्र पदातयश्व > अश्ारोहपदाति ( घुढ़ उवार श्रौर पैदत )।
जातिरप्राणिताम् श8६। यदि समस्तशब्द ब्रचेतन पदार्य के वाचक हो यथागोधूमश्र बणकश्व > गोधूसचणकम् , धानाराष्कुलि:
विशिष्टलिक्ने नदीदेशोध्यामाः ((९/ण यदि समस्त शब्द नदियों के भिन्नलिज्ञ वाले नाम *हों, यपा-गगां वे
शोशश्र ८ गगाशोणम् ( किन्ह गद्नायम्रने होगा क्योंकि भिन्नलिद्न के नहीं हैं ।) देशों के मिचत्िज्ञ वाले माम हों, यथा--कुरबश्र कुरेन॑ व +कुस्कुरतेत्रम् । बदि दोनों प्राम के नाम न हों तो ससाहार इन्द्र नहीं होगा, यथा--
जाम्बब॑ (नगर ) शालूकिनों (आम )रू जाम्बवतीशालूकिन्यो ।
दोनों नगद के तास हों ती ससाहार दत्द ही हीता हैं,बथा-अधुरा चल पायलिपुत्र॑ च 5 मथुरापाटलिपुत्रम्
सुद्रजन्तवः राष्टाघ येपां च विरोधः शाश्वत्िकः ॥४६॥ (# ) कुद्र जीवों के नाम में समास होता है, यया-यूका च लिछा च >यूकालिक्षम (जए. औरलीस )। (से) जन्मपैरी जीयों के नाम के साथ समास होता है, यथा-स्पेन नकुलश्व ८सपनकुलम।
मूपकश् 3203:0क मोजरिश #मृपकमार्जाप्म व:|
विभाषा
ले
2श8रा ब्यज्ञनपशुशकुन्यश्रवडवपूवापरापयेत्तराणामू
(बृक्तादो विशषाणामंब मद्णम् । इूछ, घूग, ठृण, धान््य, व्यक्षन, पशु, शक्ति ( दूत से दज्ञ विशेष ) बाचक
शब्दों केसमाठ तथा अ्रश्दडये, पूरापरे, तथा श्रघरोत्तरे मास भी विक्म से समाद्वार इन्द्र होवे ईै,बधा-5
समासन्म्फकरण
शुकवकम ,शुकतकाः।
कतन्यप्रोधम् , लत्षन्यपोघाः |
गोमहिपम् , गोमहिपाः ।
रूख्पृपतम् , रुरुप्रपता: |
अश्ववडवम् , अश्ववडवी । पूर्वापरम् , पूर्वापरे | अधरोत्तरमू, अ्रधरोत्तरे !
कुशकाशम् , कुशकाशा. । ब्रीहियवम् ,अ्रीह्षियवाः | दधिघ्रृतम् , दथिघृते ।
३--एकरेप इन्द्र
जय दो या दो से अधिक शब्दों में से इन्द्र समास में केवल एक शेष रह जाय तब वह एकशेप इन्द्र कहलाता है, यथा-माता च पिता चपितरौ। खब्ूश्र अ्शुरश्र + खशुरी ।
सरूपाशामेकशप एकविभक्ती ।!२६४। विरूपाणामपि समानार्थानाम।बा०। एक शेष में केवल समान रूपबाले शब्द ( जैसे देवश्र देवअ देवों )अथवा समान श्रर्थ रखने वाले विरूप शब्द भी आ सकते है। समस्त शब्दों कावचन
सम्रास के अड्भमूत शब्दों के सस्यानुसार होगा ! जब समास में पुल्लिक्ञ और खतरीलिड्ड दोनों शब्द मिले हों तत्र समास न५ुसकलिड्ड में होगा, यथा-अजश्व अजा च 5 अजौ, चटरौ ।
( यरूप ) ब्राह्मयी च आाद्यसश्र +ब्राह्मणौ, शूद्री च शद्वश्व ८ शद्धी घब्श्न कलशश्र ८ घटो या कलशौ । बक्रदश्डश्व कुटिलदण्डश्र ८ वक्रदरडौ या कुटिलदण्डो ।
इन्द्र समास मे ध्यान देने योग्य नियम-( के ) इन्दों थि।शर॥३२। इन्द्र मेंइफारान््त शब्द को पहले रपना चाहिए, यथा-हरिश्व हरश्र ८
हरिहरौ । अनेकप्राप्तावेकत्र नियमोइनियमः शेपे ।बाण जय अनेक इकारान्त शब्द हों तय एक को प्रथप रसना चाहिए! शेप को चाहे जहाँ रखा जाय, यथा--हरिश्र हर्श्र गुरु ८ हरिहरगुरुवः, हरिगुरुदराः | ( ख ) अजायदन्तम् ।२२।३३।
स्वर से आरम्म होने वाले और “अर”? में अन्त होने वाले शब्द पहले आने चाहिएँ, यथा-इंश्वरश्व प्रकृतिश् ८ ईश्वरप्रकृती | इन्द्श्न श्रग्निश्व ८ इन्द्राग्नी |
(गे) अल्पाचूतरम् ।शराइछ जिस शब्द में कम अक्षर हों वह पहले आना चाहिए, यथा--शिवश्व केशवश्व
> शिवकेशवौ ( केशवशिवो नहीं, क्योंकि शिव में कम अक्षर है। )
र्श्र
बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
( ध ) वंशानामानुपृत्यण।
भातुज्यायसः |वा०।
बरणों के तथा भाइयों के नाम ज्येप्क्रमातुसार आने चाहिएँ, यया--त्रादशश्र
ऋतियश्व -प्राक्षणक्षत्रियों (ज्लतिय आक्षणो नहीं )। रामश्व लक्मशश्र ूरामस्तक्ष्मणौ । युधिष्टिरभीमौ । (लक्ष्मणरामौ, मीमयुधिष्टिरौ नहीं ) | समासान्त नीचे लिखे स्थानों पर समात होने के बाद श्रन्त में कीई प्रत्यय ( टच ,श्र
अवश्य लगता है। बहुब्रीहि या इन्द्र के समातान्त प्रत्ययों के लिए. नियम पहले दिये जा झुके हैं राज़ाह। सखिम्यप्च ५४६१ जब पंत्ुष के अन्त में राजन, अहन्थासल्लि शब्द श्राते हैं तब इनमें समासान््त टच (श्र )जुड़ कर राज, अह, खख हो जाता है, यथा-मद्दान् चासौ राजा सकयात्रः | पूर्वरात्रेः पूर्वरातः | सस्यावरात, पुण्यरानः । नवाना राजीणा समाहारः नवरानम् । द्विराजम् । अतिकान्तो रात्रिमतिरात्रः ।
संख्यापृव राज क्रीयम् बाग सरयापूर्व रातन्त समास याले शब्द नपुसक लिंग होते हैं, यथा--द्विरानम् नवरात्रम् निरानम् आदि |
अह्ोडह एतेम्यः ।५७४८५॥
उपयुक्त सब” आदि के साथ समास होने पर 'अहन! का '“्रह्मः हो जाता है । तदन्तर अह्ो5दुन्तात्। |८।४|७) के अनुसार अकारान्त पृवपद के रकार के बाद “अह के “न! को 'ण होता है, यया--सर्वाहः, पूर्वाहः, मध्याह, सायाहः, हृथहः
अपराह्ृ, सल्याताहः । फिन्दु सस्यावाचक शब्द के साथ समाददार श्रथ में समास होने पर 'अहन! का
“अर! नहीं होता, यथा-सप्तानाम् अह्या समाहारः सत्तादः |इसो तरह एकाह", दुव्यह, ब्यहः आदि ।
अवनो5श्मायः सरसां जातिसंज्ञयोः !५।४॥६४)
समास्युक्त पदक़ा जाति या रुज्षा अर्थ होने पर अनस ,अश्मन् , श्रयस और सरस् उत्तर पदवाले समस्त पदों मे-ट्च धत्यय जुड जाता है, यथा-( जाति अथ में )उपानसम् , अ्रम्रवाश्मः, कालायठम् ,मण्ड्ूकसरसम् |
( सशा अथ में )महानसम् ( रसोई ), पिएडाश्मः, लोहितायसम् ,जलसरसम् | रात्राह्माह्म: पुसि ।॥४२६। पुण्यसुद्निम्यामहः क्ोवतेट्टा।बाण अछ और अहः समासान्त पु्षिज् होते हैं, किन पुण्य और झुदिन पू्वपदवाले तथा अहः अन्तवाले रुमास नहीं ।
नित्यमसिच् प्रजामधयोः 09)१२० नज् ,दु। और सु के साथ प्रजा एव मेधा का बहुब्रीहि समास होने पर अखिच् प्रत्यय लगता है, यथा--अग्रजा,, दुष्प्रजाड, सुप्रजाः। अमेघा३, दुमेंघा३, सुमेधाः ।
इनके रूप इस प्रकार चलते हँ--अग्रजा;, अमजणी, अग्रजसः आदि, क्योकि ये सब ध्य्स्? में अन्त होते हैं|
श्श्ः
बहदू-अनुवाद-चम्द्रिका
घर्मादनिच् केवलात ।५४।१२७ धर्म के प्रूब॑यदि फेवल एक पद हो तो बहुओीहि समास में धर्म के दाद डामिच! जुड़ता है,यथा--कल्यारधर्मा ( धन)!
असंभ्या जातुनोद+ ५४१२६ प्र और सम्केसाथ वहुओदि समात होने पर “जाजु' का हु हो जाता है, यथा--प्रशुः ( प्गते जानुनी यस्व सः ), उंशुः ।
अर्ध्वाद्विभाषा ।७४४१३०
उध्व के साथ विकल्ल से शु होता है,यथा--ऊच्बहुघ, उध्वजानुः । भ्रनुपश्च ५४१३२ वा संज्ञायामू ।५३१३१३! भनुप्मेंअन्त होनेवाले बहुम्रीहि उमास में श्रन॑ श्रादेशहोता है,यंथा--
चुष्पघ/्वा ( पुष्प धनुयंस्य सः ), इसी तरह शाप्नघन्वा ।
परत्द॒ समस्त पद के नामवाच्ी द्वोने पर विकल्प से श्रनइ होगा, बधा--
शतधन्था, शतघनुः ।
गग्बस्ोदुत्पूतिसुसुरभिभ्यः ।५४ १३५ उत् , पूति, मु, तथा मुरमिपूर्वयद वाले तथा 'गरप! शब्दान्त बहुओहि सम्रासत में इफ़ार लड़ जाता है,यथा--उद्गस्पिः ( उद्गतः गन्पः गस्य सः ), इसी तरह--
मुगरिध,, पूर्तिगर्धिः, सुरभिगरिविः ।
दाद्स्य लोपो5हस्त्यादिम्यः ५४१३८ अहुब्रीहि तमास में हस्ति श्रादि शब्दों को छोड़कर यदि कोई उपमान शब्द
पूर्वमें हैऔर वाद में 'पाद शब्द दी तो पाद के श्रन्तिम वर्ण धर! का लोप हो जाता है,यथा-व्यामपात् ( व्याप्रस्प इब पादो यस््य रे ) |हस्त श्रादि पूर्व पद होने पर इृष्तिपाद।, कुतलरशढः थ्रादि ।
कुम्भपदीपु च ।॥2१३६। पादः पतू (४7२० कुम्मपदी आदि खोलिज्ञ शब्दों में मी पाद के श्राकार का सोप होजाता दै श्र पांद क्री पत् होकर डीए शुड़ताहै, यया-डुग्भपदी, एकपदी ।खोलिम्न न
होने पर कुम्मपादा बनेगा । तायाया निद १४३४। ज्ञायान्त भहुब्ीहि में निशश्रादेश दो जाता है, वया--युवयानिः ( गुदती जाया यस्य सः ) | इसो 5४022 महीजानि; ( राजा )।
चतुरस्ा० [५४७७ अपलुएनिमदरबनते हैं--नक्तन्दिवम्, रात्रिदिवम , श्र्॒र्टिवम , निःभेयसम्, पुरुषायुप्र , ऋग्यजुपम् ।हमारे
न पूजनावू शहृए।
फिनससेपे ।॥|/७०
नमस्त्पुरुपाव् ।बाषण)
पूजा, निन््दा श्रर्थ में एवं समरमाठ में कोई समातास्त नहीं हांगा, यया+-
मराजा, अ्रराजा, किराजा, अद्सा
समास-प्रकरण
र्श्५
अबव्ययीभावे शरत्प्रश्वतिम्य ५४१०७ अव्ययीमाव में (१) शरद् आदि से ठच् (अर) होता है-“उपशरदम् ( शरदः समीपम् ), प्रतिविषाशम् , ( २) ( प्रतिपरसमनुम्यो5कुणः ) प्रति, पर, सम ओर अनु के बाद अक्ति को अक्ष होता हे-्रत्यक्तम् , परोक्षम्, समज्षम। (३) (अनश्र) अनन्त को ट्च्(अ) और अन् का लोप होता है---उपराजम् , अध्यात्मम् |
संस्कृत मे अनुवाद करो+-१--द्वेबप्रयाग के पास मागीरथी और अलकनन्दा का सगम है । ३--माता पिता पुत्र को सदुपदेश देते हैं। ३--अशोऊ फा राज्य समुद्र तक पैला हुआ था । ४--धार्मिक पुरुष मरते-मरते भी धर्म को रक्षा ऊरते हें ।४-ससार मे सचचे मार्ग पर चलने वाला मनुष्य साधु कहलाता है । ६--महात्मा पुरुष सुख से युक्त जीवन को नहीं चाहते |७--व्याध के तोर से विधा हुआ मोर मर गया | ८--जो तुम्हारे
घर अतिथि आया दे उसको साना खिलाओ | ६--तूने मूतों केलिए; बलियाँ क्यों
नहीं रखीं ! १०--हम्हारे जैसा मनुष्य तीनों लाऊों म नहीं
भक्ति मनुष्य के जीवन को सफ्ल बना देती
है। ११--ईशवर को
है। २--क्षण-क्षण जोवन का काल
घटता जाता है। १३--महाराज विऋमादित्य का राज्य हिमालय तक विस्तृत था।
१४--ससार के माता पिता पावंती और परमेश्वर हैं। १४--मैंने पिता जी के
“ कमल समान चरणों को नमस्कार क्या | १६--उस युवती का पति बहुत बूढ़ा है, लड़ी के सहारे चलता है। १७--उस नगरी में बहुत से दण्डी रहते है और यहाँ एक विशाल शिव मन्दिर है। १८--डसको स्त्री सवंगुणसम्पन्न और रूपवाली भी है। १६--उस राज़ कुमार के विवाह में सैकड़ों घुड़सवार पैदल और मृदग तथा पणव बजाने वाले भी थे।२०--अ्रम्मि की तरफ पतगे गिरते हैं।
हिन्दी में अनुवाद करो तथा रेखांकित मेसमास वताओ और विग्रह करो-*-आपनार्तिप्रशमनफ्ला, सम्ददा ह्यत्तमानाम् |
२-अम्यथनाभगभयेन साधुर्माध्यस्थ्यमीष्टे उप्यवलम्बतेवर्तते, वरतेते, बठ॑न्ते श्रादि। उभयपदी-#-६ १० ) करोवि, कुद्त:, कुवेन्ति आदि। (श्रा०) कुब्ते, कुबति, कुबते श्रादि ।
प्रत्येक लकार के तोन पुरुप होते हं--( १) प्रयम पुरुष, (२) मध्यम पुरुष, और (३ ) उत्तम पुरुष । प्रत्येक पुरुष के तन बचनह्वोते €ं--एक वचन, द्विबचन तथा बहुबचन | इस प्रकार प्रत्येक्ष लकार के नो रूप हो जाते हैं।
सकर्मक, अकरमंफ और द्विकर्मक क्रियाएँ “लजञा-सत्ता-त्पिति-जागरणं वृद्धिनक्षय-मय्न््जीवितन्मरणम्! नत्तम-निद्रा-रौदन-बाराः_ स्पर्धा-कम्पन-मोदन-दासाः । शयन॑-क्रीडा-बचि-दीफ्यर्या: धावत एले कर्मणि नोकाः॥! ये घावुएँ च्रकर्मक ६। इनके श्रतिरिक्त विडि, शुद्धि, नाश, बुष्टि श्रादि तथा
स्निद धातु स्नेह करने के श्रर्थ में! रुदा अकमक है। विपूर्वक रस घातु भी प्रायःश्रकर्मकहोती है, यथा--श्रददं ववय्ि र्निद्यामि ( मैंतम से प्रेम करता हँ)। रामः फरिमिप्नप्ति म॒ विश्द्िति ( राम किसी पर मी विश्वास नहीं करता )।
श्प्
क्रिया-पकरण
र१७
दुदू, याचू आदि १६ ऐसी घात॒एँ हैं, जिनके दो कम होते हैं,यथा--स भाणवक
व्याकरण शास्ति (वह माणवक को व्याकरण पढ़ाता है )। यहाँ पर
शास्ति क्रिया के दो कम हैं--( १) व्याकस्य और ( २ ) माणवक । व्याकरण इस है
षृ
.]
का मुख्य कम है और साणवक गौण कम | प्रायः निर्जीव वस्ठ मुख्य कम शोर सजीव गौण कम होती है| द्विकमंक घात॒ुओं का सविस्तर वर्णन कर्मकारक प्रकरण में दिया जा चुका है| गण
भ्वाद्यदादी जुद्दोत्यादिदिवादिः स्वादिरेव च | वुदादिश्व
रुघादिश्न॒
तनक्रभादिचुरादयः ||
३१--म्बादि । ६--ठदादि । २--अदादि | ७--रूघादि । ३-जजुद्दोध्यादि । ८-पैनादि। ४--दिवादि | ६--ऋषादि । प--स्वादि | १०--चुरादि | काल--रस्कृत भाषा में काल बध्रथवा शृत्तियाँ दस हैं,यथा--
(१) वर्तमान काल--लद् ,यथा--सः पठति, अं पठामि (२) भूतकाल--( श्रासन भूत काल ) लुढः ,सः पुस्तकम् अपाठीतू । (३ ) भूतकाल (परोक्षमृत )लिए ,छिन्नमूलस्तरुः पपात | (४ ) भूतकाल्न (अनयतन मूत ) लड् ,स एवमत्रवीतू । (५) भविष्य (सामान्य ) लुद्,अद्य पिता प्रयाग॑ं गमिष्यति ।
(६) भविष्य (श्रनचतन ) छुट्,श्वः परिडितनेहरुः लक्ष्मणपुरीमागन्ता । (७) लोद् ( श्राश्ञायक ) मह्मम् जलमानय ।
(८ ) लिड (विधिलिड)वर्जयेत् ताइशं मित्र॑ विपकुम्भ पयोमुखम्। ( ६ ) लिड (आशीलिंड)पुत्रस्ते सुचिरं जीव्यातू। (१० ) लुढ(क्रियातिपत्ति ) देवश्वद् वर्षिष्यति घान्य॑ वष्स्याम, |
इस कारिका में लग आदि दस लकरों के अतिरिक्त लेटभीहै। लेद का प्रयोग केवल वैदिक भाधा में होता है अतः लौकिक सस्कृत में लेद का बन अनावश्यक है ।
अनिद् और सेट्धातुएँ सस्कृत में धातुएँ दो प्रकार की हैं--( १) सेट शर दूसरी अनिद ।सेट घातुएँ वे हैं, जिनके बीच में इट् (इ) लगता है, यथा--( गम ) गम्+इद
अलट वतमाने लेटवेदेभूते लुड लडलिटस्तया | विध्याशिपोस्तु लिश लोगो छुटलूटलूदच मविष्यतः ॥
श्श्द
बूहदू-अ्रनुवाद-चर्द्रिका
(६ )+स्पति >गमिष्यति, (मू) भविष्यति, (त) तरिष्यति, ( जाग )जागरिप्यत्ति, (चिन््त् )चिन्तयिष्यति इत्यादि |
अनिट घादुएं वे है, जिनके बीकमें इट् (इ) नहीं लगता, यथा-न दा ) दास्यति, ( दि ) छेत्स्पति, ( जि ) जेष्यति इत्यादि ।
अनिद्(इट्केबिना ) पातुएँ एकाच् अजन्त धातुओं मैं-ऊदन्त ( म्, लूआदि ), ऋदल्व (कू, तु श्रादि ), सु, र, चणु; शीद, सतु, नु, छ्ु, रिव, डीट, भरि, गृढ़ और श्रम को छोड़कर शेष धातुएँ श्रनिट हैं। हलन्त घातुओं में-शबलू-पच-मुच्-रिचू-वच्-विच्-सिचू-प्रच्छि-त्यजू-निजिर-भजू ॥ भश-भुज-भ्रस्न-मस्जि-पज-युज्-इ ज-रञ-विजि २-स्व ज्ञि-सज्ष-स ज्|
अदू-छुद-खिदु-दिदू-ठुदु-नुदू-पद्य-मिद्-विद् (वियति ), विनदू, रादू-सद्-ल्विदू-स्कर्दू-दृद-रुधू-छुपू-बुधू ,
बन्घू-युध-रुप-राप-व्यप-शुध्-साध-सिध, मन-हद-श्रापू-क्षिपू-छुप्-तप्-विप्-तृपू प्
लिप्-छुपू-वप्-शप्-स्वपू-सुप-यमू-रमू-लम्-गम-नम्-रम-यम् , क्ुश-दश्-दिश-दश-भृशु-रिश-दशू-लिश-विश-स्पृथ्
कृप-त्विप-तुप-द्विप 'हुप-पुष्य-पिश-विप्-शिप्-शिप्-शुप्-श्लिप्य, धस्तू-चसति-दह-दिह-दुह-मिह-नह-रुद-लिद और वह । ये १०२ (इल॑ंन््त )घावुएं अनिद ईं | ( उपयुंक्त घातुओं की गणना में कान्त, चान्त, जान््द आदि क्रम रा
गया दे। )
वर्तमान काल-लदू लकार-“प्रारूघो5अपरिसमाप्तच कालः वर्तमान! काला? निरन्तर होती हुईं--वर्तमान काल की क्रिया लद् लकार द्वारा बतायी जाती
है; “वह खेलवा है--खेल रहा है, पढ़ता हे-पढ़ रहा है” आदि का अ्रत॒वाद “क्रीड़ति, पठति” आदि से किया ऊाता है। छुछ श्रष्यापक एवं छात्र “कह रहा हैकौर खेल रद्य है” का श्रनुवाद “प्रमापमाणोटत्ति तथा क्रीडन्नस्ति” से करते
है । रेत अगुवाई ध्याकएए के फिफ्ें के. त्पद दे १
(क ) जिस यबर्तु का जो स्वभाव हो, जो कि रुदा सत्य है, उस आथ को बत: लाने के लिए लद॒ लकार का अयोग दोता हे, यपा-चिरं पवतात्विप्न्ति, मदथ प्रवहन्ति | सत्यवादिनः अविशा वितर्था न हि बुचेन्ति |
क्रिया-पअकरण
र्श्द
(खत) वत्तमानसामीप्ये बत्त मानवद्ठा ।शश१३९
उच्तमान काछ्न के समीए में स्थित मविष्यत् शरीरभूत काल का बोध कराने के
लिए अर्थात् जो क्रिया रीही समाप्त होगी या अमी समासत हो गयी है, उसके लिए लग का पयोग होता है--
(१) हा गोपाल ग्रमिष्यसि ! एप स्च्छामि। ( गोपाल ) कब जाओगे हैँ अमो जाता
हूँ।)
* (३)क्दा5४] आगन््तोइसि ! अयमागच्छामि | (गोपाल कब आये
हो ! अभी आ रहा हैं। ( भ) किसी प्रश्न का उत्तर देने के लिए मूत फाल के अर्थ में लूकाप्रयोग रंग,न अकापोंः किम १ नशु करोमि भोः। क्या तुसने चदाई बनाई ! हाँ, बना'
||
(घ) पुनः पुनः का बोध कराने के लिए भी लट्लकार का प्रयोग होता है,
कान अत्यहहेगत्वा शस्य॑ खादूति ( हरिन नित्य वहाँ जाकर अनाज की धेखाया करता या
)।
सोअपि अभ्ुधर्मेण स्वेम्यस्तान् विभ्य भ्रयच्छुति ( यह भी अपने स्वामिषम्म को निभावा हुआ उसे सब जानवरों में बॉँट देता था )।
लदसम (॥२।११८ अपरोत्ते च।शरा१श (४ ) लटलकार के साथ सम! ( श्रव्यय )जोड देने पर भूवकाल का श्रर्थ निकलता है,यथा--कर्स्मिश्रिदेशे धरम्मंबुद्धिः पापजुद्धिश्व दे मित्रे रतिवसतः सम | विशेष--स्प! का लग लकार के लगाना हीशावश्यक यावय में कहीं पर भो आ सकता है, का 32220. (२ ) इुनोति निगन्धवया सम चेतः । (२) लर्म पेत्थमहाराज, यत्स्माहन विमीपणः )
यावत्पुरा निपातयोलंद !शशछ।
(च 2 ( पहले ) शब्द के साथ छुडटकोछोड़कर मूतकाल के श्रथ में
23 4; लकार का भ्योग होता हे, परन्तु स्म युक्त पुरा शब्द के साय नहीं हा् बा (अवात्सुः वा ) युशच्छात्राः (पहले यहाँ विद्यार्यी
(छ ) यावत्, तावत्केयोग मे (तद्, के अर्थ मेंलद लकार का प्रयोग कगारहक जहर पक भोडि) अदिलेद
हेके
आगच्छामि तावदपेत्स्व (ऊब्र तक मैं चापस आऊँ,
(२) आर्य माधन्य, अवल/म्बस्व चित्फलक यावदागच्छामि (आय आर्य म्राधव्य,
झ्नरे
आने दक इस चित्र झलक कोपकड़ो )।
री
;
३२०
बृहदू-अठुवाद-चर्द्धिका
(३ ) यावत् स त्वा पश्यति तावद दूरमपसर ( यहाँ से भाग जाद्ो, ताकि बह त॒ग्दें देख न ले )।
(ज ) निश्चिन्तता के श्रथ में यावत्! और (पुरा! इन दो अब्ययों के योग मैं
भविष्यत् काल में ल्का प्रयोग होता है, यथा-(१ ) पुरा सप्तद्वीपा जयति वसुधाम् अप्रतिरथः (बह अ्रतुपम बोर सप्तद्वीए पृथ्यी को अवश्य ही जीत लेगा )। (२) यावत् यते त्वदम्् ( मेंबया शक्ति तुम्हारे काय को पूरा करने का प्रयत्न करूँगा )]
(३ ) यावदस्य दुरात्मनः कुम्मीनछीपुत्रस्थ समुन्मूलनाय शजुघ्न॑ प्रेपयामि ( मैं इस कुंग्भीनसी के पुत्र केविनाश के लिए शब्रुच्न को भेजूँगा )।
लिप्स्यमान सिद्धी च ।श३ण श्रन्नादि देकर स्वग की प्राप्ति कीइच्छा रखने पर तथा 'ऐसा करने ५२ ऐसा
होगा! ऐसी शत बोध कराने केलिए भविष्यत् के श्रथ मे विकल्प से लंद लकार होता है, यथा--यो5ब्न॑ ददाति ( दास्यति, दाता वा) स स्वर्ग याति ( यास्यति याता वा ) जो अन्नदान करेगा वह स्वर्ग जायगा |
देवश्भेद बपति (वर्षिप्यति वा ) तह धान्यं वपासः ( वष्स्यामः वा ) विभाषा कदा कामों ३१५। कदा और कई शब्दों के योग में मविष्यत् के श्रथ में विकल्प से लद लकार होता है, यथा--कदा कई वा मुदक्ते, भोद्यते, भोक्ता वा (कब खायगा ! )
लोडर्थलच्णे
च।३३।
भविष्यत् के श्रर्थ में लोद के श्र्थ अदण करने पर भी लद लकार का प्रयोग होता है, यथा-ऋष्णरचेद् भुद्दले (भोक्यते, मोक्ता दा ) त्व॑ गाश्रारथ ( यदि कृष्ण खाना खाद तो तुम गाशों को चराओ )। (२ ) आाचायरवेत् ,श्रागच्छ॒ति ( श्रागमिष्यति, आागस्ता था) लव वेदान्
आ्रधीश्व )॥ कि पृत्त लिप्सायाम ३३६ प्रश्न सूचक मत्रिष्यत् अर्थ में बिकल्म से लब लकार का प्रयोग शोता है, यथा--अश्रस्मासु क॑ ( कतरं,
कतमं वा ) भोजयसि ( भोजमिष्यसि,
था ) ( हम में से किसको खिलाओंगे ! )
भोजप्रितासि
इन उदाइरणों को ध्यान से पदो-(१) थ्ालोके ते निपतवि पुरा ( यह श्रमी तग्हारे सामने आपेगी ) | (२ ) प्रकृतिः खछ सा महीयसः सइते नान्यसमुन्नर्ति थया ( तेजस्वी पुद्पों
का यह स्वभाव है कि वे दूसरों फी उन्नति नहीं सह सकते )।
जिया प्रकरण
श्र!
(३ )केसराग्र मूपिरः कश्नित् प्त्यद छिनसि ( कोई चूहा उस शेर के दाल नित्य कुंवर जाता है )। “व लिसवार
(४ )विध्न्त॒ मवन्तोज्जैव यावदह प्रभोराज्ञा रहीत्वागच्छामि
आय माय कर जय तक न आऊँ तय तक आप यहीं ठहरिए )।
( मैं स्वामी कौ का
(५) न हि प्रतीछते मृत्यु. कझृतमस्य न वा ह्र्तम् ( मौत यह नहीं देखती कि इसने क्या कर लिया है और क्या करना है ) भूतकाल ( लड़, लिए और लुड_) मूत हाल की क्रिया को ग्रकद करने के लिए सस्कृत में लद, लिएऔरबुद्दू सफकारों का प्रयोग होता है, अर्थात् “था, हुआ यथा, रहा था, किया था”? के लिए। यथा--स पपाठ ( उसने पढ़ा ), त्वम् अपठः (तूने पठा ),अहम अगमय (मैं गया ), अनेनैव पया वय बाराणसोम् अगच्छाम ( अगमाम वा )( हम इसी रास्ते से बनारस गये थे ),श्री कृष्ण: कस जवान (अहन् अबघोत् , इन्ति सम वा )
( श्री कृष्ण ने कस को मारा )
यदि मूत काल सूचक वाक्य में अयय (आज ) का प्रयोग हो तो छुद लकार
का ही प्रयोग होता है, यया--ब्रद्य यमो राजा अ्रमूत् (आज राम राजा डुशा )।
मृत काल सूचक वाक्य में यदि हः ( कल वीता हुआ ) का प्रयोग हो तो
लद्काप्रयोग होता हे ( लिए औरछुट््कानहीं ),यथा--हाः दृष्टिएमयत्
(कल चर्षा हुई थी )। परोक्ष भूतकाल में ( इन्द्रिय सेअगोचर हाने पर )लिट का श्रयोग होता है, इिन्तु उचम पुरुष मे लिए नहीं होता, यया--नारद उबाच (नारद हिन्दु अह वन जगाम, ( मैं जगल गया ) यह प्रयोग ठी नहीं है। सनि बोले),
अनयतने लडः ॥३३॥१५। जा कोय आज से पडले हुआ हो, उसके बाघ कराने के लिए लद लकार का प्रयोग
होता है, यथा--देवदत्तो होव्रम् अत्रवीत्(देवदत्त ने ऐसा स चैकदा पानीव पातु यमुनाकच्दधम् अगच्छव् ( एक दिन वह पानी कहा था )। पीने यपुना के किनारे गया )।आसीद् राजा नलो नाम ( नल नामक एक के लिए. राजा हुआ )। अपरयद् देवदेवस्प शर्ररे पाएडवस्तदा ( तय अर्जुन ने भगवान् के शरीर सम देखा )॥ अश्ने चासन्न काले शिरा ११७ प्रनयोषक वाक्य में लुड लकार मिन्त आउन्न मूतड़ाल के बोध कराने के जिए परोक्ष मे (इन्द्रिव से अमोचर ने पर 2 लड और लिटका ग्रवाग संता है, यया--अमा यद किम ! बमापे किम !जगाम किम !
किन्द॒ विप्रदृष्ठ भूत काल में (जो देर से बीत चुका ), उसके बोध कराने के लिए. लड का श्रयोग नहीं होता, उसमें लिट का ही ग्रयोग होता है, यथा--कख
जवान किम !
ररर
बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
मास्म--मास्म” के योग मैं लड और लुद्का प्रयोग होता है तया मास्मँ के प्रयोग होने पर श्रागम के ग्रकार का लोप हो जाता है, यथा--मास्म करोत् ( नहीं करना चाहिए ), मात्म मवः ( मत होथो ) | वाक्य के मध्य में स्थित ह? और “शश्वत' के रहने पर 'लड॒! और लि! लकार का प्रयोग द्वोता है, यया--इति होवाच याशबवह्क्यः (याजवल्क्य ने ऐसा कहा ) | कलश पूर्णमादाय प्ृष्ठतो5नु जगाम हू [ पानी से मरे हुए कलश को लेकर बह ( मुनि के )पीछे चली गयी ]। शश्वत् श्रकरोत् (चकार वा )
लिटू लकार का प्रयोग (के ) जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है कि परोक्ष भूत ( इन्द्रिय से अग्रोचर ) द्वोति पर लिदू लकार होता है, यया-( ! ) शैलाधिराजतनया म ययौ न तस्थौ ( पावंती न झ्लोगे जासकी न ठहर
ही सकी )।
(२ ) जहार लजां भरतस्य मात ( रामने भारत की माता की लाज हरी )।
(३ ) इत्यालोच्यात्मनः शिरत्रिच्छेद (इस प्रकार सोच विचार फर उसमे अपना सर काट डाला )। (४ ) छिन्मूल इव पपात ( वह कटी हुई जड़ बाले पेढ़ की माँति नोचें गिर पढ़ा ) |
(५ ) तत्र विश्याधमाम्यासे वैश्यमेक ददर्श सः ( वहाँ ब्राह्मण के श्राशम के पार
उसने एक बनिया देखा ) | (ख ) अत्यन्तापहचे लिटचक्तत्यः (दा० | सत्य को छिपाने की इच्छा में लियू लकार का प्रयोग होता है, यथा-- श्रप्रि कलिफ्लेप्ववसः ! नाहं कलिज्ञान् जगाम (क्यों गम कलिज्न में रहे ! नहीं, में कमी कलि'ट्न देश में नहीं गया )।
अरे ! किमिति में पुस्तक मलिनीकतवान् श्रसि ! नाएं ददश ते पुरतकम (श्ररे,
बने मेरी पुस्तक क्यों मनदी कर दो ! नहीं, मैने नहीं की, मैने तुम्हारी पुस्तक देयो तक नहीं है )। (गे) उत्तम पुरुष में लिंटूखकारनहीं होता, किन्तु स्वम्न श्रीर उन्मत्त श्रयम्पा
में उत्तम पुरुष में मीलिदू लकार का ग्रयोग होता है, यथा--
अहम उत्मत्तः सन् वर्न विचार (मैंने पागलप्न की दशा में जंगल में
अमण किया )। अध्यद निद्रितः रुम्विललाप ! (क्या मैं निद्वित अवस्था में विलाप कर
डा था!)
क्रिया प्रकरण
रर३
लुड लकार का प्रयोग (क ) आसन्न मूत काल ( अर्थात् जो क्रिया आज ही हुई हो ) में छुद लकार का प्रयोग होता है, यथा-(१ ) इदमच्छोदं सरः स्नावुम अम्यागमम् (मैं इस अच्छोद सरोवर में स्नान के लिए आयी ) | _ (२) सुरथो नाम राजामूत् समस्ते छवितिमए्डले ( समस्त पृथ्वी में सुरथ नाम का एक राजा था )।
(३ ) धवले परिधाय धौते वाससी देवग्हमगमत् ( धोये छुए. सफेद कपड़ों का जोड़ा पहन कर यह देवमन्दिर में गया )।
(ख ) माइऔर मास्म शब्दों के योग में तीनों कालों मे ही छुछकाप्रयोग होता है, यया-है (१ ) क्लेब्य मास्म गमः पाये (दे अर्जुन निराश मत होओ )। (२) मास्म प्रतीपं गमः ( विपरीत मत हो जाना )॥
(३ ) प्रिये, मा भैषीः (कपोत ने कह्य--प्रिये, डरो मत ) | (४ )मा भूत् दुःखम् ( दुःली मत होओ )।
इन छदाहरणों को ध्यान से पढ़ो--
(१) बहु जगद पुरस्तात् तस्य मत्ता किलाहम् ( मैं पगली उसके सामने बहुत कुछ बक गयी )।
(२) पुरा हि त्रेतायाम् श्रतोव भीषण दैवासुर्युद्धमासीत् (पहले त्रेता में देवों और असुरों के बीच मोपण युद्ध हुआ था )। (३ ) दुदोह गा स यज्ञाय शस्याय मधवा दिवम् ( उसने यज्ञ के लिए, प्ृम्वी को
दुद्य और इन्द्र ने अन्न के लिए चुलोक को दुह्य )।
(४ ) कथ नाम तत्र सवान् धर्म्मम् अत्याक्षीत् (आपने घ्॒म कैसे छोड़ दिया !) (५ ) सोडपि तेन सद्द चिर गोप्ठीसुखमनुमूय मूयोदपि स्वमवनम अगात्
( चिरकाल तक उसको संगति का आनन्द लेकर वह अपने घर चला गया )।
लृद और छट्काप्रयोग अनयतने लुट ।॥३१५। लुटू शेपेच शशश्श हिन्दी क गा, गे, गी का अंमुवाद सस्दृत म॑ मविष्यत् काल बोधक छुट भर
लूटसेकियाजाता है। वद्यपि इन दोनों ही लकारों से भविष्यत् काल का बोध इता है ता मो दोनों में भेद यह है ऊ्रि दूरवत्तों सविष्यत् केबोध के लिए लुद ्
और आसन्न या समीपवर्चो भविष्यत् के लिए लूट का प्रयोग होता
५, यंथा-१(क ) अयोध्या श्व.प्रयातासि कपे मरतपालिताम् (हे बानर, तू कल मरत-
पालित अयोध्या में जायेगा
)।
र्श्र
बृहदू्यनुवाइल्चन्द्रिका
(ख ) पशपैरदोमिः वव्मेत्र वत्ागत्वारः (पांच दः दिनों में हम हीं वहाँ जाबंगे )
२६७) न जाने क़ुद्ठः स्वामी दि विवास्थति (न जाने स्वार्मी कब मैं क्या कर डालेंगे )
& ,(से) यलवं दास्वते सीता टामजुद्याठम्ईसि ( कवा अपने सर्तीत्व का अमाय देगी, उसे आज्य देना आउका काम हे )। ( ढद ) आरांसायां मूतंवध शरेरइ्सत आशंटा ( ऐडा होने पर ऐसा इोगा--इस प्रकार के अर्थ में ) छुय लकार छा अयीग द्वोता ढे, बधा--देवश्वेद् बर्रिप्वति धान्य॑ वष्त्यान: ( यदि वर्षा होगी तो इस घान वोवेंगे ) । ( विद्ेप--दर्सी अर्थ में छुष्टऔर ल्कासी श्रवोग होवा है--देवशेद् अवर्धीत् चपति वा ) | हिप्रबचने छूट ३॥!३३॥ ब्क़च में दिए्र (शी ) शन्द रहने पर सेपल लग का पेय शेवा है, कथा--
वृश्श्रित् शीर्त ( त्वरित, श्राय्व वा )श्रावात्वति च्ियय॑ वष्त्यामः ( बंदि शीत वर्षा होगी दो हम अनाज बोर्देग )॥
अभिश्नवचन लुट ।शराश१२ वाज़य मैं अ्रभिडवचन श्रर्पान् स्मरणापक्र वोषक शब्द रहने पर लूडइ के स्पान पर लूद लकार वा प्रयोग द्वौद्ा दै,यया--रुमएत्रि रृष्ण गोठुले बत्स्यामः
(६ कृष्ण तम्हें याद है, इस गोडुल में रहते ये )।
आ ्राश्वर्या श्र्य में धात से लूट लकार दोठा है, यथा--धाश्रयम् थ्न्धों नाम
कृष्ण द्रचववि ( शाश्रय है कि श्न्वा शृप्य को देखेगा ) ! पनश्चवायक! और समय बोबऊ! श्र॒लं ठन्द के साथ लूट लकार का धर्रोग
होता है, यथा--“अलं कृष्ण हत्दिनं दनिष्यति |
दुढ लकार का धयोग
लिझ निमिये छुछक्रियातिपत्ती।शरा१६ा ध्यदि ऐम इवा तो ऐसा होता इस प्रछार के मविष्यत् के अथ में घातु से लूद लकार होठा है, यया--सैरेटिथेद्मरिष्यत् सुमित्ररविष्यन् ( यदि अच्छी वर्षा होवी तो रछच्दा ब्रन्न होगा )।
ल्दाँ क्रियातिपत्ति (छिया को अनिष्राचि या असिद्धि )अर्थ मे शीत हो अथवा देत था वाक्याथ का झूठामन (न होना ) मलझगा है, वहीँ लड का बयोग होता है | लूट मृत या मविष्यव् के अय में प्रयुक्त होवा है। चद्ध व्यासरण-
क्रियाय्करण
श्र
नुसारी विद्वाद मविष्यत् काल में लूढका प्रयोग नहीं मानते। वे भविष्यत् काल में लूदू के स्थान पर लूटूका ही प्रयोग करते हैं। ( मविष्यति नियातिपतने भविष्नस्त्येवेति चान्द्राः )यया-(१) यदि गोपालः सन्तरणकौशलमशजञास्थत् वर्हि जलात् नाभेष्यत् ( यदि ओोषाल तैरना जानता तो उस्ते जल से डर न लगता ! ) (२) निशाश्वेत् तमस्विन्यो नामविष्यन्कोनाम चन्द्रमसों गुण व्यज्ञास्थत् ( यदि रात अपेरी न होतीं तो चन्द्रमा का गुण कौन जानता ! ) री (३) यद्यहम अन्धो नाभविष्यम् तह प्रथिव्याः सवेपा गुणाना सौर ( यदि मैं श्रन्धा न होता तो मैं पृथ्वी की समस्त वस्तुओं का सौन्दर्य देखता । ) (४ ) यदि राजो दुष्टेपु दए्ड नाधारमिप्यत् ददावश्य ते प्रडा उपापीडयिप्यन, ( यदि राजा दु्शे को दण्ड न देता तो वे लोगों कोअवश्य पीडित करते )। (४ ) यदि दक्तिणाफ्रोकास्था गौराज्ञाः शासका आउजन्मसिद्धानधिकारान भारतीयेम्यो5दास्थन् वद्य द्रयोजालोः्शोमनो मिथः सम्बन्धो:भविष्यत् ( यदि दक्षिण अफ्रोका के गोरे शासक मारतीयों को उनके जन्मसिद्ध अधिकार दे देते तो दोनों ही जातियों के परस्पर सम्बन्ध अच्छे हो जाते ) |
इन उदाहरणों को ध्याव से पद़ो-(१) आशा बलवती राजन् शैल्पो जेष्यति पास्डवान् (हे राजन आशा
बलवदी होती हे,क्योंकि आशा हेकि शैल्य पाएडवों को जोत लेगा ) |
(३) यास्पत्यय शकुन्दला परविशहं सर्वेरतुद्ञयताम् ( समी को सूचित करता हैं, कि आज शकुस्तला अपने पति के घर चली जायगी ) | _
(३) देब्याअपराधेन ठृतीयदिवसे राजा पद्मत्व॑ गमिष्यति ( देवी के अपराध
से राजा आज से पॉँचवें दिन मर जायगा ) |
((४) किन्तु स्वग्रार्यनासिदयर्थ सरस्वतीविनोद॑ फरिष्यामि ( फिन्तु तेरी
प्रायना पूरी करने के लिए, सरस्वती कामन बइलाऊँगा ) [
(६) शत्रन्विजेप्ये यासरिष्यामि वा (या तो शल्ओं को ही जीतूँगा
या मरूँगा
)
लोट लक्कार विधिनिमन्त्रणामन्त्रेणाधीप्टसंभश्नप्रार्थनेपु लि ।श३९१६१ सोदच।३/३।१६२ आशिपिलिहः लोटोशिशरे्श
( विध्यादिषु अप घावोलोंद स्पात् ।सि० कौ० ) अनुमति, निमन््त्रण, आमन्व॒रण, अनुरोध, जिजाखा और साम्य अर्थ मे लोट लकार का प्रयोग होताहै, गथा-अलुम्रति भय भें--अ्रथ भवान्अत्रआयच्छठु ( झाज आप यहाँ आइए। कं )
र्२६
शहदू-अनुवाद-दन्द्रिका
निमन्त्रण अथ॑ में-अच मवाद् इह मुदछाए (आज आप यहाँ मोजन कीजिए ) ।
आमन्वण अर्थ में--वने5स्मिन् ययेच्छें बस (इस तेन में इभ्दालुसार रह सकते हो )। माम् अस्याः विपदः रदात मवान् (आप इस विपत्ति से मेरी रक्मा कौजिए ) |
जदि शरुं मद्गाबाहो कामरूपं दुरासदम् (है महाबाहो, इईच्छास्सो शत्रु ला नाश कोजिए )।
स्ज दुजनसंसर्ग भज साघुसमागमस् (दुशशों की संगपि छोड़िए श्लौर बजनों
की संगति कोजिए )।
भद्र, अनुजानीहि, पिंगलकसमीएँ गच्छामि ( मित्र, आर दीजिए, मैंपिगलक के पाठ जाता हूँ )। आ्राशीर्ाद अर्थ में मष्यम तथा शअ्रन्य परुष में लोटूहकार का ग्रयोग होता हैं,यथा-'गब्छ विजयी मद [ जाओ, विजय प्रात्ते करो 9). पन््पानः सन्तु ते शिवाः (तम्दारे माय कल्यायकारी होते ) ! पुत्न॑ लमस्वात्मगुणानुरूपम्(अपने ही समान गुण बाली
पुत्र धाप्त करो
)।
सदारपुत्रों राजपुत्रो जोवठ ( राजपुत्र पुत्र सहित जोवित रहें ) विशेष-श्रार्शारवाद अर्य में जब लोट का प्रयोग होता है तब दु! शोर
५! के स्थान में विकल्प से 'ताव! हो जाता है यया-विरंजीवतात् ( जीवतठु वा ) शिज्युः। कुशल ते मबताव् (मवठ वा )।
उपदेश द्वारा! आदेश के बोष होने पर भी लोलकाई का प्रयोग होता है, यथा--यः सर्वाधिकारे नियुक्त+ प्रधानमन्त्री सययोचितं करोंठ ।
ध्रइन! श्रौर 'सामर्स्य/ श्रादि का बोघ शोने पर उत्तम पुर में लोद लकार होता है, यथा--
कि फरवाणि ते प्रिय देवि ! ( देढि, तेरे लिए मै *या करूं ! ) हिन्घुमरि शोषयायि ( मैं समुद्र मौ मुखा सकता हूँ2। इन उदादरणों फो ध्यान से पदो-(१)
सत्य ऋदि, अनुपादहि साधुपदबीम्,सेवस्द विद्नर्ी |
(२) शुम्पत्व गुरूय कुशघियठसखोदृति रुपत्नीजने | (३ )दा श्रिय ससि, क्वासि देहि मे श्रतिवचनम्। (४ ) रामे दिचलयः मबतु मे मो रास, सामदर।
क्रिया-प्रकर्ण
र्र७
लिहः लकार का प्रयोग अनुमति को छोड़कर शेष पू्ोक्त अर्थों में तथा विधि (आरा ) और सामस्य
अर्थ में विधिलिदकाप्रयोग होता है, यथा--
अं
विधि में--( १) ब्ह्मचारी मधु मास च बजयेत् (अक्षचारियों को मधु और मास न खाना चाहिए )। (२)प्रत्यक्ू शिरा न स्वप्याद् (परचम की ओर सिर हे, करके न सोवे ) । (३ ) नान्यस्यापराधेनान्यस्थ दएडमाचरेत् ( दूसरे के अपराध के लिए दूसरे को दण्ड न दे )।
सामथ्ये मे--अनेन र्थवेगेन पूचप्रस्यित वैनतेयमप्यासादयेयम् (रथ की इस चाल से मैंपहले चले हुए. गरुढ़ को भी पकड़ सदा हूँ) |
सम्माध्य भविष्यत् एवं प्रवर्चना (लोद तथालिक_) सम्माव्य भविष्यत् श्रर्थात् सम्भावना, मरने, औचित्य, शपय बया इच्छा
आदि श्रथों में लोटएवंविधि लिद्का प्रयोग होता है। प्रवतना अर्यात् प्रत्य
विधि, प्रार्थना, उपदेश, अनुमति, अनुरोध एवं आशा आदि अ्रथों में लोदएवं विधिलिड् छा प्रयोग होता हे । सम्भावना--सम्भाव्यतेष्य पिता आगच्छेत् (शायद आज पिताजी आ जाये)। कदाचिदाचाय्य; श्वः वाराण्ों गच्छेत् (शायद कल गुरुजी काशी जावें )। संप्रश्न--किमह वेदान्ठमघीयीय उठ न्यायम् (मैंवेदान्त पढे,यान्याय ! ) ओऔचित्य-- छ्व राधूना सेवा कुर्याः ( ठम साधुओं को सेवा करो )॥ तथा कुछ यथानिन्दा न भवेत् ( ऐठा न करो कि जिससे निन्दा हो )॥
शपथ--यो मा पिशाच इति कथयति तस्य पुत्रा प्रियेरन् ( प्रियन्ताम् ) ((जो
मुझे पिशाच कहता है उसके एप मर जाए )।
प्रार्थना--दीने मयि दया कुरु ( मुझ गरीब पर दया कोजिए )। अप्यन्दराडडगच्छानि झआार्य ( श्रीमान् ,क्या मैं भीतर आ सकता हूँ ) आज्ञा--वीशोंदक च समिषः सुकुमानि दर्मान्। स्वैरं वनादुपनयन्तु तपोषनानि ( स्वेच्छा से तपस्या का घन, ठीयों का जल, समिधाएँ, फूल तथा कुशा घास ले आयें )। रमेश, र्व पुस्तक दशमे पाश्वें ससुदूघाटय पठन चास्मस्य ( रमेश, अपनो
पुस्तक के दसवें पृ्ठ कोखोलो और पढ़न्य शुरू करो )॥ आशीवोद--आत्मसद्श मरतारं लमस्व वीस्यृश्न मव (परमात्मा करे तुम
अपने योग्य पति को प्राप्त करो और वीसजननी हो जाओ ) । घुन्नोडल्य जनिषीष्ट यः शत्रुक्रिय हृषीष्ट, ( हियात् )(ईश्वर करे उसके घर इस वार पुत्र पैदा हो जो शत्रुओं को लक्ष्मी काइरण करे
)।
श्र्८
बहदू-श्रनुवाद-वन्द्रिका
उपदेश--सत्त्यं दयात् प्रियं छुयात् (रच बोले ।भीठा दोले ), उदछा विद न क्रियाम् ( बिना विचारे कार्य न फरे ) सावधानों भव शप्रुनिभृदमवसरं प्रतीहते ( उावधान रहो, शत्रु तुग्हारी घात में है )।
अलुरोध--इद्याखोत ( ध्ास्ताम्)तावद् मबान् ( आप यहाँ बैठिए )।
* - अलुमधि-उपदिशत मवान् कथ्य त॑ अंसादयेयम् (आप ही बवादं, कैसे उसे प्रसन् करू )। अपि छात्रा गहं गच्छेयः ( गन्छन्ठ वा ) (क्या विदार्थों घर जावे !)
विधि, सामर्थ्यं--इनके उदाहरण ऊपर दिये जा चुके हैं ।
इच्दार्येपु लिड_ लोदो ।शशश्ष्ण
इच्छा-भवान् शीर्भ मोरोगो भवेत् (भगत वा) (शाप शीम स्वस्थ होजायें )) आ्राप्तकाल--प्रसाधयदु मवान् सवा योग्यताम् ( श्राप के लिए यद्व श्रच्छा श्रवतर
है कि आप अपनी योग्यता दिखाएँ )।
कामचाराजुज्ञा- भ्रपि याहि, श्रपि तिष्ट (तुम चाहों तो जा सकते हो और
चाहदो तो ठहर सकते हो )।
झ्ाशीलिंह लकार श्राशीर्वाद के श्र में झाशीलिंद होताहै, यथा--उद्चाद सुचिरं पोव्यात् |ल॑ दौर्घायु। भूयाः ) बीरप्सविनी सूयाः ! विधेयासुर्देवाः परमरमणीौयां परिणतिम्)
इन वाक्यों फो ध्यान से पढ़ो-(१ ) श्रात्मानं सतत सक्तेत् दारैरपि घनैरपि ( र्ियों सेभी श्रौर घनों से मी ध्यपनी हमेशा रचा करे )। (२१पादनिरणेजन
कृत्या विश्रा अन्नेन परिविष्पस्ताम (पाँच
धुल्ाकर
आाक्षणों को अन्न परोस दो ) | ५ के (३ ) व्यवसत भपान् इदं इृत्यम् ( आप चाई तो यह काय कर सकते हैं)। (४ ) मान्यान्मानय शबप्ूमप्यनुनय ( मान योस्यों कामान करो और शब्रृश्रों को भी श्रशुकूल यनात्ो ) | हि
(५, ) शिप्यस्तेलोट् कसताप् कम्पेताम् कम्पस्ताम
प्र० म० उ०
कम्पस्थ
कम्पेथामू
कम्पप्वम
से००
के
कसावहै
कसामहे
_ उ०
कम्पितादे कम्पितास्वहे कृम्पितास्महे
कम्पेतद..
कम्पेयाताम कम्पेरन्
प्र०
श्रकम्पिष्ट अकम्पिपाताम अ्रकम्पिपत
प्र०
विधिलिंड_ कम्पेवदि
कम्पितासे कम्पितासाथे कृम्पिताध्वे
सामान्य भूत-लुड़,
कम्पेया: कम्पेयाथाम् कम्पेध्यम्ू से कम्पेष...
चकम्पे चकमसाते चकमिरे चकंम्पपि चकम्पाये चकमिष्वे चकम्पे चकमिवदे चकमिमहे अनद्यतन भविष्य-छुद् कम्पिता कम्पितारी कम्पितारः
कम्पेमहि
उ०
अकंम्पिप्ठाः अकम्िपायाम् अकमिध्वम् अकम्पिषि अकम्पिष्वदि अकमििष्महि
आशीर्लिंड_ क्रियातिपक्ति-लूड_ कम्पिषोष्ट कमिषीयास्ताम कमिषोरन् प्र० अकम्पिष्यत अकमिष्येताम् श्रकम्सिष्यन्त कम्पिपीछाःकमिपीयास्थाम् कम्पिपीष्वम् म०अकम्िष्यथाश्य्रकमिप्पेयामझकम्िप्यम, कमिपीय ,कमिपीवदि कमिपीमद्कि. उ० अकमिष्येश्रकम्िष्यावहि अ्रकम्पिष्यामहि
(३) काढक्ष(इच्छा करना ) परस्मपदी बतम्रान-लरख् काढज्ुति काइलुतः काइ्लन्ति काइक्षसि काइलथः काडत्तासि काड्ज्ाबः
फादछ्य.. काइलाम।
सामान्यमविष्य-लूट
विधिलिदः प्र० काड चेत् काइलषेताम काडत्तेयु: म० काडलेः काइल्ेतम् काइक्तेत . उ० काड्सेयम काइलेव काडत्तेम
आशीर्लिड'
फाड्ह्चिष्यतिकाइत्तिप्यवःकाड्क्षिष्यन्ति प्र० काइ्क्ष्यात् काइडर््यास्तामकाडब्यासु: काइजिष्यसि काड्क्िष्यय काइज्प्यय म० काइ्ताः काड्ज्यास्तम् कांड्द्यास्त का्ड्लिप्यामि काइलिप्यावः काइत्तिष्याम:उ* काइ कह्ष्याम्काड क््याव काड दयाम
अनच्यतनमूत-लड परोछ्ठमूत-लिद् अकाइज्ञत् अकाइजताम् अ्रकाड्क्षत प्र०« चकाइज्ञ॒चकाइत्तठः चकाडइल्ु अ्रकाइक्ुः अकाइइतम् अकाइक्ृत म० चकाइलिय चकाइक्षयुः चकादक्न अकाइज्म् श्रकाइडाब॑ अकाइ्काम उ० चकाइकज्ष चकाझुक्षिव चकाडफिम आशा-लोट अनद्यतन मविष्य-लद कॉड्छतु
काइच
काइछताम
काइजतम
काइक्ानि काइछाव
काइलन्तु.
काइबत
काइक्ाम
प्र० काइक्षिता काइडितारी काइूचितारः
. म० काइक्तासिकाइद्ितात्थःकाइसितास्थ उ० काइचितास्मिकाइक्षितात्व/काढचितास्म३
श्श्डः
बूहद-अनुवाद-चन्द्रिका
सामान्य भूत-छुडझ क्रियातिपत्ति-लूड श्रकाडक्षीतअकाडलिशम् अ्काड्निपुश “प्रकाड त़िष्यव्अकाड च्तिष्यतामझ काडदिप्पन् अकाइक्षीः अकाडलिश्मू अकाडकिप्टम ०अकाड्क्तिप्यः थकाइ क्षिप्यतम अ्रकाइकिष्यत अकाइूलिपस्नकाइक्षिप्व क्रकाइूक्िप्प उ० श्रकाड्ज्ष्यमत्रकाइजिप्पाव श्रकाइूचिप्याम
(४) क्रीड् (खेलना ) परस्मेपदी यतमान-लद् क्रीडति
क्रीड़तः..
क्लीडन्ति
आशीोर्लिंड_ प्र०
शीज्यात् क्रीड्यास्ताम् क्रोड्यासुः
फ्रीडसि
क्रीडथ;.
क्रीडथ
म०
क्रीड्याः
फ्रीडामि
क्रौडाव:..
क्रीडामः
उ०
क्रौड्यासम् क्रीज्यास्व
सामान्य भविष्य-लूद क्रीडिप्पति ह्रीडिप्यतः क्रीडिष्यन्ति. ऋडिप्यसि क्रीडिष्ययः फ्रीडिप्यय.. ओडिष्यामिक्रीडिप्याव; छ्रीड़िष्याम/ श्रनद्यतनमूत-लड _ शक्रीडत् अ्रक्रीडताम, अ्क्रीडक्नू. अक्रीडः. प्रक्तीडृतम. अम्रीडत अ्रक्रीडम्. श्रक्रीडाब श्रक्रीडम_
प्र० म० 3० प्र० म० 3०
आश-लोद
फ्रीडतु
क्रीडताम्.
क्रौड
क्रीडतमू._
कीडेतू.
प्रीडेड.
क्रीडानि क्रीदीव._
कीड्यास्तम् क्रीड्यास्त क्रीड्यास्म .
परोक्षमूत-लिद चिक्रीड चिकीडघुः चिक्रोडु चिक्रीडिय चिक्रीड्यः चिक्ीड चिक्तीड विक्रीड़िव चिक्रीडिस अनद्यवन भविष्य-छुट् क्रीडिता क्रीडितारी क्रोडितारः क्रोडितासि क्रीडितास्थः क्रीडितास्थ क्रीडितास्मि क्रीडितास्वः क्रीडितास्मः सामान्यभूत-छुड'
क्रीडन्तु क्रीडत
प्र० पश्रक्रीडीत् प्रक्रीडिशम् श्रक्रीडिपुः स०
श्रक्तीडी:
श्रक्रौडिएम श्रक्रीडिष्ट
फ्रीडाम
उ० श्रक्रीडिपम् श्रक्रीडिप्वश्रक्रीडिप्स
क्रोडेतामू
कीडियु:
प्र० श्रक्रीडिष्यत् श्रकरीडिप्यताम् झक्रीडिप्यनू
क्रीडितमू.
क्रौडेत
म० अ्रक्रीडिप्य; श्रक्रीडिप्यतम् श्रक्रोडिष्यत
विधिलिट',
फ्रीडेयम क्रीडेव..._
क्रियादिपत्ति-लूडू
क्रीढेस
3० अक्रीडिप्यम् श्रक्रीडिप्याव श्रक्रोडिप्याग
(४ ) गम्(जाना) परस्स्मेपदी (० चतमान-लद
अनद्यतनमृत-लड _
गच्छुति
गच्छत:
गच्छन्ति
श्र०
श्रगच्छुत् श्रगचऋछतांम
शगच्छुन्
गच्छुसि
गच्छुधः
गच्छुय
म०
श्रगच्छः
अगच्छुत
गच्छामि गच्छाव:. स्च्छामः सामान्यमविष्य-लूद ग्रमिप्यति गरम्िष्यतः गमिप्यन्ति.
उ०
शमिष्यसि गमिप्यपः
ममिप्यथ
श्री०
श्रगन्ठम अगब्लाब अ्रगच्छाम श्राशा-लोदू गन्छुतु _गच्छताम गच्दल
शमिष्यात्रि समिप्याव:
ग्रमिप्यामा
उ०
अच्छानि यगच्छाव
म०
गच्छ
अगच्छुतम्
गच्छवमू
गच्छत
गच्छाम
धातु-रूपावली अनद्यतनमविष्य-लुरु॒
विधिलिड_-
गच्छेत् गच्छेताम् गच्छेयुः गच्छेः सल्छेतम गच्छेत गच्छेयम् गच्छेव. गच्छेम आशीर्लिड_
गन्ता
उ०
रन्तासि गन्तस्मि
प्र०
म० उ०
परोक्षमृत-लिद_ जम्मुः ज़ग्म जग्मिम
जग्मस्तुड
जगमिय, जगन्थ जग्मथुः जगाम, जगम जग्मिव
गन्तारी. गनन््तारः गन्तास्थः गन्तास्थ गन्तास्वः गस्तास्मः सामान्यमूत-लुढ_ अगमत् श्रगमताम् अगमन् अगमः अगमतम् अगमत अगमम् अगमाब अगमाम
०
गम्यात् गम्यास्ताम् गमम्यासुः गम्याः. गमम्यास्तम्् गम्यास्त गम्बासम् गम्यास्व गम्यास्म जगाम
श्र
प्र०
मण० उ०
क्रियातिपत्ति-लुड_ अगमिष्यत् अगमिष्यताम् श्रगमिष्यन् अगमिष्यः अगमिष्यतम् अगमिष्यत अगमिष्यम् श्रगमिष्याव अगमिष्याम
(६) जि (ज्ञीतना ) परस्मेपदी ९...“ बतमान-लदू आशीर्लिड_
जयति
जयतः
जयन्ति
जीयात् जीयास्वाम् जीयासुः
जयसि
जयथः
जयथ
जयामि
जयाब:.
जयामः
जीयाः जीयास्तम् जीयास्त जीयारुम् जीयास्व॒ जीयास्म परोक्षभूत-लिट् जिगाय जिग्यतु: जिग्यु
सामान्य भविष्य-लूट् जेष्यति जेष्यतः जेष्यत्ति जेप्यसि
जेष्ययः
जेष्यामि जेप्यावः
. जेप्यथ
जिगपियथ, जिगेथ जिग्यथुः जिग्य
जेष्यामः
अनद्यतनभूत-लड _
श्रजयत् अजयताम, अश्रजयन् अजय; अजयतम् श्रजयत अजयम् अ्रजयाव अजयाम आज्ञा-लोट जयतु जयताम् जयन्तु जब. जयतम जयत जयानि
जयाव. जयाम विधिलिड_
जयेत्ू.
जयेताम्
जवेयुः
जयेः.
जयेतम्
जऊयेत
जयेयम््
जयेव.
जयेम
जिगाय, जिगय जिग्यिव जिग्यिस अनद्यवन मविष्य-छुट् जेता जेतारीा जेतार:
हे
जेतासि
जेतास्मि प्रण
मण० उ०
प्र०
है
उ०
जेतास्थः
जेतास््य
जेतास्वः जैतास््मः सामान्यमूत-छुड
अजैषीत् अजैडाम्
अजैपु;
अजैपी: अनैश्मू अजैष्ट अजैपम् अजैष्व अजैष्स क्रियातिपत्ति-लुड' अजेष्यत् अ्रजेष्यताम् अजेष्यन् अजेप्य: अज्ेष्यतम् अजेष्यद
अजेष्यम् अजेष्याव
अजेष्याम
र्श६
बहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
(७) त्वज्(छोड़ना ) परस्मैपदी
बरतमान-लद् त्यजति
स्वजतः..
आआशोर्लिक_
त्यजन्ति
प्र० त्यज्यात्
त्यज्यास्ताम् त्यक्यासः छज्यास्तम् त्यज्यास्त
त्यजसि
ह्यजप:.
त्यजथ
म०
ल्यज्याः
त्यजामि
त्यजाबः.
स्यजामः
उ०
॒त्यज्यास्म् त्यज्यास्व
सामान्य भविष्य-लूद
त्यक््यति
त्यक्यतः
त्यक््यंस व्यक्यथः त्यक्ष्यामि त्यक््यावः
ल्वच्यन्ति.
भ्र०. तत्याज
व्यक्ष्यथ त्यद्यामः
मभ० तत्यजिध,तत्यक्य तत्यजयुः तत्यज उ० तत्याज,तत्यज तत्यजिंव तत्यजिम
अनथतनभूत-लड_
तत्यञ्तः तल्घुः
अनद्यतन भविष्य-छुट्
श्रत्यजञत् अत्यञताम् श्रत्यजन् अ्रत्यजःअ्रत्यजतम् श्रत्यजत
त्यक्तारा प्र० त्यक्षा म० त्यक्तासि त्यक्तास्यः
अ्रत्यजम् अत्यजाब
3०
ग्रत्यमजाम
श्राज्या-लोट्
अ० म० उ>
त्जेतू.. त्यजेः:. च्यजेयम
त्यजेव
उ०
त्यजेम
लक्तार स्यक्तास्थ
त्यक्तास्मि लक्तास्वः स्यक्तास्मः सामान्यमृत-छुद_
अत्याक्षोत् श्रत्याशम श्रत्याछुा श्रत्याक्षीः श्रत्याष्म, श्रत्याष्ट श्त्याक्षम् अत्याक्ष श्रत्याचुम क्रियातिपत्ति-लुद_ श्र०. श्रत्यच्यत् श्रत्यक्ष्येताम श्रत्यच्यन म० अत्यक््ः श्रत्मदयतम् श्रत्यद्यत
त्यजताम् त्यजन्दु त्यजत त्यजतम त्यजाब॑ त्यजाम विधिलिड _ त्यजेताम. ह्जेयु+ त्यजैतम. त्यजेत
त्यजतु त्यज त्यजानि
त्यज्यात्म
प्नेत्ञ॒भूत-लिदू
प्रत्यक््यम् श्रत्यक्याव
अ्रत्यक््याम,
(८) रश(पश्यू) देखना-परस्मैपदी ज्ञॉ बर्तमानकाल-लयू श्राश-लोद् पश्यति परश्यसि
पश्यतः पैश्यपः..
पश्यन्ति परश्यथ
प्र० मे०
पश्यतु परय॑
परश्यताम् पश्यतमू
पर्यन्तु पहशुयत
परश्यामि पश्यावः. पश्यामः सामान्य मविष्य-छुट द्रच्यति द्रक्रयतः द्रदयन्ति
पर्यानि पर्याव प्रश्याम विधिलिस_ प्र०_ परयेत् पश्येताम पंरयेयु:
द्रद्यसि द्रद्यामि
म० छ०
द्रक््ययः द्वदपयावः
द्वरदुयय द्वचयामः
अनद्यतनमूत-लढ_
उ०
परश्येः परवेतम पश्येयम् पश्येव.
परश्येत परश्येम
आशोर्लिंद_
अ्रपश्यत् पश्रपश्यताम् अपरयन्
प्र*. श्श्यात् द्श्यास््ताम्
द्स्यामुः
अपरज्यः
श्रपरयत
मभ०
दश्याः
द्शपास्व
अपरयाम
उ०
दशर्यासम् दरयास्व
ग्रपश्यतम
अ्परयमस् अ्पर्याव
ध्यशयास्तमू
दश्यासम
र३७
घातु-रूपावली
सामान्यमूत-छुद
परोक्षमृत-लिद्
ददश
दहशठु
दहदशुः
अ्र० बअद्वा्ीत् अद्राष्टम अद्वाछुः
डददशिय
ददशथुः
दहश
म०
ददर्श
दहशिव
ददशिम
अनद्यतनमविष्य-छुदू द्रषटरी.. द्रषारः द्र्ष्य दरशसि द्रशस्थः द्रशस्थ द्रशत्मि द्रष्टस्वः द्रष्टस्मः
घरवः धरपः धरावः
घरन्ति घरप घरामः
सामान्य मविष्य-लूद
-घरिष्यति घरिष्यतः घरिष्वन्ति अरिप्यसि घरिप्ययः घरिष्यय... भरिष्यामि धरिष्यावः घरिष्यामः अनचवन मूत-लड_ अधघरत् अधरताम् अपरन्. अघरः . अघरतम् अघरत अधरम् अधघराव. अघराम आशा-लीट चसतु धरताम्. घस्नु
अद्वाष्ट
झ्यात्ित्ति-लड, प्र० श्रद्गच्यत् अद्वच्यताम अन्नच्यन् म० अद्रक््यः अद्वच्यतम् अद्गचयत उ० बअ्द्गक््यम् अद्वच्याव अद्गच्याम
उभमयपदी (९) घू ( घरना ) परस्मैपद
बतंमान-लद्_ घरति धरसि घरामि
श्रद्वाक्नीः अद्वाष्मू
उ० अद्वातम अद्वाचब बअद्राइम
प्र० म० उ०
आशीर्लिंड_
प्रियात्. प्रियास्वाम् प्रियासुः पियाः प्रियास्तम् प्रियास्त धियारुमू प्रियास्व प्रियास्म
परोक्ष मूत-लिद
दहु। दओतुः. प्र० दघार दष्न दप्रघुः. म० दघर्थ उ० दघार,दघर दश्व दघृम अनद्यवन मविष्य-छुट् प्र० घर्ता घ्वारी घर्तारः म० धर्तासि घर्तास्थः घर्तास्थ उ० घर्वात्मि घर्तास्वः धर्तास्मः सामान्य मूत-छुड प्र० अधघापीत् अधाशंम, अधघापु:
घर
घसतम्
घरत
म०
अ्धाषी:ः
घरानि
घराव
घराम
उ०
अधापषम्
विधि-लिड_
अधाष्टम
अधाएई
अधाप्य
अधाप्म
क्रियातिपत्ति-लूड_
घरेतू. चघरेः
घरेतामू घरेतम्
धरेवुः घरेत
प्र० म०
अरेबम्.
घरेव
चरेम
उ० अधरिष्यम् अ्रधरिष्याव अधरिष्याम
हे
बतमान-लदू
चरते.
घरेते
घरते . घरेये चरे घरावहे
अ्रघरिष्यत् अधरिष्वताम् अधरिष्यन् अधघरिष्यः अधरिष्यतम् अधरिष्यद
थू (घरना ) आत्मनेपद
चस्न्ते
चरप्दे घरामहे.
ध्र०
घरिष्यते
सामात्यमविष्य-लूद
घरिष्येते
घरिष्वन्ते
स० घरिष्यसे घरिप्येयेः घरिष्यष्दे छ० घरिष्ये धरिष्यावदे भरिष्यामदे
बृहद्-ग्नुवाद-्चन्द्रिका
श्र
परोक्षमृत-लिद्
अनद्यवन मूत-लड अधरत अधरेताम् अधरन्त श्रधरथा! श्रधरेथाम् अ्रधरध्यम् अघरे.. अ्रधरावहि अ्रघरामह्दि
दन्ने ' दन्नाते ' ' दमिरे दक्षेपि. दप्ने
दप्माथे ' दब्िध्वे दश्िवदे. 'दप्रिमहे
अनद्यतनभविष्य-लुट्
आशान्लोडू
धरताम्र घरस्व चरै
भरेताम् धरेथाम्. घरावहै.
भरन्ताम घधरध्वम् धरामदै
घरेत. परेथा। धरेय
धरेयाताम् धरेरन् धरेयाथाम धरेध्वम धरेषहि.. धरेमहिं
धृपीए्0.. भृपीष्ठाः धृषीय
श्रेपीयास्ताम ध्पीरन् भ्रतोयास्थाम् 'पीष्वम्र् धृपीवद्दि .भपीमदि
घर्ता घततसि धर्तादे.
घर्तारा -धर्ताएः. भर्तासाथे धर्ताष्वें भर्तास्वद्दे धर्तास्मदे
विधिलिड
समान्यमूत-छुड_ शअधूत
अधूपाताम्
श्रधूपत
अधृया: अ्रधपाथाम श्रधृध्वम् अध्षषि.प्र्टृष्यद्धि. श्रभृष्महि क्रियातिपत्ति-लूढ_
शआशीर्लिंड_
अथरिष्यत म०
श्रधरिष्येताम् श्रधरिष्यत्त
अ्रधरिष्यथा/अधरिष्वेथाम् 'भ्रधरिष्यध्यम्
3० श्रघरिष्ये श्रधरिष्यावद्दि श्रधरिष्यामदि
( १० ) नम् ( नमस्कार करना, झुकमा ) परस्मैपदी ममति
बतमान-लद् नमतः नमन्ति
ममसि नमयथः नमय नमामि नमाबः. नमामः सामान्य मविष्य-लूद नंध्यति नस्यतः . नंस्यन्ति संस्यसि नंस्यय:. न॑स्यय मंस््यामि मंस्यावः नंस्यामः
प्र० मर0 उ०
नमेत्.
विधिलिद नमेताम नमेयुः
नमेः ममेयम्
नमेतम् नमेव
नमेत नमेम
श्राशोरलिंद_ नम्यातू. नम्यास्ताम नम्यालुः नम्या।ः नम्पास्वम नम्यास्त नम्यासम्र् नम्यास्थ मम्पास्म
अनद्वतनमृतं-लद ननाम
परेश्षमूत-लिय_ नेमतुः नेमुः
अममत् श्रनमताम्
अ्रनमन्
खझअनमः
प्रनमतम्
'अनमत
नेमिय, ननन््य नेम:
नेम
अशनमम्
श्रभममाव
आझनमाम
ननाम, ननम नेमिव
नेमिम
खमद
आशनलोट
नमताम,
.,
अनदतन मविष्य-छुूट
नमस्ध
सम
ससतम्
नम्रत
नमामि.
नमाव
समाम
प्र० मर
उ०
नन्ता मन्तधासि
नन्तारोी.. जन्तास्थः
नन्तारः सन््तास्थ
मन्ठास्मि सन्तार्व!
नन््तास्मः
घातु-रूपावली
रद
सामान्यमूत-छुड_ अनंसीत् अनसिष्ठाम् अनसिधुः
प्र०.
अनसीः
म०
अनंस्यः
अनस्यतम् अनस्यत
उ०
अश्रनस्यम्
अ्रनस्याव
अ्रनतिष्टमू अनसिष्ट
अनसिपम् शअ्रमसिष्व॒
अ्रनसिष्म
क्रियातिपत्ति-लूड_ श्रनस्यत्ु॑ अनस्यताम् अनस्यन् श्रनस्याम
उमयपदी (११) नी ( नय )ले जाना--परस्मैपद वतमान-लदू आशीर्लिंड_ नयति. नयसि. नयामि.
नयतः नयथः..
नयन्ति नयथ
नयावः नयामः सामान्य मविष्य-लूट्
नेष्पति नेष्यसि नेष्यामि
नेष्यतः. नेष्ययः. नेष्यावः
नेष्यन्ति.. नेष्यय नेष्यामः
प्र० नीयात. म० नीयाः
नीयास्वाम् नीयासुः नीयास्तम् नीयास्त
उ०
नीयास्व नीयास्म परोक्षमूत-लिद_
नीयासन्
पग्र० निनाय निन््यतुः निन््यु म० निनयिय, निनेय निन्यथुः निन्य . उ० निनाय, निनय निन्यिव निन्यिम
अ्रनयतनभूत-लड _
_. .
अनद्यतन भविष्य-जुद
अनयत्
अनयताम
अनयन्.
प्र० नेता
नेतारी.
नेतारः
अनयः
श्रनयतम्
अनयत
म०
नेतासि
नेतास्थः.
नेतास्थ
अनयम्
श्रनयाव अनयाम अ्राश-लोद नयताम्.. नयन्तु नयतम् नयत
उ०
नेवास्मि
नयतु नय
नयानि
नयाव
नयाम
विधिलिड_ नयेत्. नयेताम् नयेयुः नयेः . नयेतम् नयेत नयेग्रम,. नगयेब, नेम),
नेतास्वः नेतास्मः सामान्यभूत-लुड प्र«_ अनैधीतू अनैशम् अनैपुः मं० अनैषीः अ्नैष्म अनैष्ट
छु० अनैषम
अनैष्व
अनैध्य
मै क्रियातिपत्ति-लूड_ प्र० श्रनेष्यत् अ्रनेष्यवान् अनेष्यन् म० श्रनेष्यः अनेष्यतम अनेष्यत छु५ अेष्यम, अनेष्यत्, अनेष्यम.
नी ( नय )आत्मनेपद
बतमान-लद् नयते नयेते. नयसे . नयेथे नये. भयावहें
नयन्ते नयघ्वे नयामहे
सामान्यमविष्य-लूट प्र« नेष्यते म०- नेष्यसे उ० नेष्ये
नेष्येते . नेष्यन्ते नेष्येये निेष्यध्चे जैेप्यावहे नेध्यामडे
3
५.
चूहदू-क्षत॒वाद-चन्द्रिका श्रनच्तनभूत-लढ_
आअनयत श्रनयेताम् शनयन्त अनयथाः अनयेयाम् श्रवयध्वम अगये अनयावहि अ्मयामहि आज्ञा-लोटू
नयताम् नवेताम्
नमन््वामू..
नयस्थ नये.
नयेयाम् नयध्यमू नयावहे नयामहे 'वीधीलड_ नयेयाताम नयेरन् नयेत. नयेयाः नयेयायाम नयेध्वम् भयेवहि भयेमहि नयेय.. आशीलिंड_ , नेपी:८.. नेपीयास्ताम् नेपीरन्
मेपीहाः नेपीयास्याम नेपौद्वम
भेपीय
नेपीबहि.
नेपीमदि
-
अर मे» उठ
निनन्ये निन्यिपें निन््ये
में० नेता सम उ०
परीक्ष-लिट्
निनन्याते निन्यिरे निन््याथे. निन्यिष्ते निन्यिवहे निन्यिमदे अनद्यदन भविष्य-छुट
नेतारी.
नेवाण
नेतते नेतादहे.
नेताठाे नेताप्वे नेतास्वदे नेतास्मदे शामान्यमूत-्लुब _ श्ननेपाताम् श्रनेषत प्र० अनेष्ट.. म० श्रनेष्ठाः अनेपायाम, श्रनेष्वम् अनैष्वदि अ्रनेषाहि उ० अनेषि. क्रियातिपत्ति-लूड _ प्र झनेष्यत श्रनेष्येताम शनेष्यन्त
से? अनेष्यथाः अनेष्येथाम् श्रनेप्यप्पम्
3०
श्रनेप्ये
श्रनेष्यावहि श्रनेष्यामहि
ध्रभयपदी (१२) पचू(पकाना ) परस्मेपद ५८४ देचति.
बर्तमान-लटू पचन्ति पचतः..
पयामि
पचावः.
पचसि
प्रचथः .. पच्रय
पचामः
सामान्य मविष्य-लूद, सक्ष्यति पच्यतः . पह्यन्ति परच्यसि प्रदयधः परद्यप पंदयामि पद्यावः परद्यामः थ्रनयवनमृत-लदू अपचत् श्रपचताम् अ्रपचन्ू. श्रपचतम्. ध्रपचत श्रपचः अपचम् झअपचाय स्पचोॉम. आशन्किस पचन्तु पचताम्. पचतु पचत पचतम पंच पचानि
पचाव
पचाम
प्र० पचेत्.. मे*
पचेः
उं० पयेयम
_ विधिलिश पचेताम. पचेयुर परचेतम
परचेव
पचेत
पचचेम
प्र«. सम
श्राशीलिंड_ पच्यात्_ प्रच्यार्ताम् पच्यामुः पच्याः पच्यासत्तम पच्यास््त पच्यासम, पच्यास्व पच्यास्म परोच्चमत-लिट् पेचुः पेचतुएई. प्राय पेच पेचिय, पाक पेचभुः पेचिम पषाल, पथ पेचिव ्फ्पील, पक्फिफश्यु पछारः एछासी.. पा. परक्कारप पर्तासि पकारप
उ«
पक्तारिम
प्र० भ० उ०
2* से उ*
प्तारबय/
पछारमः
चातु-रूपावली सामान्यमृत-लुड_ अपाक्षीत् अपाक्ताम् अपाक्षुः अपाक्नी: अ्रपाक्तम अपाक्त अपान्षम श्रपाचव. अपाकम
पचेते पचेये
पचे
क्रियातिपत्ति-लूड_ प्र० अपक्यत् अपच्यताम् अपक्ष्यन म० अपर्यः अपच्यतम् अपद्यत उ० अपसक्यम् अपक्याव अ्रपद्याम
पच्(पकाना ) आत्मनेपद्
बतमान-लद् प्रचते.. पचसे..
र४१
पचन्ते पचध्वे
पचावहे.
पचामहे.
पत्तीयास्ताम् पत्तीरन् पह्ीयास्थाम् पक्तीध्वम्
उ०
पक्तीवहि..
पक्तीय
सामान्य भविष्य-लूट पहुयते.
पच्ष्येते
पक्ष्यन्ते
पच्यसे . पक्येये
पच्ष्यध्वे
पक्त्ये
पक्त्यावदे. पर्यामहे. अनद्यतनमूत-लड _ अपचत अ्रपचेतामू अपचन्त अपचथाः श्रपचेयाम् श्रपचध्यम् अपचे . अ्रपचावहि श्रपचामदहि
आशोर्लिड_
प्र० पक्तीष्ट. म० पत्चीष्ठाः
पक्कीमहि
परोक्षमूत-लिद् पेचे
पेचाते
पेचिरे
म०
पेचिपे.
पेचाये
पेचिघ्वे
उ०
प्र०.
पेचे
पेचिवदे. पेचिमहे अनद्यतन भविष्य-छुट् प्र० पक्ता पक्तारा पक्तारः म० पक्तासे पक्तासाने पक्तावे उ० पक्ताहे. पक्तास्वदे पक्तास्मदे
श्राश-लोद
सामान्यमृत-छुद_
पचताम् पंचस्थ पचै
पचेताम पचस्ताम् पचेथामू पचघ्यम्ू पचावदे पचामहै विधिलिड_
प्र० अपक्त म० अपक्याः उ० अपतसि
पचेत
पचेयाताम् पचेरन्
प्र०
अपक््यत
प्रचेथाः
परचेयायाम् पचेध्वम्ू
स०
अपकययाः अपक्ष्येथाम् अपक्यध्वम्
पचेय
पचेवहि.
पचेमहि
उ०
अपक्ष्ये
६
(१३ ) पठ्(पढ़ना ) परस्मपदी
वत्तमान-लदू पठति पठसि
पठामि
अपक्षाताम् अपक्षत अपक्ञाथाम् श्रपक्ध्यम् अपक््ह्दि अ्पच्महि क्रियातिपत्ति-लुड_ अपक्ष्येताम् अ्परृयन्त
परस्मैपदी
सामान्य सविष्य-लुट्
पठत।.. पठयः।
पठन्ति पठय
प्र* स०
पठिष्यति पठिष्यतः पठिष्यसि पठिष्यथः
पठावः.
पठामः
उ०
पहठिपष्यामि पढिष्यावः पठिष्यामः
अनचतनमभूत-लड _
अपठत् अपठः अपठम्
अपक्यावहि अपक्यामहि
श्रपठताम् अपठन् श्रपठतम् अपठत अ्पठाव श्रपठाम
पठिष्यन्ति पठिष्यथ
आाशा-लोद
प्र० पठठु स० पठ उ० पठानि
पठतामू. पठतम् पठाव
पढन्धु पठत पठाम
बहद-अनुवाद-चन्द्रिका
१४३ विधिलिड_
पठेतू.
पठेवाम्
अनदतन भविष्य-छुट पठितठा पठितारी. पढिताए पठिदासि पठितास्थः पठितास्थ पठितास्मि पठितास्वः प्रठितात्म।
पढ़ेयुः
फ्ढेः
पठेतमू.
पह़ेत॑
प्रठेयम्
परठेव
पठेम
आशीलिंड_ पव्याव्ू. एम्यास्ताम एक्यायुः
/ “ सामान्यमृत-खुड_ अ्पागीद् श्रणग्शिय्. श्रणविषु:
पठ्याः. पव्यास्तम पठ्यास्म् प्यास्थ
अपाठी। अ्पादिष्यू अप्ाठिष्ट अपाठिपम अ्रपाठिष्व अपािष्म फक्रियातिपति-लूड_
पव्यास्त पण्यास््म
परोक्षमूत-लिट्
परपाठ०.. पेठतुः पेठिय. प्रेठथु8+.. परषाठ, पपठ पेठिंय.
पे पेठ पेठिम
उठ
श्रपठिष्यत् श्रपठिष्यताम् श्रपठिप्यन् श्रपठिष्यः भ्रपठिष्यतम् श्रपठिप्यत अपटिप्यम् अ्रपटिष्याव श्रपठिप्याम
(१४ ) पा (विद) पीता-परस्मेपदी ५०2 वत्तमान-लट पिबतः . पिचन्ति पिवथः. पिचय प्रिबावः. पिचामः सामान्यन्लूद पास्यति पास्यतः . पास्यन्ति पास्यसि पास्यथः पात्त्यय प्रास्थासि परास्यावः वाश्यामः श्रनद्यतवमृत-लड' _ प्रिबति पिबसि पिवासि
आंपिबत्
श्रपिबताम श्रर्पिबन्
श्रपिय/
अपिबतम्
श्रपिबत
अपिवम
अपिबाव
अपिवाम
आशा-लोद पिवलु-पिदत्तात् पिचताझ पियस्तु पियि ' पियतम पिचत पिवानि सेबाब प्रिवाम
विधिलिड_ पिवेतू. पिदे।.
पिवेताम पिचेयुः वितम . व्बित
पिवेयम' फिवेव
' दिवेस
चर
पेयाः.
पेयास्तम
उग
पैयातम्
पेयास्व *पेयास्म परोक्षमूत्-लिद
प्र भण जण०
प्र० >
झआशोीलिंड पेयास्ताम् पेयामुः
पैयात्.'
मण
पपौ
प्रपतु:.
पैयास्तत पुर
पफ्रिथ, पयाथ पषथु+
पप
प्पौ
पपिम
प्रावा
प्रिय.
श्रनचवन मविष्य-लुट
पावारी.
पातार:
मे० पागसि पातास्थः पातास्थ ल० प्रातास्मि परातास््वः परातारसः साम्रात्यमूत-धद_ प्रढ अपात. शपाताम अपुः मठ अप: श्रपातम् श्रपात ० अपाम॑ शथ्रपाव अ्रपाम कियादिपत्ति-लूद_ च्र० श्रपास्वत् श्रपास्यताम् श्रपास्थन् म० ०
अपास्यः श्रणस्वतम् अपात्यम अ्रपात्याव
'श्रपास्यत अ्परात्याम
घाठ-रूपावलो
रएडे
उभयपरी (१५ ) भज् ( सेवा करना ) परस्मेपद बतमान-लट् आशीलिड_ मजति मजसि भजामि
भजतः भजथः. भजावः.
मजस्ति मजथ भजामः
सामान्य भविष्य-लूट भक्यतः. मह्यन्ति. भक्ययः. भक्यय
भक्त्यति भक्यसि भक््यामि
भक््यावः
भक्त्याम:
प्र० मर० उ०
भज्यात् भज्याःः अभज्यास्म
प्र०.. म०
परोक्षमूत-लिद् बमाज मेजतुः.. मेजर भेजिय, बमक्थ मेजथुः मेज
उ०.
बमाज, वभज भेजिंव
भेजिम
प्र०.
भक्ता
भक्तारः
अनद्यतनमूत-लड_ अभजत्
अभजताम्
अमजन्
भज्यास्ताम् भज्यासुः मज्यास्तम भज्यास्त भज्यास्थ अज्यास्म
अ्रनचतन भविष्य-लुट् भक्तारौ
अभजः अमजम्
अमजतम् अमजत अमजाब अभमजाम
मं० उ०
भक्तासि मक्तास्थः भक्तास्मि भक्तास्वः
भेजतु भज॑ भजानि
भजताम् भजतम् भजाव
भजन्तु मजत. भजाम
प्र० म० 3०
अ्रमाक्तीत् अमाक्ताम् अभाहु: अ्माक्षीः अ्माक्त्म अमभाक्त असमाक्तम् अ्रभाह्व अमाउम
भजेत्
भजेताम्
भजेयुः.
प्र०.
अमच्यत् अभक्यताम् अमच्यन्
मजेः मजेयम्
भजेतम भजेब
भजेत मजेम
मं० उ०
अमक्ष्यःः अभक्ष्यतम् अमचक्ष्यत अमक्ष्यम् अ्रमच्ष्याव श्रभक्ष्याम
आज्ञा-लोद्
विधिलिक_
भक्तास्प भक्तास्मः
सामान्यभूत-खुड.
क्रियातिपत्ति-लूड_
भज-( सेवा करना ) आत्सनेपद
भजते
बतमान-लट्
भजेते.
मजसे . भजेये भेजे भजावहे
भक्यते भक््से भक्ये.
श्राज्य-लोद
भजन्ते.
प्र०.
भजताम् भजेताम्
भजदघ्वे अजामहे
मजन्ताम्
म० उ०
भजल्व भजै
,मजध्वम् .मजामहै
सामान्य मविष्य-लूट ,+
ब-
भक्तेते
मह्यन्ते
भक्येये मक््यावदे
अ्र०
भजेत
भत्यप्वे 'भ० भल््वामहे ०
मजेयाः मर्जेये
अनद्यतन मृत-लड
भजेयाम् भजावह
विधिलिड_.
भजेयाताम भजेरन्
भजेयाथाम् मजेध्वम् मैलेपहिं. भजेमद्ि आशीर्लिंड
अमजत
अभजेताम् अमजन्त “अ«
भ्ती८ .भछ्षीयास्तामों मक्तोरन्
अमजे
श्रमजापहि अमजामहि उ०'
भक्तीय
अभजपा: अमजेयाम् अमजघ्यम् ग०
मद्धीछाः
मक्षीवास्थाम्
भक्तोवहिं.
मत्तीख्वम्
मक्षोमदिं
१4 8 $
गहृदू-अनुवाद-चम्द्रिका परोक्ष भत-लिट
चासान्यमत-छुढ |
भेजे भैजिपे भेजे
भेजाते. भेजिरे अभक्त अमछाताम् अमझच भेजाये. मेजिघ्वे अमक्थः अमच्ाथाम् अमण्वम् भेजिवहे. सेजिमदे अमभतक्ति अ्रक्वादि अ्मर््माह अनद्यतन भविष्य-छुट् क्रियातिपत्ति-लूड अन भक्ता भक्तारा भक्तारः अभष्ष्यत अमभच्येताम् अभच्यन्त मक्ताते. भक्तासाये. भक्ताध्बे स० अमद्यथाः अमर्येयाम् अ्रभन्यध्वश् भक्तादे भक्ताखदे. भक्तास्मदे उ० अभकझे अमज्यावहि 'अमदुपामहि (१६ ) भाधू ( बोलना ) श्रात्मनेपदी बतमान-लट आरांशीलिंद, प्रण भाषिषीछ भाषिषीयास्ताम् भापिषीरत्् भापततेे. भाषेते मापन्ते म० मापिषीछाइसापिपोयास्थाम् मापिपीश्वम् आपसे भापेथे.. भाषध्वे उ० भाप. भाषावहे मापामदे भाषिषीय भाषिदीवद्दि.._ भाषिषौमदहि सामान्य भविष्य-लूड परोक्षमुत-ल्िद मापिष्यते भाषिष्येते भाषिष्यन्ले प्र०ः बभापे बमापाते बेमापिरे भाषिष्यसे भाषिष्येथे भापिष्यध्वे म० बम्ापिषे ब्रभापाये बमापिष्ते भाषिष्ये. भाषिष्यावद्दे सापिष्यामदे उ० बअभापे. बमापिवदे बमापिमहै श्रनदतनमूत-लड_ श्रनद्यवन भविष्य-छट् अमाषत श्रमापेताम् श्रभापन्त प्र०. मापिता मापितारी भापितारः अभाषथाः श्रमाधेथाम् श्रमापथ्वम, स० भापितासे भाषितासये भाषिताश्वे अमापे अ्रभाषावहिं अ्भाषामहि झुन भाषितादे आापितारवद्दे भापिनास्मदे सामान्यभृत-छुट आजरा-लोट मापताम् भाषस्व
भाषपेताम_ भापियाम
भापन्ताम् भाषध्वम्
भार
भापावहै भाषामदै विधिलिद
भापेतव भाषेधा।.
भाषेयाताम सापेरस, भापेयाबाम मापेध्वम्
भादपेष
मापेददि
भपदेमरि
प्र भ०
अमापिष्ट
श्रमाषिषाताम् श्रमापिषत
अभाषिशः अमाषिषा पाम्अमापिष्वम् उ०> अंम्राषिति श्रमाषरिष्वहि श्रमाफिष्महिं क्रियातिपत्तिल््लूट प्रश्ग्रमापिष्यत श्रमाविष्येताम् श्रभेपिष्यन्त मब्च्रभाषिष्यथा/श्रमापिष्येधास शमापिष्यप्वम् उब्श्रमाषिष्ये श्रमाषिष्यावह्ि अ्रमापिष्यामदि
उभयपदी (१७ ) # ( भरना, पालना-पोसना ) पररैपद
चतमान-लद मरति... मरसि भरामि
भरहः भरभः भरोवः.
भरम्ति मस्च मरामः
मर. मे० छ*
सामान्य अविष्य-लुट भरिष्यति भरिच्यदः भरिष्यन्ति भरिष्यसि मरिध्ययः मरिष्यप भरिष्यामि मरिष्यावः मर्प्यामः
आतु रूपाबली परोक्षमूत-लिद् बभार बशठः. बच बमर्थ बश्नथुः. बश्न बमार,वमर बभुव बसभुम
अनग्यतनमूत-लड_ अमरताम् अभरन् अमरतम् अमरत अमराव अ्रमराम आज्ञा-लोट मरतु भरताम् भस्न्तु मर भरतम् मरत मरानि भराव भराम विधिलिड भरेत्ू. भरेताम्. भरेयुः भरेः भरेतम् भरेत मरेयम् भरेव भरेम
अमरत् अमरः अभरम्
प्रियात्.
र४४घ
अनद्यतन मविष्य-लुट् भर्ता भर्तांसि
मर्तास्मि
भर्तारी. भर्तास्थ,.
भर्तास्वः
भर्तारः भर्तस्थि
भर्तास्मः
सामान्यमूत-लुढू अमापौत् श्रमार्शम अमभाः अमार्पी:
अभाष्टम,
अभाष्ठ
अमभाषम्
अमभाष्य॑ अभाष्म क्रियातिपत्ति-लूड' अभरिष्यत् अभरिष्यताम् श्रभरिष्यन् अभरिष्यः अमरिष्यतम् श्रभरिष्यत अ्रभरिष्यम् श्रमरिष्याव अ्रभरिष्याम
आशीलिंड_ भ्रियास्ताम् श्रियासु३
प्रियाः. श्रियास्तम् श्रियास्त प्रियासम् भ्रियार्व भ्रियास्म
स् ( पालना-पोसना, भरना ) आत्मनेपदी
बतमान-लद् मरते. भरेते भस्न्ते भरसे .. भरेथे भरध्वे भरे भरावदे. भरामदे सामान्यभविष्य-लूट मरिष्यते भरिष्येते. मरिष्यन्ते मरिष्यसे
भरिष्ये अमरत अमस्थाः
अमरे
भरिष्येये..
भरिष्यध्वे
भरिष्यावदे मरिष्यामहे अनद्यतनमृत-लड_ अमरेताम् अभरेयाम्
अमसरनन््त अभरध्वम्
प्र०
मस०
उ०
मरेत.. मरेथाः भरेय
विधिलिड' भरेयाताम् भरेरन् भरेयाथाम् मरेब्वम् भरेवहि. भरेमहि
भृषीः भुपीछठाः
भृषीयास्ताम भ्पीरन् भृषीयास्थाम भृषीष्वम्
भसृपीय
भृपीवह्ि
आशीलिंड प्र० मे उ० प्र० म०
अमरावहि अमरामहि
यश्ने बमृघे
बश्राये
बभृष्वे
बचन्र
बमृवहे.
बमृमददे
आजशा-लोट्
मस्ताम
भरेताम
भरन्ताम्
अर
भरस्व
भरेयाम्
भरध्वम्
मरे
भरावहे._
भ्महे
म० ख०
भृषीमहि
परोक्षमूत-लिट् बच्ाते बश्निरे
मर्ता मतसि मर्तादि.
अनद्यतन भविष्य-लुट्
भर्तारा मर्तार मर्तासाये भर्तष्चे भर्तातवहे.भर्तास्मदे
शष्६ अभृत आअमृथाः अभृूषि
बहदू-अनुवाद-चन्द्रिका खामान्यमृत-लुद_ अश्रभृपराताम ब्भृूषत ध्र०. अ्रमृपायाम् श्रभृष्यम् . म० अमृष्यद्दि ध्रभृष्मद्ि 3०
५.
कियातिपत्ति-लूद_«» अमरिष्यत >अ्रमरिष्येत/म् श्रमरिष्यन्त श्रमरिध्यधाश्थ्रमरिष्येथाम् अमरिष्यध्वग श्रभरिष्ये श्रमरिप्यावहि श्रभरिष्यामहि
(६८) भ्रम (अमण करना ) परस्मैपदी _....”
वतमान-लद
« परोक्षमृत-लिद
अमति
भश्रमता.
अमन्ति
प्र०
बश्नाम
प्रेमतः
श्रम
अमसि
भ्रममा.
भ्रमथ
म०.
भ्रेमिय..
भ्रेमशुः'
अभ्रेम
अमामि
अभ्रमावः
श्रमामः.
उ०
बच्राम,बश्रम प्रेमिव. भ्रेमिम
शामान्य भविष्य-लूट् कथा अमिष्यति भ्रमिप्यतः , भ्रमिष्यन्ति प्र० [ वश्राम वश्नमत! बश्रमुः अमिप्पसि भ्रमिष्यथः अ्रमिष्यय म* 4 वश्नमिथ वश्नमथु) बश्रम अमिष्यामि भ्रमिष्यावः श्रमिप्यामः उ० [ वश्नाम,ब्नम बश्नमिव बश्नमिम
अनदथ्ववनमूत-लड
अनद्वतन भविष्य-लुद
श्रश्नमत्. श्रश्नमताम् श्रश्रमन्_पग्र०
भ्रमित
श्रश्रमः अभ्रमम् अमत अम
प्र०.. म०_
भ्रमितासि, अ्रमितास्थः भ्रमितास्थ भ्रमितास्मि भ्रमितास्वः भ्रमितास्मः ! ! *सामानयभून-छुढ_ श्रश्नमीत् श्रभ्रमिशम् श्रश्नमिषुः श्रश्नमीः श्रश्नमिष्म्.श्रश्नमिष्
अमानि
भ्रमाव
उ०
श्रश्नमिपम् श्रश्नमिप्य
अमेत्.
अमेताम
अमेयुः .. ग्र०
अ्मेः..
भ्रमेतम.
अमेत
मं०
श्रश्नमिष्यः अप्नम्िष्यतम् श्रश्नमिष्यत
भ्रमेम
उ०
श्र्नमिष्पम् श्रश्नमिप्याव श्रभ्नमिप्याम
अमाम
विधिलिड_
अमेयम् . अ्मेंव
म० 3०
श्रमितारो , भ्रमिताए
श्रभ्रमंतम् अ्भ्रमत श्रश्नंसाव श्रश्नमाम श्रात्ान्लीद अमताम् अ्रमन्तु अमतम् भ्रमत
श्रभ्नमिष्म
क्रियातिपत्ति-लुड_
अ्रश्नमिष्यत् श्रश्नमिष्यताम् श्रअ्रमिप्यन्
आशीर्शिड_ अम्यात.. भ्रम्वास्ताम् श्रम्यासुः प्र अ्रम्याः.. भ्रस्थास्वम् अम्यात्त मर अ्रम्यातम अ्रम्यास्त्र अ्रम्बास्स उ० (१६ )मुद्र ( ्रसन्न दोना )आत्मनेपदी लद् लय
मोदते
मोदेते.
मोदन्ते.
प्र०.
मोदिष्यते मोदिष्येते भोदिष्यस्ते
मोदसे मोदे.
मोदेये मोदावद्दे
मोदष्वे मोदामद्े
म० उ०
मोदिष्यसे मोदिष्येये मौदिष्यध्ये मोदिष्ये मोदिष्यावदे मादिष्यामदे
घाउ-ल्पावली « लेंड_ अमोदत श्रमोदेवाम अ्मोदन््त अमोदया; अमोदेथाम् अमोदष्वम्
अमोदे..
प्र म०
श्रमोदावदि श्रमोदामह्दि उ० लोद
मोदताम, मोदेताम,
मोदन्ताम_
मुमदे. मुमुदिषि
सुसदे.
लिंय. . मुम॒दाते मुदुदिरे मुमुदिध्वे मुमुदाये
सुमुदिवद्दे मह्ठुदिमिदे जुट
प्र० मोदिता 'मोदितारी मोदितारः
मोदितासे मोदितासाये मोदिताध्वे मोदितादे भोदितास्वद्े मोदितासुमहे छुड_ प्र० श्रमोदिष्ठ अमोदिषाताम् श्रमोदिषत
म० छ०
मोदेत..
मोदेथाम्. भोदष्वम्_ भोदावहै सोदामहे विधिलिड_ मोदेयाताम् भोदेरन्
भोदेयाः
मोदेयाथाम् मोदेष्यमू._
म०
मोदस्व॒ मोदे.
२४७
अमोदिषाश्य्रमोदिषराथामथ्रमोदिदबम्
मोदेय . भोदेवहि. मोदेमदि. उ० अ्रमोदिषि अ्रमोदिष्वदि अ्रमोदिष्महि आशीर्लिंड भोदिषीष्ट मोदिषीयास्वाम् मोदिपीरन् प्र०श्रमोदिष्यत श्रमोदिष्येताम् अमोदिष्यन्त मौदिपीश्ाःमोदिपीयास्थाम् मोदिपीध्वम म०श्रमोदिष्यथाः अमोदिष्येयाम्अमो दिष्यध्वम् मोदिपीय मोदिषीवहि मोदिपीमहि उ०«अमोदिष्ये अमोदिष्यावहि अ्रमोदिष्यामहि
उभयपदी (२० ) यज् ( यज्ञ करना, पूजा करना ) परस्मेपद् यजति. थजसि
यजामि
बतमान-लद् यजतः.. यजन्ति
प्र० यजेत्.
विधिलिड यजेताम . यजेयुः
यजथाः
म०
यजेतम्
यजावः
यजथ
यजाम;.
सामान्य भविष्य-लूट यद्यति यक्ष्यतः यह््यन्ति.
उ०
यजेः
यग्जेयम् यजेंब.
यजेत
बजेम
प्र० इज्यात्
श्राशीलिंड_ इच्यास््ताम् इज्यासुः
यह््यसि
यह्ययः.
यह्यथ
म०
इज्या३ः.
इज्यास्वम् इज्यास्त
सद्यामि
यक्ष्यावः
यक्ष्यामः
उ०
इज्यासम् यज्यास्थ
प्र०. म० उ०
परोक्षमूत-लिद इयाज ईजतुः. ईजुः इजयिय, इयछ ईजयुः. ईज इयाज, इयज ईजिय ईजिस
अनद्यतनभूत-लड _ अयजत् अयजताम् अयजन अयजः श्रयजतम झयजत श्रयजम ग्रवजाव श्रयजाम
यज्यास्म
यजतु यज
आज्ञा-लोद_ यजताम्. यजन्तु यजतम् यजत
अनद्यतन मविष्य-छुट प्र० यश यध्ठारौ यश्टारः म० यथ्टासि यथ्टास्थाः.. यष्टास्थ
यजानि
यजाब
उ०
यजाम
यथ्टास्मि
यश्ास्ःः
यथ्टास्मः
र्ध८
बूहदू-अनुवाद-चन्द्रिका शामान््य॑मूत-छुछू
अयाहीत् श्रयाष्ठाम्॒अ्याछुः अयाक्कीः अ्रया"्टमू अयाद्ट श्रयाज्मम्ू अयाक्ष अयाहम
क्रियातिपत्ति-लूझ
प्र* अगक्ष्यत् अ्रयक्ष्यताम अ्रव॑क्यन मे० अयछ्यः अय्वतम्अयहूयत उ० अ्रयक्ष्यम् अ्रवद्याव श्रयद्यास
(२१ ) यज्(यज्ञ करना, पूजा करना )भ्रात्मनेपद वतमान-लद आ्शीलिंद_ बजते.. सजसे. यजे.
यजेते यजन्ते यजेथे. यगजघ्वे| यजावदे यजामदे. सामान्य भविष्य-लूद यक््यतें यदयेते. यछयन्ते यक््यसे यक््मेये. यह्यध्वे..
यहये.
यक््यावदे यह्यामहे.
प्र० यक्षीष्ट. यक्लीयास्ताम यत्दीरन् म० यक्ञीह्झ! यत्ीयास्थाम यदीष्वम् उ० यक्ञीय यदीवहि यद्ञीमहि परोक्ष॒भूत-लिद प्र०. ईजे ईजाते.. ईनिरे म० ईजिये ईजाथे ईजिप्वे
उ० ईजें..
अमयतनमूत-लड_ अयजत श्रयजेताम् श्रयजन्त . प्र० ग्रयजथाः श्रयजेयाम् श्रयजध्वम म० झयजे. अयजावहिं अ्रयजामहि उ० आ्राश-लोद् प्र० यजस्तामू. यजताम यजैताम यजस्थ॒
यजै यजेत..
यजेयाम
यजध्वम्
यजावहै यजामहे. विधिलिद.
यजैयाताम् यजैरन
मे०
3० प्र०.
ईंजिवदें.
ईजिमहे
अनद्यतन भविष्य-खुट् यशरः यथ्टरा या... स्ठताये. यश्ठाप्वे यथष्टोसे. यहामहे य्रष्टादे. यशदे. सामान्यमूत-लुद्ू श्रयक्षाताम् अयच्त शब्रयष्ट. श्रय्टाः
श्रयक्षि
श्रयक्षाथाम् श्रयक्षप्वम्
श्रयद्धदि श्रयद्मदि क्रियातिपत्ति-लुइ_
श्रयक्ष्यत श्रयद्येताम् अयह्वन्त
यजैयाः.
यजैयाधाम् यजेध्वम्
मे०
श्रमक्ययाः अयदपेथाम् अ्रयहप्वमू
यजेय...
यजैवद्दि.
यजेमह्दि
उ०
अ्रयक्ये.
श्रयच्रतरावहि श्रयद्यामदि
उमयपदी (२२ ) याघ्(माँगना ) परस्मैपद
बतमान-लट
सामान्य भविष्य-लूट्
यावति
याचतः.
याचन्ति.
प्र यात्रिष्यति याविष्यतः थार्चिष्यस्ति
याच्सि गाचामि
माचयः याचावबः
याचथ याचामः
मे» उ०
याजविष्यत्ति याविष्यथः यानिष्यय याविष्ामि बाविष्यावः वाविष्यामः
१७
घातु-रूपावली ( म्वादि ) लड्
रश्६ लि
अयाचत् अयाचताम् श्रयाचन् अयाच: अयाचतम् श्रयाचत_ अयाचम् अयाचाव श्रयाचाम लोद् याचत याचताम् याचन्तु याच याचतम्ू याचत याचानि याचाव याचाम
प्र० ययाच म० ययाचिथ उ० ययाच
यवाचहः ययाचथुः ययाचिव लुद प्र० याचिता याचितारी म० याचितासि याचितास्थ* उ० याचितास्मि यायितास्व+
विधिलिद
ययाचुः ययाच यवाचिम याचितारः याचितास्य याचितास्म+
छुड_
याचेत्.
याचेताम्
याचेयमू
याचेव याचेम आशोर्लिड_
उ० अ्याचिपम् अ्रयाचिष्प अयाचिष्म लूड,
याच्यात्
याच्यास्ताम् याच्यामुः
प्र० अयाचिप्यत् अयाचिप्यताम् श्रयाविष्यन्
याचेः.
याचेतम्
याचेयु:
याचेत
याच्याः याच्यास्तम् याच्यास्व याच्यासम् याच्यास्थ याच्वास्म:
प्र*
म०
श्रयाचीत् श्रयाचिष्टाम् अयाचिपुः
श्रयाचीः अ्रयाचिष्टम् अयाचिष्ट
म० अयाचिप्यः श्रयाचिप्यतम् अ्याविष्यत उ० अयाचिष्यम् अयाचिप्याव श्रयाचिष्याम
याच्(सॉगनः ) आत्सनेपदी लू यांचते.याचेते याचसे . याचेथे याचे याचावद्दे ल्दू
याविष्यते याविष्येते याचिष्यसे याचिप्येये याचिष्ये याचिष्यावद्दे कट अवाधत श्रयाचेताम्
विधिलिड् याचन्ते याचब्वे.. याचामद्दे
प्र म० उ०
याचिष्वन्ते .प्र० याचिप्यष्वे म० याचिघ्यामहे «3० अ्याचन्त
अ्रयाचया। अयाचेयाम् अयाचध्वम अयाचे. अयाचावहि अयाचा्महि
प्र० म० उ०
लोय् याचताम् याचस्व
याचेतामू याचेथाम
याचन्ताम् याचघ्वम्
प्र म०
याचे.
याचावदे
याचामहै
ड०
याचेत याचेथाः याचेय.
याचेयाताम् याचेरन् याचेयाथाम् याचेच्वम् याचेवद्दियाचेमहि आशीर्लिंड' याचिपी्ठ याचिपीयास्ताम्, याचिपीरन् थाचिषीशाभ्याचिपीयास्थाम् याचिप्रीध्वम् याचिपीय याचिप्रीवद्दि. याचिपरीमददि लिय् ययाचे. ययाचाते ययाचिरे यवाचिप्रे
ययाचे
ययाचाये
ययाचिवद्धे छंद याचिता याचितारी याचितासे याचितासाये याविताहे यावितास्वद्दे
ययाचिघ्वे
ययाचिमदे याचितारः याचिताध्वे याचितास्मदे
ड्र्०
बृहदू-श्रनुवाद-चन्द्रिका लुड
अयाचिष्ट श्रयाचिपाताम् श्रयाचिषत प्र० श्रवाचिष्यत श्रयाचिष्वेताम् श्रयाचिघ्न्त अयाचिष्ठा/श्रयाचिपराथामृग्रयाचिदवम् म० श्रयाचिघ्यथाःअ्रयाविष्येधाम अयायिष्म अयारचिपि श्रयाविष्वहि श्रयाविष्महि उ० श्रवाविष्येश्रयाविश्यावद्ि श्रयाविष्यागर
(२३ ) रक्त (रक्ता करना ) परस्मैपदी
चतमान लद
आशीर्लिंड_
रचति
रक़ुतः
रक्षन्ति
प्र
क्षति
रक्तथ
रक्ष्य
स०
रक्षामि
रजावः ल्ट्ू
रज्ञामः
छु०
रक््यातू. र््यास्ताम् रक्ष्याठुः रक्याः. रच्यास्तम् रघ्यास्त रह्यासम् रक््यास्व रचुयास्म लिदू
इर्धिष्यति रक्तिष्यतः
रक्तिष्यनम्ति
स्क
ररबताः.
रच
रक्प्यसि रक्तिप्यपः
रक्तिष्यथ
रक्िष्यामि रक्तिप्यावः लड अरचत् अरक्षताम् अरचणः अ्रधसोेतम् श्ररक्षमू श्ररक्षाव लोद् रचतु. रचुतामू रत्न रक्ततमू. रचाणि रचाव विधिलिड
रक्तिष्यामः
रक्तिथ रच
रख्थुः. ररत्तिव
रख्क ररत्तिम
श्ररत्षन् श्ररक्षत श्ररक्ञाम
रक्तिता
घुद रकितारी
रचितारः
रख्स्तु रक्त रक्ाम
श्ररक्षीत्॒. श्रर्रक्षशम् श्ररत्तिपुः अरक्ीः श्ररक्षिषम् श्रक्षि/ अरक्तिपम् श्ररक्षि्यव. श्ररद्धिप्म लूड. अरत्षिष्पत् श्ररक्तिष्यताम श्रत्तिप्यन अरत्तिप्पः श्रक्तिष्पतम् अ्रक्तिप्यत अरक्तिप्पम् श्ररक्षिष्याव श्ररक्तिप्याम
रेत.
रहेतामू.
रखेयुः
रक्चिताति रष्चितास्थ:
रप्तिताथ
रक़्त्ररिमि रक्षितास्वः रक्तारमः छुड्
प्र
रक्तेः . रक्तेतम्. रक्ेयम् रक्तेव
मण० रचेत छ्० रक्षेम (२४ ) लभ्(पाना ) भ्रात्मनेपदी श्रनयतनमृत-लह_ वर्तमान-लद चर अलमत श्रलभेताम् श्रलमन्त लमते . लमेते... घमस्ते
लमसे . लमेये
लमे
लमघ्चे
लभावदे._ समामदे सामान्यमविष्य-लूटू लप्त्यते लप्स्पयेते. शप्स्वन्ते लप्पसे लप्स्येये.. लप्स्यष्ये लप्स्पे. लप्त्पावदे लप्स्पामदे
म०
अलमयाः
श्र॒लमेथाम्
छ०
अलमे.
श्रलमावहि श्रलभामदि
च० म० छ्ण
लमतामू लमेतामू॑ लमस्व
लगे.
श्लमणम्
ब्राशान्लोट
लमस्ताम्
लमंथाम
लमघ्यम
तमावददे.
समामे
घाठु-रूपावली ( म्बादि )
श्श्र्
अनचतनभविष्य-लुद्
विधिलिंड,
लब्घा
लब्घारः
लमेयाताम्
लमभेथाः 'लमेय
लमेयायाम् लमेध्वम लमेवहि.. लमेमहि आशीलिंड
लब्घासे लब्धासाथे लब्धाब्वे लब्धादे .लब्धास्वृहे लब्धास्महे
लप्सीयास्ताम् लप्सीरन्
अलब्ध॒
लप्सीष्ट._
लमेरन्
लब्धारा
लमेव.
लप्सीट्ठाः लप्सीयास्थाम् लप्सीष्वम् लप्सीय. लप्सीवद्धि. लप्सीमहि
उ०
परोक्षमृत-लिद्
सेमे खेमिपे.. लेमे
लेमाते. लेमाये लेमिवदे.
ल्षेमिरे लेमिघ्वे लेमिमदे
प्र० म० छण०
अलब्धाः अलप्सि
सामान्यमृत-छुड_
अलप्साताम् अलप्सत अलप्साथाम् अलब्ध्यम् अलप्स्वहिं अलप्स्महि
क्रियातिपत्ति-लूड अलप्स्यत अलप्स्येताम् अलप्स्यन्त अलप्स्यथाः अलप्स्येयाम् अ्र॒लप्स्यध्वम्
अलप्स्ये
अलप्स्यावदि अलप्स्यामदि
(२५ ) चदू (कहना )परस्मेपदी ५__.-
बतमान-लट् चदति चदसि चदामि
बढतः. बदथः बदावः लृद् चदिष्यति बदिष्यतः धद्िप्यसि बदिष्यथः चदिष्यामि वदिष्यावः
बदन्ति बदथ वदामः
आशीलिंड_ उद्यात्ू डलद्यास्तामू उद्यामुः उद्याः डद्यास्तम् उद्यास्त उद्यासमू उद्यास्व डलद्यास्म लिय्
वदिध्यन्ति वदिष्यय वदिष्यामः
उवाद
ऊदतुड
ऊदुे
उवदिय
ऊदथु:
कूद
वदिता
उबाद, उवदद ऊदिव_* ऊदिम
लड'
चुद बदितारी
वदिताएओ
अबदत्
अवदताम
श्रवदन्
अवबद:
अवदतम
श्रवदत
अवदम्
अवदाब
अवदाम
वचदत॒
लोद् वदताम् बदन्तु
अवादीत् अवादिश्टमू अब[दिपुः
वंदतम्
अवादीः
» चंद
बदत
वदानि
बदाव वबदाम बिलिलिद
चदेत्ू. बदेः
बदेताम् चदेतमू
वदेयम् वदेव.
बदेयुः बदेत
वदेम
वदितासि बदितास्थः वदितास्थ वदितास्मि वदितास्वः वद्तास्मः लुहा
अवादिष्टम अवादिष्ट
अवादिपम् अवादिष्व
अवादिष्म
लूडः अवदिष्यत् अवदिष्यताम अबदिष्यन् अवदिष्यः अवदिष्यतम् अवदिष्यत अवदिष्यम् अवदिष्याव अ्वदिष्याम
इहदू-असुवाद-चन्द्रिका
श्र
उभमयपदी (२६ ) व्(वोना, कपड़ा घुनता ) परस्मेपद वर्तमान-लद् बपति.
वषतः
घपन्ति
चपसि
वषथः
वपयथ
बपामि
वपावः
वषामः
आंशीर्लिंड_ च्र० उप्यात्. उप्यास्तामू उप्यामः उप्पास्तमू उप्यास्त म० उप्याः उ० उप्यासम् उप्यास्थ उष्पात्म
परोक्षमूत-लिदू
सामान्य भविष्य-लूद्
घप्स्यतिं वप्स्यतः. वष्स्यन्ति. वप्स्यसि वप्स्यथः वपष्स्यथ बप्स्यामि वष्स्यावः वष्स्यामः. श्रनद्यतनमूत-लड् अवपत् श्वतताम् श्रवपत् अवपः श्रवपतम् श्रवपत अवपम् अयपाद श्रवषणम
प्र० म० उ०
उवाप
ऊपुः
ऊपतुः
उवपिथ, उवाय ऊपयुः
कप
बपतु बप बपानि
वपताम बपतम्. वषाव
वषन्धु बषत बपाम
बपैतू.. बपेः
बपेतामूं बपेतम्ग्
धपेयुः बफेत
फ्प्िम ऊपिव उबाप, उवप अन॑यतन मविष्य-छुट वस्तारा बत्ारः प्र० बसा. स० वह्तासि वत्तास्थः वप्तास्थ उ० वद्तातिमि वत्तीत्वः वह्तास्मः सामान्यमूत-छुड_ प्र्० अवाप्सीत् श्रवाष्ताम् श्रवाप्मुः म० क्रवाप्सीः श्रबासम, अश्रवाप्त प्रवाप्म ड० अवाष्सम् अवाप्त्व कियांतिपचि-लूड_ प्र अवपष्स्यत् श्रवृप्स्यतामू अवष्त्थन, म० झेवप्स्यः भ्वष्स्यतम अवष्स्यत
बपेस
ख्०
श्रह्यानलोटू
वपेयम
विधिलिड__
बपेव
श्रवप्स्पम् शअवपष्स्पाव
अ्रवष्छाम
वर्ष् ( थोना, कपड़ा घुनना ) श्रात्मनेपद श्रनचतनभूत-लद_ बर्तमान-लदू
. बाते घपते वषाये. बषष्वे यपावद्दे. बषामहे.. खम्ान्व माविष्य-लूद बच्ध्यते वृष्छवेते यप्ध्यन्ते..
शध्रवपरेताम अ्वपन््त च्र० श्रयपत मे आझअवपयाः श्रवेपेयाम शवपातम उ० अबपे . अवपावदि श्रवप्रामहि
सप्त्यसे
वष्स्येये
चप्स्पप्बे..
स०
घप्थ्ये.
वष्स्यावदे वष्त्यामदे
उ०
बपते घपसे बे
झाश+लौद श्र० बपताम यपस्व
चपै
वष्रेताम व्पेयाम
पपावदै..
वपन्ताम वषध्वम
ग्रपामदे
घात॒ु-रूपावली ( म्वादि )
२०३
अनद्यतन नरिष्य-लुद
विधिलिड
वस्ता. बत्ासे. वतादे.
बचद्चारौ बतारः वन्तासायथे. बच्ताष्वे वत्ास्वहे. वत्तास्मदे चपेय वपेवहि वपेमहि अनश्ृतन मूत-छुड् आशीलिंड ग्र० अवत अवप्साताम् अवप्सत वप्सी.्ट. यप्सीयास्ताम् वप्सीरन् वप्सीछठाः वस्ठीयास्थाम् वष्तीष्वम् म० अवप्पाः अवष्साथाम् अवब्ध्यम् छज अऋचाप्छि अवप्स्यहि 'खप्स्महि चष्सीय. वप्सीवदि वष्छीमाहि परोक्षमूत-लिद् क्रियातिपत्ति-लूड_ प्र० अवप्स्यत अवप्स्येताम अवष्स्यन्त ऊपे ऊपाते . ऊंपिरे चपेत.
बपेयाताम् वपेरन्
बपेयाः
वपेयाथाम् वपेष्चम्
ऊपिषे..
ऊपाये
ऊपिष्वे
मण०
ऊ्पे
ऊपिचद्धे
ऊपिमहे
छ०
अवपष्स्यथाः अवपष्स्येथाम् अवप्स्यष्वम् अवप्स्ये अवपष्स्यावहि अवप्स्यामहि
(२७ ) बस् ( रहना, समय विताना, होना ) परस्मेपदी बतमान-लट् चसति बतसि
चसामि
बसतः; बसथः
चसन्ति बसय
बसाव;.
बसामः
सामान्य मयिष्य-लूट चत्त्यति
वत्स्यतः
यत््यसि वत्स्ययः. वत्त्पामि वत्स्यावः
वत्स्यन्ति
बत्स्थथ वस्त्यामः
अनद्यतनभूत-लड _
अबसत् अवरः अवसम् वसतु , बेस घसानि
अवसताम् अवसन् श्रवसुतमू अवसुत अवसाव अ्रवसाम आजश-लोद बरुताम बसन्तु बसतम बसाव
बसंत चसाम
चसेत्ू.
विधिलिड, बसेताम् बसेथुः
चसेः वसेयम्
बसेतम् बसेव
वसेत बसेम
आशीरलिडः वस्यात् वस्थास्ताम् वस्थासुः वस्थाः वस्वास्तमू वस्यास्त वस्यारुम् वस्यास्थ वस्थास्म परोक्षमूत-लिद् डवास ऊपतुः ऊपुः उबसिय, उवस्य ऊपथुः ऊप उवबास, उबस ऊपिव ऊपिम अनद्यतन मविष्य-लुट
वस्ता
बस्तारी
वस्तारः
बस्तासि वस्ताथः वस्तास्मि वस्तास्वः
वस्तास्थ वस्तास्मः
सामान्यमूत-लुड_ अवात्सीतू अवात्ताम् अवात्सो: अवात्तम
अवात्मुः अबात्त
अवात्सम्
अवाह््म
अवात्त्व
क्रिबातिपत्ति-लूड_ अचस्त्वत् अवत्स्वताम् अवत्त्यनू अवत्त्ः अवत्स्यतम् अवत्स्वत अवस्स्यम् अवत्स्याव अ्रवत्थाम
श्प्दट
बृहृदू-अमुवाद-वन्द्रिका
उभयपदी
(२८ ) बहू(ढोना ) परस्मेपद् बहति
बतंमान-लडू वहत्ति बहतः.. वहयथः
बह्थ
यहामि
बहावः.
वहाम$
वक्ष्यति वक्ष्मसि वक्ष्यमि
ल््द् वच््यतः . वच्चचन्ति. वच्ष्ययः ' वक्ष्यय वह्यावः वक्ष्यामः
लिंद प्र* जवाह ऊहतुः. म० उबहिभ, उबोढ ऊहय। ऊह्िव उ० उबाह, उबह
झवहत् झबहः
लंड श्रवहताम् श्रवहतम्
प्र» बोढदा म०. बोदासि
वहसि.
श्रवहम् श्रवह्दाव लोट् वहतामू. वहतु घट्टतम्. वह वहानि बहाव
श्रवद्वन् अ्रवहृत
श्रवद्वाम_ बहन्ध बहत वहाम
अर० उद्याव्
आशीर्लिश_ उद्यास्ताम् उद्यामुः
म०
उद्यास्तम
ड०
उह्यः
छुट बोदारी. बोढास्यःः
बोढास्वः लुड, प्र० श्रवाह्षीव् श्रवोदाम् अवोदम् श्रवाक्तीः म० उ> श्रवात्षमू श्रवात्ष 3०
उद्यास्त
उद्यास्म
उद्यासम् उद्यास्य
वोदात्मि
ऊह्दुः कह ऊद्तिम
वोदारः वोढास्थ
बोदास्मः
अब्रवाज्तुः अश्रवीद अवाइम
बद्देतू
विधिलिड वहेतामू वहैयुः
अ०
लूड_ श्रवक्यत् अवदयताम श्वेधयत्
बह्ढेः वह्देयम्
बहेवमू. बहेव
बह्देत यद्देम
म० उ०
श्रवच्धयतम् अवच्यत अवक्ष्यः अ्रवध्यम् श्रवक्ष्याव श्रवध्याम
बह (ढोना )आत्मनेपद
बर्तमान-लदू
लड._
चहन्ते वहदष्ये
ध्र०. म०
अवद्देताम् श्वहन्त अयहत श्रवहयाः श्रवद्देयाम् अश्रमहप्वम्
यहावदे.
वहामदे
उ०
श्रवदे.
बच्यते
लय 5 बदयेत्रे.
बचुयस्ते
प्र०
बच्यसे.
बच्च्येथे
बच्यष्वे
बहते . चह्देते बहेये बदसे.. ब्दे
बच्ये.
यक््यावदे
वक््यामद..
म०
उ०
वहतामर वहस्व
बहे
श्रवद्यवद्दि श्तरद्यामढि
लोद_् बहन्ताम बद्देताम यहदेषाम्
चहावद..
वहष्वम
वहामद्दे
घावु-स्पावली ( म्वादि )
र्प
विषिलिड_ बहेत. बहेयाः बदेय..
चुद
वहेयाताम् वहेरन् वहेवाथाम् वदेध्वम् वदेवहि. वहेमहि आशीर्लिंड
प्र» म० उ०
वोदा वोढासे वोढाहे
वोढारी. बोदारः वोढासाथे वोढाघ्वे वोढास्वहे वोढास्महे छुड_
बच्छीष्ट वक्तीयास्ताम् वक्लीस्न् वक्षीष्ठाः वक्तीयास्थाम् वक्ती्मम्_ वक्षीय. वक्तीजहि. वज्ञीमहि लिद्
प्र० म० उ०
अवोद अबोढाः अवक्ति
ऊहे.
ऊहाते
अवचक्षाताम् अवक्षत अवज्षञायाम् अवोदवम् अवक्ष्दहि अ्वक्ष्महि लूड_
ऊरदिपि.
ऊहाये
ऊद््ष्वे
मस०
अवद्यथाः अवक्ष्येयाम् अवद्ष्यध्वम्
ऊद्दे
ऊहिबददे.
ऊद्विमदे
उ०
अवध्वे
. ऊहिरिे
प्र० अवक्ष्यय
अवक्ष्येताम् अवद्यन्त
अवध्ष्यावहि अवक्ष्यामहि
(२६ ) & बृत्त् ( होना ) आत्मनेपदी
बतमान-लट
बतंते. बतेंते बतनन््ते बतसे .. यर्तेये बतंध्वे बरतें बर्तावहे, .वर्तामद्द
प्र० वर्तेत म० वतेथाः उ० वर्तेव
वर्तिष्यते वर्तिष्येत वर्तिष्यन्ते. बर्तिष्यससे वर्तिष्येये वर्तिष्यष्वे. यर्तिष्ये .वर्तिप्यावहे वर्तिप्यामहे ५. अयबा (परस्मैपद ) वत्व्यति वल्स्यतः वत्स्यन्ति वत्स्यंसि वरत्स्ययः वर्त््सथ वर्त्स्पामि वर्त्स्यांवः वर्त्यामः
प्र०. म० उ०
सामान्यमविष्य-लुट ( आत्मने० )
डर
4
मन
विधिलिड__
वर्तेयाताम् वर्तेरन् वर्तेयायाम् वर्तेघ्यम् वर्तेंबहि. चर्तेमह्ि
श्राशीरलिंड
बर्तियीष्ट वर्तिषीयास्ताम् वर्तिपीरन् वर्तिपीष्ठाः वर्तिपीयास्थाम् वर्विपीष्य् वर्तियीय वर्तिपीवहि. वर्तिपीमहि लिद् प्र० बजृते . वहताते बबतिरे म० वबृतिपे बहइताये बच्तिष्वे उ० बढ़ते बदृतिवदे बश्तिमदे
जद
अवतत अ्रवर्तेताम् श्रवतन्त अबतंयाः अवर्तेयाम् श्रवतंध्यमू अवते अ्वर्तावहि अबर्तामहिं आजा लोद्
प्र० वर्तिता बर्तितारोा बर्वितारः म० वर्तितासे वर्तितासाथे वर्तिताध्वे उ० वर्तिताहे वर्दितास्वदे वर्तितास्मदे लुड_(आत्मने०
बतताम् वतेस्व॒
वर्तेतामू वर्तेयामू
वतन््ताम व्तब्बमू
प्र० स०
अवर्तिष्ट अवर्तिपाताम् श्रवर्तिपत अवर्तिषठा: अवर्तिआाथाम् श्रवर्तिदवम्
बरतें
वर्तावहे
वर्तामहै
उछ०
अ्रवर्तिपि श्रवर्तिष्वद्दि अवर्तिष्मदि
# इव् घाद के रूप लूट ,लुड_ठया लूड_में परस्मैपद में भी चलते हैं ।
रद
अब्वतत् अद्ृतः अद्ृतम्
बृहदू-अनुवाद-चम्द्विका लुद्(परस्मैपद )
श्इतताम अवृततम् पध्बृताव
ऋवतन् अ्रद्ृतत.. अब्ूताम
कियातिपत्ति-लूदः (परस्मैपद )
प्र० अयवल्सत् अयत्यताम अवर्त्यन् म० अ्वत्स्यी अवस्स्यवम श्रवत्स्यंत उ० अवत्स्यम् श्रवरत्स्याव शवर्त्याम
क्रियातिपतक्ति-लुड ( आत्मने० ) अवर्दिष्यत श्रवर्तिष्येताम् अवर्तिष्यन्त प्र अवर्तिप्यथाः श्रवर्तिप्येयाम् श्रवर्तिष्यध्वम् म० अवर्तिष्ये श्रवर्तिप्यावद्दि अ्वर्तिष्यामद्धि उ०
! ( ३० ) दृध् (बढ़ना ) आत्मनेपदी बतमाम-लट् श्राशीलिंड: वधते. चर्षसे. चर्चे
वर्धते वर्धथे चर्धाददे.
बधन्ते वर्धघ्वे पर्घामदे.
ल्द्
प्र०« वर्चिपी: यर्पिपरीयास्ताम् वर्धिपीरन् म० वर्धिपीठाः कर्षिपीयास्थाम् वर्षिपीष्वम उ० वर्धिपीय दर्षिपीवद्धि बर्चिपीमहि
वर्धिप्ते वर्धिप्येते
वर्धिप्यन्ते.
प्र० बदूधे.
वार्घप्यसे वर्पिष्येये चर्षिप्पे वर्षिष्यावद्दे मम लडः भ्रवर्धत.श्रवर्धतामें अवधया: श्रवर्धेयाम्
यर्थिष्पप्वे.. चर्थिष्यामद्धे मु श्रवर्धनत श्रवर्धप्वमू
म० उऊ०
लियू
बबूधाते .बहृबिरे
ववबृधिपे बहये...
बच्धघाये. परद्ंधिवदे हि झ्द पग्र० वर्धिवा बर्षितारी स० वर्षितासे वर्धितासाथे
बब्धिष्वे बदृषिभदे बर्षितारः बर्धिताध्वे
अ्वर्धष.
श्रवर्धावहि श्रदर्धामदि
उ०
उपर्थितादे पर्षितास्वद्दे बर्षितास्मदे
घघताम
बंधताम
वधन्ताम्
य्र०
अवर्षिष्ट
लोद्
छुड श्रवर्धिपाताम् अ्रवर्धिपत
बधस्व
वर्धेधाम
वधष्यम
म॑०
श्रर्वार्षष्टा: श्रवर्भिपाथाम् श्रवर्पिदवम
वर्ष
घधादिदे. वर्धामई विधिलिश
छ०
प्रवर्धिति
वर्षेत.. बर्षेधां; धर्षंय.
वर्षेयाताम बर्धरन् वर्धयाथाम वर्धषेध्यस. पर्षेवहि .वर्षेमदि.
ब्र० अवर्धिप्यत श्रवर्धिष्येदाम् अवर्भिष्यन्त स० अ्रवरधिध्यथाः अवर्धिप्येथास श्रवर्पिप्यप्वम उ० श्रवर्दिप्येश्रवार्दिप्यावदि अबर्धिष्पामदि
अवर्धिष्पहि श्यर्पिष्मदि
उभयपदी
(३१ ) श्री ( सद्दारालेना) परस्मेपद
भयति. अ्यसि
झवपामि
वर्देमान-लदू भयता अमन्ति अ्रयथः अयथ
शयावः.
श्यामः
प्र० म०
उ०
सामान्यमविष्य-लूट_ भविष्यति भ्विष्यतः अविष्यन्ति भ्रविष्यसि श्यिष्यथः भविष्य
अविष्पामि भ्रविष्यावः
अविष्यामः
२४७
पतु-रूपावली ( भ्वादि )
बनद्यतवमूत-लड_ अभ्रयत् आअभपष:ः
अभ्रयतम्
अश्षवम् अभयाव
परोक्षमृत-लिद शिक्षियतुः शिक्षियु:
शिक्षाव
अश्रवताम् अ्रश्रयन्
शिक्षयिय शिक्षियथु३ शिश्षिय शिक्षाय, शिक्षय शिक्षियिव शिक्षियिम
अश्रयत
अथ्याम
अनद्यतन भविष्य-लछुत्सात प्रध्ल्येशस अर त्यशम अपल्पायहे अवल्यामदे
होना )परस्मैपदी ५.
लोद्
लय
नशिप्यति नशिष्यसि सशिष्वानि
पिविदिरे विविद्दिध्ये
प्र०
नश्यतु
नश्यतामू
उ०
नश्यानि
अ्र०
नश्येत्ू.
नणश्यय नश्याम जिविदिद नण्यवास् नश्येयु
नशय
नश्थाम्
नश्यत
नरयपर
मश्येम
म०
म० छग
नश्य
नश्वयम्
नेश्यतमू
नश्पन्तु
नश्यत
आशालड प्र* नश्याव्
नर्यास्वाम
नस्पातु
म० नश्या हअश्यास्तमू नण्यास्त 3० नश्यास्म् नम्यास्थ नस्वास्म लिद् अ« मनाश नेशतु.. नेशुअ«»
नेशिय, ननष्ठ नेशशु..
उ«०
ननाश,ननश्व नेशिव,नेश्व नेशिम,नेश्स
नेश
डइहृदन्ग्रनुवादन्चन्द्रिका,
रध्द
ल्दद अनशिष्यत् अ्नशिष्यताम् अ्रनशिष्यत् अनशिष्यः अन॑शिष्यतम अनशिप्यत
छद नशिता नशितारी नशितारः नशितासि नशितास्थः सशिवास्थ नशितास्मि नशितारू: नशितास्मः अगवा नंश
नंशरो
नंशरः
नंटांसि
नंशस्थः
नशस्य
नंशप्मि
नंशत्वः
नंश्र्मः
अनशिषप्वम् श्रन शिप्वाव ग्रनशिप्याम
अथवा अनटच्ष्यत् अ्रनदद्यताम अनदक्यन् अनदचत््यः अ्नदक्यतम् श्रनदूइंपत अनइच्यम अ्रमदह्याव अ्नदइद्याम
चुझ
अनशत्् श्रनशताम् अनशः श्रनशतम_ अनशम् अनशाब
अनशन आनशत अनशाम
( १०४ ) नत् ( नाचना) परस्मैपदी लय ऋत्यति.. कुतसि.
ऋृत्मता डइंसयः
विधिलिश ह्त्यन्ति
ख़्यय झत्यामः बत्मातः ल्द नर्तिष्यति नर्तिप्यतः नर्तिष्यन्ति सर्तिष्यसि नर्तिष्यथः नर्निष्यथ नर्विध्यामि नर्विष्यावः नर्विष्यामः अथवा मत्स्यंति नत्तय॑तः नयेन्ति मत्स्य नत्पंति नव्त्यंथा नत्श्यामः नत्त्वामि नत्त्वाबः लद्दव अखत्ययू अ्वृद्यवाम अखत्यन् अन्त श्रदृत्यतम_ अनृत्यत अद्वृत्याम अखत्यम अ्रदृयाव कत्यामि
लो
ख््यतु
खुत्यताम
झुतानि
दछाव
इल्य..
खत्यतम
चसन्तु च्त्त इसाम
प्रण मण
० प्र
म० ड०
हत्येत. उत्येवाम इल्वेयुः हत्ये: इत्येतम द्त्येत हत्येयम् झृत्येव., सस्येम आशोरलिंए ऋत्यातू झृत्पास्ताम् दत्यामुः खत्या:.. झृत्याम्तमू दत्यारत झत्यासम् शत्यास्थ शृल्याप्म €
लिदू
ननत
नहततुः
नदठः
नमर्तिय ननते
नदतथुः महंतिब
नदत नदृतिम
छुट
नर्तिता नर्दितायी नर्वितारः नर्दितासि नर्तिवात्या नर्तितास््थ नर्तितारिम नर्नितास्व: मर्वितारमः घट, अनतीतू अनर्तिशम अ्रनर्तिषुः सर
अनर्तिष्टम
अ्रनर्ति्
अ्रनर्तिवम् अनर्तिष्घ
अनती:
अनर्दिष्ण
२०
किया-प्रकरण ( दिवादि )
लुड, अनर्दिष्यत् अनर्विष्यताम अनर्तिष्यनू
र६७
(लुड) प्रथा श्र० अनसत्स्यंत् अनत्त्यंताम् श्रनत्त्यंन्
अनर्विष्यः अनर्तिष्यवम् अनर्तिष्यः म० आअनर्दिष्यम अ्रनर्तिष्याव अनर्विष्याम उ० १०५ ) पदू ( जाना लद पते. पद्नेते पथ्चन्ते प्र० पदयसे. परेये पयघ्दे म०
अनत्स्यः अनत्स्यतम् अ्रनत्त्यम् अनुत्स्याव ) आत्मनेपदी आशीरलिंड परत्सीए. पत्सीयास्ताम एत्सीषाः. पत्सीयास्थाम
श्रनत्सव्यत ग्रनत्स्याम
पे
पत्सीय
पत्सीवहि लियू
पत्सीमहि
प्मावद्दे.. लूदू
पत्स्यते .पत्स्येते. पत्स्यसे. पत्स्येये. पत्ये. पत्स्यावहे अपदत
हि
पत्तीरन् पत्सीष्वम्
पद्यामहे
उ०
पत्ल्यन्ते पत्स्यध्वे पत्स्यामदे.
प्र० पेदे म० पेदिपे उ० पेदे
पेदाते पेदायें. पेदिवहे.
पेदिरे पेदिष्वे पेदिमहे
अपयेताम् अश्रपवन्त
छ्द्
अपदयाः अप्रेयाम् अपदष्वम्
म० पत्तासे
प्र० पता
पत्तारा
पत्तारः
अपये
श्रपद्ामद
उ०
पत्तास्महे
पद्यन्तामू पथ्चप्वमू पद्चामहे..
प्र अपादि म० अपत्पाः उ० अपत्ति
पत्तास्वहे. छुद, अपस्साताम् अ्पत्साथाम् अपत्तवि
पद्येर्त् पद्येप्वम्.
प्र० अपल्ययद अ्रपत्स्येताम घअपल्स्यन्त मे० अपल्स्थथाः अपत्स््येथाम श्रपत्स्यध्वम्
पद्येमद्दि
उ०
श्रपयावहिं लोद् पद्ताम् परग्रेतामू पद्यस्य परयेथाम् पच्चे पद्मावदे
पत्तादे
पत्ताखाथे
विधिलिढ'
परयेव. पद्मयेथाः
प्मेयाताम पग्यायाम्
पर्येव
य्ेबहि..
पत्ताष्वे अपल्सल श्रपद्ध्वम् अपत्स्मदि
लूढ_्
अ्रपत्ये.
अपल्ध्यावि श्रपत्स्यामि
(१०६ ) बुघ्(जानना ) झात्मनेपदी लय
लंड
बुष्यते बुध्यते.
बुध्येते बुध्येये
बुध्यन्ते बुध्यध्वे
प्र० म०
श्रद॒ृष्यत अयुध्यताम अश्रबुष्यन्त अवुध्ययाः अवुध्येयाम् श्रउुष्यव्वम
बुप:्ये
वुघ्यावदे
बुध्यामदे
उ०
अजुबष्ये
मोत्पते
मीत्स्येते.
भोत्स्यन्ते
भ्र०
चुघ्यताम्
मोस्पसे भोले
लल्दु
भोतल्सेये मोत्स्पप्वे. भोत्स्यावद्दे मोल्स्यामदे
म० बुष्यस्व उ० बुष्ये
अवुध्यावदि अ्रवुष्यामहि
लोद्
बुध्येताम
बुघ्यन्ताम्
बुष्येथाम् बुध्यप्वम् बुध्यावहे वुष्यामहे
रध्प
बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
विधिलिद, बुध्येव.. ब॒ण्मेयाताम् बुध्यरन् बुध्येधा: बरध्येयायाम् बुष्येथ्थम् बुध्येष.. घुध्येवहि बुष्येमहि,.
घट बोदारो बौदारः * वांद्धासायें बोदाघ्वे बोद्चास्वदे बोद्रास्मऐे
प्र» चोदा * म० वोद्धासे उ« बोद्ादे
आशीलिंड,
झुढ
भुक्तीए .भुल्सीयास्ताम् मुत्सीरन्॒ भुर्म छा; भुत्तीयास्थाम भुत्सीब्वम्
भुत्सीय.
भुत्सीवद्दि
मुल्सीमदि
.लिदू,
बबबे. चुबंधति इुनुधिपे घुद॒ुधाये.
बुबुषरि झुबुधिष्वे..
बुबंपे.
बुबुधिमदे._
बुशनुधवदे
“५
अमिध्यसि भ्रमिष्यथः
उन अ्भुत्सि..
ह
श्रभुत्वदि प्रभुत्तमदि
ल्द्
अ« अ्मोत्स्युत अ्रमोत्येताम् श्रमोत्स्य्त म« अभोत्ययाः श्रभोत्सेथाम श्रमोत्यणम्
उ० श्रभोत्स्पे श्रमोत्य्यावहि श्रमोत्याम्ि
(१०७) भ्रम् ( घूमना ) परस्तैपदी
लद् श्राम्यति श्राम्यतः भ्राम्यस्ति. आम्यसि भ्राम्यथ: अआम्यथ आम्यामि भ्राम्यावबः आमग्यामश ल््दु
५ अ्रमिष्यति भ्रमिष्यतः
प्र* श्बुद्ध, श्रयोधि अभुत्साताम् ध्रभुत्ततत म« अबुद्धा) अभुत्तायाम् श्रभुद्घम्
अ्रमिष्यन्ति.. भ्रमिष्यथ
भ्रमिम्यामि श्रमिष्याव: अमिष्यामः
लंइ्
पिविलिइड प्र श्राम्येत् अ्म्मेतामू ध्राम्येयु३ मे० आम्या पश्राम्येतम् ओआम्येत उ० पश्राम्येयम् श्राम्येब. श्राम्येम श्राशीलिंश प्र०
भ्रग्यात्
श्रम्पास्ताम् भ्रम्पामुः
म०
भ्रग्या३
अम्पोस्तम
उ«
अम्यायम् श्रस्पोस्व
थप्रामत् प्रश्माम्यताम् थश्रामस्यन्
प्र०
यश्राम
झम्राग्पः
मर०
(गा बुश्नमथुर रा अमिय | भ्रेमथु। | भ्रेम 482 इअ्सिव |रियति, घु+अ+ति-घुवति, मन +ते>प्रियते, क+झ्र+विल्ः किरति | कृष धातु म्वादि तथा ठुदादि दोनों में हे । इसके म्वादि में कप्रति तथा बुदादि में झृषठि रूप बनते हैं।
उमयपदी
(१२८ ) ठुद् ( दुश्ख देना ) परस्ैपद लू
आशोलिंक_
ठुदति
ठ॒ुदतः
ठुदन्ति
प्र०
ठुयात्
वुयात्ताम्
तुद्ामुम
छुदसि
तुदयः
चुदय
म०
तुयाः
वद्यास्तम
दुद्यास्त
तुदावः. छुदामः लूद् तोल्त्यति तोत्व्यतःः तोल्ल्यन्ति. तोत्स्पसि तोत्त्पपः. तोत्स्यय
उ०
तुदाठम्
ठुद्यात्म
प्र० म०
तुतोद छुठोदिय
नुद्यास्त्र॒ लि चुदुदताः छद॒दशः
तोत्स्पामि वोत्त्यावः वचोत्त्पामः लड
उ०
चुवोद्
अठुदत् अतुदः अऋतुदम्
अठ॒ुद॒ताम् अत॒ुदन् अतुदतम् अतुदत अतुदाव अत॒दाम
प्र» ठोौचा. तोचारी.. म० वोत्तासि तोत्तास्प: उ० दोचात्मि तोचातः
सुदद॒ नुद ह॒दानि
चुदताम् तुदन्तु नुदठम् मुदत * ठ॒दाव सुदास विधिलिड
तुदामि
वुदेत.
कोट
त॒देवाम. तुदेयु३
बुठ॒ुदिव छुद
छुड.
प्र० अतौत्सीव ऋअतीोचाम म० अतौत्ताः अतौचम उ० अतौत्वम अतौत्व लुढ
प्र०
चुदे:ः..
तुदेतम
ठुदेत
मर
लुदेयश
तुदेव
बुदेम
ड०
नुतुदुए बद॒द
चुत॒ुदिम तोचारः वोत्तास्थ वोचास्मः
ऋतौत्लुः अवतातच अतौत्त्म
ऋतोस्त्यत् अवोत्त्यवाम् अतोत्त्वन् अतोत्त्यः अतोत्स्पतम् ऋतोत्स्पत अदोत्त्पम शऋतोत्स्याव अतेत्स्पाम
३१०
बृहद-अनुवादु-चम्धिका
हुद् (व्यथा पहुँचाना, दुःख देना )आत्सनेपद् शुइते. सुदसे.. ज़ुदे
बदेते त॒देये हुदावदे
हदन्ते बुदष्वे तुदामईे.
प्र« तुत्ती१श/ म* तुत्तीष्ठाः उ« तुत्सीय
तोत्पयते तोल्यसे सो. अतुदत
तोल्थेते . तोत्स्यन्ते तोच्स्येये. तोत््वष्बे. कोत्पाजडे तोत्सामरे लड_ श्रत्देताम् इत्ुदन्त
जुदताम बुइुसख्ब॒ दे
छदेताम त॒देथाम् त॒दाबहे
ददेतू. जुदेथाः जुदेव
ब॒देबाताम् बुदेशन. श॒देयाथाम् दुदेश्वमू त॒देवहि दु्देश्ह्द.
आशौोरलिंड, ठ॒त्सीयास्ताम ठत्सीग्न् तत्सीयास्थाम् तुत्सीष्यम् त॒त्सीयहि. सुत्सीमहि
लूद्
लिद्
भर जझुदुदे. म० सुतुदिषे उन ददुदे. प्र० तोत्ता.
आअतुदथाः श्र॒देधाम् अशुदष्यमू अतठ॒दे. श्रत॒दावहि श्रदुदाभदहि लोद्
ठुदन्ताम तुदष्यमू तुदामहै
विविलिझ_
स० तोचासे उ० तोत्तारे
है
ठुह॒ुदाते. बुहुदिरे ठुठ॒दाये. ठुद्॒दिष्वे दददिवदे. वुदुदियदे छुद् तौत्तारा तोचारः
तोत्तासाथे तोलाध्वे तोत्तास्वहे तोत्तास्मदे लुद
भ्र०. अतुत्त. अल॒ष्छाताम् अशुत्सत स* अतुत्याः श्रत॒त्सायाम् श्रदृदूध्वम् उ० अदुत्ति झतुत्स्वद्ि श्रत॒त्सम्महि लुड_
अर० अतोत्य्यत श्रतोत्स्पेताम् श्रतोत्स्यन्त मर» श्रतात्स्थथाः अतोस्थ्येथाम् ्रतोत्त्यध्वम 3० श्रतोत्स्ये श्रवोत्यावहिं अतोत्पामदि
(१६६ ) इप्(इच्छा करना ) परस्मैपदी लद्
इच्छति इच्छुतः इच्छति
इच्छुप..
इच्छामि इच्छावः
इच्छन्ति
प्र० इच्चहड
इच्चेय
म०
इच्छचामः.
उ० , इच्छानि
इच्छ
लय
लोदू
इच्छवाम् इच्चल इच्चतम्.
इच्छत
इच्छाव
इच्चाम
विधिलिद_
एपिप्पति एविष्पता छपिप्यसि एपिप्यथः
एपिप्यन्ति एपिध्यय..
प्रे*० इच्छेतू. मे० इच्छेः
इच्छेताम् इच्छेयुः इच्छेतम् इच्छेत
शपिष्यामि एपिप्यावः सदा
एपिष्यामः
झे०
इच्छेव इच्छेम "मार्रलिक_
गेच्छः. रखेबतम
ऐच्डुव ऐल्लाम
ऐेब्डतू.
ऐल्छताम् ऐच्छुन...
ऐल्डतमू. ऐेब्छाव
इच्छेयम
भरे इष्यातू.
इष्पास्ताम् इ्यासः
भ्र० इप्याः इष्यास्वमू इष्यास्त . शे० इष्यासम् शष्यास्थ शष्यास्म
क्रिवा-ग्रकरद ( ठुदादि )
जिद
इयेप
ईंपहः
इयेपिय. इयेप.
ईघघु३ ईग्रिव छद् एपितारी
एरिता
एपितासि एपितास्था
ऐपीव्.
ईंपः द्र्ष एपितारः एपितास्थ एप्तास्फ
एट्रासि एश्स्मि
एश्टास्थ+ एश्स्वः
एशस्थ एड्टास्मः
प्रति
लद् फिरतः .. फ़िरन्ति
किरसि
किर्थः.
क्विस्थ
किरामि
किराब:.
किरामः
झद्
ऐपिप्टाम.
ऐवीः. ऐपिप्टम. ऐपिपम्ू ऐपिप्य.. ल्दू ऐपिष्यत्ू. ऐपिप्यताम् ऐपिष्यः. ऐपिष्यतम् ऐपिप्यम् ऐेपिष्पाव
ईपिस
एपितार्मि एगितास्व: अथवा एश . एश्टरौ
झ्श्र् ऐपिपुः
ऐपिष्ट ऐपिष्य ऐपिप्यन् रेपिप्यत छेपिप्याम
एथ्टरः
(१३० ) छू (वितर-वितर करना ) परस्मैपद
लय
फकरिष्यति करिष्वतः
सर जन
आशीर्लिंड' कीर्यात्. कीर्यास्ताम् कीर्यासु: कीर्याः कीर्यास्तम्. फीर्यास्त क्ीर्याठम् कौयास्व कीर्यास्स झ्लिंद
करिव्यन्ति
'करिष्यत; करिप्ययः: करिप्यथ क्करिप्यामि करिष्यावः करिष्यामाः
लड_ अफिरत् श्रकिरः अफिरम्
प्रग्
किरतु न्र्रि क्रिणि
अकिस्ताम् अरक्विरतम अकियराव लोद् डझिसतामू किस्तम झिरव.
क्रितू
विधिलिद_ किरेताम किरेयु:
चकफार
चकरिथ चकरशुः चकार-चकर चकरिव
चरुदाः चकर चकरिम
छुटू करिता-करीता करितारी करितारः
अफिरिन् श्रकिरत अकिराम
करिवतासि करिवास्थः करितवास्थ करितास्मि करितास्वः करितास्मः
किन्तु रिस्त किराम
अकारीः श्रकारिश्मू श्रकारिष् अकारिपमू भश्रकारिष्व श्रकारिप्म
झट
अकारीत् श्रकारिशम् श्रकारिपुः
लूब्
अ्रकरिष्यत्20472222 400 अकर्रश्यत्
'किरेः . किरेतम्,,. किरेत किरेयमू किरेव..
चकरतुः
किरेम
प्
ध्रिक
अकरिव्यः अकरिष्यतम् अकरिष्यत अकरिष्यम श्रकरिष्याव श्रकरिष्याम
/ बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
श्र
गिरति.
स् गिरताः
गिरहि गिरामि
गिरथाः गिराबः
( १३१ ) गृ (निगलना ) परस्मैपद आशीलिंड् गिरन्ति गिरथ फिराम:.
लुदू गरिष्यति गरिष्यतः गरिष्यन्ति. गरिष्यसि गरिष्यथः गरिष्यथ गरिष्यामि गरिष्यावः गरिष्याम: अगिरत्
अग्रिए अगिरम,
लू
श्रग्रिताम् अग्रिरन् अगिश्तश् अगिश्त
गिरद गिर
अ्गिराव अगिराम लोद् गिरताम् गिर्द पम्रिरत गिरतम्
गिरेत.
विधिलिद् गिरेताम् शिरेयुः
गिरे!
गिरेतम्
गिरेयम
गिरे
गिराणि
गिराव
मिराम
गिरेत गिरेम
श्र० ग्रोयांत्. गीर्यास्ताम् ग्रीयसुर मं० गोर्याः गीर्यात्वम् गीर्यास्त उ७ गीर्यास्छ, मीर्याश्ल गीयस्म लिट्
प्न० जगार मं० उ०
जगरताः.
न्
जगदा,
जगरिथ जगरथुः जगर जगार-जगर जगरिंव_ जगरिम
छुद प्र० ग्ररिता-गरीता गरितारी. गरितार म०
गरितासि
गरितास्थः गरितास्थ
उ०
गरितास्मि
गरितास्वः गरितास्मः
छुद
प्र० श्गारीव् श्रगारिशम् श्रगारिषुः भ० उ०
अ्रगरारीः श्गारिश्म् श्रगारिण् श्रगारिषम् श्रगारिष्य श्रगारिष्म
लड़
प्र० 28038 [20%%%5 2028
ग्रगरीष्यत् ्रिगरीष्यताम प्रिगरीप्यन,
म० उ०
अगरिष्यः श्रगरिष्यतम् श्रगरिष्यत॑ झअगरिध्यम् अ्रगरिव्याव श्रगरिष्याम
उमयपदी (१३२ ) कृप् ( श्रनिद--भूमि जोतना ) परस्मैषदी कृपति कृपसि कृपामि
लू
कझपतः कृषयः इझुपावः
लूद
कृपन्ति कृषय
प्र० म०
क्रद्यति क्रत्यसि
ऋच्यतः.. अच्ययः
कृषामः
छ०
क्रद्यामि कद्यावः
ऋच्यन्ति . कचयन्ति
करद्यामः
विशेष--स्वर बाद में हों तो गृ घाद के र को ल होता है ( श्रचि विमापा ) |
इसलिए श्राशीलिंद को छोड़कर श्रम्य लकारों में र के स्थान में लू बाले रूप मी बनते हैं |यया--गिलति, गलिष्यति, अ्गिलत् ,गिलतु, गिलेरू, जगाल, गलिता, अमालीतू , भ्रंगलिष्यंत्
किया-प्रकरण ( तुदादि ) अ्रथवा (लूट) कच्यतः. कक्यन्ति. कक््यंथ... कक््यय कच्ष्यांवः..
करक्ष्यामः
लब्_ अकृपताम् अइृपन् अ्रकृप्तरमू अकृपत अकृपाव अकृपाम.
प्र० कर्श. स० कर्शासि ड्ड० कर्शस्मि प्र० म० उ०
लोद्
अकृछत्ू
कर्शरा... कर्शस्थ.. कर्शस्वः छुड
कर्शारे कष्टस्थ कर्शंस्मः
अइझचछ्ताम्
श्रकृक्षन्
अकृत्ः अकृकृतन, अकृत्तमू अइझृकछ्याव अथवा
अझक्षत्त अक्षक्षाम
कृषारि
कृपताम्._ कृपतम् कृपाव
झ्पेत्
कृपेताम.
इपेयु:
चरन
अकादीत् श्रकार्शम अकाएु:
कृपेतम् कृपेव
कृषेत क्ृपेम
म० ड०
अ्रकाक्षी: अकाए्टम.
क्पतु
इपन््तु ऋृपत दृषाम
१३ अथवा ( लुद )
विधिलिदू कृपेयम्
आशीर्लिंड्
अकाम
चकृपिम
उ०
कष्ार+ कष्ास्थ
प्र० म०
क्रश्टास्म:
उ०
लिद्
फ्रशस्वः.
अकाएं
चकृषुः चकृप
कृष्यास्ताम् दृष्यासुः. कृष्यास्तम् कृष्यास्त.. दृष्यास्म. कृष्यारम् कृष्यास्थ कृष्याः
क्रश्शास्मि
अकाक्तम् अ्रकाक्यब॑
लूड प्र० अक्रक्यत् श्रक्रक्यताम् अक्रतयन् म० अक्रत्यः अ्रक्रच्यतम् अक्रतयत ड० अककपम, अक्रक्माव अक्रद्याम अथवा चर अकद्यत् श्रकक्ष्यताम श्रकच्यन, संग अकक्त्य: श्रकक्षयतम् श्रकक््यत
कृष्पात्
घबकृपत: चकंष चकर्पिय खक़ृपथुः खकपिव चकप झद करारा... क्र क्रशस्थः.. क्रशसि
प्र० अक्राक्षीत् अक्राशम् अक्राचुः मं अक्राक्षी, श्रक्राष्मू अक्राप्ट अक्राधम उ० अक्राक्षम, श्रक्राज्च. अथवा
अकक्ष्यम् अकक्याव
श्रकक्ष्यॉम
कृष् ( भूमि जोतना ) आत्मनेपद लदू
लुद्
ऋषते
ऋुपेते
झ्यन्ते
प्र०
क्रच्यते.
कस्येते
ऋच्यन्ते
कषसे
इृपेये. कृपावहे
छृषघ्वे कृपामहे.
म० उ०
ऋदुयसे.
ऋक्येये.
ऋच्पष्वे
फ्रकये..
कच्यावद्दे
क्रच्यामहे
क््षे
बूहदू-अनुबाद-चन्द्रिका
श्र
अक्ृपयाः अक्ृपेयाम् श्रकृपप्वम् अकृपे. अ्रकृपायदि श्रकृशामहि लौट
प्र» कर्म म० कष्टसे
उ०
छुद् क्रशारो... क्रशसाथे. क्रशस्दे. अथवा क्रो. कष्टॉसाये..
कृषपताम्
प्र० श्रछृक्षत
छ. अकृ्ेताम्
अथवा ( लूट )
फच्यते
कह्येते.
कदयन्ते
कक््यसे
कक्ष्यमे.
कच्चय प्वे
कहये.
कर््यावदे.
करह्यामदे
प्र०. क्र म० ऋष्टासे.. छ० क्रशदे..
लड़ अकृपत
अ्रकृपेताम्
श्रकृपन्त
कष्ठादे.
कर्षशास्वद्दे.
कशरे अष्टाघ्वे अशस्महे कर्शण कर्शष्वे
श्रक्ृत्तन्त
क्शस्मदे
कृपेताम्ू
कृपन्ताम्
कृपस्थ
कृपेधामू
कृपलम्
कृपै
कृपावहे.
कृषशमहे
कृपेत.
विधिलिड_ कृपेयाताम् इपेसन्
प्र*« श्रकृए्
श्रयदा अइृछाताम प्रकझृक्षत श्रकृत्षाथाम् भ्रकृदबम्
म०
अक्ृक्षयाः अ्रकृक्षेयाम् श्रक्ृत्तध्वम्
उ०
श्रक्षत्ते
कृषेथाः
छृपैयाथाम् क्ृप्रेष्यम्
म०
श्रकृष्ठाः
कृपेय.
कृप्ेबदि
उ०
ग्रकृत्ति
कच्ीए.
श्राशीलिड_ इचीयास्वाम् कृच्षीरन्
कृचीठाः कृदीय_
कृपेमहि
क्ृछीयास्पाम् कृक्तीष्यम् इचीवदि ऋृच्षीमदि
चकृपे.
लि चकृपाते.
चकृपिरे
चक्रप्पि
चकृपाये
चकुपिष्वे
घखकपे.
चकृपिवदे चकुपिमहे
श्रकृक्षावदि अ्रकृत्ामदि
प्र« म०
प्रकृद्भहि श्रकृच्महिं लूडः अ्रकच्यत अक्रद्येताम् अक्दपन्त श्रक्रक्यथाः अ्रक्रद्येयाम अ्रक्रदयध्वम्
उ०
श्रक्रक््ये
श्रक्रच्यावदि श्रक्रपामहि
.. प्रथवा प्र० अ्रकह्यंत श्रकक््यंताम श्रकद्र्यन्त से श्रकद्चयथा;थ्रकदयें याम्श्रकद्प प्वम् ० अक्षय श्रकद्यांददि प्रकर्र्पामदि
उमयपदी (१३३ ) क्षिप्(फेंकना ) परसौपद लिएति. छिप्रसि.
लदू
सर अधिपत् श्रत्तितताम श्रत्तित्
छिपतः.. छिपयथः
त्िपन्ति क्षिपथ
अत्षिपः
द्विपामि छिपावः..
छिपामः
अ्रद्धिपम श्रद्धिपावश्रद्धिपाम
त्षेप्त्पति चेप्त्थतः
चेप्स्यन्ति
सिपतु
लोद ज्षिपताम सिपन्तु
चेप्स्यसि छेप्स्ययः सेप्स्यामि चेप्स्यावः
.क्षेप्ल्यय चेप्स्पासः
लिप
दछिपतम.
छिपत
छिपरमि
सलिपाव
स्पाम
लय
अहिपतम
अ्रक्तिपंत
श्र
छ़रिया-प्रकरण ( व॒दादि ) विधिलिइ् क्िपेत्ू
क्षिपेताम्
छिपेयुः
श्र०
ही
कतारों छुदू
चेंठा..
छेता
|
क्षेतारः
चेतास्य चेसास्सः
अआाशीर्लिड् च्िप्पात्ू किप्यास्वान् क्षिप्यालुस
केताति छेवाध्यः क्षेत्रास्मि छेवात्वः. छुडझूघर
प्र० अच्ैप्सीत् अचैतान.
अक्षेप्सः
द्विप्पाः
म०
अच्चैप्लीः अज्लैठम् अत्तेत
दिप्वात्म
उ०
अछप्यमू
विकत्तेय
चित्षिपतुः चिढक्िपुः
प्र०
अच्तेप्लव् अद्तेप्ल्ववाम अक्तेप्ल्नन्
विस्तेर
चिछ्तितिद
उ०
अक्तेप्पम् अक्तेप्माव अक्ेस्त्याम
फिपेः. क्लिपियमू.
क्िपेत क्षिपिदम छिपेव किपेम विष्यात्तत् दविप्यात्त.
दिप्याउम् क्विप्पाल
लिद्
वित्तेतिप चिझह्तगयुः चिंकिप..
चिंक्षेतिम
मे० उं०
हु
अछुप्त.
_लुदू
अछप्सम
ने? अ्चेप्लः अद्चेप्लवम अत्तेप्स्धव
कप ( फकना ) आत्मनेपद लय
किपते
दिपेते दिसते.
कप
दिपेये.
छिपे...
तिफखे
क्ितावदे दिपामहे. लय
केप्प्ते चेस्पेद
चछेप्लन्ते.
क्षेप्त्ससे
क्षेप्त्येये
ज्लेप्त्पप्वे..
क्षेप्ये.
क्षेप्लावहे क्षेप्तामदे
आशरर्लिंड्
प्र० दिप्सी८ तिप्धयास्वाम विप्तीस्न् म०
उ०
छिप्तीाः दिप्ठोयास्थाम् क्िप्सीस्वम्
छिप्टीय द्िप्लोवरि
प्र० चिझ्िपे विक्तियते दिक्तिपिरे म०
चित्रिरिि चिढदिपाये
चिह्षिपिष्वे
उ० चिदिपे लिल्षिपिवहे चिहद्दिपिमदे
लू अच्पद अत्तिपेठम् अद्धियन्व प्र० च्षेता अछ्िपपाः अ्रक्तिपयान अक्षिपप्वम म० क्तेताते अदिपे. अक्धितवदि अदिप्रमहि उ० केसाईे
लोद्
दिप्पोमि
लिय्
चुद चेनरा. चेहारः क्षेतासाये चेताप्वे क्षेमात्वहे क्षेमास्मदे
छुझ्
फ्िप्याय फ्पिशाण, सिपलत कदविपेयाम्ू
सििपनदानू.. पिपप्दम
५४ म०
अद्चत, अधिखातवाय अ्विप्दत अछिप्पाः अद्तिप्लायाम् अद्धिप्प्वन्
किपेय
फिपेमदि.
उ०
अत्तिप्सि अक्तिप्वदि
प्र० म०
अ्तेप्तन्त अच्तेप्ल्वेव्म् अक्तेप्ल्सन्त अस्तेसयाः अर्लेप्लेयान् अक्षेप्त्पप्वम्
छिपरेईदि
दिविलिस
छिपरिठ. छिपेयावाम् द्पिरनू. किप्रेषा: हिपेशायाम् किपेप्वमू.
दिपेय
दिपेहि
दिपेमदि
ल्ड्
अदक्विप्महि
उ० असक्लेप्ते अस्तेप्सादरि अत्तेल्य्महि
बहद-श्रतुवांद-चन्दिका
श्१९
( १३४ ) प्रच्छू(पूछना ) परस्मैपदी पशौलिंडद
खंद्
पृच्द्ति प्च्छ्सि
शच्छतः. पृच्छेपः.
एच्छन्ति एृच्छंप
पृच्छामि
पृच्चाव+
पृच्दाम+
प्रदयति प्रच्यसि
प्रद्यतः प्रदवथ:
प्रक्ष्यन्ति प्रच्यध
पप्रच्छिय, पप्रष्ठ पप्रच्ुधुः.
प्रच्यामि
प्रच्याव:
प्रदयागः
पष्नच्छ
प्रप्च्छ्त्
अपृच्छु+ अप्च्यम्
लद्
पच्चयात् शच्छुपास्ताम् एच्छघामु३
पृच्छुधाः पच्छ॒धाघ्तम् एच्छुबास्व पृच्छुयासम् पृच्छथार्व पृच्छुघार्म लिद् पप्रच्छ पप्रच्छतः पषच्छुः
लड अध्ुच्छुताम अष्टच्छन् अप्चच्छुतम
प्रशध-. प्रशसि प्रष्ठास्मि
धन
अप्रद्यत्
मण०
श्रप्रदुंय:
श्रप्रद्यतम्
श्रप्रदयव
उ०
श्रप्रक्पम्
श्रश्नदयाव
अ्रप्रचयाम
अश्च्छाव शपृच्छाम लोद्
प्रच्छवाम्
ध्च्छस्तु
एच्छानि
पृच्छाव
पृच्झाम
पच्छतम
श्रग्माव्वीत् अपग्राक्षीः श्रप्रात्म्
एच्छत
विधिलिद पृश्छेत् पृष्छेताम (च्छेयु पृच्छेतम एच्छेव एच्छेम पच्छेयम् पृष्छेव..
चुद
अ्शरी.. अशत्यः. प्रशस्थ+ छू श्रग्माशव.. श्रप्राष्मू.. श्रप्राइव. लूड_ ध्रमक्ष्यताम
श्रष्नच्छुत
प्च्छ्त
पगरच्छ
प्रप्रच्छिवपप्रच्छिम प्रशरः ,प्रशस्प प्रशटसमः अआआहुः श्रधा४ श्रप्राउम अग्रक्षयम
उम्यपदी ( १३५ ) मुच् (मोचन करना, घोड़ना ) परस्मैपद लद
मुश्नति मुश्चसि मुझ्मामि
मुझ्तः.. मुझयः..
मुशन्ति मद्यय
मुखावशण
सुद्यासः
जद
मोच्यति मोच्यतः. मोक््यदि मौक्ययः. मोद्यामि मोह्यावः
चरण
मुझद
मुझवाम
“म०
मुझ
मुशतम
मुझत
गुश्ाव
सुशझ्याम
छू
मुझ्ानि
विधिलिड, मोद्रयन्ति मोध्यय सोझ्षयामः
प्र०
सम उ०
मुझ्रेंद
+ अग्रथम
अमयवाम
> ध्रदुथठम् शपुधार
मुश्ेवाम्
गश्येतमू
मुच्यात्
म्च्यात्ताम् मंच्यागुर
सुझेयम् मशेव
आंशोर्लिंद_
भमयत्
न्प्र०
भम्रजत
मन
अठदात्र
खु>
सश्ेयः
मुझे;
लड
अनुद्यत् अगयर
मुझ
मत
मुश्ेस
मुच्याः मुच्यास्तमू मुच्यास्त मुच्याएम् मुच्यात्त मुच्यास्म
क्रिया-प्रकरण (ठुदादि )
हर
लिद् अुमोच मुमोचिथ मुमोच
छुड._
मुम॒चतः
ममचुः
प्र»
श्रमुचत्
श्रमुचताम् अमुचन्
मुमुचथुः
मुमुच
मं०
अमुचः
श्रम॒ुवतम्
अश्रमुवत
मुमुचिव
मुमुचिम
उ०
श्रमुचम्
अमुचाब
श्रमुचाम
प्र० म० उ०
लड़, श्रमोक्ष्यत् श्रमोक्षताम अमोदयन अमोक्ष्यः श्रमोच्यतम अ्मोच्यत अश्रमोक्ष्मम श्रमोक््याव अश्रमीक्ष्याम
लुद मोकतारी मोक्ता मोक्तादि मोक्तास्यः मोक्तास्मि मोक्तास्वः
मोक््तार: मोक्तास्थ मोक्तास्मः
मुच् (मोचन करना, छोड़ना ) आत्मनेपद लद् श
आशीर्लिड_
सुश्चते मुश्चसे
मुझ्ेते.. मुख्ेपे..
मुझन्ते मुथचघ्वे
प्र० मुन्नीष्ट0. मुक्षीयास्ताम् मुक्तीरन, मे मुत्तीन््ठाः मुक्तीयास््थाम् मुत्तीष्यम्
मुच्चे
मुश्चावदे.
मुझ्नामहे
उ०
मोच्ष्यते मोक्ष्पसे
मोक्ष्ततें
मोझ्यन्ते
प्र०
मुमुचे.
मुमुचाते
मुमुचिरे
मोक्येये.
मोहुयध्वे.
भ०
मुमुचिपे
मुमुचाये.
मुमुचिष्पे
मोक््ये
मोक््यावदे भोक्ष्यामहं लड' अमुश्चेताम् अमुझन्त
उ०
मुमुचे.
प्र० मोक्ता
मुमुखिवद्दे मुमुचिमदे छुद् मोक्तारी मोक्तारः
म०
मोक्तासे
भोीक्तासाथे
श्रमुक्त
छुड श्रमुक्षाताम् श्रमुक्षत
लृद्
अमुश्चत श्रमुश्चयाः अमुश्चेयाम अमुश्वब्वम॒ अमुय् अ्म॒ुज्ञावहि श्रमुझामहि लोद् मुश्चताम् मुश्चतामू मुश्च-ताम् मुश्वस्व
मुच्चे मुग्मेत मुख्ेथा+ मुझ्ेय
मुख्रथाम् मुखावद्दे पिघिलिड, मुझ्षेयावाम् मुश्चेयामाम् मुश्चेदि
मुश्रध्यम्॒ मुश्चामहै मुशझ्नेरन् मुझेध्वमू मुश्लेमदहि
मुक्ीय
3० मोक्तादे प्र०
मुक्तीवदि
लि
मुत्तीमदि
भोक्ताध्बे
मोक्ताखदे मोक्तास्मदे
म० उ०
श्रमुक्थाः श्रमुक्षाथाम् अमुगध्यम् श्रमुक्ति अमुच्दिं अ्रमुद्रमदि लृड_् प्र० अमोक्ष्यत श्रमोक््येताम् श्रमोद्रयन्त म० अ्मोक्ययाः श्रमोक्येथाम् श्रमौक्षयप्वम्_ उ० अमोच्ये अ्रमोच्रयावद्दि अमोच्ष्यामहि
(१३६ ) खश (छूना ) परस्मैपदी स्प्यति स्पृशसि
लद
स्शतः. स्पृशयः
स्पृशामि स्पृशावः
स्शन्ति स्पशय
स्शाम:
ल्दु
अ्र० रपरक््यति स्प्रक्यतः म० स्पच्यसि स्परदंयध:
स्पष्पन्ति स्प्रचदयध
स्प्रत्यामि स्प्रद्यावः
स्प्रदयामः
3०
श्श्द
बृहदू-अमुवाद-चन्द्रिका
द अथवा डे स्पक््यंति स्पचयतः स्च्यन्ति. स्पक््यंसि स्पच्रयथः स्पद्यथ.
,. अथवा ( छुद ) प्र० स्पर्श. सर्शरो सर्शरः म० स्पर्शसि स्पर्शस्थः स्पर्शाध्थ
लड._ अरघूृशव् अस्पृशवाम् थस्तुशन्
छुड, ग्र० अस्पाक्षीद् श्रस्माशर् श्रस्पाहुर
अ्रस्प्शःः
मण०
श्रस्पाक्षीः
उ«
अश्रस्माक्तम् श्रत्मात्व
स्पच्यामि स्पच्यावः
स्पर्याम:.
भस्पृशतभ् अस्पशत
अ्रस्यशम् श्रत्पशाव
अख्ुशाम
उ०. स्पर्शाश्मि स्पर्शश्वः.
अरस्माएंमू.
लोद्
स्पर्शरम:
श्रस्प्राष्
श्रद्धाइम
अथवा
५
खशतु
स्शताम्
साशख
प्र० असख्ाक्षोंद श्रसार्शम श्रधाहुः
स्ृश
स्पशवम
खशत
म०
स्शानि
स्पशाय
स्शाम
ड०
ग्रस्पारज्ती: ध्रल्लाध्म
श्रस्पात्षम अ्स्पाक्य॑
विधिलिड_ स्रोतू. झशेताम स्थृशेः स्पृशेतमू स्पशेयम् रारोव.
#स्पा्
ग्रसातम
झथवा सशेबुः स्पृशेत स्ण्रोम
ग्र०. अ्रख्चत् भ्ररएक्ताम् अत्पक्षद म० अस्पत्ः श्रस्ृत्ञतमू श्रसरएच्त उ० अस्यक्षम् भ्रसज्ञाव धरक्षार
आशीलिंड,
लुद_
स्पश्यात्. खश्यारताम् स्पृश्यामुः.. प्र०. श्रस्पच्यत् श्रत्यचपतामू श्रत्मदारव् सश्याः
शाश्यास्तम स्पश्यास्त
स्पवासम् स्पश्यात्थ स्पृश्यात्म हे लिद्
म०
प्रस्पक्षः श्रस्पदयतम् श्रस्प्रदुयत
उ० श्रस्मद्मम् श्रस्मद्याव श्रस्प्रदयाग अथवा
परपश
पस्पशतुः
परइशुः
प्र०.
श्रसक्यत् भ्रस्पच्यताम् श्रपद्य न्
प्रस्सशिय
पस्पशथुः
पर्ट्श
म०
श्रस्पचयः
पत्पश
पस्पशिव
पस्पशिम.
उ०
श्रस्पक्षयम्श्रस्पदर्याव श्रश्तचर्याम
स्पर्श.
सप्रशरी
स्शरः
प्र०
.स्प्रशसि
स्रशस्थः
स्प्रश्स्थ
म०
स्परष्टास्मि स्परष्ास्वःः
स्पशस्मःस
उ«०
अ्रसपक्ष्यतर्म श्रसदयत
ख़ुद
( १३७ ) मं ( मरना )शात्सनेपदी प्रियते. प्रिय.
स्रिये.
सर
प्रिवेते..
प्लियेये..
प्रियावदे
प्रियन्ते प्रियष्वे
प्रियामदे.
लय
प्र०
मरिष्यति भरिष्यतः
म०
मरिष्यसि
उ०
मरिष्ययः
मण्प्यामि मरिष्यावः
मरिष्पन्ति मर्प्यिय
मरिष्यामः
क्रिया प्रकरण ( ठुदादि )
६8
लिय्
लड_ अप्रियत श्रम्मियेताम अग्नियन्त अप्रियथा श्रप्मियेयाम् श्रप्नियध्वम्
समार् ममय
मम्रतु मम्रथशु
मप्नु मप्र
श्रप्नियावहि अम्नियामहिं
ममार, ममर मम्रिव
मम्निम
लोद् प्रियताम् प्रियेताम् प्रियन्ताम् प्रियस्व प्रियेथाम्_ प्रियध्वम् प्रिये.. प्रियावहे प्रियामई विधिलिड_ प्रियेत .प्रियेयाताम् प्रियेरन प्रियेया प्रियेयाथाम् प्रियेप्वम प्रियेय. प्नियेवहि. प्रियेमहि श्राशीलिंड, मधीष् . मृपीयास्ताम् सपीरन् सपीष मषीयास्थाम् रपीदबस् सपीय सृपीवहि स्प्रीमद्दि.
चुद मतारोा.. मर्तास्थ मर्तास्व॒
मर्तार मर्तास्थ मर्तास्म
अप्लविये.
मर्ता मरतासि मर्तास्मि
छुड_
अमृत
अमृपाताम् अम्पत
अ्रमृथा
अमृपराथाम अम्ृदवम्
अमृषि
अ्रमृष्वहि
श्रसृष्महि
लुदद
अमरिष्यत् अ्मरिष्यताम् अमरिष्यन् अमरिष्य अमरिष्यतम् अमरिष्यत उ० अमरिष्यम् अमरिष्याव श्रमरिष्याम
( १३८ ) छत ( काटना ) परस्मैपदी लद
कन्तति
क्न्तत
कृम्तन्ति
[कविष्यति क्स्यंति आ० लिड_ इत्यात्
कतिग्यत कत्स्यंत इृत्यास्ताम्
कार्दिष्यन्ति कत्स्यन्ति क्त्यासु
लिय् चुद
चफत कातता
चकृततु कर्तितारौ
चकठु कर्तितार-
छुड_ लूढ,
श्र्क्तात् अऊर्विष्पत्
अऊर्तिशम् अफऊर्विष्यताम्
श्रकर्तिषु श्रकर्तिष्यन्
लटद्
ज्रुटति
चुटत
च्ुटन्ति
लय
बुदिष्पति
आर? लिड_ ्
जुस्वात् बु॒बीर
चुटिष्यत
चुटिष्यन्ति
लय
( १३६) जुद्(दृूट ज्ञाना ) परस्मैपदी
| ह॒ठुटिय तुपोट
चुस्यास्ताम्
चुस्यासु
चजुदचु खुबुट्यु
बुचुदठ डुजुट
च॒बुट्िवि
चुच्ुटिसि
३२०
बूहदू-अमुवाद-चन्द्रिका
लुद्
चुटिता
छुड_
अनुदीत् अच्चुटिशम् अब्लुद्पुः ( १४० ) मिल् (मिलना ) उसयपदी
लटदू (५०) (आ०)
मिलति मिलते
लूदू (५०)
मेलिप्यतः
(आ०) व
छ्दू छुड_
लूड_
चुुटितारः
मिलतः मिलेते
भेलिप्यते
आ* लि मिल्यात्् त्ियू
घुटितारौ
मिलन्ति मिलन्ते
भेलिप्यतः
मेलिष्यन्ति
मिल्यास्ताम्
मिल्यातुः
मैलिप्येते
मेलिष्पन्ते
मेलिपीए
मेलिपीयास्ताम्
मेलिपीरन्
मिमेल
मिमिलतुः
मिमिलुः
मिमिलथुः मिमिलिब मिमिलाते मिमिलाये मिम्रिलिवहे
मिमिल मिमिलिम मिमिलिरे मिमिलिष्दे मिमिल्लिमदे
अमेलिशम् अमेलिपाताम
श्रमेलिषुः अमेलिपत
मिमेलिय मिमेल मिमिले । प्रिमिलिये मिमिले
गेलिता
॥अभेलीत् श्रमेलिए
श्मेलिप्यत् श्रमेलिप्यत
मेलितारी
मेलितारः
श्रमेलिप्पताम अमेलिध्येताम्
श्रमेलिप्यन् श्रमेलिंप्यत
( १४१ ) लिख(लिखना )परस्मैपदी लद्
लिखति
लय लेखिप्यति आशीलिंडद, लिख्यात्
लियू छुड
लिखतः
लिखन्ति
लेखिप्यतः लिएयास्ताम्
लेजिष्यन्ति लिस्यासु)
लिलेख
लिलिखदुः
लिलिखुः
| लिलेखिय
लिलिखयुः
लिलिफ
लिलेख
लिलिज़िव
लिलिखिम
अलेखीत्
अतेवबिष्टम्
अलेखियु:
(१४२ ) लिप(लीपना ) उभयपदी लड़
(लिसवि
लिग्पतः
लिम्पेते
लिसन्ते
लुद
लेप्स्यति लेप्स्यते
लेप्स्यतः लैप्स्येते
लेष्स्यम्ति लेप्स्यन्ते
[लिसते
लिग्पन्ति
क्रिया-पक्स्ण ( ठुदादि )
आशीर्लिंड_ [लिप्यात् (लिप्ठीडट लिदू
.
लुद् लुड_
(लिलेप
श्श्१्
लिप्यास्ताम् लिप्ठीयास्वाम्
लिप्यामुः लिप्सोरन्
लिलिपतः
लिलिपररे
लिलिपुः
(लिलिपे
लिलिपाते लेपतारी
लेतार
अलिपत्
अलिपताम
अलिपन्
(अ्रलिपत (अलित
ऋलिपेताम् अलिप्सावाम्
अलिपन्च अलिप्सत
लता
( १४३ ) विश(घुसना ) परस्मैपदी लद्
दविशवति
विशतः
विशन्ति
लय आशीर्लिंड_ लिद् छुद् लए,
बेच्छति विश्वात् रिविश चेघ अविद्षत्
चेच्यतः विश्यास्ताम् विविशतुः चेशरी अविक्ञाताम्
देच्यन्ति विश्यालुः विविश्ुः वेशरः अविक्ष॒न्त
लूड्
अवेच्रत्
अवेज्ष्यवाम्
श्रवेद्ययन्
( १४४ ) सदू ( दुःखी होना ) परस्मैपदी लदू
रीदति
सीदवः
सीदन्ति
लूद्
सेत्स्वति
च्चेस्वतः
सेत्त्पन्ति
स्यास्ताम् सेदतुः
स्यास॒ुः सेदुः
आशीर्लिद_ स्यात् ससाद लिय् सेदिय
ससरत्य, सेदरयुः
रेद
हु:
ससाद, सखद अरुदत्
स्ेदिव असदताम्
सेदिम असदन्
लुड_
अउत्स्वत्
अरुत्त्ववाम्
अरूत्स्यन्
( १४५ ) सिच्(सींदना ) उभयपदी लद्
सिश्वति चिद्वते
लूट
सेज्यति
आशीलिंड,
सिद्वतः डि्वेते
सिद्ञन्ति सिद्न्ते
झेच्यतः
केच्यन्ति
क्त्क्लठे
हच्देते
रेक्ष्यन्ते
सिक्ीट
छित्लीयास्ताम्
सित्तीरन्
उिच्चात्
झिच्यास्ताम्
डिन्यामुः
श्श्र
लिय्
छुड
दृहदू-श्रनुवाद-चन्द्रिका
विषेच
सिपिचतुः
सिपेचिय सिपिचथुर सिपेच सिंपिचिव ठिपिचे सियिचाते असिचत् (अ्रसैक्षीत्) श्रतिचताम् अतिक ( अ्रसिचत ) असिलाताम्
सिपिचुः सिपिच सिपिचिम सिपिचिरे असिचन् अ्सिचघत
एए-६ १४७६ ) छज् (बनाना ) परस्मैपदी ५८ लद्
सजवि
खुजतः
ल््द
स्क्त्यत्ति
खद्दयतः
ख्जन्ति
सच्यन्ति
आ० लिए झज्यात् लिद् ससर्ज
रण्यास्ताभ् सखजतुः
सुज्यातः रुसजुः
बट घुड_
श्र अल्लाज्नीत्
सशरी श्रद्चाशम्
स्टार: अ्रलाक्ुः
लुड
अखच्यत्
अखच्थताश्
अखदर्पम्
( १४७ ) स्कुद(खुलना, फट जाना ) परस्मैपदी लर् स्फुटति लूट स्फुरिष्यति श्राशीलिंड_ स्फुय्धात्
स्फुटतः स्फुठिष्यतः स्कुब्यास्ताम्
स्फुयन्ति स्फुडिष्यन्ति स्फुब्यासु३
लिंद
पुशफोद पुष्फुटिय
पुस्फुटतु: पुस्कुय्थुः
पुछुदु पुस्फुट
चुद
स्फुटिता
छुड,
अस्फुटत् | अस्फुटीः अस्फुटिपम्
पुस्फोद
पुस्फुटिब
पुरफुटिम
स्कठितारी
स्फुटितार:
अस्फुटिष्टाम् ध्रस्फुटिप्ट्म् अस्फुटिप्व
अस्फुचिपुः श्रस्फुरिए अरस्कुटिष्म
( १४८ ) स्कुर्(कापना, चमकना ) परस्मैपदी लद स्फुरति ल्दू स्क्रिष्यति आशीलिंद, स्कुर्पात् लिटू पुस्फोर । पृत्फुरिय पुस्फार
चुद
स्कुरिता
स्फुरतः स्फुरिप्यवः स्फु्बास्ताम् पुस्फुलुः पुस्करवः पुस्फुरिब
स्फुरन्ति स्फुरिप्यम्ति स्फुबामुः चुरफुबः उच्फुर पुस्फुरिम
छुड
अशस्फुरीत्
श्रस्फुरिशम्
अस्फुरिपु:
स्फुरितारी
सफुरिवारः
क्रिया-ओकेरेण ( रुघादि )
इ्श्३
७-र्थादिगण इस गण की धातु रुघ से आरम्म होती हैं, अतः इस गण का नाम रुघादिगण पड़ा। इस गण में २५ धातुएँ हैं। घात॒ के प्रथम स्वर के बाद दस गण में श्नम् (नया ब) जोड़ा जाता है, यथा-छुद+विल्चछु+न+ दू+तिज ज्षुण +
दू+ति ८ छुणत्ति। छुद्+यात्८छु + न + द्+याव् ८ छुत्यात् ।
उभयपदी (१४६ ) रुध्(रोकना ) परस्मैपद ९... लय रुशद्वि रुशत्सि. रुशप्मि
झनन््दः रुनन््दः रुन््ध्च:
लिय् झन्धन्ति सन्द्ध झ्न्ध्मः
प्र* म० उ०
ररोध. रुरोधियथ रुरोध
रुच्चत: रुरंघधुः. रूरधिव
रुखघु३ रुरुघ रुझधिम
चुद
रोल्यति रोत्स्यतः रोत्यन्ति.
प्र० रोदा.
शोत्स्यति रोत्थथथः . रोस्स्यथ रोत्स्यामि रोस्स्यावः रोत्स्यामम. लड़ः
म० उ०
अदणत्
असल्दाम अ्रसधन्.
प्र० अरौत्सीत् अरौद्धाम
अरैत्सुः
अरुण:
अरुनदम्
म०
श्ररौद्ध
अख्णधम् असूष्य
अरुन्द
अरूल्ध्म.
इन्द्धामू रनद्मू. रुणधाव
रोद्धासि रोद्धाध्थः. रोद्धास्मि रोद्धास्वः छुड' श्ररौत्सी:
अरौद्म
उ० अरौस्सम् अरौत्व
लोय्
रुणदूधू. झन्द्धि रुणधानि
रोद्धारी. रोद्धारः रोद्धास्थ रोद्धास्मः
अरौत्स्म
अथवा
रुन्वन्तु रुनद रुणघाम
प्र« अरुषत् अरुषताम् मस० अ्ररुषध: अरुघतम् उ० अरुषम्ू अरुघाव
विधिलिड_
श्ररुधन् अदधत अ्रसुधाम
लूड,
सन्थ्यात् बव्नथयातास् सन््ध्युः. सन्ध्याः सन्थ्यातम् सन्थ्यात सनध्याम् इन््थ्यात रुन््ध्यास आशीलिंड
| ग्र० अरोत्खत् अरोत्स्यताम् अरोसयन् भ० अरोस्स्यः श्ररोत््यवम् श्ररोत्स्यत उ० शअ्ररोस्थम् अरोत्याव अरोत्याम
रुध्याव् झुष्यार
अध्यास्ताम्_ऋुष्यासुः रुध्यास्तम रुध्यास्त
अर म०
कध्यासम
दरुध्यात्त
उ०
च्य्यात्म
बूहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
डेर४
झ्म्दे स्न्त्से
रुध्(आवरस्स करना, रोकना )आत्मनेपद् आशीर्लिडू
ल्दु शनधाते.. सनधाथे..
स्न्चे
रन्ध्वहे
रोत्स्यते रोह्यसे ये
रोत्येते रीस्येये.
लुद्
झन््चते झुन्घ्वे
धर
इझत्तीए.
म०
झन्धाददे
छनग
इत्सीठ झत्सीय..
. रोस्स्यन्ते सेत्स्यन्वे
रोस्स्यायहे लड असरन्द्ध अरन्धाताम् अदनन््द्धा! श्ररुमग्धाथाम श्रस्न्ध्यहि.. अदन्धि लोड. रन्धाम् रुन््थाताम्
रोल्स्थामदे
अर मर
डु०
अरुन्धत श्रसस्थ्माहिं रसन््धताम्
स्न्त्व
सम्वाथाम
सुणपे
रुशधावई रुणधामहे विधिलिड,
सन्थ्वम् उ०
रुत्सीरन्
उुत्सीयास्थाम् रुत्सीष्वम रुत्सीवहि.. झत्सीमहि लियू रुूखघे. रुच्धाते. रुखपिरे झुधिपे.. रुरुभाये.. रुरुविष्वे झरूसममे . रुरुधिवदे. सुरधिमहे रोदा. रोदासे रोदाहे
झऋरून्ब्बस
रुत््तीयात्ताम
छुय्
रोडारो. रोदासाये. .रोद्धारवहे
रोद्धाएः रोदाष्वे रोद्धास््मददे ,
छुड,
अस्द
श्रर्त्ताताम् श्रस्त्सत
अरुद्धाः
अश्रस्त्ठाथाम् अरुद्ध्वम्
श्र्त्सि
श्रसत्सयद्ि लूड,
श्ररुत्मदि
रन्पीत रुम्धीयाताम् रुन््धीरन् प्र० श्ररोत्स्यत श्ररोत्स्येताम श्ररोत्स्यन्त सन्धीथाः सन््धीयाथाम् सन्थीष्यमू से* अरोध्थयाः भरोस्येयाम् अरोस्स्पष्वम् रुग्धीय
रग्धीबहि
रनधीमहि..
3०
अश्ररोत्ये
अरोत्स्यावहि श्ररोत्स्यामदि
उभयपदी ( १५० ) छिंद् (फाटना ) परस्मैपद् छिनचि
छिनत्मि छिनब्रि
छेल्स्यति छेत्स्पति
लट छिन्तः.. दिन्थ:.. छिन्दः.. लूद्
छिन्दन्ति. छिन्त्य छिन्माः
लोद् प्र० छिनत्ु. छिन्ताम छिरदन्तु म० छिन्द्ि छित्तमू. दित्त छ०« छिनदानि छिनदाव छिनदाम विधिलिड
छेल्यतः. छेतल्यथ:
छेत्स्यन्ति. . छेल्यय
प्र० ,छिन्यात् डिन्यावाम् छिन्धु: म० छिन्याः छिन्यातम हिन्यात
डिन्याम्_ छिन्वाव दिन्याम आशीर्शिड_ प्र छिदात्. छियास्वाम् छियामः दिद्यास्तम् छियास्त श्रच्छिनः/प्च्छिनत् श्रच्छिन्तम् श्रच्छिन्तम० दिया:
छेल्स्वामि छेतल्पावः
छेल्यामः
उल
लड़, अ्रच्छिनत् श्रच्छित्तामूं श्रच्छित्दन् श्रच्छिनदम् अच्छिन्द भ्रच्छिन्य
उ०
छिद्यारम् छिद्यास्व॒दिद्यास्म
क्रिया-प्रकरण ( रुघादि )
लिय्
श्र
अथवा ( छुद )
जिच्छेद चिब्छिदतः चिच्छिहः.
ग्र० अच्चैत्सीद् अच्छैत्ताम अच्छैत्स म०
अच्छैत्सीः
िच्छेद
उ०
अच्छैत्सम् अच्छैत्स
जिच्छेदिय चिच्छिदशुः चिच्छिद_
चिब्छिदिव चिल्छिदिम लुद्
अच्छैत्तम श्रच्छेत्त
अच्छैत्सम
छेत्ता छेत्तामि
छेत्तारा छेत्तास्यः
छेत्तारः छेत्तास्यथ
प्र०_ अरच्छेत्स्यत् श्रच्छेत्स्यताम् श्रब्छेत्स्यन् म० अच्छेत्स्पः श्रच्छेच्स्यतम् अच्छेत्स्वत
छेनास्मि
छेतास्वः
छेत्तास्मः
उ०
लुड_
अ्रच्छिदत् अच्छिंदताम् श्रच्छिदन,. अच्छिदः
अच्छेत्स्यम् अ्च्छेत््याव अ्च्छेस्थाम
प्रे०
श्रच्छिदतम अच्छिदत . म०
अच्छिद्म अब्छिदाव श्रच्छिदाम
उ०
छिद् ( काटना ) भात्मनेपदी लट्
आशीर्लिंड,
हिन्ते. छिनन््दाते .छिन्दते छिन्से . छिन्दाये. छिन्घ्वे
प्र० भ०
छित्सीष्ट छित्सोयास्ताम् छित्सीरन् हछित्सीष्ठाः छित्सोीयास्थाम् छित्सीध्यम्
छिन्दे.
उ०
छिंत्सीय
छेत्स्पते
छिन्द्रदे. हिन्द्दे लय छेत्ययेते . छेल््पन्ते.
छेत्स्यसे
छेत्स्येये.
छेत्स्पध्वे..
म०
चिब्छिदिषे चिब्छिदाये चिब्छिदिएंे
छेत््यामदे._
उ०
चिब्छिदे चिच्छिदिवदे चिब्छिदिम
छेत्स्ये . छेत्स्थावदे
छित्सीवहि. छित्सीमहि लिद् प्र० चिब्छिदे चिब्छिदाते चिन्छिदिरे
लड _
श्रच्छिन्त॒अरच्छिन्दाताम् अच्छिन्दत प्र० छेत्ता श्रच्छिन्त्पा.अच्छिन्दायाम्रच्छिन्द्ष्वम्म० छेत्तास. अच्छिन्दि अच्छिन्द्रहि अ्रच्छिन्यदि उ० छेत्तादे. लोट्
छिन्ताम् छिन्दाताम् छिन्दताम् छिन्त्व
छिन्दायाम् छिन्दघ्वम
छिनदै.
छिनदावहे छिनदामहे
छिन्दीत
विधिलिड छिन्दीयाताम् छिन्दीरन
हिन्दीयाः छिन्दीयायाम् छिन्दीष्वम् छिन्दीय हिन्दीवदि छिन्दीमदि
प्र० म० उ० च्र० मन उ०
लय
छेत्तारा छेत्तायाये छेचास्वदे
छेत्तारः छेत्ताध्वे छेत्तास्महे
छुझ अ्रच्छित्त ्रच्छित्साताम् श्रच्छित्तत अच्छित्या:श्रच्छित्सा याम्अच्छिद्ध्वर अच्छित्ति भ्रच्छित्य्वहि श्रच्छित्स्महि
अच्छेत्स्यत श्रच्छेत्स्वेताम् अच्छेत्स्यनर अच्छेत्स्थयाःश्रच्छेत्येयाम् श्रच्छेत्स्प८ अच्छेस्स्े श्रच्छेत्स्पावहि श्रच्छेत्त्पाम
शरद
बूहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
( १५१) भञ्ञ_( वोइना)परसौपदी मनक्ति
लद् भइक्तः
भज्ञन्ति
अर
भज्यात्
आशीलिद भ्यास्ताम् भज्यामुः
मज्याप्षम् भज्यास््त
भनक्ति
मइक्थः
मदक्य
मे०
भज्याः
मनज्मि
भज्ज्बः
मडज्मः
उ०
अज्यासम् भम्यास्थ
लदू
भद क्षति भंद दधतन भड जझ्वन्ति भडह क्यसि भड च्यथः भइ क्ष्यय मद दपरामि मइ चुंयावः सड क्ष्याम: लड_
अ्रभनक् अमनछ
श्रभइक्ताम् श्रमश्जन्ू श्रशक्तम् श्रमश्क
अमनजम् अभवश्जय
प्र* म० उ०
प्र० म०
वभज्ञ बभन्ञतु: बमझुः बभज्ञिय, वमडक्थ वभन्ञघु) बमझ बमज्ञ बमझिव बमक्लिम छुदू
भमदक्ता भड्तारो भदक्तारः भडक्ताति भड ताध्यः भाईकार्य
अमज्ज्म
छ०
भड क्तार्मिभट क्तास्षः मडक्तास्म: का
भज्नन्तु भडक्त
प्र० श्रमाउ क्षीत्श्रमाइ काम श्रभाद छ। म० श्चभाद क्षोः श्रमाह कम श्रमाद.
लोद् भनक्त. भदइगि
भडक्ताम भइक्तम
छुड,
भनजानि भनजाब भसनजाम विधिलिद भज्जार् भज्म्यावाम् भच्ज्युः मज्ज्याः मब्ज्यातमू मज्ज्यात
उ०
अच्ज्याम्
उ०
मश्ज्याब
मज्यास्म
लिद्
मच्ज्याम
श्रमाइ ज्षमू अमाड कुव श्रमाडदम लूड_् प्र*. श्रभडज्ष्यत् थ्रमद क्यत,म् श्रमद दान् म० अभड,ध्यः श्रमड चूउतम् श्रम, दंपत श्रभड इयम् श्रमद दयावश्रमइ दयोम
उमयपदी ५ (१०२ )भुज्(पालन करना, खाना , परस्मैपद् मनक्ति अनज्ति अनस्मि
लद् भुइकाः भुश्जन्वि भुडक्यः भुडक्य
लोट् प्र« भुनकतु ध्ुक्ताम म० भुदर्षि भुदक्तम
भुज्ण्यर मुच्ज्म+ लूथ् भंद्यतः मोद्पन्ति मोद्ययः मोचपंप भोदयावः मोध््यामः
उ०
भुश्नस्तु भुझ्क्त
प्र० में? छउ०
भुनजानि भुनजाव भुनजाम विधिलिड भुज्ज्यात ग्ुज्ज्गताम भरु्न्युः मुज्ज्या: मुज्ण्यातम् मुम्ज्यात भुज्ज्याम् भुज्याव भुम्ज्याम
अभुनक् श्रठ्ठट काम अमुश्नन्
प्र०
भुम्यातू
प्रमुनकू श्रश्भदुक्रम अमुईक् अभुनजम श्रम॒ुन्ण्य श्रमुज्ज्
मण० उ०
मुज्या। मज्यात्तमू मम्यात्त भुज्यारुम् भुम्यास्थ मुग्पात्म
भऔद्यति भोद्यतसि मोदयामि
लड़
आशेोलिट, भुज्यास्ताम् भुग्यासः
३२७
फ्रिया-प्रकरण ( रघादि ) लिय् बुमोज. बुमुजठः. बुभोजिय बुभुजथुः. बचुमोज. बुठ्ुजिब
बुभुजुः बुचुज बुमुजिम
प्र० म० उ०
भोक्तारा
मोक्ताःः
प्र० अमोद्ष्यव् अ्रभोक्ष्यताम् श्रभोक्ष्यन्
मोक्तास््थ भोक्तास्मः
म० उ०
लद्
मोक्ता
मोक्तासि भोक्तास््यः भोक्ताक्षि भोक्तास्घः
श्रमौक्तीत् अभौक्ताम अमौक्तीः अभोक्तम श्रमौच्म् श्रमौद
ल्ड्
अभौछ श्रमौक्त श्रभौदम
अभोक्ष्यः अमोक्ष्यतम् अभोक्ष्यत अभोक्ष्यम् अ्रमोक्ष्याव श्रमोक्ष्याम
भुज् (पालन करना, खाना ) आत्मनेपद्
पशीरलिंड,
लदय्
भ्रुडक्ते भुज्ञाते सुडले
भुज्ले. मोध्यते मोक््यसे.
भज्ञते सुइख्वे
भुज्ाये.
भुख्मदे.
भुख्यदे लय
भोध््यन्ते. मोक्ष्यध्वे
भोक््येते भोक्येये.
प्र० भुक्ती.्ट..
म०
उ०
भुक्षीष्झाः
भ्रुद्दीय
प्र० बुछुजे म० बुभुजिपे
भुछीयाघ्ताम् मुक्तीरन्
भुक्ीयास्थाम् भुक्तीष्यम
भुक्षीवदि
भुक्ञीमहि
लिट्
वुसुजाते बुभुजाये
बुअजिरे बुमुजिध्वे
उ०
बुमुजे
प्र०
भोक्ता
ल्ुद् भोत्तारा
अभुड क्या: श्रभुझ्ञाथाम् अभुदरध्वम्ू म०
भीक्तासे
भोक्तासाथे
भोक्ताघ्वे
अभुज्ञि.
उ०
भोक्तादे
भोक्तास्ददे
मोक्तास्मदे
प्र०
अरभुक्त
अभुक्ताताम् अमुक्षत
मोक्वे.
भोध्यावद्दे भोक्ष्यामहे_
लड_ अमुड कत श्रभुज्ञाताम् श्रमुज्ञत
अभुज्प्यद्दि श्रभुज्ज्यहि
लोद्
मुढक्ताम् भुज्नाताम्
भुझताम्.
बुभुनिवदे बुसुजिमहे भोक्तारः
छुड्
म०
अभुक्थाः श्रभुक्षाथाम् अमुग्ध्वम
उछ०
श्रभुक्षि
भुन्नीत
भुनजावहैं मुनजामहे विधिलिड, भुज्ञीयाताम् भुज्नीरनू
प्र०
अभुक्षद्दि श्रभुक्ष्महि लूब् अमोदयत अभोक्ष्यताम् अ्रभोक्ष्यन्त
भुद्जीय..
भुझ्लोवहि
भुझ्लीमहि._
उ०
श्रभोक्ये.
अडक्व
भुनजैे
भुज्ञाथाम्
भुडग््प्मू
अद्जीयाः भुछ्कीयाथाम् भुज्ञीघ्वम्_
म०
अ्रभोदययाः श्रमोक्ष्येयाम श्रभोक्ष्यप्वम
श्रमोक्यावहि श्रमोक्ष्यामहि
उभयपदी (१४३) युज ( मिलाना, लगना ) परस्मैपद ुनक्ति
युनचि
ुनज्मि
शुइक्तः
युझ्चन्ति
सुब्ज्य
मुब्ज्मः
सुडक््मः
युडक्थ
प्र०_ योक्ष्यति
लू
योक्ष्यकः . योक्ष्यन्ति
म० योध््यसि योक्ययः
उ० योक्ष्यामि योक््यावः
योव्यथ
योध्ष्यामः
श्श्८
इहदू-अनुवाद-चन्द्रिफा लड_
लि
अगुनक् श्रयुंढक्ताम् अयुजन् अयुनक् शअ्रयुड क्तम् अ्युडक्त
प्र» म०
थुयोज युवोजिय
दुयुजवः सुयुजघुः
युवुज्ञा युयुज
अयुनणम् अयुब्ज्य॒ श्युन्म्म श्ोद्
०
युयोज
युयुजिब छ्ुट्
युयुजिम
युनक्तु
झुडक्ताम् युझधन्तु
प्र० योक्ता
योक्तारी
योक्तारः
युड॒ग्धि
युदक्तम
युइक्त
म०
योक्तासि
योक्तास््थः
योक्तास््ष्
युनजानि
शुनजाव
युनजाम
छ०
योक्तामि
योक्तास््तः
योक्षात्मः
विधिलिड _
लुद्द
युब्ज्यात् झुम्ण्याताम् युख्ज्यु+
प्र श्रयौद्ीव् श्रयोक्ताम शगीक्ठः
युब्ज्याः सुख्ज्यातम् युज्ज्यात युझ्ज्याम युह्ज्याम् युब्ज्याब
म० उ०
श्रयौक्तीः अयौकम् श्यौक्त श्योदम अयौक्षम् श्रयौदद..
स॒ज्यास्ताम् युज्यामुः
प्र०
श्रयोक्ष्यत् श्रयोक्यतास् श्रयोधयन्
युज्याः युज्यास्तम् युज्यात्त गुज्यासम् युज्यास्थ युज्यात्त
म० उ०
श्रयोक्षय ,श्रयोक्यतम् श्रयोध्यत अयोध्पम् श्रयोदपराव झ्रयोक्षयाम
आराशीर्लिंड_ थुज्यात्
लूछः
युज् ( मिलमा, लगना ) आत्मनेपद युदते
लद् युज्जाते युझते
युद्ते
युज्ञाये
युझे.
युख्ज्यदें. लूदू
सुडख्वे.
युख्मदे
प्र०
म०
उ०
युज्ञीत
विधिलिड_ युख्रीयाताम् युश्नौरन्
युश्लीय
सुझीवदि
युक्नीयाः युझ्ीयाधाम् युझ्ीष्वम
योदयते
योध्येते.
योदयन्ते.
ग्र०
यु्ीए
सोदयसे
योवयेये.
योक्ष्यप्वे
म०
सुक्नीहझाः
योइयामदहे
उ०
योध्यावदे लब, प्र श्रयुदक्त श्रयुज्ञाताम् अयुक्त अयुरूक्या:अ्युझ्धाम श्रयुरूर्प्वम म० उ० श्रयुक्नि. श्रयुन्म्वदि श्रयु्मददि गोक्ये
लोद्
सुददक्ताम युज्ञाताम
युन्नीमदि
श्राशीलिंड_
युज्ञताम
युडइंच. युक्ञाषाम् युदउप्वम युनशावहै युनणामहे “घुनमी.
सुश्गीय
मुयुजे युवुज्िपे युवुजे
पग्र*० योक्ता
म॑० 3«
योक्तासे भ्रोक्तादे
युत्तीयास्ताम् युक्तीरन् युतक्तीयाध्याम् युक्तीध्वम
युक्ीष्वद्दि सुच्ीष्महि लिद् युयुजिरे युयुजाते अुयुनिष्ये बुयुजये झुयुजिवदे झुयुजिमदे झुद
योकारी
योक्ताः
याक्ताताये योक्ताष्ये योक्तात्वद योक्तास्महे-
रर अयुक्त. आथुक्था: अयुत्ति
क्रिया-प्रकरण ( तनादि ) खंड
अयुत्ञाताम् अश्रयुद्धत अयुक्यायाम् अयुस्घम अ्रयुक्थदि अयुद्मद्धि
प्र०. म० उ०
झ्श्छ लूड
अबोक्ष्यत अयोक्ष्येताम् अयोच्यन्त अयोच्षथाः अयोक्ष्येयाम् अयोह्यध्यम् अयोक्ष्ये अयोक्ष्पावहि अयोध्यामहि
८-तनादिगण इस गण की प्रथम घातु “तन” है, अतः इसका नाम तनादिगण पड़ा। तनादिगश में १० घातुएँ हैं |तमादिगण की घातुओं में लट ,लोट ,लद थ्रौर विधिलिंड' मे धातु और प्रत्तय के बीच में उ जोड़ दिया जाता है, (तनादिकृतम्य उः ), यथा--तन्+उ+ते रूतन॒ते ।
उभयपदी (१५४ ) तन्(फैलाना ) परस्मैपद् लद् अआशीलिंड' सनोति
तनुतः
तन्वन्ति
प्र० तन््यात्.
तनोषि तनोमि
तनुथः तनुव॒:-न्यः
तनुय ततुम/न््मः
मं० उ०
तन्याः. वन्यास्तम् तन्याठमू तन्यास्य
तनिष्यन्ति. तनिष्यथ
प्र«_ म०
ततान तेनिथ
तनिष्यामि तनिष्वावः तनिष्याम: जड़.
उ०
ततान, ततनतेनिवु घट
लु्द्ू
तनिष्यति तनिष्यतः तनिष्यसि तनिष्यथः
अतनोत् झतनोीः
अतनुताम् श्रतनुतम्
अतनवम् श्रतनुव-न्ध अतनुम-न््म लोट् बी तनोत तन॒ुताम् तन्वस्तु
उ०
तनु तनवानि
तनुतम् तनुत तनवाव तनवाम विधिलिड_ तनुयाताम् तनुयुः
म० उ०
तनुयात्
अ्रतन्वन् अतनुत
पग्र० म०
अ्र०
तन््वास्ताम् तन्यासु+ लिद्
तनिता तनितासि
चेनवुः तेनथु:
तनितारी तनितास्थः
तन्यास्त तन्यास््म तेनुः तेन
तेनिम तनितार$ तनितास्थ
तनितास्मि तनितास्वः तनितास्मः छुडः>> अ्वानीद् अवानिशम अदानिषुः
अतानीः अतानिष्टखू अतानिष्ट अतानिपम् श्रवानिष्॒ अतानिष्म लूड_ प्र« अतनिष्पत् अतनिष्यताम् अ्रतनिष्यन्
ततुयाः
तजुयातभ् तनुयात -
मे०
नुयाम्
तंनुयाव
उ० अतनिष्यम् श्रतनिष्याव अतनिष्याम
तनुयाम
अवतनिष्यः अतनिष्यतम् अतनिष्यत
हे३०
बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
तम् ( विस्तार करना, फैलाना ) आत्मनेपद्
लद् तनुते. तनुपे.. तन््दे.
तन्वाते. नन्चाये. तनुवहे-न्वद्दे लूट तनिष्यते तनिष्येते जनिष्यसे तनिष्येये.
तनिष्ये.
आशोलिड्
सनन््दते प्र० तनुष्चे म० तमुमहे-न्मददे उ०
दनिषीष्ट तनियीयास्ताम तमिषीरत् समिषीष्ठाः तनिषोयास्याम् तनिषीष्वम् तनिपीय सतनिपीवद्दि तनिषीमरहि लिद् श्र० पेने तेमाते. तैनिरे म० तेनिपे. तेनाये. तेनिष्वे
तनिष्वन्ते. तनिष्यध्वे..
तनिष्पावहे तनिष्यामहे
उ०
तेने
तेनिवहे.
ल्रछअतनुत अतनुथाः
तेनिमददे
लुद
अ्रतन्बाताम् श्रतन्बत श्रतन्वाथाम् अतनुष्यम्
प्र« मभ०
तनिता तनितासे
अतत्वि अ्रतनुवहि-न्वहि अतनुमदि-न्मद्दि उन तनिताहे
लोद्
सनितारी. दनितार+ तानितासाये तनिताश्बे
तनितास्वदे तबिदास्तहें
छुड
सनुताम
तन््वाताम्
उन््बताम्
प्र» अवनिष्ट, अ्रठत अवनिषाताम् श्रवनिषत
सनुप्व॑
तन्वायाम््
तनुध्वम््
म& बतनिषछा,थ्रतथा:अतनिपायामग्रतनिष्व्म॑
तनदे...
तनवांवहे तनवामदे.
उ० अतनिधि
अतनिश्बदि श्रतनिर्ष्मईई
विधिलिड_ लूड_ तन्वीत तम्वीयाताम् ठम्बीरनू प्र० श्रतनिप्यत अतनिष्येताम् ध्रतनिष्यन्त तन््वीथाःः तन्वीयायाम तन््वीश्वम स० श्रतनिष्यथास्थ्रतनिष्येषामदतनिष्यणम सन््यीय. तस्वीवहिः तम्बीमहि. 3० अश्रतनिष्ये अ्तनिष्योवर्दि
उभयपदी (१०५५)रू (करना)परस्तीपद करोंति. फरोपि
करोमि.
लर
लोदू
,
कुस्दः . कुब॑न्वि
श्र०. करोत..
कुदताम..
कुषन्ये
कुमप:
म०
कुस्तम
कुरत
झकुर्बाः
कुदथ
कुमः
कुद
उ«० बयरवाणि करबाव
ल्द्
करिव्यति करिव्यत। करिष्यसि करिप्ययः
विधिलिद
करिब्यन्ति करिष्यय..
फरिप्यामि करिप्यावः फरिष्याम:
श्र० म०
कुर्याव्. कुर्यावाम कछुर्याः . कुर्यातम्
उछ० कुर्याम
लड_
रे
छुयति
ग्राथीतिंद_
शरकरोत्
श्रकुरुतामस् अकुबन्
अकरोः
अकुदतम्
अकसर अकुर्व
कुर्बाव
करवाम
कुसु$ कुर्यात
श्रकुदव
अकुम
ग्र०
कियात्.
कियास्ताम्
म०
किया;
क्रियास्तम
छ० डियातम् कियात्व
क्रियामुः
क्रियास््त
नियास््म
रेरे१
क्रिया-प्रकरण ( तनादि )
सिर चकार
चक्रतु+
चकर्थ..
चक्रचुः...
धकार,
चफर चकूब
लुश् आअऊार्पोत् अकाष्टाम्
प्र०
क्र
म०
श्रका्ँ:
श्रकाष्टमू
अका्ड
च्कूस
उ०
अकापम्
शअ्रकाष्व
अ्रकाष्म
छुट्
कुर्ता कर्तासि कर्तास्म
न
चक्रुः
अकाएः
लूड
कर्तारी... कर्तार) प्र०. अकरिष्यत् अकरिष्यताम् अ्रकरिष्यन् कर्तास््थ:.. कर्तास्थ म० अकरिष्यः अकरिष्यतम अकरिष्यत कर्तात्व४ फर्तास्मः उ० अकरिष्यम् श्रकरिष्याव श्रकरिष्याम कु ( करना ) आत्मनेपद
कुसते.
लू कुवति..
कुब॑ते
प्र०: कृपीश्ट..
आ्राशोलिंद् कृषीयास्ताम् इषीरन्
कुस्पे.
कुबधि.
कुरुध्वे
म०
कृषीयास्थाम् कृपीदवम
कुबें
कुबहे.
लू
कुमदे
उ०
कऋरिष्यते करिष्येते करिष्पन्ते. करिष्यसे फरिष्येथे करिष्यध्वे करिष्ये.. करिष्यावद्दे करिष्यामद्दे
कृपीष्ठाः
इृपीय
प्र०* चक्रे. म० चकृपे उठ० चढक्रे
लड्
करने
कझृषीमदि
चक्राते. बक्राये चकुबहे.
चक्रिरे चकृदते चरुगहे
लिद् लुदू
अफऊुझत अ्रकुर्बाताम् अ्कुबंत अकुर्थाः श्रकुर्वाधाम् श्रकुरुष्वमू अकुर्वि अकुवदि अकुर्मदि ऋुरताम कुरुष्ष..
कृपीवद्दि
लोद् कुर्वाताम् कुवताम् कुर्वाथाम, कुरुष्वम्
करवावद करवामहे विधिलिक् कुर्बीतव. कुर्बोयाताम् कुर्बोरन् ऋुर्वाया: बुर्नोषाधाम् कुर्वीप्वमू_ झुदीय. कुबाँददि कुर्दीमदि.
प्र० कर्ता फर्तारोी. म० कक््तसे . फ़र्तासाये.. उ० करते कर्तास्वदे प्र० मे॑०
श्रकृत अआहकृयराः
उ०
अकृषि
फर्ताए कर्ताष्वे .कर्तास्मदे
खुड श्रकृपाताम् श्रकृपत अकृपाथाम् अकृदवम
अ्रकृष्वहि अक्ृष्मदि लूड् प्र० अकरिष्यत श्रकरिष्येताम् भ्रकरिष्यन्त म० अकरिप्यथा/अकरिण्येथाम् अकरिष्यष्यम् छु० अकरिष्ये अकरिष्याददि शअकरिष्या्ाहि
६४-ऋषादिगण इस गुण की प्रथम घातु “क्रो” है, अतः इसका नाम क्रषादिगण पडढ़ा। इस
शण में ६१ घातुएँदँ |इस गण की धातुओं के लय ,लोट, लड_ और विधिलिड,
में धाव और प्रत्यय के बीच में श्ना (ना) जोड़ दिया जात्म है, (कऋषादिम्य भा) |
इ्श्र
बृददू-अनुवाद-चन्द्रिका
कहाँ यह प्रत्यय नी हो जाता है और कहीं ना, न । धाठ की उपधा में यदि खन्म्अथवा अनुस्वार हो तो उसका लोप द्ोता है | ब्यजनान्त घातुश्रों केबाद लोट के म० पु० एक वचन में (हि! प्रत्यय के स्थान में आन होता हे, (हल; #; शानब्को), यपा-पह्+हि #एहूई॑थ्ाव ८राण |
उभयषदी (१५६ ) क्री ( मोललेना ) परस्ीपद् थ्राशोलिंड
क्ीणाति क्रीशीतः क्रीणम्ति क्रीयासि क्रौणीथ: .क्रीणीय क्रीणामि ऋणीवः क्रोणीमः छ्दु क्रेष्यति. क्रेष्यताः.. क्रेष्यन्ति
क्रेष्यसि क्रेष्यय: . क्रेष्यय ्रेष्यामि क्रेप्यावः क्रेष्या/..
प्र«*. कीयात. छ्ीयास्ताम कीयासुर मं० मीया। क्रीयास्तम् क्रीयासत उ० क्रीयासम् क्लीयास्व क्रीयात्म लिद् प्र चिक्राय सिक्रियठः चिकरियुः
मे» सिक्रबिथ, चिक्रेय चिक्रियथु३ चिक्रिय उ० चिक्राय, चिक्रय चिक्रियिव चिक्रिपिम
लड् छुद् अक्रीशात् श्रक्नीणीताम् श्रकरीशन,. प्र० क्रेता... क्रेतारी.. अक्रीणाः श्रक्रीणीतम् अक्रीणीत. म० क्रेतासि क्रेतास्थ:.. अक्रीणाप्र अ्रत्नीणीव अक्रीणीम._ उ० क्रेतास्मि क्रेतात्वः. लोद्
केतारः क्रेतास्थ क्रेतास्मः
छ्द्
क्योणातु क्ीणीताम तीणन्तु प्रीणोडि क्रीणीतम कीशीत क्रीणानि क्रीणशाव. क्रीणाम
प्र*» श्रम्रपीद अ्रफ्रैशय म० अनैषो! पअ्रक्रैष्म. उ० अफ्रैपस प्रक्रैष्व.
अ््रोपुः श्रक्रे् श्रक्रैष्म
विधिलिड ल्द् फ्रीणीयात् कीणीयाताम् क्रीशीय;. प्र० अ्रक्रेष्यत्: श्रक्रेप्यताम् भ्रकेप्यन
क्रीणीयाः क्लीणीयातम् क्रीणीयात
म० अ्रक्रेप्पः
क्रीणीयाम छीणीयाब क्रीणीयाम
उ०
क्रीणीते फ्री्णपे कीणे. फ्रेंपपते. मेप्यसे
फेप्ये..
लद् क्रीयाते क्रीणायें.. शोणीददे न्त्ट््् प्रेंब्येये.. फरेप्येये.
क्रेघ्याददि
अ्रक्रेप्मतम अक्रेप्यत
श्रक्रेप्पम् अक्रेप्याव
की ( मोल लेना ) आत्मनेपद
क्रीणते क्रोणीप्वे.. क्रीशीमहे. क्रेप्यन्ते क्रेष्यघ्वे
क्रेप्पामदे।
अर म० उ० अ० म०
.श्रक्रेप्याम
लद् श्रक्रीणीव श्क्रीणाताम् अ्रक्रीणत अ्रक्रीणोयाः श्रकीणायाम् श्रकीणीप्वम् पग्रक्रीणि श्रक्रोणोवदि 'अ्रकीशणीमहि को कौणीताम क्रीयाताम् क्रीणवाम् कोर्णाप्व क्रीयायाम ओीर्ाप्म
उ० कौ
फ्रीणावहे
झ्रौणामद
क्रिया-प्रकरण (क्रयादि ) विधिलिड् ऋीणीत क्रीरीयाताम् क्रीणीरनू. प्र० कोझीयाः क्रीणीयाथाम् क्रीशीष्वम् म० उ० क्रोयीय क्रीणीवढ़ि क्रीणीमहि. आशीर्लिद क्रेपीयास्ताम् क्रेपीरन् ग्र० क्रेपीए क्रेपीछा: क्रेपीयास्थाम क्रेपीद्यम... मै० मेपीवहि. क्रेपीमद्ि उ० कपय लिद् चिक्यि
केता. क्रेतासे. क्रेतादे. अक्रेट्ट. अक्रेघाः अक्रेपि ध
चिक्रियाते चिक्रियिरे.
चिक्रितिपे चिक्रियाये चिक्रिय्रिध्वे. चिक्रियियद्े चिक्रियिमदे चिक्रिये
प्र० अक्रेष्व
श्रे३ छुद् क्तारी. क्रेतासाये. क्रेतास्वदे छुडः अक्रेपाताम् अक्रेपाथाम् अक्रेष्वहि
क्रेतार क्रताध्वे .प्रेतास्महे श्रक्रेपत अकेदब्म अफेप्महि
लूड
अनष्येताम अनेष्यन्त
म०
अ्रक्रप्यथाः अ्रक्रेष्येधाम अग्ेष्पव्वम्
उ०
अ्रक्रेष्ये.
अरक्रेष्यावि श्रक्रेष्यामदि
उभयपदी (१५७ ) ग्रह (पकड़ना, लेना ) परस्मैपद
, चद्
आशीरलिंड'
गह्भाति
गृहीत-
श्हन्ति
प्र०
ग्रह्मात्ू
ग्रह्यास्तामू
ण्यासुः
गह्ाति गह्वामि
गहीथ..
ग्रह्दीय
म०
णशब्याः
गह्मास्तम
ख्ास्त
गरीब:
ग्रद्ीम:
छ०
ग्रद्यासम
शहात्व
गद्यास्म
ल्ल्ट्
अद्वोष्पति ग्रद्वष्पतः अद्वीप्यसि प्रद्मीष्षष:. अद्यष्यामि अद्वीष्याव:
ग्रह्मीष्यन्ति.
प्र० जग्राइ
ग्रद्यीष्ययष अद्दीष्पाम:
स० उ०
जग्रहिथ जणहधु+. छजग्राह-जग्रह जगहिव
प्र०
ग्रदीताी
म०
अद्दीतासि अद्यीतास्थः अह्ीतास्थ
उ०
अहोतास्मि अद्दीतास्वः अद्वीतास्मः
डे
अगहाव्
प्रस््वीतीम् अण्हन्
अग्टटा, अग्द्वीतीप अगण्डीत अग्रह्लाम् अपफडीव अग्ह्ीम लोट् झहादु
गद्यण
कहीदाण, णहोतम्
गहाय विधिलिडद श्डीयात् गह्ीयाताम् गहीयाः शहीयातम् गड्ीयाम् गह्ीयाव गह्ठानि
लियू
बहन्ठ
चुद
ग्रद्दतारी
जयह जगहिम ग्रह्मतारः
छुझ
प्र० अग्रद्दीतू अग्रदीश्म अग्रहीयुः
गरह्ीत
म०
गह्ठाम
उ०
ण्ह्वीयुः ग्रह्ीयात ग्रद्दीयाम.
जगहतु, . जरहुः
अग्रही:
अग्रदोष्टभू
अग्रद्दी्
अग्रद्दीपम् अग्रद्वीप्व अम्रद्दीष्म लूढः म० अग्रद्ेष्यत् अग्रदीष्यताम अ्ग्रद्दीष्यन् म० अग्रद्मष्यः अग्रद्दष्यतम् अग्रद्मीष्यत उ० अग्रद्दीष्यम् अग्रद्वीष्याव अग्रह्दीष्याम
रैरे४
इहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
प्रहू(पकड़ना, लेना ) आत्ममेपद
गहीते
लद् गरद्धाता. णहवते
शह्ीपे.
शरहसे
यहीवहे. लय प्रद्यीष्ते अद्दीष्येते गहीष्यसे ग्रद्दीष्येये ग्रहीष्ये. अह्ष्यावहे णद्
रशीष्वे
म० अहीपीझः अहीपीयास्थाम ग्रहीपीघश *
गहीमहे.
3०
अह्दीष्यन्चे.. अद्ीष्पप्वे.. अह्दीष्पामहे
प्र० जगहे.. म० जगहिये. उ*» जयहे..
गज.
ग्रहपीय
श्रग्ह्कीत अ्रण्द्धाताम अगहृत
प्र* अह्दीता
अग्ब्दीयाः अ्ण्क्षाथाम् श्रगह्मीष्मम्.
म०
ब्रणद्धि
अग्रीबहि श्रणहीमदि लाटू
गह्नीताम् ग्रद्धाताम ध्व
ग्रद्दताम
ग़ह्याथाम्ूयृद्वीप्ममू
गहाबरदें
ग्रह्ामहै.
गद्दीतासे
प्रद्वीतारो
ग्रद्नतारक्ः
अद्दीतासाथे प्रद्दैताष्वे
घुद
प्र० अग्रहीष्ट अग्रह्ीपाताम अग्रद्दीगत म«०
श्रप्रह्ीणः३ अग्रहीषाथाम् अ्ग्रद्दीघम्
उ० अग्रद्दीपि अप्रहीष्वहि श्र्रहष्मदि लूड्
ग्रह्दीत. शद्दीयाताम् ग्ह्ीस्म् ग्रह्यीयाः गह्ोयाथाम् यह्दीग्वम् गह्लीवदि
अहीपीवदि. अदीपीमदि लिद् जणहाते .णगहिंरे जग्हाथे.. जणदिष्वे जशहिवहे जशशिमहे झट
गद्ीवादे अहीवास्वहे ग्रद्वीवात्महे
उ०
विधिलिड गह्दीय..
-
श्राशीरलिंद_ प्र७ ग्रह्ीपीष्ट ग्रहीपीयास्ताम् ग्रहीपीरन्
गह्ीमहि
प्र० अम्रदष्यत '्रप्रदीष्येताम श्रग्रद्नीप्यन्त स० श्रप्रहमष्ययास्थप्रद्ष्येयाम अम्रहष्पष्यपभ् ०
अग्रद्दीष्ये श्रग्रद्वीष्यावहि श्रप्रहीष्यामदि
उभयपदी
(१०८ )श्ञा (जानना ) परस्मैपद ५८८“
ग
जानाति
लट् जानीत। . जानन्ति
प्र« जानाद
जानासि
जानीथ;
जानीय
म०
जानीहि.
जानामि
णानीवः: जामीमः_ ल्ल्द्
उ०
जानानि
प्र० म० 3०
जानीयात् जानीयाताम् जानीयुः जानीयाः जानीयातम् जामीयात छानीयाम् जानीयाव जानीयाम
छास्पति ज्ञास्यतः. ज्ञास्यसि ज्ञास्यथ।.. शास्यामि छास््वात्रः.
शास्पन्ति. ज्ञास््यक शास्वामः
लोद् जानीताम जानस्ु
जानीतम्
जानीत
जानाव जानाम « विधिलिदश
लद श्राशीर्लिंद अजानाह अजानीगाम् श्रणनवन् प्र* कछ्षेयात् शेयास्ताम शैेयासुः अजानाः श्रजानीतम् श्रजानीव. मं शेयाः . शेयास्तम शेयारत आअजानाम श्जानीव अ्रजानीम उ« शेयाठम् शेयास््त्र. शेयास्म
क्रिया-पकरण (ऋषथादि )
लिय्
जजुः जरू जजििम
जशतुः जौ जरिय, जज्ञाय जज्ञयुः जशिव जज्ौ
छुद्
३३५४
खुू
प्र० अ्रश्ासीत् अज्ञासिशम् अजासिषुः म० अज्ञासीः अशासिष्टम् अज्ञासिष्ट उ० अशासिपम् अश्ञासिष्व अज्ञासिष्म
ल््ड्
ज्ञाता
शातारी
शातारः
प्र०
अज्ञास्यत् अज्ञास्यताम् अशास्यन्
ज्ञातासि
ज्ञातास्थः
शतास्थ
ज्ञातात्मि
ज्ञातास्त्रः
शातास्मः
म० उ*०
अज्ञास्यःः अज्ञास्यम्
अशास्यतम् अज्ञास्यत अज्ञास्याव अज्ञास्याम
ज्ञा (जानना ) आत्मनेपद
लद् जानीते
जानाते
जानीपे
जानाये.
आशीर्लिंद .जानते जानीष्वे
प्र० म०
जाने.
जानीवहे जानीमदे. उ० लू शास्यते शास्येते. ज्ञास्सन्ते. प्र० शास्पसे शास्येथे. ज्ञास्यध्वे.. म० शास्ये .शास्यावदे शास्थामहे. उ० लद अजानीत श्रजानाताम् भ्रजानत. ग्र० अजानीयथाः श्रजानाथाम् अ्रजानीष्वम् म० अश्रजानि श्रजानीवद्दि अजानीमहि उ०
ज्ञासीष्ट.
शासीयास्ताम् शासीरन्
ज्ञासीष्ठाः
ज्ञासीयास्थाम् शासीध्वम्
ज्ञासीय_
शासीवदि लिय् जताते. जजाये. जसिंत्रहे. चुद छशातारी. ज्ञाताराये. शातास्वद्दे
जे जज्षिपे. जे छावा ज्ञातासे. ज्ञाताईे.
लोद्
शासीमहि जशिरे जरखिष्वे जशिमदे शातारः ज्ञाताध्वे ज्ञातास्महे
छुडू
जानीताम् जानाताम् जानताम् जानीष्व जानाथाम् जानीष्वमू
प्र० श्रक्ञास्त अज्ञासताम् अ्ज्ञासत म० अशास्थाः श्रशासायाम् अक्ञाध्वम्
जाने
उ०
जानावदे
विधिलिड
जानामहै
अशासि
अश्रज्ञास्यहि
लूड
श्रशास्मदि
जानीत जानीयाताम् जानीरन् प्र० अज्ञास्यत अशास्वेताम् अज्ञास्यन्त जानीथाः जानीयायाम् जानीष्वम् म* अज्ञास्ययाः अशास्वेयाम् श्रतास्पध्वम्
जानीय
जानीवहि
जानीसहि
उ०
शज्ञास्थे
अज्ञास्यावहि श्रशास्या्माहे
( १५६ ) बन्य्(बॉधना ) परस्मेपदी बन्नाति बन्नासि बन्नामि
लय
बन्नीतः. बन्नोच:.. बचन्चोवः.
बचन्नन्ति बन्नीथ बचन्नीमः
प्र०. म० उ०
ल्द
भन्त्स्पति भन्त्स्यतः . भन्त्स्यन्ति मन्त्यसि भन्त्यथः भन्त्यथ भमन्त्स्यामि मन्त्यावः भन्त््पामः
बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
र्ेश३
लड़
शवप्नात् श्रवभीताम् श्वम्नन अबना: श्रबप्नीतम् अ्रवश्नीत.. श्रवाम् अवध्तीव भ्रवध्तीम
लोद्
किद्
प्र० बवन्ध बबन्धतुः . बचसुः स० बबन्पिय,ववन्ध वचन्धशुः बबनन््ध ड्० बवन्ध॒ वबन्धिव बबन्धिम
चज्नातु बधान
बप्तीतामू वप्ीतम्
वप्नन्तु बन्नीत
प्र म०
अज्नानि
भन्नाव॑
चन्नाम
छ०
विविलिडू अप्तीयात् बन्नीयावाम् बच्ोंयु
यपभीयाः दश्तीयातम अशीयाम् बप्लीयाव आशीलिंश वध्यात् बध्यास्ताम बध्याः बध्यास्तम् वध्याप्म् वध्यास्थ
लय
वन्तीयात. बश्लीयाम बध्यासुः बध्यात्त.. बच्यास््म
चुद
बन्धा
बन्चारों.
बन्चारः
बन्धासि चन्धारिम
बन्पास्थः. बन््धोध्तःः
बन्धाहय वन्वात्मः
झुड्
प्र० अभान्त्सीत अवान्दाम् श्रमान्सुः भे० अ्भान्सीः अ्याग्दम् शयान्द
3० प्र० भ॑० उ०
अभान्त्ठम् अभानत्व
शअ्मभान्त्म
द््ड्
अभनत्त्यत् श्रमन्तत्यताम् श्रभन्त्त्पन् अभनन्तत्य; अ्रभन्त्यतम अभसन्त्स्यम् अ्रभनन््तस्यातव
पभनन्नत्यत श्रभन्सध्याम
(१६० ) मन्थ्(सयना ) परस्मेपदी पिधिलिड,
प्र० मभीयात् मभीयाताम मझ्नीयु मप्रीयात्तण मप्रीपार्त मण अग्जीयाः अभामि भप्नीवा मपीमः ० मश्मीयाम् मक्लीयाव भप्मीयाम श्राशीरलिद् ल्द् मन्पिष्यति मन्पिप्यतः मन्यिष्यन्ति. प्र अथ्यात् मध्यास्ताम मध्यामुः मस्यास्वम मथ्यास्त भन्थिष्य्धि भन्थिष्यं: मन्थिष्यथ भे० मथ्याः मष्यास्म मन्थिप्यामि मन्थिप्याव: मन्यिष्यामः 3९ मस्यासम् मध्यास्त्र लिट् लंड ममन्थुः ममनन््य समन्यवुः अमआात् श्रमझोताम् अमझन् पर मसमनन््यथ धमगा;. श्रमस्ीतम् अमभोत सर मसमन्यिय ममन्यधुः अमपगक््माम् श्रमभीव अमझोम॑ 8* समन्ध . समन्यिव ममन्यिम छुय् लोद् मझात, म्रीगत् मझीतास सशझन्तु प्र मन्पिता मन्पितारी मन्यितारः मयान भप्मीतम् मझ्रीत म० मन्थितासि मन्यितारंपः मन्यितात्य मझ्ाति
मभीतः .. अप्नन्ति
मशझासि
मशीया
मझ्मानि
मप्लाब
मंभीष
सभाम॑
ड्ध्०
मन्धितास्मि मन्थितास्व£ मन्यितारम३ ,
क्रिया प्रकरण ( चुरादि ) जुट
अमन्थीत् अमन्थिष्टाम अमन्यियु४ अमनन््धथीः अमन्थिष्टम् श्रमन्यिषष्ट.. अमन्थिपम् अ्मन्यिष्व अमन्थिष्म
३३७ लड़
ग्र० अमन्थिप्यत् अ्रमन्थिष्यताम् अमन्थिष्यन् म० अमन्थिप्यः अमन्थिप्यताम अ्रमन्थिष्यत उ० अमन्यिप्यम अ्रमन्थिष्याथ अ्मन्यिष्याम
१०-चुरादिगण इस गण की प्रथम घातु “चुर” है, अतः इसका नाम घुरादिगण पढ़ा ) इस गण में ४११ घावुण है । इस गण में घातु और प्रत्यय के बीच में श्रय् (णिच् ) जोड़ दिया जाता है तथा उपधा के हस्व स्वर (अर को छोड़कर ) गुण हो घाता है। और यदि उपधा मे ऐसा श्र हो जिसके बाद रुयुक्ताक्षर न हो तो उसफो और अन्तिम रुपर्
को ब्रद्धि हो जाती है, यथा-चुर +श्रव् +ति>-चोर्यति ] तड़् + अ्रय+तिऊ ठाउयति। आऊारान्त घाठुश्रों में आ के बाद प् और लग जाता है |
उभयपदी (१६१ ) चुर् (चुराना )परक्मौपद ९५८८7 लट् चोस्यति चोस्यतः चोरयन्ति. घोर्यसि चोरयथः चोरयथ
प्र० म०
चोसयेत् चोरयेः
चोरपामि
उ०
चोस्वेयम् चोस्येव.
चोरबायः
चोरबामः
ल््दू चोरयिष्यति चोरविष्यतः चोरिष्यन्ति प्र०
चोरयात्
पद
विधिलिड_ चोस्वेदाम् चोस्थेयु: चोस्थेतम् चोस्थेत चोरयेम
आशीलिंड, चोर्यास्ताम चोर्यासुः
चोरिष्यठ्धि चोरविष्यथः चोरविष्यय, म० चोया, . चोरयास्वम् चोर्यास्त
चोरपिष्यामि चोरपिष्यावः चोरविष्याम: उ० चोर्यासम चोर्यात्व चोयस्मि लड़, लियू अचोरयत् अचोरयताम् श्रचोरयन् अचोरया अचोस्पतम् श्रचोर्यव अचोरयत्् अ्चोरवाव श्रचोरयाम
लोड
ग्र० चोरयाद्वकार चोरयाअक्त॒/्चोरयाअक् म्र० चोरबाश्वकर्भ चोरवाश्नष्ठः चोरयाशक्र उ७» चोरयाश्वकार चोरयाश्चक॒ब चोरयाश्द्रम
लुद्
चोरवव
चोरयताम्र् चोरवन्चु
चशोसय
प्र०
चोरवतम्
मे» चोरविवासि चोरबितास्थः चोरयितास्थ
चोरपाणि चोरयाव
चोरयव चोर्याम_
उ०
चोरबिता
चोरबित्रो चोरबितारः
चोरबिगस्मि चोरविताख चोरप्ितास्म
इश८
बहदू-अनुवाद-चन्द्रिकां
छुल् अचूच॑प्त् अचूजुस्ताम् अधचूचुस्त् अचूधुरः श्रचूचुरतम् भ्रचूचुरत अचूचुरम् श्रचूचुराब अ्रचूचुराम
ल््द्ू प्र० श्रचोरविभ्यतञ्नचोरयिष्यतामअचोरविष्यनू म० अचोरबिष्यः्म्रवोरयिष्यतमश्रचोरमिष्यत ऊ० श्रचोरिष्यमथ्चोरविष्यावश्रचीरपिष्याम
(१६२ ) चुर(चुराना ) आत्मनेपद् लद् चोरपते शोरयसे चोरये
चोरयेते. घोरयेये. चोरयावहे
आशीर्लिड_ चोरपत्ते. चोस्पष्चे... चोरयामहे
ग्र० चोरयिषीष्ट चोरगिषीयात्ताम चोरयिपीरन म* प्वोरयिपीश्षा/्बोरयिषरीयास्थाम लोरयिपीध्दवे उ० चोरयिषीय चौरमिप्रीवहि चौरपिपीमहि
लूद्
लिदू
चोरमिष्यते 'दोरयिप्येते चोरयिष्यन्ते प्र० चोर्वाश्क्ते वोरयायक्ताते चोसयाश्यक्तिरे शोरयिष्यसे चोरपिष्येथे चोरयिष्यध्वे म० चोरपाशऊुपे चोरयाशक्राये चोरयाश्वक्ददे चोरगिष्ये चोरगिष्यायड्टे चोरपिष्यामहे उ० चोरयाश्चक चोरवाशकृवहे चोरपायक्रमई लक,
छुद
अचोरयत अचोसयेताम् श्रचोस्यन्त॒ म०
चोरगरिता चोरयितारों *चौरबितारः
अ्रचोरपयाध्थ्चोरवेथाम् श्रचोरदष्वम्ू भ०
चोरशितासे चोरबितासये चोरयिताध्वे
अ्रचोरये अचोस्यावहि श्रचोस्यामद्दि उ० लोद्
चोरबिताद चोरपितासवदे चोरमिताध्मदे छघुद
खोरयताम् चीरयेतामू
अचूचुरत श्रचूचरेताम् श्रचूचुरन्त
चोरयस्व
चोस्पे
चीरवन्ताम_
चोरयेयाम् चोर्गप्यपू
चोसपापदे चोरपामहै
प्र०
म० अचूबुरथाः अचूचुरेयाप अचूचुरध्यम्
उ० अचूचुरे अ्चूधुग्दि अ्रचुचु॒रामदि
पिधिलिड_ लूढ_ घोरपेत चोरवेयाताम चोरयेरन् प्र०थ्रचोरयिष्यत श्रचोरविष्येताम श्रचोरयिष्यन्त भोरयेधाः चोरयेयाथार चोसयेष्वम्मण्श्रचोरविष्यथा/श्रचोरपिष्येयाम् श्रयोरसिष्यध्व मू चोरयेय चोस्येवह चोरमरेमहि उ०श्रचोरविष्ये थ्रचोरयिष्यावद्दि श्रचीरविष्यामम्रि
छउम्रयपदी (१६३ ) चिन्तू (सोचना ) परस्मैपद् सद्
लुद
िन्तयति चिल्तयतः
निम्तयन्ति
अ०» चिन्तपिष्यति चिन्तपिष्यत्तः चिम्तपिष्यन्ति
विल्तपति विन्वयथा
चिन्तयथ.
भे० लिन्तयिष्यसि चिस्तगरिष्यथः चिन्तयिध्यथ
चिन्तयामि विम्तवावः चिन्तवामः .उ० चिन्तविष्यामिचिन्तपिध्यावःचिन्तयिष्यामः
कियाअकरण (चुरादि )
रैरेदे
ले लियट लड़ अखिन्तयत् श्रचिन्तवताम् अ्रचिस्तयन् प्रण्यिन्तयाग्कारचिन्तयाअक्रतु-चिन्तयायबुः आअतिन्तयः अरविन्तवतम् श्रचिन्तयत झचिन्तयम् अचिन्तवाव अचिन्तयाम लोद्
चिन्तयत
चिन्तयताम् चिन्तयन्त.
म०वचिन्तयागऊर्थ चिन्तयाश्क्रशु चिन्तयाशक उ०चिन्तयाश्वकारचिन्तवाश्वकृव चिन्तवाअक्म छुदू
स० चिन्तयिता
चिन्तवितारी चित्तवितारः
चिन्तयतम् चिन्तमत . म० चिन्तयितास्ति विन्तयितास्थः विन्तमितास्थ विल्तय 3० चिन्तयितास्मिचिन्तयितास्व/विन्तयितास्म चिम्तयानि चिस्तयाव चिन्तयाम छुड_ विधिलिड प्र० अचखिचिन्तत्थ्विचिन्तताम् अ्चिचिन्तन . चिल्तयेत् चिम्तयेठाम् चिन्तयेयु: म० श्रविचिन्त-अ्रचिचिन्ततम् अचिचिन्तद चिन्तये:; चिम्तयेतम् चिन्तयेत..
लिम्तयेपम् चित्दयेव. चिन्तयेम. आशीलिंद[ चिन्यात् चिल््यास््ताम् चिन्त्यासुः सित्याः.
उ० श्रचिचिन्तमझचिचिन्ताव अधिचिन्ताम लुड_ प्र०भ्रचिन्तयिष्यतुझचिन्तमिष्यवामअचिन्तविष्यत्
सिन््त्याश्तम् चिल्याउ्त मण्थ्रचिन्तयिष्यः श्रचित्तयिष्यतम् ग्चित्तयिष्यतत
चिस््यासम् विन्त्याश्य चिन्तास्म उश्भ्रचिस्तविष्यम्रश्नचिन्तयिष्याव अ्चिस्तमरिष्वास
बिन्त्(सोचना ) आत्मनेपद् लद् चिन्तयते
चिम्तयेते
विधिलिड, चिन्तयन्ते.
विन्तयसे चिन्तयेथे चिस्तयप्वे.. चिन्दये. वचिन्तयावदे चिन्तयामदे ल्ष्दू
प्र०.
चिन्तयेत
चिन्तयेयाताम चिन्तयेरन्
म० उ०
चिन्तयेथाः चिन्तयेयायाम् चिस्तयेध्वम चिन्तयेय चिन्तयेवद्धि). चिन्तयेमहि. आशीर्लिड_
चिन्तयिष्यतेचिन्तयिष्येतेचिन्तयिष्यन्ते प्र०चिन्तयिषीष्टचिन्तयिपीयास्ताम चिन्तयिपीरत् विस्तविध्यसेचिन्तयिध्येयेचिन्तयिष्यध्ये म०चिस्तथ्रिपीछाःवचिन्तयिषीयास्यामूधिन्तयिपो
चिन्तपिष्येचिन्तयिष्यावदे चिन्तमिष्यामद्ेउ *विन्तविधीय विन्तयिष्रीवहि चिस्तविधीसहि लड. लिय् अचिन्तयत अ्रचिन्तयेतामग्रचिन्तयन्त प्र०्चिन्तयाश्क्ेचिन्तयाश्काते विन्तयाश्करिरे अचिन्तयथा-श्रचिन्तयेयाम्अचित्तयप्वमूम ०चिन्तयाश्वक्षपे चिन्तया श्चकायेचिन्तयाश्वक्ृभ्ये
अचिन्तयेशचिन्तयावहिअ्चिन्तयामदि उ«चित्तयाश्वक्ली लोट्
«
हहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
३४०
छुड. लू अचिचिन्ततश्न चिचिन्तेतामग्रचिचिन्तन्त प्र०श्रचिन्तविष्यतश्रचिन्तविष्येताम् अचिंन्तयिष्यन्त अखिचितेथाःक्रचिचितेयामअचिजिंतष्वमूम ०अचितमिष्यथा/अलितयिप्येथाम्अचित यिष्यप्वम्
अचिचिंतेश्रचिसितावहिआ्नचिचितामदि उन्श्रचिंतयिष्ये अखितयिष्यावद्दि भ्रज्रितविष्यामहि
हि
उमयपदी
४
(१६३ ) भक्त(खाना ) परस्मेपद लदू थ्ाशीर्लिंए भत्यति
भक्षयतः
भक्षयति भक्षयथः भक्षयामि अक्षयायः
भक्षयन्ति
प्र०
भक्षयय भक्षयामः
मे० भक््याः भक्त्यास्तम भष्यास्त उ० अक्ष्यास्म् भक्त्यात्व भदुयार्म लिटू
लू
भक्तयात्
भच्यास्तामु भक््याहः
भक्तयिष्यति मक्तयिष्यतः भक्तपिष्यन्ति
प्र
भक्ष॒विष्यसि भक्तुविष्यथ; भक्षविष्यथ
स०
भक्षयाघ्कर्थ भक्षयाधकशुः भक्तयाश्नक्र
भक्षमिष्यामि भक्ञ॒विष्यावः मक्ञगिष्यामः लड् अमछयत् श्रभक्षयताम् श्रभक्षयन् श्रभक्षयः अ्रभक्षयतम् श्रभक्षयत अमच्तयम् अ्मज्षयाव श्रमत्ुयाम लोदू भक्षयद भछयताम् भक्तयन्तु भक्षय भक्षयतम भक्षयत भच्तवाणि भतयाव भक्षयाम
छ०
मत्॒याश्वकार मक्षुयाश्च॑कुव भक्तष॒पाअ्ृकुम
प्रण
भक्षयिता
म०
भतज्तयितासि भ्तविताष्ष्पः भक्षवितास्यः
ड्०
मत्तयितारिम भक्तयेठास्व: मक्षपितास्म
भक्षयेत भक्तयेः
विधिलिंद[ भंक्षयेताम भक्षयेयुः मक्षेयेतम मक्तयेत
भक्षयेयम् सक्येव...
भक्येम...
मक्त॒याश्षकार भक्षयानकतुः मभक्तयाश्वकु
घुद्
भक्त॑यितारी भक्तयितारः चुड
प्र० श्रबभक्षत् श्रवमज्ताम श्रवमक्षन् म० श्रवमक्तः श्रवमचतम् श्रबभक्षत उ० अ्वमक्म् श्रवमक्षात्र श्रवमत्ञाम लय प्र० अ्रमतषयिष्यतूश्नमक्तयिष्यतामअमज्ञयिष्यन् म० अमत्तयिष्यः थ्रमतयिष्यतम् श्रमत्तयिप्यत
3» अ्रमछपिष्यमत्रमरयिष्याव श्रमक्यिध्याम
भक्त(खाना ) आत्मनेपद भछपते
लू भरयेते.
भछयन्ते.
उ०
भत्तविष्यते मछपिष्येते महयिष्यस्ते
हु
महयेथे.
मत्यघ्वे..
प्र०
महयिष्यसे भक्तयिष्येथे मत्तविष्यप्वे
ल्ड्
भर
अज््यावदे
मछयामदे
मं॑० मजलगिष्ये मत्न्रिध्यारों महयिष्यामदे
४१
क्रिपा-प्रकर्ण ( छुरादि )
लियद् प्र* मक्याश्नके भक्षयाशकाते भक्तयाशवक्तिरे भछ्याश्नक्रपेमदयाअकायेमक॒याशकदवे अमदयथा: अ्रमक्षयेयाम् अमकझ्षयध्यम स० अभक्षये. श्रमक््यावद्दि अभक्षयामहि उ० भह्याशक्रेमदयाश्क्ृपहेमच्याश्कृमदे लुद लोद् अचछ्यताम् भच्तवेताम्ू मक्त॒यन्ताम् प्र० मछविता मरबितारी भक्षत्रिततारः भक्षयस्थ भक्तयेधाम् मद्धयध्वम् म० भक्तयितासे भक्तवितासाये भक्षगिताध्वे भक्तये.. भद्यावहे भक्षयामहै उ० महयितादे भक्तयितास्वदे भक्षगितास्महे विधिलिड[ चुद
लड अमक्षयत अमभक्षयेताम् अमत्यन्त
मक्षेयेय
भदयेवाताम् भच्येर्च्.
प्र०
अयिक्िरत
अवभन्षताम्
अवभनह्षन्त
मक्षेयेथाः भक्षयेयाभाम् मरेयेप्पम्. म० अबमक्षथा, अ्रबमक्षेथाम् अबमक्षष्पम् मछयेय भर्वेवदि भर्येम्ि. 3० अवभक्ते श्रवभक्षावहि श्रवभन्नामहि आशलिंद ल्यूड् मछ्तृयिषीष्ट भक्तयिपीयाध्दाम मछयिषीरत् प्र्अमक्षमिष्यत श्रमक्षविष्येताम अमज्यिष्यन्त म ास्याममत्ञविपीष्वम् “्अ्रमक्षमिष्ययाश्य मज्ञमिष्येयाम्ग्रभक्ृविष्यणम् मछ्षयिषीष्ाभक्तगिषीय भद्चगिपीय भक्तयिषीवददि मक्तयिपीमहि उ०श्रभक्षृथिष्येअमक्ततिष्यावहिअ्रमक्षृयिष्पामदि
उभयपदी (१६४ ) कथ्(कहना ) परस्मेपदी ५... लद
क्थयति कथयतः . कथयन्ति.. क्रथयति कथयथः कथबथ कथयामि कययावः कयथग्याम्ाः.
लृद््
विधिलिड_ प्रे० कुथयेत्ू. कथयेताम् कथयेयुः म० क्थयेः .कथयेतमू कपयेत कृथयेम उछ॒० कम्येपम् फपपेव.
आशीर्लिंड_
कृथयिष्पति कथयिष्यतः कथपिष्यन्ति प्र० कंध्यात् कथ्यास्ताम कथ्यासुः क्थ्यासत्तम् कबष्यात्त क्रययिष्यसि कथयिष्यथः कथव्िप्येय. म० कथ्पाः कध्यास्म कथपिष्यामि कथयिष्याव: कथमरिष्याम: उ० कश्यासम् कबथ्योस्व लद लिद्
अकगयत् अकथयताम् अकथयन्.
प्र० कथयाशकारकपयाशकत॒ः कथयाशरू्:
अकपयाः
अकथयत्तम्
श्रहु॒ुथयत
म०
कथपयाश्वचकथ कथयद्चाकणशु) कययाश्वक
कथयानि
कृपयाव
कृययाम.
उ०
कथवितास्मि कथबितालः कर्थायतारमः
ल्अकथयम् अकथयाव अकथयाम उ० कथयाश्चकार कपयाश्कृष कथयाश्कृम लोड > चुद छथयतु कथयताम् कथयन्तु अर कथविता फथयितारी फ्थाप्रतारः कृथय कथयतम् कथयत से कथयितासि कथयितास्थः कथरथितास्थ
डर
बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
छुड झचकथत् अचकंथताम् अ्रचकथन् अंचकथा
अचक्रपतम् अचकथत
श्रचक्रथम अचकंधाव
अचकथाम
लड़ प्र० अकृथयिष्यतृश्रकथविष्यतामगकथनिष्यन् म०
अकथयिष्यःग्रकथयिष्यतम् ग्रकथयिष्यद
उ० अ्रकृथयिष्यम्श्रकथिष्याव श्रकथविष्याम
कथू(कहना )आत्मनेपद् लद् कथयते. कथयसे. ऋषये..
आशीर्लिंड्
कपयन्ते कंथयेते. कंग्येये.. कथयघ्वे कययाबद्दे कथयामदे लद्
'कयविष्यते कथमिष्येते कथयिष्यन्ते क्षमिप्यसे कथविष्येये कथविष्यश्वे
प्र० कथयिषीष्ट कथयिषीयास्ताम् कथविपीरन म० कथविषीष्ठाःकथविषीयास्थामकथविपी घ्यम् 3० कथविषीय कथ्विषीवह्दि कथमिपरीमहि लिय्
ग्र० कथयाश्क्र कथयाश्कातेकथयाशक्रिरे म० कथयाश्नकृप्ेकययाश्क्राये कथयाश्वकदवे
कृषपिष्ये कथयिष्यावद्दे कथविष्यामदे उ०
कथयाश्वक्र कथयाग्रकवदे कथयाश्वकृमहे
लद
छुद्
खकषयत अ्क्येताम् अ्रकथयन्त आकरथयथा। भ्रकययेयाम् श्रक्रययध्वमू अकषये अर यह
प्र० कथयिता कथयितारौ कयवितारः म० फ्थयितासे कथयरितासाथे कथमिताष्वे 3० कथवितादे कयवितास्परदे कथवितास्मदे
कषयवाम्, फधयेताम कथयन्ताम्.
प्र० अ्रचक्थत श्रचकयेताम श्रचकपन्त
कप...
3०
कऋषयस्व
कंय्येयाम कथयध्वम
कथयावददे विधिलिड कऋथयेत. कंथयेयाताम् क्षय्रेयाः कथयेयायाम् क्थयेप. कंषयेवदिं
फ्रथयामदे.
लुट्ट्
म० श्रवकथथा/श्रचकयेषाम् अ्चउुयष्वम्
श्रचकये श्रचकथावहि अचफथामदि लद्टू ययिष्येताम् अकथपिष्यन्त कथयेरन्. प्रंशश्रकथपिष्यतश्रक फथमेध्वम भश्थ्रकथविष्यथा:द्रकथिष्येयामअ्रक थयिष्यघ्वम् कथयेमदि उ०्थश्रकथयिष्ये श्रकथथिष्यावहिश्रकथिष्यामदि
उमयपदी ( १६५ ) गण ( गिनना ) ( गण! घादु भी अकारान्त है औ्रौर इसके रूप 'किय! के समान ही चलते हैं,
इसलिए नीचे इस धात॒ुके केवल अर० पु० एक वचन के रूप दिये जाते हैं) लघ--गणयति (प० ), गणयते (श्रा०)। लूद-गणगरिप्यति (१० ), गणयिष्यते ( श्रा० )। लद--अ्रगणयत् (प० ), श्रगणयंत ( आर० )। लोट-गशणवठ ( १० ), गणयताम् (आ०)। विधिलिड--गणयेन् (५०), गशयेत
(थ्रा० )। आशोर्टिडगणयात् (५० ), गणविषीश/ ( आ० )। लिट--गणयाश्व-
क्रिया-प्रकरण (कर्मवाच्य-माववान्य)
श्ड३े
कार,--म्बमूव,--मास (प० ) शणयाश्क्र ,-म्बमूवे,--मास ( आ० )। लुख-
जणदितासि (१०--म« पु०), गणयितासे (श्रा०--म० पु०)। लुइ-अजीगणत् अथवा अ्रजगणत् ( ५० ) ग्रजीगणत अथवा अजगणत ( श्रा० पिव्यत् ( प० ), अगणयिष्यद (आ० )
)। लूद--अगण-
कर्मवाच्य एवं भाववाच्य उस्टटत में वाच्य तीन हैं-करतृवाच्य, कमंवाच्य और माववाच्य | सकमंक घाहझों के रूप दोबाच्यों मे होते हैं--कतवाच्य में तथा कमेवाच्य में और झकर्मक घातुओं के रूप भी दो वाच्यों में होते हैं--कतृवाच्य में ओर भाववाच्य में | १, करृवाच्य में कर्चा मुख्य होता है और क्रिया कर्ता के अनुसार चलती है,
कर्चा मे प्रथमा और कम मैं द्वितीया होती है, जैसा कि पीछे बतलाया जा चुका है | २(क ) कसवाच्य मे कम मुख्य होता है और कम के अनुसारही क्रिया का पुरुष, वचन ऋर लिग होता है। कमवाच्य मे कर्ता में ठृतीया, कर्म में प्रथमा और
किया कर्म के अनुसार होती है। (एप) माववाच्य में कर्चा में ठृठीया (कर्म नहीं होता )और क्रिया में प्रथम पृरुष का एक बचने ही होता है )
क्मवाच्य एवं भाववाच्य के रूप बनाते समय निम्नलिखित नियमों पर ध्यान देना चाहिए-३--करमबच्य और माववास्य में सावंधातुर लझारों (लट, लोट, लछ और
विधिलिड_में ) (घात और प्रत्मय के बीच में )'? लगा दिया जाता है (साबेधातुके यक् )और घातु का रूप रुदा आत्मनेपद ही में चलता है। लूट में या नहीं लगाया जाता ! लट्मे घाठ में 'वः लगाकर उसके रूप 'जायते! की भाँति
चलेंगे। लूद्में'त्वते' या इध्यते' लगेगा।
२--घाह॒ में यह (य ) के पूर्वकोई परिवतन नहीं होता, यथा--मभिदु+य+ ते मियते कर्मबाच्य में सावंधातुक लकारों (लद्,लोट् श्रादि ) मैं घातुओं के स्थान में धात्वादेश (जैसे यम् का गच्छ ) नहीं होता तथा गुण और इद्धि नहीं होती (
३--दा, दे, दो, था, थे, मा, पा, हवा, ये,सो घातुओं का अन्विम स्वर ई में बदल जाता है, यया--दीयते, घोयते, मोयते, पीयते, होवते, ग्रीयते, सीयते और अन्य धातुओं में नहों ददलता है, यया-मूयते, मायते, स्नायते, ध्यायते | अमेक
धातुओं के बीच का अतुस्वार कमंवाच्य में निकाल दिया जावा है, यया-वन्प्+बध्यते, इन्घू-इघ्यते, शस--शस्वते।
श्ड४ड
बूहदू-अ्रनुवाद-चन्द्रिका
-स्वयस्त धाठुओं केतथा ग्रह ,इश् ,इन् धातुओ्नों के दोनों भविष्य (छुट लूद ) क्रियातिपत्ति ( लृढ ) तथा श्राशीरलिंद में घाद के स्वर का वृद्धि करके तथा
प्रत्ययों के पूथ इ जोड़कर वैकल्पिक रूप बनते हैं, यया-दा से दाता--दाविता,
दास्पते-दाभिष्यते । अदास्यत--अदायिष्यत | दासीए--दायिपीश !
प्र--अन््य छुः लकारों मैं कमंवाच्य एवं माववाच्य में कर्तृंवाच्य के हो समान स्प होते हैं, वा परोच् भूत में-जशे, बमूवे, निन्ये, श्रथवा श्र था क पातु फे रूप जोड़कर कययामासे, ईत्ायक आदि।
मुख्य धातुओं के कर्मवाच्य एवं भाववाच्य के रूप-पठ्(पढ़ना ) कर्मवाच्य लट् लव लड
एकबचन पत्यते पठिप्वते अझ्रपख्यत
द्विवचन पठ्येते पढिए्येते अपव्येताम्
बहुवंचन पठ्यन्ते पठिष्पन्ते अपखब्त पट्वेरन् पठिपीरन्
लोट
पठ्यताम्
पद्ेताम्
विधिलिझ. शाशीलिंड
पद्येत पढिपीश
पव्वेयाताम् पडिपीयास्ताम्
लिदू छुद
| पढिवां
पेठाते
पठ्यन्ताम्
पेठिरे
पठितारौ
पठितार:
पठितासे
पठिताणायें
पठिताध्वे
छुद्
पठितादे अ्रपादि
प्रठिवास्वहे अपाठिपाताम्
पढितार्मद्दै श्रपाठिपत
ल्र्द्
श्रपटिध्यत
श्रपठिष्येताम्
अपटिष्यन्त
मुच् (छोड़ना ) लटद
मुच्यते
मुच्येते
मुच्यम्ते
लूद्ू
मोच्चते
मोस्येते
मोद्धयन्ते
लद् लोद्
झमुच्यत मुच्यताम्
अमुच्येवाम् मुच्चेताम्
श्रमुच्यत्त मच्यन्ताम्
विधिलि/ आशीर्लिझ
मुच्येत मुन्नी८
मुच्येयाताम्र् मुक्नीयास्ताम
मुच्येरन् मुन्नी रन्
लिद्
मुम्नचे
म॒मुचाते
मुमुचिरे
मुमुचिये
मुमुचाये
मुठुचिघ्वे
छुद्
मुमुचे मोक्ता
मुमुविवदे मोक्तारी
मुमुचिमददे मोक्तारः
श्रे छुड
लूद
इधर
क्रिया-प्रकरण ( कमवाच्य-भावबाच्य ) | अमोचि
अमुत्ताताम्
अमुक्तत
अमुक्थाः अमुचि
अमुच्तायाम् अमुच्चहि
अमुरब्वम् अमुच्मद्दि
अमोइयत
अमोक्ष्येटम्
अमोच्पन्त
पा ( पीना ) कमेवाच्य लट
पीयदे | पोयसे
पीयेते पीयेचे
पोयन्ते प्रीयब्वे
पीयावहे पास््येते
पोयामदे पास्यन्ते
लय
पास्वते
लद
अपीयवत । अपोयया: अपीये । पीपताम्
अपीयेताम् अपीवेथाम् अपीयावहि पबिताम्
अपीयन्त अपीयध्यम् अर्प.यामहि पीयन्ताम्
पीयत्व पीये
पीयेयाम् पीयावहै
पीयध्वम्् पीयामहे
पीयेत | पीयेथा:
पोयेयाताम् पोयेयाथाम्
पोयेरन् पीयेध्वम्
पीयेप पासीषठ प्पे [ प्पि पपे पाग
पीयेवहि पाठीयास्ताम् पपाते पपाये पपिवहे पातारी
पीयेमह्ि पासीरन् पपिरे पपिष्वे पपिमदे पातारः
छुडा
अपावि । अपायिध्ाः अपायिपि
अपायिपाताम् अपायिषायाम् अपायिष्वह्ि
अपायिपत अपाविध्वम् अपायिष्मदि
ल्ढ
अपास्यत । अपास्ययाः अपास्ये
अपास्वेताम् अपास्वेयाम् अगरस्थावहि
अपास्यन्त अपास्थष्वम् अपात्यामहि
लय
दीबते | दीवसे दीये
लोद्
विधिलिद
झ्राशीलिंड_ लिदू छुदू
दा ( देना ) कर्मवाच्य दीयेते दीयेये दीयावहे
दीयन्ते दीयघ्पे दीयामहे
बहदू-अनुवाद-चम्द्रिका
रैड६
लू
| दास्पते दास्यसे
दास्ये दायिष्यते ! दायिष्यसे दायिष्ये
लड_
खदीयत । खदीययाः अदीये
लोद
विधिलिंड_ झ्राशीलिंड_
ला ल्र
रवि
द्माः लि
छुट
अदीयेयाम्
श्रदीयन्त अंदीयध्वम्
दौयेययम्
दीयध्वम्
दीवै (दियेत < दीयेथाः
दीवावहे
दीयामहै
दीयेयाताम् दौीयेयाथाम् दीयेवहि दासीयास्ताम् दासीवास्थाम्
दीगेरन् दीयेध्वम्
दासीह दासीप्ाः
दाषियीय
लड़
दायिष्यम्ते दायिध्यष्बे दायिष्यामदे
| दीयस्व
(दायिपी8 ॥| दायिषीष्ाः लिय
अआथबा दायिष्येते दावयिष्येये दायिष्यावहे श्रदीयेताम्
झदीयामहि दीयस्ताम्
'दासीय ब्थ्ध्य
दास्वन्ते दास्वप्वे दास्यामद्दै
दीयेताम्
दीयताम्
(द्वीवेय
कक सम “नन््क+ ताकक बड़
दास्वेते दास्येये दास्यावद्दे
(दिदे ददिपे द्दे दाता दातासे दाताई
अदीयाबहि
दासीवहि
अथवा दाविषीयास्ताम् दायिपीयास्थाम्
द्ायिपीवहि ददाते ददाये
दुद्विददे
दावारी दातासाथे दातात्वदे श्रयवा
|दायिता
दायितासे
[दायिताद
दावितारौ दायिवासाये दायिताखदे
दीयेमहि
दासीरम्
दासीध्वम् दासीमदि दायिपीरन्, दायिपरीसध्यम्
दायिपरीमदि ददिरे ददिध्वे दद्िमद्दे दातारः दावाष्वे दातास्मददे « दायितारः
दायिताघ्वे दायितास्मदे
क्रिया-प्रकरण (कमवाच्य-माववाब्य ) खुद
हि
अदायि
अदायिषाताम्
अदिपाताम् अझदिपत अदायिपायथाम् !अदायिध्यम्
अदायिष्ठाः अदियाः
अदिपायाम्
अदायिपि अदिषि
ल्द्
ड्रड७
[अदायिपत
अदिध्वम्
अदायिष्वद्धि अद्िष्वहि
अदायिष्मदि अदिष्महि
अदास्यत
अदास्यपेस्ताम्
अदास्वन्त
|अदास्यपा: अदास्ये
अदास्पेयाम् अदास्यावहि
अदास्पध्वम् अ्रदास्पार्माहि
अपवा
अदायिष्यत (विदा
अदायिष्येताम् अदायिष्ये थाम्
अदायिष्यन्त अदायिष्यध्वम्
अदायिध्ये
अदायविष्यावहि
अदापिष्यामहि
स्था ( ठहरना ) भाववाच्य-अकर्मक लद् लूट सड् जोद् बविधिलिड. आरशीोलिड्._ जिद
खुद खुड लुद्
स्थीयते स्थास्वते ऋस्थीयत स्थीयताम् स्थीयेत
«
स्थीयेते स्थास्थेते अख्थीयेताम् स्थीयेवाम् स्थीयेयाताम्
स्थीयम्ते स्थास्यन्ते अस्योयन्त स्थोयन्ताम् स्थीयेरन्
स्थासीष् तस्थे
स्थाठीयास्ताम् तस्थाते
स्थासीरन् तस्यिरे
॥] तस्थिपे सस्ये स्थावा अस्थायि
वस्थाये तस्थिवहे स्थातारी अस्थाविपाताम्
तस्थिध्वे तत्पिमहे स्थावारः अस्थायिषत
सलाद अस्थायिपि
अस्थाउिपायाम, अस्थाविष्वदि
अस्पायिध्वम् अस्थायिध्महि
अस्थास्येताम्
अच्थास्वन्त
अस्थास्यत
ध्यै ( ध्या / ध्यान करना लद् नलुद्
ध्यायदे घ्यात्यते
ब्लड
च्यायेते ध्यास्पेते
अध्यायव
अध्यायेताम्
.
ध्यावन्ते घ्याल्वन्ते अध्यायन्द
बूहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
ध्यायेताम्
ध्यायस्ताम
ध्यायेत ध्यायीष्ट
थ्यायेयाताम् ध्यासीयास्ताम्
ध्यायेरन्
ध्याता अध्यायि
ध्यातारी अध्यायिष्राताम् |] अध्याणावाम् अध्यास्येताम्
ध्यायताम
दच्याते
द्ध्ये
अ्रध्यास्यत
नी ( लेज्ञाना )कर्मवाच्य नीयते
नीयेते
(हियर
नोयेथे
नेष्यते नेष्यसे | नेष्ये नायिष्यते नायिष्यसे ई नायिष्ये श्नीयत अनीयया ॒] अनीये
लोट_
नीयताम्
मीयस्व ]
विधिलिद
नीयेंत नीयेथाः |] नीयेय
आशोरलिड_
नेषी£
नेपीशः नेपोय नायिपीट (ससीडा नापिषोय
नोयावरदे नेष्यते नेष्येये नेष्यावहे अथवा भायिष्येते माविष्येये नायिष्यावदे अनीयेताम् झनीयेयाम् अनीयावहि
नीयेताम्
भीये थाम् नीयावहै नीयेयाताम् नीयेयाथाम् नीयेवद्ि नैपीयास्ताम्
नेषीयास्थाम् नेपीव्द्ि अथवा नायिपीयास्ताम् भायिपरीयास्थाम् नायिषोबदि
ध्यादीरत् दृध्यिरे ध्यातारः
|
अध्यायिपत
अध्यासत
अध्याध्यन्त
नीयन्ते नीयश्वे नीयामदे नेष्यन्ते
« नेष्यध्वे नेष्यामहे नायिष्यन्ते नामिष्यध्वे नायिष्यामहे श्रनीयन्त अ्नीयध्यम् श्रनीयामदि मौयस्ताम् नीयध्वम्
नोयामहै नौयेरन् नीयेध्वम् मौयेमहि नेपीरन,
नेपीध्वम् नेपोमर्दि नाविषपीरन् सावियोध्वम्
नायिपीमदि
क्सि-प्रकस्य ( कमंदाच्य-माववाच्य ) लिय
ज्ुद
खुद
निन््याते निन््पाये निन्यिवद्दे
मेतासे
नेवाराये
नेवाध्दे
नेवादे
जेतास्वद्े
नेतात्मदे
नाविता
अथवा नायिवारौ
नायिवारः
मावितासे
नायितासाये
नायिताघ्वे
नाविताहे
नायिवास्वहे
नावितास्मदे
अनायि
|] झनायितायान
अनाविघव
नेता
नेवारी
अनेपाताम्
अनायिणा:
|अनेष्ठाः
झनापिपि
ल्ड्
लदू
लद्
ब्ड६
निन्ये निन्पिपे निन्ये
|अनेपि अनेष्दत
अनादयिषायाम्
)अनेपायाम्
अनापिष्दडि
निन्यिरे निन्पिष्दे निन्यिमदे
नेवारः
अनेपत
अनापिष्वम्
|अमनेखम्
अनाएिष्महि
|अनेष्यादि अनेष्पेताम्
|अनेध्महि अनेष्यन्त
अनेष्ययाः
झनेष्येयाम्
अनेष्पप्वम्
अनेष्ये
अनेष्यावद्दि अपदा
अनेध्यामदि
अनाविष्यत
अनादिप्येताम्
झअऋनादिष्यस्त
अनायिष्ययाः
अनायिप्येयाम
ऋनायिध्वस्
अनारिष्ये
अनायिष्यावद्दि
अनाविष्यामदि
जोयते
!जेष्यते
जि ( जीना ) अफुमऊ माबवाच्य जीयेते जीयन्ते
डेष्येते
जापिष्यते
न् जापयिष्यते
न लोड
अजोयत जोयवाभ्
अजोयेवाम् सीपेतान्
विधिलिश
जीदेत
जीयेबावान्
आशीर्लिंद_ (पा
जाएदिपोटट
डेपीयास्तान्
जाविदरीयास्तान_
डेघ्यन्ते
न् चापिष्य्ते
डेपीरन् £
|जामिपरस्त्
बूहदू-अ्रनुवाद-्चन्द्रिका
३५०
लियू छुटू छुझ
जिग्ये जिग्यिपे ज़िग्ये जेता | जायिता अजापि
[ अजायिध्ाः अजेप्ठा: । अजायिपि ब्रजेपि
लड़ ै
झजेष्यत |अजायिष्यत
लद्
(चियते
लुदू
4 चौयपे [चीये |] चेप्पते
जिग्याते जिग्याये
जिग्यिवहे
जिग्यिरे जिग्यिष्वे जिग्यिमदे
!जेवारौ
|जेतार' जायिताए
।अज्ायिपाताम् अजेपाताम्, |अजायिपाधाम् अजैपायाम् ॥ अजापिष्वहि अजेष्वदि अजेप्येताम् श्रजायिष्येताम्
॒अजायिपत
जायितारौ
अजेपत |] श्रजायिध्वम् अ्रजेघम
अजायिष्महि !झजेप्मदि अजेष्यन्त
श्रजायिष्यन्त
चि ( चुनना ) कमवाच्य
चायिष्यते चेप्यसे घायिष्यसे
। |चायिष्ये लड
विधिलिड
। अचीयत
चीयेते
चीयन्ते
चीयेये चीयावदे चेप्येते. चापयिष्येते चेष्येथे
चौयध्वे चीयामहे चेष्यन्ते
चायिष्येये
चेप्यावदे च्वायिष्यावदे श्रवीयेताम्
धायिष्यन्ते
चेष्यप्वे चाविष्यष्वे चेध्यामदे चायिष्यामदे
अचीययाः अचीये
अचीयेयाम्
अचीयन्त थ्रदीयध्यम,
अचीयावहि
अचौयामदि
चीयताम् चीयर्व
चीयेताम्
घीयन्ताम् चीयध्वम्
चीयै
चीपावहे
चीयेत
खीयेयाताम् चीपैयायाम् चीयवहि
चीयथाः ब्वीयेय
चौयेपाम्
+ चीयामदे
चोयेरन् घीयेप्वम् चोयेमाहि
क्रिया-प्रकरण ( कर्मवाच्य-माववाच्य ) आशीलिंड |चेपीए च्वाविषीष्ट
चेपीछठाः |चायिपीशः
छुथ्
छुड
चेषीयास्ताम् चायिषीयास्ताम, चेपीयास्थाम्
333
चेपीरन, चायिषीरन्
चेपीष्वम्
चायिषीयास्थाम्
चायिपीष्वम्
न् चेषीय चायिषीय चिक्ये
चेपीवहि
चेपीमहि
चायिषीवहि
चायिषीमदि
चिक्याते
चिक्यिरे
चिक्यिपे चिक्ये चेता
चिक्याये
।चायिता चेतासे
चायितासे चेताहे |चायिताहे अचायि अचायिष्ठाः
|अचेष्ठा अनायिषि
अचेपि अचेष्यत अचायिष्यत ईअचेप्ययाः अचायिष्यथा: न् श्रचेष्ये
अचायिष्ये
चिक्यिवहे चेतारौ चायितारी चेतासाये चावितासाये
चिक्यिष्वे
चिक्यिमहे न् चेतारः चायितार: चेताघ्वे
चेतास्व॒हे चायितास्वहे
|चायिताष्वे चेतास्महे |चायितास्मदे
॒ अचायिषाताम्
। श्रचायिषत
अचेपाताम्
अचायिपाथाम्
अचेषायाम्
| अचायिष्वहि
अचेष्वहि
अचेप्येताम् अचायिष्येताम् अचेष्येथाम् अचायिष्येयाम् अचेष्यात्रहि अचायिष्यावद्दि
अचेपत ।अचामिष्वम् अचेध्यम् |अन्ययिष्महि अचेष्महि
अचेष्यन्त अचायिष्यन्त अचेष्यध्वम् अचायिष्यष्वम्
अ्रचेष्यामदि अचायिष्यामहि
ज्ञा ( ज्ञानना ) कमंवाच्य ज्ञायते जशञायसे
लय
ज्ञाये ज्ञास्यते
ज्ञायिष्यते ! शास्यसे ज्ञायिष्यसे
ज्ञायेत ज्ञायेये
ज्ञायन्दे शायध्वे
ज्ञायावहे
ज्ञायामहे
हम शायिष्येते ज्ञास्वेये ज्ञायिष्येये
ज्ञास्यन्ते
ज्ञायिष्यन्ते
ज्ञास्यघ्वे शायिष्यष्दे
क्र
लड़
लोदू
बहदू-अनुवाद-चन्द्रिका |ज्ञास्ये हक श्ञा् ध्ज्ञायद अज्ायथाः अज्ञाये
ज्ञास्यावहे ज्ञायिष्यावहे अड्येताम् अज्ञाययाम् आज्ञायावहि
शास्यामदे ज्ञांगिष्यामद्दे अज्ञायन्त अज्ञायश्वम् अज्ञायामहि
ज्ञायताम्
जायेताम्
शायस्वाम्
शायस्व
जायेथाम्
जञायध्वम्
शावै
ज्ञायावहै
ज्ञायामहै
शायत ज्ञायेथाः क्षायेय
जायबाताम् ज्ञायेयायाम् जायेवदि
शायेरच् शापेध्वम् जायेमदि
थाशीलिंट |भासीष्ट ज्ञायिपी्ट
ज्ञासीयास्ताम् जञायिपीयास्ताम्
शासीरन् शायिपीरन_
ज्ञासीप्लाः शायिपीणः
ज्ञासीयास्थाम् ज्ञायिपीयास्थाम्
शासीष्वम् शायिपरी प्वम्
शासीय शायिधीय
ज्ञासीवद्दिहु शाविषीवहि
शासीमदि शायिपीमद्ि
लिट
ज़्े जरिये जज
जशाते जजञाये लग्िवहे
जभिरे जजिष्वे जशिमहे
छुट्
शावा 'शायिता
भातारौ ज्ञायितारी
जशाताए शायितवारः
शातासे
ज्ञाताखाये
विधिलिड्
शापितासे शातादे लुद्
शाताघ्वे
जायितासाये शाताखद्दे
ज्ञायिताप्वे ज्ञातास्महे
शायितादे
शायितास्वद्दे
शायितार्मद्दे
श्रशावि
अशायिपाताम्
*.
अशायिफप्त
अशाखावाम्
अजाठ्त
। अ्रशायिष्ठः
खजाविपाथाम्
श्रज्मायिष्यम्
।अजशायिदि अशत्ति
अज्ाविष्वहि अजशास्दि
अश्यिष्महि अशास्मदि
अज्ञास्था:
अ्ज्ञखथाम्
अशाप्वम्
क्रिया-प्रकरण ( फर्मवाच्प-भाववाच्य ) लू
7
लद् लूदू लड लोदू विधिलिश
झजशास्यत
|अशायिष्यत
अशास्पथाः आशायिष्यथाः
लुदू् छुड,
लुद्द
झशास्यन्त
धशायिष्यन्त
अशपयिष्येताम्
अशास्येघाम आशाविष्येधाम्
आशास्यध्यम् झशापिष्यध्यम्
झशास्पे !अजशायिष्ये
झशास्यावदि झशायिष्यावहि
झशास्पागहि झशायिष्यामदि
भीयते भमिष्पते आयिष्यते ध्यकीयत श्रीयताम् भीयेत
श्रि (आश्रय लेना ) भीयेते अमिष्येते भाषिष्येते आभीयेताम् भीयेताम भीयेयाताग्
भीयन्ते ।भयिष्यन्ते भाषिष्यन्ते अभीयन्त भीयन्ताग् भीयेरण्
भपिषीयास्ताम्
अयधिपीरण
श्राशीर्लिंद[ |अगिषीह
लिदू
आअशास्थेताम्
श्र
भागिषीषट रिभिये शिक्षियिपे शिक्षिये ।भयिता भायिता
भायिषीयास्ताम् शिक्षियाते िभियाये शिक्षियियये अयितारो भावितारी
अभायि
पभ्मायिषताम्
अभमिषाताम्
भापिपीरन् शिक्षियिरे सिभ्ियिष्पे रिक्षियिगऐे भगिवार+ भागिवार: [चभायिषत
अभ्यिषत
। अभायिष्ठाः खझभयिद्वा: अभाषिषि अभगिषि
झआभायिषाधाम् अझभगिषाथाग् झश्चायिष्पहि अझभयिष्पदि
झभागिध्यम् झभपिष्यम् झभामिष्मदि झभयिष्गद्दि
4आभ्रायिष्यत झभयिष्यत
आअधाभिष्पेतान चभ्नविष्येताम्
अधापिष्पन्त अभमिष्पन्त
फू ( फरना )सरमक-फर्मवाच्य लू
मियते
मियेते
ब्रियन्ते
फियसे
नियेये
कियष्ये
न्र्यि
फ्रियायदे
कियागऐे
बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
शेड
क्रिष्यते करिष्यसे
करिष्ये
करिष्येते करिष्येयें करिष्यावदें
करिष्यन्ते फरिष्यध्वे करिष्यामदे
अथवा
लोदू
कारिष्यते कारिष्यसे कारिष्ये क्रियताम् क्रियस्व क्रियि क्रियेत
कारिष्येते कारिष्येथे कारिष्यावदे क्रियेताम्
कारिष्यन्ते कारिष्यध्वे कारिष्यामहे
क्रियेयाम्
क्रियन्ताम् मियध्वम्
क्रियाबहे क्रियेयाताम्
क्रियेरन्
क्रियेयाः
क्रियेयायाम्
क्रियेध्वम्
क्रियेय
क्रियेवहि
क्रियेमरद्नि
आशौर्लिक् |डा का ष्ट
क्पीयास्ताम् कारिपीयास्ताम
कारिपीरन्
;क्ृषीणाः कारिषीडाः कृपीय |कारिपोय चक्के
कृपीयास्थाम् कारिपीयास्थास् कृषीबदि कारिपीबहि चक्राते
विधिलिद!
चहपे घक्रे ;॒ कतां करिता कतसि !कारितासे कर्तादे कारितादे श्रकारिं ।अकारिषठाः
चक्राये चकृवहे
क्तारौ
क्रियामहै
कृषीरन्
कृपीध्यम्
कारिपीषवप्त
क्पीमदि कारिपीमह्दि
चनढिरे चक्रिदवे
चक्रिमद्दे
कर्तारः
कारितारी
फारितारः
कर्ताठापे कारितासाये कर्तास्वदे कारिवास्थदे
कर्ताप्बे
अरकारियताम्
अकृषाताम्
अकारियायाम्
कारिताष्वे
क्र्तास्मदे कारितस्मद्दे श्रकारिषत
अकृषत
श्रकारिध्वम्
शभ्रद्न्याः
अकृपाथाम्
श्रकृध्वःमू्
4 अकारिपि अक्ृपि
श्रकारिषप्वहि
अकारिष्मदि
अफृष्यहि
अदमृष्मदि
क्रिया प्रकरण ( माउ-कर्मवाच्व ) ल्ड
अकरिष्यत
3
।अकारिष्यद ॒ अकरिष्यथाः अकारिष्यया+
2 न् श्रका लय
प्रियते
लूद्
घरिष्यते
|घारिष्पते
लड्
अल्लियत
लोद् विधिलिश
प्रियताम् तियेत
आशीर्सिड् |पी
अकरिष्येताम् अकारिध्यतवास अकरिप्ये थाम अकारिष्येयाम् अकरिष्यावदि
अकारिष्यावदि
घु (घारण करना ) प्रियेते
306. थे अकरिष्यन्त
अकारिप्यन्त अकरिष्यध्यम्मर अकारिष्यध्यम
अकरिप्यामदि
अकारिप्यामदि
प्रियन्ते घरिष्यन्ते घारिष्यन्ते
धरिष्पेते घारिष्येते अश्रिवेवाम् प्रियेताम्
अख्निवन्त परियन्वाम्
ब्रियेयाताम्
प्रियेरन्
घृपरीयास्ताम्
पपीरन्
लिय्
द्प्रे
जुद
घर्ता |घरिता
घरिपीवास्तान दघाते घर्तारी घरितारी
लुढ
अधारि
!अधघारिपाताम्
अ्रधारिपत अधृपत
« अ्घरिष्येताम्
अधरिष्यन्त श्रघारिष्यन्त
घारिपीष्ट
लूदू
अधघरिष्पत् । अचघारिष्यत्
लद् लिय्
श्रियते बे
अधारिष्यंताम्
४ ( भस्ण करना ) प्रियेते बश्राते
बच्चे
बश्ार्थ बभुपहे
अमारि
अमारिपाताम्
बमूपरे लुढ
अधृषाताम्
अमृपाताम्
घरिपीरन्
दब्िरे घर्तारः घरिवारः
श्रियन्ते
बश्निरे बमृध्चे चमृमहे अमारिपत
अभृषत
इसी प्रकार--अस_-मूयते, जाए--जागर्य्यते, अह-ण्हाते, प्रच्छ-पच्छुघते, ग-
ब्रियते, स्मू--स्मयंते, इु--हियते, मस्जु--मण्य्यते । ( वच् ) लट>-डच्यते
( बद् ) लद--उद्यते
लड _--अ्रौच्चव लड_--औद्यव
३४६
बहदू-अमुवाद-चख्धिका
(व् )लट्-उप्यते
लड़ --अ्रौप्यत
( बस )लट्-उप्पते लड--त्रौष्यत (वह ) लद--उद्यते लड --श्रौद्यत चुरादिगणीय धातुगझ्नों मेकवृवाच्य मे लद,लोट ,लड़ और विधिलिद, में प्रायः गुण या इृद्धि होतो है, वह कर्मवाच्य में भी होती है। छुसदिगणीय श्रय
लद॒ ,लोट ,लड_, प्िविलिदस तथा लुइ के प्रथम पुरुष के एक वचन में इटा दिया जाता है तथा ल्लिट मे बना रहता है और शेप लकारों में विकल्य से इया दिया जाता है, यथा--
लू
चोयते
लू
चोरिप्यने चोरयिष्यते
चुर(चुराना ) कमंवाच्य चोयेते चोरिप्येते चोरविप्येते
चोय॑न्ते चोरिष्यस्ते चोरपिष्पन्ते
लड़,
अचोय॑त
अन्नोयेताम्
अ्रचोय॑न्त
लोद्
चा्यताम्
चोर्येताम्
चोयनन््ताम्
विधिलिड,
चो॑त
चार्येयाताम्
चोयेरन्
शोरिषीरन्
ध्राशीलिंए (चोरिषीषट
चोरिपीयास्ताम्
ज्ोरबिपीयास्ताम
चोरपिपीरन्
लिय्
चोसयामासे
चोरयामासाते
चोरयामासिरे
चोरयाश्नक्े चोरयाम्बमूवे
चोसयाशकाते चोर्याम्बमूवाते
चोस्याश्नक्रिरे घोस्याम्बमूबिरे
घो।रयिपी९
छुद् लुड
चोरिवा
चोरयिता अचोरि
बोखिरः
चोरबितारः अचोरिषत
अचोरियाः
अचोरयिप्ताम. ख्रवोरिषाथाम्
अचोरयिपापाम
श्रचोरपिध्वम्
श्रचोरिषि
श्रथोरिष्वदि
0
|अयोरयिप्ाः ल्ूद् ध्
चोरिवारो
चीरपितारो अचोरिषाताम्
श्रचोरयिषत अचोरिष्वम्
अचोरबिषि
अचोरमिष्वदि
अचोरविष्मदि
अनचोगिष्यत अचोर॑विष्यत
अनोरिष्येताम अचोरविष्यत्ाम.
अ्चोरिष्यन्त श्रचोरविष्वन्त
कर्मवाच्य पु सात्रवाच्य में क्रिया रखकर संस्कृत मेंअनुवाद फरोे-$--नने उठ्कों देसा--अममे बढ देखा गधा। २--रमेश क्यों नदी पदवा है ! रमेश से क्यों नही पढ़ा जाता है! ३--तम गुर को श्राजा क्यों नहीं मानते
कियास्रण ( खिजन्त >
श्र्७
४--क्या ठुम से यह पुस्तक नहीं पढी जाती १ ४--तिल्ली चूहे का पीछा करतो है | ६--सजन सबसे आदर पाते हैं। ७--काम फ़िस से क्या जाता है है ८-मुझ से नहीं ठहरा जाता। ६--ठ॒म क्यों रोते हो२ १९०--वह क्या जानता है १ ११--ऐसा सुना जाता हैं। १२--लोम से कोघ पैदा होवा है । १३--उनसे पुस्तकें क्यों नहीं पढ़ी जावीं ! १४--क््या शिज्षु सो गया * १५--खाघ्ठ अपने से बढों की सेवा करते हैं। १६--उस समा में किसके द्वारा भाषण क्रिया गया १ १७--उस
यीर द्वारा सैकड़ों सैनिक युद्ध में मारे गये । श८--माली द्वारा उस बाग में फूलों के पौधे लगाये गये ।१६--बरतम्तु द्वारा कौत्स को चौदह विद्याएं पढ़ायी गयीं | २०--बवैदियों द्वास उस नदी पर पुल बनाया गया |
प्रेरणा्यंक ( णिजन्त ) क्रियाएँ जब क्सिी धातु में प्रेरणा का अ्रथ लाना हो तब धाठ में णिच् प्रत्यय जोड देंते हैं (करना से कराना, पढना से पठाना, पकाना से पकयाना आदि प्रेरणा के अर्थ हैं ),यथा--देवदत्त ओदन पचति ( देवदच चावल पकाता है। ) “यज्ञदत्तः पचन्तं देवदत्त प्रेर्यति- यजदत्त- देवदत्तेन ओदन पाचयति” ( यज्ञदत्त देवदत्त से
चावल पक्चाता है। ) णिच्् मे प्रेरणा अति आवश्यक है| यदि प्रेरणा का विपय न हो तो लोटू या लिश् का प्रयोग होता है। इमें कभी-कभी अकर्मक घातुओों से सऊमंक बनाने के लिए णिजन्त का प्रयोग
करना पढ़ता है, यथा--प्रायती अहर्निश तपोभिग्लपवति गानम् (परायती रात दिन तप द्वारा अपने शरीर को क्षीण कर रही ह। ) यहाँ पर “ग्लययतिः ग्रकमफ निया “ग्लायति! का णिजन्त प्रयोग है ।
प्रेरणार्थक घातुश्रों केसाथ मूल घातु के क्ता में तृवीया होती दे और कर्म में पूबबत् द्वितीया ही रहती है, क्या कर्चा के अनुसार होती है, यया--( मूल ) सृत्य+ कार्य क्रोति। ( खिजन्त )देवदत्त: मृत्येन फाय कास्यति। प्रेरणायक धातु में शुद्ू घातु के अन्त में णिच् (अय ) जोड दिया जाता है। धातु के श्रन्त में अय लगाकर परस्मैपद में “पठति” के समान रूप तथा आत्मनेपद “जायते” केसमान चलते हैं। णिजन्त धाठुओों के रूप चुरादिगणीय घानुओं के
समान होते हैं |घग्तु और तिद_प्रत्वयों के बीच में अब? जोड़ दिया जाता है | णिजन्त घातुएँ आयः उमयपदी होती है । चुरादिगणीय धातुओं के रूप प्रेरणा्यक में भी वैसे ही रहते हैंजैसे त्रिना प्रेरणा के )
डर्भ्८
बृहदू-अनुवाद-चन्द्रिका
साधारण एवं प्रेरणार्थक रूप--
(१)मू.
(२)आदू (३) (४) दिव् (५)स (६)तुदू (७) -त
चारप्रेपीए
अचूचुस्त्
अचोरयिष्यत चोरव॑ति
रत
अचारविष्यत चारयति
अचूपात्
अचूपिप्यद् चूपयति अचेण्प्यित चेश्यति
अचूर्शयत चूजबत् चूर्पाट् अवुचूणव् अचूसथिष्यत चूगयति अच्यूएत् चूपेनू. भगत
चश्त
चूप्वातु
प्िपीष्ट.
अच्छादपत् छात्वेव् छात्रात्
प्रच्छिनत् छिन्यात
छुबात्ू छायात्
अजपत् जयेत्. अजीवतू जीवेतू
जीवात जीव्यात
अजैपीत अजेप्दतू. जापयति अजीवीत् अजीदिष्पत् जीवयति अजोतत जोतेतव .जीतिपीश प्रजोतिए अजोतिष्यत जोतयते अजोपयत्जोपयेत खजम्मत जम्मेत..
जोध्यात अजृतुपत अजोपविष्यत् जोषबति जम्मिपीए्ट अजम्मिष्ट अजूगिमिष्यत जुम्मयति
अजीयंत् जीयेंत .जीर्वान्ू.
झुस्तते
चोयते घायते
श्रचिच्छदत अच्छादयिष्यत् छादयति छातते
ग्रच्लैत्तीत् अच्छेत्स्मत छेदयति अच्छुरोत अच्छुरिप्यत् छारयति अच्छात् अच्छान्यत छाबयति अजाप्त जायेत जनिपीए गजनि्ट अजनिष्यत जनय॑ति ज्यत् जयेत्. जप्यात् श्रजपीत प्रपिष्यतू जापयति #%जल््यत् जल्पेतू. जल्पातू अच््वीत अन्नल्पिप्यत् जह्मग्रति णजाग, जाग्यात्ू जागयात् अजागर्रत् पद्यगरिप्यत जागरयति
अच्छुरनू हुरे!. च्ठयत् छुयेत.
छियात्
अचेप्कि
चिल्यते चेत्यते चित्र्यते चिस्यते चिन्त्यते चिहृयते चोदते
अजारीत अजरिष्पतू जरबति
छिए्ठते
छुयते ल्लायते जन्यते जप्पत्ते
जल्प्यते
जागयते जीयते जीव्यति जोत्यते जोप्पते जम्म्बते
जीयते
६२
घातु
बृहदू-अनुवाद-वद्धिका
श्रथं
लछदू॑
लिदू
लुदू
छूदू.
लोदू
जशा(६ उ०, जानना) पण्जानातिं. जज. ज्ञातां जास्यति जानादु आ०-- जानीते जे ज्ञाता शास्ते. जानोीनाम् शा(१०उ०,श्राशादेना)व्रा+-शामयति शापयाचकार;शापविता शापपिष्यति जापवतु ज्वर्((प०,रुग्णद्ोना) ज्वरति जज्वार ज्यरिता ज्वरिष्यति ज्वस्त ज्वलू(१प०, जलना) ज्वलति टंक(१०उ०चिहलगाना)टकयति
जज्वाल ज्वलिता ज्यलिष्यति ज्वलतु टंकयाचकार टंकयिता टंकप्रिप्यति टंकयतु
डी(ईश्रा०,3डना)ठत् + डयते._ डिड्ये डयितां डयिष्यते ड्यताम डी (४ थ्रा०, उड़ना)उत् + डीयते उड्डिडये उड्डबिता उडडबिष्यते डीबताम
ढौक् (१ थ्रा०, जाना) दीकते
डुंढौके
तत्त्(१प०, छीलना) तत्नति बढ (१० उ०, पीटना) वाडयति तन् (८5०,फैलाना)7०-तनोति श्रा०्नतनुते. तन्ब(१०ग्रा०,पॉलन") तस्त्रयते
ततत्ष तद्चिता तक्तिध्यति ताडयांचकार ताडयिता ताडयिध्यति ततान तनिवा तनिष्यति तेने तनिता तमिष्यते तन्त्रयाचक्रे तन्त्रयिता तमन्तरविष्यते
तक्षतु वाडयतु तनोवु तनुताम् तम्त्रताम्
तब(१पण्वाना)
ताप
तपतु
तपति
ढौकिता
तह्ता
दौकिष्यते दौकताम,
तप्यति
तक _(१०उ०, सोचना) तकयवि तम्यांचकार तकयिता तकगिष्यति तक
तर्ज(रप०मर्नाक०) तर्जति ततजे. तर्ज (१०श्रा०,डॉय्ना) तर्जयते
तजयाचके तजंग्रिता तजंयिप्पते तजथताम्
तर्जिता वर्जिष्पति तजद
तर्द (६ प०, खताना) तदंति
तद॒द॑
तर्दिता
तर्दिष्यति तदतु
तंम(१०उ०,सजाना)श्रव +वंसयति तख्याचकार तंसयिता तंसमिष्यति अतिजि(शथआा०,क्षमाक०)वितिज्ञते तितिक्षाचके तितिज्षिता वितित्तिष्पते बुद् (६उ०हुःखदेना) व॒दतिन्ते तुतीद॑ तोचा तीक्त्यति हुल् (१० 5०,वोलना) तोलयति तोलयाचकार वोलयिता तोलगिष्यति
तंसयतु तितिज्ञवाम् चुद तोलथवु
हु ४ प०, तुष्ट होना) त॒ष्यति
ब॒तोप
तोश . तोक््यति
दुष्यतु
हुप्(४प०, तृत्त द्ौना) दृष्यति ठप(डप०,प्यासाहोना) दृष्यति
दतप् ततर्ष.
ततार
तर्विता तर्पिता
तरिता
तॉरप्यिति तर्पिष्याव
तुष्यतु तृष्यतु
खोज (१ प०, छोडना) लजति प्रपू (१ आर, लाना) भपते.
वह्यान त्रेपे
थक्ता अ्रपिता.
लक्ति परपिष्षते
खजतु प्रपताम्
ततरास
ब्ासता
तू(प० तैरना).
घ्रत्(४ पर०, डसमां)
चुद (६५०, इूडना)
तरति..
भस्यति
चुढते
चुद (१० श्रा०,वोड़ना) त्रो्यते
नुबोद्
चुदवा
तरिष्यति तर
अहिप्यति
चुटिषति
प्रर्यतु
घुटतु
श्रोव्यांचड्धे भोदयिता ओटविध्यते ब्रोट्यताम्
ज्न्न्भ्म्म्न्न्न््णण्ष्णण्षण्ध५षषष्षा का ऋऋण कक्षाबकाया अर आ ८८6त आल हल. 2 का कक
#विजेः छूमाया सन् ।
सहित घातु-पाठ
६
लद
लछुटइू..
णिचू
कमंवाच्य
अजासीत्
अज्ञास्यत्
शापयति
अज्ञास्त अजिज्षपत् अज्यारीतू अज्वालीव्_
अज्ञास्यत ज्ञापयति अज्ञापयिष्यत् शापयति अ्रज्वरिष्यत् ज्वस्यत्ि अज्वलिष्यव् ज्वालयति
जायते शाप्यतते शाप्यते
ऋष्टटकत्.
अटकयिबष्यत् टकयति
डक््यते
अडयिष्यत डॉययति ग्रडग्रिध्यतव डायति अदौकिष्यत ढदौकयति
डीयते डीयते दौक्यते
विधिज्षिहः आशीर्तिंड् लुड
आअजानातू जानीयात् ज्ञेयात् अजानीत जानीत शञासीएट अशापयत् शापयेत् ज्ञाप्यात्
अप्यरत् ज्वरेत् अण्वलत् ब्वलेन् अटकयत् ८ऊयेत् अडयत डयेत
अडीयत डीयेत अढौकत दौकेत
अतक्षव् चत्तेत् अत्ताइयन् ताडयेत् अतनोत् तनुयात्
अंतनुत तन्बीत अतन्वेयत तन््ब्रयेत अतपन्
तपेत्
अ्तबग्त् द्कयेत् श्तजत् वर्जेद् अतुर्शयत तजयेव अर्वदत् तर्देत्
+ अतसयत् तस्येत्
ब्वर्यात् सल्पात् टक््यात्
आअडवपिण. अडविषप्ट. डौकिपीष्ट अदौफिष्ट सक्ष्यात् अतक्षीत्ू चाब्यात् अतीतडत् तन्यात् अतानीत् तनिषीषट अतनिष्ठट. तन्न्रयिषीक्ठ अततन्ततः हप्पात् अताप्वीत् तक यात् अततकत्. वष्याव् अतर्जोत्.5 स्जयिषीड अततजत तर्बात् अतद्दोत्. डथिपरीष्ट डयिपीए
तध्यात्
रेह रे
तुष्येत् दृष्येत् दृष्येत् तरेत्
अत्यजन् स्पकेत्
अततक्तिष्यत् तक्षयति
तच्यते
ताइचते तन्यते तन्यते त्न्त्यते त्प्यते तक यदे त्ज्यंते त्ण्यते तद्ते तस्वते वितिक्यते
खततसत्.श्रतसयिष्यत् तसयति
घ्रमपत
चपेत
अनस्यत् जअस््वेत्
अच्रुटत् चुटेत् अन्नोय्यत त्रोय्येत
चुष्यात्
अतुपत्.
द्ष्यात् दृष्यात्
अतृपत्.
श्रतर्पिष्यत् तपंयति
अतृपत्.
अतर्पिष्यत् तर्षयति
अतारीत्ू
अतरिष्यत्
तीर्यात् चज्पात् बरप्रिपीषट
अस्यात् चुदपात्
अतोक्पत्.
तोषयति
तारयति
अलताक्ीत्् अच्क्षयत् ल्ाजबति अजपिष्ट. श्रत्रपिष्यत नअपयति अनसीत्ू _अनरिष्यतू चासयति
अब्रुटीतू तौदयिपोष्ट अतुच्ुटत
ज्यल्यवे
अताडयिष्यत् ताडयति अ्रतनिष्यत् तानयति श्रतनिष्यत तानयति अतन््त्रयिष्यत तन्त्रयति अतप्स्यत् वापयति अतऊ थिष्पत् तक्रर्याव अवर्जिष्पत्ू. वजयति दर 4 शब्रत्जविष्यत तजयति श्रवर्दिष्यत्ू तदंयति
अपितिच्षुत तितित्तेत वितच्चिपीछ थ्रतितिन्षिणट अ्रतितिक्तिष्दव तेजयति ठुय्यात् श्रतौत्सीतू. अतोत्त्पत्ू तोदयति अव॒ुदत् ठुदेतू आअतोलयत् तोलयेत् तोल्पाव् अतूठलत् श्रवोलयिष्यत् तोलयति
अदुष्यत् अध्ृष्यत् झतृष्यत् अतरसत्
ज्वयंते
अ्रवुटिष्यत्् त्रोटयति अनोययिष्यत च्रोटयति
इ्ध्ड
धातु
बृहददू-अमुवाद-चन्द्रिका
अर्थ
लट
लिदू
म्रै(१ आरा, बचाना) चायते . तचत्रे
लुदू न्राता
लूट
लोद्
भास्थतें
चायताम्
स्वच्् (१ १०, छीलना) त्वच्षति
तत्वच्.
त्वक्षिता
लर्ट॑श्य्रा०,जलदीकरना)ैलरते.
तत्वरे
त्वरिता
त्वरिष्यते
स्वस्ताम्
स्वेष्टठा.
लेक्यति
व्वेपतु
त्विप(१ उ०, चमकना) त्वेषति-ते तिस्देष.
ल्क्तिष्पति लक्षतु
दश्ड(१०3०,दष्डदेना)दइण्डयतिं-ते दएडयाचकार दण्डबिता दण्डयिप्यति दुण्डयतु दम(४प०, दमन करना) दाम्यति
ददाम
दमिता
दमिप्यत
दास्यतु
दम्मू(श्प०,पोखा देना) दम्नोति ददम्म दय(श्थ्रा०,द्याकरना) दयते. दयाचके दरिद्रा(एप०,दरिद्रद्ोना)द रदाति ददरिद्रौ
दुम्मता दम्मिष्यत दम्नोतु दबिता दबयिष्यते दयताम् दरिद्विता दरिद्रिष्यत दरिद्धादु
दंश(११०, डेंसना) दशति दह (१५०, जलाना) दहति दा(१ ५०, देना) चच्छुति
ददंश ददाइ ददौ
दंश दुस्या दाता
दंद्यति घक्मति दात्यति
दशतु दहत सच्छतु
दा(२१०, काब्ना) दाति दा (३ उ०, देना) प०-ददाति
ददी ददो
दाता दाता
दात्थति दास्वति
दाठु ददाहु
ददे
दाता
दास्यते
दत्ताम्
अआ्रा०-दत्ते
दिवु(४प०,चमकनाआदि)दीव्यति दिय् (१०आ, रलाना) देववते दिश(६3०,देना,कदना)दिशवि-्ते दीज्(१श्रा०,दीदादेना)दीजते. दीप (४आ्मा०,चमकना) दीषप्यते हु (४प०,दुःखित होना) दुनोति. हुप् (४ प०, बिगड़ना) हुष्प्रत॑ दुइ (35०, डुदना)१०-दोस्घि. आ०-दुग्पे दृ(भ्थ्रागदुःमितद्ोना) दूते..
दिदेव_ देविता. देविष्यति दीव्यतु .देवयांचक्रे देवयिता देवमिष्यते देवबताम, दिदेश देश. देद्यति . दिशतु दिदीक्षे दीकछ्षिता दीक्तिप्पते दीक्षताम, दिदीपे .दीपिता दीविष्यते .दीष्यताम् दुदाव दोता दोष्यति छुनोह दुदोप दोष्ठा , दोष्बति दुस्मद डुबोह दोग्घा पोक्षति दोख डुदुदे. दोग्घा धोक्यते हडुग्पाग् ढुदुवे. दबिता दविष्यने दूदवाम्
द(६श्रा०,श्रादरकरना)ग्रा +शाद्रियते आददे आदर्ता श्रादरिष्यते श्राद्रियवाम् इप्(४प०, गय॑ करना) इष्पति ददप. दर्विता दर्विष्यति इप्पनु दश् (११०, देखना) पश्यवि
ददशश
द्रष्टम.
दू् (ईप०, फाइना)
ददार
दारता
दरिष्यति
ध्णावु
ददा दिद्युत
दाता योठिग
दात्वति योविष्ते
चोतताम्
दु्खाति
दा(४ प०, काटना) यति युतू (शश्वा०, चमकना)बोवते.
द्रदपति. पह्यतु बात
संक्तितत घावुगाठ
जडझू विधिलिछ आतीकिछझ
लुझू
अजायत जायेत ज्ञासी८%८्०ट अच्क्षत् ल्वक्तेतू. लक्ष्यत् अत्वरत त्वसेव.. खरियीष्ट अलेपत् ल्वेपेतू. लिष्यात् अदण्डयत् दण्डयेत् दण्ड्धात्
अन्नास्त अत्वक्षीतू अलरिष्ट. अल्विक्षर्ु अददण्डत्
अदाम्पत् दाम्येत्
अदमत
दम्पातू
३६४.
लुक.
णिच्
अत्रास्यत त्रापयति अत्यक्धिष्यत् ्वक्षयति. अत्वरिष्यत त्वर्यात अत्वेदरतू त्वेपपति. अदण्डबिप्यत् दस्डयति अदू्रिष्पंत् दमयते
क्मवाच्यभ्ञायते खक्ष्यते त्वयते ल्िप्यते दण्छ्यते दम्बते
अदम्नोत् दम्नुयात् दस्बात् अदस्मीतू अदम्भिष्वत् दस्मवति दुम्यते अदयत दयेत . दबिपोष्ट अदयिष्ट अदयिष्यत दाययति. दणस्यते अदरिद्वात् दरिद्वियात्दरिशात् अदरिद्ध तूअदरिद्रिप्पत् दरिद्रयति दरिद्रथते
अदशत् दशेत्.
दश्यात् श्रदाइक्लीत् अ्रददपतू
अदहत् दहेत्. दल्मात् अयच्छत् यच्छेत् देयातूु अदातवू दायावू दायातू
दशयति
दश्यते
श्रधाक्षोतू अ्रदात्ू अदासीत्ू
अधक्ष्य्ु अदास्यत् अदास्यतू
दाइवति दापयति दापयति
दह्यते दीयते दायते दौीयते
अददात् दयातू
देयातू
अदात्.
अदास्यतू
दापयति
आदच
दासीश
अदित . शअ्रदास्वव
दापयति.
ददीतव
अरद्दीव्यत् दीव्येतू दीव्यात् श्रदेवीत्ू श्रदेविष्यतू देवषति.
दोयते
दोच्यवे
अदेवयव देवयेत. देवयिपीष्ट अ्रद्ीदिवव अदिवयिष्यत देवयति - देब्यते अदिशतू दिशेव्॒ दिरखात् अदिक्षत् अदेहपत् देशयति. दिश्यते अ्रदीक्षत दीचेत. अ्रदीष्यद दीप्येत. अदुनोत् छुनुयात्
दीज्षिपीः अदीक्षिण दोपिषी:& अदीपि्ठ. दूयात् अदौषीद्
अदुष्यत् दुष्येत्.
छुप्पात्ू
अधोक् अकुग्ध अदूयव आद्वियत
डुह्यात्ू दुष्यात दुद्दीत सुच्ी्ष दूयेत . दविषीष्ट आद्ियेत आड्पीए,
अह्प्यत् इप्येतू. अपश्यत् पश्येत्ू
दृप्पात्ु दृश्यात्
अद्याव् अखीयाद् दीर्यातू
अधच्यत्
थेतु.
अ्रद्योतव च्योतेत
अ्रदीक्षिप्दत दोतयति. अरद्योषिष्दत दीपयति. अदोष्यत् दावयति दूधषति
दोक्पते दोष्यते इयते
अदुपत्
अदोक््यत्ू
अधुत्तत्. अधघुक्षत अदविष्ट आ्ाइत
अ्रधोक्यत्ू दोहयति अ्रघोक्मत दोहयति अदविब्यत दावयति आदरिप्यव ध्यदारयतिं
दुह्मते डुब्नते दूयते आद्वियते
उदुष्यते
अदरिप्यत्ू दास्यति
दीयते
अप अ्दर्पिष्यत् दर्घयति ह्यते अद्राक्षीत्ू. अद्बक्यतू दर्शयति. इश्यते अदारीतू
देयात्ु
अदात
चोविषोष्ट
अद्योतिषश्ट
श्रदास्यत दापयति अचोविष्यत दोतवति
दीवते चुत्वते
श्दछ
धातु
बहदू-अनुवाद-्चन्द्रिका
अथ
लद
लिदू
द्रा (३ १०,सोना)नि+ निद्राति बु (१ प०,पिघलनी) द्रवति बह (४ प०,द्रोहकरना) दुच्यति.
निदद्री दुद्राव दुद्ोह
द्विप् (१3०,हंपकरना) द्वेष्टि
द्द्विप
लुद्
लंद..
निद्राता
निद्रास्यति निद्राह
द्रोता द्रोहिता द्वेश घाता घाता धाविता
द्रोष्पति . द्वेबतु द्रोद्िष्यति डुह्यतु देच्यति द्वेप्द
धात्यति धा(३उ०,धारणकरना)प०-दधाति दधौ आ०-धत्ते दे घास्यते. धाव(१७०,दौड़ना,पोना)धावति-ते दधाव धाविष्यति धोवा घोष्यति. धु (६५उ०,हिलाना) घुनोति दुघाव घुन्चिता धुछ्चिप्यते घुक्त(थ्राग्जलना) घधुढते दुषुत्ते धोता घोष्यति. धू (इ उ०,हिलाना) धूनोति दुघाव धूप्(१प०,मुखाना) धरृपायति धृषायाचकारधूपायिता धूपायिप्यति धघवा थू (१ 3०, रखना) धरति-ते दघार घरिष्यति. थ्र् (१० उ०, रखना) धारवति-ते धारयाचकार घारयिता घारयिष्यति हु धूप (१०5०,दबाना) धघर्षयति-ते धर्याचकारधपंयिता धर्षग्रिष्यति घाता धाध्यति बट((प०,पालना/चूसना)धयति._ दधो ध्माता ध्मास्यति घ्या (१ १०, फूंकना) घमति दष्मौ ध्यै (१ प०, सोचना) ध्यायत्रि .दुष्यो ध्याता ध्यास्थति ध्वन् (१प०,शब्दकरना) प्वतति दुष्वान ध्वनिता ध्वनिष्यति ध्यंश् (१श्रा०,नण्दोना) ध्वसते . दध्व॑ंसे ध्वंसिता ध्वंत्तिप्ते नदिष्यति नद् (१ प०,नादकरना) नदति.. ननाद नदिता मम्दू (१ प०,प्रसन्नदोना) मन्दति सनन््द नन्दिता नन्दिष्यति नम(१ प०,झुकनाओ + नमति
ननाम
मद (१ प०,गर्जना)
नर्दति
ननर्द
नश् (४ प०,न्शहोना) नश्यति
सेनाश
लोदू
दधातु धत्ताम्
धावतु धुनोत
धुद्धताम् धूनोतु
धूपायतु
धर्तु धारयतु धपयतु घयतु धमठु ध्यायतु घ्वनतु ध्यंखतामू मदतु नन्दतु नमतु
सन््ता
नंख्यति
नर्दिता
नर्दिष्यति नद॑तु
नशिता
नशिष्यत्रि नश्यतु
नद्धा
नत्त्ति
निन्दू (१ प०,निन््दा०) निन्दति निनिन््द
मेक्ता निन्दिता
नेदयति नेनेक्तु निन्दिष्युति निन््दतु
नी(१3०,लेजाना) प०- नयति. निनाय आ०>नयते . निन््ये
नेता नेता
नेष्यति नेप्यते
मयत नयताम्
नविता नोता
मविष्यति नोत्स्यति
भौठु नुदतु
महू (४ उण्ाधना) नद्यतिन्ते ननाइ निज (३४०, घोना) नेनेक्ति निनेज
तु (२ प० स्तृति०)
नोति.
नुनाव
चुद (६उ०,प्रेरणादेदा) नुदति-ते भुनोद
नहातु
सछ्तित्त घातु-पाठ
डे६७
लड़. विधिलिझ आशीलिंद_ लुडद_
दकछू
णिच्ू.
न्यद्राव् निद्वायात् निद्रायात् न्यद्रासीत्
अद्वबत् द्रवेतू.
दगात्.
अड॒दरुबत्
न्यद्रास्यत्
निद्रापयति
द्वाववति
दयते
अब्ुह्मत् अद्भेद् अदघात् अधतत
हुह्मात्. दिष्यात् चेयातू धासीए
अह्ुहत्. अदिक्षत् शझ्रधातू अधित
श्द्रोहिष्यत् अद्वेच्यत् अधास््यत्ू श्रघास्यत
द्रोइयति द्ेपयति घापवति धापयति.
डुलते द्विष्यते धीयते घीयते
अधावत् धावेत्ू.
धाव्यात्ू
अधावीत्
अ्धाविष्यत् धावयति
घाब्यते
अधुनोत् धुनुवात्ु
धूयात्ु.
अधौषीत्
अधोष्यतू
धूयते
अधुनत धुक्तेत.. अधूनोतु धूनुयात्ु
घुक्तिपीए घूधाव
अधुक्ति/ अधाबीद्
अ्रधुक्षिष्यत धरुत्तयति. अ्रधोष्यत् धूनयति.
द्ुह्मेंतू. दिष्याव दष्यात् दधीत
थ्रद्वोष्यत्
धाबयति
कर्मवाच्य निद्रायते
घ॒च््यते धूयते
अधृषायत् धूपायेतू धूपाय्यात्् अधूपायीत् श्रधूषायिष्यत् धूपाययति धूपाय्यते खधरत्
श्ियात्
अधापीत्
अधरिष्यतू
अधारयत् धास्येतु. धार्या(
घरेतु.
अदोधरसत्
अ्रघारयिष्यत् धारयति.
धारयति
ब्रियते धायते
आपपयत् धषयेत्ू.
धर्षत्ू.
अद्घंत्
झधप्रयिष्यद धर्षयति..
ध्यते
अधपत् धयेत्ु. झपमत् धमेत्. अध्यायत् ध्यायेत्ू.
पेबात् ध्मायात् ध्यायात्
अभ्रधात् अधास्यद् धापयते.. अध्यासीत् अध्मास्यत् ध्यापयति अध्यासीत् अ्रध्यास्यत् ध्यापयति
अध्वनत् ध्नेत्ू.
ध्वन्यात्
अ्रध्वनीत् अध्वनिष्यत् प्वनयति
ध्वन्यते
अध्यसत ध्वसेत. प्वसिप्रोष्ट अध्वसिष्ट अध्वस्तिष्यत प्वलयति अनदत् नदेतु. नद्यत्. अनादीत् श्रनदिष्यत् नादयति
ध्वस्यते नयते
धीयते ध्यायते ध्यायते
अमन्दत् नन््देत्ू. नन््यात्
अनन्दीतू अनन्दिष्यत् नन््दयति मन््यते
अनमत् नमेत्
नम्वात्
अब्रनसीतू
नमयति
नम्यते
अनदंतू नर्देतू.
नर्यात्ु
अनदीत् श्रनदिप्यत् नदंयति.
नर्थते
अनश्यत् नश्येत् नश्यात्
अनाशीत् अनशिष्यत् नाशयति
नश्यते
अनस्थतू
श्रनह्मत् नहोंत्. नद्यात्. श्रमात्सीत् अनत्य्त् नाइयति नध्ते अनेनेऋ् नेनिज्यात् निज्यात् अनिजत श्रनेक्यतू नेजयति. निम्यते अनिन््दत निन््देत्ू निन्यात् अनिन्दीत् अनिन्दिष्यत् निन्दयति निन््यते अनयत् नयेत्. अनयव नयेव.
नीयात्. नेषीए..
श्रनैषोत्. अनेष्ट
श्रनेष्यतू अनेष्यत.
भ॒ुयात्.
नूयात्
अनावीत्
अ्रनविष्यत् नावयति
चूयते
अनुदत् नुदेत्ु.
नुद्यातु
अनौत्सीतू अनौस्यत् नोदयति
नुद्ते
अनौत्
नाययति नाययति.
नीयते नीयते
रैध्८
घातु.
बृहृदू-अनुवाद-चन्द्रिका
अ्य॑
लट्
हूत् (४ प०, नाचना) दृत्मति पच् (१ड०,पकाना)प०-पचति
आ*-पचते
लुदू..
छुदू
ननत..
लि.
नर्विता
नर्तिष्पति इछत
प्राच
पक्ता
पक्यति
पचतु
पेचे.
पक्ता
पह्ुंतते
पदचताम्
पठिता परशिता पतिता
परिष्यति पणिष्यते पविष्यति
पठतु परणताम् पततु
पठ(१ प०, पढ़ना ) पठति.. पराठ पण्(श्थ्रा०,खरीदना) पणते . पेणे पत् (१ प०, गिरना) पति पपाव
पद (४ श्रा०, जाना) !'पद्येते पेदे.. पत्ता, पछ (१शझ्रा०,कुशब्दकरना) पदसे पपदें ५ पर्दिता
पत्ते पर्दिष्यते
लोद्
पद्मताम पर्दताम्
पशू (१० उ०, बाँधना) पाशयति-ते पशयाचकार पाशयिवा पाशविष्यति पाशयतु.
पा(१५०, पीना) पिवति पयों पाता पास्यति . पिबतु पा (२५०, रक्षा करना) पति. पषों पाता पास्यति पादु पाल (१०३०, पालना) पालयति-ते पालयांचकार पालयिता पालविध्यति पालयत
पिप् (७ प०, पीसना) पिनष्टि
पिपेष
पेश.
पेक्यति
पिनए
पीड (१०उ०,ढुःखदेना) पीडयति-ते पीडयाचकार प्रीडयिता पीडगिष्यति पीडयतु पुप् (४प०, पुष्डकरना) पुष्पति
पुपोष.
पोश
पोच्यति । पुष्यतु
घुप (६ प०,पुष्ठ करना) पुष्णाति
पुपोष.
पोषिता
पोषिष्यति
पुष्णादु
पृष् (१० उ०, पालना) पोषयति-्ते पोषयाचकार पोपषयिता पीषयिष्येति पोषयत पुष्प् (४ प०, खिलना) पुष्प्यति घुपुष्यप. घुष्पिता पुष्िष्यति पुष्ण्यतु पू (१्श्ा०, पवित्र०) पवते
पुपुवे
पविता
परविष्यवे
पू (६3०, पवित्र०) पुनाति
परुपावा
पविता
परविष्यति
चुनाव
पूज् (१० 3०, पूजना) पूर् (१० 3०, भरना) प् (३ प०, पालना) प् (१० उ०, पालना) बै(१ प०, शोपण क०)
पूजयाचकार पूजयिता पूस्याचकार पूरयिता पार परिता पारयाचकार पारयिता परी पाता
पूजपिष्यति पूरयिष्यति परिष्यति पारविष्यति पास्यति
पूजयतु, पूरयतु पिपुं पारयतु पायतहु
पष्ये
प्यास्पते
पूजयति-ते पूरयति-ते पिपर्ति पास्यति-ते पायति.
पव्यै (१आ०,बदनाओझा + प्यायते
प्रच्यू (६१०, पूछना) एच्छति प्रच्छ
प्रध (१ थ्रा०, फैलना) ग्रथते. प्री (अन्मा०,प्रसन्नहोमा)ओऔयते. प्री (६उ०,पसन्नकरना) प्रीयाति
पश्र॑ये... पिव्रिये. पिप्माय
प्याता
प्रपष्णा प्रथिता. ग्रेंता प्रेवा
पवताम
प्यायतार
अ्रच्यति
परच्छत
प्रथिष्यते. च्रेष्पते प्रेष्षति.
अथताम् प्रीयताम् श्रीणातु
प्री (१०उ०,प्रसन्नक») प्रीणयति प्रीणयचिकार ग्रीशमिता प्रीणविष्यति प्रीणयतु प्यु((श्ा०् कूदना) मवते पुप्छवे ज्ोता ओोष्पते अवताम, प्तप्(!प०, जलाना) स्ोपति पुन्नोप. ज्लोपिता ज्लोपिप्यति औपठ
रुत्तित घातु-पाठ
लडः
विधिलिड आशीलिंश लुड...._ लछूड_.
शहद
णिच्
अनृत्यत् रत्येतू.
अत्यातू अनर्तीव. अनर्दिष्यत् नर्त्यते.
ऋपचत् पचेतू. अपचत पचेत
पन्यात् पक्षी.
अपाक्ीद॒ अपक्त
अपक्यतु अपक्ष्यय
पाचयति पाचयति
क्संवाच्य
झल्यते
पच्यते पच्चते
अपठत्
पठेतू..
परस्यात्ु
अपादीत्
अपठिष्यत्ू पाठ्यति.
पख्यते
ऋषणत
पशेत.
परशिपीष्ट
अपशिष्ट
अपशिष्यत् पाएंयति
पण्यते
अपतत्
पत्तेत्ु
पत्यातु
अपतत् . अपतिष्यत्ू पातयति
पत्थते
पत्सीए. पर्दिषीष्ट
अ्रपादि अपसल्त्वव पादयति. अपद्दिण . अर्पादेष्यत पार्दयति
पयते पद्चते
अपीपशत्
अदशशविष्यत् पाशयति
पाश्यते
अपदयत पद्येत अपरदेत पर्देत.
अपाशयत् पाशयत् पाश्यातु
अपिबत् पिदेत्ू
पेयातू
भ्रपात्ु
अ्पात्यतू
पराययति
पयते
अपात्
पायात्
अपासीत्
अपास्यत्ू
पॉलयति
पायते
पायात्
अपालयत् पालयेत् पाल्यातु
अपिनद् पिष्यात्
अप्रिरत्
अपेज्यत्
पेपयति..
पिष्यते
अपीडयत् पीडयेत् पीड्याद्
अश्पिडत्
अपीडदिष्यतृपीडबति
. पीड्यते
अपुष्यत् पुष्येत पुष्यात्ु अपुष्णात् पुष्णीयात् पुष्यात्ु
अ्रपुपत्् अपोषीत्.
अपोक्षयत्ु पोपयति अपोपिष्यत् पोषयति
पुष्यते पुष्यते
अपबंत
अपविष्ट.
अ्रपोषयतत् पोपयेत् श्रषुष्यत् पुष्प्येत्. पवेत
पिष्यातु
अपोपलत् अपालबिष्यत् पालयति .पाल्यते
परोष्याद् श्रपूपुपद पुष्ष्यात् अपुष्पत्
. पत्रिपीष:
अ्रपुनात् पुनीयात् पूयातु
अपूजयत् पूजयेद्
पूज्यातद्
अपाबीत्
अपूपुजत्
श्रपोषविष्यत् पापयति.. श्रपुष्पिष्यत् पोष्ययति
पोष्यते .पुष्प्यते
श्रपविष्यद् पावयत्ति
पूयते
अपविष्यत् पाचयति
पूयते
अ्पूजदिष्यत् पूजयति . पूज्यते
अपूरयव् पूरयेत् पूर्यात् अपिपः प्रिपूर्यात् पूर्यात
अपूपुरत अपारोद
अपूरमिष्यत् पूरवति अपरिष्यद पारयति
पूल .पूर्यलते
पार्यातू पायात्ू प्यासीष्ट
अपीपरत् अपाझीत् अष्यात्त
अपारमिष्यत् पाय्यति. अपास्यत्ू पाययति. अ्रप्यात्यवप्पापयति.
पांयते पायते प्यायते
अपारदत्त पारयेत् अपायत