गोदान / Godan

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प्रेमचंद गोदान

ह द ं ीकोश www.hindikosh.in

Godan By Premchand Devanagari text reconstituted from the roman transcription made under the direction of Professors T. Nara and K. Machida of the Institute for Study of Languages http://www.aa.tufs.ac.jp/ and Cultures of Asia and Africa at Tokyo University of Foreign Studies. यूनीकोड संस्करण: संजय खत्री. 2012

Unicode Edition: Sanjay Khatri, 2012



पस् ु तक प्रकाशनाधिकार मक् ु त

समाप्त

ो चक ु ी

ै क्योंकक इसकी प्रकाशनाधिकार अवधि

ैं।

This work is in the public domain in India because its term of copyright has expired.

आवरण धचत्र सौजन्य (प्रेमचंद): Wikipedia.org Cover Image by Sanjay Khatri: Based on image from http://animalphotos.info.

ह द ं ीकोश Hindikosh.in http://www.hindikosh.in

प्रेमचंद

गोदान ोरीराम ने दोनों बैलों को सानी-पानी दे कर अपनी स्त्री ि नया से क ा -- गोबर को ऊख गोड़ने भेज दे ना। मैं न जाने कब लौटूूँ। ज़रा मेरी लाठी दे दे । ि नया के दोनों

ाथ गोबर से भरे थे। उपले पाथकर आयी थी।

कुछ रस-पानी तो कर लो। ऐसी जल्दी क्या

बोली -- अरे ,

ै।

ोरी ने अपने झुररयों से भरे

पड़ी

ै , मझ ु े य

धचन्ता

ु ए माथे को ससकोड़कर क ा -- तुझे रस-पानी की ै कक अबेर ो गयी तो मासलक से भें ट न ोगी।

असनान-पूजा करने लगें गे, तो घंटों बैठे बीत जायगा।

'इसी से तो क ती ू ूँ , कुछ जलपान कर लो। और आज न जाओगे तो कौन रज़ ोगा। अभी तो परसों गये थे।' 'तू जो बात न ीं समझती, उसमें टाूँग क्यों अड़ाती ै भाई! मेरी लाठी दे दे और अपना काम दे ख। य

इसी समलते-जुलते र ने का परसाद

ै कक अब तक जान

बची ु ई ै । न ीं क ीं पता न लगता कक ककिर गये। गाूँव में इतने आदमी तो ैं, ककस पर बेदख़ली न ीं आयी, ककस पर कुड़की न ीं आयी। जब दस ू रे के पाूँवोंतले अपनी गदद न दबी ु ई

ै , तो उन पाूँवों को स लाने में

ि नया इतनी व्यव ार-कुशल न थी। उसका ववचार था कक खेत जोते

ैं , तो व

अपना लगान

ी तो लेगा।

ी कुशल

ै ।'

मने ज़मींदार के

उसकी ख़श ु ामद क्यों करें , उसके

तलवे क्यों स लायें। यद्यवप अपने वववाह त जीवन के इन बीस बरसों में उसे अच्छी तर

अनुभव

ो गया था कक चा े ककतनी

ी कतर-ब्योंत करो, ककतना

पेट-तन काटो, चा े एक-एक कौड़ी को दाूँत से पकड़ो; मगर लगान बेबाक़ मश्ु ककल

ै । किर भी व



ोना

ार न मानती थी, और इस ववषय पर स्त्री-परु ु ष में

आये हदन संग्राम छड़ा र ता था। उसकी छः सन्तानों में अब केवल तीन श्ज़न्दा ैं, एक लड़का गोबर कोई सोल

साल का, और दो लड़ककयाूँ सोना और रूपा,

बार

और आठ साल की। तीन लड़के बचपन

ी में मर गये। उसका मन आज

भी क ता था, अगर उनकी दवादारू

ोती तो वे बच जाते; पर व

एक िेले की

दवा भी न मूँगवा सकी थी। उसकी

ी उम्र अभी क्या थी। छत्तीसवाूँ

ी साल

तो था; पर सारे बाल पक गये थे, चे रे पर झुररद याूँ पड़ गयी थीं। सारी दे

ढल

गयी थी, व

सुंदर गे ु आूँ रं ग सूँवला गया था और आूँखों से भी कम सूझने लगा था। पेट की धचंता ी के कारण तो। कभी तो जीवन का सख ु न समला। इस धचरस्थायी जीणाणदवस्था ने उसके आत्म-सम्मान को उदासीनता का रूप दे हदया था। श्जस ग ृ स्थी में पेट की रोहटयाूँ भी न समलें , उसके सलए इतनी ख़ुशामद क्यों? इस पररश्स्थ त से उसका मन बराबर ववद्रो घुड़ककयाूँ खा लेने पर उसने परास्त

ोकर

ी उसे यथाथद का ज्ञान

ककया करता था। और दो चार

ोता था।

ोरी की लाठी, समरजई, जूत,े पगड़ी और तमाखू का बटुआ

लाकर सामने पटक हदये।

ोरी ने उसकी ओर आूँखें तरे र कर क ा -- क्या ससुराल जाना

पोसाक लायी

जाकर हदखाऊूँ।

ै जो पाूँचों

ै ? ससुराल में भी तो कोई जवान साली-सल ज न ीं बैठी

ै , श्जसे

ोरी के ग रे साूँवले, वपचके ु ए चे रे पर मुस्करा ट की मद ु ा झलक पड़ी। ृ त ि नया ने लजाते ु ए क ा -- ऐसे तम् ु ें दे ख कर रीझ जायूँगी!

ी तो बड़े सजीले जवान

ो कक साली-सल जें

ोरी ने िटी ु ई समरजई को बड़ी साविानी से त करके खाट पर रखते ु ए क ा -- तो क्या तू समझती ै , मैं बूढ़ा ो गया? अभी तो चालीस भी न ीं ु ए। मदद साठे पर पाठे ोते ैं।

'जाकर सीसे में मूँु दे खो। तुम-जैसे मदद साठे पर पाठे न ीं ोते। दि ू -घी अंजन लगाने तक को तो समलता न ीं, पाठे भी सूखी जाती ू ूँ कक भगवान ण य माूँगेंगे?'

ोंगे! तुम् ारी दशा दे ख-दे खकर तो मैं और

बुढ़ापा कैसे कटे गा? ककसके द्वार पर भीख

ोरी की व

क्षणणक मद ु ा यथाथद की इस आूँच में जैसे झल ु स गयी। लकड़ी ृ त

सूँभालता ु आ बोला -- साठे तक प ु ूँ चने की नौबत न आने पायेगी ि नया! इसके प ले ी चल दें गे। ि नया ने तरस्कार ककया -- अच्छा र ने दो, मत असभ ु मूँु कोई अच्छी बात भी क े , तो लगते

ो कोसने।

से नकालो। तम ु से

ोरी लाठी कंिे पर रखकर घर से नकला, तो ि नया द्वार पर खड़ी उसे दे र तक दे खती र ी। उसके इन नराशा-भरे शब्दों ने ि नया के चोट खाये में आतंकमय कंपन-सा डाल हदया था। व

ु ए हृदय जैसे अपने नारीत्व के संपूणद तप और

व्रत से अपने प त को अभय-दान दे र ी थी। उसके अंतःकरण से जैसे आशीवाददों का व्यू -सा नकल कर

ोरी को अपने अन्दर छपाये लेता था। ववपन्नता के

दे कर उसके

तनके का स ारा छीन लेना चा ा बश्ल्क यथाथद के

इस अथा

तण ृ था, श्जसे पकड़े ु ए व सागर को पार कर र ी थी। इन असंगत शब्दों ने यथाथद के नकट ोने पर भी मानो झटका नकट

सागर में सो ाग ाथ से व

ोने के कारण

काने को जो दःु ख

ी व

ी उनमें इतनी वेदना-शश्क्त आ गयी थी। काना क ने से

ोता

ै, व

क्या दो आूँखोंवाले आदमी को

ो सकता

ै?

ोरी क़दम बढ़ाये चला जाता था। पगडंडी के दोनों ओर ऊख के पौिों की ल राती ु ई ररयाली दे ख कर उसने मन में क ा -- भगवान ण क ीं गौं से बरखा कर दें और डाूँड़ी भी सुभीते से र े , तो एक गाय ज़रूर लेगा। दे शी गायें तो न दि ू दें न उनके बछवे

ी ककसी काम के

ों। ब ु त ु आ तो तेली के कोल् ू में उसकी ख़ब ू सेवा करे गा। कुछ न ीं तो चार-

चले। न ीं, व

पछाईं गाय लेगा।

पाूँच सेर दि ू

ोगा। गोबर दि ू के सलए तरस-तरस कर र

जाता

ै । इस उसमर

में न खाया-वपया, तो किर कब खायेगा। साल-भर भी दि ू पी ले, तो दे खने लायक़ ो जाय। बछवे भी अच्छे बैल नकलें गे। दो सौ से कम की गोंई न

गऊ से

ी तो द्वार की सोभा

क ना। न जाने कब य र एक ग ृ स्थ की भाूँ त

ै । सबेरे-सबेरे गऊ के दशदन

साि परू ी

ोगी, कब व

ोगी। किर,

ो जायूँ तो क्या

शुभ हदन आयेगा!

ोरी के मन में भी गऊ की लालसा धचरकाल से

संधचत चली आती थी। य ी उसके जीवन का सबसे बड़ा स्वप्न , सबसे बड़ी साि

थी। बैंक सद ू से चैन करने या ज़मीन ख़रीदने या म ल बनवाने की ववशाल आकांक्षाएूँ उसके नन् ें -से हृदय में कैसे समातीं।

जेठ का सूयद आमों के झुरमुट में से नकलकर आकाश पर छायी ु ई लासलमा को अपने रजत-प्रताप से तेज प्रदान करता ु आ ऊपर चढ़ र ा था और वा में गमीणद आने लगी थी। दोनों ओर खेतों में काम करनेवाले ककसान उसे दे खकर राम-राम करते और सम्मान-भाव से धचलम पीने का नमंत्रण दे ते थे; पर

ोरी

को इतना अवकाश क ाूँ था। उसके अंदर बैठी ु ई सम्मान-लालसा ऐसा आदर पाकर उसके सूखे मुख पर गवद की झलक पैदा कर र ी थी। मासलकों से समलतेजल ु ते र ने

ी का तो य

प्रसाद

ै कक सब उसका आदर करते

कौन पूछता? पाूँच बीघे के ककसान की बबसात कक तीन-तीन, चार-चार अब व

ी क्या? य

ैं। न ीं उसे

कम आदर न ीं

लवाले म तो भी उसके सामने ससर झुकाते



ैं।

खेतों के बीच की पगडंडी छोड़कर एक खलेटी में आ गया था , ज ाूँ

बरसात में पानी भर जाने के कारण तरी र ती थी और जेठ में कुछ

ररयाली

नज़र आती थी। आस-पास के गाूँवों की गउएूँ य ाूँ चरने आया करती थीं। उस समय में भी य ाूँ की

वा में कुछ ताज़गी और ठं डक थी।

ोरी ने दो-तीन साूँसें

ज़ोर से लीं। उसके जी में आया, कुछ दे र य ीं बैठ जाय। हदन-भर तो लू-लपट में मरना



ी। कई ककसान इस गड्ढे का पट्टा सलखाने को तैयार थे। अच्छी रक़म

दे ते थे; पर ईकवर भला करे राय सा ब का कक उन् ोंने साफ़ क ज़मीन जानवरों की चराई के सलए छोड़ दी गयी उठायी जायगी। कोई स्वाथी ज़मींदार रुपए समलते

हदया , य

ै और ककसी दाम पर भी न

ोता, तो क ता, गायें जाएूँ भाड़ में , में

ैं, क्यों छोड़ें। पर राय सा ब अभी तक पुरानी मयाददा नभाते आते

ैं। जो मासलक प्रजा को न पाले , व

भी कोई आदमी

ै?

स सा उसने दे खा, भोला अपनी गायें सलये इसी तरफ़ चला आ र ा

ै । भोला

इसी गाूँव से समले ु ए पुरवे का ग्वाला था और दि ू -मक्खन का व्यवसाय करता था। अच्छा दाम समल जाने पर कभी-कभी ककसानों के ाथ गायें बेच भी दे ता था।

ोरी का मन उन गायों को दे ख कर ललचा गया। अगर भोला व

गाय उसे दे तो क्या क ना! रुपए आगे पीछे दे ता र े गा। व रुपए न ीं बाक़ी

जानता था घर में

ैं , अभी तक लगान न ीं चुकाया जा सका, बबसेसर सा

ै , श्जस पर आने रुपए का सूद चढ़ र ा

आगेवाली

का दे ना भी

ै ; लेककन दररद्रता में जो एक

प्रकार की अदरू दसशदता भयभीत न ीं

ोती

ै, व

नलदज्जता जो तक़ाज़े, गाली और मार से भी

ोती, उसने उसे प्रोत्साह त ककया। बरसों से जो साि मन को

आंदोसलत कर र ी थी, उसने उसे ववचसलत कर हदया। भोला के समीप जाकर बोला -- राम-राम भोला भाई, क ो क्या रं ग-ढं ग अबकी मेले से नयी गायें लाये

ो।

भोला ने रूखाई से जवाब हदया।

ै । सन ु ा

ोरी के मन की बात उसने ताड़ ली थी --

ाूँ,

दो ब छयें और दो गायें लाया। प लेवाली गायें सब सख ू गयी थीं। बूँिी पर दि ू न प ु ूँचे तो गुज़र कैसे

ो।

ोरी ने आनेवाली गाय के पुट्ठे पर

ककतने में ली?

ाथ रखकर क ा -- दि ु ार तो मालूम

ोती

भोला ने शान जमायी -- अबकी बाज़ार बड़ा तेज़ र ा म तो, इसके अस्सी रुपए दे ने पड़े। आूँखें नकल गयीं। तीस-तीस रुपए तो दोनों कलोरों के हदये। तस पर गा क रुपए का आठ सेर दि ू माूँगता

ै।

'बड़ा भारी कलेजा ै तुम लोगों का भाई, लेककन किर लाये भी तो व माल कक य ाूँ दस-पाूँच गाूँवों में तो ककसी के पास नकलेगी न ीं। '

भोला पर नशा चढ़ने लगा। बोला -- राय सा ब इसके सौ रुपए दे ते थे। दोनों कलोरों के पचास-पचास रुपए, लेककन रुपए इसी ब्यान में पीट लूँ ग ू ा।

'इसमें क्या संदे भले ले लें । य धगन दे ते

मने न हदये। भगवान ण ने चा ा, तो सौ

ै भाई! मासलक क्या खाके लें गे। नज़राने में समल जाय, तो तुम् ीं लोगों का गुदाद

ो। य ी जी चा ता

ै कक अूँजुली-भर रुपए तक़दीर के भरोसे

ै कक इसके दरसन करता र ू ूँ। िन्य ै तुम् ारा जीवन कक गउओं की इतनी सेवा करते ो। में तो गाय का गोबर भी मयस्सर न ीं। धगरस्त के घर में एक गाय भी न साल-के-साल बीत जाते

ो, तो ककतनी लज्जा की बात

ैं, गोरस के दरसन न ीं

ै , भोला भैया से क्यों न ीं क ते। मैं क

ै।

ोते। घरवाली बार-बार क ती

दे ता ू ूँ , कभी समलें गे तो क ू ूँगा।

ै।

तम् ु ारे सभ ु ाव से बड़ी परसन र ती

ै । क ती

ै , ऐसा मदद

ी न ीं दे खा कक जब

बातें करें गे, नीची आूँखें करके, कभी ससर न ीं उठाते।' भोला पर जो नशा चढ़ र ा था, उसे इस भरपूर प्याले ने और ग रा कर हदया। बोला -- भला आदमी व ी

ै , जो दस ू रों की ब ू -बेटी को अपनी ब ू -बेटी समझे। जो दष्ु ट ककसी मे ररया की ओर ताके, उसे गोली मार दे ना चाह ए।

'य तुमने लाख रुपये की बात क दी भाई। बस सज्जन व ी, जो दस ू रों की आबरू को अपनी आबरू समझे।'

'श्जस तर मदद के मर जाने से औरत अनाथ ो जाती ै , उसी तर औरत के मर जाने से मदद के

ाथ-पाूँव टूट जाते

ैं। मेरा तो घर उजड़ गया म तो, कोई

एक लोटा पानी दे नेवाला भी न ीं।'

गत वषद भोला की स्त्री लू लग जाने से मर गयी थी। य

ोरी जानता था,

था। स्त्री की लालसा उसकी आूँखों में सजल

ोरी को आसन समल

लेककन पचास बरस का खंखड़ भोला भीतर से इतना श्स्नग्ि गया। उसकी व्याव ाररक कृषक-बवु ि सजग

ो गयी थी।

ै, व

न जानता

ो गयी।

'पुरानी मसल झूठी थोड़ी ै -- बबन घरनी घर भूत का डेरा। क ीं सगाई न ीं ठीक कर लेत? े '

'ताक में ू ूँ म तो, पर कोई जल्दी िूँसता न ीं। सौ-पचास ख़रच करने को भी तैयार ू ूँ। जैसी भगवान ण की इच्छा।' 'अब मैं भी कफ़कद में र ू ूँगा। भगवान ण चा ें गे, तो जल्दी घर बस जायगा।' 'बस य ी समझ लो कक उबर जाऊूँगा भैया! घर में खाने को भगवान ण का हदया ब ुत

ै । चार पसेरी रोज़ दि ू

ो जाता

ै , लेककन ककस काम का।'

'मेरे ससुराल में एक मे ररया ै । तीन-चार साल ु ए, उसका आदमी उसे छोड़कर कलकत्ते चला गया। बेचारी वपसाई करके गुज़र कर र ी कोई न ीं। दे खने-सुनने में अच्छी

ै । बस, लच्छमी समझ लो।'

ै । बाल-बच्चा भी

भोला का ससकुड़ा ु आ चे रा जैसे धचकना गया। आशा में ककतनी सि ु ा ै । बोला -- अब तो तुम् ारा ी आसरा ै म तो! छुट्टी ो, तो चलो एक हदन दे ख आयें।

'मैं ठीक-ठाक करके तब तुमसे क ू ूँगा। ब ु त उतावली करने से भी काम बबगड़ जाता ै ।' 'जब तुम् ारी इच्छा ो तब चलो। उतावली का े की। इस कबरी पर मन ललचाया

ो, तो ले लो।'

'य गाय मेरे मान की न ीं ै दादा। मैं तुम् ें नुक़सान न ीं प ु ूँचाना चा ता। अपना िरम य न ीं ै कक समत्रों का गला दबायें। जैसे इतने हदन बीते ैं , वैसे और भी बीत जायेंगे।'

'तुम तो ऐसी बातें करते ो ोरी, जैसे म-तुम दो ैं। तुम गाय ले जाओ, दाम जो चा े दे ना। जैसे मेरे घर र ी, वैसे तुम् ारे घर र ी। अस्सी रुपए में ली थी, तुम अस्सी रुपये

ी दे दे ना। जाओ।'

'लेककन मेरे पास नगद न ीं ै दादा, समझ लो।' 'तो तुमसे नगद माूँगता कौन ै भाई!' ोरी की छाती गज़-भर की

ो गयी। अस्सी रुपए में गाय मूँ गी न थी। ऐसा

अच्छा डील-डौल, दोनों जून में छः-सात सेर दि ू , सीिी ऐसी कक बच्चा भी द ु इसका तो एक-एक बाछा सौ-सौ का

ले।

ोगा। द्वार पर बूँिेगी तो द्वार की शोभा

बढ़ जायगी। उसे अभी कोई चार सौ रुपए दे ने थे; लेककन उिार को व

एक तर

से मुफ़्त समझता था। क ीं भोला की सगाई ठीक

ो गयी तो साल दो साल तो

को इसकी ज़्यादा शमद न थी। इस व्यव ार का व

आदी था। कृषक के जीवन



बोलेगा भी न ीं। सगाई न भी ु ई, तो ोरी का क्या बबगड़ता ै । य ी तो ोगा, भोला बार-बार तगादा करने आयेगा , बबगड़ेगा, गासलयाूँ दे गा। लेककन ोरी

का तो य

प्रसाद

ै । भोला के साथ व

छल कर र ा था और य

व्यापार

उसकी मयादाद के अनुकूल था। अब भी लेन-दे न में उसके सलए सलखा-पढ़ी और न

ोने

ोने में कोई अंतर न था। सूखे-बूड़े की ववपदाएूँ उसके मन को भी, बनाये

र ती थीं। ईकवर का रौद्र रूप सदै व उसके सामने र ता था। पर य

छल उसकी

नी त में छल न था। य

केवल स्वाथद-ससवि थी और य

इस तर

हदन-रात करता र ता था। घर में दो-चार रुपये पड़े

का छल तो व

कोई बरु ी बात न थी।

र ने पर भी म ाजन के सामने क़स्में खा जाता था कक एक पाई भी न ीं

ै।

सन को कुछ गीला कर दे ना और रुई में कुछ बबनौले भर दे ना उसकी नी त में जायज था। और य ाूँ तो केवल स्वाथद न था, थोड़ा-सा मनोरं जन भी था। बुड्ढों का बढ़ ु भस

ास्यास्पद वस्तु

ै और ऐसे बड् ु ढों से अगर कुछ ऐंठ भी सलया

जाय, तो कोई दोष-पाप न ीं। भोला ने गाय की पगह या भी याद करोगे।

ब्याते

ोरी के

ाथ में दे ते ु ए क ा -- ले जाओ म तो, तुम ी छः सेर दि ू ले लेना। चलो, मैं तम् ु ारे घर तक प ु ूँ चा

दूँ ।ू साइत तुम् ें अनजान समझकर रास्तों में कुछ हदक करे । अब तुमसे सच

क ता ू ूँ , मासलक नब्बे रुपए दे ते थे, पर उनके य ाूँ गउओं की क्या क़दर। मुझसे लेकर ककसी ाककम- ु क्काम को दे दे त।े ाककमों को गऊ की सेवा से मतलब। व

तो ख़ून चूसना-भर जानते

ैं। जब तक दि ू दे ती, रखते, किर ककसी के

बेच दे त।े ककसके पल्ले पड़ती कौन जाने। रुपया अपना िरम भी तो

ी सब कुछ न ीं

ै । तुम् ारे घर आराम से र े गी तो। य



ाथ

ै भैया, कुछ

ोगा कक तुम

आप खाकर सो र ो और गऊ भूखी खड़ी र े । उसकी सेवा करोगे, चुमकारोगे। गऊ

में आससरवाद दे गी। तुमसे क्या क ू ूँ भैया, घर में चंगुल भर भी भूसा न ीं र ा। रुपए सब बाज़ार में नकल गये। सोचा था म ाजन से कुछ लेकर भूसा ले लें गे; लेककन म ाजन का प ला

ी न ीं चक ु ा। उसने इनकार कर हदया। इतने

जानवरों को क्या णखलावें , य ी धचन्ता मारे डालती तो मन-भर रोज़ का ख़रच

ै । चुटकी-चुटकी भर णखलाऊूँ,

ै । भगवान ण ी पार लगायें तो लगे।

ोरी ने स ानभ ु ू त के स्वर में क ा -- तम ु ने

मसे प ले क्यों न ीं क ा? मने

एक गाड़ी भूसा बेच हदया।

भोला ने माथा ठोककर क ा -- इसीसलए न ीं क ा भैया कक सबसे अपना दःु ख क्यों रोऊूँ। बाूँटता कोई न ीं, ूँ सते सब

ैं। जो गायें सख ू गयी

न ीं, पत्ती-सत्ती णखलाकर श्जला लूँ ग ू ा; लेककन अब य सकती।

ो सके, तो दस-बीस रुपये भूसे के सलए दे दो।

ैं उनका ग़म

तो रा तब बबना न ीं र

ककसान पक्का स्वाथी

ोता

बड़ी मुश्ककल से नकलते

ै , इसमें संदे

ैं, भाव-ताव में भी व

एक पाई छुड़ाने के सलए व ववकवास न

ो जाय, व

ै, व तप्ृ त

ोता

ै।

ोता

ै , ब्याज की एकै , जब तक पक्का

ककसी के िुसलाने में न ीं आता, लेककन उसका संपूणद

ै, व

ै । वक्ष ृ ों में िल लगते

संसार के काम आता

ख़ुद पीने न ीं जाती दस ू रे ोती

चौकस

म ाजन की घंटों धचरौरी करता

जीवन प्रकृ त से स्थायी स योग खेती में अनाज

न ीं। उसकी गाूँठ से ररकवत के पैसे

ी पीते

ैं, उन् ें जनता खाती

ै ; गाय के थन में दि ू

ैं; मेघों से वषाद

ोती

था और ककसी के जलते ु ए घर में भोला की संकट-कथा सुनते के

ाथ सेंकना उसने सीखा

ोता

ै , उससे पथ् ृ वी

ऐसी संग त में कुश्त्सत स्वाथद के सलए क ाूँ स्थान।

ोरी ककसान

ी न था।

ी उसकी मनोवश्ृ त्त बदल गयी। पगह या को भोला

ाथ में लौटाता ु आ बोला -- रुपए तो दादा मेरे पास न ीं ैं , ाूँ थोड़ा-सा भूसा बचा ै , व तुम् ें दूँ ग ू ा। चलकर उठवा लो। भस ू े के सलए तुम गाय बेचोगे, और मैं लूँ ग ू ा। मेरे

ाथ न कट जायेंगे?

भोला ने आद्रद कंठ से क ा -- तुम् ारे बैल भूखों न मरें गे! तुम् ारे पास भी ऐसा कौन-सा ब ु त-सा भूसा रखा

ै।

'न ीं दादा, अबकी भूसा अच्छा ो गया था।' 'मैंने तुमसे ना क़ भूसे की चचाद की।' 'तुम न क ते और पीछे से मझ ु े मालूम ोता, तो मुझे बड़ा रं ज ोता कक तुमने मुझे इतना ग़ैर समझ सलया। अवसर पड़ने पर भाई की मदद भाई भी न करे , तो काम कैसे चले।'

'मुदा य गाय तो लेते जाओ।' 'अभी न ीं दादा, किर ले लूँ ग ू ा।' 'तो भूसे के दाम दि ू में कटवा लेना।'

ै;

ोरी ने दःु णखत स्वर में क ा -- दाम-कौड़ी की इसमें कौन बात

ै दादा, मैं एक-

दो जून तुम् ारे घर खा लूँ ू, तो तुम मुझसे दाम माूँगोगे?

'लेककन तुम् ारे बैल भूखों मरें गे कक न ीं?' 'भगवान ण कोई-न-कोई सबील नकालें गे ी। असाढ़ ससर पर ै । कड़बी बो लूँ ग ू ा।' 'मगर य गाय तम् ु ारी ो गयी। श्जस हदन इच्छा ो आकर ले जाना।' 'ककसी भाई का नलाम पर चढ़ा ु आ बैल लेने में जो पाप ै , व इस समय तुम् ारी गाय लेने में ै ।' ोरी में बाल की खाल नकालने की शश्क्त की रा

ोती, तो व

ख़ुशी से गाय लेकर घर

लेता। भोला जब नक़द रुपए न ीं माूँगता तो स्पष्ट था कक व

सलए गाय न ीं बेच र ा

ै , बश्ल्क इसका कुछ और आशय

के खड़कने पर घोड़ा अकारण न ीं उठाता व ी दसा

ी हठठक जाता

भूसे के

ै ; लेककन जैसे पत्तों

ै और मारने पर भी आगे क़दम

ोरी की थी। संकट की चीज़ लेना पाप

ै, य

बात जन्म-

जन्मान्तरों से उसकी आत्मा का अंश बन गयी थी। भोला ने गद्गद कंठ से क ा -- तो ककसी को भेज दूँ ू भूसे के सलए? ोरी ने जवाब हदया -- अभी मैं राय सा ब की डयोढ़ी पर जा र ा ू ूँ। व ाूँ से घड़ी-भर में लौटूूँगा, तभी ककसी को भेजना। भोला की आूँखों में आूँसू भर आये। बोला -- तुमने आज मुझे उबार सलया

ोरी

भाई! मुझे अब मालूम ु आ कक मैं संसार में अकेला न ीं ू ूँ। मेरा भी कोई ह तू ै। एक क्षण के बाद उसने किर क ा -- उस बात को भल ू न जाना। ोरी आगे बढ़ा, तो उसका धचत्त प्रसन्न था। मन में एक ववधचत्र स्िू तद ो र ी

थी। क्या ु आ, दस-पाूँच मन भूसा चला जायगा, बेचारे को संकट में पड़ कर अपनी गाय तो न बेचनी पड़ेगी। जब मे रे पास चारा ो जायगा, तब गाय खोल लाऊूँगा। भगवान ण करें , मुझे कोई मे ररया समल जाय। किर तो कोई बात

ी न ीं।

उसने पीछे किर कर दे खा। कबरी गाय पूँछ ू से मश्क्खयाूँ उड़ाती, ससर ह लाती,

मस्तानी, मंद-ग त से झूमती चली जाती थी, जैसे बाूँहदयों के बीच में कोई रानी ो। कैसा शुभ

***

ोगा व

हदन, जब य

कामिेनु उसके द्वार पर बूँिेगी!

2 सेमरी और बेलारी दोनों अवि-प्रांत के गाूँव ज़रूरत न ीं।

ोरी बेलारी में र ता

गाूँवों में केवल पाूँच मील का अंतर

ैं। श्ज़ले का नाम बताने की कोई

ै , राय सा ब अमरपाल ससं सेमरी में । दोनों ै । वपछले सत्याग्र -संग्राम में राय सा ब ने

बड़ा यश कमाया था। कौंससल की मेम्बरी छोड़कर जेल चले गये थे। तब से उनके इलाक़े के असासमयों को उनसे बड़ी श्रिा

ो गयी थी। य

इलाक़े में असासमयों के साथ कोई ख़ास ररयायत की जाती बेगार की कड़ाई कुछ कम

ो; मगर य

ो , या डाूँड़ और

सारी बदनामी मुख़्तारों के ससर जाती

थी। राय सा ब की की तद पर कोई कलंक न लग सकता था। व उसी व्यवस्था के ग़ल ु ाम थे। ज़ाब्ते का काम तो जैसे ी

न ीं कक उनके

बेचारे भी तो

ोता चला आया

ै , वैसा

ोगा। राय सा ब की सज्जनता उस पर कोई असर न डाल सकती थी ;

इससलए आमदनी और अधिकार में जौ-भर की भी कमी न यश मानो बढ़ गया था। असासमयों से व ै ? ससं का काम तो सशकार करना

ोने पर भी उनका

ूँस कर बोल लेते थे। य ी क्या कम

ै ; अगर व

गरजने और गरु ाने के बदले

मीठी बोली बोल सकता, तो उसे घर बैठे मनमाना सशकार समल जाता। सशकार की खोज में जंगल में न भटकना पड़ता। राय सा ब राष्रवादी

ोने पर भी ु क्काम से मेल-जोल बनाये रखते थे। उनकी नज़रें और डासलयाूँ और कमदचाररयों की दस्तूररयाूँ जैसी की तैसी चली आती थीं। साह त्य और संगीत के प्रेमी थे, ड्रामा के शौक़ीन, अच्छे वक्ता थे, अच्छे लेखक, अच्छे नशाने-बाज़। उनकी पत्नी को मरे आज दस साल शादी न की थी।

ो चुके थे; मगर दस ू री

ूँस-बोलकर अपने वविुर जीवन को ब लाते र ते थे।

ोरी ड्योढ़ी पर प ु ूँचा तो दे खा जेठ के दश रे के अवसर पर ोनेवाले िनुष-यज्ञ की बड़ी ज़ोरों से तैयाररयाूँ ो र ी ैं। क ीं रं ग -मंच बन र ा था, क ीं मंडप, क ीं मे मानों का आ तथ्य-ग ृ , क ीं दक ू ानदारों के सलए दक ू ानें। िूप तेज़

ो गयी थी;

पर राय सा ब ख़द ु काम में लगे

ु ए थे। अपने वपता से संपश्त्त के साथ-साथ उन् ोंने राम की भश्क्त भी पायी थी और िनष ु -यज्ञ को नाटक का रूप दे कर उसे सशष्ट मनोरं जन का सािन बना हदया था। इस अवसर पर उनके यार-दोस्त,

ाककम- ु क्काम सभी नमंबत्रत ोते थे। और दो-तीन हदन इलाक़े में बड़ी च लप ल र ती थी। राय सा ब का पररवार ब ु त ववशाल था। कोई डेढ़ सौ सरदार

एक साथ भोजन करते थे। कई चचा थे , दरजनों चचेरे भाई, कई सगे भाई, बीससयों नाते के भाई। एक चचा सा ब रािा के अनन्य उपासक थे और बराबर वन्ृ दाबन में र ते थे। भश्क्त-रस के ककतने

ी कववता रच डाले थे और समय-

समय पर उन् ें छपवाकर दोस्तों की भें ट कर दे ते थे। एक दस ू रे चचा थे, जो राम के परमभक्त थे और फ़ारसी-भाषा में रामायण का अनुवाद कर र े थे। ररयासत से सबके वसीके बूँिे ु ए थे। ककसी को कोई काम करने की ज़रूरत न थी।

ोरी मंडप में खड़ा सोच र ा था कक अपने आने की सूचना कैसे दे कक स सा

राय सा ब उिर

ी आ नकले और उसे दे खते

ी बोले -- रे ! तू आ गया

मैं तो तझ ु े बल ु वानेवाला था। दे ख, अबकी तझ ु े राजा जनक का माली बनना पड़ेगा। समझ गया न, श्जस वक़्त जानकी जी मंहदर में पूजा करने जाती

ोरी,

ैं, उसी

वक़्त तू एक गुलदस्ता सलये खड़ा र े गा और जानकी जी की भें ट करे गा। ग़लती न करना और दे ख, असासमयों से ताकीद करके क

दे ना कक सब-के-सब शगुन

करने आयें। मेरे साथ कोठी में आ, तुझसे कुछ बातें करनी

ैं। व

आगे-आगे

कोठी की ओर चले, ोरी पीछे -पीछे चला। व ीं एक घने वक्ष ृ की छाया में एक कुरसी पर बैठ गये और

ोरी को ज़मीन पर बैठने का इशारा करके बोले --

समझ गया, मैंने क्या क ा। कारकुन को तो जो कुछ करना लेककन असामी श्जतने मन से असामी की बात सुनता सुनता।

में इन् ीं पाूँच-सात हदनों में बीस

समझ में न ीं आता। तम ु सोचते

ै, व

करे गा

ै , कारकुन की न ीं

ज़ार का प्रबन्ि करना

ी,

ै । कैसे

ोगा ,

ोगे , मझ ु टके के आदमी से मासलक क्यों

अपना दख ु ड़ा ले बैठे। ककससे अपने मन की क ू ूँ ? न जाने क्यों तुम् ारे ऊपर ववकवास ोता ै । इतना जानता ू ूँ कक तुम मन में मुझ पर ूँसोगे न ीं। और ूँसो भी, तो तुम् ारी

जो अपने बराबर के क्यों न

ूँसी मैं वरदाकत कर सकूूँगा। न ीं स ैं, क्योंकक उनकी

सकता उनकी

ूँसी में ईष्याद, व्यंग और जलन

ूँसेंगे। मैं भी तो उनकी दद ु द शा और ववपश्त्त और पतन पर

हदल खोलकर, तासलयाूँ बजाकर। संपश्त्त और सहृदयता में वैर दे ते

ैं, िमद करते

हदखाने के सलए। से ककसी पर डडग्री वालात

ैं। लेककन जानते

ै।

ूँसी,

ै । और वे

ूँसता ू ूँ , म भी दान

ो , क्यों? केवल अपने बराबरवालों को नीचा

मारा दान और िमद कोरा अ ं कार

ै , ववशुि अ ं कार।

म में

ो जाय, क़ुक़ी आ जाय, बक़ाया मालगुज़ारी की इल्लत में

ो जाय, ककसी का जवान बेटा मर जाय, ककसी की वविवा ब ू नकल जाय, ककसी के घर में आग लग जाय, कोई ककसी वेकया के ाथों उल्लू बन जाय, या अपने असासमयों के

ाथों वपट जाय, तो उसके और सभी भाई उस पर

ूँसेंगे,

बग़लें बजायेंगे, मानो सारे संसार की संपदा समल गयी प्रेम से, जैसे

मारे पसीने की जग

ै । और समलें गे तो इतने

ख़ून ब ाने को तैयार

ैं। अरे , और तो और,

मारे चचेरे, िुिेरे , ममेरे, मौसेरे भाई जो इसी ररयासत की बदौलत मौज उड़ा र े

ैं, कववता कर र े ैं, व

ैं और जुए खेल र े

भी मुझसे जलते

ैं, शराबें पी र े

ैं और ऐयाशी कर र े

ैं, और आज मर जाऊूँ तो घी के धचराग़ जलायें। मेरे

दःु ख को दःु ख समझनेवाला कोई न ीं। उनकी नज़रों में मझ ु े दख ु ी अधिकार बीमार

ी न ीं

ै । मैं अगर रोता ू ूँ , तो दःु ख की ूँसी उड़ाता ू ूँ। मैं अगर ोता ू ूँ, तो मुझे सुख ोता ै । मैं अगर अपना ब्या करके घर में कल

न ीं बढ़ाता तो य ववलासांिता व

ोने का कोई

मेरी नीच स्वाथदपरता

ै ; अगर ब्या

कर लूँ ू, तो व

ोगी। अगर शराब न ीं पीता तो मेरी कंजूसी

ै । शराब पीने लगूँू, तो

प्रजा का रक्त

ोगा। अगर ऐयाशी न ीं करता, तो अरससक ू ूँ , ऐयाशी करने लगूँू, तो किर क ना ी क्या। इन लोगों ने मुझे भोग-ववलास में िूँसाने के सलए कम चालें न ीं चलीं और अब तक चलते जाते अन्िा

ैं। उनकी य ी इच्छा

ो जाऊूँ और ये लोग मुझे लूट लें , और मेरा िमद य

दे खकर भी कुछ न दे ख।ूूँ सब कुछ जानकर भी गिा बना र ू ूँ।

ै कक सब कुछ

राय सा ब ने गाड़ी को आगे बढ़ाने के सलए दो बीड़े पान खाये और की ओर ताकने लगे, जैसे उसके मनोभावों को पढ़ना चा ते ोरी ने सा स बटोरकर क ा -ोती

ैं, पर जान पड़ता

राय सा ब ने मूँु मारे नाम बड़े

ों।

म समझते थे कक ऐसी बातें

ै , बड़े आदसमयों में उनकी कमी न ीं

पान से भरकर क ा -- तम ु

ै कक मैं

ोरी के मूँु

मीं लोगों में ै।

में बड़ा आदमी समझते

ैं , पर दशदन थोड़े। ग़रीबों में अगर ईष्याद या वैर

ो?

ै तो स्वाथद के

सलए या पेट के सलए। ऐसी ईष्याद और वैर को मैं क्षम्य समझता ू ूँ। मारे मूँु की रोटी कोई छीन ले तो उसके गले में उूँ गली डालकर नकालना मारा िमद ो जाता

ै । अगर

आनंद के सलए कुहटलता में

म छोड़ दें , तो दे वता ै।

ैं। बड़े आदसमयों की ईष्याद और वैर केवल

म इतने बड़े आदमी

ो गये

ी नःस्वाथद और परम आनंद समलता

ैं कक ै।

में नीचता और म दे वतापन के उस दजे

पर प ु ूँच गये ैं जब में दस ू रों के रोने पर ूँसी आती ै । इसे तुम छोटी सािना मत समझो। जब इतना बड़ा कुटुम्ब ै , तो कोई-न-कोई तो मेशा बीमार र े गा

ी। और बड़े आदसमयों के रोग भी बड़े

ोते

ैं। व

बड़ा आदमी

ी क्या ,

श्जसे कोई छोटा रोग जाती

ो। मामल ू ी ज्वर भी आ जाय, तो

ै , मामूली िुंसी भी नकल आये, तो व

में सरसाम की दवा दी

ज़ रबाद बन जाती

ै । अब छोटे

सजदन और मझोले सजदन और बड़े सजदन तार से बुलाये जा र े को लाने के सलए हदल्ली आदमी भेजा जा र ा कलकत्ता। उिर दे वालय में दग ु ादपाठ ववचार कर र े

ो र ा

ैं , मसी ु लमुल्क ै , भवषचायद को लाने के सलए

ै और ज्यो तषाचायद कंु डली का

ैं और तंत्र के आचायद अपने अनष्ु ठान में लगे

सा ब को यमराज के मूँु

ु ए ैं। राजा ै । वैद्य और

से नकालने के सलए दौड़ लगी ु ई डाक्टर इस ताक में र ते ैं कक कब ससर में ददद ो और कब उनके घर में सोने की वषाद

ो। और ये रुपए तुमसे और तुम् ारे भाइयों से वसूल ककये जाते

की नोक पर। मुझे तो य ी आकचयद

ोता

ैं , भाले

ै कक क्यों तुम् ारी आ ों का दावानल

में भस्म न ीं कर डालता; मगर न ीं, आकचयद करने की कोई बात न ीं। भस्म

ोने में तो ब ु त दे र न ीं लगती, वेदना भी थोड़ी ी दे र की ोती ै । म जौ-जौ और अंगुल-अंगुल और पोर-पोर भस्म ो र े ैं। उस ा ाकार से बचने के सलए म पुसलस की, ु क्काम की, अदालत की, वकीलों की शरण लेते ैं। और रूपवती स्त्री की भाूँ त सभी के ाथों का णखलौना बनते ैं। द ु नया समझती ै , म बड़े सख ु ी

ैं।

मारे पास इलाक़े, म ल, सवाररयाूँ, नौकर-चाकर, क़रज़, वेकयाएूँ, क्या न ीं

ैं, लेककन श्जसकी आत्मा में बल न ीं, असभमान न ीं, व

आदमी न ीं दःु ख पर सब दबी

और चा े कुछ

ै । श्जसे दकु मन के भय के मारे रात को नींद न आती ूँसें और रोनेवाला कोई न

ो,

ो, श्जसके

ो, श्जसकी चोटी दस ू रों के पैरों के नीचे

ो, जो भोग-ववलास के नशे में अपने को बबलकुल भूल गया

के तलवे चाटता क ता। व

ो और अपने अिीनों का ख़न ू चस ू ता

तो संसार का सबसे अभागा प्राणी

ो, जो ु क्काम ो, उसे मैं सख ु ी न ीं

ै । सा ब सशकार खेलने आयें या

दौरे पर, मेरा कतदव्य पड़ी और मगर व

ै कक उनकी दम ु के पीछे लगा र ू ूँ। उनकी भौं ों पर सशकन मारे प्राण सूखे। उन् ें प्रसन्न करने के सलए म क्या न ीं करते।

पचड़ा सुनाने लगूँू तो शायद तुम् ें ववकवास न आये। डासलयों और

ररकवतों तक तो ख़ैर ग़नीमत मुफ़्तख़ोरी ने

ै , म ससजदे करने को भी तैयार र ते

में अपंग बना हदया

ैं।

ै , में अपने पुरुषाथद पर लेशमात्र भी

ववकवास न ीं, केवल अफ़सरों के सामने दम ु ह ला-ह लाकर ककसी तर

उनके

कृपापात्र बने र ना और उनकी स ायता से अपनी प्रजा पर आतंक ज़माना मारा उद्यम

ै । वपछलगुओं की ख़ुशामद ने

तन ु कसमज़ाज बना हदया

ै कक

में इतना असभमानी और

ममें शील, ववनय और सेवा का लोप

मैं तो कभी-कभी सोचता ू ूँ कक अगर सरकार



मारे इलाक़े छीनकर

ो गया में अपनी

ै।

रोज़ी के सलए मे नत करना ससखा दे तो तो नकचय

ै कक अब सरकार भी

स्वाथद न ीं नकलता। लक्षण क

मारे साथ म ान उपकार करे , और य

मारी रक्षा न करे गी।

मसे अब उसका कोई

ैं कक ब ु त जल्द मारे वगद की स्ती ै । मैं उस हदन का स्वागत करने को तैयार बैठा ू ूँ। ईकवर व

समट जानेवाली

हदन जल्द लाये। व

र े

मारे उिार का हदन

ोगा।

म पररस्थ तयों के सशकार

बने ु ए ैं। य पररश्स्थ त ी मारा सवदनाश कर र ी ै और जब तक संपश्त्त की य बेड़ी मारे पैरों से न नकलेगी , जब तक य असभशाप मारे ससर पर मूँडराता र े गा, म मानवता का व का अं तम लक्ष्य

ै।

पद न पा सकेंगे श्जस पर प ु ूँचना

ी जीवन

राय सा ब ने किर धगलौरी-दान नकाला और कई धगलौररयाूँ नकालकर मूँु

में

भर लीं। कुछ और क ने वाले थे कक एक चपरासी ने आकर क ा -- सरकार बेगारों ने काम करने से इनकार कर हदया समलेगा

म काम न करें गे।

ै । क ते

ैं , जब तक

में खाने को न

मने िमकाया , तो सब काम छोड़कर अलग



गये। राय सा ब के माथे पर बल पड़ गये। आूँखें नकालकर बोले --चलो, मैं इन दष्ु टों को ठीक करता ू ूँ। जब कभी खाने को न ीं हदया, तो आज य नई बात क्यों? एक आने रोज़ के ह साब से मजरू ी समलेगी, जो मेशा समलती र ी ै ; और इस मजूरी पर उन् ें काम करना किर

ोगा, सीिे करें या टे ढ़े।

ोरी की ओर दे खकर बोले -- तुम अब जाओ

बात मैंने क ी सौ की आशा

ै।

ोरी, अपनी तैयारी करो। जो

ै , उसका ख़याल रखना। तम् ु ारे गाूँव से मझ ु े कम-से-कम पाूँच

राय सा ब झल्लाते ु ए चले गये। ोरी ने मन में सोचा, अभी य और एकाएक इतने गरम

कैसी-कैसी नी त और िरम की बातें कर र े थे

ो गये!

सय ू द ससर पर आ गया था। उसके तेज से असभभत ू

ोकर वक्ष ृ ों ने अपना पसार

समेट सलया था। आकाश पर समटयाला गदद छाया ु आ था और सामने की पथ् ृ वी काूँपती ु ई जान पड़ती थी।

ोरी ने अपना डंडा उठाया और घर चला। शगून के रुपये क ाूँ से आयेंगे, य ी

धचंता उसके ससर पर सवार थी। ***

3 ोरी अपने गाूँव के समीप प ु ूँचा, तो दे खा, अभी तक गोबर खेत में ऊख गोड़ र ा ै और दोनों लड़ककयाूँ भी उसके साथ काम कर र ी ैं। लू चल र ी थी, बगूले

उठ र े थे, भत ू ल ििक र ा था। जैसे प्रकृ त ने वायु में आग घोल हदया य

सब अभी तक खेत में क्यों

ो।

ैं ? क्या काम के पीछे सब जान दे ने पर तुले

ु ए ैं? व खेत की ओर चला और दरू ी से धचल्लाकर बोला -- आता क्यों न ीं गोबर, क्या काम ी करता र े गा? दोप र ढल गया, कुछ सूझता ै कक न ीं? उसे दे खते

ी तीनों ने कुदालें उठा लीं और उसके साथ

ो सलये। गोबर साूँवला,

लम्बा, एक रा युवक था, श्जसे इस काम से रुधच न मालूम की जग कक व

मुख पर असंतोष और ववद्रो

ोती थी। प्रसन्नता

था। व

इससलये काम में लगा ु आ था हदखाना चा ता था, उसे खाने-पीने की कोई कफ़क्र न ीं ै । बड़ी लड़की

सोना लज्जा-शील कुमारी थी, साूँवली, सड ु ौल, प्रसन्न और चपल। गाढ़े की लाल साड़ी श्जसे व

घुटनों से मोड़ कर कमर में बाूँिे ु ए थी, उसके लके शरीर पर कुछ लदी ु ई सी थी, और उसे प्रौढ़ता की गररमा दे र ी थी। छोटी रूपा पाूँच-छः साल की छोकरी थी, मैली, ससर पर बालों का एक घोंसला-सा बना ु आ, एक लूँ गोटी कमर में बाूँिे, ब ु त ी ढीठ और रोनी। रूपा ने

ोरी की टाूँगों में सलपट कर क ा -- काका! दे खो, मैने एक ढे ला भी न ीं

छोड़ा। ब न क ती बराबर

ै , जा पेड़ तले बैठ। ढे ले न तोड़े जायूँगे काका, तो समट्टी कैसे

ोगी।

ोरी ने उसे गोद में उठाकर प्यार करते ु ए क ा -- तूने ब ु त अच्छा ककया बेटी, चल घर चलें । कुछ दे र अपने ववद्रो

को दबाये र ने के बाद गोबर बोला -- य

मासलकों की ख़ुशामद करने क्यों जाते गासलयाूँ सुनाता जाता

ै , बेगार दे नी

ी पड़ती

तम ु रोज़-रोज़

ो? बाक़ी न चुके तो प्यादा आकर ै , नज़र-नज़राना सब तो

मसे भराया

ै । किर ककसी की क्यों सलामी करो!

इस समय य ी भाव

ोरी के मन में भी आ र े थे; लेककन लड़के के इस ववद्रो -

भाव को दबाना ज़रूरी था।

बोला -- सलामी करने न जायूँ, तो र ें क ाूँ। भगवान ण ने जब ग़ल ु ाम बना हदया ै तो अपना क्या बस

ै। य

इसी सलामी की बरकत

ै कक द्वार पर मड़ैया

डाल ली और ककसी ने कुछ न ीं क ा। घूरे ने द्वार पर खट ूूँ ा गाड़ा था, श्जस पर काररंदों ने दो रुपए डाूँड़ ले सलये थे। तलैया से ककतनी समट्टी

मने खोदी , काररंदा

ने कुछ न ीं क ा। दस ू रा खोदे तो नज़र दे नी पड़े। अपने मतलब के सलए सलामी करने जाता ू ूँ , पाूँव में सनीचर न ीं ै और न सलामी करने में कोई बड़ा सुख समलता ै । घंटों खड़े र ो, तब जाके मासलक को ख़बर ोती ै । कभी बा र नकलते

ैं, कभी क ला दे ते

ैं कक फ़ुरसत न ीं

गोबर ने कटाक्ष ककया -- बड़े आदसमयों की आनंद तो समलता



ै।

ाूँ-में - ाूँ समलाने में कुछ-न-कुछ

ै । न ीं लोग मेम्बरी के सलए क्यों खड़े

ों ?

'जब ससर पर पड़ेगी तब मालम ोगा बेटा, अभी जो चा े क लो। प ले मैं भी ू

य ी सब बातें सोचा करता था; पर अब मालूम ु आ कक मारी गरदन दस ू रों के पैरों के नीचे दबी ु ई ै अकड़ कर नबा न ीं ो सकता।' वपता पर अपना क्रोि उतारकर गोबर कुछ शांत

ो गया और चप ु चाप चलने

लगा। सोना ने दे खा, रूपा बाप की गोद में चढ़ी बैठी

ै तो ईष्याद ु ई।

उसे डाूँटकर बोली -- अब गोद से उतरकर पाूँव-पाूँव क्यों न ीं चलती, क्या पाूँव टूट गये

ैं?

रूपा ने बाप की गरदन में काका, ब न

ाथ डालकर हढठाई से क ा -- न उतरें गे जाओ।

मको रोज़ धचढ़ाती

और रख दो।

ै कक तू रूपा

ै , मैं सोना ू ूँ। मेरा नाम कुछ

ोरी ने सोना को बनावटी रोष से दे खकर क ा -- तू इसे क्यों धचढ़ाती

सो नया? सोना तो दे खने को

ै । नबा

तो रूपा से

ोता

ै । रूपा न

ै ो , तो रुपए

क ाूँ से बनें , बता। सोना ने अपने पक्ष का समथदन ककया -- सोना न क ाूँ से आयें, कंठा कैसे बने?

ो मो न कैसे बने, नथु नयाूँ

गोबर भी इस ववनोदमय वववाद में शरीक कक सोना तो सूखी पत्ती की तर सोना बोली -- शादी-ब्या

पीला

ो गया। रूपा से बोला -- तू क

ै , रूपा तो उजला

में पीली साड़ी प नी जाती

ोता

दे

ै जैसे सूरज।

ै , उजली साड़ी कोई न ीं

प नता। रूपा इस दलील से परास्त

ो गयी। गोबर और

सामने न ठ र सकी। उसने क्षुब्ि आूँखों से

ोरी की कोई दलील इसके

ोरी को दे खा।

ोरी को एक नयी युश्क्त सूझ गयी। बोला -- सोना बड़े आदसमयों के सलए

म ग़रीबों के सलए तो रूपा



ै । जैसे जौ को राजा क ते

इससलए न कक गे ू ूँ बड़े आदमी खाते

ैं , जौ

म लोग खाते

ैं , गे ू ूँ को चमार; ैं।

सोना के पास इस सबल युश्क्त का कोई जवाब न था। परास्त तुम सब जने एक ओर

ै।

ोकर बोली --

ो गये, न ीं रुवपया को रुलाकर छोड़ती।

रूपा ने उूँ गली मटकाकर क ा -- ए राम, सोना चमार -- ए राम, सोना चमार। इस ववजय का उसे इतना आनन्द ु आ कक बाप की गोद में र न सकी। ज़मीन पर कूद पड़ी और उछल-उछलकर य ी रट लगाने लगी -- रूपा राजा, सोना चमार -- रूपा राजा, सोना चमार!

ये लोग घर प ु ूँचे तो ि नया द्वार पर खड़ी इनकी बाट जो र ी थी। रुष्ट ोकर बोली -- आज इतनी दे र क्यों की गोबर? काम के पीछे कोई परान थोड़े दे दे ता



ै।

किर प त से गमद

ोकर क ा -- तम ु भी व ाूँ से कमाई करके लौटे तो खेत में

प ु ूँच गये। खेत क ीं भागा जाता था! द्वार पर कुआूँ था।

ोरी और गोबर ने एक-एक कलसा पानी ससर पर उूँ ड़ेला,

रूपा को न लाया और भोजन करने गये। जौ की रोहटयाूँ थीं ; पर गे ू ूँ-जैसी सुफ़ेद और धचकनी। अर र की दाल थी श्जसमें कच्चे आम पड़े ु ए थे। रूपा बाप की

थाली में खाने बैठी। सोना ने उसे ईष्यारण-भरी आूँखों से दे खा, मानो क वा

र ी थी,

रे दल ु ार!

ि नया ने पूछा -- मासलक से क्या बात-चीत ु ई? ोरी ने लोटा-भर पानी चढ़ाते ु ए क ा -- य ी त सील-वसूल की बात थी और क्या। म लोग समझते ैं, बड़े आदमी ब ु त सख ु ी ोंगे; लेककन सच पूछो, तो व मसे भी ज़्यादा दःु खी ैं। में अपने पेट ी की धचन्ता ै , उन् ें ज़ारों धचन्ताएूँ घेरे र ती

ैं।

राय सा ब ने और क्या-क्या क ा था, व

कुछ

ोरी को याद न था। उस सारे

कथन का ख़ुलासा-मात्र उसके स्मरण में धचपका ु आ र गोबर ने व्यंग्य ककया -- तो किर अपना इलाक़ा खेत, बैल, ल, कुदाल सब उन् ें दे ने को तैयार नरी मोटमरदी। श्जसे दःु ख

ोता

ै, व

गया था।

में क्यों न ीं दे दे त!े

ैं। करें गे बदला? य

ैं, उस पर दख ु ी

सब िूतदता

ै,

दरजनों मोटरें न ीं रखता , म लों में न ीं

र ता, लवा-परू ी न ीं खाता और न नाच-रं ग में सलप्त र ता सख ु भोग र े

म अपने

ै । मज़े से राज का

ैं!

ोरी ने झूँुझलाकर क ा -- अब तुमसे ब स कौन करे भाई! जैजात ककसी से

छोड़ी जाती

ै कक व ी छोड़ दें गे।

मीं को खेती से क्या समलता

ै ? एक आने

नफ़री की मजरू ी भी तो न ीं पड़ती। जो दस रुपए म ीने का भी नौकर भी

मसे अच्छा खाता-प नता

ै , लेककन खेतों को छोड़ा तो न ीं जाता। खेती

छोड़ दें , तो और करें क्या? नौकरी क ीं समलती पड़ता का

ै । खेती में जो मरजाद

ै, व

ै व

ै ? किर मरजाद भी तो पालना

नौकरी में तो न ीं

ै । इसी तर



ज़मींदारों

ाल भी समझ लो! उनकी जान को भी तो सैकड़ों रोग लगे

ु ए ैं, ाककमों को रसद प ु ूँचाओ, उनकी सलामी करो, अमलों को ख़श ु करो। तारीख़ पर मालगुज़ारी न चुका दें , तो

वालात

ो जाय , कुड़की आ जाय।

वालात न ीं ले जाता। दो-चार गसलयाूँ-घुड़ककयाूँ

गोबर ने प्र तवाद ककया -- य मु ताज

ैं, दे

भी गुज़र न ीं

सब क ने की बातें

पर साबबत कपड़े न ीं

में तो कोई

ी तो समलकर र ैं।

जाती

ैं।

म लोग दाने-दाने को

ैं , चोटी का पसीना एड़ी तक आता

ोता। उन् ें क्या, मज़े से गद्दी-मसनद लगाये बैठे

ै , तब

ैं, सैकड़ों नौकर-

चाकर

ैं, ज़ारों आदसमयों पर ु कूमत ै । रुपए न जमा ोते ों; पर सख ु तो सभी तर का भोगते ैं। िन लेकर आदमी और क्या करता ै ?

'तुम् ारी समझ में म और व बराबर ैं?' 'भगवान ण ने तो सबको बराबर ी बनाया ै ।' 'य बात न ीं ै बेटा, छोटे -बड़े भजवान के घर से बनकर आते ैं। संपश्त्त बड़ी तपस्या से समलती र े

ैं।

ै । उन् ोंने पूवज द न्म में जैसे कमद ककये

ैं, उनका आनंद भोग

मने कुछ न ीं संचा, तो भोगें क्या?

'य सब मन को समझाने की बातें ैं। भगवान ण सबको बराबर बनाते ैं। य ाूँ श्जसके

ाथ में लाठी

ै, व

ग़रीबों को कुचलकर बड़ा आदमी बन जाता

ै ।'

'य तुम् ारा भरम ै । मासलक आज भी चार घंटे रोज़ भगवान ण का भजन करते ैं।'

'ककसके बल पर य भजन-भाव और दान-िमद ोता ै ?' 'अपने बल पर।' 'न ीं, ककसानों के बल पर और मज़दरू ों के बल पर। य पाप का िन पचे कैसे? इसीसलए दान-िमद करना पड़ता

ै , भगवान ण का भजन भी इसीसलए

नंगे र कर भगवान ण का भजन करें , तो को दे तो

म भी दे खें।

म आठों प र भगवान ण का जाप

ोता

ै , भूखे-

में कोई दोनों जन ू खाने

ी करते र ें । एक हदन खेत में ऊख

गोड़ना पड़े तो सारी भश्क्त भूल जाय।' ोरी ने

ार कर क ा -- अब तम् ु ारे मूँु

लीला में भी टाूँग अड़ाते

ो।

तीसरे प र गोबर कुदाल लेकर चला, तो म भी चलते

को क ा

कौन लगे भाई, तुम तो भगवान ण की

ोरी ने क ा -- ज़रा ठ र जाओ बेटा,

ैं। तब तक थोड़ा-सा भूसा नकालकर रख दो। मैंने भोला को दे ने

ै । बेचारा आजकल ब ु त तंग

ै।

गोबर ने अवज्ञा-भरी आूँखों से दे खकर क ा -ै।

मारे पास बेचने को भस ू ा न ीं

'बेचता न ीं ू ूँ भाई, यों ी दे र ा ू ूँ। व संकट में ै , उसकी मदद तो करनी ी पड़ेगी।' ' में तो उन् ोंने कभी एक गाय न ीं दे दी।' 'दे तो र ा था; पर मने ली ी न ीं।' ि नया मटक्कर बोली -- गाय न ीं व

दे र ा था। इन् ें गाय दे दे गा! आूँख में

अंजन लगाने को कभी धचल्लू-भर दि ू तो भेजा न ीं, गाय दे गा! ोरी ने क़सम खायी -- न ीं, जवानी क़सम, अपनी पछाई गाय दे र े थे। तंग

ै , भूसा-चारा न ीं रख सके। अब एक गाय बेचकर भूसा लेना चा ते

ाथ ैं। मैंने

सोचा, संकट में पड़े आदमी की गाय क्या लूँ ग ू ा। थोड़ा-सा भूसा हदये दे ता ू ूँ, कुछ रुपए ाथ आ जायूँगे तो गाय ले लूँ ग ू ा। थोड़ा-थोड़ा करके चुका दूँ ग ू ा। अस्सी रुपए की

ै ; मगर ऐसी कक आदमी दे खता र े ।

गोबर ने आड़े

ाथों सलया -- तुम् ारा य ी िमात्मादपन तो तुम् ारी दग द कर र ा ु त

ै । साफ़-साफ़ तो बात लें ओर गाय

ै । अस्सी रुपए की गाय

में दे दें । साठ रुपए र

जायूँगे, व

ै , मसे बीस रुपए का भस ू ा ले म िीरे -िीरे दे दें गे।

ोरी र स्यमय ढं ग से मुस्कुराया -- मैंने ऐसी चाल सोची

में

ाथ आ जाय। क ीं भोला की सगाई ठीक करनी

तो ख़ाली अपना रं ग जमाने को दे ता ू ूँ।

ै कक गाय सेंत-में त

ै , बस। दो-चार मन भस ू ा

गोबर ने तरस्कार ककया -- तो तुम अब सब की सगाई ठीक करते किरोगे? ि नया ने तीखी आूँखों से दे खा -- अब य ी एक उद्यम तो र दे ना



गया

ै । न ीं

में भूसा ककसी को। य ाूँ भोली-भाली ककसी का करज़ न ीं खाया

ै।

ोरी ने अपनी सफ़ाई दी -- अगर मेरे जतन से ककसी का घर बस जाय, तो इसमें कौन-सी बुराई

ै?

गोबर ने धचलम उठाई और आग लेने चला गया। उसे य भाता था।

झमेला बबल्कुल न ीं

ि नया ने ससर ह ला कर क ा -- जो उनका घर बसायेगा, व गाय लेकर चुप न

ोगा। एक थैली धगनवायेगा।

ोरी ने पच ु ारा हदया -- य

दे खो। मुझसे जब समलता सलीके-दार

अस्सी रुपए की

मैं जानता ू ूँ ; लेककन उनकी भलमनसी को भी तो ै, तेरा बखान ी करता ै -- ऐसी लक्ष्मी ै , ऐसी

ै।

ि नया के मख ु पर श्स्नग्िता झलक पड़ी। मनभाय मडु ड़या ह लाये वाले भाव से बोली -- मैं उनके बखान की भख ू ी न ीं ू ूँ , अपना बखान िरे र ें । ोरी ने स्ने -भरी मुस्कान के साथ क ा -- मैंने तो क

मक्खी भी न ीं बैठने दे ती, गासलयों से बात करती कक व

औरत न ीं लक्षमी

ै । बात य

हदया, भैया, व

ै ; लेककन व

नाक पर

य ी क े जाय

ै कक उसकी घरवाली ज़बान की बड़ी

तेज़ थी। बेचारा उसके डर के मारे भागा-भागा किरता था। क ता था, श्जस हदन तुम् ारी घरवाली का मूँु लगता

सबेरे दे ख लेता ू ूँ , उस हदन कुछ-न-कुछ ज़रूर ाथ ै । मैंने क ा -- तुम् ारे ाथ लगता ोगा, य ाूँ तो रोज़ दे खते ैं , कभी पैसे

से भें ट न ीं

ोती।

'तुम् ारे भाग ी खोटे

ैं, तो मैं क्या करूूँ।'

'लगा अपनी घरवाली की बरु ाई करने -- सभखारी को भीख तक न ीं दे ती थी, झाड़ू लेकर मारने दौड़ती थी, लालधचन ऐसी थी कक नमक तक दस ू रों के घर से माूँग लाती थी!'

'मरने पर ककसी की क्या बरु ाई करूूँ। मझ ु े दे खकर जल उठती थी।' 'भोला बड़ा ग़मख़ोर था कक उसके साथ नबा कर हदया। दस ू रा ोता तो ज़ र खाके मर जाता। मुझसे दस साल बड़े ैं।'

ोंगे भोला; पर राम-राम प ले

ी करते

'तो क्या क ते थे कक श्जस हदन तम् ु ारी घरवाली का मूँु दे ख लेता ू ूँ , तो क्या ोता ै ?' 'उस हदन भगवान ण क ीं-न-क ीं से कुछ भेज दे ते ैं।' 'ब ु एूँ भी तो वैसी ी चटोररन आयी ैं। अबकी सबों ने दो रुपए के ख़रबूज़े उिार खा डाले। उिार समल जाय, किर उन् ें धचन्ता न ीं ोती कक दे ना पड़ेगा या न ीं।'

'और भोला रोते का े को ैं? गोबर आकर बोला -- भोला दादा आ प ु ूँच।े मन दो मन भस ू ा दो, किर उनकी सगाई ढूूँढ़ने नकलो। ि नया ने समझाया -- आदमी द्वार पर बैठा

ै रु व

उन् ें दे

ै उसके सलए खाट-वाट तो डाल

न ीं दी, ऊपर से लगे भुनभुनाने। कुछ तो भलमंसी सीखो। कलसा ले जाओ, पानी भरकर रख दो, ाथ-मूँु दस ू रों के सामने

िोयें, कुछ रस-पानी वपला दो। मस ु ीबत में

ाथ िैलाता

ी आदमी

ै।

ोरी बोला -- रस-वस का काम न ीं

ै , कौन कोई पा ु ने

ैं।

ि नया बबगड़ी -- पा ु ने और कैसे ोते ैं! रोज़-रोज़ तो तुम् ारे द्वार पर न ीं आते? इतनी दरू से िूप-घाम में आये ैं , प्यास लगी ी ोगी। रुवपया, दे ख डब्बे में तमाखू

ै कक न ीं, गोबर के मारे का े को बची

ोगी। दौड़कर एक पैसे का

तमाखू स ु आइन की दक ु ान से ले ले। भोला की आज श्जतनी ख़ा तर

ु ई, और कभी न ु ई ोगी। गोबर ने खाट डाल दी, सोना रस घोल लायी, रूपा तमाखू भर लायी। ि नया द्वार पर ककवाड़ की आड़ में खड़ी अपने कानों से अपना बखान सन ु ने के सलए अिीर भोला ने धचलम

ाथ में लेकर क ा -- अच्छी घरनी घर में आ जाय, तो समझ

लो लक्ष्मी आ गयी। व ी जानती चाह ए।

ो र ी थी।

ै छोटे -बड़े का आदर-सत्कार कैसे करना

ि नया के हृदय में उल्लास का कम्पन

ो र ा था। धचन्ता और नराशा और

अभाव से आ त आत्मा इन शब्दों में एक कोमल शीतल स्पशद का अनुभव कर र ी थी।

ोरी जब भोला का खाूँचा उठाकर भस ू ा लाने अन्दर चला, तो ि नया भी पीछे -

पीछे चली।

ोरी ने क ा -- जाने क ाूँ से इतना बड़ा खाूँचा समल गया। ककसी

भड़भूजे से माूँग सलया

ोगा। मन-भर से कम में न भरे गा। दो खाूँचे भी हदये, तो

दो मन नकल जायूँगे। ि नया िूली ु ई थी। मलामत की आूँखों से दे खती ु ई बोली -- या तो ककसी को नेवता न दो, और दो तो भरपेट णखलाओ। तुम् ारे पास िूल-पत्र लेने थोड़े ी आये

ैं कक चूँ गेरी लेकर चलते। दे ते



ो, तो तीन खाूँचे दे दो। भला आदमी

लड़कों को क्यों न ीं लाया। अकेले क ाूँ तक ढोयेगा। जान नकल जायगी।

'तीन खाूँचे तो मेरे हदये न हदये जायूँगे !' 'तब क्या एक खाूँचा दे कर टालोगे? गोबर से क दो, अपना खाूँचा भरकर उनके साथ चला जाय।'

'गोबर ऊख गोड़ने जा र ा ै ।' 'एक हदन न गोड़ने से ऊख न सूख जायगी।' 'य तो उनका काम था कक ककसी को अपने साथ ले लेत।े भगवान ण के हदये दोदो बेटे

ैं।'

'न ोंगे घर पर। दि ू लेकर बाज़ार गये ोंगे।' 'य तो अच्छी हदल्लगी ै कक अपना माल भी दो और उसे घर तक प ु ूँ चा भी दो। लाद दे , लदा दे , लादनेवाला साथ कर दे ।' 'अच्छा भाई, कोई मत जाय। मैं प ु ूँचा दूँ ग ू ी। बड़ों की सेवा करने में लाज न ीं ै ।'

'और तीन खाूँचे उन् ें दे दूँ ,ू तो अपने बैल क्या खायेंगे?' 'य सब तो नेवता दे ने के प ले ी सोच लेना था। न ो , तुम और गोबर दोनों जने चले जाओ।'

'मुरौवत मुरौवत की तर की जाती ै , अपना घर उठाकर न ीं दे हदया जाता!' 'अभी ज़मींदार का प्यादा आ जाय, तो अपने ससर पर भस ू ा लादकर प ु ूँचाओगे तुम, तुम् ारा लड़का, लड़की सब। और व ाूँ साइत मन-दो-मन लकड़ी भी िाड़नी पड़े।'

'ज़मींदार की बात और ै ।' ' ाूँ, व डंडे के ज़ोर से काम लेता ै न।' 'उसके खेत न ीं जोतते?' 'खेत जोतते ैं, तो लगान न ीं दे त?े ' 'अच्छा भाई, जान न खा, म दोनों चले जायूँगे। क ाूँ-से-क ाूँ मैंने इन् ें भूसा दे ने को क

हदया। या तो चलेगी न ीं, या चलेगी तो दौड़ने लगेगी।'

तीनों खाूँचे भस ू े से भर हदये गये। गोबर कुढ़ र ा था। उसे अपने बाप के व्यव ारों में ज़रा भी ववकवास न था। व कुछ-न-कुछ घर से खो आते

समझता था , य

ैं। ि नया प्रसन्न थी। र ा

ज ाूँ जाते

ोरी, व

ैं , व ीं

िमद और

स्वाथद के बीच में डूब-उतरा र ा था। ोरी और गोबर समलकर एक खाूँचा बा र लाये। भोला ने तरु न्त अपने अूँगोछे

का बीड़ा बनाकर ससर पर रखते ु ए क ा -- मैं इसे रखकर अभी भागा आता ू ूँ। एक खाूँचा और लूँ ूगा। ोरी बोला -- एक न ीं, अभी दो और भरे िरे

ैं। और तम् ु ें आना न ीं पड़ेगा।

मैं और गोबर एक-एक खाूँचा लेकर तुम् ारे साथ

ी चलते

ैं।

भोला स्तश्म्भत

ो गया।

ोरी उसे अपना भाई बश्ल्क उससे भी नकट जान

पड़ा। उसे अपने भीतर एक ऐसी तश्ृ प्त का अनुभव ु आ, श्जसने मानो उसके सम्पूणद जीवन को रा कर हदया। तीनों भस ू ा लेकर चले, तो रा

में बातें

भोला ने पूछा -- दश रा आ र ा ोगी?

ोने लगीं।

ै , मासलकों के द्वार पर तो बड़ी िूमिाम

' ाूँ, तम्बू सासमयाना गड़ गया ै । अब की लीला में मैं भी काम करूूँगा। राय सा ब ने क ा

ै , तुम् ें राजा जनक का माली बनना पड़ेगा।'

'मासलक तम ैं।' ु से ब ु त ख़श ु 'उनकी दया ै ।' एक क्षण के बाद भोला ने किर पूछा -- सगुन करने के रुपए का कुछ जुगाड़ कर सलया

ै ? माली बन जाने से तो गला न छूटे गा।

ोरी ने मूँु

का पसीना पोंछकर क ा -- उसी की धचन्ता तो मारे डालती

-- अनाज तो सब-का-सब खसल ान में

ै दादा

ी तुल गया। ज़मींदार ने अपना सलया,

म ाजन ने अपना सलया। मेरे सलए पाूँच सेर अनाज बच र ा। य

भूसा तो मैंने

रातोंरात ढोकर छपा हदया था, न ीं तनका भी न बचता। ज़मींदार तो एक



ैं; मगर म ाजन तीनतीन

ैं , स ु आइन अलग, मूँगरू अलग और दातादीन पश्डडत अलग। ककसी का ब्याज भी परू ा न चक ु ा। ज़मींदार के भी आिे रुपए बाक़ी पड़ गये। स ु आइन से किर रुपए उिार सलये तो काम चला। सब तर ककफ़ायत कर के दे ख सलया भैया, कुछ न ीं ोता। मारा जनम इसी सलए ु आ ै कक अपना रक्त ब ायें और बड़ों का घर भरें । मूलका दग ु ना सूद भर चक ु ा; पर मूल ज्योंका-त्यों ससर पर सवार

ै । लोग क ते

ैं , सदी-गमी में, तीरथ-बरत में

ाथ

बाूँिकर ख़रच करो। मद ु ा रास्ता कोई न ीं हदखाता। राय सा ब ने बेटे के ब्या में बीस

ज़ार लुटा हदये। उनसे कोई कुछ न ीं क ता। मूँगरू ने अपने बाप के

कक्रया-करम में पाूँच तो सबका

ै।

ज़ार लगाये। उनसे कोई कुछ न ीं पूछता। वैसा

ी मरजाद

भोला ने करुण भाव से क ा -- बड़े आदसमयों की बराबरी तम ु कैसे कर सकते ो भाई?

'आदमी तो म भी ैं। 'कौन क ता ै कक म तुम आदमी ैं। ममें आदसमयत क ाूँ? आदमी व श्जनके पास िन

ै , अश्ख़्तयार

ै , इलम

ै , म लोग तो बैल

ैं,

ैं और जत ु ने के

सलए पैदा ु ए ैं। उसपर एक दस ू रे को दे ख न ीं सकता। एका का नाम न ीं। एक ककसान दस ू रे के खेत पर न चढ़े तो कोई जाफ़ा कैसे करे , प्रेम तो संसार से उठ गया।'

बढ़ ू ों के सलए अतीत के सख ु ों और वतदमान के दःु खों और भववष्य के सवदनाश से ज़्यादा मनोरं जक और कोई प्रसंग न ीं

ोता। दोनों समत्र अपने-अपने दख ु ड़े रोते

र े । भोला ने अपने बेटों के करतूत सुनाये , ोरी ने अपने भाइयों का रोना रोया

और तब एक कुएूँ पर बोझ रखकर पानी पीने के सलए बैठ गये। गोबर ने ब नये से लोटा माूँगा और पानी खींचने लगा।

भोला ने सहृदयता से पूछा -- अलगौझे के समय तो तुम् ें बड़ा रं ज ु आ भाइयों को तो तुमने बेटों की तर पाला था।

ोगा।

ोरी आद्रद कंठ से बोला -- कुछ न पूछो दादा, य ी जी चा ता था कक क ीं जाके

डूब मरूूँ। मेरे जीते जी सब कुछ समला दी, व ी मेरे मुद्दई घरवाली

ो गया। श्जनके पीछे अपनी जवानी िूल में

ो गये और झगड़े की जड़ क्या थी? य ी कक मेरी

ार में काम करने क्यों न ीं जाती। पूछो, घर दे खनेवाला भी कोई

चाह ए कक न ीं। लेना-दे ना, िरना उठाना, सूँभालना-स े जना, य व

कौन करे । किर

घर बैठी तो न ीं र ती थी, झाड़ू-बु ारू, रसोई, चौका-बरतन, लड़कों की दे ख-

भाल य

कोई थोड़ा काम

ै । सोभा की औरत घर सूँभाल लेती कक

ीरा की

औरत में य पकती

सलीका था? जब से अलगौझा ु आ ै , दोनों घरों में एक जून रोटी ै । न ीं सब को हदन में चार बार भूख लगती थी। अब खायूँ चार दफ़े, तो

दे ख।ूूँ इस मासलकपन में गोबर की माूँ की जो दग द ी ु ई ै , व मैं ी जानता ू ूँ। ु त बेचारी अपनी दे वरा नयों के िटे -पुराने कपड़े प नकर हदन काटती थी, ख़ुद भूखी सो र ी

ोगी; लेककन ब ु ओं के सलए जलपान तक का ध्यान रखती थी। अपनी

दे

पर ग ने के नाम कच्चा िागा भी न था , दे वरा नयों के सलए दो-दो चार-चार

ग ने बनवा हदये। मासलक क्यों

सोने के न स ी चाूँदी के तो

ै । ब ु त अच्छा

ु आ कक अलग

भोला ने एक लोटा पानी चढ़ाकर क ा -- य ी बात

ैं। जलन य ी थी कक य

ो गये। मेरे ससर से बला टली। ाल घर-घर

ै भैया! भाइयों की

ी क्या, य ाूँ तो लड़कों से भी न ीं पटती और पटती इससलए न ीं कक मैं

ककसी की कुचाल दे खकर मूँु

न ीं बन्द कर सकता। तुम जुआ खेलोगे, चरस

पीओगे, गाूँजे के दम लगाओगे, मगर आये ककसके घर से? ख़रचा करना चा ते तो कमाओ; मगर कमाई तो ककसी से न



ोगी। ख़रच हदल खोलकर करें गे। जेठा

कामता सौदा लेकर बाज़ार जायगा, तो आिे पैसे ग़ायब। पछ ू ो तो कोई जवाब न ीं। छोटा जंगी

ै । साूँझ ु ई और ढोलमजीरा लेकर बैठ गये। संगत को मैं बुरा न ीं क ता। गाना-बजाना ऐब न ीं; लेककन य

ै, व

संगत के पीछे मतवाला र ता

सब काम फ़ुरसत के

ैं। य

न ीं कक घर का तो कोई काम न करो,

आठों प र उसी िुन में पड़े र ो। जाती

ै मेरे ससर; सानी-पानी मैं करूूँ, गाय-भैंस

मैं द ु ू ूँ, दि ू लेकर बाज़ार मैं जाऊूँ। य ग ृ स्थी जी का जंजाल ै , सोने की ूँससया, श्जसे न उगलते बनता ै , न नगलते। लड़की ै , झु नया, व भी नसीब

की खोटी। तुम तो उसकी सगाई में आये थे। ककतना अच्छा घर-बर था। उसका आदमी बम्बई में दि ू की दक ू ान करता था। उन हदनों व ाूँ ह न्द-ू मुसलमानों में

दं गा ु आ, तो ककसी ने उसके पेट में छूरा भोंक हदया। घर ी चौपट ो गया। व ाूँ अब उसका नबा न ीं। जाकर सलवा लाया कक दस ू री सगाई कर दूँ ग ू ा; मगर व

राज़ी

ी न ीं

ोती। और दोनों भावजें

घर में म ाभारत मचा र ता

ैं कक रात-हदन उसे जलाती र ती

ैं।

ै । ववपत की मारी य ाूँ आई, य ाूँ भी चैन न ीं।

इन् ीं दख ु ड़ों में रास्ता कट गया। भोला का परु वा था तो छोटा; मगर ब ु त गुलज़ार। अधिकतर अ ीर ी बसते थे। और ककसानों के दे खते इनकी दशा ब ु त बुरी न थी। भोला गाूँव का मुणखया था। द्वार पर बड़ी-सी चरनी थी श्जस पर दस-बार

गायें-भैंसें खड़ी सानी खा र ी थीं। ओसारे में एक बड़ा-सा तख़्त पड़ा

था जो शायद दस आदसमयों से भी न उठता। ककसी खूट ूँ ी पर ढोलक लटक र ी

थी ककसी पर मजीरा। एक ताख पर कोई पस् ु तक बस्ते में बूँिी रखी ु ई थी, जो शायद रामायण ो। दोनों ब ु एूँ सामने बैठी गोबर पाथ र ी थीं और झु नया

चौखट पर खड़ी थी। उसकी आूँखें लाल थीं और नाक के ससरे पर भी सुख़ीरण थी। मालूम

ोता था, अभी रोकर उठी

ै । उसके मांसल, स्वस्थ, सुगहठत अंगों में मानो

यौवन ल रें मार र ा था। मूँु

बड़ा और गोल था, कपोल िूले

ु ए, आूँखें छोटी और भीतर िूँसी ु ई, माथा पतला; पर वक्ष का उभार और गात का व ी

गुदगुदापन आूँखों को खींचता था। उस पर छपी ु ई गुलाबी साड़ी उसे और भी शोभा प्रदान कर र ी थी। भोला को दे खते

ी उसने लपककर उनके ससर से खाूँचा उतरवाया।

भोला ने गोबर और

ोरी के खाूँचे उतरवाये और झु नया से बोले -- प ले एक

धचलम भर ला, किर थोड़ा-सा रस बना ले। पानी न ोरी म तो को प चानती किर

ै न?

ो तो गगरा ला, मैं खींच दूँ ।ू

ोरी से बोला -- घरनी के बबना घर न ीं र ता भैया। पुरानी क ावत

ै --

नाटन खेती ब ु ररयन घर। नाटे बैल क्या खेती करें गे और ब ु एूँ क्या घर सूँभालें गी। जब से इसकी माूँ मरी ै , जैसे घर की बरकत ी उठ गयी। ब ु एूँ आटा पाथ लेती ैं। पर ग ृ स्थी चलाना क्या जानें। ाूँ, मूँु चलाना ख़ूब जानती ैं। लौंडे क ीं िड़ पर जमे

ोंगे। सब-के-सब आलसी

ैं, कामचोर। जब तक जीता

ू ूँ , इनके पीछे मरता ू ूँ। मर जाऊूँगा, तो आप ससर पर ाथ िरकर रोयेंगे। लड़की भी वैसी ी ै । छोटा-सा अढ़ौना भी करे गी, तो भन ु -भन ु ाकर। मैं तो स लेता ू ूँ, ख़सम थोड़े

ी स े गा।

झु नया एक

ाथ में भरी ु ई धचलम, दस ू रे में लोटे का रस सलये बड़ी िुतीरण से आ प ु ूँची। किर रस्सी और कलसा लेकर पानी भरने चली। गोबर ने उसके ाथ से कलसा लेने के सलए ाथ बढ़ाकर झेंपते ु ए क ा -- तम ु र ने दो, मैं भरे लाता ू ूँ।

झु नया ने कलसा न हदया। कुएूँ के जगत पर जाकर मुस्कराती ु ई बोली -- तुम मारे मे मान ो। क ोगे एक लोटा पानी भी ककसी ने न हदया।

'मे मान का े से ो गया। तुम् ारा पड़ोसी ी तो ू ूँ।' 'पड़ोसी साल-भर में एक बार भी सूरत न हदखाये, तो मे मान ी ै ।' 'रोज़-रोज़ आने से मरजाद भी तो न ीं र ती। '

झु नया

ूँसकर तरछी नज़रों से दे खती ु ई बोली -- व ी मरजाद तो दे र ी ू ूँ। म ीने में एक बेर आओगे, ठं डा पानी दूँ ग ू ी। पंद्र वें हदन आओगे, धचलम पाओगे। सातवें हदन आओगे , ख़ाली बैठने को माची दूँ ग ू ी। रोज़-रोज़ आओगे, कुछ न पाओगे।

'दरसन तो दोगी?' 'दरसन के सलए पूजा करनी पड़ेगी।' य

क ते-क ते जैसे उसे कोई भूली ु ई बात याद आ गयी। उसका मूँु उदास ो गया। व वविवा ै । उसके नारीत्व के द्वार पर प ले उसका प त रक्षक बना

बैठा र ता था। व

नश्कचंत थी। अब उस द्वार पर कोई रक्षक न था , इससलए



उस द्वार को सदै व बंद रखती



द्वार खोलती

लेती

ै । कभी-कभी घर के सन ू ेपन से उकताकर

ै ; पर ककसी को आते दे खकर भयभीत

ोकर दोनों पट भेड़

ै।

गोबर ने कलसा भरकर नकाला। सबों ने रस वपया और एक धचलम तमाखू और पीकर लौटे ।

भोला ने क ा -- कल तम ु आकर गाय ले जाना गोबर, इस बखत तो सानी खा र ी

ै।

गोबर की आूँखें उसी गाय पर लगी ु ई थी और मन- ी-मन व मुग्ि ु आ जाता था। गाय इतनी सन् ु दर और सड ु ौल ै , इसकी उसने कल्पना भी न की थी। ोरी ने लोभ को रोककर क ा -- मूँगवा लूँ ग ू ा, जल्दी क्या

ै?

'तम् ु ें जल्दी न ो, में तो जल्दी ै । उसे द्वार पर दे खकर तम् ु ें व बात याद र े गी।'

'उसकी मुझे बड़ी कफ़कर ै दादा!' 'तो कल गोबर को भेज दे ना।'

दोनों ने अपने-अपने खाूँचे ससर पर रखे और आगे बढ़े । दोनों इतने प्रसन्न थे मानो ब्या

करके लौटे

ोने का

ों।

ोरी को तो अपनी धचर संधचत असभलाषा के पूरे

षद था, और बबना पैसे के। गोबर को इससे भी ब ु मूल्य वस्तु समल गयी थी। उसके मन में असभलाषा जाग उठी थी।

अवसर पाकर उसने पीछे की तरफ़ दे खा। झु नया द्वार पर खड़ी थी, मन आशा की भाूँ त अिीर, चंचल। ***

4 ोरी को रात भर नींद न ीं आयी। नीम के पेड़-तले अपनी बाूँस की खाट पर पड़ा बार-बार तारों की ओर दे खता था। गाय के सलए एक नाूँद गाड़नी से अलग उसकी नाूँद र े तो अच्छा। अभी तो रात को बा र चौमासे में उसके सलए कोई दस ू री जग लगा दे ते

ठीक करनी

ैं। कभी-कभी तो ऐसा टोना-टोटका कर दे ते

सूख जाता

ै । थन में

ाथ

ै । बैलों

ी र े गी; लेककन

ोगी। बा र लोग नज़र ैं कक गाय का दि ू

ी न ीं लगाने दे ती। लात मारती



ै । न ीं, बा र

बाूँिना ठीक न ीं। और बा र नाूँद भी कौन गाड़ने दे गा। काररंदा सा ब नज़र के सलए मूँु

िुलायेंगे। छोटी छोटी बात के सलए राय सा ब के पास फ़ररयाद ले

जाना भी उधचत न ीं। और काररंदे के सामने मेरी सुनता कौन

ै । उनसे कुछ

क ू ूँ , तो काररंदा दकु मन ो जाय। जल में र कर मगर से बैर करना लड़कपन ै । भीतर ी बाूँिग ूूँ ा। आूँगन ै तो छोटा-सा; लेककन एक मड़ैया डाल दे ने से काम चल जायगा। अभी प ला तो गोबर

ी ब्यान

ै । पाूँच सेर से कम क्या दि ू दे गी। सेर-भर

ी को चाह ए। रुवपया दि ू दे खकर कैसी ललचाती र ती

ै । अब वपये

श्जतना चा े । कभी-कभी दो-चार सेर मासलकों को दे आया करूूँगा। काररंदा सा ब की पूजा भी करनी



ोगी। और भोला के रुपए भी दे दे ना चाह ये। सगाई के

दग़ा करना नीचता

ै । अस्सी रुपए की गाय मेरे ववकवास पर दे दी। न ीं य ाूँ

ढकोसले में उसे क्यों डालूँ ।ू जो आदमी अपने ऊपर इतना ववकवास करे , उससे

तो कोई एक पैसे को न ीं प तयाता। सन में क्या कुछ न समलेगा? अगर पच्चीस रुपए भी दे दूँ ,ू तो भोला को ढाढ़स

ो जाय। ि नया से ना क़ बता हदया। चुपके

से गाय लेकर बाूँि दे ता तो चकरा जाती। लगती पूछने, ककसकी गाय लाये

ै ? क ाूँ से

ो?। ख़ूब हदक करके तब बताता; लेककन जब पेट में बात पचे भी। कभी

दो-चार पैसे ऊपर से आ जाते अच्छा भी

ैं ; उनको भी तो न ीं छपा सकता। और य

ै । उसे घर की धचन्ता र ती

पास भी पैसे र ते

ै ; अगर उसे मालम ू

ो जाय कक इनके

ैं , तो किर नख़रे बघारने लगे। गोबर ज़रा आलसी

गऊ की ऐसी सेवा करता कक जैसी चाह ए। आलसी-वालसी कुछ न ीं उसमर में कौन आलसी न ीं

ोता। मैं भी दादा के सामने मटरगस्ती

ै , न ीं मैं ै । इस ी ककया

करता था। बेचारे प र रात से कुट्टी काटने लगते। कभी द्वार पर झाड़ू लगाते, कभी खेत में खाद िेंकते। मैं पड़ा सोता र ता था। कभी जगा दे ते, तो मैं बबगड़ जाता और घर छोड़कर भाग जाने की िमकी दे ता था। लड़के जब अपने माूँ-बाप के सामने भी श्ज़ंदगी का थोड़ा-सा सुख न भोगें गे, तो किर जब अपने ससर पड़

गयी तो क्या भोगें गे? दादा के मरते गाूँव य ी क ता था कक

ी क्या मैंने घर न ीं सूँभाल सलया? सारा

ोरी घर बरबाद कर दे गा; लेककन ससर पर बोझ पड़ते

मैंने ऐसा चोला बदला कक लोग दे खते र

गये। सोभा और

गये, न ीं आज इस घर की और

ोती। तीन

तीनों अलग-अलग चलते

ी बात

ैं। बस, समय का िेर

ीरा अलग







ल एक साथ चलते। अब

ै । ि नया का क्या दोष था।

बेचारी जब से घर में आयी, कभी तो आराम से न बैठी। डोली से उतरते काम ससर पर उठा सलया। अम्मा को पान की तर

ी सारा

िेरती र ती थी। श्जसने घर

के पीछे अपने को समटा हदया, दे वरा नयों से काम करने को क ती थी , तो क्या बुरा करती थी। आणख़र उसे भी तो कुछ आराम समलना चाह ये। लेककन भाग्य में आराम सलखा

ोता तब तो समलता। तब दे वरों के सलए मरती थी , अब अपने

बच्चों के सलए मरती सोभा और

ै। व

इतनी सीिी, ग़मख़ोर, नछद ल न

ीरा जो मूँछ ू ों पर ताव दे ते किरते

ककतना स्वाथी

ो जाता

ोती, तो आज

ैं , क ीं भीख माूँगते

ै । श्जसके सलए लड़ो व ी जान का दकु मन

ोरी ने किर पूवद की ओर दे खा। साइत सभनसार

ो र ा

लगा। न ीं, क के तो य ी सोया था कक मैं अूँिेरे

ोते। आदमी ो जाता

ै।

ै । गोबर का े को जगने

ी चला जाऊूँगा। जाकर नाूँद

तो गाड़ दूँ ,ू लेककन न ीं, जब तक गाय द्वार पर न आ जाय, नाूँद गाड़ना ठीक

न ीं। क ीं भोला बदल गये या और ककसी कारन से गाय न दी, तो सारा गाूँव तासलयाूँ पीटने लगेगा, चले थे गाय लेने। पट्ठे ने इतनी िुती से नाूँद गाड़ दी, मानो इसी की कसर थी। भोला सयाने

ै तो अपने घर का मासलक; लेककन जब लड़के

ो गये , तो बाप की कौन चलती

ै । कामता और जंगी अकड़ जायूँ, तो

क्या भोला अपने मन से गाय मझ ु े दे दें गे, कभी न ीं।

स सा गोबर चौंककर उठ बैठा और आूँखें मलता ु आ बोला -- अरे ! य ो गया। तुमने नाूँद गाड़ दी दादा?

तो भोर

ोरी गोबर के सुगहठत शरीर और चौड़ी छाती की ओर गवद से दे खकर और मन

में य

सोचते ु ए कक क ीं इसे गोरस समलता, तो कैसा पट्ठा ो जाता, बोला -न ीं, अभी न ीं गाड़ी। सोचा, क ीं न समले, तो ना क़ भद्द ो। गोबर ने त्योरी चढ़ाकर क ा -- समलेगी क्यों न ीं?

'उनके मन में कोई चोर पैठ जाय?'

'चोर पैठे या डाकू, गाय तो उन् ें दे नी ी पड़ेगी।' गोबर ने और कुछ न क ा। लाठी कंिे पर रखी और चल हदया।

ोरी उसे जाते

दे खता ु आ अपना कलेजा ठं ठा करता र ा। अब लड़के की सगाई में दे र न करनी चाह ये। सत्र वाूँ लग गया; मगर करें कैसे? क ीं पैसे के भी दरसन ों। जब से तीनों भाइयों में अलगौझा लड़का दे खने आते

ो गया, घर की साख जाती र ी। म तो

ैं , पर घर की दशा दे खकर मूँु

िीका करके चले जाते

ैं। दो-

एक राज़ी भी ु ए, तो रुपए माूँगते ैं। दो-तीन सौ लड़की का दाम चुकाये और इतना ी ऊपर से ख़चद करे , तब जाकर ब्या ो। क ाूँ से आये इतने रुपए। रास खसल ान में तल ु जाती

ै । खाने-भर को भी न ीं बचता। ब्या

अब तो सोना ब्या ने योग्य का ब्या करनी

क ाूँ से

ो ? और

ो गयी। लड़के का ब्या

न ु आ, तो सारी बबरादरी में ै , पीछे दे खी जायगी।

ूँसी

न ु आ, न स ी। लड़की ोगी। प ले तो उसी की सगाई

एक आदमी ने आकर राम-राम ककया और पूछा -- तुम् ारी कोठी में कुछ बाूँस ोंगे म तो?

ोरी ने दे खा, दमड़ी बूँसार सामने खड़ा

ै , नाटा काला, ख़ब ू मोटा, चौड़ा मूँु , बड़ी-

बड़ी मूँछ ू ें , लाल आूँखें, कमर में बाूँस काटने की कटार खोंसे ु ए। साल में एक-दो बार आकर धचकें, कुरससयाूँ, मोढ़े , टोकररयाूँ आहद बनाने के सलए कुछ बाूँस काट ले जाता था।

ोरी प्रसन्न

ो गया। मुट्ठी गमद

ोने की कुछ आशा बूँिी। चौिरी को

ले जाकर अपनी तीनों कोहठयाूँ हदखायीं, मोल-भाव ककया और पच्चीस रुपए सैकड़े में पचास बाूँसों का बयाना ले सलया। किर दोनों लौटे ।

ोरी ने उसे धचलम वपलायी , जलपान कराया और तब र स्यमय

भाव से बोला -- मेरे बाूँस कभी तीस रुपए से कम में न ीं जाते; लेककन तुम घर के आदमी

ो, तम ु से क्या मोल-भाव करता। तम् ु ारा व

लड़का, श्जसकी सगाई

ु ई थी, अभी परदे स से लौटा कक न ीं?

चौिरी ने धचलम का दम लगाकर खाूँसते ु ए क ा -- उस लौंडे के पीछे तो मर समटा म तो! जवान ब ू घर में बैठी थी और व बबरादरी की एक दस ू री औरत के साथ परदे स में मौज करने चल हदया। ब ू भी दस ू रे के साथ नकल गयी। बड़ी नाककस जात ै , म तो, ककसी की न ीं ोती। ककतना समझाया कक तू जो

चा े खा, जो चा े प न, मेरी नाक न कटवा, मद ु ा कौन सन ु ता भगवान ण सब कुछ दे , रूप न दे , न ीं व गयी

ोंगी?

ै । औरत को

क़ाबू में न ीं र ती। कोहठयाूँ तो बूँट

ोरी ने आकाश की ओर दे खा और मानो उसकी म ानता में उड़ता ु आ बोला -सब कुछ बूँट गया चौिरी! श्जनको लड़कों की तर पाला-पोसा, व अब बराबर के ह स्सेदार

ैं; लेककन भाई का ह स्सा खाने की अपनी नीयत न ीं

ै । इिर

तुमसे रुपए समलें गे, उिर दोनों भाइयों को बाूँट दूँ ग ू ा। चार हदन की श्ज़न्दगी में क्यों ककसी से छल-कपट करूूँ। न ीं क

दूँ ू कक बीस रुपए सैकड़े में बेचे

उन् ें क्या पता लगेगा। तम ु उनसे क ने थोड़े अपना भाई समझा

ै । व्यव ार में

न ीं

ी जाओगे। तुम् ें तो मैंने बराबर

म 'भाई' के अथद का ककतना

करें , लेककन उसकी भावना में जो पववत्रता

ै, व

ी दरु ु पयोग

मारी कासलमा से कभी मसलन

ोती।

ोरी ने अप्रत्यक्ष रूप से य स्वीकार करता

प्रस्ताव करके चौिरी के मूँु

की ओर दे खा कक व

ै या न ीं। उसके मुख पर कुछ ऐसा समथ्या ववनीत भाव प्रकट

ु आ जो सभक्षा माूँगते समय मोटे सभक्षुकों पर आ जाता चौिरी ने चारा

ैं तो

ोरी का आसन पाकर चाबुक जमाया --

ै म तो, ऐसी बात

ै भला; लेककन बात य

तो ककसी लालच से। बीस रुपए न ीं मैं पंद्र के दाम लो।

मारा तुम् ारा पुराना भाई

ै कक ईमान आदमी बेचता

ै,

रुपए क ू ूँगा; लेककन जो बीस रुपए

ोरी ने णखससयाकर क ा -- तुम तो चौिरी अूँिेर करते

ऐसे बाूँस जाते

ै।

ो, बीस रुपए में क ीं

ैं?

'ऐसे क्या, इससे अच्छे बाूँस जाते ैं दस रुपए पर, ाूँ दस कोस और पश्च्छम चले जाओ। मोल बाूँस का न ीं

ै , श र के नगीच

ोने का

ै । आदमी सोचता

श्जतनी दे र व ाूँ जाने में लगेगी, उतनी दे र में तो दो-चार रुपए का काम



जायगा।' सौदा पट गया। चौिरी ने समरज़ई उतार कर छान पर रख दी और बाूँस काटने लगा। ऊख की ससंचाई

ो र ी थी।

ीरा-ब ू कलेवा लेकर कुएूँ पर जा र ी थी।

ै,

चौिरी को बाूँस काटते दे खकर घघ ूूँ ट के अन्दर से बोली -- कौन बाूँस काटता

ै?

य ाूँ बाूँस न कटें गे। चौिरी ने ुआ

ाथ रोककर क ा -- बाूँस मोल सलए

ै । सेंत में न ीं काट र े

ैं, पंद्र

रुपए सैकड़े का बयाना

ैं।

ीरा-ब ू अपने घर की मालककन थी। उसी के ववद्रो से भाइयों में अलगौझा ु आ था। ि नया को परास्त करके शेर ो गयी थी। ीरा कभी-कभी उसे पीटता था। अभी

ाल में इतना मारा था कक व

अपनी पदाधिकार व

ककसी तर

कई हदन तक खाट से न उठ सकी , लेककन

न छोड़ती थी।

ीरा क्रोि में उसे मारता था;

लेककन चलता था उसी के इशारों पर, उस घोड़े की भाूँ त जो कभी-कभी स्वामी को लात मारकर भी उसी के आसन के नीचे चलता उतार कर बोली -- पंद्र

रुपए में

ै । कलेवे की टोकरी ससर से

मारे बाूँस न जायूँगे।

चौिरी औरत जात से इस ववषय में बात-चीत करना नी त-ववरुद्ि समझते थे। बोले -- जाकर अपने आदमी को भेज दे । जो कुछ क ना

ो, आकर क ें ।

ीरा-ब ू का नाम था पन् ु नी। बच्चे दो ी ु ए थे। लेककन ढल गयी थी। बनावससंगार से समय के आघात का शमन करना चा ती थी , लेककन ग ृ स्थी में भोजन

ी का हठकाना न था, ससंगार के सलए पैसे क ाूँ से आते। इस अभाव और

वववशता ने उसकी प्रकृ त का जल सुखाकर कठोर और शुष्क बना हदया था, श्जस पर एक बार िावड़ा भी उचट जाता था। समीप आकर चौिरी का

ाथ

पकड़ने की चेष्टा करती ु ई बोली -- आदमी को क्यों भेज दूँ ।ू जो कुछ क ना ो, मुझसे क ो न। मैंने क हदया, मेरे बाूँस न कटें गे। चौिरी

ाथ छुड़ाता था, और पुन्नी बार-बार पकड़ लेती थी। एक समनट तक य ी

ाथा-पाई

ोती र ी। अंत में चौिरी ने उसे ज़ोर से पीछे ढकेल हदया। पन् ु नी

िक्का खाकर धगर पड़ी; मगर किर सूँभली और पाूँव से तल्ली नकालकर चौिरी के ससर, मूँु , पीठ पर अंिािुंि जमाने लगी। बूँसोर य

ोकर उसे ढकेल दे ? उसका

अपमान! मारती जाती थी और रोती भी जाती थी। चौिरी उसे िक्का दे कर

-- नारी जा त पर बल का प्रयोग करके -- गच्चा खा चुका था। खड़े-खड़े मार

खाने के ससवा इस संकट से बचने की उसके पास और कोई दवा न थी। पन् ु नी

का रोना सन ु कर

ोरी भी दौड़ा ु आ आया। पन् ु नी ने उसे दे खकर और ज़ोर से धचल्लाना शुरू ककया। ोरी ने समझा, चौिरी ने पु नया को मारा

ै । ख़ून ने जोश मारा और अलगौझे

की ऊूँची बाूँि को तोड़ता ु आ, सब कुछ अपने अंदर समेटने के सलए बा र नकल पड़ा। चौिरी को ज़ोर से एक लात जमाकर बोला -- अब अपना भला चा ते

ो चौिरी, तो य ाूँ से चले जाओ, न ीं तुम् ारी ल ास उठे गी। तुमने अपने

को समझा क्या

ै ? तुम् ारी इतनी मजाल कक मेरी ब ू पर

ाथ उठाओ।

चौिरी क़समें खा-खाकर अपनी सफ़ाई दे ने लगा। तश्ल्लयों की चोट में उसकी अपरािी आत्मा मौन थी। य

लात उसे नरपराि समली और उसके िूले

गाल आूँसुओं से भींग गये। उसने तो ब ू को छुआ भी न ीं। क्या व गूँवार ै कक म तो के घर की औरतों पर ाथ उठायेगा।

ुए इतना

ोरी ने अववकवास करके क ा -- आूँखों में िूल मत झोंको चौिरी, तुमने कुछ

क ा न ीं, तो ब ू झूठ-मूठ रोती ै ? रुपए की गमी ै , तो व नकाल दी जायगी। अलग ैं तो क्या ु आ, ैं तो एक ख़ून। कोई तरछी आूँख से दे खे, तो आूँख नकाल लें । पुन्नी चंडी बनी ु ई थी। गला िाड़कर बोली -- तूने मुझे िक्का दे कर धगरा न ीं हदया? खा जा अपने बेटे की क़सम! ीरा को भी ख़बर समली कक चौिरी और पु नया में लड़ाई

ो र ी

ै । चौिरी ने

पु नया को िक्का हदया। पु नया ने उसे तश्ल्लयों से पीटा। उसने पुर व ीं छोड़ा

और औंगी सलए घटनास्थल की ओर चला। गाूँव में अपने क्रोि के सलए प्रससद् ि था। छोटा डील, गठा ु आ शरीर, आूँखें कौड़ी की तर नकल आयी थीं और गदद न की नसें तन गयी थी; मगर उसे चौिरी पर क्रोि न था , क्रोि था पु नया पर। व क्यों चौिरी से लड़ी? क्यों उसकी इज़्ज़त समट्टी में समला दी? बूँसोर से लड़नेझगड़ने का उसे क्या प्रयोजन था? उसे जाकर चाह ए था। बस

ीरा जैसा उधचत समझता, करता। व

ोता, तो व

बातें करे , य

ीरा से सारा समाचार क

उससे लड़ने क्यों गयी? उसका

पु नया को पदे र ण में रखता। पु नया ककसी बड़े से मूँु

उसे असह्य था। व

दे ना खोलकर

ख़द ु श्जतना उद्दं ड था, पु नया को उतना

शांत रखना चा ता था। जब भैया ने पंद्र

रुपये में सौदा कर सलया , तो य

ी बीच

में कूदनेवाली कौन! आते

ी उसने पन् ु नी का

ाथ पकड़ सलया और घसीटता

ु आ अलग ले जाकर लगा लातें जमाने -- रामज़ादी, तू मारी नाक कटाने पर लगी ु ई ै ! तू छोटे -छोटे आदसमयों से लड़ती किरती ै , ककसकी पगड़ी नीची ोती ै बता! । ( एक लात और जमाकर) म तो व ाूँ कलेऊ की बाट दे ख र े ैं, तू य ाूँ लड़ाई ठाने बैठी

ै । इतनी बेसमी! आूँख का पानी ऐसा धगर गया!

खोदकर गाड़ दूँ ग ू ा। पुन्नी

ाय- ाय करती जाती थी और कोसती जाती थी, 'तेरी समट्टी उठे , तुझे

ो जाय, तुझे मरी आये, दे वी मैया तुझे लील जायूँ, तुझे इन्पलुएंजा

भगवान ण करे , तू कोढ़ी और गासलयाूँ तो गयी।

ो जाय।

ै ज़ा

ो जाय।

ाथ-पाूँव कट-कट धगरें ।'

ीरा खड़ा-खड़ा सुनता र ा, लेककन य

वपछली गाली उसे लग

ै ज़ा, मरी आहद में ववशेष कष्ट न था। इिर बीमार पड़े, उिर बबदा

गये, लेककन कोढ़! य

घनौनी मौत, और उससे भी घनौना जीवन। व

तुझे लेकर चाटूूँगा! तू

ी मेरे बाल-बच्चों को पालेगी? ऐं! तू



तलसमला उठा, दाूँत पीसता ु आ किर पु नया पर झपटा और झोटे पकड़कर किर उसका ससर ज़मीन पर रगड़ता ु आ बोला -- ाथ-पाव कटकर धगर जायूँगे, तो मैं धगरस्ती चलायेगी? तू तो दस ू रा भरतार करके ककनारे खड़ी चौिरी को पु नया की इस दग ु द त पर दया आ गयी। समझाने लगा --

ी इतनी बड़ी

ो जायगी।

ीरा को उदारतापूवक द

ीरा म तो, अब जाने दो, ब ु त ु आ। क्या ु आ, ब ू ने मुझे मारा। मैं तो छोटा न ीं ो गया। िन्य भाग कक भगवान ण ने य तो हदखाया। ीरा ने चौिरी को डाूँटा -- तुम चुप र ो चौिरी, न ीं मेरे क्रोि में पड़ जाओगे

तो बुरा

ोगा। औरत जात इसी तर

बकती

को दस ू रों से लड़ जायगी। तुम भले मानस न करे गा। क ीं उसने भी

ै । आज को तुमसे लड़ गयी, कल

ो, ूँसकर टाल गये, दस ू रा तो बरदास

ाथ छोड़ हदया, तो ककतनी आबरू र

इस ख़याल ने उसके क्रोि को किर भड़काया। लपका था कक पकड़ सलया और उसे पीछे द ु नया ने कक बड़े ब ादरु

जायेगी, बताओ।

ोरी ने दौड़कर

टाते ु ए बोला -- अरे ो तो गया। दे ख तो सलया ो। अब क्या उसे पीसकर पी जाओगे ?

ीरा अब भी बड़े भाई का अदब करता था। सीिे-सीिे न लड़ता था। चा ता तो एक झटके में अपना

ाथ छुड़ा लेता; लेककन इतनी बेअदबी न कर सका। चौिरी

की ओर दे खकर बोला -- अब खड़े क्या ताकते स ी कर हदया। पंद्र

रुपए सैकड़े में तय

ो। जाकर अपने बाूँस काटो। मैंने

ै।

क ाूँ तो पुन्नी रो र ी थी। क ाूँ झमककर उठी और अपना ससर पीटकर बोली -लगा दे घर में आग, मुझे क्या करना

ै । भाग िूट गया कक तुम-जैसी क़साई के

पाले पड़ी। लगा दे घर में आग! उसने कलेऊ की टोकरी व ीं छोड़ दी और घर की ओर चली। ीरा गरजा -- व ाूँ क ाूँ जाती

ैं, चल कुएूँ पर, न ीं ख़ून पी जाऊूँगा।

पु नया के पाूँव रुक गये। इस नाटक का दस ू रा अंक न खेलना चा ती थी। चप ु के से टोकरी उठाकर रोती ु ई कुएूँ की ओर चली। ीरा भी पीछे -पीछे चला। क ा -- अब किर मार-िाड़ न करना। इससे औरत बेसरम ो जाती ै । ि नया ने द्वार पर आकर र े

ोरी ने

ाूँक लगायी -- तम ु व ाूँ खड़े-खड़े क्या तमाशा दे ख

ो। कोई तम् ु ारी सन ु ता भी

ै कक यों

ी सशक्षा दे र े

ो। उस हदन इसी ब ू ने तुम् ें घूूँघट की आड़ में डाढ़ीजार क ा था, भूल गये। ब ु ररया ोकर पराये मरदों से लड़ेगी, तो डाूँटी न जायेगी।

ोरी द्वार पर आकर नटखटपन के साथ बोला -- और जो मैं इसी तर मारूूँ?

तझ ु े

'क्या कभी मारा न ीं ै , जो मारने की साि बनी ु ई ै ?' 'इतनी बेदरदी से मारता, तो तू घर छोड़कर भाग जाती! पु नया बड़ी ग़मख़ोर ै ।' 'ओ ो! ऐसे ी तो बड़े दरदवाले ो। अभी तक मार का दाग़ बना ु आ ै । ीरा मारता ै तो दल ु ारता भी ै । तुमने ख़ाली मारना सीखा, दल ु ार करना सीखा ी न ीं। मैं

ी ऐसी ू ूँ कक तुम् ारे साथ नबा

ु आ।'

'अच्छा र ने दे , ब ु त अपना बखान न कर! तू ी रूठ-रूठकर नै र भागती थी।

'जब म ीनों ख़श ु ामद करता था, तब जाकर आती थी!' 'जब अपनी गरज सताती थी, तब मनाने जाते थे लाला! मेरे दल ु ार से न ीं जाते थे।'

'इसी से तो मैं सबसे तेरा बखान करता ू ूँ।' वैवाह क जीवन के प्रभात में लालसा अपनी गल ु ाबी मादकता के साथ उदय

ोती

ै और हृदय के सारे आकाश को अपने मािुयद की सुन री ककरणों से रं श्जत कर

दे ती

ै । किर मध्याह्न का प्रखर ताप आता

पथ् ृ वी काूँपने लगती

ै , क्षण-क्षण पर बगूले उठते

ै । लालसा का सुन रा आवरण

वास्तववकता अपने नग्न रूप में सामने आ खड़ी सन्ध्या आती

ै , शीतल और शान्त, जब

की यात्रा का वत्ृ तान्त क ते और सुनते सशखर पर जा बैठे

ट जाता

ैं, और

ै और

ै । उसके बाद ववश्राममय

म थके ु ए पधथकों की भाूँ त हदन-भर ैं तटस्थ भाव से, मानो म ककसी ऊूँचे

ैं ज ाूँ नीचे का जनरूरव

म तक न ीं प ु ूँचता।

ि नया ने आूँखों में रस भरकर क ा -- चलो-चलो, बड़े बखान करनेवाले। ज़रा-सा कोई काम बबगड़ जाय, तो गरदन पर सवार

ो जाते

ो।

ोरी ने मीठे उला ने के साथ क ा -- ले, अब य ी तेरी बेइंसाफ़ी मुझे अच्छी

न ीं लगती ि नया! भोला से पूछ, मैंने उनसे तेरे बारे में क्या क ा था ? ि नया ने बात बदलकर क ा -- दे खो, गोबर गाय लेकर आता

ै कक ख़ाली

ाथ।

चौिरी ने पसीने में लथ-पथ आकर क ा -- म तो, चलकर बाूँस धगन लो। कल ठे ला लाकर उठा ले जाऊूँगा। ोरी ने बाूँस धगनने की ज़रूरत न समझी। चौिरी ऐसा आदमी न ीं एकाि बाूँस बेसी

ी काट लेगा, तो क्या। रोज़

ी तो मूँगनी बाूँस कटते र ते

स ालगों में तो मंडप बनाने के सलए लोग दरजनों बाूँस काट ले जाते ने साढ़े सात रुपए नकालकर उसके

ै । किर

ाथ में रख हदये।

ोरी ने धगनकर क ा -- और नकालो। ह साब से ढाई और

ोते

ैं।

ैं।

ैं। चौिरी

चौिरी ने बेमरु ौवती से क ा -- पंद्र

रुपये में तय ु ए

ैं कक न ीं?

'पंद्र रुपए में न ीं, बीस रुपये में ।' ' ीरा म तो ने तुम् ारे सामने पंद्र रुपये क े थे। क ो तो बुला लाऊूँ।' 'तय तो बीस रुपये में ी ु ए थे चौिरी! अब तुम् ारी जीत ै , जो चा ो क ो। ढाई रुपये नकलते ैं , तम ु दो ी दे दो।' मगर चौिरी कच्ची गोसलयाूँ न खेला था। अब उसे ककसका डर।

ोरी के मूँु

में

तो ताला पड़ा ु आ था। क्या क े , माथा ठोंककर र गया। बस इतना बोला -य अच्छी बात न ीं ै , चौिरी, दो रुपए दबाकर राजा न ो जाओगे। चौिरी तीक्ष्ण स्वर में बोला -- और तुम क्या भाइयों के थोड़े-से पैसे दबाकर राजा दे ते

ो जाओगे? ढाई रुपये पर अपना ईमान बबगाड़ र े थे , उस पर मुझे उपदे स

ो। अभी परदा खोल दूँ ,ू तो ससर नीचा

ो जाय।

ोरी पर जैसे सैकड़ों जूते पड़ गये। चौिरी तो रुपए सामने ज़मीन पर रखकर

चला गया; पर व

नीम के नीचे बैठा बड़ी दे र तक पछताता र ा। व

ककतना

लोभी और स्वाथी, इसका उसे आज पता चला। चौिरी ने ढाई रुपए दे हदये तो व

ोते,

ख़श ु ी से ककतना िूल उठता। अपनी चालाकी को सरा ता कक बैठे-बैठाए

ढाई रुपए समल गये। ठोकर खाकर

ी तो

म साविानी के साथ पग उठाते

ैं।

ि नया अंदर चली गयी थी। बा र आयी तो रुपए ज़मीन पर पड़े दे खे , धगनकर बोली -- और रुपए क्या ु ए, दस न चाह ए? ोरी ने लंबा मूँु

बनाकर क ा --

ीरा ने पंद्र

रुपए में दे हदये, तो मैं क्या

करता।

' ीरा पाूँच रुपए में दे दे । म न ीं दे ते इन दामों।' 'व ाूँ मार-पीट ो र ी थी। मैं बीच में क्या बोलता।' ोरी ने अपनी पराजय अपने मन में

ी डाल ली, जैसे कोई चोरी से आम तोड़ने

के सलए पेड़ पर चढ़े और धगर पड़ने पर िूल झाड़ता ु आ उठ खड़ा

ो कक कोई

दे ख न ले। जीतकर आप अपनी िोखेबाश्ज़यों की डींग मार सकते सब-कुछ माफ़

ै।

ार की लज्जा तो पी जाने की

ी वस्तु ै । ि नया प त को

िटकारने लगी। ऐसे सुअवसर उसे ब ु त कम समलते थे। पर आज बाज़ी ि नया के ाथ थी। ाथ मटकाकर बोली -- क्यों न

ो, भाई ने पंद्र

ोरी उससे चतुर था;

रुपये क

टोकते। अरे राम-राम! लाड़ले भाई का हदल छोटा

ैं ; जीत से

हदये, तो तुम कैसे

ो जाता कक न ीं। किर जब

इतना बड़ा अनथद

ो र ा था कक लाड़ली ब ू के गले पर छुरी चल र ी थी, तो भला तुम कैसे बोलते। उस बखत कोई तम् ु ारा सरबस लूट लेता, तो भी तुम् ें सि ु न

ोती।

ोरी चुपचाप सुनता र ा। समनका तक न ीं। झूँझ ु ला ट ु ई, क्रोि आया, ख़ून खौला, आूँख जली, दाूँत वपसे; लेककन बोला न ीं। चुपके-से कुदाल उठायी और ऊख गोड़ने चला।

ि नया ने कुदाल छीनकर क ा -- क्या अभी सबेरा

ै जो ऊख गोड़ने चले ? सूरज

दे वता माथे पर आ गये। न ाने-िोने जाओ। रोटी तैयार ोरी ने घुन्नाकर क ा -- मुझे भूख न ीं ि नया ने जले पर नोन छड़का -लड्डू णखला हदये

ै।

ै।

ाूँ का े को भूख लगेगी। भाई ने बड़े-बड़े

ैं न! भगवान ण ऐसे सपत ू भाई सबको दें ।

ोरी बबगड़ा। क्रोि अब रश्स्सयाूँ तुड़ा र ा था -- तू आज मार खाने पर लगी ु ई ै। ि नया ने नक़ली ववनय का नाटक करके क ा -- क्या करूूँ, तुम दल ु ार करते

ो कक मेरा ससर किर गया

ी इतना

ै।

'तू घर में र ने दे गी कक न ीं?' 'घर तुम् ारा, मासलक तुम, मैं भला कौन ोती ू ूँ तुम् ें घर से नकालनेवाली।'

ोरी आज ि नया से ककसी तर गयी

पेश न ीं पा सकता। उसकी अक्ल जैसे कंु द

ै । इन व्यंग्य-बाणों के रोकने के सलए उसके पास कोई ढाल न ीं



ै । िीरे

से कुदाल रख दी और गमछा लेकर न ाने चला गया। लौटा कोई आि घंटे में ;

मगर गोबर अभी तक न आया था। अकेले कैसे भोजन करे । लौंडा व ाूँ जा कर सो र ा। भोला की व

मदमाती छोकरी

ै न झु नया। उसके साथ

कर र ा

ूँसी-हदल्लगी

ोगा। कल भी तो उसके पीछे लगा ु आ था। न ीं गाय दी, तो लौट क्यों न ीं आया। क्या व ाूँ ढई दे गा। ि नया ने क ा -- अब खड़े क्या

ो? गोबर साूँझ को आयेगा।

न क ा। क ीं ि नया किर न कुछ क

ोरी ने और कुछ

बैठे। भोजन करके नीम की छाूँ

में लेट

र ा। रूपा रोती ु ई आई नंगे बदन एक लूँ गोटी लगाये, झबरे बाल इिर-उिर बबखरे ु ए। ोरी की छाती पर लोट गयी। उसकी बड़ी ब न सोना क ती ै -गाय आयेगी, तो उसका गोबर मैं पाथूग ूँ ी। रूपा य सोना ऐसी क ाूँ की बड़ी रानी ककस बात में कम सोना पानी लाती

ै कक सारा गोबर आप पाथ डाले। रूपा उससे

ै । सोना रोटी पकाती

ै , तो क्या रूपा बरतन न ीं माूँजती?

ै , तो क्या रूपा कुएूँ पर रस्सी न ीं ले जाती? सोना तो कलसा

भरकर इठलाती चली आती साथ पाथती

न ीं बरदाकत कर सकती।

ै । रस्सी समेटकर रूपा

ैं। सोना खेत गोड़ने जाती

ै । गोबर दोनों

ै , तो क्या रूपा बकरी चराने न ीं

जाती? किर सोना क्यों अकेली गोबर पाथेगी? य ोरी ने उसके भोलेपन पर मुग्ि

ी लाती

अन्याय रूपा कैसे स े ?

ोकर क ा -- न ीं, गाय का गोबर तू पाथना

सोना गाय के पास जाये तो भगा दे ना। रूपा ने वपता के गले में

ाथ डालकर क ा -- दि ू भी मैं

ी द ु ू ूँगी।

' ाूँ- ाूँ, तू न द ु े गी तो और कौन द ु े गा?' 'व मेरी गाय ोगी।' ाूँ, सोल ो आने तेरी।' रूपा प्रसन्न

ोकर अपनी ववजय का शुभ समाचार पराश्जता सोना को सुनाने

चली गयी। गाय मेरी

ोगी, उसका दि ू मैं द ु ू ूँगी, उसका गोबर मैं पाथग ू ूँ ी, तुझे

कुछ न समलेगा। सोना उम्र से ककशोरी, दे

के गठन में यव ु ती और बद् ु धि से

बासलका थी, जैसे उसका यौवन उसे आगे खींचता था, बालपन पीछे । कुछ बातों में इतनी चतुर कक ग्रेजुएट युव तयों को पढ़ाये, कुछ बातों में इतनी अल् ड़ कक

सशशुओं से भी पीछे । लंबा, रूखा, ककं तु प्रसन्न मुख, ठोड़ी नीचे को णखंची ु ई, आूँखों में एक प्रकार की तश्ृ प्त न केशों में तेल, न आूँखों में काजल, न दे पर कोई आभष ू ण, जैसे ग ृ स्थी के भार ने यौवन को दबाकर बौना कर हदया

ो।

ससर को एक झटका दे कर बोली -- जा तू गोबर पाथ। जब तू दि ू द ु कर रखेगी तो मैं पी जाऊूँगी।

'मैं दि ू की ाूँड़ी ताले में बंद करके रखग ूूँ ी।' 'मैं ताला तोड़ कर दि ू नकाल लाऊूँगी।' य

क ती ु ई व बाग़ की तरफ़ चल दी। आम गदरा गये थे। वा के झोंकों से एकाि ज़मीन पर धगर पड़ते थे, लू के मारे चच ु के, पीले; लेककन बाल-वंद ृ उन् ें टपके समझकर बाग़ को घेरे र ते थे। रूपा भी ब न के पीछे सोना करे , व के वववा आग्र

रूपा ज़रूर करे गी। सोना के वववा

की कोई चचाद न ीं करता; इससलए व

करती

ै । उसका दल् ू ा कैसा

ो र ी थी , रूपा

स्वयम ण अपने वववा

के सलए

ोगा, क्या-क्या लायेगा, उसे कैसे रखेगा, उसे

क्या णखलायेगा, क्या प नायेगा, इसका व कदाधचत ण कोई बालक उससे वववा

की बातचीत

ो ली। जो काम

बड़ा ववशद वणदन करती, श्जसे सुनकर

करने पर राज़ी न

ोता। साूँझ

ो र ी थी।

ोरी ऐसा अलसाया कक ऊख गोड़ने न जा सका। बैलों को नाूँद में लगाया , सानी-

खली दी और एक धचलम भरकर पीने लगा। इस फ़सल में सब कुछ खसल ान में तौल दे ने पर भी अभी उस पर कोई तीन सौ क़रज़ था , श्जस पर कोई सौ रुपए सूद के बढ़ते जाते थे। मूँगरू सा

से आज पाूँच साल ु ए बैल के सलए साठ रुपए सलए थे, उसमें साठ दे चुका था; पर व साठ रुपए ज्यों-के-त्यों बने ु ए थे। दातादीन पंडडत से तीस रुपए लेकर आलू बोये थे। आलू तो चोर खोद ले गये, और उस तीस के इन तीन बरसों में सौ

ो गये थे। दल ु ारी वविवा स ु आइन थी, जो गाूँव में नोन तेल तमाखू की दक ू ान रखे ु ए थी। बटवारे के समय उससे चालीस रुपए लेकर भाइयों को दे ना पड़ा था। उसके भी लगभग सौ रुपए

ो गये

थे, क्योंकक आने रुपये का ब्याज था। लगान के भी अभी पच्चीस रुपए बाक़ी पड़े ु ए थे और दश रे के हदन शगुन के रुपयों का भी कोई प्रबंि करना था। बाूँसों

के रुपए बड़े अच्छे समय पर समल गये। शगन ु की समस्या लेककन कौन जाने। य ाूँ तो एक िेला भी जाता

ो जायगी;

ाथ में आ जाय, तो गाूँव में शोर मच

ै , और लेनदार चारों तरफ़ से नोचने लगते

में दे गा, चा े कुछ



ैं , ये पाूँच रुपये तो व

शगुन

ो जाय; मगर अभी श्ज़ंदगी के दो बड़े-बड़े काम ससर पर

सवार थे। गोबर और सोना का वववा । ब ु त ाथ बाूँिने पर भी तीन सौ से कम ख़चद न ोंगे। ये तीन सौ ककसके घर से आयेंगे ? ककतना चा ता ै कक ककसी से एक पैसा क़रज़ न ले, श्जसका आता

ै , उसका पाई-पाई चुका दे ; लेककन

का कष्ट उठाने पर भी गला न ीं छूटता। इसी तर हदन उसका घर-द्वार सब नीलाम भीख माूँगते किरें गे। तो य

र तर

सूद बढ़ता जायगा और एक

ो जायगा, उसके बाल-बच्चे नराश्रय

ोकर

ोरी जब काम-िंिे से छुट्टी पाकर धचलम पीने लगता था,

धचंता एक काली दीवार की भाूँ त चारों ओर से घेर लेती थी , श्जसमें से

नकलने की उसे कोई गली न सूझती थी। अगर संतोष था तो य ी कक य

वववपत्त अकेले उसी के ससर न थी। प्रायःसभी ककसानों का य ी

ाल था।

अधिकांश की दशा तो इससे भी बदतर थी। शोभा और

ीरा को उससे अलग ु ए अभी कुल तीन साल ु ए थे; मगर दोनों पर चार-चार सौ का बोझ लद गया। झींगरु दो ल की खेती करता ै । उस पर एक ज़ार से कुछ बेसी ी दे ना ै । श्जयावन म तो के घर-सभखारी भीख भी न ीं पाता; लेककन करजे का कोई हठकाना न ीं। य ाूँ कौन बचा

ै।

स सा सोना और रूपा दोनों दौड़ी ु ई आयीं और एक साथ बोलीं -- भैया गाय ला र े ैं। आगे-आगे गाय, पीछे -पछे भीया ैं। रूपा ने प ले गोबर को आते दे खा था। य

ख़बर सुनाने की सुख़रू द ई उसे समलनी

चाह ए थी। सोना बराबर की ह स्सेदार ु ई जाती उसने आगे बढ़कर क ा -- प ले मैंने दे खा था।

ै, य

उससे कैसे स ा जाता।

तभी दौड़ी। ब न ने तो पीछे से दे खा। सोना इस दावे को स्वीकार न कर सकी। बोली -- तन ू े भैया को क ाूँ प चाना। तू तो क ती थी, कोई गाय भागी आ र ी ै । मैंने

ी क ा, भैया

ैं।

दोनों किर बाग़ की तरफ़ दौड़ीं, गाय का स्वागत करने के सलए। ि नया और ोरी दोनों गाय बाूँिने का प्रबंि करने लगे।

ोरी बोला -- चलो, जल्दी से नाूँद गाड़ दें । ि नया के मुख पर जवानी चमक उठी थी -- न ीं, प ले थाली में थोड़ा-सा आटा और गुड़ घोलकर रख दें । बेचारी िूप में चली

ोगी। प्यासी

नाूँद गाड़ो, मैं घोलती ू ूँ।

ोगी। तुम जाकर

'क ीं एक घंटी पड़ी थी। उसे ढूूँढ़ ले। उसके गले में बाूँिेंगे।' 'सोना क ाूँ गयी। स ु आइन की दक ु ान से थोड़ा-सा काला डोरा मूँगवा लो, गाय को नज़र ब ु त लगती ै ।' 'आज मेरे मन की बड़ी भारी लालसा परू ी ो गयी।' ि नया अपने

ाहदद क उल्लास को दबाये रखना चा ती थी। इतनी बड़ी सम्पदा

अपने साथ कोई नयी बािा न लाये, य

शंका उसके नराश हृदय में कम्पन

डाल र ी थी। आकाश की ओर दे खकर बोली -- गाय के आने का आनन्द तो जब

ै कक उसका पौरा भी अच्छा

मानो व

ो। भगवान ण के मन की बात

ै।

भगवान ण को भी िोखा दे ना चा ती थी। भगवान ण को भी हदखाना चा ती

थी कक इस गाय के आने से उसे इतना आनंद न ीं ु आ कक ईष्यादलु भगवान ण सख ु का पलड़ा ऊूँचा करने के सलए कोई नयी ववपश्त्त भेज दें । व अभी आटा घोल

ी र ी थी कक गोबर गाय को सलये बालकों के एक जल ु ूस के साथ द्वार

पर प ु ूँचा। ोरी दौड़कर गाय के गले से सलपट गया। ि नया ने आटा छोड़ हदया और जल्दी से एक पुरानी साड़ी का काला ककनारा िाड़कर गाय के गले में बाूँि हदया।

ोरी श्रद्िा-ववह्वल नेत्रों से गाय को दे ख र ा था, मानो साक्षात ण दे वीजी ने

घर में पदापदण ककया

ो। आज भगवान ण ने य

के चरणों से पववत्र

ो गया। य

ि नया ने भयातुर

ोकर क ा -- खड़े क्या

'आूँगन में , जग क ाूँ ै ?' 'ब ु त जग

ै ।'

हदन हदखाया कक उसका घर गऊ

सौभाग्य! न जाने ककसके पुडय-प्रताप से। ो, आूँगन में नाूँद गाड़ दो।

'मैं तो बा र ी गाड़ता ू ूँ।' 'पागल न बनो। गाूँव का ाल जानकर भी अनजान बनते ो।' 'अरे बबत्ते-भर के आूँगन में गाय क ाूँ बूँिेगी भाई?' 'जो बात न ीं जानते, उसमें टाूँग मत अड़ाया करो। संसार-भर की बबद्या तुम् ीं न ीं पढ़े

ो।'

ोरी सचमुच आपे में न था। गऊ उसके सलए केवल भश्क्त और श्रद्िा की वस्तु

न ीं, सजीव सपश्त्त भी थी। व गौरव बढ़ाना चा ता था। व पछ ू ें -- य

ककसका घर

चा ता था, लोग गाय को द्वार पर बूँिे दे खकर

ै ? लोग क ें --

उसकी ववभू त से प्रभाववत ववपरीत सशंक थी। व

उससे अपने द्वार की शोभा और अपने घर का ोरी म तो का। तभी लड़कीवाले भी

ोंगे। आूँगन में बूँिी, तो कौन दे खेगा? ि नया इसके

गाय को सात परदों के अंदर छपाकर रखना चा ती थी।

अगर गाय आठों प र कोठरी में र

सकती, तो शायद व

दे ती। यों

ोती थी। व

र बात में

ोरी की जीत

उसे बा र न नकालने

अपने पक्ष पर अड़ जाता था

और ि नया को दबना पड़ता था, लेककन आज ि नया के सामने चली। ि नया लड़ने पर तैयार

ोरी की एक न

ो गयी। गोबर, सोना और रूपा, सारा घर

ोरी के

पक्ष में था; पर ि नया ने अकेले सब को परास्त कर हदया। आज उसमें एक ववधचत्र आत्म-ववकवास और

ोरी में एक ववधचत्र ववनय का उदय

ो गया था।

मगर तमाशा कैसे रुक सकता था। गाय डोली में बैठकर तो आई न थी। कैसे संभव था कक गाूँव में इतनी बड़ी बात सुना, सब काम छोड़कर दे खने दौड़ा। य से अस्सी रुपये में आयी लाये

ै।

ो जाय और तमाशा न लगे। श्जसने मामूली दे शी गऊ न ीं

ै । भोला के घर

ोरी अस्सी रुपए क्या दें गे, पचास-साठ रुपए में

ोंगे। गाूँव के इ त ास में पचास-साठ रुपए की गाय का आना भी अभूतपूवद

बात थी। बैल तो पचास रुपए के भी आये , सौ के भी आये, लेककन गाय के सलए इतनी बड़ी रक़म ककसान क्या खा के ख़चद करे गा। य ै कक अूँजुसलयों रुपए धगन आते

ैं। गाय क्या

तो ग्वालों

ी का कलेजा

ै , साक्षात ण दे वी का रूप

ै।

दशदकों, आलोचकों का ताूँता लगा ु आ था, और ोरी दौड़-दौड़कर सबका सत्कार कर र ा था। इतना ववनम्र, इतना प्रसन्न धचत्त व कभी न था।

सत्तर साल के बढ़ ू े पंडडत दातादीन लहठया टे कते ु ए आये और पोपले मूँु से बोले -- क ाूँ ो ोरी, त नक म भी तुम् ारी गाय दे ख लें । सन ु ा बड़ी सुंदर ै । ोरी ने दौड़कर पालागन ककया और मन में असभमानमय उल्लास का आनंद उठाता ु आ, बड़े सम्मान से पंडडतजी को आूँगन में ले गया। म ाराज ने गऊ को अपनी पुरानी अनुभवी आूँखों से दे खा, सींगे दे खीं, थन दे खा, पुट्ठा दे खा और घनी सफ़ेद भौं ों के नीचे छपी ु ई आूँखों में जवानी की उमंग भरकर बोले -- कोई दोष न ीं ै बेटा, बाल-भौंरी, सब ठीक। भगवान ण चा ें गे, तो तुम् ारे भाग खल ु जायेंगे, ऐसे अच्छे लच्छन बाछा सौ-सौ का

ैं कक वा ! बस रा तब न कम

ोने पाये। एक-एक

ोगा।

ोरी ने आनंद के सागर में डुबककयाूँ खाते ु ए क ा -- सब आपका असीरबाद दादा! दातादीन ने सुरती की पीक थक ू ते ु ए क ा -- मेरा असीरबाद न ीं भगवान ण की दया ै । य सब प्रभु की दया ै । रुपए नगद हदये?

ै,

ै बेटा,

ोरी ने बे-पर की उड़ाई। अपने म ाजन के सामने भी अपनी समवृ ि-प्रदशदन का

ऐसा अवसर पाकर व अकड़ने लगते उड़ने लगते चढ़े ।

कैसे छोड़े। टके की नई टोपी ससर पर रखकर जब

ैं , ज़रा दे र के सलए ककसी सवारी पर बैठकर जब



म आकाश में

ैं, तो इतनी बड़ी ववभू त पाकर क्यों न उसका हदमाग़ आसमान पर

बोला -- भोला ऐसा भलामानस न ीं अपने म ाजन के सामने य

ै म ाराज! नगद धगनाये , पूरे चौकस।

डींग मारकर

ोरी ने नादानी तो की थी ; पर

दातादीन के मुख पर असंतोष का कोई धचह्न न हदखायी हदया। इस कथन में ककतना सत्य की जग प्रसन्न

ै, य

उनकी उन बूझी आूँखों से छपा न र

सका श्जनमें ज्यो त

अनुभव छपा बैठा था। ोकर बोले -- कोई

करें गे। पाूँच सेर दि ू

रज़ न ीं बेटा, कोई

रज़ न ीं। भगवान ण सब कल्यान

ै इसमें बच्चे के सलए छोड़कर।

ि नया ने तरु ं त टोका -- अरे न ीं म ाराज, इतना दि ू क ाूँ। बहु ढ़या तो ै । किर य ाूँ रा तब क ाूँ िरा

ो गयी

ै।

दातादीन ने ममद-भरी आूँखों से दे खकर उसकी सतकताद को स्वीकार ककया , मानो क

र े

ों, 'गहृ णी का य ी िमद

ै , सीटना मरदों का काम

ै , उन् ें सीटने दो।'

किर र स्य-भरे स्वर में बोले -- बा र न बाूँिना, इतना क े दे ते ि नया ने प त की ओर ववजयी आूँखों से दे खा, मानो क

र ी

ैं। ो -- लो अब तो

मानोगे। दातादीन से बोली -- न ीं म ाराज, बा र क्या बाूँिेंगे, भगवान ण दें तो इसी आूँगन में तीन गायें और बूँि सकती

ैं।

सारा गाूँव गाय दे खने आया। न ीं आये तो सोभा और थे।

ीरा जो अपने सगे भाई

ोरी के हृदय में भाइयों के सलए अब भी कोमल स्थान था। व

दे ख लेते और प्रसन्न

ो जाते तो उसकी मनोकामना परू ी

दोनों आकर

ो जाती। साूँझ



गयी। दोनों पुर लेकर लौट आये। इसी द्वार से नकले, पर पूछा कुछ न ीं। ोरी ने डरते-डरते ि नया से क ा -- न सोभा आया, न ि नया बोली -- तो य ाूँ कौन उन् ें बुलाने जाता

ीरा। सुना न

ोगा?

ै।

'तू बात तो समझती न ीं। लड़ने के सलए तैयार र ती ै । भगवान ण ने जब य हदन हदखाया मूँु

ै , तो

में ससर झुकाकर चलना चाह ए। आदमी को अपने संगों के

से अपनी भलाई-बुराई सुनने की श्जतनी लालसा

से न ीं। किर अपने भाई लाख बुरे के सलए सभी लड़ते

ोती

ों, ैं तो अपने भाई

ैं , पर इससे ख़ून थोड़े

ी बट जाता

ै , बा रवालों के मूँु

ी। अपने ह स्से -बखरे ै । दोनों को बुलाकर

हदखा दे ना चाह ए। न ीं क ें गे गाय लाये , मसे क ा तक न ीं।' ि नया ने नाक ससकोड़कर क ा -- मैंने तुमसे सौ बार मूँु

ज़ार बार क

पर भाइयों का बखान न ककया करो, उनका नाम सुनकर मेरी दे

लग जाती

ै । सारे गाूँव ने सन ु ा, क्या उन् ोंने न सुना

हदया मेरे में आग

ोगा? कुछ इतनी दरू भी

तो न ीं र ते। सारा गाूँव दे खने आया , उन् ीं के पाूँवों में में दी लगी ु ई थी; मगर आये कैसे? जलन ो र ी ोगी कक इसके घर गाय आ गयी। छाती िटी जाती ोगी। हदया-बत्ती का समय आ गया था। ि नया ने जाकर दे खा , तो बोतल में समट्टी का तेल न था। बोतल उठा कर तेल लाने चली गयी। पैसे भेजती, उिार लाना था, कुछ मूँु तेल उिार समलेगा।

ोते, तो रूपा को

दे खी क े गी; कुछ लल्लो-चप्पो करे गी, तभी तो

ोरी ने रूपा को बुलाकर प्यार से गोद में बैठाया और क ा -- ज़रा जाकर दे ख,

ीरा काका आ गये कक न ीं।

सोभा काका को भी दे खती आना। क ना , दादा ने तम् ु ें बल ु ाया

ै । न आये, ाथ

पकड़कर खींच लाना। रूपा ठुनककर बोली -- छोटी काकी मझ ु े डाूँटती

ै।

'काकी के पास क्या करने जायगी। किर सोभा-ब ू तो तुझे प्यार करती ै ?' 'सोभा काका मुझे धचढ़ाते ैं, क ते ैं ... मैं न क ू ूँगी।' 'क्या क ते ैं, बता?' 'धचढ़ाते ैं।' 'क्या क कर धचढ़ाते ैं ?' 'क ते ैं, तेरे सलए मूस पकड़ रखा ै । ले जा, भूनकर खा ले।' ोरी के अंतस्तल में गद ु गद ु ी ु ई।

'तू क ती न ीं, प ले तुम खा लो, तो मैं खाऊूँगी।' 'अम्माूँ मने करती ैं। क ती ैं उन लोगों के घर न जाया करो। ' 'तू अम्माूँ की बेटी ै कक दादा की?'

रूपा ने उसके गले में

ाथ डालकर क ा -- अम्माूँ की, और

ूँसने लगी।

'तो किर मेरी गोद से उतर जा। आज मैं तझ ु े अपनी थाली में न णखलाऊूँगा।' घर में एक

ी िूल की थाली थी, ोरी उसी थाली में खाता था। थाली में खाने

का गौरव पाने के सलए रूपा

ोरी के साथ खाती थी। इस गौरव का पररत्याग

कैसे करे ? ु मककर बोली -- अच्छा, तुम् ारी।

'तो किर मेरा क ना मानेगी कक अम्माूँ का?' 'तम् ु ारा।' 'तो जाकर ीरा और सोभा को खींच ला।' 'और जो अम्माूँ बबगड़ें।' 'अम्माूँ से क ने कौन जायगा।' रूपा कूदती ु ई ीरा के घर चली। द्वेष का मायाजाल बड़ी-बड़ी मछसलयों को ी िूँसाता ै । छोटी मछसलयाूँ या तो उसमें िूँसती ी न ीं या तरु ं त नकल जाती ैं। उनके सलए व

घातक जाल क्रीड़ा की वस्तु

ै , भय की न ीं। भाइयों से

ोरी

की बोलचाल बंद थी; पर रूपा दोनों घरों में आती-जाती थी। बच्चों से क्या बैर! लेककन रूपा घर से नकली -- साूँझ की बेला क ाूँ जाती

ी थी कक ि नया तेल सलए समल गयी। उसने पछ ू ा ै , चल घर।

रूपा माूँ को प्रसन्न करने के प्रलोभन को न रोक सकी। ि नया ने डाूँटा -- चल घर, ककसी को बल ु ाने न ीं जाना रूपा का बार क

ै।

ाथ पकड़े ु ए व घर आयी और ोरी से बोली -- मैंने तुमसे ज़ार हदया, मेरे लड़कों को ककसी के घर न भेजा करो। ककसी ने कुछ कर-

करा हदया, तो मैं तम् ु ें लेकर चाटूूँगी? ऐसा जाते? अभी पेट न ीं भरा जान पड़ता

ै।

ी बड़ा परे म

ै , तो आप क्यों न ीं

ोरी नाूँद जमा र ा था।

ाथों में समट्टी लपेटे ु ए अज्ञान का असभनय करके बोला -- ककस बात पर बबगड़ती ै भाई! य तो अच्छा न ीं लगता कक अंिे कूकर की तर

वा को भूँक ू ा करे ।

ि नया को कुप्पी में तेल डालना था, इस समय झगड़ा न बढ़ाना चा ती थी।

रूपा भी लड़कों में जा समली। प र रात से ज़्यादा जा चुकी थी। नाूँद गड़ चुकी थी। सानी और खली डाल दी गयी थी। गाय मनमारे उदास बैठी थी , जैसे कोई विू ससुराल आयी

ो। नाूँद में मूँु

तक न डालती थी।

ोरी और गोबर खाकर

आिी-आिी रोहटयाूँ उसके सलए लाये, पर उसने सूँघ ू ा तक न ीं। मगर य

कोई

नयी बात न थी। जानवरों को भी ब ु िा घर छूट जाने का दःु ख ोता ै । ोरी बा र खाट पर बैठ कर धचलम पीने लगा, तो किर भाइयों की याद आयी। न ीं, आज इस शुभ अवसर पर व

भाइयों की उपेक्षा न ीं कर सकता। उसका हृदय

ु आ। उनका दकु मन तो न ीं का उस पर बराबर अधिकार

ै । य ी गाय तीन साल प ले आयी



ववभू त पाकर ववशाल

क्या व न ीं

ो गया था। भाइयों से अलग

ो गया

ै , तो क्या ोती, तो सभी

ोता। और कल को य ी गाय दि ू दे ने लगेगी, तो

भाइयों के घर दि ू न भेजेगा या द ी न भेजेगा? ऐसा तो उसका िरम

ै । भाई उसका बुरा चेतें, व

अपने-अपने साथ

क्यों उसका बुरा चेत।े अपनी-अपनी करनी तो

ै । उसने नाररयल खाट के पाये से लगाकर रख हदया और

ीरा के घर की ओर चला। सोभा का घर भी उिर

ी था। दोनों अपने -अपने

द्वार पर लेटे ु ए थे। काफ़ी अूँिेरा था। ोरी पर उनमें से ककसी की नगा न ीं पड़ी। दोनों में कुछ बातें ो र ी थीं। ोरी हठठक गया और उनकी बातें सुनने लगा। ऐसा आदमी क ाूँ

ै , जो अपनी चचाद सुनकर टल जाय।

ीरा ने क ा --

जब तक एक में थे, एक बकरी भी न ीं ली। अब पछाई गाय ली जाती का

क़ मारकर ककसी को िलते-िूलते न ीं दे खा। सोभा बोला -- य

अन्याय कर र े



ै । भाई तुम

ीरा! भैया ने एक-एक पैसे का ह साब दे हदया था। य

कभी न मानूँूगा कक उन् ोंने प ले की कमाई छपा रखी थी।

'तुम मानो चा े न मानो, ै य प ले की कमाई।' 'ककसी पर झूठा इलज़ाम न लगाना चाह ए।'

मैं

'अच्छा तो य रुपए क ाूँ से आ गये ? क ाूँ से ु न बरस पड़ा। उतने ी खेत तो मारे पास भी

ैं। उतनी

ी उपज

मारी भी

कौड़ी न ीं और उनके घर नयी गाय आती

ै । किर क्यों

मारे पास कफ़न को

ै ?'

'उिार लाये ोंगे।' 'भोला उिार दे नेवाला आदमी न ीं ै ।' 'कुछ भी ो, गाय ै बड़ी सुंदर, गोबर सलये जाता था, तो मैंने रास्ते में दे खा।' 'बेईमानी का िन जैसे आता ै , वैसे ी जाता ै । भगवान ण चा ें गे, तो ब ु त हदन गाय घर में न र े गी।' ोरी से और न सुना गया। व

बीती बातों को बबसारकर अपने हृदय में स्ने

और सौ ादद भरे भाइयों के पास आया था। इस आघात ने जैसे उसके हृदय में छे द कर हदया और व

रस-भाव उसमें ककसी तर

धचथड़े ठूूँसकर अब उस प्रवा

न ीं हटक र ा था। लत्ते और

को न ीं रोक सकता। जी में एक उबाल आया कक

उसी क्षण इस आक्षेप का जवाब दे ; लेककन बात बढ़ जाने के भय से चुप र गया। अगर उसकी नीयत साफ़ सामने व

नदोष



ै , तो कोई कुछ न ीं कर सकता। भगवान ण के

ै । दस ू रों की उसे परवा

न ीं। उलटे पाूँव लौट आया। और

जला ु आ तम्बाकू पीने लगा। लेककन जैसे व ववष प्र तक्षण उसकी िम नयों में िैलता जाता था। उसने सो जाने का प्रयास ककया , पर नींद न आयी। बैलों के पास जाकर उन् ें स लाने लगा , ववष शांत न ु आ। दस ू री धचलम भरी; लेककन उसमें भी कुछ रस न था। ववष ने जैसे चेतना को आक्रान्त कर हदया

ो। जैसे नशे में चेतना एकांगी

में ब कर वेगवान की दशा में व

ो जाता

ो जाती

ै , जैसे िैला ु आ पानी एक हदशा ै , व ी मनोवश्ृ त्त उसकी ो र ी थी। उसी उन्माद

अंदर गया। अभी द्वार खल ु ा ु आ था। आूँगन में एक ककनारे चटाई पर लेटी ु ई ि नया सोना से दे दबवा र ी थी और रूपा जो रोज़ साूँझ ोते

ी सो जाती थी, आज खड़ी गाय का मूँु

स ला र ी थी।

गाय को खूट ूँ े से खोल सलया और द्वार की ओर ले चला। व

ोरी ने जाकर

इसी वक़्त गाय

को भोला के घर प ु ूँचाने का दृढ़ नकचय कर चुका था। इतना बड़ा कलंक ससर पर लेकर व अब गाय को घर में न ीं रख सकता। ककसी तर न ीं।

ि नया ने पछ ू ा -- क ाूँ सलये जाते

ो रात को?

ोरी ने एक पग बढ़ाकर क ा -- ले जाता ू ूँ भोला के घर। लौटा दूँ ग ू ा। ि नया को ववस्मय ु आ, उठकर सामने आ गयी और बोली -- लौटा क्यों दोगे? लौटाने के सलए ी लाये थे।

' ाूँ इसके लौटा दे ने में ी कुशल ै ?' 'क्यों बात क्या ै ? इतने अरमान से लाये और अब लौटाने जा र े ो? क्या भोला रुपए माूँगते

ैं?'

'न ीं, भोला य ाूँ कब आया?' 'तो किर क्या बात ु ई?' 'क्या करोगी पूछकर?' ि नया ने लपककर पगह या उसके

ाथ से छीन ली। उसकी चपल बद् ु धि ने

जैसे उड़ती ु ई धचडड़या पकड़ ली। बोली -- तुम् ें भाइयों का डर ो, तो जाकर उसके पैरों पर धगरो। मैं ककसी से न ीं डरती। अगर मारी बढ़ती दे खकर ककसी की छाती िटती

ै , तो िट जाय, मुझे परवा

न ीं

ै।

ोरी ने ववनीत स्वर में क ा -- िीरे -िीरे बोल म रानी! कोई सन ु े, तो क े , ये सब

इतनी रात गये लड़ र े य ाूँ चरचा

ो र ी

ैं! मैं अपने कानों से क्या सुन आया ू ूँ , तू क्या जाने! ै कक मैंने अलग ोते समय रुपए दबा सलये थे और भाइयों

को िोखा हदया था, य ी रुपए अब नकल र े

ैं। '

' ीरा क ता ोगा?' 'सारा गाूँव क र ा ै ! ीरा को क्यों बदनाम करूूँ।' 'सारा गाूँव न ीं क र ा ै , अकेला ीरा क र ा ै । मैं अभी जाकर पूछती ू ूँ न कक तुम् ारे बाप ककतने रुपए छोड़कर मरे थे। डाढ़ीजारों के पीछे

म बरबाद



गये, सारी श्ज़ंदगी समट्टी में समला दी, पाल-पोसकर संडा ककया, और अब



बेईमान

ैं! मैं क े दे ती ू ूँ , अगर गाय घर के बा र नकली, तो अनथद ो जायगा। रख सलये मने रुपए, दबा सलये, बीच खेत दबा सलये। डंके की चोट क ती ू ूँ , मैंने ं डे भर अशकफ़द याूँ छपा लीं। ीरा और सोभा और संसार को जो करना ो, कर ले। क्यों न रुपए रख लें ? दो-दो संडों का ब्या न ीं ककया, गौना न ीं ककया?' ोरी ससटवपटा गया। ि नया ने उसके खूट ूँ े से बाूँिकर द्वार की ओर चली।

ाथ से पगह या छीन ली , और गाय को ोरी ने उसे पकड़ना चा ा ; पर व

बा र जा

चक ु ी थी। व ीं ससर थामकर बैठ गया। बा र उसे पकड़ने की चेष्टा करके व कोई नाटक न ीं हदखाना चा ता था। ि नया के क्रोि को ख़ूब जानता था। बबगड़ती एक

ै , तो चंडी बन जाती

ी ग़स् ु सेवर

मूरख न ीं

ै । क ीं

ै । मारो, काटो, सुनेगी न ीं; लेककन

ाथ चला दे तो परलै

ै । मैंने क ाूँ-से-क ाूँ य

ो जाय। न ीं, ीरा इतना

आग लगा दी। उसे अपने आप पर क्रोि

आने लगा। बात मन में रख लेता, तो क्यों य का ककशद स्वर कान में आया।



ीरा भी तो

टं टा खड़ा

ोता। स सा ि नया

ीरा की गरज भी सुन पड़ी। किर पुन्नी की पैनी

पीक भी कानों में चुभी। स सा उसे गोबर की याद आयी। बा र लपककर उसकी खाट दे खी। गोबर व ाूँ न था। ग़ज़ब कुशल न ीं। उसका नया ख़ून

ो गया! गोबर भी व ाूँ प ु ूँच गया। अब ै , न जाने क्या कर बैठे; लेककन ोरी व ाूँ कैसे

हदया। कोला ल प्र तक्षण प्रचंड

ोता जाता था। सारे गाूँव में जाग पड़ गयी।

जाय? ीरा क े गा, आप बोलते न ीं, जाकर इस डाइन को लड़ने के सलए भेज मालूम

जा र े

ोता था, क ीं आग लग गयी ैं। इतनी दे र तक तो व

ि नया पर क्रोि आया। व जाने ककसको क्या क ता

ै , और लोग खाट से उठ-उठ बुझाने दौड़े

ज़ब्त ककये बैठा र ा। किर न र

क्यों चढ़कर लड़ने गयी। अपने घर में आदमी न ै । जब तक कोई मूँु

चाह ए कक उसने कुछ न ीं क ा।

पर बात न क े , य ी समझना

ोरी की कृषक प्रकृ त झगड़े से भागती थी।

चार बातें सुनकर ग़म खा जाना इससे क ीं अच्छा क ीं मार-पीट

गया।

ो जाय तो थाना-पुसलस

ै कक आपस में तनाज़ा

ो, बूँिे-बूँिे किरो, सब की धचरौरी करो,

अदालत की िूल िाूँको, खेती-बारी ज न्नुम में समल जाय। उसका कोई बस न था; मगर ि नया को तो व

ो।

ीरा पर तो

ै। ब ु त ोगा, गासलयाूँ दे लेगी, एक-दो हदन रूठी र े गी, थाना-पुसलस की नौबत तो न

आयेगी। जाकर

ज़बरदस्ती खींच ला सकता

ीरा के द्वार पर सबसे दरू दीवार की आड़ में खड़ा

ो गया।

एक सेनाप त की भाूँ त मैदान में आने के प ले पररश्स्थ त को अच्छी तर समझ लेना चा ता था। अगर अपनी जीत न ीं; ार गये

ो र ी

ो र ी

ै , तो बोलने की कोई ज़रूरत

ै , तो तुरंत कूद पड़ेगा। दे खा तो व ाूँ पचासों आदमी जमा



ैं। पंडडत दातादीन, लाला पटे कवरी, दोनों ठाकुर, जो गाूँव के करता-िरता थे,

सभी प ु ूँचे ु ए

ैं।

ि नया का पल्ला

लका

ो र ा था। उसकी उग्रता जनमत को उसके ववरुद् ि

ककये दे ती थी। व

रणनी त में कुशल न थी। क्रोि में ऐसी जली-कटी सुना र ी

थी कक लोगों की स ानुभू त उससे दरू में दे खकर क्यों जलता

जवान कर हदया, य माूँगते

ोती जाती थी। व

गरज र ी थी -- तू

ै ? में दे खकर क्यों तेरी छाती िटती

उसका इनाम

ोते। रूख की छाूँ

ै ? मने न पाला

ै ? पाल-पोसकर

ोता तो आज क ीं भीख

भी न समलती।

ोरी को ये शब्द ज़रूरत से ज़्यादा कठोर जान पड़े। भाइयों का पालना-पोसना

तो उसका िमद था। उनके ह स्से की जायदाद तो उसके पालता-पोसता? द ु नया में क ीं मूँु ीरा ने जवाब हदया -तर

ाथ में थी। कैसे न

हदखाने लायक़ र ता?

म ककसी का कुछ न ीं जानते। तेरे घर में कुत्तों की

एक टुकड़ा खाते थे और हदन-भर काम करते थे। जाना

लड़कपन और जवानी कैसी

ोती

ी न ीं कक

ै । हदन-हदन भर सूखा गोबर बीना करते थे।

उस पर भी तू बबना दस गाली हदये रोटी न दे ती थी। तेरी-जैसी राच्छससन के ाथ में पड़कर श्ज़न्दगी तलख़

ो गयी।

ि नया और भी तेज़ ु ई -- ज़बान सूँभाल, न ीं जीभ खींच लूँ ग ू ी। राच्छससन तेरी औरत ोगी। तू ै ककस िेर में मूँड़ ू ी-काटे , टुकड़े-ख़ोर, नमक- राम। दातादीन ने टोका -- इतना कटु-वचन क्यों क ती कक ग़म खाय। व

तो उजड्डा

ै , क्यों उसके मूँु

ै ि नया? नारी का िरम लगती

ै?

लाला पटे कवरी पटवारी ने उसका समथदन ककया -- बात का जवाब बात न ीं। तन ू े लड़कपन में उसे पाला-पोसा; लेककन य जायदाद तेरे

ाथ में थी?



क्यों भल ू जाती

ै , गाली

ै कक उसकी

ि नया ने समझा, सब-के-सब समलकर मझ ु े नीचा हदखाना चा ते लड़ाई लड़ने के सलए तैयार

ैं। चौमख ु

ो गयी -- अच्छा, र ने दो लाला! मैं सबको

प चानती ू ूँ। इस गाूँव में र ते बीस साल ो गये। एक-एक की नस-नस प चानती ू ूँ। मैं गाली दे र ी ू ूँ , व िूल बरसा र ा ै , क्यों? दल ु ारी स ु आइन ने आग पर घी डाला -- बाक़ी बड़ी गाल-दराज़ औरत ै भाई! मरद के मूँु लगती ै । ोरी ी जैसा मरद ै कक इसका नबा ोता ै । दस ू रा मरद

ोता तो एक हदन न पटती।

अगर

ीरा इस समय ज़रा नमद

गासलयाूँ सुनकर आपे से बा र शेर

ो जाता, तो उसकी जीत

ो जाती; लेककन ये

ो गया। औरों को अपने पक्ष में दे खकर व

कुछ

ो र ा था। गला िाड़कर बोला -- चली जा मेरे द्वार से, न ीं जूतों से बात

करूूँगा। झोंटा पकड़कर उखाड़ लूँ ग ू ा। गाली दे ती

ै डाइन! बेटे का घमंड

ो गया

ै । ख़न ू ...।

पाूँसा पलट गया।

ोरी का ख़न ू खौल उठा। बारूद में जैसे धचनगारी पड़ गयी

आगे आकर बोला -- अच्छा बस, अब चुप

ो जाओ

ीरा, अब न ीं सुना जाता।

मैं इस औरत को क्या क ू ूँ। जब मेरी पीठ में िल ू लगती न जाने क्यों इससे चुप न ीं र ा जाता। चारों ओर से

ो।

ै , तो इसी के कारन।

ीरा पर बौछार पड़ने लगी। दातादीन ने नलदज्ज क ा, पटे कवरी ने

गंड ु ा बनाया, णझंगरु ीससं ने शैतान की उपाधि दी। दल ु ारी स ु आइन ने कपत ू क ा। एक उद्दं ड शब्द ने ि नया का पल्ला ल्का कर हदया था। दस रे उग्र शब्द ू ने

ीरा को गच्चे में डाल हदया। उस पर

भी पूरी कर दी। र ने में

ोरी के संयत वाक्य ने र ी-स ी कसर

ीरा सूँभल गया। सारा गाूँव उसके ववरुदणि

ी उसकी कुशल

ि नया का कलेजा दन ू ा

ै । क्रोि के नशे में भी इतना ो गया।

भाइयों के सलए मरते र ते

ोश उसे बाक़ी था।

ोरी से बोली -- सुन लो कान खोल के।

ो। ये भाई

जूतों से मारे गा। णखला-वपला...।

ो गया। अब चुप

ैं , ऐसे भाई का मूँु

न दे खे। य

ोरी ने डाूँटा -- किर क्यों बक-बक करने लगी तू! घर क्यों न ीं जाती?

मुझे

ि नया ज़मीन पर बैठ गयी और आतद स्वर में बोली -- अब तो इसके जत ू े खा के जाऊूँगी। ज़रा इसकी मरदम ू ी दे ख लूँ ,ू क ाूँ आयेगा? तू दे ख र ा

ै गोबर? अब ककस हदन काम

ै बेटा, तेरी माूँ को जूते मारे जा र े

यों ववलाप करके उसने अपने क्रोि के साथ

ोरी के क्रोि को भी कक्रयाशील बना

डाला। आग को िूूँक-िूूँक कर उसमें ज्वाला पैदा कर दी। ट गया। पुन्नी उसका

ीरा को इतने ज़ोर से िक्का हदया कक व

धगर पड़ा और बोली -- क ाूँ जाता

***

ीरा पराश्जत-सा पीछे

ाथ पकड़कर घर की ओर खींच र ी थी। स सा ि नया

ने ससं नी की भाूँ त झपटकर

ोरी ने दौड़कर उसका

ैं!

िम से

ै , जूते मार, मार जूत,े दे खूूँ तेरी मरदम ू ी!

ाथ पकड़ सलया और घसीटता ु आ घर ले चला।

5 उिर गोबर खाना खाकर अह राने में प ु ूँचा। आज झु नया से उसकी ब ु त-सी बातें ु ई थीं। जब व गाय लेकर चला था, तो झु नया आिे रास्ते तक उसके साथ आयी थी। गोबर अकेला गाय को कैसे ले जाता। अपररधचत व्यश्क्त के साथ जाने में उसे आपश्त्त

ोना स्वाभाववक था। कुछ दरू चलने के बाद झु नया

ने गोबर को ममदभरी आूँखों से दे खकर क ा -- अब तुम का े को य ाूँ कभी आओगे।

एक हदन प ले तक गोबर कुमार था। गाूँव में श्जतनी युव तयाूँ थीं, व

या तो

भासभयाूँ अलबत्ता कभी-कभी उससे ठठोली ककया करती थीं, लेककन व

केवल

उसकी ब नें थीं या भासभयाूँ। ब नों से तो कोई छे ड़छाड़ सरल ववनोद



ी क्या सकती थी ,

ोता था। उनकी दृश्ष्ट में अभी उसके यौवन में केवल िूल लगे थे।

जब तक िल न लग जायूँ, उस पर ढे ले िेंकना व्यथद की बात थी। और ककसी ओर से प्रोत्सा न न पाकर उसका कौमायद उसके गले से धचपटा ु आ था। झु नया का वंधचत मन, श्जसे भासभयों के व्यंग और ास-ववलास ने और भी लोलुप बना हदया था, उसके कौमायद पत्ता खड़कते

ी पर ललचा उठा। और उस कुमार में भी

ी ककसी सोये ु ए सशकारी जानवर की तर

यौवन जाग उठा।

गोबर ने आवरण- ीन रससकता के साथ क ा -- अगर सभक्षुक को भीख समलने की आसा

ो, तो व

हदन-भर और रात-भर दाता के द्वार पर खड़ा र े ।

झु नया ने कटाक्ष करके क ा -- तो य गोबर की िम नयों का रक्त प्रबल

क ो तम ु भी मतलब के यार

ो।

ो उठा। बोला -- भूखा आदमी अगर

ाथ

िैलाये तो उसे क्षमा कर दे ना चाह ए।

झु नया और ग रे पानी में उतरी -- सभक्षुक जब तक दस द्वारे न जाय, उसका पेट कैसे भरे गा। मैं ऐसे सभक्षुकों को मूँु ैं। किर सभक्षुक दे ता क्या

न ीं लगाती। ऐसे तो गली-गली समलते

ै , असीस! असीसों से तो ककसी का पेट न ीं भरता।

मंद-बुद्धि गोबर झु नया का आशय न समझ सका। झु नया छोटी-सी थी तभी

से ग्रा कों के घर दि ू लेकर जाया करती थी। ससुराल में उसे ग्रा कों के घर दि ू

प ु ूँचाना पड़ता था। आजकल भी द ी बेचने का भार उसी पर था। उसे तर -तर के मनष्ु यों से साबबक़ा पड़ चुका था। दो-चार रुपए उसके ाथ लग जाते थे , घड़ीभर के सलए मनोरं जन भी

ो जाता था; मगर य

आनंद जैसे मूँगनी की चीज़

ो। उसमें हटकाव न था, समपदण न था, अधिकार न था। व थी, श्जसके सलए व

श्जए और मरे , श्जस पर व

ऐसा प्रेम चा ती

अपने को समवपदत कर दे । व

केवल जग ु नू की चमक न ीं, दीपक का स्थायी प्रकाश चा ती थी। व

एक

ग ृ स्थ की बासलका थी, श्जसके गहृ णीत्व को रससकों की लगावटबाश्ज़यों ने कुचल न ीं पाया था।

गोबर ने कामना से उद्दीप्त मख ु से क ा -- सभक्षुक को एक

ी द्वार पर

भरपेट समल जाय, तो क्यों द्वार-द्वार घूमे?

झु नया ने सदय भाव से उसकी ओर ताका। ककतना भोला न ीं।

ै , कुछ समझता



'सभक्षुक को एक द्वार पर भरपेट क ाूँ समलता ै । उसे तो चुटकी ी समलेगी। सबदस तो तभी पाओगे, जब अपना सबदस दोगे।'

'मेरे पास क्या ै झु नया?' 'तुम् ारे पास कुछ न ीं ै ? मैं तो समझती ू ूँ, मेरे सलए तुम् ारे पास जो कुछ ै, व

बड़े-बड़े लखप तयों के पास न ीं

ले सकते

ो।'

ै । तम ु मझ ु से भीख न माूँगकर मझ ु े मोल

गोबर उसे चककत नेत्रों से दे खने लगा। झु नया ने किर क ा -- और जानते पड़ेगा। किर ककसी के सामने

ो, दाम क्या दे ना

ोगा? मेरा

ोकर र ना

ाथ िैलाये दे खग ूूँ ी, तो घर से नकाल दूँ ग ू ी।

गोबर को जैसे अूँिेरे में टटोलते ु ए इश्च्छत वस्तु समल गयी। एक ववधचत्र भयसमधश्रत आनंद से उसका रोम-रोम पुलककत ो उठा। लेककन य कैसे ोगा? झु नया को रख ले, तो रखेली को लेकर घर में र े गा कैसे। बबरादरी का झंझट जो

ै । सारा गाूँव काूँव-काूँव करने लगेगा। सभी दस ु मन

ो जायूँगे। अम्माूँ तो

इसे घर में घस ु ने भी न दे गी। लेककन जब स्त्री

ोकर य

न ीं डरती, तो परु ु ष

ोकर व

क्यों डरे । ब ु त ोगा, लोग उसे अलग कर दें गे। व अलग ी र े गा। झु नया जैसी औरत गाूँव में दस ू री कौन ै ? ककतनी समझदारी की बातें करती ै ।

क्या जानती न ीं कक मैं उसके जोग न ीं ू ूँ। किर भी मुझसे प्रेम करती ै । मेरी ोने को राज़ी ै । गाूँववाले नकाल दें गे, तो क्या संसार में दस ू रा गाूँव ी न ीं ै ? और गाूँव क्यों छोड़े? मातादीन ने चमाररन बैठा ली, तो ककसी ने क्या कर सलया। दातादीन दाूँत कटकटाकर र

गये। मातादीन ने इतना ज़रूर ककया कक अपना

िरम बचा सलया। अब भी बबना असनान-पूजा ककये मूँु दोनों जून अपना भोजन आप पकाते दातादीन और व

साथ बैठकर खाते

में पानी न ीं डालते।

ैं और अब तो अलग भोजन न ीं पकाते।

ैं। णझंगुरीससं ने बाम् नी रख ली, उनका

ककसी ने क्या कर सलया? उनका श्जतना आदर-मान तब था, उतना

ी आज भी

ै ; बश्ल्क और बढ़ गया। प ले नौकरी खोजते किरते थे। अब उसके रुपए से म ाजन बन बैठे। ठकुराई का रोब तो था

ी, म ाजनी का रोब भी जम गया।

मगर किर ख़्याल आया, क ीं झु नया हदल्लगी न कर र ी से नश्कचंत

ो। प ले इसकी ओर

ो जाना आवकयक था।

उसने पूछा -- मन से क ती ो चुका; लेककन तुम भी

ो झूना कक ख़ाली लालच दे र ी

ो जाओगी?

ो? मैं तो तुम् ारा

'तुम मेरे ो चुके, कैसे जानूँू?' 'तुम जान भी चा ो, तो दे दूँ ।ू ' 'जान दे ने का अरथ भी समझते ो?' 'तुम समझा दो न।' 'जान दे ने का अरथ ै , साथ र कर नबा करना। एक बार ाथ पकड़कर उसमर भर नबा

करते र ना, चा े द ु नया कुछ क े , चा े माूँ-बाप, भाई-बंद, घर-द्वार

सब कुछ छोड़ना पड़े। मूँु

से जान दे नेवाले ब ु तों को दे ख चुकी। भौरों की भाूँ त िूल का रस लेकर उड़ जाते ैं। तम ु भी वैसे ी न उड़ जाओगे ?'

गोबर के एक

ाथ में गाय की पगह या थी। दस ू रे

ाथ पकड़ सलया। जैसे बबजली के तार पर

ाथ से उसने झु नया का

ाथ गया

ो। सारी दे

यौवन के

प ले स्पशद से काूँप उठी। ककतनी मुलायम, गुदगुदी, कोमल कलाई! झु नया ने उसका

ाथ

टाया न ीं, मानो इस स्पशद का उसके सलए कोई म त्व

किर एक क्षण के बाद गंभीर भाव से बोली -- आज तुमने मेरा

ी न

ो।

ाथ पकड़ा

ै,

याद रखना।

'ख़ब ू याद रखग ूूँ ा झन ू ा और मरते दम तक नबा ू ूँगा।' झु नया अववकवास-भरी मुस्कान से बोली -- इसी तर

तो सब क ते

बश्ल्क इससे भी मीठे , धचकने शब्दों में । अगर मन में कपट सचेत

ो जाऊूँ। ऐसों को मन न ीं दे ती। उनसे तो ख़ाली

ैं गोबर!

ो, मुझे बता दो।

ूँस-बोल लेने का नाता

रखती ू ूँ। बरसों से दि ू लेकर बाज़ार जाती ू ूँ। एक-से-एक बाबू, म ाजन, ठाकुर, वकील, अमले, अफ़सर अपना रससयापन हदखाकर मुझे िूँसा लेना चा ते ैं। कोई छाती पर

ाथ रखकर क ता

धचतवन से घूरता

ै , झु नया, तरसा मत; कोई मुझे रसीली, नसीली

ै , मानो मारे प्रेम के बे ोश

ो गया

कोई ग ने। सब मेरी ग़ल ु ामी करने को तैयार र ते

ै , कोई रुपए हदखाता

ै,

ैं, उसमर भर, बश्ल्क उस

जनम में भी, लेककन मैं उन सबों की नस प चानती ू ूँ। सब-के-सब भौंरे रस लेकर उड़ जानेवाले। मैं भी उन् ें ललचाती ू ूँ , तरछी नज़रों से दे खती ू ूँ,

मुसकराती ू ूँ। व मुझे गिी बनाते ैं , मैं उन् ें उल्लू बनाती ू ूँ। मैं मर जाऊूँ, तो उनकी आूँखों में आूँसू न आयेगा। व मर जायूँ, तो मैं क ू ूँगी, अच्छा ु आ, नगोड़ा मर गया। मैं तो श्जसकी

ो जाऊूँगी, उसकी जनम-भर के सलए



जाऊूँगी, सुख में , दःु ख में , संपत में , बबपत में , उसके साथ र ू ूँगी। रजाई न ीं ू ूँ कक सबसे ूँसती-बोलती किरूूँ। न रुपए की भूखी ू ूँ, न ग ने-कपड़े की। बस भले आदमी का संग चा ती ू ूँ, जो मुझे अपना समझे और श्जसे मैं भी अपना समझूँू। एक पंडडत जी ब ु त तलक-मुद्रा लगाते ैं। आि सेर दि ू लेते ैं। एक हदन उनकी घरवाली क ीं नेवते में गयी थी। मझ ु े क्या मालम ू । और हदनों की तर

दि ू सलये भीतर चली गयी। व ाूँ पुकारती ू ूँ , ब ू जी, ब ू जी! कोई बोलता ी न ीं। इतने में दे खती ू ूँ तो पंडडतजी बा र के ककवाड़ बंद ककये चले आ र े ैं। मैं समझ गयी इसकी नीयत ख़राब

बंद कर सलये? क्या ब ू जी क ीं गयी

ै । मैंने डाूँटकर पूछा -- तुमने ककवाड़ क्यों ैं? घर में सन्नाटा क्यों

ै ? उसने क ा --



एक नेवते में गयी

ैं; और मेरी ओर दो पग और बढ़ आया। मैंने क ा --

तुम् ें दि ू लेना

ो तो लो, न ीं मैं जाती ू ूँ। बोला -- आज तो तुम य ाूँ से न जाने पाओगी झूनी रानी, रोज़-रोज़ कलेजे पर छुरी चलाकर भाग जाती ो, आज मेरे

ाथ से न बचोगी। तुमसे सच क ती

ू ूँ , गोबर, मेरे रोएूँ खड़े

ो गये।

गोबर आवेश में बोला -- मैं बच्चा को दे ख पाऊूँ, तो खोदकर ज़मीन में गाड़ दूँ ।ू ख़ून चूस लूँ ।ू तुम मुझे हदखा तो दे ना।

'सन ु ो तो, ऐसों का मूँु तोड़ने के सलए मैं ी काफ़ी ू ूँ। मेरी छाती िक-िक करने लगी। य कुछ बदमासी कर बैठे, तो क्या करूूँगी। कोई धचल्लाना भी तो न सुनेगा; लेककन मन में य भरी

ाूँड़ी उसके मूँु

याद तो

नकचय कर सलया था कक मेरी दे

छुई, तो दि ू की

पर पटक दूँ ग ू ी। बला से चार-पाूँच सेर दि ू जायगा, बचा को

ो जायगी। कलेजा मज़बूत करके बोली -- इस िेर में न र ना

पंडडतजी! मैं अ ीर की लड़की ू ूँ। मूँछ ू का एक-एक बाल चन ु वा लूँ ग ू ी। य ी सलखा ै तुम् ारे पोथी-पत्रे में कक दस ू रों की ब ू -बेटी को अपने घर में बंद करके बेईज़्ज़त करो। इसीसलए तलक-मुद्रा का जाल बबछाये बैठे

ो? लगा

ाथ जोड़ने,

पैरों पड़ने -- एक प्रेमी का मन रख दोगी, तो तुम् ारा क्या बबगड़ जायगा, झूना

रानी! कभी-कभी ग़रीबों पर दया ककया करो, न ीं भगवान ण पूछेंगे, मैंने तुम् ें इतना रूपिन हदया था, तम ु ने उससे एक ब्राह्मण का उपकार भी न ीं ककया, तो क्या जवाब दोगी? बोले, मैं ववप्र ू ूँ, रुपए-पैसे का दान तो रोज़ ी पाता ू ूँ, आज रूप का दान दे दो। मैंने यों ी उसका मन परखने को क हदया , मैं पचास रुपए

लूँ ग ू ी। सच क ती ू ूँ गोबर, तुरंत कोठरी में गया और दस-दस के पाूँच नोट नकालकर मेरे ाथों में दे ने लगा और जब मैंने नोट ज़मीन पर धगरा हदये और द्वार की ओर चली, तो उसने मेरा थी।

ाूँड़ी उसके मूँु

ाथ पकड़ सलया। मैं तो प ले

पर दे मारी। ससर से पाूँव तक सराबोर

ख़ूब लगी। ससर पकड़कर बैठ गया और लगा

ी से तैयार

ो गया। चोट भी

ाय- ाय करने। मैंने दे खा, अब य

कुछ न ीं कर सकता, तो पीठ में दो लातें जमा दीं और ककवाड़ खोलकर भागी।' गोबर ठट्ठा मारकर बोला -- ब ु त अच्छा ककया तुमने। दि ू से न ा गया तलक-मुद्रा भी िुल गयी ोगी। मूँछ ू ें भी क्यों न उखाड़ लीं?'

ोगा।

दस ू रे हदन मैं किर उसके घर गयी। उसकी घरवाली आ गयी थी। अपने बैठक में ससर में पट्टी बाूँिे पड़ा था। मैंने क ा -- क ो तो कल की तम् ु ारी करतूत खोल दूँ ू पंडडत !

लगा

ाथ जोड़ने।

मैंने क ा -- अच्छा थूककर चाटो, तो छोड़ दूँ ।ू

ससर ज़मीन पर रगड़कर क ने लगा -- अब मेरी इज़्ज़त तुम् ारे

ाथ

ै झूना,

य ी समझ लो कक पंडडताइन मुझे जीता न छोड़ेंगी। मुझे भी उस पर दया आ गयी।'

गोबर को उसकी दया बुरी लगी -- य क

तुमने क्या ककया? उसकी औरत से जाकर

क्यों न ीं हदया? जूतों से पीटती। ऐसे पाखंडडयों पर दया न करनी चाह ए।

तम ु मझ ु े कल उनकी सरू त हदखा दो, किर दे खना कैसी मरम्मत करता ू ूँ।

झु नया ने उसके अिद-ववकससत यौवन को दे खकर क ा -- तुम उसे न पाओगे। ख़ासा दे व

ै । मुफ़्त का माल उड़ाता

गोबर अपने यौवन का य ोने से क्या

तरस्कार कैसे स ता। डींग मारकर बोला -- मोटे

ैं। तीन सौ डंड रोज़ मारता ू ूँ। दि ू -घी न ीं समलता, न ीं अब तक सीना यों नकल आया ोता। य

ोता

ै कक न ीं।

ै । य ाूँ फ़ौलाद की

ड्डडयाूँ

क कर उसने छाती िैला कर हदखायी।

झु नया ने आकवस्त आूँखों से दे खा -- अच्छा, कभी हदखा दूँ ग ू ी। लेककन य ाूँ तो सभी एक-से आदत

ैं, तम ु ककस-ककस की मरम्मत करोगे। न जाने मरदों की क्या

ै कक ज ाूँ कोई जवान, सुंदर औरत दे खी और बस लगे घूरने, छाती

पीटने। और य

जो बड़े आदमी क लाते

ैं , ये तो नरे लंपट

ोते

ैं। किर मैं तो

कोई सुंदरी न ीं ू ूँ ... । गोबर ने आपश्त्त की -- तुम! तुम् ें दे खकर तो य ी जी चा ता

ै कक कलेजे में

बबठा लें ।

झु नया ने उसकी पीठ में चापलूसी करने।

लका-सा घस ूूँ ा जमाया -- लगे औरों की तर

तम ु भी

मैं जैसी कुछ ू ूँ, व मैं जानती ू ूँ। मगर इन लोगों को तो जवान समल जाय। घड़ी-भर मन ब लाने को और क्या चाह ये। गन ु तो आदमी उसमें दे खता

ै , श्जसके साथ जनम-भर नबा

करना

ो। सुनती भी ू ूँ और

दे खती भी ू ूँ, आजकल बड़े घरों की ववधचत्र लीला ै । श्जस म ल्ले में मेरी ससुराल ै , उसी में गपडू-गपडू नाम के कासमीरी र ते थे। बड़े भारी आदमी थे। उनके य ाूँ पाूँच सेर दि ू लगता था। उनकी तीन लड़ककयाूँ थीं। कोई बीस-बीस, पच्चीस-पच्चीस की

ोंगी। एक-से-एक सुंदर। तीनों बड़े कासलज में पढ़ने जाती

थीं। एक साइत कासलज में पढ़ाती भी थी। तीन सौ का म ीना पाती थी। ससतार व

सब बजावें , रमु नयाूँ व

न करती थी। राम जाने, व

सब बजावें, नाचें व , गावें व ; लेककन ब्या

ककसी मरद को पसंद न ीं करती थीं कक मरद उन् ीं

को पसंद न ीं करता था। एक बार मैंने बड़ी बीबी से पूछा, तो म लोग य

कोई

ूँसकर बोलीं --

रोग न ीं पालते; मगर भीतर- ी-भीतर ख़ूब गुलछरे उड़ाती थीं। जब

दे खू,ूँ दो-चार लौंडे उनको घेरे ु ए ैं। जो सबसे बड़ी थी, व तो कोट-पतलून प नकर घोड़े पर सवार ोकर मदो के साथ सैर करने जाती थी। सारे स र में उनकी लीला मश ू र थी। गपडू बाबू ससर नीचा ककये, जैसे मूँु में कासलख-सी लगाये र ते थे। लड़ककयों को डाूँटते थे , समझाते थे; पर सब-की-सब खुल्लमखुल्ला क ती थीं -- तुमको अपने मन की रानी

ैं, जो

मारे बीच में बोलने का कुछ मजाल न ीं

मारी इच्छा

ोगी, व

ै।



म करें गे। बेचारा बाप जवान-

जवान लड़ककयों से क्या बोले। मारने-बाूँिने से र ा, डाूँटने-डपटने से र ा; लेककन भाई बड़े आदसमयों की बातें कौन चलाये। व

जो कुछ करें , सब ठीक

ै । उन् ें

तो बबरादरी और पंचायत का भी डर न ीं। मेरी समझ में तो य ी न ीं आता कक ककसी का रोज़-रोज़ मन कैसे बदल जाता गया-बीता

ो गया

बनाओ, वैसा बनता बाद कभी-कभी मूँु

ै । क्या आदमी गाय-बकरी से भी

ै ? लेककन ककसी को बुरा न ीं क ती भाई! मन को जैसा

ै । ऐसों को भी दे खती ू ूँ, श्जन् ें रोज़-रोज़ की दाल-रोटी के का सवाद बदलने के सलए लवा-पूरी भी चाह ए। और ऐसों

को भी दे खती ू ूँ, श्जन् ें घर की रोटी-दाल दे खकर ज्वर आता ै । कुछ बेचाररयाूँ ऐसी भी ैं, जो अपनी रोटी-दाल में ी मगन र ती ैं। लवा-पूरी से उन् ें कोई मतलब न ीं। मेरी दोनों भावजों जवानों में एक जवान

ी को दे खो।

मारे भाई काने -कुबड़े न ीं

ैं; लेककन भावजों को न ीं भाते। उन् ें तो व

ैं, दस

चाह ए , जो

सोने की बासलयाूँ बनवाये, म ीन साडड़याूँ लाये, रोज़ चाट णखलाये। बासलयाूँ और समठाइयाूँ मुझे भी कम अच्छी न ीं लगतीं; लेककन जो क ो कक इसके सलए

अपनी लाज बेचती किरूूँ तो भगवान ण इससे बचायूँ। एक के साथ मोटा-झोटा खाप नकर उसमर काट दे ना, बस अपना तो य ी राग औरतों को बबगाड़ते

ै । ब ु त करके तो मदद ी ैं। जब मदद इिर-उिर ताक-झाूँक करे गा तो औरत भी आूँख

लड़ायेगी। मदद दस ू री औरतों के पीछे दौड़ेगा, तो औरत भी ज़रूर मदो के पीछे

दौड़ेगी। मदद का

रजाईपन औरत को भी उतना

ी बरु ा लगता

ै , श्जतना औरत

का मदद को। य ी समझ लो। मैंने तो अपने आदमी से साफ़-साफ़ क अगर तुम इिर-उिर लपके, तो मेरी भी जो इच्छा

ोगी व

करूूँगी। य

हदया था, चा ो

कक तुम तो अपने मन की करो और औरत को मार के डर से अपने क़ाबू में रखो, तो य



ोगा। तुम खुले-ख़ज़ाने करते

जलाकर सख ु ी न ीं र गोबर के सलए य

सकते।

ो, व

छपकर करे गी। तुम उसे

एक नई द ु नया की बातें थीं। तन्मय

ोकर सुन र ा था।

कभी-कभी तो आप- ी-आप उसके पाूँव रुक जाते, किर सचेत

ोकर चलने लगता।

झु नया ने प ले अपने रूप से मोह त ककया था। आज उसने अपने ज्ञान और अनुभव से भरी बातों और अपने सतीत्व के बखान से मुग्ि कर सलया। ऐसी रूप, गुण, ज्ञान की आगरी उसे समल जाय, तो िन्य भाग। किर व

क्यों पंचायत

और बबरादरी से डरे ?

झु नया ने जब दे ख सलया कक उसका ग रा रं ग जम गया, तो छाती पर

ाथ

रखकर जीभ दाूँत से काटती ु ई बोली -- अरे , य तो तुम् ारा गाूँव आ गया! तुम भी बड़े मुर े ो, मुझसे क ा भी न ीं कक लौट जाओ। य क कर व लौट पड़ी। गोबर ने आग्र

करके क ा -- एक छन के सलए मेरे घर क्यों न ीं चली चलती ?

अम्माूँ भी तो दे ख लें । झु नया ने लज्जा से आूँखें चरु ाकर क ा -- तम् ु ारे घर यों न जाऊूँगी। मुझे तो य ी अचरज

ोता

ै कक मैं इतनी दरू कैसे आ गयी। अच्छा, बताओ अब कब

आओगे? रात को मेरे द्वार पर अच्छी संगत समलूँ ग ू ी।

'और जो न समली?' 'तो लौट जाना।' 'तो किर मैं न आऊूँगा।' 'आना पड़ेगा, न ीं क े दे ती ू ूँ।'

ोगी। चले आना , मैं अपने वपछवाड़े

'तुम भी वचन दो कक समलोगी?' 'मैं वचन न ीं दे ती।' 'तो मैं भी न ीं आता।' 'मेरी बला से!' झु नया अूँगूठा हदखाकर चल दी। प्रथम-समलन में

ी दोनों एक दस ू रे पर अपना-

अपना अधिकार जमा चुके थे। झु नया जानती थी, व गोबर जानता था, व

आयेगा, कैसे न आयेगा?

समलेगी, कैसे न समलेगी? गोबर जब अकेला गाय को

ाूँकता ु आ चला, तो ऐसा लगता था, मानो स्वगद से धगर पड़ा ***

ै।

6 जेठ की उदास और गमद संध्या सेमरी की सड़कों और गसलयों में पानी के छड़काव से शीतल और प्रसन्न

ो र ी थी। मंडप के चारों तरफ़ िूलों और पौिों

के गमले सजा हदये गये थे और बबजली के पंखे चल र े थे। राय सा ब अपने कारख़ाने में बबजली बनवा लेते थे। उनके ससपा ी पीली वहदद याूँ डाटे , नीले साफ़े बाूँिे, जनता पर रोब जमाते किरते थे। नौकर उजले कुरते प ने और केसररया

पाग बाूँिे, मे मानों और मुणखयों का आदर-सत्कार कर र े थे। उसी वक़्त एक

मोटर ससं -द्वार के सामने आकर रुकी और उसमें से तीन म ानुभाव उतरे । व जो खद्दर का कुरता और चप्पल प ने ु ए ैं उनका नाम पंडडत ओंकारनाथ ै । आप दै नक-पत्र 'बबजली' के यशस्वी संपादक ैं, श्जन् ें दे श-धचंता ने घल ु ा डाला ै । दस ू रे म ाशय जो कोट-पैंट में

ैं, व

कारण एक बीमा-कंपनी की दलाली करते

ैं तो वकील, पर वकालत न चलने के

ैं और ताल्लुक़ेदारों को म ाजनों और

बैंकों से करज़ हदलाने में वकालत से क ीं ज़्यादा कमाई करते

ैं। इनका नाम



कयामबब ारी तंखा और तीसरे सज्जन जो रे शमी अचकन और तंग पाजामा प ने ु ए ैं, समस्टर बी. मे ता, यु नवससदटी में दशदनशास्त्र के अध्यापक ैं। ये तीनों सज्जन राय सा ब के स पाहठयों में ैं और शगुन के उत्सव में नमंबत्रत ु ए आज सारे इलाक़े के असामी आयेंगे और शगुन के रुपए भें ट करें गे। रात को िनुष-यज्ञ हदये

ोगा और मे मानों की दावत

ोगी।

ैं।

ोरी ने पाूँच रुपए शगुन के दे

ैं और एक गल ु ाबी समरज़ई प ने, गल ु ाबी पगड़ी बाूँिे, घट ु ने तक कछनी

काछे , ाथ में एक खुरपी सलये और मुख पर पाउडर लगवाये राजा जनक का माली बन गया के पुरुषाथद से

ै और गरूर से इतना िूल उठा

ो र ा

ै मानो य

सारा उत्सव उसी

ै।

राय सा ब ने मे मानों का स्वागत ककया। दो रे बदन के ऊूँचे आदमी थे, गठा ु आ शरीर, तेजस्वी चे रा, ऊूँचा माथा, गोरा रं ग, श्जस पर शबदती रे शमी चादर ख़ूब णखल र ी थी। पंडडत ओंकारनाथ ने पूछा -- अबकी कौन-सा नाटक खेलने का ववचार रस की तो य ाूँ व ी वस्तु

ै।

ै ? मेरे

राय सा ब ने तीनों सज्जनों को अपनी रावटी के सामने कुससयों पर बैठाते ु ए क ा -- प ले तो िनुष-यज्ञ ोगा, उसके बाद एक प्र सन। नाटक कोई अच्छा न समला। कोई तो इतना लम्बा कक शायद पाूँच घंटों में भी ख़तम न

ो और कोई

इतना श्क्लष्ट कक शायद य ाूँ एक व्यश्क्त भी उसका अथद न समझे। आणख़र मैंने स्वयम ण एक प्र सन सलख डाला, जो दो घंटों में पूरा

ो जायगा।

ओंकारनाथ को राय सा ब की रचना-शश्क्त में ब ु त संदे था। उनका ख़्याल था कक प्र तभा तो ग़रीबी ी में चमकती ै दीपक की भाूँ त, जो अूँिेरे ी में अपना प्रकाश हदखाता

ै । उपेक्षा के साथ, श्जसे छपाने की भी उन् ोंने चेष्टा न ीं की,

पंडडत ओंकारनाथ ने मूँु

िेर सलया।

समस्टर तंखा इन बेमतलब की बातों में न पड़ना चा ते थे , किर भी राय सा ब को हदखा दे ना चा ते थे कक इस ववषय में उन् ें कुछ बोलने का अधिकार

ै।

बोले -- नाटक कोई भी अच्छा

ों।

ो सकता

अच्छा-से-अच्छा नाटक बुरे असभनेताओं के

ै , अगर उसके असभनेता अच्छे ाथ में पड़कर बुरा

ो सकता

ै । जब

तक स्टे ज पर सशक्षक्षत असभनेबत्रयाूँ न ीं आतीं , मारी नाट्य-कला का उद्िार न ीं ो सकता। अबकी तो आपने कौंससल में प्रकनों की िम ू मचा दी। मैं तो दावे के

साथ क

सकता ू ूँ कक ककसी में बर का ररकाडद इतना शानदार न ीं

ै।

दशदन के अध्यापक समस्टर मे ता इस प्रशंसा को स न न कर सकते थे। ववरोि तो करना चा ते थे पर ससद्िांत की आड़ में । उन् ोंने कई साल के पररश्रम से सलखी थी। उसकी श्जतनी िम ू

ाल

ी में एक पस् ु तक

ोनी चाह ए थी, उसकी

शतांश भी न ीं ु ई थी। इससे ब ु त दख ु ी थे।

बोले -- भाई, मैं प्रकनों का कायल न ीं। मैं चा ता ू ूँ मारा जीवन मारे ससद्िांतों के अनक ु ू ल ो। आप कृषकों के शुभेच्छु ैं, उन् ें तर -तर की ररयायत दे ना चा ते

ैं , ज़मींदारों के अधिकार छीन लेना चा ते

का शाप क ते ज़मींदार

ैं, किर भी आप ज़मींदार

ैं। अगर आपकी िारणा

ैं, वैसे

ैं , बश्ल्क उन् ें आप समाज

ी ज़मींदार जैसे

ै कक कृषकों के साथ ररयायत

ज़ारों और ोनी चाह ए,

तो प ले आप ख़ुद शुरू करें -- काकतकारों को बग़ैर नज़राने सलए पट्टे सलख दें ,

बेगार बंद कर दें , इज़ाफ़ा लगान को तलांजसल दे दें , चरावर ज़मीन छोड़ दें । मझ ु े

उन लोगों से ज़रा भी मगर जीवन

मददी न ीं

ै , जो बातें तो करते

ै रईसों का-सा, उतना

ी ववलासमय, उतना

ैं कम्यु नस्टों की-सी,

ी स्वाथद से भरा ु आ।

राय सा ब को आघात प ु ूँचा। वकील सा ब के माथे पर बल पड़ गये और संपादकजी के मूँु में जैसे कासलख लग गयी। व ख़द ु ससमष्टवाद के पज ु ारी थे, पर सीिे घर में आग न लगाना चा ते थे।

तंखा ने राय सा ब की वकालत की -- मैं समझता ू ूँ, राय सा ब का अपने असासमयों के साथ श्जतना अच्छा व्यव ार ै , अगर सभी ज़मींदार वैसे ी ो जायूँ, तो य

प्रकन

ी न र े।

मे ता ने

थौड़े की दस ू री चोट जमायी -- मानता ू ूँ, आपका अपने असासमयों के साथ ब ु त अच्छा बतादव ै , मगर प्रकन य ै कक उसमें स्वाथद ै या न ीं। इसका एक कारण क्या य न ीं ो सकता कक मद् धिम आूँच में भोजन स्वाहदष्ट पकता ो सकता

ै ? गुड़ से मारनेवाला ज़ र से मारनेवाले की अपेक्षा क ीं सिल

ै । मैं तो केवल इतना जानता ू ूँ , म या तो साम्यवादी ैं या न ीं ैं तो उसका व्यव ार करें , न ीं ैं, तो बकना छोड़ दें । मैं नक़ली श्ज़ंदगी का

ैं।

ववरोिी ू ूँ। अगर मांस खाना अच्छा समझते ो तो खल ु कर खाओ। बरु ा समझते ो, तो मत खाओ, य तो मेरी समझ में आता ै ; लेककन अच्छा समझना और छपकर खाना, य

मेरी समझ में न ीं आता। मैं तो इसे कायरता भी क ता ू ूँ और िूतदता भी, जो वास्तव में एक ैं। राय सा ब सभा-चतरु आदमी थे। अपमान और आघात को िैयद और उदारता से स ने का उन् ें अभ्यास था।

कुछ असमंजस में पड़े ु ए बोले -- आपका ववचार बबल्कुल ठीक ै मे ताजी। आप जानते ैं, मैं आपकी साफ़गोई का ककतना आदर करता ू ूँ , लेककन आप य भूल जाते

ैं कक अन्य यात्राओं की भाूँ त ववचारों की यात्रा में भी पड़ाव

ोते

ैं,

और आप एक पड़ाव को छोड़कर दस ू रे पड़ाव तक न ीं जा सकते। मानव-जीवन का इ त ास इसका प्रत्यक्ष प्रमाण ईकवर

ै । मैं उस वातावरण में पला ू ूँ, ज ाूँ राजा ै और ज़मींदार ईकवर का मंत्री। मेरे स्वगदवासी वपता असासमयों पर इतनी

दया करते थे कक पाले या सख ू े में कभी आिा और कभी परू ा लगान माफ़ कर

दे ते थे। अपने बखार से अनाज नकालकर असासमयों को णखला दे ते थे। घर के

ग ने बेचकर कन्याओं के वववा

में मदद दे ते थे; मगर उसी वक़्त तक, जब तक

प्रजा उनको सरकार और िमावदतार क ती र े , उन् ें अपना दे वता समझकर उनकी पूजा करती र े । प्रजा का पालन उनका सनातन-िमद था, लेककन अधिकार के नाम पर व

कौड़ी का एक दाूँत भी िोड़कर दे ना न चा ते थे। मैं उसी

वातावरण में पला ू ूँ और मुझे गवद ै कक मैं व्यव ार में चा े जो कुछ करूूँ, ववचारों में उनसे आगे बढ़ गया ू ूँ और य मानने लग गया ू ूँ कक जब तक ककसानों को ये ररयायतें अधिकार के रूप में न समलें गी, केवल सद्भावना के आिार पर उनकी दशा सुिर न ीं सकती। स्वेच्छा अगर अपना स्वाथद छोड़ दे , तो अपवाद

ै । मैं ख़ुद सद्भावना करते ु ए भी स्वाथद न ीं छोड़ सकता और चा ता ू ूँ कक मारे वगद को शासन और नी त के बल से अपना स्वाथद छोड़ने के सलए मज़बरू कर हदया जाय। इसे आप कायरता क ें गे, मैं इसे वववशता क ता ू रे के श्रम पर मोटे ोने का ू ूँ। मैं इसे स्वीकार करता ू ूँ कक ककसी को भी दस अधिकार न ीं ै । उपजीवी ोना घोर लज्जा की बात ै । कमद करना प्राणीमात्र

का िमद ै । समाज की ऐसी व्यवस्था , श्जसमें कुछ लोग मौज करें और अधिक लोग पीसें और खपें , कभी सुखद न ीं

ो सकती। पूँज ू ी और सशक्षा, श्जसे मैं पूँज ू ी

ी का एक रूप समझता ू ूँ, इनका कक़ला श्जतनी जल्द टूट जाय, उतना ी अच्छा ै । श्जन् ें पेट की रोटी मयस्सर न ीं, उनके अफ़सर और नयोजक दसदस पाूँच-पाूँच व्यवस्था ने

ज़ार िटकारें , य

ास्यास्पद

ै और लज्जास्पद भी। इस

म ज़मींदारों में ककतनी ववलाससता, ककतना दरु ाचार, ककतनी

परािीनता और ककतनी नलदज्जता भर दी

ै, य

मैं ख़ूब जानता ू ूँ ; लेककन मैं इन कारणों से इस व्यवस्था का ववरोि न ीं करता। मेरा तो य क ना ै कक अपने स्वाथद की दृश्ष्ट से भी इसका अनुमोदन न ीं ककया जा सकता। इस शान को नभाने के सलए

में अपनी आत्मा की इतनी

आत्मासभमान का नाम भी न ीं र ा। मज़बूर

त्या करनी पड़ती

ै कक

म अपने असासमयों को लूटने के सलए

ैं। अगर अफ़सरों को क़ीमती-क़ीमती डासलयाूँ न दें , तो बागी समझे

जायूँ, शान से न र ें , तो कंजस ू क लायें। प्रग त की ज़रा-सी आ ट पाते काूँप उठते कीश्जए।

ममें

ैं, और अफ़सरों के पास फ़ररयाद लेकर दौड़ते

में अपने ऊपर ववकवास न ीं र ा, न पुरुषाथद

दशा उन बच्चों की-सी

ैं कक

ी र



मारी रक्षा

गया। बस, मारी

ै , श्जन् ें चम्मच से दि ू वपलाकर पाला जाता

मोटे , अन्दर से दब द , सत्व ीन और मु ताज। ु ल



ै , बा र से

मे ता ने ताली बजाकर क ा -- ह यर, ह यर! आपकी ज़बान में श्जतनी बद् ु धि काश उसकी आिी भी मश्स्तष्क में

ोती! खेद य ी

भी आप अपने ववचारों को व्यव ार में न ीं लाते।

ै कक सब कुछ समझते ु ए

ओंकारनाथ बोले -- अकेला चना भाड़ न ीं िोड़ सकता , समस्टर मे ता! के साथ चलना भी की ज़रूरत न ीं आप

ै और उसे अपने साथ चलाना भी। बुरे कामों में

ोती। अच्छे कामों के सलए भी स योग उतना

ी क्यों आठ सौ रुपए म ीने

रुपए में अपना नवाद

कर र े

ड़पते

ै,

में समय ी स योग

ी ज़रूरी

ै।

ैं , जब आपके करोड़ों भाई केवल आठ

ैं ?

राय सा ब ने ऊपरी खेद, लेककन भीतरी संतोष से संपादकजी को दे खा और बोले -- व्यश्क्तगत बातों पर आलोचना न कीश्जए संपादक जी! व्यवस्था पर ववचार कर र े

म य ाूँ समाज की

ैं।

समस्टर मे ता उसी ठं ठे मन से बोले -- न ीं-न ीं, मैं इसे बुरा न ीं समझता। समाज व्यश्क्त

ी से बनता

ै । और व्यश्क्त को भूलकर

म ककसी व्यवस्था पर

ववचार न ीं कर सकते। मैं इससलये इतना वेतन लेता ू ूँ कक मेरा इस व्यवस्था पर ववकवास न ीं ै । सम्पादकजी को अचंभा ु आ -- अच्छा, तो आप वतदमान व्यवस्था के समथदक

ैं ?

'मैं इस ससिान्त का समथदक ू ूँ कक संसार में छोटे -बड़े मेशा र ें गे, और उन् ें

मेशा र ना चाह ए। इसे समटाने की चेष्टा करना मानव-जा त के सवदनाश का

कारण

ोगा।'

कुकती का जोड़ बदल गया। राय सा ब ककनारे खड़े

ो गये। सम्पादक जी मैदान

में उतरे -- आप इस बीसवीं शताब्दी में भी ऊूँच-नीच का भेद मानते

ैं।

'जी ाूँ, मानता ू ूँ और बड़े ज़ोरों से मानता ू ूँ। श्जस मत के आप समथदक ैं, व भी तो कोई नयी चीज़ न ीं। जब से मनष्ु य में ममत्व का ववकास ु आ, तभी उस मत का जन्म ु आ। बुद्ि और प्लेटो और ईसा सभी समाज में समता के प्रवतदक थे। यूनानी और रोमन और सीररयाई, सभी सभ्यताओं ने उसकी परीक्षा की पर अप्राकृ तक

ोने के कारण कभी व

स्थायी न बन सकी।'

'आपकी बातें सुनकर मुझे आकचयद ो र ा ै ।' 'आकचयद अज्ञान का दस ू रा नाम ै ।' 'मैं आपका कृतज्ञ ू ूँ! अगर आप इस ववषय पर कोई लेखमाला शुरू कर दें ।' 'जी, मैं इतना अ मक न ीं ू ूँ , अच्छी रक़म हदलवाइए, तो अलबत्ता।' 'आपने ससद्िांत ी ऐसा सलया ै कक खुले ख़ज़ाने पश्ब्लक को लूट सकते ैं।' 'मुझमें और आपमें अंतर इतना ी ै कक मैं जो कुछ मानता ू ूँ उस पर चलता ू ूँ। आप लोग मानते कुछ ैं, करते कुछ ैं। िन को आप ककसी अन्याय से बराबर िैला सकते

ैं। लेककन बुद्धि को, चररत्र को, और रूप को, प्र तभा को और

बल को बराबर िैलाना तो आपकी शश्क्त के बा र िन से

ी तो न ीं

टे कते दे खा रगड़ते

ोता। मैंने बड़े-बड़े िन-कुबेरों को सभक्षुकों के सामने घट ु ने

ै , और आपने भी दे खा

ैं। क्या य

ोगा। रूप के चौखट पर बड़े-बड़े म ीप नाक

सामाश्जक ववषमता न ीं

इसके ससवाय और क्या सलया

ै । छोटे -बड़े का भेद केवल

ै ? आप रूप की समसाल दें गे। व ाूँ

ै कक समल के मासलक ने राज कमदचारी का रूप ले

ै । बुद्धि तब भी राज करती थी, अब भी करती

ै और

मेशा करे गी।

तकतरी में पान आ गये थे। राय सा ब ने मे मानों को पान और इलायची दे ते ु ए क ा -- बुद्धि अगर स्वाथद से मुक्त ो, तो में उसकी प्रभुता मानने में कोई आपश्त्त न ीं। समाजवाद का य ी आदशद ै । म सािु-म ात्माओं के सामने इसीसलए ससर झक ु ाते

ैं कक उनमें त्याग का बल

ाथ में अधिकार भी दे ना चा ते

तर

ै । इसी तर

म बद् ु धि के

ैं , सम्मान भी, नेतत्ृ व भी; लेककन संपश्त्त ककसी

न ीं। बुद्धि का अधिकार और सम्मान व्यश्क्त के साथ चला जाता

लेककन उसकी संपश्त्त ववष बोने के सलए, उसके बाद और भी प्रबल बुद्धि के बग़ैर ककसी समाज का संचालन न ीं का डंक तोड़ दे ना चा ते

ैं।

ो सकता।

ै,

ो जाती

ै।

म केवल इस बबच्छू

दस ू री मोटर आ प ु ूँची और समस्टर खन्ना उतरे , जो एक बैंक के मैनेजर और शक्करसमल के मैनेश्जंग डाइरे क्टर ैं। दो दे ववयाूँ भी उनके साथ थीं। राय सा ब

ने दोनों दे ववयों को उतारा। व ववचारशील-सी

जो खद्दर की साड़ी प ने ब ु त गंभीर और ैं, समस्टर खन्ना की पत्नी, कासमनी खन्ना ैं।

दस ू री मह ला जो ऊूँची एड़ी का जूता प ने ु ए ैं और श्जनकी मुख-छवव पर ूँसी िूटी पड़ती ै , समस मालती ैं। आप इंगलैंड से डाक्टरी पढ़ आयी ैं और अब प्रैककटस करती

ैं। ताल्लक़ ु े दारों के म लों में उनका ब ु त प्रवेश ै । आप नवयुग की साक्षात ण प्र तमा ैं। गात कोमल, पर चपलता कूट-कूट कर भरी ु ई। णझझक या संकोच का क ीं नाम न ीं, मेक-अप में प्रवीण, बला की

ाश्ज़र-जवाब,

पुरुष-मनोववज्ञान की अच्छी जानकार, आमोद-प्रमोद को जीवन का तत्व

समझनेवाली, लभ ु ाने और ररझाने की कला में नपण ु । ज ाूँ आत्मा का स्थान व ाूँ प्रदशदन; ज ाूँ हृदय का स्थान

ै , व ाूँ

श्जसमें इच्छा या असभलाषा का लोप-सा आपने समस्टर मे ता से कफ़लासफ़र मालूम

ोते

ै,

ाव-भाव; मनोद्गारों पर कठोर नग्र ,

ो गया।

ाथ समलाते ु ए क ा -- सच क ती ू ूँ, आप सरू त से ैं। इस नयी रचना में तो आपने आत्मवाहदयों को

उिेड़कर रख हदया। पढ़ते-पढ़ते कई बार मेरे जी में ऐसा आया कक आपसे लड़ जाऊूँ। कफ़लासफ़रों में सहृदयता क्यों ग़ायब

ो जाती

ै?

मे ता झेंप गये। बबना-ब्या े थे और नवयुग की रसमणयों से पना

माूँगते थे।

पुरुषों की मंडली में ख़ूब च कते थे; मगर ज्यों ी कोई मह ला आई और आपकी ज़बान बंद ु ई। जैसे बुद्धि पर ताला लग जाता था। श्स्त्रयों से सशष्ट व्यव ार तक करने की सुधि न र ती थी। समस्टर खन्ना ने पूछा -- कफ़लासफ़रों की सूरत में क्या ख़ास बात

ोती



दे वीजी?

मालती ने मे ता की ओर दया-भाव से दे खकर क ा -- समस्टर मे ता बरु ा न

मानें, तो बतला दूँ ।ू खन्ना समस मालती के उपासकों में थे। ज ाूँ समस मालती

जाय, व ाूँ खन्ना का प ु ूँ चना लाश्ज़म था। उनके आस-पास भौंरे की तर मूँडराते र ते थे। र समय उनकी य ी इच्छा र ती थी कक मालती से अधिक-से-अधिक व ी बोलें , उनकी नगा

अधिक-से-अधिक उन् ीं पर र े ।



खन्ना ने आूँख मारकर क ा -- कफ़लासफ़र ककसी की बात का बरु ा न ीं मानते। उनकी य ी ससफ़त

ै।

'तो सु नए, कफ़लासफ़र मेशा मुदाद-हदल ोते ैं, जब दे णखए, अपने ववचारों में मगन बैठे

ैं। आपकी तरफ़ ताकेंगे, मगर आपको दे खेंगे न ीं; आप उनसे बातें

ककये जायूँ, कुछ सुनेंगे न ीं। जैसे शून्य में उड़ र े

ों।'

सब लोगों ने क़ क़ ा मारा। समस्टर मे ता जैसे ज़मीन में गड़ गये।

'आक्सफ़ोडद में मेरे कफ़लासफ़ी के प्रोफ़ेसर समस्टर सबेंड थे ...। ' खन्ना ने टोका -- नाम तो नराला

ै।

'जी ाूँ, और थे क्वाूँरे ...।' 'समस्टर मे ता भी तो क्वाूँरे ैं ...' 'य रोग सभी कफ़लासफ़रों को ोता ै ।' अब मे ता को अवसर समला। बोले -- आप भी तो इसी मरज़ में धगरफ़्तार

ैं?

'मैंने प्र तज्ञा की ै ककसी कफ़लासफ़र से शादी करूूँगी और य वगद शादी के नाम से घबराता

ै।

सबेंड सा ब तो स्त्री को दे खकर घर में छप जाते थे। उनके

सशष्यों में कई लड़ककयाूँ थीं। अगर उनमें से कोई कभी कुछ पछ ू ने के सलए उनके आकफ़स में चली जाती थी तो आप ऐसे घबड़ा जाते जैसे कोई शेर आ गया म लोग उन् ें ख़ूब छे ड़ा करते थे, मगर थे बेचारे सरल-हृदय। कई

आमदनी थी, पर मैंने उन् ें

मेशा एक

ज़ार की

ी सूट प ने दे खा। उनकी एक वविवा

ब न थी। व ी उनके घर का सारा प्रबंि करती थीं। समस्टर की कफ़क्र

ो।

सबेंड को तो खाने

ी न र ती थी। समलने-वालों के डर से अपने कमरे का द्वार बंद

करके सलखा-पढ़ी करते थे। भोजन का समय आ जाता, तो उनकी ब न आह स्ता से भीतर के द्वार से उनके पास जाकर ककताब बंद कर दे ती थीं , तब उन् ें मालूम

ोता कक खाने का समय

ो गया। रात को भी भोजन का समय बूँिा

ु आ था। उनकी ब न कमरे की बत्ती बुझा हदया करती थीं। एक हदन ब न ने

ककताब बंद करना चा ा, तो आपने पस् ु तक को दोनों ब न-भाई में ज़ोर-आज़माई

ाथों से दबा सलया और

ोने लगी। आणख़र ब न उनकी पह येदार कुसी को

खींच कर भोजन के कमरे में लायी।'

राय सा ब बोले -- मगर मे ता सा ब तो बड़े ख़श ु समज़ाज और समलनसार न ीं इस

ैं,

ं गामे में क्यों आते।

'तो आप कफ़लासफ़र न ोंगे। जब अपनी धचंताओं से मारे ससर में ददद ोने लगता

ै , तो ववकव की धचंता ससर पर लादकर कोई कैसे प्रसन्न र

सकता

ै! '

उिर संपादकजी श्रीमती खन्ना से अपनी आधथदक कहठनाइयों की कथा क

र े

थे -- बस यों समणझए श्रीमतीजी, कक संपादक का जीवन एक दीिद ववलाप श्जसे सन ु कर लोग दया करने के बदले कानों पर

ाथ रख लेते

ैं। बेचारा न

अपना उपकार कर सके न औरों का। पश्ब्लक उससे आशा तो य र-एक आंदोलन में व

ै,

रखती

ै कक

सबसे आगे र े जेल, जाय, मार खाय, घर के माल-

असबाब की क़ुक़ी कराये, य

उसका िमद समझा जाता

कहठनाइयों की ओर ककसी का ध्यान न ीं। ववद्या, र-एक कला में पारं गत

ो तो व

ै , लेककन उसकी सब कुछ। उसे

र-एक

ोना चाह ए ; लेककन उसे जीववत र ने का

अधिकार न ीं। आप तो आजकल कुछ सलखती जो थोड़ा-सा सौभाग्य मुझे समल सकता

ी न ीं। आपकी सेवा करने का

ै , उससे क्यों मुझे वंधचत रखती

ैं?

समसेज़ खन्ना को कववता सलखने का शौक़ था। इस नाते से संपादकजी कभीकभी उनसे समल आया करते थे; लेककन घर के काम-िंिों में व्यस्त र ने के कारण इिर ब ु त हदनों से कुछ सलख न ीं सकी थी। सच बात तो य ै कक संपादकजी ने ी उन् ें प्रोत्साह त करके कवव बनाया था। सच्ची प्र तभा उनमें ब ु त कम थी।

'क्या सलखूूँ कुछ सझ ू ता ी न ीं। आपने कभी समस मालती से कुछ सलखने को न ीं क ा?' संपादकजी उपेक्षा भाव से बोले -- उनका समय मूल्यवान सलखते तो व

लोग

ैं , श्जनके अंदर कुछ ददद

ै , अनुराग

ै कासमनी दे वी! ै , लगन

श्जन् ोंने िन और भोग-ववलास को जीवन का लक्ष्य बना सलया, व

ै , ववचार

ै,

क्या सलखेंगे।

कासमनी ने ईष्याद-समधश्रत ववनोद से क ा -- अगर आप उनसे कुछ सलखा सकें, तो आपका प्रचार दग ु ना

ो जाय। लखनऊ में तो ऐसा कोई रससक न ीं

ै , जो

आपका ग्रा क न बन जाय।

'अगर िन मेरे जीवन का आदशद ोता, तो आज मैं इस दशा में न ोता। मझ ु े भी िन कमाने की कला आती ै । आज चा ू ूँ , तो लाखों कमा सकता ू ूँ; लेककन य ाूँ तो िन को कभी कुछ समझा ध्येय

ी न ीं। साह त्य की सेवा अपने जीवन का

ै और र े गा।'

'कम-से-कम मेरा नाम तो ग्रा कों में सलखवा दीश्जए।' 'आपका नाम ग्रा कों में न ीं, संरक्षकों में सलखग ूूँ ा।' 'संरक्षकों में रा नयों-म ारा नयों को रणखए, श्जनकी थोड़ी-सी ख़ुशामद करके आप अपने पत्र को लाभ की चीज़ बना सकते

ैं।'

'मेरी रानी-म ारानी आप ैं। मैं तो आपके सामने ककसी रानी-म ारानी की क़ीक़त न ीं समझता। श्जसमें दया और वववेक से मुझे घण ृ ा

ै , व ी मेरी रानी

ै ।'

कासमनी ने चट ु की ली -- लेककन मेरी ख़श ु ामद तो आप कर र े सम्पादकजी ने गंभीर

ोकर श्रिा-पूणद स्वर में क ा -- य

दे वीजी, हृदय के सच्चे उद्गार

ैं।

ै । ख़ुशामद

ैं संपादकजी!

ख़ुशामद न ीं



राय सा ब ने पुकारा -- संपादकजी, ज़रा इिर आइएगा। समस मालती आपसे कुछ क ना चा ती संपादकजी की व ु ए आकर खड़े

ैं।

सारी अकड़ ग़ायब ो गये।

ो गयी। नम्रता और ववनय की मश्ू त्तद बने

मालती ने उन् ें सदय नेत्रों से दे खकर क ा -- मैं अभी क में मझ ु े सबसे ज़्यादा डर संपादकों से लगता

र ी थी कक द ु नया

ै । आप लोग श्जसे चा ें , एक क्षण

में बबगाड़ दें । मझ ु ी से चीफ़ सेक्रेटरी सा ब ने एक बार क ा -- अगर मैं इस ब्लडी ओंकारनाथ को जेल में बंद कर सकूूँ, तो अपने को भाग्यवान समझूँ।ू ओंकारनाथ की बड़ी-बड़ी मूँछ ू ें खड़ी

ो गयीं। आूँखों में गवद की ज्यो त चमक

उठी। यों व

ब ु त ी शांत प्रकृ त के आदमी थे; लेककन ललकार सन ु कर उनका पुरुषत्व उत्तेश्जत ो जाता था। दृढ़ता भरे स्वर में बोले -- इस कृपा के सलए आपका कृतज्ञ ू ूँ। उस बज़्म में अपना श्ज़क्र तो आता ै , चा े ककसी तर आये। आप सेक्रेटरी म ोदय से क दीश्जयेगा कक ओंकारनाथ उन आदसमयों में न ीं

ै जो इन िमककयों से डर

जाय। उसकी क़लम उसी वक़्त ववश्राम लेगी, जब उसकी जीवन-यात्रा समाप्त



जायगी। उसने अनी त और स्वेच्छाचार को जड़ से खोदकर िेंक दे ने का श्ज़म्मा सलया

ै।

समस मालती ने और उकसाया -- मगर मेरी समझ में आपकी य

नी त न ीं

आती कक जब आप मामूली सशष्टाचार से अधिकाररयों का स योग प्राप्त कर सकते

ैं, तो क्यों उनसे कन्नी काटते

ैं? अगर आप अपनी आलोचनाओं में आग

और ववष ज़रा कम दें , तो मैं वादा करती ू ूँ कक आपको गवनदमेंट से काफ़ी मदद हदला सकती ू ूँ। जनता को तो आपने दे ख सलया। उससे अपील की, उसकी ख़ुशामद की, अपनी कहठनाइयों की कथा क ी, मगर कोई नतीजा न नकला।

अब ज़रा अधिकाररयों को भी आज़मा दे णखए। तीसरे म ीने आप मोटर पर न नकलने लगें , और सरकारी दावतों में नमंबत्रत न

ोने लगें तो मुझे श्जतना चा ें

कोससएगा। तब य ी रईस और नेशनसलस्ट जो आपकी परवा न ीं करते , आपके द्वार के चक्कर लगायेंगे।

ओंकारनाथ असभमान के साथ बोले -- य ी तो मैं न ीं कर सकता दे वीजी! मैंने अपने ससद्िांतों को सदै व ऊूँचा और पववत्र रखा

ै , और जीते-जी उनकी रक्षा

करूूँगा। दौलत के पज ु ारी तो गली-गली समलें गे, मैं ससद्िांत के पज ु ाररयों में

'मैं इसे दं भ क ती ू ूँ।' 'आपकी इच्छा।'

ू ूँ।

'िन की आपको परवा न ीं ै ?' 'ससद्िांतों का ख़ून करके न ीं।' 'तो आपके पत्र में ववदे शी वस्तुओं के ववज्ञापन क्यों ोते ैं? मैंने ककसी भी दस ू रे पत्र में इतने ववदे शी ववज्ञापन न ीं दे खे। आप बनते तो

ैं आदशदवादी और

ससद्िांतवादी, पर अपने फ़ायदे के सलए दे श का िन ववदे श भेजते ु ए आपको ज़रा भी खेद न ीं ोता? आप ककसी तकद से इस नी त का समथदन न ीं कर सकते।' ओंकारनाथ के पास सचमुच कोई जवाब न था। उन् ें बग़लें झाूँकते दे खकर राय सा ब ने उनकी ह मायत की -- तो आणख़र आप क्या चा ती

ैं ? इिर से भी मारे जायूँ, उिर से भी मारे जायूँ, तो पत्र कैसे चले?

समस मालती ने दया करना न सीखा था।

'पत्र न ीं चलता, तो बंद कीश्जए। अपना पत्र चलाने के सलए आपको ववदे शी वस्तुओं के प्रचार का कोई अधिकार न ीं। अगर आप मज़बूर

ैं, तो ससद्िांत का

ढोंग छोडड़ए। मैं तो ससद्िांतवादी पत्रों को दे खकर जल उठती ू ूँ। जी चा ता ै , हदयासलाई हदखा दूँ ।ू जो व्यश्क्त कमद और वचन में सामंजस्य न ीं रख सकता , व

और चा े जो कुछ

ो ससद्िांतवादी न ीं

ै।'

मे ता णखल उठे । थोड़ी दे र प ले उन् ोंने ख़ुद इसी ववचार का प्र तपादन ककया था। उन् ें मालम ू ु आ कक इस रमणी में ववचार की शश्क्त भी न ीं। संकोच जाता र ा।

ै , केवल ततली

'य ी बात अभी मैं क र ा था। ववचार और व्यव ार में सामंजस्य का न ोना ी ित ू दता

ै , मक्कारी

ै ।'

समस मालती प्रसन्न मुख से बोली -- तो इस ववषय में आप और मैं एक मैं भी कफ़लासफ़र

ोने का दावा कर सकती ू ूँ।

ैं, और

खन्ना की जीभ में खज ु ली में डूबा ु आ

ो र ी थी। बोले -- आपका एक-एक अंग कफ़लासफ़ी

ै।

मालती ने उनकी लगाम खींची -- अच्छा, आपको भी कफ़लासफ़ी में दख़ल

ै । मैं

तो समझती थी, आप ब ु त प ले अपनी कफ़लासफ़ी को गंगा में डुबो बैठे। न ीं, आप इतने बैंकों और कंप नयों के डाइरे क्टर न ोते। राय सा ब ने खन्ना को सूँभाला -- तो क्या आप समझती

ैं कक कफ़लासफ़रों को

मेशा फ़ाकेमस्त र ना चाह ए।

'जी ाूँ। कफ़लासफ़र अगर मो पर ववजय न पा सके, तो कफ़लासफ़र कैसा?' 'इस सल ाज़ से तो शायद समस्टर मे ता भी कफ़लासफ़र न ठ रें ! ' मे ता ने जैसे आस्तीन चढ़ाकर क ा -- मैंने तो कभी य सा ब! मैं तो इतना

दावा न ीं ककया राय

ी जानता

ू ूँ कक श्जन औजारों से लो ार काम करता ै , उन् ीं औजारों से सोनार न ीं करता। क्या आप चा ते ैं , आम भी उसी दशा में िलें -िूलें श्जसमें बबूल या ताड़? मेरे सलए िन केवल उन सुवविाओं का नाम



श्जनमें मैं अपना जीवन साथदक कर सकूूँ। िन मेरे सलए बढ़ने और िलनेिूलनेवाली चीज़ न ीं, केवल सािन व

ै । मुझे िन की बबल्कुल इच्छा न ीं, आप

सािन जुटा दें , श्जसमें मैं अपने जीवन का उपयोग कर सकूूँ।

ओंकारनाथ ससमष्टवादी थे। व्यश्क्त की इस प्रिानता को कैसे स्वीकार करते?

'इसी तर सलए एक

र एक मज़दरू क

सकता

ज़ार म ीने की ज़रूरत

ै।'

ै कक उसे काम करने की सवु विाओं के

'अगर आप समझते ैं कक उस मज़दरू के बग़ैर आपका काम न ीं चल सकता, तो आपको व

सवु विाएूँ दे नी पड़ेंगी। अगर व ी काम दस ू रा मज़दरू थोड़ी-सी

मज़दरू ी में कर दे , तो कोई वज

न ीं कक आप प ले मज़दरू की ख़ुशामद करें ।'

'अगर मज़दरू ों के ाथ में अधिकार ोता, तो मज़दरू ों के सलए स्त्री और शराब भी उतनी

ी ज़रूरी सुवविा

ो जाती श्जतनी कफ़लासफ़रों के सलए।'

'तो आप ववकवास मा नए, मैं उनसे ईष्याद न करता।' 'जब आपका जीवन साथदक करने के सलए स्त्री इतनी आवकयक ै , तो आप शादी क्यों न ीं कर लेते?' मे ता ने नस्संकोच भाव से क ा -- इसीसलए कक मैं समझता ू ूँ, मुक्त भोग आत्मा के ववकास में बािक न ीं ोता। वववा तो आत्मा को और जीवन को वपंजरे में बंद कर दे ता

ै।

खन्ना ने इसका समथदन ककया -- बंिन और नग्र थ्योरी

ै मुक्त भोग।

पुरानी थ्योररयाूँ

ैं। नयी

मालती ने चोटी पकड़ी -- तो अब समसेज़ खन्ना को तलाक़ के सलए तैयार र ना चाह ए।

'तलाक़ का बबल पास तो ो।' 'शायद उसका प ला उपयोग आप ी करें गे।' कासमनी ने मालती की ओर ववष-भरी आूँखों से दे खा और मूँु मानो क

र ी

ससकोड़ सलया,

ै -- खन्ना तुम् ें मुबारक र ें , मुझे परवा न ीं।

मालती ने मे ता की तरफ़ दे खकर क ा -- इस ववषय में आपके क्या ववचार

ैं

समस्टर मे ता? मे ता गम्भीर

ो गये। व

ककसी प्रकन पर अपना मत प्रकट करते थे, तो जैसे

अपनी सारी आत्मा उसमें डाल दे ते थे।

'वववा को मैं सामाश्जक समझौता समझता ू ूँ और उसे तोड़ने का अधिकार न पुरुष को ै न स्त्री को। समझौता करने के प ले आप स्वािीन ैं , समझौता ो जाने के बाद आपके

ाथ कट जाते

'तो आप तलाक़ के ववरोिी ैं, क्यों?'

ैं।'

'पक्का। ''और मुक्त भोग वाला ससद्िांत?' 'व उनके सलए ै , जो वववा न ीं करना चा ते।' 'अपनी आत्मा का संपूणद ववकास सभी चा ते ैं; किर वववा कौन करे और क्यों करे ?'

'इसीसलए कक मुश्क्त सभी चा ते ैं; पर ऐसे ब ु त कम ैं, जो लोभ से अपना गला छुड़ा सकें।' 'आप श्रेष्ठ ककसे समझते ैं , वववाह त जीवन को या अवववाह त जीवन को ?' 'समाज की दृश्ष्ट से वववाह त जीवन को, व्यश्क्त की दृश्ष्ट से अवववाह त जीवन को।' िनुष-यज्ञ का असभनय नकट था। दस से एक तक िनुष-यज्ञ, एक से तीन तक प्र सन, य

प्रोग्राम था। भोजन की तैयारी शुरू

ो गयी। मे मानों के सलए बूँगले

में र ने का अलग-अलग प्रबंि था। खन्ना-पररवार के सलए दो कमरे रखे गये थे। और भी ककतने

ी मे मान आ गये थे। सभी अपने -अपने कमरों में गये

और कपड़े बदल-बदलकर भोजनालय में जमा

ो गये। य ाूँ छूत-छात का कोई

भेद न था। सभी जा तयों और वणो के लोग साथ भोजन करने बैठे। केवल संपादक ओंकारनाथ सबसे अलग अपने कमरे में िला ार करने गये। और कासमनी खन्ना को ससर ददद

ो र ा था, उन् ोंने भोजन करने से इनकार ककया।

भोजनालय में मे मानों की संख्या पच्चीस से कम न थी। शराब भी थी और मांस भी। इस उत्सव के सलए राय सा ब अच्छी कक़स्म की शराब ख़ास तौर पर णखंचवाते थे? खींची जाती थी दवा के नाम से; पर भी कई तर

के पकते थे, कोफ़ते, कबाब और पुलाव। मुरग़, मुधग़यााँ, बकरा, ह रन,

तीतर, मोर, श्जसे जो पसंद भोजन शुरू

ोती थी ख़ासलस शराब। मांस

ो, व

खाये।

ो गया तो समस मालती ने पूछा -- संपादकजी क ाूँ र

को भेजो राय सा ब, उन् ें पकड़ लाये।

गये ? ककसी

राय सा ब ने क ा -- व करोगी। बड़ा

वैष्णव

ैं, उन् ें य ाूँ बुलाकर क्यों बेचारे का िमद नष्ट

ी आचार नष्ठ आदमी

ै।

'अजी और कुछ न स ी, तमाशा तो र े गा।' स सा एक सज्जन को दे खकर उसने पुकारा -- आप भी तशरीफ़ रखते खश ु ेद, य

काम आपके सप ु द ु द । आपकी सलयाकत की परीक्षा

ैं समरज़ा

ो जायगी।

समरज़ा खुशेद गोरे -धचट्टे आदमी थे, भूरी-भूरी मूँछ ू ें , नीली आूँखें, दो री दे , चाूँद के बाल सफ़ाचट। छकसलया अचकन और चूड़ीदार पाजामा प ने थे। ऊपर से

ैट

लगा लेते थे। वोहटंग के समय चौंक पड़ते थे और नेशनसलस्टों की तरफ़ वोट दे ते थे। सफ़ ू ी मस ु लमान थे। दो बार क ते थे, जब

ज कर आये थे; मगर शराब ख़ब ू पीते थे।

म ख़ुदा का एक ु क्म भी कभी न ीं मानते, तो दीन के सलए क्यों जान दें ! बड़े हदल्लगीबाज़, बेकफ़क्रे जीव थे। प ले बसरे में ठीके का कारोबार करते थे। लाखों कमाये, मगर शामत आयी कक एक मेम से आशनाई कर बैठे। मक़ ु दमेबाज़ी ु ई। जेल जाते-जाते बचे। चौबीस घंटे के अंदर मल् ु क से नकल जाने का ु क्म ु आ। जो कुछ ज ाूँ था, व ीं छोड़ा, और ससफ़द पचास ज़ार लेकर भाग खड़े ु ए। बंबई में उनके एजेंट थे। सोचा था, उनसे ह साब-ककताब कर लें और जो कुछ नकलेगा उसी में श्ज़ंदगी काट दें गे, मगर एजेंटों ने जाल करके उनसे व

पचास

ज़ार भी ऐंठ सलये। नराश

ोकर व ाूँ से लखनऊ चले। गाड़ी

में एक म ात्मा से साक्षात ण ु आ। म ात्माजी ने उन् ें सब्ज़ बाग़ हदखाकर उनकी घड़ी, अूँगहू ठयाूँ, रुपए सब उड़ा सलये। बेचारे लखनऊ प ु ूँ चे तो दे के कपड़ों के ससवा और कुछ न था। राय सा ब से पुरानी मुलाक़ात थी। कुछ उनकी मदद से और कुछ अन्य समत्रों की मदद से एक जूते की दक ू ान खोल ली। व

अब

लखनऊ की सबसे चलती ु ई जूते की दक ू ान थी चार-पाूँच सौ रोज़ की बबक्री थी। जनता को उन पर थोड़े ी हदनों में इतना ववकवास ो गया कक एक बड़े भारी मश्ु स्लम ताल्लक़ ु े दार को नीचा हदखाकर कौंससल में प ु ूँच गये। अपनी जग

पर बैठे-बैठे बोले -- जी न ीं, मैं ककसी का दीन न ीं बबगाड़ता। य

काम आपको ख़ुद करना चाह ए। मज़ा तो जब छोड़ें। य

आपके

ु स्न के जाद ू की आज़माइश

ै कक आप उन् ें शराब वपलाकर ै।

चारों तरफ़ से आवाज़ें आयीं --

ाूँ- ाूँ, समस मालती, आज अपना कमाल हदखाइए।

मालती ने समरज़ा को ललकारा, कुछ इनाम दोगे?

'सौ रुपए की एक थैली!' ' ु श! सौ रुपए! लाख रुपए का िमद बबगाड़ूूँ सौ के सलए।' 'अच्छा, आप ख़ुद अपनी फ़ीस बताइए।' 'एक ज़ार, कौड़ी कम न ीं।' 'अच्छा मंज़ूर।' 'जी न ीं, लाकर मे ताजी के ाथ में रख दीश्जए।' समरज़ाजी ने तुरंत सौ रुपए का नोट जेब से नकाला और उसे हदखाते ु ए खड़े ोकर बोले -- भाइयो! य म सब मरदों की इज़्ज़त का मामला ै । अगर समस मालती की फ़रमाइश न परू ी ु ई, तो मारे सलए क ीं मूँु हदखाने की जग न र े गी; अगर मेरे पास रुपए ोते तो मैं समस मालती की एक-एक अदा पर एकएक लाख कुरबान कर दे ता। एक पुराने शायर ने अपने माशूक़ के एक काले

तल पर समरक़ंद और बोखारा के सूबे कुरबान कर हदये थे। आज आप सभी

सा बों की जवाूँमरदी और ु स्नपरस्ती का इम्त ान ै । श्जसके पास जो कुछ सच्चे सरू मा की तर नकालकर रख दे । आपको इल्म की क़सम, माशूक़ की अदाओं की क़सम, अपनी इज़्ज़त की क़सम, पीछे क़दम न ख़चद सस्ता

ो जायूँगे, नाम

मेशा के सलए र

ै । दे णखए, लखनऊ के

मंत्र कैसे चलाती

ै?

भाषण समाप्त करते

ो,

टाइए। मरदो! रुपए

जायगा। ऐसा तमाशा लाखों में भी

सीनों की रानी एक जाह द पर अपने ु स्न का

ी समरज़ाजी ने

र एक की जेब की तलाशी शुरू कर दी।

प ले समस्टर खन्ना की तलाशी ु ई। उनकी जेब से पाूँच रुपए नकले। समरज़ा ने मूँु

िीका करके क ा -- वा

खन्ना सा ब, वा ! ! नाम बड़े दशदन

थोड़े। इतनी कंप नयों के डाइरे क्टर, लाखों की आमदनी और आपके जेब में पाूँच

रुपए! ला ौल बबला कूबत! क ाूँ

ैं मे ता? आप ज़रा जाकर समसेज़ खन्ना से

कम-से-कम सौ रुपए वसूल कर लायें। खन्ना णखससयाकर बोले -- अजी, उनके पास एक पैसा भी न

ोगा। कौन जानता

था कक य ाूँ आप तलाशी लेना शुरू करें गे?

'ख़ैर आप ख़ामोश रह ए। म अपनी तक़दीर तो आज़मा लें ।' 'अच्छा तो मैं जाकर उनसे पूछता ू ूँ।' 'जी न ीं, आप य ाूँ से ह ल न ीं सकते। समस्टर मे ता, आप कफ़लासफ़र ैं, मनोववज्ञान के पंडडत। दे णखए अपनी भेद न कराइएगा।' मे ता शराब पीकर मस्त और ववनोद सजीव समनट

ी में मूँु

ो जाते थे। उस मस्ती में उनका दशदन उड़ जाता था

ो जाता था। लपककर समसेज़ खन्ना के पास गये और पाूँच

लटकाये लौट आये।

समरज़ा ने पूछा -- अरे क्या ख़ाली राय सा ब

ाथ?

ूँसे -- क़ाज़ी के घर चू े भी सयाने।

समरज़ा ने क ा --

ो बड़े ख़ुशनसीब खन्ना, ख़ुदा की क़सम!

मे ता ने क़ क़ ा मारा और जेब से सौ-सौ रुपए के पाूँच नोट नकाले। समरज़ा ने लपककर उन् ें गले लगा सलया। चारों तरफ़ से आवाज़ें आने लगीं -- कमाल ै , मानता ू ूँ उस्ताद, क्यों न

ो, कफ़लासफ़र

ी जो ठ रे !

समरज़ा ने नोटों को आूँखों से लगाकर क ा -- भई मे ता, आज से मैं तम् ु ारा शाधगदद

ो गया। बताओ, क्या जाद ू मारा?

मे ता अकड़कर, लाल-लाल आूँखों से ताकते ु ए बोले -- अजी कुछ न ीं। ऐसा कौन-सा बड़ा काम था। जाकर पछ ू ा, अंदर आऊूँ? बोलीं -- आप ैं मे ताजी, आइए! मैंने अंदर जाकर क ा, व ाूँ लोग बब्रज खेल र े कम की न ीं

ै । आपने तो दे खा

ैं। अूँगूठी एक

ै । बस व ी। आपके पास रुपए

ज़ार से

ों , तो पाूँच सौ

रुपए दे कर एक

ज़ार की चीज़ ले लीश्जए। ऐसा मौक़ा किर न समलेगा। समस

मालती ने इस वक़्त रुपए न हदये, तो बेदाग़ नकल जायूँगी। पीछे से कौन दे ता ै , शायद इसीसलए उन् ोंने अूँगूठी नकाली

ै कक पाूँच सौ रुपए ककसके पास िरे

ोंगे। मुसकराईं और चट अपने बटुवे से पाूँच नोट नकालकर दे हदये, और बोलीं

-- मैं बबना कुछ सलये घर से न ीं नकलती। न जाने कब क्या ज़रूरत पड़े। खन्ना णखससयाकर बोले -- जब का ईकवर

ी मासलक

मारे प्रोफ़ेसरों का य

ाल

ै।

ै , तो यू नवससटी

खुशेद ने घाव पर नमक छड़का -- अरे तो ऐसी कौन-सी बड़ी रक़म सलए आपका हदल बैठा जाता

ै । ख़ुदा झूठ न बुलवाये तो य

ै श्जसके

आपकी एक हदन

की आमदनी

ै । समझ लीश्जएगा, एक हदन बीमार पड़ गये और जायगा भी तो

समस मालती

ी के

पास तो

ाथ में । आपके ददद -ए-श्जगर की दवा समस मालती

ी के

ै।

मालती ने ठोकर मारी -- दे णखए समरज़ाजी तबेले में ल तआ ु ज अच्छी न ीं। समरज़ा ने दम ु ह लायी -- कान पकड़ता ू ूँ दे वीजी। समस्टर तंखा की तलाशी ु ई। मुश्ककल से दस रुपए नकले, मे ता की जेब से केवल अठन्नी नकली। कई सज्जनों ने एक-एक, दो-दो रुपए ख़ुद दे हदये। ह साब जोड़ा गया, तो तीन सौ की कमी थी। य

कमी राय सा ब ने उदारता के

साथ पूरी कर दी। संपादकजी ने मेवे और िल खाये थे और ज़रा कमर सीिी कर र े थे कक राय सा ब ने जाकर क ा -- आपको समस मालती याद र ी ख़ुश

ोकर बोले -- समस मालती मुझे याद कर र ी

राय सा ब के साथ



ैं।

ैं, िन्य-भाग!

ाल में आ ववराजे। उिर नौकरों ने मेज़ें साफ़ कर दी

थीं। मालती ने आगे बढ़कर उनका स्वागत ककया।

सम्पादकजी ने नम्रता हदखायी -- बैहठए तकल्लफ़ ु न कीश्जए। मैं इतना बड़ा आदमी न ीं ू ूँ।

मालती ने श्रिा भरे स्वर में क ा -- आप तकल्लुफ़ समझते

ोंगे, मैं समझती ू ूँ, मैं अपना सम्मान बढ़ा र ी ू ूँ; यों आप अपने को कुछ समझें और आपको शोभा भी न ीं दे ता ै लेककन य ाूँ श्जतने सज्जन जमा ैं , सभी आपकी राष्र और साह त्य-सेवा से भली-भाूँ त पररधचत ककया

ैं। आपने इस क्षेत्र में जो म त्वपूणद काम

ै , अभी चा े लोग उसका मूल्य न समझें; लेककन व

समय ब ु त दरू न ीं र-एक नगर में आपके नाम

ै -- मैं तो क ती ू ूँ व समय आ गया ै -- जब की सड़कें बनेंगी, क्लब बनेंगे, टाउन ालों में आपके धचत्र लटकाये जायेंगे। इस

वक़्त जो थोड़ी ब ु त जाग ृ त ै , व आप ी के म ान ण उद्योग का प्रसाद ै । आपको य जानकर आनंद ोगा कक दे श में अब आपके ऐसे अनुयायी पैदा ो गये

ैं जो आपके दे ात-सुिार आंदोलन में आपका

और उन सज्जनों की बड़ी इच्छा

ै कक य

ाथ बूँटाने को उत्सुक

ैं ,

काम संगहठत रूप से ककया जाय

और एक दे ात-सि ु ार संघ स्थावपत ककया जाय, श्जसके आप सभाप त

ों।

ओंकारनाथ के जीवन में य

प ला अवसर था कक उन् ें चोटी के आदसमयों में

इतना सम्मान समले। यों व

कभी-कभी आम जलसों में बोलते थे और कई

सभाओं के मंत्री और उपमंत्री भी थे; लेककन सशक्षक्षत-समाज में अब तक उनकी उपेक्षा

ी की थी। उन लोगों में व

ककसी तर

समल न पाते थे , इसीसलए आम

जलसों में उनकी नश्ष्क्रयता और स्वाथाांिता की सशकायत ककया करते थे , और अपने पत्र में एक-एक को रगेदते थे। क़लम तेज़ थी, वाणी कठोर, साफ़गोई की जग

उच्छृंखलता कर बैठते थे, इससलए लोग उन् ें ख़ाली ढोल समझते थे। उसी

समाज में आज उनका इतना सम्मान! क ाूँ

ैं आज 'स्वराज' और 'स्वािीन

भारत' और ' ं टर' के संपादक, आकर दे खें और अपना कलेजा ठं ठा करें । आज अवकय य

ी दे वताओं की उन पर कृपादृश्ष्ट

ऋवषयों का वाक्य

कृतज्ञता से पुलककत

ै। व

ै । सदद् ु योग कभी नष्िल न ीं जाता,

स्वयम ण अपनी नज़रों में उठ गये।

ोकर बोले -- दे वीजी, आप तो मुझे काूँटों में घसीट र ी

मैंने तो जनता की जो कुछ भी सेवा की, अपना कतदव्य समझकर की। मैं इस

ैं।

सम्मान को अपना न ीं, उस उद्देकय का सम्मान समझ र ा ू ूँ , श्जसके सलए मैंने अपना जीवन अवपतद कर हदया ै , लेककन मेरा नम्र- नवेदन ै कक प्रिान का पद

ककसी प्रभावशाली परु ु ष को हदया जाय, मैं पदों में ववकवास न ीं रखता। मैं तो सेवक ू ूँ और सेवा करना चा ता ू ूँ। समस मालती इसे ककसी तर

स्वीकार न ीं कर सकतीं। सभाप त पंडडतजी को

बनना पड़ेगा। नगर में उसे ऐसा प्रभावशाली व्यश्क्त दस ू रा न ीं हदखायी दे ता।

श्जसकी क़लम में जाद ू ै , श्जसकी ज़बान में जाद ू ै, श्जसके व्यश्क्तत्व में जाद ू ै, व

कैसे क ता

ै कक व

प्रभावशाली न ीं

ै। व

ज़माना गया , जब िन और

प्रभाव में मेल था। अब प्र तभा और प्रभाव के मेल का युग य

पद अवकय स्वीकार करना पड़ेगा। मंत्री समस मालती

सलए एक

ज़ार का चंदा भी

ो गया

ै । संपादकजी को ोंगी। इस सभा के

ै और अभी तो सारा श र और प्रांत पड़ा

ु आ ै । चार-पाूँच लाख समल जाना मामूली बात ै । ओंकारनाथ पर कुछ नशासा चढ़ने लगा। उनके मन में जो एक प्रकार की िुर री सी उठ र ी थी, उसने गंभीर उत्तरदा यत्व का रूप िारण कर सलया। बोले -- मगर य

आप समझ लें , समस मालती, कक य

बड़ी श्ज़म्मेदारी का काम

ै और आपको अपना ब ु त समय दे ना पड़ेगा। मैं अपनी तरफ़ से आपको ववकवास हदलाता ू ूँ कक आप सभा-भवन में मुझे सबसे प ले मौजूद पायूँगी। समरज़ाजी ने पुचारा हदया -- आपका बड़े-से-बड़ा दकु मन भी य

न ीं क

सकता

कक आप अपना फ़रज़ अदा करने में कभी ककसी से पीछे र े । समस मालती ने दे खा, शराब कुछ-कुछ असर करने लगी

ै , तो और भी गंभीर

सभा स्थावपत

म ककसी रईस या

बनकर बोलीं -- अगर

म लोग इस काम की म ानता न समझते, तो न य

ोती और न आप इसके सभाप त

ोते।

ताल्लुक़ेदार को सभाप त बनाकर िन ख़ूब बटोर सकते स्वाथद ससद्ि कर सकते

ैं , लेककन य

उद्दे कय जनता की सेवा करना मने नकचय ककया

ै कक

ैं , और सेवा की आड़ में

मारा उद्दे कय न ीं।

मारा एकमात्र

ै । और उसका सबसे बड़ा सािन आपका पत्र

ै।

र-एक नगर और गाूँव में उसका प्रचार ककया जाय

और जल्द-से-जल्द उसकी ग्रा क-संख्या को बीस

ज़ार तक प ु ूँचा हदया जाय। प्रांत की सभी म्यु नससपैसलहटयों और श्जला बोडद के चेयरमैन मारे समत्र ैं। कई चेयरमैन तो य ीं ववराजमान लीं, तो पचीस

ैं। अगर

र-एक ने पाूँच-पाूँच सौ प्र तयाूँ भी ले

ज़ार प्र तयाूँ तो आप यक़ीनी समझें। किर राय सा ब और

समरज़ा सा ब की य

सला

ै कक कौंससल में इस ववषय का एक प्रस्ताव रखा

जाय कक प्रत्येक गाूँव के सलए 'बबजली' की एक प्र त सरकारी तौर पर मूँगाई जाय, या कुछ वावषकद स ायता स्वीकार की जाय। और य

प्रस्ताव पास

ो जायगा।

ओंकारनाथ ने जैसे नशे में झूमते ु ए क ा -जाना ोगा।

में पूरा ववकवास

ै कक

में गवनदर के पास डेपुटेशन ले

समरज़ा खश ु ेद बोले -- ज़रूर-ज़रूर!

'उनसे क ना ोगा कक ककसी सभ्य शासन के सलए य ककतनी लज्जा और कलंक की बात

ै कक ग्रामोत्थान का अकेला पत्र

ोने पर भी 'बबजली' का

अश्स्तत्व तक न ीं स्वीकार ककया जाता।' समरज़ा खुशेद ने क ा -- अवकय-अवकय!

'मैं गवद न ीं करता। अभी गवद करने का समय न ीं आया ; लेककन मझ ु े इसका दावा ै कक ग्राम्य-संगठन के सलए 'बबजली' ने श्जतना उद्योग ककया ै ...' समस्टर मे ता ने सुिारा -- न ीं म ाशय, तपस्या कह ए।

'मैं समस्टर मे ता को िन्यवाद दे ता ू ूँ। ाूँ, इसे तपस्या ी क ना चाह ए, बड़ी कठोर तपस्या। 'बबजली' ने जो तपस्या की ै , व इस प्रांत के ी न ीं, इस राष्र के इ त ास में अभूतपूवद ै ।' समरज़ा खुशेद बोले -- ज़रूर-ज़रूर! समस मालती ने एक पेग और हदया -कक कौंससल में अब की जो जग

ख़ाली

मारे संघ ने य

नकचय भी ककया



ो, उसके सलए आपको उम्मेदवार खड़ा

ककया जाय। आपको केवल अपनी स्वीकृ त दे नी

ोगी। शेष सारा काम

कर लें गे। आपको न ख़चद से मतलब, न प्रोपेगेंडा, न दौड़-िूप से।

म लोग

ओंकारनाथ की आूँखों की ज्यो त दग ु न ु ी

ो गयी। गवद-पण ू द नम्रता से बोले -- मैं

आप लोगों का सेवक ू ूँ, मुझसे जो काम चा े ले लीश्जए।

' म लोगों को आपसे ऐसी ी आशा ै । म अब तक झूठे दे वताओं के सामने नाक रगड़ते-रगड़ते

ार गये और कुछ

पथ-प्रदशदक, सच्चा गुरु पाया एकमन, एकप्राण चाह ए।

मने आप में सच्चा

ै और इस शुभ हदन के आनंद में आज

में

ोकर अपने अ ं कार को, अपने दं भ को तलांजसल दे दे ना

ममें आज से कोई ब्राह्मण न ीं

कोई मुसलमान न ीं

माता के बालक, एक

ै , कोई ऊूँच न ीं

ैं, उनके सलए

ै , कोई शूद्र न ीं

ै , कोई नीच न ीं

ी गोद के खेलनेवाले, एक

जो लोग भेद-भाव में ववकवास रखते उपासक

ाथ न लगा। अब

म सब एक

ै,



ी थाली के खानेवाले भाई

ैं।

ैं, जो लोग पथ ृ कता और कट्टरता के

मारी सभा में स्थान न ीं

पूज्य ओंकारनाथजी जैसे ववशाल-हृदय व्यश्क्त खान-पान का और जा त-पाूँ त का भेद न ीं और राष्रीयता में ववकवास न रखते

ै।

ै , कोई ह द ं ू न ीं

ै । श्जस सभा के सभाप त

ों, उस सभा में ऊूँच-नीच का, ो सकता। जो म ानुभाव एकता में

ों, वे कृपा करके य ाूँ से उठ जायूँ।

राय सा ब ने शंका की -- मेरे ववचार में एकता का य

आशय न ीं

ै कक सब

लोग खान-पान का ववचार छोड़ दें । मैं शराब न ीं पीता, तो क्या मुझे इस सभा से अलग

ो जाना पड़ेगा?

मालती ने नमदम स्वर में क ा -- बेशक अलग में र कर ककसी तर

ो जाना पड़ेगा। आप इस संघ

का भेद न ीं रख सकते।

मे ता जी ने घड़े को ठोका -- मुझे संदे पान की एकता में ववकवास न ीं रखते

ै कक ैं।

मारे सभाप तजी स्वयम ण खान-

ओंकारनाथ का चे रा जदद पड़ गया। इस बदमाश ने य बजा दी। दष्ु ट क ीं गड़े मुदे न उखाड़ने लगे, न ीं, य भाूँ त शून्य में ववलीन

सारा सौभाग्य स्वप्न की

ो जायगा।

समस मालती ने उनके मूँु -- आपका संदे

क्या बेवक्त की श नाई

नरािार

की ओर श्जज्ञासा की दृश्ष्ट से दे खकर दृढ़ता से क ा ै मे ता म ोदय! क्या आप समझते

ैं कक राष्र की

एकता का ऐसा अनन्य उपासक, ऐसा उदारचेता पुरुष, ऐसा रससक कवव इस

नरथदक और लज्जा-जनक भेद को मान्य समझेगा? ऐसी शंका करना उसकी राष्रीयता का अपमान करना

ै।

ओंकारनाथ का मुख-मंडल प्रदीप्त

ो गया। प्रसन्नता और संतोष की आभा

झलक पड़ी।

मालती ने उसी स्वर में क ा -- और इससे भी अधिक उनकी पुरुष-भावना का। एक रमणी के कर दे ? य

ाथों से शराब का प्याला पाकर व

तो नारी-जा त का अपमान

कौन भद्र पुरुष

ै जो इनकार

ोगा, उस नारी-जा त का श्जसके नयन-

बाणों से अपने हृदय को बबंिवाने की लालसा पुरुष-मात्र में

अदाओं पर मर-समटने के सलए बड़े-बड़े म ीप लाला यत र ते

ोती

ै , श्जसकी

ैं। लाइए, बोतल

और प्याले, और दौर चलने दीश्जए। इस म ान ण अवसर पर ककसी तर ककसी तर

की आपश्त्त राष्र-द्रो

से कम न ीं। प ले

की शंका,

म अपने सभाप त की

से त का जाम पीयेंगे। बफ़द, शराब और सोडा प ले

ी से तैयार था। मालती ने ओंकारनाथ को अपने

ाथों से लाल ववष से भरा ु आ ग्लास हदया, और उन् ें कुछ ऐसी जाद-ू भरी धचतवन से दे खा कक उनकी सारी नष्ठा, सारी वणद-श्रेष्ठता काफ़ूर ो गयी। मन ने क ा -- सारा आचार-ववचार पररश्स्थ तयों के अिीन ो, ककसी मोटरकार को िूल उड़ाते दे खते

ो, तो ऐसा बबगड़ते

ै । आज तुम दररद्र

ो कक उसे पत्थरों

से चरू -चरू कर दो; लेककन क्या तम् ु ारे मन में कार की लालसा न ीं पररश्स्थ त

ऐसा अवसर

ी ववधि

ै और कुछ न ीं। बाप-दादों ने न ीं पी थी, न पी

ै? ो। उन् ें

ी कब समला था। उनकी जीववका पोथी-पत्रों पर थी। शराब लाते

क ाूँ से, और पीते भी तो जाते क ाूँ? किर व

तो रे लगाड़ी पर न चढ़ते थे , कल

का पानी न पीते थे, अूँग्रेज़ी पढ़ना पाप समझते थे। समय ककतना बदल गया समय के साथ अगर न ीं चल सकते, तो व ऐसी मह ला के कोमल उसे ठुकरा सकते

तम् ु ें पीछे छोड़कर चला जायगा।

ाथों से ववष भी समले , तो सशरोिायद करना चाह ये। श्जस

सौभाग्य के सलए बड़े-बड़े राजे तरसते व

ै।

ैं ; व

आज उनके सामने खड़ा

ै । क्या

ैं? उन् ोंने ग्लास ले सलया और ससर झुकाकर अपनी

कृतज्ञता हदखाते ु ए एक ी साूँस में पी गये और तब लोगों को गवद भरी आूँखों से दे खा, मानो क र े ों, अब तो आपको मझ ु पर ववकवास आया। क्या समझते

ैं, मैं नरा पोंगा पंडडत ू ूँ। अब तो मझ ु े दं भी और पाखंडी क ने का सा स न ीं कर सकते? ाल में ऐसा शोर गुल मचा कक कुछ न पूछो, जैसे वपटारे में बंद ग ग े नकल

पड़े

ों। वा

दे वीजी! क्या क ना

ै ! कमाल

ै समस मालती , कमाल

ै । तोड़

हदया, नमक का क़ानून तोड़ हदया, िमद का कक़ला तोड़ हदया, नेम का घड़ा िोड़ हदया! ओंकारनाथ के कंठ के नीचे शराब का प ु ूँचना था कक उनकी रससकता वाचाल ो गयी। मुस्कराकर बोले -- मैंने अपने िमद की थाती समस मालती के कोमल सौंप दी और मुझे ववकवास

ै, व

उसकी यथोधचत रक्षा करें गी। उनके चरण-

कमलों के इस प्रसाद पर मैं ऐसे एक क़ क़ ों से

ाथों में

ज़ार िमो को न्योछावर कर सकता ू ूँ।

ाल गूँज ू उठा। संपादकजी का चे रा िूल उठा था, आूँखें झुकी पड़ती

थीं।

दस ू रा ग्लास भरकर बोले -- य

समस मालती की से त का जाम

ै । आप लोग

वपएूँ और उन् ें आशीवादद दें । लोगों ने किर अपने-अपने ग्लास ख़ाली कर हदये। उसी वक़्त समरज़ा खुशेद ने एक माला लाकर संपादकजी के गले में डाल दी और ।

बोले -- सज्जनो, कफ़दवी ने अभी अपने पूज्य सदर सा ब की शान में एक क़सीदा क ा

ै । आप लोगों की इजाज़त

चारों तरफ़ से आवाज़ें आयीं --

ो तो सुनाऊूँ।

ाूँ- ाूँ, ज़रूर सुनाइए।

ओंकारनाथ भंग तो आए हदन वपया करते थे और उनका मश्स्तष्क उसका अभ्यस्त

ो गया था, मगर शराब पीने का उन् ें य

प ला अवसर था। भंग का

नशा मंथर ग त से एक स्वप्न की भाूँ त आता था और मश्स्तष्क पर मेघ के समान छा जाता था। उनकी चेतना बनी र ती थी। उन् ें ख़ुद मालूम कक इस समय उनकी वाणी बड़ी लच्छे दार

ोता था

ै , और उनकी कल्पना ब ु त प्रबल। शराब का नशा उनके ऊपर ससं की भाूँ त झपटा और दबोच बैठा। व क ते

कुछ

ैं, मूँु

से नकलता कुछ

ैं और क्या करते

था, जाग ृ त का व

ैं , इसकी सुधि

मेज़ पर

ी न र ी। य

क्या क ते

स्वप्न का रोमानी वैधचत्र्य न ो जाता

ै । न जाने

कल्पना जाग उठी कक क़सीदा पढ़ना कोई बड़ा

ै।

ाथ पटककर बोले -- न ीं, कदावप न ीं। य ाूँ कोई क़सीदा नई ओगा,

नई ओगा।

म सभाप त

ैं। अबी तोड़ सकते सकता।

ज्ञान भी जाता र ा। व

चक्कर था, श्जसमें साकार नराकार

कैसे उनके मश्स्तष्क में य अनुधचत काम

ै । किर य

म सभाप त

ैं।

मारा ु क्म ै । म अबी इस सबा को तोड़ सकते ैं। सभी को नकाल सकते ैं। कोई मारा कुछ न ीं कर ैं। कोई दस ू रा सभाप त नई

ै।

समरज़ा ने

ाथ जोड़कर क ा -- ु ज़ूर, इस क़सीदे में तो आपकी तारीफ़ की गयी ै । संपादकजी ने लाल, पर ज्यो त ीन नेत्रों से दे खा -- तम मारी तारीप क्यों ु

की? क्यों की? बोलो, क्यों के बाप का नौकर नई

ै , ककसी साले का हदया न ीं खाते।

म 'बबजली' का संपादक तारीप नई करे गा। आपका चरण-रज य पड़े।

मारी तारीप की? म ककसी का नौकर नई ै।

ै । ककसी

म ख़ुद संपादक

ै।

म उसमें सबका तारीप करे गा। दे वीजी, म तुम् ारा

म कोई बड़ा आदमी नयी ै । मालती दे वी

ै।

म सबका ग़ल ु ाम

ै।



मारी लक्ष्मी, मारा सरस्वती, मारी रािा ...।

क ते ु ए वे मालती के चरणों की तरफ़ झुके और मूँु

समरज़ा खश ु ेद ने दौड़कर उन् ें सूँभाला और कुससदयाूँ

के बल फ़शद पर धगर

टाकर व ीं ज़मीन पर सलटा

हदया।

किर उनके कानों के पास मूँु

ले जाकर बोले -- राम-राम सत्त

ै ! कह ए तो

आपका जनाज़ा नकालें ।

राय सा ब ने क ा -- कल दे खना ककतना बबगड़ता

ै । एक-एक को अपने पत्र में

रगेदेगा। और ऐसा-ऐसा रगेदेगा कक आप भी याद करें गे! एक

ी दष्ु ट

ै , ककसी

पर दया न ीं करता। सलखने में तो अपना जोड़ न ीं रखता। ऐसा गिा आदमी कैसे इतना अच्छा सलखता

ै, य

र स्य

ै।

कई आदसमयों ने सम्पादकजी को उठाया और ले जाकर उनके कमरे में सलटा हदया। उिर पंडाल में िनुष-यज्ञ

ो र ा था। कई बार इन लोगों को बुलाने के सलए

आदमी आ चक ु े थे। कई ु क्काम भी पंडाल में आ प ु ूँचे थे। लोग उिर जाने को तैयार ो र े थे कक स सा एक अफ़गान आकर खड़ा ो गया। गोरा रं ग , बड़ी-बड़ी मूँूछें, ऊूँचा क़द, चौड़ा सीना, आूँखों में नभदयता का उन्माद भरा ु आ, ढीला नीचा कुरता, पैरों में शलवार, ज़री के काम की सदरी, ससर पर पगड़ी और कुला , कंिे

में चमड़े का बैग लटकाये, कंिे पर बंदक़ ू रखे और कमर में तलवार बाूँिे न जाने ककिर से आ खड़ा

ो गया और गरजकर बोला -- ख़बरदार! कोई य ाूँ से मत

जाओ। अमारा साथ का आदमी पर डाका पड़ा अमारा आदमी को लूट सलया दे ना

ोगा। क ाूँ

ैं। य ाूँ का जो सरदार

ै , उसका माल तुमको दे ना

ै। व

ोगा! एक-एक कौड़ी

ै सरदार, उसको बुलाओ।

राय सा ब ने सामने आकर क्रोि-भरे स्वर में क ा --'कैसी लूट! कैसा डाका? य तुम लोगों का काम मामला

ै?

ै । य ाूँ कोई ककसी को न ीं लूटता। साफ़-साफ़ क ो, क्या

अफ़गान ने आूँखें नकालीं और बंदक़ ू का कंु दा ज़मीन पर पटककर बोला -अमसे पूछता

ै कैसा लूट, कैसा डाका? तुम लूटता

अम य ाूँ की कोठी का मासलक

ै । अमारी कोठी में पचास जवान

आदमी रुपए त सील कर लाता था। एक ै कैसा डाका? अम बतलायेगा कैसा डाका आता

ै , तुम् ारा आदमी लूटता

ज़ार। व ोता

ै।

ै । अमारा

तुम लट ू सलया, और क ता

ै । अमारा पचीसों जवान अबी

ै । अम तुम् ारा गाूँव लूट लेगा। कोई साला कुछ नयीं कर सकता, कुछ

नयीं कर सकता।

खन्ना ने अफ़गान के तेवर दे खे तो चप ु के से उठे कक नकल जायूँ। सरदार ने ज़ोर से डाूँटा -- काूँ जाता तुम? कोई कई नयीं जा सकता। नयीं अम

सबको क़तल कर दे गा। अबी िैर कर दे गा। अमारा तुम कुछ नयीं कर सकता। अम तुम् ारा पुसलस से नयीं डरता। पुसलस का आदमी अमारा सकल दे खकर भागता

ै । अमारा अपना काूँसल

पास जा सकता

ै , अम उसको खत सलखकर लाट सा ब के

ै । अम याूँ से ककसी को नयीं जाने दे गा। तुम अमारा एक

ज़ार रुपया लट ू सलया। अमारा रुपया नयीं दे गा, तो अम ककसी को श्ज़न्दा न ीं

छोड़ेगा। तुम सब आदमी दस ू रों के माल को लूट करता साथ शराब पीता

ै।

ै और याूँ माशूक़ के

समस मालती उसकी आूँख बचाकर कमरे से नकलने लगीं कक व

बाज़ की तर

टूटकर उनके सामने आ खड़ा ु आ और बोला -- तुम इन बदमाशों से अमारा माल हदलवाये, नयीं अम तुमको उठा ले जायगा और अपनी कोठी में जशन

मनायेगा। तुम् ारा ु स्न पर अम आसशक़ ो गया। या तो अमको एक ज़ार अबी-अबी दे दे या तुमको अमारे साथ चलना पड़ेगा। तुमको अम न ीं छोड़ेगा। अम तम् ु ारा आसशक़ इस जग

ो गया

पचीस जवान

ै । अमारा हदल और श्जगर िटा जाता

ै । इस श्जला में

अम अपने क़बीले का खान णख़राज दे ता

ै । अगर तुम

मारा पाूँच सौ जवान काम करता

ै । अमारे क़बीला में दस

क़ाबुल के अमीर से लड़ सकता

ै । अमारा

ज़ार ससपा ी

ै । अूँग्रेज़ सरकार अमको बीस

ै।

ैं। अम

ज़ार सालाना

मारा रुपया नयीं दे गा, तो अम गाूँव लूट लेगा और

तम् ु ारा माशूक़ को उठा ले जायगा। ख़न ू करने में अमको लत ु फ़ आता

ै । अम

ख़ून का दररया ब ा दे गा!

मजसलस पर आतंक छा गया। समस मालती अपना च कना भूल गयीं। खन्ना की वपंडसलयाूँ काूँप र ी थीं। बेचारे चोट-चपेट के भय से एक मंश्ज़ले बूँगले में

र ते थे। ज़ीने पर चढ़ना उनके सलए सूली पर चढ़ने से कम न था। गरमी में

भी डर के मारे कमरे में सोते थे। राय सा ब को ठकुराई का असभमान था। व अपने

ी गाूँव में एक पठान से डर जाना

ास्यास्पद समझते थे , लेककन उसकी

बंदक़ ू को क्या करते। उन् ोंने ज़रा भी चीं-चपड़ ककया और इसने बंदक़ ू चलायी।

ोता ै ; ू ू श तो ोते ी ैं ये सब, और नशाना भी इन सबों का ककतना अचक अगर उसके ाथ में बंदक़ ू न ोती, तो राय सा ब उससे सींग समलाने को भी तैयार

ो जाते। मुश्ककल य ी थी कक दष्ु ट ककसी को बा र न ीं जाने दे ता। न ीं ,

दम-के-दम में सारा गाूँव जमा रख दे ता।

ो जाता और इसके पूरे जत्थे को पीट-पाटकर

आणख़र उन् ोंने हदल मज़बूत ककया और जान पर खेलकर बोले -क

हदया कक

म चोर-डाकू न ीं

मने आपसे

ैं। मैं य ाूँ की कौंससल का में बर ू ूँ और य दे वीजी लखनऊ की सुप्रससि डाक्टर ैं। य ाूँ सभी शरीफ़ और इज़्ज़तदार लोग

जमा

ैं।

में बबलकुल ख़बर न ीं, आपके आदसमयों को ककसने लट ू ा? आप जाकर

थाने में रपट कीश्जए।

खान ने ज़मीन पर पैर पटके, पैंतरे बदले और बंदक़ ू को कंिे से उतारकर

ाथ में

लेता ु आ द ाड़ा -- मत बक-बक करो। काउं ससल का में बर को अम इस तर पैरों से कुचल दे ता ै । (ज़मीन पर पाूँव रगड़ता ै ) अमारा ाथ मज़बूत ै , अमारा हदल मज़बूत

ै , अम ख़ुदा ताला के ससवा और ककसी से नयीं डरता। तुम

अमारा रुपया न ीं दे गा, तो अम (राय सा ब की तरफ़ इशारा कर) अभी तुमको कतल कर दे गा।

अपनी तरफ़ बंदक़ ू की नली दे खकर राय सा ब झुककर मेज़ के बराबर आ गये। अजीब मुसीबत में जान िूँसी थी। शैतान बरबस क े जाता लूट सलये। न कुछ सुनता दे ता

ै , न कुछ समझता

ै , तुमने

मारे रुपए

ै , न ककसी को बा र जाने-आने

ै । नौकर-चाकर, ससपा ी-प्यादे , सब िनष ु -यज्ञ दे खने में मग्न थे। ज़मींदारों

के नौकर यों भी आलसी और काम-चोर जाय बोलते

ोते



ैं , जब तक दस दफ़े न पुकारा

ी न ीं; और इस वक़्त तो वे एक शुभ काम में लगे

ु ए थे। िनुषयज्ञ उनके सलए केवल तमाशा न ीं , भगवान ण की लीला थी; अगर एक आदमी भी इिर आ जाता, तो ससपाह यों को ख़बर

ो जाती और दम-भर में खान का सारा

खानपन नकल जाता, डाढ़ी के एक-एक बाल नच ु जाते। ककतना ग़स् ु सेवर भी तो जल्लाद

ै।

ोते

ैं। न मरने का ग़म, न जीने की ख़ुशी।

समरज़ा सा ब ने चककत नेत्रों से दे खा -- क्या बताऊूँ, कुछ अक्ल काम न ीं करती। मैं आज अपना वपस्तौल घर खन्ना रोना मूँु टासलए।

ी छोड़ आया, न ीं मज़ा चखा दे ता।

बनाकर बोले -- कुछ रुपए दे कर ककसी तर

इस बला को

राय सा ब ने मालती की ओर दे खा -- दे वीजी, अब आपकी क्या सला मालती का मुख-मंडल तमतमा र ा था। बोलीं -ो र ी

ै और आप लोग बैठे दे ख र े

बीस मदो के

ै?

ोगा क्या, मेरी इतनी बेईज़्ज़ती

ैं!

ोते एक उजड्डा पठान मेरी इतनी दग ु द त कर र ा

ै और आप

लोगों के ख़ून में ज़रा भी गमी न ीं आती! आपको जान इतनी प्यारी

ै ? क्यों

एक आदमी बा र जाकर शोर न ीं मचाता ? क्यों आप लोग उस पर झपटकर उसके

ाथ से बंदक़ े बंदक़ ू न ीं छीन लेत? ू

दो की जान

ी तो चलायेगा? चलाने दो। एक या

ी तो जायगी? जाने दो।

मगर दे वीजी मर जाने को श्जतना आसान समझती थीं और लोग न समझते थे। कोई आदमी बा र नकलने की किर ह म्मत करे और पठान ग़स् ु से में आकर दस-पाूँच िैर कर दे , तो य ाूँ सफ़ाया

ो जायगा। ब ु त ोगा, पुसलस उसे िाूँसी भी क्या ठीक। एक बड़े क़बीले का सरदार ै । उसे िाूँसी

की सज़ा दे दे गी। व

दे ते ु ए सरकार भी सोच-ववचार करे गी। ऊपर से दबाव पड़ेगा। राजनी त के सामने न्याय को कौन पछ ू ता ै । मारे ऊपर उलटे मक़ ु दमे दायर ो जायूँ और दं डकारी पुसलस बबठा दी जाय, तो आकचयद न ीं; ककतने मज़े से

ूँसी-मज़ाक़



र ा था। अब तक ड्रामा का आनन्द उठाते

ोते। इस शैतान ने आकर एक नयी

ववपश्त्त खड़ी कर दी, और ऐसा जान पड़ता

ै , बबना दो-एक ख़ून ककये मानेगा

भी न ीं।

खन्ना ने मालती को िटकारा -- दे वीजी, आप तो

में ऐसा लताड़ र ी

ैं मानो

अपनी प्राण रक्षा करना कोई पाप

प्राणी-मात्र में

ै और

म लोगों में भी सस्ती समझती

ै , प्राण का मो

ो, तो कोई लज्जा की बात न ीं। आप ैं; य

दे खकर मझ ु े खेद

ै । आपके पास मुफ़्त के एक

ख़ुद अपनी बेईज़्ज़ती करा र ी राय सा ब ने गमद

ज़ार

ोता

ै । एक

ोता

मारी जान इतनी ज़ार का

ी तो मआ ु मला

ैं , उसे दे कर क्यों न ीं बबदा कर दे तीं? आप

ैं, इसमें

मारा क्या दोष?

ोकर क ा -- अगर इसने दे वीजी को

ाथ लगाया, तो चा े

मेरी लाश य ीं तड़पने लगे , मैं उससे सभड़ जाऊूँगा। आणख़र व

भी आदमी

ी तो

ै। समरज़ा सा ब ने संदे

से ससर ह लाकर क ा -- राय सा ब, आप अभी इन सबों

के समज़ाज से वाकक़फ़ न ीं

ैं। य

िैर करना शुरू करे गा, तो किर ककसी को

श्ज़ंदा न छोड़ेगा। इनका नशाना बेखता

ोता

ै।

सम. तंखा बेचारे आनेवाले चुनाव की समस्या सल ु झने आये थे। दस-पाूँच का वारा-न्यारा करके घर जाने का स्वप्न दे ख र े थे। य ाूँ जीवन पड़ गया। बोले -- सबसे सरल उपाय व ी

ज़ार

ी सं कट में

ै , जो अभी खन्नाजी ने बतलाया। एक

ज़ार

ी की बात

कर र े

ैं?

ै और रुपए मौजद ू

ैं, तो आप लोग क्यों इतना सोच-ववचार

समस मालती ने तंखा को तरस्कार-भरी आूँखों से दे खा।

'आप लोग इतने कायर ैं , य मैं न समझती थी।' 'मैं भी य न समझता था कक आप को रुपए इतने प्यारे ैं और व भी मफ़् ु त के!' 'जब आप लोग मेरा अपमान दे ख सकते ैं , तो अपने घर की श्स्त्रयों का अपमान भी दे ख सकते

ोंगे?'

'तो आप भी पैसे के सलए अपने घर के पुरुषों को ोम करने में संकोच न करें गी।'

खान इतनी दे र तक झल्लाया

ु आ-सा इन लोगों की धगटवपट सुन र ा था। एका-एक गरजकर बोला -- अम अब नयीं मानेगा। अम इतनी दे र य ाूँ खड़ा तुम लोग कोई जवाब न ीं दे ता। (जेब से सीटी नकालकर) अम तुमको एक लम ा और दे ता

ै ; अगर तुम रुपया न ीं दे ता तो अम सीटी बजायेगा और

अमारा पचीस जवान य ाूँ आ जायगा। बस! किर आूँखों में प्रेम की ज्वाला भरकर उसने समस मालती को दे खा।

'तुम अमारे साथ चलेगा हदलदार! अम तुम् ारे ऊपर कफ़दा ो जायगा। अपना जान तम् ु ारे क़दमों पर रख दे गा। इतना आदमी तम् ु ारा आसशक़ सच्चा आसशक़ न ीं। सच्चा इकक़ क्या

ै ; मगर कोई

ै , अम हदखा दे गा। तम् ु ारा इशारा पाते

ी अम अपने सीने में खंजर चुबा सकता

ै ।'

समरज़ा ने घ घयाकर क ा -- दे वीजी, ख़द ु ा के सलए इस मज़ ू ी को रुपए दे दीश्जए।

खन्ना ने

ाथ जोड़कर याचना की --

मारे ऊपर दया करो समस मालती!

ै,

राय सा ब तनकर बोले -या तो

धगदज़ न ीं। आज जो कुछ

म ख़ुद मर जायूँगे, या इन जासलमों को

ोना

ै , ो जाने दीश्जये।

मेशा के सलए सबक़ दे दें गे।

तंखा ने राय सा ब को डाूँट बतायी -- शेर की माूँद में घुसना कोई ब ादरु ी न ीं ै । मैं इसे मख द ा समझता ू ूँ। ू त

मगर समस मालती के मनोभाव कुछ और

ी थे। खान के लालसाप्रदीप्त नेत्रों ने

उन् ें आकवस्त कर हदया था और अब इस कांड में उन् ें मनचलेपन का आनन्द आ र ा था। उनका हृदय कुछ दे र इन नरपूँग ु वों के बीच में र कर उनके बबदर प्रेम का आनन्द उठाने के सलए ललचा र ा था। सशष्ट प्रेम की दब द ता और ु ल नजीवता का उन् ें अनुभव

ो चुका था। आज अक्खड़, अनघड़ पठानों के

उन्मत्त प्रेम के सलए उनका मन दौड़ र ा था , जैसे संगीत का आनन्द उठाने के बाद कोई मस्त

ाधथयों की लड़ाई दे खने के सलए दौड़े।

उन् ोंने खाूँ सा ब के सामने जाकर नकशंक भाव से क ा -- तुम् ें रुपये न ीं समलें गे।

खान ने

ाथ बढ़ाकर क ा -- तो अम तम ु को लट ू ले जायगा।

'तुम इतने आदसमयों के बीच से में न ीं ले जा सकता।' 'अम तुमको एक ज़ार आदसमयों के बीच से ले जा सकता ै ।' 'तुमको जान से ाथ िोना पड़ेगा।' 'अम अपने माशूक़ के सलए अपने श्जस्म का एक-एक बोटी नुचवा सकता ै ।' उसने मालती का

ाथ पकड़कर खींचा। उसी वक़्त

ोरी ने कमरे में क़दम रखा।



राजा जनक का माली बना ु आ था और उसके असभनय ने दे ा तयों को ूँसाते- ूँसाते लोटा हदया था। उसने सोचा मासलक अभी तक क्यों न ीं आये। व

भी तो आकर दे खें कक दे ाती इस काम में ककतने कुशल दोस्त भी दे खें। कैसे मासलक को बुलाये? व

ोते

ैं। उनके यार-

अवसर खोज र ा था, और ज्यों ी

मु लत समली, दौड़ा ु आ य ाूँ आया; मगर य ाूँ का दृकय दे खकर भौचक्का-सा

खड़ा र

गया। सब लोग चप्ु पी सािे, थर-थर काूँपते, कातर नेत्रों से खान को दे ख

र े थे और ख़ान मालती को अपनी तरफ़ खींच र ा था। उसकी स ज बुवि ने पररश्स्थ त का अनुमान कर सलया। उसी वक़्त राय सा ब ने पक ु ारा -जल्द दौड़!

ोरी, दौड़कर जा और ससपाह यों को बल ु ा, ला

ोरी पीछे मुड़ा था कक ख़ान ने उसके सामने बंदक़ ू तानकर डाूँटा -- क ाूँ जाता

ै सअ ु र, म गोली मार दे गा।

ोरी गूँवार था। लाल पगड़ी दे खकर उसके प्राण नकल जाते थे; लेककन मस्त

साूँड़ पर लाठी लेकर वपल पड़ता था। व ी जानता था; मगर पसु लस के

कायर न था , मारना और मरना दोनों

थकंडों के सामने उसकी एक न चलती थी। बूँिे-

बूँिे कौन किरे , ररकवत के रुपए क ाूँ से लाये , बाल-बच्चों को ककस पर छोड़े; मगर जब मासलक ललकारते कूद सकता

ैं, तो किर ककसका डर। तब तो व

मौत के मूँु

में भी

ै । उसने झपटकर ख़ान की कमर पकड़ी और ऐसा अड़ंगा मारा कक

ख़ान चारों खाने धचत्त ज़मीन पर आ र े और लगे पकतों में गासलयाूँ दे ने। उनकी छाती पर चढ़ बैठा और ज़ोर से दाढ़ी पकड़कर खींची। दाढ़ी उसके आ गयी। ख़ान ने तुरन्त अपनी कुला

उतार िेंकी और ज़ोर मारकर खड़ा

ोरी ाथ में ो

गया।

अरे ! य

तो समस्टर मे ता

ैं। व ी! लोगों ने चारों तरफ़ से मे ता को घेर

सलया। कोई उनके गले लगता, कोई उनकी पीठ पर थपककयाूँ दे ता था और समस्टर मे ता के चे रे पर न ी न ीं।

ूँसी थी, न गवद; चुपचाप खड़े थे, मानो कुछ ु आ

मालती ने नक़ली रोष से क ा -- आपने य अभी तक िड़-िड़ कर र ा

ै।

ब ु रूपपन क ाूँ सीखा? मेरा हदल

मे ता ने मुस्कराते ु ए क ा -- ज़रा इन भले आदसमयों की जवाूँमदी की परीक्षा ले र ा था। जो गस् ु ताख़ी ु ई ो, उसे क्षमा कीश्जएगा। ***

7 य

असभनय जब समाप्त ु आ, तो उिर रं गशाला में िनुष-यज्ञ समाप्त ो चुका था और सामाश्जक प्र सन की तैयारी ो र ी थी; मगर इन सज्जनों को उससे ववशेष हदलचस्पी न थी। केवल समस्टर मे ता दे खने गये और आहद से अंत तक जमे र े । उन् ें बड़ा मज़ा आ र ा था। बीच-बीच में तासलयाूँ बजाते थे और 'किर क ो, किर क ो' का आग्र

करके असभनेताओं को प्रोत्सा न भी दे ते जाते थे।

राय सा ब ने इस प्र सन में एक मक़ ु दमेबाज़ दे ाती ज़मींदार का ख़ाका उड़ाया

था। क ने को तो प्र सन था; मगर करुणा से भरा ु आ। नायक का बात-बात में क़ानून की िाराओं का उल्लेख करना, पत्नी पर केवल इससलए मुक़दमा दायर कर दे ना कक उसने भोजन तैयार करने में ज़रा-सी दे र कर दी, किर वकीलों के

नख़रे और दे ाती गवा ों की चालाककयाूँ और झाूँसे , प ले गवा ी के सलए चट-पट तैयार

ो जाना; मगर इजलास पर तलबी के समय ख़ब ू मनावन कराना और

नाना प्रकार के फ़रमाइशें करके उल्लू बनाना, ये सभी दृकय दे खकर लोग मारे लोटे जाते थे। सबसे सुंदर व

ूँसी के

दृकय था, श्जसमें वकील गवा ों को उनके

बयान रटा र ा था। गवा ों का बार-बार भूलें करना, वकील का बबगड़ना, किर

नायक का दे ाती बोली में गवा ों को समझाना और अंत में इजलास पर गवा ों का बदल जाना, ऐसा सजीव और सत्य था कक समस्टर मे ता उछल पड़े और तमाशा समाप्त ोने पर नायक को गले लगा सलया और सभी नटों को एक-एक मेडल दे ने की घोषणा की। राय सा ब के प्र त उनके मन में श्रिा के भाव जाग उठे । राय सा ब स्टे ज के पीछे ड्रामे का संचालन कर र े थे। मे ता दौड़कर उनके गले सलपट गये और मुग्ि इतनी पैनी

ोकर बोले -- आपकी दृश्ष्ट

ै , इसका मझ ु े अनुमान न था।

दस ू रे हदन जलपान के बाद सशकार का प्रोग्राम था। व ीं ककसी नदी के तट पर बाग़ में भोजन बने, ख़ूब जल-क्रीड़ा की जाय और शाम को लोग घर आयूँ।

दे ाती जीवन का आनंद उठाया जाय। श्जन मे मानों को ववशेष काम था , व बबदा

ो गये, केवल वे

तो

ी लोग बच र े श्जनकी राय सा ब से घ नष्टता थी।

समसेज़ खन्ना के ससर में ददद था, न जा सकीं, और संपादकजी इस मंडली से जले

ु ए थे और इनके ववरुद्ि एक लेख-माला नकालकर इनकी ख़बर लेने के ववचार में मग्न थे। सब-के-सब छटे ु ए गुंडे ैं। राम के पैसे उड़ाते ैं और मूछों पर ताव दे ते मर र ा

ैं। द ु नया में क्या

ो र ा

ै , इन् ें क्या ख़बर। इनके पड़ोस में कौन

ै , इन् ें क्या परवा। इन् ें तो अपने भोग-ववलास से काम

जो कफ़लासफ़र बना किरता म ीने में एक

ै , उसे य ी िुन

ज़ार मार लेते

पररपूणद बनाओ। श्जसको य

ै। य

मे ता ,

ै कक जीवन को संपूणद बनाओ।

ो, तम् ु ें अश्ख़्तयार

ै , जीवन को संपण ू द बनाओ या

कफ़क्र दबाये डालती

ै कक लड़कों का ब्या

कैसे

ो,

या बीमार स्त्री के सलए वैद्य कैसे आएूँ या अब की घर का ककराया ककसके घर से आएगा, व मूँु

अपना जीवन कैसे संपूणद बनाये! छूटे साूँड़ बने दस ू रों के खेत में

मारते किरते

ो और समझते

खल ु ें गी, जब क्रां त

ो संसार में सब सुखी

ैं। तुम् ारी आूँखें तब

ोगी और तम ु से क ा जायगा -- बचा, खेत में चलकर

जोतो। तब दे खें, तुम् ारा जीवन कैसे संपूणद

ोता

ै । और व

ब त्तर घाटों का पानी पीकर भी समस बनी किरती जीवन बंिन में पड़ जाता

जो

ै मालती, जो

ै ! शादी न ीं करे गी, इससे

ै , और बंिन में जीवन का पूरा ववकास न ीं

बस जीवन का पूरा ववकास इसी में



ोता।

ै कक द ु नया को लूटे जाओ और नदणदवंद्व

ववलास ककये जाओ! सारे बंिन तोड़ दो, िमद और समाज को गोली मारो, जीवन के कतदव्यों को पास न िटकने दो, बस तुम् ारा जीवन संपूणद ज़्यादा आसान और क्या मत करो, य

बंिन

क़ानून भी तो बंिन

ो गया। इससे

ोगा। माूँ-बाप से न ीं पटती, उन् ें िता बताओ; शादी

ै ; बच्चे

ोंगे, य

मो पाश

ै ; मगर टै क्स क्यों दे ते

ै , उसे क्यों न ीं तोड़ते? उससे क्यों कन्नी काटते

ो? ो। जानते

ो न कक क़ानन ू की ज़रा भी अवज्ञा की और बेडड़याूँ पड़ जायूँगी। बस व ी बंिन

तोड़ो, श्जसमें अपनी भोग-सलप्सा में बािा न ीं पड़ती। रस्सी को साूँप बनाकर पीटो और तीस मारखाूँ बनो। जीते साूँप के पास जाओ

ी क्यों व

िूकार भी

मारे गा तो, ल रें आने लगें गी। उसे आते दे खो, तो दम ु दबाकर भागो। य सम्पूणद जीवन

ै!

तुम् ारा

आठ बजे सशकार-पाटी चली। खन्ना ने कभी सशकार न खेला था , बंदक़ ू की आवाज़ से काूँपते थे; लेककन समस मालती जा र ी थीं, व

कैसे रुक सकते थे।

समस्टर तंखा को अभी तक एलेक्शन के ववषय में बातचीत करने का अवसर न समला था। शायद व ाूँ व

अवसर समल जाय। राय सा ब अपने इस इलाक़े में

ब ु त हदनों से न ीं गये थे। व ाूँ का रं ग-ढं ग दे खना चा ते थे। कभी-कभी इलाक़े

में आने-जाने से आदसमयों से एक संबंि भी कारकून और प्यादे भी सचेत र ते

ो जाता

ै और रोब भी र ता

ै।

ैं।

समरज़ा खुशेद को जीवन के नये अनुभव प्राप्त करने का शौक़ था, ववशेषकर ऐसे, श्जनमें कुछ सा स हदखाना पड़े।

समस मालती अकेले कैसे र तीं। उन् ें तो रससकों का जमघट चाह ए। केवल समस्टर मे ता सशकार खेलने के सच्चे उत्सा

से जा र े थे।

राय सा ब की इच्छा तो थी कक भोजन की सामग्री, रसोईया, क ार, णख़दमतगार, सब साथ चलें , लेककन समस्टर मे ता ने उसका ववरोि ककया। खन्ना ने क ा -- आणख़र व ाूँ भोजन करें गे या भूखों मरें गे? मे ता ने जवाब हदया -- भोजन क्यों न करें गे, लेककन आज सारा काम करें गे। दे खना तो चाह ए कक नौकरों के बग़ैर या न ीं। समस मालती पकायूँगी और पत्तल समल

ी जाते

म लोग ख़द ु अपना

म श्ज़न्दा र

म लोग खायूँगे। दे ातों में

ैं , और ईिन की कोई कमी न ीं। सशकार

सकते

ैं

ाूँडडयाूँ और म करें गे

ी।

मालती ने धगला ककया -- क्षमा कीश्जए। आपने रात मेरी क़लाई इतने ज़ोर से पकड़ी कक अभी तक ददद

ो र ा

ै।

'काम तो म लोग करें गे, आप केवल बताती जाइएगा।' समरज़ा खुशेद बोले -- अजी आप लोग तमाशा दे खते रह एगा, मैं सारा इंतज़ाम कर दूँ ग ू ा। बात

ी कौन-सी

ै । जंगल में

ाूँडी और बतदन ढूूँढ़ना ह माक़त

ै।

ह रन का सशकार कीश्जए, भू नए, खाइए, और व ीं दरख़्त के साये में खरादटे लीश्जए। य ी प्रस्ताव स्वीक त ु आ।

दो मोटरें चलीं। एक समस मालती ड्राइव कर र ी थीं , दस ू री ख़ुद राय सा ब। कोई बीस-पचीस मील पर प ाड़ी प्रांत शुरू चली आ र ी थी। सड़क भी पें चदार

ो गया। दोनों तरफ़ ऊूँची पवदतमाला दौड़ी

ोती जाती थी। कुछ दरू की चढ़ाई के बाद

एकाएक ढाल आ गया और मोटर नीचे की ओर चली। दरू से नदी का पाट नज़र

आया, ककसी रोगी की भाूँ त दब द , नस्पंद कगार पर एक घने वटवक्ष ु ल ृ की छाूँ में कारें रोक दी गयीं और लोग उतरे । य और सशकार खेलकर बार चलने को तैयार

सला

ु ई कक दो-दो की टोली बने बजे तक य ाूँ आ जाय। समस मालती मे ता के साथ

ो गयीं। खन्ना मन में ऐंठकर र

थे, उसमें जैसे पंचर

गये। श्जस ववचार से आये

ो गया; अगर जानते, मालती दग़ा दे गी, तो घर लौट जाते;

लेककन राय सा ब का साथ उतना रोचक न

ोते ु ए भी बरु ा न था। उनसे ब ु त-सी मुआमले की बात करनी थीं। खुशेद और तंखा बच र ो। उनकी टोली बनी-बनायी थी। तीनों टोसलयाूँ एक-एक तरफ़ चल दीं।

कुछ दरू तक पथरीली पगडंडी पर मे ता के साथ चलने के बाद मालती ने क ा -- तुम तो चले

ी जाते

ो। ज़रा दम ले लेने दो।

मे ता मुस्कराये -- अभी तो

म एक मील भी न ीं आये। अभी से थक गयीं ?

'थकीं न ीं; लेककन क्यों न ज़रा दम ले लो।' 'जब तक कोई सशकार ाथ न आ जाय, में आराम करने का अधिकार न ीं।' 'मैं सशकार खेलने न आयी थी।' मे ता ने अनजान बनकर क ा -- अच्छा य

मैं न जानता था। किर क्या करने

आयी थीं?

'अब तुमसे क्या बताऊूँ।' ह रनों का एक झुंड चरता ु आ नज़र आया। दोनों एक चट्टान की आड़ में छप गये और नशाना बाूँिकर गोली चलायी। नशाना ख़ाली गया। झंड ु भाग नकला।

मालती ने पूछा -- अब?

'कुछ न ीं, चलो किर कोई सशकार समलेगा।'

दोनों कुछ दे र तक चप ु चाप चलते र े । किर मालती ने ज़रा रुककर क ा -- गमी के मारे बुरा

ाल

ो र ा

ै । आओ, इस वक्ष ृ के नीचे बैठ जायूँ।'

'अभी न ीं। तुम बैठना चा ती ो, तो बैठो। मैं तो न ीं बैठता।' 'बड़े नदद यी ो तुम, सच क ती ू ूँ।' 'जब तक कोई सशकार न समल जाय, मैं बैठ न ीं सकता।' 'तब तो तुम मुझे मार ी डालोगे। अच्छा बताओ; रात तुमने मुझे इतना क्यों सताया? मुझे तुम् ारे ऊपर बड़ा क्रोि आ र ा था। याद था? तम ु

ै , तुमने मुझे क्या क ा

मारे साथ चलेगा हदलदार? मैं न जानती थी, तम ु इतने शरीर

ो।

अच्छा, सच क ना, तम ु उस वक़्त मझ ु े अपने साथ ले जाते?' मे ता ने कोई जवाब न हदया , मानो सुना

ी न ीं। दोनों कुछ दरू चलते र े । एक

तो जेठ की िूप, दस ू रे पथरीला रास्ता। मालती थककर बैठ गयी। मे ता खड़े-खड़े बोले -- अच्छी बात

ै , तुम आराम कर लो। मैं य ीं आ जाऊूँगा।

'मझ ु े अकेले छोड़कर चले जाओगे?' 'मैं जानता ू ूँ , तुम अपनी रक्षा कर सकती ो।' 'कैसे जानते ो?' 'नये युग की दे ववयों की य ी ससफ़त ै । व मदद का आश्रय न ीं चा तीं, उससे कंिा समलाकर चलना चा ती

ैं।'

मालती ने झेंपते ु ए क ा -- तुम कोरे कफ़लासफ़र ो मे ता, सच। सामने वक्ष ृ पर एक मोर बैठा ु आ था। मे ता ने नशाना सािा और बंदक़ ू चलायी। मोर उड़ गया।

मालती प्रसन्न

ोकर बोली -- ब ु त अच्छा ु आ। मेरा शाप पड़ा।

मे ता ने बंदक़ ू कंिे पर रखकर क ा -- तम ु ने मझ ु े न ीं, अपने आपको शाप हदया। सशकार समल जाता, तो मैं तुम् ें दस समनट की मु लत दे ता। अब तो तुमको फ़ौरन चलना पड़ेगा। मालती उठकर मे ता का न ीं

ाथ पकड़ती ु ई बोली -- कफ़लासफ़रों के शायद हृदय ोता। तुमने अच्छा ककया, वववा न ीं ककया। उस ग़रीब को मार ी डालते;

मगर मैं यों न छोड़ूूँगी। तुम मुझे छोड़कर न ीं जा सकते। मे ता ने एक झटके से मालती सजलनेत्र ससर पटक दूँ ग ू ी।

ाथ छुड़ा सलया और आगे बढ़े ।

ोकर बोली -- मैं क ती ू ूँ , मत जाओ। न ीं मैं इसी चट्टान पर

मे ता ने तेज़ी से क़दम बढ़ाये। मालती उन् ें दे खती र ी। जब व

बीस क़दम

नकल गये, तो झूँुझलाकर उठी और उनके पीछे दौड़ी। अकेले ववश्राम करने में

कोई आनंद न था।

समीप आकर बोली -- मैं तुम् ें इतना पशु न समझती थी।

'मैं जो ह रन मारूूँगा, उसकी खाल तुम् ें भें ट करूूँगा।' 'खाल जाय भाड़ में । मैं अब तम ु से बात न करूूँगी।' 'क ीं म लोगों के ाथ कुछ न लगा और दस ू रों ने अच्छे सशकार मारे तो मझ ु े बड़ी झेंप ोगी।' एक चौड़ा नाला मूँु

िैलाये बीच में खड़ा था। बीच की चट्टानें उसके दाूँतों से

लगती थीं। िार में इतना वेग था कक ल रें उछली पड़ती थीं। सय ू द मध्याह्न पर आ प ु ूँचा था और उसकी प्यासी ककरणें जल में क्रीड़ा कर र ी थीं। मालती ने प्रसन्न

ोकर क ा -- अब तो लौटना पड़ा।

'क्यों? उस पार चलें गे। य ीं तो सशकार समलें गे।'

'िारा में ककतना वेग ै । मैं तो ब जाऊूँगी।' 'अच्छी बात ै । तुम य ीं बैठो, मैं जाता ू ूँ।' ' ाूँ आप जाइए। मुझे अपनी जान से बैर न ीं ै ।' मे ता ने पानी में क़दम रखा और पाूँव सािते ु ए चले। ज्यों-ज्यों आगे जाते थे, पानी ग रा ोता जाता था। य ाूँ तक कक छाती तक आ गया। मालती अिीर ो उठी। शंका से मन चंचल

ो उठा। ऐसी ववकलता तो उसे कभी न

ऊूँचे स्वर में बोली -- पानी ग रा

ोती थी।

ै । ठ र जाओ, मैं भी आती ू ूँ।

'न ीं-न ीं, तुम किसल जाओगी। िार तेज़ ै ।' 'कोई रज़ न ीं, मैं आ र ी ू ूँ। आगे न बढ़ना, ख़बरदार।' मालती साड़ी ऊपर चढ़ाकर नाले में पैठी। मगर दस

ाथ आते-आते पानी उसकी

कमर तक आ गया। मे ता घबड़ाये। दोनों

ाथ से उसे लौट जाने को क ते ु ए बोले -- तुम य ाूँ मत आओ मालती! य ाूँ तुम् ारी गदद न तक पानी ै । मालती ने एक क़दम और आगे बढ़कर क ा -कक मैं मर जाऊूँ, तो तुम् ारे पास

ी मरूूँगी।

ोने दो। तुम् ारी य ी इच्छा

मालती पेट तक पानी में थी। िार इतनी तेज़ थी कक मालम ू उखड़ा। मे ता लौट पड़े और मालती को एक

ोता था, क़दम

ाथ से पकड़ सलया।

मालती ने नशीली आूँखों में रोष भरकर क ा -- मैंने तुम् ारे -जैसे बेददद आदमी कभी न दे खा था। बबल्कुल पत्थर



ो। ख़ैर, आज सता लो, श्जतना सताते बने; मैं

भी कभी समझूँूगी।

मालती के पाूँव उखड़ते ु ए मालूम ु ए। व गयी।

बंदक़ ू सूँभालती ु ई उनसे धचमट

मे ता ने आकवासन दे ते ु ए क ा -- तम ु य ाूँ खड़ी न ीं र अपने कंिे पर बबठाये लेता ू ूँ।

सकती। मैं तम् ु ें

मालती ने भक ृ ु टी टे ढ़ी करके क ा -- तो उस पार जाना क्या इतना ज़रूरी

ै?

मे ता ने कुछ उत्तर न हदया। बंदक़ ू कनपटी से कंिे पर दबा ली और मालती को दोनों

ाथों से उठाकर कंिे पर बैठा सलया।

मालती अपनी पुलक को छपाती ु ई बोली -- अगर कोई दे ख ले?

'भय तो लगता ै ।' दो पग के बाद उसने करुण स्वर में क ा -- अच्छा बताओ, मैं य ीं पानी में डूब जाऊूँ, तो तुम् ें रं ज

ो या न

ो? मैं तो समझती ू ूँ, तुम् ें बबलकुल रं ज न

मे ता ने आ त स्वर से क ा -- तम ु समझती

ोगा।

ो, मैं आदमी न ीं ू ूँ ?

'मैं तो य ी समझती ू ूँ , क्यों छपाऊूँ।' 'सच क ती ो मालती?' 'तुम क्या समझते ो?' 'मैं! कभी बतलाऊूँगा।' पानी मे ता के गदद न तक आ गया। क ीं अगला क़दम उठाते

ी ससर तक न

आ जाय। मालती का हृदय िक-िक करने लगा। बोली, मे ता, ईकवर के सलए अब आगे मत जाओ, न ीं, मैं पानी में कूद पड़ूूँगी। उस संकट में मालती को ईकवर याद आया, श्जसका व जानती थी, ईकवर क ीं बैठा न ीं

ै जो आकर उन् ें उबार लेगा ; लेककन मन को

श्जस अवलंबन और शश्क्त की ज़रूरत थी, व कम

ोने लगा था।

मज़ाक़ उड़ाया करती थी।

और क ाूँ समल सकती थी। पानी

मालती ने प्रसन्न

ोकर क ा -- अब तम ु मझ ु े उतार दो।

'न ीं-न ीं, चुपचाप बैठी र ो। क ीं आगे कोई गढ़ा समल जाय।' 'तुम समझते ोगे, य ककतनी स्वाधथदनी ै ।' 'मुझे इसकी मज़दरू ी दे दे ना।' मालती के मन में गुदगुदी ु ई।

'क्या मज़दरू ी लोगे?' 'य ी कक जब तुम् ें जीवन में ऐसा ी कोई अवसर आय तो मुझे बुला लेना।' ककनारे आ गये। मालती ने रे त पर अपनी साड़ी का पानी नचोड़ा , जत ू े का पानी नकाला, मूँु - ाथ िोया; पर ये शब्द अपने र स्यमय आशय के साथ उसके

सामने नाचते र े ।

उसने इस अनभ ु व का आनंद उठाते ु ए क ा -- य

हदन याद र े गा।

मे ता ने पूछा -- तुम ब ु त डर र ी थीं?

'प ले तो डरी; लेककन किर मझ म दोनों की रक्षा कर ु े ववकवास ो गया कक तम ु सकते ो।' मे ता ने गवद से मालती को दे खा -- इनके मुख पर पररश्रम की लाली के साथ तेज था।

'मुझे य सुनकर ककतना आनंद आ र ा ै , तुम य समझ सकोगी मालती?' 'तम ु ने समझाया कब। उलटे और जंगलों में घसीटते किरते ो; और अभी किर

लौटती बार य ी नाला पार करना पड़ेगा। तुमने कैसी आफ़त में जान डाल दी। मुझे तुम् ारे साथ र ना पड़े, तो एक हदन न पटे ।'

मे ता मस् ु कराये। इन शब्दों का संकेत ख़ब ू समझ र े थे।

'तुम मुझे इतना दष्ु ट समझती ो! और जो मैं क ू ूँ कक तुमसे प्रेम करता ू ूँ। मुझसे वववा करोगी?' 'ऐसे काठ-कठोर से कौन वववा करे गा! रात-हदन जलाकर मार डालोगे।' और मिरु नेत्रों से दे खा, मानी क ो। इतने बुिू न ीं

मे ता ने जैसे सचेत

र ी

ो।

ो -- इसका आशय तम ु ख़ब ू समझते

ोकर क ा -- तुम सच क ती

ो मालती। मैं ककसी रमणी

को प्रसन्न न ीं रख सकता। मझ ु से कोई स्त्री प्रेम का स्वाूँग न ीं कर सकती। मैं इसके अंतस्तल तक प ु ूँच जाऊूँगा। किर मझ ु े उससे अरुधच

ो जायगी।

मालती काूँप उठी। इन शब्दों में ककतना सत्य था। उसने पूछा -- बताओ, तुम कैसे प्रेम से संतुष्ट

ोगे?

'बस य ी कक जो मन में ो, व ी मुख पर ो! मेरे सलए रं ग-रूप और ाव-भाव और नाज़ो-अंदाज़ का मूल्य इतना चा ता

ू ूँ , श्जससे आत्मा की तश्ृ प्त ज़रूरत न ीं।'



ै ; श्जतना

ोना चाह ए। मैं व

भोजन

ो। उत्तेजक और शोषक पदाथो की मुझे

मालती ने ओठ ससकोड़कर ऊपर साूँस खींचते ु ए क ा -- तुमसे कोई पेश न पायेगा। एक ी घाघ ो। अच्छा बताओ, मेरे ववषय में तम् ु ारा क्या ख़याल ै ? मे ता ने नटखटपन से मुस्कराकर क ा -- तुम सब कुछ कर सकती बुद्धिमती

कर सकती

ो, चतुर

ो, प्र तभावान

ो, दयालु

ो।

ो, स्वासभमानी

ो, त्याग

ो; लेककन प्रेम न ीं कर सकती।

मालती ने पैनी दृश्ष्ट से ताककर क ा -- झूठे तुम् ारा य

ो, चंचल

ो,

दावा नस्सार मालूम

ोता

ो तुम, बबलकुल झूठे। मुझे

ै कक तुम नारी-हृदय तक प ु ूँ च जाते

दोनों नाले के ककनारे -ककनारे चले जा र े थे। बार

बज चक ु े थे; पर अब मालती

को न ववश्राम की इच्छा थी , न लौटने की। आज के संभाषण में उसे एक ऐसा आनंद आ र ा था, जो उसके सलए बबलकुल नया था। उसने ककतने

ी ववद्वानों

और नेताओं को एक मुस्कान में , एक धचतवन में , एक रसीले वाक्य में उल्लू बनाकर छोड़ हदया था। ऐसी बालू की दीवार पर व सकती थी। आज उसे व

जीवन का आिार न ीं रख

कठोर, ठोस, पत्थर-सी भसू म समल गयी थी, जो िावड़ों

से धचनगाररयाूँ नकाल र ी थी और उसकी कठोरता उसे उत्तरोत्तर मो

लेती

थी। िायूँ की आवाज़ ु ई। एक लालसर नाले पर उड़ा जा र ा था। मे ता ने नशाना मारा। धचडड़या चोट खाकर भी कुछ दरू उड़ी, किर बीच िार में धगर पड़ी और ल रों के साथ ब ने लगी।

'अब?' 'अभी जाकर लाता ू ूँ। जाती क ाूँ ै ?' य

क ने के साथ व

रे त में दौड़े और बंदक़ ू ककनारे पर रख गड़ाप से पानी में

कूद पड़े और ब ाव की ओर तैरने लगे; मगर आि मील तक पूरा ज़ोर लगाने पर भी धचडड़या न पा सके। धचडड़या मर कर भी जैसे उड़ी जा र ी थी।

स सा उन् ोंने दे खा, एक यव ु ती ककनारे की एक झोपड़ी से नकली, धचडड़या को ब ते दे खकर साड़ी को जाूँघों तक चढ़ाया और पानी में घुस पड़ी।

एक क्षण में उसने धचडड़या पकड़ ली और मे ता को हदखाती ु ई बोली -- पानी से नकल जाओ बाबज ै। ू ी, तम् ु ारी धचडड़या य मे ता युवती की चपलता और सा स दे खकर मुग्ि ओर

ो गये। तुरंत ककनारे की

ाथ चलाये और दो समनट में युवती के पास जा खड़े ु ए। युवती का रं ग था तो काला और व भी ग रा, कपड़े ब ु त ी मैले और िू ड़ आभष ू ण के नाम पर केवल

ाथों में दो-दो मोटी चूडड़याूँ, ससर के बाल उलझे अलग-अलग। मुख-

मंडल का कोई भाग ऐसा न ीं, श्जसे सुंदर या सुघड़ क ा जा सके; लेककन उस स्वच्छ, नमदल जलवायु ने उसके कालेपन में ऐसा लावडय भर हदया था और

प्रकृ त की गोद में पलकर उसके अंग इतने सुडौल, सग ु हठत और स्वच्छन्द



गये थे कक यौवन का धचत्र खींचने के सलए उससे सुंदर कोई रूप न समलता। उसका सबल स्वास्थ्य जैसे मे ता के मन में बल और तेज भर र ा था।

मे ता ने उसे िन्यवाद दे ते ु ए क ा -- तम ु बड़े मौक़े से प ु ूँच गयीं, न ीं मझ ु े न जाने ककतनी दरू तैरना पड़ता। युवती ने प्रसन्नता से क ा -- मैंने तुम् ें तैरते आते दे खा, तो दौड़ी। सशकार खेलने आये

ोंगे ?

' ाूँ, आये तो थे सशकार ी खेलने; मगर दोप र ो गया और य ी धचडड़या समली ै।

'तें दआ मारना चा ो, तो मैं उसका ठौर हदखा दूँ ।ू रात को य ाूँ रोज़ पानी पीने ु आता

ै । कभी-कभी दोप र में भी आ जाता

ै ।'

किर ज़रा सकुचाकर ससर झक ु ाये बोली -- उसकी खाल द्वार पर। व ाूँ पीपल की छाया तो गीले

ो गये

में दे नी पड़ेगी। चलो मेरे

ै । य ाूँ िूप में कब तक खड़े र ोगे। कपड़े भी

ैं। मे ता ने उसकी दे

में धचपकी ु ई गीली साड़ी की ओर दे खकर क ा -- तुम् ारे कपड़े भी तो गीले ैं। उसने लापरवा ी से क ा -- ऊूँ िूप और पानी में खड़े र ते लड़की ककतनी समझदार

मारा क्या, म तो जंगल के

ैं। तुम थोड़े

ी र

सकते

ैं। हदन-हदन भर

ो।

ै और बबलकुल गूँवार।

'तुम खाल लेकर क्या करे गी?' ' मारे दादा बाज़ार में बेचते ैं। य ी तो मारा काम ै ।' 'लेककन दोप री य ाूँ काटें , तो तुम णखलाओगी क्या?' युवती ने लजाते ु ए क ा -- तुम् ारे खाने लायक़ मारे घर में क्या ै । मक्के की रोहटयाूँ खाओ, जो िरी ैं। धचडड़ये का सालन पका दूँ ग ू ी। तम ु बताते जाना

जैसे बनाना

ो। थोड़ा-सा दि ू भी

ै।

मारी गैया को एक बार तें दए ु ने घेरा था।

उसे सींगों से भगाकर भाग आयी, तब से तें दआ उससे डरता ु

ै।

'लेककन मैं अकेला न ीं ू ूँ। मेरे साथ एक औरत भी ै ।' 'तुम् ारी घरवाली ोगी?' 'न ीं, घरवाली तो अभी न ीं ै , जान-प चान की ै ।' 'तो मैं दौड़कर उनको बुला लाती ू ूँ। तुम चलकर छाूँ में बैठो।' 'न ीं-न ीं, मैं बल ु ा लाता ू ूँ।' 'तुम थक गये ोगे। श र का र ै या जंगल में का े आते ोंगे। म तो जंगली आदमी

ैं। ककनारे

ी तो खड़ी

जब तक मे ता कुछ बोलें , व

ोंगी।'

वा

ो गयी। मे ता ऊपर चढ़कर पीपल की छाूँ

में बैठे। इस स्वच्छं द जीवन से उनके मन में अनुराग उत्पन्न ु आ। सामने की पवदतमाला दशदन-तत्व की भाूँ त अगम्य और अत्यन्त िैली ु ई, मानो ज्ञान का ववस्तार कर र ी

ो, मानो आत्मा उस ज्ञान को, उस प्रकाश को, उस अगम्यता

को, उसके प्रत्यक्ष ववराट रूप में दे ख र ी

ो। दरू के एक ब ु त ऊूँचे सशखर पर एक छोटा-सा मंहदर था, जो उस अगम्यता में बुद्धि की भाूँ त ऊूँचा, पर खोया ु आ-सा खड़ा था, मानो व ाूँ तक पर मारकर पक्षी ववश्राम लेना चा ता ै और क ीं स्थान न ीं पाता। मे ता इन् ीं ववचारों में डूबे ु ए थे कक यव ु ती समस

मालती को साथ सलये आ प ु ूँची, एक वन-पष्ु प की भाूँ त िप ू में णखली ु ई, दस ू री गमले के िूल की भाूँ त िूप में मुरझायी और नजीव। मालती ने बेहदली के साथ क ा -- पीपल की छाूँ और य ाूँ भख ू के मारे प्राण नकले जा र े

ैं।

ब ु त अच्छी लग र ी

ै क्या?

युवती दो बड़े-बड़े मटके उठा लायी और बोली -- तुम जब तक य ीं बैठो, मैं अभी दौड़कर पानी लाती ू ूँ, किर चूल् ा जला दूँ ग ू ी; और मेरे

ाथ का खाओ, तो मैं

एक छन में बोहटयाूँ सेंक दूँ ग ू ी, न ीं, अपने आप सेंक लेना। घर में न ीं

ै और य ाूँ क ीं कोई दक ू ान भी न ीं

ाूँ, गे ू ूँ का आटा मेरे ै कक ला दूँ ।ू

मालती को मे ता पर क्रोि आ र ा था। बोली -- तुम य ाूँ क्यों आकर पड़ र े ? मे ता ने धचढ़ाते ु ए क ा -- एक हदन ज़रा इस जीवन का आनंद भी तो उठाओ। दे खो, मक्के की रोहटयों में ककतना स्वाद ै ।

'मुझसे मक्के की रोहटयाूँ खायी ी न जायूँगी, और ककसी तर तो

नगल भी जाऊूँ

ज़म न

ोंगी। तुम् ारे साथ आकर मैं ब ु त पछता र ी ू ूँ। रास्ते-भर दौड़ा के मार डाला और अब य ाूँ लाकर पटक हदया!' मे ता ने कपड़े उतार हदये थे और केवल एक नीला जाूँ घया प ने बैठे ु ए थे। युवती को मटके ले जाते दे खा, तो उसके ाथ से मटके छीन सलये और कुएूँ पर

पानी भरने चले। दशदन के ग रे अध्ययन में भी उन् ोंने अपने स्वास्थ्य की रक्षा की थी और दोनों मटके लेकर चलते ु ए उनकी मांसल भुजाएूँ और चौड़ी छाती और मछलीदार जाूँघें ककसी यन ू ानी प्र तमा के सग ु हठत अंगों की भाूँ त उनके

परु ु षाथद का पररचय दे र ी थीं। यव ु ती उन् ें पानी खींचते ु ए अनरु ाग भरी आूँखों से दे ख र ी थी। व अब उसकी दया के पात्र न ीं, श्रिा के पात्र ो गये थे। कुआूँ ब ु त ग रा था, कोई साठ ाथ, मटके भारी थे और मे ता कसरत का अभ्यास करते र ने पर भी एक मटका खींचते-खींचते सशधथल ो गये। युवती ने दौड़कर उनके

ाथ से रस्सी छीन ली और बोली -- तुमसे न णखंचग े ा।

तुम जाकर खाट पर बैठो, मैं खींचे लेती ू ूँ। मे ता अपने परु ु षत्व का य

अपमान न स

सके। रस्सी उसके

ाथ से किर ले

ली और ज़ोर मारकर एक क्षण में दस ू रा मटका भी खींच सलया और दोनों में दोनों मटके सलए आकर झोंपड़ी के द्वार पर खड़े

ाथों

ो गये। युवती ने चटपट

आग जलायी, लालसर के पंख झुलस डाले। छुरे से उसकी बोहटयाूँ बनायीं और

चूल् े में आग जलाकर मांस चढ़ा हदया और चूल् े के दस ू रे ऐले पर कढ़ाई में दि ू उबालने लगी। और मालती भौं ें चढ़ाये , खाट पर णखन्न-मन पड़ी इस तर दृकय दे ख र ी थी मानो उसके आपरे शन की तैयारी

ो र ी

ो।



मे ता झोपड़ी के द्वार पर खड़े

ोकर , यव ु ती के ग ृ -कौशल को अनरु क्त नेत्रों से

दे खते ु ए बोले -- मुझे भी तो कोई काम बताओ, मैं क्या करूूँ? युवती ने मीठी णझड़की के साथ क ा -- तुम् ें कुछ न ीं करना पास बैठो, बेचारी ब ु त भख ू ी

ै । दि ू गरम ु आ जाता

ै , जाकर बाई के

ै , उसे वपला दे ना।

उसने एक घड़े से आटा नकाला और गूँि ू ने लगी। मे ता उसके अंगों का ववलास दे खते र े । युवती भी र -र कर उन् ें कनणखयों से दे खकर अपना काम करने लगती थी।

मालती ने पुकारा -- तुम व ाूँ क्या खड़े आिा ससर ऐसा िटा पड़ता

ो? मेरे ससर में ज़ोर का ददद

ै , जैसे धगर जायगा।

मे ता ने आकर क ा -- मालम ू

ोता

ै , िूप लग गयी

ो र ा

ै।

ै।

'मैं क्या जानती थी, तुम मुझे मार डालने के सलए य ाूँ ला र े ो।' 'तुम् ारे साथ कोई दवा भी तो न ीं ै ?' 'क्या मैं ककसी मरीज़ को दे खने आ र ी थी , जो दवा लेकर चलती? मेरा एक दवाओं का बक्स

ै, व

सेमरी में

ै । उफ़! ससर िटा जाता

ै!'

मे ता ने उसके ससर की ओर ज़मीन पर बैठकर िीरे -िीरे उसका ससर स लाना शुरू ककया। मालती ने आूँखें बन्द कर लीं। युवती

सारी दे

ाथों में आटा भरे , ससर के बाल बबखेरे, आूँखें िुएूँ से लाल और सजल,

पसीने में तर, श्जससे उसका उभरा ु आ वक्ष साफ़ झलक र ा था, आकर खड़ी ो गयी और मालती को आूँखें बन्द ककये पड़ी दे खकर बोली -- बाई को क्या

ो गया

ै?

मे ता बोले -- ससर में बड़ा ददद

'पूरे ससर में ै कक आिे में ?'

ै।

'आिे में बतलाती ैं।' 'दाईं ओर ै , कक बाईं ओर?' 'बाईं ओर।' 'मैं अभी दौड़ के एक दवा लाती ू ूँ। घसकर लगाते ी अच्छा ो जायगा।' 'तुम इस िूप में क ाूँ जाओगी?' युवती ने सुना

ी न ीं। वेग से एक ओर जाकर प ाडड़यों में छप गयी। कोई

आिा घंटे बाद मे ता ने उसे ऊूँची प ाड़ी पर चढ़ते दे खा। दरू से बबलकुल

गुडड़या-सी लग र ी थी। मन में सोचा -- इस जंगली छोकरी में सेवा का ककतना भाव और ककतना व्याव ाररक ज्ञान जा र ी

ै।

ै । लू और िूप में आसमान पर चढ़ी चली

मालती ने आूँखें खोलकर दे खा -- क ाूँ गयी व आबनूस का कंु दा

कलूटी। ग़ज़ब की काली

ो। इसे भेज दो, राय सा ब से क

ै , जैसे

आये , कार य ाूँ भेज दें ।

इस तवपश में मेरा दम नकल जायगा।

'कोई दवा लेने गयी ै । क ती ै , उससे आिा-सीसी का ददद ब ु त जल्द आराम ो जाता ै !' 'इनकी दवाएूँ इन् ीं को फ़ायदा करती ैं , मझ ु े न करें गी। तम ु तो इस छोकरी पर लट्टू

ो गये

ो। ककतने छछोरे

ो। जैसी रू

मे ता को कटु सत्य क ने में संकोच न

वैसे फ़ररकते!'

ोता था।

'कुछ बातें तो उसमें ऐसी ैं कक अगर तुम में ोतीं, तो तुम सचमुच दे वी ो जातीं।'

'उसकी ख़बू बयाूँ उसे मब ु ारक, मझ ु े दे वी बनने की इच्छा न ीं ै ।'

'तम् ु ारी इच्छा ो, तो मैं जाकर कार लाऊूँ, यद्यवप कार य ाूँ आ भी सकेगी, मैं न ीं क

सकता।'

'उस कलूटी को क्यों न ीं भेज दे त?े ' 'व तो दवा लेने गयी ै , किर भोजन पकायेगी।' 'तो आज आप उसके मे मान ैं। शायद रात को भी य ीं र ने का ववचार ोगा। रात को सशकार भी तो अच्छा समलते

ैं।'

मे ता ने इस आक्षेप से धचढ़कर क ा -- इस युवती के प्र त मेरे मन में जो प्रेम और श्रद्िा

ै, व

ऐसी

ै कक अगर मैं उसकी ओर वासना से दे खूूँ तो आूँखें िूट

जायूँ। मैं अपने ककसी घ नष्ट समत्र के सलए भी इस िप ू और लू में उस ऊूँची प ाड़ी पर न जाता। और व

म केवल घड़ी-भर के मे मान

ैं , य



जानती

ै।

ककसी ग़रीब औरत के सलए भी इसी तत्परता से दौड़ जायगी। मैं ववकव-

बंिुत्व और ववकव-प्रेम पर केवल लेख सलख सकता ू ूँ, केवल भाषण दे सकता ू ूँ; व उस प्रेम और त्याग का व्यव ार कर सकती ै । क ने से करना क ीं कहठन ै । इसे तम ु भी जानती

ो।

मालती ने उप ास भाव से क ा -- बस-बस, व वक्ष में उभार

ै , नतम्बों में भारीपन

ै , दे वी

दे वी

ै । मैं मान गयी। उसके

ोने के सलए और क्या चाह ए।

मे ता तलसमला उठे । तुरंत उठे , और कपड़े प ने जो सूख गये थे, बंदक़ ू उठायी और चलने को तैयार ु ए।

मालती ने िुंकार मारी -- तुम न ीं जा सकते, मुझे अकेली छोड़कर।

'तब कौन जायगा?' 'व ी तुम् ारी दे वी।'

मे ता

तबद् ु धि-से खड़े थे। नारी परु ु ष पर ककतनी आसानी से ववजय पा सकती

ै , इसका आज उन् ें जीवन में प ला अनुभव ु आ। व दौड़ी र ी थी। व ी कलूटी युवती, ाथ में एक झाड़ सलये ु ए।

ाूँिती चली आ

समीप जाकर मे ता को क ीं जाने को तैयार दे खकर बोली -- मैं व

जड़ी खोज

लायी। अभी घसकर लगाती ू ूँ; लेककन तुम क ाूँ जा र े ो। मांस तो पक गया ोगा, मैं रोहटयाूँ सेंक दे ती ू ूँ। दो-एक खा लेना। बाई दि ू पी लेगी। ठं डा ो जाय, तो चले जाना।

उसने नस्संकोच भाव से मे ता के अचकन की बटनें खोल दीं। मे ता अपने को ब ु त रोके ु ए थे। जी

ोता था, इस गूँवाररन के चरणों को चूम लें ।

मालती ने क ा -- अपनी दवाई र ने दो। नदी के ककनारे , बरगद के नीचे मोटरकार खड़ी

ै । व ाूँ और लोग

जा।

मारी

ोंगे। उनसे क ना , कार य ाूँ लायें। दौड़ी ु ई

यव ु ती ने दीन नेत्रों से मे ता को दे खा। इतनी मे नत से बट ू ी लायी, उसका य

अनादर। इस गूँवाररन की दवा इन् ें न ीं जूँ ची, तो न स ी, उसका मन रखने को ी ज़रा-सी लगवा लेतीं, तो क्या

ोता।

उसने बूटी ज़मीन पर रखकर पूछा -- तब तक तो चूल् ा ठं डा

ो जायगा बाईजी।

क ो तो रोहटयाूँ सेंककर रख दूँ ।ू बाबज ू ी खाना खा लें , तम ु दि ू पी लो और दोनों जने आराम करो। तब तक मैं मोटरवाले को बुला लाऊूँगी। व

झोपड़ी में गयी, बुझी ु ई आग किर जलायी। दे खा तो मांस उबल गया था। कुछ जल भी गया था। जल्दी-जल्दी रोहटयाूँ सेंकी, दि ू गमद था, उसे ठं डा ककया और एक कटोरे में मालती के पास लायी। मालती ने कटोरे के भें पन पर मूँु

बनाया; लेककन दि ू त्याग न सकी। मे ता झोपड़ी के द्वार पर बैठकर एक थाली में मांस और रोहटयाूँ खाने लगे। युवती खड़ी पंखा झल र ी थी।

मालती ने युवती से क ा -- उन् ें खाने दे । क ीं भागे न ीं जाते गाड़ी ला।

ैं। तू जाकर

यव ु ती ने मालती की ओर एक बार सवाल की आूँखों से दे खा, य ैं। इनका आशय क्या

क्या चा ती

ै ? उसे मालती के चे रे पर रोधगयों की-सी नम्रता और

कृ तज्ञता और याचना न हदखायी दी। उसकी जग

असभमान और प्रमाद की

झलक थी।

गूँवाररन मनोभावों के प चानने में चतुर थी। बोली -- मैं ककसी की लौंडी न ीं ू ूँ बाईजी! तुम बड़ी ो, अपने घर की बड़ी ो। मैं तुमसे कुछ माूँगने तो न ीं जाती। मैं गाड़ी लेने न जाऊूँगी।

मालती ने डाूँटा -- अच्छा, तूने गुस्ताख़ी पर कमर बाूँिी! बता तू ककसके इलाक़े में र ती

ै?

'य राय सा ब का इलाक़ा ै । ' 'तो तुझे उन् ीं राय सा ब के ाथों ं टरों से वपटवाऊूँगी।' 'मझ ु े वपटवाने से तम् ु ें सख ु समले तो वपटवा लेना बाईजी! कोई रानी-म ारानी थोड़ी ू ूँ कक लस्कर भेजनी पड़ेगी।' मे ता ने दो-चार कौर नगले थे कक मालती की य अटक गया। जल्दी से मालती भी खड़ी

ाथ िोया और बोले -- व

बातें सुनीं। कौर कंठ में

न ीं जायगी। मैं जा र ा ू ूँ।

ो गयी -- उसे जाना पड़ेगा।

मे ता ने अूँग्रेज़ी में क ा -- उसका अपमान करके तुम अपना सम्मान बढ़ा न ीं र ी

ो मालती!

मालती ने िटकार बतायी -- ऐसी और कोई गण ु

ो या न

ी लौंडडयाूँ मदो को पसंद आती

ो, उनकी ट ल दौड़-दौड़कर प्रसन्न मन से करें और

अपना भाग्य सरा ें कक इस पुरुष ने मुझसे य दे ववयाूँ

ैं, शश्क्तयाूँ

कम न ीं

ैं , श्जनमें

ैं, ववभू तयाूँ

काम करने को तो क ा। व

ैं। मैं समझती थी, व

पुरुषत्व तुममें कम-से-

ै ; लेककन अंदर से, संस्कारों से, तुम भी व ी बबदर

ो।

मे ता मनोववज्ञान के पंडडत थे। मालती के मनोर स्यों को समझ र े थे। ईष्याद का ऐसा अनोखा उदा रण उन् ें कभी न समला था। उस रमणी में , जो इतनी मद ृ -ु स्वभाव, इतनी उदार, इतनी प्रसन्नमुख थी, ईष्याद की ऐसी प्रचंड ज्वाला!

बोले -- कुछ भी क ो, मैं उसे न जाने दूँ ग ू ा। उसकी सेवाओं और कवपओं का य पुरस्कार दे कर मैं अपनी नज़रों में नीच न ीं बन सकता।

मे ता के स्वर में कुछ ऐसा तेज था कक मालती िीरे से उठी और चलने को तैयार

ो गयी। उसने जलकर क ा -- अच्छा, तो मैं

चरणों की पूजा करके पीछे आना।

ी जाती ू ूँ, तम ु उसके

मालती दो-तीन क़दम चली गयी, तो मे ता ने युवती से क ा -- अब मुझे आज्ञा दो ब न; तम् ु ारा य दोनों

ने , तम् ु ारी नःस्वाथद सेवा

ाथों से, सजलनेत्र

मेशा याद र े गी। यव ु ती ने

ोकर उन् ें प्रणाम ककया और झोपड़ी के अंदर चली

गयी।

दस ू री टोली राय सा ब और खन्ना की थी। राय सा ब तो अपने उसी रे शमी

कुरते और रे शमी चादर में थे। मगर खन्ना ने सशकारी सूट डाटा था, जो शायद आज

ी के सलए बनवाया गया था; क्योंकक खन्ना को असासमयों के सशकार से

इतनी फ़ुरसत क ाूँ थी कक जानवरों का सशकार करते। खन्ना हठं गने, इक रे ,

रूपवान आदमी थे; गे ु ूँआ रं ग, बड़ी-बड़ी आूँखें, मूँु पर चेचक के दाग़; बात-चीत में बड़े कुशल। कुछ दरू चलने के बाद खन्ना ने समस्टर मे ता का श्ज़क्र छे ड़ हदया जो कल से

ी उनके मश्स्तष्क में रा ु की भाूँ त समाये ु ए थे। बोले -- य मे ता भी कुछ अजीब आदमी ै । मुझे तो कुछ बना ु आ मालूम ोता ै ।

राय सा ब मे ता की इज़्ज़त करते थे और उन् ें सच्चा और नष्कपट आदमी समझते थे; पर खन्ना से लेन-दे न का व्यव ार था, कुछ स्वभाव से शां त-वप्रय भी थे, ववरोि न कर सके।

बोले -- मैं तो उन् ें केवल मनोरं जन की वस्तु समझता ू ूँ। कभी उनसे ब स न ीं करता। और करना भी चा ू ूँ तो उतनी ववद्या क ाूँ से लाऊूँ। श्जसने जीवन के क्षेत्र में कभी क़दम

ी न ीं रखा, व

अगर जीवन के ववषय में कोई नया

ससद्िांत अलापता िटकारते

ैं तो मझ ु े उस पर

ूँसी आती

ै । मज़े से एक

ैं , न जोरू न जाूँता, न कोई धचंता न बािा, व

ज़ार मा वार

दशदन न बघारें , तो कौन

बघारे ? आप नद्वंद्व र कर जीवन को संपूणद बनाने का स्वप्न दे खते

ैं। ऐसे

आदमी से क्या ब स की जाय।

'मैंने सुना चररत्र का अच्छा न ीं ै ।' 'बेकफ़क्री में चररत्र अच्छा र

ी कैसे सकता

ै । समाज में र ो और समाज के

कतदव्यों और मयाददाओं का पालन करो तब पता चले!'

'मालती न जाने क्या दे खकर उन पर लट्टू ु ई जाती ै ।' 'मैं समझता ू ूँ, व केवल तम् ु ें जला र ी ै ।' 'मुझे व क्या जलायेंगी। बेचारी। मैं उन् ें णखलौने से ज़्यादा न ीं समझता।' 'य तो न क ो समस्टर खन्ना, समस मालती पर जान तो दे ते ो तुम।' 'यों तो मैं आपको भी य ी इलज़ाम दे सकता ू ूँ।' 'मैं सचमुच णखलौना समझता ू ूँ। आप उन् ें प्र तमा बनाये ु ए ैं।' खन्ना ने ज़ोर से क़ क़ ा मारा, ालाूँकक

ूँसी की कोई बात न थी!

'अगर एक लोटा जल चढ़ा दे ने से वरदान समल जाय, तो क्या बुरा ै ।' अबकी राय सा ब ने ज़ोर से क़ क़ ा मारा, श्जसका कोई प्रयोजन न था।

'तब आपने उस दे वी को समझा ी न ीं। आप श्जतनी ी उसकी पूजा करें ग,े उतना

ी व

ओर दौड़ेगी।'

आप से दरू भागेगी। श्जतना

ी दरू भाधगयेगा, उतना

'तब तो उन् ें आपकी ओर दौड़ना चाह ए था। '

ी आपकी

'मेरी ओर! मैं उस रससक-समाज से बबलकुल बा र ू ूँ समस्टर खन्ना, सच क ता ू ूँ। मुझ में श्जतनी बुद्धि, श्जतना बल ैं व इस इलाक़े के प्रबंि में ी ख़चद ो जाता

ै । घर के श्जतने प्राणी

ैं , सभी अपनी-अपनी िुन में मस्त; कोई उपासना

में , कोई ववषय-वासना में । कोऊ का ू में मगन, कोऊ का ू में मगन। और इन सब अजगरों को भक्ष्य दे ना मेरा काम ैं कतदव्य ै । मेरे ब ु त से ताल्लुक़ेदार भाई भोग-ववलास करते ैं , य सब मैं जानता ू ूँ। मगर व लोग घर िूँू ककर तमाशा दे खते

ैं। क़रज़ का बोझ ससर पर लदा जा र ा

ैं। श्जससे लेते

ैं रोज़ डडधग्रयाूँ

ो र ी

ैं, उसे दे ना न ीं जानते, चारों तरफ़ बदनाम। मैं तो ऐसी श्ज़ंदगी

से मर जाना अच्छा समझता ू ूँ। मालूम न ीं, ककस संस्कार से मेरी आत्मा में ज़रा-सी जान बाक़ी र गयी, जो मुझे दे श और समाज के बंिन में बाूँिे ु ए ै । सत्याग्र -आंदोलन छड़ा। मेरे सारे भाई शराब-क़बाब में मस्त थे। मैं अपने को न रोक सका। जेल गया और लाखों रुपए की ज़ेरबारी उठाई और अभी तक उसका तावान दे र ा ू ूँ। मुझे उसका पछतावा न ीं ै । बबलकुल न ीं। मुझे उसका गवद ै । मैं उस आदमी को आदमी न ीं समझता , जो दे श और समाज की भलाई के सलए उद्योग न करे और बसलदान न करे । मुझे क्या अच्छा लगता



कक नजीव ककसानों का रक्त चस ू ूँू और अपने पररवारवालों की वासनाओं की

तश्ृ प्त के सािन जुटाऊूँ; मगर करूूँ क्या? श्जस व्यवस्था में पला और श्जया, उससे घण ृ ा

ोने पर भी उसका मो

त्याग न ीं सकता और उसी चरखे में रात-हदन

पड़ा र ता ू ूँ कक ककसी तर इज़्ज़त-आबरू बची र े , और आत्मा की त्या न ोने पाये। ऐसा आदमी समस मालती क्या, ककसी भी समस के पीछे न ीं पड़ सकता, और पड़े तो उसका सवदनाश दस ू री बात

ी समणझये।

ाूँ, थोड़ा-सा मनोरं जन कर लेना

ै।

समस्टर खन्ना भी सा सी आदमी थे, संग्राम में आगे बढ़नेवाले। दो बार जेल



आये थे। ककसी से दबना न जानते थे। खद्दर न प नते थे और फ़्ांस की शराब पीते थे। अवसर पड़ने पर बड़ी-बड़ी तकलीफ़ें झेल सकते थे। जेल में शराब छुई

तक न ीं, और ए. क्लास में र कर भी सी. क्लास की रोहटयाूँ खाते र े , ालाूँकक, उन् ें

र तर

का आराम समल सकता था; मगर रण-क्षेत्र में जानेवाला रथ भी तो

बबना तेल के न ीं चल सकता। उनके जीवन में थोड़ी-सी रससकता लाश्ज़मा थी।

बोले -- आप संन्यासी बन सकते जो भोगी न ीं

ैं व

ैं , मैं तो न ीं बन सकता। मैं तो समझता ू ूँ, संग्राम में भी पूरे उत्सा से न ीं जा सकता। जो रमणी से

प्रेम न ीं कर सकता, उसके दे श-प्रेम में मुझे ववकवास न ीं।

राय सा ब मस् ु कराये -- आप मझ ु ी पर आवाज़ें कसने लगे।

'आवाज़ न ीं ैं तत्व की बात ै ।' 'शायद ो।' 'आप अपने हदल के अंदर पैठकर दे णखए तो पता चले।' 'मैंने तो पैठकर दे खा ैं और मैं आपको ववकवास हदलाता ू ूँ, व ाूँ और चा े श्जतनी बुराइयाूँ ों, ववषय की लालसा न ीं ै ।' 'तब मझ ु े आपके ऊपर दया आती ै । आप जो इतने दख ु ी और नराश और धचं तत ैं, इसका एकमात्र कारण आपका नग्र ै । मैं तो य नाटक खेलकर र ू ूँगा, चा े दःु खांत ी क्यों न ो! व मुझसे मज़ाक़ करती ैं हदखाती ै कक मुझे तेरी परवा न ीं ै ; लेककन मैं ह म्मत ारनेवाला मनुष्य न ीं ू ूँ। मैं अब

तक उसका समज़ाज न ीं समझ पाया। क ाूँ नशाना ठीक बैठेगा , इसका नकचय न कर सका।'

'लेककन व कंु जी आपको शायद ी समले। मे ता शायद आपसे बाज़ी मार ले जायूँ।'

एक ह रन कई ह र नयों के साथ चर र ा था, बड़े सींगोंवाला, बबलकुल काला। राय सा ब ने नशाना बाूँिा। खन्ना ने रोका -- क्यों तेज़

ो गयी

त्या करते

ो यार? बेचारा चर र ा

ैं चरने दो। िप ू

ैं आइए क ीं बैठ जायूँ। आप से कुछ बातें करनी

राय सा ब ने बन्दक़ ू चलायी; मगर ह रन भाग गया। बोले -- एक सशकार समला भी तो नशाना ख़ाली गया।

ैं।

'एक त्या से बचे।' 'आपके इलाक़े में ऊख ोती ै ?' 'बड़ी कसरत से।' 'तो किर क्यों न मारे शुगर समल में शासमल ो जाइए। ह स्से िड़ािड़ बबक र े ैं। आप ज़्यादा न ीं एक

ज़ार ह स्से ख़रीद लें ?'

'ग़ज़ब ककया, मैं इतने रुपए क ाूँ से लाऊूँगा?' 'इतने नामी इलाक़ेदार और आपको रुपयों की कमी! कुछ पचास ज़ार ी तो ोते

ैं। उनमें भी अभी २५ फ़ीसदी

ी दे ना

ै ।'

'न ीं भाई सा ब, मेरे पास इस वक़्त बबलकुल रुपए न ीं ैं।' 'रुपए श्जतने चा ें , मुझसे लीश्जए। बैंक आपका ै । ाूँ, अभी आपने अपनी श्ज़न्दगी इंकयोडद न करायी

ोगी। मेरी कम्पनी में एक अच्छी-सी पासलसी

लीश्जए। सौ-दो सौ रुपए तो आप बड़ी आसानी से इकट्ठी रक़म समल जायगी -- चालीस-पचास प्रबन्ि आप न ीं कर सकते। ससद्िांत पर काम करते

र म ीने दे सकते

ज़ार। लड़कों के सलए इससे अच्छा

मारी नयमावली दे णखए।

म पूणद स काररता के

ैं। दफ़्तर और कमदचाररयों के ख़चद के ससवा नफ़े की

एक पाई भी ककसी की जेब में न ीं जाती। आपको आकचयद से कंपनी चल कैसे र ी

ै । और मेरी सला

शुरू कर दीश्जए। य से बने

ैं और

ोगा कक इस नी त

से थोड़ा-सा स्पेकुलेशन का काम भी

जो आज सैकड़ों करोड़प त बने ु ए ैं , सब इसी स्पेकुलेशन ैं। रूई, शक्कर, गे ू ूँ , रबर ककसी श्जंस का सट्टा कीश्जए। समनटों में लाखों

का वारा-न्यारा

ोता

ै । काम ज़रा अटपटा

लेककन व ी, जो अनाड़ी

ै । ब ु त से लोग गच्चा खा जाते ैं , ैं। आप जैसे अनभ ु वी, ससु शक्षक्षत और दरू ं देश लोगों के

सलए इससे ज़्यादा नफ़े का काम

ी न ीं। बाज़ार का चढ़ाव-उतार कोई

आकश्स्मक घटना न ीं। इसका भी ववज्ञान किर क्या मजाल कक िोखा

ो जाय।'

ै । एक बार उसे ग़ौर से दे ख लीश्जए ,

राय सा ब कंप नयों पर अववकवास करते थे, दो-एक बार इसका उन् ें कड़वा अनुभव

ो भी चुका था, लेककन समस्टर खन्ना को उन् ोंने अपनी आूँखों से बढ़ते

दे खा था और उनकी कायददक्षता के क़ायल व्यश्क्त बैंक में क्लकद था, व श र में पुजता

ो गये थे। अभी दस साल प ले जो

केवल अपने अध्यवसाय, पुरुषाथद और प्र तभा से

ै । उसकी सला

की उपेक्षा न की जा सकती थी। इस ववषय में

अगर खन्ना उनके पथ-प्रदशदक

ो सकती

ो जायूँ, तो उन् ें ब ु त कुछ कामयाबी ै । ऐसा अवसर क्यों छोड़ा जाय। तर -तर के प्रकन करते र े ।

स सा एक दे ाती एक बड़ी-सी टोकरी में कुछ जड़ें, कुछ पश्त्तयाूँ, कुछ िल सलये जाता नज़र आया।

खन्ना ने पूछा -- अरे , क्या बेचता

ै?

दे ाती सकपका गया। डरा, क ीं बेगार में न पकड़ जाय। बोला -- कुछ तो न ीं मासलक! य ी घास-पात

ै।

'क्या करे गा इनका?' 'बेचूँग ू ा मासलक! जड़ी-बूटी ै ।' 'कौन-कौन सी जड़ी बूटी ैं बता?' दे ाती ने अपना औषिालय खोलकर हदखलाया। मामल ू ी चीज़ें थीं जो जंगल के आदमी उखाड़कर ले जाते आते

ैं और श र में अत्तारों के

ैं। जैसे मकोय, कंघी, स दे ईया, कुकरौंिे, ितूरे के बीज, मदार के िूल, करजे,

घमची आहद।

र-एक चीज़ हदखाता था और रटे

बयान करता जाता था। य िड़कन बीज

ाथ दो-चार आने में बेच

ो, शूल

ो, खाूँसी

ैं मासलक, गहठया

मकोय

ु ए शब्दों में उसके गुण भी ै सरकार! ताप ो , मंदाश्ग्न ो, तल्ली ो,

ो, एक खोराक में आराम ो, बाई

ो ...।

ो जाता

ै। य

ितरू े के

खन्ना ने दाम पछ ू ा -- उसने आठ आने क े । खन्ना ने एक रुपया िेंक हदया और उसे पड़ाव तक रख आने का ु क्म हदया। ग़रीब ने मूँु -माूँगा दाम पाया, उसका दग ु ुना पाया। आशीवादद दे ता चला गया। राय सा ब ने पछ ू ा -- आप य

ी न ीं

घास-पात लेकर क्या करें गे?

खन्ना ने मुस्कराकर क ा -- इनकी अशकफ़द याूँ बनाऊूँगा। मैं कीसमयागर ू ूँ। य आपको शायद न ीं मालूम।

'तो यार, व मंत्र में ससखा दो।' ' ाूँ- ाूँ, शौक़ से। मेरी शाधगदी कीश्जए। प ले सवा सेर लड्डू लाकर चढ़ाइए, तब बताऊूँगा। बात य

ै कक मेरा तर -तर

ऐसे लोग भी आते

ैं, जो जड़ी-बूहटयों पर जान दे ते

जाय कक य

के आदसमयों से साबक़ा पड़ता

ै । कुछ

ैं। उनको इतना मालूम



ककसी फ़कीर की दी ु ई बूटी ैं किर आपकी ख़ुशामद करें गे, नाक रगड़ेंगे, और आप व चीज़ उन् ें दे दें , तो मेशा के सलए आपके ऋणी ो जायूँगे। एक रुपए में अगर दस-बीस बि ु ुओं पर ए सान का नमदा कसा जा सके, तो क्या बरु ा

ै । ज़रा से ए सान से बड़े-बड़े काम नकल जाते

ैं।

राय सा ब ने कुतू ल से पूछा -- मगर इन बूहटयों के गुण आपको याद कैसे र ें गे?

खन्ना ने क़ क़ ा मारा -- आप भी राय सा ब! बड़े मज़े की बातें करते बूटी में जो गुण चा े बता दीश्जए, व तो रुपए में आठ आने ववकवास से दे खते

आपकी सलयाक़त पर मुन सर

ोती

ैं। श्जस

ै । से त

ै । आप जो इन बड़े-बड़े अफ़सरों को

ैं, और इन लम्बी पूँछ ू वाले ववद्वानों को, और इन रईसों को, ये सब

अंिववकवासी

ोते

ैं। मैं तो वनस्प त-शास्त्र के प्रोफ़ेसर को जानता ू ूँ , जो कुकरौंिे का नाम भी न ीं जानते। इन ववद्वानों का मज़ाक़ तो मारे स्वामीजी ख़ूब उड़ाते

ैं। आपको तो कभी उनके दशदन न ु ए ोंगे। अबकी आप आयेंगे, तो उनसे समलाऊूँगा। जब से मेरे बग़ीचे में ठ रे ैं , रात-हदन लोगों का ताूँता लगा र ता

ै । माया तो उन् ें छू भी न ीं गयी। केवल एक बार दि ू पीते

ैं। ऐसा

ववद्वान म ात्मा मैंने आज तक न ीं दे खा। न जाने ककतने वषद; ह मालय पर तप करते र े । पूरे ससि पुरुष

ैं। आप उनसे अवकय दीक्षा लीश्जए। मुझे ववकवास

ैं आपकी य

सारी कहठनाइयाूँ छूमंतर

भूत-भववष्य सब क ै । ताज्जुब तो य

ो जायूँगी। आपको दे खते

सुनायेंगे। ऐसे प्रसन्नमुख

ैं कक दे खते

ै कक ख़ुद इतने बड़े म ात्मा

ी आपका

ी मन णखल उठता

ैं; मगर संन्यास और त्याग

मंहदर और मठ, संप्रदाय और पंथ, इन सबको ढोंग क ते

ैं , पाखंड क ते

ैं ,

रूहढ़यों के बंिन को तोड़ो और मनुष्य बनो, दे वता बनने का ख़याल छोड़ो। दे वता बनकर तम ु मनष्ु य न र ोगे।

राय सा ब के मन में शंका ु ई। म ात्माओं में उन् ें भी व ववकवास था, जो प्रभुता-वालों में आम तौर पर ोता ै । दख ु ी प्राणी को आत्मधचंतन में जो शां त समलती नराश

ै । उसके सलए व

भी लाला यत र ते थे। जब आधथदक कहठनाइयों से

ो जाते, मन में आता, संसार से मूँु

की धचंता करें । संसार के बंिनों को व

मोड़कर एकांत में जा बैठें और मोक्ष

भी सािारण मनुष्यों की भाूँ त

आत्मोन्न त के मागद की बािाएूँ समझते थे और इनसे दरू

ो जाना

ी उनके

जीवन का भी आदशद था; लेककन संन्यास और त्याग के बबना बंिनों को तोड़ने का और क्या उपाय

ै?

'लेककन जब व संन्यास को ढोंग क ते ैं , तो ख़ुद क्यों संन्यास सलया ै ?' 'उन् ोंने संन्यास कब सलया ै सा ब, व तो क ते ैं -- आदमी को अंत तक काम करते र ना चाह ए। ववचार-स्वातंत्र्य उनके उपदे शों का तत्व

ै।'

'मेरी समझ में कुछ न ीं आ र ा ै । ववचार-स्वातंत्र्य का आशय क्या ै ?' 'समझ में तो मेरे भी कुछ न ीं आता, अबकी आइए, तो उनसे बातें ों। व प्रेम को जीवन का सत्य क ते मुग्ि

ो जाता

ै ।'

ैं। और इसकी ऐसी सुंदर व्याख्या करते

'समस मालती को उनसे समलाया या न ीं ?' 'आप भी हदल्लगी करते ैं। मालती को भला इनसे क्या समलता...। '

ैं कक मन

वाक्य परू ा न ु आ था कक व सामने झाड़ी में सरसरा ट की आवाज़ सन ु कर चौंक पड़े और प्राण-रक्षा की प्रेरणा से राय सा ब के पीछे आ गये। झाड़ी में से एक तें दआ नकला और मंद ग त से सामने की ओर चला। ु राय सा ब ने बंदक़ ू उठायी और नशाना बाूँिना चा ते थे कक खन्ना ने क ा -य

क्या करते

ैं आप? ख़्वा मख़्वा

उसे छे ड़ र े

ैं। क ीं लौट पड़े तो ?

'लौट क्या पड़ेगा, व ीं ढे र ो जायगा।' 'तो मुझे उस टीले पर चढ़ जाने दीश्जए। मैं सशकार का ऐसा शौक़ीन न ीं ू ूँ।' 'तब क्या सशकार खेलने चले थे?' 'शामत और क्या।' राय सा ब ने बंदक़ ू नीचे कर ली।

'बड़ा अच्छा सशकार नकल गया। ऐसे अवसर कम समलते ैं।' 'मैं तो अब य ाूँ न ीं ठ र सकता। ख़तरनाक जग

ै।'

'एकाि सशकार तो मार लेने दीश्जए। ख़ाली ाथ लौटते शमद आती ै । ' 'आप मुझे कृपा करके कार के पास प ु ूँचा दीश्जए, किर चा े तें दए ु का सशकार कीश्जए या चीते का।' 'आप बड़े डरपोक ैं समस्टर खन्ना, सच।' 'व्यथद में अपनी जान ख़तरे में डालना ब ादरु ी न ीं ै ।' 'अच्छा तो आप ख़श ु ी से लौट सकते ैं।' 'अकेला?' 'रास्ता बबलकुल साफ़ ै ।'

'जी न ीं। आपको मेरे साथ चलना पड़ेगा।' राय सा ब ने ब ु त समझाया; मगर खन्ना ने एक न मानी। मारे भय के उनका चे रा पीला पड़ गया था। उस वक़्त अगर झाड़ी में से एक धगल री भी नकल आती, तो व

चीख़ मारकर धगर पड़ते। बोटी-बोटी काूँप र ी थी। पसीने से तर

गये थे! राय सा ब को लाचार

ोकर उनके साथ लौटना पड़ा।

जब दोनों आदमी बड़ी दरू नकल आये , तो खन्ना के ख़तरे से न ीं डरता; लेककन ख़तरे के मूँु

ोश हठकाने आये। बोले --

में उूँ गली डालना ह माक़त

ै।

'अजी जाओ भी। ज़रा-सा तें दआ दे ख सलया, तो जान नकल गयी।' ु 'मैं सशकार खेलना उस ज़माने का संस्कार समझता ू ूँ, जब आदमी पशु था। तब से संस्कृ त ब ु त आगे बढ़ गयी ै ।' 'मैं समस मालती से आपकी क़लई खोलूँ ग ू ा।' 'मैं अह स ं ावादी ोना लज्जा की बात न ीं समझता।' 'अच्छा, तो य आपका अह स ं ावाद था। शाबाश!' खन्ना ने गवद से क ा -- जी के नाम पर गवद करते चाह ए, न कक मुझ।े



ाूँ, य

मेरा अह स ं ावाद था। आप बद् ु ि और शंकर

ैं और पशुओं की

त्या करते

ैं , लज्जा आपको आनी

कुछ दरू दोनों किर चुपचाप चलते र े । तब खन्ना बोले -- तो आप कब तक आयूँगे? मैं चा ता ू ूँ , आप पासलसी का फ़ामद आज ी भर दें और शक्कर के ह स्सों का भी। मेरे पास दोनों फ़ामद भी मौजूद ैं। राय सा ब ने धचं तत स्वर में क ा -- ज़रा सोच लेने दीश्जए।

'इसमें सोचने की ज़रूरत न ीं।'

तीसरी टोली समरज़ा खुशेद और समस्टर तंखा की थी। समरज़ा खुशेद के सलए भूत और भववष्य सादे काग़ज़ की भाूँ त था। व

वतदमान में र ते थे। न भूत का

पछतावा था, न भववष्य की धचंता। जो कुछ सामने आ जाता था, उसमें जी-जान से लग जाते थे। समत्रों की मंडली में व

ववनोद के पत ु ले थे। कौंससल में उनसे

ज़्यादा उत्सा ी में बर कोई न था। श्जस प्रकन के पीछे पड़ जाते, सम नस्टरों को

रुला दे त।े ककसी के साथ ररयायत करना न ीं जानते थे। बीच-बीच में परर ास भी करते जाते थे। उनके सलए आज जीवन था, कल का पता न ीं। ग़स् ु सेवर भी

ऐसे थे कक ताल ठोंककर सामने आ जाते थे। नम्रता के सामने दं डवत करते थे ; लेककन ज ाूँ ककसी ने शान हदखायी और य

ाथ िोकर उसके पीछे पड़े। न

अपना लेना याद रखते थे, न दस ू रों का दे ना। शौक़ था शायरी का और शराब

का। औरत केवल मनोरं जन की वस्तु थी। ब ु त हदन ु ए हृदय का हदवाला नकाल चुके थे। समस्टर तंखा दाूँव-पें च के आदमी थे, सौदा पटाने में , मुआमला सुलझाने में , अड़ंगा लगाने में , बालू से तेल नकालने में, गला दबाने में, दम ु

झाड़कर नकल जाने में बड़े ससद्ि स्त। कह ये रे त में नाव चला दें , पत्थर पर दब ू उगा दें । ताल्लुक़ेदारों को म ाजनों से क़रज़ हदलाना, नयी कंप नयाूँ खोलना, चुनाव के अवसर पर उम्मेदवार खड़े करना, य ी उनका व्यवसाय था। ख़ासकर चुनाव के समय उनकी तक़दीर चमकती थी। ककसी पोढ़े उम्मेद-वार को खड़ा करते, हदलोज़ान से उसका काम करते और दस-बीस

ज़ार बना लेत।े जब काूँग्रेस

का ज़ोर था काूँग्रेस के उम्मेदवारों के स ायक थे। जब सां प्रदा यक दल का ज़ोर ं स ू भा की ओर से काम करने लगे; मगर इस उलट-िेर के समथदन के ु आ, तो ह द सलए उनके पास ऐसी दलीलें थीं कक कोई उूँ गली न हदखा सकता था। श र के सभी रईस, सभी ु क्काम, सभी अमीरों से उनका याराना था। हदल में चा े लोग उनकी नी त पसंद न करें ; पर व स्वभाव के इतने नम्र थे कक कोई मूँु पर कुछ न क

सकता था।

समरज़ा खुशेद ने रूमाल से माथे का पसीना पोंछकर क ा -- आज तो सशकार खेलने के लायक़ हदन न ीं

ै । आज तो कोई मुशायरा

वकील ने समथदन ककया -- जी

ोना चाह ए था।

ाूँ, व ीं बाग़ में । बड़ी ब ार र े गी। थोड़ी दे र के

बाद समस्टर तंखा ने मामले की बात छे ड़ी।

'अबकी चन ु ाव में बड़े-बड़े गल ु णखलें गे। आपके सलए भी मश्ु ककल ै ।' समरज़ा ववरक्त मन से बोले -- अबकी मैं खड़ा

ी न ू ूँगा।

तंखा ने पूछा -- क्यों? मुफ़्त की बकबक कौन करे । फ़ायदा

ी क्या! मुझे अब

इस डेमाक्रेसी में भश्क्त न ीं र ी। ज़रा-सा काम और म ीनों की ब स। जनता की आूँखों में िूल झोंकने के सलए अच्छा स्वाूँग ै कक एक गवनदर र े , चा े व

ह द ं स् ु तानी

इंश्जन श्जस गाड़ी को बड़े मज़े से

ाूँ,

ै । इससे तो क ीं अच्छा

ो, या अूँग्रेज़, इससे ब स न ीं। एक

ज़ारों मील खींच ले जा सकता

ैं उसे दस

ज़ार आदमी समलकर भी उतनी तेज़ी से न ीं खींच सकते। मैं तो य

सारा

तमाशा दे खकर कौंससल से बेज़ार

ो गया ू ूँ। मेरा बस चले, तो कौंससल में आग म डेमाक्रेसी क ते ैं, व व्यव ार में बड़े-बड़े व्यापाररयों और

लगा दूँ ।ू श्जसे

ज़मींदारों का राज्य पास रुपए

ैं और कुछ न ीं। चुनाव में व ी बाज़ी ले जाता

ैं। रुपए के ज़ोर से उसके सलए सभी सवु विाएूँ तैयार

ैं श्जसके

ो जाती

ैं।

बड़े-बड़े पंडडत, बड़े-बड़े मौलवी, बड़े-बड़े सलखने और बोलनेवाले, जो अपनी ज़बान और क़लम से पश्ब्लक को श्जस तरफ़ चा ें िेर दें , सभी सोने के दे वता के पैरों पर माथा रगड़ते

ैं। मैंने तो इरादा कर सलया

ैं अब एलेक्शन के पास न

जाऊूँगा! मेरा प्रोपेगंडा अब डेमाक्रेसी के णख़लाफ़

ोगा।'

समरज़ा सा ब ने कुरान की आयतों से ससद्ि ककया कक पुराने ज़माने के बादशा ों के आदशद ककतने ऊूँचे थे। आज तो सकते।

म उसकी तरफ़ ताक भी न ीं

मारी आूँखों में चकाचौंि आ जायगी। बादशा

भी नजी ख़चद में लाने का अधिकार न था। व

को ख़ज़ाने की एक कौड़ी

ककताबें नक़ल करके , कपड़े

सीकर, लड़कों को पढ़ाकर अपना गुज़र करता था। समरज़ा ने आदशद म ीपों की एक लम्बी सूची धगना दी। क ाूँ तो व

प्रजा को पालनेवाला बादशा , और क ाूँ

आजकल के मन्त्री और सम नस्टर, पाूँच, छः, सात, आठ चाह ए। य

लूट

ज़ार मा वार समलना

ै या डेमाक्तसी!

ह रनों का एक झुंड चरता ु आ नज़र आया। समरज़ा के मुख पर सशकार का जोश चमक उठा। बंदक़ ू सूँभाली और नशाना मारा। एक काला-सा ह रन धगर पड़ा। व

मारा! इस उन्मत्त ध्व न के साथ समरज़ा भी बेत ाशा दौड़े। बबलकुल

बच्चों की तर

उछलते, कूदते, तासलयाूँ बजाते। समीप

ी एक वक्ष ृ पर एक

आदमी लकडड़याूँ काट र ा था। व

भी चट-पट वक्ष ृ से उतरकर समरज़ाजी के

साथ दौड़ा। ह रन की गदद न में गोली लगी थी , उसके पैरों में कंपन

ो र ा था

और आूँखें पथरा गयी थीं। लकड़ ारे ने ह रन को करुण नेत्रों से दे खकर क ा -- अच्छा पट्ठा था, मन-भर से कम न

ोगा। ु कुम

ो, तो मैं उठाकर प ु ूँचा दूँ ?ू

समरज़ा कुछ बोले न ीं। ह रन की टूँ गी ु ई, दीन वेदना से भरी आूँखें दे ख र े थे। अभी एक समनट प ले इसमें जीवन था। ज़रा-सा पत्ता भी खड़कता, तो कान खड़े करके चौकडड़याूँ भरता

ु आ नकल भागता। अपने समत्रों और बाल-बच्चों के साथ ईकवर की उगाई ु ई घास खा र ा था; मगर अब नस्पंद पड़ा ै । उसकी खाल उिेड़ लो, उसकी बोहटयाूँ कर डालो, उसका क़ीमा बना डालो, उसे ख़बर न ोगी। उसके क्रीड़ामय जीवन में जो आकषदण था , जो आनंद था, व नजीव शव में

क्या इस

ै ? ककतनी संद ु र गठन थी, ककतनी प्यारी आूँखें, ककतनी मनो र

छवव? उसकी छलाूँगें हृदय में आनंद की तरं गें पैदा कर दे ती थीं , उसकी चौकडड़यों के साथ

मारा मन भी चौकडड़याूँ भरने लगता था। उसकी स्िू तद जीवन-सा

बबखेरती चलती थी, जैसे िूल सुगंि बबखेरता ोती

ै ; लेककन अब! उसे दे खकर ग्ला न

ै।

लकड़ ारे ने पूछा -- क ाूँ प ु ूँ चाना

ोगा मासलक? मुझे भी दो-चार पैसे दे दे ना।

समरज़ाजी जैसे ध्यान से चौक पड़े। बोले -- अच्छा उठा ले। क ाूँ चलेगा ?

'ज ाूँ ु कुम ो मासलक।' 'न ीं, ज ाूँ तेरी इच्छा ो, व ाूँ ले जा। मैं तझ ु े दे ता ू ूँ।' लकड़ ारे ने समरज़ा की ओर कुतू ल से दे खा। कानों पर ववकवास न आया।

'अरे न ीं मासलक, ु ज़ूर ने ससकार ककया ैं तो म कैसे खा लें ।' 'न ीं-न ीं मैं ख़ुशी से क ता ू ूँ, तुम इसे ले जाओ। तुम् ारा घर य ाूँ से ककतनी दरू ै ?'

'कोई आिा कोस ोगा मासलक!' 'तो मैं भी तुम् ारे साथ चलूँ ग ू ा। दे खग ूूँ ा, तुम् ारे बाल-बच्चे कैसे ख़ुश ोते ैं।' 'ऐसे तो मैं न ले जाऊूँगा सरकार! आप इतनी दरू से आये, इस कड़ी िूप में ससकार ककया, मैं कैसे उठा ले जाऊूँ?

'उठा उठा, दे र न कर। मझ ो गया तू भला आदमी ै ।' ु े मालम ू लकड़ ारे ने डरते-डरते और र -र

कर समरज़ाजी के मुख की ओर सशंक नेत्रों से

दे खते ु ए कक क ीं बबगड़ न जायूँ, ह रन को उठाया। स सा उसने ह रन को छोड़ हदया और खड़ा ोकर बोला -- मैं समझ गया मासलक, ज़रू ने इसकी लाली न ीं की।

समरज़ाजी ने चल।

ूँसकर क ा -- बस-बस, तूने ख़ूब समझा। अब उठा ले और घर

समरज़ाजी िमद के इतने पाबंद न थे। दस साल से उन् ोंने नमाज़ न पढ़ी थी। दो म ीने में एक हदन व्रत रख लेते थे। बबलकुल नरा ार, नजदल; मगर लकड़ ारे

को इस ख़याल से जो संतोष ु आ था कक ह रन अब इन लोगों के सलए अखाद्य ो गया ैं उसे िीका न करना चा ते थे। लकड़ ारे ने लके मन से ह रन को गरदन पर रख सलया और घर की ओर चला। तंखा अभी तक-तटस्थ से व ीं पेड़ के नीचे खड़े थे। िूप में ह रन के पास जाने का कष्ट क्यों उठाते। कुछ समझ में न आ र ा था कक मआ ु मला क्या

ै ; लेककन

जब लकड़ ारे को उल्टी हदशा में जाते दे खा , तो आकर समरज़ा से बोले -- आप उिर क ाूँ जा र े

ैं

ज़रत! क्या रास्ता भूल गये?

समरज़ा ने अपरािी भाव से मस् ु कराकर क ा -- मैंने सशकार इस ग़रीब आदमी को दे हदया। अब ज़रा इसके घर चल र ा ू ूँ। आप भी आइए न।

तंखा ने समरज़ा को कुतू ल की दृश्ष्ट से दे खा और बोले -- आप अपने ैं या न ीं।

ोश में

'क न ीं सकता। मुझे ख़ुद न ीं मालूम।' 'सशकार इसे क्यों दे हदया?' 'इसीसलए कक उसे पाकर इसे श्जतनी ख़ुशी ोगी, मुझे या आपको न ोगी।' तंखा णखससयाकर बोले -- जाइए! सोचा था, ख़ब ू कबाब उड़ायेंगे, सो आपने सारा मज़ा ककरककरा कर हदया। ख़ैर, राय सा ब और मे ता कुछ न कुछ लायेंगे

ी।

कोई ग़म न ीं। मैं इस एलेक्शन के बारे में कुछ अरज़ करना चा ता ू ूँ। आप न ीं खड़ा ोना चा ते न स ी , आपकी जैसी मरज़ी; लेककन आपको इसमें क्या ताम्मल ु

ै कक जो लोग खड़े

ो र े

जाय। मैं आपसे ससफ़द इतना चा ता कक आप न ीं खड़े

ो र े

ु ने दें ू ूँ कक आप ककसी पर य भेद न खल ैं। ससफ़द इतनी मे रबानी कीश्जए मेरे साथ। ख़्वाजा

जमाल ताह र इसी श र से खड़े तरफ़ असर

ैं

ैं, उनसे इसकी अच्छी क़ीमत वसल ू की

ो र े

ैं। रईसों के वोट सोल ों आने उनकी

ी, ु क्काम भी उनके मददगार ैं। किर भी पबसलक पर आपका जो ैं इससे उनकी कोर दब र ी ै । आप चा ें तो आपको उनसे दस-बीस

ज़ार रुपए म ज़ य बैठ जाते न ीं करना

ज़ाह र कर दे ने के समल सकते

ैं कक आप उनकी ख़ा तर

ैं...। न ीं मुझे अरज़ कर लेने दीश्जए। इस मुआमले में आपको कुछ ै । आप बेकफ़क्र बैठे रह ए। मैं आपकी तरफ़ से एक मे नफ़ेस्टो

नकाल दूँ ग ू ा। और उसी शाम को आप मुझसे दस

लीश्जए।

ज़ार नक़द वसूल कर

समरज़ा सा ब ने उनकी ओर ह कारत से दे खकर क ा -- मैं ऐसे रुपए पर और आप पर लानत भेजता ू ूँ। समस्टर तंखा ने ज़रा भी बुरा न ीं माना। माथे पर बल तक न आने हदया।

'मुझ पर आप श्जतनी लानत चा ें भेजें; मगर रुपए पर लानत भेजकर आप अपना

ी नक़ ु सान कर र े

ैं।'

'मैं ऐसी रक़म को राम समझता ू ूँ।'

'आप शरीयत के इतने पाबन्द तो न ीं ैं।' 'लूट की कमाई को राम समझने के सलए शरा का पाबंद ोने की ज़रूरत न ीं ै ।'

'तो इस मुआमले में क्या आप अपना फ़ैसला तब्दील न ीं कर सकते?' 'जी न ीं।' 'अच्छी बात ैं इसे जाने दीश्जए। ककसी बीमा कंपनी के डाइरे क्टर बनने में तो आपको कोई एतराज़ न ीं

ै ? आपको कंपनी का एक ह स्सा भी न ख़रीदना

पड़ेगा। आप ससफ़द अपना नाम दे दीश्जएगा।'

'जी न ीं, मुझे य भी मंज़ूर न ीं ै । मैं कई कंप नयों का डाइरे क्टर, कई का

मैनेश्जंग एजेंट, कई का चेयरमैन था। दौलत मेरे पाूँव चूमती थी। मैं जानता ू ूँ, दौलत से आराम और तकल्लफ़ ु के ककतने सामान जमा ककये जा सकते ैं ; मगर य

भी जानता ू ूँ कक दौलत इंसान को ककतना ख़द ु -ग़रज़ बना दे ती ऐश-पसंद, ककतना मक्कार, ककतना बेग़ैरत।'

ैं ककतना

वकील सा ब को किर कोई प्रस्ताव करने का सा स न ु आ। समरज़ाजी की बद् ु धि और प्रभाव में उनका जो ववकवास था, व ब ु त कम ो गया। उनके सलए िन

ी सब कुछ था और ऐसे आदमी से, जो लक्ष्मी को ठोकर मारता

कोई मेल न

ो, उनका

ो सकता था। लकड़ ारा ह रन को कंिे पर रखे लपका चला जा

र ा था। समरज़ा ने भी क़दम बढ़ाया; पर स्थूलकाय तंखा पीछे र उन् ोंने पुकारा -- ज़रा सु नए, समरज़ाजी, आप तो भागे जा र े

गये।

ैं।

समरज़ाजी ने बबना रुके ु ए जवाब हदया -- व ग़रीब बोझ सलये इतनी तेज़ी से चला जा र ा ै । म क्या अपना बदन लेकर भी उसके बराबर न ीं चल सकते ? लकड़ ारे ने ह रन को एक ठूूँठ पर उतारकर रख हदया था और दम लेने लगा था।

समरज़ा सा ब ने आकर पूछा -- थक गये, क्यों?

लकड़ ारे ने सकुचाते ु ए क ा -- ब ु त भारी

ै सरकार!

'तो लाओ, कुछ दरू मैं ले चलूँ ।ू ' लकड़ ारा व

ूँसा। समरज़ा डील-डौल में उससे क ीं ऊूँचे और मोटे -ताज़े थे, किर भी

दब ु ला-पतला आदमी उनकी इस बात पर

गया।

ूँसा। समरज़ाजी पर जैसे चाबुक पड़

'तुम ूँसे क्यों? क्या तुम समझते ो, मैं इसे न ीं उठा सकता?' लकड़ ारे ने मानो क्षमा माूँगी -- सरकार आप लोग बड़े आदमी तो

म-जैसे मजूरों

ी का काम

ैं। बोझ उठाना

ै।

'मैं तुम् ारा दग ु ुना जो ू ूँ।' 'इससे क्या ोता ै मासलक!' समरज़ाजी का परु ु षत्व अपना और अपमान न स

सका। उन् ोंने बढ़कर ह रन

को गदद न पर उठा सलया और चले ; मगर मुश्ककल से पचास क़दम चले

ोंगे कक

कलेजा मज़बूत ककया और एक बीस क़दम और चले। कम्बख़्त क ाूँ र

गया?

गदद न िटने लगी; पाूँव थरथराने लगे और आूँखों में त तसलयाूँ उड़ने लगीं। जैसे इस लाश में सीसा भर हदया गया दूँ ,ू तो मज़ा आये। मशक की तर

ो। ज़रा समस्टर तंखा की गदद न पर रख

जो िूले चलते

ैं, ज़रा उसका मज़ा भी दे खें;

लेककन बोझा उतारें कैसे? दोनों अपने हदल में क ें गे, बड़ी जवाूँमदी हदखाने चले थे। पचास क़दम में चीं बोल गये। लकड़ ारे ने चट ु की ली -- क ो मासलक, कैसे रं ग-ढं ग समरज़ाजी को बोझ कुछ

लका मालूम

जाऊूँगा, श्जतनी दरू तुम लाये

ो।

'कई हदन गदद न दख ु ेगी मासलक!'

ैं। ब ु त

लका

ै न?

ोने लगा। बोले -- उतनी दरू तो ले



'तम ु क्या समझते ो, मैं यों ी िूला ु आ ू ूँ!' 'न ीं मासलक, अब तो ऐसा न ीं समझता। मुदा आप ै रान न ों; व चट्टान ैं उस पर उतार दीश्जए।'

'मैं अभी इसे इतनी ी दरू और ले जा सकता ू ूँ।' 'मगर य अच्छा तो न ीं लगता कक मैं ठाला चलूँ ू और आप लदे र ें ।' समरज़ा सा ब ने चट्टान पर ह रन को उतारकर रख हदया। वकील सा ब भी आ प ु ूँच।े समरज़ा ने दाना िेंका -- अब आप को भी कुछ दरू ले चलना पड़ेगा जनाब! वकील सा ब की नज़रों में अब समरज़ाजी का कोई म त्व न था। बोले -- मुआफ़ कीश्जए। मुझे अपनी प लवानी का दावा न ीं

ै।

'ब ु त भारी न ीं ैं सच।' 'अजी र ने भी दीश्जए।' 'आप अगर इसे सौ क़दम ले चलें , तो मैं वादा करता ू ूँ आप मेरे सामने जो तजवीज़ रखेंगे, उसे मंज़ूर कर लूँ ग ू ा।' 'मैं इन चकमों में न ीं आता।' 'मैं चकमा न ीं दे र ा ू ूँ , वल्ला । आप श्जस लके से क ें गे खड़ा ो जाऊूँगा। जब ु क्म दें गे, बैठ जाऊूँगा। श्जस कम्पनी का डाइरे क्टर, में बर, मुनीम, कनवेसर, जो कुछ कह एगा, बन जाऊूँगा। बस सौ क़दम ले चसलए। मेरी तो ऐसे से नभती

ैं जो मौक़ा पड़ने पर सब कुछ कर सकते

ों।'

तंखा का मन चुलबुला उठा। समरज़ा अपने क़ौल के पक्के था। ह रन ऐसा क्या ब ु त भारी

ी दोस्तों

ैं, इसमें कोई संदे

ोगा। आणख़र समरज़ा इतनी दरू ले

ी आये।



ब ु त ज़्यादा थके तो न ीं जान पड़ते; अगर इनकार करते ैं तो सन ु रा अवसर ाथ से जाता ै । आणख़र ऐसा क्या कोई प ाड़ ै । ब ु त ोगा, चार-पाूँच पूँसेरी ोगा। दो-चार हदन गदद न

सुख की वस्तु

ै।

ी तो दख ु ेगी! जेब में रुपए

ों, तो थोड़ी-सी बीमारी

'सौ क़दम की र ी।' ' ाूँ, सौ क़दम। मैं धगनता चलूँ ग ू ा।' 'दे णखए, नकल न जाइएगा।' ' नकल जानेवाले पर लानत भेजता ू ूँ।' तंखा ने जूते का फ़ीता किर से बाूँिा, कोट उतारकर लकड़ ारे को हदया, पतलून ऊपर चढ़ाया, रूमाल से मूँु ससर दे ने जा र े

पोंछा और इस तर

ह रन को दे खा, मानो ओखली में

ों। किर ह रन को उठाकर गदद न पर रखने की चेष्ठा की। दो-

तीन बार ज़ोर लगाने पर लाश गदद न पर तो आ गयी; पर गदद न न उठ सकी। कमर झुक गयी, ाूँि उठे और लाश को ज़मीन पर पटकनेवाले थे कक समरज़ा ने उन् ें स ारा दे कर आगे बढ़ाया। तंखा ने एक डग इस तर में पाूँव रख र े

उठाया जैसे दलदल

ों।

समरज़ा ने बढ़ावा हदया -- शाबाश! मेरे शेर, वा -वा ! तंखा ने एक डग और रखा। मालूम ु आ, गदद न टूटी जाती

ै।

'मार सलया मैदान! जीते र ो पट्ठे !' तंखा दो डग और बढ़े । आूँखें नकली पड़ती थीं।

'बस, एक बार और ज़ोर मारो दोस्त। सौ क़दम की शतद ग़लत। पचास क़दम की ी र ी।' वकील सा ब का बुरा

ाल था। व

बेजान ह रन शेर की तर

उनको दबोचे ु ए, उनका हृदय-रक्त चूस र ा था। सारी शश्क्तयाूँ जवाब दे चुकी थीं। केवल लोभ,

ककसी लो े की िरन की तर

छत को सूँभाले

तक की गोटी थी। मगर अंत में व

ु ए था। एक से पच्चीस ज़ार श तीर भी जवाब दे गयी। लोभी की कमर

भी टूट गयी। आूँखों के सामने अूँिेरा छा गया। ससर में चक्कर आया और व सशकार गदद न पर सलये पथरीली ज़मीन पर धगर पड़े। समरज़ा ने तुरंत उन् ें उठाया और अपने रूमाल से

वा करते ु ए उनकी पीठ ठोंकी।

'ज़ोर तो यार तुमने ख़ूब मारा; लेककन तक़दीर के खोटे

ो।'

तंखा ने

ाूँिते ु ए लंबी साूँस खींचकर क ा -- आपने तो आज मेरी जान ली थी। दो मन से कम न ोगा ससुर। समरज़ा ने ी था।

ी ले

ूँसते ु ए क ा -- लेककन भाईजान मैं भी तो इतनी दरू उठाकर लाया

वकील सा ब ने ख़ुशामद करनी शुरू की -- मुझे तो आपकी फ़रमाइश पूरी करनी थी। आपको तमाशा दे खना था, व परू ा करना

आपने दे ख सलया। अब आपको अपना वादा

ोगा।

'आपने मुआ दा कब पूरा ककया।' 'कोसशश तो जान तोड़कर की।' 'इसकी सनद न ीं।' लकड़ ारे ने किर ह रन उठा सलया था और भागा चला जा र ा था। व

हदखा

दे ना चा ता था कक तुम लोगों ने काूँख-काूँखकर दस क़दम इसे उठा सलया, तो य

न समझो कक पास

ो गये। इस मैदान में मैं दब द ु ल

ोने पर भी तुमसे आगे

र ू ूँगा। ाूँ, कागद तुम चा े श्जतना काला करो और झूठे मुक़दमे चा े श्जतने बनाओ।

एक नाला समला, श्जसमें ब ु त थोड़ा पानी था। नाले के उस पार टीले पर एक छोटा-सा पाूँच-छः घरों का पुरवा था और कई लड़के इमली के पेड़ के नीचे खेल र े थे।

लकड़ ारे को दे खते

ी सबों ने दौड़कर उसका स्वागत ककया और लगे पछ ू ने --

ककसने मारा बाप? ू कैसे मारा, क ाूँ मारा, कैसे गोली लगी, क ाूँ लगी, इसी को क्यों लगी, और ह रनों को क्यों न लगी?

लकड़ ारा ू ूँ - ाूँ करता इमली के नीचे प ु ूँ चा और ह रन को उतार कर पास की झोपड़ी से दोनों म ानुभावों के सलए खाट लेने दौड़ा। उसके चारों लड़कों और

लड़ककयों ने सशकार को अपने चाजद में ले सलया और अन्य लड़कों को भगाने की चेष्ठा करने लगे। सबसे छोटे बालक ने क ा -- य

मारा

ै।

उसकी बड़ी ब न ने, जो चौद -पंद्र

साल की थी, मे मानों की ओर दे खकर छोटे

भाई को डाूँटा -- चप ु , न ीं ससपाई पकड़ ले जायगा। समरज़ा ने लड़के को छे ड़ा -- तुम् ारा न ीं

मारा

ब न ने ससखाया -- क

ै।

ै । बालक ने ह रन पर बैठकर

अपना क़ब्ज़ा ससद्ि कर हदया और बोला -- बापू तो लाए दे भैया, तुम् ारा

ैं।

इन बच्चों की माूँ बकरी के सलए पश्त्तयाूँ तोड़ र ी थी। दो नये भले आदसमयों को दे खकर उसने ज़रा-सा घघ ूूँ ट नकाल सलया और शमादई कक उसकी साड़ी ककतनी मैली, ककतनी िटी, ककतनी उटं गी

ै। व

इस वेष में मे मानों के सामने

कैसे जाय? और गये बबना काम न ीं चलता। पानी-वानी दे ना

ै । अभी दोप र

ोने में कुछ कसर थी; लेककन समरज़ा सा ब ने दोप री इसी गाूँव में काटने का

नकचय ककया। गाूँव के आदसमयों को जमा ककया। शराब मूँगवायी, सशकार पका, समीप के बाज़ार से घी और मैदा मूँगाया और सारे गाूँव को भोज हदया। छोटे बड़े स्त्री-पुरुष सबों ने दावत उड़ायी। मदों ने ख़ूब शराब पी और मस्त

ोकर

शाम तक गाते र े । और समरज़ाजी बालकों के साथ बालक, शराबबयों के साथ शराबी, बूढ़ों के साथ बूढ़े, जवानों के साथ जवान बने ु ए थे। इतनी दे र में सारे गाूँव से उनका इतना घ नष्ट पररचय ो गया था, मानो य ीं के नवासी ों। लड़के तो उनपर लदे पड़ते थे। कोई उनकी िूँु दनेदार टोपी ससर पर रखे लेता था, कोई उनकी राइफ़ल कंिे पर रखकर अकड़ता ु आ चलता था, कोई उनकी क़लाई की घड़ी खोलकर अपनी क़लाई पर बाूँि लेता था। समरज़ा ने ख़ुद ख़ूब दे शी

शराब पी और झम ू -झम ू कर जंगली आदसमयों के साथ गाते र े । जब ये लोग

सूयादस्त के समय य ाूँ से बबदा ु ए तो गाूँव-भर के नर-नारी इन् ें बड़ी दरू तक प ु ूँचाने आये। कई तो रोते थे। ऐसा सौभाग्य उन ग़रीबों के जीवन में शायद प ली

ी बार आया

कोई राजा का े को

ो कक ककसी सशकारी ने उनकी दावत की

ैं न ीं तो इतना दररयाव हदल ककसका

ोता

ो। ज़रूर य

ै । इनके दशदन किर

ोंगे!

कुछ दरू चलने के बाद समरज़ा ने पीछे किरकर दे खा और बोले -- बेचारे ककतने

ख़ुश थे। काश मेरी श्ज़ंदगी में ऐसे मौक़े रोज़ आते। आज का हदन बड़ा मुबारक था।

तंखा ने बेरुखी के साथ क ा -- आपके सलए मुबारक

ोगा, मेरे सलए तो मन ू स ी था। मतलब की कोई बात न ु ई। हदन-भर जूँगलों और प ाड़ों की ख़ाक छानने के बाद अपना-सा मूँु सलये लौट जाते ैं। समरज़ा ने नदद यता से क ा -- मुझे आपके साथ

मददी न ीं

ै।

दोनों आदमी जब बरगद के नीचे प ु ूँचे, तो दोनों टोसलयाूँ लौट चक ु ी थीं। मे ता मूँु लटकाये ु ए थे। मालती ववमन-सी अलग बैठी थी, जो नयी बात थी। राय सा ब और खन्ना दोनों भूखे र

गये थे और ककसी के मूँु

समरज़ा सा ब प्रसन्न थे और व

प्रसन्नता अलौककक थी।

से बात न नकलती

थी। वकील सा ब इससलए दख ु ी थे कक समरज़ा ने उनके साथ बेवफ़ाई की। अकेले

***

8 जब से

ोरी के घर में गाय आ गयी

ै , घर की श्री

ि नया का घमंड तो उसके सूँभाल से बा र

ी कुछ और

ो- ो जाता

ो गयी

ै।

ै । जब दे खो गाय की

चचाद। भस ू ा छज गया था। ऊख में थोड़ी-सी चरी बो दी गयी थी। उसी की कुट्टी काटकर जानवरों को णखलाना पड़ता था। आूँखें आकाश की ओर लगी र ती थीं

कक कब पानी बरसे और घास नकले। आिा आसाढ़ बीत गया और वषाद न ु ई। स सा एक हदन बादल उठे और आसाढ़ का प ला दौंगड़ा धगरा। ककसान ख़रीफ़ बोने के सलए

ल ले-लेकर नकले कक राय सा ब के कारकुन ने क ला भेजा, जब

तक बाक़ी न चक ु जायगी ककसी को खेत में ककसानों पर जैसे वज्रापात

ल न ले जाने हदया जायगा।

ो गया। और कभी तो इतनी कड़ाई न

ोती थी,

अबकी य

कैसा ु क्म। कोई गाूँव छोड़कर भागा थोड़ा ी जाता ै ; अगर खेती में ल न चले, तो रुपए क ाूँ से आ जायेंगे। नकालें गे तो खेत ी से। सब समलकर

कारकुन के पास जाकर रोये। कारकुन का नाम था पंडडत नोखेराम। आदमी बुरे

न थे; मगर मासलक का ु क्म था। उसे कैसे टालें । अभी उस हदन राय सा ब ने ोरी से कैसी दया और िमद की बातें की थीं और आज आसासमयों पर य ज़ुल्म।

ोरी मासलक के पास जाने को तैयार ु आ; लेककन किर सोचा, उन् ोंने कारकुन को एक बार जो ु क्म दे हदया, उसे क्यों टालने लगे। व अगुवा बनकर क्यों बुरा बने। जब और कोई कुछ न ीं बोलता, तो य ी आग में क्यों कूदे । जो सब के ससर पड़ेगी, व

भी झेल लेगा। ककसानों में खलबली मची ु ई थी। सभी गाूँव के म ाजनों के पास रुपए के सलए दौड़े। गाूँव में मूँगरू सा

की आजकल चढ़ी ु ई थी। इस साल सन में उसे अच्छा फ़ायदा ु आ था। गे ू ूँ और अलसी में भी उसने कुछ कम न ीं कमाया था। पंडडत दातादीन और दल ु ारी स ु आइन भी लेन-दे न करती थीं। सबसे बड़े म ाजन थे णझंगुरीससं । व

श र के एक बड़े म ाजन के एजेंट थे। उनके नीचे कई आदमी

और थे, जो आस-पास के दे ातों में घूम-घूमकर लेन-दे न करते थे। इनके उपरांत

और भी कई छोटे -मोटे म ाजन थे, जो दो आने रुपये ब्याज पर बबना सलखा-पढ़ी के रुपए दे ते थे। गाूँववालों को लेन-दे न का कुछ ऐसा शौक़ था कक श्जसके पास दस-बीस रुपए जमा

ो जाते, व ी म ाजन बन बैठता था। एक समय

म ाजनी की थी। उसी का य कक

ोरी के पास दबे ु ए रुपए

ोरी ने भी

प्रभाव था कक लोग अभी तक य ी समझते थे ैं। आणख़र व

िन गया क ाूँ। बूँटवारे में नकला

न ीं, ोरी ने कोई तीथद, व्रत, भोज ककया न ीं; गया तो क ाूँ गया। जत ू े जाने पर भी उनके घट्ठे बने र ते

ैं। ककसी ने ककसी दे वता को सीिा ककया , ककसी ने

ककसी को। ककसी ने आना रुपया ब्याज दे ना स्वीकार ककया, ककसी ने दो आना। ोरी में आत्म-सम्मान का सवदथा लोप न ु आ था। श्जन लोगों के रुपए उस पर बाक़ी थे उनके पास कौन मूँु लेकर जाय। णझंगुरीससं के ससवा उसे और कोई न सझ ू ा। व

पक्का काग़ज़ सलखाते थे, नज़राना अलग लेते थे, दस्तरू ी अलग,

स्टाम्प की सलखाई अलग। उस पर एक साल का ब्याज पेशगी काटकर रुपया दे ते थे। पचीस रुपए का काग़ज़ सलखा, तो मुश्ककल से सत्र

रुपए

ाथ लगते थे;

मगर इस गाढ़े समय में और क्या ककया जाय ? राय सा ब की ज़बरदस्ती इस समय ककसी के सामने क्यों

ै , न ीं

ाथ िैलाना पड़ता। णझंगुरीससं बैठे दातून कर

र े थे। नाटे , मोटे , खल्वाट, काले, लम्बी नाक और बड़ी-बड़ी मछ ू ोंवाले आदमी थे, बबलकुल ववदष ू क-जैसे। और थे भी बड़े

ूँसोड़। इस गाूँव को अपनी ससुराल

बनाकर मदों से साले या ससुर और औरतों से साली या सल ज का नाता जोड़ सलया था।

रास्ते में लड़के उन् ें धचढ़ाते -- पंडडतजी पाल्लगी! और णझंगुरीससं उन् ें चटपट आशीवादद दे ते -- तुम् ारी आूँखें िूटे , घुटना टूटे , समरगी आये, घर में आग लग जाए आहद।

लड़के इस आशीवादद से कभी न अघाते थे ; मगर लेन-दे न में बड़े कठोर थे। सूद की एक पाई न छोड़ते थे और वादे पर बबना रुपए सलये द्वार से न टलते थे। ोरी ने सलाम करके अपनी ववपश्त्त-कथा सुनायी। णझंगुरीससं ने मुस्कराकर

क ा -- व

सब पुराना रुपया क्या कर डाला?

'परु ाने रुपए ोते ठाकुर, तो म ाजनी से अपना गला न छुड़ा लेता, कक सद ू भरते ककसी को अच्छा लगता ै । ' 'गड़े रुपए न नकलें चा े सूद ककतना ी दे ना पड़े। तुम लोगों की य ी नी त ै । '

'क ाूँ के गड़े रुपए बाबू सा ब, खाने को तो ोता न ीं। लड़का जवान ो गया; ब्या

का क ीं हठकाना न ीं। बड़ी लड़की भी ब्या ने जोग

ो गयी। रुपए

ोते,

तो ककस हदन के सलए गाड़ रखते। ' णझंगरु ीससं ने जब से उसके द्वार पर गाय दे खी थी, उस पर दाूँत लगाये

ुए र ा था कक उसमें पाूँच सेर से कम दि ू न ीं

गाय का डील-डौल और गठन क

ै । मन में सोच सलया था, ोरी को ककसी अरदब में डालकर गाय को उड़ा लेना चाह ए। आज व

अवसर आ गया। बोले -- अच्छा भाई, तुम् ारे पास कुछ न ीं

ै , अब राज़ी ु ए। श्जतने रुपए चा ो, ले जाओ लेककन तुम् ारे भले के सलए क ते ैं, कुछ ग ने-गाठे ों, तो धगरो रखकर रुपए ले लो। इसटाम सलखोगे , तो सद ू

बढ़े गा और झमेले में पड़ जाओगे।

ोरी ने क़सम खाई कक घर में ग ने के नाम कच्चा सूत भी न ीं

ाथों में कड़े

ैं , व

ै । ि नया के

भी धगलट के।

णझंगुरीससं ने स ानुभू त का रं ग मूँु

पर पोतकर क ा -- तो एक बात करो, य

जाओ; चार आदमी जो दाम क ें , व

मसे ले लो।

नई गाय जो लाये शौक़ से लाये

ो, इसे

मारे

ाथ बेच दो। सूद इसटाम सब झगड़ों से बच

ो और बेचना न ीं चा ते; लेककन य

ोरी प ले तो इस प्रस्ताव पर

म जानते

संकट तो टालना

भीषण रूप हदखाया कक उसके मन में भी य ैं, जब

ी पड़ेगा।

ूँसा, उस पर शांत मनसे ववचार भी न करना

चा ता था; लेककन ठाकुर ने ऊूँच-नीच सझ ु ाया, म ाजनी के क ते

ैं , तम ु उसे अपने

थकंडों का ऐसा

बात बैठ गयी। ठाकुर ठीक

ी तो

ाथ में रुपए आ जायूँ, गाय ले लेना। तीस रुपए का कागद सलखने

पर क ीं पचीस रुपए समलें गे और तीन चार साल तक न हदये गये , तो पूरे सौ जायूँगे। प ले का अनुभव य ी बता र ा था कक क़रज़ व

मे मान

ै , जो एक

बार आकर जाने का नाम न ीं लेता। बोला -- मैं घर जाकर सबसे सला

कर

लूँ ू, तो बताऊूँ।

'सला न ीं करना ै , उनसे क दे ना ै कक रुपए उिार लेने में अपनी बबाददी के ससवा और कुछ न ीं।'

'मैं समझ र ा ू ूँ ठाकुर, अभी आके जवाब दे ता ू ूँ। '



लेककन घर आकर उसने ज्यों ी व

प्रस्ताव ककया कक कु राम मच गया। ि नया

तो कम धचल्लाई, दोनों लड़ककयों ने तो द ु नया ससर पर उठा ली। न ीं दे ते अपनी गाय, रुपए ज ाूँ से चा ो लाओ। सोना ने तो य ाूँ तक क अच्छा

ै , मझ ु े बेच डालो। गाय से कुछ बेसी

डाला, इससे तो क ीं

ी समल जायगा, दोनों लड़ककयाूँ

सचमुच गाय पर जान दे ती थीं। रूपा तो उसके गले से सलपट जाती थी और बबना उसे णखलाये कौर मूँु

में न डालती थी। गाय ककतने प्यार से उसका

ाथ

चाटती थी, ककतनी स्ने भरी आूँखों से उसे दे खती थी। उसका बछड़ा ककतना सुन्दर

ोगा। अभी से उसका नाम-करण

ो गया था -- मटरू। व

उसे अपने

साथ लेकर सोयेगी। इस गाय के पीछे दोनों ब नों में कई बार लड़ाइयाूँ थीं। सोना क ती, मुझे ज़्यादा चा ती तक न

ै , रूपा क ती, मुझ।े इसका नणदय अभी

ो सका था। और दोनों दावे क़ायम थे। मगर

सुझाकर आणख़र ि नया को ककसी तर

ो चक ु ी

ोरी ने आगा-पीछा

राज़ी कर सलया। एक समत्र से गाय

उिार लेकर बेच दे ना भी ब ु त ी वैसी बात ै ; लेककन बबपत में तो आदमी का िरम तक चला जाता ै , य कौन-सी बड़ी बात ै । ऐसा न ो, तो लोग बबपत से इतना डरें क्यों। गोबर ने भी ववशेष आपश्त्त न की। व में मस्त था। य

आजकल दस ू री

ी िुन

तै ककया गया कक जब दोनों लड़ककयाूँ रात को सो जायूँ, तो

गाय णझंगुरीससं के पास प ु ूँचा दी जाय। हदन ककसी तर

कट गया। साूँझ ु ई। दोनों लड़ककयाूँ आठ बजते-बजते खा-पीकर सो गयीं। गोबर इस करुण दृकय से भागकर क ीं चला गया था। व गाय को जाते कैसे दे ख सकेगा? अपने आूँसुओं को कैसे रोक सकेगा? ोरी भी ऊपर

ी से

कठोर बना ु आ था। मन उसका चंचल था। ऐसा कोई माई का लाल न ीं, जो इस वक़्त उसे पचीस रुपए उिार दे -दे , चा े किर पचास रुपए ी ले-ले। व गाय के सामने जाकर खड़ा ु आ तो उसे ऐसा जान पड़ा कक उसकी काली-काली सजीव आूँखों में आूँसू भरे ु ए ैं और व क र ी ै -- क्या चार हदन में ी तुम् ारा मन मुझसे भर गया? तुमने तो वचन हदया था कक जीते-जी इसे न बेचूँग ू ा। य ी वचन था तुम् ारा! मैंने तो तुमसे कभी ककसी बात का धगला न ीं ककया। जो कुछ रूखा-सख ू ा तम ु ने हदया, व ी खाकर सन्तष्ु ट

ो गयी। बोलो।

ि नया ने क ा -- लड़ककयाूँ तो सो गयीं। अब इसे ले क्यों न ीं जाते। जब बेचना



ै , तो अभी बेच दो।

ोरी ने काूँपते ु ए स्वर में क ा -- मेरा तो ाथ न ीं उठता ि नया! उसका मूँु न ीं दे खती? र ने दो, रुपए सद ू पर ले लूँ ग ू ा। भगवान ण ने चा ा तो सब अदा ो जायूँगे। तीन-चार सौ

ोते

ी क्या

ैं। एक बार ऊख लग जाय।

ि नया ने गवद-भरे प्रेम से उसकी ओर दे खा -- और क्या! इतनी तपस्या के बाद तो घर में गऊ आयी। उसे भी बेच दो। ले लो कल रुपए। जैसे और सब चुकाये जायूँगे वैसे इसे भी चुका दें गे। भीतर बड़ी उमस

ो र ी थी।

वा बंद थी। एक पत्ती न ह लती थी। बादल छाये

ु ए थे; पर वषाद के लक्षण न थे।

ोरी ने गाय को बा र बाूँि हदया।

ि नया ने टोका भी, क ाूँ सलये जाते

ो? पर

ोरी ने सन ु ा न ीं, बोला -- बा र

वा में बाूँिे दे ता ू ूँ। आराम से र े गी। उसके भी तो जान ै । गाय बाूँिकर व

अपने मूँझले भाई शोभा को दे खने गया। शोभा को इिर कई

म ीने से दमे का आरजा

ो गया था। दवा-दारू की जग ु त न ीं। खाने-पीने का

प्रबंि न ीं, और काम करना पड़ता था जी तोड़कर; इससलए उसकी दशा हदन-हदन बबगड़ती जाती थी। शोभा स नशील आदमी था, लड़ाई-झगड़े से कोसों भागनेवाला। ककसी से मतलब न ीं। अपने काम से काम। और व

भी

ोरी का अदब करता था। दोनों में रुपए-पैसे की बातें

राय सा ब का य ग्यार

ोरी उसे चा ता था।

बजते-बजते

नया फ़रमान आलोचनाओं का केन्द्र बना

ु आ था। कोई ोरी लौटा और भीतर जा र ा था कक उसे भास ु आ, जैसे

गाय के पास कोई आदमी खड़ा पछ ू ा -- कौन खड़ा

ोने लगीं।

ै।

ै व ाूँ?

ीरा बोला -- मैं ू ूँ दादा, तुम् ारे कौड़े में आग लेने आया था। ीरा उसके कौड़े में आग लेने आया

ै , इस ज़रा-सी बात में

आत्मीयता का पररचय समला। गाूँव में और भी तो कौड़े सकती थी।

ीरा उसके कौड़े में आग ले र ा

ै , तो अपना

ोरी को भाई की

ैं। क ीं से आग समल ी समझकर तो। सारा

गाूँव इस कौड़े में आग लेने आता था। गाूँव से सबसे संपन्न य ी कौड़ा था ; मगर

ीरा का आना दस ू री बात थी। और उस हदन की लड़ाई के बाद!

कपट न ीं र ता। ग़स् ु सैल उसने स्ने

ीरा के मन में

ै ; लेककन हदल का साफ़।

भरे स्वर में पूछा -- तमाखू

ै कक ला दूँ ?ू

'न ीं, तमाखू तो ै दादा! 'सोभा तो आज ब ु त बे ाल ै ।' 'कोई दवाई न ीं खाता, तो क्या ककया जाय। उसके लेखे तो सारे बैद, डाक्टर, कीम अनाड़ी

ैं। भगवान ण के पास श्जतनी अक्कल थी, व

उसके और उसकी

घरवाली के ह स्से पड़ गयी।'

ोरी ने धचन्ता से क ा -- य ी तो बुराई

धगनता

ी न ीं। और धचढ़ने तो बबमारी में सभी

न ीं, जब तुम् ें इकफ़ं जा दोनों

ै उसमें । अपने सामने ककसी को ो जाते

ै कक

ो गया था, तो दवाई उठाकर िेंक दे ते थे। मैं तुम् ारे

ाथ पकड़ता था, तब तम् ु ारी भाभी तम् ु ारे मूँु

पर तुम उसे

ैं। तुम् ें याद

में दवाई डालती थीं। उस

ज़ारों गासलयाूँ दे ते थे।

' ाूँ दादा, भला व बात भूल सकता ू ूँ। तुमने इतना न ककया ोता, तो तुमसे लड़ने के सलए कैसे बचा र ता। ' ोरी को ऐसा मालम ू ु आ कक ीरा का स्वर भारी

ो गया

ै । उसका गला भी भर आया।

'बेटा, लड़ाई-झगड़ा तो श्ज़ंदगी का िरम ै । इससे जो अपने ैं , व पराये थोड़े ी ो जाते

ैं। जब घर में चार आदमी र ते

श्जसके कोई



ैं , तभी तो लड़ाई-झगड़े भी

ोते

ैं।

ी न ीं, उसके कौन लड़ाई करे गा। '

दोनों ने साथ धचलम पी। तब

ीरा अपने घर गया , ोरी अंदर भोजन करने

चला। ि नया रोष से बोली -- दे खी अपने सपूत की लीला? इतनी रात

ो गयी और

अभी उसे अपने सैल से छुट्टी न ीं समली। मैं सब जानती ू ूँ। मुझको सारा पता

समल गया र ता

ै । भोला की व

राूँड़ लड़की न ीं

ै।

ै , झु नया! उसी के िेर में पड़ा

ोरी के कानों में भी इस बात की भनक पड़ी थी , पर उसे ववकवास न आया था। गोबर बेचारा इन बातों को क्या जाने। बोला -- ककसने क ा तम ु से? ि नया प्रचंड ै। य

ो गयी -- तुमसे छपी

भुग्गा, व

ै , और य

चचाद चल र ी

ब त्तर घाट का पानी वपये

समझता

ऐसी-वैसी बात

ोगी, और तो सभी जग

ु ए। इसे उूँ गसलयों पर नचा र ी इस पर जान दे ती ै । तम ु उसे समझा दो न ीं कोई

ै, व

ो गयी, तो क ीं के न र ोगे।

ोरी का हदल उमंग पर था। चु ल की सूझी -- झु नया दे खने-सुनने में तो बुरी

न ीं

ै । उसी से कर ले सगाई। ऐसी सस्ती मे ररया और क ाूँ समली जाती

ि नया को य

चु ल तीर-सा लगा -- झु नया इस घर में आये, तो मूँु

राूँड़ का। गोबर की च े ती

ै , तो उसे लेकर ज ाूँ चा े र े ।

ै।

झुलस दूँ ू

'और जो गोबर इसी घर में लाये?' 'तो य दोनों लड़ककयाूँ ककसके गले बाूँिोगे ? किर बबरादरी में तुम् ें कौन पूछेगा, कोई द्वार पर खड़ा तक तो

ोगा न ीं।'

'उसे इसकी क्या परवा ।' 'इस तर न ीं छोड़ूूँगी लाला को। मर-मर के पाला ै और झु नया आकर राज करे गी। मूँु

में आग लगा दूँ ग ू ी राूँड़ के।'

स सा गोबर आकर घबड़ाई ु ई आवाज़ में बोला -- दादा, संद ु ररया को क्या गया? क्या काले नाग ने छू सलया? व तो पड़ी तड़प र ी ै ।



ोरी चौके में जा चुका था। थाली सामने छोड़कर बा र नकल आया और बोला

-- क्या असगुन मूँु

से नकालते

ो। अभी तो मैं दे खे आ र ा ू ूँ। लेटी थी।

तीनों बा र गये। धचराग़ लेकर दे खा। संद ु ररया के मूँु

से किचकुर नकल र ा

था। आूँखें पथरा गयी थीं, पेट िूल गया था और चारों पाूँव िैल गये थे। ि नया ससर पीटने लगी।

ोरी पंडडत दातादीन के पास दौड़ा। गाूँव में पशु-धचककत्सक के

व ी आचायद थे। पंडडतजी सोने जा र े थे। दौड़े ु ए आये। दम-के-दम में सारा गाूँव जमा ो गया। गाय को ककसी ने कुछ णखला हदया। लक्षण स्पष्ट थे। साफ़ ववष हदया गया

ै ; लेककन गाूँव में कौन ऐसा मद् ु दई

ै , श्जसने ववष हदया

ो;

ऐसी वारदात तो इस गाूँव में कभी ु ई न ीं; लेककन बा र का कौन आदमी गाूँव में आया। ोरी की ककसी से दकु मनी भी न थी कक उस पर संदे ककया जाय।

ीरा से कुछ क ा-सुनी ु ई थी; मगर व भाई-भाई का झगड़ा था। सबसे जयादा दख त्यारों का काम ु ी तो ीरा ी था। िमककयाूँ दे र ा था कक श्जसने य ककया

ै , उसे पाय तो ख़न ू पी जाय। व

न ीं कर सकता।

आिी रात तक जमघट र ा। सभी गासलयाूँ दे ते थे। व थी। जब य

ाल

लाख ग़स् ु सैल

ो; पर इतना नीच काम

ोरी के दःु ख में दख ु ी थे और बधिक को

इस समय पकड़ा जा सकता, तो उसके प्राणों की कुशल न

ै तो कोई जानवरों को बा र कैसे बाूँिेगा। अभी तक रात-

बबरात सभी जानवर बा र पड़े र ते थे। ककसी तर

की धचंता न थी ; लेककन अब

तो एक नयी ववपश्त्त आ खड़ी

ु ई थी। क्या गाय थी कक बस दे खता र े । पूजने जोग। पाूँच सेर से दि ू कम न था। सौ-सौ का एक-एक बाछा ोता। आते दे र न ु ई और य

वज्रा धगर पड़ा।

जब सब लोग अपने-अपने घर चले गये, तो ि नया

ोरी को कोसने लगी --

तुम् ें कोई लाख समझाये, करोगे अपने मन की। तुम गाय खोलकर आूँगन से चले, तब तक मैं जझ ू ती र ी कक बा र न ले जाओ। कब क्या

ो जाय; लेककन न ीं, उसे गमी लग र ी

और तुम् ारा कलेजा भी ठं डा

ैं , न जाने

ै । अब तो ख़ूब ठं डी

ो गयी

ो गया। ठाकुर माूँगते थे; दे हदया

बोझ ससर से उतर जाता और न ोरा का न ोरा पड़ता। कोई बुरी बात

मारे हदन पतले

ोनेवाली

ोती

ोता ; मगर य

ै तो म त प ले



ोता, तो एक

तमाचा कैसे

र जाती

ै । इतने

हदन मज़े से घर में बूँिती र ी; न गमी लगी, न जड़ ू ी आयी। इतनी जल्दी सबको प चान गयी थी कक मालूम

ी न

ोता था कक बा र से आयी

ै । बच्चे उसके

सींगों से खेलते र ते थे। ससर तक न ह लाती थी। जो कुछ नाद में डाल दो, चाट-पोंछकर साफ़ कर दे ती थी। लच्छमी थी, अभागों के घर क्या र ती।

सोना और रूपा भी य

लचल सुनकर जग गयी थीं और बबलख-बबलखकर रो

र ी थीं। उसकी सेवा का भार अधिकतर उन् ीं दोनों पर था। उनकी संधगनी गयी थी। दोनों खाकर उठतीं, तो एक-एक टुकड़ा रोटी उसे अपने

णखलातीं। कैसा जीभ नकालकर खा लेती थी, और जब तक उनके



ाथों से ाथ का कौर

न पा लेती, खड़ी ताकती र ती। भाग्य िूट गये! सोना और गोबर और दोनों लड़ककयाूँ रो-िोकर सो गयी थीं।

ोरी भी लेटा।

ि नया उसके ससर ाने पानी का लोटा रखने आयी तो

ोरी ने िीरे से क ा --

तेरे पेट में बात पचती न ीं; कुछ सुन पायेगी, तो गाूँव भर में हढंढोरा पीटती किरे गी।

ि नया ने आपश्त्त की -- भला सन ु ूँ;ू मैंने कौन-सी बात पीट दी कक यों नाम बदनाम कर हदया।

'अच्छा तेरा संदे ककसी पर ोता ै ।' 'मेरा संदे तो ककसी पर न ीं ै । कोई बा री आदमी था। ' 'ककसी से क े गी तो न ीं?' 'क ू ूँगी न ीं, तो गाूँववाले मुझे ग ने कैसे गढ़वा दें गे।' 'अगर ककसी से क ा, तो मार ी डालूँ ग ू ा। ' 'मुझे मारकर सुखी न र ोगे। अब दस ू री मे ररया न ीं समली जाती। जब तक ू ूँ , तुम् ारा घर सूँभाले ु ए ू ूँ। श्जस हदन मर जाऊूँगी, ससर पर ाथ िरकर रोओगे। अभी मझ ु में सारी बरु ाइयाूँ

ी बरु ाइयाूँ

'मेरा संदे

ै ।'

ीरा पर

ोता

ैं, तब आूँखों से आूँसू नकलें गे।'

'झठ ू , बबलकुल झठ ू ! ीरा इतना नीच न ीं ै । व मूँु का ी ख़राब ै ।' 'मैंने अपनी आूँखों दे खा। सच, तेरे ससर की सौं ।'

'तुमने अपनी आूँखों दे खा! कब?' 'व ी, मैं सोभा को दे खकर आया; तो व संद ु ररया की नाूँद के पास खड़ा था। मैंने पूछा -- कौन ै , तो बोला, मैं ू ूँ ीरा, कौड़े में से आग लेने आया था। थोड़ी दे र मुझ से बातें करता र ा। मुझे धचलम वपलायी। व और व ी गोबर ने पुकार मचायी। मालूम

ोता

उिर गया, मैं भीतर आया

ै , मैं गाय बाूँिकर सोभा के घर

गया ू ूँ , और इसने इिर आकर कुछ णखला हदया था कक मरी या न ीं।'

ै । साइत किर य

ि नया ने लंबी साूँस लेकर क ा -- इस तर

ोते

गला काटने में भी ह चक न ीं

के

ोती। उफ़्फ़ो ।

दे खने आया

ैं भाई, श्जन् ें भाई का

ीरा मन का इतना काला

ै!

और दाढ़ीजार को मैंने पाल-पोसकर बड़ा ककया।

'अच्छा जा सो र , मगर ककसी से भूलकर भी श्ज़कर न करना।' 'कौन, सबेरा ोते ी लाला को थाने न प ु ूँ चाऊूँ, तो अपने असल बाप की न ीं। य त्यारा भाई क ने जोग ै ! य ी भाई का काम ै ! व बैरी ै , पक्का बैरी और बैरी को मारने में पाप न ीं, छोड़ने में पाप

ै ।'

ोरी ने िमकी दी -- मैं क े दे ता ू ूँ ि नया, अनथद ि नया आवेश में बोली -- अनथद न ीं, अनथद का बाप

ो जायगा। ो जाय। मैं बबना लाला

को बड़े घर सभजवाए मानूँूगी न ीं। तीन साल चक्की वपसवाऊूँगी, तीन साल। व ाूँ से छूटें गे, तो

त्या लगेगी। तीरथ करना पड़ेगा। भोज दे ना पड़ेगा। इस िोखे में

न र ें लाला! और गवा ी हदलाऊूँगी तुमसे, बेटे के ससर पर उसने भीतर जाकर ककवाड़ बंद कर सलये और

ाथ रखकर।

ोरी बा र अपने को कोसता पड़ा

र ा। जब स्वयम ण उसके पेट में बात न पची, तो ि नया के पेट में क्या पचेगी। अब य

चुड़ल ै माननेवाली न ीं! श्ज़द पर आ जाती

ै , तो ककसी की सुनती



न ीं। आज उसने अपने जीवन में सबसे बड़ी भल ू की। चारों ओर नीरव अंिकार छाया ु आ था। दोनों बैलों के गले की घंहटयाूँ कभी-कभी बज उठती थीं। दस

क़दम पर मत ृ क गाय पड़ी ु ई थी और ोरी घोर पकचात्ताप में करवटें बदल र ा था। अंिकार में प्रकाश की रे खा क ीं नज़र न आती थी। ***

9 प्रातःकाल

ोरी के घर में एक पूरा

ं गामा

ो गया।

ोरी ि नया को मार र ा

था। ि नया उसे गासलयाूँ दे र ी थी। दोनों लड़ककयाूँ बाप के पाूँवों से सलपटी धचल्ला र ी थीं और गोबर माूँ को बचा र ा था। बार-बार पीछे ढकेल दे ता; पर ज्यों ी ि नया के मूँु अपने

ोरी का

ाथ पकड़कर

से कोई गाली नकल जाती, ोरी

ाथ छुड़ाकर उसे दो-चार घस ूूँ े और लात जमा दे ता। उसका बूढ़ा क्रोि जैसे

ककसी गुप्त संधचत शश्क्त को नकाल लाया

ो।

सारे गाूँव में

लचल पड़ गयी। लोग समझाने के ब ाने तमाशा दे खने आ प ु ूँच।े शोभा लाठी टे कता खड़ा ु आ। दातादीन ने डाूँटा -- य घर की लक्ष्मी पर

क्या

ाथ छोड़ता

भी लग गयी।



ोरी, तम ु बावले

ै ! तुम् ें य

ो गये

ो क्या? कोई इस तर

रोग न था। क्या

ीरा की छूत तुम् ें

ोरी ने पालागन करके क ा -- म ाराज, तम ु इस बखत न बोलो। मैं आज

इसकी बान छुड़ाकर तब दम लूँ ग ू ा। मैं श्जतना ससर चढ़ती जाती

ी तर

ै।

ि नया सजल क्रोि में बोली -- म ाराज तुम गवा इसके

दे ता ू ूँ , उतना

ी य

र ना। मैं आज इसे और

त्यारे भाई को जे ल भेजवाकर तब पानी वपऊूँगी। इसके भाई ने गाय को

मा ु र णखलाकर मार डाला। अब जो मैं थाने में रपट सलखाने जा र ी ू ूँ तो य त्यारा मुझे मारता ै । इसके पीछे अपनी श्ज़ंदगी चौपट कर दी, उसका य इनाम दे र ा

ै।

ोरी ने दाूँत पीसकर और आूँखें नकालकर क ा -- किर व ी बात मूँु

नकाली। तूने दे खा था

से

ीरा को मा ु र णखलाते?

'तू क़सम खा जा कक तन ू े ीरा को गाय की नाूँद के पास खड़े न ीं दे खा?' ' ाूँ, मैंने न ीं दे खा, क़सम खाता ू ूँ।'

'बेटे के माथे पर ाथ रख के क़सम खा!' ोरी ने गोबर के माथे पर काूँपता ु आ ाथ रखकर काूँपते ु ए स्वर में क ा -मैं बेटे की क़सम खाता ू ूँ कक मैंने ीरा को नाूँद के पास न ीं दे खा। ि नया ने ज़मीन पर थूक कर क ा -- थुड़ी क ा कक

ीरा चोरों की तर

झूठ बोलता

ै । तेरी झुठाई पर। तूने ख़ुद मुझसे

नाूँद के पास खड़ा था। और अब भाई के पक्ष में

ै । थुड़ी

ै ! अगर मेरे बेटे का बाल भी बाूँका ु आ, तो घर में आग लगा दूँ ग ू ी। सारी ग ृ स्थी में आग लगा दूँ ग ू ी। भगवान,ण आदमी मूँु से बात क कर इतनी बेसरमी से मुकुर जाता

ै।

ोरी पाूँव पटककर बोला -- ि नया, ग़स् ु सा मत हदखा, न ीं बुरा

ोगा।

'मार तो र ा ै , और मार ले। जा, तू अपने बाप का बेटा ोगा तो आज मुझे

मारकर तब पानी वपयेगा। पापी ने मारते-मारते मेरा भुरकस नकाल सलया, किर भी इसका जी न ीं भरा। मुझे मारकर समझता

ै मैं बड़ा वीर ू ूँ। भाइयों के ै , पापी क ीं का, त्यारा!'

सामने भीगी बबल्ली बन जाता किर व ककस तर

बैन क कर रोने लगी -- इस घर में आकर उसने क्या न ीं झेला, ककस पेट-तन न ीं काटा, ककस तर

एक-एक पैसा प्राणों की तर

एक-एक लत्ते को तरसी, ककस तर

संचा, ककस तर

घर-भर को णखलाकर आप पानी

पीकर सो र ी। और आज उन सारे बसलदानों का य अन्याय दे ख र े

परु स्कार! भगवान ण बैठे य

ैं और उसकी रक्षा को न ीं दौड़ते। गज की और द्रौपदी की

रक्षा करने बैकंु ठ से दौड़े थे। आज क्यों नींद में सोये

ुए

ैं।

जनमत िीरे -िीरे ि नया की ओर आने लगा। इसमें अब ककसी को संदे र ा कक

ीरा ने

ी गाय को ज़ र हदया।

इसका भी लोगों को ववकवास

न ीं

ोरी ने बबलकुल झूठी क़सम खाई

ो गया। गोबर को भी बाप की इस झूठी क़सम

ै,

और उसके िलस्वरूप आनेवाली ववपश्त्त की शंका ने

ोरी के ववरुद् ि कर हदया।

उस पर जो दातादीन ने डाूँट बतायी, तो

ो गया। चुपके से बा र

ोरी परास्त

चला गया, सत्य ने ववजय पायी। दातादीन ने शोभा से पूछा -- तुम कुछ जानते

ो शोभा, क्या बात ु ई?

शोभा ज़मीन पर लेटा ु आ बोला -- मैं तो म ाराज, आठ हदन से बा र न ीं नकला। ोरी दादा कभी-कभी जाकर कुछ दे आते ैं, उसी से काम चलता ै । रात भी व साूँझ को

मेरे पास गये थे। ककसने क्या ककया, मैं कुछ न ीं जानता।

ाूँ, कल

ीरा मेरे घर खरु पी माूँगने गया था। क ता था, एक जड़ी खोदना

ै।

किर तब से मेरी उससे भें ट न ीं ु ई। ि नया इतनी श

पाकर बोली -- पंडडत दादा, व

उसी का काम

ै । सोभा के

घर से खरु पी माूँगकर लाया और कोई जड़ी खोदकर गाय को णखला दी। उस रात को जो झगड़ा ु आ था, उसी हदन से व दातादीन बोले -- य

बात साबबत

खार खाये बैठा था।

ो गयी, तो उसे

त्या लगेगी। पुसलस कुछ

करे या न करे , िरम तो बबना दं ड हदये न र े गा। चली तो जा रुवपया, ीरा को बुला ला। क ना, पंडडत दादा बुला र े

ैं। अगर उसने

त्या न ीं की

ै , तो

गंगाजली उठा ले और चौरे पर चढ़कर क़सम खाय। ि नया बोली -- म ाराज, उसके क़सम का भरोसा न ीं। चटपट खा लेगा। जब इसने झठ ू ी क़सम खा ली, जो बड़ा िमादत्मा बनता

ै , तो

अब गोबर बोला -- खा ले झूठी क़सम। बंस का अंत जवान जीकर क्या करें गे!

रूपा एक क्षण में आकर बोली -- काका घर में न ीं ैं, क ीं चले गये

ीरा का क्या ववकवास।

ो जाय। बूढ़े जीते र ें ।

ै , पंडडत दादा! काकी क ती

ैं।

दातादीन ने लम्बी दाढ़ी िटकारकर क ा -- तूने पूछा न ीं, क ाूँ चले गये ककया? घर में छपा बैठा न

ो। दे ख तो सोना, भीतर तो न ीं बैठा

ि नया ने टोका -- उसे मत भेजो दादा!

ीरा के ससर

ै।

त्या सवार

ै , न जाने

क्या कर बैठे। दातादीन ने ख़ुद लकड़ी सूँभाली और ख़बर लाये कक गया

ै । पु नया क ती

ीरा सचमुच क ीं चला

ै लुहटया-डोर और डंडा सब लेकर गये

ैं। पु नया ने

पछ ू ा भी, क ाूँ जाते व ाूँ न ीं

ो; पर बताया न ीं। उसने पाूँच रुपए आले में रखे थे। रुपए

ैं। साइत रुपए भी लेता गया।

ि नया शीतल हृदय से बोली -- मूँु

में कासलख लगाकर क ीं भागा

शोभा बोला -- भाग के क ाूँ जायगा। गंगा न ाने न चला गया

ोगा।

ो।

ि नया ने शंका की -- गंगा जाता तो रुपए क्यों ले जाता, और आजकल कोई परब भी तो न ीं

ै?

इस शंका का कोई समािान न समला। िारणा दृढ़

ो गयी। आज

ोरी के घर

भोजन न ीं पका। न ककसी ने बैलों को सानी-पानी हदया। सारे गाूँव में सनसनी िैली ु ई थी। दो-दो चार-चार आदमी जग -जग जमा ोकर इसी ववषय की आलोचना कर र े थे। ीरा अवकय क ीं भाग गया। दे खा ोगा कक भेद खल ु

गया, अब जे ल जाना पड़ेगा, त्या अलग लगेगी। बस, क ीं भाग गया। पु नया अलग रो र ी थी, कुछ क ा न सुना, न जाने क ाूँ चल हदये। जो कुछ कसर र गयी थी व

संध्या-समय

लके के थानेदार ने आकर परू ी कर दी। गाूँव के

चौकीदार ने इस घटना की रपट की, जैसा उसका कतदव्य था। और थानेदार सा ब भला अपने कतदव्य से कब चूकनेवाले थे। अब गाूँववालों को भी उनकी सेवासत्कार करके अपने कतदव्य का पालन करना चाह ए। दातादीन, णझंगुरीससं , नोखेराम, उनके चारों प्यादे , मूँगरू सा दारोग़ाजी के सामने य

और लाला पटे कवरी, सभी आ प ु ूँचे और ाथ बाूँिकर खड़े ो गये। ोरी की तलबी ु ई। जीवन में

प ला अवसर था कक व

िाूँसी

दारोग़ा के सामने आया। ऐसा डर र ा था , जैसे

ो जायेगी। ि नया को पीटते समय उसका एक-एक अंग िड़क र ा था।

दारोग़ा के सामने कछुए की भाूँ त भीतर ससमटा जाता था। दारोग़ा ने उसे

आलोचक नेत्रों से दे खा और उसके हृदय तक प ु ूँच गये। आदसमयों की नस प चानने का उन् ें अच्छा अभ्यास था। ककताबी मनोववज्ञान में कोरे , पर व्याव ाररक मनोववज्ञान के ममदज्ञ थे। यक़ीन दे खकर उठे

ैं। और

ो गया, आज अच्छे का मूँु

ोरी का चे रा क े दे ता था , इसे केवल एक घुड़की काफ़ी

दारोग़ा ने पूछा -- तुझे ककस पर शुब ा

ै?

ै।

ोरी ने ज़मीन छुई और

ाथ बाूँिकर बोला -- मेरा सब ु ा ककसी पर न ीं

सरकार, गाय अपनी मौत से मरी

ै । बुड्ढी

ो गयी थी।

ि नया भी आकर पीछे खड़ी थी। तुरंत बोली -- गाय मारी ने। सरकार ऐसे बौड़म न ीं जाूँच-त कक़क़ात करने आये दारोग़ाजी ने पूछा -- य



ैं कक जो कुछ तम ु क

दोगे, व

ै तुम् ारे भाई

ीरा

मान लें गे। य ाूँ

ैं।

कौन औरत

ै?

कई आदसमयों ने दारोग़ाजी से कुछ बातचीत करने का सौभाग्य प्राप्त करने के सलए चढ़ा-ऊपरी की। एक साथ बोले और अपने मन को इस कल्पना से संतोष हदया कक प ले मैं बोला --

ोरी की घरवाली

ै सरकार!

'तो इसे बुलाओ, मैं प ले इसी का बयान सलखग ूूँ ा। व क ाूँ ै ीरा?' ववसशष्ट जनों ने एक स्वर से क ा -- व

तो आज सबेरे से क ीं चला गया



सरकार!

'मैं उसके घर की तलाशी लूँ ग ू ा।' तलाशी!

ोरी की साूँस तले-ऊपर

ोगी और तलाशी न

ीरा घर में न ीं

ै । और किर

ीरा के घर की तलाशी

ोरी के जीते-जी, उसके दे खते य

ोने पायेगी; और ि नया से अब उसका कोई सम्बन्ि न ीं। ज ाूँ चा े

जाय। जब व सकती

ोने लगी। उसके भाई

उसकी इज़्ज़त बबगाड़ने पर आ गयी

ै , तो उसके घर में कैसे र

ै । जब गली-गली ठोकर खायेगी, तब पता चलेगा। गाूँव के ववसशष्ट जनों

ने इस म ान संकट को टालने के सलए काना-िूसी शुरू की। दातादीन ने गंजा ससर ह लाकर क ा -- य घर में क्या रखा

ै।

सब कमाने के ढं ग

ैं। पूछो, ीरा के

पटे कवरीलाल ब ु त लंबे थे; पर लंबे ोकर भी बेवक़ूफ़ न थे। अपना लंबा काला मूँु और लंबा करके बोले -- और य ाूँ आया ै ककस सलए, और जब आया ै बबना कुछ सलये-हदये गया कब

ै?

णझंगरु ीससं ने

गला न छूटे गा।

ोरी को बल ु ाकर कान में क ा -- नकालो जो कुछ दे ना

दारोग़ाजी ने अब ज़रा गरजकर क ा -- मैं

ो। यों

ीरा के घर की तलाशी लूँ ग ू ा।

ोरी के मुख का रं ग ऐसा उड़ गया था, जैसे दे

का सारा रक्त सूख गया

ो।

तलाशी उसके घर ु ई तो, उसके भाई के घर ु ई तो, एक ी बात ै । ीरा अलग स ी; पर द ु नया तो जानती ै , व उसका भाई ै ; मगर इस वक़्त उसका कुछ बस न ीं। उसके पास रुपए

ोते, तो इसी वक़्त पचास रुपए लाकर दारोग़ाजी के

चरणों पर रख दे ता और क ता -- सरकार, मेरी इज़्ज़त अब आपके मगर उसके पास तो ज़ र खाने को भी एक पैसा न ीं दो-चार रुपए पड़े

ों; पर व

ाथ

ै।

ै । ि नया के पास चा े

चुड़ल ै भला क्यों दे ने लगी। मत्ृ यु-दं ड पाये

ुए आदमी की भाूँ त ससर झुकाये, अपने अपमान की वेदना का तीव्र अनुभव करता ु चाप खड़ा र ा। ु आ चप

दातादीन ने

ोरी को सचेत ककया -- अब इस तर

खड़े र ने से काम न चलेगा

ोरी, रुपए की कोई जुगत करे । ोरी दीन स्वर में बोला -- अब मैं क्या अरज करूूँ म ाराज! अभी तो प ले

की गठरी ससर पर लदी

ै ; और ककस मूँु

से मागूँ;ू लेककन इस संकट से उबार

लो। जीता र ा, तो कौड़ी-कौड़ी चुका दूँ ग ू ा। मैं मर भी जाऊूँ तो गोबर तो नेताओं में सला





ी।

ोने लगी। दारोग़ाजी को क्या भें ट ककया जाय। दातादीन ने

पचास का प्रस्ताव ककया। णझंगुरीससं के अनुमान में सौ से कम पर सौदा न ोगा। नोखेराम भी सौ के पक्ष में थे। और

ोरी के सलए सौ और पचास में कोई

अंतर न था। इस तलाशी का संकट उसके ससर से टल जाय। पूजा चा े ककतनी ी चढ़ानी पड़े। मरे को मन-भर लकड़ी से जलाओ, या दस मन से; उसे क्या

धचंता! मगर पटे कवरी से य ु आ न ीं। केवल तलाशी

अन्याय न दे खा गया। कोई डाका या क़तल तो ो र ी

ै । इसके सलए बीस रुपए ब ु त

नेताओं ने धिक्कारा -- तो किर दारोग़ाजी से बातचीत करना। न जायेंगे। कौन घुड़ककयाूँ खाय।

ैं।

म लोग नगीच

ोरी ने पटे कवरी के पाूँव पर अपना ससर रख हदया -- भैया, मेरा उद्िार करो। जब तक श्जऊूँगा, तुम् ारी ताबेदारी करूूँगा। दारोग़ाजी ने किर अपने ववशाल वक्ष और ववशालतर उदर की पूरी शश्क्त से क ा -- क ाूँ



ीरा का घर? मैं उसके घर की तलाशी लूँ ग ू ा।

पटे कवरी ने आगे बढ़कर दारोग़ाजी के कान में क ा -- तलासी लेकर क्या करोगे ु ज़ूर, उसका भाई आपकी ताबेदारी के सलए

ाश्ज़र

ै।

दोनों आदमी ज़रा अलग जाकर बातें करने लगे।

'कैसा आदमी ै ?' 'ब ु त ी ग़रीब ु ज़ूर! भोजन का हठकाना भी न ीं!' 'सच?' ' ाूँ, ु ज़ूर, ईमान से क ता ू ूँ।' 'अरे तो क्या एक पचासे का डौल भी न ीं ै ?' 'क ाूँ की बात ु ज़ूर! दस समल जायूँ, तो ज़ार समणझए। पचास तो पचास जनम में भी मम ु ककन न ीं और व भी जब कोई म ाजन खड़ा ो जायगा!' दारोग़ाजी ने एक समनट तक ववचार करके क ा -- तो किर उसे सताने से क्या फ़ायदा। मैं ऐसों को न ीं सताता, जो आप

ी मर र े

ों।

पटे कवरी ने दे खा, नशाना और आगे जा पड़ा। बोले -- न ीं ु ज़ूर, ऐसा न कीश्जए, न ीं किर म क ाूँ जायूँगे। मारे पास दस ू री और कौन-सी खेती ै ?

'तम ु इलाक़े के पटवारी ो जी, कैसी बातें करते ो?' 'जब ऐसा ी कोई अवसर आ जाता ै , तो आपकी बदौलत म भी कुछ पा जाते ैं। न ीं पटवारी को कौन पूछता

ै ।'

'अच्छा जाओ, तीस रुपए हदलवा दो; बीस रुपए मारे , दस रुपए तुम् ारे ।' 'चार मणु खया ैं, इसका ख़्याल कीश्जए।' 'अच्छा आिे-आिे पर रखो, जल्दी करो। मुझे दे र ो र ी ै ।' पटे कवरी ने णझंगरु ी से क ा, णझंगरु ी ने

ोरी को इशारे से बल ु ाया, अपने घर ले

गये, तीस रुपए धगनकर उसके आज

वाले ककये और ए सान से दबाते ु ए बोले -ी कागद सलखा लेना। तुम् ारा मूँु दे खकर रुपए दे र ा ू ूँ , तुम् ारी

भलमंसी पर।

ोरी ने रुपए सलये और अूँगोछे के कोर में बाूँिे प्रसन्न मुख

आकर दारोग़ाजी की ओर चला।

स सा ि नया झपटकर आगे आयी और अूँगोछी एक झटके के साथ उसके से छीन ली। गाूँठ पक्की न थी। झटका पाते ज़मीन पर बबखर गये। नाधगन की तर जा र ा

ै , बता। भला चा ता

ाथ

ी खुल गयी और सारे रुपए

िुूँकारकर बोली -- ये रुपए क ाूँ सलये

ै , तो सब रुपए लौटा दे , न ीं क े दे ती ू ूँ। घर के परानी रात-हदन मरें और दाने-दाने को तरसें, लत्ता भी प नने को मयस्सर न ो और अूँजुली-भर रुपए लेकर चला श्जसके घर में चू े लोटें , व

ै इज़्ज़त बचाने! ऐसी बड़ी

भी इज़्ज़तवाला

ै तेरी इज़्ज़त!

ै ! दारोग़ा तलासी

ले ज ाूँ चा े तलासी। एक तो सौ रुपए की गाय गयी , उस पर य

ी तो लेगा। ले पलेथन! वा

री तेरी इज़्ज़त! ोरी ख़ून का घट ूूँ पीकर र

झुक गये। दारोग़ा का मूँु लताड़ न समली थी।

गया। सारा समू

जैसे थरारण उठा। नेताओं के ससर

ज़रा-सा नकल आया। अपने जीवन में उसे ऐसी

ोरी स्तंसभत-सा खड़ा र ा। जीवन में आज प ली बार

ि नया ने उसे भरे अखाड़े में पटकनी दी, आकाश तका हदया। अब व उठाये! मगर दारोग़ाजी इतनी जल्दी णखससयाकर बोले -- मझ ु े ऐसा मालम ू

कैसे ससर

ार माननेवाले न थे। ोता

ै , कक इस शैतान की ख़ाला ने

को िूँसाने के सलए ख़ुद गाय को ज़ र दे हदया।

ीरा

ि नया

ाथ मटकाकर बोली --

ाूँ, दे हदया। अपनी गाय थी, मार डाली, किर

ककसी दस ू रे का जानवर तो न ीं मारा? तुम् ारे त क़ीक़ात में य ी नकलता य ी सलखो। प ना दो मेरे

ाथ में

ै , तो

थकडड़याूँ। दे ख सलया तुम् ारा न्याय और

तुम् ारे अक्कल की दौड़। ग़रीबों का गला काटना दस ू री बात ै । दि ू का दि ू और पानी का पानी करना दस ू री बात।

ोरी आूँखों से अूँगारे बरसाता ि नया की ओर लपका; पर गोबर सामने आकर खड़ा

ो गया और उग्र भाव से बोला -- अच्छा दादा, अब ब ु त ु आ। पीछे ट जाओ, न ीं मैं क े दे ता ू ूँ , मेरा मूँु न दे खोगे। तुम् ारे ऊपर ाथ न उठाऊूँगा। ऐसा कपत ू न ीं ू ूँ। य ीं गले में िाूँसी लगा लूँ ग ू ा। ोरी पीछे

ट गया और ि नया शेर

क्या करता

ै मेरा। दारोग़ाजी बैठे

से इसकी इज़्ज़त जाती

ोकर बोली -- तू

ैं। इसकी ह म्मत दे ख।ूूँ घर में तलाशी

समझता

ोने

ै । अपनी मे ररया को सारे गाूँव के सामने ल तयाने से

इसकी इज़्ज़त न ीं जाती! य ी तो बीरों का िरम से लड़। श्जसकी बाूँ

ट जा गोबर, दे खूूँ तो

ै । बड़ा बीर

ै , तो ककसी मदद

पकड़कर लाया, उसे मारकर ब ादरु न क लायेगा। तू

ोगा, मैं इसे रोटी कपड़ा दे ता ू ूँ। आज से अपना घर सूँभाल। दे ख तो इसी गाूँव में तेरी छाती पर मूँग ू दलकर र ती ू ूँ कक न ीं, और उससे अच्छा खाऊूँ-प नूँग ू ी। इच्छा ो, दे ख ले। ोरी परास्त नरुपाय

ो गया। उसे ज्ञात ु आ, स्त्री के सामने पुरुष ककतना नबदल, ककतना ै । नेताओं ने रुपए चुनकर उठा सलये थे और दारोग़ाजी को व ाूँ से

चलने का इशारा कर र े थे।

ि नया ने एक ठोकर और जमायी -- श्जसके रुपए ककसी से उिार न ीं लेना दूँ ग ू ी, चा े मझ ु े

ै । और जो दे ना

ाककम के इजलास तक

ों, ले जाकर उसे दे दो।

में

ै , तो उसी से लेना। मैं दमड़ी भी न

ी चढ़ना पड़े।

म बाक़ी चक ु ाने को

पचीस रुपए माूँगते थे, ककसी ने न हदया। आज अूँजल ु ी-भर रुपये ठनाठन नकाल के हदये। मैं सब जानती ू ूँ। य ाूँ तो बाूँट-बखरा ोनेवाला था, सभी के मूँु मीठे ोते। ये त्यारे गाूँव के मुणखया ैं, ग़रीबों का ख़ून चूसनेवाले! सूद-ब्याज डेढ़ीसवाई, नज़र-नज़राना, घूस-घास जैसे भी

ो, ग़रीबों को लूटो। उस पर सुराज

चाह ए। जेल जाने से सरु ाज न समलेगा। सरु ाज समलेगा िरम से, न्याय से।

नेताओं के मूँु

में कासलख-सी लगी ु ई थी। दारोग़ाजी के मूँु ु ई थी। इज़्ज़त बचाने के सलए ीरा के घर की ओर चले।

रास्ते में दारोग़ा ने स्वीकार ककया -- औरत पटे कवरी बोले -- हदलेर



ु ज़ूर, ककदशा

पर झाड़-सी किरी

ै बड़ी हदलेर!

ै । ऐसी औरत को तो गोली मार दे ।

'तम ु लोगों का क़ाकफ़या तंग कर हदया उसने। चार-चार तो समलते ी।' ' ु ज़ूर के भी तो पंद्र रुपए गये।' 'मेरे क ाूँ जा सकते ैं। व न दे गा, गाूँव के मणु खया दें गे और पंद्र रुपये की जग पूरे पचास रुपए। आप लोग चटपट इंतज़ाम कीश्जए।' पटे कवरीलाल ने

ूँसकर क ा -- ु ज़ूर बड़े हदल्लगीबाज़

दातादीन बोले -- बड़े आदसमयों के य ी लक्षण ोते

ैं।

ैं। ऐसे भाग्यवानों के दशदन क ाूँ

ैं।

दारोग़ाजी ने कठोर स्वर में क ा -- य

ख़ुशामद किर कीश्जएगा। इस वक़्त तो

मुझे पचास रुपए हदलवाइए, नक़द; और य

समझ लो कक आनाकानी की, तो मैं

तुम चारों के घर की तलाशी लूँ ग ू ा। ब ु त मुमककन ै कक तुमने ीरा और ोरी को िूँसाकर उनसे सौ-पचास ऐंठने के सलए य पाखंड रचा ो। नेतागण अभी तक य ी समझ र े

ैं , दारोग़ाजी ववनोद कर र े

ैं।

णझंगुरीससं ने आूँखें मारकर क ा -- नकालो पचास रुपए पटवारी सा ब! नोखेराम ने उनका समथदन ककया -- पटवारी सा ब का इलाक़ा

ै । उन् ें ज़रूर

आपकी ख़ा तर करनी चाह ए। पंडडत नोखेरामजी की चौपाल आ गयी। दारोग़ाजी एक चारपाई पर बैठ गये और बोले -- तम ु लोगों ने क्या नकचय ककया? रुपए नकालते ो?

ो या तलाशी करवाते

दातादीन ने आपश्त्त की -- मगर ु ज़रू ...।

'मैं अगर-मगर कुछ न ीं सुनना चा ता।' णझंगुरीससं ने सा स ककया -- सरकार य

तो सरासर...।

'मैं पंद्र समनट का समय दे ता ू ूँ। अगर इतनी दे र में पूरे पचास रुपए न आये, तो तम ु चारों के घर की तलाशी

ोगी। और गंडाससं को जानते

ो। उसका मारा

पानी भी न ीं माूँगता।'

पटे कवरीलाल ने तेज़ स्वर से क ा -- आपको अश्ख़्तयार अच्छी हदल्लगी

ै , तलाशी ले लें। य

ै , काम कौन करे , पकड़ा कौन जाय।

'मैंने पचीस साल थानेदारी की ै जानते ो ?' 'लेककन ऐसा अूँिेर तो कभी न ीं ु आ।' 'तुमने अभी अूँिेर न ीं दे खा। क ो तो व भी हदखा दूँ ।ू एक-एक को पाूँच-पाूँच साल के सलए भेजवा दूँ ।ू य

मेरे बायें

ाथ का खेल

ै । डाके में सारे गाूँव को

काले पानी भेजवा सकता ू ूँ। इस िोखे में न र ना!' चारों सज्जन चौपाल के अंदर जाकर ववचार करने लगे। किर क्या ु आ ककसी को मालूम न ीं, ाूँ, दारोग़ाजी प्रसन्न हदखायी दे र े थे। और चारों सज्जनों के मूँु

पर िटकार बरस र ी थी। दारोग़ाजी घोड़े पर सवार

ोकर चले, तो चारों

नेता दौड़ र े थे। घोड़ा दरू नकल गया तो चारों सज्जन लौटे ; इस तर ककसी वप्रयजन का संस्कार करके कमशान से लौट र े स सा दातादीन बोले -- मेरा सराप न पड़े तो मूँु

ों।

न हदखाऊूँ।

नोखेराम ने समथदन ककया -- ऐसा िन कभी िलते न ीं दे खा। पटे कवरी ने भववष्यवाणी की --

राम की कमाई

राम में जायगी।

मानो

णझंगरु ीससं को आज ईकवर की न्यायपरता में संदे जाने क ाूँ

ैं कक य

अूँिेर दे खकर भी पावपयों को दं ड न ीं दे त।े इस वक़्त इन

सज्जनों की तस्वीर खींचने लायक़ थी। ***

ो गया था। भगवान ण न

10 ीरा का क ीं पता न चला और हदन गुज़रते जाते थे।

ो सकी की; किर

ोरी से ज ाूँ तक दौड़िूप

ारकर बैठ र ा। खेती-बारी की भी कफ़क्र करनी थी। अकेला

आदमी क्या-क्या करता। और अब अपनी खेती से ज़्यादा कफ़क्र थी पु नया की खेती की। पु नया अब अकेली

ोकर और भी प्रचंड

उसकी ख़ुशामद करते बीतती थी।

ीरा था, तो व

ो गयी थी।

पु नया को दबाये र ता था।

उसके चले जाने से अब पु नया पर कोई अंकुस न र पट्टीदारी

ीरा से थी। पु नया अबला थी। उससे व

ोरी को अब

गया था।

ोरी की

क्या तनातनी करता। और

पु नया उसके स्वभाव से पररधचत थी और उसकी सज्जनता का उसे ख़ब ू दं ड

दे ती थी। ख़ैररयत य ी ु ई कक कारकुन सा ब ने पु नया से बक़ाया लगान वसूल करने की कोई सख़्ती न की, केवल थोड़ी सी पूजा लेकर राज़ी ो गये। न ीं, ोरी अपनी बक़ाया के साथ उसकी बक़ाया चुकाने के सलए भी क़रज़ लेने को तैयार था। सावन में िान की रोपाई की ऐसी िूम र ी कक मजूर न समले और

ोरी

अपने खेतों में िान न रोप सका; लेककन पु नया के खेतों में कैसे न रोपाई ोरी ने प र रात-रात तक काम करके उसके िान रोपे। अब

ोरी

ोती।

ी तो उसका

रक्षक

ै ! अगर पु नया को कोई कष्ट ु आ, तो द ु नया उसी को तो ूँसेगी। नतीजा य ु आ कक ोरी को ख़रीफ़ फ़सल में ब ु त थोड़ा अनाज समला, और पु नया के बखार में िान रखने की जग न र ी। ोरी और ि नया में उस हदन से बराबर मनमट ु ाव चला आता था। गोबर से भी

ोरी की बोल-चाल बंद थी।

माूँ-बेटे ने समलकर जैसे उसका बह ष्कार कर हदया था। अपने घर में परदे शी बना ु आ था। दो नावों पर सवार ोनेवालों की जो दग ु द त ोती ै , व ी उसकी ो र ी थी। गाूँव में भी अब उसका उतना आदर न था। ि नया ने अपने सा स से श्स्त्रयों का

ी न ीं, पुरुषों का नेतत्ृ व भी प्राप्त कर सलया था। म ीनों तक

आसपास के इलाक़ों में कांड की ख़ब ू चचाद र ी। य ाूँ तक कक व तक िारण करता जाता था -- 'ि नया नाम उसे। दारोग़ाजी ने ज्यों ी उसके आदमी के

अलौककक रूप

ै उसका जी। भवानी का इष्ट

ाथ में

थकड़ी डाली कक ि नया ने

भवानी का सुसमरन ककया। भवानी उसके ससर आ गयी। किर तो उसमें इतनी शश्क्त आ गयी कक उसने एक झटके में प त की

थकड़ी तोड़ डाली और दारोग़ा

की मूँछ ू ें पकड़कर उखाड़ लीं, किर उसकी छाती पर चढ़ बैठी। दारोग़ा ने जब ब ु त मानता की, तब जाकर उसे छोड़ा।'



कुछ हदन तक तो लोग ि नया के दशदनों को आते र े । व

बात अब परु ानी पड़

गयी थी; लेककन गाूँव में ि नया का सम्मान ब ु त बढ़ गया। उसमें अद्भुत सा स ै और समय पड़ने पर व मदो के भी कान काट सकती ै । मगर िीरे िीरे ि नया में एक पररवतदन दे खकर भी व ववरक्त

ो र ा था।

कुछ न बोलती थी। और य

ोरी को पु नया की खेती में लगे इससलए न ीं कक व

ोरी से

ो गयी थी; बश्ल्क इससलए कक पु नया पर अब उसे भी दया आती थी।

ीरा का घर से भाग जाना उसकी प्र तशोि-भावना की तुश्ष्ट के सलए काफ़ी था।

इसी बीच में

ोरी को ज्वर आने लगा। फ़स्ली बुख़ार िैला था

ी।

ोरी उसके

चपेट में आ गया। और कई साल के बाद जो ज्वर आया, तो उसने सारी बक़ाया चुका ली। एक म ीने तक कुचल डाला

ोरी खाट पर पड़ा र ा। इस बीमारी ने

ी, पर ि नया पर भी ववजय पा गयी। प त जब मर र ा

उससे कैसा बैर। ऐसी दशा में तो बैररयों से भी बैर न ीं र ता , व पत

ै । लाख बुरा

ो; पर उसी के साथ जीवन के पचीस साल कटे

ै तो उसी के साथ, दःु ख भोगा

या बुरा, अपना

ै तो उसी के साथ, अब तो चा े व

बैठूूँ।

ै , तो

तो अपना ैं , सुख ककया अच्छा



ै । दाढ़ीजार ने मुझे सबके सामने मारा, सारे गाूँव के सामने मेरा

पानी उतार सलया; लेककन तब से ककतना लश्ज्जत आता

ोरी को तो

ै तो ससर झुकाये खाकर उठ जाता

ै कक सीिे ताकता न ीं। खाने

ै , डरता र ता

ोरी जब अच्छा ु आ, तो प त-पत्नी में मेल

ै कक मैं कुछ क



ो गया था।

एक हदन ि नया ने क ा -- तम् ु ें इतना ग़स् ु सा कैसे आ गया। मझ ु े तो तम् ु ारे ऊपर ककतना

ी ग़स् ु सा आये मगर

ाथ न उठाऊूँगी।

ोरी लजाता ु आ बोला -- अब उसकी चचाद न कर ि नया! मेरे ऊपर कोई भूत सवार था। इसका मझ ु े ककतना दःु ख ु आ ै , व मैं ी जानता ू ूँ।

'और जो मैं भी उस क्रोि में डूब मरी ोती!' 'तो क्या मैं रोने के सलए बैठा र ता? मेरी ल ाश भी तेरे साथ धचता पर जाती।' 'अच्छा चुप र ो, बेबात की बात मत बको। ' 'गाय गयी सो गयी, मेरे ससर पर एक ववपश्त्त डाल गयी। पु नया की कफ़क्र मुझे मारे डालती

ै। '

'इसीसलए तो क ते ैं , भगवान ण घर का बड़ा न बनाये। छोटों को कोई न ीं ूँसता। नेकी-बदी सब बड़ों के ससर जाती

ै। '

माघ के हदन थे। मघावट लगी ु ई थी। घटाटोप अूँिेरा छाया ु आ था। एक तो जाड़ों की रात, दस ू रे माघ की वषाद। मौत का-सा सन्नाटा छाया ु आ था। अूँिेरा तक न सूझता था। ोरी भोजन करके पु नया के मटर के खेत की में ड़ पर

अपनी मड़ैया में लेटा ु आ था। चा ता था, शीत को भूल जाय और सो र े ; लेककन तार-तार कम्बल और िटी ु ई समरज़ई और शीत के झोंकों से गीली पुआल। इतने शत्रुओं के सम्मुख आने का नींद में सा स न था। आज तमाखू भी न समला कक उसी से मन ब लाता। उपला सुलगा लाया था, पर शीत में व बुझ गया। बेवाय िटे पैरों को पेट में डालकर और दबाकर और कम्बल में मूँु

छपाकर अपनी

भी

ाथों को जाूँघों के बीच में

ी गमद साूँसों से अपने को गमद

करने की चेष्टा कर र ा था। पाूँच साल ु ए, य समरज़ई बनवाई थी। ि नया ने एक प्रकार से ज़बरदस्ती बनवा दी थी, व ी जब एक बार काबुली से कपड़े सलये

थे, श्जसके पीछे ककतनी साूँसत ु ई, ककतनी गासलयाूँ खानी पड़ीं, और कम्बल तो उसके जन्म से भी प ले का ै । बचपन में अपने बाप के साथ व इसी में सोता था, जवानी में गोबर को लेकर इसी कम्बल में उसके जाड़े कटे थे और बुढ़ापे में आज व ी बढ़ ू ा कम्बल उसका साथी न ीं, दख ु नेवाला दाूँत

ै , पर अब व

ै । जीवन में ऐसा तो कोई हदन

और म ाजन को दे कर कभी कुछ बचा पड़ गया। न करो तो द ु नया क ते

ैं। सब य

घर में भर लेता

समझते

ै । ए सान तो क्या

एक नया जंजाल

संशय बना र े कक लोग क्या

द ु नया को लूट लेता

ै , उसकी सारी उपज

ोगा उलटा कलंक लग र ा

ै । और उिर

ैं कक क ीं कोई सगाई का डौल करो, अब काम

न ीं चलता। सोभा उससे कई बार क ैं। न

ी न ीं आया कक लगान

ो। और बैठे बैठाये य

ूँसे, करो तो य

ैं कक व

भोला कई बेर याद हदला चुके से अच्छे न ीं

भोजन को चबानेवाला दाूँत

चुका

ै कक पु नया के ववचार उसकी ओर

ों। पु नया की ग ृ स्थी तो उसे सूँभालनी

ी पड़ेगी, चा े

ूँसकर सूँभाले या रोकर। ि नया का हदल भी अभी तक साफ़ न ीं ु आ। अभी तक उसके मन में मलाल बना ु आ ै । मझ ु े सब आदसमयों के सामने उसको

मारना न चाह ए था। श्जसके साथ पचीस साल गुज़र गये, उसे मारना और सारे गाूँव के सामने, मेरी नीचता थी; लेककन ि नया ने भी तो मेरी आबरू उतारने में कोई कसर न ीं छोड़ी। मेरे सामने से कैसा कतराकर नकल जाती

ै जैसे कभी

की जान-प चान

ी न ीं। कोई बात क नी

ोती

ै , तो सोना या रूपा से

क लाती

ै । दे खता ू ूँ उसकी साड़ी िट गयी ै ; मगर कल मुझसे क ा भी, तो सोना की साड़ी के सलए, अपनी साड़ी का नाम तक न सलया। सोना की साड़ी अभी दो-एक म ीने थेगसलयाूँ लगाकर चल सकती पेवन्दों के बबलकुल कथरी

ो गयी

ै । उसकी साड़ी तो मारे

ै । और किर मैं

ी कौन उसका मनु ार कर

र ा ू ूँ। अगर मैं ी उसके मन की दो-चार बातें करता र ता, तो कौन छोटा जाता। य ी तो ोता व थोड़ा-सा अदरवान कराती, दो-चार लगनेवाली बात क ती तो क्या मुझे चोट लग जाती; लेककन मैं बुड्ढा गया। व मूँु



ोकर भी उल्लू बना र

तो क ो इस बीमारी ने आकर उसे नमद कर हदया, न ीं जाने कब तक

िुलाये र ती। और आज उन दोनों में जो बातें

भोजन थीं। व

हदल से बोली थी और

ोरी गद्गद

ु ई थीं, व मानो भूखे का ो गया था। उसके जी में

आया, उसके पैरों पर ससर रख दे और क े -- मैंने तुझे मारा

ै तो ले मैं ससर

झुकाये लेता ू ूँ , श्जतना चा े मार ले, श्जतनी गासलयाूँ दे ना चा े दे ले। स सा उसे मूँड़य ै ा के सामने चूडड़यों की झंकार सुनायी दी। उसने कान लगाकर सुना। ाूँ, कोई

आयी

ै । पटवारी की लड़की

ैं , सारे गाूँव से अच्छा खाते

ैं, डयोढ़ी-सवाई चलाते

खड़ा करके ोगा, वैसी

उठकर

ो। मटर उखाड़ने

ोगी। न जाने क्यों इन लोगों की नीयत इतनी खोटी

अच्छा प नते करते

ोगी, चा े पंडडत की घरवाली

ैं , घूस लेते

मा-सुमा को पीसते र ते

ी संतान भी

ज़ारों रुपए गड़े

ैं, दस्तूरी लेते

ाल! बाप जैसा

ोगी। और आप न ीं आते, औरतों को भेजते जाय। नीच क ने को नीच

ै । औरत जात का

आूँखों दे खकर मक्खी नगलनी पड़ती

ैं , लेन-दे न

ैं, एक-न-एक मामला

ैं, किर भी नीयत का य

ाथ पकड़ लूँ ू तो क्या पानी र

उनका मन तो और नीचा

ैं , घर में

ै । सारे गाूँव से

ैं। अभी

ैं ; जो ऊूँचे

ाथ पकड़ते भी तो न ीं बनता ,

ै । उखाड़ ले भाई, श्जतना तेरा जी चा े ।

समझ ले, मैं न ीं ू ूँ। बड़े आदमी अपनी लाज न रखें, छोटों को तो उनकी लाज रखनी ी पड़ती ै । मगर न ीं, य तो ि नया ै । पुकार र ी ै । ि नया ने पुकारा -- सो गये कक जागते

ो?

ोरी झटपट उठा और मूँड़य ै ा के बा र नकल आया। आज मालम ू

प्रसन्न

ो गयी, उसे वरदान दे ने आयी

ैं, इसके साथ

ोता

ै , दे वी

ी इस बादल-बूँद ू ी और

जाड़े-पाले में इतनी रात गये उसका आना शंकाप्रद भी था। ज़रूर कोई-न-कोई

ैं ,

बात ु ई ै । बोला -- ठं डी के मारे नींद भी आती आयी? कुसल तो ै ?

ै ? तू इस जाड़े-पाले में कैसे

' ाूँ सब कुसल ै । ' 'गोबर को भेजकर मुझे क्यों न ीं बुलवा सलया। ' ि नया ने कोई उत्तर न हदया। मूँड़य ै ा में आकर पुआल पर बैठती ु ई बोली -- गोबर ने तो मूँु में कासलख लगा दी, उसकी करनी क्या पूछते ो। श्जस बात को डरती थी, व ोकर र ी।

'क्या ु आ क्या? ककसी से मार-पीट कर बैठा?' 'अब मैं जानूँू, क्या कर बैठा, चलकर पूछो उसी राूँड़ से?' 'ककस राूँड़ से? क्या क ती ै तू? बौरा तो न ीं गयी?' ' ाूँ, बौरा क्यों न जाऊूँगी। बात ी ऐसी ु ई ै कक छाती दग ु न ु ी ो जाय।' ोरी के मन में प्रकाश की एक लम्बी रे खा ने प्रवेश ककया।

'साफ़-साफ़ क्यों न ीं क ती। ककस राूँड़ को क र ी ै ?' 'उसी झु नया को, और ककसको!' 'तो झु नया क्या य ाूँ आयी ै ?' 'और क ाूँ जाती, पूछता कौन?' 'गोबर क्या घर में न ीं ै ?' 'गोबर का क ीं पता न ीं। जाने क ाूँ भाग गया। इसे पाूँच म ीने का पेट ै । '

ोरी सब कुछ समझ गया। गोबर को बार-बार अह राने जाते दे खकर व

खटका

था ज़रूर; मगर उसे ऐसा णखलाड़ी न समझता था। युवकों में कुछ रससकता ी

ोती

ै , इसमें कोई नयी बात न ीं। मगर श्जस रूई के गाले को उसने नीले

आकाश में

वा के झोंके से उड़ते दे खकर केवल मुस्करा हदया था, व

आकाश में छाकर उसके मागद को इतना अंिकारमय बना दे गा , य दे वता भी न जान सकता था। गोबर ऐसा लम्पट! व

सारे

तो कोई

सरल गूँवार श्जसे व

अभी बच्चा समझता था; लेककन उसे भोज की धचंता न थी, पंचायत का भय न था, झु नया घर में कैसे र े गी इसकी धचन्ता भी उसे न थी। उसे धचंता थी गोबर की। लड़का लज्जाशील

ै , अनाड़ी

ै आत्मासभमानी

ै , क ीं कोई नादानी न कर

बैठे। घबड़ाकर बोला -- झु नया ने कुछ क ा न ीं, गोबर क ाूँ गया? उससे क कर गया

ोगा।

ि नया झूँुझलाकर बोली -- तुम् ारी अक्कल तो घास खा गयी तो य ाूँ बैठी पीता



ै , भागकर जायगा क ाूँ? य ीं क ीं छपा बैठा

ै । उसकी च े ती

ोगा। दि ू थोड़े

ै कक खो जायगा। मुझे तो इस कलमूँु ी झु नया की धचन्ता



ै कक इसे

क्या करूूँ? अपने घर में तो मैं छन-भर भी न र ने दूँ ग ू ी। श्जस हदन गाय लाने गया

ै , उसी हदन से दोनों में ताक-झाूँक

न खुलती। मगर जब पेट र

ोने लगी। पेट न र ता तो अभी बात

गया तो झु नया लगी घबड़ाने। क ने लगी, क ीं

भाग चलो। गोबर टालता र ा। एक औरत को साथ लेके क ाूँ जाय, कुछ न सूझा। आणख़र जब आज व

ससर

ो गयी कक मुझे य ाूँ से ले चलो, न ीं मैं

परान दे दूँ ग ू ी, तो बोला -- तू चलकर मेरे घर में र , कोई कुछ न बोलेगा, अम्माूँ को मना लूँ ग ू ा। य

गिी उसके साथ चल पड़ी। कुछ दरू तो आगे-आगे आता

भींग गयी और व

न लौटा, भागी य ाूँ चली आयी। मैंने तो क

र ा, किर न जाने ककिर सरक गया। य ककया

हदया , जैसा

ै वैसा िल भोग। चुड़ल ै ने लेके मेरे लड़के को चौपट कर हदया। तब से

बैठी रो र ी

ै । उठती

ी न ीं। क ती

भगवान ण ऐसी संतान से तो बाूँझ सबेरा

खड़ी-खड़ी उसे पुकारती र ी। जब रात

ै , अपने घर कौन मूँु

लेकर जाऊूँ।

ी रखे तो अच्छा।

ोते- ोते सारे गाूँव में काूँव काूँव मच जायगी। ऐसा जी

ोता

ै , मा ु र खा लूँ ।ू मैं तुमसे क े दे ती ू ूँ, मैं अपने घर में न रखग ूूँ ी। गोबर को रखना ो, अपने

ससर पर रखे। मेरे घर में ऐसी छत्तीससयों के सलए जग बीच में बोले, तो किर या तो तुम् ीं र ोगे, या मैं

न ीं

ै और अगर तम ु

ी र ू ूँगी।

ोरी बोला -- तुझसे बना न ीं। उसे घर में आने

ी न दे ना चाह ए था।

'सब कुछ क के ार गयी। टलती ी न ीं। िरना हदये बैठी ै ।' 'अच्छा चल, दे खूूँ कैसे न ीं उठती, घसीटकर बा र नकाल दूँ ग ू ा।' 'दाढ़ीजार भोला सब कुछ दे ख र ा था; पर चुप्पी सािे बैठा र ा। बाप भी ऐसे बे या

ोते

ैं!'

'व क्या जानता था, इनके बीच में क्या णखचड़ी पक र ी ै ।' 'जानता क्यों न ीं था। गोबर रात-हदन घेरे र ता था तो क्या उसकी आूँखें िूट गयी थीं। सोचना चाह ए था न, कक य ाूँ क्यों दौड़-दौड़ आता

ै ।'

'चल मैं झु नया से पूछता ू ूँ न।' दोनों मूँड़य ै ा से नकलकर गाूँव की ओर चले। ऊपर गयी

ोरी ने क ा -- पाूँच घड़ी रात के

ोगी।

ि नया बोली --

ाूँ, और क्या; मगर कैसा सोता पड़ गया

ै । कोई चोर आये , तो

सारे गाूँव को मस ू ले जाय।

'चोर ऐसे गाूँव में न ीं आते। ि नयों के घर जाते ैं।' ि नया ने हठठक कर

ोरी का

ाथ पकड़ सलया और बोली -- दे खो, ल्ला न

मचाना; न ीं सारा गाूँव जाग उठे गा और बात िैल जायगी। ोरी ने कठोर स्वर में क ा -- मैं य

कुछ न ीं जानता।

ाथ पकड़कर घसीट

लाऊूँगा और गाूँव के बा र कर दूँ ग ू ा। बात तो एक हदन खुलनी ी क्यों न खुल जाय। व

कुकरम ककया, तो क्या

मेरे घर आयी क्यों? जाय ज ाूँ गोबर

मसे पूछकर ककया था?



ै , किर आज ै । उसके साथ

ि नया ने किर उसका पकड़ोगे, तो व

ाथ पकड़ा और िीरे से बोली -- तुम उसका

ाथ

धचल्लायेगी।

'तो धचल्लाया करे ।' 'मुदा इतनी रात गये इस अूँिेरे सन्नाटे रात में जायगी क ाूँ, य तो सोचो।' 'जाय ज ाूँ उसके सगे ों। मारे घर में उसका क्या रखा ै ! ' ' ाूँ, लेककन इतनी रात गये घर से नकालना उधचत न ीं। पाूँव भारी ै , क ीं डरडरा जाय, तो और आफ़त

ो। ऐसी दशा में कुछ करते-िरते भी तो न ीं बनता!'

' में क्या करना ै , मरे या जीये। ज ाूँ चा े जाय। क्यों अपने मूँु में कासलख लगाऊूँ। मैं तो गोबर को भी नकाल बा र करूूँगा।'

ि नया ने गंभीर धचंता से क ा -- कासलख जो लगनी थी, व व

अब जीते-जी न ीं छूट सकती। गोबर ने नौका डुबा दी।

तो अब लग चुकी।

'गोबर ने न ीं, डुबाई इसी ने। व तो बच्चा था। इसके पंजे में आ गया।' 'ककसी ने डुबाई, अब तो डूब गयी।' दोनों द्वार के सामने प ु ूँच गये। स सा ि नया ने ोरी के गले में ाथ डालकर क ा -- दे खो तुम् ें मेरी सौं , उस पर ाथ न उठाना। व तो आप ी रो र ी ै । भाग की खोटी न

ोती, तो य

हदन

ी क्यों आता।

ोरी की आूँखें आद्ररण ो गयीं। ि नया का य

मात-ृ स्ने

उस अूँिेरे में भी जैसे

दीपक के समान उसकी धचंता-जजदर आकृ त को शोभा प्रदान करने लगा। दोनों ी के हृदय में जैसे अतीत-यौवन सचेत

ो उठा।

ोरी को इस वीत-यौवना में भी

व ी कोमल हृदय बासलका नज़र आयी, श्जसने पच्चीस साल प ले उसके जीवन में प्रवेश ककया था। उस आसलंगन में ककतना अथा

वात्सल्य था , जो सारे

कलंक, सारी बािाओं और सारी मूलबि परं पराओं को अपने अंदर समेटे लेता था।

दोनों ने द्वार पर आकर ककवाड़ों के दराज़ से अन्दर झाूँका। दीवट पर तेल की कुप्पी जल र ी थी और उसके मध्यम प्रकाश में झु नया घुटने पर ससर रखे, द्वार की ओर मूँु

ककये, अंिकार में उस आनंद को खोज र ी थी, जो एक क्षण

प ले अपनी मोह नी छवव हदखाकर ववलीन

ो गया था। व

आफ़त की मारी

व्यंग-बाणों से आ त और जीवन के आघातों से व्यधथत ककसी वक्ष ृ की छाूँ

खोजती किरती थी, और उसे एक भवन समल गया था, श्जसके आश्रय में व अपने को सुरक्षक्षत और सुखी समझ र ी थी; पर आज व

सुख-ववलास सलये अलादीन के राजम ल की भाूँ त ग़ायब

भवन अपना सारा ो गया था और

भववष्य एक ववकराल दानव के समान उसे नगल जाने को खड़ा था। एकाएक द्वार खुलते और

ोरी को आते दे खकर व

भय से काूँपती ु ई उठी और ोरी के पैरों पर धगरकर रोती ु ई बोली -- दादा, अब तम् ु ारे ससवाय मझ ु े दस ू रा ठौर न ीं ै , चा े मारो चा े काटो; लेककन अपने द्वार से दरु दरु ाओ मत। ोरी ने झुककर उसकी पीठ पर

मत बेटी, डर मत। तेरा घर भोला की बेटी

ै , वैसी

धचन्ता मत कर। जो लगेगा, व

ाथ िेरते ु ए प्यार-भरे स्वर में क ा -- डर ै , तेरा द्वार ै , तेरे म ैं। आराम से र । जैसी तू

ी मेरी बेटी

ै । जब तक

म जीते

ैं , ककसी बात की

मारे र ते कोई तुझे तरछी आूँखों न दे ख सकेगा। भोज-भात

म सब दे लें गे, तू ख़ा तर-जमा रख।

झु नया, सांत्वना पाकर और भी अब तुम् ीं मेरे बाप

ोरी के पैरों से धचमट गयी और बोली -- दादा

ो और अम्माूँ, तुम् ीं मेरी माूँ

दो, न ीं मेरे काका और भाई मुझे कच्चा

ो। मैं अनाथ ू ूँ। मुझे सरन ी खा जायूँगे।

ि नया अपनी करुणा के आवेश को अब न रोक सकी। बोली -- तू चल घर में बैठ, मैं दे ख लूँ ग ू ी काका और भैया को। संसार में उन् ीं का राज न ीं

ै । ब ु त करें गे, अपने ग ने ले लें गे। िेंक दे ना उतारकर।

अभी ज़रा दे र प ले ि नया ने क्रोि के आवेश में झु नया को कुलटा और कलंककनी और कलमूँु ी न जाने क्या-क्या क

डाला था। झाड़ू मारकर घर से नकालने जा र ी थी। अब जो झु नया ने स्ने , क्षमा और आकवासन से भरे य

वाक्य सन ु े, तो साध्वी श्जसने

ोरी के पाूँव छोड़कर ि नया के पाूँव से सलपट गयी और व ी

ोरी के ससवा ककसी पुरुष को आूँख भरकर दे खा भी न था, इस

पावपष्ठा को गले लगाये उसके आूँसू पोछ र ी थी और उसके त्रस्त हृदय को

अपने कोमल शब्दों से शांत कर र ी थी, जैसे कोई धचडड़या अपने बच्चे को परों में छपाये बैठी

ो।

ोरी ने ि नया को संकेत ककया कक इसे कुछ णखला-वपला दे और झु नया से

पूछा -- क्यों बेटी, तुझे कुछ मालूम

ै , गोबर ककिर गया!

झु नया ने सससकते ु ए क ा -- मुझसे तो कुछ न ीं क ा। मेरे कारन तुम् ारे ऊपर । य

क ते-क ते उसकी आवाज़ आूँसुओं में डूब गयी।

छपा सका।

ोरी अपनी व्याकुलता न

'जब तूने आज उसे दे खा, तो कुछ दख ु ी था?' 'बातें तो ूँस- ूँसकर कर र े थे। मन का ाल भगवान ण जाने।' 'तेरा मन क्या क ता ै , ै गाूँव में ी कक क ीं बा र चला गया?' 'मझ ु े तो शंका ोती ै , क ीं बा र चले गये ैं। ' 'य ी मेरा मन भी क ता ै , कैसी नादानी की। म उसके दस ु मन थोड़े ी थे। जब भली या बुरी एक बात तो उसने

ो गयी, तो उसे नभानी पड़ती

ै । इस तर

भागकर

मारी जान आफ़त में डाल दी। '

ि नया ने झु नया का श्जसकी बाूँ

ाथ पकड़कर अंदर ले जाते ु ए क ा -- कायर क ीं का। पकड़ी, उसका नबा करना चाह ए कक मूँु में कासलख लगाकर

भाग जाना चाह ए। अब जो आये , तो घर में पैठने न दूँ ।ू ोरी व ीं पुआल में लेटा। गोबर क ाूँ गया? य

पक्षी की भाूँ त मूँडराने लगा। ***

प्रकन उसके हृदयाकाश में ककसी

11 ऐसे असािारण कांड पर गाूँव में जो कुछ

लचल मचना चाह ए था, व

मचा

और म ीनों तक मचता र ा। झु नया के दोनों भाई लाहठयाूँ सलये गोबर को खोजते किरते थें। भोला ने क़सम खायी कक अब न झु नया का मूँु न इस गाूँव का।

दे खेंगे और

ोरी से उन् ोंने अपनी सगाई की जो बातचीत की थी, व

टूट गयी थी। अब व

अब

अपनी गाय के दाम लें गे और नक़द और इसमें ववलंब

ु आ तो ोरी पर दावा करके उसका घर-द्वार नीलाम करा लें गे। गाूँववालों ने ोरी को जा त-बा र कर हदया। कोई उसका ु क़्क़ा न ीं पीता, न उसके घर का

पानी पीता

ै । पानी बंद कर दे ने की कुछ बातचीत थी; लेककन ि नया का चंडी-

रूप सब दे ख चुके थे; इससलये ककसी की आगे आने की ह म्मत न पड़ी। ि नया ने सबको सुना-सुनाकर क

हदया -- ककसी ने उसे पानी भरने से रोका,

तो उसका और अपना ख़न ू एक कर दे गी। इस ललकार ने सभी के वपत्ते पानी कर हदये। सबसे दख ु ी

ै झु नया, श्जसके कारण य

सब उपद्रव

ो र ा

ै , और

गोबर की कोई खोज-ख़बर न समलना इस दःु ख को और भी दारुण बना र ा सारे हदन मूँु

छपाये घर में पड़ी र ती

वाग्बाणों की ऐसी वषाद िंिे करती र ती र ती

क्योंकक कोई उसके

ै और जब अवसर पाती

ो जाय। हदन-भर घर के

ै , रो लेती

ै।

रदम थर-थर काूँपती

न बैठे। अकेला भोजन तो न ीं पका सकती;

ाथ का खायेगा न ीं , बाक़ी सारा काम उसने अपने ऊपर ले

सलया। गाूँव में ज ाूँ चार स्त्री-पुरुष जमा एक हदन ि नया

ै । बा र नकले तो चारों ओर से

ो कक जान बचाना मुश्ककल

ै कक क ीं ि नया कुछ क

ै।

ो जाते

ैं, य ी कुत्सा

ोने लगती

ै।

ाट से चली आ र ी थी कक रास्ते में पंडडत दातादीन समल

गये। ि नया ने ससर नीचा कर सलया और चा ती थी कक कतराकर नकल जाय ; पर पंडडतजी छे ड़ने का अवसर पाकर कब चूकनेवाले थे। छे ड़

ी तो हदया -- गोबर का कुछ सर-संदेश समला कक न ीं ि नया? ऐसा कपत ू

नकला कक घर की सारी मरजाद बबगाड़ दी।

ि नया के मन में स्वयम ण य ी भाव आते र ते थे।

उदास मन से बोली -- बरु े हदन आते

ैं बाबा, तो आदमी की म त किर जाती

ै,

और क्या क ू ूँ।

दातादीन बोले -- तुम् ें इस दष्ु टा को घर में न रखना चाह ए था। दि ू में मक्खी पड़ जाती

ै , तो आदमी उसे नकालकर िेंक दे ता

सोचो, ककतनी बदनामी और जग- ूँसाई कुछ न

ोता। लड़कों से इस तर

ो र ी

की भूल-चूक

ै , और दि ू पी जाता

ै। व

कुलटा घर में न र ती, तो

ोती र ती

को भात न दोगे, बाम् नों को भोज न दोगे, कैसे उद्िार रखते, तो कुछ न

ोता।

ोरी तो पागल



ै।

ै । जब तक बबरादरी

ोगा? उसे घर में न

ी, तू कैसे िोखा खा गयी।

दातादीन का लड़का मातादीन एक चमाररन से िूँसा ु आ था। इसे सारा गाूँव जानता था; पर व तलक लगाता था, पोथी-पत्रे बाूँचता था, कथा-भागवत क ता था, िमद-संस्कार कराता था। उसकी प्र तष्ठा में ज़रा भी कमी न थी। व

नत्य

स्नान-पज ू ा कर के अपने पापों का प्रायश्कचत कर लेता था। ि नया जानती थी , झु नया को आश्रय दे ने

ी से य

सारी ववपश्त्त आयी

ै । उसे न जाने कैसे दया

आ गयी, न ीं उसी रात को झु नया को नकाल दे ती, तो क्यों इतना उप ास ोता; लेककन य

भय भी

ोता था कक तब उसके सलए नदी या कुआूँ के ससवा

और हठकाना क ाूँ था। एक प्राण का मूल्य दे कर -- एक न ीं दो प्राणों का -व व

अपने मरजाद की रक्षा कैसे करती? किर झु नया के गभद में जो बालक घ नया

ी के हृदय का टुकड़ा तो

ै।

ै,

ूँसी के डर से उसके प्राण कैसे ले

लेती! और किर झु नया की नम्रता और दीनता भी उसे नरस्त्र करती र ती थी। य

जली-भुनी बा र से आती; पर ज्यों ी झु नया लोटे का पानी लाकर रख दे ती

और उसके पाूँव दबाने लगती, उसका क्रोि पानी

ो जाता। बेचारी अपनी लज्जा

और दःु ख से आप दबी ु ई

ै , उसे और क्या दबाये, मरे को क्या मारे ।

उसने तीव्र स्वर में क ा --

मको कुल-पर तसठा इतनी प्यारी न ीं

कक उसके पीछे एक जीव की तो पकड़ी

ै मेरे बेटे ने

त्या कर डालते। ब्या ता न स ी ; पर उसकी बाूँ

ी। ककस मूँु

से नकाल दे ती। व ी काम बड़े-बड़े करते

ैं, मुदा उनसे कोई न ीं बोलता, उन् ें कलंक

आदमी करते

ी न ीं लगता। व ी काम छोटे

ैं , तो उनकी मरजाद बबगड़ जाती

ै , नाक कट जाती

आदसमयों को अपनी नाक दस ू रों की जान से प्यारी इतनी प्यारी न ीं।

ै म ाराज,

ै । बड़े

ोगी, में तो अपनी नाक

दातादीन

ार माननेवाले जीव न थे। व

इस गाूँव के नारद थे। य ाूँ की व ाूँ,

व ाूँ की य ाूँ, य ी उनका व्यवसाय था। व

चोरी तो न करते थे , उसमें जान-

जोणख़म था; पर चोरी के माल में ह स्सा बूँटाने के समय अवकय प ु ूँ च जाते थे। क ीं पीठ में िल ू न लगने दे ते थे। ज़मींदार को आज तक लगान की एक पाई

न दी थी, क़ुक़ी आती, तो कुएूँ में धगरने चलते, नोखेराम के ककये कुछ न बनता; मगर असासमयों को सूद पर रुपए उिार दे ते थे। ककसी स्त्री को कोई आभूषण बनवाना

ै , दातादीन उसकी सेवा के सलए

उन् ें बड़ा आनन्द आता दवा-दारू भी करते इतने

ै , यश भी समलता

ैं और सा

उन् ीं की शरण जाते

ै , दक्षक्षणा भी समलती

ै । बीमारी में

ो। और सभा-चतरु

ैं , बालकों में बालक और बूढ़ों में बढ़ ू े।

ै;

ै कक लोग बार-बार िोखा खाकर भी

ैं।

ससर और दाढ़ी ह लाकर बोले -- य

इसी तर

तय करने में

के भी। गाूँव में ककसी को उन पर ववकवास न ीं

पर उनकी वाणी में कुछ ऐसा आकषदण

का य ी िरम

ैं। शादी-ब्या

ैं, झाड़-िूँू क भी, जैसी मरीज़ की इच्छा

ैं कक जवानों में जवान बन जाते

चोर के भी समत्र

ाश्ज़र

तू ठीक क ती

ै ; लेककन लोक-री त का नबा

एक हदन लाला पटे कवरी ने

ै ि नया! िमात्माद लोगों

तो करना

ोरी को छे ड़ा। व

ी पड़ता

ै।

गाूँव में पुडयात्मा

मश ू र थे। पूणमादसी को नत्य सत्यनारायण की कथा सुनते; पर पटवारी ोने के नाते खेत बेगार में जुतवाते थे, ससंचाई बेगार में करवाते थे और असासमयों को एक दस ू रे से लड़ाकर रक़में मारते थे। सारा गाूँव उनसे काूँपता था! ग़रीबों को दस-दस, पाूँच-पाूँच क़रज़ दे कर उन् ोंने कई

ज़ार की संपश्त्त बना ली थी। फ़सल

की चीज़ें असासमयों से लेकर कच री और पुसलस के अमलों की भें ट करते र ते थे। इससे इलाक़े भर में उनकी अच्छी िाक थी। अगर कोई उनके चढ़ा, तो व

दारोग़ा गंडाससं थे, जो

त्थे न ीं

ाल में इस इलाक़े में आये थे। परमाथी भी

थे। बुख़ार के हदनों में सरकारी कुनैन बाूँटकर यश कमाते थे, कोई बीमार आराम ो, तो उसकी कुशल पछ ू ने अवकय जाते थे। छोटे -मोटे झगड़े आपस में

करा दे ते थे। शादी-ब्या

ी तय

में अपनी पालकी, क़ालीन, और म कफ़ल के सामान

मूँगनी दे कर लोगों का उबार कर दे ते थे। मौक़ा पाकर न चूकते थे, पर श्जसका खाते थे, उसका काम भी करते थे।

बोले -- य

तम ु ने क्या रोग पाल सलया

ोरी?

ोरी ने पीछे किरकर पूछा -- तुमने क्या क ा लाला -- मैंने सुना न ीं। पटे कवरी पीछे से क़दम बढ़ाते ु ए बराबर आकर बोले, य ी क र ा था कक ि नया के साथ क्या तुम् ारी बुवि भी घास खा गयी। झु नया को क्यों न ीं उसके बाप के घर भेज दे त,े सेंत-में त में अपनी

ूँसीं करा र े

ो। न जाने

ककसका लड़का लेकर आ गयी और तुमने घर में बैठा सलया। अभी तुम् ारी दो-दो लड़ककयाूँ ब्या ने को बैठी ु ई ोरी इस तर णखन्न

ैं, सोचो कैसे बेड़ा पार

ोगा।

की आलोचनाएूँ, और शुभ कामनाएूँ सुनते-सुनते तंग आ गया था।

ोकर बोला -- य

सब मैं समझता ू ूँ लाला! लेककन तम् ु ीं बताओ, मैं क्या करूूँ! मैं झु नया को नकाल दूँ ,ू तो भोला उसे रख लें गे? अगर व राज़ी ों, तो आज मैं उसे उनके घर प ु ूँचा दूँ ,ू अगर तुम उन् ें राज़ी कर दो, तो जनम-भर तुम् ारा औसान मानूँू; मगर व ाूँ तो उनके दोनों लड़के ख़ून करने को उतारू ो र े बाूँ

ैं। किर मैं उसे कैसे नकाल दूँ ।ू एक तो नालायक़ आदमी समला कक उसकी

पकड़कर दग़ा दे गया। मैं भी नकाल दूँ ग ू ा, तो इस दशा में व

क ीं

मे नत-मजूरी भी तो न कर सकेगी। क ीं डूब-िस मरी तो ककसे अपराि लगेगा। र ा लड़ककयों का ब्या न कोई रास्ता नकल

सो भगवान ण मासलक

ी आयेगा। लड़की तो

कूँु आरी न ीं र ी। बबरादरी के डर से

ैं। जब उसका समय आयेगा, कोई

मारी बबरादरी में आज तक कभी

त्यारे का काम न ीं कर सकता।

ोरी नम्र स्वभाव का आदमी था। सदा ससर झुकाकर चलता और चार बातें ग़म

खा लेता था।

ीरा को छोड़कर गाूँव में कोई उसका अह त न चा ता था , पर

समाज इतना बड़ा अनथद कैसे स

ले! और उसकी मुटमदी तो दे खो कक समझाने

पर भी न ीं समझता। स्त्री-परु ु ष दोनों जैसे समाज को चन ु ौती दे र े कोई उनका क्या कर लेता

ैं कक दे खें

ै । तो समाज भी हदखा दे गा कक उसकी मयादाद

तोड़नेवाले सुख की नींद न ीं सो सकते। उसी रात को इस समस्या पर ववचार करने के सलए गाूँव के वविाताओं की बैठक ु ई।

दातादीन बोले -- मेरी आदत ककसी की नन्दा करने की न ीं क्या कुकमद न ीं लड़ने पर उतारू

ोता; अपने से क्या मतलब। मगर व ो गयी। भाइयों का ह स्सा दबाकर

ै । संसार में क्या

राूँड़ ि नया तो मुझसे

ाथ में चार पैसे

ो गये , तो

अब कुपथ के ससवा और क्या सूझग े ी। नीच जात, ज ाूँ पेट-भर रोटी खायी और टे ढ़े चले, इसी से तो सासतरों में क ा

ै -- नीच जात ल तयाये अच्छा।

पटे कवरी ने नाररयल का कश लगाते ु ए क ा -- य ी तो इनमें बुराई ै कक चार पैसे दे खे और आूँखें बदलीं। आज ोरी ने ऐसी े कड़ी जतायी कक मैं अपना-सा मूँु

लेकर र

गया। न जाने अपने को क्या समझता

का गाूँव में क्या िल

ै । अब सोचो, इस अनी त

ोगा। झु नया को दे खकर दस ू री वविवाओं का मन बढ़े गा

कक न ीं? आज भोला के घर में य

बात ु ई। कल मारे -तुम् ारे घर में भी ोगी। समाज तो भय के बल से चलता ै । आज समाज का आूँकुस जाता र े ,

किर दे खो संसार में क्या-क्या अनथद

ोने लगते

ैं।

णझंगुरीससं दो श्स्त्रयों के प त थे। प ली स्त्री पाूँच लड़के-लड़ककयाूँ छोड़कर मरी थी। उस समय इनकी अवस्था पैंतासलस के लगभग थी; पर आपने दस ू रा ब्या

ककया और जब उससे कोई संतान न ु ई, तो तीसरा ब्या कर डाला। अब इनकी पचास की अवस्था थी और दो जवान पश्त्नयाूँ घर में बैठी ु ई थीं। उन दोनों ी के ववषय में तर -तर कुछ क

की बातें िैल र ी थीं; पर ठाकुर सा ब के डर से कोई

न सकता था, और क ने का अवसर भी तो

कुछ जायज़

ै । मुसीबत तो उसको

ै , श्जसे कोई आड़

ो। प त की आड़ में सब न ीं। ठाकुर सा ब

श्स्त्रयों पर बड़ा कठोर शासन रखते थे और उन् ें घमंड था कक उनकी पश्त्नयों का घूघ ूँ ट तक ककसी ने न दे खा उसकी उन् ें क्या ख़बर?

ोगा। मगर घूघ ूँ ट की आड़ में क्या

बोले -- ऐसी औरत का तो ससर काट ले। समाज में ववष बोया करना

ै,

ोरी ने इस कुलटा को घर रखकर

ै । ऐसे आदमी को गाूँव में र ने दे ना सारे गाूँव को भ्रष्ट

ै । राय सा ब को इसकी सच ू ना दे नी चाह ए। साफ़-साफ़ क

अगर गाूँव में य

ोता

दे ना चाह ए,

अनी त चली तो ककसी की आबरू सलामत न र े गी।

पंडडत नोखेराम कारकुन बड़े कुलीन ब्राह्मण थे। इनके दादा ककसी राजा के दीवान थे! पर अपना सब कुछ भगवान ण के चरणों में भें ट करके सािु

ो गये थे।

इनके बाप ने भी राम-नाम की खेती में उम्र काट दी। नोखेराम ने भी व ी भश्क्त तरके में पायी थी। प्रातःकाल पूजा पर बैठ जाते थे और दस बजे तक बैठे राम-नाम सलखा करते थे; मगर भगवान ण के सामने से उठते मानवता इस अवरोि से ववकृत

ी उनकी

ोकर उनके मन, वचन और कमद सभी को

ववषाक्त कर दे ती थी। इस प्रस्ताव में उनके अधिकार का अपमान

ोता था।

िूले

ु ए गालों में िूँसी ु ई आूँखें नकालकर बोले -- इसमें राय सा ब से क्या पूछना ै । मैं जो चा ू ूँ, कर सकता ू ूँ। लगा दो सौ रुपये डाूँड़। आप गाूँव छोड़कर भागेगा। इिर बेदख़ली भी दायर ककये दे ता ू ूँ। पटे कवरी ने क ा -- मगर लगान तो बेबाक़ कर चुका णझंगरु ीससं ने समथदन ककया --

ाूँ, लगान के सलए

ै? ी तो

मसे तीस रुपए सलये

ैं।

नोखेराम ने घमंड के साथ क ा -- लेककन अभी रसीद तो न ीं दी। सबूत क्या

कक लगान बेबाक़ कर हदया। सवदसम्म त से य ी तय ु आ कक ोरी पर सौ रुपए तवान लगा हदया जाय। केवल एक हदन गाूँव के आदसमयों को बटोरकर उनकी मंज़ूरी ले लेने का असभनय आवकयक था। सम्भव था, इसमें दस-पाूँच हदन की दे र

ो जाती। पर आज

ी रात को झु नया के लड़का पैदा

ी हदन गाूँववालों की पंचायत बैठ गयी।

ो गया। और दस ू रे

ोरी और ि नया , दोनों अपनी कक़स्मत

का फ़ैसला सन ु ने के सलए बल ु ाए गये। चौपाल में इतनी भीड़ थी कक क ीं तल रखने की जग

न थी। पंचायत ने फ़ैसला ककया कक

ोरी पर सौ रुपए नक़द

और तीस मन अनाज डाूँड़ लगाया जाय। ि नया भरी सभा में रुूँ आरिे ु ए कंठ से बोली -- पंचो, ग़रीब को सताकर सुख न पाओगे, इतना समझ लेना। म तो समट जायूँगे, कौन जाने, इस गाूँव में र ें या न र ें , लेककन मेरा सराप तुमको भी ज़रूर से ज़रूर लगेगा। मुझ से इतना कड़ा जरीबाना इससलये सलया जा र ा

ै कक मैंने अपनी ब ू को क्यों अपने घर में रखा। क्यों उसे घर से नकालकर सड़क की सभखाररन न ीं बना हदया। य ी न्याय

ै , ऐं?

पटे कवरी बोले -- व

तेरी ब ू न ीं

ै , रजाई

ै।



ोरी ने ि नया को डाूँटा -- तू क्यों बोलती

उनका जो न्याय

ै, व

ससर आूँखों पर; अगर भगवान ण की य ी इच्छा

गाूँव छोड़कर भाग जायूँ, तो अभी खसल ान में

ै ि नया! पंच में परमेसर र ते

मारा क्या बस। पंचो, मारे पास जो कुछ

ैं।

ै कक



ै, व

ै । एक दाना भी घर में न ीं आया , श्जतना चा ो, ले लो। सब

लेना चा ो, सब ले लो। दोनों बैल ले लेना।

मारा भगवान ण मासलक

ै , श्जतनी कमी पड़े, उसमें

मारे

ि नया दाूँत कटकटाकर बोली -- मैं एक दाना न अनाज दूँ ग ू ी, न एक कौड़ी डाूँड़। श्जसमें बूता

ो, चलकर मुझसे ले। अच्छी हदल्लगी

ै । सोचा

ोगा डाूँड़ के ब ाने

इसकी सब जैजात ले लो और नज़राना लेकर दस ू रों को दे दो। बाग़-बग़ीचा बेचकर मज़े से तर माल उड़ाओ। ि नया के जीते-जी य तुम् ारी लालसा तुम् ारे मन में में र कर

मारी मक ु ुत न

ी र े गी।

न ीं

में न ीं र ना

ोने का, और

ै बबरादरी में । बबरादरी

ो जायगी। अब भी अपने पसीने की कमाई खाते

तब भी अपने पसीने की कमाई खायूँगे।

ैं,

ोरी ने उसके सामने

ाथ जोड़कर क ा -- ि नया, तेरे पैरों पड़ता ू ूँ , चुप र । म सब बबरादरी के चाकर ैं , उसके बा र न ीं जा सकते। व जो डाूँड़ लगाती ै , उसे ससर झुकाकर मंज़ूर कर। नक्कू बनकर जीने से तो गले में िाूँसी लगा

लेना अच्छा बबरादरी न

ै । आज मर जायूँ, तो बबरादरी

ी तो इस समट्टी को पार लगायेगी ?

ी तारे गी तो तरें गे। पंचो, मुझे अपने जवान बेटे का मूँु

दे खना नसीब

ो, अगर मेरे पास खसल ान के अनाज के ससवा और कोई चीज़

ो। मैं

बबरादरी से दग़ा न करूूँगा। पंचों को मेरे बाल-बच्चों पर दया आये, तो उनकी कुछ परवररस करें , न ीं मुझे तो उनकी आज्ना पालनी ि नया झल्लाकर व ाूँ से चली गयी और

ै।

ोरी प र रात तक खसल ान से अनाज

ढो-ढोकर णझंगरु ीससं की चौपाल में ढे र करता र ा। बीस मन जौ था, पाूँच मन

गे ू ूँ और इतना ी मटर, थोड़ा-सा चना और तेल न भी था। अकेला आदमी और दो ग ृ श्स्थयों का बोझ। य जो कुछ ु आ, ि नया के पुरुषाथद से ु आ। झु नया भीतर का सारा काम कर लेती थी और ि नया अपनी लड़ककयों के साथ खेती में जुट गयी थी। दोनों ने सोचा था, गे ू ूँ और तेल न से लगान की एक कक़स्त अदा ो जायगी और ो सके तो थोड़ा-थोड़ा सद ू भी दे दें गे। जौ खाने के काम में

आयेगा। लंगे-तंगे पाूँच-छः म ीने कट जायूँगे तब तक जआ ु र, मक्का, साूँवाूँ, िान के हदन आ जायेंगे। व

सारी आशा समट्टी में समल गयी। अनाज तो

ाथ से गये

ी, सौ रुपए की गठरी और ससर पर लद गयी। अब भोजन का क ीं हठकाना न ीं। और गोबर का क्या

ाल ु आ, भगवान ण जाने। न ाल न वाल। अगर हदल इतना कच्चा था, तो ऐसा काम ी क्यों ककया; मगर ोन ार को कौन टाल सकता

ै । बबरादरी का व

था, मानो अपने

आतंक था कक अपने ससर पर लादकर अनाज ढो र ा

ाथों अपनी क़ब्र खोद र ा

ो। ज़मींदार, सा ू कार, सरकार ककसका इतना रोब था? कल बाल-बच्चे क्या खायूँगे, इसकी धचंता प्राणों को सोखे लेती थी; पर बबरादरी का भय वपशाच की भाूँ त ससर पर सवार आूँकुस हदये जा र ा था। बबरादरी से पथ ृ क जीवन की व

कोई कल्पना

ब्या , मूँड़ ू न-छे दन, जन्म-मरण सब कुछ बबरादरी के

ी न कर सकता था। शादीाथ में

ै । बबरादरी उसके

जीवन में वक्ष ृ की भाूँ त जड़ जमाये ु ए थी और उसकी नसें उसके रोम-रोम में बबंिी ु ई थीं। बबरादरी से नकलकर उसका जीवन ववशंख ृ ल ो जायगा -- तारतार

ो जायगा।

जब खसल ान में केवल डेढ़ -दो मन जौ र

गया, तो ि नया ने दौड़कर उसका

ाथ पकड़ सलया और बोली -- अच्छा, अब र ने दो। ढो तो चुके बबरादरी की

लाज। बच्चों के सलए भी कुछ छोड़ोगे कक सब बबरादरी के भाड़ में झोंक दोगे। मैं तुमसे

ार जाती ू ूँ। मेरे भाग्य में तुम् ीं जैसे बुिू का संग सलखा था!

ोरी ने अपना

ाथ छुड़ाकर टोकरी में शेष अनाज भरते ु ए क ा -- य न ोगा ि नया, पंचों की आूँख बचाकर एक दाना भी रख लेना मेरे सलए राम ै । मैं ले जाकर सब-का-सब व ाूँ ढे र कर दे ता ू ूँ। किर पंचों के मन में दया उपजेगी, तो कुछ मेरे बाल-बच्चों के सलए दें गे। न ीं भगवान ण मासलक ैं। ि नया तलसमलाकर बोली -- य

पंच न ीं

ैं , राक्षस

मारी जग -ज़मीन छीनकर माल मारना चा ते

ैं, पक्के राछस! य

ैं। डाूँड़ तो ब ाना

सब

ै । समझाती

जाती ू ूँ; पर तम् ु ारी आूँखें न ीं खल ु तीं। तम ु इन वपशाचों से दया की आसा रखते ो। सोचते ो, दस-पाूँच मन नकालकर तुम् ें दे दें गे। मूँु िो रखो। जब

ोरी ने न माना और टोकरी ससर पर रखने लगा तो ि नया ने दोनों

से परू ी शश्क्त के साथ टोकरी पकड़ ली और बोली -- इसे तो मैं न ले जाने

ाथों

दूँ ग ू ी, चा े तम ु मेरी जान

ी ले लो। मर-मरकर

मने कमाया, प र रात-रात को

सींचा, अगोरा, इससलये कक पंच लोग मूछों पर ताव दे कर भोग लगायें और बच्चे दाने-दाने को तरसें। तुमने अकेले

ी सब कुछ न ीं कर सलया

मारे

ै । मैं भी

अपनी बश्च्चयों के साथ सती ु ई ू ूँ। सीिे से टोकरी रख दो, न ीं आज सदा के सलए नाता टूट जायगा। क े दे ती ू ूँ। ोरी सोच में पड़ गया। ि नया के कथन में सत्य था। उसे अपने बाल-बच्चों की कमाई छीनकर तावान दे ने का क्या अधिकार

ै? व

घर का स्वामी इससलए



कक सबका पालन करे , इससलए न ीं कक उनकी कमाई छीनकर बबरादरी की नज़र में सख़ ु -द बने। टोकरी उसके

ाथ से छूट गयी।

िीरे से बोला -- तू ठीक क ती न ीं

ै । जो कुछ बचा

ै, व

ै ि नया! दस ू रों के ह स्से पर मेरा कोई ज़ोर

ले जा, मैं जाकर पंचों से क े दे ता ू ूँ। ि नया अनाज की टोकरी घर में रखकर अपनी दोनों लड़ककयों के साथ पोते के

जन्मोत्सव में गला िाड़-िाड़कर सो र गा र ी थी, श्जसमें सारा गाूँव सुन ले। आज य

प ला मौक़ा था कक ऐसे शुभ अवसर पर बबरादरी की कोई औरत न

थी। सौर से झु नया ने क ला भेजा था, सो र गाने का काम न ीं ि नया कब मानने लगी। अगर बबरादरी को उसकी परवा न ीं

ै ; लेककन

ै , तो व

भी

बबरादरी की परवा न ीं करती। उसी वक़्त

ोरी अपने घर को अस्सी रुपए पर णझंगुरीससं के

था। डाूँड़ के रुपए का इसके ससवा व

ाथ धगरों रख र ा

और कोई प्रबंि न कर सकता था। बीस

रुपए तो तेल न, गे ू ूँ और मटर से समल गये। शेष के सलए घर सलखना पड़ गया। नोखेराम तो चा ते थे कक बैल बबकवा सलए जायूँ; लेककन पटे कवरी और दातादीन ने इसका ववरोि ककया। बैल बबक गये , तो

ोरी खेती कैसे करे गा?

बबरादरी उसकी जायदाद से रुपए वसूल करे ; पर ऐसा तो न करे कक व छोड़कर भाग जाय। इस तर

गाूँव

बैल बच गये।

ोरी रे ननामा सलखकर कोई ग्यार इतनी रात तक व ाूँ क्या करते र े ?

बजे रात घर आया तो , ि नया ने पूछा --

ोरी ने जल ु ा े का ग़स् ु सा दाढ़ी पर उतारते ु ए क ा -- करता क्या र ा, इस लौंडे की करनी भरता र ा। अभागा आप तो धचनगारी छोड़कर भागा , आग मझ ु े

बझ ु ानी पड़ र ी

ै । अस्सी रुपए में घर रे न सलखना पड़ा। करता क्या! अब

ु क़्क़ा खुल गया। बबरादरी ने अपराि क्षमा कर हदया।

ि नया ने ओठ चबाकर क ा -- न ु क़्क़ा खुलता, तो मारा क्या बबगड़ा जाता था। चार-पाूँच म ीने न ीं ककसी का ु क़्क़ा वपया, तो क्या छोटे ो गये? मैं क ती ू ूँ , तुम इतने भोंद ू क्यों ो? मेरे सामने तो बड़े बुविमान बनते ो, बा र तुम् ारा मूँु क्यों बन्द ो जाता ै ? ले-दे के बाप-दादों की नसानी एक घर बच र ा था , आज तुमने उसका भी वारा-न्यारा कर हदया। इसी तर

कल य

तीन-चार बीघे

ज़मीन

ै , इसे भी सलख दे ना और तब गली-गली भीख माूँगना। मैं पूछती ू ूँ, तम् ु ारे मूँु में जीभ न थी कक उन पंचों से पछ ू ते, तम ु क ाूँ के बड़े िमात्माद ो, जो दस ू रों पर डाूँड़ लगाते किरते

ो, तुम् ारा तो मूँु

दे खना भी पाप

ै।

ोरी ने डाूँटा -- चुप र , ब ु त चढ़-चढ़ न बोल। बबरादरी के चक्कर में अभी पड़ी न ीं ै , न ीं मूँु से बात न नकलती। ि नया उत्तेश्जत ककसी की चोरी की

ो गयी -- कौन-सा पाप ककया ै , ककसी का माल काटा

ै , श्जसके सलए बबरादरी से डरें ,

ै ? मे ररया रख लेना पाप न ीं

ै,

ाूँ, रख के छोड़ दे ना पाप सीिेपन का िल य ी तुम् ारी वा -वा

ो र ी

ै । आदमी का ब ु त सीिा ोना भी बरु ा ै । उसके ोता ै कक कुत्ते भी मूँु चाटने लगते ैं। आज उिर

ोगी कक बबरादरी की कैसी मरजाद रख ली। मेरे भाग

िूट गये थे कक तुम जैसे मदद से पाला पड़ा। कभी सुख की रोटी न समली।

'मैं तेरे बाप के पाूँव पड़ने गया था? व ी तझ ु े मेरे गले बाूँि गया।' 'पत्थर पड़ गया था उनकी अक्कल पर और उन् ें क्या क ू ूँ ? न जाने क्या दे खकर लट्टू ो गये। ऐसे कोई बड़े सुंदर भी तो न थे तुम।' वववाद ववनोद के क्षेत्र में आ गया। अस्सी रुपए गये तो गये , लाख रुपए का बालक तो समल गया! उसे तो कोई न छीन लेगा। गोबर घर लौट आये , ि नया अलग झोपड़ी में भी सुखी र ेगी। ोरी ने पूछा -- बच्चा ककसको पड़ा

ै?

ि नया ने प्रसन्न मख ु

'ररष्ट-पुष्ट तो ै ?' ' ाूँ, अच्छा ै ।' ***

ोकर जवाब हदया -- बबलकुल गोबर को पड़ा

ै । सच!

12 रात को गोबर झु नया के साथ चला, तो ऐसा काूँप र ा था, जैसे उसकी नाक

कटी ु ई ो। झु नया को दे खते ी सारे गाूँव में कु राम मच जायगा, लोग चारों ओर से कैसी ाय- ाय मचायेंगे, ि नया ककतनी गासलयाूँ दे गी, य सोच-सोचकर उसके पाूँव पीछे र े जाते थे। िाड़ेंगे, किर शान्त

ोरी का तो उसे भय न था। व

केवल एक बार

ो जायूँगे। डर था ि नया का, ज़ र खाने लगेगी, घर में आग

लगाने लगेगी। न ीं, इस वक़्त व

झु नया के साथ घर न ीं जा सकता। लेककन

क ीं ि नया ने झु नया को घर में घुसने दौड़ी, तो व

ी न हदया और झाड़ू लेकर मारने बेचारी क ाूँ जायगी। अपने घर तो लौट ी न ीं सकती। क ीं कुएूँ

में कूद पड़े या गले में िाूँसी लगा ले, तो क्या

ो। उसने लम्बी साूँस ली।

ककसकी शरण ले। मगर अम्माूँ इतनी नदद यी न ीं

ैं कक मारने दौड़ें। क्रोि में

दो-चार गासलयाूँ दें गी! लेककन जब झु नया उसके पाूँव पड़कर रोने लगेगी, तो उन् ें ज़रूर दया आ जायगी। तब तक व जायगा, तब व

ख़ुद क ीं छपा र े गा। जब उपद्रव शांत



एक हदन िीरे से आयेगा और अम्माूँ को मना लेगा , अगर इस

बीच उसे क ीं मजूरी समल जाय और दो-चार रुपए लेकर घर लौटे , तो किर ि नया का मूँु

बंद

ो जायगा।

झु नया बोली -- मेरी छाती िक-िक कर र ी गले य

ै । मैं क्या जानती थी, तुम मेरे

रोग मढ़ दोगे। न जाने ककस बुरी साइत में तुमको दे खा। न तुम गाय

लेने आते, न य

सब कुछ

ोता। तुम आगे-आगे जाकर जो कुछ क ना-सुनना

ो, क -सन ु लेना। मैं पीछे से जाऊूँगी।

गोबर ने क ा -- न ीं-न ीं, प ले तुम जाना और क ना, मैं बाज़ार से सौदा बेचकर घर जा र ी थी। रात

ो गयी

ै , अब कैसे जाऊूँ। तब तक मैं आ

जाऊूँगा। झु नया ने धचं तत मन से क ा -- तम् ु ारी अम्माूँ बड़ी ग़स् ु सैल तो जी काूँपता

ैं। मेरा

ै । क ीं मझ ु े मारने लगें तो क्या करूूँगी।

गोबर ने िीरज हदलाया -- अम्माूँ की आदत ऐसी न ीं।

म लोगों तक को तो

कभी एक तमाचा मारा न ीं, तुम् ें क्या मारें गी। उनको जो कुछ क ना क ें गी, तम ु से तो बोलें गी भी न ीं।

ोगा मुझे

गाूँव समीप आ गया। गोबर ने हठठककर क ा -- अब तम ु जाओ। झु नया ने अनुरोि ककया -- तुम भी दे र न करना।

'न ीं-न ीं, छन भर में आता ू ूँ , तू चल तो।' 'मेरा जी न जाने कैसा ो र ा ै । तुम् ारे ऊपर क्रोि आता ै ।' 'तुम इतना डरती क्यों ो? मैं तो आ ी र ा ू ूँ।' 'इससे तो क ीं अच्छा था कक ककसी दस ू री जग भाग चलते।' 'जब अपना घर ै , तो क्यों क ीं भागें ? तुम ना क़ डर र ी ो।' 'जल्दी से आओगे न?' ' ाूँ- ाूँ, अभी आता ू ूँ।' 'मझ ु से दग़ा तो न ीं कर र े ो? मझ ु े घर भेजकर आप क ीं चलते बनो।' 'इतना नीच न ीं ू ूँ झूना! जब तेरी बाूँ पकड़ी ै , तो मरते दम तक नभाऊूँगा।' झु नया घर की ओर चली। गोबर एक क्षण दवु विे में पड़ा खड़ा र ा। किर एकाएक ससर पर मूँडरानेवाली धिक्कार की कल्पना भयंकर रूप िारण करके उसके सामने खड़ी

ो गयी। क ीं सचमुच अम्माूँ मारने दौड़ें, तो क्या

ो? उसके पाूँव

जैसे िरती से धचमट गये। उसके और उसके घर के बीच केवल आमों का छोटासा बाग़ था। झु नया की काली परछाईं िीरे -िीरे जाती ु ई दीख र ी थी। उसकी ज्ञानेंहद्रयाूँ ब ु त तेज़ ो गयी थीं। उसके कानों में ऐसी भनक पड़ी, जैसे अम्माूँ झु नया को गाली दे र ी पर गड़ाूँसे का

ैं। उसके मन की कुछ ऐसी दशा

ाथ पड़ने वाला

ो। दे

ो र ी थी, मानो ससर

का सारा रक्त जैसे सूख गया

क्षण के बाद उसने दे खा, जैसे ि नया घर से नकलकर क ीं जा र ी पास जाती

ोगी! साइत दादा खा-पीकर मटर अगोरने चले गये

ैं। व

ो। एक ो। दादा के मटर के

खेत की ओर चला। जौ-गे ू ूँ के खेतों को रौंदता ु आ व इस तर भागा जा र ा था, मानो पीछे दौड़ आ र ी ै । व ै दादा की मूँड़य ै ा। व रुक गया और दबे

पाूँव जाकर मूँड़य ै ा के पीछे बैठ गया। उसका अनम ु ान ठीक नकला। व

प ु ूँचा ो गया। अम्माूँ इतनी

ी था कक ि नया की बोली सन ु ायी दी। ओ ! ग़ज़ब

कठोर

ैं। एक अनाथ लड़की पर इन् ें त नक भी दया न ीं आती। और जो मैं

भी सामने जाकर िटकार दूँ ू कक तुमको झु नया से बोलने का कोई मजाल न ीं ै , तो सारी सेखी नकल जाय। अच्छा! दादा भी बबगड़ र े

आज ठीकरा भी तेज़ दादा भी व ीं जा र े

ैं। केले के सलए

ो गया। मैं ज़रा अदब करता ू ूँ, उसी का िल ै । य तो ैं। अगर झु नया को इन् ोंने मारा-पीटा तो मुझसे न स ा

जायगा। भगवान ण! अब तुम् ारा

ी भरोसा

ै । मैं न जानता था इस ववपत में

जान िूँसेगी। झु नया मुझे अपने मन में ककतना िूतद, कायर और नीच समझ र ी

ोगी; मगर उसे मार कैसे सकते

घर में मेरा ह स्सा न ीं म ाभारत

ैं ? घर से नकाल भी कैसे सकते

ै ? अगर झु नया पर ककसी ने

ैं ? क्या

ाथ उठाया, तो आज

ो जायगा। माूँ-बाप जब तक लड़कों की रक्षा करें , तब तक माूँ-बाप

ैं। जब उनमें ममता

ी न ीं

ै , तो कैसे माूँ-बाप!

ोरी ज्यों

ी मूँड़य ै ा से

नकला, गोबर भी दबे पाूँव िीरे -िीरे पीछे -पीछे चला; लेककन द्वार पर प्रकाश दे खकर उसके पाूँव बूँि गये। उस प्रकाशरे खा के अन्दर व सकता। व

अूँिेरे में

जवाब दे हदया। व

ी दीवार से धचमट कर खड़ा

पाूँव न ीं रख

ो गया। उसकी ह म्मत ने

ाय! बेचारी झु नया पर नरपराि य

लोग झल्ला र े

ैं, और

कुछ न ीं कर सकता। उसने खेल-खेल में जो एक धचनगारी िेंक दी थी, व

सारे खसल ान को भस्म कर दे गी, य

उसने न समझा था। और अब उसमें

इतना सा स न था कक सामने आकर क े --

ाूँ, मैंने धचनगारी िेंकी थी। श्जन

हटकौनों से उसने अपने मन को सूँभाला था, वे सब इस भक ू म्प में नीचे आ र े और व

झोंपड़ा नीचे धगर पड़ा। व

हदखाये। व

झु नया को क्या मूँु

सौ क़दम चला; पर इस तर , जैसे कोई ससपा ी मैदान से भागे।

उसने झु नया से प्री त और वववा व

पीछे लौटा। अब व

की जो बातें की थीं, व

असभसार की मीठी स्मृ तयाूँ याद आयीं जब व

सब याद आने लगीं।

अपने उन्मत्त उसासों में ,

अपनी नशीली धचतवनों में मानो अपने प्राण नकालकर उसके चरणों पर रख दे ता था। झु नया ककसी ववयोगी पक्षी की भाूँ त अपने छोटे -से घोंसले में एकान्तजीवन काट र ी थी। व ाूँ नर का मत्त आग्र

न था , न व

उद्दीप्त उल्लास, न

शावकों की मीठी आवाज़ें; मगर ब े सलये का जाल और छल भी तो व ाूँ न था। गोबर ने उसके एकांत घोसले में जाकर उसे कुछ आनन्द प ु ूँचाया या न ीं, कौन जाने; पर उसे ववपश्त्त में तो डाल ी हदया।



सूँभल गया। भागता ु आ ससपा ी मानो अपने एक साथी का बढ़ावा सन ु कर पीछे लौट पड़ा। उसने द्वार पर आकर दे खा, तो ककवाड़ बन्द ो गये थे। ककवाड़ों के दराजों से प्रकाश की रे खाएूँ बा र नकल र ी थीं। उसने एक दराज़ से बा र झाूँका। ि नया और झु नया बैठी ु ई थीं। ोरी खड़ा था। झु नया की सससककयाूँ सुनायी दे र ी थीं और ि नया उसे समझा र ी थी -- बेटी, तू चलकर घर में बैठ। मैं तेरे काका और भाइयों को दे ख लूँ ग ू ी। जब तक की धचन्ता न ीं गद्गद

ै।

म जीते

ैं , ककसी बात

मारे र ते कोई तुझे तरछी आूँखों दे ख भी न सकेगा। गोबर

ो गया। आज व

ककसी लायक़

ोता, तो दादा और अम्माूँ को सोने से

मढ़ दे ता और क ता -- अब तुम कुछ परवा न करो, आराम से बैठे खाओ और श्जतना दान-पुन करना चा ो, करो। झु नया के प्र त अब उसे कोई शंका न ीं व

उसे जो आश्रय दे ना चा ता था व

समझती

ै , तो समझे। व

सारे गाूँव का मूँु

ै।

समल गया। झु नया उसे दग़ाबाज़

तो अब तभी घर आयेगा, जब व

पैसे के बल से

बन्द कर सके और दादा और अम्माूँ उसे कुल का कलंक न

समझकर कुल का तलक समझें। मन पर श्जतना उसकी प्र तकक्रया भी उतनी

ी ग री

के अन्तस्तल को मथकर व

ोती

ी ग रा आघात

ोता

ै,

ै । इस अपकी तद और कलंक ने गोबर

रत्न नकाल सलया जो अभी तक छपा पड़ा था।

आज प ली बार उसे अपने दा यत्व का ज्ञान ु आ और उसके साथ ी संकल्प भी। अब तक व कम से कम काम करता और ज़्यादा से ज़्यादा खाना अपना क़ समझता था। उसके मन में कभी य के साथ उसका भी कुछ कतदव्य

ववचार

ी न ीं उठा था कक घरवालों

ै । आज माता-वपता की उदात्त क्षमा ने जैसे

उसके हृदय में प्रकाश डाल हदया। जब ि नया और झु नया भीतर चली गयीं, तो व

ोरी की उसी मड़ैया में जा बैठा और भववष्य के मंसूबे बाूँिने लगा। श र के

बेलदारों को पाूँच-छः आने रोज़ समलते आने रोज़ समलें और व जायूँ। म ीने में दस रुपए

ैं, य

उसने सुन रखा था। अगर उसे छः

एक आने में गुज़र कर ले, तो पाूँच आने रोज़ बच ोते

ैं, और साल-भर में सवा सौ। व

थैली लेकर घर आये , तो ककसकी मजाल

ै , जो उसके सामने मूँु

य ी दातादीन और य ी पटे सुरी आकर उसकी तो मारे गवद के िूल जाय। दो चार साल व

ाूँ में

इसी तर

सवा सौ की

खोल सके।

ाूँ समलायेंगे। और झु नया कमाता र े , तो घर का

सारा दसलद्दर समट जाय। अभी तो सारे घर की कमाई भी सवा सौ न ीं अब व

ोती।

अकेला सवा सौ कमायेगा। य ी तो लोग क ें गे कक मजूरी करता

क ने दो। मजरू ी करना कोई पाप तो न ीं समलें गे। जैसे-जैसे व

काम में

ोसशयार

ै । और सदा छः आने

ै।

ी थोड़े

ोगा, मजूरी भी तो बढ़े गी। तब व

दादा

से क े गा, अब तम ु घर बैठकर भगवान ण का भजन करो। इस खेती में जान खपाने के ससवा और क्या रखा

ै । सबसे प ले व

एक पछायीं गाय लायेगा , जो

चार-पाूँच सेर दि ू दे गी और दादा से क े गा, तुम गऊ माता की सेवा करो। इससे

तुम् ारा लोक भी बनेगा, परलोक भी। और क्या, एक आने में उसका गुज़र आराम से न

ोगा? घर-द्वार लेकर क्या करना

सैकड़ों मश्न्दर

ैं , िरमसाले

र ने के सलए जग

ै । ककसी के ओसार में पड़ा र े गा।

ैं। और किर श्जसकी व

मजरू ी करे गा, क्या व

न दे गा ? आटा रुपए का दस सेर आता

उसे

ै । एक आने में ढाई

पाव ु आ। एक आने का तो व आटा ी खा जायगा। लकड़ी, दाल, नमक, साग य सब क ाूँ से आयेगा ? दोनों जून के सलए सेर भर तो आटा ी चाह ए। ओ ! खाने की तो कुछ न पूछो। मट्ठ ु ी भर चने में भी काम चल सकता परू ी खाकर भी काम चल सकता

ै । जैसी कमाई

हदन भर मज़े से काम कर सकता

ो। व

ै।

लुवा और

आि सेर आटा खाकर

ै । इिर-उिर से उपले चुन सलये, लकड़ी का

काम चल गया। कभी एक पैसे की दाल ले ली, कभी आलू। आलू भूनकर भुरता बना सलया। य ाूँ हदन काटना

ै कक चैन करना

ै । पत्तल पर आटा गूँि ू ा, उपलों

पर बाहटयाूँ सेंकी, आलू भूनकर भुरता बनाया और मज़े से खाकर सो र े । घर पर कौन दोनों जन ू रोटी समलती

ै , एक जन ू चबेना

ी समलता



ै । व ाूँ भी एक

जून चबेने पर काटें गे। उसे शंका ु ई; अगर कभी मजूरी न समली, तो व क्या करे गा? मगर मजूरी क्यों न समलेगी? जब व जी तोड़कर काम करे गा, तो सौ आदमी उसे बुलायेंगे। काम सबको प्यारा तो सूखा पड़ता

ै , पाला धगरता

सरसों में ला ी लग जाती

ोता

ै , चाम न ीं प्यारा

ै , ऊख में दीमक लगते

ोता। य ाूँ भी

ैं, जौ में गेरुई लगती

ै । उसे रात को कोई काम समल जायगा , तो उसे भी

ै,

न छोड़ेगा। हदन-भर मजूरी की; रात क ीं चौकीदारी कर लेगा। दो आने भी रात के काम में समल जायूँ, तो चाूँदी लायेगा। झु नया के सलए

ै । जब व

लौटे गा, तो सबके सलए साडड़याूँ

ाथ का कंगन ज़रूर बनवायेगा और दादा के सलए एक

मूँड़ ु ासा लायेगा। इन् ीं मनमोदकों का स्वाद लेता ु आ व सो गया; लेककन ठं ड में नींद क ाूँ! ककसी तर रात काटी और तड़के उठ कर लखनऊ की सड़क पकड़ ली। बीस कोस आता-जाता

ी तो

ै और व

ससर पर सवार

ै । साूँझ तक प ु ूँ च जायगा। गाूँव का कौन आदमी व ाूँ अपना हठकाना न ीं सलखेगा, न ीं दादा दस ू रे ी हदन

ो जायूँगे।

उसे कुछ पछतावा था, तो य ी कक झु नया से क्यों न साफ़-साफ़ क

हदया --

अभी तू घर जा, मैं थोड़े हदनों में कुछ कमा-िमाकर लौटूूँगा; लेककन तब व

घर

जाती किरता।

ी क्यों। क ती -- मैं भी तम् ु ारे साथ लौटूूँगी। उसे व

हदन चढ़ने लगा। रात को कुछ न खाया था। भूख मालूम लड़खड़ाने लगे। क ीं बैठकर दम लेने की इच्छा व

क ाूँ-क ाूँ बाूँिे

ोने लगी। पाूँव

ोती थी। बबना कुछ पेट में डाले

अब न ीं चल सकता; लेककन पास एक पैसा भी न ीं

ै । सड़क के ककनारे

झुड़-बेररयों के झाड़ थे। उसने थोड़े से बेर तोड़ सलये और उदर को ब लाता ु आ चला। एक गाूँव में गुड़ पकने की सुगन्ि आयी। अब मन न माना। कोल् ाड़ में जाकर लोटा-डोर माूँगा और पानी भर कर चुल्लू से पीने बैठा कक एक ककसान ने क ा -- अरे भाई, क्या नराला

ी पानी वपयोगे? थोड़ा-सा मीठा

खा लो। अबकी और चला लें कोल् ू और बना लें खाूँड़। अगले साल तक समल तैयार ो जायगी। सारी ऊख खड़ी बबक जायगी। गड़ ु और खाूँड़ के भाव चीनी समलेगी, तो

मारा गड़ ु कौन लेगा? उसने एक कटोरे में गड़ ु की कई वपंडडयाूँ

लाकर दीं। गोबर ने गुड़ खाया, पानी वपया। तमाखू तो पीते

ोगे? गोबर ने ब ाना

ककया। अभी धचलम न ीं पीता। बड् ु ढे ने प्रसन्न

ोकर क ा -- बड़ा अच्छा करते

पकड़ ले, तो श्ज़न्दगी भर न ीं छोड़ता।

ो भैया! बरु ा रोग

ै । एक बेर

इंजन को कोयला-पानी भी समल गया, चाल तेज़ ु ई। जाड़े के हदन, न जाने कब दोप र ो गया। एक जग दे खा, एक यव ु ती एक वक्ष ृ के नीचे प त से सत्याग्र ककये बैठी थी। प त सामने खड़ा उसे मना र ा था। दो-चार रा गीर तमाशा दे खने खड़े जीवन-नाटक

ो गये थे। गोबर भी खड़ा

ो गया। मानलीला से रोचक और कौन

ोगा?

यव ु ती ने प त की ओर घरू कर क ा -- मैं न जाऊूँगी, न जाऊूँगी, न जाऊूँगी। पुरुष ने ये जैसे अश्ल्टमेटम हदया -- न जायगी?

'न जाऊूँगी।' 'न जाऊूँगी?'

'न जाऊूँगी।' पुरुष ने उसके केश पकड़कर घसीटना शुरू ककया। युवती भूसम पर लोट गयी। पुरुष ने

ारकर क ा -- मैं किर क ता ू ूँ , उठकर चल।

स्त्री ने उसी दृढ़ता से क ा -- मैं तेरे घर सात जनम न जाऊूँगी, बोटी-बोटी काट डाल।

'मैं तेरा गला काट लूँ ग ू ा।' 'तो िाूँसी पाओगे।' पुरुष ने उसके केश छोड़ हदये और ससर पर

ाथ रखकर बैठ गया। पुरुषत्व

अपनी चरम सीमा तक प ु ूँच गया। उसके आगे अब उसका कोई बस न ीं ै । एक क्षण में व किर खड़ा ु आ और परास्त ोकर बोला -- आणख़र तू क्या चा ती

ै?

युवती भी उठ बैठी, और नकचल भाव से बोली -- मैं य ी चा ती ू ूँ , तू मुझे छोड़ दे ।

'कुछ मूँु से क े गी, क्या बात ु ई?' 'मेरे भाई-बाप को कोई क्यों गाली दे ?' 'ककसने गाली दी, तेरे भाई-बाप को?' 'जाकर अपने घर में पूछ!' 'चलेगी तभी तो पूछूूँगा?' 'तू क्या पछ ू े गा? कुछ दम भी ै । जाकर अम्माूँ के आूँचल में मूँु ढाूँककर सो। व तेरी माूँ ोगी। मेरी कोई न ीं ै । तू उसकी गासलयाूँ सन ु । मैं क्यों सुनूँू? एक

रोटी खाती ू ूँ, तो चार रोटी का काम करती ू ूँ। क्यों ककसी की िौंस स ू ूँ ? मैं तेरा एक पीतल का छल्ला भी तो न ीं जानती!'

रा गीरों को इस कल समाप्त

में असभनय का आनन्द आ र ा था ; मगर उसके जल्द

ोने की कोई आशा न थी। मंश्ज़ल खोटी

ोती थी। एक-एक करके लोग

णखसकने लगे। गोबर को पुरुष की नदद यता बुरी लग र ी थी। भीड़ के सामने तो कुछ न क

सकता था। मैदान ख़ाली ु आ, तो बोला -- भाई मदद और औरत के बीच में बोलना तो न चाह ए, मगर इतनी बेदरदी भी अच्छी न ीं ोती। पुरुष ने कौड़ी की-सी आूँखें नकालकर क ा -- तुम कौन

ो?

गोबर ने नःशंक भाव से क ा -- मैं कोई ू ूँ; लेककन अनुधचत बात दे खकर सभी को बुरा लगता ै । परु ु ष ने ससर ह लाकर क ा -- मालम ू इतना ददद

ोता

ै , अभी मे ररया न ीं आयी, तभी

ै!

'मे ररया आयेगी, तो भी उसके झोंटे पकड़कर न खीचूँग ू ा।' 'अच्छा तो अपनी रा लो। मेरी औरत ै , मैं उसे मारूूँगा, काटूूँगा। तुम कौन ोते ो बोलने-वाले! चले जाओ सीिें से, य ाूँ मत खड़े

गोबर का गमद ख़ून और गमद ै । ककसी के बाप की न ीं

उसे

ो गया। व

ै। व

ो।'

क्यों चला जाय। सड़क सरकार की

जब तक चा े व ाूँ खड़ा र

टाने का ककसी को अधिकार न ीं

सकता

ै । व ाूँ से

ै।

पुरुष ने ओठ चबाकर क ा -- तो तुम न जाओगे? आऊूँ? गोबर ने अूँगोछा कमर में बाूँि सलया और समर के सलए तैयार तुम आओ या न आओ। मैं तो तभी जाऊूँगा, जब मेरी इच्छा

'तो मालम ोता ै , ाथ पैर तड़ ू ु वा के जाओगे।' 'य कौन जानता ै , ककसके ाथ-पाूँव टूटें गे।' 'तो तुम न जाओगे?'

ोकर बोला -ोगी।

'ना।' पुरुष मुट्ठी बाूँिकर गोबर की ओर झपटा। उसी क्षण युवती ने उसकी िोती पकड़

ली और उसे अपनी ओर खींचती ु ई गोबर से बोली -- तुम क्यों लड़ाई करने पर उतारू ो र े ो जी, अपनी रा क्यों न ीं जाते। य ाूँ कोई तमाशा ै । मारा आपस का झगड़ा

ै । कभी व

मतलब। गोबर य लायक़

मुझे मारता

ै , कभी मैं उसे डाूँटती ू ूँ। तुमसे

धिक्कार पाकर चलता बना। हदल में क ा -- य

औरत मार खाने



ै।

गोबर आगे नकल गया, तो युवती ने प त को डाूँटा -- तुम सबसे लड़ने क्यों लगते

ो। उसने कौन-सी बरु ी बात क ी थी कक तम् ु ें चोट लग गयी। बरु ा काम

करोगे, तो द ु नया बुरा क े गी का

ी जान पड़ता

प त ने संदे

ी; मगर

ै ककसी भले घर का और अपनी बबरादरी

ै । क्यों उसे अपनी ब न के सलए न ीं ठीक कर लेते?

के स्वर में क ा -- क्या अब तक क्वाूँरा बैठा

ोगा?

'तो पूछ ी क्यों न लो?' परु ु ष ने दस क़दम दौड़कर गोबर को आवाज़ दी और

ाथ से ठ र जाने का

इशारा ककया। गोबर ने समझा, शायद किर इसके ससर भूत सवार ु आ, तभी ललकार र ा ै । मार खाये बबना न मानेगा। अपने गाूँव में कुत्ता भी शेर ो जाता

ै लेककन आने दो। लेककन उसके मुख पर समर की ललकार न थी। मैत्री

का नमन्त्रण था। उसने गाूँव और नाम और जात पूछी। गोबर ने ठीक-ठीक बता हदया। उस परु ु ष का नाम कोदई था। कोदई ने मुस्कराकर क ा -तो, मैंने सोचा, तुमने ठीक घर में

ोती

ै न?

म दोनों में लड़ाई

ोते- ोते बची। तुम चले आये,

ी क ा। मैं ना क़ तुमसे तन बैठा। कुछ खेती-बारी

गोबर ने बताया, उसके मौ-सी पाूँच बीघे खेत

ैं और एक

ल की खेती

ोती

ै।

'मैंने तम् ु ें जो भला-बरु ा क ा ै , उसकी माफ़ी दे दो भाई! क्रोि में आदमी अन्िा ो जाता ै । औरत गुन-स ू र में सलच्छमी ै , मुदा कभी-कभी न जाने कौन-सा भूत इस पर सवार

ो जाता

जन्म तो उन् ींने हदया

ै । अब तुम् ीं बताओ, माता पर मेरा क्या बस

ै , पाला-पोसा तो उन् ींने

ै । जब कोई बात

ै?

ोगी, तो मैं

जो कुछ क ू ूँगा, लुगाई ी से क ू ूँगा। उस पर अपना बस ै । तुम् ीं सोचो, मैं कुपद तो न ीं क र ा ू ूँ। ाूँ, मझ ु े उसका बाल पकड़कर घसीटना न था; लेककन औरत जात बबना कुछ ताड़ना हदये क़ाबू में भी तो न ीं र ती। चा ती ै , माूँ से अलग

ो जाऊूँ। तुम् ीं सोचो, कैसे अलग

अपनी माूँ से? श्जसने जनम हदया? य

ो जाऊूँ और ककससे अलग

मुझसे न

ो जाऊूँ।

ोगा। औरत र े या जाय।'

गोबर को भी अपनी राय बदलनी पड़ी। बोला -- माता का आदर करना तो सबका िरम



ै भाई। माता से कौन उररन

ो सकता

कोदई ने उसे अपने घर चलने का नेवता हदया। आज व

ै? ककसी तर

लखनऊ

न ीं प ु ूँ च सकता। कोस दो कोस जाते-जाते साूँझ ो जायगी। रात को क ीं न क ीं हटकना ी पड़ेगा। गोबर ने ववनोद हदया -- लुगाई मान गयी?

'न मानेगी तो क्या करे गी।' 'मुझे तो उसने ऐसी िटकार बतायी कक मैं लजा गया।' 'व ख़द ु पछता र ी ै । चलो, ज़रा माता जी को समझा दे ना। मझ ु से तो कुछ

क ते न ीं बनता। उन् ें भी सोचना चाह ए कक ब ू को बाप-भाई की गाली क्यों दे ती ैं। मारी ी ब न ै । चार हदन में उसकी सगाई ो जायगी। उसकी सास में गासलयाूँ दे गी, तो उससे सन ु ा जायगा? सब दोस लुगाई

का भी दोस लगेगा

ै । जब

र बात में व

ी। इसमें इतनी बात अच्छी

ी का न ीं

अपनी बेटी का पच्छ करें गी , तो

ै । माता में बुरा

ै कक घर से रूठकर चली जाय ; पर गाली

का जवाब गाली से न ीं दे ती।' गोबर को रात के सलए कोई हठकाना चाह ए था दोनों किर उसी जग

ी। कोदई के साथ

ो सलया।

आये ज ाूँ यव ु ती बैठी ु ई थी। व अब गहृ णी बन गयी थी। ज़रा-सा घघ ूूँ ट नकाल सलया था और लजाने लगी थी।

कोदई ने मस् ु कराकर क ा -- य

तो आते

बाद उनके घर कैसे जायूँ? युवती ने घघ ूूँ ट की

ी न थे। क ते थे, ऐसी डाूँट सन ु ने के

आड़ से गोबर को दे खकर क ा -- इतनी

ी डाूँट में डर

गये? लग ु ाई आ जायगी, तब क ाूँ भागोगे? गाूँव समीप

ी था। गाूँव क्या था, पुरवा था; दस-बार

घरों का, श्जसमें आिे

खपरै ल के थे, आिे िूस के। कोदई ने अपने घर प ु ूँ चकर खाट नकाली, उस पर एक दरी डाल दी, शबदत बनाने को क , धचलम भर लाया। और एक क्षण में व ी युवती लोटे में शबदत लेकर आयी और गोबर को पानी का एक छींटा मारकर मानो क्षमा माूँग ली। व छे ड़-छाड़ शुरू कर दे ! ***

अब उसका ननदोई

ो र ा था। किर क्यों न अभी से

13 गोबर अूँिेरे

ी मूँु

कक उसका ब्या

उठा और कोदई से बबदा माूँगी। सबको मालूम

ो चुका

ो गया था

ै ; इससलए उससे कोई वववा -संबंिी चचाद न ीं की।

उसके शील-स्वभाव ने सारे घर को मग्ु ि कर सलया था। कोदई की माता को तो उसने ऐसे मीठे शब्दों में और उसके मातप ृ द की रक्षा करते ु ए, ऐसा उपदे श हदया कक उसने प्रसन्न ोकर आशीवादद हदया था।

'तम ु बड़ी ो माता जी, पज् ू य ो। पत्र ु माता के ररन से सौ जन्म लेकर भी उररन न ीं ो सकता, लाख जन्म लेकर भी उररन न ीं ो सकता। करोड़ जन्म लेकर भी न ीं ...।' बहु ढ़या इस संख्यातीत श्रिा पर गद्गद क ा, उसमें बुहढ़या को अपना मंगल चंगा कर दे , किर रोगी उसके

ो गयी। इसके बाद गोबर ने जो कुछ

ी हदखायी हदया। वैद्य एक बार रोगी को

ाथों ववष भी ख़ुशी से पी लेगा -- अब जैसे आज

ी ब ू घर से रूठकर चली गयी, तो ककसकी े ठी ु ई। ब ू को कौन जानता ककसकी लड़की ै , ककसकी ना तन ै , कौन जानता ै ! संभव ै , उसका बाप घससयारा

ी र ा

ो... ।

बुहढ़या ने नकचयात्मक भाव से क ा -- घससयारा तो सबेरे उसका मूँु

ै?



ी बेटा, पक्का घससयारा

दे ख लो, तो हदन-भर पानी न समले।

गोबर बोला -- तो ऐसे आदमी की क्या

ूँसी

ो सकती

ै!

ूँसी ु ई तुम् ारी और तुम् ारे आदमी की। श्जसने पूछा, य ी पूछा कक ककसकी ब ू ै ? किर व अभी लड़की ै , अबोि, अल् ड़। नीच माता-वपता की लड़की ै , अच्छी क ाूँ से बन जाय! तुमको तो बूढ़े तोते को राम-नाम पढ़ाना पड़ेगा। मारने से तो व उसे तो स ज स्ने

ी से पढ़ाया जा सकता

पढ़े गा न ीं,

ै । ताड़ना भी दो ; लेककन उसके मूँु

मत लगो। उसका तो कुछ न ीं बबगड़ता, तुम् ारा अपमान

ोता

ै।

जब गोबर चलने लगा, तो बुहढ़या ने खाूँड़ और सत्तू समलाकर उसे खाने को हदया।

गाूँव के और कई आदमी मजरू ी की टो

में श र जा र े थे। बातचीत में रास्ता

कट गया और नौ बजते-बजते सब लोग अमीनाबाद के बाज़ार में जा प ु ूँच।े गोबर ै रान था, इतने आदमी नगर में क ाूँ से आ गये ? आदमी पर आदमी धगरा पड़ता था। उस हदन बाज़ार में चार-पाूँच सौ मज़दरू ों से कम न थे। राज और बढ़ई और लो ार और बेलदार और खाट बुननेवाले और टोकरी ढोनेवाले और संगतराश सभी जमा थे। गोबर य

जमघट दे खकर नराश

मजूरों को क ाूँ काम समला जाता

ै । और उसके

न ीं

ै । कोई क्या जानेगा कक व

ो गया। इतने सारे

ाथ में तो कोई औजार भी

क्या काम कर सकता

ै । कोई उसे क्यों

रखने लगा। बबना औज़ार के उसे कौन पूछेगा? िीरे -िीरे एक-एक करके मजूरों को काम समलता जा र ा था। कुछ लोग नराश अधिकतर व

ोकर घर लौटे जा र े थे।

बढ़ ू े और नकम्मे बच र े थे, श्जनका कोई पछ ु त्तर न था। और

उन् ीं में गोबर भी था। लेककन अभी आज उसके पास खाने को

ै । कोई ग़म

न ीं। स सा समरज़ा खश ु ेद ने मज़दरू ों के बीच में आकर ऊूँची आवाज़ से क ा -श्जसको छः आने रोज़ पर काम करना

ो, व

मेरे साथ आये। सबको छः आने

समलें गे। पाूँच बजे छुट्टी समलेगी। दस-पाूँच राजों और बढ़इयों को छोड़कर सब के सब उनके साथ चलने को तैयार

ो गये। चार सौ िटे - ालों की एक ववशाल

सेना सज गयी। आगे समरज़ा थे, कंिे पर मोटा सोटा रखे ु ए। पीछे भुखमरों की लम्बी क़तार थी, जैसे भेड़ें ों। एक बूढ़े ने समरज़ा से पूछा -- कौन काम करना

ै मासलक?

समरज़ा सा ब ने जो काम बतलाया, उस पर सब और भी चककत एक कबड्डी खेलना! य रोज़ दे र ा

कैसा आदमी

ो गये। केवल

ै , जो कबड्डी खेलने के सलए छः आना

ै कोई! ब ु त िन पाकर आदमी सनक ी जाता ै । ब ु त पढ़ लेने से भी आदमी पागल ो जाते ैं। कुछ लोगों को संदे ोने लगा, क ीं य कोई मखौल तो न ीं ै ! य ाूँ से घर पर ले जाकर क दे , कोई काम न ीं

ै । सनकी तो न ीं

ै , तो कौन इसका क्या कर लेगा! व

चा े कबड्डी खेलाये , चा े आूँख

समचौनी, चा े गुल्लीडंडा, मजूरी पेशगी दे दे । ऐसे झक्कड़ आदमी का क्या भरोसा?

गोबर ने डरते-डरते क ा -- मासलक, मारे पास कुछ खाने को न ीं जायूँ, तो कुछ लेकर खा लूँ ।ू समरज़ा ने झट छः आने पैसे उसके

ै । पैसे समल

ाथ में रख

हदये और ललकारकर बोले -- मजूरी सबको चलते-चलते पेशगी दे दी जायगी। इसकी धचंता मत करो।

समरज़ा सा ब ने श र के बा र थोड़ी-सी ज़मीन ले रखी थी। मजूरों ने जाकर

दे खा, तो एक बड़ा अ ाता घरा ु आ था और उसके अन्दर केवल एक छोटी-सी िूस की झोंपड़ी थी, श्जसमें तीन-चार कुससदयां थीं, एक मेज़। थोड़ी-सी ककताबें मेज़ पर रखी ु ई थीं। झोंपड़ी बेलों और लताओं से ढकी ु ई ब ु त सुंदर लगती थी। अ ाते में एक तरफ़ आम और नीबू और अमरूद के पौिे लगे ु ए थे, दस ू री तरफ़ कुछ िूल। बड़ा ह स्सा परती था। समरज़ा ने सबको क़तार में खड़ा करके पागलपन में संदे

ी मजूरी बाूँट दी। अब ककसी को उनके

न र ा। गोबर पैसे प ले

ी पा चक ु ा था, समरज़ा ने उसे

बुलाकर पौिे सींचने का काम सौंपा। उसे कबड्डी खेलने को न समलेगी। मन में ऐंठकर र

गया। इन बुड्ढों को उठा-उठाकर पटकता; लेककन कोई परवा

न ीं।

ब ु त कबड्डी खेल चुका ै । पैसे तो पूरे समल गये। आज यग ु ों के बाद इन ज़राग्रस्तों को कबड्डी खेलने का सौभाग्य समला। अधिकतर तो ऐसे थे , श्जन् ें याद भी न आता था कक कभी कबड्डी खेली

ै या न ीं। हदनभर श र में वपसते थे।

प र रात गये घर प ु ूँ चते थे और जो कुछ रूखा-सूखा समल जाता था, खाकर पड़े र ते थे। प्रातःकाल किर व ी चरखा शुरू ो जाता था। जीवन नीरस, नरानंद, केवल एक ढराद मात्र

ो गया था। आज जो य

ो गये। अिमरे बूढ़े, ठठररयाूँ सलये, मूँु

अवसर समला , तो बूढ़े भी जवान

में दाूँत न पेट में आूँत, जाूँघ के ऊपर

िो तयाूँ या त मद चढ़ाये ताल ठोक-ठोककर उछल र े थे, मानो उन बढ़ ू ी ड्डडयों में जवानी िूँस पड़ी

गोईयों का चुनाव

ो। चटपट पाली बन गयी, दो नायक बन गये।

ोने लगा। और बार

बजते-बजते खेल शुरू

जाड़ों की ठं डी िप ू ऐसी क्रीड़ाओं के सलए आदशद ऋतु

ो गया।

ै । इिर अ ाते के िाटक

पर समरज़ा सा ब तमाशाइयों को हटकट बाूँट र े थे। उन पर इस तर न-कोई सनक

की कोई-

मेशा सवार र ती थी। अमीरों से पैसा लेकर ग़रीबों को बाूँट

दे ना। इस बूढ़ी कबड्डी का ववज्ञापन कई हदन से धचपकाये गये थे, नोहटस बाूँटे गये थे। य

ो र ा था। बड़े-बड़े पोस्टर

खेल अपने ढं ग का नराला

ोगा,

बबलकुल अभत ू पव ू ।द भारत के बढ़ ू े आज भी कैसे पोढ़े आयें और अपनी आूँखें तप्ृ त कर लें । श्जसने य

ैं, श्जन् ें य

दे खना

तमाशा न दे खा, व

ो,

पछतायेगा।

ऐसा सुअवसर किर न समलेगा। हटकट दस रुपए से लेकर दो आने तक के थे। तीन बजते-बजते सारा अ ाता भर गया। मोटरों और किटनों का ताूँता लगा ु आ था। दो ज़ार से कम की भीड़ न थी। रईसों के सलए कुससयों और बेंचों का

इन्तज़ाम था। सािारण जनता के सलए साफ़ सुथरी ज़मीन। समस मालती, मे ता, खन्ना, तंखा और राय सा ब सभी ववराजमान थे।

खेल शुरू ु आ, तो समरज़ा ने मे ता से क ा -- आइए डाक्टर सा ब, एक गोई मारी और आपकी भी ो जाय। समस मालती बोली -- कफ़लासफ़र का जोड़ कफ़लासफ़र

ी से

समरज़ा ने मूँछ ू ों पर ताव दे कर क ा -- तो क्या आप समझती न ीं ू ूँ। मेरे पास पुछल्ला न ीं सकते ैं मे ताजी!

ो सकता

ै।

ैं, मैं कफ़लासफ़र

ै ; लेककन ू ूँ मैं कफ़लासफ़र। आप मेरा इंत ान ले

मालती ने पूछा -- अच्छा बतलाइए, आप आइडडयसलस्ट

ैं या मेटीररयसलस्ट।

'मैं दोनों ू ूँ।' 'य क्योंकर?' 'ब ु त अच्छी तर । जब जैसा मौक़ा दे खा, वैसा बन गया।' 'तो आपका अपना कोई नकचय न ीं ै ।' 'श्जस बात का आज तक कभी नकचय न ु आ, और न कभी ोगा, उसका

नकचय मैं भला क्या कर सकता ू ूँ! और लोग आूँखें िोड़कर और ककताबें चाटकर श्जस नतीजे पर प ु ूँचते ैं, व ाूँ मैं यों ी प ु ूँच गया। आप बता सकती ैं, ककसी कफ़लासफ़र ने अक्ली गद्िे लड़ाने के ससवाय और कुछ ककया ै ?'

डाक्टर मे ता ने अचकन के बटन खोलते ु ए क ा -- तो चसलए मारी और आपकी ो ी जाय। और कोई माने या न माने, मैं आपको कफ़लासफ़र मानता ू ूँ। समरज़ा ने खन्ना से पछ ू ा -- आपके सलए भी कोई जोड़ ठीक करूूँ? मालती ने पुचारा हदया --

ाूँ, ाूँ, इन् ें ज़रूर ले जाइए समस्टर तंखा के साथ।

खन्ना झेंपते ु ए बोले -- जी न ीं, मुझे क्षमा कीश्जए। समरज़ा ने रायसा ब से पूछा -- आपके सलए कोई जोड़ लाऊूँ? राय सा ब बोले -- मेरा जोड़ तो ओंकारनाथ का

ै , मगर व

आज नज़र

ी न ीं

आते। समरज़ा और मे ता भी नंगी दे , केवल जाूँ घए प ने ु ए मैदान में प ु ूँच गये। एक इिर, दस ू रा उिर। खेल शुरू ो गया। जनता बूढ़े कुलेलों पर

ूँसती थी, तासलयाूँ बजाती थी, गासलयाूँ दे ती थी, ललकारती

थी, बाश्ज़याूँ लगाती थी। वा ! ज़रा इन बढ़ ू े बाबा को दे खो! ककस शान से जा र े ैं, जैसे सबको मारकर

ी लौटें गे। अच्छा, दस ू री तरफ़ से भी उन् ीं के बड़े भाई

नकले। दोनों कैसे पैंतरे बदल र े लोगों ने श्जतना घी खाया ैं, भारत िनी

ो र ा

ै।

ैं! इन

ै , उतना अब ोता

ोगा।

ड्डडयों में अभी ब ु त जान ै । इन में पानी भी मयस्सर न ीं। लोग क ते

म तो य ी दे खते

जीवट के जवान भी आज मश्ु ककल से नकलें गे। व

उिरवाले बड् ु ढे ने इसे दबोच

सलया। बेचारा छूट नकलने के सलए ककतना ज़ोर मार र ा सकते बच्चा! एक को तीन सलपट गये। इस तर

ैं कक इन बुड्ढों-जैसे

ै ; मगर अब न ीं जा

लोग अपनी हदलचस्पी ज़ाह र

कर र े थे; उनका सारा ध्यान मैदान की ओर था। णखलाडड़यों के आघातप्र तघात, उछल-कूद, िर-पकड़ और उनके मरने-जीने में सभी तन्मय

ो र े थे।

कभी चारों तरफ़ से क़ क़ े पड़ते, कभी कोई अन्याय या िाूँिली दे खकर लोग

'छोड़ दो, छोड़ दो' का गुल मचाते, कुछ लोग तैश में आकर पाली की तरफ़ दौड़ते, लेककन जो थोड़े-से सज्जन शासमयाने में ऊूँचे दरजे के हटकट लेकर बैठे थे , उन् ें

इस खेल में ववशेष आनंद न समल र ा था। वे इससे अधिक म त्व की बातें कर र े थे। खन्ना ने श्जंजर का ग्लास ख़ाली करके ससगार सुलगाया और राय सा ब से बोले -- मैंने आप से क और य

हदया, बैंक इससे कम सद ू पर ककसी तर

ररआयत भी मैंने आपके साथ की

मुआमला

राज़ी न

ोगा

ै ; क्योंकक आपके साथ घर का

ै।

राय सा ब ने मूँछ ू ों में मस् ु करा ट को लपेटकर क ा -- आपकी नी त में घरवालों को

ी उलटे छुरे से

लाल करना चाह ए?

'य आप क्या फ़रमा र े ैं।' 'ठीक क र ा ू ूँ। सूयप्र द ताप ससं से आपने केवल सात फ़ी सदी सलया ै , मुझसे नौ फ़ी सदी माूँग र े ैं और उस पर ए सान भी रखते ैं। क्यों न ो। ' खन्ना ने क़ क़ ा मारा, मानो य

कथन

ूँसने के

ी योग्य था।

'उन शतों पर मैं आपसे भी व ी सूद ले लूँ ग ू ा। मने उनकी जायदाद रे न रख ली

ै और शायद य

जायदाद किर उनके

ाथ न जायगी। '

'मैं अपनी कोई जायदाद नकाल दूँ ग ू ा। नौ परसेंट दे ने से य क ीं अच्छा ै कक फ़ालतू जायदाद अलग कर दूँ ।ू मेरी जैकसन रोडवाली कोठी आप नकलवा दें । कमीशन ले लीश्जएगा।'

'उस कोठी का सभ ु ीते से नकलना ज़रा मुश्ककल ै । आप जानते ैं , व जग बस्ती से ककतनी दरू करते

ैं?'

ै ; मगर ख़ैर, दे खग ूूँ ा। आप उसकी क़ीमत का क्या अंदाज़ा

राय सा ब ने एक लाख पचीस साथ।

ज़ार बताये। पंद्र

बीघे ज़मीन भी तो

ै उसके

खन्ना स्तंसभत र े

ो गये। बोले -- आप आज के पंद्र

ैं राय सा ब! आपको मालूम

पचास परसेंट की कमी

ो गयी

ै।

साल प ले का स्वप्न दे ख

ोना चाह ए कक इिर जायदादों के मूल्य में

राय सा ब ने बरु ा मानकर क ा -- जी न ीं, पंद्र

साल प ले उसकी क़ीमत डेढ़

लाख थी।

'मैं ख़रीददार की तलाश में र ू ूँगा; मगर मेरा कमीशन पाूँच प्र तशत ोगा, आपसे।' 'औरों से शायद दस प्र तशत ो क्यों; क्या करोगे इतने रुपए लेकर?' 'आप जो चा ें दे दीश्जएगा। अब तो राज़ी ु ए। शुगर के ह स्से अभी तक आपने

न ख़रीदे । अब ब ु त थोड़े-से ह स्से बच र े ैं। ाथ मलते र जाइएगा। इंकयोरें स की पासलसी भी आपने न ली। आप में टाल-मटोल की बुरी आदत ै । जब अपने लाभ की बातों का इतना टाल-मटोल ो सकता

ै ! इसी से क ते

ै , तब दस ू रों को आप लोगों से क्या लाभ

ैं , ररयासत आदमी की अक्ल चर जाती

ै । मेरा बस

चले तो मैं ताल्लक़ ु े -दारी की ररयासतें ज़ब्त कर लूँ ।ू ' समस्टर तंखा मालती पर जाल िेंक र े थे। मालती ने साफ़ क व

हदया था कक

एलेक्शन के झमेले में न ीं पड़ना चा ती ; पर तंखा इतनी आसानी से

ार

माननेवाले व्यश्क्त न थे। आकर कु नयों के बल मेज़ पर हटककर बोले -- आप ज़रा उस मुआमले पर

किर ववचार करें । मैं क ता ू ूँ ऐसा मौक़ा शायद आपको किर न समले। रानी सा ब चन्दा को आपके मक़ ु ाबले में रुपए में एक आना भी चांस न ीं ै । मेरी इच्छा केवल य प्राप्त ककया

ै कक कौंससल में ऐसे लोग जाएूँ , श्जं ोंने जीवन में कुछ अनुभव

ै और जनता की कुछ सेवा की

ससवा कुछ जाना

ी न ीं, श्जसने जनता को

श्जसकी सबसे मूल्यवान सेवा वे पाहटद याूँ हदया करती

ै । श्जस मह ला ने भोग-ववलास के

मेशा अपनी कार का पेरोल समझा,

ैं, जो व

गवनदरों और सेक्रेटररयों को

ैं , उनके सलए इस कौंससल में स्थान न ीं

कुछ अधिकार प्र त नधियों के अधिकार अनधिकाररयों के

ाथ में

ै । नई कौंससल में ब ु त ोगा और मैं न ीं चा ता कक व

ाथ में जाय।

मालती ने पीछा छुड़ाने के सलए क ा -- लेककन सा ब, मेरे पास दस-बीस एलेक्शन पर ख़चद करने के सलए क ाूँ सकती भी

ैं। मुझे भी साल में

ज़ार

ै ? रानी सा ब तो दो-चार लाख ख़चद कर

ज़ार-पाूँच सौ रुपए उनसे समल जाते

ैं , य

रक़म

ाथ से नकल जायगी।

'प ले आप य बता दें कक आप जाना चा ती ैं , या न ीं?' 'जाना तो चा ती ू ूँ , मगर फ़्ी पास समल जाय!' 'तो य मेरा श्ज़म्मा र ा। आपको फ़्ी पास समल जायगा।' 'जी न ीं, क्षमा कीश्जए। मैं ार की श्ज़ल्लत न ीं उठाना चा ती। जब रानी सा ब रुपए की थैसलयाूँ खोल दें गी और एक-एक वोट पर एक-एक अशफ़ी चढ़ने लगेगी, तो शायद आप भी उिर वोट दें गे।'

'आपके ख़याल में एलेक्शन म ज़ रुपए से जीता जा सकता ै । ' 'जी न ीं, व्यश्क्त भी एक चीज़ ै । लेककन मैंने केवल एक बार जेल जाने के ससवा और क्या जन-सेवा की मतलब

ी से गयी थी, उसी तर

सभ्यता का आिार िन सामने

ै ? और सच पू छए तो उस बार भी मैं अपने

ेय

जैसे राय सा ब और खन्ना गये थे। इस नयी

ै , ववद्या और सेवा और कुल और जा त सब िन के

ै । कभी-कभी इ त ास में ऐसे अवसर आ जाते

आंदोलन के सामने नीचा दे खना पड़ता

ैं , जब िन को

ै ; मगर इसे अपवाद समणझए। मैं अपनी

ी बात क ती ू ूँ। कोई ग़रीब औरत दवाखाने में आ जाती ै , तो घंटों उससे बोलती तक न ीं। पर कोई मह ला कार पर आ गयी , तो द्वार तक जाकर उसका स्वागत करती ू ूँ और उसकी ऐसी उपासना करती ू ूँ , मानो साक्षात ण दे वी ै । मेरी और रानी सा ब का कोई मुकाबला न ीं। श्जस तर के कौंससल बन र े ैं, उनके सलए रानी सा ब

ी ज़्यादा उपयुक्त

ैं।'

उिर मैदान में मे ता की टीम कमज़ोर पड़ती जाती थी। आिे से ज़्यादा णखलाड़ी मर चुके थे। मे ता ने अपने जीवन में कभी कबड्डी न खेली थी। समरज़ा इस िन के उस्ताद थे। मे ता की तातीलें असभनय के अभ्यास में कटती थीं। रूप

भरने में व

अच्छे -अच्छे को चककत कर दे ते थे। और समरज़ा के सलए सारी

हदलचस्पी अखाड़े में थी, प लवानों के भी और पररयों के भी। मालती का ध्यान उिर भी लगा ु आ था। उठकर राय सा ब से बीली -- मे ता की पाटी तो बरु ी तर राय सा ब और खन्ना में इंकयोरें स की बातें ऊबे ु ए मालूम

वपट र ी

ै।

ो र ी थीं। राय सा ब उस प्रसंग से

ोते थे। मालती ने मानो उन् ें एक बंिन से मुक्त कर हदया।

उठकर बोले -- जी

ाूँ, वपट तो र ी

ै । समरज़ा पक्का णखलाड़ी

ै।

'मे ता को य क्या सनक सझ ू ी। व्यथद अपनी भद्द करा र े ैं।' 'इसमें का े की भद्द? हदल्लगी ी तो ै ।' 'मे ता की तरफ़ से जो बा र नकलता ै , व ी मर जाता ै ।' एक क्षण के बाद उसने पूछा -- क्या इस खेल में

ाफ़ टाइम न ीं

ोता ?

खन्ना को शरारत सूझी। बोले -- आप चले थे समरज़ा से मुकाबला करने। समझते थे, य

भी कफ़लासफ़ी

ै।

'मैं पछ ू ती ू ूँ, इस खेल में ाफ़ टाइम न ीं ोता?' खन्ना ने किर धचढ़ाया -- अब खेल

ी ख़तम ु आ जाता ै । मज़ा आयेगा तब, जब समरज़ा मे ता को दबोचकर रगड़ेंगे और मे ता सा ब 'चीं' बोलें गे।

'मैं तुमसे न ीं पूछती। राय सा ब से पूछती ू ूँ।' राय सा ब बोले -- इस खेल में

ाफ़ टाइम! एक

ै।

'अच्छा, मे ता का एक आदमी और मर गया।'

ी एक आदमी तो सामने आता

खन्ना बोले -- आप दे खती रह ए! इसी तर

सब मर जायूँगे और आणख़र में

मे ता सा ब भी मरें गे। मालती जल गयी -- आपकी ह म्मत न पड़ी बा र नकलने की।

'मैं गूँवारों के खेल न ीं खेलता। मेरे सलए टे नस ै ।' 'टे नस में भी मैं तम् ु ें सैकड़ों गेम दे चक ु ी ू ूँ।' 'आपसे जीतने का दावा ी कब ै ?' 'अगर दावा ो, तो मैं तैयार ू ूँ ।' मालती उन् ें िटकार बताकर किर अपनी जग से

मददी न ीं

ै । कोई य

न ीं क ता कक अब खेल ख़त्म कर हदया जाय।

मे ता भी अजीब बि ु ू आदमी न्याय-वप्रयता हदखा र े

पर आ बैठी। ककसी को मे ता

ैं, कुछ िाूँिली क्यों न ीं कर बैठते। य ाूँ अपनी

ैं। अभी

ारकर लौटें गे, तो चारों तरफ़ से तासलयाूँ पड़ेंगी।

अब शायद बीस आदमी उनकी तरफ़ और

ोंगे और लोग ककतने ख़ुश

ो र े

तरफ़ बढ़ते जाते थे। रस्सी का जो एक कठघरा-सा बनाया गया था, व

तोड़

ज्यों-ज्यों अंत समीप आता जाता था, लोग अिीर

ैं।

ोते जाते थे और पाली की

हदया गया। स्वयम ण-सेवक रोकने की चेष्टा कर र े थे; पर उस उत्सक ु ता के

उन्माद में उनकी एक न चलती थी। य ाूँ तक कक ज्वार अं तम बबंद ु तक आ

प ु ूँचा और मे ता अकेले बच गये और अब उन् ें गूँग ू े का पाटद खेलना पड़ेगा। अब सारा दारमदार उन् ीं पर ै ; अगर व बचकर अपनी पाली में लौट आते ैं , तो उनका पक्ष बचता लौटना पड़ता आयूँगे व

ै, व

ै । न ीं, ार का सारा अपमान और लज्जा सलए ु ए उन् ें दस ू रे पक्ष के श्जतने आदसमयों को छूकर अपनी पाली में

सब मर जायूँगे और उतने

ी आदमी उनकी तरफ़ जी उठें गे। सबकी

आूँखें मे ता की ओर लगी ु ई थीं। व मे ता चले। जनता ने चारों ओर से आकर पाली को घेर सलया। तन्मयता अपनी पराकाष्ठा पर थी। मे ता ककतने शांत भाव से शत्रुओं की ओर जा र े प्र तबबंबबत पड़ता

ैं। उनकी प्रत्येक ग त जनता पर

ो जाती

ै , ककसी की गदद न टे ढ़ी ु ई जाती ै , कोई आगे को झक ु ै । वातावरण गमद ो गया। पारा ज्वाला-बबंद ु पर आ प ु ूँचा ै । मे ता

शत्रु-दल में घुसे। दल पीछे

टता जाता

ै । उनका संगठन इतना दृढ़

ै कक

मे ता की पकड़ या स्पशद में कोई न ीं आ र ा

ै । ब ु तों को जो आशा थी कक मे ता कम-से-कम अपने पक्ष के दस-पाूँच आदसमयों को तो श्जला ी लें गे, वे नराश

ोते जा र े

पकड़ लेते

ैं। स सा समरज़ा एक छलाूँग मारते

ैं और मे ता की कमर

ैं। मे ता अपने को छुड़ाने के सलए ज़ोर मार र े

की तरफ़ खींचे सलये आ र े चलना मश्ु ककल

ै । लोग उन्मत्त

ै कक कौन णखलाड़ी

ैं। समरज़ा और मे ता में मल्लयुि

ैं। समरज़ा को पाली

ो जाते ै । अब इसका पता

ै कौन तमाशाई। सब एक गडमड ो र ा

ो गये

ै । समरज़ा के कई बुड्ढे मे ता की

तरफ़ लपके और उनसे सलपट गये। मे ता ज़मीन पर चुपचाप पड़े ु ए ैं ; अगर व ककसी तर खींच-खाूँचकर दो ाथ और ले जायूँ, तो उनके पचासों आदमी जी उठते

ैं , मगर व

एक इंच भी न ीं णखसक सकते। समरज़ा उनकी गदद न पर बैठे

ु लाल ो र ा ै । आूँखें बीरब ू टी बनी ु ई ैं। पसीना ु ए ैं। मे ता का मख टपक र ा ै , और समरज़ा अपने स्थल ू शरीर का भार सलये उनकी पीठ पर ु मच र े ैं। मालती ने समीप जाकर उत्तेश्जत स्वर में क ा -- समरज़ा खश ु ेद, य

फ़ेयर न ीं

ै । बाज़ी ड्रॉ र ी।

खुशेद ने मे ता की गदद न पर एक घस्सा लगाकर क ा -- जब तक य बोलें गे, मैं

'चीं' न

रधगज़ न छोड़ूूँगा। क्यों न ीं 'चीं' बोलते?

मालती और आगे बढ़ी --'चीं' बुलाने के सलए आप इतनी ज़बरदस्ती न ीं कर सकते।

समरज़ा ने मे ता की पीठ पर ु मचकर क ा -- बेशक कर सकता ू ूँ। आप इनसे क दें ,'चीं' बोलें, मैं अभी उठा जाता ू ूँ। मे ता ने एक बार किर उठने की चेष्टा की; पर समरज़ा ने उनकी गदद न दबा दी। मालती ने उनका अदावत

ै।

'अदावत ी स ी।'

ाथ पकड़कर घसीटने कोसशश करके क ा -- य

खेल न ीं,

'आप न छोड़ेंगे?' उसी वक़्त जैसे कोई भूकंप आ गया। समरज़ा सा ब ज़मीन पर पड़े ु ए थे और मे ता दौड़े ु ए पाली की ओर भागे जा र े थे और ज़ारों आदमी पागलों की तर

टोवपयाूँ और पगडड़याूँ और छडड़याूँ उछाल र े थे। कैसे य

कोई समझ न सका।

काया पलट ु ई,

समरज़ा ने मे ता को गोद में उठा सलया और सलये प्रत्येक मख ु पर य

ु ए शासमयाने तक आये। शब्द थे -- डाक्टर सा ब ने बाज़ी मार ली। और प्रत्येक

आदमी इस

ारी ु ई बाज़ी के एकबारगी पलट जाने पर ववश्स्मत था। सभी मे ता के जीवट और िैयद का बखान कर र े थे। मज़दरू ों के सलए प ले से नारं धगयाूँ मूँगा ली गयी थीं। उन् ें एक-एक नारं गी दे कर ववदा ककया गया।

शासमयाने में मे मानों के चाय-पानी का आयोजन था। मे ता और समरज़ा एक ी मेज़ पर आमने-सामने बैठे। मालती मे ता के बग़ल में बैठी। मे ता ने क ा -- मुझे आज एक नया अनुभव ु आ। मह ला की स ानुभू त को जीत बना सकती ै । समरज़ा ने मालती की ओर दे खा -- अच्छा! य र ी थी कक आप एकाएक कैसे ऊपर आ गये।

बात थी! जभी तो मुझे

मालती शमद से लाल ु ई जाती थी। बोली -- आप बड़े बेमरु ौवत आदमी समरज़ाजी! मुझे आज मालूम ु आ।

ै रत

ार



ैं

'कुसूर इनका था। य क्यों 'चीं' न ीं बोलते थे?' 'मैं तो 'चीं' न बोलता, चा े आप मेरी जान ी ले लेत।े ' कुछ दे र समत्रों में गप-शप

ोती र ी। किर िन्यवाद के और मब ु ारकवाद के

भाषण ु ए और मे मान लोग बबदा ु ए। मालती को भी एक ववश्जट करनी थी। व भी चली गयी। केवल मे ता और समरज़ा र गये। उन् ें अभी स्नान करना था। समट्टी में सने ु ए थे। कपड़े कैसे प नते। गोबर पानी खींच लाया और दोनों दोस्त न ाने लगे।

समरज़ा ने पूछा -- शादी कब तक

ोगी?

मे ता ने अचंभे में आकर पछ ू ा -- ककसकी?

'आपकी। 'मेरी शादी! ककसके साथ ो र ी ै ? 'वा ! आप तो ऐसा उड़ र े ैं , गोया य भी छपा की बात ै ।' 'न ीं-न ीं, मैं सच क ता ू ूँ , मुझे बबलकुल ख़बर न ीं ै । क्या मेरी शादी ोने जा र ी ै ?' 'और आप क्या समझते ैं , समस मालती आप की कम्पे नयन बनकर र ें गी ?' मे ता गंभीर भाव से बोले -- आपका ख़याल बबलकुल ग़लत मालती

सीन

ककतनी ख़बू बयाूँ व

उनमें न ीं

ैं, ख़ुशसमज़ाज

ैं, समझदार

ैं, रोशन ख़याल

ै । समरज़ाजी! समस ैं और भी उनमें

ैं। लेककन मैं अपनी जीवन-संधगनी में जो बात दे खना चा ता ू ूँ , ै और न शायद ो सकती ै । मेरे ज़े न में औरत वफ़ा और

त्याग की मू तरण ै , जो अपनी बेज़बानी से, अपनी क़ुबानी से, अपने को बबलकुल समटाकर प त की आत्मा का एक अंश बन जाती आत्मा स्त्री की

ोती

ै ? मदद में व

ो जायगा। व

समल जाने का स्वप्न दे खेगा। व समझकर कक व करता

सामथ्यद

ककसी खो

नारी के गण ु आ जाते ैं तो व

सवांश में स्त्री

ै , पर

ैं, तो व

कुलटा

अपने को

ै , और अ ं कार में य

ै सीिा ईकवर में लीन म ात्मा बन जाता

ो जाती

ै। व



में जा बैठेगा और सवादत्मा में

तेजप्रिान जीव

ज्ञान का पुतला

ी न ीं

ै । स्त्री पथ् द ान ण ै , शां त-संपन्न ृ वी की भाूँ त िैयव

आ जाते

पुरुष की र ती

ै । आप क ें गे , मदद अपने को क्यों न ीं समटाता? औरत

से क्यों इसकी आशा करता समटायेगा, तो शून्य

ै । दे

ोने की कल्पना ककया ै , सह ष्णु

ै । पुरुष में

ै । नारी में परु ु ष के गण ु

ै । पुरुष आकवषदत

ोता

ै स्त्री की ओर, जो

ो। मालती ने अभी तक मुझे आकवषदत न ीं ककया। मैं आपसे

ककन शब्दों में क ू ूँ कक स्त्री मेरी नज़रों में क्या ै ? संसार में जो कुछ सुंदर ै, उसी की प्र तमा को मैं स्त्री क ता ू ूँ ; मैं उससे य आशा रखता ू ूँ कक मैं उसे

मार

ी डालूँ ू तो भी प्र तह स ं ा का भाव उसमें न आये, अगर मैं उसकी आूँखों के

सामने ककसी स्त्री को प्यार करूूँ, तो भी उसकी ईष्याद न जागे। ऐसी नारी पाकर मैं उसके चरणों में धगर पड़ूूँगा और उसपर अपने को अपदण कर दूँ ग ू ा।

समरज़ा ने ससर ह लाकर क ा -- ऐसी औरत आपको इस द ु नया में तो शायद



समले।

मे ता ने

ाथ मारकर क ा -- एक न ीं

ज़ारों; वरना द ु नया वीरान

ो जाती।

'ऐसी ी एक समसाल दीश्जए।' 'समसेज़ खन्ना को ी ले लीश्जए।' 'लेककन खन्ना!' 'खन्ना अभागे ैं,' जो

ीरा पाकर काूँच का टुकड़ा समझ र े

उसके साथ

ी ककतना प्रेम

रत्ती-भर भी स्थान न ीं

ैं। सोधचए, ककतना त्याग

ै और

ै । खन्ना के रूपासक्त मन में शायद उसके सलए

ै ; लेककन आज खन्ना पर कोई आफ़त आ जाय तो व

अपने को उनपर न्योछावर कर दे गी। खन्ना आज अंिे या कोढ़ी

ो जायूँ, तो भी

उसकी वफ़ादारी में फ़क़द न आयेगा। अभी खन्ना उसकी क़द्र न ीं कर सकते

ैं ,

मगर आप दे खेंगे, एक हदन य ी खन्ना उसके चरण िो-िोकर वपयेंगे। मैं ऐसी बीबी न ीं चा ता, श्जससे मैं ऐंस्टीन के ससिांत पर ब स कर सकूूँ, या जो मेरी रचनाओं के प्रफ़ ू दे खा करे । मैं ऐसी औरत चा ता ू ूँ , जो मेरे जीवन को पववत्र और उज्ज्वल बना दे , अपने प्रेम और त्याग से।' खुशेद ने दाढ़ी पर

ाथ िेरते ु ए जैसे कोई भूली ु ई बात याद करके क ा -आपका ख़याल ब ु त ठीक ै समस्टर मे ता! ऐसी औरत अगर क ीं समल जाय, तो मैं भी शादी कर लूँ ,ू लेककन मुझे उम्मीद न ीं मे ता ने

ै कक समले।

ूँसकर क ा -- आप भी तलाश में रह ए, मैं भी तलाश में

कभी तक़दीर जागे।

ू ूँ। शायद

'मगर समस मालती आपको छोड़नेवाली न ीं। कह ए सलख दूँ ।ू ' 'ऐसी औरतों से मैं केवल मनोरं जन कर सकता ू ूँ , ब्या न ीं। ब्या तो आत्मसमपदण ै ।' 'अगर ब्या आत्म-समपदण ै , तो प्रेम क्या ै ?' 'प्रेम जब आत्म-समपदण का रूप लेता ै , तभी ब्या मे ता ने कपड़े प ने और ववदा

ो गये। शाम

ै ; उसके प ले ऐयाशी

ै ।'

ो गयी थी। समरज़ा ने जाकर

दे खा, तो गोबर अभी तक पेड़ों को सींच र ा था। समरज़ा ने प्रसन्न

ोकर क ा -- जाओ, अब तुम् ारी छुट्टी

ै । कल किर आओगे?

गोबर ने कातर भाव से क ा -- मैं क ीं नौकरी चा ता ू ूँ मासलक!

'नौकरी करना ै , तो म तुझे रख लें गे।' 'ककतना समलेगा ु ज़रू !' 'श्जतना तू माूँगे।' 'मैं क्या माूँगूँ।ू आप जो चा े दे दें ।' ' म तुम् ें पंद्र रुपए दें गे और ख़ूब कसकर काम लें गे।' गोबर मे नत से न ीं डरता। उसे रुपए समलें , तो व तैयार

ै । पंद्र

रुपए समलें , तो क्या पूछना। व

आठों प र काम करने को

तो प्राण भी दे दे गा।

बोला -- मेरे सलए कोठरी समल जाय, व ीं पड़ा र ू ूँगा।

' ाूँ- ाूँ, जग का इंतज़ाम मैं कर दूँ ग ू ा। इसी झोपड़ी में एक ककनारे तुम भी पड़ र ना।'

गोबर को जैसे स्वगद समल गया।

14 ोरी की फ़सल सारी की सारी डाूँड़ की भें ट

ो चुकी थी। वैशाख तो ककसी तर

कटा, मगर जेठ लगते-लगते घर में अनाज का एक दाना न र ा। पाूँच-पाूँच पेट खानेवाले और घर में अनाज नदारद। दोनों जन ू न समले, एक जन ू तो समलना चाह ए। भर-पेट न समले, आिा पेट तो समले। नरा ार कोई कै हदन र ै ! उिार ले तो ककससे! गाूँव के सभी छोटे -बड़े म ाजनों से तो मूँु

था। मजूरी भी करे , तो ककसकी। जेठ में अपना



सकता

चुराना पड़ता

ी काम ढे रों था। ऊख की

ससंचाई लगी ु ई थी; लेककन ख़ाली पेट मे नत भी कैसे ो! साूँझ ो गयी थी। छोटा बच्चा रो र ा था। माूँ को भोजन न समले, तो दि ू क ाूँ से नकले? सोना

पररश्स्थ त समझती थी; मगर रूपा क्या समझे! बार-बार रोटी-रोटी धचल्ला र ी थी। हदन-भर तो कच्ची असमया से जी ब ला; मगर अब तो कोई ठोस चीज़ चाह ए।

ोरी दल ु ारी स ु आइन से अनाज उिार माूँगने गया था; पर व दक ू ान बंद करके पैठ चली गयी थी। मूँगरू सा ने केवल इनकार ी न ककया, लताड़ भी दी -- उिार माूँगने चले

ैं, तीन साल से िेला सद ू न ीं हदया, उस पर उिार

हदये जाओ। अब आकबत में दें गे। खोटी नीयत ै । भगवान ण से भी य

ै , तो य ी

ाल

ोता

अनी त न ीं दे खी जाती। कारकुन की डाूँट पड़ी, तो कैसे

चुपके से रुपए उगल हदये। मेरे रुपए, रुपए उसका समज़ाज

ो जाती

ी न ीं

ी न ीं समलता। व ाूँ से रुआूँसा

ैं। और मे ररया

ै कक

ोकर उदास बैठा था कक पुन्नी

आग लेने आयी। रसोई के द्वार पर जाकर दे खा तो अूँिेरा पड़ा ु आ था। बोली -- आज रोटी न ीं बना र ी

ो क्या भाभी जी? अब तो बेला

जब से गोबर भागा था, पुन्नी और ि नया में बोलचाल ए सान भी मानने लगी थी। त्या, करके भागा। मूँु

ीरा को अब व

में कासलख लगी

ो गयी थी।

गासलयाूँ दे ती थी --

ो गयी। ोरी का त्यारा, गऊ-

ै , घर कैसे आये ? और आये भी तो घर

के अन्दर पाूँव न रखने दूँ ।ू गऊ- त्या करते इसे लाज भी न आयी। ब ु त अच्छा ोता, पसु लस बाूँिकर ले जाती और चक्की वपसवाती! ि नया कोई ब ाना न कर सकी। बोली -- रोटी क ाूँ से बने, घर में दाना तो ी न ीं। तेरे म तो ने बबरादरी का पेट भर हदया, बाल-बच्चे मरें या श्जयें। अब बबरादरी झाूँकती तक न ीं।



पन् ु नी की फ़सल अच्छी ु ई थी, और व स्वीकार करती थी कक य पुरुषाथद ै । ीरा के साथ कभी इतनी बरक्कत न ु ई थी। बोली -- अनाज मेरे घर से क्यों न ीं मूँगवा सलया? व कमाई

भी तो म तो

ोरी का

ी की

ै कक ककसी और की? सख ु के हदन आयें, तो लड़ लेना; दख ु तो साथ रोने

ी से कटता

ै । मैं क्या ऐसी अंिी ू ूँ कक आदमी का हदल न ीं प चानती। म तो ने न सूँभाला ोता, तो आज मुझे क ाूँ सरन समलती। व

उलटे पाूँव लौटी और सोना को भी साथ लेती गयी। एक क्षण में दो डल्ले

अनाज से भरे लाकर आूँगन में रख हदये। दो मन से कम जौ न था। ि नया अभी कुछ क ने न पायी थी कक व

किर चल दी और एक क्षण में एक बड़ी-सी

टोकरी अर र की दाल से भरी ु ई लाकर रख दी, और बोली -- चलो, मैं आग जलाये दे ती ू ूँ। ि नया ने दे खा तो जौ के ऊपर एक छोटी-सी डसलया में चार-पाूँच सेर आटा भी था। आज जीवन में प ली बार व

परास्त ु ई। आूँखों में प्रेम और कृतज्ञता के मोती भरकर बोली -- सब का सब उठा लायी कक घर में भी कुछ छोड़ा? क ीं भाग जाता था?

आूँगन में बच्चा खटोले पर पड़ा रो र ा था। पु नया उसे गोद में लेकर दल ु राती ु ई बोली -- तुम् ारी दया से अभी ब ु त ै भाभीजी! पंद्र मन तो जौ ु आ ै और दस मन गे ू ूँ। पाूँच मन मटर ु आ, तम ु से क्या छपाना ै । दोनों घरों का काम चल जायगा। दो-तीन म ीने में किर मकई ो जायगी। आगे भगवान ण मासलक

ै।

झु नया ने आकर अंचल से छोटी सास के चरण छुए। पु नया ने असीस हदया। सोना आग जलाने चली, रूपा ने पानी के सलए कलसा उठाया। रुकी ु ई गाड़ी चल नकली। जल में अवरोि के कारण जो चक्कर था , िेन था, शोर था, ग त की तीव्रता थी, व

अवरोि के

ट जाने से शान्त मिुर-ध्व न के साथ सम,

िीमी, एक-रस िार में ब ने लगी।

पु नया बोली -- म तो को डाूँड़ दे ने की ऐसी जल्दी क्या पड़ी थी ?

ि नया ने क ा -- बबरादरी में सरु ख़रू कैसे

ोते।

'भाभी, बुरा न मानो, तो एक बात क ू ूँ ?' 'क , बुरा क्यों मानूँग ू ी?' 'न क ू ूँगी, क ीं तुम बबगड़ने न लगो?' 'क ती ू ूँ , कुछ न बोलूँ ग ू ी, क तो।' 'तुम् ें झु नया को घर में रखना न चाह ये था। ' 'तब क्या करती? व डूबी मरती थी।' 'मेरे घर में रख दे ती। तब तो कोई कुछ न क ता।' 'य तो तू आज क ती ै । उस हदन भेज दे ती, तो झाड़ू लेकर दौड़ती!' 'इतने ख़रच में तो गोबर का ब्या

ो जाता।'

' ोन ार को कौन टाल सकता ै पगली! अभी इतने ी से गला न ीं छूटा भोला अब अपनी गाय के दाम माूँग र ा ठीक कर दो। अब क ता बेटे लाठी सलये किरते

ैं।

ै । तब तो गाय दी थी कक मेरी सगाई क ीं

ै , मझ ु े सगाई न ीं करनी, मेरे रुपए दे दो। उसके दोनों मारे कौन बैठा

ै , जो उससे लड़े! इस सत्यानासी गाय

ने आकर चौपट कर हदया।' कुछ और बातें करके पु नया आग लेकर चली गयी। भीतर आकर बोला -- पु नया हदल की साफ़

ै।

ोरी सब कुछ दे ख र ा था।

' ीरा भी तो हदल का साफ़ था?' ि नया ने अनाज तो रख सलया था; पर मन में लश्ज्जत और अपमा नत थी। य

हदनों का िेर

ै कक आज उसे य

नीचा दे खना पड़ा।

ो र ी

'तू ककसी का औसान न ीं मानती, य ी तुझमें बरु ाई ै ।' 'औसान क्यों मानूँू? मेरा आदमी उसकी धगरस्ती के पीछे जान न ीं दे र ा ै ? किर मैंने दान थोड़े

ी सलया

ै । उसका एक-एक दाना भर दूँ ग ू ी।'

मगर पु नया अपनी श्जठानी के मनोभाव समझकर भी

ोरी का ए सान चुकाती

जाती थी। जब य ाूँ अनाज चुक जाता, मन दो मन दे जाती; मगर जब चौमासा

आ गया और वषाद न ु ई, तो समस्या अत्यंत जहटल ो गयी। सावन का म ीना आ गया था और बगल ू े उठ र े थे। कुओं का पानी भी सख ू गया था और ऊख ताप से जली जा र ी थी। नदी से थोड़ा-थोड़ा पानी समलता था; मगर उसके पीछे आये हदन लाहठयाूँ नकलती थीं। य ाूँ तक कक नदी ने भी जवाब दे हदया। जग -जग

चोररयाूँ

ोने लगीं, डाके पड़ने लगे। सारे प्रांत में

ा ाकार मच गया।

बारे कुशल ु ई कक भादों में वषाद ो गयी और ककसानों के प्राण रे ु ए। ककतना उछा था उस हदन! प्यासी पथ्ृ वी जैसे अघाती ी न थी और प्यासे ककसान ऐसे उछल र े थे मानो पानी न ीं, अशकफ़द याूँ बरस र ी बने। खेतों में ज ाूँ बगूले उठते थे, व ाूँ

ों। बटोर लो, श्जतना बटोरते

ल चलने लगे। बालवन्ृ द नकल-

नकलकर तालाबों और पोखरों और गड़ह यों का मआ ु यना कर र े थे। ओ ो!

तालाब तो आिा भर गया, और व ाूँ से गड़ह या की तरफ़ दौड़े। मगर अब ककतना

ी पानी बरसे, ऊख तो बबदा

ो गयी। एक-एक

मक्का और जुआर और कोदो से लगान थोड़े भरा जायगा।

ाूँ, गौओं के सलए चारा

ाथ



ोके र

जायगी ,

ी चुकेगा, म ाजन का पेट थोड़े



ो गया और आदमी जी गया।

जब माघ बीत गया और भोला के रुपए न समले, तो एक हदन व ोरी के घर आ िमका और बोला -- य ी

झल्लाया ु आ ै तुम् ारा क़ौल? इसी मूँु से तुमने

ऊख पेरकर मेरे रुपए दे ने का वादा ककया था? अब तो ऊख पेर चुके। लाओ रुपए मेरे

ाथ में !

ोरी जब अपनी ववपश्त्त सुनाकर और सब तर

भोला द्वार से न पास रुपए न ीं

धचरौरी करके

ार गया और

टा, तो उसने झूँुझलाकर क ा -- तो म तो, इस बखत तो मेरे

ैं और न मुझे क ीं उिार

दाने-दाने की तंगी

समले, उठा ले जाओ।

ो र ी

ै । बबस्वास न

ी समल सकते

ैं। मैं क ाूँ से लाऊूँ?

ो, घर में आकर दे ख लो। जो कुछ

भोला ने नमदम भाव से क ा -- मैं तुम् ारे घर में क्यों तलासी लेने जाऊूँ और न मुझे इससे मतलब

ै कक तुम् ारे पास रुपये

ैं या न ीं। तुमने ऊख पेरकर

रुपये दे ने को क ा था। ऊख पेर चुके। अब मेरे रुपए मेरे

वाले करो।

'तो किर जो क ो, व करूूँ?' 'मैं क्या क ू ूँ ?' 'मैं तुम् ीं पर छोड़ता ू ूँ।' 'मैं तम् ु ारे दोनों बैल खोल ले जाऊूँगा।' ोरी ने उसकी ओर ववस्मय-भरी आूँखों से दे खा, मानो अपने कानों पर ववकवास न आया

ो। किर

तबुद्धि-सा ससर झुकाकर र

बनाकर छोड़ दे ना चा ते

गया। भोला क्या उसे सभखारी

ैं ? दोनों बैल चले गये, तब तो उसके दोनों

ाथ

ी कट

जायूँगे। दीन स्वर में बोला -- दोनों बैल ले लोगे, तो मेरा सवदनाश तम् ु ारा िरम य ी क ता

ो जायगा। अगर

ै , तो खोल ले जाओ।

'तुम् ारे बनने-बबगड़ने की मुझे परवा न ीं ै । मुझे अपने रुपए चाह ए।' 'और जो मैं क दूँ ,ू मैंने रुपए दे हदये?' भोला सन्नाटे में आ गया। उसे अपने कानों पर ववकवास न आया। बड़ी बेईमानी कर सकता में गंगाजली लेकर क

ै, य

संभव न ीं। उग्र

ोरी इतनी

ोकर बोला -- अगर तुम

दो कक मैंने रुपए दे हदये, तो सबर कर लूँ ।ू

'क ने का मन तो चा ता ै , मरता क्या न करता; लेककन क ू ूँगा न ीं।' 'तुम क

ी न ीं सकते।'

' ाूँ भैया, मैं न ीं क सकता। ूँसी कर र ा था।'

ाथ

एक क्षण तक व पाल र े

दबु बिे में पड़ा र ा। किर बोला -- तुम मुझसे इतना बैर क्यों

ो भोला भाई! झु नया मेरे घर में आ गयी, तो मुझे कौन-सा सरग

समल गया। लड़का अलग

ाथ से गया, दो सौ रुपया डाूँड़ अलग भरना पड़ा। मैं

तो क ीं का न र ा। और अब तम ु भी मेरी जड़ खोद र े मुझे बबलकुल न मालूम था कक लौंडा क्या कर र ा सुनने जाता

ो। भगवान ण जानते

ैं,

ै । मैं तो समझता था, गाना

ोगा। मुझे तो उस हदन पता चला, जब आिी रात को झु नया घर

में आ गयी। उस बखत मैं घर में न रखता, तो सोचो, क ाूँ जाती? ककसकी

ोकर

र ती? झु नया बरौठे के द्वार पर छपी खड़ी य बाप न ीं, शत्रु समझती थीं। डरी, क ीं

बातें सुन र ी थी। बाप को अब व

ोरी बैलों को दे न दें ।

जाकर रूपा से बोली -- अम्माूँ को जल्दी से बुला ला। क ना, बड़ा काम

ै , बबलम

न करो।

ि नया खेत में गोबर िेंकने गयी थी, ब ू का संदेश सन ु ा, तो आकर बोली -का े को बल ु ाया ब ू , मैं तो घबड़ा गयी।

'काका को तुमने दे खा ै न?' ' ाूँ दे खा, क़साई की तर द्वार पर बैठा ु आ ै । मैं तो बोली भी न ीं।' ' मारे दोनों बैल माूँग र े ैं, दादा से।' ि नया के पेट की आूँतें भीतर ससमट गयीं। दोनों बैल माूँग र े

ैं?

' ाूँ, क ते ैं या तो मारे रुपए दो, या म दोनों बैल खोल ले जायूँगे।' 'तेरे दादा ने क्या क ा?' 'उन् ोंने क ा, तम् ु ारा िरम क ता ो, तो खोल ले जाओ।'

'तो खोल ले जाय; लेककन इसी द्वार पर आकर भीख न माूँगे, तो मेरे नाम पर थूक दे ना। व

मारे ल ू से उसकी छाती जुड़ाती

इसी तैश में बा र आकर

ो, तो जुड़ा ले।'

ोरी से बोली -- म तो दोनों बैल माूँग र े

ैं, तो दे

क्यों न ीं दे ते?

'उनका पेट भरे , मारे भगवान ण मासलक ैं। मारे

ाथ तो न ीं काट लें गे? अब

तक अपनी मजूरी करते थे, अब दस ू रों की मजूरी करें गे। भगवान ण की मरज़ी ोगी, तो किर बैल-बधिये

ो जायूँगे, और मजरू ी

ी करते र े , तो कौन बरु ाई

बूड़स े ूखे और जोत-लगान का बोझ तो न र े गा। मैं न जानती थी, य

ै।

मारे बैरी

ैं, न ीं गाय लेकर अपने ससर पर ववपश्त्त क्यों लेती! उस नगोड़ी का पौरा श्जस

हदन से आया, घर त स-न स

ो गया।

भोला ने अब तक श्जस शस्त्र को छपा रखा था, अब उसे नकालने का अवसर आ गया। उसे ववकवास न ीं

ो गया बैलों के ससवा इन सबों के पास कोई अवलंब

ै । बैलों को बचाने के सलए ये लोग सब कुछ करने को तैयार

अच्छे नशानेबाज़ की तर मारी बेइज़्ज़ती को रोते

ो जायूँगे।

मन को सािकर बोला -- अगर तम ु चा ते

ो और तुम चैन से बैठो, तो य



ो कक

ोगा। तुम अपने दो सौ

ो। य ाूँ लाख रुपए की आबरू बबगड़ गयी। तुम् ारी कुशल इसी में

कक जैसे झु नया को घर में रखा था, वैसे

बैल माूँगेंगे, न गाय का दाम माूँगेंगे। उसने

ी घर से उसे नकाल दो, किर न मारी नाक कटवाई

ै , और भगवान ण साखी



ै , तो मैं भी उसे

ठोकरें खाते दे खना चा ता ू ूँ। व य ाूँ रानी बनी बैठी र े , और म मूँु में कासलख लगाये उसके नाम को रोते र ें , य न ीं दे ख सकता। व मेरी बेटी मैंने उसे गोद में णखलाया



ै,

ै , मैंने उसे कभी बेटों से कम

न ीं समझा; लेककन आज उसे भीख माूँगते और घूर पर दाने चुनते दे खकर मेरी छाती सीतल सलया

ो जायगी। जब बाप

ोकर मैंने अपना ह रदा इतना कठोर बना

ै , तब सोचो, मेरे हदल पर ककतनी बड़ी चोट लगी

ोगी। इस मूँु जली ने

सात पुस्त का नाम डुबा हदया। और तुम उसे घर में रखे ु ए पर मूँूग दलना न ीं तो और क्या ै !

ो, य

मेरी छाती

ि नया ने जैसे पत्थर की लकीर खींचते ु ए क ा -- तो म तो मेरी भी सन ु लो। जो बात तुम चा ते ो, व न ोगी, सौ जनम न ोगी। झु नया मारी जान के

साथ

ै । तम ु बैल

ी तो ले जाने को क ते

ो, ले जाओ; अगर इससे तम् ु ारी

कटी ु ई नाक जुड़ती ो, तो जोड़ लो; पुरखों की आबरू बचती ो, तो बचा लो। झु नया से बुराई ज़रूर ु ई। श्जस हदन उसने मेरे घर में पाूँव रखा, मैं झाड़ू लेकर मारने उठी थी; लेककन जब उसकी आूँखों से झर-झर आूँसू ब ने लगे, तो मुझे उस पर दया आ गयी। तुम अब बूढ़े की िन ु सवार

ै । किर व

ो गये म तो! पर आज भी तुम् ें सगाई

तो अभी बच्चा

भोला ने अपील भरी आूँखों से

ै।

ोरी को दे खा -- सुनते



ोरी इसकी बातें ! अब

मेरा दोस न ीं। मैं बबना बैल सलये न जाऊूँगा। ोरी ने दृढ़ता से क ा -- ले जाओ।

'किर रोना मत कक मेरे बैल खोल ले गये!' 'न ीं रोऊूँगा।' भोला बैलों की पगह या खोल

ी र ा था कक झु नया चक तयोंदार साड़ी प ने,

बच्चे को गोद में सलये, बा र नकल आयी और कंवपत स्वर में बोली -- काका, लो मैं इस घर से नकल जाती ू ूँ और जैसी तुम् ारी मनोकामना ै , उसी तर भीख माूँगकर अपना और बच्चे का पेट पालूँ ग ू ी, और जब भीख भी न समलेगी, तो क ीं डूब मरूूँगी।

भोला णखससयाकर बोला -- दरू मूँु

ो मेरे सामने से। भगवान ण न करे मुझे किर तेरा

दे खना पड़े। कुसलच्छनी, कुल-कलंककनी क ीं की। अब तेरे सलए डूब मरना

उधचत



ै।

झु नया ने उसकी ओर ताका भी न ीं। उसमें व जाना चा ता

ै , श्जसमें ह स ं ा न ीं, आत्मसमपदण

खोलकर उसे नगल लेती, तो व

क्रोि था, जो अपने को खा ै । िरती इस वक़्त मूँु

ककतना िन्य मानती! उसने आगे क़दम

उठाया। लेककन व

दो क़दम भी न गयी थी कक ि नया ने दौड़कर उसे पकड़ सलया और

ह स ं ा-भरे स्ने

से बोली -- तू क ाूँ जाती

ै ब ू , चल घर में । य

तेरा घर

ै,

मारे जीते भी और बैर

मारे मरने के पीछे भी। डूब मरे व , श्जसे अपनी संतान से

ो। इस भले आदमी को मूँु

िौंस जमाता

से ऐसी बात क ते लाज न ीं आती। मुझ पर

ै नीच! ले जा, बैलों का रकत पी ...।

झु नया रोती ु ई बोली -- अम्माूँ, जब अपना बाप ोके मझ ु े धिक्कार र ा ै , तो मुझे डूब ी मरने दो। मुझ अभाधगनी के कारन तो तम् ु ें दःु ख ी समला। जब से आयी, तुम् ारा घर समट्टी में समल गया। तुमने इतने हदन मुझे श्जस परे म से

रखा, माूँ भी न रखती। भगवान ण मुझे किर जनम दें ; तो तुम् ारी कोख से दें , य ी मेरी असभलाषा

ै।

ि नया उसको अपनी ओर खींचती ु ई बोली -- व तेरा बाप न ीं ै , तेरा बैरी ैं; त्यारा। माूँ ोती, तो अलबत्ते उसे कलक ोता। ला सगाई। मे ररया जूतों से न पीटे , तो क ना!

झु नया सास के पीछे -पीछे घर में चली गयी। उिर भोला ने जाकर दोनों बैलों को खूट ूँ ों से खोला और के बदले जूते पड़े चा ते

ाूँकता ु आ घर चला, जैसे ककसी नेवते में जाकर पूररयों ों -- अब करो खेती और बजाओ बंसी। मेरा अपमान करना

ैं सब, न जाने कब का बैर नकाल र े

ैं , न ीं, ऐसी लड़की को कौन भला

आदमी अपने घर में रखेगा। सब के सब बेसरम न

ैं। लौंडे का क ीं ब्या

ोता था इसी से। और इस राूँड़ झु नया की हढठाई दे खो कक आकर मेरे

सामने खड़ी गया

ो गये

ो गयी। दस ू री लड़की

ोती, तो मूँु

ै । सब के सब दष्ु ट और मूरख भी

गयी। य

न हदखाती। आूँख का पानी मर

ैं। समझते

ैं, झु नया अब

न ीं समझते जो अपने बाप के घर न र ी , व

र े गी। समय ख़राब

मारी



ककसी के घर न ीं

ै , न ीं बीच बाज़ार में इस चुड़ल ै ि नया के झोंटे पकड़कर

घसीटता। मुझे ककतनी गासलयाूँ दे ती थी।

किर उसने दोनों बैलों को दे खा, ककतने तैयार

ैं। अच्छी जोड़ी

ै । ज ाूँ चा ू ूँ , सौ ो जायूँगे। अभी व गाूँव के बा र

रुपए में बेच सकता ू ूँ। मेरे अस्सी रुपए खरे भी न नकला था कक पीछे से दातादीन, पटे कवरी, शोभा और दस-बीस आदमी

और दौड़े आते हदखायी हदये। भोला का ल ू सदद ो गया। अब फ़ौजदरी ु ई; बैल भी छन जायूँगे, मार भी पड़ेगी। व रुक गया कमर कसकर। मरना ी ै तो लड़कर मरे गा।

दातादीन ने समीप आकर क ा -- य बैल खोल लाये, व

तम ु ने क्या अनथद ककया भोला ऐं! उसके

कुछ बोला न ीं, इसी से सेर

ो गये। सब लोग अपने-अपने

काम में लगे थे, ककसी को ख़बर भी न ु ई। ोरी ने ज़रा-सा इशारा कर हदया ोता, तो तुम् ारा एक-एक बाल चुन जाता। भला चा ते ो, तो ले चलो बैल, ज़रा भी भलमंसी न ीं

ै तुममें ।

पटे कवरी बोले -- य

उसके सीिेपन का िल

ै । तुम् ारे रुपये उस पर आते

ैं,

तो जाकर हदवानी में दावा करो, डडग्री कराओ। बैल खोल लाने का तुम् ें क्या अश्ख़्तयार

ै ? अभी फ़ौजदारी में दावा कर दे तो बूँि-े बूँिे किरो।

भोला ने दबकर क ा -- तो लाला सा ब, म कुछ ज़बरदस्ती थोड़े लाये।

ी खोल

ोरी ने ख़ुद हदये।

पटे कवरी ने शोभा से क ा -- तुम बैलों को लौटा दो शोभा। ककसान अपने बैल ख़ुशी से दे गा, तो इन् ें

ल में जोतेगा।

भोला बैलों के सामने खड़ा क्या करना

ै।

ो गया।

म बैल सलये जाते

मारे रुपए हदलवा दो

में बैलों को लेकर

ैं , अपने रुपए के सलए दावा करो और न ीं

तो मारकर धगरा हदये जाओगे। रुपए हदये थे नगद तुमने? एक कुसलच्छनी गाय बेचारे के ससर मढ़ दी और अब उसके बैल खोले सलये जाते भोला बैलों के सामने से न पटवारी से दलील करके व

ो। '

टा। खड़ा र ा गम ु सम ु , दृढ़, मानो मारकर



टे गा।

कैसे पेश पाता?

दातादीन ने एक क़दम आगे बढ़कर अपनी झुकी कमर को सीिा करके ललकारा -- तम ु सब खड़े ताकते क्या

ो, मार के भगा दो इसको।

मारे गाूँव से बैल

खोल ले जाएगा।

बंशी बसलष्ठ युवक था। उसने भोला को ज़ोर से िक्का हदया। भोला सूँभल न सका, धगर पड़ा। उठना चा ता था कक बंशी ने किर एक घस ूूँ ा हदया। ोरी दौड़ता ु आ आ र ा था।

भोला ने उसकी ओर दस क़दम बढ़कर पछ ू ा -- ईमान से क ना

ोरी म तो , मैंने

बैल ज़बरदस्ती खोल सलये?

दातादीन ने इसका भावाथद ककया -- य मझ ु े दे हदये।

मी को उल्लू बनाते

क ते

ैं कक

ैं।

ोरी ने अपने ख़ुशी से बैल

ोरी ने सकुचाते ु ए क ा -- य मुझसे क ने लगे या तो झु नया को घर से नकाल दो, या मेरे रुपए दो, न ीं तो मैं बैल खोल ले जाऊूँगा। मैंने क ा, मैं ब ु को तो न नकालूँ ग ू ा, न मेरे पास रुपए ैं; अगर तम् ु ारा िरम क े , तो बैल खोल लो। बस, मैंने इनके िरम पर छोड़ हदया और इन् ोंने बैल खोल सलये। पटे कवरी ने मूँु

लटकाकर क ा -- जब तुमने िरम पर छोड़ हदया, तब कोई की

ज़बरदस्ती। उसके िरम ने क ा, सलये जाता दातादीन ने समथदन ककया -सब के सब

ै । जाओ भैया, बैल तम् ु ारे

ाूँ, जब िरम की बात आ गयी, तो कोई क्या क े ।

ोरी को तरस्कार की आूँखों से दे खते परास्त

ववजयी भोला शान से गदद न उठाये बैलों को ले चला। ***

ैं।

ोकर लौट पड़े और

15 मालती बा र से ततली न ीं

ै , भीतर से मिुमक्खी। उसके जीवन में

ै , केवल गुड़ खाकर कौन जी सकता

जीवन न

ोगा। व

ूँसती

ै ! और श्जये भी तो व

ै कक व

च कने को

या उसने नजत्व को अपनी आूँखों में इतना बढ़ा सलया ी सलए करे । न ीं, व

उसके कतदव्य का भार कुछ

क्योंकक च कती लका

ूँसी

ैं। उसका

ी जीवन समझती

ै,

ै कक जो कुछ करे ,

ै और ववनोद करती

ो जाता



कोई सुखी

ै , इससलए कक उसे इसके भी दाम समलते

च कना और चमकना, इससलए न ीं अपने

ूँसी

ै कक इससे

ै।

उसके बाप उन ववधचत्र जीवों में थे, जो केवल ज़बान की मदद से लाखों के वारे न्यारे करते थे। बड़े-बड़े ज़मींदारों और रईसों की जायदादें बबकवाना , उन् ें क़रज़ हदलाना या उनके मुआमलों को अफ़सरों से समलकर तय करा दे ना, य ी उनका व्यवसाय था। दस ू रे शब्दों में, दलाल थे। इस वगद के लोग बड़े प्र तभावान ैं। श्जस काम से कुछ समलने की आशा

ो, व

ोते

उठा लें गे, ककसी न ककसी तर

उसे नभा भी दें गे। ककसी राजा की शादी ककसी राजकुमारी से ठीक करवा दी और दस-बीस

ज़ार उसी में मार सलये। य ी दलाल जब छोटे -छोटे सौदे करते

तो टाउट क े जाते

ैं, और

म उनसे घण ृ ा करते

टाउट राजाओं के साथ सशकार खेलता

ैं,

ैं। बड़े-बड़े काम करके व ी

ै और गवनदरों की मेज़ पर चाय पीता

समस्टर कौल उन् ीं भाग्यवानों में से थे। उनके तीन लड़ककयाूँ

ै।

ी लड़ककयाूँ थीं।

उनका ववचार था कक तीनों को इंगलैंड भेजकर सशक्षा के सशखर पर प ु ूँचा दें । अन्य ब ु त से बड़े आदसमयों की तर उनका भी ख़याल था कक इंगलैंड में सशक्षा पाकर आदमी कुछ और

कर दे ने की कोई शश्क्त

ो जाता

ै । शायद व ाूँ के जल-वायु में बुवि को तेज़

ै ; मगर उनकी य

कामना एक- त ाई से ज़्यादा परू ी न

ु ई। मालती इंगलैंड में ी थी कक उन पर फ़ासलज धगरा और बेकाम कर गया। अब बड़ी मश्ु ककल से दो आदसमयों के स ारे उठते-बैठते थे। ज़बान तो बबलकुल बंद



ो गयी। और जब ज़बान

जो कुछ थी, ज़बान

ी बंद

ो गयी, तो आमदनी भी बंद

ो गयी।

ी की कमाई थी। कुछ बचा रखने की उनकी आदत न थी।

अ नयसमत आय थी और अ नयसमत ख़चद था; इससलए इिर कई साल से ब ु त तंग ाल ो र े थे।

सारा दा यत्व मालती पर आ पड़ा। मालती के चार-पाूँच सौ रुपए में व ववलास और ठाट-बाट तो क्या नभता! सशक्षा

भोग-

ाूँ, इतना था कक दोनों लड़ककयों की

ोती जाती थी और भलेमानसों की तर

श्ज़ंदगी बसर

ोती थी। मालती

सुब

से प र रात तक दौड़ती र ती थी। चा ती थी कक वपता साश्त्वकता के

तर

गला न छोड़ता था। क ीं से कुछ न समलता, तो एक म ाजन से अपने

साथ र ें , लेककन वपताजी को शराब-कवाब का ऐसा चस्का पड़ा था कक ककसी बूँगले पर प्रोनोट सलखकर

ज़ार दो

ज़ार ले लेते थे। म ाजन उनका पुराना

समत्र था, श्जसने उनकी बदौलत लेन-दे न में लाखों कमाये थे, और मुरौवत के मारे कुछ बोलता न था। उसके पचीस

ज़ार चढ़ चुके थे, और जब चा ता, क़ुक़ी करा

सकता था; मगर समत्रता की लाज नभाता जाता था। आत्मसेववयों में जो नलदज्जता आ जाती

ै, व

कौल में भी थी। तक़ाज़े ु आ करें , उन् ें परवा न थी। मालती उनके अपव्यय पर झूँुझलाती र ती थी; लेककन उसकी माता जो साक्षात ण दे वी थीं और इस युग में भी प त की सेवा को नारी-जीवन का मुख्य समझती थीं, उसे समझाती र ती थी; इससलए ग ृ -युि न संध्या

े तु

ोने पाता था।

ो गयी थी।

वा में अभी तक गमी थी। आकाश में िुंि छाया ु आ था। मालती और उसकी दोनों ब नें बूँगले के सामने घास पर बैठी ु ई थीं। पानी न

पाने के कारण व ाूँ की दब ू जल गयी थी और भीतर की समट्टी नकल आयी थी। मालती ने पूछा -- माली क्या बबलकुल पानी न ीं दे ता? मूँझली ब न सरोज ने क ा -- पड़ा-पड़ा सोया करता ब ाने नकालने लगता

ै।

ै सूअर। जब क ो, तो बीस

सरोज बी. ए. में पढ़ती थी, दब ु ली-सी, लम्बी, पीली, रूखी, कटु। उसे ककसी की कोई बात पसंद न आती थी। कक व

मेशा ऐब नकालती र ती थी। डाक्टरों की सला

थी

कोई पररश्रम न करे , और प ाड़ पर र े ; लेककन घर की श्स्थ त ऐसी न

थी कक उसे प ाड़ पर भेजा जा सकता। सबसे छोटी वरदा को सरोज से इससलये द्वेष था कक सारा घर सरोज को बीमारी में इतना स्वाद

ै, व

उसे

ाथों- ाथ सलये र ता था; व ी क्यों न ीं

चा ती थी श्जस

ो जाती। गोरी-सी, गवदशील,

स्वस्थ, चंचल आूँखोंवाली बासलका थी, श्जसके मुख पर प्र तभा की झलक थी।

सरोज के ससवा उसे सारे संसार से स ानभ ु ू त थी। सरोज के कथन का ववरोि

करना उसका स्वभाव था। बोली -- हदन-भर दादाजी बाज़ार भेजते र ते फ़ुरसत

ी क ाूँ पाता

ैं ,

ै । मरने को छुट्टी तो समलती न ीं, पड़ा-पड़ा सोयेगा!

सरोज ने डाूँटा -- दादाजी उसे कब बाज़ार भेजते

ैं री, झूठी क ीं की!

'रोज़ भेजते ैं, रोज़। अभी तो आज ी भेजा था। क ो तो बुलाकर पुछवा दूँ ?ू ' 'पछ ु वायेगी, बल ु ाऊूँ?' मालती डरी। दोनों गुथ जायूँगी, तो बैठना मुश्ककल कर दें गी। बात बदलकर बोली -- अच्छा ख़ैर, ोगा। आज डाक्टर मे ता का तम् ु ारे य ाूँ भाषण ु आ था, सरोज?

सरोज ने नाक ससकोड़कर क ा --

ाूँ, ु आ तो था; लेककन ककसी ने पसंद न ीं ककया। आप फ़रमाने लगे -- संसार में श्स्त्रयों का क्षेत्र परु ु षों से बबलकुल अलग ै । श्स्त्रयों का पुरुषों के क्षेत्र में आना इस युग का कलंक

तासलयाूँ और सीहटयाूँ बजानी शुरू कीं। बेचारे लश्ज्जत अजीब-से आदमी मालूम

ोते

ैं। आपने य ाूँ तक क

ै । सब लड़ककयों ने

ोकर बैठ गये। कुछ

डाला कक प्रेम केवल

कववयों की कल्पना

ै । वास्तववक जीवन में इसका क ीं नशान न ीं। लेडी ु क्कू ने उनका ख़ब ू मज़ाक़ उड़ाया। मालती ने कटाक्ष ककया -- लेडी ु क़्क़ू ने? इस ववषय में व भी कुछ बोलने का सा स रखती ैं! तुम् ें डाक्टर सा ब का भाषण आहद से अंत तक सुनना चाह ए था। उन् ोंने हदल में लड़ककयों को क्या समझा

ोगा?

'पूरा भाषण सुनने का सब्र ककसे था? व तो जैसे घाव पर नमक छड़कते थे। ' 'किर उन् ें बल ु ाया ी क्यों? आणख़र उन् ें औरतों से कोई वैर तो ै न ीं। श्जस बात को म सत्य समझते ैं , उसी का तो प्रचार करते ैं। औरतों को ख़ुश करने के सलए व

उनकी-सी क नेवालों में न ीं

कक श्स्त्रयाूँ श्जस रास्ते पर चलना चा ती चल कर

में अपनी िारणा बदलनी पड़े।'

ैं और किर अभी य

ैं व ी सत्य

कौन जानता

ै । ब ु त संभव

ै , आगे



उसने फ़्ांस, जमदनी और इटली की मह लाओं के जीवन आदशद बतलाये और क ा -- शीघ्र

ी वीमें स लीग की ओर से मे ता का भाषण

ोनेवाला

ै।

सरोज को कुतू ल ु आ।

'मगर आप भी तो क ती ैं कक श्स्त्रयों और पुरुषों के अधिकार समान ोने चाह ए।'

'अब भी क ती ू ूँ ; लेककन दस ू रे पक्षवाले क्या क ते ैं, य भी तो सुनना चाह ए। संभव ै ; मीं ग़लती पर ों।' य

लीग इस नगर की नई संस्था

ै और मालती के उद्योग से खल ु ी

की सभी सशक्षक्षत मह लाएूँ उसमें शरीक में बड़ी

ै । नगर

ैं। मे ता के प ले भाषण ने मह लाओं

लचल मचा दी थी और लीग ने नकचय ककया था , कक उनका ख़ूब

दं दासशकन जवाब हदया जाय। मालती

ी पर य

भार डाल गया था। मालती कई

हदन तक अपने पक्ष के समथदन में युश्क्तयाूँ और प्रमाण खोजती र ी। और भी कई दे ववयाूँ अपने भाषण सलख र ी थीं। उस हदन जब मे ता शाम को लीग के

ाल में प ु ूँच,े तो जान पड़ता था ाल िट जायगा। उन् ें गवद ु आ। उनका भाषण सुनने के सलए इतना उत्सा ! और व उत्सा केवल मख ु पर और आूँखों में न था। आज सभी दे ववयाूँ सोने और

रे शम से लदी ु ई थीं, मानो ककसी बारात में आयी ों। मे ता को परास्त करने के सलए पूरी शश्क्त से काम सलया था और य कौन क सकता ै कक जगमगा ट शश्क्त का अंग न ीं

ै।

मालती ने तो आज के सलए नये फ़ैशन की साड़ी नकाली थी , नये काट के जम्पर बनवाये थे और रं ग-रोगन और िूलों से ख़ूब सजी ु ई थी, मानो उसका वववा ो र ा ो। वीमें स लीग में इतना समारो और कभी न ु आ था। डाक्टर मे ता अकेले थे, किर भी दे ववयों के हदल काूँप र े थे। सत्य की एक धचनगारी असत्य के एक प ाड़ को भस्म कर सकती

ै । सबसे पीछे की सफ़ में

समरज़ा और खन्ना और संपादकजी भी ववराज र े थे। राय-सा ब भाषण शुरू ोने के बाद आये और पीछे खड़े

ो गये।

समरज़ा ने क ा -- आ जाइए आप भी, खड़े कब तक रह एगा। राय सा ब बोले -- न ीं भाई, य ाूँ मेरा दम घट ु ने लगेगा।

'तो मैं खड़ा ोता ू ूँ। आप बैहठए।' राय सा ब ने उनके कंिे दबाये -- तकल्लफ़ ु न ीं, बैठे रह ए। मैं थक जाऊूँगा, तो आपको उठा दूँ ग ू ा और बैठ जाऊूँगा, अच्छा समस मालती सभानेत्री ु ईं। खन्ना सा ब कुछ इनाम हदलवाइए। खन्ना ने रोनी सरू त बनाकर क ा -- अब समस्टर मे ता पर

ी नगा

ै । मैं तो

धगर गया।

समस्टर मे ता का भाषण शुरू ु आ --'दे ववयो, जब मैं इस तर आपको संबोधित करता ू ूँ , तो आपको कोई बात खटकती न ीं। आप इस सम्मान को अपना अधिकार समझती

व्यव ार करते सुना

ैं ; लेककन आपने ककसी मह ला को पुरुषों के प्र त 'दे वता' का ै ? उसे आप दे वता क ें , तो व

ैं। आपके पास दान दे ने के सलए दया

के सलए क्या

ै? व

संग्राम करता

ै , कल

दे वता न ीं, लेवता करता

ै , श्रिा ै। व

समझेगा, आप उसे बना र ी

ै , त्याग

ै । पुरुष के पास दान

अधिकार के सलए ह स ं ा करता

ै ..'

तासलयाूँ बजीं। राय सा ब ने क ा -- औरतों को ख़ुश करने का इसने ककतना अच्छा ढं ग नकाला।

'बबजली' संपादक को बरु ा लगा -- कोई नई बात न ीं। मैं ककतनी ी बार य भाव व्यक्त कर चक ु ा ू ूँ।

मे ता आगे बढ़े -- इससलए जब मैं दे खता

ू ूँ, मारी उन्नत ववचारोंवाली दे ववयाूँ उस दया और श्रिा और त्याग के जीवन से असंतुष्ट ोकर संग्राम और कल और ह स ं ा के जीवन की ओर दौड़ र ी

ैं और समझ र ी

स्वगद ै , तो मैं उन् ें बिाई न ीं दे सकता।

ैं कक य ी सख ु का

ै,

समसेज़ खन्ना ने मालती की ओर सगवद नेत्रों से दे खा। मालती ने गदद न झुका ली।

खुशेद बोले -- अब कह ए। मे ता हदलेर आदमी मूँु

ै । सच्ची बात क ता

ै और

पर।

'बबजली' सम्पादक ने नाक ससकोड़ी -- अब व हदन लद गये, जब दे ववयाूँ इन चकमों में आ जाती थीं। उनके अधिकार दे वी

ैं, लक्षमी

ैं, माता

ड़पते जाओ और क ते जाओ , आप तो

ैं।

मे ता आगे बढ़े -- स्त्री को परु ु ष के रूप में, परु ु ष के कमद में, रत दे खकर मझ ु े उसी तर

वेदना

ोती

दे खकर। मुझे ववकवास

ै , जैसे परु ु ष को स्त्री के रूप में, स्त्री के कमद करते

ै , ऐसे पुरुषों को आप अपने ववकवास और प्रेम का पात्र

न ीं समझती और मैं आपको ववकवास हदलाता ू ूँ, ऐसी स्त्री भी पुरुष के प्रेम और श्रिा का पात्र न ीं बन सकती। खन्ना के चे रे पर हदल की ख़ुशी चमक उठी। राय सा ब ने चुटकी ली -- आप ब ु त ख़ुश

ैं खन्नाजी!

खन्ना बोले -- मालती समलें , तो पूछूूँ, अब कह ए। मे ता आगे बढ़े -- मैं प्राणणयों के ववकास में स्त्री के पद को परु ु षों के पद से

श्रेष्ठ समझता ू ूँ , उसी तर जैसे प्रेम और त्याग और श्रिा को ह स ं ा और संग्राम और कल से श्रेष्ठ समझता ू ूँ। अगर मारी दे ववयाूँ सश्ृ ष्ट और पालन के दे वमंहदर से ह स ं ा और कल

के दानव-क्षेत्र में आना चा ती

ैं, तो उससे समाज का

कल्याण न

ोगा। मैं इस ववषय में दृढ़ ू ूँ। पुरुष ने अपने असभमान में अपनी दानवी की तद को अधिक म त्व हदया। व अपने भाई का स्वत्व छीनकर और उसका रक्त ब ाकर समझने लगा, उसने ब ु त बड़ी ववजय पायी। श्जन सशशुओं को दे ववयों ने अपने रक्त से ससरजा और पाला उन् ें बम और मशीनगन और स स्रों टैं कों का सशकार बनाकर व मारी

अपने को ववजेता समझता

ै । और जब

ी माताएूँ उसके माथे पर केसर का तलक लगाकर और उसे अपनी

असीसों का कवच प नाकर ह स ं ा-क्षेत्र में भेजती ववनाश को

ैं, तो आकचयद

ै कक परु ु ष ने

ी संसार के कल्याण की वस्तु समझा और उसकी ह स ं ा-प्रवश्ृ त्त

हदन-हदन बढ़ती गयी और आज

म दे ख र े

ैं कक य

दानवता प्रचंड

ोकर

समस्त संसार को रौंदती, प्राणणयों को कुचलती, री-भरी खे तयों को जलाती और गुलज़ार बबस्तयों को वीरान करती चली जाती

ै । दे ववयो, मैं आप से पूछता ू ूँ, क्या आप इस दानवलीला में स योग दे कर , इस संग्राम-क्षेत्र में उतरकर संसार

का कल्याण करें गी? मैं आपसे ववनती करता ू ूँ , नाश करनेवालों को अपना काम करने दीश्जए, आप अपने िमद का पालन ककये जाइए। खन्ना बोले -- मालती की तो गदद न न ीं उठती। राय सा ब ने इन ववचारों का समथदन ककया -- मे ता क ते तो यथाथद



ैं।

'बबजली' संपादक बबगड़े -- मगर कोई नई बात तो न ीं क ी। नारी-आंदोलन के ववरोिी इन् ीं उट-पटाूँग बातों की शरण सलया करते

ैं। मैं इसे मानता

ी न ीं

कक त्याग और प्रेम से संसार ने उन्न त की। संसार ने उन्न त की पौरुष से , पराक्रम से, बुवि-बल से, तेज से। खुशेद ने क ा -- अच्छा, सुनने दीश्जएगा या अपनी

ी गाये जाइएगा?

मे ता का भाषण जारी था -- दे ववयो, मैं उन लोगों में न ीं ू ूँ, जो क ते ैं , स्त्री और परु ु ष में समान शश्क्तयाूँ ैं, समान प्रवश्ृ त्तयाूँ ैं, और उनमें कोई ववसभन्नता न ीं

ै ; इससे भयंकर असत्य की मैं कल्पना न ीं कर सकता। य

ै , जो युग-युगांतरों से संधचत अनुभव को उसी तर



ढूँ क लेना चा ता

असत्य ै , जैसे

बादल का एक टुकड़ा सूयद को ढूँ क लेता

ै । मैं आपको सचेत ककये दे ता ू ूँ कक आप इस जाल में न िूँसें। स्त्री पुरुष से उतनी ी श्रेष्ठ ै , श्जतना प्रकाश अूँिरे े से। मनष्ु य के सलए क्षमा और त्याग और अह स ं ा जीवन के उच्चतम आदशद नारी इस आदशद को प्राप्त कर चुकी

ै । पुरुष िमद और अध्यात्म और ऋवषयों

ैं।

का आश्रय लेकर उस लक्ष्य पर प ु ूँचने के सलए सहदयों से ज़ोर मार र ा ै ; पर सिल न ीं ो सका। मैं क ता ू ूँ, उसका सारा अध्यात्म और योग एक तरफ़ और नाररयों का त्याग एक तरफ़। तासलयाूँ बजीं।

ाल ह ल उठा।

राय सा ब ने गद्गद

ोकर क ा -- मे ता व ी क ते

ओंकारनाथ ने टीका की -- लेककन बातें सभी परु ानी

ैं , जो इनके हदल में

ै।

ैं, सड़ी ु ईं।

'पुरानी बात भी आत्मबल के साथ क ी जाती ै , तो नई ो जाती ै ।' 'जो एक ज़ार रुपए र म ीने िटकारकर ववलास में उड़ाता ो , उसमें आत्मबल जैसी वस्तु न ीं र

प्रसन्न करने के ढं ग

सकती। य ैं। '

केवल पुराने ववचार की नाररयों और पुरुषों को

खन्ना ने मालती की ओर दे खा -- य चाह ए।

क्यों िूली जा र ी

ैं? इन् ें तो शरमाना

खुशेद ने खन्ना को उकसाया -- अब तुम भी एक तक़रीर कर डालो खन्ना, न ीं मे ता तम् ु ें उखाड़ िेंकेगा। आिा मैदान तो उसने अभी मार सलया

ै।

खन्ना णखससयाकर बोले -- मेरी न कह ए, मैंने ऐसी ककतनी धचडड़याूँ िूँसाकर छोड़ दी

ैं।

राय सा ब ने खुशेद की तरफ़ आूँख मारकर क ा -- आजकल आप मह लासमाज की तरफ़ आते-जाते

ैं। सच क ना, ककतना चंदा हदया?

खन्ना पर झेंप छा गयी -- मैं ऐसे समाजों को चंदे न ीं हदया करता, जो कला का ढोंग रचकर दरु ाचार िैलाते

ैं।

मे ता का भाषण जारी था --'पुरुष क ता

ै , श्जतने दाशद नक और वैज्ञा नक

आववष्कारक ु ए ैं, व सब परु ु ष थे। श्जतने बड़े-बड़े म ात्मा ु ए ैं, व सब पुरुष थे। सभी योिा, सभी राजनी त के आचायद, बड़े-बड़े नाववक, बड़े-बड़े सब कुछ पुरुष थे; लेककन इन बड़ों-बड़ों के समू ों ने समलकर ककया क्या? म ात्माओं और

िमद-प्रवतदकों ने संसार में रक्त की नहदयाूँ ब ाने और वैमनस्य की आग भड़काने के ससवा और क्या ककया, योिाओं ने भाइयों की गरदनें काटने के ससवा और क्या यादगार छोड़ी, राजनी तज्ञों की नशानी अब केवल लप्ु त साम्राज्यों के खंड र र

गये

ैं , और आववष्कारकों ने मनुष्य को मशीन का ग़ल ु ाम बना दे ने के ससवा

और क्या समस्या ै ? स योग क ाूँ

ै?

ल कर दी? परु ु षों की रची ु ई इस संस्कृ त में शां त क ाूँ

ओंकारनाथ उठकर जाने को ु ए -- ववलाससयों के मूँु मेरी दे भस्म ो जाती ै । खुशेद ने उनका अजी य

से बड़ी-बड़ी बातें सुनकर

ाथ पकड़कर बैठाया -- आप भी संपादकजी नरे पोंगा

द ु नया

ै , श्जसके जी में जो आता

और तासलयाूँ बजाते

ै , बकता

ी र े।

ै । कुछ लोग सुनते

ैं

ैं। चसलए कक़स्सा ख़तम। ऐसे-ऐसे बेशम ु ार मे ते आयेंगे

और चले जायेंगे। और द ु नया अपनी रफ़्तार से चलती र े गी। य ाूँ बबगड़ने की कौन-सी बात

ै?

'असत्य सन ु कर मझ ु से स ा न ीं जाता!' राय सा ब ने उन् ें और चढ़ाया -- कुलटा के मूँु

से स तयों की-सी बात सुनकर

ककसका जी न जलेगा!

ओंकारनाथ किर बैठ गये। मे ता का भाषण जारी था --'मैं आपसे पूछता ू ूँ, क्या बाज़ को धचडड़यों का सशकार करते दे खकर ं स को य शोभा दे गा कक व मानसरोवर की आनंदमयी शां त को छोड़कर धचडड़यों का सशकार करने लगे ? और अगर व

सशकारी बन

जाय, तो आप उसे बिाई दें गी? ं स के पास उतनी तेज़ चोंच न ीं चंगुल न ीं

ैं, उतनी तेज़ आूँखें न ीं

किर भी व

बाज़ बन सकेगा या न ीं , इसमें संदे

रक्त की प्यास न ीं व

खुशेद ने टीका की -- य

ं स जो मोती चुगता

ै ; मगर बाज़ बने या न बने,

ै ।'

तो शायरों की-सी दलीलें

ैं। मादा बाज़ भी उसी तर

ै , जैसे, नर बाज़।

ओंकारनाथ प्रसन्न पर!

ैं और उतनी तेज़

ै । उन अस्त्रों का संचय करने में उसे सहदयाूँ लग जायूँगी,

ं स न र े गा -- व

सशकार करती

ैं , उतने तेज़ पंख न ीं

ै , उतने तेज़

ो गये -- उस पर आप कफ़लासफ़र बनते

ैं, इसी तकद के बल

खन्ना ने हदल का गुबार नकाला -- कफ़लासफ़र की दम ु

ैं। कफ़लासफ़र व

ै,

जो ...

ओंकारनाथ ने बात पूरी की -- जो सत्य से जौ-भर भी न टले। खन्ना को य

समस्या पू तद न ीं रुची -- मैं सत्य-वत्य न ीं जानता। मैं तो

कफ़लासफ़र उसे क ता ू ूँ, जो कफ़लासफ़र

ो सच्चा!

खुशेद ने दाद दी -- कफ़लासफ़र की आपने ककतनी सच्ची तारीफ़ की

ै । वा

मे ता आगे चले -- मैं न ीं क ता, दे ववयों को ववद्या की ज़रूरत न ीं

ै।

सुभानल्ला। कफ़लासफ़र व

ै , जो कफ़लासफ़र

ो। क्यों न

ो।

पुरुषों से अधिक। मैं न ीं क ता, दे ववयों को शश्क्त की ज़रूरत न ीं पुरुषों से अधिक; लेककन व को ह स ं ाक्षेत्र बना डाला तो संसार मरुस्थल

ववद्या और व

शश्क्त न ीं, श्जससे पुरुष ने संसार

ो जायगा। आपकी ववद्या और आपका अधिकार ह स ं ा और ै । क्या आप समझती

ैं , वोटों से मानव-

ोगा, या दफ़्तरों में और अदालतों में ज़बान और क़लम चलाने

से? इन नक़ली, अप्राकृ तक, ववनाशकारी अधिकारों के सलए आप व छोड़ दे ना चा ती

ै और

ै । अगर व ी ववद् या और व ी शश्क्त आप भी ले लें गी,

ववध्वंस में न ीं, सश्ृ ष्ट और पालन में जा त का उद्िार

ै।

ै और

ैं , जो आपको प्रकृ त ने हदये

अधिकार

ैं?

सरोज अब तक बड़ी ब न के अदब से ज़ब्त ककये बैठी थी। अब न र ा गया। पुकार उठी --

में वोट चाह ए, पुरुषों के बराबर।

और कई युव तयों ने ओंकारनाथ ने खड़े नीची

ाूँक लगायी -- वोट! वोट! ोकर ऊूँचे स्वर से क ा -- नारीजा त के ववरोधियों की पगड़ी

ो।

मालती ने मेज़ पर

ाथ पटककर क ा -- शांत र ो, जो लोग पक्ष या ववपक्ष में

कुछ क ना चा ें गे, उन् ें पूरा अवसर हदया जायगा।

मे ता बोले -- वोट नये यग ु का मायाजाल उसके चक्कर में पड़कर आप न इिर की आपका क्षेत्र संकुधचत समलता। व ीं ोते

ैं; अगर व

ोती

ै व ीं

क्षेत्र पररसमत

ज ाूँ संगहठत अप रण

ै , िोखा

ै;

ोंगी, न उिर की। कौन क ता

ैं, पीछे और कुछ।

मारा पालन

ोता

मारा जीवन

ै कक

मारा घर

ै ? क्या व

संघषद,

ै ? श्जस कारख़ाने में मनुष्य और उसका भाग्य बनता

ज ाूँ उसका रक्त नकाला जाता

ै?

समरज़ा ने टोका -- पुरुषों के ज़ुल्म ने

ै।

ै , व ीं जीवन के सारे व्यापार

ै , तो अपररसमत कौन-सा क्षेत्र

उसे छोड़कर आप उन कारखानों में जाना चा ती

की

ै , कलंक

ै और उसमें आपको असभव्यश्क्त का अवकाश न ीं

म सभी प ले मनुष्य

मारी सश्ृ ष्ट

ै , मरीधचका

ैं , ज ाूँ मनुष्य पीसा जाता

ी तो उनमें बगावत की य

ै, ै,

श्स्पररट पैदा

ै।

मे ता बोले -- बेशक, परु ु षों ने अन्याय ककया

ै ; लेककन उसका य

ै । अन्याय को समटाइए; लेककन अपने को समटाकर न ीं।

मालती बोली -- नाररयाूँ इससलए अधिकार चा ती और परु ु षों को उनका दरु ु पयोग करने से रोकें।

जवाब न ीं

ैं कक उनका सदप ु योग करें

मे ता ने उत्तर हदया -- संसार में सबसे बड़े अधिकार सेवा और त्याग से समलते ैं और व मझ ु े खेद खो हदया

आपको समले ु ए ैं। उन अधिकारों के सामने वोट कोई चीज़ न ीं। ै , मारी ब नें पश्कचम का आदशद ले र ी ैं , ज ाूँ नारी ने अपना पद ै और स्वासमनी से धगरकर ववलास की वस्तु बन गयी

स्त्री स्वच्छं द सके।

ोना चा ती

ै ; इसीसलए कक व

अधिक से अधिक ववलास कर

मारी माताओं का आदशद कभी ववलास न ीं र ा। उन् ोंने केवल सेवा के

अधिकार से सदै व ग ृ स्थी का संचालन ककया व

ै । पश्कचम की

ै । पश्कचम में जो चीज़ें अच्छी

उनसे लीश्जए। संस्कृ त में सदै व आदान-प्रदान

नक़ल तो मानससक दब द ता का ु ल

ी लक्षण

ोता आया

ै ; लेककन अंिी

ै ! पश्कचम की स्त्री आज ग ृ -

स्वासमनी न ीं र ना चा ती। भोग की ववदग्ि लालसा ने उसे उच्छृखल बना हदया

ै। व

अपनी लज्जा और गररमा को जो उसकी सबसे बड़ी ववभू त थी,

चंचलता और आमोद-प्रमोद पर

ोम कर र ी

ै । जब मैं व ाूँ की सुसशक्षक्षत

बासलकाओं को अपने रूप का, या भरी ु ई गोल बाूँ ों या अपनी नग्नता का

ैं ,

प्रदशदन करते दे खता ू ूँ , तो मझ ु े उन पर दया आती ै । उनकी लालसाओं ने उन् ें इतना पराभूत कर हदया ै कक वे अपनी लज्जा की भी रक्षा न ीं कर सकतीं। नारी की इससे अधिक और क्या अिोग त राय सा ब ने तासलयाूँ बजायीं। छूट र ी

ों।

ो सकती

ै?

ाल तासलयों से गूँज ू उठा, जैसे पटाखों की हटट्टयाूँ

समरज़ा सा ब ने संपादक जी से क ा -- इसका जवाब तो आपके पास भी न ोगा? संपादक जी ने ववरक्त मन से क ा -- सारे व्याख्यान में इन् ोंने य ी एक बात सत्य क ी

ै।

'तब तो आप भी मे ता के मुरीद ु ए।' 'जी न ीं, अपने लोग ककसी के मुरीद न ीं ोते। मैं इसका जवाब ढूूँढ़ नकालूँ ग ू ा, 'बबजली' में दे णखएगा।' 'इसके माने य लड़ना चा ते

ै कक आप

क़ की तलाश न ीं करते, ससफ़द अपने पक्ष के सलए

ैं।'

राय सा ब ने आड़े

ाथों सलया -- इसी पर आपको अपने सत्य-प्रेम का असभमान

ै। संपादकजी अववचल र े -- वकील का काम अपने मुअश्क्कल का ह त दे खना सत्य या असत्य का नराकरण न ीं।

'तो यों कह ए कक आप औरतों के वकील ैं।' 'मैं उन सभी लोगों का वकील ू ूँ, जो नबदल ैं, नस्स ाय ैं, पीडड़त ैं।' 'बड़े बे या ो यार।'

ै,

मे ताजी क

र े थे -- और य

परु ु षों का षडयंत्र

ै । दे ववयों को ऊूँचे सशखर से

खींचकर अपने बराबर बनाने के सलए, उन पुरुषों का, जो कायर वैवाह क जीवन का दा यत्व सूँभालने की क्षमता न ीं की तरं गों में साूँड़ों की भाूँ त दस ू रों की

ै , जो स्वच्छं द काम-क्रीड़ा

री-भरी खेती में मूँु

कुश्त्सत लालसाओं को तप्ृ त करना चा ते

ैं , श्जनमें

डालकर अपनी

ैं। पश्कचम में इनका षडयंत्र सिल



गया और दे ववयाूँ ततसलयाूँ बन गयीं। मझ ु े य

क ते ु ए शमद आती ै कक इस त्याग और तपस्या की भूसम भारत में भी कुछ व ी वा चलने लगी ै । ववशेषकर

मारी सशक्षक्षत ब नों पर व

जाद ू बड़ी तेज़ी से चढ़ र ा

गहृ णी का आदशद त्यागकर ततसलयों का रं ग पकड़ र ी सरोज उत्तेश्जत

ोकर बोली --

अपने बारे में स्वतंत्र वववा

म पुरुषों से सला

ैं।

न ीं माूँगतीं। अगर व

ैं, तो श्स्त्रयाूँ भी अपने ववषय में स्वतंत्र

को पेशा न ीं बनाना चा तीं। व

ै। व

ैं। युव तयाूँ अब

केवल प्रेम के आिार पर वववा

करें गी।

ज़ोर से तासलयाूँ बजीं, ववशेषकर अगली पंश्क्तयों में ज ाूँ मह लाएूँ थीं। मे ता ने जवाब हदया -- श्जसे तुम प्रेम क ती का ववकृत रूप, उसी तर व

ै , उद्दीप्त लालसा

ै । सेवा

सा चयद में जोड़े रख सकता ोता। ज ाूँ सेवा का अभाव

ी व

ै।

ै , तो मुक्त ववलास में बबलकुल न ीं

सच्चा आनंद, सच्ची शां त केवल सेवा-व्रत में सीमें ट

ै । व ी अधिकार का स्रोत

ै।

ै, व ी

ै , जो दं प त को जीवनपयांत स्ने

और

ै , श्जसपर बड़े-बड़े आघातों का भी कोई असर न ीं ै , व ीं वववा -ववच्छे द

ै , पररत्याग

और आपके ऊपर, पुरुष-जीवन की नौका का कणिादर ज़्यादा

िोखा

जैसे संन्यास केवल भीख माूँगने का संस्कृत रूप

प्रेम अगर वैवाह क जीवन में कम

शश्क्त का उद्गम

ो, व

ै , अववकवास

ै।

ोने के कारण श्ज़म्मेदारी

ै । आप चा ें तो नौका को आूँिी और तूफ़ानों में पार लगा सकती

ैं।

और आपने असाविानी की तो नौका डूब जायगी और उसके साथ आप भी डूब जायूँगी।

भाषण समाप्त

ो गया। ववषय वववाद-ग्रस्त था और कई मह लाओं ने जवाब

दे ने की अनुम त माूँगी; मगर दे र ब ु त ो गयी थी। इससलए मालती ने मे ता को िन्यवाद दे कर सभा भंग कर दी। ाूँ, य सूचना दे दी गयी कक अगले रवववार को इसी ववषय पर कई दे ववयाूँ अपने ववचार प्रकट करें गी।

राय सा ब ने मे ता को बिाई दी -- आपने मन की बातें क ीं समस्टर मे ता। मैं आपके एक-एक शब्द से स मत ू ूँ। मालती य

ूँसी -- आप क्यों न बिाई दें गे, चोर-चोर मौसेरे भाई जो

सारा उपदे श ग़रीब नाररयों

ी के ससर क्यों थोपा जाता

ोते

ैं ; न मगर

ै , उन् ीं के ससर

क्यों आदशद और मयादाद और त्याग सब कुछ पालन करने का भार पटका जाता ै?

मे ता बोले -- इससलए कक व

बात समझती

ैं।

खन्ना ने मालती की ओर अपनी बड़ी-बड़ी आूँखों से दे ख कर मानो उसके मन

की बात समझने की चेष्टा करते ु ए क ा -- डाक्टर सा ब के ये ववचार मुझे तो कोई सौ साल वपछड़े ु ए मालम ोते ैं। ू मालती ने कटु

ोकर पूछा -- कौन से ववचार?

'य ी सेवा और कतदव्य आहद।' 'तो आपको ये ववचार सौ साल वपछड़े ु ए मालूम ोते ैं! तो कृपा करके अपने ताज़े ववचार बतलाइए। दं प त कैसे सुखी र सकते ैं , इसका कोई ताज़ा नुसख़ा आपके पास

ै ?'

खन्ना णखससया गये। बात क ी मालती को ख़ुश करने के सलए, व उठी। बोली -- य

नुसख़ा तो मे ता सा ब को मालूम

और तनक

ोगा।

'डाक्टर सा ब ने तो बतला हदया और आपके ख़्याल में व सौ साल पुराना ै ,

तो नया नुसख़ा आपको बतलाना चाह ए। आपको ज्ञात न ीं कक द ु नया में ऐसी ब ु त सी बातें ैं, जो कभी पुरानी ो ी न ीं सकतीं। समाज में इस तर समस्याएूँ मेशा उठती र ती ैं और मेशा उठती र ें गी।'

की

समसेज़ खन्ना बरामदे में चली गयी थीं। मे ता ने उनके पास जाकर प्रणाम करते ु ए पछ ू ा -- मेरे भाषण के ववषय में आपकी क्या राय

ै?

समसेज़ खन्ना ने आूँखें झक ु ाकर क ा -- अच्छा था, ब ु त अच्छा; मगर अभी आप अवववाह त ैं, सभी नाररयाूँ दे ववयाूँ ैं, श्रेष्ठ ैं, कणिादर ैं। वववा कर लीश्जए तो पूछूूँगी, अब नाररयाूँ क्या

ैं? और वववा

आपको करना पड़ेगा; क्योंकक आप वववा

से मूँु

चुरानेवाले मदों को कायर क

चुके

ैं।

मे ता

ूँसे -- उसी के सलए तो ज़मीन तैयार कर र ा ू ूँ।

'समस मालती से जोड़ा भी अच्छा ै ।' 'शतद य ी ै कक व कुछ हदन आपके चरणों में बैठकर आपसे नारी-िमद सीखें।' 'व ी स्वाथी परु ु षों की बात! आपने परु ु ष-कतदव्य सीख सलया ै ?' 'य ी सोच र ा ू ूँ , ककससे सीख।ूूँ ' 'समस्टर खन्ना आपको ब ु त अच्छी तर ससखा सकते ैं।' मे ता ने क़ क़ ा मारा -- न ीं, मैं पुरुष-कतदव्य भी आप

ी से सीखूग ूँ ा।

'अच्छी बात ै , मुझी से सीणखए। प ली बात य ी ै कक भूल जाइए कक नारी श्रेष्ठ

ै और सारी श्ज़म्मेदारी उसी पर

सारा भार सकता

ै ; अगर उसमें इन बातों का अभाव ै ।'

ै और उसी पर ग ृ स्थी का

ै । नारी में सेवा और संयम और कतदव्य सब कुछ व ी पैदा कर

नाररयों में आज जो य जाना

ै , श्रेष्ठ पुरुष

ववद्रो

ै , तो नारी में भी अभाव र े गा।

ै , इसका कारण परु ु ष का इन गण ु ों से शून्य



समरज़ा सा ब ने आकर मे ता को गोद में उठा सलया और बोले -- मुबारक! मे ता ने प्रकन की आूँखों से दे खा -- आपको मेरी तक़रीर पसन्द आयी?

'तक़रीर तो ख़ैर जैसी थी, वैसी थी; मगर कामयाब ख़ूब र ी। आपने परी को शीशे में उतार सलया। अपनी तक़दीर सराह ए कक श्जसने आज तक ककसी को मूँु लगाया, व

आपका कलमा पढ़ र ी

ै ।'

न ीं

समसेज़ खन्ना दबी ज़बान से बोली -- जब नशा ठ र जाय, तो कह ए। मे ता ने ववरक्त भाव से क ा -- मेरे जैसे ककताब कीड़ों को कौन औरत पसन्द करे गी दे वीजी! मैं तो पक्का आदशदवादी ू ूँ। समसेज़ खन्ना ने अपने प त को कार की तरफ़ जाते दे खा, तो उिर चली गयीं। समरज़ा भी बा र नकल गये। मे ता ने मंच पर से अपनी छड़ी उठायी और बा र जाना चा ते थे कक मालती ने आकर उनका

ाथ पकड़ सलया और आग्र -

भरी आूँखों से बोली -- आप अभी न ीं जा सकते। चसलए, पापा से आपकी मुलाक़ात कराऊूँ और आज व ीं खाना खाइए। मे ता ने कान पर

ाथ रखकर क ा -- न ीं, मुझे क्षमा कीश्जए। व ाूँ सरोज मेरी

जान खायगी। मैं इन लड़ककयों से ब ु त घबराता ू ूँ।

'न ीं-न ीं, मैं श्ज़म्मा लेती ू ूँ जो व मूँु भी खोले।' 'अच्छा आप चसलए, मैं थोड़ी दे र में आऊूँगा।' 'जी न ीं, य न ोगा। मेरी कार सरोज को लेकर चल दी। आप मुझे प ु ूँचाने तो चलें गे ी।' दोनों मे ता की कार में बैठे। कार चली। एक क्षण के बाद मे ता ने पूछा -- मैंने सुना

नफ़रत

ै , खन्ना सा ब अपनी बीबी को मारा करते ो गयी। जो आदमी इतना नदद यी

पर आप नारी जा त के बड़े ह तैषी बनते मालती उद्ववग्न भूल जाते

ोकर बोली -- ताली

ैं। तब से मुझे इनकी सूरत से

ो , उसे मैं आदमी न ीं समझता। उस ैं। तम ु ने उन् ें कभी समझाया न ीं?

मेशा दो

थेसलयों से बजती

ै, य

आप

ैं।

'मैं तो ऐसे ककसी कारण की कल्पना ी न ीं कर सकता कक कोई पुरुष अपनी स्त्री को मारे ।'

'चा े स्त्री ककतनी ी बदज़बान ो?'

' ाूँ, ककतनी ी।' 'तो आप एक नये कक़स्म के आदमी ैं।' 'अगर मदद बदसमज़ाज ै , तो तुम् ारी राय में उस मदद पर ं टरों की बौछार करनी चाह ए, क्यों?'

'स्त्री श्जतनी क्षमाशील ो सकती ै परु ु ष न ीं ो सकता। आपने ख़द ु आज य बात स्वीकार की ै ।' 'तो औरत की क्षमाशीलता का य ी पुरस्कार ै । मैं समझता ू ूँ, तुम खन्ना को मूँु लगाकर उसे और भी श दे ती ो। तम् ु ारा व श्जतना आदर करता ै , तम ु से उसे श्जतनी भश्क्त सकती ो।'

ै , उसके बल पर तम ु बड़ी आसानी से उसे सीिा कर

ो; मगर तुम उसकी सफ़ाई दे कर स्वयम ण उस अपराि में शरीक

मालती उत्तेश्जत

ोकर बोली -- तम ु ने इस समय य

प्रसंग व्यथद

ो जाती

ी छे ड़ हदया।

मैं ककसी की बुराई न ीं करना चा ती; मगर अभी आपने गोववंदी दे वी को

प चाना न ीं? आपने उनकी भोली-भाली शांत-मुद्रा दे खकर समझ सलया, व

दे वी

ैं। मैं उन् ें इतना ऊूँचा स्थान न ीं दे ना चा ती। उन् ोंने मुझे बदनाम करने का

श्जतना प्रयत्न ककया आप दं ग र व्यव ार

ै , मुझ पर जैसे-जैसे आघात ककये

ैं , व

बयान करूूँ, तो

जायूँगे और तब आपको मानना पड़ेगा कक ऐसी औरत के साथ य ी

ोना चाह ए।

'आणख़र उन् ें आपसे इतना द्वेष ै , इसका कोई कारण तो ोगा?' 'कारण उनसे पू छए। मुझे ककसी के हदल का ाल क्या मालम ू ?' 'उनसे बबना पछ ै -- अगर कोई ू े भी अनम ु ान ककया जा सकता ै और व य पुरुष मेरे और मेरी स्त्री के बीच में आने का सा स करे , तो मैं उसे गोली मार दूँ ग ू ा, और उसे न मार सकूूँगा, तो अपनी छाती में मार लूँ ग ू ा। इसी तर

अगर मैं

ककसी स्त्री को अपने और अपनी स्त्री के बीच में लाना चा ू ूँ, तो मेरी पत्नी को भी अधिकार ै कक व जो चा े , करे । इस ववषय में मैं कोई समझौता न ीं कर

सकता। य

अवैज्ञा नक मनोवश्ृ त्त

ै जो

मने अपने बनैले पव द ों से पायी ू ज



और आजकल कुछ लोग इसे असभ्य और असामाश्जक व्यव ार क ें गे; लेककन मैं अभी तक उस मनोव ृ त पर ववजय न ीं पा सका और न पाना चा ता ू ूँ। इस ववषय में मैं क़ानून की परवा न ीं करता। मेरे घर में मेरा क़ानून ै ।' मालती ने तीव्र स्वर में पूछा -- लेककन आपने य

अनुमान कैसे कर सलया कक

मैं आपके शब्दों में खन्ना और गोववंदी के बीच आना चा ती अनुमान करके मेरा अपमान कर र े के बराबर भी न ीं समझती।

ू ूँ। आप ऐसा ैं। मैं खन्ना को अपनी जू तयों की नोक

मे ता ने अववकवास-भरे स्वर में क ा -- य

आप हदल से न ीं क

मालती! क्या आप सारी द ु नया को बेवक़ूफ़ समझती

र ी

ैं समस

ैं? जो बात सभी समझ र े

ैं, अगर व ी बात समसेज़ खन्ना भी समझें, तो मैं उन् ें दोष न ीं दे सकता।

मालती ने तनककर क ा -- द ु नया को दस ू रों को बदनाम करने में मज़ा आता ै। य

उसका स्वभाव

ै । मैं उसका स्वभाव कैसे बदल दूँ ;ू लेककन य

कलंक

ै।

पड़ता

ै । अगर कोई इसका कुछ और अथद नकालता

व्यथद का

ाूँ, मैं इतनी बेमुरौवत न ीं ू ूँ कक खन्ना को अपने पास आते दे खकर दत्ु कार दे ती। मेरा काम ी ऐसा ै कक मझ ु े सभी का स्वागत और सत्कार करना

मालती का गला भराद गया और उसने मूँु

ै , तो व

... व

...।

िेरकर रूमाल से आूँसू पोंछे । किर

एक समनट बाद बोली -- औरों के साथ तम ु भी मझ ु े .. मझ ु े ... इसका दख ु



... मझ ु े तम ु से ऐसी आशा न थी।

किर कदाधचत ण उसे अपनी दब द ता पर खेद ु आ। व प्रचंड ोकर बोली -ु ल आपको मुझ पर आक्षेप करने का कोई अधिकार न ीं ै ; अगर आप भी उन् ीं मदों में

ैं, जो ककसी स्त्री-परु ु ष को साथ दे खकर उूँ गली उठाये बबना न ीं र

सकते, तो शौक़ से उठाइए। मझ ु े रत्ती-भर परवा न ीं; अगर कोई स्त्री आपके

पास बार-बार ककसी न ककसी ब ाने से आये , आपको अपना दे वता समझे, र-एक बात में आपसे सला

ले, आपके चरणों के नीचे आूँखें बबछाये, आपका इशारा पाते

ी आग में कूदने को तैयार

ो, तो मैं दावे से क

न करें गे; अगर आप उसे ठुकरा सकते आप ककतने

सकती ू ूँ, आप उसकी उपेक्षा ैं, तो आप मनष्ु य न ीं ैं। उसके ववरुि

ी तकद और प्रमाण लाकर रख दें ; लेककन मैं मानूँूगी न ीं। मैं तो

क ती ू ूँ , उपेक्षा तो दरू र ी, ठुकराने की बात ी क्या, आप उस नारी के चरण िो-िोकर वपयेंगे, और ब ु त हदन गुज़रने के प ले व आपकी हृदयेकवरी ोगी। मैं आपसे

ाथ जोड़कर क ती

ू ूँ , मेरे सामने खन्ना का कभी नाम न लीश्जएगा।

मे ता ने इस ज्वाला में मानो को आपके साथ न दे ख।ूूँ

ाथ सेंकते ु ए क ा -- शतद य ी

ै कक मैं खन्ना

'मैं मानवता की त्या न ीं कर सकती। व आयेंगे तो मैं उन् ें दरु -दरु ाऊूँगी न ीं।'

'उनसे कह ए, अपनी स्त्री के साथ सज्जनता से पेश आयें।' 'मैं ककसी के नजी मआ ु मले में दख़ल दे ना उधचत न ीं समझती। न मझ ु े इसका अधिकार ै !' 'तो आप ककसी की ज़बान न ीं बंद कर सकतीं।' मालती का बूँगला आ गया। कार रुक गयी। मालती उतर पड़ी और बबना समलाये चली गयी। व दी ककये

ै। व

भी भूल गयी कक उसने मे ता को भोजन की दावत

एकांत में जाकर ख़ूब रोना चा ती

ैं; पर आज उसने जो आघात ककया

ममदभेदी ***



ै।

ाथ

ै, व

ै । गोववंदी ने प ले भी आघात

ब ु त ग रा, बड़ा चौड़ा और बड़ा

16 राय सा ब को ख़बर समली कक इलाक़े में एक वारदात गाूँव के पंचों ने जुरमाना वसल ू कर सलया

ो गयी

ै और

ोरी से

ै , तो फ़ौरन नोखेराम को बुलाकर

जवाब-तलब ककया -- क्यों उन् ें , इसकी इत्तला न ीं दी गयी। ऐसे नमक राम दग़ाबाज़ आदमी के सलए उनके दरबार में जग

न ीं

ै।

नोखेराम ने इतनी गासलयाूँ खायीं, तो ज़रा गमद

ोकर बोले -- मैं अकेला थोड़ा



था। गाूँव के और पंच भी तो थे। मैं अकेला क्या कर लेता। राय सा ब ने उनकी तोंद की तरफ़ भाले -जैसी नुकीली दृश्ष्ट से दे खा -- मत बको जी! तुम् ें उसी वक़्त क ना चाह ए था, जब तक सरकार को इत्तला न



जाय, मैं पंचों को जरु माना न वसल ू करने दूँ ग ू ा। पंचों को मेरे और मेरी ररआया के बीच में दख़ल दे ने का कौन-सी आमदनी

क़ क्या

ै ? इस डाूँड़-बाूँि के ससवा इलाक़े में और

ै ? वसूली सरकार के घर गयी। बक़ाया असासमयों ने दबा

सलया। तब मैं क ाूँ जाऊूँ? क्या खाऊूँ, तुम् ारा ससर! य क ाूँ से आये ? खेद

बात बतलानी पड़ती

लाखों रुपए साल का ख़चद

ै कक दो पुकतों से काररंदगीरी करने पर मुझे आज तुम् ें य ै । ककतने रुपए वसल ू ु ए थे

ोरी से?

नोखेराम ने ससटवपटा कर क ा -- अस्सी रुपए!

'नक़द?' 'नक़द उसके पास क ाूँ थे ु ज़ूर! कुछ अनाज हदया, बाक़ी में अपना घर सलख हदया।' राय सा ब ने स्वाथद का पक्ष छोड़कर

ोरी का पक्ष सलया -- अच्छा तो आपने

और बगुलाभगत पंचों ने समलकर मेरे एक मातबर असामी को तबा

कर हदया।

मैं पूछता ू ूँ, तुम लोगों को क्या क़ था कक मेरे इलाक़े में मुझे इत्तला हदये बग़ैर मेरे असामी से जरु माना वसल ू करते। इसी बात पर अगर मैं चा ू ूँ , तो आपको और उस जासलये पटवारी और उस िूतद पंडडत को सात-सात साल के

सलए जेल सभजवा सकता ू ूँ। आपने समझ सलया कक आप ी इलाक़े के बादशा ैं। मैं क े दे ता ू ूँ, आज शाम तक जुरमाने की परू ी रक़म मेरे पास प ु ूँच जाय;

वरना बरु ा

ोगा। मैं एक-एक से चक्की वपसवाकर छोड़ूूँगा। जाइए, ाूँ, ोरी को और उसके लड़के को मेरे पास भेज दीश्जएगा। नोखेराम ने दबी ज़बान से क ा -- उसका लड़का तो गाूँव छोड़कर भाग गया। श्जस रात को य

वारदात ु ई, उसी रात को भागा।

राय सा ब ने रोष से क ा -- झूठ मत बोलो। तुम् ें मालूम में आग लग जाती

ै , झूठ से मेरे बदन

ै । मैंने आज तक कभी न ीं सुना कक कोई युवक अपनी

प्रेसमका को उसके घर से लाकर किर ख़द ु भाग जाय। अगर उसे भागना ोता, तो व

शरारत



उस लड़की को लाता क्यों? तुम लोगों की इसमें भी ज़रूर कोई

ै । तुम गंगा में डूबकर भी अपनी सफ़ाई दो, तो मानने का न ीं। तुम

लोगों ने अपने समाज की प्यारी मयाददा की रक्षा के सलए उसे िमकाया

ोगा।

बेचारा भाग न जाता, तो क्या करता! नोखेराम इसका प्र तवाद न कर सके। मासलक जो कुछ क ें व भी न क

ठीक

ै। व



सके कक आप ख़ुद चलकर झूठ-सच की जाूँच कर लें । बड़े आदसमयों

का क्रोि पूरा समपदण चा ता पंचों ने राय सा ब का य

ै । अपने णख़लाफ़ एक शब्द भी न ीं सुन सकता।

फ़ैसला सुना, तो नशा ह रन

ो गया। अनाज तो

अभी तक ज्यों का त्यों पड़ा था; पर रुपए तो कब के ग़ायब

ो गये।

ोरी का

मकान रे न सलखा गया था; पर उस मकान को दे ात में कौन पूछता था। जैसे ह न्द ू स्त्री प त के साथ घर की स्वासमनी न ीं र ती, उसी तर



घर

ै , और प त त्याग दे , तो क ीं की

ोरी के सलए लाख रुपए का

ै ; पर उसकी असली

क़ीमत कुछ भी न ीं। और इिर राय सा ब बबना रुपए सलए मानने के न ीं। य ी

ोरी जाकर रो आया

तो नौकरी

ोगा। पटे कवरीलाल सबसे ज़्यादा भयभीत थे। उनकी

ी चली जायगी। चारों सज्जन इस ग न समस्या पर ववचार कर र े

थे, पर ककसी की अक्ल काम न करती थी। एक दस ू रे पर दोष रखता था। किर ख़ब ू झगड़ा ु आ।

पटे कवरी ने अपनी लंबी शंकाशील गदद न ह लाकर क ा -- मैं मना करता था कक ोरी के ववषय में

में चुप्पी सािकर र

तावान दे ना पड़ा। इस मामले में तावान

जाना चाह ए। गाय के मामले में सबको ी से गला न छूटे गा, नौकरी से

ाथ

िोना पड़ेगा; मगर तम ु लोगों को रुपए की पड़ी थी। नकालो बीस-बीस रुपए। अब भी कुशल

ै । क ीं राय सा ब ने रपट कर दी, तो सब जने बूँि जाओगे।

दातादीन ने ब्रह्मतेज हदखाकर क ा -- मेरे पास बीस रुपए की जग

बीस पैसे

भी न ीं

ैं। ब्रा मणों को भोज हदया गया, ोम ु आ। क्या इसमें कुछ ख़रच ी न ीं ु आ? राय सा ब की ह म्मत ै कक मुझे जेल ले जायूँ? ब्रह्म बनकर घर का घर समटा दूँ ग ू ा। अभी उन् ें ककसी ब्राह्मण से पाला न ीं पड़ा। णझंगरु ीससं ने भी कुछ इसी आशय के शब्द क े । व ैं। उन् ोंने

राय सा ब के नौकर न ीं

ोरी को मारा न ीं, पीटा न ीं, कोई दबाव न ीं डाला।

ोरी अगर

प्रायश्कचत करना चा ता था, तो उन् ोंने इसका अवसर हदया। इसके सलए कोई उन पर अपराि न ीं लगा सकता; मगर नोखेराम की गदद न इतनी आसानी से न छूट सकती थी। य ाूँ मज़े से बैठे राज करते थे। वेतन तो दस रुपए से ज़्यादा न था; पर एक

ज़ार साल की ऊपर की आमदनी थी, सैकड़ों आदसमयों पर

ु कूमत, चार-चार प्यादे ाश्ज़र, बेगार में सारा काम ो जाता था, थानेदार तक कुरसी दे ते थे, य चैन उन् ें और क ाूँ था! और पटे कवरी तो नौकरी के बदौलत

म ाजन बने ु ए थे। क ाूँ जा सकते थे? दो-तीन हदन इसी धचंता में पड़े र े कक कैसे इस ववपश्त्त से नकलें । आणख़र उन् ें एक मागद सूझ ी गया। कभी-कभी

कच री में उन् ें दै नक 'बबजली' दे खने को समल जाती थी। यहद एक गम ु नाम पत्र उसके संपादक की सेवा में भेज हदया जाय कक राय सा ब ककस तर से जुरमाना वसूल करते स मत

असासमयों

ैं तो बचा को लेने के दे ने पड़ जायूँ। नोखेराम भी

ो गये। दोनों ने समलकर ककसी तर

एक पत्र सलखा और रश्जस्टरी भेज

हदया। संपादक ओंकारनाथ तो ऐसे पत्रों की ताक में र ते थे। पत्र पाते

ी तुरंत राय

सा ब को सूचना दी। उन् ें एक ऐसा समाचार समला

ै , श्जस पर ववशवास करने ण

अववकवास भी न ीं ककया जा सकता। क्या य

ै कक राय सा ब ने अपने

की उनकी इच्छा न ीं

ोती; पर संवाददाता ने ऐसे प्रमाण हदये कक स सा सच

इलाक़े के एक असामी से अस्सी रुपए तावान इससलए वसूल ककये कक उसके पुत्र ने एक वविवा को घर में डाल सलया था? संपादक का कतदव्य उन् ें मज़बूर करता ै कक व

मुआमले की जाूँच करें और जनता के ह ताथद उसे प्रकासशत कर दें ।

राय सा ब इस ववषय में जो कुछ क ना चा ें , संपादक जी उसे भी प्रकासशत कर

दें गे। संपादकजी हदल से चा ते

ैं कक य

ख़बर गलत

सत्य ु आ, तो व उसे प्रकाश में लाने के सलए वववश कतदव्य-पथ से न ीं टा सकती। राय सा ब ने य उत्तेजना ज ाूँ व

ो ; लेककन उसमें कुछ भी

ो जायूँगे। मैत्री उन् ें

सच ू ना पायी, तो ससर पीट सलया। प ले तो उनकी ऐसी

ु ई कक जाकर ओंकारनाथ को धगनकर पचास ं टर जमायें और क दें , पत्र छापना व ाूँ य समाचार भी छाप दे ना ; लेककन इसका पररणाम

सोचकर मन को शांत ककया और तुरंत उनसे समलने चले। अगर दे र की, और ओंकारनाथ ने व

संवाद छाप हदया, तो उनके सारे यश में कासलमा पुत जायगी।

ओंकारनाथ सैर करके लौटे थे और आज के पत्र के सलए संपादकीय लेख सलखने की धचंता में बैठे ु ए थे; पर मन पक्षी की भाूँ त अभी उड़ा-उड़ा किरता था। उनकी िमदपत्नी ने रात में उन् ें कुछ ऐसी बातें क डाली थीं जो अभी तक काूँटों की तर व

चुभ र ी थीं। उन् ें कोई दररद्र क

ज़रा भी बुरा न मानते थे; लेककन य

ले , अभागा क

क ना कक उनमें पुरुषत्व न ीं

उनके सलए असह्य था। और किर अपनी पत्नी को य उससे तो य मूँु

आशा की जाती

बंद कर दे । बेशक व

ै कक कोई इस तर

क ने का क्या

ले,

ै, य



ै?

का आक्षेप करे , तो उसका

ऐसी ख़बरें न ीं छापते, ऐसी हटप्पणणयाूँ न ीं करते कक

ससर पर कोई आफ़त आ जाय। िूूँक-िूूँककर क़दम रखते के युग में व

ले, बुिू क

और कर

ी क्या सकते

ैं; मगर व

ैं। इन काले कानूनों

क्यों साूँप के बबल में

ाथ

न ीं डालते? इसीसलए तो कक उनके घरवालों को कष्ट न उठाने पड़े। और उनकी सह ष्णुता का उन् ें य न ीं

पुरस्कार समल र ा

ै ? क्या अूँिेर

ै ! उनके पास रुपए

ैं, तो बनारसी साड़ी कैसे मूँगा दें ? डाक्टर सेठ और प्रोफ़ेसर भाहटया और न

जाने ककस-ककस की श्स्त्रयाूँ बनारसी साड़ी प नती

ैं , तो व

क्या करें ? क्यों

उनकी पत्नी इन साड़ीवासलयों को अपनी खद्दर की साड़ी से लश्ज्जत न ीं करती? उनकी ख़द ु तो य

आदत

मोटे से मोटे कपड़े प न लेते जवाब दे ने को तैयार र ते व

ै कक ककसी बड़े आदमी से समलने जाते

ैं और कुछ कोई आलोचना करे तो उसका मूँु तोड़

ैं। उनकी पत्नी में क्यों व ी आत्मासभमान न ीं

क्यों दस ू रों का ठाट-बाट दे खकर ववचसलत

कक व

एक दे श-भक्त पुरुष की पत्नी

ससवा और क्या संपश्त्त

ैं, तो

ो जाती

ै?

ै ? उसे समझना चाह ए

ै । दे श-भक्त के पास अपनी भश्क्त के

ै । इसी ववषय को आज के अग्रलेख का ववषय बनाने

की कल्पना करते-करते उनका ध्यान राय सा ब के मुआमले की ओर जा प ु ूँचा। राय सा ब सूचना का क्या उत्तर दे ते ैं , य दे खना ै । अगर व अपनी सफ़ाई

दे ने में सिल

ो जाते

ैं, तब तो कोई बात न ीं, लेककन अगर व



ओंकारनाथ दबाव, भय, या मुला जे में आकर अपने कतदव्य से मूँु य

उनका भ्रम

क्या समलता ैं

िेर लें गे तो

ै । इस सारे तप और सािन का पुरस्कार उन् ें इसके ससवा और

ै कक अवसर पड़ने पर व

उन् ें ख़ूब मालूम तो

समझें कक

इन क़ानूनी डकैतों का भंडा-िोड़ करें ।

ै कक राय सा ब बड़े प्रभावशाली जीव

ी। अधिकाररयों में भी उनका काफ़ी रुसख ू

मुक़दमे चलवा सकते

ैं, अपने गुंडों से रा

ैं। कौंससल के मेम्बर

ै। व

चा ें , तो उन पर झठ ू े

चलते वपटवा सकते

इन बातों से न ीं डरता। जब तक उसकी दे

में प्राण

ै, व

ैं; लेककन ओंकार

आतता ययों की

ख़बर लेता र े गा। स सा मोटरकार की आवाज़ सन ु कर व आरं भ कर हदया। और एक

चौंके। तुरन्त काग़ज़ लेकर अपना लेख

ी क्षण में राय सा ब ने उनके कमरे में क़दम

रक्खा। ओंकारनाथ ने न उनका स्वागत ककया, न कुशल-क्षेम पूछा, न कुरसी दी। उन् ें इस तर से समले

दे खा मानो कोई मुलाश्ज़म उनकी अदालत में आया

ो और रोब

ू ा -- आपको मेरा परु ज़ा समल गया था? मैं व पत्र ु ए स्वर में पछ सलखने के सलए बाध्य न ीं था, मेरा कतदव्य य था कक स्वयम ण उसकी त क़ीक़ात करता; लेककन मुरौवत में ससिांतों की कुछ न कुछ क्या उस संवाद में कुछ सत्य राय सा ब उसका सत्य

ै?

ोना अस्वीकार न कर सके।

जुरमाने के रुपए न ीं समले थे और व थे; लेककन व

त्या करनी

दे खना चा ते थे कक य

ी पड़ती

ै।

ालाूँकक अभी तक उन् ें

उनके पाने से साफ़ इनकार कर सकते म ाशय ककस प लू पर चलते

ैं।

ओंकारनाथ ने खेद प्रकट करते ु ए क ा -- तब तो मेरे सलए उस संवाद को प्रकासशत करने के ससवा और कोई मागद न ीं ै । मुझे इसका दःु ख ै कक मुझे अपने एक परम ह तैषी समत्र की आलोचना करनी पड़ र ी

ै ; लेककन कतदव्य के

आगे व्यश्क्त कोई चीज़ न ीं। संपादक अगर अपना कतदव्य न पूरा कर सके, तो उसे इस आसन पर बैठने का कोई

क़ न ीं

ै।

राय सा ब कुरसी पर डट गये और पान की धगलौररयाूँ मूँु लेककन य

आपके

क़ में अच्छा न

ोगा। मुझे जो कुछ

में भरकर बोले -ोना

ै , पीछे

ोगा,

आपको तत्काल दं ड समल जायगा; अगर आप समत्रों की परवा

न ीं करते, तो मैं

भी उसी कैंड़े का आदमी ू ूँ। ओंकारनाथ ने श ीद का गौरव िारण करके क ा -- इसका तो मुझे कभी भय

न ीं ु आ। श्जस हदन मैंने पत्र-संपादन का भार सलया, उसी हदन प्राणों का मो छोड़ हदया, और मेरे समीप एक संपादक की सबसे शानदार मौत य ी ै कक व न्याय और सत्य की रक्षा करता ु आ अपना बसलदान कर दे ।

'अच्छी बात ै । मैं आपकी चुनौती स्वीकार करता ू ूँ। मैं अब तक आपको समत्र समझता आया था; मगर अब आप लड़ने ी पर तैयार ैं , तो लड़ाई ी स ी। आणख़र मैं आपके पत्र का पूँचगुना चंदा क्यों दे ता ू ूँ। केवल इसीसलए कक व मेरा ग़ल ु ाम बना र े । मुझे परमात्मा ने रईस बनाया ै । पच त्तर रुपया दे ता ू ूँ ; इसीसलए कक आपका मूँु बंद र े । जब आप घाटे का रोना रोते ैं और स ायता की अपील करते

ैं, और ऐसी शायद

अपील न नकलती

ी कोई तमा ी जाती

ो, जब आपकी

ो, तो मैं ऐसे मौक़े पर आपकी कुछ न कुछ मदद कर दे ता

ू ूँ। ककससलए! दीपावली, दस रा, ोली में आपके य ाूँ बैना भेजता ू ूँ , और साल में पच्चीस बार आपकी दावत करता ू ूँ, ककससलए! आप ररकवत और कतदव्य दोनों साथ-साथ न ीं नभा सकते।' ओंकारनाथ उत्तेश्जत

ोकर बोले, -- मैंने कभी ररकवत न ीं ली।

राय सा ब ने िटकारा -- अगर य

व्यव ार ररकवत न ीं

ज़रा मझ ु े समझा दीश्जए। क्या आप समझते

ै तो ररकवत क्या

ै?

ैं , आपको छोड़कर और सभी गिे

ैं जो नःस्वाथद-भाव से आपका घाटा पूरा करते

ैं। नकासलए अपनी ब ी और

बतलाइए अब तक आपको मेरी ररयासत से ककतना समल चुका

ै । मुझे ववकवास

ै , ज़ारों की रक़म नकलेगी; अगर आपको स्वदे शी-स्वदे शी धचल्लाकर ववदे शी

दवाओं और वस्तओ ु ं का ववज्ञापन छापने में शरम न ीं आती, तो मैं अपने असासमयों से डाूँड़, तावान और जम ु ानाद लेते शरमाऊूँ? य

न समणझए कक आप

ककसानों के ह त का बीड़ा उठाये

ु ए ैं। मुझे ककसानों के साथ जलना-मरना ै , मुझसे बढ़कर दस ू रा उनका ह तेच्छु न ीं ो सकता; लेककन मेरी गुज़र कैसे ो! अफ़सरों को दावतें क ाूँ से दूँ ,ू सरकारी चंदे क ाूँ से दूँ ,ू ख़ानदान के सैकड़ों आदसमयों की ज़रूरतें कैसे परू ी करूूँ। मेरे घर का क्या ख़चद ै , य

शायद आप



जानते

ैं। तो क्या मेरे घर में रुपये िलते ै ? आयेगा तो आसासमयों

से। आप समझते

ोंगे, ज़मींदार और ताल्लुक़ेदार सारे संसार का सुख भोग र े

ैं। उनकी असली

ालत का आपको ज्ञान न ीं; अगर व

तो उनका श्ज़ंदा र ना मुश्ककल घर

ो जाय।

म बबच्छू न ीं

तो करना

ी पड़ता

उसी तर

और सभी

िमात्माद बन कर र ें ,

ो जाय। अफ़सरों को डासलयाूँ न दें , तो जेलख़ाना ैं कक अनायास

ी सबको डंक मारते किरें । न

ग़रीबों का गला दबाना कोई बड़े आनंद का काम

हदखाऊूँ कक सुब

ी के घर

ै । श्जस तर

ै ; लेककन मयाददाओं का पालन

आप मेरी रईसी का फ़ायदा उठाना चा ते

में सोने की मुरग़ी समझते

ैं। आइए मेरे बूँगले पर तो

से शाम तक ककतने नशाने मुझ पर पड़ते

शाल-दश ु ाला सलये चला आ र ा

ैं ,

ैं। कोई काकमीर से

ै , कोई इत्र और तम्बाकू का एजेंट

ै , कोई

पस् ु तकों और पबत्रकाओं का, कोई जीवन-बीमे का, कोई ग्रामोफ़ोन सलये ससर पर सवार

ै , कोई कुछ। चंदेवाले तो अनधगनती। क्या सबके सामने अपना दख ु ड़ा

लेकर बैठ जाऊूँ? ये लोग मेरे द्वार पर दख ु ड़ा सुनाने आते

ैं ? आते

ैं मुझे उल्लू

बनाकर मुझसे कुछ ऐंठने के सलए। आज मयाददा का ववचार छोड़ दूँ ,ू तो तासलयाूँ

वपटने लगें । ु क्काम को डासलयाूँ न दूँ ,ू तो बागी समझा जाऊूँ। तब आप अपने लेखों से मेरी रक्षा न करें गे। काूँग्रेस में शरीक ु आ, उसका तावान अभी तक दे ता जाता ू ूँ। काली ककताब में नाम दरज़ ो गया। मेरे ससर पर ककतना क़रज़ ै , य

भी कभी आपने पूछा

की य

ै ? अगर सभी म ाजन डडधग्रयाूँ करा लें , तो मेरे

अूँगूठी तक बबक जायगी। आप क ें गे क्यों य

आडंबर पालते

ाथ

ो।

कह ए, सात पुकतों से श्जस वातावरण में पला ू ूँ उससे अब नकल न ीं सकता। घास छीलना मेरे सलए असंभव ै । आपके पास ज़मीन न ीं , जायदाद न ीं, मयाददा का झमेला न ीं, आप नभीक ैं। आपको कुछ ख़बर

का ख़ून

ो र ा

ओंकारनाथ कुछ नमद

ैं ; लेककन आप भी दम ु दबाये बैठे र ते

ै , अदालतों में ककतनी ररकवतें चल र ी

ै , ककतनी दे ववयाूँ भ्रष्ट

दे ता ू ूँ, प्रमाणसह त।

न ीं

ो सकते

ो र ी

ैं!

ैं , ककतने ग़रीबों

ै बूता सलखने का? सामग्री मैं

ोकर बोले -- जब कभी अवसर आया

ै , मैंने क़दम पीछे

टाया।

राय सा ब भी कुछ नमद ु ए -- ाूँ, मैं स्वीकार करता ू ूँ कक दो-एक मौक़ों पर आपने जवाूँमरदी हदखायी ै ; लेककन आप की नगा मेशा अपने लाभ की ओर र ी

ै , प्रजा-ह त की ओर न ीं। आूँखें न नकासलए और न मूँु

लाल कीश्जए।

जब कभी आप मैदान में आये

ैं, उसका शुभ पररणाम य ी ु आ कक आपके सम्मान और प्रभाव और आमदनी में इज़ाफ़ा ु आ ै ; अगर मेरे साथ भी आप व ी चाल चल र े क्योंकक व

ों, तो मैं आपकी ख़ा तर करने को तैयार

ररकवत

ू ा; ू ूँ। रुपए न दूँ ग ै । आपकी पत्नीजी के सलए कोई आभूषण बनवा दूँ ग ू ा। ै

मंज़ूर? अब मैं आपसे सत्य क ता ू ूँ कक आपको जो संवाद समला व गलत मगर य भी क दे ना चा ता ू ूँ कक अपने और सभी भाइयों की तर मैं

ै;

असासमयों से जुमादना लेता ू ूँ और साल में दस-पाूँच ज़ार रुपए मेरे ाथ लग जाते ैं, और अगर आप मेरे मूँु से य कौर छीनना चा ें गे, तो आप घाटे में र ें गे। आप भी संसार में सुख से र ना चा ते

ैं , मैं भी चा ता ू ूँ। इससे क्या फ़ायदा कक आप न्याय और कतदव्य का ढोंग रचकर मुझे भी ज़ेरबार करें , ख़ुद भी ज़ेरबार

ों। हदल की बात कह ए। मैं आपका बैरी न ीं ू ूँ। आपके साथ ककतनी ी बार एक चौके में , एक मेज़ पर खा चुका ू ूँ। मैं य भी जानता ू ूँ कक आप

तकलीफ़ में ने

ैं। आपकी

ालत शायद मेरी

ररशचंद्र बनने की क़सम खा ली

ालत से भी ख़राब

ै।

ाूँ , अगर आप

ै , तो आप की ख़ुशी। मैं चलता ू ूँ।

राय सा ब कुरसी से उठ खड़े ु ए। ओंकारनाथ ने उनका ाथ पकड़कर संधिभाव से क ा -- न ीं-न ीं, अभी आपको बैठना पड़ेगा। मैं अपनी पोज़ीशन साफ़ कर दे ना चा ता ू ूँ। आपने मेरे साथ जो सलूक ककये ैं , उनके सलए मैं आपका आभारी ू ूँ; लेककन य ाूँ ससिांत की बात आ गयी ै और आप जानते ैं , ससिांत प्राणों से भी प्यारे

ोते

ैं।

राय सा ब कुसी पर बैठकर ज़रा मीठे स्वर में बोले -- अच्छा भाई, जो चा े सलखो। मैं तुम् ारे ससिांत को तोड़ना न ीं चा ता। और तो क्या ोगी।

ोगा, बदनामी

ाूँ, क ाूँ तक नाम के पीछे पीछे मरूूँ! कौन ऐसा ताल्लक़ ु े दार

ै , जो

असासमयों को थोड़ा-ब ु त न ीं सताता। कुत्ता ड्डी की रखवाली करे तो खाय क्या? मैं इतना ी कर सकता ू ूँ कक आगे आपको इस तर की कोई सशकायत न समलेगी; अगर आपको मुझ पर कुछ ववकवास ककसी दस ू रे संपादक से मैं इस तर

की ख़ुशामद न करता। उसे सरे बाज़ार

वपटवाता; लेककन मझ ु से आपकी दोस्ती पत्रों का युग

ै; इससलए दबना

ै । सरकार तक उनसे डरती

बना दें । ख़ैर य कुछ ग्रा क बढ़े ?

ै , तो इस बार क्षमा कीश्जए।

ै , मेरी

ी पड़ेगा। य

समाचार-

स्ती क्या! आप श्जसे चा ें

झगड़ा ख़तम कीश्जए। कह ए, आजकल पत्र की क्या दशा

ै?

ओंकारनाथ ने अ नच्छा के भाव से क ा -- ककसी न ककसी तर

काम चल जाता

ै और वतदमान पररश्स्थ त में मैं इससे अधिक आशा न ीं रखता। मैं इस तरफ़ िन और भोग की लालसा लेकर न ीं आया था ; इससलए मुझे सशकायत न ीं

ै।

मैं जनता की सेवा करने आया था और व कल्याण

ो, य ी मेरी कामना

राय सा ब ने ज़रा और सहृदय

यथाशश्क्त ककये जाता ू ूँ। राष्र का ै । एक व्यश्क्त के सुख-दःु ख का कोई मूल्य न ीं। ोकर क ा -- य

लेककन सेवा करने के सलए भी जीना ज़रूरी एकाग्रधचत्त बढ़ र ी

'बात य

ै?

सब ठीक

ै भाई सा ब;

ै । आधथदक धचंताओं में आप

ोकर सेवा भी तो न ीं कर सकते। क्या ग्रा क-संख्या बबलकुल न ीं

ै कक मैं अपने पत्र का आदशद धगराना न ीं चा ता ; अगर मैं आज

ससनेमास्टारों के धचत्र और चररत्र छापने लगूँू तो मेरे ग्रा क बढ़ सकते अपनी तो व

नी त न ीं। और भी ककतने

िन कमाया जा सकता

ी ऐसे

थकंडे

ैं; लेककन

ैं , श्जनसे पत्रों द्वारा

ै , लेककन मैं उन् ें ग्रह त समझता ू ूँ।'

'इसी का य िल ै कक आज आपका इतना सम्मान ै । मैं एक प्रस्ताव करना चा ता

ू ूँ। मालूम न ीं आप उसे स्वीकार करें गे या न ीं। आप मेरी ओर से सौ आदसमयों के नाम फ़्ी जारी कर दीश्जए। चंदा मैं दे दूँ ग ू ा।' ओंकारनाथ ने कृतज्ञता से ससर झक ु ाकर क ा -- मैं िन्यवाद के साथ आपका

दान स्वीकार करता ू ूँ। खेद य ी ै कक पत्रों की ओर से जनता ककतनी उदासीन ै । स्कूल और कासलजों और मंहदरों के सलए िन की कमी न ीं ै पर आज तक

एक भी ऐसा दानी न नकला जो पत्रों के प्रचार के सलए दान दे ता , ालाूँकक जनसशक्षा का उद्दे कय श्जतने कम ख़चद में पत्रों से पूरा न ीं

ो सकता

ै , और ककसी तर

ो सकता। जैसे सशक्षालयों को संस्थाओं द्वारा स ायता समला करती

ै , ऐसे

ी अगर पत्रकारों को समलने लगे, तो इन बेचारों को अपना श्जतना समय और स्थान ववज्ञापनों की भें ट करना पड़ता

ै, व

क्यों करना पड़े? मैं आपका बड़ा

अनुग ृ ीत ू ूँ। राय सा ब बबदा

ो गये; ओंकारनाथ के मुख पर प्रसन्नता की झलक न थी।

राय सा ब ने ककसी तर

की शतद न की थी, कोई बंिन न लगाया था; पर

ओंकारनाथ आज इतनी करारी िटकार पा कर भी इस दान को अस्वीकार न कर सके। पररश्स्थ त ऐसी आ पड़ी थी कक उन् ें उबरने का कोई उपाय

ी न सूझ

र ा था। प्रेस के कमदचाररयों का तीन म ीने का वेतन बाक़ी पड़ा ु आ था। काग़ज़वाले के एक ज़ार से ऊपर आ र े थे ; य ी क्या कम था कक उन् ें ाथ न ीं िैलाना पड़ा। उनकी स्त्री गोमती ने आकर ववद्रो समय न ीं आया, या य जग

के स्वर में क ा -- क्या अभी भोजन का

भी कोई नयम

ै कक जब तक एक न बज जाय,

से न उठो। कब तक कोई चूल् ा अगोरता र े ।

ओंकारनाथ ने दख ु ी आूँखों से पत्नी की ओर दे खा। गोमती का ववद्रो व

उड़ गया।

उनकी कहठनाइयों को समझती थी। दस ू री मह लाओं के वस्त्राभूषण दे खकर

कभी-कभी उसके मन में ववद्रो

के भाव जाग उठते थे और व

जली-कटी सन ु ा जाती थी; पर वास्तव में य

प त को दो-चार

क्रोि उनके प्र त न ीं , अपने दभ ु ादग्य

के प्र त था, और इसकी थोड़ी-सी आूँच अनायास थी। व

ी ओंकारनाथ तक प ु ूँ च जाती उनका तपस्वी जीवन दे खकर मन में कुढ़ती थी और उनसे स ानुभू त

भी रखती थी। बस, उन् ें थोड़ा-सा सनकी समझती थी। उनका उदास मूँु

दे खकर पूछा -- क्यों उदास

ओंकारनाथ को मुस्कराना पड़ा -- कौन उदास ै , उतनी अपने वववा

ो, पेट में कुछ गड़बड़

ै , मैं? मुझे तो आज श्जतनी ख़ुशी

के हदन भी न ु ई थी। आज सबेरे पंद्र ु ई। ककसी भाग्यवान का मूँु दे खा था।

गोमती को ववकवास न आया, बोली -- झूठे ैं।

ाूँ, पंद्र

रुपए क ो, मान लेती ू ूँ।'

ै क्या?

ो। तुम् ें पंद्र

सौ की बो नी

सौ क ाूँ समल जाते

'न ीं-न ीं, तुम् ारे ससर की क़सम, पंद्र सौ मारे । अभी राय सा ब आये थे। सौ ग्रा कों का चंदा अपनी तरफ़ से दे ने का वचन दे गये गोमती का चे रा उतर गया -- तो समल चुके?

'न ीं, राय सा ब वादे के पक्के ैं।'

ैं। '

'मैंने ककसी ताल्लुक़ेदार को वादे का पक्का दे खा ी न ीं। दादा एक ताल्लुक़ेदार के नौकर थे। साल-साल भर तलब न ीं समलती थी। उसे छोड़कर दस ू रे की

नौकरी की। उसने दो साल तक एक पाई न दी। एक बार दादा गरम पड़े, तो मारकर भगा हदया। इनके वादों का कोई क़रार न ीं। '

'मैं आज ी बबल भेजता ू ूँ।' 'भेजा करो। क दें गे, कल आना। कल अपने इलाक़े पर चले जायूँगे। तीन म ीने में लौटें गे।' ओंकारनाथ संशय में पड़ गये। ठीक तो तो व

क्या कर लें गे।

ै , क ीं राय सा ब पीछे से मक ु र गये,

किर भी हदल मज़बूत करके क ा -- ऐसा न ीं

ो सकता। कम-से-कम राय

सा ब को मैं इतना िोखेबाज़ न ीं समझता। मेरा उनके य ाूँ कुछ बाक़ी न ीं

ै।

गोमती ने उसी संदे

के भाव से क ा -- इसी से तो मैं तुम् ें बुि क ती ू ूँ। ज़रा ककसी ने स ानुभू त हदखायी और तुम िूल उठे । ये मोटे रईस ैं। इनके पेट में ऐसे ककतने वादे

ज़म

ो सकते

ैं। श्जतने वादे करते

ैं , अगर सब पूरा करने

लगें , तो भीख माूँगने की नौबत आ जाय। मेरे गाूँव के ठाकुर सा ब तो दो-दो,

तीन-तीन साल-तक ब नयों का ह साब न करते थे। नौकरों का ह साब तो नाम के सलए दे ते थे। साल-भर काम सलया, जब नौकर ने वेतन माूँगा, मारकर नकाल हदया। कई बार इसी नाहद ें दी में स्कूल से उनके लड़कों के नाम कट गये।

आणख़र उन् ोंने लड़कों को घर बुला सलया। एक बार रे ल का हटकट उिार माूँगा था। य

राय सा ब भी तो उन् ीं के भाईबंद

पीसो, जो तुम् ारे भाग्य में सलखा िटकारते र ें , व ी अच्छा

ै। य

ै। य

ैं। चलो भोजन करो और चक्की

समझ लो कक ये बड़े आदमी तुम् ें

तुम् ें एक पैसा दें गे, तो उसका चौगुना अपने

असासमयों से वसूल कर लें गे। अभी उनके ववषय में जो कुछ चा ते ो। तब तो ठकुरसो ाती

ी क नी पड़ेगी।

पंडडत जी भोजन कर र े थे; पर कौर मूँु बबना हदल का बोझ

ो, सलखते

में िूँसा ु आ जान पड़ता था। आणख़र लका ककये भोजन करना कहठन ो गया।

बोले -- अगर रुपए न हदये, तो ऐसी ख़बर लूँ ग ू ा कक याद करें गे। उनकी चोटी मेरे ाथ में

ै । गाूँव के लोग झूठी ख़बर न ीं दे सकते। सच्ची ख़बर दे ते तो उनकी

जान नकलती पास आयी

ै , झूठी ख़बर क्या दें गे! राय सा ब के णख़लाफ़ एक ररपोटद मेरे

ै । छाप दूँ ,ू बचा को घर से नकलना मश्ु ककल

ख़ैरात न ीं दे र े

ैं , बड़े दबसट में पड़कर इस रा

हदखा र े थे, जब दे खा इससे काम न चलेगा, तो य एक इनके ठीक

ो जाय। मझ ु े य

पर आये

ैं। प ले िमककयाूँ

चारा िेंका। मैंने भी सोचा,

ो जाने से तो दे श से अन्याय समटा जाता न ीं , किर क्यों न

इस दान को स्वीकार कर लूँ ।ू मैं अपने आदशद से धगर गया ू ूँ ज़रूर; लेककन इतने पर भी राय सा ब ने दग़ा की, तो मैं भी शठता पर उतर आऊूँगा। जो ग़रीबों को लूटता पड़ेगा।

***

ै , उसको लट ू ने के सलए अपनी आत्मा को ब ु त समझाना न

17 गाूँव में ख़बर िैल गयी कक राय सा ब ने पंचों को बुलाकर ख़ूब डाूँटा और इन लोगों ने श्जतने रुपए वसूल ककये थे, व

सब इनके पेट से नकाल सलये। व

इन लोगों को जे ल भेजवा र े थे; लेककन इन लोगों ने चाटा, तब जाके उन् ोंने छोड़ा। ि नया का कलेजा शीतल

तो

ाथ-पाूँव जोड़े, थक ू कर

ो गया , गाूँव में घूम-

घूमकर पंचों को सलज्जत करती किरती थी -- आदमी न सुने ग़रीबों की पुकार, भगवान ण तो सुनते

ैं। लोगों ने सोचा था, इनसे डाूँड़ लेकर मज़े से िुलौडड़याूँ

खायेंगे। भगवान ण ने ऐसा तमाचा लगाया कक िुलौडड़याूँ मूँु

से नकल पड़ीं। एक-

एक के दो-दो भरने पड़े। अब चाटो मेरा मकान लेकर। मगर बैलों के बबना खेती कैसे

ो? गाूँवों में बोआई शुरू

ो गयी। का तदक के

म ीने में ककसान के बैल मर जायूँ, तो उसके दोनों

ाथ कट जाते

दोनों

ल चल र े थे। बीज डाले

ाथ कट गये थे। और सब लोगों के खेतों में

जा र े थे। क ीं-क ीं गीत की तानें सुनायी दे ती थीं।

ैं ।

ोरी के

ोरी के खेत ककसी अनाथ

अबला के घर की भाूँ त सूने पड़े थे। पु नया के पास भी गोई थी; शोभा के पास भी गोई थी; मगर उन् ें अपने खेतों की बुआई से क ाूँ फ़ुरसत कक बुआई करें ।

ोरी की

ोरी हदन-भर इिर-उिर मारा-मारा किरता था। क ीं इसके खेत में

जा बैठता, क ीं उसकी बोआई करा दे ता। इस तर

कुछ अनाज समल जाता।

ि नया, रूपा, सोना सभी दस ू रों की बोआई में लगी र ती थीं। जब तक बोआई

र ी, पेट की रोहटयाूँ समलती गयीं, ववशेष कष्ट न ु आ। मानससक वेदना तो अवकय ोती थी; पर खाने भर को समल जाता था। रात को नत्य स्त्री-पुरुष में थोड़ी-सी लड़ाई

ो जाती थी। य ाूँ तक कक का तदक का म ीना बीत गया और

गाूँव में मज़दरू ी समलनी भी कहठन

ो गयी। अब सारा दारमदार ऊख पर था, जो

खेतों में खड़ी थी।

रात का समय था। सदी ख़ूब पड़ र ी थी।

ोरी के घर में आज कुछ खाने को न

था। हदन को तो थोड़ा-सा भन ु ा ु आ मटर समल गया था; पर इस वक़्त चल् ू ा जलाने का कोई डौल न था और रूपा भूख के मारे व्याकुल भी और द्वार पर कौड़े के सामने बैठी रो र ी थी। घर में जब अनाज का एक दाना भी न ीं क्या माूँगे, क्या क े ! जब भूख न स ी गयी तो व

ै , तो

आग माूँगने के ब ाने पु नया

के घर गयी। पु नया बाजरे की रोहटयाूँ और बथए ु का साग पका र ी थी। सग ु ंि से रूपा के मूँु

में पानी भर आया।

पु नया ने पूछा -- क्या अभी तेरे घर आग न ीं जली, क्या री? रूपा ने दीनता से क ा -- आज तो घर में कुछ था

ी न ीं, आग क ाूँ से

जलती?

'तो किर आग का े को माूँगने आयी ै ?' 'दादा तमाखू वपयेंगे।' पु नया ने उपले की आग उसकी ओर िेंक दी; मगर रूपा ने आग उठायी न ीं और समीप जाकर बोली -- तुम् ारी रोहटयाूँ म क र ी रोहटयाूँ बड़ी अच्छी लगती

ैं।

ैं काकी! मुझे बाजरे की

पु नया ने मुस्कराकर पूछा -- खायेगी?

'अम्मा डाटें गी।' 'अम्मा से कौन क ने जायगा।' रूपा ने पेट-भर रोहटयाूँ खायीं और जठ ू े मूँु

भागी ु ई घर चली गयी।

ोरी मन-मारे बैठा था कक पंडडत दातादीन ने जाकर पुकारा।

िड़कने लगी। क्या कोई नयी ववपश्त्त आनेवाली कौड़े के सामने उनके सलए माूँची रख दी।

ोरी की छाती

ै । आकर उनके चरण छुये और

दातादीन ने बैठते ु ए अनुग्र भाव से क ा -- अबकी तो तुम् ारे खेत परती पड़ गये ोरी! तुमने गाूँव में ककसी से कुछ क ा न ीं, न ीं भोला की मजाल थी कक तुम् ारे द्वार से बैल खोल ले जाता! य ीं ल ास धगर जाती। मैं तुमसे जनेऊ

ाथ में लेकर क ता ू ूँ , ोरी, मैंने तम् ु ारे ऊपर डाूँड़ न लगाया था। ि नया मझ ु े ना क़ बदनाम करती किरती ै । य लाला पटे कवरी और णझंगुरीससं की कारस्तानी

ै । मैं तो लोगों के क ने से पंचायत में बैठ भर गया था। व

लोग

तो और कड़ा दं ड लगा र े थे। मैंने क -सन ु के कम कराया; मगर अब सब जने ससर पर

ाथ िरे रो र े

ैं। समझे थे , य ाूँ उन् ीं का राज

कक गाूँव का राजा कोई और इन्तज़ाम कर र े

ै। य

न जानते थे ,

ै । तो अब अपने खेतों की बोआई का क्या

ो?

ोरी ने करुण-कंठ से क ा -- क्या बताऊूँ म ाराज, परती र ें गे।

'परती र ें गे? य तो बड़ा अनथद ोगा! 'भगवान ण की य ी इच्छा ै , तो अपना क्या बस।' 'मेरे दे खते तम् ु ारे खेत कैसे परती र ें गे। कल मैं तम् ु ारी बोआई करा दूँ ग ू ा। अभी खेत में कुछ तरी ै । उपज दस हदन पीछे ोगी, इसके ससवा और कोई बात न ीं।

मारा तुम् ारा आिा साझा र े गा। इसमें न तुम् ें कोई टोटा

ै , न मुझ।े

मैंने आज बैठे-बैठे सोचा, तो धचत्त बड़ा दख ु ी ु आ कक जुते-जुताये खेत परती र े जाते ैं!' ोरी सोच में पड़ गया। चौमासे-भर इन खेतों में खाद डाली, जोता और आज केवल बोआई के सलए आिी फ़सल दे नी पड़ र ी र े

ैं; लेककन इससे तो अच्छा य ी

समलेगा, लगान तो नकल आयी िरी

ै । उसने य

दातादीन प्रसन्न

ै । उस पर ए सान कैसा जता

ै कक खेत परती पड़ जायूँ। और कुछ न

ी आयेगा। न ीं, अबकी बेबाक़ी न ु ई, तो बेदख़ली प्रस्ताव स्वीकार कर सलया।

ोकर बोले -- तो चलो, मैं अभी बीज तौल दूँ ,ू श्जसमें सबेरे का

झंझट न र े । रोटी तो खा ली

ै न?

ोरी ने लजाते ु ए आज घर में चूल् ा न जलने की कथा क ी। दातादीन ने मीठे उला ने के भाव से क ा -- अरे ! तम् ु ारे घर में चल् ू ा न ीं जला और तुमने मुझसे क ा भी न ीं! तुमसे मेरा जी कुढ़ता म सब एक

सब एक

ी तो

म तुम् ारे बैरी तो न ीं थे। इसी बात पर

ै । अरे भले आदमी, इसमें लाज-सरम की कौन बात

ै।

ैं। तुम सूद्र ु ए तो क्या, म बाम् न ु ए तो क्या, ैं तो ी घर के। हदन सबके बराबर न ीं जाते। कौन जाने , कल मेरे ी ऊपर

कोई संकट आ पड़े, तो मैं तम ु से अपना दःु ख न क ू ूँगा तो ककससे क ू ूँगा। अच्छा जो ु आ, चलो बेंग ी के साथ तुम् ें मन-दो-मन अनाज खाने को भी तौल दूँ ग ू ा। आि घंटे में

ोरी मन-भर जौ का टोकरा ससर पर रखे आया और घर की चक्की

चलने लगी। ि नया रोती थी और सा स के साथ जौ पीसती थी। भगवान ण उसे ककस कुकमद का य

दं ड दे र े

ैं!

दस ू रे हदन से बोआई शुरू ु ई। ोरी का सारा पररवार इस तर ु आ था, मानो सब कुछ अपना ी ै ।

काम में जुटा

कई हदन के बाद ससंचाई भी इसी तर

ु ई। दातादीन को सेत-मेत के मजूर समल गये। अब कभी-कभी उनका लड़का मातादीन भी घर में आने लगा। जवान आदमी था, बड़ा रससक और बातचीत का मीठा; दातादीन जो कुछ छीन-झपटकर लाते थे, व

उसे भाूँग-बूटी में उड़ाता था। एक चमाररन से उसकी आशनाई



गयी थी, इससलए अभी तक ब्या

न ु आ था। व र ती थी; पर सारा गाूँव य र स्य जानते ु ए भी कुछ न बोल सकता था। मारा िमद ै मारा भोजन। भोजन पववत्र र े किर बन कर अिमद से

मारे िमद पर कोई आूँच न ीं आ सकती। रोहटयाूँ ढाल

मारी रक्षा करती

ैं। अब साझे की खेती

को झु नया से बातचीत करने का अवसर समलने लगा। व जब घर में झु नया के ससवा और कोई न

ोने से मातादीन ऐसे दाूँव से आता,

ोता; कभी ककसी ब ाने से, कभी ककसी

ब ाने से। झु नया रूपवती न थी; लेककन जवान थी और उसकी चमाररन प्रेसमका से अच्छी थी। कुछ हदन श र में र

चुकी थी, प नना-ओढ़ना, बोलना-चालना

जानती थी और लज्जाशील भी थी, जो स्त्री का सबसे बड़ा आकषदण

ै । मातादीन

कभी-कभी उसके बच्चे को गोद में उठा लेता और प्यार करता। झु नया न ाल ो जाती थी।

एक हदन उसने झु नया से क ा -- तम ु क्या दे खकर गोबर के साथ आयीं झन ू ा? झु नया ने लजाते ु ए क ा -- भाग खींच लाया म ाराज, और क्या क ू ूँ। मातादीन दःु खी मन से बोला -- बड़ा बेवफ़ा आदमी छोड़कर न जाने क ाूँ मारा-मारा किर र ा मुझे शंका

ोती

ै । तम ु जैसी लच्छमी को

ै । चंचल सुभाव का आदमी

ै कक क ीं और न िूँस गया

ै , इसीसे

ो। ऐसे आदसमयों को तो गोली

मार दे ना चाह ए। आदमी का िरम

ै , श्जसकी बाूँ

पकड़े, उसे नभाये। य

क्या

कक एक आदमी की श्ज़ंदगी ख़राब कर दी और आप दस ू रा घर ताकने लगे। युवती रोने लगी। मातादीन ने इिर-उिर ताककर उसका तुम उसकी क्यों परवा करती ककस बात की कमी झु नया ने िीरे से

ाथ पकड़ सलया और समझाने लगा --

ो झूना, चला गया, चला जाने दो। तुम् ारे सलए

ै । रुपये-पैसे, ग ना-कपड़ा, जो चा ो मुझसे लो।

ाथ छुड़ा सलया और पीछे

टकर बोली -- सब तुम् ारी दया

ै म ाराज? मैं तो क ीं की न र ी। घर से भी गयी, य ाूँ से भी गयी। न माया

समली, न राम



ाथ आये। द ु नया का रं ग-ढं ग न जानती थी। इसकी मीठी-

मीठी बातें सन ु कर जाल में िूँस गई।

मातादीन ने गोबर की बुराई करनी शुरू की -- व

तो नरा लफ़ंगा

ै , घर का न

घाट का। जब दे खो, माूँ-बाप से लड़ाई। क ीं पैसा पा जाय, चट जुआ खेल डालेगा, चरस और गाूँजे में उसकी जान बसती थी, सो दों के साथ घम ू ना, ब ू -बेहटयों को छे ड़ना, य ी उसका काम था। थानेदार सा ब बदमाशी में उसका चालान करनेवाले थे, म लोगों ने ब ु त ख़ुशामद की तब जा कर छोड़ा। दस ू रों के खेत-खसल ान से अनाज उड़ा सलया करता था। कई बार तो ख़ुद उसी ने पकड़ा था; पर गाूँव-घर समझकर छोड़ हदया।

सोना ने बा र आ कर क ा -- भाभी, अम्माूँ ने क ा डाल दो, न ीं तो चोकर ब ु त नकलेगा। पंडडत ने जैसे बखार में पानी डाल हदया

ो।

मातादीन ने अपनी सफ़ाई दी -- मालूम

ोता

चौमासे में लकड़ी तक गीली ुआ व

ो जाती

ै अनाज नकालकर िूप में

ै , तेरे घर बरसात न ीं ु ई। ै , अनाज तो अनाज ी ै । य क ता

बा र चला गया।

सोना ने आकर उसका खेल बबगाड़ हदया।

सोना ने झु नया से पछ ू ा -- मातादीन क्या करने आये थे? झु नया ने माथा ससकोड़ कर क ा -- पगह या माूँग र े थे। मैंने क पगह या न ीं

हदया , य ाूँ

ै।

'य सब ब ाना ै । बड़ा ख़राब आदमी ै ।' 'मझ ु े तो बड़ा भला आदमी लगता ै । क्या ख़राबी ै उसमें ?' 'तुम न ीं जानती? सससलया चमाररन को रखे ु ए ै ।' 'तो इसी से ख़राब आदमी ो गया?' 'और का े से आदमी ख़राब क ा जाता ै ?' 'तुम् ारे भैया भी तो मुझे लाये ैं। व भी ख़राब आदमी ैं?' सोना ने इसका जवाब न दे कर क ा -- मेरे घर में किर कभी आयेगा, तो दत्ु कार दूँ ग ू ी।

'और जो उससे तुम् ारा ब्या

ो जाय?'

सोना लजा गयी -- तम ु तो भाभी, गाली दे ती

ो। क्यों, इसमें गाली की क्या बात

ै ?'

'मुझसे बोले, तो मूँु झुलस दूँ ।ू ' 'तो क्या तुम् ारा ब्या ककसी दे वता से ोगा। गाूँव में ऐसा सुंदर, सजीला जवान दस ू रा कौन

ै ?'

'तो तम ु चली जाओ उसके साथ, सससलया से लाख दजे अच्छी ो।' 'मैं क्यों चली जाऊूँ? मैं तो एक के साथ चली आयी। अच्छा ै या बुरा।' 'तो मैं भी श्जसके साथ ब्या

ोगा, उसके साथ चली जाऊूँगी, अच्छा

ो या बुरा।'

'और जो ककसी बूढ़े के साथ ब्या सोना

ो गया?'

ूँसी -- मैं उसके सलए नरम-नरम रोहटयाूँ पकाऊूँगी, उसकी दवाइयाूँ कूटूूँ-

छानूँूगी, उसे

ाथ पकड़कर उठाऊूँगी, जब मर जायगा, तो मूँु

ढाूँपकर रोऊूँगी।

'और जो ककसी जवान के साथ ु आ!' 'तब तुम् ारा ससर, ाूँ न ीं तो!' 'अच्छा बताओ, तुम् ें बूढ़ा अच्छा लगता ै , कक जवान?' 'जो अपने को चा े व ी जवान ै , न चा े व ी बूढ़ा ै ।' 'दै व करे , तम् ु ारा बया ककसी बढ़ ू े से ो जाय, तो दे खू,ूँ तम ु उसे कैसे चा ती ो। तब मनाओगी, ककसी तर य नगोड़ा मर जाय, तो ककसी जवान को लेकर बैठ जाऊूँ।'

'मझ ु े तो उस बढ़ ू े पर दया आये।' इस साल इिर एक शक्कर का समल खुल गया था। उसके काररंदे और दलाल गाूँव-गाूँव घूमकर ककसानों की खड़ी ऊख मोल ले लेते थे। व ी समल था, जो

समस्टर खन्ना ने खोला था। एक हदन उसका काररंदा इस गाूँव में भी आया। ककसानों ने जो उससे भाव-ताव ककया, तो मालम ू ु बनाने में कोई बचत ु आ, गड़ न ीं ै ; जब घर में ऊख पेरकर भी य ी दाम समलता ै , तो पेरने की मे नत क्यों उठायी जाय? सारा गाूँव खड़ी ऊख बेचने को तैयार भी समले, तो परवा

ो गया; अगर कुछ कम

न ीं। तत्काल तो समलेगा। ककसी को बैल लेना था, ककसी को

बाक़ी चक ु ाना था, कोई म ाजन से गला छुड़ाना चा ता था।

ोरी को बैलों की

गोईं लेनी थी। अबकी ऊख की पैदावार अच्छी न थी ; इससलए य

डर था कक

माल न पड़ेगा। और जब गुड़ के भाव समल की चीनी समलेगी, तो गुड़ लेगा कौन? सभी ने बयाने ले सलये।

ोरी को कम-से-कम सौ रुपये की आशा थी।

इसमें एक मामूली गोई आ जायगी; लेककन म ाजनों को क्या करे ! दातादीन, मूँगरू, दल ु ारी, ससंगुरीससं सभी तो प्राण खा र े थे। अगर म ाजनों को दे ने



लगेगा, तो सौ रुपए सद ू -भर को भी न ऊख के रुपए

ोंगे! कोई ऐसी जग ु त ु न सझ ू ती थी कक

ाथ आ जायूँ और ककसी को ख़बर न

ो। जब बैल घर आ

जायूँगे, तो कोई क्या कर लेगा? गाड़ी लदे गी, तो सारा गाूँव दे खेगा जो रुपए समलें गे, व

सबको मालूम

ो जायूँगे। सम्भव

ी, तौल पर

ै मूँगरू और दातादीन

मारे साथ-साथ र ें । इिर रुपए समले, उिर उन् ोंने गदद न पकड़ी। शाम को धगरिर ने पूछा -- तुम् ारी ऊख कब तक जायेगी ोरी ने झाूँसा हदया -- अभी तो कुछ ठीक न ीं

जाओगे?

ोरी काका? ै भाई, तम ु कब तक ले

धगरिर ने भी झाूँसा हदया -- अभी तो मेरा भी कुछ ठीक न ीं लोग भी इसी तर

ै काका! और

की उड़नघाइयाूँ बताते थे , ककसी को ककसी पर ववकवास न था।

णझंगुरीससं के सभी रर नयाूँ थे, और सबकी य ी इच्छा थी कक णझंगुरीससं के ाथ रुपए न पड़ने पायें, न ीं व

सबका सब

ज़म कर जायगा। और जब दस ू रे

हदन असामी किर रुपये माूँगने जायगा, तो नया काग़ज़, नया नज़राना, नई त रीर।

दस ू रे हदन शोभा आकर बोला -- दादा कोई ऐसा उपाय करो कक णझंगुरी को

ै ज़ा

ो जाय। ऐसा धगरे कक किर न उठे ।

ोरी ने मुस्कराकर क ा -- क्यों, उसके बाल-बच्चे न ीं

ैं ?

'उसके बाल-बच्चों को दे खें कक अपने बाल-बच्चों को दे खें? व तो दो-दो मे ररयों को आराम से रखता

ै , य ाूँ तो एक को रूखी रोटी भी मयस्सर न ीं, सारी जमा

ले लेगा। एक पैसा भी घर न लाने दे गा।'

'मेरी तो ालत और भी ख़राब ै भाई, अगर रुपए ाथ से नकल गये , तो तबा ो जाऊूँगा। गोईं के बबना तो काम न चलेगा। '

'अभी तो दो-तीन हदन ऊख ढोते लगें गे। ज्यों ी सारी ऊख प ु ूँच जाय, जमादार से क ें कक भैया कुछ ले ले, मगर ऊख चटपट तौल दे , दाम पीछे दे ना। इिर णझंगुरी से क

दें गे, अभी रुपए न ीं समले।'

ोरी ने ववचार करके क ा -- णझंगरु ीससं

मसे-तम ु से कई गन ु ा चतरु

जाकर मुनीम से समलेगा और उसीसे रुपए ले लेगा। श्जस खन्ना बाबू का समल एक

ैं। शोभा नराश

ै सोभा!

म-तुम ताकते र

ै , उन् ीं खन्ना बाबू की म ाजनी कोठी भी

जायूँगे। ै । दोनों

ोकर बोला -- न जाने इन म ाजनों से भी कभी गला

छूटे गा कक न ीं। ोरी बोला -- इस जनम में तो कोई आशा न ीं

ै भाई!

म राज न ीं चा ते ,

भोग-ववलास न ीं चा ते, ख़ाली मोटा-झोटा प नना, और मोटा-झोटा खाना और मरजाद के साथ र ना चा ते

ैं। व

भी न ीं सिता।

शोभा ने िूतत द ा के साथ क ा -- मैं तो दादा, इन सबों को अबकी चकमा दूँ ग ू ा। जमादार को कुछ दे -हदलाकर इस बात पर राज़ी कर लूँ ग ू ा कक रुपए के सलए

में

ख़ूब दौड़ायें। णझंगुरी क ाूँ तक दौड़ेंगे। ोरी ने

ूँसकर क ा -- य

णझंगुरीससं के उतना

सब कुछ न

ाथ-पाूँव जोड़ो।

ी और जकड़ते जाओगे।

ोगा भैया! कुशल इसी में

म जाल में िूँसे

ुए

ैं। श्जतना

ै कक ी िड़िड़ाओगे ,

'तुम तो दादा, बूढ़ों की-सी बातें कर र े ो। कटघरे में िूँसे बैठे र ना तो कायरता लगाना

ै । िन्दा और जकड़ जाय बला से; पर गला छुड़ाने के सलए ज़ोर तो

ी पड़ेगा। य ी तो

ोगा णझंगुरी घर-द्वार नीलाम करा लें गे; करा लें

नीलाम! मैं तो चा ता ू ूँ कक में कोई रुपए न दे , में भूखों मरने दे , लातें खाने दे , एक पैसा भी उिार न दे ; लेककन पैसावाले उिार न दें तो सद ू क ाूँ से पायें। एक

मारे ऊपर दावा करता

ै , तो दस ू रा

दे कर अपने जाल में िूँसा लेता हदन णझंगुरी क ीं चला गया

में कुछ कम सूद पर रुपए उिार

ै । मैं तो उसी हदन रुपये लेने जाऊूँगा, श्जस

ोगा।

ोरी का मन भी ववचसलत ु आ --

ाूँ, य

ठीक

ै।

'ऊख तल ु वा दें गे। रुपए दाूँव-घात दे खकर ले आयूँगे।' 'बस-बस, य ी चाल चलो।' दस ू रे हदन प्रातःकाल गाूँव के कई आदसमयों ने ऊख काटनी शुरू की।

ोरी भी

अपने खेत में गूँड़ासा लेकर प ु ूँचा। उिर से शोभा भी उसकी मदद को आ गया। पु नया, झु नया, ि नया, सोना सभी खेत में जा प ु ूँचीं। कोई ऊख काटता था, कोई

छीलता था, कोई पूले बाूँिता था। म ाजनों ने जो ऊख कटते दे खी, तो पेट में चू े दौड़े। एक तरफ़ से दल ु ारी दौड़ी, दस ू री तरफ़ से मूँगरू सा , तीसरी ओर से मातादीन और पटे कवरी और णझंगुरी के वपयादे । दल ु ारी

ाथ-पाूँव में मोटे -मोटे चाूँदी के कड़े प ने, कानों में सोने का झूमक, आूँखों

में काजल लगाये, बढ़ ू े यौवन को रूँ गे-रूँ गाये आकर बोली -- प ले मेरे रुपये दे दो तब ऊख काटने दूँ ग ू ी। मैं श्जतना

ी ग़म खाती ू ूँ , उतना ी तुम शेर दो साल से एक िेला सद ू न ीं हदया, पचास तो मेरे सूद के ोते ैं।

ोते

ोरी ने घ घयाकर क ा -- भाभी, ऊख काट लेने दो, इनके रुपये समलते

ो।

ैं , तो

श्जतना

ो सकेगा, तम ु को भी दूँ ग ू ा। न गाूँव छोड़कर भागा जाता ू ूँ, न इतनी जल्द मौत ी आयी जाती ै । खेत में खड़ी ऊख तो रुपये न दे गी ? दल ु ारी ने उसके

ाथ से गूँड़ासा छीनकर क ा -- नीयत इतनी ख़राब

ो गयी



तम ु लोगों की, तभी तो बरक्कत न ीं

ोती। आज पाूँच साल ु ए, ोरी ने दल ु ारी से तीस रुपये सलये थे, तीन साल में उसके सौ रुपये ो गये , तब स्टाम्प सलखा गया। दो साल में उस पर पचास रुपया सूद चढ़ गया था। ोरी बोला -- स ु आइन, नीयत तो कभी ख़राब न ीं की, और भगवान ण चा ें गे, तो पाई-पाई चुका दूँ ग ू ा। ाूँ, आजकल तंग ो गया ू ूँ , जो चा े क लो। स ु आइन को जाते दे र न ीं ु ई कक मूँगरू सा प ु ूँच।े काला रं ग, तोंद कमर के नीचे लटकती ु ई, दो बड़े-बड़े दाूँत सामने जैसे काट खाने को नकले ु ए, ससर पर टोपी, गले में चादर, उम्र अभी पचास से ज़्यादा न ीं; पर लाठी के स ारे चलते थे। गहठया का मरज़ गये और

ो गया था। खाूँसी भी आती थी। लाठी टे ककर खड़े

ोरी को डाूँट बतायी -- प ले

मारे रुपये दे दो



ोरी, तब ऊख काटो।

मने रुपये उिार हदये थे, ख़ैरात न ीं थे। तीन-तीन साल ब्याज; मगर य

न समझना कक तुम मेरे रुपये

मुदेर ण से भी वसूल कर लूँ ग ू ा।

शोभा मसख़रा था। बोला -- तब का े को घबड़ाते

ो गये, न सद ू न

ज़म कर जाओगे। मैं तुम् ारे

ो सा जी , इनके मद ु े र ण ी से

वसूल कर लेना। न ीं, एक दो साल के आगे पीछे दोनों भगवान ण के सामने अपना ह साब चुका लेना।

ी सरग में प ु ूँचोगे। व ीं

मूँगरू ने शोभा को ब ु त बरु ा-भला क ा -- जमामार, बेईमान इत्याहद। लेने की बेर तो दम ु ह लाते ो, जब दे ने की बारी आती ै , तो गुराते ो। घर बबकवा लूँ ग ू ा; बैल बधिये नीलाम करा लूँ ग ू ा।

शोभा ने किर छे ड़ा -- अच्छा, ईमान से बताओ सा , ककतने रुपए हदये थे, श्जसके अब तीन सौ रुपये

ो गये

ैं ?

'जब तुम साल के साल सूद न दोगे, तो आप ी बढ़ें गे।' 'प ले-प ल ककतने रुपये हदये थे तुमने? पचास ी तो।' 'ककतने हदन ु ए, य भी तो दे ख।' 'पाूँच-छः साल ु ए ोंगे?' 'दस साल ो गये परू े , ग्यार वाूँ जा र ा ै ।' 'पचास रुपये के तीन सौ रुपए लेते तुम् ें ज़रा भी सरम न ीं आती!' 'सरम कैसी, रुपये हदये ैं कक ख़ैरात माूँगते ैं।' ोरी ने इन् ें भी धचरौरी-बबनती करके बबदा ककया। दातादीन ने

ोरी के साझे में

खेती की थी। बीज दे कर आिी फ़सल ले लें गे। इस वक़्त कुछ छे ड़-छाड़ करना नी त-ववरुि था। णझंगरु ीससं ने समल के मैनेजर से प ले

ी सब कुछ क -सन ु

रखा था। उनके प्यादे गाडड़यों पर ऊख लदवाकर नाव पर प ु ूँचा र े थे। नदी गाूँव से आि मील पर थी। एक गाड़ी हदन-भर में सात-आठ चक्कर कर लेती

थी। और नाव एक खेवे में पचास गाडड़यों का बोझ लाद लेती थी। इस तर ककफ़ायत पड़ती थी। इस सुवविा का इंतज़ाम करके णझंगुरीससं ने सारे इलाक़े को ए सान से दबा हदया था। तौल शुरू पर आसन जमा सलया।

ोते

ी णझंगुरीससं ने समल के िाटक

र-एक की ऊख तौलाते थे, दाम का पुरज़ा लेते थे,

ख़ज़ांची से रुपए वसूल करते थे और अपना पावना काटकर असामी को दे दे ते थे। असामी ककतना

ी रोये, चीख़े, ककसी की न सन ु ते थे। मासलक का य ी ु क्म था। उनका क्या बस! ोरी को एक सौ बीस रुपए समले। उसमें से णझंगुरीससं ने अपने पूरे रुपये सूद समेत काटकर कोई पचीस रुपये

ोरी के

ोरी ने रुपये की ओर उदासीन भाव से दे खकर क ा -- य ठाकुर, य

भी तुम् ीं ले लो। मेरे सलए मजूरी ब ु त समलेगी।

वाले ककये।

लेकर मैं क्या करूूँगा

णझंगुरी ने पचीसों रुपये ज़मीन पर िेंककर क ा -- लो या िेंक दो, तुम् ारी

ख़श ु ी। तम् ु ारे कारन मासलक की घड़ ु ककयाूँ खायीं और अभी राय सा ब ससर पर सवार

ैं कक डाूँड़ के रुपये अदा करो। तुम् ारी ग़रीबी पर दया करके इतने रुपये

हदये दे ता ू ूँ, न ीं एक िेला भी न दे ता। अगर राय सा ब ने सख़्ती की तो उल्टे और घर से दे ने पड़ेंगे। ोरी ने िीरे से रुपये उठा सलये और बा र नकला कक नोखेराम ने ललकारा। ोरी ने जाकर पचीसों रुपये उनके

ाथ पर रख हदये , और बबना कुछ क े जल्दी

से भाग गया। उसका ससर चक्कर खा र ा था। शोभा को इतने

ी रुपये समले थे। व

बा र नकला, तो पटे कवरी ने घेरा। शोभा

बदल पड़ा। बोला -- मेरे पास रुपये न ीं पटे कवरी ने गमद

ैं; तुम् ें जो कुछ करना

ोकर क ा -- ऊख बेची

ो, कर लो।

ै कक न ीं?

' ाूँ, बेची ै ।' 'तुम् ारा य ी वादा तो था कक ऊख बेचकर रुपया दूँ ग ू ा?'

' ाूँ, था तो।' 'किर क्यों न ीं दे त।े और सब लोगों को हदये ैं कक न ीं ?' ' ाूँ, हदये ैं।' 'तो मुझे क्यों न ीं दे ते?' 'मेरे पास अब जो कुछ बचा ै, व बाल-बच्चों के सलए ै ।' पटे कवरी ने बबगड़कर क ा -- तुम रुपये दोगे शोभा, और ी।

ाथ जोड़कर और आज

ाूँ, अभी श्जतना चा ो, ब क लो। एक रपट में जाओगे छः म ीने को, परू े छः

म ीने को, न एक हदन बेस न एक हदन कम। य

जो नत्य जुआ खेलते

ो, व

एक रपट में नकल जायगा। मैं ज़मींदार या म ाजन का नौकर न ीं ू ूँ , सरकार ब ादरु का नौकर ू ूँ, श्जसका द ु नया भर में राज ै और जो तुम् ारे म ाजन और ज़मींदार दोनों का मासलक

ै।

पटे कवरी लाला आगे बढ़ गये। शोभा और धिक्कार ने उन् ें संज्ना ीन कर हदया तब

ो।

ोरी कुछ दरू चुपचाप चले। मानो इस

ोरी ने क ा -- शोभा, इसके रुपये दे दो। समझ लो, ऊख में आग लग गयी

थी। मैंने भी य ी सोचकर, मन को समझाया शोभा ने आ त कंठ से क ा --

ै।

ाूँ, दे दूँ ग ू ा दादा! न दूँ ग ू ा तो जाऊूँगा क ाूँ?

सामने से धगरिर ताड़ी वपये झूमता चला आ र ा था। दोनों को दे खकर बोला -- णझंगरु रया ने सारे का सारा ले सलया को भी एक पैसा न छोड़ा।

त्यारा क ीं का। रोया धगड़धगड़ाया ; पर इस पापी को

दया न आयी। शोभा ने क ा -- ताड़ी तो वपये पैसा भी न छोड़ा! धगरिर ने पेट हदखाकर क ा -- साूँझ गयी

ोरी काका! चबैना

ुए

ो, उस पर क ते

ो, एक

ो गयी, जो पानी की बूँद ू भी कंठ तले

ो, तो गो-मांस बराबर। एक इकन्नी मूँु

में दबा ली थी। उसकी ताड़ी पी

ली। सोचा, साल-भर पसीना गारा

ै , तो एक हदन ताड़ी तो पी लूँ ू; मगर सच

क ता ू ूँ , नसा न ीं ै । एक आने में क्या नसा ोगा। ाूँ, झूम र ा ू ूँ श्जसमें लोग समझें ख़ूब वपये ु ए ै । बड़ा अच्छा ु आ काका, बेबाक़ी ो गयी। बीस सलये, उसके एक सौ साठ भरे , कुछ द ै ! ोरी घर प ु ूँचा, तो रूपा पानी लेकर दौड़ी, सोना धचलम भर लायी, ि नया ने चबेना और नमक लाकर रख हदया और सभी आशा भरी आूँखों से उसकी ओर ताकने लगीं। झु नया भी चौखट पर आ खड़ी ु ई थी। ोरी उदास बैठा था। कैसे मूँु - ाथ िोये, कैसे चबेना खाये। ऐसा लश्ज्जत और ग्ला नत था , मानो त्या करके आया

ो।

ि नया ने पूछा -- ककतने की तौल ु ई?

'एक सौ बीस समले; पर सब व ीं लुट गये, िेला भी न बचा।' ि नया ससर से पाूँव तक भस्म नोच ले।

ो उठी। मन में ऐसा उद्वेग उठा कक अपना मूँु

बोली -- तुम जैसा घामड़ आदमी भगवान ण ने क्यों रचा, क ीं समलते तो उनसे पूछती। तुम् ारे साथ सारी श्ज़न्दगी तलख़

ो गयी, भगवान ण मौत भी न ीं दे ते

कक जंजाल से जान छूटे । उठाकर सारे रुपए ब नोईयों को दे हदये। अब और कौन आमदनी

ै , श्जससे गोई आयेगी।

ल में क्या मझ ु े जोतोगे, या आप

जुतोगे? मैं क ती ू ूँ , तुम बूढ़े ु ए, तुम् ें इतनी अक्ल भी न ीं आई कक गोईं-भर के रुपए तो नकाल लेत!े कोई तुम् ारे ाथ से छीन थोड़े लेता। पूस की य ठं ड और ककसी की दे

पर लत्ता न ीं। ले जाओ सबको नदी में डुबा दो। सससक-

सससक कर मरने से तो एक हदन मर जाना किर अच्छा

ै । कब तक पुआल में

घस ु कर रात काटें गे और पआ ु ल में घस ु भी लें , तो पआ ु ल खाकर र ा तो न जायगा! तुम् ारी इच्छा य

क ते-क ते व

ो घास

ी खाओ, मसे तो घास न खायी जायगी।

मुस्करा पड़ी। इतनी दे र में उसकी समझ में य

लगी थी कक म ाजन जब ससर पर सवार और म ाजन जानता बचा सकता

ै!

ो जाय, और अपने

ो कक इसके पास रुपए

बात आने

ाथ में रुपए

ैं , तो असामी कैसे अपनी जान

ों

ोरी ससर नीचा ककये अपने भाग्य को रो र ा था। ि नया का मुस्कराना उसे न

हदखायी हदया।

बोला -- मजूरी तो समलेगी। मजूरी करके खायूँगे। ि नया ने पूछा -- क ाूँ

ै इस गाूँव में मजूरी? और कौन मूँु

करोगे? म तो न ीं क लाते!

लेकर मजूरी

ोरी ने धचलम के कई कश लगाकर क ा -- मजूरी करना कोई पाप न ीं

मजूर बन जाय तो ककसान

ो जाता

ै । मजरू ी करना भाग्य में न

ै । ककसान बबगड़ जाय तो मजूर

ोता तो य

ै।

ो जाता

सब बबपत क्यों आती? क्यों गाय

मरती? क्यों लड़का नालायक़ नकल जाता? ि नया ने ब ू और बेहटयों की ओर दे खकर क ा -- तुम सब की सब क्यों घेरे खड़ी ो, जाकर अपना-अपना काम दे खो। व और ैं जो ाट-बाज़ार से आते ैं , तो बाल-बच्चों के सलए दो-चार पैसे की कोई चीज़ सलये आते लोभ लग र ा

ोगा कक रुपए तुड़ायें कैसे ? एक कम न

कमाई में बरक्कत न ीं

ोती। जो ख़रच करते

सकें, न प न सकें, उन् ें रुपए समले ोरी ने णखलणखलाकर पूछा -- क ाूँ

ैं। य ाूँ तो य

ो जायगा; इसी से इनकी

ैं , उन् ें समलता

ै । जो न खा

ी क्यों? ज़मीन में गाड़ने के सलए? ै व

गाड़ी ु ई थाती?

'ज ाूँ रखी ै , व ीं ोगी। रोना तो य ी ै कक य जानते ु ए भी पैसों के सलए मरते

ो! चार पैसे की कोई चीज़ लाकर बच्चों के

न पड़ जाते। णझंगुरी से तुम क

दे ते कक एक रुपया मुझे दे दो, न ीं मैं तुम् ें

एक पैसा न दूँ ग ू ा, जाकर अदालत में लेना, तो व ोरी लश्ज्जत

ाथ पर रख दे ते तो पानी में

ो गया। अगर व

दे ता, तो नोखे क्या कर लेत? े ब ुत मगर अब तो चूक ो गयी!

ज़रूर दे दे ता।'

झल्लाकर पच्चीसों रुपये नोखेराम को न दे ोता बक़ाया पर दो-चार आना सूद ले लेता;

झु नया ने भीतर जाकर सोना से क ा -- मझ ु े तो दादा पर बड़ी दया आती

ै।

बेचारे हदन-भर के थके-माूँदे घर आये , तो अम्माूँ कोसने लगीं। म ाजन गला दबाये था, तो क्या करते बेचारे !

'तो बैल क ाूँ से आयेंगे?' 'म ाजन अपने रुपए चा ता ै । उसे तुम् ारे घर के दख ु ड़ों से क्या मतलब?' 'अम्माूँ व ाूँ ोतीं, तो म ाजन को मज़ा चखा दे तीं। अभागा रोकर र जाता। ' झु नया ने हदल्लगी की -- तो य ाूँ रुपये की कौन कमी ूँसकर बोल दो, दे खो सारे रुपए छोड़ दे ता

सारा दख ु -दसलद्दर दरू सोना ने दोनों

ो जाय।

ाथों से उसका मूँु

ै । तुम म ाजन से ज़रा

ै कक न ीं। सच क ती ू ूँ , दादा का

दबाकर क ा -- बस, चुप

ी र ना, न ीं क े

दे ती ू ूँ। अभी जाकर अम्माूँ से मातादीन की सारी क़लई खोल दूँ ू तो रोने लगो। झु नया ने पूछा -- क्या क व

दोगी अम्माूँ से? क ने को कोई बात भी

ककसी ब ाने से घर में आ जाते

ैं , तो क्या क

मुझसे कुछ ले तो न ीं जाते। कुछ अपना बातों के व

ो। जब

दूँ ू कक नकल जाओ, किर

ी दे जाते

ैं। ससवाय मीठी-मीठी

झु नया से कुछ न ीं पा सकते! और अपनी मीठी बातों को म ूँगे

दामों बेचना भी मुझे आता

ै । मैं ऐसी अनाड़ी न ीं ू ूँ कक ककसी के झाूँसे में आ ाूँ, जब जान जाऊूँगी कक तुम् ारे भैया ने व ाूँ ककसी को रख सलया ै , तब

जाऊूँ।

की न ीं चलाती। तब मेरे ऊपर ककसी का कोई बंिन न र े गा। अभी तो मुझे ववकवास

ै कक व

र ा

ूँसने-बोलने की बात न्यारी

ै।

मेरे

एक से दो का ु आ, व शोभा ने आकर

ैं और मेरे

ी कारन उन् ें गली-गली ठोकर खाना पड़ ै , पर मैं उनसे ववकवासघात न करूूँगी। जो

ककसी का न ीं र ता।

ोरी को पुकारा और पटे कवरी के रुपए उसके

ाथ में रखकर

बोला -- भैया, तम ु जाकर ये रुपए लाला को दे दो। मझ ु े उस घड़ी न जाने क्या ो गया था।

ोरी रुपए लेकर उठा

ी था कक शंख की ध्व न कानों में आयी। गाूँव के उस

ससरे पर ध्यानससं नाम के एक ठाकुर र ते थे। पल्टन में नौकर थे और कई

हदन ु ए, दस साल के बाद रजा लेकर आये थे। बगदाद, अदन, ससंगापुर, बमाद -चारों तरफ़ घूम चुके थे। अब ब्या करने की िुन में थे। इसीसलए पूजा-पाठ करके ब्राह्मणों को प्रसन्न रखना चा ते थे। ोरी ने क ा -- जान पड़ता शोभा बोला --

ै सातों अध्याय पूरे

ाूँ, जान तो पड़ता

ो गये। आरती

ो र ी

ै।

ै , चलो आरती ले लो।

ोरी ने धचं तत भाव से क ा -- तुम जाओ, मैं थोड़ी दे र में आता ू ूँ। ध्यानससं श्जस हदन आये थे, सब के घर सेर-सेर भर समठाई बैना भेजी थी। ोरी से जब कभी रास्ते समल जाते, कुशल पछ ू ते। उनकी कथा में जाकर आरती में कुछ न दे ना अपमान की बात थी। आरती का थाल उन् ीं के ोरी कैसे ख़ाली जाये

ाथ में

ाथ आरती ले लेगा! इससे तो क ीं अच्छा

ी न ीं। इतने आदसमयों में उन् ें क्या याद आयेगी कक

कोई रश्जस्टर सलये तो बैठा न ीं

ै कक व

कथा में

ोरी न ीं आया।

ै कक कौन आया , कौन न ीं आया। व

खाट पर लेट र ा। मगर उसका हृदय मसोस-मसोस कर र पास एक पैसा भी न ीं

ोगा। उनके सामने

जाकर

जाता था। उसके

ै ! ताूँबे का एक पैसा! आरती के पुडय और मा ात्म्य का

उसे बबलकुल ध्यान न था। बात थी केवल व्यव ार की। ठाकुरजी की आरती तो व

केवल श्रिा की भें ट दे कर ले सकता था; लेककन मयाददा कैसे तोड़े, सबकी

आूँखों में

े ठा कैसे बने! स सा व

उठ बैठा। क्यों मयाददा की ग़ल ु ामी करे ।

मयाददा के पीछे आरती का पड ु य क्यों छोड़े। लोग ै । भगवान ण उसे कुकमद से बचाये रखें , और व

घर की ओर चल पड़ा। ***

ूँसेंगे, ूँस लें । उसे परवा न ीं

कुछ न ीं चा ता। व

ठाकुर के

18 खन्ना और गोववंदी में न ीं पटती। क्यों न ीं पटती, य ज्यो तष के ह साब से उनके ग्र ों में कोई ववरोि

बताना कहठन

ै , ालाूँकक वववा

ै।

के समय ग्र

और नक्षत्र ख़ब ू समला सलये गये थे। काम-शास्त्र के ह साब से इस अनबन का और कोई र स्य

ो सकता

सकते

ैं।

रससक

ैं, समलनसार

पुरुषों में

म तो इतना

ै , और मनोववज्ञान वाले कुछ और

ी जानते

ैं, रूपवान

ैं कक उनमें न ीं पटती। खन्ना िनवान

ैं अच्छे ख़ासे पढ़े -सलखे

ैं। गोववंदी अप्सरा न

ैं और नगर के ववसशष्ट

ै ; गे ु ूँआ रं ग लज्जाशील ैं , कपोलों पर लाली न ो पर

ै , गात कोमल, अंग-ववन्यास, सुडौल, गोल बाूँ ें , मुख पर एक प्रकार की

अरुधच, श्जसमें कुछ गवद की झलक भी को

ैं ,

ो, पर रूपवती अवकय

आूँखें जो एक बार सामने उठकर किर झक ु जाती धचकनापन

ी कारण खोज

े य समझती

ै , मानो संसार के व्यव ार और व्यापार

ै।

खन्ना के पास ववलास के ऊपरी सािनों की कमी न ीं , अव्वल दरजे का बंगला ै , अव्वल दरजे का फ़नीचर, अव्वल दरजे की कार और अपार िन; पर गोववंदी की दृश्ष्ट में जैसे इन चीज़ों का कोई मूल्य न ीं। इस खारे सागर में व पड़ी र ती

ै । बच्चों का लालन-पालन और ग ृ स्थी के छोटे -मोटे काम

सलए सब कुछ

ैं। व

इनमें इतनी व्यस्त र ती

ध्यान न ीं जाता। आकषदण क्या वस्तु ओर उसने कभी ववचार न ीं ककया। व

प्यासी ी उसके

ै कक भोग की ओर उसका

ै और कैसे उत्पन्न

ो सकता

पुरुष का णखलौना न ीं

ै , इसकी

ै , न उसके भोग

की वस्तु, किर क्यों आकषदक बनने की चेष्टा करे ; अगर पुरुष उसका असली

सौंदयद दे खने के सलए आूँखें न ीं रखता , कासम नयों के पीछे मारा-मारा किरता तो व

उसका दभ ु ादग्य

ै। व

उसी प्रेम और नष्ठा से प त की सेवा ककये जाती

ै जैसे द्वेष और मो -जैसी भावनाओं को उसने जीत सलया संपश्त्त तो जैसे उसकी आत्मा को कुचलती र ती से मुक्त

दे खती र ती

ककतनी सुखी र

ै । और य

ै । अपने सरल और

सकती थी, इसका व

ै । तब क्यों मालती उसके मागद में आकर बािक

वेकयाओं के मुजरे

ोते, क्यों य

संदे

अपार

ै । इन आडंबरों और पाखंडों

ोने के सलए उसका मन सदै व ललचाया करता

स्वाभाववक जीवन में व



नत्य स्वप्न ो जाती! क्यों

और बनावट और अशां त उसके जीवन-

पथ में काूँटा बनती! ब ु त प ले जब व बासलका-ववद्यालय में पढ़ती थी, उसे कववता का रोग लग गया था, ज ाूँ दख ु और वेदना ी जीवन का तत्व ै ,

संपश्त्त और ववलास तो केवल इससलए

ै कक उसकी

मनुष्य को असत्य और अशां त की ओर ले जाता

ोली जलायी जाय , जो

ै। व

अब कभी-कभी कववता

रचती थी; लेककन सुनाये ककसे? उसकी कववता केवल मन की तरं ग या भावना की उड़ान न थी, उसके एक-एक शब्द में उसके जीवन की व्यथा और उसके आूँसुओं की ठं डी जलन भरी लालसा, ज ाूँ व

ोती थी -- ककसी ऐसे प्रदे श में जा बसने की

पाखंडों और वासनाओं से दरू अपनी शांत कुहटया में सरल

आनंद का उपभोग करे ।

खन्ना उसकी कववताएूँ दे खते, तो उनका मज़ाक़ उड़ाते और कभी-कभी िाड़कर िेंक दे त।े और संपश्त्त की य

दीवार हदन-हदन ऊूँची

ोती जाती थी और दं प त

को एक दस ू रे से दरू और पथ ृ क करती जाती थी। खन्ना अपने ग्रा कों के साथ श्जतना

ी मीठा और नम्र था, घर में उतना

गोववंदी को अपशब्द क

ी कटु और उद्दं ड। अक्सर क्रोि में

बैठता, सशष्टता उसके सलए द ु नया को ठगने का एक

सािन थी, मन का संस्कार न ीं। ऐसे अवसरों पर गोववंदी अपने एकांत कमरें में जा बैठती और रात की रात रोया करती और खन्ना दीवानखाने में मज ु रे सन ु ता या क्लब में जाकर शराबें उड़ाता। लेककन य सवदस्व थे। व

दसलत और अपमा नत

सब कुछ

ोने पर भी खन्ना उसके

ोकर भी खन्ना की लौंडी थी। उनसे

लड़ेगी, जलेगी, रोयेगी; पर र े गी उन् ीं की। उनसे पथ ृ क जीवन की व

कोई

आज समस्टर खन्ना ककसी बुरे आदमी का मूँु

ी पत्र

कल्पना

ी न कर सकती थी।

दे खकर उठे थे। सबेरे

खोला, तो उनके कई स्टाकों का दर धगर गया था, श्जसमें उन् ें कई ान

ोती थी। शक्कर समल के मज़दरू ों ने

ज़ार की

ड़ताल कर दी थी और दं गा-फ़साद

करने पर अमादा थे। नफ़े की आशा से चाूँदी ख़रीदी थी ; मगर उसका दर आज और भी ज़्यादा धगर गया था। राय सा ब से जो सौदा

ो र ा था और श्जसमें

उन् ें ख़ासे नफ़े की आशा थी, व

कुछ हदनों के सलए टलता ु आ जान पड़ता था। किर रात को ब ु त पी जाने के कारण इस वक़्त ससर भारी था और दे टूट र ी थी। इिर शोफ़र ने कार के इंजन में कुछ ख़राबी पैदा

ो जाने की बात

क ी थी और ला ौर में उनके बैंक पर एक दीवानी मक़ ु दमा दायर समाचार भी समला था।

ो जाने का

बैठे मन में झूँझ ु ला र े थे कक उसी वक़्त गोववंदी ने आकर क ा -- भीष्म का ज्वर आज भी न ीं उतरा, ककसी डाक्टर को बुला दो। भीष्म उनका सबसे छोटा पुत्र था, और जन्म से

ी दब द ु ल

रोज़ एक-न-एक सशकायत बनी र ती थी। आज खाूँसी पसली चल र ी

ै , कभी

रे -पीले दस्त आ र े

ोने के कारण उसे

ै , तो कल बख़ ु ार; कभी

ैं। दस म ीने का

पर लगता था पाूँच-छः म ीने का। खन्ना की िारणा

ो गया था!

ो गयी थी कक य

लड़का

बचेगा न ीं; इससलए उसकी ओर से उदासीन र ते थे ; पर गोववंदी इसी कारण उसे और सब बच्चों से ज़्यादा चा ती थी। खन्ना ने वपता के स्ने

का भाव हदखाते ु ए क ा -- बच्चों को दवाओं का आदी बना दे ना ठीक न ीं, और तुम् ें दवा वपलाने का मरज़ ै । ज़रा कुछ ु आ और डाक्टर बुलाओ। एक रोज़ और दे खो, आज तीसरा

ी हदन तो

ै । शायद आज

आप- ी-आप उतर जाय। गोववंदी ने आग्र गयी।

ककया -- तीन हदन से न ीं उतरा। घरे लू दवाएूँ करके

खन्ना ने पूछा -- अच्छी बात

ार

ै बुला दे ता ू ूँ, ककसे बुलाऊूँ?

'बुला लो डाक्टर नाग को।' 'अच्छी बात ै , उन् ीं को बुलाता ू ूँ, मगर य समझ लो कक नाम ो जाने से ी कोई अच्छा डाक्टर न ीं ो जाता। नाग फ़ीस चा े श्जतनी ले लें , उनकी दवा से ककसी को अच्छा ैं।'

ोते न ीं दे खा। व

तो मरीज़ों को स्वगद भेजने के सलए मश ू र

'तो श्जसे चा ो बुला लो, मैंने तो नाग को इससलए क ा था कक व कई बार आ चुके

ैं।'

'समस मालती को क्यों न बुला लूँ ू? फ़ीस भी कम और बच्चों का ाल लेडी डाक्टर जैसा समझेगी, कोई मदद डाक्टर न ीं समझ सकता।'

गोववंदी ने जलकर क ा -- मैं समस मालती को डाक्टर न ीं समझती। खन्ना ने भी तेज़ आूँखों से दे खकर क ा -- तो व

इंगलैंड घास खोदने गयी थी,

और

ै; य

ज़ारों आदसमयों को आज जीवन-दान दे र ी

सब कुछ न ीं

ै?

' ोगा, मुझे उन पर भरोसा न ीं ै । व मरदों के हदल का इलाज कर लें । और ककसी की दवा उनके पास न ीं

ै।'

बस ठन गयी। खन्ना गरजने लगे। गोववंदी बरसने लगी। उनके बीच में मालती का नाम आ जाना मानो लड़ाई का अश्ल्टमेटम था। खन्ना ने सारे काग़ज़ों को ज़मीन पर िेंककर क ा -- तम् ु ारे साथ श्ज़न्दगी तलख़

ो गयी।

गोववंदी ने नुकीले स्वर में क ा -- तो मालती से ब्या बबगड़ा

कर लो न! अभी क्या

ै , अगर व ाूँ दाल गले।

'तुम मुझे क्या समझती ो?' 'य ी कक मालती तम ु -जैसों को अपना ग़ल ु ाम बनाकर रखना चा ती ै , प त बनाकर न ीं।' 'तुम् ारी नगा में मैं इतना ज़लील ू ूँ?' और उन् ींने इसके ववरुि प्रमाण दे ने शुरू ककया। मालती श्जतना उनका आदर करती मूँु

ै , उतना शायद

ी ककसी का करती

ो। राय सा ब और राजा सा ब को

तक न ीं लगाती; लेककन उनसे एक हदन भी मुलाक़ात न

करती

ो, तो सशकायत

ै ...।

गोववंदी ने इन प्रमाणों को एक िूूँक में उड़ा हदया -- इसीसलए कक व सबसे बड़ा आूँखों का अंिा समझती बना सकती।

तुम् ें

ै , दस ू रों को इतना आसानी से बेवक़ूफ़ न ीं

खन्ना ने डींग मारी -- व

चा ें तो आज मालती से वववा

कर सकते

ैं। आज ,

अभी ...। मगर गोववंदी को बबलकुल ववकवास न ीं व

तम ु से वववा

तुम् ारा मूँु

ै -- तुम सात जन्म नाक रगड़ो, तो भी

न करे गी। तम ु उसके टट्टू ो, तम् ु ें घास णखलायेगी, कभी-कभी स लायेगी, तुम् ारे पुट्ठों पर ाथ िेरे गी; लेककन इससलए कक तुम् ारे

ऊपर सवारी गाूँठे। तुम् ारे जैसे एक

ज़ार बुिू उसकी जेब में

ैं।

गोववंदी आज ब ु त बढ़ी जाती थी। मालम ोता ै , आज व उनसे लड़ने पर ू तैयार ोकर आयी ै । डाक्टर के बल ु ाने का तो केवल ब ाना था। खन्ना अपनी योग्यता और दक्षता और पुरुषत्व पर इतना बड़ा आक्षेप कैसे स

सकते थे!

'तम् ु ारे ख़याल में मैं बि ु ू और मख ू द ू ूँ, तो ये ज़ारों क्यों मेरे द्वार पर नाक रगड़ते ैं? कौन राजा या ताल्लुक़ेदार ै , जो मुझे दं डवत न ीं करता। सैकड़ों को उल्लू बना कर छोड़ हदया।'

'य ी तो मालती की ववशेषता ै कक जो औरों को सीिे उस्तरे से मूँड़ू ता ै , उसे व उलटे छुरे से मूँड़ ू ती ै ।' 'तुम मालती की चा े श्जतनी बुराई करो, तुम उसकी पाूँव की िूल भी न ीं ो।' 'मेरी दृश्ष्ट में व वेकयाओं से भी गयी बीती ै; क्योंकक व परदे की आड़ से सशकार खेलती

ै ।'

दोनों ने अपने-अपने अश्ग्न-बाण छोड़ हदये। खन्ना ने गोववंदी को चा े दस ू री कठोर से कठोर बात क ी य

ोती, उसे इतनी बुरी न लगती; पर मालती से उसकी

घणृ णत तुलना उसकी सह ष्णुता के सलए भी असह्य थी। गोववंदी ने भी

खन्ना को चा े जो कुछ क ा अपमान व

न ीं स

ोता, व

इतने गमद न

ोते; लेककन मालती का य

सकते। दोनों एक दस ू रे के कोमल स्थलों से पररधचत थे।

दोनों के नशाने ठीक बैठे और दोनों तलसमला उठे । खन्ना की आूँखें लाल गयीं। गोववंदी का मूँु

लाल



ो गया। खन्ना आवेश में उठे और उसके दोनों कान

पकड़कर ज़ोर से ऐंठे और तीन-चार तमाचे लगा हदये। गोववंदी रोती ु ई अन्दर चली गयी।

ज़रा दे र में डाक्टर नाग आये और ससववल सजदन एम. टाड आये और भवषगाचायद नीलकंठ शास्त्री आये; पर गोववंदी बच्चे को सलये अपने कमरे में बैठी र ी। ककसने क्या क ा, क्या तशख़ीश की, उसे कुछ मालूम न ीं। श्जस ववपश्त्त की कल्पना व

कर र ी थी, व

आज उसके ससर पर आ गयी। खन्ना ने आज

जैसे उससे नाता तोड़ सलया, जैसे उसे घर से खदे ड़कर द्वार बंद कर सलया। जो रूप का बाज़ार लगाकर बैठती दे ना चा ती । व पत

ै , श्जसकी परछाईं भी व

उस पर परोक्ष रूप से शासन करे । य

ैं, उन् ें उसको समझाने-बुझाने का अधिकार

सशरोिादय कर सकती जब तक शांत न

अपने ऊपर पड़ने न ीं न

ोगा। खन्ना उसके

ै , उनकी मार को भी व

ै ; पर मालती का शासन! असंभव! मगर बच्चे का ज्वर

ो जाय, व

ह ल न ीं सकती। आत्मासभमान को भी कतदव्य के

सामने ससर झुकाना पड़ेगा। दस ू रे हदन बच्चे का ज्वर उतर गया था। गोववंदी ने एक ताूँगा मूँगवाया और घर से नकली। ज ाूँ उसका इतना अनादर इतना कठोर था कक बच्चों का मो था, उसे व

पूरा कर चुकी

ै , व ाूँ अब व

न ीं र

सकती। आघात

भी टूट गया था। उनके प्र त उसका जो िमद

ै । शेष जो कुछ

ै, व

ाूँ, गोद के

उसकी जान के साथ

ै । और

बालक को व

ककसी तर

इस घर से व

केवल अपने प्राण लेकर नकलेगी। और कोई चीज़ उसकी न ीं

ै । इन् ें य

दावा

ै कक व

न ीं छोड़ सकती। व

खन्ना का िमद ै ।

उसका पालन करते

उनके आश्रय से नकलकर भी श्ज़ंदा र

सकती

ैं। गोववंदी हदखा दे गी कक व ै।

तीनों बच्चे उस समय खेलने गये थे। गोववंदी का मन ु आ, एक बार उन् ें प्यार कर ले; मगर व क ीं भागी तो न ीं जाती। बच्चों को उससे प्रेम ोगा, तो उसके पास आयेंगे, उसके घर में खेलेंगे। व

जब ज़रूरत समझेगी , ख़ुद बच्चों को दे ख

आया करे गी। केवल खन्ना का आश्रय न ीं लेना चा ती। साूँझ में रौनक़ थी। लोग गोववंदी

री घास पर लेटे

ो गयी थी। पाकद

वा का आनन्द लूट र े थे।

ज़रतगंज

ोती ु ई धचडड़याघर की तरफ़ मुड़ी ी थी कक कार पर मालती और खन्ना सामने से आते ु ए हदखायी हदये। उसे मालूम ु आ, खन्ना ने उसकी तरफ़ इशारा करके कुछ क ा और मालती मुस्करायी। न ीं, शायद य उसका भ्रम

ो। खन्ना मालती से उसकी नंदा न करें गे ; मगर ककतनी बेशमद ै ।

सन ु ा

ै इसकी अच्छी प्रैककटस

बेचती किरती

ै घर की भी संपन्न

ै । न जाने क्यों ब्या

ै किर भी यों अपने को

न ीं कर लेती ; लेककन उससे ब्या

करे गा

ी कौन? न ीं, य

बात न ीं। पुरुषों में भी ऐसे ब ु त ो गये ैं, जो उसे पाकर अपने को िन्य मानेंगे; लेककन मालती ख़ुद ककसी को पसंद करे । और ब्या में

कौन-सा सुख रखा ु आ ै । ब ु त अच्छा करती ै , जो ब्या न ीं करती। अभी सब उसके ग़ल ु ाम ैं। तब व एक की लौंडी ोकर र जायगी। ब ु त अच्छा कर र ी

ै । अभी तो य

म ाशय भी उसके तलवे चाटते

ले, तो उस पर शासन करने लगें ; मगर इनसे व

ैं। क ीं इनसे ब्या

क्यों ब्या

कर

करे गी? और समाज

में दो-चार ऐसी श्स्त्रयाूँ बनी र ें , तो अच्छा; पुरुषों के कान तो गमद करती र ें । आज गोववंदी के मन में मालती के प्र त बड़ी स ानुभू त उत्पन्न ु ई। व मालती पर आक्षेप करके उसके साथ अन्याय कर र ी ै । क्या मेरी दशा को दे खकर उसकी आूँखें न खुलती अगर व

ोंगी। वववाह त जीवन की दद ु द शा आूँखों दे खकर

इस जाल में न ीं िूँसती, तो क्या बुरा करती

ै ! धचडड़याघर में चारों

तरफ़ सन्नाटा छाया ु आ था। गोववंदी ने ताूँगा रोक हदया और बच्चे को सलए री दब ू की तरफ़ चली; मगर दो ी तीन क़दम चली थी कक चप्पल पानी में डूब गये। अभी थोड़ी दे र प ले लान सींचा गया था और घास के नीचे पानी ब

र ा

था। उस उतावली में उसने पीछे न किरकर एक क़दम और आगे रखा तो पाूँव

कीचड़ में सन गये। उसने पाूँव की ओर दे खा। अब य ाूँ पाूँव िोने के सलए पानी क ाूँ से समलेगा? उसकी सारी मनोव्यथा लप्ु त

ो गयी। पाूँव िोकर साफ़ करने

की नई धचंता ु ई। उसकी ववचार-िारा रुक गयी। जब तक पाूँव न साफ़ ो जायूँ व कुछ न ीं सोच सकती। स सा उसे एक लम्बा पाईप घास में छपा नज़र आया, श्जसमें से पानी ब

र ा था। उसने जाकर पाूँव िोये , चप्पल िोये, ाथ-मूँु

िोया, थोड़ा-सा पानी चुल्लू में लेकर वपया और पाइप के उस पार सूखी ज़मीन पर जा बैठी।

उदासी में मौत की याद तुरंत आ जाती क्या

ै । क ीं व

व ीं बैठे-बैठे मर जाय, तो

ो? ताूँगेवाला तुरंत जाकर खन्ना को ख़बर दे गा। खन्ना सुनते

ी णखल

उठें गे; लेककन द ु नया को हदखाने के सलए आूँखों पर रूमाल रख लें गे। बच्चों के सलए णखलौने और तमाशे माूँ से प्यारे

ैं। य

चार बूँद ू आूँसू ब ानेवाला भी न ीं। तब उसे व

ै उसका जीवन , श्जसके सलए कोई हदन याद आया, जब उसकी

सास जीती थी और खन्ना उड़ंछू न ु ए थे, तब उसे सास का बात-बात पर

बबगड़ना बरु ा लगता था; आज उसे सास के उस क्रोि में स्ने पड़ र ा था। तब व आज व

का रस घल ु ा जान

सास से रूठ जाती थी और सास उसे दल ु ारकर मनाती थी।

म ीनों रूठी पड़ी र े । ककसे परवा

ै ? एकाएक उसका मन उड़कर माता

के चरणों में जा प ु ूँचा। ाय! आज अम्माूँ ोतीं, तो क्यों उसकी य दद ु द शा ोती! उसके पास और कुछ न था, स्ने -भरी गोद तो थी, प्रेम-भरा अंचल तो था, श्जसमें मूँु

डालकर व

रो लेती; लेककन न ीं, व

न बनायेगी, मेरे सलए व

जो कुछ ज़्यादा से ज़्यादा कर सकती थी, व

गयी? मेरे कमो की साधथन रोये? व व

कल

रोयेगी न ीं, उस दे वी को स्वगद में दख ु ी कर

ोना तो उनके वश की बात न थी। और व

अब ककसी के अिीन न ीं

ै, व

क्यों

अपने गुज़र-भर को कमा सकती

ै।

ी गाूँिी-आश्रम से चीज़ें लेकर बेचना शुरू कर दे गी। शमद ककस बात

की? य ी तो

ोगा, लोग उूँ गली हदखाकर क ें गे -- व

जा र ी

ै खन्ना की बीबी;

लेककन इस श र में र ू ूँ क्यों ? ककसी दस ू रे श र में क्यों न चली जाऊूँ, ज ाूँ मुझे कोई जानता ी न ो। दस-बीस रुपए कमा लेना ऐसा क्या मश्ु ककल ै । अपने पसीने की कमाई तो खाऊूँगी, किर तो कोई मुझ पर रोब न जमायेगा। य म ाशय इसीसलए तो इतना समज़ाज करते

ैं कक व

मेरा पालन करते

ैं। मैं

अब ख़द ु अपना पालन करूूँगी। स सा उसने मे ता को अपनी तरफ़ आते दे खा। उसे उलझन ु ई। इस वक़्त व सम्पूणद एकांत चा ती थी। ककसी से बोलने की इच्छा न थी; मगर य ाूँ भी एक म ाशय आ

ी गये। उस पर बच्चा भी रोने लगा था।

मे ता ने समीप आकर ववस्मय के साथ पूछा -- आप इस वक़्त य ाूँ कैसे आ गई?

गोववंदी ने बालक को चुप कराते ु ए क ा -- उसी तर

जैसे आप आ गए।

मे ता ने मस् ु कराकर क ा -- मेरी बात न चलाइए। िोबी का कुत्ता न घर का न घाट का। लाइए, मैं बच्चे को चप ु कर दूँ ।ू

'आपने य कला कब सीखी?' 'अभ्यास करना चा ता ू ूँ। इसकी परीक्षा जो ोगी।'

'अच्छा! परीक्षा के हदन क़रीब आ गये ?' 'य तो मेरी तैयारी पर ै । जब तैयार ो जाऊूँगा, बैठ जाऊूँगा। छोटी-छोटी उपाधियों के सलए

म पढ़-पढ़कर आूँखें िोड़ सलया करते

व्यापार की परीक्षा

ै ।'

ैं। य

तो जीवन-

'अच्छी बात ै , मैं भी दे खग ूूँ ी आप ककस ग्रेड में पास ोते ैं। य

क ते ु ए उसने बच्चे को उनकी गोद में दे हदया। उन् ोंने बच्चे को कई बार उछाला, तो व चप ो गया। ु बालकों की तर

डींग मारकर बोले -- दे खा आपने, कैसा मंतर के ज़ोर से चप ु

कर हदया। अब मैं भी क ीं से बच्चा लाऊूँगा।' गोववंदी ने ववनोद ककया -- बच्चा

ी लाइएगा, या उसकी माूँ भी?

मे ता ने ववनोद-भरी नराशा से सर ह लाकर क ा -- ऐसी औरत तो क ीं समलती

ी न ीं।

'क्यों, समस मालती न ीं ैं? संद ु री, सशक्षक्षत, गण ु वती, मनो ाररणी; और आप क्या चा ते

ैं?'

'समस मालती में व एक बात भी न ीं ै जो मैं अपनी स्त्री में दे खना चा ता ू ूँ।' गोववंदी ने इस कुत्सा का आनंद लेते ु ए क ा -- उसमें क्या बुराई ै , सुनूँ।ू भौंरे तो मेशा घेरे र ते ैं। मैंने सुना ै , आजकल पुरुषों को ऐसी ी औरतें पसंद आती

ैं।

मे ता ने बच्चे के कुछ और

ाथों से अपनी मूँछ ू ों की रक्षा करते ु ए क ा -- मेरी स्त्री ी ढं ग की ोगी। व ऐसी ोगी, श्जसकी मैं पूजा कर सकूँू गा।

गोववंदी अपनी

ूँसी न रोक सकी -- तो आप स्त्री न ीं, कोई प्र तमा चा ते

स्त्री तो ऐसी आपको शायद क ीं समले।

ैं।

'जी न ीं, ऐसी एक दे वी इसी श र में ै । 'सच! मैं भी उसके दशदन करती, और उसी तर बनने की चेष्टा करती।' 'आप उसे खुब जानती ैं। व एक लखपती की पत्नी ै , पर ववलास को तुच्छ समझती

ै ; जो उपेक्षा और अनादर स

कर भी अपने कतदव्य से ववचसलत न ीं

ोती, जो मातत्ृ व की वेदी पर अपने को बसलदान करती

सबसे बड़ा अधिकार

ै , और जो इस योग्य

जाय।'

ै , श्जसके सलए त्याग



ै की उसकी प्र तमा बनाकर पूजी

गोववंदी के हृदय में आनंद का कंपन ु आ। समझकर भी न समझने का असभनय करती ु ई बोली -- ऐसी स्त्री की आप तारीफ़ करते ैं। मगर मेरी समझ में तो व

दया की पात्र

आदशद पत्नी भी

ै। व

आदशद नारी

ो सकती

ै और जो आदशद नारी

ो सकती

ै, व ी

ै।

मे ता ने आकचयद से क ा -- आप उसका अपमान करती

ैं।

'लेककन व आदशद इस युग के सलए न ीं ै ।' 'व आदशद सनातन ै और अमर ै । मनुष्य उसे ववकृत करके अपना सवदनाश कर र ा

ै।

गोववंदी का अंतःकरण णखला जा र ा था। ऐसी िुरे ररयाूँ व ाूँ कभी न उठी थीं।

श्जतने आदसमयों से उसका पररचय था, उनमें मे ता का स्थान सबसे ऊूँचा था। उनके मुख से य

प्रोत्सा न पाकर व

मतवाली ु ई जा र ी थी। उसी नशे में बोली -- तो चसलए, मुझे उन के दशदन करा दीश्जए। मे ता ने बालक के कपोलों में मूँु

'क ाूँ, मैं तो न ीं दे ख र ी ू ूँ। 'उसी दे वी से बोल र ा ू ूँ।

छपाकर क ा -- व

तो य ीं बैठी ु ई

ैं।

गोववंदी ने ज़ोर से क़ क़ ा मारा -- आपने आज मझ ु े बनाने की ठान ली, क्यों? मे ता श्रिानत

ोकर क ा -- दे वीजी, आप मेरे साथ अन्याय कर र ी

ैं, और

मुझसे ज़्यादा अपने साथ। संसार में ऐसे ब ु त कम प्राणी ैं श्जनके प्र त मेरे मन में श्रिा ो। उन् ीं में एक आप ैं। आपका िैयद और त्याग और शील और प्रेम अनुपम

ै । मैं अपने जीवन में सबसे बड़े सुख की जो कल्पना कर सकता

ू ूँ , व आप जैसी ककसी दे वी के चरणों की सेवा मानता ू ूँ , आप उसकी सजीव प्र तमा ैं।

ै । श्जस नारीत्व को मैं आदशद

गोववंदी की आूँखों से आनंद के आूँसू नकल पड़े; इस श्रिा-कवच को िारण करके व

ककस ववपश्त्त की सामना न करे गी। उसके रोम-रोम में जैसे मद ृ -ु संगीत की

ध्व न नकल पड़ी। उसने अपने रमणीत्व का उल्लास मन में दबाकर क ा -आप दाशद नक क्यों ु ए मे ताजी? आपको तो कवव मे ता सरलता से कोई कवव

ोना चाह ए था।

ूँसकर बोले -- क्या आप समझती

ो सकता

ैं, बबना दाशद नक ु ए ै ? दशदन तो केवल बीच की मंश्ज़ल ै ।



'तो अभी आप कववत्व के रास्ते में ैं; लेककन आप य भी जानते ैं , कवव को संसार में कभी सुख न ीं समलता?'

'श्जसे संसार दःु ख क ता ै , व ाूँ कवव के सलए सुख ै । िन और ऐकवयद, रूप और बल, ववद्या और बवु ि, ये ववभू तयाूँ संसार को चा े ककतना लें , कवव के सलए य ाूँ ज़रा भी आकषदण न ीं

ी मोह त कर

ै , उसके मोद और आकषदण की

वस्तु तो बुझी ु ई आशाएूँ और समटी ु ई स्मृ तयाूँ और टूटे ु ए हृदय के आूँसू ैं। श्जस हदन इन ववभू तयों में उसका प्रेम न र े गा, उस हदन व कवव न र े गा। दशदन जीवन के इन र स्यों से केवल ववनोद करता जाता

ै । मैंने आपकी दो-चार कववताएूँ पढ़ी



ैं और उनमें श्जतनी पल ु क, श्जतना

कंपन, श्जतनी मिुर व्यथा, श्जतना रुलानेवाला उन्माद पाया ू ूँ। प्रकृ त ने मारे साथ ककतना बड़ा अन्याय ककया दे वी न ीं बनायी। गोववंदी ने

ै , कवव उनमें लय ै, व

मैं

ी जानता

ै कक आप-जैसी कोई दस ू री

सरत भरे स्वर में क ा -- न ीं मे ता जी, य

आपका भ्रम

ै । ऐसी

नाररयाूँ य ाूँ आपको गली-गली में समलें गी और मैं तो उन सबसे गयी बीती ू ूँ।

जो स्त्री अपने परु ु ष को प्रसन्न न रख सके, अपने को उसके मन की न बना सके, व

भी कोई स्त्री

ै । मैं तो कभी-कभी सोचती ू ूँ कक मालती से य कला सीख।ूूँ ज ाूँ मैं असिल ू ूँ, व ाूँ व सिल ै । मैं अपने को भी अपना न ीं बना सकती, व

दस ू रों को भी अपना बना लेती

न ीं? मे ता ने मूँु

ै । क्या य

उसके सलए श्रेय की बात

बनाकर क ा -- शराब अगर लोगों को पागल कर दे ती

इससलए उसे क्या पानी से अच्छा समझा जाय, जो प्यास बझ ु ाता और शांत करता

ै , श्जलाता

ै,

ै?

गोववंदी ने ववनोद की शरण लेकर क ा -- कुछ भी पानी मारा-मारा किरता श्जतनी

ै , तो

दे खती ू ूँ कक ै और शराब के सलए घर-द्वार बबक जाते ैं, और शराब

ी तेज़ और नशीली

शराब के उपासक

ो, उतनी

ैं?

ो, मैं तो य

ी अच्छी। मैं तो सुनती ू ूँ, आप भी

गोववंदी नराशा की उस दशा को प ु ूँच गयी थी, जब आदमी को सत्य और िमद में भी संदे ोने लगता ै ; लेककन मे ता का ध्यान उिर न गया। उनका ध्यान तो वाक्य के अं तम भाग पर

ी धचमटकर र

गया। अपने मद-सेवन पर उन् ें

श्जतनी लज्जा और क्षोभ आज ु आ, उतना बड़े-बड़े उपदे श सन ु कर भी न ु आ था। तको का उनके पास जवाब था और मूँु -तोड़; लेककन इस मीठी चुटकी का उन् ें कोई जवाब न सूझा। व

पछताये कक क ाूँ से क ाूँ उन् ें शराब की युश्क्त

सूझी। उन् ोंने ख़ुद मालती की शराब से उपमा दी थी। उनका वार अपने

ी ससर

पर पड़ा। लश्ज्जत

ोकर बोले --

ाूँ दे वीजी, मैं स्वीकार करता ू ूँ कक मझ ु में य आसश्क्त ै । मैं अपने सलए उसकी ज़रूरत बतलाकर और उसके ववचारोत्तेजक गुणों के

प्रमाण दे कर गन ु ा

का उज्रा न करूूँगा, जो गन ु ा

से भी बदतर

ै । आज आपके

सामने प्र तज्ञा करता ू ूँ कक शराब की एक बूँद ू भी कंठ के नीचे न जाने दूँ ग ू ा। गोववंदी ने सन्नाटे में आकर क ा -- य से क ती ू ूँ , मेरा य

आपने क्या ककया मे ताजी! मैं ईकवर

आशय न था। मुझे इसका दःु ख

ै।

'न ीं, आपको प्रसन्न ोना चाह ए कक आपने एक व्यश्क्त का उद्िार कर हदया।'

'मैंने आपका उद्िार कर हदया। मैं तो ख़ुद आप से अपने उद्िार की याचना करने जा र ी ू ूँ।'

'मुझसे? िन्य भाग!' गोववंदी ने करूण स्वर में क ा --

ाूँ, आपके ससवा मुझे कोई ऐसा न ीं नज़र

आता श्जससे मैं अपनी कथा सन ु ाऊूँ। दे णखए, य ालाूँकक आपसे य

असह्य

ो गया

बात अपने

ी तक रणखएगा,

याद हदलाने की ज़रूरत न ीं। मुझे अब अपना जीवन

ै । मुझसे अब तक श्जतनी तपस्या

ो सकी, मैंने की; लेककन

अब न ीं स ा जाता। मालती मेरा सवदनाश ककये डालती

से उस पर ववजय न ीं पा सकती। आपका उस पर प्रभाव आपका आदर करती

ै । मैं अपने ककसी शस्त्र ै। व

श्जतना

ै , शायद और ककसी मदद का न ीं करती। अगर आप ककसी

तर

मुझे उसके पंजे से छुड़ा दें , तो मैं जन्म भर आपकी ऋणी र ू ूँगी। उसके ाथों मेरा सौभाग्य लुटा जा र ा ै । आप अगर मेरी रक्षा कर सकते ैं , तो

कीश्जए। मैं आज घर से य

इरादा करके चली थी कक किर लौटकर न आऊूँगी।

मैंने बड़ा ज़ोर मारा कक मो

के सारे बंिनों को तोड़कर िेंक दूँ ;ू लेककन औरत का

हृदय बड़ा दब द ु ल

ै मे ता जी! मो

उसके सलए असंभव

उसका प्राण

ै । जीवन र ते मो

तोड़ना

ै । मैंने आज तक अपनी व्यथा अपने मन में रखी ; लेककन

आज मैं आपसे आूँचल िैलाकर सभक्षा माूँगती ू ूँ। मालती से मेरा उिार कीश्जए। मैं इस मायाववनी के ाथों समटी जा र ी ू ूँ ...। उसका स्वर आूँसओ ु ं में डूब गया। व

िूट-िूट कर रोने लगी। मे ता अपनी

नज़रों में कभी इतने ऊूँचे न उठे थे उस वक़्त भी न ीं , जब उनकी रचना को फ़्ांस की एकाडमी ने शताब्दी की सबसे उत्तम कृ त क कर उन् ें बिाई दी थी। श्जस प्र तमा की व

सच्चे हदल से पूजा करते थे, श्जसे मन में व

अपनी

इष्टदे वी समझते थे और जीवन के असझ ू प्रसंगों में श्जससे आदे श पाने की आशा रखते थे, व

आज उनसे सभक्षा माूँग र ी थी। उन् ें अपने अंदर ऐसी

शश्क्त का अनुभव ु आ कक व पवदत को भी िाड़ सकते ैं; समुद्र को तैरकर पार कर सकते ैं। उन पर नशा-सा छा गया, जैसे बालक काठ के घोड़े पर सवार ोकर समझ र ा

ो व

वा में उड़ र ा

ै । काम ककतना असाध्य

ै , इसकी

सधु ि न र ी। अपने ससिांतों की ककतनी

त्या करनी पड़ेगी, बबलकुल ख़याल न

र ा।

आकवासन के स्वर में बोले -- मुझे न मालूम था कक आप उससे इतनी दख ु ी

ैं।

मेरी बवु ि का दोष, आूँखों का दोष, कल्पना का दोष। और क्या क ू ूँ , वरना आपको इतनी वेदना क्यों स नी पड़ती! गोववंदी को शंका ु ई। बोली -- लेककन ससं नी से उसका सशकार छीनना आसान न ीं ै , य समझ लीश्जए। मे ता ने दृढ़ता से क ा -- नारी-हृदय िरती के समान समल सकती

ै , श्जससे समठास भी

ै , कड़वापन भी। उसके अंदर पड़नेवाले बीज में जैसी शश्क्त

ो।

'आप पछता र े ोंगे, क ाूँ से आज इससे मुलाक़ात ो गयी।' 'मैं अगर क ू ूँ कक मुझे आज ी जीवन का वास्तववक आनंद समला ै , तो शायद आपको ववकवास न आए!' 'मैंने आपके ससर पर इतना बड़ा भार रख हदया।' मे ता ने श्रद्िा-मिुर स्वर में क ा -- आप मुझे लश्ज्जत कर र ी

ैं दे वीजी! मैं



चुका, मैं आपका सेवक ू ूँ। आपके ह त में मेरे प्राण भी नकल जायूँ, तो मैं अपना सौभाग्य समझूँूगा। इसे कववयों का भावावेश न समणझए, य मेरे जीवन का सत्य

ै । मेरे जीवन का क्या आदशद

ै , आपको य

बतला दे ने का मो

मझ ु से न ीं रुक सकता। मैं प्रकृ त का पज ु ारी ू ूँ और मनष्ु य को उसके प्राकृ तक रूप में दे खना चा ता ू ूँ , जो प्रसन्न ोकर ूँसता ै , दख ु ी ोकर रोता ै और क्रोि में आकर मार डालता रोने को कमज़ोरी और

ै । जो दःु ख और सुख दोनों का दमन करते

ूँसने को

जीवन मेरे सलए आनंदमय क्रीड़ा

लकापन समझते

ैं, उनसे मेरा कोई मेल न ीं।

ै , सरल, स्वच्छं द, ज ाूँ कुत्सा, ईष्याद और जलन

के सलए कोई स्थान न ीं। मैं भत ू की धचंता न ीं करता, भववष्य की परवा करता। मेरे सलए वतदमान ै , भूत का भार

ैं , जो

ी सब कुछ

मारी कमर तोड़ दे ता

कक भूत और भववष्य में िैला दे ने से व

ै । भववष्य की धचंता ै।

न ीं

में कायर बना दे ती

ममें जीवन की शश्क्त इतनी कम और भी क्षीण

ो जाती

ै।

म व्यथद



का भार अपने ऊपर लादकर, रूहढ़यों और ववकवासों और इ त ासों के मलवे के नीचे दबे पड़े

ैं ; उठने का नाम न ीं लेते, व

सामथ्यद

ी न ीं र ी! जो शश्क्त,

जो स्िू तद मानव-िमद को पूरा करने में लगनी चाह ए थी, स योग में , भाईचारे में , व

पुरानी अदावतों का बदला लेने और बाप-दादों का ऋण चुकाने की भें ट

जाती

ै । और जो य

आती

ै। व

ईकवर और मोक्ष का चक्कर

ै , इस पर तो मुझे

मोक्ष और उपासना अ ं कार की पराकाष्ठा

को नष्ट ककये डालती

ै । ज ाूँ जीवन

और जीवन को सुखी बनाना

ै , क्रीड़ा

ी उपासना

ै, च क

ै , और मोक्ष



ूँसी

ै , जो

मारी मानवता

ै , प्रेम

ै , व ीं ईकवर

ै । ज्ञानी क ता

ै;

ै , ओठों

पर मुस्करा ट न आये, आूँखों में आूँसू न आये। मैं क ता ू ूँ , अगर तुम ूँस न ीं सकते और रो न ीं सकते, तो तुम मनुष्य न ीं ो, पत्थर ो। व ज्ञान जो मानवता को पीस डाले, ज्ञान न ीं पूरी स्पीच

ी दे गया। अब दे र

मेरी गोद में सो गया।

ै , कोल् ू ै । मगर क्षमा कीश्जए, मैं तो एक ो र ी ै , चसलए, मैं आपको प ु ूँचा दूँ ।ू बच्चा भी

गोववंदी ने क ा -- मैं तो ताूँगा लायी ू ूँ।

'ताूँगे को य ीं से ववदा कर दे ता ू ूँ।' मे ता ताूँगे के पैसे चुकाकर लौटे , तो गोववंदी ने क ा -- लेककन आप मुझे क ाूँ ले जायूँगे?

मे ता ने चौंककर पछ ू ा -- क्यों, आपके घर प ु ूँचा दूँ ग ू ा।

'व मेरा घर न ीं ै मे ताजी!' 'और क्या समस्टर खन्ना का घर ै ?' 'य भी क्या पूछने की बात ै ? 'अब व घर मेरा न ीं र ा। ज ाूँ अपमान और धिक्कार समले , उसे मैं अपना घर न ीं क

सकती, न समझ सकती ू ूँ।'

मे ता ने ददद -भरे स्वर में श्जसका एक-एक अक्षर उनके अंतःकरण से नकल र ा था, क ा -- न ीं दे वीजी, व सश्ृ ष्ट की करता पद

घर आपका

ै , और सदै व र े गा। उस घर की आपने

ै , उसके प्राणणयों की सश्ृ ष्ट की

ै । प्राण नकल जाय, तो दे

ै, और प्राण जैसे दे

की क्या ग त

का संचालन

ोगी? मातत्ृ व म ान ण गौरव का

ै दे वीजी! और गौरव के पद में क ाूँ अपमान और धिक्कार और तरस्कार

न ीं समला? माता का काम जीवन-दान दे ना शश्क्त

ै , उसे इसकी क्या परवा

प्राण के बबना जैसे दे उपयुक्त स्थान

न ीं र

ै । श्जसके

कक कौन उससे रूठता सकती , उसी तर

ाथों में इतनी अतल ु ै , कौन बबगड़ता

प्राण को भी दे

ै।

ी सबसे

ै । मैं आपको िमद और त्याग का क्या उपदे श दूँ ?ू आप तो

उसकी सजीव प्र तमा गोववंदी ने अिीर

ैं। मैं तो य ी क ू ूँगा कक ...।

ोकर क ा -- लेककन मैं केवल माता

तो ू ूँ?

ी तो न ीं ू ूँ , नारी भी

मे ता ने एक समनट तक मौन र ने के बाद क ा -कक नारी केवल माता

ै , और इसके उपरांत व

ाूँ, ैं; लेककन मैं समझता ू ूँ जो कुछ ै , व मातत्ृ व का

उपक्रम मात्र। मातत्ृ व संसार की सबसे बड़ी सािना, सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे म ान ण ववजय

ै । एक शब्द में उसे लय क ू ूँगा -- जीवन का, व्यश्क्तत्व का और नारीत्व का भी। आप समस्टर खन्ना के ववषय में इतना ी समझ लें कक व व

अपने

उन्माद की दशा में करते

लगें गे, और व

ोश में न ीं ैं ; मगर य

ैं। व

जो कुछ क ते

ैं या करते

ैं ,

उन्माद शांत

ोने में ब ु त हदन न आपको अपनी इष्टदे वी

समय ब ु त जल्द आयेगा, जब व समझेंगे। गोववंदी ने इसका कुछ जवाब न हदया। िीरे -िीरे कार की ओर चली।

मे ता ने बढ़कर कार का द्वार खोल हदया। गोववंदी अन्दर जा बैठी। कार चली ; मगर दोनों मौन थे। गोववंदी जब अपने द्वार पर प ु ूँचकर कार से उतरी, तो बबजली के प्रकाश में मे ता ने दे खा, उसकी आूँखें सजल ैं। बच्चे घर में से नकल आये और 'अम्माूँ-अम्माूँ' क ते ु ए माता से सलपट गये। गोववंदी के मुख पर मातत्ृ व की उज्ज्वल गौरवमयी ज्यो त चमक उठी। उसने मे ता से क ा -- इस कष्ट के सलए आपको ब ु त िन्यवाद!

और ससर नीचा कर सलया। आूँसू की एक बूँद ू उसके कपोल पर आ धगरी थी। मे ता की आूँखें भी सजल य ***

नारी-हृदय ककतना दख ु ी

ो गयीं -- इस ऐकवयद और ववलास के बीच में भी ै!

19 समरज़ा खुशेद का लगा र ता

ाता क्लब भी

ै , कच री भी, अखाड़ा भी। हदन भर जमघट

ै । मु ल्ले में अखाड़े के सलए क ीं जग

एक छप्पर डलवाकर अखाड़ा बनावा हदया जुटते

न ीं समलती थी। समरज़ा ने

ै ; व ाूँ नत्य सौ-पचास लडड़ंतये आ

ैं। समरज़ाजी भी उनके साथ ज़ोर करते

ोती

ैं। मु ल्ले की पंचायतें भी य ीं

ैं। समयाूँ-बीबी और सास-ब ू और भाई-भाई के झगड़े-टं टे य ीं चुकाये जाते ैं। मु ल्ले के सामाश्जक जीवन का य ी केन्द्र ै और राजनी तक आंदोलन का

भी। आये हदन सभाएूँ प्रोग्राम बनते

ोती र ती

ैं। य ीं स्वयंसेवक हटकते

ैं, य ीं से नगर का राजनी तक संचालन

मालती नगर-काूँग्रेस-कमेटी की सभानेत्री चुन ली गयी रौनक़ और भी बढ़ गयी

ोता

ैं , य ीं उनके

ै । वपछले जलसे में

ै । तब से इस स्थान की

ै।

गोबर को य ाूँ र ते साल भर

ो गया। अब व

सीिा-सािा ग्रामीण यव ु क न ीं

ै । उसने ब ु त कुछ द ु नया दे ख ली और संसार का रं ग-ढं ग भी कुछ-कुछ समझने लगा ै । मूल में व अब भी दे ाती ै , पैसे को दाूँत से पकड़ता ै , स्वाथद को कभी न ीं छोड़ता, और पररश्रम से जी न ीं चुराता, न कभी ह म्मत लेककन श र की

वा उसे भी लग गयी

ारता

ै;

ै । उसने प ले म ीने तो के वल मजूरी

की ओर आिा पेट खाकर थोड़े से रुपए बचा सलये। किर व

कचालू और मटर

और द ी-बड़े के खोंचे लगाने लगा। इिर ज़्यादा लाभ दे खा, तो नौकरी छोड़ दी। गसमयों में शबदत और बरफ़ की दक ू ान भी खोल दी। लेन-दे न में खरा था इससलए उसकी साख जम गयी। जाड़े आये , तो उसने शबदत की दक ू ान उठा दी और गमद चाय वपलाने लगा। अब उसकी रोज़ाना आमदनी ढाई-तीन रुपए से कम न ीं। उसने अूँग्रेज़ी फ़ैशन के बाल कटवा सलए

ैं , म ीन िोती और पम्प-शू प नता

एक लाल ऊनी चादर ख़रीद ली और पान ससगरे ट का शौक़ीन सभाओं में आने-जाने से उसे कुछ-कुछ राजनी तक ज्ञान भी और वगद का अथद समझने लगा

ो गया

ो चला

ै,

ै।

ै । राष्र

ै । सामाश्जक रूहढ़यों की प्र तष्ठा और लोक-

नंदा का भय अब उसमें ब ु त कम र गया ै । आये हदन की पंचायतों ने उसे नस्संकोच बना हदया ै । श्जस बात के पीछे व य ाूँ घर से दरू , मूँु छपाये

पड़ा ु आ ै , उसी तर की, बश्ल्क उससे भी क ीं नंदास्पद बातें य ाूँ नत्य ु आ करती ैं, और कोई भागता न ीं। किर व ी क्यों इतना डरे और मूँु चरु ाये! इतने हदनों में उसने एक पैसा भी घर न ीं भेजा। व

माता-वपता को रुपए-पैसे के

मामले में इतना चतरु न ीं समझता। वे लोग तो रुपए पाते

ी आकाश में उड़ने

लगें गे। दादा को तुरंत गया करने की और अम्माूँ को ग ने बनवाने की िुन सवार

ो जायगी। ऐसे व्यथद के कामों के सलए उसके पास रुपए न ीं

अब व

छोटा-मोटा म ाजन

सूद पर रुपए उिार दे ता

ै । पड़ोस के एक्केवालों गाड़ीवानों और िोबबयों को

ै । इस दस-ग्यार

म ीने में

और ककफ़ायत और पुरुषाथद से अपना स्थान बना सलया य ीं लाकर रखने की बात सोच र ा नल पर न ाकर आया उसी तर

करता

ी उसने अपनी मे नत ै और अब झु नया को

ै । तीसरे प र का समय

ै और शाम के सलए आलू उबाल र ा

खश ु ेद आकर द्वार पर खड़े

ै। व

द्वार पर जाकर पूछा -- क्या ु क्म

सड़क के

ै कक समरज़ा

ो गये। गोबर अब उनका नौकर न ीं

ै और उनके सलए जान दे ने को तैयार र ता

ै ; पर अदब

ै।

ै सरकार?

समरज़ा ने खड़े-खड़े क ा -- तुम् ारे पास कुछ रुपए से बोतल ख़ाली पड़ी ु ई

ैं।

ै , जी ब ु त बेचैन

ो र ा

ों, तो दे दो। आज तीन हदन ै।

गोबर ने इसके प ले भी दो-तीन बार समरज़ाजी को रुपए हदये थे ; पर अब तक वसूल न कर सका था। तक़ाज़ा करते डरता था और समरज़ाजी रुपए लेकर दे ना न जानते थे। उनके तो न क

ाथ में रुपए हटकते

ी न थे। इिर आये उिर ग़ायब। य

सका, मैं रुपए न दूँ ग ू ा या मेरे पास रुपए न ीं

ैं, शराब की नंदा करने

लगा -- आप इसे छोड़ क्यों न ीं दे ते सरकार? क्या इसके पीने से कुछ फ़ायदा ोता

ै?

समरज़ाजी ने कोठरी के अंदर खाट पर बैठते ु ए क ा -- तुम समझते ो, मैं छोड़ना न ीं चा ता और शौक़ से पीता ू ूँ। मैं इसके बग़ैर श्ज़ंदा न ीं र सकता। तम ु अपने रुपए के सलए न डरो, मैं एक-एक कौड़ी अदा कर दूँ ग ू ा।

गोबर अववचसलत र ा -- मैं सच क ता ू ूँ मासलक! मेरे पास इस समय रुपए ोते तो आपसे इनकार करता?

'दो रुपए भी न ीं दे सकते?'

'इस समय तो न ीं ैं।' 'मेरी अूँगूठी धगरो रख लो।' गोबर का मन ललचा उठा; मगर बात कैसे बदले। बोला -- य ैं मासलक, रुपए

ोते तो आपको दे दे ता, अूँगूठी की कौन बात थी?

समरज़ा ने अपने स्वर में बड़ा दीन आग्र माूँगूँग ू ा गोबर! लाखों की

आप क्या क ते

भरकर क ा -- मैं किर तम ु से कभी न

मुझसे खड़ा न ीं ु आ जा र ा ै । इस शराब की बदौलत मैंने ै ससयत बबगाड़ दी और सभखारी ो गया। अब मझ ु े भी श्ज़द पड़ गयी

ै कक चा े भीख

ी माूँगनी पड़े, इसे छोड़ूूँगा न ीं।

जब गोबर ने अबकी बार इनकार ककया, तो समरज़ा सा ब नराश गये। श र में उनके थे। ककतनों

ज़ारों समलने वाले थे। ककतने

ी उनकी बदौलत बन गये

ी को गाढ़े समय पर मदद की थी ; पर ऐसे से व

पसंद करते थे। उन् ें ऐसे

ज़ारों लटके मालम ू थे, श्जससे व

रुपयों के ढे र लगा दे ते थे; पर पैसे की उनकी नगा

ोता था। गोबर आलू छीलने लगा। साल-भर के अन्दर

गया था और पैसा जोड़ने में इतना कुशल कक अचरज र ता

ै, व

समरज़ा सा ब ने दी

समय-समय पर

ी व

ी उनका धचत्त शांत इतना काइयाूँ



ोता था। श्जस कोठरी में

ै । इस कोठरी और बरामदे का ककराया

बड़ी आसानी से पाूँच रुपया समल सकता र ता

समलना भी न

में कोई क़द्र न थी। उनके

ाथ में रुपए जैसे काटते थे। ककसी न ककसी ब ाने उड़ाकर



ोकर चले

ै । गोबर लगभग साल भर से उसमें

ै ; लेककन समरज़ा ने न कभी ककराया माूँगा न उसने हदया। उन् ें शायद

ख़याल भी न था कक इस कोठरी का कुछ ककराया भी समल सकता

ै । थोड़ी दे र

में एक इक्केवाला रुपये माूँगने आया। अलादीन नाम था, ससर घुटा ु आ, णखचड़ी डाढ़ी, और काना। उसकी लड़की बबदा ो र ी थी। पाूँच रुपए की उसे बड़ी ज़रूरत थी। गोबर ने एक आना रुपया सद ू पर रुपए दे हदये। अलादीन ने िन्यवाद दे ते ु ए क ा -- भैया, अब बाल-बच्चों को बुला लो। कब तक ाथ से ठोकते र ोगे। गोबर ने श र के ख़चद का रोना रोया -- थोड़ी आमदनी में ग ृ स्थी कैसे चलेगी?

अलादीन बीड़ी जलाता ु आ बोला -- ख़रच अल्ला दे गा भैया! सोचो, ककतना आराम समलेगा। मैं तो क ता ू ूँ , श्जतना तुम अकेले ख़रच करते ो, उसी में ग ृ स्थी चल जायगी। औरत के

ाथ में बड़ी बरक्कत

मैं अकेला य ाूँ र ता था, तो चा े ककतना तमाखू को भी पैसा न र ता। उस पर

ोती

ै । ख़ुदा क़सम, जब

ी कमाऊूँ खा-पी सब बराबर। बीड़ी-

ै रानी। थके-माूँदे आओ, तो घोड़े को

णखलाओ और ट लाओ। किर नानबाई की दक ू ान पर दौड़ो। नाक में दम आ गया। जब से घरवाली आ गयी आती

ैं और आराम भी समलता

कमाता

ै , उसी कमाई में उसकी रोहटयाूँ भी नकल ै । आणख़र आदमी आराम के सलए

ै । जब जान खपाकर भी आराम न समला, तो श्ज़ंदगी

ी तो

ी ग़ारत

ो गयी।

मैं तो क ता ू ूँ , तुम् ारी कमाई बढ़ जायगी भैया! श्जतनी दे र में आलू और मटर उबालते ो, उतनी दे र में दो-चार प्याले चाय बेच लोगे। अब चाय बार ों मास चलती य

ै ! रात को लेटोगे तो घरवाली पाूँव दबायेगी। सारी थकान समट जायगी।

बात गोबर के मन में बैठ गयी। जी उचाट

लाकर

ी र े गा। आलू चल् ू े पर चढ़े र

कर दी; मगर याद आया कक

ो गया। अब तो व

झु नया को

गये , और उसने घर चलने की तैयारी

ोली आ र ी

ै ; इससलए

ोली का सामान भी लेता

चले। कृपण लोगों में उत्सवों पर हदल खोलकर ख़चद करने की जो एक प्रवश्ृ त्त ोती

ै, व

उसमें भी सजग

जोड़ र ा था। व जायगा।

ो गयी। आणख़र इसी हदन के सलए तो कौड़ी-कौड़ी

माूँ, ब नों और झु नया के सलए एक-एक जोड़ी साड़ी ले

ोरी के सलए एक िोती और एक चादर। सोना के सलए तेल की शीशी

ले जायगा, और एक जोड़ा चप्पल। रूपा के सलए जापानी चूडड़याूँ और झु नया के सलए एक वपटारी, श्जसमें तेल, ससंदरू और आईना फ़्ाक जो बाज़ार में बना बनाया समलता

ोगा। बच्चे के सलए टोप और

ै । उसने रुपए नकाले और बाज़ार

चला। दोप र तक सारी चीज़ें आ गयीं। बबस्तर भी बूँि गया, मु ल्लेवालों को ख़बर

ो गयी, गोबर घर जा र ा

ै । कई मदद -औरतें उसे बबदा करने आये।

गोबर ने उन् ें अपना घर सौंपते ु ए क ा -- तुम् ीं लोगों पर छोड़े जाता ू ूँ। भगवान ण ने चा ा तो ोली के दस ू रे हदन लौटूूँगा। एक युवती ने मुस्कराकर क ा -- मे ररया को बबना सलए न आना, न ीं घर में न घुसने पाओगे।

दस ू री प्रौढ़ा ने सशक्षा दी --

हठकाने से रोटी तो समलेगी!

ाूँ, और क्या, ब ु त हदनों तक चल् ू ा िूँू क चक ु े।

गोबर ने सबको राम-राम ककया। ह द ं ू भी थे, मुसलमान भी थे, सभी में समत्रभाव

था, सब एक-दस ू रे के दःु ख-ददद के साथी। रोज़ा रखनेवाले रोज़ा रखते थे। एकादशी रखनेवाले एकादशी। कभी-कभी ववनोद-भाव से एक-दस ू रे पर छींटे भी उड़ा लेते थे। गोबर अलादीन की नमाज़ को उठा-बैठी क ता, अलादीन पीपल के नीचे

स्थावपत सैकड़ों छोटे -बड़े सशवसलंग को बटखरे बनाता; लेककन सांप्रदा यक द्वेष का नाम भी न था। गोबर घर जा र ा ैं।

ै । सब उसे

ूँसी-ख़ुशी बबदा करना चा ते

इतने में भूरे एक्का लेकर आ गया। अभी हदन-भर का िावा मारकर आया था। ख़बर समली, गोबर घर जा र ा

ै । वैसे

ी एक्का इिर िेर हदया। घोड़े ने

आपश्त्त की। उसे कई चाबक ु लगाये। गोबर ने एक्के पर सामान रखा, एक्का

बढ़ा, प ु ूँचाने वाले गली के मोड़ तक प ु ूँ चाने आये, तब गोबर ने सबको राम-राम ककया और एक्के पर बैठ गया। सड़क पर एक्का सरपट दौड़ा जा र ा था। गोबर घर जाने की ख़ुशी में मस्त था। भूरे उसे घर प ु ूँचाने की ख़ुशी में मस्त था। और घोड़ा था पानीदार, घोड़ा चला जा र ा था। बात की बात में स्टे शन आ गया। गोबर ने प्रसन्न

ोकर एक रुपया कमरे से नकाल कर भरू े की तरफ़

बढ़ाकर क ा -- लो, घरवाली के सलए समठाई लेते जाना।

भूरे ने कृतज्ञता-भरे तरस्कार से उसकी ओर दे खा -- तुम मुझे ग़ैर समझते



भैया! एक हदन ज़रा एक्के पर बैठ गये तो मैं तम ु से इनाम लूँ ग ू ा। ज ाूँ तम् ु ारा पसीना धगरे , व ाूँ ख़ून धगराने को तैयार ू ूँ। इतना छोटा हदल न ीं पाया ले भी लूँ ,ू तो घरवाली मुझे जीता छोड़ेगी? गोबर ने किर कुछ न क ा। लश्ज्जत लेने चल हदया। ***

ै । और

ोकर अपना असबाब उतारा और हटकट

20 िागुन अपनी झोली में नवजीवन की ववभू त लेकर आ प ु ूँचा था। आम के पेड़ दोनों ाथों से बौर के सुगंि बाूँट र े थे, और कोयल आम की डासलयों में छपी

ु ई संगीत का गप्ु त दान कर र ी थी। गाूँवों में ऊख की बोआई लग गयी थी। अभी िूप न ीं नकली; पर ोरी खेत में प ु ूँच गया ै । ि नया, सोना, रूपा तीनों तलैया से ऊख के भीगे

ु ए गट्ठे नकाल- नकालकर खेत में ला र ी ैं, और ोरी गूँड़ासे से ऊख के टुकड़े कर र ा ै । अब व दातादीन की मज़दरू ी करने लगा ै । ककसान न ीं, मजूर

ै । दातादीन से अब उसका पुरोह त-जजमान का नाता

न ीं, मासलक-मज़दरू का नाता दातादीन ने आकर डाूँटा -हदन-भर में न काट सकोगे।

ै।

ाथ और िुरती से चलाओ

ोरी ने आ त असभमान के साथ क ा -- चला न ीं ू ूँ।

ोरी! इस तर

तो तुम

ी तो र ा ू ूँ म राज, बैठा तो

दातादीन मजरू ों से रगड़ कर काम लेते थे; इससलए उनके य ाूँ कोई मजरू हटकता न था।

ोरी उसका स्वभाव जानता था ; पर जाता क ाूँ!

पंडडत उसके सामनें खड़े

ोकर बोले -- चलाने-चलाने में भेद

ै कक घड़ी भर में काम तमाम, दस ू रा चलाना व

ै । एक चलाना व

ै कक हदन-भर में भी एक

बोझ ऊख न कटे ।

ोरी ने ववष का घूट ूँ पीकर और ज़ोर से

ाथ चलाना शुरू ककया, इिर म ीनों से

उसे पेट-भर भोजन न समलता था। प्रायः एक जन ू तो चबैने पर दस ू रे जून भी कभी आिा पेट भोजन समला, कभी कड़ाका था कक

ाथ और जल्दी उठे , मगर

ी कटता था,

ो गया; ककतना चा ता

ाथ जवाब दे र ा था। उस पर दातादीन ससर

पर सवार थे। क्षण-भर दम ले लेने पाता, तो ताज़ा

ो जाता; लेककन दम कैसे

ले? घुड़ककयाूँ पड़ने का भय था। ि नया और तीनों लड़ककयाूँ ऊख के गट्ठे सलये गीली साडड़यों से लथपथ , कीचड़ में सनी ु ई आयीं, और गट्ठे पटककर दम मारने लगीं कक दातादीन ने डाूँट बताई

-- य ाूँ तमाशा क्या दे खती

ै ि नया? जा अपना काम कर। पैसे सेंत में न ीं

आते। प र-भर में तू एक खेप लायी

ै । इस ह साब से तो हदन भर में भी उख

न ढुल पायेगी।

ि नया ने त्योरी बदलकर क ा -- क्या ज़रा दम भी न लेने दोगे म राज! भी तो आदमी

ैं। तुम् ारी मजूरी करने से बैल न ीं

गट्ठा लादकर लाओ तो

ाल मालूम

दातादीन बबगड़ उठे -- पैसे दे ने दम मार लेना

ो।



ो गये। ज़रा मूड़ पर एक

ैं काम करने के सलए, दम मारने के सलए न ीं।

ै , तो घर जाकर दम लो।

ि नया कुछ क ने

ी जा र ी थी कक

न ीं ि नया? क्यों ु ज्जत कर र ी

ै?

ोरी ने िटकार बताई -- तू जाती क्यों

ि नया ने बीड़ा उठाते ु ए क ा -- जा तो र ी ू ूँ, लेककन चलते ु ए बैल को औंगी न दे ना चाह ए। दातादीन ने लाल आूँखें नकाल लीं -- जान पड़ता ु आ। जभी दाने-दाने को मो ताज

ै , अभी समज़ाज ठं डा न ीं

ो।

ि नया भला क्यों चप ु र ने लगी थी -- तम् ु ारे द्वार पर भीख माूँगने न ीं जाती।

दातादीन ने पैने स्वर में क ा -- अगर य ी

ाल

ै तो भीख भी माूँगोगी।

ि नया के पास जवाब तैयार था; पर सोना उसे खींचकर तलैया की ओर ले गयी, न ीं बात बढ़ जाती; लेककन आवाज़ की प ु ूँच के बा र जाकर हदल की जलन नकाली -- भीख माूँगो तुम, जो सभखमंगे की जात ो। म तो मजूर ठ रे , ज ाूँ काम करें गे, व ीं चार पैसे पायेंगे।

सोना ने उसका तरस्कार ककया -- अम्माूँ, जाने भी दो। तुम तो समय न ीं दे खती, बात-बात पर लड़ने बैठ जाती

ो।

ोरी उन्मत्त की भाूँ त ससर से ऊपर गड़ाूँसा उठा-उठाकर ऊख के टुकड़ों के ढे र

करता जाता था। उसके भीतर जैसे आग लगी ु ई थी। उसमें अलौककक शश्क्त आ गयी थी। उसमें जो पीहढ़यों का संधचत पानी था , व इस समय जैसे भाप बनकर उसे यंत्र की-सी अंि-शश्क्त प्रदान कर र ा था। उसकी आूँखों में अूँिेरा छाने लगा। ससर में किरकी-सी चल र ी थी। किर भी उसके से, बबना थके, बबना रुके, उठ र े थे। उसकी दे थी, मूँु

से पसीने की िारा नकल र ी

से किचकुर छूट र ा था, ससर में िम-िम का शब्द

पर जैसे कोई भूत सवार

ो गया

ाथ यंत्र की ग त ोर ा था, पर उस

ो। स सा उसकी आूँखों में नबबड़ अंिकार छा

गया। मालूम ु आ व ज़मीन में िूँसा जा र ा ै । उसने सूँभलने की चेष्टा से शून्य में ाथ िैला हदये, और अचेत ो गया। गूँड़ासा ाथ से छूट गया और व औंिे मूँु

ज़मीन पर पड़ गया।

उसी वक़्त ि नया ऊख का गट्ठा सलये आयी। दे खा तो कई आदमी खड़े

ैं।

एक

लवा ा दातादीन से क

ोरी को घेरे

र ा था -- मासलक तुम् ें ऐसी बात न क नी

चाह ए, जो आदमी को लग जाय। पानी मरते

ी मरते तो मरे गा।

ि नया ऊख का गट्ठा पटककर पागलों की तर

दौड़ी ु ई ोरी के पास गयी, और उसका ससर अपनी जाूँघ पर रखकर ववलाप करने लगी -- तम ु मुझे छोड़कर क ाूँ जाते ैं।

ो। अरी सोना, दौड़कर पानी ला और जाकर शोभा से क

ाय भगवान ! अब मैं क ाूँ जाऊूँ। अब ककसकी

ि नया क कर पक ु ारे गा...।

दे , दादा बे ाल

ोकर र ू ूँगी, कौन मुझे

लाला पटे कवरी भागे

ु ए आये और स्ने भरी कठोरता से बोले -- क्या करती ै ि नया, ोश सूँभाल। ोरी को कुछ न ीं ु आ। गमी से अचेत ो गये ैं। अभी ोश आया जाता ै । हदल इतना कच्चा कर लेगी, तो कैसे काम चलेगा? ि नया ने पटे कवरी के पाूँव पकड़ सलये और रोती ु ई बोली -- क्या करूूँ लाला, जी न ीं मानता। भगवान ण ने सब कुछ र सलया। मैं सबर कर गयी। अब सबर न ीं

ोता।

ाय रे मेरा

ीरा!

सोना पानी लायी। पटे कवरी ने अपनी-अपनी अूँगो छयों से

ोरी के मूँु

पर पानी के छींटे हदये। कई आदमी

वा कर र े थे।

पटे कवरी को भी धचन्ता ु ई; पर ि नया को व ि नया अिीर

ोरी की दे

ठं डी पड़ गयी थी।

बराबर सा स दे ते जाते थे।

ोकर बोली -- ऐसा कभी न ीं ु आ था। लाला, कभी न ीं।

पटे कवरी ने पूछा -- रात कुछ खाया था? ि नया बोली -ै, व

ाूँ, रोहटयाूँ पकायी थीं; लेककन आजकल

मारे ऊपर जो बीत र ी

क्या तुमसे छपा

ै ? म ीनों से भरपेट रोटी नसीब न ीं ु ई। ककतना समझाती ू ूँ, जान रखकर काम करो; लेककन आराम तो मारे भाग्य में सलखा न ीं।



स सा

ोरी ने आूँखें खोल दीं और उड़ती ु ई नज़रों से इिर-उिर ताका। ि नया जैसे जी उठी। ववह्वल

ोकर उसके गले से सलपटकर बोली -- अब कैसा जी

परान न ों में समा गये थे। ोरी ने कातर स्वर में क ा -- अच्छा ू ूँ। न जाने कैसा जी ि नया ने स्ने

में डूबी भत्सदना से क ा -- दे

जान दे कर। लड़कों का भाग था, न ीं तुम तो ले पटे कवरी ने

में दम तो

ै तम् ु ारा? मेरे तो

ो गया था। ै न ीं, काम करते

ी डूबे थे!

ूँसकर क ा -- ि नया तो रो-पीट र ी थी।

ोरी ने आतुरता से पूछा -- सचमुच तू रोती थी ि नया? ि नया ने पटे कवरी को पीछे ढकेल कर क ा -- इन् ें बकने दो तुम। पूछो, य क्यों कागद छोड़कर घर से दौड़े आये थे ? पटे कवरी ने धचढ़ाया -- तम् ु ें मुकरती

ीरा- ीरा क कर रोती थी। अब लाज के मारे

ै । छाती पीट र ी थी।



ोरी ने ि नया को सजल नेत्रों से दे खा -- पगली

ै और क्या। अब न जाने

कौन-सा सुख दे खने के सलए मुझे श्जलाये रखना चा ती दो आदमी

ै।

ोरी को हटकाकर घर लाये और चारपाई पर सलटा हदया। दातादीन तो

कुढ़ र े थे कक बोआई में दे र ु ई जाती ै , पर मातादीन इतना नदद यी न था। दौड़कर घर से गमद दि ू लाया, और एक शीशी में गल ु ाबजल भी लेता आया। और दि ू पीकर

ोरी में जैसे जान आ गयी। उसी वक़्त गोबर एक मज़दरू के ससर पर

अपना सामान लादे आता हदखायी हदया। गाूँव के कुत्ते प ले तो भूँक ू ते ु ए उसकी तरफ़ दौड़े। किर दम ु ह लाने लगे।

रूपा ने क ा -- भैया आये, और तासलयाूँ बजाती ु ई दौड़ी। सोना भी दो-तीन क़दम आगे बढ़ी; पर अपने उछा को भीतर ी दबा गयी। एक साल में उसका यौवन कुछ और संकोचशील

ो गया था।

झु नया भी घघ ूूँ ट नकाले द्वार पर खड़ी

ो गयी। गोबर ने माूँ-बाप के चरण

छूए और रूपा को गोद में उठाकर प्यार ककया। ि नया ने उसे आशीवादद हदया और उसका ससर अपनी छाती से लगाकर मानो अपने मातत्ृ व का पुरस्कार पा गयी। उसका हृदय गवद से उमड़ा पड़ता था। आज तो व में भी रानी

रानी

ै । इस िटे - ाल

ै । कोई उसकी आूँखें दे खे , उसका मुख दे ख,े उसका हृदय दे खे, उसकी

चाल दे खे। रानी भी लजा जायगी। गोबर ककतना बड़ा ओढ़कर कैसा भलामानस लगता

ो गया

ै और प न-

ै।

ि नया के मन में कभी अमंगल की शंका न ु ई थी। उसका मन क ता था, गोबर कुशल से ै और प्रसन्न ै । आज उसे आूँखों दे खकर मानो उसके जीवन के िूल-िक्कड़ में गुम ु आ रत्न समल गया गोबर ने पछ ू ा -- दादा को क्या ु आ ि नया घर का

ै ; मगर

ोरी ने मूँु

िेर सलया था।

ै , अम्माूँ?

ाल क कर उसे दख ु ी न करना चा ती थी। बोली -- कुछ न ीं

बेटा, ज़रा ससर में ददद हदन? भला इस तर

ै । चलो, कपड़े उतरो, ाथ-मूँु

कोई घर से भागता

आज साल-भर के बाद जाके सुधि ली



िोओ? क ाूँ थे तुम इतने

ै ? और कभी एक धचट्ठी तक न भेजी।

ै । तुम् ारी रा

गयीं। य ी आसा बूँिी र ती थी कक कब व

दे खते-दे खते आूँखें िूट

हदन आयेगा और कब तुम् ें दे खग ूूँ ी।

कोई क ता था, समरच भाग गया, कोई डमरा टापू बताता था। सन ु -सन ु कर जान सूखी जाती थी। क ाूँ र े इतने हदन?

गोबर ने शमाते ु ए क ा -- क ीं दरू न ीं गया था अम्माूँ, य था।

लखनऊ में तो

'और इतने नयरे र कर भी कभी एक धचट्ठी न सलखी!' उिर सोना और रूपा भीतर गोबर का सामान खोलकर चीज़ का बाूँट -बखरा करने में लगी ु ई थीं; लेककन झु नया दरू खड़ी थी; उसके मुख पर आज मान का शोख रं ग झलक र ा ै । गोबर ने उसके साथ जो व्यव ार ककया ै , आज व उसका बदला लेगी। असामी को दे खकर म ाजन उससे व व्याकुल

ो र ा

रुपये वसूल करने को भी

ै , जो उसने बट्टे खाते में डाल हदये थे। बच्चा उन चीज़ों की ओर

लपक र ा था और चा ता था, सब-का-सब एक साथ मूँु

में डाल ले; पर झु नया

उसे गोद से उतरने न दे ती थी।

सोना बोली -- भैया तम् ु ारे सलए आईना-कंघी लाये

ैं भाभी!

झु नया ने उपेक्षा भाव से क ा -- मुझे ऐना-कंघी न चाह ए। अपने पास रखे र ें । रूपा ने बच्चे की चमकीली टोपी नकाली -- ओ

ो! य

तो चन् ु नू की टोपी

ै।

और उसे बच्चे के ससर पर रख हदया। झु नया ने टोपी उतारकर िेंक दी। और स सा गोबर को अंदर आते दे खकर व

बालक को सलए अपनी कोठरी में चली

गयी। गोबर ने दे खा, सारा सामान खल ु ा पड़ा

ै । उसका जी तो चा ता

ै प ले

झु नया से समलकर अपना अपराि क्षमा कराये; लेककन अंदर जाने का सा स न ीं

ोता। व ीं बैठ गया और चीज़ें नकाल- नकाल, र-एक को दे ने लगा, मगर

रूपा इससलए िूल गयी कक उसके सलए चप्पल क्यों न ीं आये, और सोना उसे धचढ़ाने लगी, तू क्या करे गी चप्पल लेकर, अपनी गुडड़या से खेल। गडु ड़या दे खकर न ीं रोते, तू मेरा चप्पल दे खकर क्यों रोती

म तो तेरी

ै?

समठाई बाूँटने की श्ज़म्मेदारी ि नया ने अपने उपर ली। इतने हदनों के बाद लड़का कुशल से घर आया

ै। व

गाूँव-भर में बैना बटवायेगी। एक गुलाब-

जामन ु रूपा के सलए ऊूँट के मूँु उसके सामने रख दी जाय, व

में जीरे के समान था। व

चा ती थी, ाूँडी

कूद-कूद खाय। अब संदक़ ू खुला और उसमें से

साडड़याूँ नकलने लगीं। सभी ककनारदार थीं; जैसी पटे कवरी लाला के घर में प नी जाती

ैं, मगर

ैं बड़ी

लकी। ऐसी म ीन साडड़याूँ भला कै हदन चलें गी! बड़े

आदमी श्जतनी म ीन साडड़याूँ चा े प नें। उनकी मे ररयों को बैठने और सोने के ससवा और कौन काम

ै । य ाूँ तो खेत-खसल ान सभी कुछ

सलए िोती के अ तररक्त एक दप ु ट्टा भी ि नया प्रसन्न

ोकर बोली -- य

बबलकुल तार-तार अंदाज़

ै । अच्छा!

ोरी के

ै।

तुमने बड़ा अच्छा ककया बेटा! इनका दप ु ट्टा

ो गया था। गोबर को उतनी दे र में घर की पररश्स्थ त का

ो गया था। ि नया की साड़ी में कई पें वदे लगे

ु ए थे। सोना की साड़ी ससर पर िटी ु ई थी और उसमें से उसके बाल हदखाई दे र े थे। रूपा की िोती में चारों तरफ़ झालरें -सी लटक र ी थीं। सभी के चे रे रूखे , ककसी की दे

पर

धचकना ट न ीं। श्जिर दे खो, ववपन्नता का साम्राज्य था। लड़ककयाूँ तो साडड़यों में मगन थीं। ि नया को लड़के के सलए भोजन की धचंता ु ई। घर में थोड़ा-सा जौ का आटा साूँझ के सलए संचकर रखा ु आ था। इस वक़्त तो चबैने पर कटती थी; मगर गोबर अब व

गोबर थोड़े



ै । उसको जौ का आटा खाया भी जायगा। परदे श

में न जाने क्या-क्या खाता-पीता र ा

ोगा। जाकर दल ु ारी की दक ु ान से गे ू ूँ का आटा, चावल, घी उिार लायी। इिर म ीने से स ु आइन एक पैसे की चीज़ भी उिार न दे ती थी; पर आज उसने एक बार भी न पूछा, पैसे कब दोगी। उसने पूछा -- गोबर तो ख़ूब कमा के आया

ै न?

ि नया बोली -- अभी तो कुछ न ीं खुला दीदी! अभी मैंने भी कुछ क ना उधचत न समझा।

ाूँ, सबके सलए ककनारदार साडड़याूँ लाया

कुशल से लौट आया, मेरे सलए तो य ी ब ु त

ै।

ै । तम् ु ारे आससरबाद से

दल ु ारी ने असीस हदया -- भगवान ण करे , ज ाूँ र े कुशल से र े । माूँ-बाप को और क्या चाह ए! लड़का समझदार

ै । और छोकरों की तर

उड़ाऊ न ीं

रुपए अभी न समलें , तो ब्याज तो दे दो। हदन-हदन बोझ बढ़

ै।

ी तो र ा

मारे

ै । इिर

सोना चन् ु नू को उसका फ़्ाक और टोप और जत ू ा प नाकर राजा बना र ी थी, बालक इन चीज़ों को प नने से ज़्यादा

ाथ में लेकर खेलना पसन्द करता था।

अंदर गोबर और झु नया में मान-मनौवल का असभनय

ो र ा था। झु नया ने

तरस्कार भरी आूँखों से दे खकर क ा -- मझ ु े लाकर य ाूँ बैठा हदया। आप परदे श

की रा

ली। किर न खोज, न ख़बर कक मरती

अब जाकर तुम् ारी नींद टूटी तुम मेरे पीछे -पीछे आ र े ववकवास

ै । साल-भर के बाद

ै । ककतने बड़े कपटी

ो तुम। मैं तो सोचती ू ूँ कक ो और आप उड़े, तो साल-भर के बाद लौटे । मदों का

ी क्या, क ीं कोई और ताक ली

ी, एक बा र के सलए भी

ै या जीती

ोगी। सोचा

ोगा , एक घर के सलए



ो जाय।

गोबर ने सफ़ाई दी -- झु नया, मैं भगवान ण को साक्षी दे कर क ता ू ूँ जो मैंने कभी ककसी की ओर ताका भी ो। लाज और डर के मारे घर से भागा ज़रूर ; मगर तेरी याद एक छन के सलए भी मन से न उतरती थी। अब तो मैंने तय कर सलया बबगड़े

ोंगे ?

ै कक तुझे भी लेता जाऊूँगा; इससलए आया ू ूँ। तेरे घरवाले तो ब ु त

'दादा तो मेरी जान लेने पर ी उतारू थे।' 'सच!' 'तीनों जने य ाूँ चढ़ आये थे। अम्माूँ ने ऐसा डाूँटा कक मूँु लेकर र गये। ाूँ, मारे दोनों बैल खोल ले गये।' 'इतनी बड़ी ज़बरदस्ती! और दादा कुछ बोले न ीं?' 'दादा अकेले ककस-ककस से लड़ते! गाूँववाले तो न ीं ले जाने दे ते थे; लेककन दादा ी भलमनसी में आ गये, तो और लोग क्या करते?'

'तो आजकल खेती-बारी कैसे ो र ी ै ?' 'खेती-बारी सब टूट गयी। थोड़ी-सी पंडडत म ाराज के साझे में ै । उख बोई ी न ीं गयी।'

गोबर की कमर में इस समय दो सौ रुपए थे। उसकी गमी यों भी कम न थी। य

ाल सुनकर तो उसके बदन में आग

ी लग गयी। बोला -- तो किर प ले

मैं उन् ीं से जाकर समझता ू ूँ। उनकी य मजाल कक मेरे द्वार पर से बैल खोल ले जायूँ! य डाका ै , खुला ु आ डाका। तीन-तीन साल को चले जायूँगे तीनों। यों न दें गे, तो अदालत से लूँ ग ू ा। सारा घमंड तोड़ दूँ ग ू ा। व

उसी आवेश में चला था कक झु नया ने पकड़ सलया और बोली -- तो चले

जाना, अभी ऐसी क्या जल्दी तो पड़ा

ै ? कुछ आराम कर लो, कुछ खा-पी लो। सारा हदन

ै । य ाूँ बड़ी-बड़ी पंचायत ु ई। पंचायत ने अस्सी रुपए डाूँड़ लगाये। तीन मन अनाज ऊपर। उसी में तो और तबा ी आ गयी। सोना बालक को कपड़े-जूते प नाकर लायी। कपड़े प नकर व राजा

जैसे सचमुच

ो गया था। गोबर ने उसे गोद में ले सलया; पर इस समय बालक के प्यार

में उसे आनंद न आया। उसका रक्त खौल र ा था और कमर के रुपए आूँच और तेज़ कर र े थे। व अधिकार क्या

एक-एक से समझेगा। पंचों को उस पर डाूँड़ लगाने का

ै ? कौन

ोता

ै कोई उसके बीच में बोलनेवाला ? उसने एक औरत

रख ली, तो पंचों के बाप का क्या बबगाड़ा? अगर इसी बात पर व दावा कर दे , तो लोगों के ो गयी। क्या समझ सलया

ाथों में

फ़ौजदारी में

थकडड़याूँ पड़ जायूँ। सारी ग ृ स्थी त स-न स

ै उसे इन लोगों ने!

बच्चा उसकी गोद में ज़रा-सा मुस्कराया, किर ज़ोर से चीख़ उठा जैसे कोई डरावनी चीज़ दे ख ली

ो।

झु नया ने बच्चे को उसकी गोद से ले सलया और बोली -- अब जाकर न ा-िो लो। ककस सोच में पड़ गये। य ाूँ सबसे लड़ने लगो , तो एक हदन नबा श्जसके पास पैसे

ैं, व ी बड़ा आदमी

पर सभी रोब जमाते

ै , व ी भला आदमी

ै। पैसे न



ो।

ों, तो उस

ैं।

'मेरा गिापन था कक घर से भागा। न ीं दे खता, कैसे कोई एक िेला डाूँड़ लेता ै ।'

'स र की वा खा आये ो तभी ये बातें सूझने लगी ैं। न ीं, घर से भागते क्यों!'

'य ी जी चा ता ै कक लाठी उठाऊूँ और पटे कवरी, दातादीन, णझंगुरी, सब सालों को पीटकर धगरा दूँ ,ू और उनके पेट से रुपए नकाल लूँ ।ू '

'रुपए की ब ु त गमी चढ़ी ै साइत। लाओ नकालो, दे खूूँ, इतने हदन में क्या कमा लाये ा?' उसने गोबर की कमर में

ाथ लगाया। गोबर खड़ा

ोकर बोला -- अभी क्या

कमाया; ाूँ, अब तम ु चलोगी, तो कमाऊूँगा। साल-भर तो स र का रं ग-ढं ग प चानने

ी में लग गया।

'अम्माूँ जाने दें गी, तब तो?' 'अम्माूँ क्यों न जाने दें गी। उनसे मतलब?' 'वा ! मैं उनकी राज़ी बबना न जाऊूँगी। तम ु तो छोड़कर चलते बने। और मेरा कौन था य ाूँ? व

अगर घर में न घुसने दे तीं तो मैं क ाूँ जाती? जब तक

जीऊूँगी, उनका जस गाऊूँगी और तुम भी क्या परदे श

ी करते र ोगे ?'

'और य ाूँ बैठकर क्या करूूँगा। कमाओ और मरो, इसके ससवा य ाूँ और क्या रखा

ै ? थोड़ी-सी अकल

ो और आदमी काम करने से न डरे , तो व ाूँ भूखों न ीं

मर सकता। य ाूँ तो अकल कुछ काम िुलाए ु ए

ैं?'

ी न ीं करती। दादा क्यों मुझसे मूँु

'अपने भाग बखानो कक मूँु िुलाकर छोड़ दे ते ैं। तुमने उपद्रव तो इतना बड़ा ककया था कक उस क्रोि में पा जाते, तो मूँु

लाल कर दे त।े '

'तो तम् ु ें भी ख़ब ू गासलयाूँ दे ते ोंगे?' 'कभी न ीं, भूलकर भी न ीं। अम्माूँ तो प ले बबगड़ी थीं; लेककन दादा ने तो कभी कुछ न ीं क ा, जब बुलाते जाते

ैं, बड़े प्यार से। मेरा ससर भी दख ु ता

ै , तो बेचैन

ैं। अपने बाप को दे खते तो मैं इन् ें दे वता समझती ू ूँ । अम्माूँ को समझाया करते ैं , ब ू को कुछ न क ना। तम् ु ारे ऊपर सैकड़ों बार बबगड़ चक ु े



कक इसे घर में बैठाकर आप न जाने क ाूँ नकल गया। आज-कल पैसे-पैसे की

ैं

तंगी

ै । ऊख के रुपए बा र

आज बेचारे खेत में बे ोश

ी बा र उड़ गये। अब तो मजरू ी करनी पड़ती

ो गये। रोना-पीटना मच गया। तब से पड़े

ै।

ैं।'

मूँु - ाथ िोकर और ख़ूब बाल बनाकर गोबर गाूँव का हदश्ग्वजय करने नकला।

दोनों चाचाओं के घर जाकर राम-राम कर आया। किर और समत्रों से समला। गाूँव में कोई ववशेष पररवतदन न था।

ाूँ, पटे कवरी की नयी बैठक बन गयी थी और

णझंगुरीससं ने दरवाज़े पर नया कुआूँ खुदवा सलया था। गोबर के मन में ववद्रो

और भी ताल ठोंकने लगा। श्जससे समला उसने उसका आदर ककया , और युवकों ने तो उसे अपना गये। साल

ीरो बना सलया और उसके साथ लखनऊ जाने को तैयार

ी भर में व

क्या से क्या



ो गया था।

स सा णझंगुरीससं अपने कुएूँ पर न ाते ु ए समल गये। गोबर नकला; मगर न सलाम ककया, न बोला। व ठाकुर को हदखा दे ना चा ता था, मैं तुम् ें कुछ न ीं समझता।

णझंगुरीससं ने ख़ुद लखनऊ में ? गोबर ने

ी पूछा -- कब आये गोबर, मज़े में तो र े ? क ीं नौकर थे

े कड़ी के साथ क ा -- लखनऊ ग़ल ु ामी करने न ीं गया था। नौकरी



तो ग़ल ु ामी। मैं व्यापार करता था।

ठाकुर ने कुतू ल भरी आूँखों से उसे ससर से पाूँव तक दे खा -- ककतना रोज़ पैदा करते थे?

गोबर ने छुरी को भाला बनाकर उनके ऊपर चलाया -- य ी कोई ढाई-तीन रुपए समल जाते थे। कभी चटक गयी तो चार भी समल गये। इससे बेसी न ीं।

णझंगुरी ब ु त नोच-खसोट करके भी पचीस-तीस से ज़्यादा न कमा पाते थे। और य गूँवार लौंडा सौ रुपए कमाने लगा। उनका मस्तक नीचा ो गया। अब ककस दावे से उस पर रोब जमा सकते दे खता

ैं ? वणद में व

ै ! उससे स्पिाद करने का य

उससे कुछ काम नकाला जा सकता

ज़रूर ऊूँचे

ैं ; लेककन वणद कौन

अवसर न ीं , अब तो उसकी धचरौरी करके ै।

बोले -- इतनी कमाई कम न ीं

ै बेटा, जो ख़रच करते बने। गाूँव में तो तीन

आने भी न ीं समलते। भव नया (उनके जेठे पुत्र का नाम था) को भी क ीं कोई काम हदला दो, तो भेज दूँ ।ू न पढ़े न सलखे, एक न एक उपद्रव करता र ता क ीं मुनीमी ख़ाली तलब थोड़ी

ो तो क ना। न ीं साथ

ूँसी के साथ क ा -- य

आदमी को ख़राब कर दे ती बबगड़ गयी समल सकती

ी लेते जाना। तुम् ारा तो समत्र

ो, कुछ ग़म न ीं, ाूँ, चार पैसे की ऊपर की गुंजाइस

गोबर ने असभमान भरी

ै ठाकुर; लेककन

ै।

ो।

ऊपरी आमदनी की चाट

म लोगों की आदत कुछ ऐसी

ै कक जब तक बेईमानी न करें , पेट न ीं भरता। लखनऊ में मुनीमी ै ; लेककन

र-एक म ाजन ईमानदार चौकस आदमी चा ता

भवानी को ककसी के गले बाूँि तो दूँ ;ू लेककन पीछे इन् ोंने क ीं तो मेरी गदद न पकड़ेगा। संसार में इलम की क़दर न ीं



तमाचा लगाकर गोबर आगे नकल गया। णझंगरु ी मन में ऐंठकर र

लौंडा ककतने घमंड की बातें करता

ै । मैं

ाथ लपकाया , तो



इसी तर

ै।

ै , ईमान की क़दर

ै , मानो िमद का अवतार

ी तो

ै।

ै।

गये।

गोबर ने दातादीन को भी रगड़ा। भोजन करने जा र े थे।

गोबर को दे खकर प्रसन्न अच्छी जग

पा गये

ोकर बोले -- मज़े में तो र े गोबर? सुना व ाूँ कोई

ो। मातादीन को भी ककसी

पड़े र ने के ससवा य ाूँ और कौन काम

ीले से लगा दो न? भंग पीकर

ै।

गोबर ने बनाया -- तुम् ारे घर में ककस बात की कमी म ाराज, श्जस जजमान के द्वार पर जाकर खड़े

ो जाओ कुछ न कुछ मार

में लो, सादी में लो, गमी में लो; खेती करते ो, ककसी से कुछ भूल-चूक

ी लाओगे। जनम में लो, मरन

ो, लेन-दे न करते

ो, दलाली करते

ो जाय तो डाूँड़ लगाकर उसका घर लूट लेते

ो;

इतनी कमाई से पेट न ीं भरता? क्या करोगे ब ु त-सा िन बटोरकर? कक साथ ले जाने की कोई जुगुत नकाल ली ै ? दातादीन ने दे खा, गोबर ककतनी हढठाई से बोल र ा

ै ; अदब और सल ाज जैसे

भल ू गया। अभी शायद न ीं जानता कक बाप मेरी ग़ल ु ामी कर र ा

ै । सच

ै,

छोटी नदी को उमड़ते दे र न ीं लगती; मगर चे रे पर मैल न ीं आने हदया। जैसे बड़े लोग बालकों से मूँछ ू ें उखड़वाकर भी

ूँसते

ैं, उन् ोंने भी इस िटकार को

ूँसी में सलया और ववनोद-भाव से बोले -- लखनऊ की ो गया

ै गोबर! ला, क्या कमा के लाया

वा खा के तू बड़ा चंट

ै , कुछ नकाल।

'सच क ता ू ूँ गोबर तुम् ारी ब ु त याद आती थी। अब तो र ोगे कुछ हदन? ' ाूँ, अभी तो र ू ूँगा कुछ हदन। उन पंचों पर दावा करना ै , श्जन् ोंने डाूँड़ के ब ाने मेरे डेढ़ सौ रुपए ज़म ककये ैं। दे खूूँ, कौन मेरा ु क़्क़ा-पानी बंद करता ै । और कैसे बबरादरी मुझे जात बा र करती य

िमकी दे कर व

आगे बढ़ा। उसकी

ै ।'

े कड़ी ने उसके युवक भक्तों को रोब में

डाल हदया था।

एक ने क ा -- कर दो नासलस गोबर भैया! बड् ु ढा काला साूँप

ै -- श्जसके काटे

का मंतर न ीं। तुमने अच्छी डाूँट बताई। पटवारी के कान भी ज़रा गरमा दो। बड़ा मुतिन्नी

ै दादा! बाप-बेटे में आग लगा दे , भाई-भाई में आग लगा दे ।

काररंदे से समलकर असासमयों का गला काटता

ै । अपने खेत पीछे जोतो , प ले

उसके खेत जोत दो। अपनी ससंचाई पीछे करो , प ले उसकी ससंचाई कर दो। गोबर ने मूँछ ू ों पर ताव दे कर क ा -- मुझसे क्या क ते भूल थोड़े अबकी

ी गया। य ाूँ मुझे र ना

ी न ीं

ोली िूम-िाम से मनाओ और

सभंगो-सभंगोकर लगाओ।

ो भाई, साल भर में

ै , न ीं एक-एक को नचाकर छोड़ता।

ोली का स्वाूँग बनाकर इन सबों को ख़ूब

ोली का प्रोग्राम बनने लगा। ख़ूब भंग घुटे, दधू िया भी, नमकीन भी, और रं गों के

साथ कासलख भी बने और मुणखयों के मूँु कोई बोल

ी क्या सकता

पर कासलख

ी पोती जाय।

ोली में

ै ! किर स्वाूँग नकले और पंचों की भद्द उड़ाई जाय।

रुपए-पैसे की कोई धचन्ता न ीं। गोबर भाई कमाकर आये

ैं। भोजन करके गोबर

भोला से समलने चला। जब तक अपनी जोड़ी लाकर अपने द्वार पर बाूँि न दे , उसे चैन न ीं। व

लड़ने-मरने को तैयार था।

ोरी ने कातर स्वर में क ा -- राढ़ मत बढ़ाओ बेटा, भोला गोईं ले गये, भगवान ण

उनका भला करे ; लेककन उनके रुपए तो आते

ी थे।

गोबर ने उत्तेश्जत की थी। की थी

ोकर क ा -- दादा, तम ु बीच में न बोलो। उनकी गाय पचास

मारी गोईं डेढ़ सौ में आयी थी। तीन साल ी। व

मने जोती। किर भी सौ

अपने रुपये के सलए दावा करते, डडग्री कराते, या जो चा ते क ते,

मारे द्वार से जोड़ी क्यों खोल ले गये ? और तुम् ें क्या क ू ूँ। इिर गोईं खो बैठे, उिर डेढ़ सौ रुपए डाूँड़ के भरे । य ै गऊ ोने का िल। मेरे सामने जोड़ी खोल ले जाते, तो दे खता। तीनों को य ाूँ ज़मीन पर सल ु ा दे ता। और पंचों से तो बात तक न करता। दे खता, कौन मुझे बबरादरी से अलग करता ताकते र े ।

ै; लेककन तुम बैठे

ोरी ने अपरािी की भाूँ त ससर झक ु ा सलया; लेककन ि नया य

अनीत कैसे दे ख

सकती थी। बोली -- बेटा, तुम भी अूँिेर करते गाूँव में नवा द

ोता! जवान लड़की बैठी

ो। ु क़्क़ा-पानी बन्द ो जाता, तो ै , उसका भी क ीं हठकाना लगाना ै

कक न ीं? मरने-जीने में आदमी बबरादरी ...। गोबर ने बात काटी -- ु क़्क़ा-पानी सब तो था, बबरादरी में आदर भी था, किर मेरा ब्या क्यों न ीं ु आ? बोलो। इससलए कक घर में रोटी न थी। रुपए ों तो न ु क़्क़ा-पानी का काम न ीं पूछता।

ै , न जात-बबरादरी का। द ु नया पैसे की

ै , ु क़्क़ा-पानी कोई

ि नया तो बच्चे का रोना सुनकर भीतर चली गयी और गोबर भी घर से नकला।

ोरी बैठा सोच र ा था। लड़के की अकल जैसे खुल गयी

बेलाग बात क ता कर हदया था। स सा

ै । उसकी वक्त बुवि ने

ै । कैसी

ोरी के िमद और नी त को परास्त

ोरी ने उससे पूछा -- मैं भी चला चलूँ ? ू

'मैं लड़ाई करने न ीं जा र ा ू ूँ दादा, डरो मत। मेरी ओर क़ानन ै , मैं क्यों ू लड़ाई करने लगा?' 'मैं भी चलूँ ू तो कोई रज़ ै ?' ' ाूँ, बड़ा रज़ ै । तुम बनी बात बबगाड़ दोगे।'

ोरी चप ु

ो गया और गोबर चल हदया। पाूँच समनट भी न ु ए ोंगे कक ि नया बच्चे को सलए बा र नकली और बोली -- क्या गोबर चला गया, अकेले? मैं क ती ू ूँ , तुम् ें भगवान ण कभी बुवि दें गे या न ीं। भोला क्या स ज में गोईं दे गा? तीनों उस पर टूट पड़ेंगे, बाज़ की तर । भगवान ण ी कुशल करें । अब ककससे क ू ूँ , दौड़कर गोबर को पकड़ ले। तुमसे तो मैं

ार गयी।

ोरी ने कोने से डंडा उठाया और गोबर के पीछे दौड़ा। गाूँव के बा र आकर उसने नगा

दौड़ाई। एक क्षीण-सी रे खा क्षक्ष तज से समली ु ई हदखाई दी। इतनी ी दे र में गोबर इतनी दरू कैसे नकल गया! ोरी की आत्मा उसे धिक्कारने

लगी। उसने क्यों गोबर को रोका न ीं। अगर व

डाूँटकर क

दे ता , भोला के घर

मत जाओ तो गोबर कभी न जाता। और अब उससे दौड़ा भी तो न ीं जाता। व ारकर व ीं बैठ गया और बोला -- उसकी रच्छा करो म ाबीर स्वामी! गोबर उस गाूँव में प ु ूँचा, तो दे खा कुछ लोग बरगद के नीचे बैठे जआ खेल र े ु ैं। उसे दे खकर लोगों ने समझा, पुलीस का ससपा ी ै । कौडड़याूँ समेटकर भागे कक स सा जंगी ने उसे प चानकर क ा -- अरे , य गोबरिन

तो

ै।

गोबर ने दे खा, जंगी पेड़ की आड़ में खड़ा झाूँक र ा

ै । बोला -- डरो मत जंगी

भैया, मैं ू ूँ। राम-राम! आज ी आया ू ूँ। सोचा, चलूँ ू सबसे समलता आऊूँ, किर न जाने कब आना ो! मैं तो भैया, तम् ु ारे आससरबाद से बड़े मज़े में नकल गया। श्जस राजा की नौकरी मैं ू ूँ, उन् ोंने मझ ु से क ा ै कक एक-दो आदमी समल जायूँ तो लेते आना। चौकीदारी के सलए चाह ए। मैंने क ा, सरकार ऐसे आदमी दूँ ग ू ा कक चा े जान चली जाय, मैदान से चलो। अच्छी जग

टनेवाले न ीं, इच्छा

ो तो मेरे साथ

ै।

जंगी उसका ठाट-बाट दे खकर रोब में आ गया। उसे कभी चमरौिे जूते भी

मयस्सर न ु ए थे। और गोबर चमाचम बूट प ने ु ए था। साफ़-सुथरी, िारीदार कमीज़, सूँवारे ु ए बाल, पूरा बाबू सा ब बना ु आ। िटे ाल गोबर और इस पररष्कृत गोबर में बड़ा अंतर था। ह स ं ा-भाव कुछ तो यों ी समय के प्रभाव से शान्त

ो गया था और बचा-खच ु ा अब शांत

ो गया। जआ ु ड़ी था

ी, उस पर

गाूँजे की लत। और घर में बड़ी मश्ु ककल से पैसे समलते थे। मूँु

में पानी भर

आया।

बोला -- चलूँ ग ू ा क्यों न ीं, य ाूँ पड़ा-पड़ा मक्खी समलें गे?

ी तो मार र ा ू ूँ। कै रुपए

गोबर ने बड़े आत्मववकवास से क ा -- इसकी कुछ धचन्ता न करो। सब कुछ अपने

आदमी



ाथ में

ै । जो चा ोगे , व

ो जायगा।

मने सोचा, जब घर में



ै , तो बा र क्यों जायूँ।

जंगी ने उत्सुकता से पूछा -- काम क्या करना पड़ेगा?

'काम चा े चौकीदारी करो, चा े तगादे पर जाओ। तगादे का काम सबसे अच्छा। असामी से गठ गये। आकर मासलक से क आठ आने रोज़ बना सकते

हदया , घर पर

ै न ीं, चा ो तो रुपए

ो।'

'र ने की जग भी समलती ै ?' 'जग की कौन कमी। पूरा म ल पड़ा ै । पानी का नल, बबजली। ककसी बात की कमी न ीं

ै । कामता

ैं कक क ीं गये

ैं ?'

'दि ू लेकर गये ैं। मुझे कोई बाज़ार न ीं जाने दे ता। क ते ैं , तुम तो गाूँजा पी जाते

ो। मैं अब ब ु त कम पीता ू ूँ भैया, लेककन दो पैसे रोज़ तो चाह ए तुम कामता से कुछ न क ना। मैं तम् ु ारे साथ चलूँ ग ू ा।'

ी।

' ाूँ- ाूँ, बेखटके चलो। ोली के बाद।' 'तो पक्की र ी।' दोनों आदमी बातें करते भोला के द्वार पर आ प ु ूँच।े भोला बैठे सुतली कात र े थे। गोबर ने लपक कर उनके चरण छुए और इस वक़्त उसका गला सचमुच भर आया।

बोला -- काका, मुझसे जो कुछ भूल-चूक ु ई, उसे क्षमा करो।

भोला ने सुतली कातना बन्द कर हदया और पथरीले स्वर में बोला -- काम तो तुमने ऐसा

ी ककया था गोबर, कक तुम् ारा ससर काट लूँ ू तो भी पाप न लगे;

लेककन अपने द्वार पर आये

ो, अब क्या क ू ूँ! जाओ, जैसा मेरे साथ ककया उसकी सज़ा भगवान ण दें गे। कब आये?

गोबर ने ख़ूब नमक-समचद लगाकर अपने भाग्योदय का वत्ृ तांत क ा, और जंगी

को अपने साथ ले जाने की अनुम त माूँगी। भोला को जैसे बेमाूँगे वरदान समल गया। जंगी घर पर एक-न-एक उपद्रव करता र ता था। बा र चला जायगा, तो चार पैसे पैदा तो करे गा। न ककसी को कुछ दे , अपना बोझ तो उठा लेगा। गोबर ने क ा -- न ीं काका, भगवान ण ने चा ा और इनसे र ते बना तो साल दो साल में आदमी

ो जायूँगे।

' ाूँ, जब इनसे र ते बने।' 'ससर पर आ पड़ती ै , तो आदमी आप सूँभल जाता ै ।' 'तो कब तक जाने का ववचार ै ?' ' ोली करके चला जाऊूँगा। य ाूँ खेती-बारी का ससलससला किर जमा दूँ ,ू तो नसधचंत

ो जाऊूँ।'

' ोरी से क ो, अब बैठ के राम-राम करें ।' 'क ता तो ू ूँ, लेककन जब उनसे बैठा जाय।' 'व ाूँ ककसी बैद से तो तम् ु ारी जान-प चान ोगी। खाूँसी ब ु त हदक कर र ी ै । ो सके तो कोई दवाई भेज दे ना।' 'एक नामी बैद तो मेरे पड़ोस ी में र ते ैं। उनसे ाल क के दवा बनवा कर भेज दूँ ग ू ा। खाूँसी रात को ज़ोर करती

ै कक हदन को?'

'न ीं बेटा, रात को। आूँख न ीं लगती। न ीं व ाूँ कोई डौल ो, तो मैं भी व ीं चलकर र ू ूँ। य ाूँ तो कुछ परता न ीं पड़ता।'

'रोज़गार का जो मज़ा व ाूँ ै काका, य ाूँ क्या ोगा? य ाूँ रुपए का दस सेर दि ू भी कोई न ीं पछ ू ता।

लवाइयों के गले लगाना पड़ता

ै । व ाूँ पाूँच-छः सेर के

भाव से चा ो तो एक घड़ी में मनों दि ू बेच लो।' जंगी गोबर के सलए दधू िया शबदत बनाने चला गया था। भोला ने एकांत दे खकर क ा -- और भैया! अब इस जंजाल से जी ऊब गया ो। कामता दि ू लेकर जाता

पड़ता

ै । जंगी का

ाल दे खते



ै । सानी-पानी, खोलना-बाूँिना, सब मुझे करना

ै । अब तो य ी जी चा ता

ै कक सुख से क ीं एक रोटी खाऊूँ और पड़ा

र ू ूँ। क ाूँ तक ाय- ाय करूूँ। रोज़ लड़ाई-झगड़ा। ककस-ककस के पाूँव स लाऊूँ। खाूँसी आती ै , रात को उठा न ीं जाता; पर कोई एक लोटे पानी को भी न ीं पछ ू ता। पगह या टूट गयी बनाऊूँगा तभी बनेगी।

ै , मद ु ा ककसी को इसकी सधु ि न ीं

ै । जब मैं

गोबर ने आत्मीयता के साथ क ा -- तुम चलो लखनऊ काका। पाूँच सेर का दि ू बेचो, नगद। ककतने

ी बड़े-बड़े अमीरों से मेरी जान-प चान

नकासी का श्ज़म्मा मैं लेता ू ूँ। मेरी चाय की दक ू ान भी ी नत लेता ू ूँ। तुम् ें ककसी तर का कष्ट न ोगा।

ै । मन-भर दि ू की

ै । दस सेर दि ू तो मैं

जंगी दधू िया शबदत ले आया। गोबर ने एक धगलास शबदत पीकर क ा -- तुम तो ख़ाली साूँझ सबेरे चाय की दक ू ान पर बैठ जाओ काका, तो एक रुपए क ीं न ीं गया

ै।

भोला ने एक समनट के बाद संकोच भरे भाव से क ा -- क्रोि में बेटा, आदमी अंिा

ो जाता

खेती-बारी

ोती

ै । मैं तुम् ारी गोईं खोल लाया था। उसे लेते जाना। य ाूँ कौन ै।

'मैंने तो एक नयी गोईं ठीक कर ली ै काका!' 'न ीं-न ीं, नयी गोईं लेकर क्या करोगे? इसे लेते जाओ।'

'तो मैं तुम् ारे रुपए सभजवा दूँ ग ू ा।' 'रुपए क ीं बा र थोड़े ी ैं बेटा, घर में ी तो ैं। बबरादरी का ढकोसला ै , न ीं तुममें और

ममें कौन भेद

झु नया भले घर में

ै ? सच पूछो तो मुझे ख़ुश

ै , आराम से

था।'

ोना चाह ए था कक

ै । और मैं उसके ख़ून का प्यासा बन गया

संध्या समय गोबर य ाूँ से चला, तो गोईं उसके साथ थी और द ी की दो सलये जंगी पीछे -पीछे आ र ा था।

***

ाूँडड़याूँ

21 दे ातों में साल के छः म ीने ककसी न ककसी उत्सव में ढोल-मजीरा बजता र ता ै।

ोली के एक म ीना प ले से एक म ीना बाद तक िाग उड़ती

लगते

ी आल् ा शुरू

ो जाता

ै और सावन-भादों में कजसलयाूँ

कजसलयों के बाद रामायण-गान

ोने लगता

परवा

ै , दे

ोती

ै । सेमरी भी अपवाद न ीं

म ाजन की िमककयाूँ और काररन्दे की बोसलयाूँ इस समारो सकतीं। घर में अनाज न ीं

ै ; आषाढ़

पर कपड़े न ीं

ैं। ै।

में बािा न ीं डाल

ैं , गाूँठ में पैसे न ीं

ैं , कोई

न ीं। जीवन की आनंदवश्ृ त्त तो दबाई न ीं जा सकती, ूँसे बबना तो

श्जया न ीं जा सकता। यों

ोली में गाने-बजाने का मख् ु य स्थान नोखेराम की

चौपाल थी। व ीं भंग बनती थी, व ीं रं ग उड़ता था, व ीं नाच उत्सव में काररंदा सा ब के दस-पाूँच रुपए ख़चद

ोता था। इस

ो जाते थे। और ककसमें य

सामथ्यद थी कक अपने द्वार पर जलसा कराता? लेककन अबकी गोबर ने गाूँव के सारे नवयुवकों को अपने द्वार पर खींच सलया पड़ी ु ई

ै और नोखेराम की चौपाल ख़ाली

ै।

गोबर के द्वार भंग घुट र ी

ै , पान के बीड़े लग र े

ैं, रं ग घोला जा र ा

ै,

फ़शद बबछा ु आ ै , गाना ो र ा ै , और चौपाल में सन्नाटा छाया ु आ ै । भंग रखी ु ई ै , पीसे कौन? ढोल-मजीरा सब मौजद ै ; पर गाये कौन? श्जसे दे खो, ू गोबर के द्वार की ओर दौड़ा चला जा र ा केसर और बादाम की ब ार चोला तर

ो जाता

ाूँ- ाूँ, सेर-भर बादाम गोबर ख़ुद लाया। पीते

ै , आूँखें खुल जाती

की! रं ग में भी केवड़ा छोड़ा जानता

ै।

ैं। ख़मीरा तमाखू लाया

ै । रुपए कमाना भी जानता

ै । गाड़कर रख लो, तो कौन दे खता

केवल भंग

ी न ीं

नाचनेवालों की कमी

ै । य ाूँ भंग में गुलाब-जल और

ै । श्जतने गानेवाले

में तो उसका सानी न ीं

कर सकता

ै।

ै ; और ख़रच करना भी

ै ? िन की य ी शोभा

ैं, सबका नेवता भी

ै । और

ै । और गाूँव में न ी

ै कक क्या कोई करे गा और बोली की नक़ल करने

ै । श्जसकी बोली क ो, उसकी बोले -- आदमी की भी,

जानवर की भी। धगरिर नक़ल करने में बेजोड़ पटवारी की नक़ल व

ै , ख़ास बबसवाूँ

ै , न गानेवालों की, न असभनय करनेवालों की। शोभा

लूँ गड़ों की ऐसी नक़ल करता



ै । वकील की नक़ल व

करे ,

करे , थानेदार की, चपरासी की, सेठ की -- सभी की नक़ल

ाूँ, बेचारे के पास वैसा सामान न ीं

उसके सलए सभी सामान मूँगा हदया

ै , मगर अबकी गोबर ने

ै , और उसकी नक़लें दे खने जोग

ोंगी।



चचाद इतनी िैली कक साूँझ से

ी तमाशा दे खनेवाले जमा

ोने लगे। आस-

पास के गाूँवों से दशदकों की टोसलयाूँ आने लगीं। दस बजते-बजते तीन-चार आदमी जमा

ज़ार

ो गये। और जब धगरिर णझंगुरीससं का रूप िरे अपनी मंडली के

साथ खड़ा ु आ, तो लोगों को खड़े ोने की जग भी न समलती थी। व ी खल्वाट ससर, व ी बड़ी मूँछ ू ें , और व ी तोंद! बैठे भोजन कर र े ैं और प ली ठकुराइन बैठी पंखा झल र ी

ैं। ठाकुर ठकुराइन को रससक नेत्रों से दे खकर क ते

अब भी तुम् ारे ऊपर व

जोबन

और ठकुराइन िूलकर क ती

ैं --

ै कक कोई जवान भी दे ख ले, तो तड़प जाय।

ैं, जभी तो गयी नवेली लाये।

'उसे तो लाया ू ूँ तुम् ारी सेवा करने के सलए। व तुम् ारी क्या बराबरी करे गी?' छोटी बीबी य

वाक्य सन ु लेती

में ठाकुर खाट पर लेटे बार-बार उसका मूँु क्यों रूठी

ै और मूँु

िुलाकर चली जाती

ै । दस ू रे दृकय

ैं और छोटी ब ू मूँु िेरे ु ए ज़मीन पर बैठी ै । ठाकुर अपनी ओर िेरने की वविल चेष्टा करके क ते ैं -- मुझसे

ो मेरी लाड़ली?

'तम् ु ारी लाड़ली ज ाूँ ो, व ाूँ जाओ। मैं तो लौंड़ी ू ूँ, दस ू रों की सेवा-ट ल करने के सलए आयी ू ूँ।' 'तुम मेरी रानी ो। तुम् ारी सेवा-ट ल करने के सलए व बुहढ़या ै ।' प ली ठकुराइन सुन लेती पर जमाती

ैं और झाड़ू लेकर घर में घुसती ैं। ठाकुर सा ब जान बचाकर भागते ैं।

ैं और कई झाड़ू उन

किर दस ू री नक़ल ु ई, श्जसमें ठाकुर ने दस रुपए का दस्तावेज़ सलखकर पाूँच रुपए हदये, शेष नज़राने और त रीर और दस्तूरी और ब्याज में काट सलये। ककसान आकर ठाकुर के चरण पकड़कर रोने लगता रुपए दे ने पर राज़ी

ोते

पाूँच रुपए रख हदये जाते मासलक!'

ैं। जब काग़ज़ सलख जाता ैं, तो व

चकराकर पछ ू ता

'पाूँच न ीं दस ैं। घर जाकर धगनना। '

ै । बड़ी मुश्ककल से ठाकुर ै और आदमी के ै --'य

तो पाूँच

ाथ में ी

ैं

'न ीं सरकार, पाूँच ैं!' 'एक रुपया नज़राने का ु आ कक न ीं?' ' ाूँ, सरकार!' 'एक त रीर का?' ' ाूँ, सरकार!' 'एक कागद का?' ' ाूँ, सरकार!' 'एक दस्तूरी का?' ' ाूँ, सरकार!' 'एक सूद का?' ' ाूँ, सरकार!' 'पाूँच नगद, दस ु ए कक न ीं?' ' ाूँ, सरकार! अब य पाूँचों भी मेरी ओर से रख लीश्जए।' 'कैसा पागल ै ?' 'न ीं सरकार, एक रुपया छोटी ठकुराइन का नज़राना ै , एक रुपया बड़ी ठकुराइन का। एक रुपया छोटी ठकुराइन के पान खाने को, एक बड़ी ठकुराइन के पान खाने को। बाक़ी बचा एक, व इसी तर

आपकी कक्रया-करम के सलए।'

नोखेराम और पटे कवरी और दातादीन की -- बारी-बारी से सबकी ख़बर

ली गयी। और िब तयों में चा े कोई नयापन न

ो और नक़लें पुरानी

ों;

लेककन धगरिारी का ढं ग ऐसा बेबात की बात में भी

ास्यजनक था , दशदक इतने सरल हृदय थे कक

ै ी ूँसते थे। रात-भर भूँड़त

कल्पना में प्र तशोि पाकर प्रसन्न बोल र े थे। सबेरा

ोते

ोती र ी और सताये

ु ए हदल, ोते र े । आणख़री नक़ल समाप्त ु ई, तो कौवे

ी श्जसे दे खो, उसी की ज़बान पर व ी रात के गाने, व ी नक़ल, व ी

कफ़करे । मुणखये तमाशा बन गये। श्जिर नकलते लग जाते

ैं और व ी कफ़करे कसते

ैं , उिर

ी दो-चार लड़के पीछे

ैं। णझंगुरीससं तो हदल्लगीबाज़ आदमी थे,

इसे हदल्लगी में सलया; मगर पटे कवरी में धचढ़ने की बुरी आदत थी। और पंडडत दातादीन तो इतने तन ु ुक-समज़ाज थे कक लड़ने पर तैयार सम्मान पाने के आदी थे। काररंदा की तो बात दे खते -- य

ी ससर झुका दे ते थे। उनकी ऐसी

ूँसी उड़ाई जाय और अपने

भस्म कर दे त।े ऐसा शाप दे ते कक सब के सब भस्म नकाला।

सबसे

ी क्या , राय सा ब तक उन् ें

उनके सलये असह्य था। अगर उनमें ब्रह्मतेज

कसलयग ु शाप का असर

ो जाते थे। व

ी गाूँव में

ोता तो इन दष्ु टों को

ो जाते ; लेककन इस

ी जाता र ा। इससलए उन् ोंने कसलयग ु वाला

धथयार

ोरी के द्वार पर आये और आूँखें नकालकर बोले -- क्या आज भी तुम काम

करने न चलोगे

तुम न ीं सोचते।

ोरी? अब तो तम ु अच्छे

ो गये। मेरा ककतना

रज़

ो गया, य

गोबर दे र में सोया था। अभी-अभी उठा था और आूँखें मलता ु आ बा र आ र ा था कक दातादीन की आवाज़ कान में पड़ी। पालागन करना तो दरू र ा, उलटे और

े कड़ी हदखाकर बोला -- अब व

जो बोनी

ै।

तुम् ारी मजूरी न करें गे।

में अपनी ऊख

दातादीन ने सरु ती िाूँकते ु ए क ा -- काम कैसे न ीं करें गे? साल के बीच में काम न ीं छोड़ सकते। जेठ में छोड़ना ो छोड़ दें , करना ो करें । उसके प ले न ीं छोड़ सकते। गोबर ने जम् ाई लेकर क ा -- उन् ोंने तुम् ारी ग़ल ु ामी न ीं सलखी इच्छा थी, काम ककया। अब न ीं इच्छा कर सकता।

ै । जब तक

ै , न ीं करें गे। इसमें कोई ज़बरदस्ती न ीं

'तो ोरी काम न ीं करें गे?' 'ना!' 'तो मारे रुपए सूद समेत दे दो। तीन साल का सूद ोता ै सौ रुपया। असल समलाकर दो सौ

ोते

ैं।

मने समझा था, तीन रुपए म ीने सूद में कटते

जायूँगे; लेककन तम् ु ारी इच्छा न ीं बनते

ै , तो मत करो। मेरे रुपए दे दो। िन्ना सेठ

ो, तो िन्ना सेठ का काम करो।

ोरी ने दातादीन से क ा -- तुम् ारी चाकरी से मैं कब इनकार करता ू ूँ म ाराज? लेककन मारी ऊख भी तो बोने को पड़ी ै । गोबर ने बाप को डाूँटा -- कैसी चाकरी और ककसकी चाकरी? य ाूँ तो कोई ककसी का चाकर न ीं। सभी बराबर

ैं। अच्छी हदल्लगी

ै । ककसी को सौ रुपए उिार दे

हदये और उससे सूद में श्ज़ंदगी भर काम लेते र े । मूल ज्यों का त्यों! य म ाजनी न ीं

ै , ख़न ू चस ू ना

ै।

'तो रुपए दे दो भैया, लड़ाई का े की। मैं आने रुपए ब्याज लेता ू ूँ। तुम् ें गाूँवघर का समझकर आि आने रुपए पर हदया था।' ' म तो एक रुपया सैकड़ा दें गे। एक कौड़ी बेसी न ीं। तुम् ें लेना ो तो लो, न ीं अदालत से लेना। एक रुपया सैकड़े ब्याज कम न ीं

ोता। '

'मालूम ोता ै , रुपए की गमी ो गयी ै ।' 'गमी उन् ें ोती ै , जो एक के दस लेते ैं। म तो मजूर ैं। मारी गमी पसीने के रास्ते ब

जाती

ै । मझ ु े याद

ै , तम ु ने बैल के सलए तीस रुपए हदये थे।

उसके सौ ु ए। और अब सौ के दो सौ ो गये। इसी तर तम ु लोगों ने ककसानों को लूट-लूटकर मजरू बना डाला और आप उनकी ज़मीन के मासलक बन बैठे। तीस के दो सौ! कुछ



ै । ककतने हदन ु ए

ोंगे दादा?'

ोरी ने कातर कंठ से क ा -- य ी आठ-नौ साल ु ए

ोंगे।

गोबर ने छाती पर

ाथ रखकर क ा -- नौ साल में तीस रुपए के दो सौ! एक

रुपए के ह साब से ककतना

ोता

ै?

उसने ज़मीन पर एक ठीकरे से ह साब लगाकर क ा -- दस साल में छत्तीस रुपए

ोते

ैं। असल समलाकर छाछठ। उसके सत्तर रुपए ले लो। इससे बेसी मैं

एक कौड़ी न दूँ ग ू ा। दातादीन ने

ोरी को बीच में डालकर क ा -- सुनते



ोरी गोबर का फ़ैसला? मैं

अपने दो सौ छोड़ के सत्तर रुपए ले लूँ ,ू न ीं अदालत करूूँ। इस तर

का

व्यव ार ु आ तो कै हदन संसार चलेगा? और तुम बैठे सुन र े ो; मगर य समझ लो, मैं ब्राह्मण ू ूँ , मेरे रुपए ज़म करके तुम चैन न पाओगे। मैंने ये

सत्तर रुपए भी छोड़े, अदालत भी न जाऊूँगा, जाओ। अगर मैं ब्राह्मण ू ूँ , तो अपने पूरे दो सौ रुपए लेकर हदखा दूँ ग ू ा! और तुम मेरे द्वार पर आवोगे और ाथ बाूँिकर दोगे।

दातादीन झल्लाये

ु ए लौट पड़े। गोबर अपनी जग बैठा र ा। मगर ोरी के पेट में िमद की क्रां त मची ु ई थी। अगर ठाकुर या ब नये के रुपए ोते, तो उसे ज़्यादा धचंता न

ोती; लेककन ब्राह्मण के रुपए! उसकी एक पाई भी दब गयी, तो

ड्डी तोड़कर नकलेगी। भगवान ण न करें कक ब्राह्मण का कोप ककसी पर धगरे ।

बंस में कोई धचल्लू-भर पानी दे नेवाला, घर में हदया जलानेवाला भी न ीं र ता। उसका िमद भी, मन त्रस्त

ो उठा।

उसने दौड़कर पंडडतजी के चरण पकड़ सलये और आतद स्वर में बोला -- म ाराज, जब तक मैं जीता ू ूँ, तुम् ारी एक-एक पाई चुकाऊूँगा। लड़कों की बातों पर मत जाओ। मामला तो मारे -तुम् ारे बीच में ु आ ै । व कौन ोता ै ? दातादीन ज़रा नरम पड़े -- ज़रा इसकी ज़बरदस्ती दे खो, क ता सत्तर लो या अदालत जाओ। अभी अदालत की बार ककसी के पाले पड़ जायूँगे, तो किर य क्या र े , तानासा

वा न ीं खायी

ै दो सौ रुपए के ै , जभी। एक

ताव न र े गा। चार हदन स र में

ो गये।

'मैं तो क ता ू ूँ म ाराज, मैं तुम् ारी एक-एक पाई चुकाऊूँगा।'

'तो कल से मारे य ाूँ काम करने आना पड़ेगा। ' 'अपनी ऊख बोना ै म ाराज, न ीं तुम् ारा ी काम करता।' दातादीन चले गये तो गोबर ने तरस्कार की आूँखों से दे खकर क ा -- गये थे दे वता को मनाने! तुम् ीं लोगों ने तो इन सबों का समज़ाज बबगाड़ हदया

ै । तीस

रुपए हदये, अब दो सौ रुपए लेगा, और डाूँट ऊपर से बतायेगा और तुमसे मजूरी करायेगा और काम कराते-कराते मार डालेगा !'

ोरी ने अपने ववचार में सत्य का पक्ष लेकर क ा -- नी त चाह ए बेटा; अपनी-अपनी करनी अपने साथ सलए, व

तो दे ने

ै।

मने श्जस ब्याज पर रुपए

ी पड़ेंगे। किर ब्राह्मण ठ रे । इनका पैसा

माल तो इन् ीं लोगों को पचता

ाथ से न छोड़ना में पचेगा ? ऐसा

ै।

गोबर ने त्योररयाूँ चढ़ाईं -- नी त छोड़ने को कौन क

र ा

ै । और कौन क

र ा

ै कक ब्राह्मण का पैसा दबा लो? मैं तो य ी क ता ू ूँ कक इतना सूद न ीं दें गे। बंकवाले बार आने सद ू लेते ैं। तम ु एक रुपए ले लो। और क्या ककसी को लट ू लोगे?

'उनका रोयाूँ जो दख ु ी ोगा?' ' ु आ करे । उनके दख ु ी ोने के डर से म बबल क्यों खोदें ?' 'बेटा, जब तक मैं जीता ू ूँ, मुझे अपने रास्ते चलने दो। जब मैं मर जाऊूँ, तो तम् ु ारी जो इच्छा ो व करना।' 'तो किर तुम् ीं दे ना। मैं तो अपने ाथों अपने पाूँव में कुल् ाड़ी न मारूूँगा। मेरा गिापन था कक तुम् ारे बीच में बोला -- तुमने खाया अपनी जान दूँ ?ू ' य

ै , तुम भरो। मैं क्यों

क ता ु आ गोबर भीतर चला गया। झु नया ने पूछा -- आज सबेरे-सबेरे दादा से क्यों उलझ पड़े?

गोबर ने सारा वत्ृ तांत क बोझ इसी तर का घर भरा

सन ु ाया और अंत में बोला -- इनके ऊपर ररन का

बढ़ता जायगा। मैं क ाूँ तक भरूूँगा? उन् ोंने कमा-कमाकर दस ू रों

ै । मैं क्यों उनकी खोदी ु ई खंदक में धगरूूँ? इन् ोंने मुझसे पूछकर करज़ न ीं सलया। न मेरे सलए सलया। मैं उसका दे नदार न ीं ू ूँ। उिर मुणखयों में गोबर को नीचा हदखाने के सलए षडयंत्र रचा जा र ा था। य लौंडा सशकंजे में न कसा गया, तो गाूँव में अिमद मचा दे गा। प्यादे से फ़रज़ी गया

ै न, टे ढ़े तो चलेगा

ी। जाने क ाूँ से इतना क़ानून सीख आया

ै , रुपए सैकड़े सूद से बेसी न दूँ ग ू ा। लेना



ै ? क ता

ो तो लो, न ीं अदालत जाओ। रात

इसने सारे गाूँव के लौंडों को बटोरकर ककतना अनथद ककया। लेककन मणु खयों में भी ईष्याद की कमी न थी। सभी अपने बराबरवालों के परर ास पर प्रसन्न थे। पटे कवरी और नोखेराम में बातें

ो र ी थीं।

पटे कवरी ने क ा -- मगर सबों को घर-घर की रत्ती-रत्ती का

ाल मालूम

ै।

णझंगुरीससं को तो सबों ने ऐसा रगेटा कक कुछ न पूछो। दोनों ठकुराइनों की बातें सुन-सुनकर लोग

ूँसी के मारे लोट गये।

नोखेराम ने ठट्टा मारकर क ा -- मगर नक़ल सच्ची थी। मैंने कई बार उनकी छोटी बेगम को द्वार पर खड़े लौंडों से

ूँसी करते दे खा।

'और बड़ी रानी काजल और सेंदरु और म ावर लगाकर जवान बनी र ती ैं।' 'दोनों में रात-हदन छड़ी र ती ै । णझंगुरी पक्का बे या ै । कोई दस ू रा ोता तो पागल

ो जाता।'

'सुना, तुम् ारी बड़ी भद्दी नक़ल की। चमररया के घर में बंद कराके वपटवाया।' 'मैं तो बचा पर बक़ाया लगान का दावा करके ठीक कर दूँ ग ू ा। व भी क्या याद करें गे कक ककसी से पाला पड़ा था।' 'लगान तो उसने चुका हदया ै न?'

'लेककन रसीद तो मैंने न ीं दी। सबत ू क्या ै कक लगान चक ु ा हदया? और य ाूँ कौन ह साब-ककताब दे खता ै ? आज ी प्यादा भेजकर बुलाता ू ूँ।' ोरी और गोबर दोनों ऊख बोने के सलए खेत सींच र े थे। अबकी ऊख की खेती ोने की आशा तो थी न ीं, इससलए खेत परती पड़ा ु आ था। अब बैल आ गये ैं, तो ऊख क्यों न बोई जाय! मगर दोनों जैसे छत्तीस बने ु ए थे। न बोलते थे,

न ताकते थे।

ोरी बैलों को

ाूँक र ा था और गोबर मोट ले र ा था। सोना और

रूपा दोनों खेत में पानी दौड़ा र ी थीं कक उनमें झगड़ा ववषय य णखलाती ख़ुद खाती

था कक णझंगुरीससं को छोटी ठकुराइन प ले ख़ुद खाकर प त को

ै या प त को णखलाकर तब ख़द ु खाती

रूपा ने श्जर मोटे

ो गया। वववाद का

ै । सोना क ती थी, प ले व

ै । रूपा का मत इसके प्र तकूल था। की -- अगर व

प ले खाती

ै , तो क्यों मोटी न ीं

ै ? ठाकुर क्यों

ैं? अगर ठाकुर उन पर धगर पड़ें, तो ठकुराइन वपस जायूँ।

सोना ने प्र तवाद ककया -- तू समझती अच्छा खाने से लोग बलवान ण ोते

ै , अच्छा खाने से लोग मोटे

ैं, मोटे न ीं

ोते। मोटे

ोते

ो जाते

ैं।

ैं , घास-पात खाने

से।

'तो ठकुराइन ठाकुर से बलवान ै ?' 'और क्या। अभी उस हदन दोनों में लड़ाई ु ई, तो ठकुराइन ने ठाकुर को ऐसा ढकेला कक उनके घुटने िूट गये।' 'तो तू भी प ले आप खाकर तब जीजा को णखलायेगी?' 'और क्या।' 'अम्माूँ तो प ले दादा को णखलाती ैं।' 'तभी तो जब दे खो तब दादा डाूँट दे ते ैं। मैं बलवान ोकर अपने मरद को क़ाबू में रखूग ूँ ी। तेरा मरद तुझे पीटे गा, तेरी रूपा रुआूँसी

ड्डी तोड़कर रख दे गा।'

ोकर बोली -- क्यों पीटे गा, मैं मार खाने का काम

ी न करूूँगी।'



कुछ न सुनेगा। तूने ज़रा भी कुछ क ा और व

मार चलेगा। मारते-मारते

तेरी खाल उिेड़ लेगा।'

रूपा ने बबगड़कर सोना की साड़ी दाूँतों से िाड़ने की चेष्टा की। और असिल ोने पर चुटककयाूँ काटने लगी। सोना ने और धचढ़ाया -- व

तेरी नाक भी काट लेगा।

इस पर रूपा ने ब न को दाूँत से काट खाया। सोना की बाूँ

ल ु आ गयी। उसने धगर पड़ी और उठकर रोने लगी। सोना भी

रूपा को ज़ोर से ढकेल हदया। व

दाूँतों के नशान दे खकर रो पड़ी। उन दोनों का धचल्लाना सन ु कर गोबर ग़स् ु से में भरा ु आ आया और दोनों को दो-दो घस ूूँ े जड़ हदये। दोनों रोती ु ई खेत से नकलकर घर चल दीं। ससंचाई का काम रुक गया। इस पर वपता-पुत्र में एक झड़प

ो गयी।

ोरी ने पछ ू ा -- पानी कौन चलायेगा? दौड़े-दौड़े गये, दोनों को भगा आये। अब

जाकर मना क्यों न ीं लाते?

'तुम् ीं ने इन सबों को बबगाड़ रखा ै ।' 'उस तर मारने से और भी नलदज्ज ो जायूँगी।' 'दो जन ू खाना बन्द कर दो, आप ठीक ो जायूँ।' 'मैं उनका बाप ू ूँ, क़साई न ीं ू ूँ।' पाूँव में एक बार ठोकर लग जाने के बाद ककसी कारण से बार-बार ठोकर लगती ै और कभी-कभी अूँगूठा पक जाता

के सद्भाव को आज उसी तर

ै और म ीनों कष्ट दे ता

ै । वपता और पूत्र

की चोट लग गयी थी और उस पर य

तीसरी

चोट पड़ी। गोबर ने घर जाकर झु नया को खेत में पानी दे ने के सलए साथ सलया। झु नया

बच्चे को लेकर खेत में गयी। ि नया और उसकी दोनों बेहटयाूँ ताकती र ीं। माूँ

को भी गोबर की य

उद्दं डता बरु ी लगती थी। रूपा को मारता तो व

मानती, मगर जवान लड़की को मारना, य

बरु ा न

उसके सलए असह्य था। आज

को गोबर ने लखनऊ लौट जाने का नकचय कर सलया। य ाूँ अब व सकता। जब घर में उसकी कोई पूछ न ीं

ै , तो व

क्यों र े । व

बा र

ै । तो इस सराय में व

ी रात

न ीं र

लेन-दे न के

मामले में बोल न ीं सकता। लड़ककयों को ज़रा मार हदया तो लोग ऐसे जामे के ो गये , मानो व

बा र का आदमी

न र े गा।

दोनों भोजन करके बा र आये थे कक नोखेराम के प्यादे ने आकर क ा -- चलो, काररंदा सा ब ने बुलाया

ै।

ोरी ने गवद से क ा -- रात को क्यों बल ु ाते

ैं, मैं तो बाक़ी दे चक ु ा ू ूँ।

प्यादा बोला -- मुझे तो तुम् ें बुलाने का ु क्म समला ो, व ीं चलकर करना।

ै । जो कुछ अरज करना

ोरी की इच्छा न थी, मगर जाना पड़ा; गोबर ववरक्त-सा बैठा र ा। आि घंटे में ोरी लौटा और धचलम भर कर पीने लगा। अब गोबर से न र ा गया। पछ ू ा -- ककस मतलब से बल ु ाया था? ोरी ने भरादई ु ई आवाज़ में क ा -- मैंने पाई-पाई लगान चुका हदया। व क ते ैं, तुम् ारे ऊपर दो साल की बाक़ी ै । अभी उस हदन मैंने ऊख बेची, पचीस रुपए

व ीं उनको दे हदये, और आज व

दो साल का बाक़ी नकालते

ैं। मैंने क

हदया, मैं एक िेला न दूँ ग ू ा। गोबर ने पूछा -- तुम् ारे पास रसीद तो

ोगी?

'रसीद क ाूँ दे ते ैं?' 'तो तम ु बबना रसीद सलए रुपए दे ते ी क्यों ो?' 'मैं क्या जानता था, व लोग बेईमानी करें गे। य सब तुम् ारी करनी का िल ै । तुमने रात को उनकी

ूँसी उड़ाई, य

उसी का दं ड

ै । पानी में र

कर मगर

से बैर न ीं ककया जाता। सद ू लगाकर सत्तर रुपए बाक़ी नकाल हदये। ये ककसके घर से आयेंगे?'

गोबर ने अपनी सफ़ाई दे ते ु ए क ा -- तुमने रसीद ले ली ोती तो मैं लाख उनकी ूँसी उड़ाता, तम् ु ारा बाल भी बाूँका न कर सकते। मेरी समझ में न ीं

आता कक लेन-दे न में तुम साविानी से क्यों काम न ीं लेत।े यों रसीद न ीं दे त,े तो डाक से रुपया भेजो। य ी तो तर

की िाूँिली तो न

ोगी।

ोगा, एकाि रुपया म सूल पड़ जायगा। इस

'तुमने य आग न लगाई ोती, तो कुछ न ोता। अब तो सभी मुणखया बबगड़े ुए

ैं। बेदख़ली की िमकी दे र े

ैं , दै व जाने कैसे बेड़ा पार लगेगा!'

'मैं जाकर उनसे पछ ू ता ू ूँ।''तुम जाकर और आग लगा दोगे।' 'अगर आग लगानी पड़ेगी, तो आग भी लगा दूँ ग ू ा। व बेदख़ली करते ैं, करें । मैं उनके

ाथ में गंगाजली रखकर अदालत में क़सम णखलाऊूँगा। तुम दम ु दबाकर

बैठे र ो। मैं इसके पीछे जान लड़ा दूँ ग ू ा। मैं ककसी का एक पैसा दबाना न ीं चा ता, न अपना एक पैसा खोना चा ता ू ूँ।' व

उसी वक़्त उठा और नोखेराम की चौपाल में जा प ु ूँचा। दे खा तो सभी मुणखया लोगों का कैबबनेट बैठा ु आ ै । गोबर को दे खकर सब के सब सतकद



गये। वातावरण में षडयंत्र की-सी कंु ठा भरी ु ई थी। गोबर ने उत्तेश्जत कंठ से पूछा -- य दादा ने

क्या बात

ै काररंदा सा ब, कक आपको

ाल तक का लगान चुकता कर हदया और आप अभी दो साल की बाक़ी

नकाल र े

ैं। य

कैसा गोलमाल

ै?

नोखेराम ने मसनद पर लेटकर रोब हदखाते ु ए क ा -- जब तक तुमसे लेन-दे न की कोई बातचीत न ीं करना चा ता। गोबर ने आ त स्वर में क ा -- तो मैं घर में कुछ न ीं ू ूँ?

'तुम अपने घर में सब कुछ ोगे। य ाूँ तुम कुछ न ीं ो।'

ोरी

ै , मैं

'अच्छी बात ै , आप बेदख़ली दायर कीश्जए। मैं अदालत में तम ु से गंगाजली

उठाकर रुपए दूँ ग ू ा; इसी गाूँव से एक सौ स ादतें हदलाकर साबबत कर दूँ ग ू ा कक तुम रसीद न ीं दे त।े सीिे-सािे ककसान सलया कक सब काठ के उल्लू

ैं , कुछ बोलते न ीं, तो तुमने समझ

ैं। राय सा ब व ीं र ते

ैं , ज ाूँ मैं र ता ू ूँ। गाूँव के सब लोग उन् ें ौवा समझते ोंगे , मैं न ीं समझता। रत्ती-रत्ती ाल क ू ूँगा और दे खग ूूँ ा तम ु कैसे मझ ु से दोबारा रुपए वसल ू कर लेते ो।' उसकी वाणी में सत्य का बल था। डरपोक प्राणणयों में सत्य भी गूँग ू ा ै । व ी सीमें ट जो ईट पर चढ़कर पत्थर

तो समट्टी

ो जाता

ो जाता

ै , समट्टी पर चढ़ा हदया जाय,

ो जायगा। गोबर की नभीक स्पष्टवाहदता ने उस अनीत के बख़्तर

को बेि डाला श्जससे सश्ज्जत शश्क्तमान ण समझ र ी थी।

ोकर नोखेराम की दब द आत्मा अपने को ु ल

नोखेराम ने जैसे कुछ याद करने का प्रयास करके क ा -- तम ु इतना गमद क्यों ो र े

ो, इसमें गमद

न-क ीं तो टाूँक गये कुछ याद आ र ा

गोबर ने चौपाल से आकर

ैं , तो क ीं-

ोरी ने रुपए हदये थे। तुम नसाख़ा तर र े ; अगर

ी इन रुपयों से िनी

ो जाऊूँगा।

ोरी को ऐसा लथाड़ा कक बेचारा स्वाथद-भी, बूढ़ा

ो गया -- तुम तो बच्चों से भी गये-बीते

सन ु कर धचल्ला उठते

ोरी ने रुपए हदये

ैं , तो क ीं जा न ीं सकते। तुम थोड़े-से रुपये के सलए झूठ

ी बोलोगे और न मैं

रुआूँसा

ै । अगर

ोंगे। मैं कल काग़ज़ नकालकर दे खग ूूँ ा। अब मुझे कुछ-

ै कक शायद

रुपए य ाूँ आ गये थोड़े

ोने की कौन बात

ो जो बबल्ली की म्याऊूँ

ैं। क ाूँ-क ाूँ तम् ु ारी रच्छा करता किरूूँगा। मैं तम् ु ें सत्तर

रुपए हदये जाता ू ूँ। दातादीन ले तो दे कर भरपाई सलखा दे ना। इसके ऊपर तुमने एक पैसा भी हदया तो किर मझ ु से एक पैसा भी न पाओगे। मैं परदे श में इससलए न ीं पड़ा ू ूँ कक तुम अपने को लुटवाते र ो और मैं कमाकर भरता र ू ूँ , मैं कल चला जाऊूँगा; लेककन इतना क े दे ता ू ूँ , ककसी से एक पैसा उिार मत लेना और ककसी को कुछ मत दे ना। मूँगरू, दल ु ारी, दातादीन -- सभी से एक रुपया सैकड़े सूद कराना

ोगा।

ि नया भी खाना खाकर बा र नकल आयी। बोली -- अभी क्यों जाते

ो बेटा,

दो-चार हदन और र कर ऊख की बोनी करा लो और कुछ लेन-दे न का ह साब भी ठीक कर लो, तो जाना।

गोबर ने शान जमाते ु ए क ा -- मेरा दो-तीन रुपए रोज़ का घाटा ो र ा ै , य भी समझती ो! य ाूँ मैं ब ु त-ब ु त तो चार आने की मजरू ी ी तो करता ू ूँ। और अबकी मैं झु नया को भी लेता जाऊूँगा। व ाूँ मुझे खाने-पीने की बड़ी तकलीफ़ ोती ै । ि नया ने डरते-डरते क ा -- जैसी तुम् ारी इच्छा; लेककन व ाूँ व

कैसे अकेले

घर सूँभालेगी, कैसे बच्चे की दे ख-भाल करे गी?'

'अब बच्चे को दे खूूँ कक अपना सभ ु ीता दे ख,ूूँ मझ ु से चल् ू ा न ीं िूँू का जाता।' 'ले जाने को मैं न ीं रोकती, लेककन परदे श में बाल-बच्चों के साथ र ना, न कोई आगे न पीछे ; सोचो ककतना झंझट

ै ।'

'परदे श में संगी-साथी नकल ी आते ैं अम्माूँ और य तो स्वारथ का संसार ै । श्जसके साथ चार पैसे ग़म खाओ व ी अपना। ख़ाली

ाथ तो माूँ -बाप भी

न ीं पूछते।' ि नया कटाक्ष समझ गयी। उसके ससर से पाूँव तक आग लग गयी। बोली -- माूँ-बाप को भी तुमने उन् ीं पैसे के यारों में समझ सलया?

'आूँखों दे ख र ा ू ूँ।' 'न ीं दे ख र े ो; माूँ-बाप का मन इतना नठुर न ीं ोता। ाूँ, लड़के अलबत्ता ज ाूँ चार पैसे कमाने लगे कक माूँ-बाप से आूँखें िेर लीं। इसी गाूँव में एक-दो न ीं, दस-बीस परतोख दे दूँ ।ू माूँ-बाप करज़-कवाम लेते लड़ककयों

ैं, ककसके सलए? लड़के-

ी के सलए कक अपने भोग-ववलास के सलए।'

'क्या जाने तम ु ने ककसके सलए करज़ सलया? मैंने तो एक पैसा भी न ीं जाना।'

'बबना पाले ी इतने बड़े ो गये?' 'पालने में तुम् ारा लगा क्या? जब तक बच्चा था, दि ू वपला हदया। किर लावाररस की तर

छोड़ हदया। जो सबने खाया, व ी मैंने खाया। मेरे सलए दि ू न ीं आता

था, मक्खन न ीं बूँिा था। और तम ु भी चा ती

ो, और दादा भी चा ते

सारा करज़ा चुकाऊूँ, लगान दूँ ,ू लड़ककयों का ब्या दे ना भरने

ी के सलए

टूट गया। अब तक व

करूूँ। जैसे मेरी श्ज़ंदगी तुम् ारा

ै । मेरे भी तो बाल-बच्चे

ि नया सन्नाटे में आ गयी। एक

ैं कक मैं

ैं?'

ी क्षण में उसके जीवन का मद ृ ु स्वप्न जैसे

मन में प्रसन्न थी कक अब उसका दःु ख-दररद्र सब दरू

गया। जब से गोबर घर आया उसके मुख पर



ास की एक छटा णखली र ती

थी। उसकी वाणी में मद ु ा और व्यव ारों में उदारता आ गयी। भगवान ण ने उस ृ त पर दया की

ै , तो उसे ससर झक ु ाकर चलना चाह ए। भीतर की शां त बा र

सौजन्य बन गयी थी। ये शब्द तपते ु ए बालू की तर हृदय पर पड़े और चने की भाूँ त सारे अरमान झुलस गये। उसका सारा घमंड चरू -चूर ो गया। इतना सुन लेने के बाद अब जीवन में क्या रस र जीवन-सागर को पार करना चा ती थी , व

गया। श्जस नौका पर बैठकर इस

टूट गयी, तो ककस सुख के सलए

श्जये! लेककन न ीं। उसका गोबर इतना स्वाथी न ीं

ै । उसने कभी माूँ की बात

का जवाब न ीं हदया, कभी ककसी बात के सलए श्ज़द न ीं की। जो कुछ रूखासूखा समल गया, व ी खा लेता था। व ी भोला-भाला शील-स्ने क्यों ऐसी हदल तोड़नेवाली बातें कर र ा कुछ न ीं क ा। माूँ-बाप दोनों

ै ? उसकी इच्छा के ववरुि तो ककसी ने

ी उसका मूँु

जो ते र ते

दे न की बात चलायी; न ीं उससे कौन क ता माूँ-बाप के सलए य ी क्या कम सख ु भलेमानसों की तर कर दे । न ीं चा ता

कमाता-खाता

का पुतला आज

ै कक व

ैं। उसने ख़ुद

ी लेन-

ै कक तु माूँ-बाप का दे ना चुका। इज़्ज़त-आबरू के साथ

ै । उससे कुछ

ो सके, तो माूँ-बाप की मदद

ो सकता तो माूँ-बाप उसका गला न दबायेंगे। झु नया को ले जाना

ै , ख़ुशी से ले जाय। ि नया ने तो केवल उसकी भलाई के ख़याल से

क ा था कक झु नया को व ाूँ ले जाने में उसे श्जतना आराम समलेगा उससे क ीं ज़्यादा झंझट बढ़ जायगा। उसमें ऐसी-कौन-सी लगनेवाली बात थी कक व बबगड़ उठा। र ी करना

ो न

ो, य

आग झु नया ने लगाई

इतना

ै । व ी बैठे-बैठे उसे मंतर पढ़ा

ै । य ाूँ सौक-ससंगार करने को न ीं समलता; घर का कुछ न कुछ काम भी ी पड़ता

ै । व ाूँ रुपए-पैसे

ाथ में आयेंगे, मज़े से धचकना खायगी,

धचकना प नेगी और टाूँग िैलाकर सोयेगी। दो आदसमयों की रोटी पकाने में क्या लगता ैं। य

ै , व ाूँ तो पैसा चाह ए। सुना, बाज़ार में पकी-पकाई रोहटयाूँ समल जाती

सारा उपद्रव उसी ने खड़ा ककया

ै , स र में कुछ हदन र

व ाूँ का दाना-पानी मूँु

भी चुकी

ै।

लगा ु आ ै । य ाूँ कोई पूछता न था। य भोंद ू समल गया। इसे िाूँस सलया। जब य ाूँ पाूँच म ीने का पेट लेकर आयी थी , तब कैसी म्याूँव-म्याूँव करती थी। तब य ाूँ सरन न समली माूँगती

ोती। य

उसी नेकी का बदला

ोती, तो आज क ीं भीख

ै ! इसी चुड़ल ै के पीछे डाूँड़ दे ना पड़ा,

बबरादरी में बदनामी ु ई, खेती टूट गयी, सारी दग द ो गयी। और आज य ु त चुड़ल ै श्जस पत्तल में खाती ै उसी में छे द कर र ी ै । पैसे दे खे, तो आूँख गयी। तभी ऐंठी-ऐंठी किरती कमाने लगा

ै समज़ाज न ीं समलता। आज लड़का चार पैसे

ै न। इतने हदनों बात न ीं पछ ू ी, तो सास का पाूँव दबाने के सलए

तेल सलए दौड़ती थी। डाइन उसके जीवन की नधि को उसके चा ती



ाथ से छीन लेना

ै।

दणु खत स्वर में बोली -- य माूँ-बाप तुम् ारे



ै । और

मंतर तम् ु ें कौन दे र ा

ैं, ब नें तुम् ारी



ैं, घर तुम् ारा

ै बेटा, तम ु तो ऐसे न थे। ी

ै । य ाूँ बा र का कौन

म क्या ब ु त हदन बैठे र ें गे? घर की मरज़ाद बनाये र ोगे , तो तुम् ीं को सुख ोगा। आदमी घरवालों ी के सलए िन कमाता ै कक और ककसी के सलए? अपना पेट तो सुअर भी पाल लेता बनकर

मी को डसेगी।

ै । मैं न जानती थी, झु नया नाधगन

गोबर ने तनककर क ा -- अम्माूँ, नादान न ीं ू ूँ कक झु नया मुझे मन्तर पढ़ायेगी। तुम उसे ना क़ कोस र ी ो। तुम् ारी धगरस्ती का सारा बोझ मैं न ीं उठा सकता। मझ ु से जो कुछ

ो सकेगा, तम् ु ारी मदद कर दूँ ग ू ा; लेककन अपने

पाूँवों में बेडड़याूँ न ीं डाल सकता।

झु नया भी कोठरी से नकलकर बोली -- अम्माूँ, जुला े का ग़स् ु सा डाढ़ी पर न उतारे । कोई बच्चा न ीं समझते

ैं। आदमी इसीसलए न ीं जन्म लेता कक सारी उम्र तपस्या करता र े ,

और एक हदन ख़ाली लालसा

ै कक उन् ें िोड़ लूँ ग ू ी। अपना-अपना भला-बरु ा सब

ोती

ै कक

ाथ मर जाय। सब श्ज़ंदगी का कुछ सख ु चा ते

ाथ में चार पैसे

ों।

ैं , सब की

ि नया ने दाूँत पीस कर क ा -- अच्छा झु नया, ब ु त ज्ञान न बघार। अब तू भी अपना भला-बुरा सोचने योग ो गयी ै । जब य ाूँ आकर मेरे पैरों पर ससर रक्खे रो र ी थी, तब अपना भला-बुरा न ीं सूझा था? उस घड़ी सोचने लगते, तो आज तेरा क ीं पता न

म भी अपना भला-बुरा

ोता। इसके बाद संग्राम छड़ गया।

ताने-मे ने, गाली-गलौज, थुक्का-फ़जी त, कोई बात न बची। गोबर भी बीच-बीच में डंक मारता जाता था।

ोरी बरौठे में बैठा सब कुछ सुन

र ा था। सोना और रूपा आूँगन में ससर झुकाये खड़ी थीं; दल ु ारी, पु नया और कई श्स्त्रयाूँ बीच-बचाव करने आ प ु ूँची थीं। गरजन के बीच में कभी-कभी बूँद ू ें भी धगर जाती थीं। दोनों ी अपने-अपने भाग्य को रो र ी थीं। दोनों ी ईकवर को

कोस र ी थीं, और दोनों अपनी-अपनी नदोवषदता ससि कर क ी थीं। झु नया गड़े मुदे उखाड़ र ी थी। आज उसे

ीरा और शोभा से ववशेष स ानुभू त

ो गयी थी,

श्जन् ें ि नया ने क ीं का न रखा था। ि नया की आज तक ककसी से न पटी थी, तो झु नया से कैसे पट सकती

ै । ि नया अपनी सफ़ाई दे ने की चेष्टा कर

र ी थी; लेककन न जाने क्या बात थी कक जनमत झु नया की ओर था। शायद इससलए कक झु नया संयम

ाथ से न जाने दे ती थी और ि नया आपे से बा र

थी। शायद इससलए कक झु नया अब कमाऊ परु ु ष की स्त्री थी और उसे प्रसन्न रखने में ज़्यादा मसल त थी। तब मूँु

ोरी ने आूँगन में आकर क ा -- मैं तेरे पैरों पड़ता ू ूँ ि नया, चुप र । मेरे में कासलख मत लगा। ाूँ, अभी मन न भरा ो तो और सुन।

ि नया िूँु कार मारकर उिर दौड़ी -- तम ु भी मोटी डाल पकड़ने चले। मैं ू ूँ। व

तो मेरे ऊपर िूल बरसा र ी

ी दोषी

ै ? संग्राम का क्षेत्र बदल गया।

'जो छोटों के मूँु लगे, व छोटा।' ि नया ककस तकद से झु नया को छोटा मान ले? ोरी ने व्यधथत कंठ से क ा -- अच्छा व

छोटी न ीं, बड़ी स ी। जो आदमी न ीं

र ना चा ता, क्या उसे बाूँिकर रखेगी? माूँ-बाप का िरम पालपोसकर बड़ा कर दे ना। व क्या चा ती

म कर चुके। उनके

ै , लड़के को

ाथ-पाूँव

ो गये। अब तू

ै , वे दाना-चारा लाकर णखलायें। माूँ-बाप का िरम सोल ो आना

लड़कों के साथ जाता

ै । लड़कों का माूँ-बाप के साथ एक आना भी िरम न ीं

ै उसे असीस दे कर बबदा कर दे ।

भोगना बदा

मारा भगवान ण मासलक

ै , भोगें गे। चालीस सात सैंतालीस साल इसी तर

गये। दस-पाूँच साल

ैं, व

भी यों

ै । जो

ै । जो कुछ

रोते -िोते कट

ी कट जायूँगे।

उिर गोबर जाने की तैयारी कर र ा था। इस घर का पानी भी उसके सलए ै । माता

ोकर जब उसे ऐसी-ऐसी बातें क े , तो अब व

दे खेगा। दे खते

उसका मूँु

राम

भी न

ी दे खते उसका बबस्तर बूँि गया। झु नया ने भी चूँद ु री प न ली।

मुन्नू भी टोप और फ़्ाक प नकर राजा बन गया।

ोरी ने आद्रद कंठ से क ा -- बेटा, तुमसे कुछ क ने का मूँु

तो न ीं

ै ; लेककन

कलेजा न ीं मानता। क्या ज़रा जाकर अपनी अभाधगनी माता के पाूँव छू लोगे, तो कुछ बुरा पीकर पले

गोबर ने मूँु

ोगा? श्जस माता की कोख से जनम सलया और श्जसका रक्त

ो, उसके साथ इतना भी न ीं कर सकते? िेरकर क ा -- मैं उसे अपनी माता न ीं समझता।

ोरी ने आूँखों में आूँसू लाकर क ा -- जैसी तम् ु ारी इच्छा। ज ाूँ र ो, सख ु ी र ो। झु नया ने सास के पास जाकर उसके चरणों को अंचल से छुआ। ि नया के मूँु से असीस का एक शब्द भी न नकला। उसने आूँख उठाकर दे खा भी न ीं।

गोबर बालक को गोद में सलए आगे -आगे था। झु नया बबस्तर बग़ल में दबाये

पीछे । एक चमार का लड़का संदक़ ू सलये था। गाूँव के कई स्त्री-पुरुष गोबर को

प ु ूँचाने गाूँव के बा र तक आये। और ि नया बैठी रो र ी थी, जैसे कोई उसके हृदय को आरे से चीर र ा ो। उसका मातत्ृ व उस घर के समान ो र ा था, श्जसमें आग लग गयी भी स्थान न बचा ***

ो।

ो और सब कुछ भस्म

ो गया

ो। बैठकर रोने के सलए

22 इिर कुछ हदनों से राय सा ब की कन्या के वववा

की बातचीत

ो र ी थी।

उसके साथ

ी एलेक्शन भी ससर पर आ प ु ूँचा था; मगर इन सबों से आवकयक उन् ें दीवानी में एक मक़ ु दमा दायर करना था श्जसकी कोटद -फ़ीस ी पचास ज़ार ोती थी, ऊपर के ख़चद अलग।

राय सा ब के साले जो अपनी ररयासत के एकमात्र स्वामी थे , ऐन जवानी में मोटर लड़ जाने के कारण गत

ो गये थे , और राय सा ब अपने कुमार पत्र ु की

ओर से उस ररयासत पर अधिकार पाने के सलए क़ानून की शरण लेना चा ते

थे। उनके चचेरे सालों ने ररयासत पर कब्ज़ा जमा सलया था और राय सा ब को उसमें से कोई ह स्सा दे ने पर तैयार न थे। राय सा ब ने ब ु त चा ा कक आपस में समझौता ो जाय और उनके चचेरे साले माकूल गुज़ारा लेकर ट जायें, य ाूँ तक कक व ककसी तर

उस ररयासत की आिी आमदनी छोड़ने पर तैयार थे ; मगर सालों ने

का समझौता स्वीकार न ककया, और केवल लाठी के ज़ोर से ररयासत

में त सील-वसूल शुरू कर दी। राय सा ब को अदालत की शरण जाने के ससवा कोई मागद न र ा। मुक़दमे में लाखों का ख़चद था; मगर ररयासत भी बीस लाख से कम की जायदाद न थी। वकीलों ने नकचय रूप से क श तदया डडग्री

ोगी। ऐसा मौक़ा कौन छोड़ सकता था ? मश्ु ककल य ी था कक य

तीनों काम एक साथ आ पड़े थे और उन् ें ककसी तर कन्या की अवस्था १८ वषद की कारण अब तक उसका वववा

टाला न जा सकता था।

ो गयी थी और केवल

ाथ में रुपए न र ने का

टल जाता था। ख़चद का अनुमान एक लाख का

था। श्जसके पास जाते, व ी बड़ा-सा मूँु अवसर

हदया था कक आपकी

खोलता; मगर

ाल में एक बड़ा अच्छा

ाथ आ गया था।

कुूँवर हदश्ग्वजयससं की पत्नी यक्ष्मा की भें ट

ो चुकी थी, और कुूँवर सा ब

अपने उजड़े घर को जल्द से जल्द बसा लेना चा ते थे। सौदा भी वारे से तय गया और क ीं सशकार



ाथ से नकल न जाय, इससलए इसी लग्न में वववा

ोना परमावकयक था। कुूँवर सा ब दव ु ादसनाओं के भंडार थे। शराब, गाूँजा, अफ़ीम,

मदक, चरस, ऐसा कोई नशा न था, जो व

न करते

शोभा

ो। िन का उपभोग और ककया

ै। व

रईस

ी क्या, जो ऐयाश न

कैसे जाय? मगर इन सब दग ु ण ुद ों के

ोते ु ए भी व

ों। और ऐयाशी तो रईस की

ऐसे प्र तभावान ण थे कक



अच्छे -अच्छे ववद्वान ण उनका लो ा मानते थे। संगीत, नाट्यकला, स्तरे खा,

ज्यो तष, योग, लाठी, कुकती, नशानेबाज़ी आहद कलाओं में अपना जोड़ न रखते थे। इसके साथ

ी बड़े दबंग और नभीक थे। राष्रीय आन्दोलन में हदल

खोलकर स योग दे ते थे; ाूँ, गुप्त रूप से। अधिकाररयों से य

बात छपी न थी,

किर भी उनकी बड़ी प्र तष्ठा थी और साल में एक-दो बार गवनदर सा ब भी उनके मे मान

ो जाते थे। और अभी अवस्था तीस-बत्तीस से अधिक न थी

और स्वास्थ्य तो ऐसा था कक अकेले एक बकरा खाकर

ज़म कर डालते थे।

राय सा ब ने समझा, बबल्ली के भागों छींका टूटा। अभी कुूँवर सा ब षोडशी से नवत्ृ त भी न ु ए थे कक राय सा ब ने बातचीत शुरू कर दी। कूँु वर सा ब के सलए वववा केवल अपना प्रभाव और शश्क्त बढ़ाने का सािन था। राय सा ब कौंससल के में बर थे

ी; यों भी प्रभावशाली थे। राष्रीय संग्राम में अपने त्याग का

पररचय दे कर श्रिा के पात्र भी बन चुके थे। शादी तय सकती थी। और व

तय

ो गयी। र ा एलेक्शन। य

न उगलते बनता था, न नगलते। अब तक व और दोनों

ोने में कोई बािा न सोने की

दो बार नवादधचत



ूँससया थी, श्जसे ो चक ु े थे

ी बार उन पर एक-एक लाख की चपत पड़ी थी; मगर अबकी एक

राजा सा ब उसी इलाक़े से खड़े था कक चा े

ो गये थे और डंके की चोट ऐलान कर हदया

र एक वोटर को एक-एक

ज़ार

ी क्यों न दे ना पड़े, चा े पचास

लाख की ररयासत समट्टी में समल जाय; मगर राय अमरपालससं को कौंससल में न जाने दूँ ग भी दे हदया ण ू ा। और उन् ें अधिकाररयों ने अपनी स ायता का आशवासन था। राय सा ब ववचारशील थे, चतुर थे, अपना नफ़ा-नुक़सान समझते थे; मगर राजपूत थे। और पोतड़ों के रईस थे। व

चुनौती पाकर मैदान से कैसे

यों उनसे राजा सूयप्र द तापससं ने आकर क ा

ट जायूँ?

ोता, भाई सा ब, आप तो दो बार

कौंससल में जा चुके, अबकी मुझे जाने दीश्जए, तो शायद राय सा ब ने उनका स्वागत ककया

ोता। कौंससल का मो

अब उन् ें न था ; लेककन इस चुनौती के

सामने ताल ठोंकने के ससवा और कोई रा

ी न थी। एक मसल त और भी

थी। समस्टर तंखा ने उन् ें ववकवास हदलाया था कक आप खड़े

ो जायूँ, पीछे राजा

सा ब से एक लाख की थैली लेकर बैठ जाइएगा। उन् ोंने य ाूँ तक क ा था कक राजा सा ब बड़ी ख़ुशी से एक लाख दे दें गे; मेरी उनसे बातचीत

ो चुकी

ै ; पर

अब मालम ू ु आ, राजा सा ब राय सा ब को परास्त करने का गौरव न ीं छोड़ना चा ते और इसका मुख्य कारण था, राय सा ब की लड़की की शादी कुूँवर सा ब

से ठीक

ोना। दो प्रभावशाली घरानों का संयोग व

अपनी प्र तष्ठा के सलए

ा नकारक समझते थे। उिर राय सा ब को ससुराली ज़ायदाद समलने की भी आशा थी। राजा सा ब के प लू में य

काूँटा भी बरु ी तर

खटक र ा था। क ीं व

गयी -- और क़ानून राय सा ब के पक्ष में था प्र तद्वंदी खड़ा

ज़ायदाद इन् ें समल

ी -- तब तो राजा सा ब का एक

ो जायगा; इससलए उनका िमद था कक राय सा ब को कुचल डालें

और उनकी प्र तष्ठा िूल में समला दें । बेचारे राय सा ब बड़े संकट नें पड़ गये थे। उन् ें य

संदे

ोने लगा था कक केवल अपना मतलब नकालने के सलए

समस्टर तंखा ने उन् ें िोखा हदया। य पैरोकार

ो गये

ैं। य

को बुलाया था; मगर व

ख़बर समली थी कक अब राजा सा ब के

राय सा ब के घाव पर नमक था। उन् ोंने कई बार तंखा या तो घर पर समलते

ी न थे, या आने का वादा करके

भूल जाते थे।

आणख़र आज ख़ुद उनसे समलने का इरादा करके व

उनके पास जा प ु ूँच।े संयोग से समस्टर तंखा घर पर समल गये ; मगर राय सा ब को पूरे घंटे-भर उनकी प्रतीक्षा करनी पड़ी। य एक बार रोज़

व ी समस्टर तंखा

ैं , जो राय सा ब के द्वार पर

ाश्ज़री हदया करते थे। आज इतना समज़ाज

थे। ज्यों ी समस्टर तंखा सजे-सजाये, मूँु

ो गया

ै । जले बैठे

में ससगार दबाये कमरे में आये और

ाथ बढ़ाया कक राय सा ब ने बमगोला छोड़ हदया -- मैं घंटे-भर से य ाूँ बैठा

ु आ ू ूँ और आप नकलते- नकलते अब नकले समझता ू ूँ!

ैं। मैं इसे अपनी तौ ीन

समस्टर तंखा ने एक सोफ़े पर बैठकर नश्कचंत भाव से िुआूँ उड़ाते ु ए क ा -मुझे इसका खेद ै । मैं एक ज़रूरी काम में लगा था। आपको फ़ोन करके मुझसे समय ठीक कर लेना चाह ए था।

आग में घी पड़ गया; मगर राय सा ब ने क्रोि को दबाया। व थे। इस अपमान को पी जाने का बोले --

ाूँ, य

लड़ने न आये

ी अवसर था।

गलती ु ई। आजकल आपको ब ु त कम फ़ुरसत र ती

'जी ाूँ, ब ु त कम, वरना मैं अवकय आता।'

ै , शायद।

'मैं उसी मुआमले के बारे में आप से पूछने आया था। समझौता की तो कोई आशा न ीं मालूम

ोती। उिर तो जंग की तैयाररयाूँ बड़े ज़ोरों से

ो र ी

ैं।'

'राजा सा ब को तो आप जानते ी ैं , झक्कड़ आदमी ैं, पूरे सनकी। कोई न कोई िुन उन पर सवार र ती

ै । आजकल य ी िुन

हदखाकर र ें गे। और उन् ें जब एक िुन सवार न ीं सुनते, चा े ककतना ससर पर

ै कक राय सा ब को नीचा

ो जाती

ै , तो किर ककसी की

ी नुक़सान उठाना पड़े। कोई चालीस लाख का बोझ

ै , किर भी व ी दम-ख़म

ै , व ी अलल्ले-तलल्ले ख़चद

ैं। पैसे को तो

कुछ समझते मगर

ी न ीं। नौकरों का वेतन छः-छः म ीने से बाक़ी पड़ा ु आ ै ; ीरा-म ल बन र ा ै । संगमरमर का तो फ़शद ै । पच्चीकारी ऐसी ो र ी

ै कक आूँखें न ीं ठ रतीं। अफ़सरों के पास रोज़ डासलयाूँ जाती र ती कोई अूँग्रेज़ मैनेजर रखने वाले

ैं।'

ैं। सुना

ै,

'किर आपने कैसे क हदया था कक आप कोई समझौता करा दें गे।' 'मझ ु से जो कुछ ो सकता था व मैंने ककया। इसके ससवा मैं और क्या कर सकता था। अगर कोई व्यश्क्त अपने दो-चार लाख रुपए िूँू कने ो, तो मेरा क्या बस!'

ी पर तल ु ा ुआ

राय सा ब अब क्रोि न सूँभाल सके -- ख़ासकर जब उन दो-चार लाख रुपए में से दस-बीस

ज़ार आपके

त्थे चढ़ने की भी आशा

ो।

समस्टर तंखा क्यों दबते। बोले -- राय सा ब, अब साफ़-साफ़ न क लवाइए। य ाूँ न मैं संन्यासी ू ूँ, न आप। म सभी कुछ न कुछ कमाने ी नकले ैं। आूँख के अूँिों और गाूँठ के परू ों की तलाश आपको भी उतनी ी ै , श्जतनी मझ ु को। आपसे मैंने खड़े

ोने का प्रस्ताव ककया। आप एक लाख के लोभ से खड़े

अगर गोटी लाल

ो जाती, तो आज आप एक लाख के स्वामी

एक पाई क़रज़ सलये कुूँवर सा ब से संबंि भी र

ो जाता; मगर आपके दभ ु ादग्य से व

ो गये ;

ोते और बबना

ो जाता और मुक़दमा भी दायर

चाल पट पड़ गयी। जब आप

ी ठाठ पर

गये, तो मझ ु े क्या समलता। आणख़र मैंने झक मारकर उनकी पूँछ ू पकड़ी।

ककसी न ककसी तर



वैतरणी तो पार करनी



ै।

राय सा ब को ऐसा आवेश आ र ा था कक इस दष्ु ट को गोली मार दें । इसी

बदमाश ने सब्ज़ बाग़ हदखाकर उन् ें खड़ा ककया और अब अपनी सफ़ाई दे र ा ै , पीठ में िूल भी न ीं लगने दे ता, लेककन पररश्स्थ त ज़बान बंद ककये

ु ए थी।

'तो अब आपके ककये कुछ न ीं ो सकता?' 'ऐसा ी समणझए।' 'मैं पचास ज़ार पर भी समझौता करने को तैयार ू ूँ।' 'राजा सा ब ककसी तर न मानेंगे।' 'पच्चीस ज़ार पर तो मान जायूँगे?' 'कोई आशा न ीं। व साफ़ क चुके ैं।' 'व क चुके ैं या आप क र े ैं।' 'आप मझ ु े झठ ू ा समझते ैं?' राय सा ब ने ववनम्र स्वर में क ा -- मैं आपको झूठा न ीं समझता; लेककन इतना ज़रूर समझता ू ूँ कक आप चा ते, तो मुआमला

ो जाता।'

'तो आप का ख़्याल ै , मैंने समझौता न ीं ोने हदया?''न ीं, य मेरा मतलब न ीं ै । मैं इतना

ी क ना चा ता

झमेले में न पड़ता।'

ू ूँ कक आप चा ते तो काम

ो जाता और मैं इस

समस्टर तंखा ने घड़ी की तरफ़ दे खकर क ा -- तो राय सा ब, अगर आप साफ़ क लाना चा ते हदया

ैं , तो सु नए -- अगर आपने दस

ोता, तो आज नकचय एक लाख के स्वामी

ज़ार का चेक मेरे

ाथ में रख

ोते। आप शायद चा ते

जब आपको राजा सा ब से रुपए समल जाते, तो आप मुझे

ोंगे ,

ज़ार-दो- ज़ार दे

दे त।े तो मैं ऐसी कच्ची गोली न ीं खेलता। आप राजा सा ब से रुपए लेकर तजोरी में रखते और मुझे अूँगूठा हदखा दे त।े किर मैं आपका क्या बना लेता?

बतलाइए? क ीं नासलश-फ़ररयाद भी तो न ीं कर सकता था।

राय सा ब ने आ त नेत्रों से दे खा -- आप मुझे इतना बेईमान समझते

ैं?

तंखा ने कुरसी से उठते ु ए क ा -- इसे बेईमानी कौन समझता ै । आजकल य ी चतुराई ै । कैसे दस ू रों को उल्लू बनाया जा सके, य ी सिल नी त ै ; और आप इसके आचायद

ैं।

राय सा ब ने मट्ठ ु ी बाूँिकर क ा -- मैं?

'जी ाूँ, आप! प ले चुनाव में मैंने जी-जान से आपकी पैरवी की। आपने बड़ी मुश्ककल से रो िोकर पाूँच सौ रुपए हदये, दस ू रे चुनाव में आपने एक सड़ी-सी

टूटी-िूटी कार दे कर अपना गला छुड़ाया। दि ू का जला छाूँछ भी िूँू क-िूँू ककर पीता

ै ।'



कमरे से नकल गये और कार लाने का ु क्म हदया? राय सा ब का ख़ून खौल र ा था। इस असशष्टता की भी कोई द ै । एक तो घंटे-भर इंतज़ार कराया और अब इतनी बेमरु ौवती से पेश आकर उन् ें ज़बरदस्ती घर से नकाल र ा

ै ; अगर उन् ें ववकवास

ोता कक व

समस्टर तंखा को पटकनी दे सकते

ैं,

तो कभी न चूकते; मगर तंखा डील-डौल में उनसे सवाये थे। जब समस्टर तंखा ने

ानद बजाया, तो व

भी आकर अपनी कार पर बैठे और

सीिे समस्टर खन्ना के पास प ु ूँच।े नौ बज र े थे; मगर खन्ना सा ब अभी तक मीठी नींद का आनंद ले र े थे। व दो बजे रात के प ले कभी न सोते थे और नौ बजे तक सोना स्वाभाववक



था। य ाूँ भी राय सा ब को आिा घंटा बैठना पड़ा ; इससलए जब कोई साढ़े नौ बजे समस्टर खन्ना मुस्कराते ु ए नकले तो राय सा ब ने डाूँट बताई -- अच्छा! अब सरकार की नींद खुली ै, साढ़े नौ बजे। रुपए जमा कर सलये ैं न , जभी य बेकफ़क्री खड़े

ै । मेरी तर

तालुक्केदार

ोते, तो अब तक आप भी ककसी द्वार पर

ोते। बैठे-बैठे ससर में चक्कर आ जाता। समस्टर खन्ना ने ससगरे ट -केस

उनकी तरफ़ बढ़ाते ु ए प्रसन्न मुख से क ा -- रात सोने में बड़ी दे र इस वक़्त ककिर से आ र े ैं ?

ो गयी।

राय सा ब ने थोड़े से शब्दों में अपनी सारी कहठनाइयाूँ बयान कर दीं। हदल में खन्ना को गासलयाूँ दे ते थे, जो उनका स पाठी कफ़क्र ककया करता था; मगर मूँु

ोकर भी सदै व उन् ें ठगने की

पर उसकी ख़ुशामद करते थे।

खन्ना ने ऐसा भाव बनाया, मानो उन् ें बड़ी धचंता सला

ो गयी

ै , बोले -- मेरी तो

ै ; आप एलेक्शन को गोली मारें , और अपने सालों पर मुक़दमा दायर कर

दें । र ी शादी, व

तो तीन हदन का तमाशा

न ीं। कुूँवर सा ब मेरे दोस्त

ै । उसके पीछे ज़ेरबार

ोना मुनाससब

ैं, लेन-दे न का कोई सवाल न उठने पायेगा।

राय सा ब ने व्यंग करके क ा -- आप य

भूल जाते

ैं। समस्टर खन्ना कक मैं

बैंकर न ीं, ताल्लुक़ेदार ू ूँ। कुूँवर सा ब द े ज न ीं माूँगते, उन् ें ईकवर ने सब कुछ हदया ै , लेककन आप जानते ैं , य मेरी अकेली लड़की ै और उसकी माूँ मर चुकी

ै। व

आज श्ज़ंदा

ोता। तब शायद मैं उसे

ोती तो शायद सारा घर लुटाकर भी उसे संतोष न

ाथ रोककर ख़चद करने का आदे श दे ता; लेककन अब तो

मैं उसकी माूँ भी ू ूँ, बाप भी ू ूँ। अगर मुझे अपने हृदय का रक्त नकालकर भी दे ना पड़े, तो मैं ख़ुशी से दे दूँ ग ू ा। इस वविुर-जीवन में मैंने संतान-प्रेम में ी अपनी आत्मा की प्यास बुझाई का पालन ककया

ै । दोनों बच्चों के प्यार में

ै । मेरे सलए य

असंभव

ी अपने पत्नी-व्रत

ै कक इस शुभ अवसर पर अपने

हदल के अरमान न नकालूँ ।ू मैं अपने मन को तो समझा सकता ू ूँ पर श्जसे मैं पत्नी का आदे श समझता ू ूँ, उसे न ीं समझाया जा सकता। और एलेक्शन के मैदान से भागना भी मेरे सलए सम्भव न ीं

ै । मैं जानता ू ूँ , मैं ारूूँगा। राजा सा ब से मेरा कोई मुकाबला न ीं; लेककन राजा सा ब को इतना ज़रूर हदखा दे ना चा ता

ू ूँ कक अमरपालससं नमद चारा न ीं

ै।

'और मुक़दमा दायर करना तो आवकयक ी ै ?' 'उसी पर तो सारा दारोमदार ै । अब आप बतलाइए, आप मेरी क्या मदद कर सकते

ैं?'

'मेरे डाइरे क्टरों का इस ववषय में जो ु क्म ै , व आप जानते ैं। और राजा सा ब भी मारे डाइरे क्टर ैं , य भी आपको मालूम ै । वपछला वसूल करने के सलए बार-बार ताकीद

ो र ी

ै । कोई नया मआ ु मला तो शायद



ो सके।'

राय सा ब ने मूँु

लटकाकर क ा -- आप तो मेरा डोंगा

खन्ना!

ी डुबाये दे ते

ैं समस्टर

'मेरे पास जो कुछ नज का ै, व आपका ै ; लेककन बैंक के मुआमले में तो मझ ु े अपने स्वासमयों के आदे शों को मानना

ी पड़ेगा।'

'अगर य ज़ायदाद ाथ आ गयी, और मुझे इसकी पूरी आशा ै , तो पाई-पाई अदा कर दूँ ग ू ा।'

'आप बतला सकते ैं , इस वक़्त आप ककतने पानी में ैं?' राय सा ब ने ह चकते ु ए क ा -- पाूँच-छः लाख समणझए। कुछ कम खन्ना ने अववकवास के भाव से क ा -- या तो आपको याद न ीं छपा र े



ोंगे।

ै , या आप

ैं।

राय सा ब ने ज़ोर दे कर क ा -- जी न ीं, मैं न भूला ू ूँ, और न छपा र ा ू ूँ। मेरी ज़ायदाद इस वक़्त कम से कम पचास लाख की ै और ससरु ाल की ज़ायदाद भी इससे कम न ीं न ीं के बराबर

ै।

ै । इतनी ज़ायदाद पर दस-पाूँच लाख का बोझ कुछ

'लेककन य आप कैसे क सकते ैं कक ससुरालवाली ज़ायदाद पर भी क़रज़ न ीं ै ।'

'ज ाूँ तक मुझे मालूम ै , व ज़ायदाद बे-दाग़ ै ।' 'और मुझे य सूचना समली ै कक उस ज़ायदाद पर दस लाख से कम का भार न ीं

ै । उस ज़ायदाद पर तो अब कुछ समलने से र ा, और आपकी ज़ायदाद पर

भी मेरे ख़याल में दस लाख से कम दे ना न ीं लाख की न ीं मुश्ककल से पचीस लाख की

ै । और व

ज़ायदाद अब पचास

ै । इस दशा में कोई बैंक आपको

क़रज़ न ीं दे सकता। यों समझ लीश्जए कक आप ज्वालामख ु ी के मुख पर खड़े ैं। एक

ल्की सी ठोकर आपको पाताल में प ु ूँचा सकती पर ब ु त सूँभलकर चलना चाह ए।'

ै । आपको इस मौक़े

राय सा ब ने उनका

ाथ अपनी तरफ़ खींचकर क ा -- य

सब मैं ख़ब ू

समझता ू ूँ , समत्रवर! लेककन जीवन की रै जेडी और इसके ससवा क्या ै कक आपकी आत्मा जो काम करना न ीं चा ती, व ी आपको करना पड़े। आपको इस मौक़े पर मेरे सलए कम से कम दो लाख का इंतज़ाम करना पड़ेगा। खन्ना ने लम्बी साूँस लेकर क ा -- माई गाड! दो लाख। असंभव, बबलकुल असंभव!

'मैं तम् ु ारे द्वार पर सर पटककर प्राण दे दूँ ग ू ा, खन्ना इतना समझ लो। मैंने तुम् ारे ी भरोसे य सारे प्रोग्राम बाूँिे ैं। अगर तुमने नराश कर हदया, तो शायद मुझे ज़ र खा लेना पड़े। मैं सूयप्र द तापससं के सामने घुटने न ीं टे क सकता। कन्या का वववा

अभी दो चार म ीने टल सकता

करने के सलए अभी काफ़ी वक़्त

ै ; लेककन य

और मझ ु े सबसे बड़ी कफ़क्र य ी

ै ।'

खन्ना ने चककत

ै । मुक़दमा दायर

एलेक्शन ससर पर आ गया

ै,

ोकर क ा -- तो आप एलेक्शन में दो लाख लगा दें गे?

'एलेक्शन का सवाल न ीं ै भाई, य इज़्ज़त का सवाल ै । क्या आपकी राय में मेरी इज़्ज़त दो लाख की भी न ीं। मेरी सारी ररयासत बबक जाय , ग़म न ीं; मगर सूयप्र द तापससं को मैं आसानी से ववजय न पाने दूँ ग ू ा।' खन्ना ने एक समनट तक िुआूँ नकालने के बाद क ा -- बैंक की जो श्स्थ त व

मैंने आपको सामने रख दी। बैंक ने एक तर

हदया



से लेन-दे न का काम बंद कर

ै । मैं कोसशश करूूँगा कक आपके साथ ख़ास ररआयत की जाय; लेककन य

आप जानते

ैं। पर मेरा कमीशन क्या र े गा ? मुझे आपके सलए ख़ास तौर पर

ससफ़ाररश करनी पड़ेगी; राजा सा ब का अन्य डाइरे क्टरों पर ककतना प्रभाव भी आप जानते

ैं। मझ ु े उनके णख़लाफ़ गट ु -बंदी करनी पड़ेगी। यों समझ लीश्जए

कक मेरी श्ज़म्मेदारी पर राय सा ब का मूँु

ै, य

ी मआ ु मला

ोगा।

धगर गया। खन्ना उनके अंतरं ग समत्रों में थे। साथ के पढ़े

ु ए, साथ के बैठनेवाले। और य उनसे कमीशन की आशा रखते ैं , इतने बेमुरव्वती? आणख़र व जो इतने हदनों से खन्ना की ख़श ु ामद करते ैं , व ककस हदन के सलए? बाग़ में िल नकले, शाक-भाजी पैदा

ो, सब से प ले खन्ना के

पास डाली भेजते नमन्त्रण दे ते

ैं। कोई उत्सव

ैं। उसका य

ो, कोई जलसा

जवाब

ो, सबसे प ले खन्ना को

ो।

उदास मन से बोले -- आपकी जो इच्छा

ो; लेककन मैं आपको अपना भाई

समझता था। खन्ना ने कृतज्ञता के भाव से क ा -- य

आपकी कृपा

न ीं, कोई ककसी का भाई न ीं। श्जस तर

मैं भाई के नाते आपसे य

आपको अपना बड़ा भाई समझा

ै । मैंने भी सदै व

ै और अब भी समझता ू ूँ। कभी आपसे कोई पदारण न ीं रखा, लेककन व्यापार एक दस ू रा क्षेत्र ै । य ाूँ कोई ककसी का दोस्त सकता कक मुझे दस ू रों से ज़्यादा कमीशन दीश्जए, उसी तर कमीशन में ररयायत के सलए आग्र

न ीं क

आपको भी मेरे

न करना चाह ए। मैं आपको ववकवास

हदलाता ू ूँ, कक मैं श्जतनी ररआयत आप के साथ कर सकता ू ूँ , उतना करूूँगा। कल आप दफ़्तर के वक़्त आयें और सलखा-पढ़ी कर लें । बस, बबजनेस ख़त्म। आपने कुछ और सुना! मे ता सा ब आजकल मालती पर बे-तर सारी कफ़लासफ़ी नकल गयी। हदन में एक-दो बार ज़रूर शाम को अक्सर दोनों साथ-साथ सैर करने नकलते

रीझे ु ए ैं। ाश्ज़री दे आते ैं , और

ैं। य

तो मेरी

ी शान थी

कक कभी मालती के द्वार पर सलामी करने न गया। शायद अब उसी की कसर नकाल र ी काम

ै । क ाूँ तो य

ाल था कक जो कुछ

ैं, समस्टर खन्ना

ैं। कोई

ोता, तो खन्ना के पास दौड़ी आती। जब रुपयों की ज़रूरत पड़ती तो

खन्ना के नाम पुरज़ा आता। और क ाूँ अब मुझे दे खकर मूँु

िेर लेती

ैं। मैंने

ख़ास उन् ीं के सलए फ़्ांस से एक घड़ी मूँगवाई थी। बड़े शौक़ से लेकर गया; मगर न ीं ली। अभी कल मेवों की डाली भेजी थी -- काकमीर से मूँगवाये थे -वापस कर दी। मझ ु े तो आकचयद बदल जाता

ोता

ै कक आदमी इतनी जल्द कैसे इतना

ै।

राय सा ब मन में तो उनकी बेक़द्री पर ख़ुश ु ए; पर स ानुभू त हदखाकर बोले - अगर य भी मान लें कक मे ता से उसका प्रेम ो गया ै , तो भी व्यव ार तोड़ने का कोई कारण न ीं

ै।

खन्ना व्यधथत स्वर में बोले -- य ी तो रं ज जानता था व

मेरे

ै भाई सा ब! य

तो मैं शुरू से

ाथ न ीं आ सकती! मैं आप से सत्य क ता ू ूँ , मैं कभी इस

िोखे में न ीं पड़ा कक मालती को मझ ु से प्रेम सकती

ै , इसकी मैंने कभी आशा

था। साूँप में ववष

ै, य

नठुर जीव और कौन

लोग उसे पालते

ै । प्रेम-जैसी चीज़ उनसे समल

ी न ीं की। मैं तो केवल उनके रूप का पुजारी

जानते ु ए भी म उसे दि ू वपलाते ैं। तोते से ज़्यादा ोगा; लेककन केवल उसके रूप और वाणी पर मुग्ि ोकर

ैं और सोने के वपंजरे में रखते

तोते के समान थी। अफ़सोस य ी

ैं। मेरे सलए भी मालती उसी

ै कक मैं प ले क्यों न चेत गया। इसके पीछे

मैंने अपने

ज़ारों रुपए बरबाद कर हदये भाई सा ब! जब उसका रुक्का प ु ूँचा, मैंने तुरंत रुपए भेजे। मेरी कार आज भी उसकी सवारी में ै । उसके पीछे मैंने अपना घर चौपट कर हदया भाई सा ब! हृदय में श्जतना रस था, व

ओर इतने वेग से दौड़ा कक दस ू री तरफ़ का उद्यान बबलकुल सूखा र बरसों स्ने

ऊसर की गया।

ो गये, मैंने गोववंदी से हदल खोलकर बात भी न ीं की। उसकी सेवा और

और त्याग से मुझे उसी तर

मो नभोग से को नचाता ख़ुशी से

ो जाती

अरुधच

ो गयी थी, जैसे अजीणद के रोगी को

ै । मालती मुझे उसी तर

ै । और मैं ख़ुशी से नाचता था। व

ूँसता था। व

उसने मझ ु े कभी मूँु

नचाती थी, जैसे मदारी बंदर मेरा अपमान करती थी और मैं

मुझ पर शासन करती थी और मैं ससर झुकाता था।

न ीं लगाया, य

प्रोत्सा न न ीं हदया, य

भी सत्य

पर प्राण दे ता था। और अब व

मैं स्वीकार करता ू ूँ। उसने मझ ु े कभी ै , किर भी मैं पतंग की भाूँ त उसके मख ु -दीप

मुझसे सशष्टाचार का व्यव ार भी न ीं कर

सकती! लेककन भाई सा ब! मैं क े दे ता ू ूँ कक खन्ना चुप बैठनेवाला आदमी न ीं ै । उसके पुरज़े मेरे पास सुरक्षक्षत ैं; मैं उससे एक-एक पाई वसूल कर लूँ ग ू ा, और डाक्टर मे ता को तो मैं लखनऊ से नकालकर दम लूँ ग ू ा। उनका र ना य ाूँ असम्भव कर दूँ ग ू ा...। उसी वक़्त

ानद की आवाज़ आयी और एक क्षण में समस्टर मे ता आकर खड़े



गये। गोरा धचट्टा रं ग, स्वास्थ्य की लासलमा गालों पर चमकती ु ई, नीची अचकन, चूड़ीदार पाजामा, सुन ली ऐनक। सौम्यता के दे वता-से लगते थे। खन्ना ने उठकर

ाथ समलाया -- आइए समस्टर मे ता, आप

ी का श्ज़कर



र ा था। मे ता ने दोनों सज्जनों से

ाथ समलाकर क ा -- बड़ी अच्छी साइत में घर से

चला था कक आप दोनों सा बों से एक

ी जग

भें ट

ो गयी। आपने शायद पत्रों

में दे खा

ोगा, य ाूँ मह लाओं के सलए एक व्यायामशाला का आयोजन

समस मालती उस कमेटी की सभानेत्री

ैं। अनुमान ककया गया

लाख रुपए लगें गे। नगर में उसकी ककतनी ज़रूरत

ै, य

ो र ा

ै।

ै कक शाला में दो

आप लोग मुझसे

ज़्यादा जानते

ैं। मैं चा ता ू ूँ आप दोनों सा बों का नाम सबसे ऊपर ो। समस मालती ख़ुद आनेवाली थीं; पर पर आज उनके फ़ादर की तबीयत अच्छी न ीं ै , इससलए न आ सकीं।

उन् ोंने चंदे की सूची राय सा ब के

ाथ में रख दी। प ला नाम राजा

सूयप्र द तापससं का था श्जसके सामने पाूँच कूँु वर हदश्ग्वजयससं के तीन

ज़ार रुपए की रक़म थी। उसके बाद

ज़ार रुपए थे। इसके बाद और कई रक़में इतनी

या इससे कुछ कम थी। मालती ने पाूँच सौ रुपये हदये थे और डाक्टर मे ता ने एक

ज़ार रुपए।

राय सा ब ने अप्र तभ िटकार सलये।

ोकर क ा -- कोई चालीस

मे ता ने गवद से क ा -- य घंटों का पररश्रम भाग सलया

ज़ार तो आप लोगों ने

सब आप लोगों की दया

ै । राजा सय द तापससं ने शायद ू प्र

ै । और य

केवल तीन

ी ककसी सावदज नक कायद में

ो; पर आज तो उन् ोंने बे -क े -सुने चेक सलख हदया! दे श में जाग ृ त

ै । जनता ककसी भी शुभ काम में स योग दे ने को तैयार ोना चाह ए कक उसके दान का सद्व्यय

समस्टर खन्ना!

ै । केवल उसे ववकवास

ोगा। आपसे तो मझ ु े बड़ी आशा

ै,

खन्ना ने उपेक्षा-भाव से क ा -- मैं ऐसे फ़जूल के कामों में न ीं पड़ता। न जाने आप लोग पश्च्छम की ग़ल ु ामी में क ाूँ तक जायूँगे। यों अरुधच

ो र ी

ै । व्यायाम की िुन सवार

औरत घर का काम करती

ो गयी, तो व

ी मह लाओं को घर से क ीं की न र ें गी। जो

ै , उसके सलए ककसी व्यायाम की ज़रूरत न ीं। और

जो घर का कोई काम न ीं करती और केवल भोग-ववलास में रत

ै , उसके

व्यायाम के सलए चंदा दे ना मैं अिमद समझता ू ूँ। मे ता ज़रा भी नरुत्सा श्जस आयोजन में

न ु ए -- ऐसी दशा में मैं आपसे कुछ माूँगूँग ू ा भी न ीं। में ववकवास न ो उसमें ककसी तर की मदद दे ना वास्तव

में अिमद ै । आप तो समस्टर खन्ना से स मत न ीं

ैं राय सा ब!

राय सा ब ग री धचंता में डूबे ककये डालते थे।

द ताप के पाूँच ु ए थे। सूयप्र

ज़ार उन् ें

तोत्सा

चौंककर बोले -- आपने मुझसे कुछ क ा?

'मैंने क ा, आप तो इस आयोजन में स योग दे ना अिमद न ीं समझते?' 'श्जस काम में आप शरीक ैं, व िमद ै या अिमद, इसकी मैं परवा न ीं करता।'

'मैं चा ता ू ूँ , आप ख़द ु ववचार करें । और अगर आप इस आयोजन को समाज के सलए उपयोगी समझें, तो उसमें स योग दें । समस्टर खन्ना की नी त मुझे ब ु त पसन्द आयी।'

खन्ना बोले -- मैं तो साफ़ क ता ू ूँ और इसीसलए बदनाम ू ूँ। राय सा ब ने दब द मुस्कान के साथ क ा -- मुझ में तो ववचार करने की शश्क्त ु ल ै न ीं। सज्जनों के पीछे चलना

ी मैं अपना िमद समझता ू ूँ।

'तो सलणखए कोई अच्छी रक़म।' 'जो कह ए, व सलख दूँ ।ू ' 'जो आप की इच्छा।' 'आप जो कह ए, व सलख दूँ ।ू ' 'तो दो ज़ार से कम क्या सलणखएगा।' राय सा ब ने आ त स्वर में क ा -- आपकी नगा

में मेरी य ी

उन् ोंने क़लम उठाया और अपना नाम सलखकर उसके सामने पाूँच हदये। मे ता ने सूची उनके

ै ससयत

ै?

ज़ार सलख

ाथ से ले ली; मगर उन् ें इतनी ग्ला न ु ई कक राय

सा ब को िन्यवाद दे ना भी भल ू गये। राय सा ब को चंदे की सच ू ी हदखाकर उन् ोंने बड़ा अनथद ककया, य

शूल उन् ें व्यधथत करने लगा।

समस्टर खन्ना ने राय सा ब को दया और उप ास की दृश्ष्ट से दे खा, मानो क र े

ों, ककतने बड़े गिे

ो तम ु !

स सा मे ता राय सा ब के गले सलपट गये और उन्मुक्त कंठ से बोले -- श्थ् री श्च् ररस ण फ़ईंर श ीब ण!

ीप ण ीप ण उररा !

खन्ना ने णखससयाकर क ा -- य

लोग राजे-म राजे ठ रे , य

इन कामों में दान

न दें , तो कौन दे । मे ता बोले -- मैं तो आपको राजाओं का राजा समझता ू ूँ। आप उन पर शासन करते ैं। उनकी कोठी आपके ाथ में ै । राय सा ब प्रसन्न नाम के राजा

ो गये -- य

ैं। असली राजा तो

आपने बड़े मौके की बात क ी मे ता जी! मारे बैंकर



ैं।

मे ता ने खन्ना की ख़ुशामद का प लू अश्ख़्तयार ककया -- मुझे आपसे कोई सशकायत न ीं

ै खन्नाजी! आप अभी इस काम में न ीं शरीक

ोना चा ते , न

स ी, लेककन कभी न कभी ज़रूर आयेंगे। लक्ष्मीप तयों की बदौलत बड़ी-बड़ी संस्थाएूँ चलती



मारी

ैं। राष्रीय आंदोलन को दो-तीन साल तक ककसने

इतनी िूम-िाम से चलाया! इतनी िमदशालायें और पाठशालायें कौन बनवा र ा ै ? आज संसार का शासन-सूत्र बैंकरों के

णखलौना सकता

ाथ में

ै । सरकार उनके

ाथ का

ै । मैं भी आपसे नराश न ीं ू ूँ। जो व्यश्क्त राष्र के सलए जेल जा ै उसके सलए दो-चार ज़ार ख़चद कर दे ना कोई बड़ी बात न ीं ै । मने

तय ककया

ै , इस शाला का बु नयादी पत्थर गोववंदी दे वी के

म दोनों शीघ्र

ाथों रखा जाय।

ी गवनदर सा ब से भी समलें गे और मुझे ववकवास

ै , में उनकी

स ायता समल जायगी। लेडी ववलसन को मह ला-आंदोलन से ककतना प्रेम जानते



ै , आप

ैं। राजा सा ब की ओर अन्य सज्जनों की भी राय थी कक लेडी

ववलसन से

ी बु नयाद रखवाई जाय; लेककन अंत में य ी नकचय ु आ कक य शुभ कायद ककसी अपनी ब न के ाथों ोना चाह ए। आप कम-से-कम इस अवसर पर आयेंगे तो ज़रूर?

खन्ना ने उप ास ककया -ी

ै । इस तर

सूझते

सकता

ैं। और

ाूँ, जब लाई ववलसन आयेंगे तो मेरा प ु ूँचना ज़रूरी आप ब ु त-से रईसों को िाूँस लें गे। आप लोगों को लटके ख़ूब मारे रईस

ै।

ैं भी इस लायक़। उन् ें उल्लू बनाकर

ी मूँड़ ू ा जा

'जब िन ज़रूरत से ज़्यादा ो जाता ै , तो अपने सलए नकाल का मागद खोजता ै । यों न नकल पायगा तो जुए में जायगा, घुड़दौड़ में जायगा, ईट-पत्थर में

जायगा, या ऐयाशी में जायगा।' ग्यार गये।

का अमल था। खन्ना सा ब के दफ़्तर का समय आ गया। मे ता चले

राय सा ब भी उठे कक खन्ना ने उनका ज़रा बैहठए। आप दे ख र े का कोई रास्ता

ाथ पकड़कर बैठा सलया -- न ीं, आप

ैं, मे ता ने मुझे इस बुरी तर

िाूँसा

ै कक नकलने

ी न ीं र ा। गोववंदी से बु नयाद का पत्थर रखवायेंगे! ऐसी दशा

में मेरा अलग र ना

ास्यास्पद

ै या न ीं। गोववंदी कैसे राज़ी

ो गयी ; मेरी

समझ में न ीं आता और मालती ने कैसे उसे स न कर सलया , य भी कहठन

ै । आपका क्या ख़याल

ै , इसमें कोई र स्य

ै या न ीं?

राय सा ब ने आत्मीयता जताई -- ऐसे मुआमले में स्त्री को सला

समझना और

ले लेनी चाह ए!

मेशा पुरुष से

खन्ना ने राय सा ब को िन्यवाद की आूँखों से दे खा -- इन् ीं बातों पर गोववंदी से मेरा जी जलता

ै , और उस पर मुझी को लोग बुरा क ते

मझ ु े इन झगड़ों से क्या मतलब। इनमें तो व फ़ालतू समय

ो और नाम की

वस

ो।

ैं। आप

ी सोधचए,

पड़े, श्जसके पास फ़ालतू रुपए

ोना य ी

ों,

ै कक दो-चार म ाशय

सेक्रेटरी और अंडर सेक्रेटरी और प्रिान और उपप्रिान बनकर अफ़सरों को दावतें दें गे, उनके कृपापात्र बनेंगे और यू नवससटी की छोकररयों को जमा करके बब ार करें गे। व्यायाम तो केवल हदखाने के दाूँत

ैं। ऐसी संस्था में

और य ी

मारे भाई, जो िनी क लाते



ोगा और उल्लू बनेंगे

सब गोववंदी के कारण।

म, और

मेशा य ी

ोता

ैं और





एक बार कुरसी से उठे , किर बैठ गये। गोववंदी के प्र त उनका क्रोि प्रचंड

ोता जाता था। उन् ोंने दोनों

ाथ से ससर को सूँभालकर क ा -- मैं न ीं

समझता, मुझे क्या करना चाह ए। राय सा ब ने ठकुर-सो ाती की -- कुछ न ीं, आप गोववंदी दे वी से साफ़ क

दें ,

तुम मे ता को इनकारी ख़त सलख दो, छुट्टी ु ई। मैं तो लाग-डाूँट में िूँस गया। आप क्यों िूँसें? खन्ना ने एक क्षण इस प्रस्ताव पर ववचार करके क ा -- लेककन सोधचए, ककतना मुश्ककल काम

ख़बर िैल गयी

ै । लेडी ववलसन से इसका श्ज़कर आ चुका

ोगा, सारे श र में

ोगी और शायद आज पत्रों में भी नकल जाय। य

मालती की शरारत

ै । उसीने मुझे श्ज़च करने का य

ढं ग नकाला

सब ै।

' ाूँ, मालूम तो य ी ोता ै ।''व मुझे ज़लील करना चा ती ै ।' 'आप सशलान्यास के एक हदन प ले बा र चले जाइएगा। ' 'मुश्ककल ै राय सा ब! क ीं मूँु हदखाने की जग न र े गी। उस हदन तो मुझे ै ज़ा भी

ो जाय तो व ाूँ जाना पड़ेगा।'

राय सा ब आशा बाूँिे ु ए कल आने का वादा करके ज्यों ी नकले कक खन्ना ने अन्दर जा कर गोववंदी को आड़े ाथों सलया -- तुमने इस व्यायामशाला की नींव रखना क्यों स्वीकार ककया? गोववंदी कैसे क े कक य

सम्मान पाकर व

मन में ककतनी प्रसन्न

ो र ी थी ,

उस अवसर के सलए ककतने मनो नयोग से अपना भाषण सलख र ी थी और ककतनी ओजभरी कववता रची थी। उसने हदल में समझा था, य

प्रस्ताव स्वीकार

करके व

खन्ना को प्रसन्न कर दे गी। उसका सम्मान तो उसके प त

सम्मान

ै । खन्ना को इसमें कोई आपश्त्त

ो सकती

ी का

ै , इसकी उसने कल्पना

भी न की थी। इिर कई हदन से प त को कुछ सदय दे खकर उसका मन बढ़ने लगा था। व

अपने भाषण से, और अपनी कववता से लोगों को मुग्ि कर दे ने

का स्वप्न दे ख र ी थी। य

छाती िक-िक करने लगी।

प्रकन सुना और खन्ना की मुद्रा दे खी, तो उसकी

अपरािी की भाूँ त बोली -- डाक्टर मे ता ने आग्र

ककया, तो मैंने स्वीकार कर

सलया।

'डाक्टर मे ता तुम् ें कुएूँ में धगरने को क ें , तो शायद इतनी ख़ुशी से न तैयार ोगी।'

गोववन्दी की ज़बान बंद।

'तुम् ें जब ईकवर ने बुवि न ीं दी, तो क्यों मुझसे न ीं पूछ सलया? मे ता और मालती, दोनों य मैंने ठान सलया सलख दो।'

चाल चलकर मुझसे दो-चार

ज़ार ऐंठने की कफ़क्र में

ै कक कौड़ी भी न दूँ ग ू ा। तम ु आज

ैं। और

ी मे ता को इनकारी ख़त

गोववन्दी ने एक क्षण सोचकर क ा -- तो तुम् ीं सलख दो न।

'मैं क्यों सलख?ूूँ बात की तुमने, सलखूूँ मैं!' 'डाक्टर सा ब कारण पूछेंगे, तो क्या बताऊूँगी?' 'बताना अपना ससर और क्या। मैं इस व्यसभचारशाला को एक िेली भी न ीं दे ना चा ता!'

'तो तम् ु ें दे ने को कौन क ता ै ?' खन्ना ने

ोंठ चबाकर क ा -- कैसी बेसमझी की-सी बातें करती

नींव रखोगी और कुछ दोगी न ीं, तो संसार क्या क े गा? गोववंदी ने जैसे संगीन की नोक पर क ा -- अच्छी बात

'आज ी सलखना ोगा।' 'क तो हदया सलखग ूूँ ी।'

ो? तुम व ाूँ

ै , सलख दूँ ग ू ी।

खन्ना बा र आये और डाक दे खने लगे। उन् ें दफ़्तर जाने में दे र तो चपरासी घर पर

ी डाक दे जाता था। शक्कर तेज़

ो गयी

ो जाती थी ै । खन्ना का

चे रा णखल उठा। दस ू री धचट्ठी खोली। ऊख की दर नयत करने के सलए जो

कमेटी बैठी थी, उसने तय कर सलया कक ऐसा नयंत्रण न ीं ककया जा सकता। ित तेरी की! व

प ले य ी बात क

र े थे ; पर इस अश्ग्न ोत्री ने गुल मचाकर

ज़बरदस्ती कमेटी बैठाई। आणख़र बचा के मूँु और ककसानों के बीच का मुआमला

पर थप्पड़ लगा। य

समलवालों

ै । सरकार इसमें दख़ल दे नेवाली कौन।

स सा समस मालती कार से उतरीं। कमल की भाूँ त णखली , दीपक की भाूँ त दमकती, स्िू तद और उल्लास की प्र तमा-सी -- नकशंक, नद्दवंद्व मानो उसे ववकवास

ै कक संसार में उसके सलए आदर और सुख का द्वार खुला ु आ

ै।

खन्ना ने बरामदे में आकर असभवादन ककया। मालती ने पूछा -- क्या य ाूँ मे ता आये थे?

' ाूँ, आये तो थे।' 'कुछ क ा, क ाूँ जा र े ैं ?' 'य तो कुछ न ीं क ा।' 'जाने क ाूँ डुबकी लगा गये। मैं चारों तरफ़ घूम आयी। आपने व्यायामशाला के सलए ककतना हदया?'

खन्ना ने अपरािी-स्वर में क ा -- मैंने इस मुआमले को समझा मालती ने बड़ी-बड़ी आूँखों से उन् ें तरे रा , मानो सोच र ी

ी न ीं।

ो कक उन पर दया करे

या रोष।

'इसमें समझने की क्या बात थी, और समझ लेते आगे-पीछे , इस वक़्त तो कुछ दे ने की बात थी। मैंने मे ता को ठे लकर य ाूँ भेजा था। बेचारे डर र े थे कक आप न जाने क्या जवाब दें । आपकी इस कंजस ू ी का क्या िल

ोगा, आप जानते

ैं? य ाूँ के व्यापारी समाज से कुछ न समलेगा। आपने शायद मुझे अपमा नत

करने का नकचय कर सलया

ै । सबकी सला

थी कक लेडी ववलसन बु नयाद

रखें। मैंने गोववंदी दे वी का पक्ष सलया और लड़कर सब को राज़ी ककया और अब आप फ़रमाते

ैं , आपने इस मुआमले को समझा

गुश्त्थयाूँ समझते

ैं; पर इतनी मोटी बात आप की समझ में न आयी। इसका

अथद इसके ससवा और कुछ न ीं अच्छी बात

ै , य ी स ी?'

मालती का मुख लाल साथ

ी न ीं। आप बैंककं ग की

ै , कक तुम मुझे लश्ज्जत करना चा ते

ो।

ो गया था। खन्ना घबराये , े कड़ी जाती र ी; पर इसके

ी उन् ें य

भी मालूम ु आ कक अगर व काूँटों में िूँस गये ैं, तो मालती दल-दल में िूँस गयी ै ; अगर उनकी थैसलयों पर संकट आ पड़ा ै , तो मालती की प्र तष्ठा पर संकट आ पड़ा

ै , जो थैसलयों से ज़्यादा मूल्यवान

ै । तब उनका

मन मालती की दरु वस्था का आनंद क्यों न उठाये ? उन् ोंने मालती को अरदब में डाल हदया था। और यद्यवप व दो-चार खरी-खरी बातें क

उसे रुष्ट कर दे ने का सा स खो चुके थे; पर

सुनाने का अवसर पाकर छोड़ना न चा ते थे। य

भी

हदखा दे ना चा ते थे कक मैं नरा भोंद ू न ीं ू ूँ।

उसका रास्ता रोककर बोले -- तुम मुझ पर इतनी कृपालु मुझे आकचयद

ो र ा

ो गयी

ो, इस पर

ै मालती!

मालती ने भवें ससकोड़कर क ा -- मैं इसका आशय न ीं समझी।'

'क्या अब मेरे साथ तम् ु ारा व ी बतादव ै , जो कुछ हदन प ले था?' 'मैं तो उसमें कोई अंतर न ीं दे खती।' 'लेककन मैं तो आकाश-पाताल का अंतर दे खता ू ूँ।' 'अच्छा मान लो, तुम् ारा अनुमान ठीक ै , तो किर? मैं तुमसे एक शुभ-कायद में

स ायता माूँगने आयी ू ूँ , अपने व्यव ार की परीक्षा दे ने आयी ू ूँ। और अगर तुम समझते ो, कुछ चंदा दे कर तम ु यश और िन्यवाद के ससवा और कुछ पा सकते ो, तो तुम भ्रम में

ो।'

खन्ना परास्त

ो गये। व

ऐसे सकरे कोने में िूँस गये थे, ज ाूँ इिर-उिर

ह लने का भी स्थान न था। क्या व मैंने अब तक तुम् ारे ऊपर लज्जा से उनका मूँु

उससे य

क ने का सा स रखते

ैं कक

ज़ारों रुपए लुटा हदये, क्या उसका य ी पुरस्कार

छोटा-सा नकल आया, जैसे ससकुड़ गया

झेंपते ु ए बोले -- मेरा आशय य

ै?

ो!

न था मालती, तुम बबलकुल ग़लत समझीं।

मालती ने परर ास के स्वर में क ा -- ख़ुदा करे , मैंने ग़लत समझा

ो, क्योंकक

अगर मैं उसे सच समझ लूँ ग ू ी, तो तम् ु ारे साये से भी भागूँग ू ी। मैं रुपवती ू ूँ। तुम भी मेरे अनेक चा नेवालों में से एक ो। व मेरी कृपा थी कक ज ाूँ मैं औरों के उप ार लौटा दे ती थी, तुम् ारी सामान्य-से-सामान्य चीज़ें भी िन्यवाद के साथ स्वीकार कर लेती थी, और ज़रूरत पड़ने पर तुमसे रुपए भी माूँग लेती थी, अगर तुमने अपने िनोन्माद में इसका कोई दस ू रा अथद नकाल सलया, तो मैं तुम् ें क्षमा करूूँगी। य

परु ु ष-प्रकृ त का अपवाद न ीं; मगर य

समझ लो कक िन ने

आज तक ककसी नारी के हृदय पर ववजय न ीं पायी, और न कभी पायेगा।

खन्ना एक-एक शब्द पर मानो गज़-गज़ भर नीचे िूँसते जाते थे। अब और ज़्यादा चोट स ने का उनमें जीवट न था। लश्ज्जत

ोकर बोले -- मालती, तम् ु ारे

पैरों पड़ता ू ूँ , अब और ज़लील न करो। और न स ी तो समत्र-भाव तो बना र ने दो। य क ते ु ए उन् ोंने दराज़ से चेकबुक नकाला और एक ज़ार सलखकर डरते डरते मालती की तरफ़ बढ़ाया।

मालती ने चेक लेकर नदद य व्यंग ककया -- य व्यायामशाला का चन्दा?

मेरे व्यव ार का मल् ू य

ै या

खन्ना सजल आूँखों से बोले -- अब मेरी जान बख़्शो मालती, क्यों मेरे मूँु कासलख पोत र ी

में

ो।

मालती ने ज़ोर से क़ क़ ा मारा -- दे खो, डाूँट भी बताई और एक वसूल ककये। अब तो तुम कभी ऐसी शरारत न करोगे?

'कभी न ीं, जीते जी कभी न ीं।'

ज़ार रुपए भी

'कान पकड़ो।' 'कान पकड़ता ू ूँ ; मगर अब तुम दया करके जाओ और मुझे एकांत में बैठकर सोचने और रोने दो।

'तुमने आज मेरे जीवन का सारा आनन्द ...।' मालती और ज़ोर से और तुम जानते

ूँसी -- दे खो खन्ना, तम ु मेरा ब ु त अपमान कर र े ो ो, रूप अपमान न ीं स सकता। मैंने तो तुम् ारे साथ भलाई

की और तुम उसे बुराई समझते खन्ना ववद्रो

ो।

भरी आूँखों से दे खकर बोले -- तम ु ने मेरे साथ भलाई की

उलटी छूरी से मेरा गला रे ता

ै या

ै?

'क्यों, मैं तुम् ें लूट-लूटकर अपना घर भर र ी थी। तुम उस लूट से बच गये।' 'क्यों घाव पर नमक छड़क र ी ो मालती! मैं भी आदमी ू ूँ।' मालती ने इस तर व

आदमी

खन्ना की ओर दे खा, मानो नकचय करना चा ती थी कक

ै या न ीं।

'अभी तो मुझे इसका कोई लक्षण न ीं हदखाई दे ता।' 'तम ु बबलकुल प े ली ो, आज य साबबत ो गया।' ' ाूँ तुम् ारे सलए प े ली ू ूँ और प े ली र ू ूँगी।' य

क ती ु ई व पक्षी की भाूँ त िुरद से उड़ गयी और खन्ना ससर पर रखकर सोचने लगे , य लीला ै , या इसका सच्चा रूप। ***

ाथ

23 गोबर और झु नया के जाने के बाद घर सुनसान र ने लगा। ि नया को बार-बार मुन्नू की याद आती र ती ि नया

ै । बच्चे की माूँ तो झु नया थी; पर उसका पालन

ी करती थी। व ी उसे उबटन मलती, काजल लगाती, सल ु ाती और जब

काम-काज से अवकाश समलता, उसे प्यार करती। वात्सल्य का य

नशा

उसकी ववपश्त्त को भुलाता र ता था। उसका भोला-भाला, मक्खन-सा मूँु व व



दे खकर

अपनी सारी धचंता भूल जाती और स्ने मय गवद से उसका हृदय िूल उठता। जीवन का आिार अब न था। उसका सूना खटोला दे खकर व

रो उठती। व

कवच जो सारी धचंताओं और दरु ाशाओं से उसकी रक्षा करता था, उससे छन गया था। व

बार-बार सोचती, उसने झु नया के साथ ऐसी कौन-सी बुराई की थी,

श्जसका उसने य

दं ड हदया। डाइन ने आकर उसका सोना-सा घर समट्टी में समला

हदया। गोबर ने तो कभी उसकी बात का जवाब भी न हदया था। इसी राूँड़ ने उसे िोड़ा और व ाूँ ले जाकर न जाने कौन-कौन-सा नाच नचायेगी। य ाूँ

ी व

बच्चे की कौन ब ु त परवा करती थी। उसे तो अपनी समस्सी-काजल, माूँग-चोटी से ी छुट्टी न ीं समलती। बच्चे की दे ख-भाल क्या करे गी। बेचारा अकेला ज़मीन पर पड़ा रोता

ोगा। बेचारा एक हदन भी तो सुख से न ीं र ने पाता। कभी

खाूँसी, कभी दस्त, कभी कुछ, कभी कुछ। य

सोच-सोचकर उसे झु नया पर क्रोि

आता। गोबर के सलए अब भी उसके मन में व ी ममता थी। इसी चुड़ल ै ने उसे कुछ णखला-वपलाकर अपने वश में कर सलया। ऐसी मायाववनी न टोना

ोती , तो य

ी कैसे करती। कोई बात न पूछता था। भौजाइयों की लातें खाती थी। य

भुग्गा समल गया तो आज रानी

ो गयी।

ोरी ने धचढ़कर क ा -- जब दे खा तब तू झु नया

ी को दोस दे ती

ै। य

न ीं

समझती कक अपना सोना खोटा तो सोनार का क्या दोस। गोबर उसे न ले जाता तो क्या आप-से-आप चली जाती? स र का दाना-पानी लगने से लौंडे की आूँखें बदल गयीं। ऐसा क्यों न ीं समझ लेती। ि नया गरज उठी -- अच्छा चुप र ो। तुम् ीं ने राूँड़ को मूड़ पर चढ़ा रखा था, न ीं मैंने प ले

ी हदन झाड़ू मारकर नकाल हदया

ोता।

खसल ान में डाठें जमा

ो गयी थीं।

र ा था। पीछे मूँु

ोरी बैलों को जख ु र कर अनाज माूँड़ने जा

िेरकर बोला -- मान ले, ब ू ने गोबर को िोड़ ी सलया, तो तू इतना कुढ़ती क्यों ै ? जो सारा ज़माना करता ै , व ी गोबर ने भी ककया। अब उसके बाल-बच्चे ु ए। मेरे बाल-बच्चों के सलए क्यों अपनी साूँसत कराये , क्यों मारे ससर का बोझ अपने ससर पर रखे!

'तुम् ीं उपद्रव की जड़ ो।' 'तो मझ ु े भी नकाल दे । ले जा बैलों को अनाज माूँड़। मैं ु क़्क़ा पीता ू ूँ।' 'तुम चलकर चक्की पीसो मैं अनाज माड़ूूँगी।' ववनोद में दःु ख उड़ गया। व ी उसकी दवा गूँथ ू ने बैठ गयी जो बबलकुल उलझकर र

ै । ि नया प्रसन्न गये थे, और

ोकर रूपा के बाल

ोरी खसल ान चला।

रससक बसंत सुगंि और प्रमोद और जीवन की ववभू त लुटा र ा था, दोनों

ाथों

से, हदल खोलकर। कोयल आम की डासलयों में छपी अपनी रसीली, मिुर,

आत्मस्पशी कूक से आशाओं को जगाती किरती थी। म ु ए की डासलयों पर मैनों की बरात-सी लगी बैठी थी। नीम और ससरस और करौंदे अपनी म क में नशासा घोल दे ते थे।

ोरी आमों के बाग़ में प ु ूँचा, तो वक्ष ृ ों के नीचे तारे -से णखले थे। उसका व्यधथत, नराश मन भी इस व्यापक शोभा और स्िू तद में आकर गाने लगा --

'ह या जरत र त हदन-रै न। आम की डररया कोयल बोले, त नक न आवत चैन।' सामने से दल ु ारी स ु आइन, गुलाबी साड़ी प ने चली आ र ी थीं। पाूँव में मोटे चाूँदी के कड़े थे, गले में मोटी सोने की ूँसली, चे रा सूखा ु आ; पर हदल रा। एक समय था, जब ोरी खेत-खसल ान में उसे छे ड़ा करता था। व भाभी थी, ोरी दे वर था, इस नाते से दोनों में ववनोद

ोता र ता था। जब से सा जी मर

गये, दल ु ारी ने घर से नकलना छोड़ हदया। सारे हदन दक ू ान पर बैठी र ती थी और व ीं वे सारे गाूँव की ख़बर लगाती र ती थी। क ीं आपस में झगड़ा



जाय, स ु आइन व ाूँ बीच-बचाव करने के सलए अवकय प ु ूँचग े ी। आने रुपए सूद से कम पर रुपए उिार न दे ती थी। और यद्यवप सूद के लोभ में मल ू भी ाथ

न आता था -- जो रुपए लेता, खाकर बैठ र ता -- मगर उसके ब्याज का दर ज्यों-का-त्यों बना र ता था। बेचारी कैसे वसूल करे । नासलश-फ़ररयाद करने से र ी, थाना-पुसलस करने से र ी, केवल जीभ का बल था; पर ज्यों-ज्यों उम्र के

साथ जीभ की तेज़ी बदलती जाती थी, उसकी काट घटती जाती थी। अब उसकी गासलयों पर लोग

ूँस दे ते थे और मज़ाक़ में क ते -- क्या करे गी रुपए लेकर

काकी, साथ तो एक कौड़ी भी न ले जा सकेगी। ग़रीब को णखला-वपलाकर श्जतनी असीस समल सके, ले-ले। य ी परलोक में काम आयेगा। और दल ु ारी परलोक के नाम से जलती थी।

ोरी ने छे ड़ा -- आज तो भाभी, तम ु सचमच ु जवान लगती

ो।

स ु आइन मगन ोकर बोली -- आज मंगल का हदन ै , नज़र न लगा दे ना। इसी मारे मैं कुछ प नती-ओढ़ती न ीं। घर से नकली तो सभी घरू ने लगते ैं, जैसे कभी कोई मे ररया दे खी न छूटी।

ो। पटे कवरी लाला की परु ानी बान अभी तक न ीं

ोरी हठठक गया; बड़ा मनोरं जक प्रसंग छड़ गया था। बैल आगे नकल गये।

'व तो आजकल बड़े भगत ो गये ैं। दे खती न ीं ो , र पूरनमासी को सत्यनारायण की कथा सुनते

ैं और दोनों जून मंहदर में दशदन करने जाते

ैं।'

'ऐसे लम्पट श्जतने ोते ैं , सभी बढ़ ू े ोकर भगत बन जाते ैं। कुकमद का परासधचत तो करना ी पड़ता ै । पूछो, मैं अब बुहढ़या ु ई, मझ ु से क्या ूँसी।' 'तुम अभी बुहढ़या कैसे ो गयी भाभी? मुझे तो अब भी...' 'अच्छा चुप ी र ना, न ीं डेढ़ सौ गाली दूँ ग ू ी। लड़का परदे स कमाने लगा, एक हदन नेवता भी न णखलाया, सेंत-में त में भाभी बताने को तैयार।'

'मुझसे क़सम ले लो भाभी, जो मैंने उसकी कमाई का एक पैसा भी छुआ ो। न

जाने क्या लाया, क ाूँ ख़रच ककया, मुझे कुछ भी पता न ीं। बस एक जोड़ा िोती और एक पगड़ी मेरे

ाथ लगी।'

'अच्छा कमाने तो लगा, आज न ीं कल घर सूँभालेगा ी। भगवान ण उसे सख ु ी रखे। मारे रुपए भी थोड़ा-थोड़ा दे ते चलो। सूद ी तो बढ़ र ा ै ।' 'तुम् ारी एक-एक पाई दूँ ग ू ा भाभी, ाथ में पैसे आने दो। और खा ी जायेंगे, तो कोई बा र के तो न ीं

ैं , ैं तो तम् ु ारे

ी।'

स ु आइन ऐसी ववनोद भरी चापलूससयों से नरस्त्र अपनी रा चली गयी।

ो जाती थी। मुस्कराती ु ई

ोरी लपककर बैलों के पास प ु ूँच गया और उन् ें पौर में डालकर चक्कर दे ने लगा। सारे गाूँव का य ी एक खसल ान था। क ीं मूँड़ाई ो र ी थी, कोई अनाज ओसा र ा था, कोई गल्ला तौल र ा था। नाई, बारी, बढ़ई, लो ार, पुरोह त, भाट, सभखारी, सभी अपने-अपने जेवरें लेने के सलए जमा

ो गये थे।

एक पेड़ के नीचे णझंगुरीससं खाट पर बैठे अपनी सवाई उगा

र े थे। कई ब नये

खड़े गल्ले का भाव-ताव कर र े थे। सारे खसल ान में मंडी की-सी रौनक़ थी। एक खटककन बेर और मकोय बेच र ी थी और एक खोंचेवाला तेल के सेव और जलेबबयाूँ सलये किर र ा था। पंडडत दातादीन भी

ोरी से अनाज बूँटवाने के सलए

आ प ु ूँचे थे और णझंगुरीससं के साथ खाट पर बैठे थे। दातादीन ने सुरती मलते ु ए क ा -- कुछ सुना, सरकार भी म ाजनों से क ै कक सद ू का दर घटा दो, न ीं डडग्री न समलेगी।

र ी

णझंगुरी तमाखू िाूँककर बोले -- पंडडत मैं तो एक बात जानता ू ूँ। तुम् ें गरज पड़ेगी तो सौ बार मसे रुपए उिार लेने आओगे, और म जो ब्याज चा ें गे, लें गे। सरकार अगर असासमयों को रुपए उिार दे ने का कोई बंदोबस्त न करे गी , तो

में इस क़ानून से कुछ न

पचीस प ले

ोगा।

म दर कम सलखायेंगे; लेककन एक सौ में

ी काट लें गे। इसमें सरकार क्या कर सकती

ै।

'य तो ठीक ै ; लेककन सरकार भी इन बातों को ख़ब ू समझती ै । इसकी भी कोई रोक नकालेगी, दे ख लेना।'

'इसकी कोई रोक ो ी न ीं सकती।'

'अच्छा, अगर व शतद कर दे , जब तक स्टाम्प पर गाूँव के मुणखया या काररंदा के दसख़त न

ोंगे , व

पक्का न

ोगा, तब क्या करोगे?'

'असामी को सौ बार गरज ोगी, मुणखया को ाथ-पाूँव जोड़ के लायेगा और दसखत करायेगा।

म तो एक चौथाई काट

ी लें गे। '

'और जो िूँस जाओ! जाली ह साब सलखा और गये चौद साल को।' णझंगुरीससं ज़ोर से

ूँसा -- तुम क्या क ते

जायेगा? क़ानून और न्याय उसका

ो पंडडत, क्या तब संसार बदल

ै , श्जसके पास पैसा

ै । क़ानून तो

ै कक

म ाजन ककसी असामी के साथ कड़ाई न करे , कोई ज़मींदार ककसी कास्तकार के साथ सख़्ती न करे ; मगर के वपटवाता

ोता क्या

ै । रोज़

ी दे खते

ै और म ाजन लात और जूते से बात करता

ै , उससे न ज़मींदार बोलता

सा ब के पाूँच सौ रुपए नकलते तम ु से कुछ बोले? व जैसे चल र ा

जानते

ै । जो ककसान पोढ़ा

ै , न म ाजन। ऐसे आदसमयों से

और उनकी मदद से दस ू रे आदसमयों की गदद न दबाते

में इतना बूता

ो। ज़मींदार मस ु क बूँिवा

ैं। तुम् ारे

ैं ; लेककन नोखेराम में

ैं , तम ु से मेल करने

म समल जाते ी ऊपर राय

ै इतनी ह म्मत कक

ी में उनका ह त

ै कक रोज़ अदालत दौड़े? सारा कारबार इसी तर

ै । कच री-अदालत उसी के साथ

ैं

ै । असामी

चला जायगा ,

ै , श्जसके पास पैसा

ै।



लोगों को घबराने की कोई बात न ीं। य

क कर उन् ोंने खसल ान का एक चक्कर लगाया और किर आकर खाट पर

बैठते ु ए बोले -- ाूँ, मतई के ब्या का क्या ु आ? मारी सला उसका ब्या कर डालो। अब तो बड़ी बदनामी ो र ी ै ।

तो

ै कक

दातादीन को जैसे ततैया ने काट खाया। इस आलोचना का क्या आशय था , व ख़ूब समझते थे। गमद

ोकर बोले -- पीठ पीछे आदमी जो चा े बके, मारे मूँु

तो उसकी मूँछ ू ें उखाड़ लूँ ।ू कोई

मारी तर

पर कोई कुछ क े ,

नेमी बन तो ले। ककतनों को जानता

ू ूँ , जो कभी संध्या-बंदन न ीं करते, न उन् ें िरम से मतलब, न करम से; न कथा से मतलब, न पुरान से। व भी अपने को ब्राह्मण क ते ैं। मारे ऊपर क्या

ूँसेगा कोई, श्जसने अपने जीवन में एक एकादसी भी नागा न ीं की , कभी बबना

स्नान-पूजन ककये मूँु दे कक

में पानी न ीं डाला। नेम का नभाना कहठन

मने कभी बाज़ार की कोई चीज़ खायी

पानी वपया

ो, तो उसकी टाूँग की रा

ो , या ककसी दस ू रे के

नकल जाऊूँ। सससलया

लाूँघने पाती, चौखट; बरतन-भाूँड़े छूना तो दस ू री बात मतई य तो य

ै । कोई बता

ै । मैं य

ाथ का

मारी चौखट न ीं न ीं क ता कक

ब ु त अच्छा काम कर र ा ै , लेककन जब एक बार एक बात ो गयी पाजी का काम ै कक औरत को छोड़ दे । मैं तो खल् ु लमखुल्ला क ता ू ूँ ,

इसमें छपाने की कोई बात न ीं। स्त्री-जा त पववत्र दातादीन अपनी जवानी में स्वयम ण बड़े रससया र

ै।

चक ु े थे; लेककन अपने नेम-िमद

से कभी न ीं चूके। मातादीन भी सुयोग्य पुत्र की भाूँ त उन् ीं के पद-धचह्नों पर चल र ा था। िमद का मूल तत्व वपता-पुत्र दोनों पथ-भ्रष्ट क

ै पूजा-पाठ, कथाव्रत और चौका-चूल् ा। जब

ी मूल तत्व को पकड़े ु ए सके।

णझंगुरीससं ने क़ायल हदया।

ैं, तो ककसकी मजाल

ै कक उन् ें

ोकर क ा -- मैंने तो भाई, जो सुना था, व

तुमसे क

दातादीन ने म ाभारत और पुराणों से ब्राह्मणों-द्वारा अन्य जा तयों की कन्याओं के ग्र ण ककये जाने की एक लम्बी सूची पेश की और य

ससद्ि कर हदया कक

उनसे जो संतान ु ई, व ब्राह्मण क लायी और आजकल के जो ब्राह्मण ैं, व उन् ीं संतानों की संतान ैं। य प्रथा आहदकाल से चली आयी ै और इसमें कोई लज्जा की बात न ीं। णझंगुरीससं उनके पांडडत्य पर मुग्ि वाजपेयी और सुकुल बने किरते

ोकर बोले -- तब क्यों आजकल लोग

ैं?

'समय-समय की परथा ै और क्या! ककसी में उतना तेज तो ो। बबस खाकर उसे पचाना तो चाह ए। व अपना नबा

सतजुग की बात थी, सतजुग के साथ गयी। अब तो

बबरादरी के साथ समलकर र ने में

लड़कीवाला आता

ै ; मगर करूूँ क्या, कोई

ी न ीं। तुमसे भी क ा, औरों से भी क ा, कोई न ीं सुनता तो

मैं क्या लड़की बनाऊूँ?'

णझंगरु ीससं ने डाूँटा -- झठ ू मत बोलो पंडडत, मैं दो आदसमयों को िाूँस-िूँू सकर लाया; मगर तुम मूँु ककस बबरते पर

िैलाने लगे, तो दोनों कान खड़े करके नकल भागे। आणख़र

ज़ार-पाूँच सौ माूँगते

तुम् ारे पास और क्या

ै?

ो तुम? दस बीघे खेत और भीख के ससवा

दातादीन के असभमान को चोट लगी। डाढ़ी पर

ाथ िेरकर बोले -- पास कुछ न स ी, मैं भीख

मैंने अपनी लड़ककयों के ब्या

में पाूँच-पाूँच सौ हदये

ी माूँगता ू ूँ, लेककन ैं; किर लड़के के सलए पाूँच

सौ क्यों न माूँगूँ? ू ककसी ने सेंत-में त में मेरी लड़की ब्या में लड़का ब्या

लेता। र ी

ली

ोती तो मैं भी सेंत

ै ससयत की बात। तुम जजमानी को भीख समझो, मैं

तो उसे ज़मींदारी समझता ू ूँ; बंकघर। ज़मींदारी समट जाय, बंकघर टूट जाय, लेककन जजमानी अंत तक बनी र े गी। जब तक ह द ं -ू जा त र े गी, तब तक

ब्राह्मण भी र ें गे और जजमानी भी र े गी। स ालग में मज़े से घर बैठे सौ-दो सौ िटकार लेते

ैं। कभी भाग लड़ गया, तो चार-पाूँच सौ मार सलया। कपड़े,

बरतन, भोजन अलग। क ीं-न-क ीं नत

ी कार-परोजन पड़ा

ी र ता

न समले तब भी एक-दो थाल और दो-चार आने दक्षक्षणा समल

ी जाते

ै । कुछ

ैं। ऐसा

चैन न ज़मींदारी में

ै , न सा ू कारी में । और किर मेरा तो सससलया से श्जतना उबार ोता ै , उतना ब्राह्मन की कन्या से क्या ोगा? व तो ब ु ररया बनी बैठी र े गी। ब ु त ोगा रोहटयाूँ पका दे गी। य ाूँ सससलया अकेली तीन आदसमयों का काम करती

ै । और मैं उसे रोटी के ससवा और क्या दे ता ू ूँ ? ब ु त ु आ, तो साल में एक िोती दे दी। दस ू रे पेड़ के नीचे दातादीन का नजी पैरा था। चार बैलों से मूँड़ाई िन्ना चमार बैलों को

ो र ी थी।

ाूँक र ा था, सससलया पैरे से अनाज नकाल- नकालकर

ओसा र ी थी और मातादीन दस ू री ओर बैठा अपनी लाठी में तेल मल र ा था। सससलया साूँवली सलोनी, छर री बासलका थी, जो रूपवती न थी। उसके

ास में , धचतवन में , अंगों के ववलास में

ोकर भी आकषदक

षद का उन्माद था, श्जससे

उसकी बोटी-बोटी नाचती र ती थी, ससर से पाूँव तक भूसे के अणुओं में सनी, पसीने से तर, ससर के बाल आिे खुले, व मानो तन-मन से कोई खेल खेल र ी

ो।

दौड़-दौड़कर अनाज ओसा र ी थी,

मातादीन ने क ा -- आज साूँझ तक नाज बाक़ी न र े सससलया! तू थक गयी



तो मैं आऊूँ?

सससलया प्रसन्न मुख बोली -- तुम का े को आओगे पंडडत! मैं संझा तक सब ओसा दूँ ग ू ी।

'अच्छा, तो मैं अनाज ढो-ढोकर रख आऊूँ। तू अकेली क्या-क्या कर लेगी?' 'तुम घबड़ाते क्यों ो, मैं ओसा भी दूँ ग ू ी, ढोकर रख भी आऊूँगी। प र रात तक य ाूँ एक दाना भी न र े गा।'

दल ु ारी स ु आइन आज अपना ले ना वसल ू करती किरती थी। सससलया उसकी दक ू ान से ोली के हदन दो पैसे का गल ु ाबी रं ग लायी थी। अभी तक पैसे न हदये थे।

सससलया के पास आकर बोली -- क्यों री सससलया, म ीना-भर रं ग लाये

ो गया,

अभी तक पैसे न ीं हदये। माूँगती ू ूँ तो मटककर चली जाती ै । आज मैं बबना पैसा सलये न जाऊूँगी। मातादीन चुपके-से सरक गया था। सससलया का तन और मन दोनों लेकर भी बदले में कुछ न दे ना चा ता था। सससलया अब उसकी नगा

में केवल काम करने की मशीन थी, और कुछ न ीं। उसकी ममता को व

बड़े कौशल से नचाता र ता था। सससलया ने आूँख उठाकर दे खा तो मातादीन व ाूँ न था। बोली -- धचल्लाओ मत स ु आइन, य ले लो, दो की जग अब क्या जान लेगी? मैं मरी थोड़े ी जाती थी!

चार पैसे का अनाज।

उसने अंदाज़ से कोई सेर-भर अनाज ढे र में से नकालकर स ु आइन के िैले अंचल में डाल हदया। उसी वक़्त मातादीन पेड़ की आड़ से झल्लाया ु आ नकला और स ु आइन का अंचल पकड़कर बोला -- अनाज सीिे से रख दो स ु आइन, लूट न ीं ै ।

ुए

किर उसने लाल-लाल आूँखों से सससलया को दे खकर डाूँटा -- तन ू े अनाज क्यों दे हदया? ककससे पूछकर हदया? तू कौन

ोती

ै मेरा अनाज दे ने वाली?

स ु आइन ने अनाज ढे र में डाल हदया और सससलया क्का-बक्का ोकर मातादीन का मूँु दे खने लगी। ऐसा जान पड़ा, श्जस डाल पर व नश्कचंत बैठी ु ई थी, व टूट गयी और अब व

नरािार नीचे धगरी जा र ी

ै ! णखससयाये

ु ए मूँु आूँखों में आूँसू भरकर, स ु आइन से बोली -- तुम् ारे पैसे मैं किर दे दूँ ग ू ी

से ,

स ु आइन! आज मुझ पर दया करो।

स ु आइन ने उसे दयाद्रद नेत्रों से दे खा और मातादीन को धिक्कार भरी आूँखों से दे खती ु ई चली गयी। तब सससलया ने अनाज ओसाते ु ए आ त गवद से पछ ू ा -- तुम् ारी चीज़ में मेरा कुछ अश्ख़्तयार न ीं ै ? मातादीन आूँखें नकालकर बोला -- न ीं, तुझे कोई अश्ख़्तयार न ीं करती

ै , खाती

ै । जो तू चा े कक खा भी, लट ु ा भी; तो य

तझ ु े य ाूँ न परता पड़ता

य ाूँ न

ै । काम ोगा। अगर

ो, क ीं और जाकर काम कर। मजरू ों की कमी न ीं

ै । सेंत में न ीं लेते, खाना-कपड़ा दे ते

ैं।

सससलया ने उस पक्षी की भाूँ त, श्जसे मासलक ने पर काटकर वपंजरे से नकाल हदया य

ो, मातादीन की ओर दे खा। उस धचतवन में वेदना अधिक थी या भत्सदना ,

क ना कहठन

ै । पर उसी पक्षी की भाूँ त उसका मन िड़िड़ा र ा था और

ऊूँची डाल पर उन्मुक्त वाय-ु मंडल में उड़ने की शश्क्त न पाकर उसी वपंजरे में जा बैठना चा ता था, चा े उसे बेदाना, बेपानी, वपंजरे की तीसलयों से ससर टकराकर मर कौन-सा ठौर

ी क्यों न जाना पड़े। सससलया सोच र ी थी , अब उसके सलए दस ू रा

ै। व

ब्या ता न

ोकर भी संस्कार में और व्यव ार में और

मनोभावना में ब्या ता थी, और अब मातादीन चा े उसे मारे या काटे , उसे दस ू रा आश्रय न ीं

ै , दस ू रा अवलंब न ीं

ै । उसे व

हदन याद आये -- और अभी दो

साल भी तो न ीं ु ए -- जब य ी मातादीन उसके तलवे स लाता था, जब उसने जनेऊ ाथ में लेकर क ा था -- सससलया, जब तक दम में दम ै , तुझे ब्या ता की तर

रखग ूूँ ा; जब व

प्रेमातरु

ोकर

ार में और बाग़ में और नदी के तट पर

उसके पीछे -पीछे पागलों की भाूँ त किरा करता था। और आज उसका य व्यव ार! मुट्ठी-भर अनाज के सलए उसका पानी उतार सलया।

नष्ठुर

उसने कोई जवाब न हदया। कंठ में नमक के एक डले का-सा अनुभव करती ु ई, आ त हृदय और सशधथल ाथों से किर काम करने लगी। उसी वक़्त उसकी माूँ, बाप, दोनों भाई और कई अन्य चमारों ने न जाने ककिर से आकर मातादीन को घेर सलया। सससलया की माूँ ने आते

ी उसके

ाथ से अनाज की टोकरी छीनकर िेंक दी

और गाली दे कर बोली -- राूँड़, जब तुझे मज़दरू ी

ी करनी थी, तो घर की मजूरी

छोड़ कर य ाूँ क्या करने आयी। जब ब्राह्मण के साथ र ती तर

र । सारी बबरादरी की नाक कटवाकर भी चमाररन

ै , तो ब्राह्मण की

ी बनना था , तो य ाूँ

क्या घी का लोंदा लेने आयी थी। चुल्लू-भर पानी में डूब न ीं मरती! णझंगुरीससं और दातादीन दोनों दौड़े और चमारों के बदले शांत करने की चेष्टा करने लगे।

णझंगरु ीससं ने सससलया के बाप से पछ ू ा -- क्या बात झगड़ा

ु ए तेवर दे खकर उन् ें

ै चौिरी, ककस बात का

ै?

सससलया का बाप

रखू साठ साल का बूढ़ा था; काला, दब ु ला, सूखी समचद की तर

वपचका ु आ; पर उतना

ी तीक्ष्ण।

बोला -- झगड़ा कुछ न ीं

ै ठाकुर, म आज या तो मातादीन को चमार बना के

छोड़ेंगे, या उनका और अपना रकत एक कर दें गे। सससलया कन्या जात न-ककसी के घर जायगी भी रखे, मारा

ोकर र े । तुम

चमार बना सकते ै । जब य

ी। इस पर

ैं।

में कुछ न ीं क ना

ै , ककसी-

ै ; मगर उसे जो कोई

में ब्राह्मण न ीं बना सकते, मुदा

म तुम् ें

में ब्राह्मण बना दो, मारी सारी बबरादरी बनने को तैयार

समरथ न ीं

ै , तो किर तुम भी चमार बनो।

वपओ, मारे साथ उठो-बैठो।

मारी इज़्ज़त लेते

मारे साथ खाओ-

ो, तो अपना िरम

में दो।

दातादीन ने लाठी िटकार कर क ा -- मूँु बबहटया व

खड़ी

ै , ले जा ज ाूँ चा े ।

सूँभाल कर बातें कर

मने उसे बाूँि न ीं रक्खा

थी, मजूरी लेती थी। य ाूँ मजूरों की कमी न ीं

तुम् ारी लड़की ककसी चमार के साथ नकल गयी म चमार

ैं इससलए

ै । काम करती

ै।

सससलया की माूँ उूँ गली चमकाकर बोली -- वा -वा बातें करते, तो दे खती।

रखआ ु ! तेरी

पंडडत! ख़ब ू नयाव करते

ोती और तुम इस तर

मारी कोई इज़्ज़त

ी न ीं!

ो।

की म

सससलया को अकेले न ले जायूँगे, उसके साथ मातादीन को भी ले जायूँगे, श्जसने उसकी इज़्ज़त बबगाड़ी उसके

ै । तुम बड़े नेमी-िरमी

ाथ का पानी न वपओगे! य ी चुड़ल ै

ो। उसके साथ सोओगे; लेककन

ै कक य

सब स ती

ै । मैं तो ऐसे

आदमी को मा ु र दे दे ती।

रखू ने अपने साधथयों को ललकारा -- सुन ली इन लोगों की बात कक न ीं! अब

क्या खड़े मूँु

ताकते

ो।

इतना सुनना था कक दो चमारों ने लपककर मातादीन के

ाथ पकड़ सलये , तीसरे

ने झपटकर उसका जनेऊ तोड़ डाला और इसके पह ले कक दातादीन और णझंगुरीससं अपनी-अपनी लाठी सूँभाल सकें, दो चमारों ने मातादीन के मूँु एक बड़ी-सी व

में

ड्डी का टुकड़ा डाल हदया। मातादीन ने दाूँत जकड़ सलये , किर भी

घनौनी वस्तु उनके ओठों में तो लग

आप-से-आप खुल गया और सारे आदमी जमा

ी गयी। उन् ें मतली ु ई और मूँु ड्डी कंठ तक जा प ु ूँ ची। इतने में खसल ान के

ो गये; पर आकचयद य

कक कोई इन िमद के लुटेरों से

मज़ ु ाह म न ु आ। मातादीन का व्यव ार सभी को नापसंद था। व गाूँव की ब ू बेहटयों को घूरा करता था, इससलए मन में सभी उसकी दग ु द त से प्रसन्न थे। ाूँ, ऊपरी मन से लोग चमारों पर रोब जमा र े थे। ोरी ने क ा -- अच्छा, अब ब ु त ु आ जाओ।

रख!ू भला चा ते

ो, तो य ाूँ से चले

रखू ने नडरता से उत्तर हदया -- तुम् ारे घर में भी लड़ककयाूँ

इतना समझ लो। इस तर न बचेगी।

ैं

ोरी म तो,

गाूँव की मरजाद बबगड़ने लगी, तो ककसी की आबरू

एक क्षण में शत्रु पर परू ी ववजय पाकर आक्रमणकाररयों ने व ाूँ से टल जाना उधचत समझा। जनमत बदलते दे र न ीं लगती।

उससे बचे र ना

ी अच्छा

ी ै।

मातादीन क़ै कर र ा था। दातादीन ने उसकी पीठ स लाते ु ए क ा -- एक-एक को पाूँच-पाूँच साल के सलए न भेजवाया, तो क ना। पाूँच-पाूँच साल तक चक्की वपसवाऊूँगा। रखू ने

तर

े कड़ी के साथ जवाब हदया -- इसका य ाूँ कोई ग़म न ीं। कौन तुम् ारी

बैठे मौज करते

ैं। ज ाूँ काम करें गे, व ीं आिा पेट दाना समल जायगा।

मातादीन क़ै कर चुकने के बाद नजीव-सा ज़मीन पर लेट गया, मानो कमर टूट गयी

ो, मानो डूब मरने के सलए चुल्लू भर पानी खोज र ा

ो। श्जस मयाददा के

बल पर उसकी रससकता और घमंड और पुरुषाथद अकड़ता किरता था, व चुकी थी। उस

ड्डी के टुकड़े ने उसके मूँु

को

समट

ी न ीं, उसकी आत्मा को भी

अपववत्र कर हदया था। उसका िमद इसी खान-पान, छूत-ववचार पर हटका ु आ था। आज उस िमद की जड़ कट गयी। अब व लाख प्रायश्कचत्त करे , लाख गोबर खाय और गंगाजल वपये , लाख दान-पुडय और तीथद-व्रत करे , उसका मरा ु आ िमद जी न ीं सकता; अगर अकेले की बात ोती, तो छपा ली जाती; य ाूँ तो सबके सामने उसका िमद लुटा। अब उसका ससर आज से व

अपने

मेशा के सलए नीचा

ो गया।

ी घर में अछूत समझा जायगा। उसकी स्ने मयी माता भी

उससे घण ृ ा करे गी। और संसार से िमद का ऐसा लोप

ो गया कक इतने आदमी

केवल खड़े तमाशा दे खते र े । ककसी ने चूँू तक न की। एक क्षण प ले जो लोग उसे दे खते

ी पालागन करते थे , अब उसे दे खकर मूँु

िेर लें गे। व

ककसी मंहदर

में भी न जा सकेगा, न ककसी के बरतन-भाूँड़े छू सकेगा। और य

सब ु आ इस अभाधगन सससलया के कारण। सससलया ज ाूँ अनाज ओसा र ी थी , व ीं ससर झुकाये खड़ी थी, मानो य

उसी की दग ु दत

ो र ी

ै।

स सा उसकी माूँ ने आकर डाूँटा -- खड़ी ताकती क्या

ै ? चल सीिे घर, न ीं

बोटी-बोटी काट डालूँ ग ू ी। बाप-दादा का नाम तो ख़ब ू उजागर कर चक ु ी, अब क्या करने पर लगी

ै?

सससलया मू तदवत ण खड़ी र ी। माता-वपता और भाइयों पर उसे क्रोि आ र ा था। य

लोग क्यों उसके बीच में बोलते

ैं। व

जैसे चा ती

ै , र ती

ै , दस ू रों से

क्या मतलब? क ते

ैं, य ाूँ तेरा अपमान

पकाया खा लेगा? उसके

ोता

ै , तब क्या कोई ब्राह्मण उसका

ाथ का पानी पी लेगा? अभी ज़रा दे र प ले उसका मन

दातादीन के नठुर व्यव ार से णखन्न

ो र ा था, पर अपने घरवालों और बबरादरी

के इस अत्याचार ने उस ववराग को प्रचंड अनुराग का रूप दे हदया।

ववद्रो -भरे मन से बोली -- मैं क ीं न जाऊूँगी। तू क्या य ाूँ भी मुझे जीने न दे गी?

बुहढ़या ककशद स्वर में बोली -- तू न चलेगी?

'न ीं।' 'चल सीिे से।' 'न ीं जाती।' तुरंत दोनों भाइयों ने उसके

ाथ पकड़ सलये और उसे घसीटते ु ए ले चले। सससलया ज़मीन पर बैठ गयी। भाइयों ने इस पर भी न छोड़ा। घसीटते ी र े । उसकी साड़ी िट गयी, पीठ और कमर की खाल छल गयी; पर व

जाने पर

राज़ी न ु ई। तब

रखू ने लड़कों से क ा -- अच्छा, अब इसे छोड़ दो। समझ लें गे मर गयी;

मगर अब जो कभी मेरे द्वार पर आयी तो ल ू पी जाऊूँगा। सससलया जान पर खेलकर बोली -बु

ाूँ, जब तुम् ारे द्वार पर जाऊूँ, तो पी लेना।

हढ़या ने क्रोि के उन्माद में सससलया को कई लातें जमाईं और न हदया

ोता, तो शायद प्राण

बहु ढ़या किर झपटी, तो त्याररन

ी लेकर छोड़ती।

रखू ने उसे िक्के दे कर पीछे

ै कसलया! क्या उसे मार

ी डालेगी?

रखू ने उसे

टा

टाते ु ए क ा -- तू बड़ी

सससलया बाप के पैरों से सलपटकर बोली -- मार डालो दादा, सब जने समलकर मार डालो। सौर में

ाय अम्माूँ, तुम इतनी नदद यी

ो; इसीसलए दि ू वपलाकर पाला था?

ी क्यों न गला घोंट हदया? ाय! मेरे पीछे पंडडत को भी तुमने भररस्ट

कर हदया। उसका िरम लेकर तुम् ें क्या समला? अब तो व

भी मुझे न पूछेगा।

लेककन पूछे न पूछे, र ू ूँगी तो उसी के साथ। व मुझे चा े भूखों रखे, चा े मार डाले, पर उसका साथ न छोड़ूूँगी। उनकी साूँसत कराके छोड़ दूँ ?ू मर जाऊूँगी, पर रजाई न बनूँूगी। एक बार श्जसने बाूँ

पकड़ ली, उसी की र ू ूँगी।

कसलया ने ओठ चबाकर क ा -- जाने दो राूँड़ को। समझती करे गा; मगर आज

ी मारकर भगा न दे तो मूँु

ै, व

इसका नबा

न हदखाऊूँ।

भाइयों को भी दया आ गयी। सससलया को व ीं छोड़कर सब-के-सब चले गये। तब व

िीरे से उठकर लूँ गड़ाती, करा ती, खसल ान में आकर बैठ गयी और

अंचल में मूँु

ढाूँपकर रोने लगी।

दातादीन ने जुला े का ग़स् ु सा डाढ़ी पर उतारा -- उनके साथ चली क्यों न ीं गयी री सससलया! अब क्या करवाने पर लगी ु ई न ीं भरा?

ै ? मेरा सत्यानास कराके भी पेट

सससलया ने आूँसू-भरी आूँखें ऊपर उठाईं। उनमें तेज की झलक थी।

'उनके साथ क्यों जाऊूँ? श्जसने बाूँ पकड़ी ै , उसके साथ र ू ूँगी।' पंडडतजी ने िमकी दी -- मेरे घर में पाूँव रखा, तो लातों से बात करूूँगा। सससलया ने भी उद्दंडता से क ा -- मुझे ज ाूँ व चा े म ल में रखें।

मातादीन संज्ञा ीन-सा बैठा था। दोप र

रखेंगे, व ाूँ र ू ूँगी। पेड़ तले रखें ,

ोने आ र ा था। िूप पश्त्तयों से छन-

छनकर उसके चे रे पर पड़ र ी थी। माथे से पसीना टपक र ा था। पर व मौन, नस्पंद बैठा ु आ था। स सा जैसे उसने

ोश में आकर क ा -- मेरे सलए अब क्या क ते

ो दादा?

दातादीन ने उसके ससर पर

ाथ रखकर ढाढ़स दे ते ु ए क ा -- तम् ु ारे सलए अभी मैं क्या क ू ूँ बेटा? चलकर न ाओ, खाओ, किर पंडडतों की जैसी व्यवस्था ोगी, वैसा ककया जायगा। ाूँ, एक बात ै ; सससलया को त्यागना पड़ेगा। मातादीन ने सससलया की ओर रक्त-भरे नेत्रों से दे खा -- मैं अब उसका कभी मूँु न दे खग ूूँ ा; लेककन परासधचत

ो जाने पर किर तो कोई दोष न र े गा।

'परासधचत ो जाने पर कोई दोष-पाप न ीं र ता।' 'तो आज ी पंडडतों के पास जाओ।' 'आज ी जाऊूँगा बेटा!' 'लेककन पंडडत लोग क ें कक इसका परासधचत न ीं ो सकता , तब?' 'उनकी जैसी इच्छा।' 'तो तुम मुझे घर से नकाल दोगे?' दातादीन ने पुत्र-स्ने

से ववह्वल

ोकर क ा -- ऐसा क ीं

ो सकता

ै , बेटा! िन

जाय, िरम जाय, लोक-मरजाद जाय, पर तुम् ें न ीं छोड़ सकता। मातादीन ने

लकड़ी उठाई और बाप के पीछे -पीछे घर चला। सससलया भी उठी और लूँ गड़ाती ु ई उसके पीछे

ो ली।

मातादीन ने पीछे किरकर नमदम स्वर में क ा -- मेरे साथ मत आ। मेरा तुझसे कोई वास्ता न ीं। इतनी साूँसत करवा के भी तेरा पेट न ीं भरता। सससलया ने िष्ृ टता के साथ उसका

ाथ पकड़कर क ा -- वास्ता कैसे न ीं

इसी गाूँव में तुमसे िनी, तुमसे सुंदर, तुमसे इज़्ज़तदार लोग क्यों न ीं पकड़ती। तुम् ारी य में पड़ गयी

दद ु द शा

ैं। मैं उनका

ै? ाथ

ी आज क्यों ु ई? जो रस्सी तुम् ारे गले ै , उसे तुम लाख चा ो, न ीं छोड़ सकते। और न मैं तम् ु ें छोड़कर

क ीं जाऊूँगी। मजूरी करूूँगी, भीख माूँगूँग ू ी; लेककन तुम् ें न छोड़ूूँगी।



क ते ु ए उसने मातादीन का ाथ छोड़ हदया और किर खसल ान में जाकर अनाज ओसाने लगी। ोरी अभी तक व ाूँ अनाज माूँड़ र ा था। ि नया उसे भोजन करने के सलए बुलाने आयी थी।

ोरी ने बैलों को पैर से बा र नकालकर

एक पेड़ में बाूँि हदया और सससलया से बोला -- तू भी जा खा-पी आ सससलया! ि नया य ाूँ बैठी

ै । तेरी पीठ पर की साड़ी तो ल ू से रूँ ग गयी पक न जाय। तेरे घरवाले बड़े नदद यी ैं।

ै रे ! क ीं घाव

सससलया ने उसकी ओर करुण नेत्रों से दे खा -- य ाूँ नदद यी कौन न ीं

ै , दादा!

मैंने तो ककसी को दयावान न ीं पाया।

'क्या क ा पंडडत ने?' 'क ते ैं, मेरा तम ु से कोई वास्ता न ीं।' 'अच्छा! ऐसा क ते ैं!' 'समझते ोंगे, इस तर अपने मूँु की लाली रख लें गे; लेककन श्जस बात को द ु नया जानती ै , उसे कैसे छपा लें गे। मेरी रोहटयाूँ भारी ैं, न दें । मेरे सलए क्या? मजूरी अब भी करती ू ूँ, तब भी करूूँगी। सोने को माूँगूँूगी तो क्या तुम न दोगे?' ि नया दयाद्रद

ोकर बोली -- जग

की कौन कमी

ोरी ने कातर स्वर में क ा -- बुलाती तो

ाथ भर जग

तुम् ीं से

ै बेटी! तू चल मेरे घर र ।

ै , लेककन पंडडत को जानती न ीं?

ि नया ने नभीक स्वर में क ा -- बबगड़ेंगे तो एक रोटी बेसी खा लें गे, और क्या करें गे। कोई उनकी दबैल ू ूँ। उसकी इज़्ज़त ली, बबरादरी से नकलवाया, अब क ते ैं, मेरा तुझसे कोई वास्ता न ीं। आदमी ै कक क़साई। य उसी नीयत का आज िल समला क ते

ै । प ले न ीं सोच सलया था। तब तो बब ार करते र े । अब

ैं, मुझसे कौन वास्ता।

ोरी के ववचार में ि नया ग़लती कर र ी थी। सससलया के घरवालों ने मतई को

ककतना बेिरम कर हदया, य

कोई अच्छा काम न ीं ककया। सससलया को चा े

मारकर ले जाते, चा े दल ु ारकर ले जाते। व

उनकी लड़की

ै । मतई को क्यों

बेिरम ककया?

ि नया ने िटकार बताई -- अच्छा र ने दो, बड़े न्यायी बने एक

ोते

ो। मरद-मरद सब

ैं। इसको मतई ने बेिरम ककया तब तो ककसी को बरु ा न लगा। अब

जो मतई बेिरम

ो गये , तो क्यों बुरा लगता

ै ? क्या सससलया का िरम, िरम

ी न ीं? रखी तो चमाररन, उस पर नेमी-िमी बनते चौिरी ने। ऐसे गुंडों की य ी सज़ा बेदरद माूँ-बाप

ैं। बड़ा अच्छा ककया

रखू

ै । तू चल सससलया मेरे घर। न-जाने कैसे

ैं कक बेचारी की सारी पीठ ल ू लु ान कर दी। तुम जाके सोना को भेज दो। मैं इसे लेकर आती ू ूँ। ोरी घर चला गया और सससलया ि नया के पैरों पर धगरकर रोने लगी। ***

24 सोना सत्र वें साल में थी और इस साल उसका वववा तो दो साल से इसी कफ़क्र में था, पर मगर इस साल जैसे भी

ाथ ख़ाली

ो, उसका वववा

प ले

ी वववा

ो गया

ोता। व

ि नया क ती थी, ककतना



ोरी

ोने से कोई क़ाबू न चलता था।

कर दे ना

पड़े, चा े खेत धगरों रखने पड़ें। और अकेले

करना आवकयक था। ी चाह ए, चा े क़रज़ लेना

ोरी की बात चलती तो दो साल

ककफ़ायत से काम करना चा ता था। पर

ाथ बाूँिकर ख़चद करो ; दो-ढाई सौ लग

झु नया के आ जाने से बबरादरी में इन लोगों का स्थान कुछ

े ठा

ी जायूँगे।

ो गया था

और बबना सौ दो-सौ हदये कोई कुलीन वर न समल सकता था। वपछले साल चैती में कुछ न समला। था तो पंडडत दातादीन से आिा साझा; मगर पंडडत जी ने बीज और मजूरी का कुछ ऐसा ब्योरा बताया कक

ोरी के

ाथ एक चौथाई से

ज़्यादा अनाज न लगा। और लगान दे ना पड़ गया पूरा। ऊख और सन की फ़सल नष्ट

ो गयी। सन तो वषाद अधिक

ोने और ऊख दीमक लग जाने के कारण।

ाूँ, इस साल की चैती अच्छी थी और ऊख भी ख़ब ू लगी ु ई थी। वववा के सलए गल्ला तो मौजूद था; दो सौ रुपए भी ाथ आ जायूँ, तो कन्या-अण से उसका उद्िार

ो जाय। अगर गोबर सौ ,रुपए की मदद कर दे , तो बाक़ी सौ रुपए

को आसानी से समल जायूँगे। णझंगुरीससं और मूँगरू सा पड़ गये थे। जब गोबर परदे श में कमा र ा

दोनों

ोरी

ी अब कुछ नमद

ै , तो उनके रुपए मारे न पड़ सकते

थे। एक हदन

ोरी ने गोबर के पास दो-तीन हदन के सलए जाने का प्रस्ताव ककया।

मगर ि नया अभी तक गोबर के व पैसा भी न लेना चा ती थी , ककसी तर

कठोर शब्द न भूली थी। व न ीं!

ोरी ने झूँुझलाकर क ा -- लेककन काम कैसे चलेगा, य

बता।

ि नया ससर ह लाकर बोली -- मान लो, गोबर परदे श न गया करते? व ी अब करो। ोरी की ज़बान बन्द

गोबर से एक

ोता, तब तम ु क्या

ो गयी। एक क्षण बाद बोला -- मैं तो तुझसे पूछता ू ूँ।

ि नया ने जान बचाई -- य

सोचना मरदों का काम

ै।

ोरी के पास जवाब तैयार था -- मान ले, मैं न क्या करती। व

ोता, तू

कर।

ी अकेली र ती, तब तू

ि नया ने तरस्कार भरी आूँखों से दे खा -- तब मैं कुश-कन्या भी दे दे ती तो कोई

ूँसनेवाला न था।

कुश-कन्या

ोरी भी दे सकता था। इसी में उसका मंगल था ; लेककन कुछ-मयाददा

कैसे छोड़ दे ? उसकी ब नों के वववा द े ज भी अच्छा

में तीन-तीन सौ बराती द्वार पर आये थे।

ी हदया गया था। नाच-तमाशा, बाजा, गाजा, ाथी-घोड़े, सभी

आये थे। आज भी बबरादरी में उसका नाम े ल-मेल

अच्छा भी

ै । कुश-कन्या दे कर व

ै । और व

ै ; अगर व

इसी

हदखायेगा? इससे तो मर जाना

क्यों कुश-कन्या दे ? पेड़-पालों

ैं, ज़मीन

ै और थोड़ी-सी साख

एक बीघा भी बेंच दे , तो सौ समल जायूँ; लेककन ककसान के सलए

ज़मीन जान से भी प्यारी तो उसके पास

ककसे मूँु

ै । दस गाूँव के आदसमयों से उसका

ै , कुल-मयाददा से भी प्यारी

ै । और कुल तीन

ी बीघे

ैं; अगर एक बीघा बेंच दे , तो किर खेती कैसे करे गा? कई हदन

ै स-बेस में गुज़रे ।

ोरी कुछ फ़ैसला न कर सका। दश रे की छुहट्टयों के हदन थे। णझंगुरी, पटे कवरी

और नोखेराम तीनों

ी सज्जनों के लड़के छुहट्टयों में घर आये थे। तीनों अूँग्रेज़ी

पढ़ते थे और यद्यवप तीनों बीस-बीस साल के

ो गये थे, पर अभी तक

यू नवससदटी में जाने का नाम न लेते थे। एक-एक क्लास में दो-दो, तीन-तीन साल पड़े र ते। तीनों की शाहदयाूँ एक पुत्र के वपता भी

ो चक ु ी थीं। पटे कवरी के सपत ू बबंदेसरी तो

ो चुके थे। तीनों हदन भर ताश खेलते, भंग पीते और छै ला

बने घूमते। वे हदन में कई-कई बार

ोरी के द्वार की ओर ताकते ु ए नकलते और कुछ ऐसा संयोग था कक श्जस वक़्त वे नकलते, उसी वक़्त सोना भी ककसी-न-ककसी काम से द्वार पर आ खड़ी

ोती। इन हदनों व

प नती थी, जो गोबर उसके सलए लाया था। य

व ी साड़ी

सब तमाशा दे ख -दे खकर

ोरी

का ख़ून सूखता जाता था, मानो उसकी खेती चौपट करने के सलए आकाश में ओलेवाले पीले बादल उठे चले आते

ों!

एक हदन तीनों उसी कुएूँ पर न ाने जा प ु ूँ चे, ज ाूँ ोरी ऊख सींचने के सलए परु चला र ा था। सोना मोट ले र ी थी। ोरी का ख़ून आज खौल उठा। उसी साूँझ

को व

दल ु ारी स ु आइन के पास गया। सोचा, औरतों में दया ोती ै , शायद इसका हदल पसीज जाय और कम सूद पर रुपए दे दे । मगर दल ु ारी अपना ी

रोना ले बैठी। गाूँव में ऐसा कोई घर न था श्जस पर उसके कुछ रुपए न आते

ों, य ाूँ तक कक णझंगुरीससं पर भी उसके बीस रुपए आते थे; लेककन कोई दे ने

का नाम न लेता था। बेचारी क ाूँ से रुपए लाये? ोरी ने धगड़धगड़ाकर क ा -- भाभी, बड़ा पुन्न

ोगा। तुम रुपए न दोगी, मेरे गले

की िाूँसी खोल दोगी। णझंगुरी और पटे सरी मेरे खेतों पर दाूँत लगाये सोचता ू ूँ , बाप-दादा की य ी तो नसानी ै , य एक सपत ोता ै कक घर की संपत बढ़ाता ू व बाप-दादों की कमाई पर झाड़ू िेर दूँ ।ू

ु ए ैं। मैं नकल गयी, तो जाऊूँगा क ाूँ? ै , मैं ऐसा कपत ू

ो जाऊूँ कक

दल ु ारी ने क़सम खाई --

ोरी, मैं ठाकुर जी के चरन छू कर क ती ू ूँ कक इस समय मेरे पास कुछ न ीं ै । श्जसने सलया, व दे ता न ीं, तो मैं क्या करूूँ? तम ु कोई ग़ैर तो न ीं करूूँ? तुम् ारा

ो। सोना भी मेरी

ी भाई

ीरा

ी लड़की

ै ; लेककन तुम् ीं बताओ, मैं क्या

ै । बैल के सलए पचास रुपए सलये। उसका तो क ीं

पता-हठकाना न ीं, उसकी घरवाली से माूँगो तो लड़ने को तैयार। शोभा भी दे खने में बड़ा सीिा-सादा कक ककसी के पास

ै ; लेककन पैसा दे ना न ीं जानता। और असल बात तो य





ी न ीं, दें क ाूँ से। सबकी दशा दे खती ू ूँ, इसी मारे सबर कर जाती ू ूँ। लोग ककसी तर पेट पाल र े ैं, और क्या। खेत-बारी बेचने की मैं सला न दूँ ग ू ी। कुछ न ीं ै , मरजाद तो ै । किर कनिुसककयों में बोली -- पटे सरी लाला का लौंडा तम् ु ारे घर की ओर ब ु त चक्कर लगाया करता ै । तीनों का व ी ाल ै । इनसे चौकस र ना। य स री ो गये, गाूँव का भाई-चारा क्या समझें। लड़के गाूँव में भी सल ाज

ै , कुछ अदब

ै , कुछ डर

ै । ये सब तो छूटे साूँड़

ैं; मगर उनमें कुछ

ैं। मेरी कौसल्या

ससुराल से आयी थी, मैंने सबों के ढं ग दे खकर उसके ससुर को बुला कर बबदा कर हदया। कोई क ाूँ तक प रा दे ।

ोरी को मुस्कराते दे खकर उसने सरस ताड़ना के भाव से क ा --

मैं भी कुछ क

ूँसोगे

ोरी तो

दूँ ग ू ी। तुम क्या ककसी से कम नटखट थे। हदन में पचीसों बार

ककसी-न-ककसी ब ाने मेरी दक ु ान पर आया करते थे; मगर मैंने कभी ताका तक न ीं।

ोरी ने मीठे प्र तवाद के साथ क ा -- य कुछ रस पाये थोड़े आूँगन में आती

तो तुम झूठ बोलती

ी आता था। धचडड़या एक बार परच जाती

ै।

ो भाभी! बबना ै , तभी दस ू री बार

'चल झूठे।' 'आूँखों से न ताकती र ी ो; लेककन तुम् ारा मन तो ताकता ी था; बश्ल्क बुलाता था।'

'अच्छा र ने दो, बड़े आए अंतरजामी बन के। तम् ु ें बार-बार मूँड़राते दे ख के मझ ु े दया आ जाती थी, न ीं तुम कोई ऐसे बाूँके जवान न थे।' ु सेनी एक पैसे का नमक लेने आ गया और य परर ास बंद ो गया। ु सेनी नमक लेकर चला गया, तो दल ु ारी ने किर क ा -- गोबर के पास क्यों न ीं चले जाते। दे खते भी आओगे और साइत कुछ समल भी जाय। ोरी नराश मन से बोला -- व तो उनकी आूँखें किर जाती

कुछ न दे गा। लड़के चार पैसे कमाने लगते

ैं। मैं तो बे याई करने को तैयार था; लेककन ि नया

न ीं मानती। उसकी मरज़ी बबना चला जाऊूँ तो घर में र ना अपाढ़ कर दे । उसका सुभाव तो जानती

ैं,

ो।

दल ु ारी ने कटाक्ष करके क ा -- तम ु तो मे ररया के जैसे ग़ल ु ाम

ो गये।

'तुमने पूछा ी न ीं तो क्या करता?' 'मेरी ग़ल ु ामी करने को क ते तो मैंने सलखा सलया ोता, सच! 'तो अब से क्या बबगड़ा ै , सलखा लो न। दो सौ में सलखता ू ूँ , इन दामों म ूँगा न ीं ू ूँ।' 'तब ि नया से तो न बोलोगे?'

'न ीं, क ो क़सम खाऊूँ।' 'और जो बोले?' 'तो मेरी जीभ काट लेना।' 'अच्छा तो जाओ, घर ठीक-ठाक करो, मैं रुपए दे दूँ ग ू ी।' ोरी ने सजल नेत्रों से दल ु ारी के पाूँव पकड़ सलये। भावावेश से मूँु

बंद

ो गया।

स ु आइन ने पाूँव खींचकर क ा -- अब य ी सरारत मुझे अच्छी न ीं लगती। मैं साल-भर के भीतर अपने रुपए सूद-समेत कान पकड़कर लूँ ग ू ी। तुम तो व्यव ार के ऐसे सच्चे न ीं

ो ; लेककन ि नया पर मुझे ववकवास

ै । सुना पंडडत तुमसे

ब ु त बबगड़े ु ए ैं। क ते ैं, इसे गाूँव से नकालकर न ीं छोड़ा तो बाह्मण न ीं। तम ु सससलया को नकाल बा र क्यों न ीं करते? बैठे-बैठायें झगड़ा मोल ले सलया।

'ि नया उसे रखे ु ए ै , मैं क्या करूूँ।' 'सुना ै , पंडडत कासी गये थे। व ाूँ एक बड़ा नामी ववद्वान ण पंडडत ै । व पाूँच सौ माूँगता िरम नष्ट

ै । तब परासधचत करायेगा। भला, पूछो ऐसा अूँिरे न ीं ु आ ै । जब ो गया, तो एक न ीं ज़ार परासधचत करो , इसे क्या ोता ै । तम् ु ारे

ाथ का छुआ पानी कोई न वपयेगा, चा े श्जतना परासधचत करो।'

ोरी य ाूँ से घर चला, तो उसका हदल उछल र ा था। जीवन में ऐसा सुखद

अनुभव उसे न ु आ था। रास्ते में शोभा के घर गया और सगाई लेकर चलने के सलए नेवता दे आया। किर दोनों दातादीन के पास सगाई की सायत पूछने गये। व ाूँ से आकर द्वार पर सगाई की तैयाररयों की सला

करने लगे।

ि नया ने बा र नकलकर क ा -- प र रात गयी, अभी रोटी खाने की बेला न ीं आयी? खाकर बैठो। गपड़चौथ करने को तो सारी रात पड़ी

ै।

ोरी ने उसे भी परामशद में शरीक स ालग में लगन ठीक ु आ कुछ मालूम न ीं।

ोने का अनरु ोि करते ु ए क ा -- इसी ै । बता, क्या-क्या सामान लाना चाह ए। मझ ु े तो

'जब कुछ मालम ी न ीं, तो सला करने क्या बैठे ो। रुपए-पैसे का डौल भी ू ु आ कक मन की समठाई खा र े ो।' ोरी ने गवद से क ा -- तुझे इससे क्या मतलब। तू इतना बता दे क्या-क्या

सामान लाना

ोगा?

'तो मैं ऐसी मन की समठाई न ीं खाती।' 'तू इतना बता दे कक मारी ब नों के ब्या में क्या-क्या सामान आया था।' 'प ले य बता दो, रुपए समल गये?' ' ाूँ, समल गये, और न ीं क्या भंग खायी ो।' 'तो प ले चलकर खा लो। किर सला करें गे।' मगर जब उसने सुना कक दल ु ारी से बातचीत ु ई ै , तो नाक ससकोड़ कर बोली - उससे रुपए लेकर आज तक कोई उररन ु आ ै ? चुड़ल ै ककतना कसकर सद ू लेती

ै!

'लेककन करता क्या? दस ू रा दे ता कौन ै ।' 'य क्यों न ीं क ते कक इसी ब ाने दो गाल ूँसने-बोलने गया था। बूढ़े ो गये, पर य

बान न गयी। '

'तू तो ि नया, कभी-कभी बच्चों की-सी बातें करने लगती ै । मेरे-जैसे िटे ालों से व

ूँस-बोलेगी? सीिे मूँु

बात तो करती न ीं।'

'तुम-जैसों को छोड़कर उसके पास और जायगा ी कौन?'

'उसके द्वार पर अच्छे -अच्छे नाक रगड़ते ैं, ि नया, तू क्या जाने। उसके पास लच्छमी

ै ।'

'उसने ज़रा-सी ामी भर दी, तुम चारों ओर ख़ुशख़बरी लेकर दौड़े।' ' ामी न ीं भर दी, पक्का वादा ककया ै ।' ोरी रोटी खाने गया और शोभा अपने घर चला गया, तो सोना सससलया के साथ बा र नकली। व

द्वार पर खड़ी सारी बातें सुन र ी थी। उसकी सगाई के सलए

दो सौ रुपए दल ु ारी से उिार सलये जा र े

ैं , य

बात उसके पेट में इस तर

खलबली मचा र ी थी, जैसे ताज़ा चूना पानी में पड़ गया

कुप्पी जल र ी थी, श्जससे ताक के ऊपर की दीवार काली

ो। द्वार पर एक

ो गयी थी। दोनों बैल

नाूँद में सानी खा र े थे और कुत्ता ज़मीन पर टुकड़े के इन्तज़ार में बैठा ु आ था। दोनों युव तयाूँ बैलों की चरनी के पास आकर खड़ी ो गयीं। सोना बोली -- तूने कुछ सुना? दादा स ु आइन से मेरी सगाई के सलए दो सौ रुपए उिार ले र े ैं। सससलया घर का रत्ती-रत्ती

ाल जानती थी। बोली -- घर में पैसा न ीं

ै , तो

क्या करें ? सोना ने सामने के काले वक्ष ृ ों की ओर ताकते ु ए क ा -- मैं ऐसा न ीं करना चा ती, श्जसमें माूँ-बाप को कजाद लेना पड़े। क ाूँ से दें गे बेचारे , बता! प ले ी क़रज़ के बोझ से दबे न ीं?

ुए

ैं। दो सौ और ले लें गे, तो बोझा और भारी

'बबना दान-द े ज के बड़े आदसमयों का क ीं ब्या तो कोई बूढ़ा-ठे ला

ोता

ोगा कक

ै पगली ? बबना द े ज के

ी समलेगा। जायगी बूढ़े के साथ?'

'बूढ़े के साथ क्यों जाऊूँ? भैया बूढ़े थे जो झु नया को ले आये। उन् ें ककसने कै पैसे द े ज में हदये थे?'

'उसमें बाप-दादा का नाम डूबता ै ।'

'मैं तो सोनारीवालों से क दूँ ग ू ी, अगर तम ु ने ऐसा पैसा भी द े ज सलया, तो मैं तुमसे ब्या न करूूँगी।' सोना का वववा

सोनारी के एक िनी ककसान के लड़के से ठीक ु आ था।

'और जो व क दें , कक मैं क्या करूूँ, तुम् ारे बाप दे ते ैं, मेरे बाप लेते ैं, इसमें मेरा क्या अश्ख़्तयार

ै ?'

सोना ने श्जस अस्त्र को रामबाण समझा था, अब मालूम ु आ कक व बाूँस की कैन ै । ताश ोकर बोली -- मैं एक बार उससे क के दे ख लेना चा ती ू ूँ ; अगर उसने क दरू

हदया, मेरा कोई अश्ख़्तयार न ीं

ै , तो क्या गोमती य ाूँ से ब ु त ै । डूब मरूूँगी। माूँ-बाप ने मर-मर के पाला-पोसा। उसका बदला क्या य ी ै

कक उनके घर से जाने लगूँू, तो उन् ें कजे से और लादती जाऊूँ? माूँ-बाप को भगवान ण ने हदया लेककन जब व

ो, तो ख़ुशी से श्जतना चा ें लड़की को दें , मैं मना न ीं करती;

पैसे-पैसे को तंग

ो र े

ैं , आज म ाजन नासलश करके सलल्लाम

करा ले, तो कल मजूरी करनी पड़ेगी, तो कन्या का िरम य ी घर की ज़मीन-जैजात तो बच जायगी, रोटी का स ारा तो र चार हदन मेरे नाम को रोकर संतोष कर लें गे। य

तो न

ै कक डूब मरे ।

जायगा। माूँ-बाप

ोगा कक मेरा ब्या

करके उन् ें जन्म भर रोना पड़े। तीन-चार साल में दो सौ के दन ू े

ो जायूँगे, दादा

सससलया को जान पड़ा, जैसे उसकी आूँख में नयी ज्यो त आ गयी

ै । आवेश में

क ाूँ से लाकर दें गे।

सोना को छाती से लगाकर बोली -- तन ू े इतनी अक्कल क ाूँ से सीख ली सोना? दे खने में तो तू बड़ी भोली-भाली

ै।

'इसमें अक्कल की कौन बात ै चुड़ल ै । क्या मेरे आूँखें न ीं ैं कक मैं पागल ू ूँ। दो सौ मेरे ब्या ब्या

में लें । तीन-चार साल में व

में दो सौ और लें। जो कुछ खेती-बारी

दन ू ा

ो जाय। तब रुवपया के

ै , सब सललाम- तलाम

द्वार-द्वार भीख माूँगते किरें । य ी न? इससे तो क ीं अच्छा जान दे दूँ ।ू मूँु

ो जाये, और

ै कक मैं अपनी



अूँिेरे सोनारी चली जाना और उसे बुला लाना; मगर न ीं, बुलाने

का काम न ीं। मुझे उससे बोलते लाज आयेगी। तू दे ख क्या जवाब दे ते

लेकर इिर आ जाता

ैं। कौन दरू

ी मेरा य

ै ? नदी के उस पार

ी तो

संदेशा क

दे ना।

ै । कभी-कभी ढोर

ै । एक बार उसकी भैंस मेरे खेत में पड़ गयी थी , तो मैंने

उसे ब ु त गासलयाूँ दी थीं। ाथ जोड़ने लगा। ाूँ, य तो बता, इिर मतई से तेरी भें ट न ीं ु ई! सन ु ा, बाह्मन लोग उन् ें बबरादरी में न ीं ले र े ैं। सससलया ने ह कारत के साथ क ा -- बबरादरी में क्यों न लेंगे; ाूँ, बूढ़ा रुपए न ीं ख़रच करना चा ता। इसको पैसा समल जाय, तो झठ ू ी गंगा उठा ले। लड़का आजकल बा र ओसारे में हटक्कड़ लगाता

ै।

'तू इसे छोड़ क्यों न ीं दे ती? अपनी बबरादरी में ककसी के साथ बैठ जा और आराम से र । व

तेरा अपमान तो न करे गा।'

' ाूँ रे , क्यों न ीं, मेरे पीछे उस बेचारे की इतनी दरु दशा ु ई, अब मैं उसे छोड़ दूँ ।ू अब व चा े पंडडत बन जाय चा े दे वता बन जाय , मेरे सलए तो व ी मतई ै , जो मेरे पैरों पर ससर रगड़ा करता था; और बाह्मण भी

ो जाय और बाह्मणी से

ब्या

ै, व

भी कर ले, किर भी श्जतनी उसकी सेवा मैंने की

करे गी। अभी मान-मरजाद के मो

में व

किर दौड़ा आयेगा।'

कोई बाह्मणी क्या

चा े मुझे छोड़ दे ; लेककन दे ख लेना,

'आ चक ु ा अब। तझ ु े पा जाय तो कच्चा ी खा जाय।' 'तो उसे बुलाने ी कौन जाता ै । अपना-अपना िरम अपने-अपने साथ ै । व अपना िरम तोड़ र ा

ै , तो मैं अपना िरम क्यों तोड़ूूँ।'

प्रातःकाल सससलया सोनारी की ओर चली; लेककन ससर में ददद था। उसकी जग

ोरी ने रोक सलया। ि नया के

क्याररयों को बराना था। सससलया इनकार न कर

सकी। य ाूँ से जब दोप र को छुट्टी समली तो व

सोनारी चली। इिर तीसरे प र

ोरी किर कुएूँ पर चला तो सससलया का पता न था।

बबगड़कर बोला -- सससलया क ाूँ उड़ गई? र ती दे ती

ै , जैसे ककसी काम में जी

ै , र ती

ी न ीं लगता। तू जानती

ै , न जाने ककिर चल ै सोना, क ाूँ गयी

सोना ने ब ाना ककया। मुझे तो कुछ मालूम न ीं। क ती थी, िोबबन के घर कपड़े लेने जाना

ै , व ीं चली गयी

ोगी।

ै?

ि नया ने खाट से उठकर क ा -- चलो, मैं क्यारी बराये दे ती ू ूँ। कौन उसे मजूरी दे ते ो जो उसे बबगड़ र े ो।

' मारे घर में र ती न ीं ै ? उसके पीछे सारे गाूँव में बदनाम न ीं ो र े ैं ?' 'अच्छा, र ने दो, एक कोने में पड़ी ु ई ै , तो उससे ककराया लोगे?' 'एक कोने में न ीं पड़ी ु ई ै , एक परू ी कोठरी सलये ु ए ै ।' 'तो उस कोठरी का ककराया ोगा कोई पचास रुपए म ीना! ' 'उसका ककराया एक पैसा स ी। मारे घर में र ती ै , ज ाूँ जाय पछ ू कर जाय। आज आती ै तो ख़बर लेता ू ूँ।' पुर चलने लगा। ि नया को

ोरी ने न आने हदया। रूपा क्यारी बराती थी। और

सोना मोट ले र ी थी। रूपा गीली समट्टी के चल् ू े और बरतन बना र ी थी, और

सोना सशंक आूँखों से सोनारी की ओर ताक र ी थी। शंका भी थी , आशा भी थी, शंका अधिक थी, आशा कम। सोचती थी, उन लोगों को रुपए समल र े छोड़ने लगे। श्जनके पास पैसे म तो तो एक जो

ी लालची

ैं , वे तो पैसे पर और भी जान दे ते

ैं। मथुरा में दया

ै , िरम

ैं , तो क्यों

ैं। और गौरी

ै ; लेककन बाप की इच्छा

ोगी, व ी उसे माननी पड़ेगी; मगर सोना भी बचा को ऐसा िटकारे गी कक

याद करें गे। व

साफ़ क े गी, जाकर ककसी िनी की लड़की से ब्या

पुरुष के साथ मेरा नबा



कर, तुझ-जैसे

ोगा। क ीं गौरी म तो मान गये , तो व

उनके

चरन िो-िोकर वपयेगी। उनकी ऐसी सेवा करे गी कक अपने बाप की भी न की ोगी। और सससलया को भर-पेट समठाई णखलायेगी। गोबर ने उसे जो रुपया हदया था उसे व

अभी तक संचे ु ए थी। इस मद ृ ु कल्पना से उसकी आूँखें चमक उठीं और कपोलों पर लकी-सी लाली दौड़ गई। मगर सससलया अभी तक आयी क्यों न ीं? कौन बड़ी दरू

ै । न आने हदया

ोगा उन लोगों ने। अ ा! व

आ र ी

ै;

लेककन ब ु त िीरे -िीरे आती ै । सोना का हदल बैठ गया। अभागे न ीं माने साइत, न ीं सससलया दौड़ती आती। तो सोना से ो चक ु ा ब्या । मूँु िो रखो।

सससलया आयी ज़रूर पर कुएूँ पर न आकर खेत में क्यारी बराने लगी। डर र ी थी, ोरी पूछेंगे क ाूँ थी अब तक, तो क्या जवाब दे गी। सोना ने य

दो घंटे का

समय बड़ी मश्ु ककल से काटा। परु छूटते

ी व

भागी ु ई सससलया के पास

प ु ूँची।

'व ाूँ जाकर तू मर गयी थी क्या! ताकते-ताकते आूँखें िूट गयीं।' सससलया को बुरा लगा -- तो क्या मैं व ाूँ सोती थी। इस तर चलते थोड़े



ो जाती

ै । अवसर दे खना पड़ता

की बातचीत रा

ै । मथुरा नदी की ओर ढोर

चराने गये थे। खोजती-खोजती उसके पास गयी और तेरा संदेसा क ा। ऐसा

परसन ु आ कक तझ ु से क्या क ू ूँ। मेरे पाूँव पर धगर पड़ा और बोला -- ससल्लो, मैंने तो जब से सुना ै कक सोना मेरे घर में आ र ी ै , तब से आूँखों की नींद र गयी

ै । उसकी व

गासलयाूँ मुझे िल गयीं; लेककन काका को क्या करूूँ। व

ककसी की न ीं सुनते।

सोना ने टोका -- तो न सुनें। सोना भी श्ज़द्धिन हदखायेगी। किर

ाथ मलते र

ै । जो क ा

ै व

कर

जायूँगे।

'बस उसी छन ढोरों को व ीं छोड़, मझ ु े सलये ु ए गौरी म तो के पास गया। म तो के चार परु चलते को दे ख के मुझे

ैं। कुआूँ भी उन् ीं का

ै । दस बीघे का ऊख

ूँसी आ गयी। जैसे कोई घससयारा

ो।

ै । म तो

ाूँ, भाग का बली

ै।

बाप-बेटे में ख़ूब क ा-सुनी ु ई। गौरी म तो क ते थे, तुझसे क्या मतलब, मैं चा े कुछ लूँ ू या न लूँ ू; तू कौन ोता ै बोलनेवाला। मथरु ा क ता था, तुमको लेना-दे ना ै , तो मेरा ब्या

मत करो, मैं अपना ब्या

जैसे चा ू ूँगा कर लूँ ग ू ा। बात बढ़ गयी और गौरी म तो ने पनह याूँ उतारकर मथरु ा को ख़ब ू पीटा। कोई दस ू रा लड़का इतनी मार खाकर बबगड़ खड़ा

ोता। मथुरा एक घस ूूँ ा भी जमा दे ता, तो म तो

किर न उठते; मगर बेचारा पचासों जूते खाकर भी कुछ न बोला। आूँखों में आूँसू भरे , मेरी ओर ग़रीबों की तर

ताकता ु आ चला गया। तब म तो मुझ पर बबगड़ने लगे। सैकड़ों गासलयाूँ दीं; मगर मैं क्यों सन ु ने लगी थी। मझ ु े उनका क्या डर था? मैंने सफ़ा क

हदया -- म तो, दो-तीन सौ कोई भारी रक़म न ीं

ोरी म तो, इतने में बबक न जायूँगे, न तुम् ीं िनवान

नाच-तमासे में

ो जाओगे, व

ै , और

सब िन

ी उड़ जायगा, ाूँ, ऐसी ब ू न पाओगे।

सोना ने सजल नेत्रों से पछ ू ा -- म तो इतनी

ी बात पर उन् ें मारने लगे ?

सससलया ने य

बात छपा रक्खी थी। ऐसी अपमान की बात सोना के कानों में

न डालना चा ती थी; पर य

प्रकन सुनकर संयम न रख सकी। बोली -- व ी

गोबर भैयावाली बात थी। म तो ने क ा -- आदमी जूठा तभी खाता ो। कलंक चाूँदी से

ी िुलता

ै जब मीठा

ै । इस पर मथुरा बोला -- काका कौन घर कलंक

से बचा ु आ ै । ाूँ, ककसी का खुल गया, ककसी का छपा ु आ ै । गौरी म तो भी प ले एक चमाररन से िूँसे थे। उससे दो लड़के भी ैं। मथरु ा के मूँु से इतना नकलना था कक डोकरे पर जैसे भूत सवार उतना

ी क्रोिी भी

ो गया। श्जतना लालची

ै,

ै । बबना सलये न मानेगा।

दोनों घर चलीं। सोना के ससर पर चरसा, रस्सा और जए ु का भारी बोझ था; पर इस समय व

उसे िूल से भी

ल्का लग र ा था। उसके अंतस्तल में जैसे

आनंद और स्िू तद का सोता खुल गया थी, और व

ो। मथुरा की व

वीर मू तद सामने खड़ी

जैसे उसे अपने हृदय में बैठाकर उसके चरण आूँसुओं से पखार र ी

थी। जैसे आकाश की दे ववयाूँ उसे गोद में उठाये आकाश में छाई ु ई लासलमा में सलये चली जा र ी ों। उसी रात को सोना को बड़े ज़ोर का ज्वर चढ़ आया। तीसरे हदन गौरी म तो ने नाई के जोग श्री

ाथ य

पत्र भेजा --'स्वस्ती श्री सवोपमा

ोरी म तो को गौरीराम का राम-राम बाूँचना। आगे जो

म लोगों में

द े ज की बातचीत ु ई थी, उस पर मने शांत मन से ववचार ककया, समझ में आया कक लेन-दे न से वर और कन्या दोनों ी के घरवाले जेरबार ोते ैं। जब मारा-तुम् ारा संबंि

ो गया, तो

में ऐसा व्यव ार करना चाह ए कक ककसी को

न अखरे । तुम दान-द े ज की कोई कफ़कर मत करना, म तुमको सौगंि दे ते जो कुछ मोटा-म ीन जुरे बरा तयों को णखला दे ना। का इंतज़ाम व

मने कर सलया

ै।

ससर झुकाकर स्वीकार करें गे।'

म व

ाूँ, तम ु ख़श ु ी-खरु द मी से

भी न माूँगेंगे। रसद

मारी जो ख़ा तर करोगे

ोरी ने पत्र पढ़ा और दौड़े ु ए भीतर जाकर ि नया को सुनाया। उछला पड़ता था, मगर ि नया ककसी ववचार में डूबी बैठी र ी। एक क्षण के बाद बोली -- य अपने मरजाद का नबा

गौरी म तो की भलमनसी

करना

मसे

षद के मारे

ै ; लेककन

ै । संसार क्या क े गा! रुपया

उसके सलए कुल-मरजाद न ीं छोड़ा जाता। जो कुछ

ैं।

में भी तो

ाथ का मैल

ो सकेगा, दें गे और

ै।

गौरी म तो को लेना पड़ेगा। तम ु य ी जवाब सलख दो। माूँ-बाप की कमाई में क्या लड़की का कोई

क़ न ीं

ै ? न ीं, सलखना क्या

ै , चलो, मैं नाई से संदेश

क लाये दे ती ू ूँ। ोरी

तबद् ु धि-सा आूँगन में खड़ा था और ि नया उस उदारता की प्र तकक्रया में

जो गौरी म तो की सज्जनता ने जगा दी थी, संदेशा क

र ी थी। किर उसने

नाई को रस वपलाया और बबदाई दे कर बबदा ककया। व

चला गया तो

ोरी ने क ा -- य

तूने क्या कर डाला ि नया? तेरा समज़ाज

आज तक मेरी समझ में न आया। तू आगे भी चलती

ै , पीछे भी चलती

ै।

प ले तो इस बात पर लड़ र ी थी कक ककसी से एक पैसा करज़ मत लो , कुछ दे ने-हदलाने का काम न ीं

ै , और जब भगवान ण ने गौरी के भीतर पैठकर य

पत्र

सलखवाया तो तूने कुल-मरजाद का राग छे ड़ हदया। तेरा मरम भगवान ण ी जाने। ि नया बोली -- मूँु

दे खकर बीड़ा हदया जाता

अपनी सान हदखाते थे, अब व पत्थर

ै , जानते

भलमनसी हदखा र े

ो; लेककन सलाम का जवाब तो गली न ीं

ो कक न ीं। तब गौरी

ैं। ईट का जवाब चा े

ै।

ोरी ने नाक ससकोड़कर क ा -- तो हदखा अपनी भलमनसी। दे खें, क ाूँ से रुपए लाती

ै।

ि नया आूँखें चमकाकर बोली -- रुपए लाना मेरा काम न ीं

ै , तम् ु ारा काम

ै ।'

'मैं तो दल ु ारी से ी लूँ ग ू ा।' 'ले लो उसी से। सूद तो सभी लें गे। जब डूबना ी ै , तो क्या तालाब और क्या गंगा।'

ोरी बा र आकर धचलम पीने लगा। ककतने मज़े से गला छूटा जाता था; लेककन

ि नया जब जान छोड़े तब तो। जब दे खो उल्टी सवार ***

ो जाता

ी चलती

ै । इसे जैसे कोई भूत

ै । घर की दशा दे खकर भी इसकी आूँखें न ीं खुलतीं।

25 भोला इिर दस ू री सगाई लाये थे। औरत के बग़ैर उनका जीवन नीरस था। जब तक झु नया थी, उन् ें

ु क़्क़ा-पानी दे दे ती थी। समय से खाने को बुला ले जाती थी। अब बेचारे अनाथ-से ो गये थे। ब ु ओं को घर के काम-िाम से छुट्टी न समलती थी। उनकी क्या सेवा-सत्कार करती; इससलए अब सगाई परमावकयक



गयी थी। संयोग से एक जवान वविवा समल गयी, श्जसके प त का दे ांत ु ए केवल तीन म ीने ु ए थे। एक लड़का भी था। भोला की लार टपक पड़ी। झटपट सशकार मार लाये। जब तक सगाई न ु ई, उसका घर खोद डाला। अभी तक उसके घर में जो कुछ था, ब ु ओं का था। जो चा ती थीं, करती थीं, जैसे चा ती थीं, र ती थीं।

जंगी जब से अपनी स्त्री को लेकर लखनऊ चला गया था, कामता की ब ू ी घर की स्वासमनी थी। पाूँच-छः म ीनों में ी उसने तीस-चालीस रुपए अपने ाथ में कर सलये थे। सेर-आि सेर दि ू -द ी चोरी से बेच लेती थी। अब स्वासमनी ु ई उसकी सौतेली सास। उसका नयंत्रण ब ू को बुरा लगाता था और आये हदन दोनों में तकरार

ोती र ती थी। य ाूँ तक की औरतों के पीछे भोला और कामता

में भी क ा-सुनी

ो गयी। झगड़ा इतना बढ़ा कक अलगौझे की नौबत आ गयी।

और य

री त सनातन से चली आयी

ै कक अलगौझे के समय मार-पीट अवकय

ो। य ाूँ उस री त का पालन ककया गया। कामता जवान आदमी था। भोला का उस पर जो कुछ दबाब था, व आदर पाने का अब उसे कोई

वपता के नाते था; मगर नयी स्त्री लाकर बेटे से क़ न र ा था। कम-से-कम कामता इसे स्वीकार

न करता था। उसने भोला को पटककर कई लातें जमायीं और घर से नकाल हदया। घर की चीज़ें न छूने दीं। गाूँववालों में भी ककसी ने भोला का पक्ष न सलया। नयी सगाई ने उन् ें नक्कू बना हदया था। रात तो उन् ोंने ककसी तर

एक पेड़ के नीचे काटी , सुब

ोते



नोखेराम के पास जा प ु ूँचे और अपनी फ़ररयाद सन ु ायी।

भोला का गाूँव भी उन् ीं के इलाक़े में था और इलाक़े -भर के मासलक-मुणखया जो कुछ थे, व ी थे। नोखेराम को भोला पर तो क्या दया आती; पर उनके साथ एक चटपटी, रूँ गीली स्त्री दे खी तो चटपट आश्रय दे ने पर राज़ी

ो गये। ज ाूँ उनकी

गायें बूँिती थीं, व ीं एक कोठरी र ने को दे दी। अपने जानवरों की दे ख-भाल, सानी-भूसे के सलए उन् ें एकाएक एक जानकार आदमी की ज़रूरत मालूम

ोने

लगी। भोला को तीन रुपया म ीना और सेर-भर रोज़ाना पर नौकर रख सलया। नोखेराम नाटे , मोटे , खल्वाट, लम्बी नाक और छोटी-छोटी आूँखोंवाले साूँवले आदमी थे। बड़ा-सा पग्गड़ बाूँिते, नीचा कुरता प नते और जाड़ों में सल ाफ़ ओढ़कर बा र आते-जाते थे। उन् ें तेल की मासलश कराने में बड़ा आनंद आता था , इससलए उनके कपड़े

मेशा मैले, चीकट र ते थे। उनका पररवार ब ु त बड़ा था। सात भाई और उनके बाल-बच्चे सभी उन् ीं पर आधश्रत थे। उस पर स्वयम ण उनका लड़का नवें दरजे में अूँग्रेज़ी पढ़ता था और उसका बबआ ु ई ठाठ नभाना कोई आसान काम न था। राय सा ब से उन् ें केवल बार

रुपए वेतन समलता

था; मगर ख़चद सौ रुपए से कौड़ी कम न था। इससलए आसामी ककसी तर चंगुल में िूँस जाय तो बबना उसे अच्छी तर

उनके

चूसे छोड़ते न थे। प ले छः रुपए

वेतन समलता था, तब असासमयों से इतनी नोच-खसोट न करते थे; जब से बार रुपए

ो गये थे, तब से उनकी तष्ृ णा और भी बढ़ गयी थी; इससलए राय सा ब

उनकी तरक़्क़ी न करते थे। गाूँव में और तो सभी ककसी-न-ककसी रूप में उनका दवाब मानते थे; य ाूँ तक कक दातादीन और णझंगुरीससं भी उनकी ख़ुशामद करते थे, केवल पटे कवरी उनसे ताल ठोकने को को अगर य

जोम था कक

म ब्राह्मण

ैं, तो पटे कवरी को भी घमंड था कक मैदान में कोई

मेशा तैयार र ते थे। नोखेराम

ैं और कायस्थों को उूँ गली पर नचाते

म कायस्थ

ैं , क़लम के बादशा , इस

मसे क्या बाज़ी ले जायगा। किर व

सरकार के नौकर

ज़मींदार के नौकर न ीं ,

ैं, श्जसके राज में सूरज कभी न ीं डूबता। नोखेराम अगर

एकादशी को व्रत रखते

ैं और पाूँच ब्राह्मणों को भोजन कराते

ैं तो पटे कवरी

र पूणमादसी को सत्यनारायण की कथा सुनेंगे और दस ब्राह्मणों को भोजन

करायेंगे। जब से उनका जेठा लड़का सज़ावल र ते थे कक उनका लड़का ककसी तर

ो गया था , नोखेराम इस ताक में

दसवाूँ पास कर ले , तो उसे भी क ीं

नक़ल-नवीसी हदला दें । इससलए ु क्काम के पास फ़सली सौगातें लेकर बराबर सलामी करते र ते थे। एक और बात में पटे कवरी उनसे बढ़े

ु ए थे। लोगों का ख़याल था कक व अपनी ैं। अब नोखेराम को भी अपनी शान में य कसर

वविवा क ाररन को रखे ु ए पूरी करने का अवसर समलता ु आ जान पड़ा।

भोला को ढाढ़स दे ते ु ए बोले -- तुम य ाूँ आराम से र ो भोला, ककसी बात का खटका न ीं। श्जस चीज़ की ज़रूरत ो , मसे आकर क ो। तम् ु ारी घरवाली ै , उसके सलए भी कोई न कोई काम नकल आयेगा। बखारों में अनाज रखना , नकालना, पछोरना, िटकना क्या थोड़ा काम

ै?

भोला ने अरज की -- सरकार, एक बार कामता को बुलाकर पूछ लो, क्या बाप के साथ बेटे का य ी सलूक अब उसने सब कुछ न ीं तो क्या

ोना चाह ए।

ै।

ोना चाह ए। घर

धथया सलया और

मने बनवाया, गायें-भैंसें

में नकाल बा र ककया। य

मारे मासलक तो तुम् ीं

मने लीं।

अन्याय

ो। तुम् ारे दरबार से इसका फ़ैसला

नोखेराम ने समझाया -- भोला, तम ू उससे लड़कर पेश न पाओगे; उसने जैसा ककया

ै , उसकी सज़ा उसे भगवान ण दें गे। बेईमानी करके कोई आज तक िलीभूत

ु आ ै ? संसार में अन्याय न ोता, तो इसे नरक क्यों क ा जाता। य ाूँ न्याय और िमद को कौन पूछता ै ? भगवान ण सब दे खते ैं। संसार का रत्ती-रत्ती ाल जानते

ैं। तुम् ारे मन में इस समय क्या बात

से तो अन्तरजामी क लाते

ै, य

उनसे क्या छपा

ै ? इसी

ैं। उनसे बचकर कोई क ाूँ जायगा ? तम ु चप ु

ोके

बैठो। भगवान ण की इच्छा ु ई, तो य ाूँ तुम उससे बुरे न र ोगे। य ाूँ से उठकर भोला ने

ोरी के पास जाकर अपना दख ु ड़ा रोया।

ोरी ने अपनी बीती सुनायी -- लड़कों की आजकल कुछ न पूछो भोला भाई।

मर-मरकर पालो; जवान

ों, तो दस ु मन

लड़कर गया, और सालों गये। बबहटया का ब्या

ो जायूँ। मेरे

ी गोबर को दे खो। माूँ से

ो गये, न धचट्ठी, न पत्तर। उसके लेखे तो माूँ-बाप मर ससर पर

रखकर दो सौ रुपए सलये

ै ; लेककन उससे कोई मतलब न ीं। खेत रे न

ैं। इज़्ज़त-आबरू का नबा

तो करना

कामता ने बाप को नकाल बा र तो ककया ; लेककन अब उसे मालूम



ोगा। ोने लगा

कक बुड्ढा ककतना कामकाजी आदमी था। सबेरे उठकर सानी-पानी करना, दि ू

द ु ना, किर दि ू लेकर बाज़ार जाना, व ाूँ से आकर किर सानी-पानी करना, किर

दि ू द ु ना; एक पखवारे में उसका ु सलया बबगड़ गया। स्त्री-पुरुष में लड़ाई ु ई। स्त्री ने क ा -- मैं जान दे ने के सलए तम् ु ारे घर न ीं आयी ू ूँ। मेरी रोटी तम् ु ें भारी ो, तो मैं अपने घर चली जाऊूँ। कामता डरा, य क ीं चली जाय, तो रोटी

का हठकाना भी न र े , अपने

ाथ से ठोकना पड़े। आणख़र एक नौकर रखा;

लेककन उससे काम न चला। नौकर खली-भूसा चुरा-चुराकर बेचने लगा। उसे

अलग ककया। किर स्त्री-पुरुष में लड़ाई ु ई। स्त्री रूठकर मैके चली गयी। कामता के ाथ-पाूँव िूल गये। ारकर भोला के पास आया और धचरौरी करने लगा -दादा, मुझसे जो कुछ भूल-चूक तम ु रखोगे, वैसे

ुई

ी र ू ूँगा।

भोला को य ाूँ मजूरों की तर

ो क्षमा करो। अब चलकर घर सूँभालो, जैसे

र ना अखर र ा था। प ले म ीने-दो-म ीने उसकी

जो ख़ा तर ु ई, व अब न थी। नोखेराम कभी-कभी उससे धचलम भरने या चारपाई बबछाने को भी क ते थे। तब बेचारा भोला ज़ र का घट ूूँ पीकर र जाता था। अपने घर में लड़ाई-दं गा भी उसकी स्त्री नो री ने य

ो, तो ककसी की ट ल तो न करनी पड़ेगी।

प्रस्ताव सुना तो ऐंठकर बोली -- ज ाूँ से लात खाकर

आये, व ाूँ किर जाओगे ? तम् ु ें लाज भी न ीं आती।

भोला ने क ा -- तो य ीं कौन ससं ासन पर बैठा ु आ ू ूँ। नो री ने मटककर क ा -- तम् ु ें जाना

ो तो जाओ, मैं न ीं जाती।

भोला जानता था, नो री ववरोि करे गी। इसका कारण भी व

कुछ-कुछ समझता

था, कुछ दे खता भी था, उसके य ाूँ से भागने का एक कारण य उसकी तो कोई बात न पछ ू ता था; पर नो री की बड़ी ख़ा तर

भी था। य ाूँ

ोती थी। प्यादे

और श ने तक उसका दबाव मानते थे। उसका जवाब सुनकर भोला को क्रोि आया; लेककन करता क्या? नो री को छोड़कर चले जाने का सा स उसमें

ोता तो

नो री भी झख मारकर उसके पीछे -पीछे चली जाती। अकेले उसे य ाूँ अपने आश्रय में रखने की ह म्मत नोखेराम में न थी। व

टट्टी की आड़ से सशकार

खेलनेवाले जीव थे, मगर नो री भोला के स्वभाव से पररधचत

ो चक ु ी थी।

भोला समन्नत करके बोला -- दे ख नो री, हदक मत कर। अब तो व ाूँ ब ु एूँ भी न ीं ैं। तेरे ी ाथ में सब कुछ र े गा। य ाूँ मजूरी करने से बबरादरी में ककतनी बदनामी

ो र ी

ै, य

सोच!

नो री ने ठें गा हदखाकर क ा -- तम् ु ें जाना ू ूँ। तुम् ें बेटे की लातें प्यारी लगती मगन ू ूँ।

ै जाओ, मैं तम् ु ें रोक तो न ीं र ी

ोंगी, मुझे न ीं लगतीं। मैं अपनी मज़दरू ी में

भोला को र ना पड़ा और कामता अपनी स्त्री की ख़श ु ामद करके उसे मना लाया। इिर नो री के ववषय में कनब तयाूँ प नी

ै । अब क्या पूछना

ोती र ीं -- नो री ने आज गुलाबी साड़ी

ै , चा े रोज़ एक साड़ी प ने। सैयाूँ भये कोतवाल अब

डर का े का। भोला की आूँखें िूट गयी का ववदष ू क, बश्ल्क नारद।

ैं क्या? शोभा बड़ा

र एक बात की टो

एक हदन नो री उसे घर में समल गयी। कुछ

ूँसोड़ था। सारे गाूँव

लगाता र ता था।

ूँसी कर बैठा। नो री ने नोखेराम

से जड़ हदया। शोभा की चौपाल में तलबी ु ई और ऐसी डाूँट पड़ी कक उम्र-भर न भूलेगा। एक हदन लाला पटे कवरी प्रसाद की शामत आ गयी। गसमयों के हदन थे। लाला बग़ीचे में बैठे आम तड़ ु वा र े थे। नो री बनी-ठनी उिर से नकली। लाला ने पुकारा -- नो रा रानी, इिर आओ, थोड़े से आम लेती जाओ, बड़े मीठे ैं।

नो री को भ्रम ु आ, लाला मेरा उप ास कर र े ैं। उसे अब घमंड ोने लगा था। व चा ती थी, लोग उसे ज़मींदाररन समझें और उसका सम्मान करें । घमंडी आदमी प्रायः शक्की ु आ करता ै । और जब मन में चोर ो तो शक्कीपन और भी बढ़ जाता ै । व मेरी ओर दे खकर क्यों ूँसा? सब लोग मझ ु े दे खकर जलते क्यों

ैं? मैं ककसी से कुछ माूँगने न ीं जाती। कौन बड़ी सतवंती

ै ! ज़रा मेरे

सामने आये , तो दे ख।ूूँ इतने हदनों में नो री गाूँव के गुप्त र स्यों से पररधचत



चुकी थी। य ी लाला क ाररन को रखे ु ए ैं और मुझे ूँसते ैं। इन् ें कोई कुछ न ीं क ता। बड़े आदमी ैं न। नो री ग़रीब ै , जात की े ठी ै ; इससलए सभी उसका उप ास करते

ैं। और जैसा बाप

सससलया के पीछे पागल बना किरता ैं, उस पर दावा

ै कक

म ऊूँचे

ैं।

ै , वैसा

ी बेटा। इन् ीं का रमेसरी तो

ै । चमाररयों पर तो धगद्ि की तर

टूटते

उसने व ीं खड़े

ोकर क ा -- तम ु दानी कब से

की थाली की रोटी उड़ा जाओ। आज बड़े आमवाले अच्छा न ओ

ोगा, क े दे ती

ो गये लाला! पाओ तो दस ू रों

ैं।

ुए

ैं। मुझसे छे ड़ की तो

ो! इस अ ीररन का इतना समज़ाज! नोखेराम को क्या िाूँस सलया, समझती

ै सारी द ु नया पर उसका राज

ै । बोले -- तू तो ऐसी तनक र ी

ै नो री, जैसे

अब ककसी को गाूँव में र ने न दे गी। ज़रा ज़बान सूँभालकर बातें ककया कर, इतनी जल्द अपने को न भूल जा।

'तो क्या तुम् ारे द्वार कभी भीख माूँगने आयी थी?' 'नोखेराम ने छाूँ न दी ोती, तो भीख भी माूँगती।' नो री को लाल समचद-सा लगा। जो कुछ मूँु

में आया बका -- दाढ़ीजार, लंपट,

मूँु झौंसा और जाने क्या-क्या क ा और उसी क्रोि में भरी ु ई कोठरी में गयी और अपने बरतन-भाूँड़े नकाल- नकालकर बा र रखने लगी। नोखेराम ने सुना तो घबराये

ु ए आये और पूछा -- व क्या कर र ी ै नो री , कपड़े-लत्ते क्यों नकाल र ी ै ? ककसी ने कुछ क ा ै क्या? नो री मदों के नचाने की कला जानती थी। अपने जीवन में उसने य ी ववद्या सीखी थी।

नोखेराम पढ़े -सलखे आदमी थे। क़ानून भी जानते थे। िमद की पुस्तकें भी ब ु त पढ़ी थीं। बड़े-बड़े वकीलों, बैररस्टरों की जू तयाूँ सीिी की थीं; पर इस मख ू द नो री के

ाथ का णखलौना बने ु ए थे।

भौं ें ससकोड़कर बोली -- समय का िेर

ै , य ाूँ आ गयी; लेककन अपनी आबरू न

गवाऊूँगी। ब्राह्मण सतेज

ो उठा। मूँछ ू ें खड़ी करके बोला -- तेरी ओर जो ताके उसकी

आूँखें नकाल लूँ ।ू

नो री ने लो े को लाल करके घन जमाया -- लाला पटे सरी जब दे खो मुझसे बेबात की बात ककया करते

ैं। मैं

रजाई थोड़े

ी ू ूँ कक कोई मुझे पैसे हदखाये।

गाूँव-भर में सभी औरतें तो छे ड़ता

ै।

ैं, कोई उनसे न ीं बोलता। श्जसे दे खो, मझ ु ी को

नोखेराम के ससर पर भूत सवार

ो गया। अपना मोटा डंडा उठाया और आूँिी की

तर

र राते ु ए बाग़ में प ु ूँचकर लगे ललकारने -- आ जा बड़ा मदद ै तो। मूँूछें उखाड़ लूँ ूगा, खोदकर गाड़ दूँ ग ू ा। नकल आ सामने। अगर किर कभी नो री को छे ड़ा तो ख़ून पी जाऊूँगा। सारी पटवारधगरी नकाल दूँ ग ू ा। जैसा ख़ुद ी दस ू रों को समझता

ै , वैसा

ै । तू ै ककस घमंड में ?

लाला पटे कवरी ससर झुकाये, दम सािे जड़वत ण खड़े थे। ज़रा भी ज़बान खोली और शामत आयी। उनका इतना अपमान जीवन में कभी न ु आ था। एक बार लोगों ने उन् ें ताल के ककनारे रात को घेरकर ख़ूब पीटा था; लेककन गाूँव में उसकी ककसी को ख़बर न ु ई थी। ककसी के पास कोई प्रमाण न था; लेककन आज तो सारे गाूँव के सामने उनकी इज़्ज़त उतर गयी। कल जो औरत गाूँव में आशय माूँगती आयी थी, आज सारे गाूँव पर उसका आतंक था। अब ककसकी ह म्मत जो उसे छे ड़ सके। जब पटे कवरी कुछ न ीं कर सके, तो दस ू रों की बबसात





क्या! अब नो री गाूँव की रानी थी। उसे आते दे खकर ककसान लोग उसके रास्ते से

ट जाते थे। य

खुला ु आ र स्य था कक उसकी थोड़ी-सी पूजा करके नोखेराम से ब ु त काम नकल सकता ै । ककसी को बटवारा कराना ो, लगान के सलए मु लत माूँगनी ो, मकान बनाने के सलए ज़मीन की ज़रूरत ो, नो री की पूजा ककये बग़ैर उसका काम ससि न ीं आसासमयों को डाूँट दे ती थी। आसामी

ो सकता। कभी-कभी य

अच्छे -अच्छे

ी न ीं, अब कारकुन सा ब पर भी रोब

जमाने लगी थी। भोला उसके आधश्रत बनकर न र ना चा ते थे। औरत की

कमाई खाने से ज़्यादा अिम उनकी दृश्ष्ट में दस ू रा काम न था। उन् ें कुल तीन

,पये मा वार समलते थे, य भी उनके ाथ न लगते। नो री ऊपर ी ऊपर उड़ा

लेती। उन् ें तमाखू पीने को िेला मयस्सर न ीं, और नो री दो आने रोज़ के पान खा जाती थी। श्जसे दे खो, व ी उन पर रोब जमाता था। प्यादे उससे धचलम भरवाते, लकड़ी कटवाते; बेचारा हदन-भर का

ारा-थका आता और द्वार पर पेड़

के नीचे णझलूँ गे खाट पर पड़ा र ता। कोई एक लहु टया पानी दे नेवाला भी न ीं। दोप र की बासी रोहटयाूँ रात को खानी पड़तीं और व नमक के साथ। आणख़र

भी नमक या पानी और

ारकर उसने घर जाकर कामता के साथ र ने का

नकचय ककया। कुछ न ै।

ोगा एक टुकड़ा रोटी तो समल

ी जायगी, अपना घर तो

नो री बोली -- मैं व ाूँ ककसी की ग़ल ु ामी करने न जाऊूँगी। भोला ने जी कड़ा करके क ा -- तुम् ें जाने को तो मैं न ीं क ता। मैं तो अपने को क ता ू ूँ।

'तुम मुझे छोड़कर चले जाओगे? क ते लाज न ीं आती?' 'लाज तो घोल कर पी गया।' 'लेककन मैंने तो अपनी लाज न ीं पी। तुम मुझे छोड़कर न ीं जा सकते।' 'तू अपने मन की ै , तो मैं तेरी ग़ल ु ामी क्यों करूूँ?' 'पंचायत करके मूँु में कासलख लगा दूँ ग ू ी, इतना समझ लेना।' 'क्या अभी कुछ कम कासलख लगी ै ? क्या अब भी मझ ु े िोखे में रखना चा ती ै ?' 'तुम तो ऐसा ताव हदखा र े ो, जैसे मुझे रोज़ ग ने ी तो गढ़वाते ो। तो य ाूँ नो री ककसी का ताव स नेवाली न ीं

ै।'

भोला झल्लाकर उठे और ससर ाने से लकड़ी उठाकर चले कक नो री ने लपककर उनका प ु ूँचा पकड़ सलया। उसके बसलष्ठ पंजों से नकलना भोला के सलए मुश्ककल था। चप ु के से कैदी की तर बैठ गये। एक ज़माना था, जब व औरतों को अूँगसु लयों पर नचाया करते थे, आज व और ककसी तर

नकल न ीं सकते।

एक औरत के करपाश में बूँिे ु ए ाथ छुड़ाने की कोसशश करके व परदा

न ीं खोलना चा ते। अपनी सीमा का अनुमान उन् ें उससे नडर

ोकर न ीं क

पंचायत की िमकी दे ती

ो गया

ै । मगर व

क्यों

दे ते कक तू मेरे काम की न ीं

ै । पंचायत क्या कोई

डर न ीं, तो मैं क्यों पंचायत से डरूूँ? लेककन य

ौवा

ै , मैं तुझे त्यागता ू ूँ। ै ; अगर तुझे पंचायत का

भाव शब्दों में आने का सा स

न कर सकता था। नो री ने जैसे उन पर कोई वशीकरण डाल हदया

ो।

ैं

26 लाला पटे कवरी पटवारी-समुदाय के सद्गुणों के साक्षात ण अवतार थे। व





दे ख सकते थे कक कोई असामी अपने दस ू रे भाई की इंच भर भी ज़मीन दबा ले। न व

य ी दे ख सकते थे कक असामी ककसी म ाजन के रुपए दबा ले। गाूँव के

समस्त प्राणणयों के ह तों की रक्षा करना उनका परम िमद था। समझौते या मेलजोल में उनका ववकवास न था, य

तो नजीववदता के लक्षण

ैं! व

तो संघषद के

पुजारी थे, जो सजीवता का लक्षण

ै । आये हदन इस जीवन को उत्तेजना दे ने का

प्रयास करते र ते थे। एक-न-एक िुलझड़ी छोड़ते र ते थे। मूँगरू सा

पर इन

हदनों उनकी ववशेष कृपा-दृष्ट थी। मूँगरू सा

गाूँव का सबसे िनी आदमी था; पर स्थानीय राजनी त में बबलकुल

भाग न लेता था। रोब या अधिकार की लालसा उसे न थी। मकान भी उसका

गाूँव के बा र था, ज ाूँ उसने एक बाग़ और एक कुआूँ और एक छोटा-सा सशवमंहदर बनवा सलया था। बाल-बच्चा कोई न था; इससलए लेन-दे न भी कम कर हदया था और अधिकतर पूजा-पाठ में उसके रुपए

ी लगा र ता था। ककतने

ी असासमयों ने

ज़म कर सलए थे; पर उसने ककसी पर नासलश-फ़ररयाद न की।

पर भी उसके सूद-ब्याज समलाकर कोई डेढ़ सौ

ो गये थे ; मगर न

ोरी

ोरी को ऋण

चक ु ाने की कोई धचंता थी और न उसे वसल ू करने की। दो-चार बार उसने तक़ाज़ा ककया, घुड़का-डाूँटा भी; मगर अबकी संयोग से ढाई सौ सीिे

ोरी की दशा दे खकर चुप

ो बैठा।

ोरी की ऊख गाूँव भर के ऊपर थी। कुछ न ीं तो उसके दो-

ो जायूँगे, ऐसा लोगों का अनम ु ान था। पटे कवरीप्रसाद ने मूँगरू को

सुझाया कक अगर इस वक़्त

ोरी पर दावा कर हदया जाय तो सब रुपए वसूल

ो जायूँ। मूँगरू इतना दयालु न ीं, श्जतना आलसी था। झंझट में पड़ना न

चा ता था; मगर जब पटे कवरी ने श्ज़म्मा सलया कक उसे एक हदन भी कच री न जाना पड़ेगा, न कोई दस ू रा कष्ट

ोगा, बैठे-बैठाये उसकी डडग्री

ो जायगी, तो

उसने नासलश करने की अनम ु त दे दी, और अदालत-ख़चद के सलए रुपए भी दे हदये।

ोरी को ख़बर भी न थी कक क्या णखचड़ी पक र ी

ै । कब दावा दायर ु आ, कब डडग्री ु ई, उसे बबलकुल पता न चला। क़ुक़द-अमीन उसकी ऊख नीलाम करने

आया, तब उसे मालम ू ु आ। सारा गाूँव खेत के ककनारे जमा ो गया। ोरी मूँगरू सा के पास दौड़ा और ि नया पटे कवरी को गासलयाूँ दे ने लगी। उसकी स जबुद्धि ने बता हदया कक पटे कवरी

ी की कारस्तानी

ै , मगर मूँगरू सा

पूजा पर

थे, समल न सके और ि नया गासलयों की वषाद करके भी पटे कवरी का कुछ बबगाड़ न सकी। उिर ऊख डेढ़ सौ रुपए में नीलाम मूँगरू सा

ो गयी और बोली भी

ो गयी

ी के नाम। कोई दस ू रा आदमी न बोल सका।

दातादीन में भी ि नया की गासलयाूँ सुनने का सा स न था। ि नया ने

ोरी को उत्तेश्जत करके क ा -- बैठे क्या

क्यों न ीं, य ी िरम

ै तुम् ारा गाूँव-घर के आदसमयों के साथ?

ोरी ने दीनता से क ा -- पछ ू ने के सलए तन ू े मूँु

क्या उन् ोंने न सुनी

ो, जाकर पटवारी से पूछते

भी रखा

ो। तेरी गासलयाूँ

ोंगी?

'जो गाली खाने का काम करे गा, उसे गासलयाूँ समलें गी ी।' 'तू गासलयाूँ भी दे गी और भाई-चारा भी नभायेगी?' 'दे खग ूूँ ी, मेरे खेत के नगीच कौन जाता ै ।' 'समलवाले आकर काट ले जायूँगे, तू क्या करे गी, और मैं क्या करूूँगा। गासलयाूँ दे कर अपनी जीभ की खुजली चा े समटा ले।'

'मेरे जीते-जी कोई मेरा खेत काट ले जायगा?' ' ाूँ- ाूँ, तेरे और मेरे जीते-जी। सारा गाूँव समलकर भी उसे न ीं रोक सकता। अब व

चीज़ मेरी न ीं, मूँगरू सा

की

ै ।'

'मूँगरू सा ने मर-मरकर जेठ की दप ु री में ससंचाई और गोड़ाई की थी?' 'व सब तन ू े ककया; मगर अब व चीज़ मूँगरू सा की ै । म उनके करज़दार न ीं

ैं?'

ऊख तो गयी; लेककन उसके साथ

ी एक नयी समस्या आ पड़ी। दल ु ारी इसी

ऊख पर रुपए दे ने पर तैयार ु ई थी। अब व ककस जमानत पर रुपए दे ? अभी उसके प ले ी के दो सौ पड़े ु ए थे। सोचा था, ऊख के परु ाने रुपए समल जायूँगे, तो नया ह साब चलने लगेगा। उसकी नज़र में

ोरी की साख दो सौ तक थी।

इससे ज़्यादा दे ना जोणख़म था। स ालग ससर पर था। तधथ नश्कचत थी। गौरी म तो ने सारी तैयाररयाूँ कर ली

ोंगी। अब वववा

ो चुकी

का टलना असम्भव

था। ोरी को ऐसा क्रोि आता था कक जाकर दल ु ारी का गला दबा दे । श्जतनी धचरौरी-

बबनती

ो सकती थी, व

पसीजी। उसने चलते-चलते

कर चक ु ा; मगर व

पत्थर की दे वी ज़रा भी न

ाथ बाूँि कर क ा -- दल ु ारी, मैं तुम् ारे रुपए लेकर भाग न

जाऊूँगा। न इतनी जल्द मरा

ी जाता ू ूँ। खेत ैं, पेड़-पालों ैं , घर ैं, जवान बेटा ै । तुम् ारे रुपए मारे न जायूँगे, मेरी इज़्ज़त जा र ी ै , इसे सूँभालो; मगर दल ु ारी

ने दया को व्यापार में समलाना स्वीकार न ककया; अगर व्यापार को व रूप दे सकती, तो उसे कोई आपश्त्त न

ोती। पर दया को व्यापार का रूप दे ना

उसने न सीखा था। ोरी ने घर आकर ि नया से क ा -- अब? ि नया ने उसी पर हदल का गब ु ार नकाला -- य ी तो तम ु चा ते थे। ोरी ने ज़ख़्मी आूँखों से दे खा -- मेरा

'ककसी का दोष ो, ु ई तम् ु ारे मन की।' 'तेरी इच्छा ै कक ज़मीन रे न रख दूँ ?ू ' 'ज़मीन रे न रख दोगे, तो करोगे क्या?' 'मजूरी।'

दया का

ी दोष

ै?

मगर ज़मीन दोनों को एक-सी प्यारी थी। उसी पर तो उनकी इज़्ज़त और आबरू अवसलंबत थी। श्जसके पास ज़मीन न ीं , व

ग ृ स्थ न ीं, मजूर

ोरी ने कुछ जवाब न पाकर पूछा -- तो क्या क ती ि नया ने आ त कंठ से क ा -- क ना क्या ै , कक

मारी नाक कटे , मूँु

ै?

ै । गौरी बरात लेकर आयूँगे। एक

जून णखला दे ना। सबेरे बेटी बबदा कर दे ना। द ु नया य ी इच्छा

ै।

ूँसेगी, ूँ स ले। भगवान ण की

में कासलख लगे तो

म क्या करें गे।

स सा नो री चूँुदरी प ने सामने से जाती ु ई हदखाई दी। ोरी को दे खते ी उसने ज़रा-सा घूघ ूँ ट नकाल सलया। उससे समिी का नाता मानती थी। ि नया से उसका पररचय

ो चुका था।

उसने पुकारा -- आज ककिर चली समधिन? आओ, बैठो। नो री ने हदश्ग्वजय कर सलया था और अब जनमत को अपने पक्ष में बटोर लेने का प्रयास कर र ी थी। आकर खड़ी

ो गयी।

ि नया ने उसे ससर से पाूँव तक आलोचना की आूँखों से दे खकर क ा -- आज इिर कैसे भूल पड़ीं? नो री ने कातर स्वर में क ा -- ऐसे बबहटया का ब्या

कब तक

ै?

ी तुम लोगों से समलने चली आयी।

ि नया श्स्नग्ि भाव से बोली -- भगवान ण के अिीन

ै , जब

ो जाय।

'मैंने तो सुना, इसी स ालग में ोगा। तधथ ठीक ो गयी ै ?' ' ाूँ, तधथ तो ठीक ो गयी ै ।' 'मुझे भी नेवता दे ना।' 'तुम् ारी तो लड़की ै , नेवता कैसा?'

'द े ज का सामान तो मूँगवा सलया ोगा। ज़रा मैं भी दे ख।ूूँ ' ि नया असमंजस में पड़ी, क्या क े । ोरी ने उसे सूँभाला -- अभी तो कोई सामान न ीं मूँगवाया करना

ै , कुस-कन्या तो दे ना

ै , और सामान क्या

ै।

नो री ने अववकवास-भरी आूँखों से दे खा -- कुस-कन्या क्यों दोगे म तो, प ली बेटी

ोरी सख ू ा

ै , हदल खोलकर करो। ूँसा; मानो क ी पड़ा ु आ

र ा ै।

ो, तुम् ें चारों ओर

रा हदखायी दे ता

ोगा; य ाूँ तो

'रुपए-पैसे की तंगी ै, क्या खोलकर करूूँ। तुमसे कौन परदा ै ।' 'बेटा कमाता ै , तम ु कमाते ो; किर भी रुपए-पैसे की तंगी? ककसे ववकवास आयेगा।'

'बेटा ी लायक़ ोता, तो किर का े को रोना था। धचट्ठी-पत्तर तक भेजता न ीं, रुपए क्या भेजेगा। य

दस ू रा साल

इतने में सोना बैलों के चारे के सलए

ै , एक धचट्ठी न ीं।' ररयाली का एक गट्ठा ससर पर सलये , यौवन

को अपने अंचल से चुराती, बासलका-सी सरल, आयी और गट्ठा व ीं पटककर अंदर चलो गयी।

नो री ने क ा -- लड़की तो ख़ूब सयानी

ो गयी

ि नया बोली -- लड़की की बाढ़ रें ड़ की बाढ़

ै।

ै । न ीं

ै अभी कै हदन की!

'वर तो ठीक ो गया ै न?' ' ाूँ, वर तो ठीक ै । रुपए का बंदोबस्त ो गया, तो इसी म ीने में ब्या कर दें गे।'

नो री हदल की ओछी थी। इिर उसने जो थोड़े-से रुपए जोड़े थे, वे उसके पेट में उछल र े थे; अगर व

सोना के ब्या

समलेगा। सारे गाूँव में उसकी चचाद ने इतने रुपए दे हदए। बड़ी दे वी

के सलए कुछ रुपए दे दे , तो ककतना यश

ो जायगी। लोग चककत ै।

ोकर क ें गे , नो री

ोरी और ि नया दोनों घर-घर उसका

बखान करते किरें गे। गाूँव में उसका मान-सम्मान ककतना बढ़ जायगा। व उूँ गली हदखानेवालों का मूँु

सी दे गी। किर ककसकी ह म्मत

या उस पर आवाज़ें कसे। अभी सारा गाूँव उसका दकु मन उसका ह तैषी

ै , जो उस पर

ै । तब सारा गाूँव

ूँसे,

ो जायगा। इस कल्पना से उसकी मुद्रा णखल गयी।

'थोड़े-ब ु त से काम चलता ो, तो मझ ु से लो; जब ाथ में रुपए आ जायूँ तो दे दे ना।' ोरी और ि नया दोनों र ी

ी ने उसकी ओर दे खा। न ीं , नो री हदल्लगी न ीं कर

ै । दोनों की आूँखों में ववस्मय था, कृतज्ञता थी, सन्दे

नो री उतनी बुरी न ीं

ै , श्जतना लोग समझते

नो री ने किर क ा -- तुम् ारी और क्या मेरी

ूँसी न

ोगी? कैसे भी ु आ

था और लज्जा थी।

ैं।

मारी इज़्ज़त एक

ै । तुम् ारी

ो, पर अब तो तम ु

ूँसी

मारे समिी

ो तो ो।

ोरी ने सकुचाते ु ए क ा -- तुम् ारे रुपए तो घर में ी ैं, जब काम पड़ेगा ले लगे। आदमी अपनों ी का भरोसा तो करता ै ; मगर ऊपर से इंतज़ाम ो जाय, तो घर के रुपए क्यों छुए। ि नया ने अनुमोदन ककया --

ाूँ, और क्या।

नो री ने अपनापन जताया -- जब घर में रुपए

ैं, तो बा रवालों के सामने

ाथ

क्यों िैलाओ। सूद भी दे ना पड़ेगा, उस पर इस्टाम सलखो, गवा ी कराओ, दस्तूरी दो, खुसामद करो।

ाूँ, मेरे रुपए में छूत लगी

ो, तो दस ू री बात

ै।

ोरी ने सूँभाला -- न ीं, न ीं नो री, जब घर में काम चल जायगा, तो बा र क्यों ाथ िैलायेंगे; लेककन आपसवाली बात जल्दी कोई काम पड़ा और

ै । खेती-बारी का भरोसा न ीं। तुम् ें

म रुपए न जुटा सके, तो तुम् ें भी बुरा लगेगा और

मारी जान भी संकट में पड़ेगी। इससे क ता था। न ीं , लड़की तो तुम् ारी

ै।

'मुझे अभी रुपए की ऐसी जल्दी न ीं ै ।' 'तो तम् ु ीं से लें गे। कन्यादान का िल भी क्यों बा र जाय।' 'ककतने रुपए चाह ए?' 'तम ु ककतने दे सकोगी?' 'सौ में काम चल जायगा?' ोरी को लालच आया। भगवान ण ने छप्पर िाड़कर रुपए हदये

ैं , तो श्जतना ले

सके, उतना क्यों न ले!

'सौ में भी चल जायगा। पाूँच सौ में भी चल जायगा। जैसा ौसला ो।' 'मेरे पास कुल दो सौ रुपए ैं, व मैं दे दूँ ग ू ी।' 'तो इतने में बड़ी खस ु िेली से काम चल जायगा। अनाज घर में ै ; मगर

ठकुराइन, आज तुमसे क ता ू ूँ , मैं तुम् ें ऐसी लच्छमी न समझता था। इस ज़माने में कौन ककसकी मदद करता ै , और ककसके पास ै । तम ु ने मुझे डूबते से बचा सलया।'

हदया-बत्ती का समय आ गया था। ठं डक पड़ने लगी थी। ज़मीन ने नीली चादर ओढ़ ली थी। ि नया अन्दर जाकर अूँगीठी लायी। सब तापने लगे। पुआल के

प्रकाश में छबीली, रूँ गीली, कुलटा नो री उनकी सामने वरदान-सी बैठी थी। इस समय उसकी उन आूँखों में ककतनी सहृदयता थी; कपोलों पर ककतनी लज्जा,

ओठों पर ककतनी सत्प्रेरणा! कुछ दे र तक इिर-उिर की बातें करके नो री उठ खड़ी ु ई और य क ती ु ई घर चली -- अब दे र रुपए ले लेना म तो!

'चलो, मैं तम् ु ें प ु ूँ चा दूँ ।ू ''न ीं-न ीं, तुम बैठो, मैं चली जाऊूँगी।'

ो र ी

ै । कल तुम आकर

'जी तो चा ता ै , तुम् ें कंिे पर बैठाकर प ु ूँचाऊूँ।' नोखेराम की चौपाल गाूँव के दस ू रे ससरे पर थी, और बा र-बा र जाने का रास्ता साफ़ था। दोनों उसी रास्ते से चले। अब चारों ओर सन्नाटा था।

नो री ने क ा -- त नक समझा दे ते रावत को। क्यों सबसे लड़ाई ककया करते ैं। जब इन् ीं लोगों के बीच में र ना अपने

ो जायूँ। और इनका

ाल य

ै , तो ऐसे र ना चाह ए न कक चार आदमी ै कक सबसे लड़ाई, सबसे झगड़ा। जब तुम

मुझे परदे में न ीं रख सकते, मुझे दस ू रों की मजूरी करनी पड़ती नभ सकता



ै कक मैं न ककसी से

सब तो परदे में



ो सकता

ै , तो य

ूँसूँ,ू न बोलूँ ,ू न कोई मेरी ओर ताके, न

ै । पूछो, कोई मेरी ओर ताकता या घूरता

कैसे ूँसे। ै

तो मैं क्या करूूँ। उसकी आूँखें तो न ीं िोड़ सकती। किर मेल-मु ब्बत से आदमी के सौ काम नकलते

झूमता था, तो अब व

ैं। जैसा समय दे खो, वैसा व्यव ार करो। तुम् ारे घर

ाथी

तुम् ारे ककस काम का। अब तो तुम तीन रुपए के मजूर

ो। मेरे घर तो भैंस लगती थी, लेककन अब तो मजूररन ू ूँ ; मगर उनकी समझ में कोई बात आती ी न ीं। कभी लड़कों के साथ र ने की सोचते ैं , कभी लखनऊ जाकर र ने की सोचते

ैं। नाक में दम कर रखा

ोरी ने ठकुरसु ाती की -- य

ै मेरे।

भोला की सरासर नादानी

उन् ें समझ आनी चाह ए। मैं समझा दूँ ग ू ा।

'तो सबेरे आ जाना, रुपए दे दूँ ग ू ी।' 'कुछ सलखा पढ़ी ...' 'तुम मेरे रुपए ज़म न करोगे, मैं जानती ू ूँ।' उसका घर आ गया। व ***

अंदर चली गयी।

ोरी घर लौटा।

ै । बूढ़े ु ए, अब तो

27 गोबर को श र आने पर मालम ू ु आ कक श्जस अड्डे पर व अपना खोंचा लेकर बैठता था, व ाूँ एक दस ू रा खोंचेवाला बैठने लगा ै और गा क अब गोबर को भल ू गये

ैं। व

घर भी अब उसे वपंजरे -सा लगता था। झु नया उसमें अकेली

बैठी रोया करती। लड़का हदन-भर आूँगन में या द्वार पर खेलने का आदी था। य ाूँ उसके खेलने को कोई जग

न थी। क ाूँ जाय? द्वार पर मुश्ककल से एक

गज का रास्ता था। दग ां उड़ा करती थी। गमी में क ीं बा र लेटने-बैठने की ु ि जग

न ीं। लड़का माूँ को एक क्षण के सलए न छोड़ता था। और जब कुछ

खेलने को न

ो, तो कुछ खाने और दि ू पीने के ससवा व

पर कभी ि नया खेलाती, कभी रूपा, कभी सोना, कभी

और क्या करे ? घर

ोरी, कभी पु नया। य ाूँ

अकेली झु नया थी और उसे घर का सारा काम करना पड़ता था। और गोबर

जवानी के नशे में मस्त था। उसकी अतप्ृ त लालसाएूँ ववषय-भोग के सागर में

डूब जाना चा ती थीं। ककसी काम में उसका मन न लगता। खोंचा लेकर जाता, तो घंटे-भर

ी में लौट आता। मनोरं जन का कोई दस ू रा सामान न था। पड़ोस के

मजूर और इक्केवान रात-रात भर ताश और जुआ खेलते थे। प ले व

खेलता था; मगर अब उसके सलए केवल मनोरं जन था, झु नया के साथ

भी ख़ूब

ासववलास।

थोड़े

ी हदनों में झु नया इस जीवन से ऊब गयी। व

जाकर बैठे, ख़ूब नश्कचंत

ोकर लेटे-सोये; मगर व

चा ती थी, क ीं एकांत में

एकांत क ीं न समलता। उसे

अब गोबर पर ग़स् ु सा आता। उसने श र के जीवन का ककतना मो क धचत्र खींचा था, और य ाूँ इस काल-कोठरी के ससवा और कुछ न ीं। बालक से भी उसे धचढ़ ोती थी। कभी-कभी व

उसे मारकर बा र नकाल दे ती और अंदर से ककवाड़

बंद कर लेती। बालक रोते-रोते बेदम दस ू रा बच्चा पैदा

ो जाता। उस पर ववपश्त्त य

कक उसे

ोनेवाला था। कोई आगे न पीछे । अक्सर ससर में ददद

करता। खाने से अरुधच

ो गयी थी। ऐसी तंद्रा

ुआ ोती थी कक कोने में चुपचाप

पड़ी र े । कोई उससे न बोले-चाले; मगर य ाूँ गोबर का नष्ठुर प्रेम स्वागत के

सलए द्वार खटखटाता र ता था। स्तन में दि ू नाम को न ीं; लेककन लल्लू छाती पर सवार र ता था। दे

करती, उसे थोड़े-से आग्र

के साथ उसका मन भी दब द ु ल पर तोड़ दे ती। व

लेटी

ो गया। व

जो संकल्प

ोती और लल्लू आकर

ज़बरदस्ती उसकी छाती पर बैठ जाता और स्तन मूँु

में लेकर चबाने लगता।



अब दो साल का

जाता, तो व

ो गया था। बड़े तेज़ दाूँत नकल आये थे। मूँु

में दि ू न

क्रोि में आकर स्तन में दाूँत काट लेता; लेककन झु नया में अब

इतनी शश्क्त भी न थी कक उसे छाती पर से ढकेल दे । उसे खड़ी नज़र आती। प त और पुत्र ककसी से भी उसे स्ने मतलब के यार

रदम मौत सामने

न था। सभी अपने

ैं।

बरसात के हदनों में जब लल्लू को दस्त आने लगे और उसने दि ू पीना छोड़

हदया, तो झु नया को ससर से एक ववपश्त्त टल जाने का अनुभव ु आ; लेककन जब एक सप्ता के बाद बालक मर गया, तो उसकी स्मृ त पुत्र-स्ने से सजीव ोकर उसे रुलाने लगी। और जब गोबर बालक के मरने के एक

किर आग्र

ी सप्ता

बाद

करने लगा, तो उसने क्रोि से जलकर क ा -- तुम ककतने पशु

ो!

झु नया को अब लल्लू की स्मृ त लल्लू से भी क ीं वप्रय थी। लल्लू जब तक सामने था व

उससे श्जतना सुख पाती थी, उससे क ीं ज़्यादा कष्ट पाती थी।

अब लल्लू उसके मन में आ बैठा था, शान्त, श्स्थर, सुशील, सु ास। उसकी कल्पना में अब वेदनामय आनन्द था, श्जसमें प्रत्यक्ष की काली छाया न थी। बा रवाला लल्लू उसके भीतरवाले लल्लू का प्र तबबब मात्र था। प्र तबबंब सामने न था जो असत्य था, अश्स्थर था। सत्य रूप तो उसके भीतर था, उसकी आशाओं और शुभेच्छाओं से सजीव। दि ू की जग र ी थी। उसे अब व



उसे अपना रक्त वपला-वपलाकर पाल

बंद कोठरी, और व

िुएूँ में जलना, इन बातों का मानों ज्ञान

दग ां मयी वायु और व ु ि

ी न र ा। व

दोनों जून

स्मृ त उसके भीतर बैठी

ु ई जैसे उसे शश्क्त प्रदान करती र ती। जीते-जी जो उसके जीवन का भार था, मरकर उसके प्राणों में समा गया था। उसकी सारी ममता अंदर जाकर बा र से उदासीन

ो गयी। गोबर दे र में आता

न ीं, प्रसन्न कमाता

ै या जल्द , रुधच से भोजन करता

ै या

ै या उदास, इसकी अब उसे बबलकुल धचन्ता न थी। गोबर क्या

ै और कैसे ख़चद करता

ै इसकी भी उसे परवा न थी। उसका जीवन जो

कुछ था, भीतर था, बा र व

केवल नजीव यंत्र थी। उसके शोक में भाग लेकर,

अंग बन सकता था; पर व

उसके बाह्य जीवन के सख ू े तट पर आकर

उसके अंतजीवन में पैठकर, गोबर उसके समीप जा सकता था, उसके जीवन का प्यासा लौट जाता था।



एक हदन उसने रूखे स्वर में क ा -- तो लल्लू के नाम को कब तक रोये जायगी? चार-पाूँच म ीने तो

ो गये।

झु नया ने ठं डी साूँस लेकर क ा -- तुम मेरा दःु ख न ीं समझ सकते। अपना काम दे खो। मैं जैसी ू ूँ, वैसी पड़ी र ने दो।

'तेरे रोते र ने से लल्लू लौट आयेगा?' झु नया के पास इसका कोई जवाब न था। व

उठकर पतीली में कचालू के सलए

आलू उबालने लगी। गोबर को ऐसा पाषाण-हृदय उसने न समझा था। इस बेददी ने लल्लू को उसके मन में और सजग कर हदया। लल्लू उसी का

ै , उसमें ककसी

का साझा न ीं, ककसी का ह स्सा न ीं। अभी तक लल्लू ककसी अंश में उसके हृदय के बा र भी था, गोबर के हृदय में भी उसकी कुछ ज्यो त थी। अब व संपूणद रूप से उसका था। गोबर ने खोंचे से नराश

ोकर शक्कर के समल में नौकरी कर ली थी। समस्टर

खन्ना ने प ले समल से प्रोत्साह त

ोकर

ाल में य

दस ू रा समल खोल हदया

था। गोबर को व ाूँ बड़े सबेरे जाना पड़ता , और हदन-भर के बाद जब व जले घर लौटता, तो उसकी दे

हदया-

में ज़रा भी जान न र ती। घर पर भी उसे इससे

कम मे नत न करनी पड़ती थी; लेककन व ाूँ उसे ज़रा भी थकन न

ोती थी।

बीच-बीच में व

ूँस-बोल भी लेता था। किर उस खुले ु ए मैदान में, उन्मुक्त आकाश के नीचे, जैसे उसकी क्ष त परू ी ो जाती थी। व ाूँ उसकी दे चा े श्जतना काम करे , मन स्वच्छं द र ता था। य ाूँ दे

की उतनी मे नत न

ोने पर

भी जैसे उस कोला ल, उस ग त और तूफ़ानी शोर का उस पर बोझ-सा लदा र ता था। य

शंका भी बनी र ती थी कक न जाने कब डाूँट पड़ जाय। सभी

श्रसमकों की य ी दशा थी। सभी ताड़ी या शराब में अपनी दै ह क थकान और मानससक अवसाद को डुबाया करते थे। गोबर को भी शराब का चस्का पड़ा। घर आता तो नशे में चरू , और प र रात गये। और आकर कोई-न-कोई ब ाना

खोजकर झु नया को गासलयाूँ दे ता, घर से नकालने लगता और कभी-कभी पीट भी दे ता।

झु नया को अब य अपमान

ो र ा

शंका

ै । ब्या ता

ोने लगी कक व

रखेली

ै , इसी से उसका य

ोती, तो गोबर की मजाल थी कक उसके साथ य

बतादव करता। बबरादरी उसे दं ड दे ती, ु क़्क़ा-पानी बन्द कर दे ती। उसने ककतनी बड़ी भूल की कक इस कपटी के साथ घर से नकल भागी। सारी द ु नया में ूँसी भी ु ई और ाथ कुछ न आया। व गोबर को अपना दकु मन समझने लगी। न उसके खाने-पीने की परवा करती, न अपने खाने-पीने की। जब गोबर उसे

मारता, तो उसे ऐसा क्रोि आता कक गोबर का गला छुरे से रे त डाले। गभद ज्योंज्यों परू ा

ोता जाता

ै , उसकी धचंता बढ़ती जाती

ै । इस घर में तो उसकी मरन

ो जायगी। कौन उसकी दे खभाल करे गा, कौन उसे सूँभालेगा? और जो गोबर इसी

तर

मारता-पीटता र ा, तब तो उसका जीवन नरक

एक हदन व म ीने का



ो जायगा।

बम्बे पर पानी भरने गयी, तो पड़ोस की एक स्त्री ने पछ ू ा -- कै

ै रे ?

झु नया ने लजाकर क ा -- क्या जाने दीदी, मैंने तो धगना-धगनाया न ीं दो री दे एक्का

ै।

की, काली-कलूटी, नाटी, कुरूपा, बड़े-बड़े स्तनोंवाली स्त्री थी। उसका प त

ाूँकता था और व

ख़ुद लकड़ी की दक ू ान करती थी। झु नया कई बार

उसकी दक ू ान से लकड़ी लायी थी। इतना मझ ु े तो जान पड़ता वाई ठीक कर ली

ै?

ै , हदन पूरे

ो गये

ी पररचय था। मुस्कराकर बोली --

ैं। आज

ी कल में

ोगा। कोई दाई-

झु नया ने भयातुर-स्वर में क ा -- मैं तो य ाूँ ककसी को न ीं जानती।

'तेरा मदद आ कैसा ै , जो कान में तेल डाले बैठा ै ?' ु 'उन् ें मेरी क्या कफ़कर।' ' ाूँ, दे ख तो र ी ू ूँ। तुम तो सौर में बैठोगी, कोई करने-िरनेवाला चाह ए कक न ीं। सास-ननद, दे वरानी-जेठानी, कोई ै कक न ीं? ककसी को बुला लेना था।' 'मेरे सलए सब मर गये।' व

पानी लाकर जूठे बरतन माूँजने लगी, तो प्रसव की शंका से हृदय में िड़कनें

ो र ी थीं। सोचने लगी -- कैसे क्या

ोगा भगवान?ण ऊ ! य ी तो

ोगा मर

जाऊूँगी; अच्छा

ै , जंजाल से छूट जाऊूँगी। शाम को उसके पेट में ददद

ोने लगा।

समझ गयी ववपश्त्त की घड़ी आ प ु ूँची। पेट को एक ाथ से पकड़े ु ए पसीने से तर उसने चूल् ा जलाया, णखचड़ी डाली और ददद से व्याकुल ोकर व ीं ज़मीन पर लेट र ी।

कोई दस बजे रात को गोबर आया , ताड़ी की दग ां उड़ाता ु आ। लटपटाती ु ई ु ि ज़बान से ऊटपटाूँग बक र ा था -- मुझे ककसी की परवा न ीं ै । श्जसे सौ दफ़े गरज

ो र े , न ीं चला जाय। मैं ककसी का ताव न ीं स

सकता। अपने माूँ -बाप

का ताव न ीं स ा, श्जसने जनम हदया। तब दस ू रों का ताव क्यों स ू ूँ। जमादार आूँखें हदखाता ै । य ाूँ ककसी की िौंस स नेवाले न ीं ैं। लोगों ने पकड़ न सलया ोता, तो ख़ून पी जाता, ख़ून! कल दे खग ूूँ ा बचा को। िाूँसी

दूँ ग ू ा कक मदद कैसे मरते

ी तो

ोगी। हदखा

ैं।

ूँसता ु आ अकड़ता ु आ, मूँछ ू ों पर ताव दे ता ु आ िाूँसी के तख़्ते पर जाऊूँ, तो स ी। औरत की जात! ककतनी बेवफ़ा ोती ै । णखचड़ी डाल दी और टाूँग पसारकर सो र ी। कोई खाय या न खाय , उसकी बला से। आप मज़े से िुलके उड़ाती

ै , मेरे सलए णखचड़ी! सता ले श्जतना सताते बने; तुझे भगवान ण सतायेंगे

जो न्याय करते

ैं।

उसने झु नया को जगाया न ीं। कुछ बोला भी न ीं। चुपके से णखचड़ी थाली में

नकाली और दो-चार कौर नगलकर बरामदे में लेट र ा। वपछले प र उसे सदी

लगी। कोठरी में कंबल लेने गया तो झु नया के करा ने की आवाज़ सुनी। नशा उतर चक ु ा था। पछ ू ा -- कैसा जी

ै झु नया! क ीं दरद

' ाूँ, पेट में ज़ोर से दरद ो र ा ै ।' 'तन ू े प ले क्यों न ीं क ा। अब इस बखत क ाूँ जाऊूँ?' 'ककससे क ती?' 'मैं क्या मर गया था?' 'तुम् ें मेरे मरने-जीने की क्या धचंता?'

ै क्या?

गोबर घबराया, क ाूँ दाई खोजने जाय? इस वक़्त व कुछ

ै भी तो न ीं, चुड़ल ै ने प ले बता हदया

माूँग लाता। इन् ीं

ाथों में सौ-पचास रुपए

ख़श ु ामद करते थे। इस कुलच्छनी के आते मु ताज

ी क्यों लगी। घर में

ोता तो ककसी से दो-चार रुपए

रदम पड़े र ते थे, चार आदमी

ी जैसे लक्ष्मी रूठ गयी। टके-टके को

ो गया।

स सा ककसी ने पुकारा -- य ो र ा

आने

ै?

क्या तुम् ारी घरवाली करा

र ी

ै ? दरद तो न ीं



व ी मोटी औरत थी श्जससे आज झु नया की बातचीत ु ई थी, घोड़े को दाना णखलाने उठी थी। झु नया का करा ना सुनकर पूछने आ गयी थी। गोबर ने बरामदे में जाकर क ा -- पेट में ददद

ै । छटपटा र ी

ै । य ाूँ कोई दाई

समलेगी?

'व तो मैं आज उसे दे खकर ी समझ गयी थी। दाई कच्ची सराय में र ती ै । लपककर बुला लाओ। क ना, जल्दी चल। तब तक मैं य ीं बैठी ू ूँ।'

'मैंने तो कच्ची सराय न ीं दे खी, ककिर ै ?' 'अच्छा तुम उसे पंखा झलते र ो, मैं बुलाये लाती ू ूँ। य ी क ते ैं, अनाड़ी आदमी ककसी काम का न ीं। पूरा पेट और दाई की ख़बर न ीं।' य

क ती ु ई व चल दी। इसके मूँु पर तो लोग इसे चुह या क ते ैं , य ी इसका नाम था; लेककन पीठ पीछे मोटल्ली क ा करते थे। ककसी को मोटल्ली क ते सुन लेती थी, तो उसके सात पुरखों तक चढ़ जाती थी। गोबर को बैठे दस समनट भी न संसार में ग़रीबों का कैसे नबा

ु ए ोंगे कक व लौट आयी और बोली -- अब ोगा! राूँड़ क ती ै , पाूँच रुपए लूँ ग ू ी -- तब

चलूँ ग ू ी। और आठ आने रोज़। बार वें हदन एक साड़ी। मैंने क ा तेरा मूँु दूँ ।ू तू जा चूल् े में ! मैं दे ख लूँ ग ू ी। बार

बच्चों की माूँ यों

ी न ीं

झुलस

ो गयी

ू ूँ।

तम ु बा र आ जाओ गोबरिन, मैं सब कर लूँ ग ू ी। बखत पड़ने पर आदमी आदमी के काम आता व



ै । चार बच्चे जना सलए तो दाई बन बैठी!

झु नया के पास जा बैठी और उसका ससर अपनी जाूँघ पर रखकर उसका पेट

स लाती ु ई बोली -- मैं तो आज तझ ु े दे खते ी समझ गयी थी। सच पछ ू ो, तो इसी िड़के में आज मुझे नींद न ीं आयी। य ाूँ तेरा कौन सगा बैठा ै ।

झु नया ने ददद से दाूँत जमाकर 'सी' करते ु ए क ा -- अब न बचूँग ू ी दीदी! ाय! मैं तो भगवान ण से माूँगने न गयी थी। एक को पाला-पोसा। उसे तम ु ने छीन सलया, तो किर इसका कौन काम था। मैं मर जाऊूँ माता, तो तुम बच्चे पर दया करना। उसे पाल-पोस लेना। भगवान ण तुम् ारा भला करें गे। चहु या स्ने

से उसके केश सल ु झाती ु ई बोली -- िीरज िर बेटी, िीरज िर। अभी छन-भर में कष्ट कटा जाता ै । तूने भी तो जैसे चप्ु पी साि ली थी। इसमें ककस बात की लाज! मुझसे बता हदया

ोता, तो मैं मौलवी सा ब के पास से

तावीज़ ला दे ती। व ी समरज़ाजी जो इस इसके बाद झु नया को कुछ

ोश न र ा। नौ बजे सब ु

दे खा, चुह या सशशु को सलए बैठी कमज़ोरी थी, मानो दे के सलए

रीरा और

ाते में र ते

ैं। उसे

ोश आया, तो उसने

ै और व

साफ़ साड़ी प ने लेटी ु ई ै । ऐसी में रक्त का नाम न ो। चुह या रोज़ सबेरे आकर झु नया

लवा पका जाती और हदन में भी कई बार आकर बच्चे को

उबटन मल जाती और ऊपर से दि ू वपला जाती। आज चौथा हदन था; पर

झु नया के स्तनों में दि ू न उतरा था। सशशु रो-रोकर गला िाड़े लेता था; क्योंकक ऊपर का दि ू उसे पचता न था। एक छन को भी चुप न अपना स्तन उसके मूँु

ोता था। चुह या

में दे ती। बच्चा एक क्षण चूसता; पर जब दि ू न

नकलता, तो किर चीख़ने लगता। जब चौथे हदन साूँझ तक भी झु नया के दि ू

न उतरा, तो चहु या घबरायी। बच्चा सख ू ता चला जाता था। नख़ास पर एक पें शनर डाक्टर र ने थे। चहु या उन् ें ले आयी। डाक्टर ने दे ख-भाल कर क ा -- इसकी दे आये। समस्या जहटल

ो गयी। दे

में ख़ून तो



ी न ीं, दि ू क ाूँ से

में ख़ून लाने के सलए म ीनों पुश्ष्टकारक

दवाएूँ खानी पड़ेंगी, तब क ीं दि ू उतरे गा। तब तक तो इस मांस के लोथड़े का ी काम तमाम

ो जायगा। पर रात

ो गयी थी। गोबर ताड़ी वपये ओसारे में

पड़ा था। चहु या बच्चे को चप ु कराने के सलए उसके मूँु

में अपनी छाती डाले

ु ए थी कक

स सा उसे ऐसा मालूम ु आ कक उसकी छाती में दि ू आ गया ै । प्रसन्न बोली -- ले झु नया, अब तेरा बच्चा जी जायगा, मेरे दि ू आ गया। झु नया ने चककत

ोकर

ोकर क ा -- तुम् ें दि ू आ गया?

'न ीं री, सच!' 'मैं तो न ीं प तयाती।' 'दे ख ले!' उसने अपना स्तन दबाकर हदखाया। दि ू की िार िूट नकली। झु नया ने पूछा -- तुम् ारी छोटी बबहटया तो आठ साल से कम की न ीं

ै!

' ाूँ, आठवाूँ ै ; लेककन मझ ु े दि ू ब ु त ोता था।' 'इिर तो तुम् ें कोई बाल-बच्चा न ीं ु आ।' 'व ी लड़की पेट-पोछनी थी। छाती बबलकुल सख ू गयी थी; लेककन भगवान ण की लीला ै , और क्या?' अब से चुह या चार-पाूँच बार आकर बच्चे को दि ू वपला जाती। बच्चा पैदा तो

द , लेककन चहु या का स्वस्थ दि ु ल ू पीकर गदराया जाता था। एक हदन ु आ था दब चुह या नदी स्नान करने चली गयी। बच्चा भूख के मारे छटपटाने लगा। चुह या दस बजे लौटी, तो झु नया बच्चे को कंिे से लगाये झुला र ी थी और

बच्चा रोये जाता था। चहु या ने बच्चे को उसकी गोद से लेकर दि ू वपला दे ना चा ा; पर झु नया ने उसे णझड़ककर क ा -- र ने दो। अभागा मर जाय, व ी अच्छा। ककसी का ए सान तो न लेना पड़ेगा।

चहु या धगड़धगड़ाने लगी। झु नया ने बड़े अदरावन के बाद बच्चा उसकी गोद में हदया।

लेककन झु नया और गोबर में अब भी न पटती थी। झु नया के मन में बैठ गया था कक य

पक्का मतलबी, बेददद आदमी

ै ; मझ ु े केवल भोग की वस्तु समझता

ै । चा े मैं मरूूँ या श्जऊूँ; उसकी इच्छा पूरी ककये जाऊूँ, उसे बबलकुल ग़म न ीं।

सोचता

ोगा, य

मर जायगी, तो दस ू री लाऊूँगा; लेककन मूँु

िो रखें बच्चू। मैं



ऐसी अल् ड़ थी कक तुम् ारे िंदे में आ गयी। तब तो पैरों पर ससर रखे दे ता था। य ाूँ आते

ी न जाने क्यों जैसे इसका समज़ाज

ी बदल गया। जाड़ा आ गया

था; पर न ओढ़न, न बबछावन। रोटी-दाल से जो दो-चार रुपए बचते, ताड़ी में उड़ जाते थे। एक पुराना सल ाफ़ था। दोनों उसी में सोते थे; लेककन किर भी उनमें सौ कोस का अंतर था। दोनों एक

ी करवट में रात काट दे त।े

गोबर का जी सशशु को गोद में लेकर खेलाने के सलए तरसकर र कभी-कभी व

जाता था।

रात को उठाकर उसका प्यारा मुखड़ा दे ख सलया करता; लेककन

झु नया की ओर से उसका मन णखंचता था। झु नया भी उससे बात न करती, न उसकी कुछ सेवा

ी करती और दोनों के बीच में य

लो े के मोचेर ण की भाूँ त ग रा, दृढ़ और कठोर की बातों का उलटा

मासलन्य समय के साथ

ोता जाता था। दोनों एक दस ू रे

ी अथद नकालते, व ी श्जससे आपस का द्वेष और भड़के।

और कई हदनों तक एक-एक वाक्य को मन में पाले र ते और उसे अपना रक्त वपला-वपलाकर एक दस ू रे पर झपट पड़ने के सलए तैयार करते र ते, जैसे सशकारी कुत्ते

ों।

उिर गोबर के कारख़ाने में भी आये हदन एक-न-एक

ं गामा उठता र ता था।

अबकी बजट में शक्कर पर डयूटी लगी थी। समल के मासलकों को मजूरी घटाने का अच्छा ब ाना समल गया। डयूटी से अगर पाूँच की

ा न थी, तो मजूरी घटा

दे ने से दस का लाभ था। इिर म ीनों से इस समल में भी य ी मसला छड़ा

ु आ था। मजरू ों का संघ ड़ताल करने को तैयार बैठा ु आ था। इिर मजरू ी घटी और उिर ड़ताल ु ई। उसे मजूरी में िेले की कटौती भी स्वीकार न थी। जब इस तेज़ी के हदनों में मजरू ी में एक िेले की भी बढ़ती न ीं ु ई, तो अब व घाटे में क्यों साथ दे !

समरज़ा खश ु ेद संघ के सभाप त और पंडडत ओंकारनाथ, 'बबजली' -सम्पादक, मंत्री थे। दोनों ऐसी

ड़ताल कराने पर तुले ु ए थे कक समल-मासलकों को कुछ हदन याद र े । मजूरों को भी ड़ताल से क्ष त प ु ूँचग े ी, य ाूँ तक कक ज़ारों आदमी रोहटयों को भी मु ताज

ो जायूँगे, इस प लू की ओर उनकी नगा

की ज़रूरत थी। किर व

मारने-मरने को न डरता था।

थी। और गोबर

ड़तासलयों में सबसे आगे था। उद्दंड स्वभाव का था

बबलकुल न

ी , ललकारने

एक हदन झु नया ने उसे जी कड़ा करके समझाया भी -- तुम बाल-बच्चेवाले आदमी

ो, तुम् ारा इस तर

आग में कूदना अच्छा न ीं।

इस पर गोबर बबगड़ उठा -- तू कौन सला

ोती

न ीं पूछता।

ै मेरे बीच में बोलनेवाली ? मैं तुझसे

बात बढ़ गयी और गोबर ने झु नया को ख़ूब पीटा। चुह या ने आकर झु नया को छुड़ाया और गोबर को डाूँटने लगी।

गोबर के ससर पर शैतान सवार था। लाल-लाल आूँखें नकालकर बोला -- तम ु मेरे घर में मत आया करो चू ा, तम् ु ारे आने का कुछ काम न ीं।

चुह या ने व्यंग के साथ क ा -- तुम् ारे घर में न आऊूँगी, तो मेरी रोहटयाूँ कैसे चलें गी। य ीं से माूँग-जाूँचकर ले जाती ू ूँ, तब तवा गमद ोता ै । मैं न लाला, तो य बीबी आज तम् ु ारी लातें खाने के सलए बैठी न ोती। गोबर घूस ूँ ा तानकर बोला -- मैनै क

ोती

हदया, मेरे घर में न आया करो। तुम् ीं ने

इस चुड़ल ै का समज़ाज आसमान पर चढ़ा हदया

ै।

चुह या व ीं डटी ु ई नःशंक खड़ी थी, बोली -- अच्छा अब चुप र ना गोबर! बेचारी अिमरी लड़कोरी औरत को मारकर तुमने कोई बड़ी जवाूँमदीरण का काम न ीं ककया णखला दे ते दस ू री

ै । तुम उसके सलए क्या करते

ो कक तुम् ारी मार स े ? एक रोटी

ो इससलए? अपने भाग बखानो कक ऐसी गऊ औरत पा गये

ोती, तो तुम् ारे मूँु

में झाड़ू मारकर नकल गई

ोती।

ो।

मु ल्ले के लोग जमा

ो गये और चारों ओर से गोबर पर िटकारें पड़ने लगीं।

व ी लोग, जो अपने घरों में अपनी श्स्त्रयों को रोज़ पीटते थे, इस वक़्त न्याय और दया के पुतले बने ु ए थे। चहु या और शेर

ो गयी और फ़ररयाद करने लगी -- डाढ़ीजार क ता

न आया करो। बीबी-बच्चा रखने चला पालना बड़े गुदे का काम बछड़े की तर

ै, य

न ीं जानता कक बीबी-बच्चों का

ै । इससे पूछो, मैं न

कुलेलें कर र ा

ै , क ाूँ

ै मेरे घर

ोती तो आज य

बच्चा जो

ोता? औरत को मारकर जवानी हदखाता

ै । मैं न ु ई तेरी बीबी, न ीं य ी जूती उठाकर मूँु पर तड़ातड़ जमाती और कोठरी में ढकेलकर बा र से ककवाड़ बंद कर दे ती। दाने को तरस जाते। गोबर झल्लाया ु आ अपने काम पर चला गया। चुह या औरत न ोती, तो मज़ा चखा दे ता। औरत के मूँु क्या लगे। समल में असंतोष के बादल घने

ोकर मदद

ोते जा र े थे। मज़दरू 'बबजली' की प्र तयाूँ जेब

में सलये किरते और ज़रा भी अवकाश पाते, तो दो-तीन मज़दरू समलकर उसे पढ़ने लगते। पत्र की बबक्री ख़ूब बढ़ र ी थी। मज़दरू ों के नेता 'बबजली' कायालदय में आिी रात तक बैठे य

ड़ताल की स्कीमें बनाया करते और प्रातःकाल जब पत्र में

समाचार मोटे -मोटे अक्षरों में छपता, तो जनता टूट पड़ती और पत्र की

कावपयाूँ दन ू े- तगुने दाम पर बबक जातीं।

उिर कंपनी के डायरे क्टर भी अपनी घात में बैठे उनका ह त था। आदसमयों की कमी तो वेतन पर ऐसे आिी बचत आणख़र य

ु ए थे। ड़ताल ो जाने में ी ै न ीं। बेकारी बढ़ी ु ई ै ; इसके आिे

ी आदमी आसानी से समल सकते ो जायगी। दस-पाूँच हदन काम का

नकचय

ैं। माल की तैयारी में एकदम

रज़

ोगा, कुछ परवा

न ीं।

ो गया कक मज़ूरी में कमी का ऐलान कर हदया जाय। हदन

और समय नयत कर हदया गया, पसु लस को सच ू ना दे दी गयी। मजरू ों को कानोंकान ख़बर न थी। वे अपनी घात में थे। उसी वक़्त थे; जब गोदाम में ब ु त थोड़ा माल र

ड़ताल करना चा ते

जाय और माूँग की तेज़ी

ो।

एकाएक एक हदन जब मजूर लोग शाम को छुट्टी पाकर चलने लगे, तो डायरे क्टरों का ऐलान सन ु ा हदया गया। उसी वक़्त पसु लस आ गयी। मजरू ों को अपनी इच्छा

के ववरुि उसी वक़्त कक ब ु त तेज़ माूँग

ड़ताल करनी पड़ी, जब गोदाम में इतना माल भरा ु आ था ोने पर भी छः म ीने से प ले न उठ सकता था।

समरज़ा खुशेद ने य

ख़बर सुनी, तो मुस्कराये, जैसे कोई मनस्वी योिा अपने

बोले -- अच्छी बात

ै । अगर डायरे क्टरों की य ी इच्छा

शत्रु के रण-कौशल पर मग्ु ि उनके मुआकफ़क़

ैं; लेककन

ो गया

ो। एक क्षण ववचारों में डूबे र ने के बाद

में न्याय का बल

अपना काम चलाना चा ते

ैं।

नया आदमी न समले। य ी

मारी फ़त

ै। व

मारी कोसशश य

ै , तो य ी स ी।

ालतें

लोग नये आदमी रखकर ोनी चाह ए कक उन् ें एक भी

ोगी।

'बबजली' -कायालदय में उसी वक़्त ख़तरे की मीहटंग ु ई, कायद-काररणी ससम त का भी संगठन ु आ, पदाधिकाररयों का चुनाव ु आ और आठ बजे रात को मजूरों का लंबा जुलूस नकला। दस बजे रात को कल का सारा प्रोग्राम तय ककया गया और य

ताकीद कर दी गयी कक ककसी तर

का दं गा-फ़साद न

सारी कोसशश बेकार ु ई।

ोने पाये। मगर

ड़तासलयों ने नये मजूरों का हटड्डी-दल समल के द्वार पर खड़ा दे खा , तो इनकी

ह स ं ा-वश्ृ त्त क़ाबू के बा र

ो गयी। सोचा था, सौ-सौ पचास-पचास आदमी रोज़

भती के सलए आयेंगे। उन् ें समझा-बुझाकर या िमका कर भगा दें गे। की संख्या दे खकर नये लोग आप कुछ और था; अगर य

ी भयभीत

सारे आदमी भती

ड़तासलयों

ो जायूँगे, मगर य ाूँ तो नक्शा



ो गये , ड़तासलयों के सलए समझौते

की कोई आशा

ी न थी। तय ु आ कक नये आदसमयों को समल में जाने ी न हदया जाये। बल-प्रयोग के ससवा और कोई उपाय न था। नया दल भी लड़ने मरने पर तैयार था। उनमें अधिकांश ऐसे भुखमरे थे, जो इस अवसर को ककसी तर

भी न छोड़ना चा ते थे। भूखों मर जाने से या अपने बाल-बच्चों को भूखों

मरते दे खने से तो य

क ीं अच्छा था कक इस पररश्स्थ त से लड़कर मरें । दोनों

दलों में फ़ौजदारी

ो गयी। 'बबजली' -सम्पादक तो भाग खड़े ु ए, बेचारे समरज़ाजी वपट गये और उनकी रक्षा करते ु ए गोबर भी बरु ी तर घायल ो गया। समरज़ाजी प लवान आदमी थे और मूँजे ु ए किकैत, अपने ऊपर कोई ग रा वार न पड़ने हदया। गोबर गूँवार था। पूरा लट्ठ मारना जानता था; पर अपनी रक्षा करना न जानता था, जो लड़ाई में मारने से ज़्यादा म त्व की बात एक

ाथ की

ड्डी टूट गयी, ससर खुल गया और अंत में व

ै । उसके

व ीं ढे र

ो गया।

कंिों पर अनधगनती लाहठयाूँ पड़ी थीं, श्जससे उसका एक-एक अंग चरू था।

ड़तासलयों ने उसे धगरते दे खा, तो भाग खड़े ु ए। केवल दस-बार आदमी समरज़ा को घेरकर खड़े र े ।

ो गया जूँचे ु ए

नये आदमी ववजय-पताका उड़ाते ु ए समल में दाणख़ल ु ए और पराश्जत ड़ताली अपने ता तों को उठा-उठाकर अस्पताल प ु ूँचाने लगे; मगर अस्पताल में इतने आदसमयों के सलए जग

न थी। समरज़ाजी तो ले सलये गये। गोबर की मर म-

पट्टी करके उसके घर प ु ूँचा हदया गया। झु नया ने गोबर की व

चेष्टा ीन लोथ दे खी तो उसका नारीत्व जाग उठा। अब

था, मारता था। आज व

अपंग था, नस्स ाय था, दयनीय था। झु नया ने खाट

तक उसने उसे सबल के रूप में दे खा था, जो उस पर शासन करता था, डाूँटता पर झुककर आूँसू भरी आूँखों से गोबर को दे खा और घर की दशा का ख़याल

करके उसे गोबर पर एक ईष्यामदय क्रोि आया। गोबर जानता था कक घर में एक पैसा न ीं

ै व



भी जानता था कक क ीं से एक पैसा समलने की आशा न ीं

ै। य

जानते ु ए भी, उसके बार-बार समझाने पर भी, उसने य ववपश्त्त अपने ऊपर ली। उसने ककतनी बार क ा था -- तुम इस झगड़े में न पड़ो, आग लगाने वाले आग लगाकर अलग

ो जायूँगे, जायगी ग़रीबों के ससर; लेककन व

उसकी सन ु ने लगा था। व

तो उसकी बैररन थी। समत्र तो व

मज़े से मोटरों में घूम र े

कब

लोग थे, जो अब

ैं। उस क्रोि में एक प्रकार की तुश्ष्ट थी, जैसे



उन बच्चों को कुरसी से धगर पड़ते दे खकर, जो बार-बार मना करने पर खड़े से बाज़ न आते थे, धचल्ला उठते क्यों न दो लेककन एक

ो गया।

ैं -- अच्छा ु आ, ब ु त अच्छा, तुम् ारा ससर

ी क्षण में गोबर का करुण-क्रन्दन सुनकर उसकी सारी संज्ञा सस र

उठी। व्यथा में डूबे भुरकस व

ु ए य शब्द उसके मूँु से नकले -ो गयी। सबों को त नक भी दया न आयी।

उसी तर

ोने

बड़ी दे र तक गोबर का मूँु

दे खती र ी। व

ाय- ाय! सारी दे

क्षीण

ोती ु ई आशा से जीवन का कोई लक्षण पा लेना चा ती थी। और प्र त-क्षण उसका िैयद अस्त ोने वाले सूयद की भाूँ त डूबता जाता था, और भववष्य का अंिकार उसे अपने

अंदर समेट लेता था।

स सा चहु या ने आकर पक ु ारा -- गोबर का क्या

ाल

सुना। दक ू ान से दौड़ी आयी ू ूँ।

ै , ब ू ! मैने तो अभी

झु नया के रुके ु ए आूँसू उबल पड़े; कुछ बोल न सकी। भयभीत आूँखों से चुह या की ओर दे खा। चहु या ने गोबर का मूँु दे खा, उसकी छाती पर ाथ रखा, और आकवासन भरे स्वर में बोली -- य

चार हदन में अच्छे

ो जायूँगे। घबड़ा मत।

कुशल ु ई। तेरा सो ाग बलवान था। कई आदमी उसी दं गे में मर गये। घर में कुछ रुपए-पैसे ैं? झु नया ने लज्जा से ससर ह ला हदया।

'मैं लाये दे ती ू ूँ। थोड़ा-सा दि ू लाकर गमद कर ले।' झु नया ने उसके पाूँव पकड़कर क ा -- दीदी, तुम् ी मेरी माता कोई न ीं

ो। मेरा दस ू रा

ै । जाड़ों की उदास संध्या आज और भी उदास मालूम

ो र ी थी।

झु नया ने चूल् ा जलाया और दि ू उबालने लगी। चुह या बरामदे में बच्चे को सलये णखला र ी थी।

स सा झु नया भारी कंठ से बोली -- मैं बड़ी अभाधगन ू ूँ दीदी। मेरे मन में ऐसा आ र ा ै , जैसे मेरे ी कारन इनकी य दशा ु ई ै । जी कुढ़ता ै , तब मन दख ु ी

ोता



ै , किर गासलयाूँ भी नकलती

मेरी गासलयों ... इसके आगे व ब

गयी।

कुछ न क

ैं, सराप भी नकलता

ै । कौन जाने

सकी। आवाज़ आूँसुओं के रे ले में

चुह या ने अंचल से उसके आूँसू पोंछते ु ए क ा -- कैसी बातें सोचती ै बेटी! य तेरे ससंदरू का भाग ै कक य बच गये। मगर ाूँ, इतना ै कक आपस में लड़ाई

ो, तो मूँु

से चा े श्जतना बक ले, मन में कीना न पाले। बीज अंदर पड़ा,

तो अूँखुआ नकले बबना न ीं र ता। झु नया ने कंपन-भरे स्वर में पूछा -- अब मैं क्या करूूँ दीदी?

चहु या ने ढाढ़स हदया -- कुछ न ीं बेटी! भगवान ण का नाम ले। व ी ग़रीबों की रक्षा करते

ैं।

उसी समय गोबर ने आूँखें खोलीं और झु नया को सामने दे खकर याचना भाव से क्षीण-स्वर में बोला -- आज ब ु त चोट खा गया झु नया! मैं ककसी से कुछ न ीं बोला। सबों ने अनायास मुझे मारा। क ा-सन ु ा माफ़ कर! तुझे सताया था, उसी का य

िल समला। थोड़ी दे र का और मे मान ू ूँ। अब न बचूँग ू ा। मारे दरद के सारी दे िटी जाती ै ।

चुह या ने अन्दर आकर क ा -- चुपचाप पड़े र ो। बोलो-चालो न ीं। मरोगे न ीं, इसका मेरा जुम्मा।

गोबर के मख ु पर आशा की रे खा झलक पड़ी। बोला -- सच क ती न ीं?

ो, मैं मरूूँगा

' ाूँ, न ीं मरोगे। तुम् ें ु आ क्या ै ? ज़रा ससर में चोट आ गयी ै और ाथ की ड्डी उतर गयी

ै । ऐसी चोटें मरदों को रोज़

ी लगा करती

ैं। इन चोटों से

कोई न ीं मरता।'

'अब मैं झु नया को कभी न मारूूँगा।' 'डरते ोगे कक क ीं झु नया तुम् ें न मारे ।' 'व मारे गी भी, तो न बोलूँ ग ू ा।' 'अच्छा ोने पर भूल जाओगे।' 'न ीं दीदी, कभी न भल ू ूँ ग ू ा।' गोबर इस समय बच्चों की-सी बातें ककया करता। दस-पाूँच समनट अचेत-सा पड़ा र ता। उसका मन न जाने क ाूँ-क ाूँ उड़ता किरता। कभी दे खता , व डूबा जा र ा

नदी में

ै , और झु नया उसे बचाने के सलए नदी में चली आ र ी

दे खता, कोई दै त्य उसकी छाती पर सवार

ै । कभी

ै और झु नया की शकल की कोई दे वी

उसकी रक्षा कर र ी झु नया?

ै । और बार-बार चौंककर पछ ू ता -- मैं मरूूँगा तो न ीं

तीन हदन उसकी य ी दशा र ी और झु नया ने रात को जागकर और हदन को

उसके सामने खड़े र कर जैसे मौत से उसकी रक्षा की। बच्चे को चहु या सूँभाले र ती। चौथे हदन झु नया एक्का लाई और सबों ने गोबर को उस पर लादकर

अस्पताल प ु ूँचाया। व ाूँ से लौटकर गोबर को मालूम ु आ कक अब व सचमुच बच जायगा। उसने आूँखों में आूँसू भरकर क ा -- मुझे क्षमा कर दो झुन्ना! इन तीन-चार हदनों में चुह या के तीन-चार रुपए ख़चद झु नया को उससे कुछ लेते संकोच

ोता था। व

ो गये थे, और अब

भी कोई मालदार तो थी न ीं।

लकड़ी की बबक्री के रुपए झु नया को दे दे ती। आणख़र झु नया ने कुछ काम करने का ववचार ककया। अभी गोबर को अच्छे को भी चाह ए, दवा-दारू को भी चाह ए। व

ोने में म ीनों लगें गे। खाने -पीने

कुछ काम करके खाने-भर को तो ले

ी आयेगी। बचपन से उसने गउओं का पालन और घास छीलना सीखा था। य ाूँ

गउएूँ क ाूँ थीं; ाूँ व

घास छील सकती थी। मु ल्ले के ककतने

ी स्त्री-पुरुष

बराबर श र के बा र घास छीलने जाते थे , और आठ-दस आने कमा लेते थे। व प्रातःकाल गोबर को

ाथ-मूँु

िुलाकर और बच्चे को उसे सौंपकर घास छीलने

नकल जाती और तीसरे प र तक भख ू ी-प्यासी घास छीलती र ती। किर उसे

मंडी में ले जाकर बेचती और शाम को घर आती। रात को भी व

गोबर की

नींद सोती और गोबर की नींद जागती; मगर इतना कठोर श्रम करने पर भी उसका मन ऐसा प्रसन्न र ता, मानो झूले पर बैठी गा र ी

ै ; रास्ते-भर साथ की

श्स्त्रयों और पुरुषों से चु ल और ववनोद करती जाती। घास छीलते समय भी सबों में

ूँसी-हदल्लगी

ोती र ती। न कक़स्मत का रोना, न मस ु ीबत का धगला।

जीवन की साथदकता में , अपनों के सलए कहठन से कहठन त्याग में , और स्वािीन सेवा में जो उल्लास

ै , उसकी ज्यो त एक-एक अंग पर चमकती र ती। बच्चा

अपने पैरों पर खड़ा

ोकर जैसे तासलयाूँ बजा-बजाकर ख़ुश

ोता

ै , उसी का व

अनुभव कर र ी थी; मानो उसके प्राणों में आनंद का कोई सोता खुल गया और मन स्वस्थ कायाकल्प

ो, तो दे

ो गया

और सुकुमारता

ो।

कैसे अस्वस्थ र े ! उस एक म ीने में जैसे उसका

ो। उसके अंगों में अब सशधथलता न ीं, चपलता

ै । मुख पर व

ै , लचक

पीलापन न ीं र ा, ख़ून की गुलाबी चमक

उसका यौवन जो बंद कोठरी में पड़े-पड़े अपमान और कल

से कंु हठत

ै।

ो गया

ै,

था, व

मानो ताज़ी

वा और प्रकाश पाकर ल ल ा उठा

पर क्रोि न ीं आता। बच्चे के ज़रा-सा रोने पर जो व अब जैसे उसके िैयद और प्रेम का अंत

झूँुझला उठा करती थी,

ी न था। इसके णख़लाफ़ गोबर अच्छा

ोते जाने पर भी कुछ उदास र ता था। जब

अत्याचार करते

ै । अब उसे ककसी बात

म अपने ककसी वप्रयजन पर

ैं , और जब ववपश्त्त आ पड़ने से

ममें इतनी शश्क्त आ जाती

ै कक उसकी तीव्र व्यथा का अनभ ु व करें , तो उससे

मारी आत्मा में जाग ृ त का

ो जाते

ो र ा था। अब उसके जीवन

उदय

ो जाता

ै , और

ैं। गोबर व ी प्रायश्कचत के सलए व्याकुल

का रूप बबलकुल दस ू रा जग

म उस बेजा व्यव ार का प्रायश्कचत करने के सलए तैयार ोगा, श्जसमें कटुता की जग

मद ु ा ृ त

ोगी, असभमान की

नम्रता। उसे अब ज्ञात ु आ कक सेवा करने का अवसर बड़े सौभाग्य से समलता ै , और व इस अवसर को कभी न भल ू ेगा। ***

28 समस्टर खन्ना को मजूरों की य

ड़ताल बबलकुल बेजा मालूम

मेशा जनता के साथ समले र ने की कोसशश की थी। व

ोती थी। उन् ोंने

अपने को जनता का

ी आदमी समझते थे। वपछले कौमी आंदोलन में उन् ोंने बड़ा जोश हदखाया था। श्ज़ले के प्रमुख नेता र े थे, दो बार जेल गये थे और कई उठाया था। अब भी व तो न ीं

ज़ार का नुक़सान

मजूरों की सशकायतें सुनने को तैयार र ते थे; लेककन य

ो सकता कक व

शक्कर समल के ह स्सेदारों के ह त का ववचार न करें ।

अपना स्वाथद त्यागने को व

तैयार

ो सकते थे , अगर उनकी ऊूँची मनोवश्ृ त्तयों

को स्पशद ककया जाता; लेककन ह स्सेदारों के स्वाथद की रक्षा न करना , य अिमद था। य

तो व्यापार

हदया जाय। ह स्सेदारों को य में पंद्र -बीस सैकड़े का लाभ

ै , कोई सदाव्रत न ीं कक सब कुछ मजूरों को

ी बाूँट

ववकवास हदलाकर रुपये सलये गये थे कक इस काम

ै । अगर उन् ें दस सैकड़े भी न समले , तो वे

डायरे क्टरों को और ववशेष कर समस्टर खन्ना को िोखेबाज़ अपना वेतन व

तो

ी तो समझेंगे। किर

कैसे कम कर सकते थे। और कंप नयों को दे खते उन् ोंने अपना

वेतन कम रखा था। केवल एक समल जाता था; मगर व

ज़ार रुपया म ीना लेते थे। कुछ कमीशन भी

इतना लेते थे, तो समल का संचालन भी करते थे।

मजूर केवल

ाथ से काम करते

मजरू ों को य

संतोष क्यों न ीं

से, प्रभाव से काम करता

ैं। डायरे क्टर अपनी बुवि से, ववद्या से, प्र तभा

ै । दोनों शश्क्तयों का मोल बराबर तो न ीं ोता कक मंदी का समय

बेकारी िैली र ने के कारण आदमी सस्ते

ो गये

ो सकता।

ै , और चारों तरफ़

ैं। उन् ें तो एक की जग

पौन भी समले, तो संतुष्ट र ना चाह ए था। और सच पूछो तो वे संतुष्ट उनका कोई क़सूर न ीं। वे तो मूख और समरज़ा खुशेदद



ैं, ब छया के ताऊ! शरारत तो ओंकारनाथ

ै । य ी लोग उन बेचारों को कठपुतली की तर

ैं, केवल थोड़े-से पैसे और यश के लोभ में पड़कर। य

हदल्लगी से ककतने घर तबा

नचा र े

न ीं सोचते कक उनकी

ो जायूँगे। ओंकारनाथ का पत्र न ीं चलता तो

बेचारे खन्ना क्या करें ! और आज उनके पत्र के एक लाख ग्रा क उससे उन् ें पाूँच लाख का लाभ

ैं।

ोने लगे , तो क्या व

केवल अपने गुज़ारे भर

को लेकर शेष कायदकतादओं में बाूँट दें गे? क ाूँ की बात! और व खश ु ेदद भी तो एक हदन लखप त थे।

ो जायूँ, और

त्यागी समरज़ा

ज़ारों मजरू उनके नौकर थे। तो क्या व

अपने गुज़ारे -भर को लेकर सब कुछ मजूरों को बाूँट दे ते थे। व

उसी गुज़ारे की

रक़म में युरोवपयन छोकररयों के साथ वव ार करते थे। बड़े-बड़े अफ़सरों के साथ

दावतें उड़ाते थे, ज़ारों रुपए म ीने की शराब पी जाते थे और

र-साल फ़्ांस

और स्वीटज़रलैंड की सैर करते थे। आज मजूरों की दशा पर उनका कलेजा िटता

ै ! इन दोनों नेताओं की तो खन्ना को परवा

सफ़ाई में पूरा संदे की

था। न रायसा ब की

ाूँ-में - ाूँ समलाया करते थे और उनके

करते थे। अपने पररधचतों में केवल एक

न थी। उनकी नयत की

ी उन् ें परवा

थी, जो

मेशा खन्ना

र-एक काम का समथदन कर हदया ी ऐसा व्यश्क्त था, श्जसके नष्पक्ष

ववचार पर खन्ना जी को पूरा भरोसा था और व

डाक्टर मे ता थे। जब से

उन् ोंने मालती से घ नष्ठता बढ़ानी शुरू की थी, खन्ना की नज़रों में उनकी

इज़्ज़त ब ु त कम ो गयी थी। मालती बरसों खन्ना की हृदयेकवरी र चुकी थी; पर उसे उन् ोंने सदै व णखलौना समझा था। इसमें संदे न ीं कक व णखलौना उन् ें ब ु त वप्रय था। उसके खो जाने, या टूट जाने, या छन जाने पर व ख़ब ू रोते, और व रोये थे, लेककन थी व णखलौना ी। उन् ें कभी मालती पर ववकवास न ु आ। व कभी उनके ऊपरी ववलास-आवरण को छे दकर उनके अंतःकरण तक न प ु ूँच सकी थी। व अगर ख़ुद खन्ना से वववा का प्रस्ताव करती, तो व स्वीकार न करते। कोई ब ाना करके टाल दे त।े अन्य ककतने

भाूँ त खन्ना का जीवन भी दो रा या दो-रुखी था। एक ओर व

ी प्राणणयों की

त्याग और जन-

सेवा और उपकार के भक्त थे, तो दस ू री ओर स्वाथद और ववलास और प्रभुता के। कौन उनका असली रुख़ था, य

क ना कहठन

ै । कदाधचत ण उनकी आत्मा का

उत्तम आिा सेवा और सहृदयता से बना ु आ था, मद्धिम आिा स्वाथद और ववलास से। पर उत्तम और मद्धिम में बराबर संघषद ोता र ता था। और मद्धिम

ी अपनी उद्दं डता और

ठ के कारण सौम्य और शांत उत्तम पर

ग़ासलब आता था। उनका मद्धिम मालती की ओर झुकता था, उत्तम मे ता की ओर; लेककन व

उत्तम अब मद्धिम के साथ एक

ो गया था। उनकी समझ में

न आता था कक मे ता-जैसा आदशदवादी व्यश्क्त मालती-जैसी चंचल, ववलाससनी रमणी पर कैसे आसक्त

ो गया। व

ब ु त प्रयास करने पर भी मे ता को वासनाओं का सशकार न श्स्थर कर सकते थे और कभी-कभी उन् ें य संदे भी ोने लगता था कक मालती का कोई दस ू रा रूप भी

ै , श्जसे व

न दे ख सके या

श्जसे दे खने की उनमें क्षमता न थी।

पक्ष और ववपक्ष के सभी प लओ ु ं पर ववचार करके उन् ोंने य ी नतीजा नकाला कक इस पररश्स्थ त में मे ता

ी से उन् ें प्रकाश समल सकता

ै । डाक्टर मे ता

को काम करने का नशा था। आिी रात को सोते थे और घड़ी रात र े उठ जाते

थे। कैसा भी काम ाकी खेलना

ो, उसके सलए व

क ीं-न-क ीं से समय नकाल लेते थे।

ो या यू नवससटी डडबेट, ग्राम्य संगठन

ो या ककसी शादी का

नैवेद्य, सभी कामों के सलए उनके पास लगन थी और समय था। व

पत्रों में

लेख भी सलखते थे और कई साल से एक ब ृ द् दशदन-ग्रंथ सलख र े थे, जो अब समाप्त

ोनेवाला था। इस वक़्त भी व

एक वैज्ञा नक खेल

ी खेल र े थे।

अपने बागीचे में बैठे ु ए पौिों पर ववद्यत ु -संचार-कक्रया की परीक्षा कर र े थे। उन् ोंने ाल में एक ववद्वान-पररषद् में य ससद्ि ककया था कक फ़सलें बबजली की ज़ोर से ब ु त थोड़े समय में पैदा की जा सकती ैं, उनकी पैदावार बढ़ायी जा सकती ै और बेफ़स्ल की चीज़ें भी उपजायी जा सकती ैं। आज-कल सबेरे के दो तीन घंटे व

इन् ीं परीक्षाओं में लगाया करते थे।

समस्टर खन्ना की कथा सुनकर उन् ोंने कठोर मुद्रा से उनकी ओर दे खकर क ा - क्या य

ज़रूरी था कक डयूटी लग जाने से मजूरों का वेतन घटा हदया जाय?

आपको सरकार से सशकायत करनी चाह ए थी। अगर सरकार ने न ीं सुना तो उसका दं ड मजरू ों को क्यों हदया जाय? क्या आपका ववचार इतनी मजूरी दी जाती

ै कक उसमें चौथाई कम कर दे ने से मजूरों को कष्ट न ीं

ोगा। आपके मजूर बबलों में र ते

समनट भी र

जायूँ, तो आपको क़ै

ैं -- गंदे, बदबूदार बबलों में -- ज ाूँ आप एक ो जाय। कपड़े जो प नते

अपने जूते भी न पोछें गे। खाना जो व

खाते

खायेगा। मैंने उनके जीवन में भाग सलया ह स्सेदारों का पेट भरना चा ते खन्ना ने अिीर ककतनों

ै कक मजरू ों को

ैं, व

ैं, उनसे आप

आपका कुत्ता भी न

ै । आप उनकी रोहटयाूँ छीनकर अपने

ैं ...

ोकर क ा -- लेककन

मारे सभी ह स्सेदार तो िनी न ीं

ी ने अपना सवदस्व इसी समल को भें ट कर हदया

ससवा उनके जीवन का कोई आिार न ीं

ैं।

ै और इसके नफ़े के

ै।

मे ता ने इस भाव से जवाब हदया, जैसे इस दलील का उनकी नज़रों में कोई मल् ू य न ीं न ीं

ै -- जो आदमी ककसी व्यापार में ह स्सा लेता

ोता कक इसके नफ़े

ी को जीवन का आिार समझे।

ै, व

इतना दररद्र

ो सकता

ै कक नफ़ा

कम समलने पर उसे अपना एक नौकर कम कर दे ना पड़े या उसके मक्खन और िलों का बबल कम खपाते

ैं, उनका

ो जाय; लेककन व

नंगा या भूखा न र े गा। जो अपनी जान

क़ उन लोगों से ज़्यादा

ै , जो केवल रुपया लगाते

ैं।

य ी बात पंडडत ओंकारनाथ ने क ी थी। समरज़ा खुशेद ने भी य ी सला य ाूँ तक कक गोववंदी ने भी मजूरों लोगों की परवा प्रभाववत

ी का पक्ष सलया था; पर खन्नाजी ने उन

न की थी, लेककन मे ता के मूँु

ो गये। ओंकारनाथ को व

दी थी।

से व ी बात सुनकर व

स्वाथी समझते थे, समरज़ा खश ु ेद को

ग़ैरश्ज़म्मेदार और गोववंदी को अयोग्य। मे ता की बात में चररत्र , अध्ययन और सद्भाव की शश्क्त थी। स सा मे ता ने पछ ू ा -- आपने अपनी दे वीजी से भी इस ववषय में राय ली? खन्ना ने सकुचाते ु ए क ा --

ाूँ, पूछा था।

'उनकी क्या राय थी?' 'व ी जो आप की ै ।' 'मुझे य ी आशा थी। और आप उस ववदष ु ी को अयोग्य समझते ैं।' उसी वक़्त मालती आ प ु ूँची और खन्ना को दे खकर बोली -- अच्छा, आप ववराज र े ैं? मैंने मे ताजी की आज दावत की ै । सभी चीज़ें अपने ाथ से पकायी ैं। आपको भी नेवता दे ती ू ूँ। गोववंदी दे वी से आपका य

अपराि क्षमा करा दूँ ग ू ी।

खन्ना को कुतू ल ु आ। अब मालती अपने ाथों से खाना पकाने लगी ै ? मालती, व ी मालती, जो ख़द ु कभी अपने जत ू े न प नती थी, जो ख़द ु कभी बबजली का बटन तक न दबाती थी, ववलास और ववनोद मुस्कराकर क ा -- अगर आपने पकाया

ी श्जसका जीवन था।

ै , तो ज़रूर खाऊूँगा। मैं तो कभी सोच

ी न सकता था कक आप पाक-कला में भी नपण ु

ैं।

मालती नःसंकोच भाव से बोली -- इन् ोंने मार-मारकर वैद्य बना हदया। इनका ु क्म कैसे टाल सकती। पुरुष दे वता ठ रे । खन्ना ने इस व्यंग का आनंद लेकर मे ता की ओर आूँखें मारते ु ए क ा -पुरुष तो आपके सलए इतने सम्मान की वस्तु न थी।

मालती झेंपी न ीं। इस संकोच का आशय समझकर जोश-भरे स्वर में बोली -लेककन अब

ो गयी ू ूँ ; इससलए कक मैंने पुरुष का जो रूप अपने पररधचतों की पररधि में दे खा था, उससे य क ीं सुंदर ै । पुरुष इतना सुन्दर, इतना कोमल हृदय ...।

मे ता ने मालती की ओर दीन-भाव से दे खा और बोले -- न ीं मालती, मुझ पर दया करो, न ीं मैं य ाूँ से भाग जाऊूँगा।

इन हदनों जो कोई मालती से समलता, व

उससे मे ता की तारीफ़ों के पुल बाूँि

दे ती, जैसे कोई नवदीक्षक्षत अपने नये ववकवासों का हढंढोरा पीटता किरे । सुरुधच का ध्यान भी उसे न र ता। और बेचारे मे ता हदल में कटकर र

जाते थे। व

कड़ी

और कड़वी आलोचना तो बड़े शौक़ से सन ु ते थे; लेककन अपनी तारीफ़ सन ु कर जैसे बेवक़ूफ़ बन जाते थे; मूँु गयी

ज़रा-सा नकल आता था, जैसे कोई फ़बती छा

ो। और मालती उन औरतों में न थी, जो भीतर र

सके। व

बा र

ी र

सकती थी, प ले भी और अब भी; व्यव ार में भी, ववचार में भी। मन में कुछ रखना व अिीर

न जानती थी। जैसे एक अच्छी साड़ी पाकर व

ो जाती थी, उसी तर

ककये बबना चैन न पाती थी।

उसे प नने के सलए

मन में कोई संद ु र भाव आये, तो व

मालती ने और समीप आकर उनकी पीठ पर

उसे प्रकट

ाथ रखकर मानो उनकी रक्षा

करते ु ए क ा -- अच्छा भागो न ीं, अब कुछ न क ू ूँगी। मालम ोता ै , तम् ू ु ें अपनी नंदा ज़्यादा पसंद ै । तो नंदा ी सन ु ो -- खन्नाजी, य म ाशय मझ ु पर अपने प्रेम का जाल ... शक्कर-समल की धचमनी य ाूँ से साफ़ नज़र आती थी। खन्ना ने उसकी तरफ़ दे खा। व

धचमनी खन्ना के की तदस्तंभ की भाूँ त आकाश

में ससर उठाये खड़ी थी। खन्ना की आूँखों में असभमान चमक उठा। इसी वक़्त उन् ें समल के दफ़्तर में जाना

ै । व ाूँ डायरे क्टरों की एक अजेंट मीहटंग करनी

ोगी और इस पररश्स्थ त को उन् ें समझाना करने का उपाय भी बतलाना र ा सशंक

ोगा और इस समस्या को

ोगा। मगर धचमनी के पास य



िुआूँ क ाूँ से उठ

ै । दे खते-दे खते सारा आकाश वैलन ू की भाूँ त िए ु ूँ से भर गया। सबों ने ोकर उिर दे खा। क ीं आग तो न ीं लग गयी ? आग

ी मालूम

ोती

ै।

स सा सामने सड़क पर खन्ना ने खड़े

ज़ारों आदमी समल की तरफ़ दौड़े जाते नज़र आये।

ोकर ज़ोर से पछ ू ा -- तम ु लोग क ाूँ दौड़े जा र े

ो?

एक आदमी ने रुककर क ा -- अजी, शक्कर-समल में आग लग गयी। आप दे ख न ीं र े

ैं ?

खन्ना ने मे ता की ओर दे खा और मे ता ने खन्ना की ओर। मालती दौड़ी ु ई बूँगले में गयी और अपने जूते प न आयी। अफ़सोस और सशकायत करने का अवसर न था। ककसी के मूँु अंतमख ु ी

ो जाती

से एक बात न नकली। ख़तरे में

ै । खन्ना की कार खड़ी थी

मारी चेतना

ुए आकर बैठे और समल की तरफ़ भागे। चौरस्ते पर प ु ूँच,े तो दे खा, सारा श र समल की ओर उमड़ा चला आ र ा आगे न बढ़ सकी।

ी। तीनों आदमी घबड़ाये

ै । आग में आदसमयों को खींचने का जाद ू ै । कार

मे ता ने पछ ू ा -- आग-बीमा तो करा सलया था न? खन्ना ने लम्बी साूँस खींचकर क ा -- क ाूँ भाई, अभी तो सलखा-पढ़ी थी। क्या जानता था, य

आफ़त आनेवाली

ो र ी

ै।

कार व ीं राम-आसरे छोड़ दी गयी और तीनों आदमी भीड़ चीरते ु ए समल के सामने जा प ु ूँच।े दे खा तो अश्ग्न का एक सागर आकाश में उमड़ र ा था।

अश्ग्न की उन्मत्त ल रें एक-पर-एक, दाूँत पीसती थीं, जीभ लपलपाती थीं जैसे आकाश को भी नगल जायूँगी, उस अश्ग्न-समद्र ु के नीचे ऐसा िआ ु ूँ छाया था, मानो सावन की घटा कासलख में न ाकर नीचे उतर आयी

ो। उसके ऊपर जैसे

आग का थरथराता ु आ, उबलता ु आ ह माचल खड़ा था। ाते में लाखों आदसमयों की भीड़ थी, पुसलस भी थी, फ़ायर बब्रगेड भी, सेवा-ससम तयों के सेवक भी; पर सब-के-सब आग की भीषणता से मानो सशधथल

ो गये

ों। फ़ायर बब्रगेड

के छींटे उस अश्ग्न-सागर में जाकर जैसे बझ ु जाते थे। ईंटें जल र ी थीं, लो े के गाडदर जल र े थे और वपघली

ु ई शक्कर के परनाले चारों तरफ़ ब और तो और, ज़मीन से भी ज्वाला नकल र ी थी।

र े थे।

दरू से मे ता और खन्ना को य तमाशा क्यों दे ख र े

आकचयद

ो र ा था कक इतने आदमी खड़े

ैं, आग बुझाने में मदद क्यों न ीं करते; मगर अब इन् ें भी

ज्ञात ु आ कक तमाशा दे खने के ससवा और कुछ करना अपने वश से बा र ै । समल की दीवारों से पचास गज के अन्दर जाना जान-जोणख़म था। ईट और पत्थर के टुकड़े चटाक-चटाक टूटकर उछल र े थे। कभी-कभी

वा का रुख़ इिर

ो जाता था, तो भगदड़ पड़ जाती थी।

ये तीनों आदमी भीड़ के पीछे खड़े थे। कुछ समझ में न आता था, क्या करें ।

आणख़र आग लगी कैसे! और इतनी जल्द िैल कैसे गयी? क्या प ले ककसी ने दे खा

ी न ीं? या दे खकर भी बझ ु ाने का प्रयास न ककया? इस तर

के मन में उठ र े थे; मगर व ाूँ पूछें ककससे, समल के कमदचारी लेककन उस भीड़ में उनका पता समलना कहठन था। स सा झोंका आया कक आग की लपटें नीची गया

के प्रकन सभी ोंगे तो ज़रूर;

वा का इतना तेज़

ोकर इिर लपकीं , जैसे समुद्र में ज्वार आ

ो। लोग ससर पर पाूँव रखकर भागे। एक दस ू रे पर धगरते, रे लते, जैसे कोई

शेर झपटा आता

ो। अश्ग्न-ज्वालाएूँ जैसे सजीव

ो गयी थीं, सचेष्ट भी, जैसे

कोई शेषनाग अपने सह्रस मुख से आग िुूँकार र ा इस रे ले में कुचल गये। खन्ना मूँु

ी आदमी तो

के बल धगर पड़े, मालती को मे ताजी दोनों

ाथों से पकड़े ु ए थे, न ीं ज़रूर कुचल गयी

तीनों आदमी

ो। ककतने

ोतीं?

ाते की दीवार के पास एक इमली के पेड़ के नीचे आकर रुके।

खन्ना एक प्रकार की चेतना-शून्य तन्मयता से समल की धचमनी की ओर टकटकी लगाये खड़े थे।

मे ता ने पूछा -- आपको ज़्यादा चोट तो न ीं आयी? खन्ना ने कोई जवाब न हदया। उसी तरफ़ ताकते र े । उनकी आूँखों में व शून्यता थी, जो ववक्षक्षप्तता का लक्षण मे ता ने उनका भय

ोता

ै।

ाथ पकड़कर किर पूछा --

म लोग य ाूँ व्यथद खड़े

ै आपको चोट ज़्यादा आ गयी। आइए, लौट चलें ।

खन्ना ने उनकी तरफ़ दे खा और जैसे सनककर बोले -- श्जनकी य उन् ें मैं ख़ूब जानता ू ूँ। अगर उन् ें इसी में संतोष समलता

ैं , मुझे

रकत

ै,

ै , तो भगवान ण उनका

भला करे । मझ ु े कुछ परवा न ीं, कुछ परवा न ीं। कुछ परवा न ीं! मैं आज चा ू ूँ , तो ऐसी नयी समल खड़ी कर सकता ू ूँ। जी ाूँ, बबलकुल नयी समल खड़ी कर

सकता ू ूँ। ये लोग मुझे क्या समझते ैं ? समल ने मुझे न ीं बनाया, मैंने समल को बनाया। और मैं किर बना सकता ू ूँ; मगर श्जनकी य रकत ै , उन् ें मैं ख़ाक में समला दूँ ग ू ा। मुझे सब मालम ू

ै , रत्ती-रत्ती मालूम

ै।

मे ता ने उनका चे रा और उनकी चेष्टा दे खी और घबराकर बोले -- चसलए, आपको घर प ु ूँचा दूँ ।ू आपकी तबीयत अच्छी न ीं

ै।

खन्ना ने क़ क़ ा मार कर क ा -- मेरी तबीयत अच्छी न ीं

ै ! इससलए कक

समल जल गयी। ऐसी समलें मैं चुटककयों में खोल सकता ू ूँ। मेरा नाम खन्ना ै , चंद्रप्रकाश खन्ना! मैंने अपना सब कुछ इस समल में लगा हदया। प ली समल में मने २० प्र तशत नफ़ा हदया। मैंने प्रोत्साह त

आिे रुपए मेरे

ोकर य

समल खोली। इसमें

ैं। मैंने बैंक के दो लाख इस समल में लगा हदये। मैं एक घंटा

न ीं, आि घंटा प ले, दस लाख का आदमी था। जी

ाूँ, दस लाख; मगर इस

वक़्त फ़ाकेमस्त ू ूँ -- न ीं हदवासलया ू ूँ! मुझे बैंक को दो लाख दे ना ै । श्जस मकान में र ता ू ूँ , व अब मेरा न ीं ै । श्जस बतदन में खाता ू ूँ, व भी अब मेरा न ीं ै । बैंक से मैं नकाल हदया जाऊूँगा। श्जस खन्ना को दे खकर लोग जलते थे, व न ीं

खन्ना अब िल ू में समल गया

ै , मेरे समत्र मुझे अपने ववकवास का पात्र न ीं, दया का पात्र समझेंगे। मेरे

शत्रु मुझसे जलें गे न ीं, मुझ पर अपने ससद्िांतों की ककतनी ली

ै । समाज में अब मेरा कोई स्थान

ूँसेंगे। आप न ीं जानते समस्टर मे ता, मैंने

त्या की

ै । ककतनी ररकवतें दी

ैं, ककतनी ररकवतें

ैं। ककसानों की ऊख तौलने के सलए कैसे आदमी रखे, कैसे नक़ली बाट रखे।

क्या कीश्जएगा, य

सब सन ु कर; लेककन खन्ना अपनी य

क्यों श्ज़न्दा र े । जो कुछ

ोना



ो, द ु नया श्जतना चा े

दद ु द शा कराने के सलए

ूँ से, समत्र लोग श्जतना

चा ें अफ़सोस करें , लोग श्जतनी गासलयाूँ दे ना चा ें दें । खन्ना अपनी आूँखों से दे खने और अपने कानों से सुनने के सलए जीता न र े गा। व ग़ैरत न ीं य

बे या न ीं, बे

ै!

क ते-क ते खन्ना दोनों

ाथों से ससर पीटकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे।

मे ता ने उन् ें छाती से लगाकर दणु खत स्वर में क ा -- खन्नाजी, ज़रा िीरज से काम लीश्जए। आप समझदार

ोकर हदल इतना छोटा करते

को जो सम्मान समलता

उसका सम्मान न ीं, उसकी दौलत का सम्मान

ै, व

आप निदन र कर भी श्स्त्रयों के ववकवास-पात्र र बश्ल्क तब कोई आपका शत्रु र े गा लेने से आपका धचत्त शांत

सकते

ैं। दौलत से आदमी ै।

ैं और शत्रुओं के भी;

ी न ीं। आइए, घर चलें । ज़रा आराम कर

ो जायगा।

ंं खन्ना ने कोई जवाब न हदया। तीनों आदमी चौरस्ते पर आये। कार खड़ी थी। दस समनट में खन्ना की कोठी पर प ु ूँच गये। खन्ना ने उतरकर शांत स्वर में क ा -- कार आप ले जायूँ। अब मुझे इसकी ज़रूरत न ीं

ै । मालती और मे ता भी उतर पड़े।

मालती ने क ा -- तुम चलकर आराम से लेटो, म बैठे गप-शप करें गे; घर जाने की तो ऐसी कोई जल्दी न ीं

ै।

खन्ना ने कृतज्ञता से उसकी ओर दे खा और करुण-कंठ से बोले -- मझ ु से जो

अपराि ु ए ैं, उन् ें क्षमा कर दे ना मालती! तुम और मे ता, बस तुम् ारे ससवा संसार में मेरा कोई न ीं ै । मुझे आशा ै तुम मुझे अपनी नज़रों से न धगराओगी। शायद दस-पाूँच हदन में य

कोठी भी छोड़नी पड़े। कक़स्मत ने कैसा

िोखा हदया। मे ता ने क ा -- मैं आपसे सच क ता ू ूँ खन्नाजी, आज मेरी नज़रों में आपकी जो इज़्ज़त ै व कभी न थी। तीनों आदमी कमरे में दाणख़ल ु ए। द्वार खुलने की आ ट पाते ी गोववंदी भीतर से आकर बोली -- क्या आप लोग व ीं से आ र े ैं? म ाराज तो बड़ी बुरी ख़बर लाया।

खन्ना के मन में ऐसा प्रबल, न रुकनेवाला, तूफ़ानी आवेश उठा कक गोववंदी के चरणों पर धगर पड़े, और उसे आूँसुओं से िो दें । भारी गले से बोले -म तबा

ो गये।

ाूँ वप्रये,

उनकी नजीव, नराश आ त आत्मा सांत्वना के सलए ववकल

ो र ी थी ; सच्ची

स्ने

में डूबी ु ई सांत्वना के सलए, उस रोगी की भाूँ त जो जीवन-सूत्र क्षीण जाने पर भी वैद्य के मुख की ओर आशा-भरी आूँखों से ताक र ा ो। व ी गोववंदी श्जस पर उन् ोंने श्जससे

मेशा ज़ल् ु म ककया, श्जसका



मेशा अपमान ककया,

मेशा बेवफ़ाई की, श्जसे सदै व जीवन का भार समझा, श्जसकी मत्ृ यु की

सदै व कामना करते र े , व ी इस समय जैसे अंचल में आशीवादद और मंगल और अभय सलये उन पर वार र ी थी, जैसे उन चरणों में ो, जैसे व

उनके अभागे मस्तक पर

ाथ रखकर

ी उनके जीवन का स्वगद ी उनकी प्राण ीन िम नयों

में किर रक्त का संचार कर दे गी। मन की इस दब द दशा में , इस घोर ववपश्त्त ु ल में , मानो व

उन् ें कंठ से लगा लेने के सलए खड़ी थी। नौका पर बैठे ु ए जलवव ार करते समय म श्जन चट्टानों को घातक समझते ैं , और चा ते ैं कक कोई इन् ें खोद कर िेंक दे ता, उन् ीं से, नौका टूट जाने पर, म धचमट जाते

ैं।

गोववंदी ने उन् ें एक सोफ़ा पर बैठा हदया और स्ने -कोमल स्वर में बोली -- तो तुम इतना हदल छोटा क्यों करते िन से

ो? िन के सलए, जो सारे पाप की जड़

ै ? उस

में क्या सुख था? सबेरे से आिी रात तक एक-न-एक झंझट -- आत्मा

का सवदनाश! लड़के तुमसे बात करने को तरस जाते थे, तुम् ें संबंधियों को पत्र सलखने तक की फ़ुरसत न समलती थी। क्या बड़ी इज़्ज़त थी ? ाूँ, थी; क्योंकक द ु नया आज तक िन की पूजा करती चली आयी न ीं। जब तक तुम् ारे पास लक्ष्मी

ै । उसे तुमसे कोई प्रयोजन

ै , तुम् ारे सामने पूँछ ू ह लायेगी। कल उतनी

ी भश्क्त से दस ू रों के द्वार पर ससजदे करे गी। तुम् ारी तरफ़ ताकेगी भी न ीं।

सत्पुरुष िन के आगे ससर न ीं झुकाते। व सच्चाई

ै , न्याय

ै , त्याग

ै , परु ु षाथद

समाज का लुटेरा समझकर मूँु

ग़लत तो न ीं क ती मे ताजी?

दे खते

ैं , तुम क्या

ो; अगर तुममें

ै , तो वे तम् ु ारी पज ू ा करें गे। न ीं तम् ु ें

िेर लें गे; बश्ल्क तुम् ारे दकु मन

ो जायूँगे! मैं

मे ता ने मानो स्वगद-स्वप्न से चौंककर क ा -- ग़लत? आप व ी क

र ी

संसार के म ान ण पुरुषों ने जीवन का साश्त्वक अनुभव करने के बाद क ा जीवन का सच्चा आिार य ी

ै।

ैं , जो ै।

गोववंदी ने मे ता को संबोधित करके क ा -- िनी कौन

ोता

ै , इसका कोई

ववचार न ीं करता। व ी जो अपने कौशल से दस ू रों को बेवक़ूफ़ बना सकता



...।

खन्ना ने बात काटकर क ा -- न ीं गोववंदी, िन कमाने के सलए अपने में संस्कार चाह ए। केवल कौशल से िन न ीं समलता। इसके सलए भी त्याग और तपस्या करनी पड़ती

ै । शायद इतनी सािना में ईकवर भी समल जाय।

मारी

सारी आश्त्मक और बौद्धिक और शारीररक शश्क्तयों के सामंजस्य का नाम िन ै। गोववंदी ने ववपक्षी न बनकर मध्यस्थ भाव से क ा -- मैं मानती ू ूँ कक िन के सलए थोड़ी तपस्या न ीं करनी पड़ती; लेककन किर भी मने उसे जीवन में श्जतने म त्व की वस्तु समझ रखा

ै । मैं तो ख़ुश ू ूँ कक बोझ टला। अब तम् ु ारे लड़के आदमी ोंगे, स्वाथद और

तम् ु ारे ससर से य

ै , उतना म त्व उसमें न ीं

असभमान के पुतले न ीं। जीवन का सुख दस ू रों को सुखी करने में

ै , उनको

लूटने में न ीं। बुरा न मानना, अब तक तुम् ारे जीवन का अथद था आत्मसेवा, भोग और ववलास। दै व ने तुम् ें उस सािन से वंधचत करके तुम् ें ज़्यादा ऊूँचे और पववत्र जीवन का रास्ता खोल हदया कुछ कष्ट भी

ै। य

ससद् धि प्राप्त करने में अगर

ो, तो उसका स्वागत करो। तम ु इसे ववपश्त्त समझते

ो? क्यों न ीं समझते, तुम् ें अन्याय से लड़ने का य

ववचार में तो पीड़क

ोने से पीडड़त

अपनी आत्मा को पा सकें, तो य

ोना क ीं श्रेष्ठ

अवसर समला

ै । मेरे

ै । िन खोकर अगर

कोई म ूँगा सौदा न ीं

बनकर लड़ने में जो गौरव, जो उल्लास

ी क्यों म

ै । न्याय के सै नक

ै , क्या उसे इतनी जल्द भूल गये?

गोववंदी के पीले, सूखे मुख पर तेज की ऐसी चमक थी, मानो उसमें कोई ववलक्षण शश्क्त आ गयी

ो, मानो उसकी सारी मूक सािना प्रगल्भ

ो उठी

ो। मे ता

उसकी ओर भश्क्त-पूणद नेत्रों से ताक र े थे, खन्ना ससर झुकाये इसे दै वी प्रेरणा समझने की चेष्टा कर र े थे और मालती मन में लश्ज्जत थी। गोववंदी के

ववचार इतने ऊूँचे, उसका हृदय इतना ववशाल और उसका जीवन इतना उज्ज्वल ै! ***

29 नो री उन औरतों में न थी, जो नेकी करके दररया में डाल दे ती की

ै , तो उसका ख़ूब हढंढोरा पीटे गी और उससे श्जतना यश समल सकता

उससे कुछ ज़्यादा

ी पाने के सलए

बदले अपयश और बदनामी न ीं। अपनी इच्छा न ीं क

सकता। मगर जब

श्जसके साथ

ी समलती

ै । नेकी न करना बदनामी की बात

ै , या सामथ्यद न ीं

ै । इसके सलए कोई

में बुरा न ीं

म नेकी करके उसका ए सान जताने लगते ो जाता

ै , और

ैं , तो व ी

मारे ए सान को

ै । व ी नेकी अगर करनेवालों के हदल में र े , तो नेकी

बा र नकल आये तो बदी

मारे घमंड के िरती पर पाूँव

ी न ीं रखती। बेचारा

राूँड़ तो

ोरी धचन्ता से घुला जाता

था। मैंने सोचा, इस संकट में इसकी कुछ मदद कर दूँ ।ू आणख़र आदमी तुम् ारे नातेदार

ै । और

ोरी

के सलए ज़मीन रे न रख र ा था। मैंने उनकी

दशा दे खी, तो मुझे दया आयी। ि नया से तो जी जलता था, व

आदमी के काम आता

ै,

ै । नो री चारों ओर क ती किरती थी -- बेचारा

बड़ी मुसीबत में था, बेटी के ब्या



ै,

ाथ-पाूँव मारे गी। ऐसे आदमी को यश के

मने नेकी की थी, मारा शत्रु

समटा दे ना चा ता



ै । उसने नेकी

ोरी तो अब कोई ग़ैर न ीं

ी तो

ै , मानो चा े मानो,

ो चुके। रुपए नकाल कर दे हदये; न ीं, लड़की अब तक बैठी

ोती। ि नया भला य

ज़ीट कब सुनने लगी थी। रुपए ख़ैरात हदये थे? बड़ी

दे नेवाली! सूद म ाजन भी लेगा, तुम भी लोगी। ए सान का े का! दस ू रों को दे ती, सद ू की जग

मल ू भी ग़ायब

नाक पर रख दें गे। मूँु

ो जाता; मने सलया

ै , तो

ाथ में रुपए आते



मीं थे कक तुम् ारे घर का बबस उठाके पी गये, और कभी

पर न ीं लाये। कोई य ाूँ द्वार पर न ीं खड़ा

मरजाद बना हदया, तुम् ारे मूँु

ोने दे ता था।

की लाली रख ली।

मने तुम् ारा

रात के दस बजे गये थे। सावन की अूँिेरी घटा छायी थी। सारे गाूँव में अंिकार था। खड़ा

ोरी ने भोजन करके तमाखू वपया और सोने जा र ा था कक भोला आकर ो गया।

ोरी ने पूछा -- कैसे चले भोला म तो! जब इसी गाूँव में र ना

ै , तो क्यों

ैं, क्या य

ो गया

अलग छोटा-सा घर न ीं बना लेत? े गाूँव में लोग कैसी-कैसी कुत्सा उड़ाया करते तुम् ें अच्छा लगता

ै ? बुरा न मानना, तुमसे संबि ं

इससलए तुम् ारी बदनामी न ीं सुनी जाती, न ीं मुझे क्या करना था।

ै,

ि नया उसी समय लोटे में पानी लेकर सन ु कर बोली -- दस ू रा मदद

ोरी के ससर ाने रखने आयी।

ोता, तो ऐसी औरत का ससर काट लेता।

ोरी ने डाूँटा -- क्यों बे-बात की बात करती ी कुरा

ै । पानी रख दे और जा। आज तू

चलने लगे, तो मैं तेरा ससर काट लूँ ग ू ा? काटने दे गी?

ि नया उसे पानी का एक छींटा मारकर बोली -- कुरा क्यों कुरा

चले तुम् ारी ब न, मैं

चलने लगी। मैं तो द ु नया की बात क ती ू ूँ , तुम मुझे गासलयाूँ दे ने लगे। अब मूँु मीठा ो गया ोगा। औरत चा े श्जस रास्ते जाय, मदद टुकुर-टुकुर दे खता र े । ऐसे मदद को मैं मदद न ीं क ती।

ोरी हदल में कटा जाता था। भोला उससे अपना दख ु -ददद क ने आया

ोगा। व

उलटे उसी पर टूट पड़ी। ज़रा गमद

ोकर बोला -- तू जो सारे हदन अपने

ी मन की ककया करती

मैं तेरा क्या बबगाड़ लेता ू ूँ। कुछ क ता ू ूँ तो काटने दौड़ती

ै , तो

ै । य ी सोच।

ि नया ने लल्लो-चप्पो करना न सीखा था, बोली -- औरत घी का घड़ा लढ़ ु का दे , घर में आग लगा दे , मदद स स े गा।

लेगा; लेककन उसका कुरा

चलना कोई मदद न

भोला दणु खत स्वर में बोला -- तू ब ु त ठीक क ती ै ि नया! बेसक मझ ु े उसका ससर काट लेना चाह ए था, लेककन अब उतना पौरुख तो न ीं र ा। तू चलकर समझा दे , मैं सब कुछ करके

ार गया। जब औरत को बस में रखने का बूता न

था, तो सगाई क्यों की थी? इसी छीछालेदर के सलए? क्या सोचते थे, व

आकर

तुम् ारे पाूँव दबायेगी, तुम् ें धचलम भर-भर वपलायेगी और जब तुम बीमार पड़ोगे तो तम् ु ारी सेवा करे गी? तो ऐसी व ी औरत कर सकती जवानी का सुख उठाया

ै , श्जसने तम् ु ारे साथ

ो। मेरी समझ में य ी न ीं आता कक तुम उसे दे खकर

लट्टू कैसे ो गये। कुछ दे ख-भाल तो कर सलया ोता कक ककस स्वभाव की ै , ककस रं ग-ढं ग की ै । तम ु तो भूखे ससयार की तर टूट पड़े। अब तो तुम् ारा

िरम य ी

ै कक गूँड़ासे से उसका ससर काट लो। िाूँसी

ी तो पाओगे। िाूँसी

इस छीछालेदर से अच्छी। भोला के ख़ून में कुछ स्िू तद आयी। बोला -- तो तुम् ारी य ी सला ि नया बोली -लेना इतनी

ाूँ, मेरी सला

ै?

ै । अब सौ पचास बरस तो जीओगे न ीं। समझ

ी उसमर थी।

ोरी ने अब की ज़ोर से िटकारा -- चुप र , बड़ी आयी

ै व ाूँ से सतवंती

बनके। ज़बरदस्ती धचडड़या तक तो वपंजड़े में र ती न ीं , आदमी क्या र े गा। तुम उसे छोड़ दो भोला और समझ लो, मर गयी और जाकर अपने बाल-बच्चों में

आराम से र ो। दो रोटी खाओ और राम का नाम लो। जवानी के सुख अब गये। व

औरत चंचल

पाओगे।

ै , बदनामी और जलन के ससवा तम ु उससे कोई सख ु न

भोला नो री को छोड़ दे , असम्भव! नो री इस समय भी उसकी ओर रोष-भरी आूँखों से तरे रती ु ई जान पड़ती थी; लेककन न ीं, भोला अब उसे छोड़ जैसा कर र ी ै , उसका िल भोगे। आूँखों में आूँसू आ गये। बोला --

ोरी भैया, इस औरत के पीछे मेरी श्जतनी साूँसत

ो र ी

ी दे गा।

ै , मैं



जानता ू ूँ। इसी के पीछे कामता से मेरी लड़ाई ु ई। बुढ़ापे में य दाग़ भी लगना था, व लग गया। मझ ु े रोज़ ताना दे ती ै कक तम् ु ारी तो लड़की नकल गयी। मेरी लड़की नकल गयी, चा े भाग गयी; लेककन अपने आदमी के साथ पड़ी तो

ै , उसके सुख-दख ु की साधथन तो

दे खी। दस ू रों के साथ तो

ूँसती

ै । उसकी तर

तो मैंने औरत

ै , मुझे दे खा तो कुप्पे-सा मूँु

ी न ीं

िुला सलया। मैं

ग़रीब आदमी ठ रा, तीन-चार आने रोज़ की मजूरी करता ू ूँ। दि ू -द ी, मांसमछली, रबड़ी-मलाई क ाूँ से लाऊूँ!

भोला य ाूँ से प्र तज्ञा करके अपने घर गये। अब बेटों के साथ र ें गे , ब ु त िक्के खा चुके; लेककन दस ू रे हदन प्रातःकाल ोरी ने दे खा, तो भोला दल ु ारी स आईन की दक ु ान से तमाखू सलए चले जा र े थे।

ोरी ने पुकारना उधचत न समझा। आसश्क्त में आदमी अपने बस में न ीं र ता।

व ाूँ से आकर ि नया से बोला -- भोला तो अभी व ीं पर कोई जाद ू कर हदया

ै।

ि नया ने नाक ससकोड़कर क ा -- जैसी बे या व

ै । नो री ने सचमुच इन

ै , वैसा

मदद को तो चुल्ल-ू भर पानी में डूब मरना चाह ए। अब व

ी बे या य

ै । ऐसे

सेखी न जाने क ाूँ

गयी। झु नया य ाूँ आयी, तो उसके पीछे डंडा सलए किर र े थे। इज़्ज़त बबगड़ी जाती थी। अब इज़्ज़त न ीं बबगड़ती!

ोरी को भोला पर दया आ र ी थी। बेचारा इस कुलटा के िेर में पड़कर अपनी

श्ज़ंदगी बरबाद ककये डालता छोड़कर जाना क्या स ज

ै । छोड़कर जाय भी , तो कैसे? स्त्री को इस तर

ै? य

चुड़ल ै उसे व ाूँ भी तो चैन से न बैठने दे गी!

क ीं पंचायत करे गी, क ीं रोटी-कपड़े का दावा करे गी। अभी तो गाूँव जानते

ैं। ककसी को कुछ क ते संकोच

ैं। तब तो द ु नया भी भोला

ोता

ै । कनिुसककयाूँ करके

ो, तो मदद के मूँु

के भोला की चाूँद गंजी कर दी।

तो नीलाम

जाते

ो, तो औरत की गदद न

में कासलख लगा दे गी।

इसके दो म ीने बाद एक हदन गाूँव में य

वषाद समाप्त

ी र

ी को बुरा क े गी। लोग य ी तो क ें गे, कक जब

मदद ने छोड़ हदया, तो बेचारी अबला क्या करे ? मदद बुरा काट लेगा। औरत बुरी

ी के लोग

ख़बर िैली कक नो री ने मारे जूतों

ो गयी थी और रबी बोने की तैयाररयाूँ

ो र ी थीं।

ोरी की ऊख

ो गयी थी। ऊख के बीज के सलए उसे रुपए न समले और ऊख न

बोई गयी। उिर दाह ना बैल भी बैठाऊूँ

ो गया था और एक नये बैल के बबना

काम न चल सकता था। पु नया का एक बैल नाले में धगरकर मर गया था, तब से और भी अड़चन पड़ गयी थी। एक हदन पु नया के खेत में जुताई जैसी

ल जाता, एक हदन

ोनी चाह ए, वैसी न

ोरी के खेत में । खेतों की

ो पाती थी।

ोरी

ल लेकर खेत में गया; मगर भोला की धचंता बनी ु ई थी। उसने अपने जीवन में कभी य न सुना था कक ककसी स्त्री ने अपने प त को जूते से मारा

ो। जूतों से क्या थप्पड़ या घूूँसे से मारने की भी कोई घटना उसे याद न आती

थी; और आज नो री ने भोला को जत ू ों से पीटा और सब लोग तमाशा दे खते

र े । इस औरत से कैसे उस अभागे का गला छूटे ! अब तो भोला को क ीं डूब मरना चाह ए। जब श्ज़ंदगी में बदनामी और दद ु द सा के ससवा और कुछ न आदमी का मर जाना

ी अच्छा। कौन भोला के नाम को रोनेवाला बैठा



ो, तो

ै । बेटे

चा े कक्रया-करम कर दें ; लेककन लोकलाज के बस, आूँसू ककसी की आूँख में न आयेगा। तरसना के बस में पड़कर आदमी इस तर ै । जब कोई रोनेवाला डरना! एक य

नो री

अपनी श्ज़ंदगी चौपट करता

ी न ीं, तो किर श्ज़ंदगी का क्या मो ै और एक य

चमाररन

और मरने से क्या

ै सससलया! दे खने -सुनने में

उससे लाख दरजे अच्छी। चा े तो दो को णखलाकर खाये और राधिका बनी घूमे; लेककन मजूरी करती

ै , भूखों मरती

ै और मतई के नाम पर बैठी

नदद यी बात भी न ीं पछ ू ता। कौन जाने, ि नया मर गयी

भी य ी दसा

ोती। उसकी मौत की कल्पना

ी से

ोती, तो आज

ोरी को रोमांच

ि नया की मू तद मानससक नेत्रों के सामने आकर खड़ी

ै , और व

ोरी की

ो उठा।

ो गयी -- सेवा और

त्याग की दे वी; ज़बान की तेज़, पर मोम जैसा हृदय; पैसे-पैसे के पीछे प्राण दे नेवाली, पर मयाददा-रक्षा के सलए अपना सवदस्व में व

ोम कर दे ने को तैयार। जवानी

कम रूपवती न थी। नो री उसके सामने क्या

लगती थी। जो दे खता था, दे खता

ी र

जाता था। य

जवान थे। दोनों ि नया को दे खकर छाती पर चक्कर लगाते थे।

ै । चलती थी , तो रानी-सी पटे कवरी और णझंगुरी तब

ाथ रख लेते थे। द्वार के सौ-सौ

ोरी उनकी ताक में र ता था; मगर छे ड़ने का कोई ब ाना न

पाता था। उन हदनों घर में खाने-पीने की बड़ी तंगी थी। पाला पड़ गया था और खेतों में भस ू ा तक न ु आ था। लोग झड़बेररयाूँ खा-खाकर हदन काटते थे। ोरी को क़ त के कैंप में काम करने जाना पड़ता था। छः पैसे रोज़ समलते थे। ि नया घर में अकेली

ी र ती थी; लेककन कभी ककसी ने उसे ककसी छै ला की

ओर ताकते न ीं दे खा। पटे कवरी ने एक बार कुछ छे ड़ की थी। उसका ऐसा मूँु तोड़ जवाब हदया कक अब तक न ीं भूले।

स सा उसने मातादीन को अपनी ओर आते दे खा। क़साई क ीं का , कैसा तलक लगाये

ु ए ै , मानो भगवान ण का असली भगत को पालागन कौन करे ।

ै । रूँ गा ु आ ससयार! ऐसे बाह्मन

मातादीन ने समीप आकर क ा -- तुम् ारा दाह ना तो बूढ़ा ससंचाई में न ठ रे गा। कोई पाूँच साल ु ए

ोंगे इसे लाये?

ो गया

ोरी, अबकी

ोरी ने दायें बैल की पीठ पर र ा

ै भाई! जी तो चा ता

बैलन को जमराज कचोटता

ाथ रखकर क ा -- कैसा पाूँचवाूँ, य

आठवाूँ चल

ै , इसे वपंससन दे दूँ ;ू लेककन ककसान और ककसान के

ी वपंससन दें , तो समले। इसकी गदद न पर जुआ रखते मेरा मन

ै । बेचारा सोचता

ोगा, अब भी छुट्टी न ीं, अब क्या मेरा

ाड़ जोतेगा

क्या? लेककन अपना कोई क़ाबू न ीं। तुम कैसे चले? अब तो जी अच्छा

ै?

मातादीन इिर एक म ीने से मलेररया ज्वर में पड़ा र ा था। एक हदन तो उसकी नाड़ी छूट गयी थी। चारपाई से नीचे उतार हदया गया था। तब से उसके मन में य

प्रेरणा ु ई थी कक सससलया के साथ अत्याचार करने का उसे य दं ड समला ै । जब उसने सससलया को घर से नकाला, तब व गभदवती थी। उसे त नक भी

दया न आयी। पूरा गभद लेकर भी व दया न की

ोती तो मर गयी

मजूरी करती र ी। अगर ि नया ने उस

ोती। कैसी-कैसी मुसीबतें झेलकर जी र ी

मजरू ी भी तो इस दशा में न ीं कर सकती। अब लश्ज्जत और द्रववत सससलया को तो व

ोरी के

स्ते दो रुपए दे ने आया

ै ; अगर

ोरी उसे व

ै।

ोकर व

रुपए दे दे ,

उसका ब ु त उपकार मानेगा।

ोरी ने क ा -- तम् े ु ीं जाकर क्यों न ीं दे दे त? मातादीन ने दीन-भाव से क ा -- मुझे उसके पास मत भेजो सा मूँु

लेकर जाऊूँ? डर भी लग र ा

ोरी म तो! कौन-

ै कक मुझे दे खकर क ीं िटकार न सुनाने

लगे। तम ु मझ ु पर इतनी दया करो। अभी मझ ु से चला न ीं जाता; लेककन इसी रुपए के सलए एक जजमान के पास कोस-भर दौड़ा गया था। अपनी करनी का िल ब ु त भोग चुका। इस बम् नई का बोझ अब न ीं उठाये उठता। लुकछपकर चा े श्जतना कुकमद करो, कोई न ीं बोलता। परतच्छ कुछ न ीं कर

सकते, न ीं कुल में कलंक लग जायगा। तुम उसे समझा दे ना, दादा, कक मेरा अपराि क्षमा कर दे । य

िरम का बंिन बड़ा कड़ा

जन्मे और पले, उसकी मयाददा का पालन तो करना जा त का िरम बबगड़ जाय, उसे कोई बबसेस बबगड़ जाय, तो व ै । उसी की व

ोता

ी पड़ता

ा न न ीं

क ीं का न ीं र ता। उसका िरम

रोटी खाता

गये। तो जब बेिरम

ोकर

ै । इस परासधचत के पीछे ी र ना

ै । श्जस समाज में ै । और ककसी

ोती ; बाम् न का िरम ी उसके पूवज द ों की कमाई मारे तीन सौ बबगड़

ै , तो किर जो कुछ करना

ै परतच्छ

करूूँगा। समाज के नाते आदमी का अगर कुछ िरम तो उसका कुछ िरम

ै । समाज-िरम पालने से समाज आदर करता

मनुष्य-िरम पालने से तो ईकवर प्रसन्न संध्या-समय जब

ै , तो मनष्ु य के नाते भी

ोता

ै।

ोरी ने सससलया को डरते-डरते रुपए हदये , तो व

तपस्या का वरदान पा गयी। दःु ख का भार तो व का भार तो अकेले न ीं उठता। ककसे य

ै ; मगर

जैसे अपनी

अकेली उठा सकती थी। सुख

ख़ुशख़बरी सुनाये ? ि नया से व

अपने

हदल की बातें न ीं कर सकती। गाूँव में और कोई प्राणी न ीं , श्जससे उसकी घ नष्ठता

ो। उसके पेट में चू े दौड़ र े थे। सोना

सससलया उससे समलने के सलए आतरु एक आूँिी-सी उठ र ी थी। अब व

ी उसकी स े ली थी।

ो गयी। रात-भर कैसे सब्र करे ? मन में

अनाथ न ीं

ै । मातादीन ने उसकी बाूँ

किर पकड़ ली। जीवन-पथ में उसके सामने अब अूँिेरी, ववकराल मुखवाली खाई न ीं

ै ; ल ल ाता ु आ रा-भरा मैदान ै , श्जसमें झरने गा र े ैं और ह रन कुलेलें कर र े ैं। उसका रूठा ु आ स्ने आज उन्मत्त ो गया ै । मातादीन को उसने मन में ककतना पानी पी-पीकर कोसा था। अब व उनसे क्षमादान

माूँगेगी। उससे सचमुच बड़ी भूल ु ई कक उसने उसको सारे गाूँव के सामने अपमा नत ककया। व तो चमाररन ै , जात की े ठी, उसका क्या बबगड़ा? आज दस-बीस लगाकर बबरादरी को रोटी दे दे , किर बबरादरी में ले ली जायगी। उन बेचारे का तो सदा के सलए िरम नास समल सकता। व

ो गया। व

क्रोि में ककतनी अंिी

ो गयी थी कक सबसे उनके प्रेम का

हढूँ ढोरा पीटती किरी। उनका तो िरम सभरष्ट उसके ससर पर क्यों भूत सवार बुराई

ो गया? व

ो गया था, उन् ें तो क्रोि था अपने

ी,

ी घर चली जाती, तो कौन

ो जाती। घर में उसे कोई बाूँि तो न लेता। दे श मातादीन की पूजा

इसीसलए तो करता व

मरज़ाद अब उन् ें किर न ीं

ै कक व

नेम-िरम से र ते

क्यों न उसके ख़न ू के प्यासे

ैं। व ी िरम नष्ट

ो गया, तो

ो जाते? ज़रा दे र प ले तक उसकी नज़र में

सारा दोष मातादीन का था। और अब सारा दोष अपना था। सहृदयता ने सहृदयता पैदा की। उसने बच्चे को छाती से लगाकर ख़ूब प्यार ककया। अब उसे दे खकर लज्जा और ग्ला न न ीं व

अब उसके संपूणद मात ृ स्ने

ोती। व

अब केवल उसकी दया का पात्र न ीं।

और गवद का अधिकारी

चाूँदनी प्रकृ त पर मिरु संगीत की भाूँ त छाई ु ई थी।

ै । का तदक की रुप ली

सससलया घर से नकली। व

सोना के पास जाकर य

सख ु -संवाद सन ु ायेगी। अब

उससे न ीं र ा जाता। अभी तो साूँझ ु ई ै । डोंगी समल जायगी। व क़दम बढ़ाती ु ई चली। नदी पर आकर दे खा, तो डोंगी उस पार थी। और माूँझी का क ीं पता न ीं। चाूँद घुलकर जैसे नदी में ब ा जा र ा था। व

एक क्षण खड़ी

सोचती र ी। किर नदी में घुस पड़ी। नदी में कुछ ऐसा ज़्यादा पानी तो क्या ोगा। उस उल्लास के सागर के सामने व

नदी क्या चीज़ थी? पानी प ले तो

घुटनों तक था, किर कमर तक आया और अंत में गदद न तक प ु ूँच गया। सससलया डरी, क ीं डूब न जाय। क ीं कोई गढ़ा न पड़ जाय, पर उसने जान पर खेलकर पाूँव आगे बढ़ाया। अब व ै , मगर व

घबड़ाई न ीं

ककतनी बार तैर चक ु ी

मझिार में

ै । मौत उसके सामने नाच र ी

ै । उसे तैरना आता

ै । लड़कपन में इसी नदी में व

ै । खड़े-खड़े नदी को पार भी कर चक ु ी

कलेजा िक-िक कर र ा

ै ; मगर पानी कम

ै । किर भी उसका

ोने लगा। अब कोई भय न ीं।

उसने जल्दी-जल्दी नदी पार की और ककनारे प ु ूँच कर अपने कपड़े का पानी नचोड़ा और शीत से काूँपती आगे बढ़ी। चारों ओर सन्नाटा था। गीदड़ों की आवाज़ भी न सुनायी पड़ती थी; और सोना से समलने की मिुर कल्पना उसे

लड़ाये सलये जाती थी। मगर उस गाूँव में प ु ूँचकर उसे सोना के घर जाते ु ए संकोच ोने लगा। मथुरा क्या क े गा? उसके घरवाले क्या क ें गे? सोना भी बबगड़ेगी कक इतनी रात गये तू क्यों आयी।

दे ातों में हदन-भर के थके-माूँदे ककसान सरे शाम

ी से सो जाते

ैं। सारे गाूँव में

सोता पड़ गया था। मथुरा के घर के द्वार बंद थे। सससलया ककवाड़ न खुलवा

सकी। लोग उसे इस भेस में दे खकर क्या क ें गे ? व ीं द्वार पर अलाव में अभी आग चमक र ी थी। सससलया अपने कपड़े सेंकने लगी। स सा ककवाड़ खुला और मथुरा ने बा र नकलकर पुकारा -- अरे ! कौन बैठा



अलाव के पास?

सससलया ने जल्दी से अंचल ससर पर खींच सलया और समीप आकर बोली -- मैं ू ूँ , सससलया।

'सससलया! इतनी रात गये कैसे आयी। व ाूँ तो सब कुशल ै?'

' ाूँ, सब कुशल ै । जी घबड़ा र ा था। सोचा, चलूँ ,ू सबसे भें ट करती आऊूँ। हदन को तो छुट्टी

ी न ीं समलती।'

'तो क्या नदी थ ाकर आयी ै ?' 'और कैसे आती। पानी कम न था।' मथरु ा उसे अंदर ले गया। बरोठे में अूँिेरा था। उसने सससलया का

ाथ पकड़कर

अपनी ओर खींचा।

सससलया ने झटके से मैं सोना से क

ाथ छुड़ा सलया और रोष से बोली -- दे खो मथुरा, छे ड़ोगे तो

दूँ ग ू ी। तम ु मेरे छोटे ब नोई

ो, य

सोना से मन न ीं पटता। मथुरा ने उसकी कमर में बखत कौन दे खता

ै।

समझ लो! मालम ू

ाथ डालकर क ा -- तुम ब ु त नठुर

ोता

ै,

ो ससल्लो? इस

'क्या इससलए सोना से सुंदर ू ूँ। अपने भाग न ीं बखानते ो कक ऐसी इंदर की परी पा गये। अब भौंरा बनने का मन चला

ै । उससे क

दे खे।'

दूँ ू तो तुम् ारा मूँु



मथुरा लंपट न ीं था। सोना से उसे प्रेम भी था। इस वक़्त अूँिेरा और एकांत और सससलया का यौवन दे खकर उसका मन चंचल

ो उठा था। य

तंबी

पाकर

ोश में आ गया। सससलया को छोड़ता ु आ बोला -- तुम् ारे पैरों पड़ता ू ूँ ससल्लो, उससे न क ना। अभी जो सज़ा चा ो, दे लो। ससल्लो को उस पर दया आ गयी। िीरे से उसके मूँु

पर चपत जमाकर बोली -- इसकी सज़ा य ी

ै कक किर

मुझसे सरारत न करना, न और ककसी से करना, न ीं सोना तुम् ारे नकल जायगी।

ाथ से

'मैं क़सम खाता ू ूँ ससल्लो, अब कभी ऐसा न ोगा।' उसकी आवाज़ में याचना थी। ससल्लो का मन आंदोसलत

ोने लगा। उसकी दया सरस

ोने लगी।

'और जो करो?' 'तो तुम जो चा ना करना।' ससल्लो का मूँु और दे

उसके मूँु

में कंपन

के पास आ गया था, और दोनों की साूँस और आवाज़

ो र ा था।

स सा सोना ने पुकारा -- ककससे बातें करते ससल्लो पीछे

ो व ाूँ?

ट गयी। मथुरा आगे बढ़कर आूँगन में आ गया और बोला --

ससल्लो तुम् ारे गाूँव से आयी

ै।

ससल्लो भी पीछे -पीछे आकर आूँगन में खड़ी

ो गयी। उसने दे खा, सोना य ाूँ

ककतने आराम से र ती

ै । उस पर सुजनी का नमद बबस्तर

ै । ओसारी में खाट

बबछा ु आ ै ; बबलकुल वैसा ी, जैसा मातादीन की चारपाई पर बबछा र ता था। तककया भी ै , सल ाफ़ भी ै । खाट के नीचे लोटे में पानी रखा ु आ ै । आूँगन में ज्योत्स्ना ने आईना-सा बबछा रखा ै । एक कोने में तुलसी का चबूतरा ै , दस ू री ओर जआ ु र के ठे ठों के कई बोझ दीवार से लगाकर रखे गड्ढे

ैं। समीप

ी ओखल

ैं। बीच में पआ ु लों के

ै , श्जसके पास कूटा ु आ िान पड़ा ु आ ै । खपरै ल पर लौकी की बेल चढ़ी ु ई ै और कई लौककयाूँ ऊपर चमक र ी ैं। दस ू री ओर

की ओसारी में एक गाय बूँिी ु ई ै । इस खंड में मथुरा और सोना सोते ैं? और लोग दस ू रे खंड में ोंगे। सससलया ने सोचा, सोना का जीवन ककतना सख ु ी ै। सोना उठकर आूँगन में आ गयी थी; मगर ससल्लो से टूटकर गले न ीं समली। ससल्लो ने समझा, शायद मथुरा के खड़े र ने के कारण सोना संकोच कर र ी या कौन जाने उसे अब असभमान में अपना अपमान समझती

ो गया

ै।

ो -- ससल्लो चमाररन से गले समलने

ो। उसका सारा उत्सा

ठं डा पड़ गया। इस समलन

से

षद के बदले उसे ईष्याद ु ई। सोना का रं ग ककतना खल ु गया ै , और दे कैसी कंचन की तर नखर आयी ै । गठन भी सुडौल ो गया ै । मख ु पर गहृ णीत्व की गररमा के साथ युवती की स ास छवव भी

ै।

ससल्लो एक क्षण के सलए जैसे मंत्र-मग्ु ि सी खड़ी ताकती र सोना

ै , जो सूखी-सी दे

गयी। य

व ी

सलये, झोंटे खोले इिर-उिर दौड़ा करती थी। म ीनों

ससर में तेल न पड़ता था। िटे धचथड़े लपेटे किरती थी। आज अपने घर की रानी

ै । गले में

ूँसुली और ु मेल ै , कानों में करनिूल और सोने की बासलयाूँ, ाथों में चाूँदी के चूड़े और कंगन। आूँखों में काजल ै , माूँग में सेंदरु । सससलया के

जीवन का स्वगद य ीं था, और सोना को व ाूँ दे खकर व ककतना घमंड

ो गया

प्रसन्न न ु ई। इसे ै । क ाूँ सससलया के गले में बाूँ ें डाले घास छीलने जाती

थी, और आज सीिे ताकती भी न ीं। उसने सोचा था, सोना उसके गले सलपटकर ज़रा-सा रोयेगी, उसे आदर से बैठायेगी, उसे खाना णखलायेगी; और गाूँव और घर की सैकड़ों बातें पूछेगी और अपने नये जीवन के अनुभव बयान करे गी -सो ाग-रात और मिरु समलन की बातें ुआ

ै। व

य ाूँ आकर पछतायी।

ोंगी। और सोना के मूँु

में द ी जमा

आणख़र सोना ने रूखे स्वर में पूछा -- इतनी रात को कैसे चली, ससल्लो? ससल्लो ने आूँसुओं को रोकने की चेष्टा करके क ा -- तुमसे समलने को ब ु त जी चा ता था। इतने हदन ो गये , भें ट करने चली आयी। सोना का स्वर और कठोर ु आ -- लेककन आदमी ककसी के घर जाता को कक इतनी रात गये ? वास्तव में सोना को उसका आना बुरा लग र ा था। व और

ास-ववलास का था, ससल्लो ने उसमें बािक

ै , तो हदन

समय उसकी प्रेम-क्रीड़ा

ोकर जैसे उसके सामने से

परोसी ु ई थाली खींच ली थी। ससल्लो नःसंज्ञ-सी भूसम की ओर ताक र ी थी। िरती क्यों न ीं िट जाती कक व उसमें समा जाय। इतना अपमान! उसने अपने इतने आज य

ी जीवन में ब ु त अपमान स ा था, ब ु त दद ु द शा दे खी थी; लेककन िाूँस श्जस तर उसके अंतःकरण में चुभ गयी, वैसी कभी कोई बात न

चभ ु ी थी। गड़ ु घर के अंदर मटकों में बंद रखा

ो, तो ककतना

ी मस ू लािार पानी

बरसे, कोई िैलाया गया

ा न न ीं

ोती; पर श्जस वक़्त व

िप ू में सख ू ने के सलए बा र

ो, उस वक़्त तो पानी का एक छींटा भी उसका सवदनाश कर दे गा।

सससलया के अंतःकरण की सारी कोमल भावनाएूँ इस वक़्त मूँु कक आकाश से अमत ृ -वषाद

खोले बैठी ु ई थीं ोगी। बरसा क्या, अमत ृ के बदले ववष, और सससलया

के रोम-रोम में दौड़ गया। सपद-दं श के समान ल रें आयीं। घर में उपवास करके सो र ना और बात

ै ; लेककन पंगत से उठा हदया जाना तो डूब मरने

ै । सससलया को य ाूँ एक क्षण ठ रना भी असह्य

ी की बात

ो गया, जैसे कोई उसका

गला दबाये

ु ए ो। व कुछ न पूछ सकी। सोना के मन में क्या ै , य व भाूँप र ी थी। व बाूँबी में बैठा ु आ साूँप क ीं बा र न नकल आये , इसके पह ले ी व व ाूँ से भाग जाना चा ती थी। कैसे भागे , क्या ब ाना करे ? उसके प्राण क्यों न ीं नकल जाते! मथरु ा ने भंडारे की कंु जी उठा ली थी कक सससलया के जलपान के सलए कुछ

नकाल लाये; कतदव्यववमूढ़-सा खड़ा था। इिर ससल्लो की साूँस टूँ गी ु ई थी, मानो ससर पर तलवार लटक र ी ो। सोना की दृश्ष्ट में सबसे बड़ा पाप ककसी पुरुष का पर-स्त्री और स्त्री का पर-पुरुष की ओर ताकना था। इस अपराि के सलए उसके य ाूँ कोई क्षमा न थी। चोरी, त्या, जाल, कोई अपराि इतना भीषण न था।

ूँसी-हदल्लगी को व

बरु ा न समझती थी, अगर खल ु े ु ए रूप में ो, लक ु ेछपे की ूँसी-हदल्लगी को भी व े य समझती थी। छुटपन से ी व ब ु त-सी री त की बातें जानने और समझने लगी थी। ोरी को जब कभी ाट से घर आने में दे र

ो जाती थी और ि नया को पता लग जाता था कक व

दल ु ारी

स ु आइन की दक ू ान पर गया था, चा े तंबाखू लेने ी क्यों न गया ो, तो व कई-कई हदन तक ोरी से बोलती न थी और न घर का काम करती थी। एक बार इसी बात पर व

अपने नै र भाग गयी थी। य

भावना सोना में और तीव्र

ो गयी थी। जब तक उसका वववा थी, पर वववा

न ु आ था, य भावना उतनी बलवान न ो जाने के बाद तो उसने व्रत का रूप िारण कर सलया था। ऐसे

स्त्री-पुरुषों की अगर खाल भी खींच ली जाती, तो उसे दया न आती। प्रेम के

सलए दाम्पत्य के बा र उसकी दृश्ष्ट में कोई स्थान न था। स्त्री-परु ु ष का एक दस ू रे के साथ जो कतदव्य

ै , इसी को व

उसका ब न का नाता था। ससल्लो को व

प्रेम समझती थी। किर ससल्लो से

प्यार करती थी, उस पर ववकवास

करती थी। व ी ससल्लो आज उससे ववकवासघात कर र ी

ै । मथुरा और ससल्लो

में अवकय समलता

ी प ले से साूँठ-गाूँठ

ोगा। और आज व

ोगी। मथरु ा उससे नदी के ककनारे या खेतों में

इतनी रात गये नदी पार करके इसीसलए आयी

अगर उसने इन दोनों की बातें सुन न ली

ोतीं, तो उसे ख़बर तक न

मथुरा ने प्रेम-समलन के सलए य ी अवसर सबसे अच्छा समझा सन्नाटा जो

ै । उसका हृदय सब कुछ जानने के सलए ववकल

ै।

ोती।

ोगा। घर में ो र ा था। व

सारा र स्य जान लेना चा ती थी, श्जसमें अपनी रक्षा के सलए कोई वविान सोच सके। और य

मथुरा य ाूँ क्यों खड़ा

ै ? क्यों व

उसे कुछ बोलने भी न दे गा?

उसने रोष से क ा -- तुम बा र क्यों न ीं जाते, या य ीं प रा दे ते र ोगे? मथुरा बबना कुछ क े बा र चला गया। उसके प्राण सूखे जाते थे कक क ीं ससल्लो सब कुछ क

न डाले। और ससल्लो के प्राण सूखे जाते थे कक अब व

लटकती ु ई तलवार ससर पर धगरना चा ती ै । तब सोना ने बड़े गंभीर स्वर में ससल्लो से पछ ू ा -- दे खो ससल्लो, मझ ु से साफ़-साफ़ बता दो, न ीं मैं तम् ु ारे सामने, य ीं, अपनी गदद न पर गूँड़ासा मार लूँ ग ू ी। किर तुम मेरी सौत बन कर राज करना। दे खो, गूँड़ासा व

सामने पड़ा

ै । एक म्यान में दो तलवारें न ीं र

सकतीं। उसने लपककर सामने आूँगन में से गूँड़ासा उठा सलया और उसे

ाथ में

सलये, किर बोली -- य

मत समझना कक मैं ख़ाली िमकी दे र ी ू ूँ। क्रोि में मैं क्या कर बैठूूँ, न ीं क सकती। साफ़-साफ़ बता दे । सससलया काूँप उठी। एक-एक शब्द उसके मूँु

से नकल पड़ा, मानो ग्रामोफ़ोन में

भरी ु ई आवाज़ ो। व एक शब्द भी न छपा सकी, सोना के चे रे पर भीषण संकल्प खेल र ा था, मानो ख़न ू सवार ो। सोना ने उसकी ओर बरछी की-सी चुभनेवाली आूँखों से दे खा और मानो कटार का आघात करती ु ई बोली -- ठीक-ठीक क ती

ो?

'बबलकुल ठीक। अपनी बच्चे की क़सम।' 'कुछ छपाया तो न ीं?' 'अगर मैंने रत्ती-भर छपाया ो तो मेरी आूँखें िूट जायूँ।'

'तम ु ने उस पापी को लात क्यों न ीं मारी? उसे दाूँत क्यों न ीं काट सलया? उसका ख़ून क्यों न ीं पी सलया, धचल्लायी क्यों न ीं?'

ससल्लो क्या जवाब दे ! सोना ने उन्माहदनी की भाूँ त अूँगारे की-सी आूँखें नकालकर क ा -- बोलती क्यों न ीं? क्यों तन ू े उसकी नाक दाूँतों से न ीं काट

ली? क्यों न ीं दोनों

ाथों से उसका गला दबा हदया। तब मैं तेरे चरणों पर ससर

झुकाती। अब तो तुम मेरी आूँखों में

रजाई

ो, नरी बेसवा; अगर य ी करना

था, तो मातादीन का नाम क्यों कलंककत कर र ी

ै ; क्यों ककसी को लेकर बैठ

न ीं जाती; क्यों अपने घर न ीं चली गयी? य ी तो तेरे घरवाले चा ते थे। तू

उपले और घास लेकर बाज़ार जाती, व ाूँ से रुपए लाती और तेरा बाप बैठा, उसी रुपए की ताड़ी पीता, किर क्यों उस ब्राह्मण का अपमान कराया? क्यों उसकी आबरू में बट्टा लगाया? क्यों सतवंती बनी बैठी

ो? जब अकेले न ीं र ा जाता, तो

ककसी से सगाई क्यों न ीं कर लेती; क्यों नदी-तालाब में डूब न ीं मरती? क्यों दस ू रों के जीवन में ववष घोलती तर

ै ? आज मैं तुझसे क

दे ती

ू ूँ कक अगर इस म तीनों में से एक भी जीते न

की बात किर ु ई और मझ ु े पता लगा, तो र ें गे। बस, अब मूँु में कासलख लगाकर जाओ। आज से मेरे और तुम् ारे बीच में कोई नाता न ीं र ा।

ससल्लो िीरे से उठी और सूँभलकर खड़ी ु ई। जान पड़ा, उसकी कमर टूट गयी ै । एक क्षण सा स बटोरती र ी, ककन्तु अपनी सफ़ाई में कुछ सूझ न पड़ा। आूँखों के सामने अूँिेरा था , ससर में चक्कर, कंठ सूख र ा था। और सारी दे सुन्न तर

ो गयी थी, मानो रोम- छद्रों से प्राण उड़े जा र े

रखती ु ई, मानो सामने गड्ढा

ै, व

ों। एक-एक पग इस

बा र आयी और नदी की ओर चली।

द्वार पर मथुरा खड़ा था। बोला -- इस वक़्त क ाूँ जाती

ो ससल्लो?

ससल्लो ने कोई जवाब न हदया। मथरु ा ने भी किर कुछ न पछ ू ा। व ी रुप ली

चाूँदनी अब भी छाई ु ई थी। नदी की ल रें अब भी चाूँद की ककरणों में न ा र ी थीं। और ससल्लो ववक्षक्षप्त-सी स्वप्न-छाया की भाूँ त नदी में चली जा र ी थी। ***

30 समल क़रीब-क़रीब पूरी जल चुकी

ै ; लेककन उसी समल को किर से खड़ा करना

ोगा। समस्टर खन्ना ने अपनी सारी कोसशशें इसके सलए लगा दी

ड़ताल जारी

ै ; मगर अब उससे समल मासलकों की कोई ववशेष

नये आदमी कम वेतन पर समल गये उनमें सभी ऐसे

ैं। मज़दरू ों की

ा न न ीं

ैं और जी तोड़ कर काम करते

ैं, श्जन् ोंने बेकारी के कष्ट भोग सलये

ै।

ैं ; क्योंकक

ैं और अब अपना बस

चलते ऐसा कोई काम करना न ीं चा ते श्जससे उनकी जीववका में बािा पड़े। चा े श्जतना काम लो, चा े श्जतनी कम छुहट्टयाूँ दो, उन् ें कोई सशकायत न ीं। ससर झक ु ाये बैलों की तर

काम में लगे र ते

ैं। घड़ ु ककयाूँ, गासलयाूँ, य ाूँ तक कक

डंडों की मार भी उनमें ग्ला न न ीं पैदा करती ; और अब पुराने मज़दरू ों के सलए इसके ससवा कोई मागद न ीं र

गया

ै कक व

इसी घटी ु ई मजूरी पर काम करने आयें और खन्ना सा ब की ख़ुशामद करें । पंडडत ओंकारनाथ पर तो उन् ें अब रत्ती-भर भी ववकवास न ीं ै । उन् ें वे अकेले-दक ु े ले पाएूँ तो शायद उनकी

बरु ी गत बनाये; पर पंडडतजी ब ु त बचे ु ए र ते ैं। धचराग़ जलने के बाद अपने कायालदय से बा र न ीं नकलते और अफ़सरों की ख़श ु ामद करने लगे ैं। समरज़ा खुशेद की िाक अब भी ज्यों-की-त्यों

ै ; लेककन समरज़ाजी इन बेचारों का कष्ट

और उसके नवारण का अपने पास कोई उपाय न दे खकर हदल से चा ते सब-के-सब ब ाल

ो जायूँ; मगर इसके साथ

ख़्याल करके श्जज्ञासओ ु ं से य ी क

ैं कक

ी नये आदसमयों के कष्ट का

हदया करते

ैं कक जैसी इच्छा

ो वैसा

करो। समस्टर खन्ना ने पुराने आदसमयों को किर नौकरी के सलए इच्छुक दे खा, तो और भी अकड़ गये , ालाूँकक व आदमी नयों से क ीं अच्छे

मन में चा ते थे कक इस वेतन पर पुराने

ैं। नये आदमी अपना सारा ज़ोर लगाकर भी पुराने

आदसमयों के बराबर काम न कर सकते थे। पुराने आदसमयों में अधिकांश तो बचपन से

ी समल में काम करने के अभ्यस्त थे और ख़ब ू मूँजे ु ए। नये आदसमयों में अधिकतर दे ातों के दख ु ी ककसान थे, श्जन् ें खुली वा और मैदान में पुराने ज़माने के लकड़ी के औजारों से काम करने की आदत थी। समल के

अंदर उनका दम घुटता था और मशीनरी के तेज़ चलनेवाले पुरज़ों से उन् ें भय लगता था। आणख़र जब पुराने आदमी ख़ूब परास्त

ो गये तब खन्ना उन् ें

ब ाल करने पर राज़ी ु ए; मगर नये आदमी इससे कम वेतन पर काम करने के सलए तैयार थे और अब डायरे क्टरों के सामने य सवाल आया कक व परु ानों को ब ाल करें या नयों को र ने दें । डायरे क्टरों में आिे तो नये आदसमयों का

वेतन घटाकर रखने के पक्ष में थे। आिों की य को

िारणा थी कक परु ाने आदसमयों

ाल के वेतन पर रख सलया जाय। थोड़े-से रुपए ज़्यादा ख़चद

मगर काम उससे ज़्यादा डायरे क्टर तो उनके और व

ोगा। खन्ना समल के प्राण थे, एक तर

ाथ की कठपुतसलयाूँ थे। नकचय खन्ना

ाथों में था

ले र े थे। सबसे

ली। जब से मालती की ओर से उन् ें नराशा

ो गयी थी और गोववंदी को मालूम

ो गया था कक मे ता जैसा ववद्वान ण और

अनुभवी और ज्ञानी आदमी मेरा ककतना सम्मान करता प्रकार की सािना की आशा रखता स्ने

से सवेसवाद।

ी के

अपने समत्रों से न ीं, शत्रुओं से भी इस ववषय में सला

प ले तो उन् ोंने गोववंदी की सला

ोंगे ज़रूर,

ै और मुझसे ककस

ै , तब से दं प त में स्ने

मत क ो; मगर सा चयद तो था

ी। आपस में व

किर जाग उठा था।

जलन और अशां त न

थी। बीच की दीवार टूट गयी थी। मालती के रं ग-ढं ग की भी कायापलट

ोती जाती थी।

मे ता का जीवन अब तक स्वाध्याय और धचंतन में गुज़रा था, और सब कुछ

कर चुकने के बाद और आत्मवाद तथा अनात्मवाद की ख़ूब छान-बीन कर लेने पर व

इसी तत्व पर प ु ूँ च जाते थे कक प्रवश्ृ त्त और नवश्ृ त्त दोनों के बीच में जो सेवा-मागद ै , चा े उसे कमदयोग ी क ो , व ी जीवन को साथदक कर सकता ै , व ी जीवन को ऊूँचा और पववत्र बना सकता ववकवास न था। यद्यवप व

ै । ककसी सवदज्ञ ईकवर में उनका

अपनी नाश्स्तकता को प्रकट न करते थे , इससलए कक

इस ववषय में नश्कचत रूप से कोई मत श्स्थर करना व समझते थे; पर य

िारणा उनके मन में दृढ़

अपने सलए असंभव

ो गयी थी कक प्राणणयों के जन्म-

मरण, सुख-दख ु , पाप-पुडय में कोई ईकवरीय वविान न ीं

ै । उनका ख़्याल था कक

मनष्ु य ने अपने अ ं कार में अपने को इतना म ान ण बना सलया एक काम की प्रेरणा ईकवर की ओर से को उत्तरदायी ठ राती संख्या में नष्ट

ो जाती

ोती

ै । इसी तर



हटड्डीयाूँ भी ईकवर

ोंगी , जो अपने मागद में समद्र ु आ जाने पर अरबों की ैं। मगर ईकवर के य

वविान इतने अज्ञेय

मनुष्य की समझ में न ीं आते, तो उन् ें मानने से समल सकता

ै कक उसके

ै । ईकवर की कल्पना का एक

ैं कक

ी मनुष्य को क्या संतोष

ी उद्दे कय उनकी समझ में आता

था और व

था मानव-जा त की एकता। एकात्मवाद या सवात्मदवाद या अह स ं ा-

तत्व को व

आध्याश्त्मक दृश्ष्ट से न ीं, भौ तक दृश्ष्ट से

ी दे खते थे; यद्यवप

इन तत्वों का इ त ास के ककसी काल में भी आधिपत्य न ीं र ा , किर भी

मनष्ु य-जा त के सांस्कृ तक ववकास में उनका स्थान बड़े म त्व का

ै । मानव-

समाज की एकता में मे ता का दृढ़ ववकवास था; मगर इस ववकवास के सलए उन् ें ईकवर-तत्व के मानने की ज़रूरत न मालूम

ोती थी। उनका मानव-प्रेम इस

आिार पर अवलंबबत न था कक प्राणी-मात्र में एक आत्मा का नवास और अद्वैत का व्यापाररक म त्व के ससवा व और य

ै । द्वैत

और कोई उपयोग न समझते थे ,

व्यापाररक म त्व उनके सलए मानव-जा त को एक दस ू रे के समीप

लाना, आपस के भेद-भाव को समटाना और भ्रात-ृ भाव को दृढ़ करना एकता, य

असभन्नता उनकी आत्मा में इस तर

ी था। य

जम गयी थी कक उनके सलए

ककसी आध्याश्त्मक आिार की सश्ृ ष्ट उनकी दृश्ष्ट में व्यथद थी। और एक बार इस तत्व को पाकर व

शांत न बैठ सकते थे। स्वाथद से अलग अधिक-से-अधिक

काम करना उनके सलए आवकयक

ो गया था। इसके बग़ैर उनका धचत्त शांत न

ो सकता था। यश, लोभ या कतदव्य-पालन के भाव उनके मन में आते इनकी तुच्छता स्वाथद

ी उन् ें इनसे बचाने के सलए काफ़ी थी। सेवा

ी न थे।

ी अब उनका

ोती जाती थी।

और उनकी इस उदार वश्ृ त्त का असर अज्ञात रूप से मालती पर भी पड़ता जाता था। अब तक श्जतने मदद उसे समले, सभी ने उसकी ववलास-वश्ृ त्त को उसकाया। उसकी त्याग-वश्ृ त्त हदन-हदन क्षीण में आकर उसकी त्याग-भावना सजग भावना छपी र ती नाम के पीछे पड़ा



ोती जाती थी; पर मे ता के संसगद

ो उठी थी। सभी मनस्वी प्राणणयों में य

ै और प्रकाश पाकर चमक उठती ै , तो समझ लो कक अभी तक व

ै । आदमी अगर िन या ककसी पररष्कृत आत्मा के

सम्पकद में न ीं आया। मालती अब अक्सर ग़रीबों के घर बबना फ़ीस सलये



मरीज़ों को दे खने चली जाती थी। मरीज़ों के साथ उसके व्यव ार में मद ु ा आ ृ त गयी थी।

ाूँ, अभी तक व

शौक़-ससंगार से अपना मन न

टा सकती थी। रं ग

और पाउडर का त्याग उसे अपने आंतररक पररवतदनों से भी क ीं ज़्यादा कहठन जान पड़ता था। इिर कभी-कभी दोनों दे ातों की ओर चले जाते थे और ककसानों के साथ दो-चार घंटे र कर उनके झोपड़ों में रात काटकर, और उन् ीं का-सा भोजन करके, अपने को िन्य समझते थे। एक हदन वे सेमरी प ु ूँच गये और घूमते-घामते बेलारी जा नकले।

ोरी द्वार पर बैठा धचलम पी र ा था कक मालती और मे ता आकर खड़े



गये। मे ता ने याद



ोरी को दे खते

ी प चान सलया और बोला -- य ी तुम् ारा गाूँव

ै?

म लोग राय सा ब के य ाूँ आये थे और तम ु िनुषयज्ञ की लीला में

माली बने थे।

ोरी की स्मृ त जाग उठी। प चाना और पटे कवरी के घर की ओर कुरससयाूँ लाने

चला।

मे ता ने क ा -- कुरससयों का कोई काम न ीं।

म लोग इसी खाट पर बैठ जाते

ैं। य ाूँ कुरसी पर बैठने न ीं, तुमसे कुछ सीखने आये

दोनों खाट पर बैठे। बड़े-बड़े आदमी

ोरी

ैं।

तबुवि-सा खड़ा था। इन लोगों की क्या ख़ा तर करे ।

ैं। उनकी ख़ा तर करने लायक़ उसके पास



ी क्या ?

आणख़र उसने पछ ू ा -- पानी लाऊूँ? मे ता ने क ा --

ाूँ, प्यास तो लगी

ै।

'कुछ मीठा भी लेता आऊूँ?' 'लाओ, अगर घर में ो।' ोरी घर में मीठा और पानी लेने गया। तब तक गाूँव के बालकों ने आकर इन दोनों आदसमयों को घेर सलया और लगे नरखने , मानो धचडड़याघर के अनोखे जंतु आ गये

ों। ससल्लो बच्चे को सलए ककसी काम से चली जा र ी थी। इन दोनों

आदसमयों को दे खकर कुतू लवश हठठक गयी। मालती ने आकर उसके बच्चे को गोद में ले सलया और प्यार करती ु ई बोली -ककतने हदनों का ै ? ससल्लो को ठीक मालूम न था।

एक दस ू री औरत ने बताया -- कोई साल भर का

ोगा, क्यों री?

ससल्लो ने समथदन ककया। मालती ने ववनोद ककया -- प्यारा बच्चा

ै । इसे

ससल्लो ने गवद से िूलकर क ा -- आप

ी का तो

में दे दो। ै।

'तो मैं इसे ले जाऊूँ?' 'ले जाइए। आपके साथ र कर आदमी ो जायगा।' गाूँव की और मह लाएूँ आ गयीं और मालती को

ोरी के घर में ले गयीं। य ाूँ

मरदों के सामने मालती से वातादलाप करने का अवसर उन् ें न समलता। मालती ने दे खा, खाट बबछी

ै , और उस पर एक दरी पड़ी ु ई ै , जो पटे कवरी के घर से माूँगे आयी थी, मालती जाकर बैठी। संतान-रक्षा और सशशु-पालन की बातें ोने लगीं। औरतें मन लगाकर सुनती र ीं। ि नया ने क ा -- य ाूँ य तक का हठकाना तो

सब सफ़ाई और संयम कैसे

ोगा सरकार! भोजन

ै न ीं।

मालती ने समझाया, सफ़ाई में कुछ ख़चद न ीं। केवल थोड़ी-सी मे नत और ोसशयारी से काम चल सकता

दल ु ारी स ु आइन ने पूछा -- य तो अभी ब्या ी न ीं ु आ?

ै।

सारी बातें तुम् ें कैसे मालूम ु ईं सरकार, आपका

मालती ने मस् ु कराकर पछ ू ा -- तम् ु ें कैसे मालम ू ु आ कक मेरा ब्या ै? सभी श्स्त्रयाूँ मूँु

िेरकर मुस्कराईं।

ि नया बोली -- भला य जाता

ै।

न ीं ु आ

भी छपा र ता

ै , समस सा ब; मूँु

दे खते

ी पता चल

मालती ने झेंपते ु ए क ा -- इसीसलए ब्या कैसे करती? सबने एक स्वर में क ा -- िन्य

न ीं ककया कक आप लोगों की सेवा

ो सरकार, िन्य

ो।

सससलया मालती के पाूँव दबाने लगी -- सरकार ककतनी दरू से आयी

ैं, थक गयी

ोंगी।

मालती ने पाूँव खींचकर क ा -- न ीं-न ीं, मैं थकी न ीं ू ूँ। मैं तो वागाड़ी पर आयी ू ूँ। मैं चा ती ू ूँ , आप लोग अपने बच्चे लायें, तो मैं उन् ें दे खकर आप लोगों को बताऊूँ कक आप उन् ें कैसे तंदरु ु स्त और नरोग रख सकती

ैं।

ज़रा दे र में बीस-पच्चीस बच्चे आ गये। मालती उनकी परीक्षा करने लगी। कई बच्चों की आूँखें उठी थीं, उनकी आूँख में दवा डाली। अधिकतर बच्चे दब द थे। ु ल इसका कारण था, माता-वपता को भोजन अच्छा न समलना। मालती को य

जानकर आकचयद ु आ कक ब ु त कम घरों में दि ोता था। घी के तो सालों ू दशदन न ीं ोते। मालती ने य ाूँ भी उन् ें भोजन करने का म त्व समझाया , जैसा व

सभी गाूँवों में ककया करती थी। उसका जी इससलए जलता था कक ये लोग

अच्छा भोजन क्यों न ीं करते? उसे ग्रामीणों पर क्रोि आ जाता था। क्या तुम् ारा जन्म इसीसलए ु आ ै कक तुम मर-मरकर कमाओ और जो कुछ पैदा ो, उसे खा न सको? ज ाूँ दो-चार बैलों के सलए भोजन ै , एक दो गाय-भैसों के सलए चारा न ीं

ै ? क्यों ये लोग भोजन को जीवन की मुख्य वस्तु न समझकर

उसे केवल प्राणरक्षा की वस्तु समझते

ैं ? क्यों सरकार से न ीं क ते कक नाम-

मात्र के ब्याज पर रुपए दे कर उन् ें सूदख़ोर म ाजनों के पंजे से बचाये? उसने

श्जस ककसी से पूछा, य ी मालूम ु आ कक उसकी कमाई का बड़ा भाग म ाजनों का क़रज़ चक ु ाने में ख़चद ो जाता ै । बटवारे का मरज़ भी बढ़ता जाता था। आपस में इतना वैमनस्य था कक शायद

ी कोई दो भाई एक साथ र ते

ों।

उनकी इस दद ु द शा का कारण ब ु त कुछ उनकी संकीणताद और स्वाथदपरता थी। मालती इन् ी ववषयों पर मह लाओं से बातें करती र ी। उनकी श्रिा दे ख -दे ख कर उसके मन में सेवा की प्रेरणा और भी प्रबल सामने व

ो र ी थी। इस त्यागमय जीवन के

ववलासी जीवन ककतना तुच्छ और बनावटी था। आज उसके व

रे शमी कपड़े, श्जन पर ज़री का काम था, और व और व

सग ु ंि से म कता ु आ शरीर, पाउडर से अलंकृत मुख-मंडल, उसे लश्ज्जत करने लगा। उसकी कलाई

पर बूँिी सोने की घड़ी जैसे अपने अपलक नेत्रों से उसे घूर र ी थी। उसके गले

में चमकता ु आ जड़ाऊ नेकलेस मानो उसका गला घोंट र ा था। इन त्याग और श्रिा की दे ववयों के सामने व अपनी दृश्ष्ट में नीची लग र ी थी। व इन ग्रामीणों से ब ु त-सी बातें ज़्यादा जानती थी, समय की ग त ज़्यादा प चानती थी; लेककन श्जन पररश्स्थ तयों में ये ग़रीबबनें जीवन को साथदक कर र ी ैं , उनमें क्या व

एक हदन भी र

काम करती

सकती

ैं, उपवास करती

सलए इतने अपने

ो गये

ैं? श्जनमें अ ं कार का नाम न ीं, हदन भर

ैं , रोती

ैं, किर भी इतनी प्रसन्न मुख! दस ू रे उनके

ैं कक अपना अश्स्तत्व

अपने लड़कों में , अपने प त में , अपने संबंधियों में

ी न ीं र ा। उनका अपनापन

ै । इस भावना की रक्षा करते

ु ए -- इसी भावना का क्षेत्र और बढ़ाकर -- भावी नारीत्व का आदशद नमादण ोगा। जाग्रत दे ववयों में इसकी जग आत्म-सेवन का जो भाव आ बैठा ै -सब कुछ अपने सलए, अपने भोग ववलास के सलए -- उससे तो य ी अच्छी। पुरुष नदद यी

ै , माना; लेककन

ै तो इन् ीं माताओं का बेटा। क्यों

माता ने पत्र ु को ऐसी सशक्षा न ीं दी कक व करता? इसीसलए कक माता को य

माता की, स्त्री-जा त की पज ू ा

सशक्षा दे नी न ीं आती , इससलए कक उसने

अपने को इतना समटाया कक उसका रूप नष्ट

सुषुप्तावस्था

ी बबगड़ गया , उसका व्यश्क्तत्व



ो गया। न ीं, अपने को समटाने से काम न चलेगा। नारी को समाज

कल्याण के सलए अपने अधिकारों की रक्षा करनी पड़ेगी , उसी तर

जैसे इन

ककसानों की अपनी रक्षा के सलए इस दे वत्व का कुछ त्याग करना पड़ेगा। संध्या

ो गयी थी। मालती को औरतें अब तक घेरे ु ए थीं। उसकी बातों से जैसे उन् ें तश्ृ प्त न ोती थी। कई औरतों ने उससे रात को व ीं र ने का आग्र ककया। मालती को भी उनका सरल स्ने

ऐसा प्यारा लगा कक उसने उनका

नमंत्रण स्वीकार कर सलया। रात को औरतें उसे अपना गाना सुनायेंगी। मालती

ने भी प्रत्येक घर में जा-जाकर उसकी दशा से पररचय प्राप्त करने में अपने समय का सदप ु योग ककया, उसकी नष्कपट सद्भावना और स ानुभू त उन गूँवाररनों के सलए दे वी के वरदान से कम न थी।

उिर मे ता सा ब खाट पर आसन जमाये ककसानों की कुकती दे ख र े थे और पछता र े थे, समरज़ाजी को क्यों न साथ ले सलया, न ीं उनका भी एक जोड़



जाता। उन् ें आकचयद

ो र ा था, ऐसे प्रौढ़ और नरी

क लानेवाले लोग कैसे नदद यी

ो जाते

ैं। अज्ञान की भाूँ त ज्ञान भी सरल ,

नष्कपट और सुन ले स्वप्न दे खनेवाला

इतना दृढ़, इतना सजीव समझने लगता

ै। य

ोता



ै कक व

भूल जाता

जवाब सदै व पंजे और दाूँतों से हदया

ोता

ै । मानवता में उसका ववकवास

इसके ववरुद्ि व्यव ार को अमानुषीय

ै कक भेडड़यों ने भेड़ों की नरी ता का ै। व

उसको आदशद मानवता से आबाद करता

अपना एक आदशद -संसार बनाकर

ै और उसी में मग्न र ता

ककतनी अगम्य, ककतनी दब ु ोि, ककतनी अप्राकृ तक उसके सलए मुश्ककल

ो जाता

बालकों के साथ सशक्षक्षत

ै । यथाथदता

ै , उसकी ओर ववचार करना

ै । मे ता जी इस समय इन गूँवारों के बीच में

बैठे ु ए इसी प्रकन को ल कर र े थे कक इनकी दशा इतनी दयनीय क्यों ै । व इस सत्य से आूँखें समलाने का सा स न कर सकते थे कक इनका दे वत्व ी इनकी दद ु द शा का कारण

ै । काश, ये आदमी ज़्यादा और दे वता कम

न ठुकराये जाते। दे श में कुछ भी

ो, क्रां त

ोते, तो यों

ी क्यों न आ जाय, इनसे कोई

मतलब न ीं। कोई दल उनके सामने सबल के रूप में आये , उसके सामने ससर झुकाने को तैयार। उनकी नरी ता जड़ता की आघात

ी कमदडय बना सकता

अब अपने अन्दर जैसे लुप्त संध्या

ो गयी

द तक प ु ूँ च गयी ै , श्जसे कठोर ै । उनकी आत्मा जैसे चारों ओर से नराश ोकर

ी टाूँगें तोड़कर बैठ गयी

ै । उनमें अपने जीवन की चेतना



ै।

ो गयी थी। जो लोग अब तक खेतों में काम कर र े थे , वे भी दौड़े चले

आ र े थे। उसी समय मे ता ने मालती को गाूँव की कई औरतों के साथ इस तर ोकर एक बच्चे को गोद में सलए दे खा, मानो व का हृदय आनंद से गद्गद

भी उन् ीं में से एक

तल्लीन ै । मे ता

ो उठा। मालती ने एक प्रकार से अपने को मे ता

पर अपदण कर हदया था। इस ववषय में मे ता को अब कोई संदे

न था ; मगर

अभी तक उनके हृदय में मालती के प्र त व श्जसके बबना वववा

उत्कट भावना जाग्रत न ु ई थी, का प्रस्ताव करना उनके सलए ास्य-जनक था।

मालती बबना बुलाये मे मान की भाूँ त उनके द्वार पर आकर खड़ी

ो गयी थी,

और मे ता ने उसका स्वागत ककया था। इसमें प्रेम का भाव न था , केवल पुरुषत्व का भाव था। अगर मालती उन् ें इस योग्य समझती

ै कक उन पर

अपनी कृपा-दृश्ष्ट िेरे , तो मे ता उसकी इस कृपा को अस्वीकार न कर सकते थे। इसके साथ

ी व

मालती को गोववंदी के रास्ते से

टा दे ना चा ते थे और व

जानते थे, मालती जब तक आगे अपना पाूँव न जमा लेगी, व उठायेगी। व पररचय दे र े

जानते थे, मालती के साथ छल करके व

वपछला पाूँव न

अपनी नीचता का

ैं। इसके सलए उनकी आत्मा बराबर उन् ें धिक्कारती र ी थी ;

मगर ज्यों-ज्यों व

मालती को नकट से दे खते थे , उनके मन में आकषदण बढ़ता

जाता था। रूप का आकषदण तो उन पर कोई असर न कर सकता था। य का आकषदण था। य



जानते थे, श्जसे सच्चा प्रेम क

बंिन में बूँि जाने के बाद व

ी पैदा

तो रूप की आसश्क्त-मात्र

नकचय तो कर लेना ख़रादे जाने की क्षमता

ो सकता

सकते

गुण

ैं , केवल एक

ै । इसके प ले जो प्रेम

ोता

ै,

ै , श्जसका कोई हटकाव न ीं; मगर इसके प ले य

ी था कक जो पत्थर सा चयद के ख़राद पर चढ़े गा, उसमें ै भी या न ीं। सभी पत्थर तो ख़राद पर चढ़कर सुंदर

मू तयााँ न ीं बन जाते। इतने हदनों में मालती ने उनके हृदय के सभन्न-सभन्न भागों में अपनी रश्कमयाूँ डाली थीं; पर अभी तक वे केंहद्रत

ोकर उस ज्वाला के

रूप में न िूट पड़ी थीं, श्जससे उनका सारा अंतस्तल प्रज्वसलत

ो जाता। आज

मालती ने ग्रामीणों में समलकर और सारे भेद-भावों को समटाकर इन रश्कमयों को मानो केंहद्रत कर हदया। और आज प ली बार मे ता को मालती से एकात्मता का अनुभव ु आ। ज्यों

ी मालती गाूँव का चक्कर लगाकर लौटी, उन् ोंने उसे साथ लेकर नदी की

ओर प्रस्थान ककया। रात य ीं काटने का नकचय

ो गया। मालती का कलेजा

आज न जाने क्यों िक-िक करने लगा। मे ता के मुख पर आज उसे एक

ववधचत्र ज्यो त और इच्छा झलकती ु ई नज़र आयी। नदी के ककनारे चाूँदी का फ़शद बबछा ु आ था और नदी रत्न-जहटत आभूषण प ने मीठे स्वरों में गाती चाूँद की और तारों की और ससर झक ु ाये नींद में माते वक्ष ृ ों को अपना नत्ृ य हदखा र ी थी। मे ता प्रकृ त की उस मादक शोभा से जैसे मस्त उनका बालपन अपनी सारी क्रीड़ाओं के साथ लौट आया

ो। बालू पर कई कुलाटें

मारीं। किर दौड़े ु ए नदी में जाकर घुटने तक पानी में खड़े मालती ने क ा -- पानी में न खड़े

ो गये। जैसे

ो गये।

ो। क ीं ठं ड न लग जाय।

मे ता ने पानी उछालकर क ा -- मेरा तो जी चा ता

ै , नदी के उस पार तैरकर

चला जाऊूँ।

'न ीं-न ीं, पानी से नकल आओ। मैं न जाने दूँ ग ू ी।' 'तुम मेरे साथ न चलोगी, उस सूनी बस्ती में ज ाूँ स्वप्नों का राज्य ै ।' 'मझ ु े तो तैरना न ीं आता।' 'अच्छा, आओ, एक नाव बनायें, और उस पर बैठकर चलें ।' व

बा र नकल आये। आस-पास बड़ी दरू तक झाऊ का जंगल खड़ा था। मे ता

ने जेब से चाकू नकाला, और ब ु त-सी ट नयाूँ काटकर जमा कीं। करार पर सरपत के जूट खड़े थे। ऊपर चढ़कर सरपत का एक गट्ठा काट लाये और व ीं बालू के फ़शद पर बैठकर सरपत की रस्सी बटने लगे। ऐसे प्रसन्न थे, मानो स्वगारो ण की तैयारी कर र े

ैं। कई बार उूँ गसलयाूँ धचर गयीं , ख़ून नकला।

मालती बबगड़ र ी थीं, बार-बार गाूँव लौट चलने के सलए आग्र उन् ें कोई परवा

कर र ी थी ; पर

न थी। व ी बालकों का-सा उल्लास था, व ी अल् ड़पन, व ी

ठ। दशदन और ववज्ञान सभी इस प्रवा

में ब

गये थे। रस्सी तैयार

ो गयी।

झाऊ का बड़ा-सा तख़्त बन गया, ट नयाूँ दोनों ससरों पर रस्सी से जोड़ दी गयी थीं। उसके छद्रों में झाऊ की ट नयाूँ भर दी गयीं, श्जससे पानी ऊपर न आये। नौका तैयार

ो गयी। रात और भी स्वश्प्नल

ो गयी थी।

मे ता ने नौका को पानी में डालकर मालती का

ाथ पकड़कर क ा -- आओ,

बैठो। मालती ने सशंक

ोकर क ा -- दो आदसमयों का बोझ सूँभाल लेगी?

मे ता ने दाशद नक मस् ु कान के साथ क ा -- श्जस तरी पर बैठे यात्रा कर र े

ैं, व

तो इससे क ीं नस्सार

'डर ककस बात का जब तुम साथ ो।' 'सच क ती ो?'

म लोग जीवन-

ै मालती? क्या डर र ी

ो?

'अब तक मैंने बग़ैर ककसी की स ायता के बािाओं को जीता ै । अब तो तुम् ारे संग ू ूँ।'

दोनों उस झाऊ के तख़्ते पर बैठे और मे ता ने झाऊ के एक डंडे से

ी उसे

खेना शुरू ककया। तख़्ता डगमगाता ु आ पानी में चला। मालती ने मन को इस तख़्ते से

टाने के सलए पछ ू ा -- तम ु तो

र े , गाूँव के जीवन का तुम् ें कैसे अभ्यास

मेशा श रों में

ो गया? मैं तो ऐसा तख़्ता कभी न

बना सकती।

मे ता ने उसे अनरु क्त नेत्रों से दे खकर क ा -- शायद य संस्कार

ै । प्रकृ त से स्पशद

नस-नस में स्िू तद छा जाती

ोते

मेरे वपछले जन्म का

ी जैसे मझ ु में नया जीवन-सा आ जाता

ै;

ै । एक-एक पक्षी, एक-एक पशु, जैसे मुझे आनंद का

नमंत्रण दे ता ु आ जान पड़ता ै , मानो भूले ु ए सुखों की याद हदला र ा ो। य आनंद मुझे और क ीं न ीं समलता मालती, संगीत के रुलानेवाले स्वरों में भी न ीं, दशदन की ऊूँची उड़ानों में भी न ीं। जैसे अपने आपको पा जाता ू ूँ , जैसे पक्षी अपने घोंसले में आ जाय। तख़्ता डगमगाता , कभी तछाद, कभी सीिा, कभी चक्कर खाता ु आ चला जा र ा था। स सा मालती ने कातर कंठ से पूछा -- और मैं तुम् ारे जीवन में कभी न ीं आती?

मे ता ने उसका

ाथ पकड़कर क ा -- आती

ो, बार-बार आती

झोंके की तर , कल्पना की एक छाया की तर दौड़ता ू ूँ कक तम् ु ें करपाश में बाूँि लूँ ू; पर ो जाती ो।

और किर अदृकय

ाथ खल ु े र

जाते

ो, सुगंि के एक ो जाती

ो।

ैं और तम ु ग़ायब

मालती ने उन्माद की दशा में क ा -- लेककन तुमने इसका कारण भी सोचा? समझना चा ा?

' ाूँ मालती, ब ु त सोचा, बार-बार सोचा।'

'तो क्या मालम ू ु आ?' 'य ी कक मैं श्जस आिार पर जीवन का भवन खड़ा करना चा ता ू ूँ , व अश्स्थर ै । य कोई ववशाल भवन न ीं ै , केवल एक छोटी-सी शांत कुहटया ै ; लेककन उसके सलए भी तो कोई श्स्थर आिार चाह ए। ' मालती ने अपना

ाथ छुड़ाकर जैसे मान करते ु ए क ा -- य झूठा आक्षेप ै । तुमने सदै व मुझे परीक्षा की आूँखों से दे खा, कभी प्रेम की आूँखों से न ीं। क्या तम ु इतना भी न ीं जानते कक नारी परीक्षा न ीं चा ती , प्रेम चा ती गुणों को अवगुण, सुंदर को असुंदर बनानेवाली चीज़ बनाता

ै ; प्रेम अवगुणों को गुण

ै , असुंदर को सुंदर! मैंने तुमसे प्रेम ककया, मैं कल्पना

कक तुममें कोई बुराई भी

ै । परीक्षा

ी न ीं कर सकती

ै ; मगर तुमने मेरी परीक्षा की और तुम मुझे अश्स्थर,

चंचल और जाने क्या-क्या समझकर मुझसे

मेशा दरू भागते र े । न ीं, मैं जो

कुछ क ना चा ती ू ूँ , व मझ ु े क लेने दो। मैं क्यों अश्स्थर और चंचल ू ूँ ; इससलए कक मुझे व प्रेम न ीं समला, जो मुझे श्स्थर और अचंचल बनाता; अगर तुमने मेरे सामने उसी तर ककया

आत्म-समपदण ककया

ै , तो तुम आज मुझ पर य

ोता, जैसे मैंने तुम् ारे सामने

आक्षेप न रखते।

मे ता ने मालती के मान का आनंद उठाते ु ए क ा -- तुमने मेरी परीक्षा कभी न ीं की? सच क ती ो?

'कभी न ीं।' 'तो तुमने ग़लती की।' 'मैं इसकी परवा न ीं करती।' 'भावक ु ता में न आओ मालती! प्रेम दे ने के प ले म सब परीक्षा करते ैं और तुमने की, चा े अप्रत्यक्ष रूप से प ले मैंने तम् ु ें उसी तर

ी की

ो। मैं आज तुमसे स्पष्ट क ता ू ूँ कक दे खा, जैसे रोज़ ी ज़ारों दे ववयों को दे खा करता ू ूँ ,

केवल ववनोद के भाव से; अगर मैं गलती न ीं करता, तो तुमने भी मुझे मनोरं जन के सलए एक नया णखलौना समझा।'

मालती ने टोका -- ग़लत क ते मैंने प ले

ो। मैंने कभी तम् ु ें इस नज़र से न ीं दे खा।

ी हदन तुम् ें अपना दे व बनाकर अपने हृदय ...।

मे ता बात काटकर बोले -- किर व ी भावुकता। मुझे ऐसे म त्व के ववषय में भावक ु ता पसंद न ीं; अगर तम ु ने प ले समझा, तो इसका य ी कारण

ो सकता

ी हदन से मझ ु े इस कृपा के योग्य

ै , कक मैं रूप भरने में तुमसे ज़्यादा

कुशल ू ूँ, वरना ज ाूँ तक मैंने नाररयों का स्वभाव दे खा ै , व प्रेम के ववषय में काफ़ी छान-बीन करती ैं। प ले भी तो स्वयंवर से पुरुषों की परीक्षा ोती थी? व

मनोवश्ृ त्त अब भी मौजूद

से बराबर य ी कोसशश की और उसके साथ

ै , चा े उसका रूप कुछ बदल गया

ो। मैंने तब

ै कक अपने को संपण ू द रूप से तम् ु ारे सामने रख दूँ ू

ी तुम् ारी आत्मा तक भी प ु ूँच जाऊूँ। और मैं ज्यों-ज्यों तुम् ारे अंतस्तल की ग राई में उतरा ू ूँ, मुझे रत्न ी समले ी ैं। मैं ववनोद के सलए आया और आज उपासक बना ु आ ू ूँ। तुमने मेरे भीतर क्या पाया य मुझे मालूम न ीं।

नदी का दस ू रा ककनारा आ गया। दोनों उतरकर उसी बालू के फ़शद पर जा बैठे और मे ता किर उसी प्रवा तुम् ें लाया ू ूँ ?

में बोले -- और आज मैं य ाूँ व ी पूछने के सलए

मालती ने काूँपते ु ए स्वर में क ा -- क्या अभी तुम् ें मुझसे य ज़रूरत बाक़ी ै ?

पूछने की

' ाूँ, इससलए कक मैं आज तम् ु ें अपना व रूप हदखाऊूँगा, जो शायद अभी तक तुमने न ीं दे खा और श्जसे मैंने भी छपाया

ै । अच्छा, मान लो, मैं तुमसे वववा

करके कल तुमसे बेवफ़ाई करूूँ तो तुम मुझे क्या सज़ा दोगी?' मालती ने उसकी ओर चककत

ोकर दे खा। इसका आशय उसकी समझ में न

आया।

'ऐसा प्रकन क्यों करते ो?' 'मेरे सलए य बड़े म त्व की बात ै ।'

'मैं इसकी संभावना न ीं समझती।' 'संसार में कुछ भी असंभव न ीं ै । बड़े-से-बड़ा म ात्मा भी एक क्षण में प तत ो सकता

ै ।'

'मैं उसका कारण खोजूँग ू ी और उसे दरू करूूँगी।' 'मान लो, मेरी आदत न छूटे ।' 'किर मैं न ीं क सकती, क्या करूूँगी। शायद ववष खाकर सो र ू ूँ।' 'लेककन यहद तम ु मझ ु से य ी प्रकन करो, तो मैं उसका दस ू रा जवाब दूँ ग ू ा।' मालती ने सशंक

ोकर पूछा -- बतलाओ!

मे ता ने दृढ़ता के साथ क ा -- मैं प ले तुम् ारा प्राणांत कर दूँ ग ू ा, किर अपना। मालती ने ज़ोर से क़ क़ ा मारा और ससर से पाूँव तक सस र उठी। उसकी केवल उसके सस रन को छपाने का आवरण थी। मे ता ने पूछा -- तुम

ूँसी

ूँसी क्यों?

'इससलए कक तम ं ावादी न ीं जान पड़ते।' ु ऐसे ह स 'न ीं मालती, इसी ववषय में मैं पूरा पशु ू ूँ और उस पर लश्ज्जत ोने का कोई कारण न ीं दे खता। आध्याश्त्मक प्रेम और त्यागमय प्रेम और नःस्वाथद प्रेम श्जसमें आदमी अपने को समटाकर केवल प्रेसमका के सलए जीता से आनंहदत

ोता

सलए नरथदक शब्द

ै और उसके चरणों पर अपनी आत्मा समपदण कर दे ता ैं। मैंने पुस्तकों में ऐसी प्रेम-कथाएूँ पढ़ी

प्रेसमका के नये प्रेसमयों के सलए अपनी जान दे दी श्रद्िा क

ै , उसके आनंद ै , मेरे

ैं ज ाूँ प्रेमी ने

ै ; मगर उस भावना को मैं

सकता ू ूँ , सेवा क सकता ू ूँ, प्रेम कभी न ीं। प्रेम सीिी-सादी गऊ न ीं, ख़ख़् ूूँ वार शेर ै , जो अपने सशकार पर ककसी की आूँख भी न ीं पड़ने दे ता। '

मालती ने उनकी आूँखों में आूँखें डालकर क ा -- अगर प्रेम ख़ख़् ूूँ वार शेर

ै तो

मैं उससे दरू

ी र ू ूँगी। मैंने तो उसे गाय ी समझ रखा था। मैं प्रेम को संदे से ऊपर समझती ू ूँ। व दे की वस्तु न ीं, आत्मा की वस्तु ै । संदे का व ाूँ ज़रा भी स्थान न ीं और ह स ं ा तो संदे

का

ी पररणाम

ै। व

संपूणद आत्म-

समपणद ै । उसके मंहदर में तम ु परीक्षक बनकर न ीं, उपासक बनकर पा सकते व

ी वरदान

ो।

उठकर खड़ी

ो गयी और तेज़ी से नदी की तरफ़ चली, मानो उसने अपना

खोया ु आ मागद पा सलया ो। ऐसी स्िू तद का उसे कभी अनुभव न ु आ। उसने स्वतंत्र जीवन में भी अपने में एक दब द ता पायी थी, जो उसे सदै व आंदोसलत ु ल करती र ती थी, सदै व अश्स्थर रखती थी। उसका मन जैसे कोई आश्रय खोजा

करता था, श्जसके बल पर हटक सके, संसार का सामना कर सके। अपने में उसे य

शश्क्त न समलती थी। बुद्धि और चररत्र की शश्क्त दे खकर व

लाला यत

ोकर जाती थी। पानी की भाूँ त

उसकी ओर

र एक पात्र का रूप िारण कर लेती

थी। उसका अपना कोई रूप न था। उसकी मनोवश्ृ त्त अभी तक ककसी परीक्षाथी छात्र की-सी थी। छात्र को पुस्तकों से प्रेम लेककन व सकते

ै और आज

पुस्तक के उन् ीं भागों पर ज़्यादा ध्यान दे ता

ैं। उसकी प ली ग़रज परीक्षा में सिल

अगर उसे मालूम यों

ो सकता ोना

ो जाय कक परीक्षक बड़ा दयालु

ी पास कर हदया करता

ै , तो शायद व

ो जाता

ै;

ै , जो परीक्षा में आ

ै । ज्ञानाजदन इसके बाद।

ै या अंिा

ै और छात्रों को

पस् ु तकों की ओर आूँख उठाकर भी

न दे खे। मालती जो कुछ करती थी, मे ता को प्रसन्न करने के सलए। उसका

मतलब था, मे ता का प्रेम और ववकवास प्राप्त करना, उसके मनोराज्य की रानी बन जाना; लेककन उसी छात्र की तर

अपनी योग्यता का ववकवास जमाकर।

सलयाक़त आ जाने से परीक्षक आप- ी-आप उससे संतुष्ट

ो जायगा, इतना िैयद

उसे न था।

मगर आज मे ता ने जैसे उसे ठुकराकर उसकी आत्म-शश्क्त को जगा हदया। मे ता को जब से उसने प ली बार दे खा था, तभी से उसका मन उनकी ओर झक ु ा था। उसे व

अपने पररधचतों में सबसे समथद जान पड़े। उसके पररष्कृत

जीवन में बुद्धि की प्रखरता और ववचारों की दृढ़ता िन और ऐकवयद को तो व तोड़-िोड़ डालते

ी सबसे ऊूँची वस्तु थी।

केवल णखलौना समझती थी, श्जसे खेलकर लड़के

ैं। रूप में भी अब उसके सलए ववशेष आकषदण न था , यद्यवप

कुरूपता के सलए घण ु धि-शश्क्त ृ ा थी। उसको तो अब बद्

ी अपने ओर झक ु ा

सकती थी, श्जसके आश्रय में उसमें आत्म-ववकवास जगे, अपने ववकास की प्रेरणा समले, अपने में शश्क्त का संचार

ो, अपने जीवन की साथदकता का ज्ञान

ो।

मे ता के बुद्धिबल और तेश्जस्वता ने उसके ऊपर अपनी मु र लगा दी और तब से व

अपना संस्कार करती चली जाती थी। श्जस प्रेरक शश्क्त की उसे ज़रूरत

थी, व

समल गयी थी और अज्ञात रूप से उसे ग त और शश्क्त दे र ी थी।

जीवन का नया आदशद जो उसके सामने आ गया था , व

अपने को उसके समीप

प ु ूँचाने की चेष्टा करती ु ई और सिलता का अनुभव करती ु ई उस हदन की कल्पना कर र ी थी, जब व और मे ता एकात्म ो जायूँगे और य कल्पना उसे और भी दृढ़ और नष्ठ बना र ी थी। मगर आज जब मे ता ने उसकी आशाओं को द्वार तक लाकर प्रेम का व

आदशद उसके सामने रखा , श्जसमें प्रेम

को आत्मा और समपदण के क्षेत्र से धगराकर भौ तक िरातल तक प ु ूँचा हदया गया था, ज ाूँ संदे और ईष्याद और भोग का राज ै , तब उसकी पररष्कृत बुद्धि आ त

ो उठी। और मे ता से जो उसे श्रिा थी, उसे एक िक्का-सा लगा, मानो

कोई सशष्य अपने गुरु को कोई नीच कमद करते दे ख ले। उसने दे खा, मे ता की बद् ु धि-प्रखरता प्रेमत्व को पशुता की ओर खींचे सलये जाती की ओर से आूँखें बंद ककये लेती मे ता ने कुछ लश्ज्जत

ै , और य

दे खकर उसका हदल बैठ गया।

ोकर क ा -- आओ, कुछ दे र और बैठें।

मालती बोली -- न ीं, अब लौटना चाह ए। दे र ***

ै और उसके दे वत्व

ो र ी

ै।

31 राय सा ब का ससतारा बुलंद था। उनके तीनों मंसूबे पूरे शादी िूम-िाम से

ो गये थे। कन्या की

ो गयी थी, मुक़दमा जीत गये थे और नवादचन में सिल



न ु ए थे, ोम में बर भी ो गये थे। चारों ओर से बिाइयाूँ समल र ी थीं। तारों का ताूँता लगा ु आ था। इस मुक़दमे को जीतकर उन् ोंने ताल्लुक़ेदारों की प्रथम श्रेणी में स्थान प्राप्त कर सलया था। सम्मान तो उनका प ले भी ककसी से कम न था; मगर अब तो उसकी जड़ और भी ग री और मज़बूत

ो गयी थी।

साम यक पत्रों में उनके धचत्र और चररत्र दनादन नकल र े थे। क़रज़ की मात्रा ब ु त बढ़ गयी थी; मगर अब राय सा ब को इसकी परवा न थी। व इस नयी समसलककयत का एक छोटा-सा टुकड़ा बेचकर क़रज़ से मुक्त ो सकते थे। सुख

की जो ऊूँची-से-ऊूँची कल्पना उन् ोंने की थी , उससे क ीं ऊूँचे जा प ु ूँचे थे। अभी तक उनका बूँगला केवल लखनऊ में था। अब नैनीताल, मंसरू ी और सशमला -तीनों स्थानों में एक-एक बूँगला बनवाना लाश्ज़म न ीं दे ता कक इन स्थानों में जायूँ, तो

ो गया। अब उन् ें य

शोभा

ोटलों में या ककसी दस ू रे राजा के बूँगले में

ठ रें । जब सूयप्र द तापससं के बूँगले इन सभी स्थानों में थे, तो राय सा ब के सलए य

बड़ी लज्जा की बात थी कक उनके बूँगले न

ों। संयोग से बूँगले बनवाने की

ज़ मत न उठानी पड़ी। बने-बनाये बूँगले सस्ते दामों में समल गये।

र एक

बूँगले के सलए माली, चौकीदार, काररंदा, ख़ानसामा आहद भी रख सलये गये थे। और सबसे बड़े सौभाग्य की बात य

थी कक अबकी ह ज़ मैजेस्टी के जन्म-हदन

के अवसर पर उन् ें राजा की पदवी भी समल गयी। अब उनकी म त्वाकांक्षा संपूणद रूप से संतुष्ट

ो गयी। उस हदन ख़ूब जशन मनाया गया और इतनी

शानदार दावत ु ई कक वपछले सारे रे काडद टूट गये। श्जस वक़्त ह ज़ एक्सेलेंसी गवनदर ने उन् ें पदवी प्रदान की, गवद के साथ राज-भश्क्त की ऐसी तरं ग उनके मन में उठी कक उनका एक-एक रोम उससे प्लाववत

ो उठा। य

ै जीवन!

न ीं, ववद्रोह यों के िेर में पड़कर व्यथद बदनामी ली, जेल गए और अफ़सरों की नज़रों से धगर गए। श्जस डी. एस. पी. ने उन् ें वपछली बार धगरफ़्तार ककया था , इस वक़्त व

उनके सामने

ाथ बाूँिे खड़ा था और शायद अपने अपराि के

सलए क्षमा माूँग र ा था। मगर जीवन की सबसे बड़ी ववजय उन् ें उस वक़्त ु ई, जब उनके पुराने, परास्त शत्रु, सूयप्र द तापससं ने उनके बड़े लड़के रुद्रपालससं से अपनी कन्या के वववा का

संदेशा भेजा। राय सा ब को न मक़ ु दमा जीतने की इतनी ख़श ु ी ु ई थी, न सम नस्टर ोने की। व सारी बातें कल्पना में आती थीं; मगर य बात तो आशातीत

ी न ीं, कल्पनातीत थी। व ी सूयप्र द तापससं जो अभी कई म ीने तक

उन् ें अपने कुत्ते से भी नीचा समझता था, व लड़की का वववा

आज उनके लड़के से अपनी

करना चा ता था! ककतनी असंभव बात! रुद्रपाल इस समय

एम. ए. में पढ़ता था, बड़ा नभीक, पक्का आदशदवादी, अपने ऊपर भरोसा रखने वाला, असभमानी, रससक और आलसी युवक था, श्जसे अपने वपता की य

िन

और मानसलप्सा बुरी लगती थी। राय सा ब इस समय नैनीताल में थे। य संदेशा पाकर िूल उठे । यद्यवप व

वववा

के ववषय में लड़के पर ककसी तर

का दबाव डालना न चा ते थे ; पर इसका उन् ें ववकवास था कक व नकचय कर लें गे, उसमें रुद्रपाल को कोई आपश्त्त न सूयप्र द तापससं से नाता स मत न

जो कुछ

ोगी और राजा

ो जाना एक ऐसे सौभाग्य की बात थी कक रुद्रपाल का

ोना ख़याल में भी न आ सकता था।

उन् ोंने तरु ं त राजा सा ब को बात दे दी और उसी वक़्त रुद्रपाल को फ़ोन ककया। रुद्रपाल ने जवाब हदया -- मुझे स्वीकार न ीं। राय सा ब को अपने जीवन में न कभी इतनी नराशा ु ई थी, न इतना क्रोि आया था। पूछा -- कोई वज ?

'समय आने पर मालम ो जायगा।' ू 'मैं अभी जानना चा ता ू ूँ।' 'मैं न ीं बतलाना चा ता।' 'तुम् ें मेरा ु क्म मानना पड़ेगा।' 'श्जस बात को मेरी आत्मा स्वीकार न ीं करती, उसे मैं आपके ु क्म से न ीं मान सकता।'

राय सा ब ने बड़ी नम्रता से समझाया -- बेटा, तम ु आदशदवाद के पीछे अपने पैरों में कुल् ाड़ी मार र े

ो। य

दे गा, कुछ तुमने सोचा

संबंि समाज में तुम् ारा स्थान ककतना ऊूँचा कर

ै ? इसे ईकवर की प्रेरणा समझो। उस कुल की कोई दररद्र

कन्या भी मुझे समलती, तो मैं अपने भाग्य को सरा ता, य की कन्या

ै , जो

मारे ससरमौर

तो राजा सूयप्र द ताप

ैं। मैं उसे रोज़ दे खता ू ूँ। तुमने भी दे खा ोगा। रूप, गण ु , शील, स्वभाव में ऐसी यव ु ती मैंने आज तक न ीं दे खी। मैं तो चार हदन का और मे मान ू ूँ। तुम् ारे सामने सारा जीवन पड़ा ै । मैं तुम् ारे ऊपर दबाव न ीं डालना चा ता। तम ु जानते ो, वववा के ववषय में मेरे ववचार ककतने उदार ैं, लेककन मेरा य

भी तो िमद

ै कक अगर तुम् ें ग़लती करते दे खू,ूँ तो चेतावनी

दे दूँ ।ू

रुद्रपाल ने इसका जवाब हदया -- मैं इस ववषय में ब ु त प ले नकचय कर चुका ू ूँ। उसमें अब कोई पररवतदन न ीं ो सकता। राय सा ब को लड़के की जड़ता पर किर क्रोि आ गया। गरजकर बोले -- मालूम ोता

ै , तुम् ारा ससर किर गया

ै । आकर मुझसे समलो। ववलंव न करना। मैं

राजा सा ब को ज़बान दे चुका ू ूँ। रुद्रपाल ने जवाब हदया -- खेद

ै , अभी मुझे अवकाश न ीं

ै।

दस ू रे हदन राय सा ब ख़ुद आ गये। दोनों अपने-अपने शस्त्रों से सजे ु ए तैयार खड़े थे। एक ओर संपण ू द जीवन का मूँजा ु आ अनभ ु व था, समझौतों से भरा ू री ओर कच्चा आदशदवाद था, श्ज़द्दी, उद्दंड और नमदम। ु आ ; दस

राय सा ब ने सीिे ममद पर आघात ककया -- मैं जानना चा ता ू ूँ , व लड़की ै ? रुद्रपाल ने अचल भाव से क ा -- अगर आप इतने उत्सुक मालती दे वी की ब न सरोज राय सा ब आ त

ै।

ोकर धगर पड़े -- अच्छा व !

'आपने तो सरोज को दे खा ोगा?'

कौन

ैं, तो सु नए। व

'ख़ूब दे खा ै । तुमने राजकुमारी को दे खा ै या न ीं?' 'जी ाूँ, ख़ब ू दे खा ै ।' 'किर भी ...।' 'मैं रूप को कोई चीज़ न ीं समझता।' 'तुम् ारी अक्ल पर मुझे अफ़सोस आता ै । मालती को जानते ो कैसी औरत ै ? उसकी ब न क्या कुछ और

ोगी।'

रुद्रपाल ने तेवरी चढ़ाकर क ा -- मैं इस ववषय में आपसे और कुछ न ीं क ना चा ता; मगर मेरी शादी

ोगी, तो सरोज से।

'मेरे जीते जी कभी न ीं ो सकती।' 'तो आपके बाद ोगी।' 'अच्छा, तुम् ारे य इरादे ैं!' और राय सा ब की आूँखें सजल

ो गयीं। जैसे सारा जीवन उजड़ गया

सम नस्टरी और इलाक़ा और पदवी, सब जैसे बासी िूलों की तर ो गये

ों। जीवन की सारी सािना व्यथद

ो।

नीरस, नरानंद

ो गयी। उनकी स्त्री का जब दे ांत

ु आ था, तो उनकी उम्र छत्तीस साल से ज़्यादा न थी। व वववा कर सकते थे , और भोगववलास का आनंद उठा सकते थे। सभी उनसे वववा करने के सलए आग्र

कर र े थे; मगर उन् ोंने इन बालकों का मूँु

दे खा और वविुर जीवन की

सािना स्वीकार कर ली। इन् ीं लड़कों पर अपने जीवन का सारा भोग-ववलास न्योछावर कर हदया। आज तक अपने हृदय का सारा स्ने आये

ैं, और आज य

कोई नाता न ीं, किर व दें । इन् ीं लड़कों

लड़का इतनी नष्ठुरता से बातें कर र ा

ै , मानो उनसे

क्यों जायदाद और सम्मान और अधिकार के सलए जान

ी के सलए तो व

ज़रा भी सल ाज़ न ीं, तो व हदन र ना

इन् ीं लड़कों दे ते चले

क्यों य

सब कुछ कर र े थे, जब लड़कों को उनका

तपस्या करें । उन् ें कौन संसार में ब ु त ै । उन् ें भी आराम से पड़े र ना आता ै । उनके और ज़ारों भाई

मूँछ ू ों पर ताव दे कर जीवन का भोग करते

ैं और मस्त घम ू ते

ैं। किर व

क्यों न भोग-ववलास में पड़े र ें । उन् ें इस वक़्त याद न र ा कक व कर र े

ैं, व ै। व

कमदशील

ैं और उन् ें जीववत र ने के सलए इसकी

ववलासी और अकमदडय बनकर अपनी आत्मा को संतुष्ट न ीं रख

सकते। उन् ें मालम ू न ीं, कक कुछ लोगों की प्रकृ त का अपाह जपन स्वीकार सलए बने

जो तपस्या

लड़कों के सलए न ीं, बश्ल्क अपने सलए; केवल यश के सलए न ीं,

बश्ल्क इसीसलए कक व ज़रूरत

भी

ी ऐसी

ोती

ै कक ववलास

ी न ीं कर सकते। वे अपने श्जगर का ख़ून पीने

ी के

ैं, और मरते दम तक वपये जायूँगे। मगर इस चोट की प्र तकक्रया भी

तुरंत ु ई। म श्जनके सलए त्याग करते ैं उनसे ककसी बदले की आशा न रखकर भी उनके मन पर शासन करना चा ते ैं , चा े व शासन उन् ीं के ह त के सलए ोकर

ो, यद्यवप उस ह त को मारा

ो जाता

भावना भी उतनी पड़ता

ै , तो

ै । त्याग की मात्रा श्जतनी

ी प्रबल

म क्षुब्ि

ै । राय सा ब को य

म इतना अपना लेते

ोती

ो उठते

ी ज़्यादा

ै और जब स सा ैं , और व

ैं कक व

में ववद्रो

ोती

उनका न ै, य

शासन-

का सामना करना

त्याग जैसे प्र तह स ं ा का रूप ले लेता

श्ज़द पड़ गयी कक रुद्रपाल का वववा

सरोज के साथ न

ोने पाये, चा े इसके सलए उन् ें पसु लस की मदद क्यों न लेनी पड़े, नी त की त्या क्यों न करनी पड़े।

उन् ोंने जैसे तलवार खींचकर क ा -हदन

ाूँ, मेरे बाद

ैं।



ोगी और अभी उसे ब ु त

रुद्रपाल ने जैसे गोली चला दी -- ईकवर करे , आप अमर वववा

ों! सरोज से मेरा

ो चुका।

'झूठ!' 'बबलकुल न ीं, प्रमाण-पत्र मौजद ै ।' ू राय सा ब आ त

ोकर धगर पड़े। इतनी सतष्ृ ण ह स ं ा की आूँखों से उन् ोंने कभी

ककसी शत्रु को न दे खा था। शत्रु अधिक-से-अधिक उनके स्वाथद पर आघात कर सकता था, या दे

पर या सम्मान पर; पर य

आघात तो उस ममदस्थल पर था,

ज ाूँ जीवन की संपण ू द प्रेरणा संधचत थी। एक आूँिी थी श्जसने उनका जीवन जड़ से उखाड़ हदया। अब व

सवदथा अपंग

ैं। पुसलस की सारी शश्क्त

ाथ में र ते

ु ए अपंग ैं। बल-प्रयोग उनका अं तम शस्त्र था। व शसत्रण उनके ाथ से नकल चुका था। रुद्रपाल बासलग़ ै , सरोज भी बासलग़ ै । और रुद्रपाल अपनी

ररयासत का मासलक लौंडा यों ववद्रो

ै । उनका उस पर कोई दबाव न ीं। आ ! अगर जानते य

करे गा, तो इस ररयासत के सलए लड़ते

के पीछे दो-ढाई लाख बबगड़ गये। जीवन इसी तर

ी नष्ट

ी क्यों? इस मुक़दमेबाज़ी

ो गया। अब तो उनकी लाज

बचेगी कक इस लौंडे की ख़श ु ामद करते र ें , उन् ोंने ज़रा बािा दी और

इज़्ज़त िूल में समली। व ओ ! सारा जीवन नष्ट

जीवन का बसलदान करके भी अब स्वामी न ीं

ैं।

ो गया। सारा जीवन! रुद्रपाल चला गया था।

राय सा ब ने कार मूँगवाई और मे ता से समलने चले। मे ता अगर चा ें तो मालती को समझा सकते बीस

ैं। सरोज भी उनकी अव े लना न करे गी ; अगर दस-

ज़ार रुपए बल खाने से भी य

थे। उन् ें उस स्वाथद के नशे में य पास ऐसा प्रस्ताव लेकर जा र े न

वववा

रुक जाय, तो व

दे ने को तैयार

बबल्कुल ख़्याल न र ा कक व

ैं, श्जस पर मे ता की

मे ता के

मददी कभी उनके साथ

ोगी।

मे ता ने सारा वत्ृ तान्त सुनकर उन् ें बनाना शुरू ककया। गंभीर मूँु -- य

तो आपकी प्र तष्ठा का सवाल

ै।

राय सा ब भाूँप न सके। उछलकर बोले -- जी सूयप्र द तापससं को तो आप जानते

बनाकर बोले

ाूँ, केवल प्र तष्ठा का। राजा

ैं ?

'मैंने उनकी लड़की को भी दे खा ै । सरोज उसके पाूँव की िल ू भी न ीं ै ।' 'मगर इस लौंडे की अक्ल पर पत्थर पड़ गया ै । ' 'तो माररये गोली, आपको क्या करना ै । व ी पछतायेगा।' 'आ ! य ी तो न ीं दे खा जाता मे ताजी? समलती ु ई प्र तष्ठा न ीं छोड़ी जाती। मैं इस प्र तष्ठा पर अपनी आिी ररयासत क़ुबादन करने को तैयार ू ूँ। आप मालती दे वी को समझा दें , तो काम बन जाय। इिर से इनकार ो जाय, तो रुद्रपाल ससर पीटकर र जायगा। य

जायगा और य

नशा दस-पाूँच हदन में आप उतर

प्रेम-रोग कुछ न ीं, केवल सनक

ै ।'

'लेककन मालती बबना कुछ ररकवत सलए मानेगी न ीं।' 'आप जो कुछ कह ए, मैं उसे दूँ ग ू ा। व चा े तो में उसे य ाूँ के डफ़ररन ाश्स्पटल का इनचाजद बना दूँ ।ू ' 'मान लीश्जए, व आपको चा े तो आप राज़ी ोंगे। जब से आपको सम नस्टरी समली

ै , आपको ववषय में उसकी राय ज़रूर बदल गयी

ोगी।'

राय सा ब ने मे ता के चे रे की तरफ़ दे खा। उस पर मुस्करा ट की रे खा नज़र आयी। समझ गये।

व्यधथत स्वर में बोले -- आपको भी मुझसे मज़ाक़ करने का य ी अवसर समला। मैं आपके पास इससलए आया था कक मुझे यक़ीन था कक आप मेरी

ालत पर

ववचार करें गे, मुझे उधचत राय दें गे। और आप मुझे बनाने लगे। श्जसके दाूँत न ीं दख ु े, व

दाूँतों का ददद क्या जाने।

मे ता ने गंभीर स्वर से क ा -- क्षमा कीश्जएगा, आप ऐसा प्रकन

ी लेकर आये

ैं कक उस पर गंभीर ववचार करना मैं के श्ज़म्मेदार लेते

ो सकते

ास्यास्पद समझता ू ूँ। आप अपनी शादी ैं। लड़के की शादी का दा यत्व आप क्यों अपने ऊपर

ैं, ख़ास कर जब आपका लड़का बासलग़

समझता

ै । कम-से-कम मैं तो शादी-जैसे म त्व के मुआमले में प्र तष्ठा का

कोई स्थान न ीं समझता। प्र तष्ठा िन से के सामने घंटों ग़ल ु ामों की तर स ी

ै और अपना नफ़ा-नक़ ु सान

ोती तो राजा सा ब उस नंगे बाबा

ाथ बाूँिे न खड़े र ते। मालूम न ीं क ाूँ तक

ै ; पर राजा सा ब अपने इलाक़े के दारोग़ा तक को सलाम करते

आप प्र तष्ठा क ते

ैं? लखनऊ में आप ककसी दक ू ानदार, ककसी अ लकार, ककसी

रा गीर से पू छए, उनका नाम सुनकर गासलयाूँ क ते

ैं ; इसे

ी दे गा। इसी को आप प्र तष्ठा

ैं? जाकर आराम से बैहठए। सरोज से अच्छी विू आपको बड़ी मुश्ककल से

समलेगी।

राय सा ब ने आपश्त्त के भाव से क ा -- ब न तो मालती

ी की

ै।

मे ता ने गमद

ोकर क ा -- मालती की ब न

ोना क्या अपमान की बात

मालती को आपने जाना न ीं, और न जानने की परवा

ै?

की। मैंने भी य ी

समझा था; लेककन अब मालूम ु आ कक व आग में पड़कर चमकनेवाली सच्ची िातु ै । व उन वीरों में ै जो अवसर पड़ने पर अपने जौ र हदखाते ैं , तलवार घुमाते न ीं चलते। आपको मालूम

ै खन्ना की आजकल क्या दशा

ै?

राय सा ब ने स ानुभू त के भाव से ससर ह लाकर क ा -- सन ु चुका ू ूँ , और बार-बार इच्छा ु ई कक उनसे समलूँ ू; लेककन फ़ुरसत न समली। उस समल में आग लगना उनके सवदनाश का कारण

ो गया।

'जी ाूँ। अब व एक तर से दोस्तों की दया पर अपना नवाद कर र े ैं। उस पर गोववंदी म ीनों से बीमार उस पशु पर श्जसने

ै । उसने खन्ना पर अपने को बसलदान कर हदया ,

मेशा उसे जलाया; अब व

की रात उसके ससर ाने बैठी र

जाती

मर र ी

ै । और मालती रात

ै , व ी मालती जो ककसी राजा रईस से

पाूँच सौ फ़ीस पाकर भी रात-भर न बैठेगी। खन्ना के छोटे बच्चों को पालने का भार भी मालती पर तो मालती का य

ै। य

मातत्ृ व उसमें क ाूँ सोया ु आ था, मालूम न ीं। मुझे स्वरूप दे खकर अपने भीतर श्रद्िा का अनुभव ोने लगा,

ालाूँकक आप जानते

ैं , मैं घोर जड़वादी ू ूँ। और भीतर के पररष्कार के साथ उसकी छवव में भी दे वत्व की झलक आने लगी ै । मानवता इतनी ब ु रं गी और इतनी समथद ै , इसका मुझे प्रत्यक्ष अनुभव

ो र ा

ै । आप उनसे समलना चा ें

तो चसलए, इसी ब ाने मैं भी चला चलूँ ग ू ा।'

राय सा ब ने श्स्नग्ि भाव से क ा -- जब आप

ी मेरे ददद को न ीं समझ सके,

तो मालती दे वी क्या समझेंगी, मुफ़्त में शसमांदगी

ोगी; मगर आपको पास जाने

के सलए ककसी ब ाने की ज़रूरत क्यों! मैं तो समझता था , आपने उनके ऊपर अपना जाद ू डाल हदया मे ता ने

ै।

सरत भरी मस् ु करा ट के साथ जवाब हदया -- व

गयी। अब तो कभी उनके दशदन भी न ीं

बात अब स्वप्न

ोते। उन् ें अब फ़ुरसत भी न ीं र ती।

दो-चार बार गया। मगर मुझे मालूम ु आ, मुझसे समलकर व कुछ ख़ुश न ीं ु ईं, तब से जाते झेंपता ू ूँ। ाूँ, ख़ूब याद आया, आज मह ला-व्यायामशाला का जलसा

ै , आप चलें गे?



राय सा ब ने बेहदली के साथ क ा -- जी न ीं, मझ ु े फ़ुरसत न ीं धचंता सवार

ै । मझ ु े तो य

ै कक राजा सा ब को क्या जवाब दूँ ग ू ा। मैं उन् ें वचन दे चुका ू ूँ।



क ते ु ए व उठ खड़े ु ए और मंदग त से द्वार की ओर चले। श्जस गुत्थी को सल ो ु झाने आये थे, व और भी जहटल ो गयी। अंिकार और भी असझ ू गया। मे ता ने कार तक आकर उन् ें बबदा ककया। राय सा ब सीिे अपने बूँगले पर आये और दै नक पत्र उठाया था कक समस्टर तंखा का काडद समला। तंखा से उन् ें घण ृ ा थी, और उनका मूँु दब द दशा में उन् ें ककसी ु ल

भी न दे खना चा ते थे; लेककन इस वक़्त मन की

मददद की तलाश थी, जो और कुछ न कर सके, पर

उनके मनोभावों से स ानभ ु ू त तो करे । तरु ं त बल ु ा सलया।

तंखा पाूँव दबाते ु ए, रोनी सूरत सलये कमरे में दाणख़ल ु ए और ज़मीन पर झुककर सलाम करते ु ए बोले -- मैं तो ु ज़ूर के दशदन करने नैनीताल जा र ा था। सौभाग्य से य ीं दशदन

ो गये! ु ज़रू का समज़ाज तो अच्छा ै । इसके बाद उन् ोंने बड़ी लच्छे दार भाषा में , और अपने वपछले व्यव ार को बबल्कुल भूलकर, राय सा ब का यशोगान आरं भ ककया -- ऐसी दे णखये

ु ज़ूर

ी के चचे

ैं। य

पद ु ज़ूर

राय सा ब मन में सोच र े थे, य

ोम-में बरी कोई क्या करे गा, श्जिर

ी को शोभा दे ता

ै।

आदमी भी ककतना बड़ा िूतद ै , अपनी ग़रज़

पड़ने पर गिे को दादा क नेवाला, प ले ससरे का बेवफ़ा और नलदज्ज; मगर उन् ें उन पर क्रोि न आया, दया आई। पछ ू ा -- आजकल आप क्या कर र े

ैं?

'कुछ न ीं ु ज़ूर, बेकार बैठा ू ूँ। इसी उम्मीद से आपकी णख़दमत में ाश्ज़र ोने जा र ा था कक अपने पुराने खाहदमों पर नगा

र े । आजकल बड़ी मुसीबत में

पड़ा ु आ ू ूँ ु ज़रू । राजा सय द तापससं को तो ु ज़रू जानते ैं , अपने सामने ू प्र ककसी को न ीं समझते। एक हदन आपकी नंदा करने लगे। मझ ु से न सुना गया। मैंने क ा, बस कीश्जए म ाराज, राय सा ब मेरे स्वामी

ैं और मैं उनकी

नंदा न ीं सुन सकता। बस इसी बात पर बबगड़ गये। मैंने भी सलाम ककया और

घर चला आया। मैंने साफ़ क सा ब की जो इज़्ज़त ोती, सलयाक़त से

ोती

ै; व

हदया, आप ककतना

आपको नसीब न ीं

ै । आप में जो सलयाक़त

ी ठाट-बाट हदखायें; पर राय

ो सकती। इज़्ज़त ठाट से न ीं ै व

तो द ु नया जानती

ै।

राय सा ब ने असभनय ककया -- आपने तो सीिे घर में आग लगा दी। तंखा ने अकड़कर क ा -- मैं तो ु ज़रू साफ़ क ता ू ूँ , ककसी को अच्छा लगे या बुरा। जब ु ज़ूर के क़दमों को पकड़े ु ए ू ूँ , तो ककसी से क्यों डरूूँ। ु ज़ूर के तो नाम से जलते

ैं। जब दे णखए ु ज़ूर की बदगोई। जब से आप सम नस्टर ु ए ैं , उनकी छाती पर साूँप लोट र ा ै । मेरी सारी-की-सारी मज़दरू ी साफ़ डकार गये। दे ना तो जानते न ीं ु ज़ूर। असासमयों पर इतना अत्याचार करते ैं कक कुछ न पू छए। ककसी की आबरू सलामत न ीं। हदन द ाड़े औरतों को ...।' कार की आवाज़ आयी और राजा सूयप्र द तापससं उतरे । राय सा ब ने कमरे से नकलकर उनका स्वागत ककया और इस सम्मान के बोझ से नत य

ोकर बोले -- मैं तो आपकी सेवा में आनेवाला

ी था।

प ला अवसर था कक राजा सूयप्र द तापससं ने इस घर को अपने चरणों से

पववत्र ककया। य

सौभाग्य! समस्टर तंखा भीगी बबल्ली बने बैठे ु ए थे। राजा सा ब य ाूँ! क्या इिर इन दोनों म ोदयों में दोस्ती ो गयी ै ? उन् ोंने राय सा ब की ईष्यादश्ग्न को उत्तेश्जत करके अपना राजा सा ब य ाूँ समलने के सलए आ भले व

तो कुम् ार के आूँवे की तर

ाथ सेंकना चा ा था ; मगर न ीं,

ी गये

ों , मगर हदलों में जो जलन



इस ऊपर की लेप-थोप से बुझनेवाली न ीं।

राजा सा ब ने ससगार जलाते ु ए तंखा की ओर कठोर आूँखों से दे खकर क ा -तुमने तो सूरत ी न ीं हदखाई समस्टर तंखा। मुझसे उस दावत के सारे रुपए वसूल कर सलये और

ोटलवालों को एक पाई न दी, व

मेरा ससर खा र े

ैं। मैं

इसे ववकवास घात समझता ू ूँ। मैं चा ू ूँ तो अभी तम् ु ें पल ु ीस में दे सकता ू ूँ। य

क ते ु ए उन् ोंने राय सा ब को संबोधित करके क ा -- ऐसा बेईमान आदमी मैंने न ीं दे खा राय सा ब। मैं सत्य क ता ू ूँ , मैं कभी आपके मुक़ाबले में न खड़ा ोता। मगर इसी शैतान ने मझ ु े ब काया और मेरे एक लाख रुपए बरबाद कर हदये। बूँगला ख़रीद सलया सा ब, कार रख ली। एक वेकया से आशनाई भी कर रखी

ै । पूरे रईस बन गये और अब दग़ाबाज़ी शुरू की

ै।

रईसों की शान नभाने के सलए ररयासत चाह ए। आपकी ररयासत अपने दोस्तों की आूँखों में िूल झोंकना

ै।

राय सा ब ने तंखा की ओर तरस्कार की आूँखों से दे खा। और बोले -- आप चुप क्यों

ैं समस्टर तंखा, कुछ जवाब दीश्जए। राजा सा ब ने तो आपका सारा

मे नताना दबा सलया।

ै इसका कोई जवाब आपके पास? अब कृपा करके य ाूँ

से चले जाइए और ख़बरदार किर अपनी सूरत न हदखाइएगा। दो भले आदसमयों में लड़ाई लगाकर अपना उल्लू सीिा करना बेपूँज ू ी का रोज़गार घाटा और नफ़ा दोनों

ी जान-जोणख़म

ै ; मगर इसका

ै समझ लीश्जए।

तंखा ने ऐसा ससर गड़ाया कक किर न उठाया। िीरे से चले गये। जैसे कोई चोर कुत्ता मासलक के अंदर आ जाने पर दबकर नकल जाय। जब व

चले गये , तो राजा सा ब ने पूछा -- मेरी बुराई करता

ोगा?

'जी ाूँ; मगर मैंने भी ख़ूब बनाया।' 'शैतान ै ।' 'पूरा।' 'बाप-बेटे में लड़ाई करवा दे , समयाूँ-बीबी में लड़ाई करवा दे । इस फ़न में उस्ताद ै । ख़ैर, आज बचा को अच्छा सबक़ समल गया।' इसके बाद रुद्रपाल के वववा

की बातचीत शुरू ु ई। राय सा ब के प्राण सूखे जा र े थे। मानो उन पर कोई नशाना बाूँिा जा र ा ो। क ाूँ छप जायूँ। कैसे क ें कक रुद्रपाल पर उनका कोई अधिकार न ीं र ा ; मगर राजा सा ब को पररश्स्थ त का ज्ञान बच गयी।

ो चुका था। राय सा ब को अपनी तरफ़ से कुछ न क ना पड़ा। जान

उन् ोंने पूछा -- आपको इसकी क्योंकर ख़बर ु ई?

'अभी-अभी रुद्रपाल ने लड़की के नाम एक पत्र भेजा ै जो उसने मझ ु े दे हदया।'

'आजकल के लड़कों में और तो कोई ख़ब ू ी नज़र न ीं आती, बस स्वच्छं दता की सनक सवार

ै ।'

'सनक तो ै ी; मगर इसकी दवा मेरे पास ै । मैं उस छोकरी को ऐसा ग़ायब कर दूँ ू कक क ीं पता न लगेगा। दस-पाूँच हदन में य

सनक ठं डी

ो जायगी।

समझाने से कोई नतीजा न ीं। '

राय सा ब काूँप उठे । उनके मन में भी इस तर

की बात आयी थी ; लेककन

उन् ोंने उसे आकार न लेने हदया था। संस्कार दोनों व्यश्क्तयों के एक-से थे। गुिावासी मनुष्य दोनों

ी व्यश्क्तयों में जीववत था। राय सा ब ने उसे ऊपर

वस्त्रों से ढूँ क हदया था। राजा सा ब में व

नग्न था। अपना बड़प्पन ससद्ि

करने के उस अवसर को राय सा ब छोड़ न सके। जैसे लश्ज्जत लेककन य

बीसवीं सदी

ोगी, मैं न ीं क

ै , बार वीं न ीं। रुद्रपाल के ऊपर इसकी क्या प्र तकक्रया

सकता; लेककन मानवता की दृश्ष्ट से ....।

राजा सा ब ने बात काटकर क ा -- आप मानवता सलये किरते दे खते कक संसार में आज मनुष्य की पशुता र ी

ोकर बोले --

ै । न ीं, राष्रों में लड़ाइयाूँ क्यों

ैं और य

न ीं

ी उसकी मानवता पर ववजय पा

ोतीं? पंचायतों से मामले न तय

ो जाते?

जब तक मनुष्य र े गा, उसकी पशुता भी र े गी। छोटी-मोटी ब स छड़ गयी और वववा गयी और राजा सा ब नाराज़

के रूप में आकर अंत में ववतंडा बन

ोकर चले गये।

दस ू रे हदन राय सा ब ने भी नैनीताल को प्रस्थान ककया। और उसके एक हदन बाद रुद्रपाल ने सरोज के साथ इंगलैंड की रा नाता न था। प्र तद्वंद्वी

ली। अब उनमें वपता-पुत्र का

ो गये थे। समस्टर तंखा अब रुद्रपाल के सला कार

और पैरोकार थे। उन् ोंने रुद्रपाल की तरफ़ से राय सा ब पर ह साब-फ़ मी का दावा ककया। राय सा ब पर दस लाख की डडग्री

ो गयी। उन् ें डडग्री का इतना

दःु ख न ु आ श्जतना अपने अपमान का। अपमान से भी बढ़कर दःु ख था जीवन की संधचत असभलाषाओं के िूल में समल जाने का और सबसे बड़ा दःु ख था इस बात का कक अपने बेटे ने

बड़ी नदद यता के साथ उनके

ी दग़ा दी। आज्ञाकारी पुत्र के वपता बनने का गौरव ाथ से छीन सलया गया था।

मगर अभी शायद उनके दःु ख का प्याला भरा न था। जो कुछ कसर थी, व

लड़की और दामाद के संबंि-ववच्छे द ने पूरी कर दी। सािारण ह द ं ू बासलकाओं की तर

मीनाक्षी भी बेज़बान थी। बाप ने श्जसके साथ ब्या

कर हदया , उसके

साथ चली गयी; लेककन स्त्री-पुरुष में प्रेम न था। हदश्ग्वजयससं ऐयाश भी थे, शराबी भी। मीनाक्षी भीतर

ी भीतर कुढ़ती र ती थी। पुस्तकों और पबत्रकाओं से

मन ब लाया करती थी। हदश्ग्वजय की अवस्था तो तीस से अधिक न थी। पढ़ासलखा भी था; मगर बड़ा मग़रूर, अपनी कुल-प्र तष्ठा की डींग मारनेवाला, स्वभाव का नदद यी और कृपण। गाूँव की नीच जा त की ब ू -बेहटयों पर डोरे डाला करता था। सो बत भी नीचों की थी, श्जनकी ख़ुशामदों ने उसे और भी ख़ुशामदपसंद बना हदया था। मीनाक्षी ऐसे व्यश्क्त का सम्मान हदल से न कर सकती थी।

किर पत्रों में श्स्त्रयों के अधिकारों की चचाद पढ़-पढ़कर उसकी आूँखें खल ु ने लगी थीं। व

ज़नाना क्लब में आने-जाने लगी। व ाूँ ककतनी

ी सशक्षक्षत ऊूँचे कुल की

मह लाएूँ आती थीं। उनमें वोट और अधिकार और स्वािीनता और नारी-जाग ृ त की ख़ूब चचाद

ोती थी, जैसे परु ु षों के ववरुद्ि कोई षडयंत्र रचा जा र ा

ो।

अधिकतर व ी दे ववयाूँ थीं श्जनकी अपने पुरुषों से न पटती थी, जो नयी सशक्षा पाने के कारण परु ानी मयादादओं को तोड़ डालना चा ती थीं। कई यव ु तयाूँ भी थीं, जो डडधग्रयाूँ ले चुकी थीं और वववाह त जीवन को आत्मसम्मान के सलए

घातक समझकर नौकररयों की तलाश में थीं। उन् ीं में एक समस सुलतान थीं, जो ववलायत से बार-ऐट-ला क़ानूनी सला

ोकर आयी थीं और य ाूँ परदानशीन मह लाओं को

दे ने का व्यवसाय करती थीं। उन् ीं की सला

पर गज़ ु ारे का दावा ककया। व

से मीनाक्षी ने प त

अब उसके घर में न र ना चा ती थी। गज़ ु ारे की

मीनाक्षी को ज़रूरत न थी। मैके में व

बड़े आराम से र

सकती थी; मगर व

हदश्ग्वजयससं के मुख में कासलख लगाकर य ाूँ से जाना चा ती थी।

हदश्ग्वजयससं ने उस पर उलटा बदचलनी का आक्षेप लगाया। राय सा ब ने इस कल

को शांत करने की भरसक ब ु त चेष्टा की; पर मीनाक्षी अब प त की सूरत भी न ीं दे खना चा ती थी। यद्यवप हदश्ग्वजयससं का दावा ख़ाररज ो गया और मीनाक्षी ने उस पर गुज़ारे की डडग्री पायी; मगर य चुभता र ा। व

अलग एक कोठी में र ती थी, और ससमष्टवादी आंदोलन में

प्रमुख भाग लेती थी, पर व एक हदन व

अपमान उसके श्जगर में

क्रोि में आकर

जलन शांत न

ोती थी।

ं टर सलये हदश्ग्वजयससं के बूँगले पर प ु ूँची। शो दे जमा थे और वेकया का नाच ो र ा था। उसने रणचंडी की भाूँ त वपशाचों

की इस चंडाल चौकड़ी में प ु ूँचकर त लका मचा हदया। ं टर खा-खाकर लोग इिर-उिर भागने लगे। उसके तेज के सामने व नीच शो दे क्या हटकते; जब हदश्ग्वजयससं अकेले र

गये, तो उसने उन पर सड़ासड़

और इतना मारा कक कुूँवर सा ब बेदम

ं टर जमाने शुरू ककये

ो गये। वेकया अभी तक कोने में दबकी

खड़ी थी। अब उसका नंबर आया। मीनाक्षी

ं टर तानकर जमाना

ी चा ती थी

कक वेकया उसके पैरों पर धगर पड़ी और रोकर बोली -- दल ु ह नजी, आज आप मेरी जान बख़्श दें । मैं किर कभी य ाूँ न आऊूँगी। मैं नरपराि ू ूँ। मीनाक्षी ने उसकी ओर घण ृ ा से दे खकर क ा --

न, मैं कौन ू ूँ! चली जा। अब कभी य ाूँ न आना। चीज़ें ैं ी, तेरा कोई दोष न ीं!

ाूँ, तू नरपराि

ै । जानती



म श्स्त्रयाूँ भोग-ववलास की

वेकया ने उसके चरणों पर ससर रखकर आवेश में क ा -- परमात्मा आपको सुखी रखे। जैसा आपका नाम सन ु ती थी, वैसा

ी पाया।

'सुखी र ने से तुम् ारा क्या आशय ै ?' 'आप जो समझें म ारानीजी!' 'न ीं, तुम बताओ।' वेकया के प्राण नखों में समा गये। क ाूँ से क ाूँ आशीवादद दे ने चली। जान बच गयी थी, चुपके से अपनी रा अब कैसे जान बचे।

लेनी चाह ए थी, दआ दे ने की सनक सवार ु ई। ु

डरती-डरती बोली -- ु ज़ूर का एक़बाल बढ़े , नाम बढ़े । मीनाक्षी मुस्करायी --

ाूँ, ठीक

ै।



आकर अपनी कार में बैठी, ाककम-श्ज़ला के बूँगले पर प ु ूँचकर इस कांड की सूचना दी और अपनी कोठी में चली आयी। तब से स्त्री-पुरुष दोनों एक दस ू रे के

ख़ून के प्यासे थे। हदश्ग्वजयससं ररवालवर सलये उसकी ताक में किरा करते और व

भी अपनी रक्षा के सलए दो प लवान ठाकुरों को अपने साथ सलये र ती थी।

और राय सा ब ने सख ु का जो स्वगद बनाया था, उसे अपनी श्ज़ंदगी से ोते दे ख र े थे। और अब संसार से नराश

ी ध्वंस

ोकर उनकी आत्मा अंतमुखी

ोती

जाती थी। अब तक असभलाषाओं से जीवन के सलए प्रेरणा समलती र ती थी। उिर का रास्ता बंद

ो जाने पर उनका मन आप

ी आप भश्क्त की ओर झुका,

जो असभलाषाओं से क ीं बढ़कर सत्य था। श्जस नई जायदाद के आसरे क़रज़ सलये थे, व और व

जायदाद क़रज़ की परु ौती ककये बबना



ाथ से नकल गयी थी

बोझ ससर पर लदा ु आ था। सम नस्टरी से ज़रूर अच्छी रक़म समलती थी; मगर व सारी की सारी उस मयाददा का पालन करने में ी उड़ जाती थी और राय सा ब को अपना राजसी ठाट नभाने के सलए व ी असासमयों पर इज़ाफ़ा और बेदख़ली और नज़राना करना और लेना पड़ता था, श्जससे उन् ें घण ृ ा थी। व

प्रजा को कष्ट न दे ना चा ते थे। उनकी दशा पर उन् ें दया आती थी ;

लेककन अपनी ज़रूरतों से

ै रान थे। मुश्ककल य

भी उन् ें शां त न समलती थी। व

मो

थी कक उपासना और भश्क्त में

को छोड़ना चा ते थे ; पर मो

उन् ें न

छोड़ता था और इस खींच-तान में उन् ें अपमान, ग्ला न और अशां त से छुटकारा न समलता था। और जब आत्मा में शां त न ीं, तो दे

कैसे स्वस्थ र ती? नरोग

र ने का सब उपाय करने पर भी एक न एक बािा गले पड़ी र ती थी। रसोई में सभी तर

के पकवान बनते थे; पर उनके सलए व ी मूँग ू की दाल और िुलके

थे। अपने और भाइयों को दे खते थे जो उनसे भी ज़्यादा मक़रूज , अपमा नत और शोकग्रस्त थे, श्जनके भोग-ववलास में, ठाट-बाट में ककसी तर थी; मगर इस तर

की कमी न

की बे याई उनके बस में न थी। उनके मन के ऊूँचे संस्कारों

का ध्वंस न ु आ था। पर-पीड़ा, मक्कारी, नलदज्जता और अत्याचार को व ताल्लुक़ेदारी की शोभा और रोब-दाब का नाम दे कर अपनी आत्मा को संतुष्ट न कर सकते थे, और य ी उनकी सबसे बड़ी ***

ार थी।

32 समरज़ा खुशेद ने अस्पताल से नकलकर एक नया काम शुरू कर हदया था। नश्कचंत बैठना उनके स्वभाव में न था। य

काम क्या था? नगर की वेकयाओं

की एक नाटक-मंडली बनाना। अपने अच्छे हदनों में उन् ोंने ख़ब ू ऐयाशी की थी

और इन हदनों अस्पताल के एकांत में घावों की पीड़ाएूँ स ते-स ते उनकी आत्मा नष्ठावान ण ो गयी थी। उस जीवन की याद करके उन् ें ग री मनोव्यथा

थी। उस वक़्त अगर उन् ें समझ

ोती, तो व

प्राणणयों का ककतना उपकार कर

सकते थे; ककतनों के शोक और दररद्रता का भार िन उन् ोंने ऐयाशी में उड़ाया। य मारी आत्मा को जाग ृ त समलती

दख ु ी न ीं

ोता। काश, व

लका कर सकते थे ; मगर व

कोई नया आववष्कार न ीं

ै कक संकटों में



ै । बुढ़ापे में कौन अपनी जवानी की भूलों पर

समय ज्ञान या शश्क्त के संचय में लगाया

सुकृ तयों का कोष भर सलया

ोती

ोता,

ोता, तो आज धचत्त को ककतनी शां त समलती।

व ी उन् ें इसका वेदनामय अनुभव ु आ कक संसार में कोई अपना न ीं, कोई उनकी मौत आूँसू ब ानेवाला न ीं। उन् ें र -र कर जीवन की एक पुरानी घटना याद आती थी। बसरे के एक गाूँव में जब व

कैंप में मलेररया से ग्रस्त पड़े थे , एक ग्रामीण बाला ने उनकी

तीमारदारी ककतने आत्म-समपदण से की थी। अच्छे

ो जाने पर जब उन् ोंने

रुपए और आभूषणों से उसके ए सानों का बदला दे ना चा ा था, तो उसने ककस तर

आूँखों में आूँसू भरकर ससर नीचा कर सलया था और उन उप ारों को लेने

से इनकार कर हदया था। इन नसों की सुश्रूषा में नयम ै , मगर व

प्रेम क ाूँ, व

सेवाओं में थी? व

ै , व्यवस्था

ै , सच्चाई

तन्मयता क ाूँ जो उस बाला की अभ्यास ीन , अल् ड़

अनरु ाग-मू तद कब की उनके हदल से समट चक ु ी थी। व

उससे किर आने का वादा करके कभी उसके पास न गये। ववलास के उन्माद में कभी उसकी याद

ी न आयी। आयी भी तो उसमें केवल दया थी , प्रेम न था।

मालूम न ीं, उस बाला पर क्या गुज़री? मगर आजकल उसकी व

आतुर, नम्र,

शांत, सरल मुद्रा बराबर उनकी आूँखों के सामने किरा करती थी। काश उससे वववा

कर सलया

ोता आज जीवन में ककतना र

ोता। और उसके प्र त

अन्याय के दःु ख ने उस संपूणद वगद को उनकी सेवा और स ानुभू त का पात्र बना हदया। जब तक नदी बाढ़ पर थी उसके गंदले, तेज, िे नल प्रवा

में प्रकाश की

ककरणें बबखरकर र

जाती थीं। अब प्रवा

रश्कमयाूँ उसकी त

श्स्थर और शांत

ो गया था और

तक प ु ूँ च र ी थीं।

समरज़ा सा ब वसंत की इस शीतल संध्या में अपने झोंपड़े के बरामदे में दो वाराूँगनाओं के साथ बैठे कुछ बातचीत कर र े थे कक समस्टर मे ता प ु ूँच।े समरज़ा ने बड़े तपाक से

ाथ समलाया और बोले -- मैं तो आपकी ख़ा तरदारी का

सामान सलये आपकी रा

दे ख र ा ू ूँ।

दोनों सुंदररयाूँ मुस्करायीं। मे ता कट गये। समरज़ा ने दोनों औरतों को व ाूँ से चले जाने का संकेत ककया और मे ता को मसनद पर बैठाते ु ए बोले -- मैं तो ख़द ु आपके पास आनेवाला था। मझ ु े ऐसा मालूम ो र ा ै कक मैं जो काम करने जा र ा ू ूँ, व आपकी मदद के बग़ैर पूरा न

ोगा। आप ससफ़द मेरी पीठ पर

ाथ रख दीश्जए और ललकारते जाइये --

ाूँ समरज़ा, बढ़े चल पट्ठे ।

मे ता ने

ूँसकर क ा -- आप श्जस काम में

ककताबी कीड़ों की मदद की ज़रूरत न भी आपने ख़ूब दे खी

ाथ लगायेंगे , उसमें

म-जैसे

ोगी। आपकी उम्र मझ ु से ज़्यादा

ै द ु नया

ोती, तो मैंने ख़ुदा जाने क्या ककया

ोता।

ै और छोटे -से-छोटे आदसमयों पर अपना असर डाल सकने

की जो शश्क्त आप में

ै, व

मुझमें

समरज़ा सा ब ने थोड़े-से शब्दों में अपनी नयी स्कीम उनसे बयान की। उनकी िारणा थी कक रूप के बाज़ार में व ी श्स्त्रयाूँ आती

ैं, श्जन् ें या तो अपने घर में

ककसी कारण से सम्मान-पूणद आश्रय न ीं समलता, या जो आधथदक कष्टों से मज़बरू

ो जाती

ैं, और अगर य

औरतें इस भाूँ त प तत

दोनों प्रकन

ों।

ल कर हदये जायूँ, तो ब ु त कम

मे ता ने अन्य ववचारवान ण सज्जनों की भाूँ त इस प्रकन पर काफ़ी ववचार ककया था और उनका ख़याल था कक मख् ु यतः मन के संस्कार और भोग-लालसा औरतों को इस ओर खींचती



ै । इसी बात पर दोनों समत्रों में ब स छड़ गयी।

दोनों अपने-अपने पक्ष पर अड़ गये।

मे ता ने मट्ठ ु ी बाूँिकर

वा में पटकते ु ए क ा -- आपने इस प्रकन पर ठं डे हदल से ग़ौर न ीं ककया। रोज़ी के सलए और ब ु त से ज़ररये ैं। मगर ऐश की भूख रोहटयों से न ीं जाती। उसके सलए द ु नया के अच्छे -से-अच्छे पदाथद चाह ए। जब तक समाज की व्यवस्था ऊपर से नीचे तक बदल न डाली जाय , इस तर मंडली से कोई फ़ायदा न

की

ोगा।

समरज़ा ने मूँछ ू ें खड़ी कीं -- और मैं क ता ू ूँ कक व म ज़ रोज़ी का सवाल ाूँ, य सवाल सभी आदसमयों के सलए एक-सा न ीं ै । मज़दरू के सलए व म ज़ आटे -दाल और एक िूस की झोपड़ी का सवाल एक कार और बूँगले और णख़दमतगारों का सवाल

ै । एक वकील के सलए व

ै । आदमी म ज़ रोटी न ीं

चा ता, और भी ब ु त-सी चीज़ें चा ता ै । अगर औरतों के सामने भी व तर -तर की सूरतों में आता ै तो उनका क्या क़ुसूर ै ? डाक्टर मे ता अगर ज़रा गौर करते, तो उन् ें मालम ू में कोई भेद न ीं, केवल शब्दों का

े र-िेर

ै।

प्रकन

ोता कक उनमें और समरज़ा

ै ; पर ब स की गमी में ग़ौर करने का

िैयद क ाूँ? गमद

ोकर बोले -- मआ ु फ़ कीश्जए, समरज़ा सा ब, जब तक द ु नया में दौलतवाले

र ें गे, वेकयाएूँ भी र ें गी। मंडली अगर सिल भी

ो जाय, ालाूँकक मुझे उसमें

ब ु त संदे ै , तो आप दस-पाूँच औरतों से ज़्यादा उसमें कभी न ले सकेंगे, और व भी थोड़े हदनों के सलए। सभी औरतों में नाट्य करने की शश्क्त न ीं ोती, उसी तर

जैसे सभी आदमी कवव न ीं

ो सकते। और य

भी मान लें कक

वेकयाएूँ आपकी मंडली में स्थाई रूप से हटक जायूँगी, तो भी बाज़ार में उनकी जग

ख़ाली न र े गी। जड़ पर जब तक कुल् ाड़े न चलें गे, पश्त्तयाूँ तोड़ने से कोई

नतीजा न ीं। दौलतवालों में कभी-कभी ऐसे लोग नकल आते त्याग कर ख़ुदा की याद में जा बैठते

ैं , जो सब कुछ

ैं; मगर दौलत का राज्य बदस्तूर क़ायम

ै । उसमें ज़रा भी कमज़ोरी न ीं आने पाई।

समरज़ा को मे ता की आदमी इस तर जायगी? व

ठिमी पर दःु ख ु आ। इतना पढ़ा-सलखा ववचारवान ण की बातें करे ! समाज की व्यवस्था क्या आसानी से बदल

तो सहदयों का मुआमला

ै । तब तक क्या य

अनथद

ोने हदया

जाय? उसकी रोक-थाम न की जाय, इन अबलाओं को मदों की सलप्सा का सशकार

ोने हदया जाय? क्यों न शेर को वपंजरे में बंद कर हदया जाय कक व

दाूँत और

नाख़ून

ोते ु ए भी ककसी को ा न न प ु ूँ चा सके। क्यों उस वक़्त तक चुपचाप बैठा र ा जाय, जब तक शेर अह स ं ा का व्रत न ले ले? दौलतवाले और श्जस तर चा ें अपनी दौलत उड़ायें, समरज़ाजी को ग़म न ीं। शराब में डूब जायूँ, कारों की माला गले में डाल लें , कक़ले बनवायें िमदशालायें और मसश्ज़दें खड़ी करें , उन् ें कोई परवा सकते। व

न ीं। अबलाओं की श्ज़ंदगी न ख़राब करें । य

समरज़ाजी न ीं दे ख

रूप के बाज़ार को ऐसा ख़ाली कर दें गे कक दौलतवालों की अशकफ़यों

पर कोई थूकनेवाला भी न समले। क्या श्जन हदनों शराब की दक ू ानों की वपकेहटंग ोती थी, अच्छे -अच्छे शराबी पानी पी-पीकर हदल की आग न ीं बुझाते थे?

मे ता ने समरज़ा की बेवक़ूफ़ी पर द ु नया में ऐसे मुल्क भी

ूँसकर क ा -- आपको मालूम

ैं ज ाूँ वेकयाएूँ न ीं

भी हदलचश्स्पयों के सामान पैदा कर लेती

ोना चाह ए कक

ैं। मगर अमीरों की दौलत व ाूँ

ै।

समरज़ाजी भी मे ता की जड़ता पर

ूँसे -- जानता ू ूँ मे रबान, जानता ू ूँ। आपकी दआ से द ु नया दे ख चुका ू ूँ; मगर य ह द ं स् ु ु तान ै , यूरोप न ीं ै ।

'इंसान का स्वभाव सारी द ु नया में एक-सा ै ।' 'मगर य भी मालूम र े कक र-एक क़ौम में एक ऐसी चीज़ ोती ै , श्जसे उसकी आत्मा क

सकते

ै ।'

ैं। असमत (सतीत्व) ह न्दस् ु तानी त ज़ीब की आत्मा

'अपने मूँु समयाूँ-समट्ठू बन लीश्जए।' 'दौलत की आप इतनी बरु ाई करते ैं, किर भी खन्ना की ह मायत करते न ीं थकते। न कह एगा।' मे ता का तेज बबदा

ो गया।

नम्र भाव से बोले -- मैंने खन्ना की ह मायत उस वक़्त की पंजे से छूट गये

ैं, और आजकल उसकी

ै , जब व

दौलत के

ालत आप दे खें, तो आपको दया

आयेगी। और मैं क्या ह मायत करूूँगा, श्जसे अपनी ककताबों और ववद्यालय से

छुट्टी न ीं; ज़्यादा-से-ज़्यादा सख ू ी

मददी

ी तो कर सकता ू ूँ। ह मायत की समस मालती ने कक खन्ना को बचा सलया। इंसान के हदल की ग राइयों में त्याग और क़ुबादनी की ककतनी ताक़त छपी

ोती



ै , इसका मुझे अब तक

तजरबा न ु आ था। आप भी एक हदन खन्ना से समल आइए। िूला न समाइएगा। इस वक़्त उसे श्जस चीज़ की सबसे ज़्यादा ज़रूरत ै , व मददी समरज़ा ने जैसे अपनी इच्छा के ववरुि क ा -- आप क ते

ै।

ैं, तो जाऊूँगा। आपके

साथ ज न्नुम में जाने में भी मुझे उजाद न ीं; मगर समस मालती से तो आपकी शादी

ोनेवाली थी। बड़ी गमद ख़बर थी।

मे ता ने झेंपते ु ए क ा -- तपस्या कर र ा ू ूँ। दे णखए कब वरदान समले।

'अजी व तो आप पर मरती थी।' 'मुझे भी य ी व म ु आ था; मगर जब मैंने ाथ बढ़ाकर उसे पकड़ना चा ा , तो दे खा। व आसमान में जा बैठी ै । उस ऊूँचाई तक तो क्या मैं प ु ूँचूँग ू ा, आरज़ूसमन्नत कर र ा ू ूँ कक नीचे आ जाय। आजकल तो व य

क ते ु ए मे ता ज़ोर से रोती ु ई

ूँसी

समरज़ा ने पछ ू ा -- अब किर कब मल ु ाक़ात

मझ ु से बोलती भी न ीं।'

ूँसे और उठ खड़े ु ए। ोगी?

'अबकी आपको तकलीफ़ करनी पड़ेगी। खन्ना के पास जाइएगा ज़रूर! 'जाऊूँगा।' समरज़ा ने णखड़की से मे ता को जाते दे खा। चाल में व धचंता में डूबे ु ए ***

ों।

तेज़ी न थी , जैसे ककसी

33 डाक्टर मे ता परीक्षक से परीक्षाथी ऐसी शंका

ोने लगी

ो गये

ैं। मालती से दरू -दरू र कर उन् ें

ै कक उसे खो न बैठें। कई म ीनों से मालती उनके पास न

आयी थी और जब व

ववकल

ोकर उसके घर गये , तो मल ु ाक़ात न ु ई। श्जन हदनों रुद्रपाल और सरोज का प्रेमकांड चलता र ा , तब तो मालती उनकी सला लेने प्रायः एक-दो बार रोज़ आती थी; पर जब से दोनों इंगलैंड चले गये थे , उनका आना-जाना बंद

ो गया था। घर पर भी मुश्ककल से समलती। ऐसा मालूम

ोता था, जैसे व

उनसे बचती

ै , जैसे बलपूवक द अपने मन को उनकी ओर से

टा लेना चा ती

ै । श्जस पस् ु तक में व

इन हदनों लगे

से इनकार कर र ी थी, जैसे उनका मनोयोग लुप्त व

ु ए थे, व आगे बढ़ने ो गया ो। ग ृ -प्रबन्ि में तो

कभी ब ु त कुशल न थे। सब समलकर एक ज़ार रुपए से अधिक म ीने में कमा लेते थे; मगर बचत एक िेले की भी न ोती थी। रोटी-दाल खाने के ससवा और उनके श्जसे व

ाथ कुछ न था। तकल्लुफ़ अगर कुछ था तो व

उनकी कार थी,

ख़द ु ड्राइव करते थे। कुछ रुपए ककताबों में उड़ जाते थे, कुछ चंदों में ,

कुछ ग़रीब छात्रों की परवररश में और अपने बाग़ की सजावट में श्जससे उन् ें इकक़-सा था। तर -तर

के पौिे और वनस्प तयाूँ ववदे शों से म ूँगे दामों मूँगाना

और उनको पालना; य ी उनका मानससक चटोरापन था या इसे हदमाग़ी ऐयाशी क ें ; मगर इिर कई म ीनों से उस बग़ीचे की ओर से भी व र े थे और घर का इंतज़ाम और भी बदतर ख़चद

ो जाते सौ से ऊपर! अचकन पुरानी

कुछ ववरक्त-से



ो गया था। खाते दो िुलके और

ो गयी थी; मगर इसी पर उन् ोंने

कड़ाके का जाड़ा काट हदया। नयी अचकन ससलवाने की तौफ़ीक़ न ु ई थी। कभी कभी बबना घी की दाल खाकर उठना पड़ता। कब घी का कनस्तर मूँगाया था, इसकी उन् ें याद

ी न थी , और म ाराज से पूछें भी तो कैसे। व

कक उस पर अववकवास ककया जा र ा

समझेगा न ीं

ै?

आणख़र एक हदन जब तीन नराशाओं के बाद चौथी बार मालती से मुलाक़ात ु ई और उसने इनकी य ालत दे खी, तो उससे न र ा गया। बोली -- तुम क्या अबकी जाड़ा यों

ी काट दोगे? व

मालती उनकी पत्नी न

अचकन प नते तम् ु ें शमद भी न ीं आती?

ोकर भी उनके इतने समीप थी कक य

उसी स ज भाव से ककया, जैसे अपने ककसी आत्मीय से करती।

प्रकन उसने

मे ता ने बबना झेंपे ु ए क ा -- क्या करूूँ मालती, पैसा तो बचता

ी न ीं।

मालती को अचरज ु आ -- तम ु एक ज़ार से ज़्यादा कमाते ो, और तम् ु ारे पास अपने कपड़े बनवाने को भी पैसे न ीं? मेरी आमदनी कभी चार सौ से ज़्यादा न थी; लेककन मैं उसी में सारी ग ृ स्थी चलाती ू ूँ और कुछ बचा लेती ू ूँ। आणख़र तुम क्या करते ो?

'मैं एक पैसा भी फ़ालतू न ीं ख़चद करता। मुझे कोई ऐसा शौक़ भी न ीं ै ।' 'अच्छा, मुझसे रुपए ले जाओ और एक जोड़ी अचकन बनवा लो। मे ता ने लश्ज्जत

ोकर क ा -- अबकी बनवा लूँ ग ू ा। सच क ता ू ूँ।

'अब आप य ाूँ आयें तो आदमी बनकर आयें।' 'य तो बड़ी कड़ी शतद ै ।' 'कड़ी स ी। तम ु जैसों के साथ बबना कड़ाई ककये काम न ीं चलता। ' मगर व ाूँ तो संदक़ ू ख़ाली था और ककसी दक ू ान पर बे पैसे जाने का सा स न पड़ता था! मालती के घर जायूँ तो कौन मूँु

लेकर? हदल में तड़प-तड़प कर र

जाते थे। एक हदन नयी ववपश्त्त आ पड़ी। इिर कई म ीने से मकान का ककराया न ीं हदया था। पच त्तर रुपए मा वार बढ़ते जाते थे। मकानदार ने जब ब ु त तक़ाज़े करने पर भी रुपए वसूल न कर पाये, तो नोहटस दे दी; मगर नोहटस रुपये गढ़ने का कोई जंतर तो ै न ीं। नोहटस की तारीख़ नकल गयी और रुपए न प ु ूँच।े तब मकानदार ने मज़बूर ोकर नासलश कर दी। व जानता था, मे ताजी बड़े, सज्जन और परोपकारी परु ु ष ैं; लेककन इससे ज़्यादा भलमनसी व

क्या करता कक छः म ीने बैठा र ा। मे ता ने ककसी तर

एकतरफ़ा डडग्री

की पैरवी न की ,

ो गयी, मकानदार ने तुरत डडग्री जारी करायी और क़ुक़द-अमीन

मे ता सा ब के पास पूवद सूचना दे ने आया; क्योंकक उसका लड़का यू नवससदटी में पढ़ता था और उसे मे ता कुछ वज़ीफ़ा भी दे ते थे।

संयोग से उस वक़्त मालती भी बैठी थी। बोली -- कैसी क़ुक़ी

ै ? ककस बात की?

अमीन ने क ा -- व ी ककराये कक डडग्री जो ु ई थी। मैंने क ा, ु ज़ूर को इत्तला दे दूँ ।ू चार-पाूँच सौ का मामला ै , कौन-सी बड़ी रक़म ै । दस हदन में भी रुपए दे दीश्जए, तो कोई

रज़ न ीं। मैं म ाजन को दस हदन तक उलझाए र ू ूँगा।

जब अमीन चला गया तो मालती ने तरस्कार-भरे स्वर से पूछा -- अब य ाूँ

तक नौबत प ु ूँ च गई! मुझे आकचयद ोता ै कक तुम इतने मोटे -मोटे ग्रंथ कैसे सलखते ो। मकान का ककराया छः-छः म ीने से बाक़ी पड़ा ै और तुम् ें ख़बर न ीं।

मे ता लज्जा से ससर झुकाकर बोले -- ख़बर क्यों न ीं न ीं। मैं एक पैसा भी व्यथद न ीं ख़चद करता।

ै ; लेककन रुपए बचते

'कोई ह साब-ककताब भी सलखते ो?' 'ह साब क्यों न ीं रखता। जो कुछ पाता ू ूँ, व सब दरज़ करता जाता ू ूँ, न ीं इनकमटै क्सवाले श्ज़ंदा न छोड़ें।' 'और जो कुछ ख़चद करते ो व ।' 'उसका तो कोई ह साब न ीं रखता।' 'क्यों?' 'कौन सलखे? बोझ-सा लगता ै।' 'और य पोथे कैसे सलख डालते ो?' 'उसमें तो ववशेष कुछ न ीं करना पड़ता। क़लम लेकर बैठ जाता ू ूँ। र वक़्त ख़चद का खाता तो खोलकर न ीं बैठता।' 'तो रुपए कैसे अदा करोगे?' 'ककसी से क़रज़ ले लूँ ग ू ा। तुम् ारे पास ों तो दे दो।'



'मैं तो एक ी शतद पर दे सकती ू ूँ। तुम् ारी आमदनी सब मेरे ाथों में आये और ख़चद भी मेरे ाथ से ो।' मे ता प्रसन्न

ोकर बोले -- वा , अगर य

ढोल बजाऊूँ।

भार ले लो, तो क्या क ना; मूसलों

मालती ने डडग्री के रुपए चक ु ा हदये और दस ू रे

ी हदन मे ता को व

बूँगला

ख़ाली करने पर मज़बूर ककया। अपने बूँगले में उसने उनके सलए दो बड़े-बड़े कमरे दे हदये। उनके भोजन आहद का प्रबंि भी अपनी

ी ग ृ स्थी में कर हदया।

मे ता के पास और सामान तो ज़्यादा न था; मगर ककताबें कई गाड़ी थीं। उनके दोनों कमरे पुस्तकों से भर गये। अपना बग़ीचा छोड़ने का उन् ें ज़रूर क़लक़

ु आ; लेककन मालती ने अपना परू ा अ ाता उनके सलए छोड़ हदया कक जो िूलपश्त्तयाूँ चा ें लगायें। मे ता तो नश्कचंत

ो गये ; लेककन मालती को उनकी आय-व्यय पर नयंत्रण

करने में बड़ी मश्ु ककल का सामना करना पड़ा। उसने दे खा, आय तो एक ज़्यादा

ै ; मगर व

सारी की सारी गप्ु तदान में उड़ जाती

ज़ार से

ै। बीस-पच्चीस लड़के

उन् ीं से वज़ीफ़ा पाकर ववद्यालय में पढ़ र े थे। वविवाओं की तादाद भी इससे कम न थी। इस ख़चद में कैसे कमी करे , य

उसे न सूझता था। सारा दोष उसी

के ससर मढ़ा जायगा, सारा अपयश उसी के ह स्से पड़ेगा। कभी मे ता पर

झूँझ ु लाती, कभी अपने ऊपर, कभी प्राधथयों के ऊपर, जो एक सरल, उदार प्राणी पर अपना भार रखते ज़रा भी न सकुचाते थे। य

दे खकर और भी झूँझ ु ला ट

थी कक इन दान लेने वालों में कुछ तो इसके पात्र एक हदन उसने मे ता को आड़े

ी न थे।

ाथों सलया। मे ता ने उसका आक्षेप सुनकर

नश्कचन्त भाव से क ा -- तम् ु ें अश्ख़्तयार

मुझसे पूछने की कोई ज़रूरत न ीं। मालती ने धचढ़कर क ा --

ोती

ै , श्जसे चा े दो, श्जसे चा े न दो।

ाूँ, जवाब भी तुम् ीं को दे ना पड़ेगा।

ाूँ, और क्या, यश तो तुम लो, अपयश मेरे ससर मढ़ो।

मैं न ीं समझती, तम ु ककस तकद से इस दान-प्रथा का समथदन कर सकते मनुष्य-जा त को इस प्रथा ने श्जतना आलसी और मुफ़्तख़ोर बनाया उसके आत्मगौरव पर जैसा आघात ककया

ो।

ै और

ै , उतना अन्याय ने भी न ककया

ोगा; बश्ल्क मेरे ख़्याल में अन्याय ने मनष्ु य-जा त में ववद्रो

करके समाज का बड़ा उपकार ककया

की भावना उत्पन्न

ै।

मे ता ने स्वीकार ककया -- मेरे भी य ी ख़याल

ैं।

'तुम् ारा य ख़याल न ीं ै ।' 'न ीं मालती, मैं सच क ता ू ूँ ।' 'तो ववचार और व्यव ार में इतना भेद क्यों?' मालती ने तीसरे म ीने ब ु तों को नराश ककया। ककसी को साफ़ जवाब हदया, ककसी से मज़बूरी जताई, ककसी की फ़जी त की। समस्टर मे ता का बजट तो िीरे -िीरे ठीक

ो गया; मगर इससे उनको एक प्रकार की ग्ला न ु ई। मालती ने जब तीसरे म ीने में तीन सौ की बचत हदखायी , तब व उससे कुछ बोले न ीं; मगर उनकी दृश्ष्ट में उसका गौरव कुछ कम अवकय त्याग

ोना चाह ए। उसकी य ी सबसे बड़ी ववभू त

का भवन खड़ा

ै । वणणक-बुद्धि को व

ो गया। नारी में दान और

ै । इसी आिार पर समाज

आवकयक बुराई

ी समझते थे। श्जस

हदन मे ता की अचकनें बन कर आयीं और नयी घड़ी आयी , व

संकोच के मारे

कई हदन बा र न नकले। आत्म-सेवा से बड़ा उनकी नज़र में दस ू रा अपराि न था।

मगर र स्य की बात य

थी कक मालती उनको तो लेखे-डयोढ़े में कसकर बाूँिना

चा ती थी। उनके िन-दान के द्वार बंद कर दे ना चा ती थी; पर ख़ुद जीवन-दान दे ने में अपने समय और सदाशयता को दोनों तो व

ाथों से लुटाती थी। अमीरों के घर

बबना फ़ीस सलये न जाती थी; लेककन ग़रीबों को मफ़् ु त दे खती थी, मफ़् ु त

दवा भी दे ती थी। दोनों में अंतर इतना

ी था , कक मालती घर की भी थी और

बा र की भी; मे ता केवल बा र के थे, घर उनके सलए न था। नजत्व दोनों समटाना चा ते थे। मे ता का रास्ता साफ़ था। उन पर अपनी ज़ान के ससवा और कोई श्ज़म्मेदारी न थी। मालती का रास्ता कहठन था , उस पर दा यत्व था, बन्िन था श्जसे व

तोड़ न सकती थी, न तोड़ना चा ती थी। उस बंिन में

जीवन की प्रेरणा समलती थी। उसे अब मे ता को समीप से दे खकर य ो र ा था कक व

ी उसे अनुभव

खुले जंगल में ववचरनेवाले जीव को वपंजरे में बन्द न ीं कर

सकती। और बंद कर दे गी, तो व

काटने और नोचने दौड़ेगा। वपंजरे में सब तर

का सुख समलने पर भी उसके प्राण सदै व जंगल के सलए

ी तड़पते र ें गे।

मे ता के सलए घरबारी द ु नया एक अनजानी द ु नया थी, श्जसकी री त-नी त से व

पररधचत न थे। उन् ोंने संसार को बा र से दे खा था और उसे मक्त और

फ़रे ब से

ी भरा समझते थे। श्जिर दे खते थे , उिर

ी बुराइयाूँ नज़र आती थीं;

मगर समाज में जब ग राई में जाकर दे खा, तो उन् ें मालूम ु आ कक इन बुराइयों के नीचे त्याग भी ै प्रेम भी ै , सा स भी ै , िैयद भी ै ; मगर य भी दे खा कक व

ववभू तयाूँ

ैं तो ज़रूर, पर दल द ु भ

ैं, और इस शंका और संदे

में

जब मालती का अंिकार से नकलता ु आ दे वीरूप उन् ें नज़र आया, तब व उसकी ओर उतावलेपन के साथ, सारा िैयद खोकर टूटे और चा ा कक उसे ऐसे जतन से छपाकर रखें कक ककसी दस ू रे की आूँख भी उस पर न पड़े। य न र ा कक य

मो

ी ववनाश की जड़

बाूँिकर रखी जा सकती ै , परू ी श्ज़म्मेदारी चा ती

ै? व

रखी जाती

ै । उसके पल्लववत

कोई दीवार न ीं

ैं, य

उनके वववा

की तैयारी

ै । मे ता भी य ी स्वप्न दे खते र ते

सलए ठुकरा हदया

ै । उसे

ै , श्जस पर ऊपर से ईटें ै । जब से मे ता इस

मालती के बबना व ववलाससनी

आिे

ै।

ै । केवल रस्म अदा करने

ैं। अगर मालती ने उन् ें सदा के

ोता, तो क्यों उन पर इतना स्ने

सोचने का अवसर दे र ी

बदल गयी

ोने की शश्क्त उसके अंदर

ैं, उन् ें मालती से हदन में कई बार समलने का अवसर समलता

उनके समत्र समझते

से व

ै , पूरी स्वािीनता चा ती

ैं। उसमें तो प्राण ै , िैलने की असीम शश्क्त

बूँगले में आये की दे र

ै । प्रेम -जैसी नमदम वस्तु क्या भय से

तो पूरा ववकवास चा ती

प्रकाश और क्षेत्र समलना चाह ए। व

ध्यान

रखती। शायद व

उन् ें

ै , और व

ख़ूब सोचकर इसी नकचय पर प ु ूँ चे ैं कक ैं। व ी उन् ें पूणदता की ओर ले जा सकती ै । बा र

ै , भीतर से व ी मनोवश्ृ त्त शश्क्त का केंद्र

ै ; मगर पररश्स्थ त

ै । तब मालती प्यासी थी, अब मे ता प्यास से ववकल

ैं। और एक

बार जवाब पा जाने के बाद उन् ें उस प्रकन पर मालती से कुछ क ने का सा स न ीं

ोता, यद्यवप उनके मन में अब संदे

से दे खकर उनका आकषदण बढ़ता पुते लगते थे, समीप से व

स्पष्ट

ी जाता ो गये

का लेश न ीं र ा। मालती को समीप ै दरू से पुस्तक के जो अक्षर सलपे-

ैं, उनमें अथद ै संदेश

ै।

इिर मालती ने अपने बाग़ के सलए गोबर को माली रख सलया था। एक हदन व ककसी मरीज़ को दे खकर आ र ी थी कक रास्ते में पेरोल न र ा। व

ख़ुद ड्राइव

कर र ी थी। कफ़क्र ु ई पेरोल कैसे आये ? रात के नौ बज गये थे और माघ का जाड़ा पड़ र ा था। सड़कों पर सन्नाटा ो गया था। कोई ऐसा आदमी नज़र न आता था, जो कार को ढकेल कर पेरोल की दक ू ान तक ले जाय। बार-बार नौकर पर झूँुझला र ी थी।

रामख़ोर क ीं का। बेख़बर पड़ा र ता

उिर से आ नकला। मालती को खड़े दे खकर उसने

ै । संयोग से गोबर

ालत समझ ली और गाड़ी

को दो फ़लांग ठे ल कर पेरोल की दक ू ान तक लाया। मालती ने प्रसन्न

ोकर पूछा -- नौकरी करोगे?

गोबर ने िन्यवाद के साथ स्वीकार ककया। पंद्र

रुपए वेतन तय ु आ। माली का काम उसे पसंद था। य ी काम उसने ककया था और उसमें मज़ा ु आ था। समल की मजूरी में वेतन ज़्यादा समलता था; पर उस काम से उसे उलझन

ोती थी।

दस ू रे हदन से गोबर ने मालती के य ाूँ काम करना शुरू कर हदया। उसे र ने को एक कोठरी भी समल गयी। झु नया भी आ गयी। मालती बाग़ में आती तो उसे झु नया का बालक िूल-समट्टी में खेलता समलता। एक हदन मालती ने उसे एक समठाई दे दी। बच्चा उस हदन से परच गया। उसे दे खते

ी उसके पीछे लग

जाता और जब तक समठाई न लेता, उसका पीछा न छोड़ता। एक हदन मालती बाग़ में आयी तो बालक न हदखाई हदया। झु नया से पूछा तो मालूम ु आ बच्चे को ज्वर आ गया

ै।

मालती ने घबराकर क ा -- ज्वर आ गया! तो मेरे पास क्यों न ीं लायी? चल दे ख।ूूँ बालक खटोले पर ज्वर में अचेत पड़ा था। खपरै ल की उस कोठरी में इतनी सील, इतना अूँिेरा, और इस ठं ड के हदनों में भी इतनी मच्छड़ कक मालती एक समनट भी व ाूँ न ठ र सकी; तरु ं त आकर थमामीटर सलया और किर जाकर

दे खा, एक सौ चार था! मालती को भय ु आ, क ीं चेचक न ो। बच्चे को अभी तक टीका न ीं लगा था। और अगर इस सीली कोठरी में र ा , तो भय था, क ीं ज्वर और न बढ़ जाय। स सा बालक ने आूँखें खोल दीं और मालती को खड़ी पाकर करुण नेत्रों से उसकी ओर दे खा और उसकी गोद के सलए

ाथ िैलाये। मालती ने उसे गोद में

उठा सलया और थपककयाूँ दे ने लगी। बालक मालती के गोद में आकर जैसे ककसी बड़े सुख का अनुभव करने लगा। अपनी जलती ु ई उूँ गसलयों से उसके गले की मो तयों की माला पकड़कर अपनी ओर खींचने लगा। मालती ने नेकलेस उतारकर उसके गले में डाल दी। बालक की स्वाथी प्रकृ त इस दशा में भी सजग थी। नेकलेस पाकर अब उसे मालती की गोद में र ने की कोई ज़रूरत न र ी।

य ाूँ उसके छन जाने का भय था। झु नया की गोद इस समय ज़्यादा सरु रक्षत थी।

मालती ने णखले

ु ए मन से क ा -- बड़ा चालाक

झु नया ने क ा -- दे दो बेटा, मेम सा ब का

ै । चीज़ लेकर कैसा भागा!

ै । बालक ने

ार को दोनों

ाथों से

पकड़ सलया और माूँ की ओर रोष से दे खा।

मालती बोली -- तुम प ने र ो बच्चा, मैं माूँगती न ीं ू ूँ। उसी वक़्त बूँगले में आकर उसने अपना बैठक का कमरा ख़ाली कर हदया और उसी वक़्त झु नया उस नये कमरे में डट गयी। मंगल ने उस स्वगद को कुतू लभरी आूँखों से दे खा। छत में पंखा था, रं गीन बल्ब थे, दीवारों पर तस्वीरें थीं। दे र तक उन चीज़ों को टकटकी लगाये दे खता र ा। मालती ने बड़े प्यार से पुकारा -- मंगल! मंगल ने मुस्कराकर उसकी ओर दे खा, जैसे क जाता मेम सा ब! क्या करूूँ। आपसे कुछ

र ा

ो -- आज तो

ो सके तो कीश्जए।

ूँसा न ीं

मालती ने झु नया को ब ु त-सी बातें समझाईं और चलते-चलते पूछा -- तेरे घर में कोई दस ू री औरत ो, तो गोबर से क दे , दो-चार हदन;के सलए बुला लावे। मुझे चेचक का डर

ै । ककतनी दरू

ै तेरा घर? झु नया ने अपने गाूँव का नाम

और पता बताया। अंदाज़ से अट्ठार -बीस कोस

ोंगे। मालती को बेलारी याद था।

बोली -- व ी गाूँव तो न ीं, श्जसके पश्च्छम तरफ़ आि मील पर नदी

' ाूँ- ाूँ मेम सा ब, व ी गाूँव ै । आपको कैसे मालूम?'

ै?

'एक बार म लोग उस गाूँव में गये थे। ोरी के घर ठ रे थे। तू उसे जानती ै ?'

'व तो मेरे ससुर ैं मेम सा ब। मेरी सास भी समली ोंगी।' ' ाूँ- ाूँ, बड़ी समझदार औरत मालूम ोती थी। मुझसे ख़ूब बातें करती र ी। तो गोबर को भेज दे , अपनी माूँ को बुला लाये।'

'व उन् ें बुलाने न ीं जायेंगे।' 'क्यों?' 'कुछ ऐसा कारन ै ।' झु नया को अपने घर का चौका-बरतन, झाड़ू-ब ारू, रोटी-पानी सभी कुछ करना पड़ता। हदन को तो दोनों चना-चबेना खाकर र

जाते, रात को जब मालती आ

जाती, तो झु नया अपना खाना पकाती और मालती बच्चे के पास बैठती। व

बार-बार चा ती कक बच्चे के पास बैठे; लेककन मालती उसे न आने दे ती। रात को बच्चे का ज्वर तेज़

ोता जाता और व

बेचैन

ोकर दोनों

ाथ उपर उठा लेता।

मालती उसे गोद में लेकर घंटों कमरे में ट लती। चौथ हदन उसे चेचक नकल आयी। मालती ने सारे घर को टीका लगाया, ख़द ु टीका लगवाया, मे ता को भी लगाया। गोबर, झु नया, म ाराज, कोई न बचा।

प ले हदन तो दाने छोटे थे और अलग-अलग थे। जान पड़ता था, छोटी माता दस ू रे हदन जैसे णखल उठे और अंगरू के दाने के बराबर कई दाने समलकर बड़े-बड़े आूँवले जैसे पीड़ा से बेचैन

ो गये और किर कई-

ो गये। मंगल जलन और खुजली और

ोकर करुण स्वर में करा ता और दीन, अस ाय नेत्रों से मालती

की ओर दे खता। उसका करा ना भी प्रौढ़ों का-सा था, और दृश्ष्ट में भी प्रौढ़ता थी, जैसे व

एकाएक जवान

ो गया

अबोि सशशुपन को समटा डाला र ी थी कक मालती

ो। उसकी सशशु-बवु ि मानो सज्ञान

ी के जतन से व

ककसी काम से चली जाती, व

ो। इस असह्य वेदना ने मानो उसके अच्छा

ो सकता

ोकर समझ

ै । मालती ज्यों

रोने लगता। मालती के आते

ी चुप



ो जाता।

रात को उसकी बेचैनी बढ़ जाती और मालती को प्रायः सारी रात बैठना पड़

ैं।

जाता; मगर व

न कभी झूँझ ु लाती, न धचढ़ती।

अवकय क्रोि आता, क्योंकक व

ाूँ, झु नया पर उसे कभी-कभी

अज्ञान के कारण जो न करना चाह ए, व

कर

बैठती। गोबर और झु नया दोनों की आस्था झाड़-िूूँक में अधिक थी; य ाूँ उसको कोई अवसर न समलता। उस पर झु नया दो बच्चे की माूँ

ोकर बच्चे का पालन

करना न जानती थी, मंगल हदक करता, तो उसे डाूँटती-कोसती। ज़रा-सा भी अवकाश पाती, तो ज़मीन पर सो जाती और सबेरे से प ले न उठती; और गोबर तो उस कमरे में आते जैसे डरता था। मालती व ाूँ बैठी बच्चे का स्वस्थ न

ै , कैसे जाय? झु नया से

ाल- वाल पूछ लेता और खाकर पड़ र ता। उस चोट के बाद व

पूरा

ो पाया था। थोड़ा-सा काम करके भी थक जाता था। उन हदनों जब

झु नया घास बेचती थी और व

आराम से पड़ा र ता था, व

कुछ

रा

ो गया

था; मगर इिर कई म ीने बोझ ढोने और चन ू े-गारे का काम करने से उसकी

दशा धगर गयी थी। उस पर य ाूँ काम ब ु त था। सारे बाग़ को पानी नकालकर सींचना, क्याररयों को गोड़ना, घास छीलना, गायों को चारा-पानी दे ना और द ु ना। और जो मासलक इतना दयालु

ो, उसके काम में कान-चोरी कैसे करे ? य

ए सान उससे एक क्षण भी आराम से न बैठने दे ता, और जब मे ता ख़ुद खुरपी लेकर घंटों बाग़ में काम करते तो व पर बाग़

रा

कैसे आराम करता ? व

ो र ा था।

समस्टर मे ता को भी बालक से स्ने

ख़द ु सख ू ता था;

ो गया था। एक हदन मालती ने उसे गोद

में लेकर उनकी मूँछ ू उखड़वा दी थी। दष्ु ट ने मूँछ ू ों को ऐसा पकड़ा था कक समल ू ी उखाड़ लेगा। मे ता की आूँखों में आूँसू भर आये थे।

मे ता ने बबगड़कर क ा था -- बड़ा शैतान लौंडा

ै।

मालती ने उन् ें डाूँटा था -- तुम मूँछ े ू ें साफ़ क्यों न ीं कर लेत?

'मेरी मूँछ ू ें मझ ु े प्राणों से वप्रय ैं।' 'अबकी पकड़ लेगा, तो उखाड़कर ी छोड़ेगा।' 'तो मैं इसके कान भी उखाड़ लूँ ग ू ा।

मंगल को उनकी मूँछ ू ें उखाड़ने में कोई ख़ास मज़ा आया था। व णखलणखलाकर

ख़ब ू

ूँसा था और मूँूछों को और ज़ोर से खींचा था; मगर मे ता को भी

शायद मूँछ ू ें उखड़वाने में मज़ा आया था; क्योंकक व

प्रायः दो एक बार रोज़

चेचक नकल आयी थी, मे ता को भी बड़ी धचन्ता

ो गयी थी। अकसर कमरे में

उससे अपनी मूँछ ू ों की रस्साकशी करा सलया करते थे। इिर जब से मंगल को

जाकर मंगल को व्यधथत आूँखों से दे खा करते। उसके कष्टों की कल्पना करके उनका कोमल हृदय ह ल जाता था। उनके दौड़-िूप से व

अच्छा

पथ् ृ वी के उस छोर तक दौड़ लगाते; रुपए ख़चद करने से अच्छा भीख

ी माूँगना पड़ता, व

था। उसे छूते भी उनके ककतने कोमल ककतने स्ने

उसे अच्छा करके

ी र ते; लेककन य ाूँ कोई बस न

ाथों से उसे उठाती

ै , कंिे पर उठाकर कमरे में ट लती

से उसे ब लाकर दि ू वपलाती

ै, य

ै और

वात्सल्य मालती को उनकी

ै । मालती केवल रमणी न ीं

ै , माता

ै और ऐसी-वैसी माता न ीं सच्चे अथों में दे वी और माता और जीवन

दे नेवाली, जो पराये बालक को भी अपना समझ सकती का सदै व संचय ककया

ो और आज दोनों

ै , जैसे उसने मातापन

ाथों से उसे लट ु ा र ी

अंग से मातापन िूटा पड़ता था, मानो य ी उसका यथाथद रूप य

ोता, तो चा े

ाथ काूँपते थे। क ीं उसके आबले न टूट जायूँ। मालती

दृश्ष्ट में न जाने ककतना ऊूँचा उठा दे ता भी

ो जाता, तो

शौक़-ससंगार उसके मातापन के आवरण-मात्र

ोती र े ।

ो। उसके अंग-

ो, य

ाव-भाव,

ों, श्जसमें उस ववभू त की रक्षा

रात को एक बज गया था। मंगल का रोना सुनकर मे ता चौंक पड़े। सोचा, बेचारी मालती आिी रात तक तो जागती र ी ककतना कष्ट

ोगा; अगर द्वार खुला

ो तो मैं

ोगी , इस वक़्त उसे उठने में ी बच्चे को चुप करा दूँ ।ू तुरंत

उठकर उस कमरे के द्वार पर आये और शीशे से अन्दर झाूँका। मालती बच्चे को गोद में सलये बैठी थी और बच्चा अनायास स्वप्न दे खा था, या और ककसी वज

ी रो र ा था। शायद उसने कोई

से डर गया था। मालती चुमकारती थी,

थपकती थी, तसवीरें हदखाती थी, गोद में लेकर ट लती थी, पर बच्चा चुप का नाम न लेता था। मालती का य दे खकर उनकी आूँखें सजल

अटूट वात्सल्य, य

अदम्य मात-ृ भाव

ोने

ो गयीं। मन में ऐसा पुलक उठा कक अन्दर जाकर

मालती के चरणों को हृदय से लगा लें ।

अंतस्तल से अनरु ाग में डूबे

ु ए शब्दों का एक समू स्वगद की दे वी, मेरी रानी, डारसलंग...।

मचल पड़ा -- वप्रये, मेरे

और उसी प्रेमोंमाद में उन् ोंने पुकारा -- मालती, ज़रा द्वार खोल दो। मालती ने आकर द्वार खोल हदया और उनकी ओर श्जज्ञासा की आूँखों से दे खा। मे ता ने पछ ू ा -- क्या झु नया न ीं उठी? य

तो ब ु त रो र ा

मालती ने समवेदना भरे स्वर में क ा -- आज आठवाूँ हदन

ै।

ै पीड़ा अधिक

ोगी। इसी से।

'तो लाओ, मैं कुछ दे र ट ला दूँ ,ू तुम थक गयी ो।' मालती ने मुस्कराकर क ा -- तुम् ें ज़रा

ी दे र में ग़स् ु सा आ जायगा! बात सच

थी; मगर अपनी कमज़ोरी को कौन स्वीकार करता मे ता ने श्ज़द करके क ा -- तुमने मुझे इतना

ै?

ल्का समझ सलया

मालती ने बच्चे को उनकी गोद में दे हदया। उनकी गोद में जाते चुप

ो गया। बालकों में जो एक अंतज्ञादन

में तुम् ारा कोई फ़ायदा न ीं। य ग़स् ु सेवर

ोता

ै और नदद यी भी

ोता

अूँिेरे में सल ु ाकर दरू चला जा सकता

ी व

ै और पुरुष

ै और चारपाई पर लेटाकर, या बा र

ै और ककसी को पास आने भी न दे गा।

मे ता ने ववजय-गवद से क ा -- दे खा, कैसा चुप कर हदया। मालती ने ववनोद ककया --

एकदम

ै , उसने उसे बता हदया, अब रोने

नया आदमी स्त्री न ीं, पुरुष ोता

ै?

ाूँ, तम ु इस कला में कुशल

'तुमसे। 'मैं स्त्री ू ूँ और मुझ पर ववकवास न ीं ककया जा सकता।'

ो। क ाूँ सीखी?

मे ता ने लश्ज्जत

ोकर क ा -- मालती, मैं तम ु से

ाथ जोड़कर क ता ू ूँ , मेरे उन शब्दों को भूल जाओ। इन कई म ीनों में मैं ककतना पछताया ू ूँ , ककतना

लश्ज्जत ु आ ू ूँ , ककतना दख ु ी ु आ ू ूँ , शायद तुम इसका अंदाज़ न कर सको। मालती ने सरल भाव से क ा -- मैं तो भल ू गयी, सच क ती

ू ूँ।

'मुझे कैसे ववकवास आये?' 'उसका प्रमाण य ी ै कक म दोनों एक ी घर में र ते ैं , एक साथ खाते ैं, ूँसते

ैं, बोलते

ैं।'

'क्या मझ ु े कुछ याचना करने की अनम ु त न दोगी?' उन् ोंने मंगल को खाट पर सलटा हदया, ज ाूँ व

दबककर सो र ा। और मालती

की ओर प्राथी आूँखों से दे खा जैसे उसी अनुम त पर उनका सब कुछ हटका ु आ ो। मालती ने आद्रद कोई दस ू रा न ीं

ोकर क ा -- तुम जानते

ो, तुमसे ज़्यादा नकट संसार में मेरा

ै । मैंने ब ु त हदन ु ए, अपने को तुम् ारे चरणों पर समवपदत कर हदया। तुम मेरे पथ-प्रदशदक ो, मेरे दे वता ो, मेरे गुरु ो। तम् ु ें मुझसे कुछ याचना करने की ज़रूरत न ीं, मझ ु े केवल संकेत कर दे ने की ज़रूरत

ै । जब

मुझे तुम् ारे दशदन न ु ए थे और मैंने तुम् ें प चाना न था, भोग और आत्म-सेवा ी मेरे जीवन का इष्ट था। तुमने आकर उसे प्रेरणा दी, श्स्थरता दी। मैं तुम् ारे ए सान कभी न ीं भूल सकती। मैंने नदी की तटवाली तुम् ारी बातें गाूँठ बाूँि लीं। दःु ख य ी ु आ कक तुमने भी मुझे व ी समझा जो कोई दस ू रा पुरुष समझता, श्जसकी मझ ु े तम ु से आशा न थी। उसका दा यत्व मेरे ऊपर ै , य

मैं

जानती ू ूँ ; लेककन तुम् ारा अमूल्य प्रेम पाकर भी मैं व ी बनी र ू ूँगी, ऐसा समझकर तुमने मेरे साथ अन्याय ककया। मैं इस समय ककतने गवद का अनुभव

कर र ी ू ूँ य तुम न ीं समझ सकते। तुम् ारा प्रेम और ववकवास पाकर अब मेरे सलए कुछ भी शेष न ीं र गया ै । य वरदान मेरे जीवन को साथदक कर दे ने के सलए काफ़ी

ै। य

मेरी पण ू ताद

ै।



क ते-क ते मालती के मन में ऐसा अनरु ाग उठा कक मे ता के सीने से

सलपट जाए। भीतर की भावनाएूँ बा र आकर मानो सत्य रोम-रोम पुलककत

ो गयी थीं। उसका

ो उठा। श्जस आनंद को उसने दल द समझ रखा था, व ु भ

इतना सुलभ इतना समीप

ै ! और हृदय का व

आह्लाद मुख पर आकर उसे

ऐसी शोभा दे ने लगा कक मे ता को उसमें दे वत्व की आभा हदखी। य

नारी

ै;

या मंगल की, पववत्रता की और त्याग की प्र तमा! उसी वक़्त झु नया जागकर उठ बैठी और मे ता अपने कमरे में चले गये और किर दो सप्ता

तक मालती से कुछ बातचीत करने का अवसर उन् ें न समला।

मालती कभी उनसे एकांत में न समलती। मालती के व

शब्द उनके हृदय में

गूँज ू ते र ते। उनमें ककतनी सांत्वना थी, ककतनी ववनय थी, ककतना नशा था! दो सप्ता

में मंगल अच्छा

ो गया।

ाूँ, मूँु

पर चेचक के दाग़ न भर सके।

उस हदन मालती ने आस-पास के लड़कों को भर पेट समठाई णखलाई और जो मनौ तयाूँ कर रखी थीं, व ै , इसका अब उसे अनुभव

भीतर प्र तबबंबबत

भी पूरी कीं। इस त्याग के जीवन में ककतना आनंद ो र ा था। झु नया और गोबर का

ो र ा था। दस ू रों के कष्ट- नवारण में उसने श्जस सख ु और

उल्लास का अनुभव ककया, व

कभी भोग-ववलास के जीवन में न ककया था। व

लालसा अब उन िूलों की भाूँ त क्षीण व

षद मानो उसके

ो गयी थी श्जसमें िल लग र े

ों। अब

उस दजे से आगे नकल चुकी थी, जब मनुष्य स्थूल आनंद को परम सुख

मानता

ै। य

आनंद अब उसे तुच्छ पतन की ओर ले जानेवाला, कुछ

लका,

बश्ल्क बीभत्स-सा लगता था। उस बड़े बूँगले में र ने का क्या आनंद जब उसके आस-पास समट्टी के झोपड़े मानो ववलाप कर र े गवद न ीं

ों। कार पर चढ़कर अब उसे

ोता। मंगल जैसे अबोि बालक ने उसके जीवन में ककतना प्रकाश डाल

हदया, उसके सामने सच्चे आनंद का द्वार-सा खोल हदया। एक हदन मे ता के ससर में ज़ोर का ददद

ो र ा था। व

पर पड़े तड़प र े थे कक मालती ने आकर उनके ससर पर कब से य

ददद

ो र ा

ै?

मे ता को ऐसा जान पड़ा, उन कोमल बैठ गये और बोले -- ददद तो दोप र से

आूँखें बंद ककये चारपाई ाथ रखकर पूछा --

ाथों ने जैसे सारा ददद खींच सलया। उठकर ी

ो र ा था और ऐसा ससर-ददद मुझे

आज तक न ीं ु आ था, मगर तम् ु ारे ाथ रखते ी ससर ऐसा मानो ददद था ी न ीं। तुम् ारे ाथों में य ससवि ै ।

ल्का

ो गया



मालती ने उन् ें कोई दवा लाकर खाने को दे दी और आराम से लेट र ने को ताकीद करके तरु ं त कमरे से नकल जाने को ु ई। मे ता ने आग्र

करके क ा -- ज़रा दो समनट बैठोगी न ीं?

मालती ने द्वार पर से पीछे किरकर क ा -- इस वक़्त बातें करोगे तो शायद किर ददद

ोने लगे। आराम से लेटे र ो। आज-कल मैं तुम् ें

मेशा कुछ-न-कुछ

पढ़ते या सलखते दे खती ू ूँ। दो-चार हदन सलखना-पढ़ना छोड़ दो।

'तम ु एक समनट बैठोगी न ीं?' 'मुझे एक मरीज़ को दे खने जाना ै ।' 'अच्छी बात ै , जाओ।' मे ता के मुख पर कुछ ऐसी उदासी छा गयी कक मालती लौट पड़ी और सामने आकर बोली -- अच्छा क ो, क्या क ते मे ता ने ववमन

ो?

ोकर क ा -- कोई ख़ास बात न ीं

ै। य ी क

र ा था कक

इतनी रात गये ककस मरीज़ को दे खने जाओगी ?

'व ी राय सा ब की लड़की ै । उसकी ालत ब ु त ख़राब ो गयी थी। अब कुछ सूँभल गयी ै ।' उसके जाते ाथ रखते

ी मे ता किर लेट र े । कुछ समझ में न ीं आया कक मालती के

ी ददद क्यों शांत

ो गया। अवकय

उसकी तपस्या का, उसकी कमदडय मानवता का

ी उसमें कोई ससद् धि ी वरदान

ै और य

ै । मालती नारीत्व के

उस ऊूँचे आदशद पर प ु ूँच गयी थी, ज ाूँ व प्रकाश के एक नक्षत्र-सी नज़र आती थी। अब व प्रेम की वस्तु न ीं, श्रद्िा की वस्तु थी। अब व दरु लभ ो गयी थी और दल ु भता मनस्वी आत्माओं के सलए उद्योग का मंत्र

ै । मे ता प्रेम में

श्जस सुख की कल्पना कर र े थे उसे श्रद्िा ने और भी ग रा, और भी

स्िू तमदय बना हदया। प्रेम में कुछ मान भी अपने को समटा डालती

ै और अपने समट जाने को

प्रेम अधिकार कराना चा ता

ै , जो कुछ दे ता

ै । श्रिा का चरम आनंद अपना समपदण जाता

ै । मे ता का व

ोता

ब ृ त ण ग्रंथ समाप्त

ै , कुछ म त्व भी। श्रद्िा तो ी अपना इष्ट बना लेती

ै।

ै , उसके बदले में कुछ चा ता भी

ै , श्जसमें अ म्मन्यता का ध्वंस ो गया था, श्जसे व



तीन साल से

सलख र े थे और श्जसमें उन् ोंने संसार के सभी दशदन-तत्वों का समन्वय ककया था। य

ग्रंथ उन् ोंने मालती को समवपतद ककया, और श्जस हदन उसकी प्र तयाूँ

इंगलैंड से आयीं और उन् ोंने एक प्र त मालती को भें ट की, तो व

उसे अपने

नाम से समवपदत दे खकर ववश्स्मत भी ु ई और दख ु ी भी। उसने क ा -- य

तुमने क्या ककया? मैं तो अपने को इस योग्य न ीं समझती।

मे ता ने गवद से क ा -- लेककन मैं तो समझता ू ूँ। य तो कोई चीज़ न ीं। मेरे तो अगर सौ प्राण ोते, तो व तम् ु ारे चरणों पर न्योछावर कर दे ता।

'मुझ पर! श्जसने स्वाथद-सेवा के ससवा कुछ जाना ी न ीं।' 'तम् ु ारे त्याग का एक टुकड़ा भी मैं पा जाता, तो अपने को िन्य समझता। तम ु दे वी ो।' 'पत्थर की, इतना और क्यों न ीं क ते?' 'त्याग की, मंगल की, पववत्रता की।' 'तब तम ु ने मझ ु े ख़ब ू समझा। मैं और त्याग! मैं तम ु से सच क ती ू ूँ , सेवा या त्याग का भाव कभी मेरे मन में न ीं आया। जो कुछ करती ू ूँ , प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष स्वाथद के सलए करती

ू ूँ। मैं गाती इससलए न ीं कक त्याग करती ू ूँ , या अपने गीतों से दख ु ी आत्माओं को सांत्वना दे ती ू ूँ ; बश्ल्क केवल इससलए कक उससे मेरा मन प्रसन्न

दवा-दारू भी ग़रीबों को दे दे ती ू ूँ; केवल अपने मन को प्रसन्न करने के सलए। शायद मन का अ ं कार इसमें सख ु मानता र

गयी

ोता

ै । इसी तर

ै । तुम मुझे ख़्वा मख़्वा

दे वी बनाये डालते

ै कक िूप-दीप लेकर मेरी पूजा करो।'

ो। अब तो इतनी कसर

मे ता ने कातर स्वर में क ा -- व

तो मैं बरसों से कर र ा ू ूँ, मालती, और उस वक़्त तक करता जाऊूँगा जब तक वरदान न समलेगा। मालती ने चुटकी ली -- तो वरदान पा जाने के बाद शायद दे वी को मंहदर से नकाल िेंको।

मे ता सूँभलकर बोले -- अब तो मेरी अलग सत्ता उपास्य में लय मालती ने गंभीर

ी न र े गी --

उपासक

ो जायगा। ोकर क ा -- न ीं मे ता, मैं म ीनों से इस प्रकन पर ववचार

कर र ी ू ूँ और अंत में मैंने य तय ककया ै कक समत्र बनकर र ना स्त्री-पुरुष बनकर र ने से क ीं सख ु कर ै । तुम मुझसे प्रेम करते ो, मुझ पर ववकवास करते

ो, और मझ ु े भरोसा

ै कक आज अवसर आ पड़े तो तुम मेरी रक्षा प्राणों

से करोगे। तुममें मैंने अपना पथ-प्रदशदक

ी न ीं, अपना रक्षक भी पाया

ै । मैं

भी तुमसे प्रेम करती ू ूँ, तुम पर ववकवास करती ू ूँ, और तुम् ारे सलए कोई ऐसा त्याग न ीं ै , जो मैं न कर सकूूँ। और परमात्मा से मेरी य ी ववनय ै कक व जीवन-पयांत मुझे इसी मागद पर दृढ़ रखे।

मारी पूणत द ा के सलए, मारी आत्मा

के ववकास के सलए, और क्या चाह ए? अपनी छोटी-सी ग ृ स्थी बनाकर, अपनी आत्माओं को छोटे -से वपंजड़े में बंद करके, अपने दःु ख-सुख को अपने

ी एक

रखकर, क्या

म असीम के नकट प ु ूँच सकते ैं? व तो मारे मागद में बािा ी डालेगा। कुछ ववरले प्राणी ऐसे भी ैं, जो पैरों में य बेडड़याूँ डालकर भी

ववकास के पथ पर चल सकते

ैं , और चल र े

ैं। य

भी जानती ू ूँ कक पूणदता के सलए पाररवाररक प्रेम और त्याग और बसलदान का ब ु त बड़ा म त्व ै ; लेककन मैं अपनी आत्मा को उतना दृढ़ न ीं पाती। जब तक ममत्व न ीं न ीं

ै , तब तक जीवन का मो

न ीं

ै स्वाथद का ज़ोर न ीं

ै , अपनत्व

ै । श्जस हदन मन

मो

में आसक्त ु आ, और म बंिन में पड़े, उस क्षण मारा मानवता का क्षेत्र ससकुड़ जायगा, नई-नई श्ज़म्मेदाररयाूँ आ जायूँगी और मारी सारी शश्क्त उन् ीं

को परू ा करने में लगने लगें गी। तम् ु ारे जैसे ववचारवान, प्र तभाशाली मनष्ु य की

आत्मा को मैं इस कारागार में बंदी न ीं करना चा ती। अभी तक तुम् ारा जीवन यज्ञ था, श्जसमें स्वाथद के सलए ब ु त थोड़ा स्थान था। मैं उसको नीचे की ओर न ले जाऊूँगी। संसार को तुम-जैसे सािकों की ज़रूरत ै , जो अपनेपन को इतना िैला दें कक सारा संसार अपना

ो जाय। संसार में अन्याय की , आतंक की, भय

की द ु ाई मची ु ई ै । अंिववकवास का, कपट-िमद का, स्वाथद का प्रकोप छाया ु आ ै । तुमने व आतद-पुकार सुनी ै । तुम भी न सुनोगे, तो सुननेवाले क ाूँ से आयेंगे। और असत्य प्राणणयों की तर बंद कर सकते। तुम् ें व

जीवन भार

तुम भी उसकी ओर से अपने कान न ीं

ो जायगा। अपनी ववद्या और बुद्धि को,

अपनी जागी ु ई मानवता को और भी उत्सा और ज़ोर के साथ उसी रास्ते पर ले जाओ। मैं भी तम् ु ारे पीछे -पीछे चलूँ ग ू ी। अपने जीवन के साथ मेरा जीवन भी साथदक कर दो। मेरा तुमसे य ी आग्र ओर लपकता

ै तब भी मैं अपना क़ाबू चलते तुम् ें उिर से

न करे कक मैं असिल

दे ते

कोई घाट

टाऊूँगी और ईकवर

ो जाऊूँ, लेककन तब मैं तुम् ारा साथ दो बूँद ू आूँसू

धगराकर छोड़ दूँ ग ू ी, और क पर चा े व

ै । अगर तुम् ारा मन सांसाररकता की

न ीं सकती, मेरा क्या अंत

ो , इस बंिन का घाट न

ो?

ोगा, ककस घाट लगूँग ू ी,

ोगा; बोलो, मझ ु े क्या आदे श

मे ता ससर झुकाये सुनते र े । एक-एक शब्द मानो उनके भीतर की आूँखें इस तर

खोले दे ता था, जैसी अब तक कभी न खल ु ी थीं। व

उनके सामने स्वप्न-धचत्रों की तर गयी थी। व

भावनायें जो अब तक

आयी थीं, अब जीवन सत्य बनकर श्स्पंदन

अपने रोम-रोम में प्रकाश और उत्कषद का अनुभव कर र े थे।

जीवन के म ान ण संकल्पों के सम्मुख

मारा बालपन

ै । मे ता की आूँखों में मिुर बाल-स्मृ तयाूँ सजीव

मारी आूँखों में किर जाता

ो उठीं, जब व

अपनी

वविवा माता की गोद में बैठकर म ान ण सख ु का अनभ ु व ककया करते थे। क ाूँ व





माता, आये और दे खे अपने बालक की इस सुकी तद को। मुझे आशीवादद दो।

तुम् ारा व

श्ज़द्दी बालक आज एक नया जन्म ले र ा

ै।

उन् ोंने मालती के चरण दोनों तुम् ारा आदे श स्वीकार और दोनों एकांत की िारा ब ***

ाथ से पकड़ सलये और काूँपते ु ए बोले -ै मालती!

ोकर प्रगाढ़ आसलंगन में बूँि गये। दोनों की आूँखों से आूँसुओं

र ी थी।

34 सससलया का बालक अब दो साल का

ो र ा था और सारे गाूँव में दौड़ लगाता

था। अपने साथ एक ववधचत्र भाषा लाया था, और उसी में बोलता था, चा े कोई समझे या न समझे। उसकी भाषा में त, ल और घ की कसरत थी और स, र आहद वणद ग़ायब थे। उस भाषा में रोटी का नाम था ओटी, दघ ू का तूत, साग का छाग और कौड़ी का तौली। जानवरों की बोसलयों की ऐसी नक़ल करता ूँसते- ूँसते लोगों के पेट में बल पड़ जाता ककसी ने पूछा -- राम,ू कुत्ता कैसे बोलता

ै कक

ै। ै?

रामू गंभीर भाव से क ता -- भों-भों, और काटने दौड़ता। बबल्ली कैसे बोले? और रामू म्याूँव-म्याूँव करके आूँखें नकालकर ताकता और

पंजों से नोचता। बड़ा मस्त लड़का था। जब दे खो खेलने में मगन र ता , न खाने की सुधि थी, न पीने की। गोद से उसे धचढ़ थी। उसके सबसे सुखी क्षण व ोते, जब व

द्वार के नीम के नीचे मनों िल ू बटोर कर उसमें लोटता, ससर पर

चढ़ाता, उसकी ढे ररयाूँ लगाता, घरौंदे बनाता। अपनी उम्र के लड़कों से उसकी एक क्षण न पटती। शायद उन् ें अपने साथ खेलाने के योग्य कोई पूछता -- तुम् ारा नाम क्या चटपट क ता -- लामू।

'तम् ु ारे बाप का क्या नाम ै ?' 'मातादीन।' 'और तम् ु ारी माूँ का?' ' छसलया।' 'और दातादीन कौन ै ?'

ै?

ी न समझता था।

'व अमाला छाला ै ।' न जाने ककसने दातादीन से उसका य ख़ूब पटती थी। व

नाता बता हदया था। रामू और रूपा में

रूपा का णखलौना था। उसे उबटन मलती, काजल लगाती

न लाती, बाल सूँवारती, अपने

ाथों कौर-कौर बनाकर णखलाती, और कभी-कभी

उसे गोद में सलये रात को सो जाती। ि नया डाूँटती , तू सब कुछ छुआछूत ककये दे ती

ै ; मगर व

ससखाया था। व संतुष्ट न

ककसी की न सुनती। चीथड़े की गुडड़या ने उसे माता बनना

मात-ृ भावना का जीता-जागता बालक पाकर अब गुडड़यों से

ो सकती थी।

उसी के घर के वपछवाड़े ज ाूँ ककसी ज़माने में उसकी बरदौर थी , ोरी के खूँड र में सससलया अपना एक िूस का झोपड़ा डालकर र ने लगी थी।

ोरी के घर में

उम्र तो न ीं कट सकती थी। मातादीन को कई सौ रुपए ख़चद करने के बाद अंत में काशी के पंडडतों ने किर से ब्राह्मण बना हदया। उस हदन बड़ा भारी

वन

ु आ, ब ु त-से ब्राह्मणों ने भोजन ककया और ब ु त से मंत्र और कलोक पढ़े गये। मातादीन को शुि गोबर और गोमूत्र खाना-पीना पड़ा। गोबर से उसका मन पववत्र ो गया। मूत्र से उसकी आत्मा में अशुधचता के कीटाणु मर गये। लेककन एक

तर

से इस प्रायश्कचत ने उसे सचमुच पववत्र कर हदया।

कंु ड में उसकी मानवता नखर गयी और िमद-स्तंभों को अच्छी तर

वन के प्रचंड अश्ग्न-

वन की ज्वाला के प्रकाश से उसने

परख सलया।

उस हदन से उसे िमद के नाम से धचढ़ परु ोह ती को गंगा में डुबा हदया। अब व

ो गयी। उसने जनेऊ उतार िेंका और पक्का खे त र था। उसने य

भी दे खा

कक यद्यवप ववद्वानों ने उसका ब्राह्मणत्व स्वीकार कर सलया ; लेककन जनता अब भी उसके

ाथ का पानी न ीं पीती, उससे मु ू तद पूछती ै , साइत और लग्न का ववचार करवाती ै , उसे पवद के हदन दान भी दे दे ती ै , पर उससे अपने बरतन न ीं छुलाती। श्जस हदन सससलया के बालक का जन्म ु आ उसने दन ू ी मात्रा में भंग पी, और गवद से जैसे उसकी छाती तन गयी, और उूँ गसलयाूँ बार-बार मूँछ ू ों पर पड़ने लगीं। बच्चा कैसा

ोगा? उसी के जैसा? कैसे दे खे? उसका मन मसोसकर र

गया। तीसरे हदन रूपा खेत में उससे समली।

उसने पछ ू ा -- रुवपया, तन ू े सससलया का लड़का दे खा? रूवपया बोली -- दे खा क्यों न ीं। लाल-लाल में झबराले बाल

ैं, टुकुर-टुकुर ताकता

मातादीन के हृदय में जैसे व

ै।

ै ख़ूब मोटा, बड़ी-बड़ी आूँखें

बालक आ बैठा था, और

ैं , ससर

ाथ-पाूँव िेंक र ा था।

उसकी आूँखों में नशा-सा छा गया। उसने उस ककशोरी रूपा को गोद में उठा सलया, किर कंिे पर बबठा सलया, किर उतारकर उसके कपोलों को चूम सलया। रूपा बाल सूँभालती ु ई ढीठ ोकर बोली -- चलो, मैं तुमको दरू से हदखा दूँ ।ू ओसारे में ी तो ै । सससलया ब न न जाने क्यों रदम रोती र ती ै । मातादीन ने मूँु

िेर सलया। उसकी आूँखें सजल

ो आयी थीं, और ओठ काूँप र े

थे। उस रात को जब सारा गाूँव सो गया और पेड़ अंिकार में डूब गये, तो व

सससलया के द्वार पर आया और संपूणद प्राणों से बालक का रोना सुना, श्जसमें

सारी द ु नया का संगीत, आनंद और मािुयद भरा ु आ था। सससलया बच्चे को ोरी के घर में खटोले पर सल ु ाकर मजरू ी करने चली जाती। मातादीन ककसी-न-ककसी ब ाने से

ोरी के घर आता और कनणखयों से बच्चे को दे खकर अपना कलेजा

और आूँखें और प्राण शीतल करता। ि नया मुस्करा कर क ती -- लजाते क्यों काठ का कलेजा

ो, गोद में ले लो, प्यार करो, कैसा

ै तम् ु ारा। बबलकुल तम ु को पड़ा

ै।

मातादीन एक-दो रुपया सससलया के सलए िेंककर बा र नकल आता। बालक के साथ उसकी आत्मा भी बढ़ र ी थी, णखल र ी थी, चमक र ी थी। अब उसके जीवन का भी उद्दे कय था, एक व्रत था। उसमें संयम आ गया, गंभीरता आ गयी, दा यत्व आ गया। एक हदन रामू खटोले पर लेटा ु आ था। ि नया क ीं गयी थी। रूपा भी लड़कों का शोर सुनकर खेलने चली गयी। घर अकेला था। उसी

वक़्त मातादीन प ु ूँचा। बालक नीले आकाश की ओर दे ख-दे ख ाथ-पाूँव िेंक र ा था, ु मक र ा था, जीवन के उस उल्लास के साथ जो अभी उसमें ताज़ा था। मातादीन को दे खकर व

ूँस पड़ा। मातादीन स्ने -ववह्वल

बालक को उठाकर छाती से लगा सलया। उसकी सारी दे रोमांधचत

ो गया। उसने

और हृदय और प्राण

ो उठे , मानो पानी की ल रों में प्रकाश की रे खाएूँ काूँप र ी

ों। बच्चे

की ग री, नमदल, अथा , मोद-भरी आूँखों में जैसे उसके जीवन का सत्य समल गया। उसे एक प्रकार का भय-सा लगा, मानो व जाती

ो -- व

ककतना अपववत्र

ै , ईकवर का व

बालक को सशंक मन के साथ किर सलटा हदया। उसी वक़्त रूपा बा र से आ गयी और व

दृश्ष्ट उसके हृदय में चुभी प्रसाद कैसे छू सकता

ै । उसने

बा र नकल गया।

एक हदन ख़ूब ओले धगरे । सससलया घास लेकर बाज़ार गयी ु ई थी। रूपा अपने खेल में मग्न थी। रामू अब बैठने लगा था। कुछ-कुछ बकवाूँ चलने भी लगा था। उसने जो आूँगन में बबनौले बबछे दे खे, तो समझा, बतासे िैले

ु ए ैं। कई उठाकर खाये और आूँगन में ख़ूब खेला। रात को उसे ज्वर आ गया। दस ू रे हदन नमो नया

ो गया। तीसरे हदन संध्या समय सससलया की गोद में

ी बालक के

प्राण नकल गये। लेककन बालक मरकर भी सससलया के जीवन का केंद्र बना र ा। उसकी छाती में दि ू का उबाल-सा आता और आूँचल भींग जाता। उसी क्षण आूँखों से आूँसू भी नकल पड़ते। प ले सब कामों से छुट्टी पाकर रात को जब व

लगाकर स्तन उसके मूँु भर जाती। तब व

रामू को ह ये से

में दे दे ती तो मानो उसके प्राणों में बालक की स्िू तद

प्यारे -प्यारे गीत गाती, मीठे -मीठे स्वप्न दे खती और नये -नये

संसार रचती, श्जसका राजा रामू

ोता। अब सब कामों से छुट्टी पाकर व

अपनी

सूनी झोंपड़ी में रोती थी और उसके प्राण तड़पते थे, उड़ जाने के सलए, उस लोक में ज ाूँ उसका लाल इस समय भी खेल र ा

ोगा। सारा गाूँव उसके दःु ख में

शरीक था। रामू ककतना चोंचाल था, जो कोई बल ु ाता, उसी की गोद में चला जाता। मरकर और प ु ूँच से बा र ोकर व और भी वप्रय छाया उससे क ीं सुंदर, क ीं चोंचाल, क ीं लुभावनी थी। मातादीन उस हदन खल ु पड़ा। परदा रख हदये जाते

ोता



ो गया था, उसकी

वा के सलए। आूँिी में परदे उठाके

ैं कक आूँिी के साथ उड़ न जायूँ। उसने शव को दोनों

थेसलयों

पर उठा सलया और अकेला नदी के ककनारे तक ले गया, जो एक मील का पाट छोड़कर पतली-सी िार में समा गयी थी। आठ हदन तक उसके सके। उस हदन व

ाथ सीिे न

ज़रा भी न ीं लजाया, ज़रा भी न ीं णझझका। और ककसी ने

कुछ क ा भी न ीं; बश्ल्क सभी ने उसके सा स और दृढ़ता की तारीफ़ की।



ोरी ने क ा -- य ी मरद का िरम

ै । श्जसकी बाूँ

पकड़ी, उसे क्या छोड़ना!

ि नया ने आूँखें नचाकर क ा -- मत बखान करो, जी जलता ऐसे मरद को नामरद क ती ू ूँ । जब बाूँ सससलया ब्राह्मणी ो गयी थी ?

ै। य

मरद

ै ? मैं

पकड़ी थी, तब क्या दि ू पीता था कक

एक म ीना बीत गया। सससलया किर मजूरी करने लगी थी। संध्या

ो गयी थी।

पूणमादसी का चाूँद वव ूँसता-सा नकल आया था। सससलया ने कटे

ु ए खेत में से धगरे ु ए जौ के बाल चन ु कर टोकरी में रख सलये थे और घर जाना चा ती थी कक चाूँद पर नगा पड़ गयी और ददद -भरी स्मृ तयों का मानो स्रोत खुल गया। अंचल दि ू से भींग गया और मुख आूँसुओं से। उसने ससर लटका सलया और जैसे रुदन का आनंद लेने गयी। स सा ककसी की आ ट पाकर व मातादीन पीछे से आकर सामने खड़ा जायगी सससलया! रोने से व य

क ते-क ते व

वपघल गये।

चौंक पड़ी।

ो गया और बोला -- कब तक रोये

किर तो न आ जायगा।

ख़द ु रो पड़ा। सससलया के कंठे में आये

ु ए भत्सदना के शब्द

आवाज़ सूँभालकर बोली -- तुम आज इिर कैसे आ गये? मातादीन कातर

ोकर बोला -- इिर से जा र ा था। तुझे बैठा दे खा, चला आया।

'तुम तो उसे खेला भी न पाये।' 'न ीं सससलया, एक हदन खेलाया था।' 'सच?' 'सच!' 'मैं क ाूँ थी?' 'तू बाज़ार गयी थी।'

'तुम् ारी गोद में रोया न ीं?' 'न ीं सससलया, ूँसता था।' 'सच?' 'सच!' 'बस एक ी हदन खेलाया?' ' ाूँ एक ी हदन; मगर दे खने रोज़ आता था। उसे खटोले पर खेलते दे खता था और हदल थामकर चला जाता था।'

'तम् ु ीं को पड़ा था।' 'मुझे तो पछतावा ोता ै कक ना क़ उस हदन उसे गोद में सलया। य मेरे पापों का दं ड

ै ।'

सससलया की आूँखों में क्षमा झलक र ी थी। उसने टोकरी ससर पर रख ली और घर चली। मातादीन भी उसके साथ-साथ चला। सससलया ने क ा -- मैं तो अब ि नया काकी के बरौठे में सोती ू ूँ। अपने घर में अच्छा न ीं लगता।

'ि नया मुझे बराबर समझाती र ती थी। 'सच?' ' ाूँ सच। जब समलती थी समझाने लगती थी।' गाूँव के समीप आकर सससलया ने क ा -- अच्छा, अब इिर से अपने घर चले जाओ। क ीं पंडडत दे ख न लें । मातादीन ने गदद न उठाकर क ा -- मैं अब ककसी से न ीं डरता।

'घर से नकाल दें गे तो क ाूँ जाओगे?' 'मैंने अपना घर बना सलया ै ।' 'सच?' ' ाूँ, सच।' 'क ाूँ, मैंने तो न ीं दे खा।' 'चल तो हदखाता ू ूँ।' दोनों और आगे बढ़े । मातादीन आगे था। सससलया पीछे ।

ोरी का घर आ गया।

मातादीन उसके वपछवाड़े जाकर सससलया की झोपड़ी के द्वार पर खड़ा और बोला -- य ी

मारा घर

ै।

सससलया ने अववकवास, क्षमा, व्यंग और दःु ख भरे स्वर में क ा -- य चमाररन का घर

ो गया

तो सससलया

ै।

मातादीन ने द्वार की टाटी खोलते ु ए क ा -- य सससलया की आूँखें चमकने लगीं। बोली -- मंहदर

मेरी दे वी का मंहदर

ै।

ै तो एक लोटा पानी उूँ ड़ेलकर

चले जाओगे। मातादीन ने उसके ससर की टोकरी उतारते ु ए कंवपत स्वर में क ा -- न ीं सससलया, जब तक प्राण ै तेरी शरण में र ू ूँगा। तेरी ी पज ू ा करूूँगा।

'झूठ क ते ो।' 'न ीं, तेरे चरण छूकर क ता ू ूँ । सन ु ा, पटवारी का लौंडा भन ु ेसरी तेरे पीछे ब ु त पड़ा था। तूने उसे ख़ूब डाूँटा।' 'तुमसे ककसने क ा?'

'भन ु ेसरी आप ी क ता था।' 'सच?' ' ाूँ, सच।' सससलया ने हदयासलाई से कुप्पी जलाई। एक ककनारे समट्टी का घड़ा था, दस ू री

ओर चल् ू ा था, ज ाूँ दो-तीन पीतल और लो े के बासन मूँज-े िल ु े रखे थे। बीच में पुआल बबछा था। व ी सससलया का बबस्तर था। इस बबस्तर के ससर ाने की ओर रामू की छोटी खटोली जैसे रो र ी थी, और उसी के पास दो-तीन समट्टी के

ाथी-

घोड़े अंग-भंग दशा में पड़े ु ए थे। जब स्वामी ी न र ा तो कौन उनकी दे खभाल करता। मातादीन पुआल पर बैठ गया। कलेजे में ू क-सी उठ र ी थी; जी चा ता था, ख़ब ू रोये। सससलया ने उसकी पीठ पर मातादीन ने उसका

ाथ रखकर पूछा -- तुम् ें कभी मेरी याद आती थी?

ाथ पकड़कर हृदय से लगाकर क ा -- तू

रदम मेरी आूँखों

के सामने किरती र ती थी। तू भी कभी मुझे याद करती थी?

'मेरा तो तुमसे जी जलता था।' 'और दया न ीं आती थी?' 'कभी न ीं।' 'तो भुनेसरी ...।' 'अच्छा, गाली मत दो। मैं डर र ी ू ूँ , गाूँववाले क्या क ें गे।' 'जो भले आदमी ैं, व क ें गे य ी इसका िरम था। जो बुरे ैं उनकी मैं परवा न ीं करता।'

'और तुम् ारा खाना कौन पकायेगा।'

'मेरी रानी, सससलया।' 'तो ब्राह्मन कैसे र ोगे ?' 'मैं ब्राह्मण न ीं, चमार ी र ना चा ता ू ूँ। जो अपना िरम पाले व ी ब्राह्मण ै , जो िरम से मूँु मोड़े व ी चमार ै ।' सससलया ने उसके गले में बा ें डाल दीं। ***

35 ोरी की दशा हदन-हदन धगरती

ी जा र ी थी। जीवन के संघषद में उसे सदै व

ार

ु ई; पर उसने कभी ह म्मत न ीं ारी। प्रत्येक ार जैसे उसे भाग्य से लड़ने की शश्क्त दे दे ती थी; मगर अब व उस अं तम दशा को प ु ूँच गया था, जब उसमें आत्म-ववकवास भी न र ा था। अगर व कुछ आूँसू पुछते; मगर व

अपने िमद पर अटल र

सकता , तो भी

बात न थी। उसने नीयत भी बबगाड़ी, अिमद भी

कमाया, कोई ऐसी बुराई न थी, श्जसमें व

पड़ा न

ो; पर जीवन की कोई

असभलाषा न पूरी ु ई, और भले हदन मग ृ तष्ृ णा की भाूँ त दरू ी ोते चले गये , य ाूँ तक कक अब उसे िोखा भी न र गया था, झठ ू ी आशा की ररयाली और चमक भी अब नज़र न आती थी।

ारे

ु ए म ीप की भाूँ त उसने अपने को इन तीन बीघे के कक़ले में बंद कर सलया था और उसे प्राणों की तर बचा र ा था। फ़ाके स े , बदनाम ु आ, मज़ूरी की; पर कक़ले को ाथ से न जाने हदया; मगर अब व कक़ला भी ाथ से नकला जाता था। तीन साल से लगान बाक़ी पड़ा ु आ था और अब पश्डडत नोखेराम ने उस पर बेदख़ली का दावा कर हदया था। क ीं से रुपए समलने की आशा न थी। ज़मीन उसके

ाथ से नकल जायगी और उसके

जीवन के बाक़ी हदन मजूरी करने में कटें गे। भगवान ण की इच्छा! राय सा ब को क्या दोष दे ? असासमयों

घरों पर बेदख़ली आ र ी भाग्य में सख ु बदा

ो से उनका भी गुज़र

ै । इसी गाूँव पर आिे से ज़्यादा

ै ; आवे। औरों की जो दशा

ोता, तो लड़का यों

ोगी, व ी उसकी भी

ाथ से नकल जाता ? साूँझ

ोगा।

ो गयी थी।



इसी धचंता में डूबा बैठा था कक पंडडत दातादीन ने आकर क ा -- क्या ु आ ोरी, तुम् ारी बेदख़ली के बारे में ?

इन हदनों नोखेराम से मेरी बोल-चाल बंद पंद्र

हदन और र

गये

ैं।

ोरी ने उनके सलए खाट डालकर क ा -- व रुपए

ोते, तो य

ो और जो

दद ु द शा क्यों

ो भी, व

ै । कुछ पता न ीं। सुना, तारीख़ को

मासलक

ैं, जो चा ें करें ; मेरे पास

ोती। खाया न ीं, उड़ाया न ीं; लेककन उपज

ी न

कौडड़यों के मोल बबके, तो ककसान क्या करे ?

'लेककन जैजात तो बचानी ी पड़ेगी। नबा कैसे ोगा। बाप-दादों की इतनी ी नसानी बच र ी

ै। व

नकल गयी, तो क ाूँ र ोगे?'

'भगवान ण की मरज़ी ै , मेरा क्या बस!' 'एक उपाय ै जो तम ु करो।' ोरी को जैसे अभय-दान समल गया। इनके पाूँव पड़कर बोला -- बड़ा िरम म ाराज, तुम् ारे ससवा मेरा कौन

ै । मैं तो नरास

ोगा

ो गया था।

' नरास ोने की कोई बात न ीं। बस, इतना ी समझ लो कक सुख में आदमी का िरम कुछ और

ोता

ै , दख ु में कुछ और। सुख में आदमी दान दे ता

दःु ख में भीख तक माूँगता सरीर अच्छा र ता

ै तो

डालते; लेककन बीमार पथ्य लेते

ै । उस समय आदमी का य ी िरम

म बबना असनान-पज ू ा ककये मूँु

ो जाते

ै , मगर

ो जाता

ै।

में पानी भी न ीं

ैं , तो बबना न ाये-िोये, कपड़े प ने, खाट पर बैठे

ैं। उस समय का य ी िरम

ै । य ाूँ

ममें -तुममें ककतना भेद

ै;

लेककन जगन्नाथपुरी में कोई भेद न ीं र ता। ऊूँचे-नीचे सभी एक पंगत में बैठकर खाते

ैं। आपत्काल में श्रीरामचंद्र ने सेवरी के जूठे िल खाये थे, बासल को

छपकर वि ककया था। जब संकट में बड़े-बड़ों की मयाददा टूट जाती मारी-तम् ु ारी कौन बात ोरी ने नरुत्सा

ै ? रामसेवक म तो को तो जानते

ोकर क ा --

ै , तो

ो न?'

ाूँ, जानता क्यों न ीं।

'मेरा जजमान ै । बड़ा अच्छा ज़माना ै उसका। खेती अलग, लेन-दे न अलग। ऐसे रोब-दाब का आदमी

ी न ीं दे खा। कई म ीने ु ए उसकी औरत मर गयी ै । संतान कोई न ीं। अगर रुवपया का ब्या उससे करना चा ो , तो मैं उसे राज़ी

कर लूँ ।ू मेरी बात व बरु ा

औसर

कभी न टालेगा। लड़की सयानी

ै । क ीं कोई बात ै । लड़की का ब्या

ख़रच-वरच से बचे जाते रामसेवक का प्रस्ताव जीवन में

ोरी से दो

ो जाय, तो मूँु भी

ो।'

ो गयी

ै और ज़माना

में कासलख लग जाय। य

बड़ा अच्छा

ो जायगा , और तुम् ारे खेत भी बच जायूँगे। सारे

ी चार साल छोटा था। ऐसे आदमी से रूपा के ब्या

ी अपमानजनक था। क ाूँ िूल-सी रूपा और क ाूँ व

ोरी ने बड़ी-बड़ी चोट स ी थी, मगर य

करने

बूढ़ा ठूूँठ।

चोट सबसे ग री थी। आज

उसके ऐसे हदन आ गये

ैं कक उससे लड़की बेचने की बात क ी जाती

उसमें इनकार करने का सा स न ीं

ै और

ै । ग्ला न से उसका ससर झुक गया।

दातादीन ने एक समनट के बाद पूछा -- तो क्या क ते

ो?

ोरी ने साफ़ जवाब न हदया। बोला -- सोचकर क ू ूँगा।

'इसमें सोचने की क्या बात ै ?' 'ि नया से भी तो पूँछ ू लूँ ।ू ' 'तम ु राज़ी ो कक न ीं।' 'ज़रा सोच लेने दो म ाराज। आज तक कुल में कभी ऐसा न ीं ु आ। उसकी मरजाद भी तो रखना ै ।' 'पाूँच-छः हदन के अंदर मुझे जवाब दे दे ना। ऐसा न ो, तुम सोचते ी र ो और बेदख़ली आ जाय।'

दातादीन चले गये।

ोरी की ओर से उन् ें कोई अंदेशा न था। अंदेशा था ि नया

की ओर से। उसकी नाक बड़ी लम्बी मगर

ोरी

ाूँ कर ले तो व

तो मरजाद बबगड़ती

ै । चा े समट जाय , मरजाद न छोड़ेगी।

रो-िोकर मान

ी जायगी। खेतों के नकलने में भी

ै।

ि नया ने आकर पूछा -- पंडडत क्यों आये थे?

'कुछ न ीं, य ी बेदख़ली की बातचीत थी।' 'आूँसू पोंछने आये ोंगे, य तो न ोगा कक सौ रुपए उिार दे दें ।' 'माूँगने का मूँु भी तो न ीं।' 'तो य ाूँ आते ी क्यों ैं ?'

'रुवपया की सगाई की बात थी।' 'ककससे?' 'रामसेवक को जानती ै ? उन् ीं से।' 'मैंने उन् ें कब दे खा, ाूँ नाम ब ु त हदन से सुनती ू ूँ। व तो बूढ़ा ोगा।' 'बूढ़ा न ीं ै , ाूँ अिेड़ ै ।' 'तुमने पंडडत को िटकारा न ीं। मुझसे क ते तो ऐसा जवाब दे ती कक याद करते।'

'िटकारा न ीं; लेककन इनकार कर हदया। क ते थे, ब्या भी बबना ख़रच-बरच के ो जायगा; और खेत भी बच जायूँगे।'

'साफ़-साफ़ क्यों न ीं बोलते कक लड़की बेचने को क ते थे। कैसे इस बूढ़े का ह याव पड़ा?' लेककन

ोरी इस प्रकन पर श्जतना

ी ववचार करता, उतना

ी उसका दरु ाग्र

कम

ोता जाता था। कुल-मयादाद की लाज उसे कुछ कम न थी; लेककन श्जसे असाध्य

रोग ने ग्रस सलया सामने

ो, व

खाद्य-अखाद्य की परवा

कब करता

ै ? दातादीन के

ोरी ने कुछ ऐसा व प्रकट ककया था, श्जसे स्वीकृ त न ीं क ा जा सकता,

मगर भीतर से व तक़दीर के

ाथ

वपघल गया था। उम्र की ऐसी कोई बात न ीं। मरना-जीना

ै । बूढ़े बैठे र ते

ैं, जवान चले जाते

तो व ाूँ भी सुख उठायेगी; दख ु सलखा लड़की बेचने की तो कोई बात और

ाथ में रुपए आते

न ीं

ै । बेशक, उसमें समाई

ैं। रूपा को सुख सलखा

ै , तो क ीं भी सुख न ीं पा सकती और

ी न ीं।

ोरी उससे जो कुछ लेगा, उिार लेगा

ी चुका दे गा। इसमें शमद या अपमान की कोई बात ोती, तो व

रूपा का ब्या

ककसी जवान लड़के से

और अच्छे कुल में करता, द े ज भी दे ता, बरात के णखलाने-वपलाने में भी ख़ूब

हदल खोलकर ख़चद करता; मगर जब ईकवर ने उसे इस लायक़ न ीं बनाया , तो कुश-कन्या के ससवा और व ख़ाली

ूँसते

ै,

कर क्या सकता

ै ? लोग

ैं, और कोई मदद न ीं करते, उनकी

ूँसेंगे; लेककन जो लोग

ूँसी की व

क्यों परवा करे ।



मश्ु ककल य ी जायेगी। य अवसर

ै कक ि नया न राज़ी

ोगी। गिी तो



ी। व ी परु ानी लाज ढोये

कुल-प्र तष्ठा के पालने का समय न ीं, अपनी जान बचाने का

ै । ऐसी

ी बड़ी लाजवाली

ै , तो लाये, पाूँच सौ नकाले। क ाूँ िरे

हदन गुज़र गये और इस मामले पर उन लोगों में कोई बातचीत न ु ई। सांके तक भाषा में बातें करते थे। ि नया क ती -- वर-कन्या जोड़ के ोरी जवाब दे ता -- ब्या

ों तभी ब्या

आनंद का नाम न ीं

का आनन्द

ै पगली, य

ैं ? दो

ाूँ, दोनों

ै।

तो तपस्या

ै।

'चलो तपस्या ै ?' ' ाूँ, मैं क ता जो ू ूँ। भगवान ण आदमी को श्जस दशा में डाल दें , उसमें सख ु ी र ना तपस्या न ीं, तो और क्या ै ?' दस ू रे हदन ि नया ने वैवाह क आनंद का दस ू रा प लू सोच नकाला। घर में जब तक सास-ससरु , दे वरा नयाूँ-जेठा नयाूँ न

ों, तो ससरु ाल का सख ु

हदन तो लड़की ब ु ररया बनने का सुख पाये। ोरी ने क ा -- व

वैवाह क-जीवन का सुख न ीं, दं ड

ि नया तनक उठी -- तुम् ारी बातें भी नराली र े गी, न कोई आगे न कोई पीछे ।

ोती

ी क्या? कुछ

ै। ैं। अकेली ब ू घर में कैसे

ोरी बोला -- तू तो इस घर में आयी तो एक न ीं, दो-दो दे वर थे, सास थी, ससुर

था। तूने कौन-सा सुख उठा सलया, बता।

'क्या सभी घरों में ऐसे ी प्राणी ोते ैं ?' 'और न ीं तो क्या आकाश की दे ववयाूँ आ जाती ैं। अकेली तो ब ू । उस पर

ु कूमत करनेवाला सारा घर। बेचारी ककस-ककस को ख़ुश करे । श्जसका ु क्म न माने, व ी बैरी। सबसे भला अकेला।' किर भी बात य ीं तक र

गयी; मगर ि नया का पल्ला

लका

ोता जाता था।

चौथे हदन रामसेवक म तो ख़ुद आ प ु ूँच।े कलाूँ-रास घोड़े पर सवार, साथ एक नाई और एक णख़दमतगार, जैसे कोई बड़ा ज़मींदार ो। उम्र चालीस से ऊपर थी , बाल णखचड़ी

ो गये थे; पर चे रे पर तेज था, दे

गठी ु ई। ोरी उनके सामने बबलकुल बढ़ ू ा लगता था। ककसी मक़ ु दमे की पैरवी करने जा र े थे। य ाूँ ज़रा दोप री काट लेना चा ते र ी

ैं। िूप ककतनी तेज़

ै!

ै , और ककतने ज़ोरों की लू चल

ोरी स ु आइन की दक ू ान से गे ू ूँ का आटा और घी लाया। पूररयाूँ बनीं। तीनों मे मानों ने खाया। दातादीन भी आशीवादद दे ने आ प ु ूँच।े बातें ोने लगीं। दातादीन ने पूछा -- कैसा मुक़दमा

ै म तो?

रामसेवक ने शान जमाते ु ए क ा -- मुक़दमा तो एक न एक लगा ी र ता ै म ाराज! संसार में गऊ बनने से काम न ीं चलता। श्जतना दबो उतना ी लोग दबाते

ैं। थाना-पुसलस, कच री-अदालत सब

कोई न ीं करता। चारों तरफ़ लूट के सलए सभी तैयार र ते ै ; लेककन अपने

ैं

मारी रक्षा के सलए; लेककन रक्षा

ै । जो ग़रीब

ै , बेकस

ै , उसकी गरदन काटने

ैं। भगवान ण न करे कोई बेईमानी करे । य

बड़ा पाप

क़ और न्याय के सलए न लड़ना उससे भी बड़ा पाप

सोचो, आदमी क ाूँ तक दबे? य ाूँ तो जो ककसान

ै, व

ै । तुम् ीं

सबका नरम चारा

ै।

पटवारी को नज़राना और दस्तरू ी न दे , तो गाूँव में र ना मुश्ककल। ज़मींदार के चपरासी और काररंदों का पेट न भरे तो नवाद का नससहटबबल तो जैसे उसके दामाद ककसानों का िरम

ै कक व



ो। थानेदार और

ैं, जब उनका दौरा गाूँव में

ो जाय,

उनका आदर-सत्कार करें , नज़र-नयाज दें , न ीं एक

ररपोट में गाूँव का गाूँव बूँि जाय। कभी क़ानन ू गो आते

ैं , कभी त सीलदार, कभी

डडप्टी, कभी एजंट, कभी कलक्टर, कभी कसमसनर, ककसान को उनके सामने बाूँिे

ाथ

ाश्जर र ना चाह ए। उनके सलए रसद-चारे , अंडे-मुरग़ी, दि ू -घी का इंतज़ाम

करना चाह ए। तुम् ारे ससर भी तो व ी बीत र ी रोज़ नये-नये बढ़ते जाते

ै म ाराज! एक-न-एक

ैं। डाक्टर कुओं में दवाई डालने के सलए आने लगा

एक दस ू रा डाक्टर कभी-कभी आकर ढोरों को दे खता लेनेवाला इसवपट्टर

ाककम

ै , लड़कों का इम्त ान

ै , न जाने ककस-ककस म कमे के अफ़सर

ैं , न र के अलग,

जंगल के अलग, ताड़ी-सराब के अलग, गाूँव-सुिार के अलग खेती-ववभाग के अलग। क ाूँ तक धगनाऊूँ। पादड़ी आ जाता

ै।

ै , तो उसे भी रसद दे ना पड़ता

ै,

न ीं सशकायत कर दे । और जो क ो कक इतने म कमों और इतने अफ़सरों से

ककसान का कुछ उपकार

ोता

ो, नाम को न ीं। कभी ज़मींदार ने गाूँव पर



पीछे दो-दो रुपये चंदा लगाया। ककसी बड़े अफ़सर की दावत की थी। ककसानों ने दे ने से इनकार कर हदया। बस, उसने सारे गाूँव पर जािा कर हदया। ज़मींदार

ी का पच्छ करते

भी बाल-बच्चे िल

ैं। य

ाककम भी

न ीं सोचते कक ककसान भी आदमी

ैं, उनकी भी इज़्ज़त-आबरू

ै । और य

सब

ैं, उनके

मारे दब्बूपन का

ै । मैंने गाूँव भर में डोंड़ी वपटवा दी कक कोई बेसी लगान न दो और न

खेत छोड़ो, मको कोई कायल कर दे , तो तुम चा ो कक बेमूँु

म जािा दे ने को तैयार

के ककसानों को पीसकर पी जायूँ तो य



ैं ; लेककन जो ोगा। गाूँववालों

ने मेरी बात मान ली, और सबने जािा दे ने से इनकार कर हदया। ज़मींदार ने दे खा, सारा गाूँव एक

ो गया

ै , तो लाचार

ो गया। खेत बेदख़ल कर दे , तो जोते

कौन! इस ज़माने में जब तक कड़े न पड़ो , कोई न ीं सन ु ता। बबना रोये तो बालक भी माूँ से दि ू न ीं पाता।

रामसेवक तीसरे प र चला गया और ि नया और

ोरी पर न समटनेवाला असर

छोड़ गया। दातादीन का मंत्र जाग गया। उन् ोंने पूछा -- अब क्या क ते

ो?

ोरी ने ि नया की ओर इशारा करके क ा -- इससे पूछो।

' म तुम दोनों से पूछते ैं।' ि नया बोली -- उसमर तो ज़्यादा मंज़ूर

अच्छा और

ै । तक़दीर में जो सलखा

ै ; लेककन तुम लोगों की राय

ोगा, व

तो आगे आयेगा

ै , तो मुझे भी

ी; मगर आदमी

ै। ोरी को तो रामसेवक पर व ै। व

ववकवास

आदसमयों पर

ोता

आदमी उसका

ाथ पकड़ ले, तो बेड़ा पार

गोबर को भी बुलाना अश्ख़्तयार

ै। य

को भी बुलाना

शेख़ धचल्ली के-से मंसूबे बाूँिने लगा था। ऐसा

का मु ू तद ठीक ो गया। ोगा। अपनी तरफ़ से सलख दो, आने न आने का उसे

क ने को तो मूँु

ोगा।

ो गया था, जो दब द ों को जीवटवाले ु ल

ै । वववा

न र े कक तम ु ने मझ ु े बल ु ाया कब था? सोना

ि नया ने क ा -- गोबर तो ऐसा न ीं था, लेककन जब झु नया आने दे । परदे श जाकर ऐसा भूल गया कक न धचट्ठी न पत्री। न जाने कैसे -- य

क ते-क ते उसकी आूँखें सजल

ो गयीं।

गोबर को ख़त समला, तो चलने को तैयार न लगता था; पर इस अवसर पर कुछ क न जाना कैसे संभव

ै ! सोना के ब्या

ैं।

ो गया। झु नया को जाना अच्छा तो न सकी। ब न के ब्या

में भाई का

में न जाने का कलंक क्या कम

ै?

गोबर आद्रद कंठ से बोला -- माूँ बाप से णखंचे र ना कोई अच्छी बात न ीं अब

मारे

ाथ-पाूँव

ै।

ैं, उनसे णखंच लें , चा े लड़ लें ; लेककन जन्म तो उन् ीं ने

हदया, पाल-पोसकर जवान तो उन् ीं ने ककया, अब व

में चार बात भी क ें , तो

में ग़म खाना चाह ए। इिर मझ ु े बार-बार अम्माूँ-दादा की याद आया करती

ै।

उस बखत मुझे न जाने क्यों उन पर ग़स् ु सा आ गया। तेरे कारन माूँ-बाप को भी छोड़ना पड़ा।

झु नया तनक उठी -- मेरे ससर पर य

पाप न लगाओ, ाूँ! तम् ु ीं को लड़ने की

सझ ू ी थी। मैं तो अम्माूँ के पास इसने हदन र ी, कभी साूँस तक न सलया।

'लड़ाई तेरे कारन ु ई।' 'अच्छा मेरे ी कारन स ी। मैंने भी तो तुम् ारे सलए अपना घर-बार छोड़ हदया।'

'तेरे घर में कौन तझ ु े प्यार करता था। भाई बबगड़ते थे, भावजें जलाती थीं। भोला जो तुझे पा जाते तो कच्चा

'तुम् ारे

ी खा जाते।'

ी कारन।'

'अबकी जब तक र ें , इस तर र ें कक उन् ें भी श्ज़ंदगानी का कुछ सुख समले। उनकी मरज़ी के णख़लाफ़ कोई काम न करें । दादा इतने अच्छे डाूँटा तक न ीं। अम्माूँ ने कई बार मारा

ै ; लेककन व

ैं कक कभी मुझे

जब मारती थीं, तब कुछ-

न कुछ खाने को दे दे ती थीं। मारती थीं; पर जब तक मझ ु े न आता था।'

दोनों ने मालती से श्ज़क्र ककया। मालती ने छुट्टी सलए एक चखाद और

ूँसा न लें , उन् ें चैन

ी न ीं दी, कन्या के उप ार के

ाथों का कंगन भी हदया। व

ख़द ु जाना चा ती थी; लेककन

कई ऐसे मरीज़ उसके इलाज में थे, श्जन् ें एक हदन के सलए भी न छोड़ सकती थी।

ाूँ, शादी के हदन आने का वादा ककया और बच्चे के सलए णखलौनों का ढे र

लगा हदया। उसे बार-बार चूमती थी और प्यार करती थी, मानो सब कुछ पेशगी ले लेना चा ती

ै और बच्चा उसके प्यार की बबलकुल परवा न करके घर चलने

के सलए ख़श ु था, उस घर के सलए श्जसको उसने दे खा तक न था। उसकी बालकल्पना में घर स्वगद से भी बढ़कर कोई चीज़ थी।

गोबर ने घर प ु ूँचकर उसकी दशा दे खी तो ऐसा नराश ु आ कक इसी वक़्त य ाूँ से लौट जाय। घर का एक ह स्सा धगरने-धगरने ो गया था। द्वार पर केवल एक बैल बूँिा ु आ था, व भी नीमजान। ि नया और ोरी दोनों िूले न समाये; लेककन गोबर का जी उचाट था। अब इस घर के सूँभलने की क्या आशा ै ! व ग़ल ु ामी करता नौकर

ै ; लेककन भरपेट खाता तो

ै । केवल एक

ै । य ाूँ तो श्जसे दे खो, व ी रोब जमाता

करके अनाज पैदा करो और जो रुपए समलें , व राम करो। दादा

ी का कलेजा

स ा जाय। और य

दशा कुछ

ै कक य ोरी

ै । ग़ल ु ामी

वेदना

ै ; पर सूखी। मे नत

दस ू रों को दे दो। आप बैठे राम-

सब स ते

ैं। उससे तो एक हदन न

ी की न थी। सारे गाूँव पर य

थी। ऐसा एक आदमी भी न ीं, श्जसकी रोनी सूरत न जग

ी मासलक का तो

ी बैठी उन् ें कठपुतसलयों की तर

ववपश्त्त

ो, मानो उनके प्राणों की

नचा र ी

ो। चलते-किरते थे,

काम करते थे, वपसते थे, घट ु ते थे; इससलए कक वपसना और घट ु ना उनकी तक़दीर में सलखा था। जीवन में न कोई आशा सोते सूख गये जेठ के हदन ख़ुशी न ीं भें ट

ों और सारी

ै , न कोई उमंग, जैसे उनके जीवन के

ररयाली मुरझा गयी

ो।

ैं, अभी तक खसल ानों में अनाज मौजद ू

ै ; मगर ककसी के चे रे पर

ै । ब ु त कुछ तो खसल ान में ी तुलकर म ाजनों और काररंदों की ो चुका ै और जो कुछ बचा ै , व भी दस ू रों का ै । भववष्य अंिकार की

भाूँ त उनके सामने सशधथल

ो गयी

ै । उसमें उन् ें कोई रास्ता न ीं सूझता। उनकी सारी चेतनाएूँ

ैं। द्वार पर मनों कूड़ा जमा

ै दग ां उड़ र ी ु ि

ै ; मगर उनकी

नाक में न गंि

ै , न आूँखों में ज्यो त। सरे शाम द्वार पर गीदड़ रोने लगते

मगर ककसी को ग़म न ीं। सामने जो कुछ मोटा-झोटा आ जाता ैं, उसी तर

जैसे इंश्जन कोयला खा लेता

नाद में मूँु

खा लेते

ै । उनके बैल चन ू ी-चोकर के बग़ैर

न ीं डालते; मगर उन् ें केवल पेट में कुछ डालने को चाह ए। स्वाद

से उन् ें कोई प्रयोजन न ीं। उनकी रसना मर चुकी लोप

ै, व

ैं ;

ो गया

ै । उनके जीवन में स्वाद का

ै । उनसे िेले-िेले के सलए बेईमानी करवा लो, मट्ठ ु ी-भर अनाज के

सलए लाहठयाूँ चलवा लो। पतन की व को भी भूल जाता उनका आदी

इंत ा

ै , जब आदमी शमद और इज़्ज़त

ै । लड़कपन से गोबर ने गाूँवों की य ी दशा दे खी थी और

ो चुका था; पर आज चार साल के बाद उसने जैसे एक नयी

द ु नया दे खी। भले आदसमयों के साथ र ने से उसकी बुवि कुछ जग उठी उसने राजनै तक जलसों में पीछे खड़े

ै;

ोकर भाषण सन ु े

ैं और उनसे अंग-अंग

अपनी बुवि और सा स से इन आफ़तों पर ववजय पाना

ोगा। कोई दे वता, कोई

उठी

ै। व

में बबिा

ै । उसने सुना

ै और समझा

ै कक अपना भाग्य ख़ुद बनाना

ोगा,

गुप्त शश्क्त उनकी मदद करने न आयेगी। और उसमें ग री संवेदना सजग ै । अब उसमें व

उद्योग-शील

ो गया

प ले की उद्दंडता और ग़रूर न ीं

ै । श्जस दशा में पड़े

ोकर और क्यों बबगाड़ते

ो, उसे स्वाथद और लोभ के वश

इस दै वी बंिन को क्यों अपने तुच्छ स्वाथो में तोड़े डालते हदये

नम्र और

ो ? दःु ख ने तुम् ें एक सूत्र में बाूँि हदया

एकता का बंिन बना लो। इस तर



ै । बंिुत्व के

ो? उस बंिन को

के भावों ने उसकी मानवता को पंख -से लगा

ैं। संसार का ऊूँच-नीच दे ख लेने के बाद नष्कपट मनुष्यों में जो उदारता

आ जाती

ै, व

को अब व

अब मानो आकाश में उड़ने के सलए पंख िड़िड़ा र ी

कोई काम करते दे खता

ै , तो उसे

वपछले दव्ु यदव ार का प्रायश्कचत करना चा ता मत करो, सारा भार मुझ पर छोड़ दो, मैं अब

ै।

टाकर ख़ुद करने लगता

ो। क ता

ोरी

ै , जैसे

ै , दादा अब कोई धचंता

र म ीने ख़चद भेजूँग ू ा, इतने हदन

तो मरते-खपते र े कुछ हदन तो आराम कर लो; मुझे धिक्कार

ै कक मेरे र ते

तम् ु ें इतना कष्ट उठाना पड़े। और

ोरी के रोम-रोम से बेटे के सलए आशीवादद नकल जाता

जीणद दे

में दै वी स्िू तद का अनुभव

ोता

ै। व

ै । उसे अपनी

इस समय अपने क़रज़ का

ब्योरा क कर उसकी उठती जवानी पर धचंता की बबजली क्यों धगराये ? व से खाये-पीये, श्ज़ंदगी का सुख उठाये। मरने-खपने के सलए व

तैयार

आराम

ै। य ी

उसका जीवन

ै । राम-राम जपकर व

जी भी तो न ीं सकता। उसे तो िावड़ा

और कुदाल चाह ए। राम-नाम की माला िेरकर उसका धचत्त न शांत गोबर ने क ा -- क ो तो मैं सबसे कक़स्त बूँिवा लूँ ू और जाऊूँ। सब समलकर ककतना

ोगा।

र म ीने-म ीने दे ता

ोगा?

ोरी ने ससर ह लाकर क ा -- न ीं बेटा, तुम का े को तकलीफ़ उठाओगे। तुम् ीं

को कौन ब ु त समलते ैं। मैं सब दे ख लूँ ग ू ा। ज़माना इसी तर थोड़े ी र े गा। रूपा चली जाती ै । अब क़रज़ ी चक ु ाना तो ै । तम ु कोई धचंता मत करना। खाने-पीने का संजम रखना। अभी दे

बना लोगे, तो सदा आराम से र ोगे। मेरी

कौन? मुझे तो मरने-खपने की आदत पड़ गयी जोतना चा ता बेटा! मासलक अच्छा समल गया लोगे, तो आदमी बन जाओगे! व

ै । अभी मैं तुम् ें खेती में न ीं

ै । उसकी कुछ हदन सेवा कर

तो य ाूँ आ चुकी

ैं। साक्षात दे वी

ैं।

'ब्या के हदन किर आने को क ा ै । ' ' मारे ससर-आूँखों पर आयें। ऐसे भले आदसमयों के साथ र ने से चा े पैसे कम भी समलें ; लेककन ज्ञान बढ़ता उसी वक़्त पंडडत दातादीन ने

ै और आूँखें खल ु ती

ैं।'

ोरी को इशारे से बुलाया और दरू ले जाकर कमर

से सौ-सौ रुपये के दो नोट नकालते ु ए बोले -- तुमने मेरी सला मान ली, बड़ा अच्छा ककया। दोनों काम बन गये। कन्या से भी उररन ो गये और बाप-दादों की नशानी भी बच गयी। मझ ु से जो कुछ अब तुम जानो, तुम् ारा काम जाने। ोरी ने रुपए सलए तो उसका मूँु

ो सका, मैंने तुम् ारे सलए कर हदया,

ाथ काूँप र ा था, उसका ससर ऊपर न उठ सका,

से एक शब्द न नकला, जैसे अपमान के अथा

धगरता चला जाता

गढ़े में धगर पड़ा

ै और

ै । आज तीस साल तक जीवन से लड़ते र ने के बाद व

परास्त ु आ ै और ऐसा परास्त ु आ ै कक मानो उसको नगर के द्वार पर खड़ा कर हदया गया ै और जो आता ै , उसके मूँु पर थक ू दे ता ै । व धचल्ला-धचल्ला कर क की लू कैसी

ोती

ै , भाइयो मैं दया का पात्र ू ूँ मैंने न ीं जाना जेठ ै और माघ की वषाद कैसी ोती ै ? इस दे को चीरकर दे खो,

इसमें ककतना प्राण र

र ा

गया

ै , ककतना ज़ख़्मों से चूर, ककतना ठोकरों से कुचला

ू ो, कभी तन ू े ववश्राम के दशदन ककये, कभी तू छाूँ में बैठा। उस ु आ! उससे पछ पर य अपमान! और व अब भी जीता ै , कायर, लोभी, अिम। उसका सारा ववकवास जो अगाि ै।

ोकर स्थूल और अंिा

दातादीन ने क ा -- तो मैं जाता ू ूँ। न चले जाओ।

ो गया था, मानो टूक-टूक उड़ गया

ो, तो तुम इसी वखत नोखेराम के पास

ोरी दीनता से बोला -- चला जाऊूँगा म ाराज! मगर मेरी इज़्ज़त तम् ु ारे

ै।

***

ाथ

36 दो हदन तक गाूँव में ख़ूब िूमिाम र ी। बाजे बजे, गाना-बजाना ु आ और रूपा रो-िोकर बबदा ो गयी; मगर ोरी को ककसी ने घर से नकलते न दे खा। ऐसा छपा बैठा था, जैसे मूँु

में कासलख लगी

ो। मालती के आ जाने से च ल-प ल

और बढ़ गयी। दस ू रे गाूँवों की श्स्त्रयाूँ भी आ गयीं। गोबर ने अपने शील-स्ने सारे गाूँव को मुग्ि कर सलया

व्यव ार की याद न छोड़ आया

ै । ऐसा कोई घर न था, ज ाूँ व

से

अपने मीठे

ो। भोला तो उसके पैरों पर धगर पड़े। उनकी

स्त्री ने उसको पान णखलाये और एक रुपया बबदाई दी और उसका लखनऊ का पता भी पछ ू ा। कभी लखनऊ आयेगी तो उससे ज़रूर समलेगी। अपने रुपए की उससे चचाद न की।

तीसरे हदन जब गोबर चलने लगा, तो भरकर व

ोरी ने ि नया के सामने आूँखों में आूँसू

अपराि स्वीकार ककया, जो कई हदन से उसकी आत्मा को मथ र ा

था, और रोकर बोला -- बेटा, मैंने इस ज़मीन के मो

से पाप की गठरी ससर

लादी। न जाने भगवान ण मुझे इसका क्या दं ड दें गे! गोबर ज़रा भी गमद न ु आ, ककसी प्रकार का रोष उसके मूँु पर न था। श्रिाभाव से बोला -- इसमें अपराि की तो कोई बात न ीं ै दादा, ाूँ रामसेवक के रुपए अदा कर दे ना चाह ए। आणख़र तुम क्या करते

ो? मैं ककसी लायक़ न ीं, तुम् ारी

खेती में उपज न ीं, करज़ क ीं समल न ीं सकता, एक म ीने के सलए भी घर में भोजन न ीं। ऐसी दशा में तुम और कर

ी क्या सकते थे? जैजात न बचाते तो

र ते क ाूँ? जब आदमी का कोई बस न ीं चलता, तो अपने को तक़दीर पर छोड़ दे ता

ै । न जाने य

िाूँिली कब तक चलती र े गी। श्जसे पेट की रोटी

मयस्सर न ीं, उसके सलए मरजाद और इज़्ज़त सब ढोंग भी दस ू रों का गला दबाया

ोता, उनकी जमा मारी

ोते। तुमने कभी नी त को न ीं छोड़ा, य ोता तो या तो जेल में



ी तुमने

ोती, तो तुम भी भले आदमी

उसी का दं ड

ोता या िाूँसी पर गया

ै । औरों की तर ै । तुम् ारी जग

ोता। मझ ु से य

मैं

कभी बरदाकत

ोता कक मैं कमा-कमाकर सबका घर भरूूँ और आप अपने बाल-बच्चों के

साथ मूँु

में जाली लगाये बैठा र ू ूँ।

ि नया ब ू को उसके साथ भेजने पर राज़ी न ु ई। झु नया का मन भी अभी कुछ हदन य ाूँ र ने का था। तय ु आ कक गोबर अकेला ी जाय। दस ू रे हदन प्रातःकाल गोबर सबसे बबदा

ोकर लखनऊ चला।

ोरी उसे गाूँव के

बा र तक प ु ूँ चाने आया। गोबर के प्र त इतना प्रेम उसे कभी न ु आ था। जब गोबर उसके चरणों पर झुका, तो ोरी रो पड़ा, मानो किर उसे पुत्र के दशदन न ोंगे। उसकी आत्मा में उल्लास था, गवद था, संकल्प था। पुन्न से य

स्ने

पाकर व

तेजवान

ो गया

ै , ववशाल

ो गया

जो अवसाद-सा छा गया था, एक अंिकार-सा, ज ाूँ व था, व ाूँ अब उत्सा

ै और प्रकाश

ै।

श्रिा और

ै । कई हदन प ले उस पर अपना मागद भूल जाता

रूपा अपनी ससूराल में ख़ुश थी। श्जस दशा में उसका बालपन बीता था, उसमें पैसा सबसे क़ीमती चीज़ थी। मन में ककतनी सािें थीं, जो मन में र

गयी थीं। व

जवान

अब उन् ें परू ा कर र ी थी और रामसेवक अिेड़

ो गया था। रूपा के सलए व

ी घुट-घुटकर

ोकर भी

प त था, उसके जवान, अिेड़ या बूढ़े

से उसकी नारी-भावना में कोई अंतर न आ सकता था। उसकी य

ोने

भावना प त

के रं ग-रूप या उम्र पर आधश्रत न थी, उसकी बु नयाद इससे ब ु त ग री थी, कवेत परं पराओं की त में , जो केवल ककसी भूकंप से ी ह ल सकती थीं। उसका यौवन अपने आप

ी में मस्त था, व

ी ख़ुश

अपने

ी सलए अपना बनाव-ससंगार करती थी और

ोती थी। रामसेवक के सलए उसका दस ू रा रूप था। तब व

गहृ णी

बन जाती थी, घर के कामकाज में लगी ु ई। अपनी जवानी हदखाकर उसे लज्जा या धचंता में न डालना चा ती थी। ककसी तर की अपूणताद का भाव उसके मन में न आता था। अनाज से भरे

ु ए बखार और गाूँव से ससवान तक िैले ु ए खेत और द्वार पर ढोरों की क़तारें और ककसी प्रकार की अपण द ा को उसके ू त अंदर आने

ी न दे ती थीं। और उसकी सबसे बड़ी असभलाषा थी अपने घरवालों

की ख़ुशी दे खना। उनकी ग़रीबी कैसे दरू कर दे ? उस गाय की याद अभी तक उसके हदल में

री थी, जो मे मान की तर

चली गयी थी। व

आयी थी और सब को रोता छोड़कर

स्मृ त इतने हदनों के बाद अब और भी मद ृ ु

ो गयी थी।

अभी उसका नजत्व इस नये घर में न जम पाया था। व ी परु ाना घर उसका

अपना घर था। व ीं के लोग अपने आत्मीय थे , उन् ीं का दःु ख उसका दःु ख और उन् ीं का सुख उसका सुख था। इस द्वार पर ढोरों का एक रे वड़ दे खकर उसे व षद न

ो सकता था, जो अपने द्वार पर एक गाय दे खकर

ोता। उस के दादा

की य उछा समाई

लालसा कभी परू ी न ु ई। श्जस हदन व गाय आयी थी, उन् ें ककतना ु आ था, जैसे आकाश से कोई दे वी आ गयी ो। तब से किर उन् ें इतनी

ी न ु ई कक कोई दस ू री गाय लाते, पर व जानती थी, आज भी व लालसा ोरी के मन में उतनी ी सजग ै । अबकी य जायगी , तो साथ व िौरी गाय ज़रूर लेती जायगी। न ीं, अपने आदमी से क्यों न भेजवा दे । रामसेवक से पछ ू ने की दे र थी। मंज़रू ी

ो गयी, और दस ू रे हदन एक अ ीर के

मारफ़त रूपा ने गाय भेज दी। अ ीर से क ा, दादा से क पीने के सलए भेजी

ै।

ोरी भी गाय लेने की कफ़क्र में था। यों अभी उसे गाय

की कोई जल्दी न थी; मगर मंगल य ीं रुपए समलते

ी व का

ै और बबना दि ू के कैसे र

सकता

ै!

सबसे प ले गाय लेगा। मंगल अब केवल उसका पोता न ीं

ै , केवल गोबर का बेटा न ीं पालन उसी तर

दे ना, मंगल के दि ू

ै , मालती दे वी का णखलौना भी

ै । उसका लालन-

ोना चाह ए। मगर रुपये क ाूँ से आयें।

संयोग से उसी हदन एक ठीकेदार ने सड़क के सलए गाूँव के ऊसर में कंकड़ की खद ु ाई शुरू की।

ोरी ने सन ु ा तो चट-पट व ाूँ जा प ु ूँचा, और आठ आने रोज़ पर खुदाई करने लगा; अगर य काम दो म ीने भी हटक गया, तो गाय भर को रुपए समल जायूँगे। हदन-भर लू और िूप में काम करने के बाद व

घर आता, तो

बबलकुल मरा ु आ; पर अवसाद का नाम न ीं। उसी उत्सा से दस ू रे हदन काम करने जाता। रात को भी खाना खा कर डडब्बी के सामने बैठ जाता, और सुतली

कातता। क ीं बार -एक बजे सोने जाता। ि नया भी पगला गयी थी, उसे इतनी मे नत करने से रोकने के बदले ख़ुद उसके साथ बैठी-बैठी सुतली कातती। गाय तो लेनी



बड़ी धचंता

ै , रामसेवक के रुपए भी तो अदा करने

ै । रात के बार

गया

ै । उसे

बज गये थे। दोनों बैठे सुतली कात र े थे।

ि नया ने क ा -- तुम् ें नींद आती करना

ैं। गोबर क

ो तो जाके सो र ो। भोरे किर तो काम

ै।

ोरी ने आसमान की ओर दे खा -- चला जाऊूँगा। अभी तो दस बजे सो र ।

'मैं तो दोप र को छन-भर पौढ़ र ती ू ूँ।' 'मैं भी चबेना करके पेड़ के नीचे सो लेता ू ूँ।'

ोंगे। तू जा,

'बड़ी लू लगती ोगी।' 'लू क्या लगेगी? अच्छी छाूँ

ै ।'

'मैं डरती ू ूँ , क ीं तुम बीमार न पड़ जाओ।' 'चल; बीमार व पड़ते ैं, श्जन् ें बीमार पड़ने की फ़ुरसत ोती ै । य ाूँ तो य िुन ै कक अबकी गोबर आये, तो रामसेवक के आिे रुपए जमा र ें । कुछ व भी लायेगा। बस इस साल इस ररन से गला छूट जाय, तो दस ू री श्ज़ंदगी

ो।'

'गोबर की अबकी बड़ी याद आती ै । ककतना सश ु ील ो गया ै । चलती बेर पैरों पर धगर पड़ा।' 'मंगल व ाूँ से आया तो ककतना तैयार था। य ाूँ आकर दब ु ला ो गया ै ।' 'व ाूँ दि ू , मक्खन, क्या न ीं पाता था? य ाूँ रोटी समल जाय व ी ब ु त ै । ठीकेदार से रुपए समले और गाय लाया।' 'गाय तो कभी आ गयी ोती, लेककन तुम जब क ना मानो। अपनी खेती तो सूँभाले न सूँभलती थी, पु नया का भार भी अपने ससर ले सलया।'

'क्या करता, अपना िरम भी तो कुछ ै । ीरा ने नालायक़ी की तो उसके बालबच्चों को सूँभालनेवाला तो कोई चाह ए ी था। कौन था मेरे ससवा, बता? मैं न मदद करता, तो आज उनकी क्या ग त मूँगरू ने उस पर नासलश कर

ोती, सोच। इतना सब करने पर भी तो

ी दी।'

'रुपए गाड़कर रखेगी तो क्या नासलश न ोगी?' 'क्या बकती ै । खेती से पेट चल जाय य ी ब ु त ै । गाड़कर कोई क्या रखेगा।' ' ीरा तो जैसे संसार ी से चला गया।' 'मेरा मन तो क ता ै कक व आवेगा, कभी न कभी ज़रूर।'

दोनों सोये।

ोरी अूँिेरे मूँु

उठा तो दे खता

ै कक

ीरा सामने खड़ा

ै , बाल बढ़े

ु ए, कपड़े तार-तार, मूँु सूखा ु आ, दे में रक्त और मांस का नाम न ीं, जैसे क़द भी छोटा ो गया ै । दौड़कर ोरी के क़दमों पर धगर पड़ा। ोरी ने उसे छाती से लगाकर क ा -- तुम तो बबलकुल घुल गये

आये? आज तुम् ारी बार-बार याद आ र ी थी। बीमार आूँखों में व

ीरा! कब

ो क्या? आज उसकी

ीरा न था श्जसने उसकी श्ज़ंदगी तल्ख़ कर दी थी , बश्ल्क व

ीरा

था, जो बे-माूँ-बाप का छोटा-सा बालक था। बीच के ये पचीस-तीस साल जैसे समट गये, उनका कोई धचन्

भी न ीं था।

ीरा ने कुछ जवाब न हदया। खड़ा रो र ा था। ोरी ने उसका से भूल-चूल

ाथ पकड़कर गद्गद कंठ से क ा -- क्यों रोते

ोती



ो भैया, आदमी

ै । क ाूँ र ा इतने हदन?

ीरा कातर स्वर में बोला -- क ाूँ बताऊूँ दादा! बस य ी समझ लो कक तम् ु ारे

दशदन बदे थे, बच गया। मेरे सामने खड़ी

त्या ससर पर सवार थी। ऐसा लगता था कक व

ै ; रदम, सोते-जागते, कभी आूँखों से ओझल न

गऊ

ोती। मैं पागल

ो गया और पाूँच साल पागल-खाने में र ा। आज व ाूँ से नकले छः म ीने ु ए। माूँगता-खाता किरता र ा। य ाूँ आने की ह म्मत न पड़ती थी। संसार को कौन मूँु हदखाऊूँगा। आणख़र जी न माना। कलेजा मज़बत ू करके चला आया। तुमने बाल-बच्चों को..।

ोरी ने बात काटी -- तुम ना क़ भागे। अरे , दारोग़ा को दस-पाूँच दे कर मामला

रफ़े-दफ़े करा हदया जाता और

ोता क्या?

'तुमसे जीते-जी उररन न ू ूँगा दादा।' 'मैं कोई ग़ैर थोड़े ू ूँ भैया।' ोरी प्रसन्न था। जीवन के सारे संकट, सारी नराशाएूँ मानो उसके चरणों पर लोट र ी थीं। कौन क ता

ै जीवन संग्राम में व

ारा

ै। य

उल्लास , य

गवद,



पल ु क क्या

ार के लक्षण

अस्त्र उसकी ववजय-पताकाएूँ ै।

ैं! इन् ीं

ारों में उसकी ववजय

ैं। उसकी छाती िूल उठी

ै । उसके टूटे -िूटे

ैं, मुख पर तेज आ गया

ीरा की कृतज्ञता में उसके जीवन की सारी सिलता मू तदमान

उसके बखार में सौ-दो-सौ मन अनाज भरा गड़े

ोते, पर उससे य

ोता, उसकी

ाूँड़ी में

ो गयी

ज़ार-पाूँच सौ

स्वगद का सुख क्या समल सकता था?

ीरा ने उसे ससर से पाूँव तक दे खकर क ा -- तुम भी तो ब ु त दब ु ले दादा! ोरी ने

ूँसकर क ा -- तो क्या य

श्जन् ें न ररन की सोच

ोता

मेरे मोटे

ै , कक सभी मोटे

ोने के हदन

ोता

ो गये

ैं ? मोटे व

ै , न इज़्ज़त का। इस ज़माने में मोटा

ै । सौ को दब ु ला करके तब एक मोटा

तो जब

ै।

ोते

ैं ,

ोना बे याई

ै । ऐसे मोटे पन में क्या सुख? सुख

ों। सोभा से भें ट ु ई?

'उससे तो रात को भेंट ो गयी थी। तुमने तो अपनों को भी पाला, जो तुमसे बैर करते थे, उनको भी पाला और अपना मरजाद बनाये बैठे

ो। उसने तो खेत-बारी

सब बेच-बाच डाली और अब भगवान ण ी जाने उसका नबा आज

ोरी खुदाई करने चला, तो दे

कैसे

ोगा?'

भारी थी। रात की थकान दरू न

ो पाई

थी; पर उसके क़दम तेज़ थे और चाल में नद्दवंद्वता की अकड़ थी। आज दस बजे

ी से लू चलने लगी और दोप र

ोते- ोते तो आग बरस र ी थी।

ोरी

कंकड़ के झौवे उठा-उठाकर खदान से सड़क पर लाता था और गाड़ी पर लादता था। जब दोप र की छुट्टी ु ई, तो व बेदम ो गया था। ऐसी थकन उसे कभी न ु ई थी। उसके पाूँव तक न उठते थे। दे भीतर से झल ु सी जा र ी थी। उसने न स्नान

ी ककया, न चबेना। उसी थकन में अपना अूँगोछा बबछाकर एक पेड़ के

नीचे सो र ा; मगर प्यास के मारे कंठ सूखा जाता

ै । ख़ाली पेट पानी पीना ठीक

न ीं। उसने प्यास को रोकने की चेष्टा की; लेककन प्र तक्षण भीतर की दा जाती थी। न र ा गया।

बढ़ती

एक मज़दरू ने बाल्टी भर रखी थी और चबेना कर र ा था।

ोरी ने उठकर एक

लोटा पानी खींचकर वपया और किर आकर लेट र ा ; मगर आिा घंटे में उसे क़ै ो गयी और चे रे पर मुददनी-सी छा गयी।

उस मज़दरू ने क ा -- कैसा जी



ोरी भैया?

ोरी के ससर में चक्कर आ र ा था। बोला -- कुछ न ीं, अच्छा ू ूँ। य

क ते-क ते उसे किर क़ै ु ई और ाथ-पाूँव ठं डे ोने लगे। य ससर में चक्कर क्यों आ र ा ै ? आूँखों के सामने जैसे अूँिेरा छाया जाता ै । उसकी आूँखें बंद

ो गयीं और जीवन की सारी स्मृ तयाूँ सजीव

ो- ोकर हृदय-पट पर

आने लगीं; लेककन बेक्रम, आगे की पीछे , पीछे की आगे, स्वप्न-धचत्रों की भाूँ त बेमेल, ववकृत और असंबि। व

सुखद बालपन आया जब व

गुश्ल्लयाूँ खेलता

था और माूँ की गोद में सोता था। किर दे खा, जैसे गोबर आया

ै और उसके पैरों

पर धगर र ा

ै । किर दृकय बदला, ि नया दल ु ह न बनी ु ई, लाल चूँद ु री प ने उसको भोजन करा र ी थी। किर एक गाय का धचत्र सामने आया, बबलकुल

कामिेनु-सी। उसने उसका दि ू द ु ा और मंगल को वपला र ा था कक गाय एक दे वी बन गयी और ..।

उसी मज़दरू ने किर पुकारा -- दोप री ढल गयी

ोरी, चलो झौवा उठाओ।

ोरी कुछ न बोला। उसके प्राण तो न जाने ककस-ककस लोक में उड़ र े थे।

उसकी दे

जल र ी थी, ाथ-पाूँव ठं डे

ो र े थे। लू लग गयी थी। उसके घर

आदमी दौड़ाया गया। एक घंटा में ि नया दौड़ी ु ई आ प ु ूँची। शोभा और ीरा पीछे -पीछे खटोले की डोली बनाकर ला र े थे। ि नया ने ोरी की दे छुई, तो उसका कलेजा सन से

ो गया। मुख काूँ त ीन

काूँपती ु ई आवाज़ से बोली -- कैसा जी

ो गया था।

ै तम् ु ारा?

ोरी ने अश्स्थर आूँखों से दे खा और बोला -- तुम आ गये गोबर? मैंने मंगल के

सलये गाय ले ली

ै। व

खड़ी

ै , दे खो।

ि नया ने मौत की सूरत दे खी थी। उसे प चानती थी। उसे दबे पाूँव आते भी दे खा था, आूँिी की तर

भी दे खा था। उसके सामने सास मरी , ससुर मरा, अपने

दो बालक मरे , गाूँव के पचासों आदमी मरे । प्राण में एक िक्का-सा लगा। व आिार श्जस पर जीवन हटका ु आ था, जैसे णखसका जा र ा था, लेककन न ीं य िैयद का समय ै , उसकी शंका नमल ै , लू लग गयी ै , उसी से अचेत ो गये ूद ैं।

उमड़ते ु ए आूँसुओं को रोककर बोली -- मेरी ओर दे खो, मैं ू ूँ , क्या मुझे न ीं प चानते। ोरी की चेतना लौटी। मत्ृ यु समीप आ गयी थी; आग द कनेवाली थी। िआ ुूँ ूँ

शांत

ो गया था। ि नया को दीन आूँखों से दे खा, दोनों कोनों से आूँसू की दो

बूँद ू ें ढुलक पड़ी।

क्षीण स्वर में बोला -- मेरा क ा सन ु ा माफ़ करना ि नयाूँ! अब जाता ू ूँ। गाय की लालसा मन में ी र गयी। अब तो य ाूँ के रुपए कक्रया-करम में जायूँगे। रो मत ि नया, अब कब तक श्जलायेगी? सब दद ु द शा तो और उसकी आूँखें किर बंद

ो गयीं। उसी वक़्त

ो गयी। अब मरने दे ।

ीरा और शोभा डोली लेकर

प ु ूँच गये। ोरी को उठाकर डोली में सलटाया और गाूँव की ओर चले। गाूँव में य ख़बर वा की तर िैल गयी। सारा गाूँव जमा ो गया। ोरी खाट पर पड़ा शायद सब कुछ दे खता था, सब कुछ समझता था; पर ज़बान बंद

ो गयी थी।

ाूँ, उसकी आूँखों से ब ते ु ए आूँसू बतला र े थे कक मो का बंिन तोड़ना ककतना कहठन ो र ा ै । जो कुछ अपने से न ीं बन पड़ा, उसी के दःु ख का नाम तो मो

ै । पाले

ु ए कतदव्य और नपटाये ु ए कामों का क्या मो ! मो तो उन अनाथों को छोड़ जाने में ै , श्जनके साथ म अपना कतदव्य न नभा सके; उन अिूरे मंसूबों में

ै , श्जन् ें

म न पूरा कर सके। मगर सब कुछ

समझकर भी ि नया आशा की समटती ु ई छाया को पकड़े ु ए थी। आूँखों से आूँसू धगर र े थे, मगर यंत्र की भाूँ त दौड़-दौड़कर कभी आम भन ू कर पना बनाती, कभी

ोरी की दे

में गे ू ूँ की भस ू ी की मासलश करती। क्या करे , पैसे न ीं ैं, न ीं ककसी को भेजकर डाक्टर बल ु ाती। ीरा ने रोते ु ए क ा -- भाभी, हदल कड़ा करो, गो-दान करा दो, दादा चले।

ि नया ने उसकी ओर तरस्कार की आूँखों से दे खा। अब व

हदल को और

ककतना कठोर करे ? अपने प त के प्र त उसका जो कमद ै , क्या व पड़ेगा? जो जीवन का संगी था उसके नाम को रोना और कई आवाज़ें आयीं --

उसको बताना

ी क्या उसका िमद ै ?

ाूँ गो-दान करा दो, अब य ी समय

ै।

ि नया यंत्र की भाूँ त उठी, आज जो सुतली बेची थी उसके बीस आने पैसे लायी और प त के ठं डे न गाय

ै , न ब छया, न पैसा। य ी पैसे

खाकर धगर पड़ी। ***

ाथ में रखकर सामने खड़े दातादीन से बोली -- म राज, घर में ैं, य ी इनका गो-दान

ै । और पछाड़